सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब Part 13

दस्यु स्थानवाचक मनुष्य नहीं, पापी, अधम और दुष्ट लोगो को कहते हैं, दसवे अध्याय का जवाब पार्ट 2
अब आक्षेपकर्ता के वैदिक ग्रंथो पर लगाए मनमाने आरोपों पर कुछ विचार करते हैं, आक्षेपकर्ता कहता है, काफ़िर मुशरिक आदि जो क़ुरान में शब्द हैं वो गुण वाचक हैं, लेकिन पिछली पोस्ट से आपको काफ़िर और मुशरिक के गुण वाचक होने का ज्ञान हो गया होगा, अब हम बात करते हैं, नास्तिक, दस्यु आदि शब्दों पर, क्योंकि आक्षेपकर्ता का कहना है की वेदो में भी दस्यु शब्द मिलते हैं जो काफ़िर मुशरिक आदि शब्दों का ही परिचायक है, इसलिए काफ़िर मुशरिक तो फिर भी गुण वाचक होने से सही हैं पर दस्यु आदि शब्द स्थानवाचक हैं, जो मनुष्य को मनुष्य से वैर करना सिखाते हैं।
अब आक्षेपकर्ता न जाने कहाँ से मनगढंत विचार उठाकर ले आते हैं, और काफ़िर मुशरिक शब्द जो अत्यंत घृणास्पद हैं मुस्लिम समाज और खासकर अल्लाह मियां के लिए, उनसे तो प्रेमभाव जागता है, और जो दस्यु आदि शब्द हैं वो मनुष्यता के खिलाफ हैं, आइये विचार करते हैं :
सर्वप्रथम नास्तिक शब्द को देखते हैं :
यदि विचार करके देखा जाए तो इस पूरी सृष्टि में नास्तिक कोई नहीं है, कुछ लोगो ने मिथ्य प्रपंच रच रखा है – क्योंकि नास्तिक उसे कभी नहीं कहते जो ईश्वर को नहीं मानता – और आज सर्वसाधारण ये प्रपंच – मिथ्या जाल फैला रखा है की जो ईश्वर को नहीं मानता वो नास्तिक।
बल्कि ये स्वयं से धोखा है – देखिये नास्तिक उसे कहते हैं जो वेद की निंदा करे। ईश्वर को मानने न मानने से नास्तिक आस्तिक का कोई लेना देना नहीं है।
वेद निंदकों नास्तिक
ये बहुत ही गूढ़ बात है – क्योंकि ईश्वर – से तात्पर्य एक ऐसी सत्ता से है जो सबसे बड़ी है – सबको नियंत्रित करती है। न्यायकारी है, और पूर्ण है – अपूर्ण नहीं।
अब देखते हैं कुछ तर्क :
हिन्दू : प्राय आस्तिक की श्रेणी में – जो अनेक ईश्वर और देवी देवताओ पर विश्वास रखते हैं।
मुस्लिम : ये भी आस्तिकों की श्रेणी में ही शुमार किये जाते हैं – क्योंकि ये एक अल्लाह, उसके अनेक रसूलो, फरिश्तो, क़यामत, जन्नत जहन्नम और हूरो गिल्मो आदि पर विश्वास रखते हैं।
ईसाई : ये भी आस्तिकों की श्रेणी में ही गिने जाते हैं। इनमे एक यहोवा, पुत्र ईसा, और पवित्र आत्मा, बपतिस्मा, फ़रिश्ते, बाइबिल, भेड़ बकरी, चरवाहा और ना जाने क्या अनगिनत तमाम बाते।
आदि अनेक मत सम्प्रदाय भी आस्तिक गिने जाते हैं। पर ध्यान देने वाली बात है –
हिन्दू पुराण पढ़ कर मुस्लिमो, ईसाइयो को मलेच्छ आदि बोलकर इनका नाश अपने ईश्वर से करवा कर खुद को धार्मिक और सबसे बड़े आस्तिक कहते हैं।
मुस्लिम कुरआन को पढ़कर – पूरी दुनिया को काफ़िर बताकर उसका गाला काटने को – उसकी बीवी बेटी को हरम में रखने को – उस काफ़िर के माल असबाब को लूटने को – पक्का मजहब और दीन की उम्दा तालीम बताकर जन्नत में हूरो के ख्वाब देखता है क्योंकि यही अल्लाह का बताया सही रास्ता है।
ईसाई – दुनिया के सबसे बड़े तथाकथित और स्वघोषित आस्तिक हैं। इनकी सबसे बड़ी समस्या है की अपने ईसाई बहुल देशो में अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति, मशीन, दवाई सब अपनाएंगे, मगर जब अपनी आस्तिकता को दूसरे देशो में बेचने जाएंगे तब दुनिया की तमाम बीमारियो का इलाज केवल ईसा की प्रार्थना और बपतिस्मा से होना जाता देंगे। खैर ये भी अपने को आस्तिक बताते हैं और अन्य मजहबी लोगो का धर्मान्तरण – मुस्लिमो की तरह करवाना इनका भी मजहबी अधिकार है।
अब समस्या ये है की सबसे बड़ा आस्तिक कौन ? इस चक्कर में सभी तरह के – हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आस्तिक मिलकर लड़ाई, दंगे नफरती शिक्षा आदि करते हैं और तमाम मनुष्यो को तकलीफ होती है, पूरी मानवता शर्मसार होती है, इस बात में कोई संशय नहीं की आज ये मजहबी उन्माद सबसे ज्यादा इस्लामी अनुयायियों में है। तो इस लिहाज से तो ये इस्लामी सबसे बड़े आस्तिक हुए ?
अब बात करे – जो ईश्वर को नहीं मानते – चाहे वो चार्वाक, बौद्धि, जैनी, कोई भी हो – हाँ ये सही है की ये ईश्वर को नहीं मानते मगर क्या ये सच है ?
बौद्धि – ये बुद्ध को ईश्वर या सबसे बड़ी शक्ति अथवा समाधी या मोक्ष प्राप्त करने वाली आत्मा को बुद्ध या ईश्वर मान लेते हैं। यानी यहाँ भी कोई एक बड़ी शक्ति पर विश्वास है।
जैनी : जितने भी तीर्थंकर हुए या द्वित्य श्रेणी व तृतीय श्रेणी के जितने जिन्न होते हैं – उन सबको ईश्वर मान लिया जाता है। क्योंकि जो मरने के बाद निर्वाण प्राप्त कर लेता है वो ईश्वर बन जाता है। यानी यहाँ भी किसी एक अथवा अनेक बड़ी शक्तियों पर विश्वास है।
अब अंत में बात करते हैं चार्वाक की :
यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थ है कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नही है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?
चार्वाक भी सुख को सबसे बड़ा मानते हैं, मोक्ष के बराबर – इसलिए ये भी एक बड़ी सत्ता जिसे सुख कहते हैं पर विश्वास करते हैं। क्योंकि सुख को ये चार्वाकी मोक्ष कहते हैं भले ही इसे प्राप्त करने के लिए अनेको मनुष्यो को दुःख प्राप्त हो। ये तथाकथित आस्तिकों के भी आस्तिक हैं। नास्तिक किस बात के ?
वेद निंदकों नास्तिक क्यों कहा जाता है ?
वेद – क़ुरान – बाइबिल – जिंद अवेस्ता भारतवर्षीय इतिहास के सम्बन्ध में इस विषय का महत्व – ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने में युक्तियाँ – आर्य्यावर्त के प्राचीन ऋषि मुनि तथा वर्तमान समय के करोड़ो पौराणिक भी “वेद” को ईश्वरीय ज्ञान मानते आये और मानते हैं, पारसी लोग “जिंद अवेस्ता” को मानते हैं, ईसाइयो का मत है की “बाइबिल” ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक है, मुसलमानो का यह सिद्धांत है की “कुरान” ईश्वरीय ज्ञान है। इन सब के कथन तो ठीक हो नहीं सकते अतः कुछ ऐसी परीक्षाये नियत करनी चाहिए जिन से उक्त कथनो के सत्यासत्य का निर्णय हो सके। अतः ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता सिद्ध हो गयी। अब विवेचनीय है की ईश्वरीय ज्ञान है कौन सा ?
परीक्षाये –
ईश्वरीय ज्ञान का पहला लक्षण यह है की वह अपने आप को ईश्वरीय ज्ञान कहे अर्थात उस के नाम से यह टपके की वह ज्ञान है न की पुस्तक। परमात्मा साकार तो है ही नहीं की वह बैठ कर पुस्तक लिखेगा, वह तो केवल हृदयो में ज्ञान का प्रकाश करता है।
“जिंद अवेस्ता” का अर्थ है “पवित्र लेख” अतः इस शब्दार्थ से सिद्ध होता है कि किसी धर्मात्मा पुरुष ने इसे लिखा है।
“बाइबिल” शब्द यूनानी धातु बिबलिया से निकला है जिस का अर्थ बहुत सी पुस्तके है। बाइबिल के दो भागो के नाम ऑलडटेस्टमेंट और नियुटेस्टामेंट है जो लातिनी धातु “टेस्टर” से निकलता है जिसका अर्थ साक्षी होना है। अतः इन धात्वर्थो से हम यह परिणाम निकाल सकते हैं की बहुत सी पुस्तको को जमा करके बाइबिल बनाई गयी थी और उस में जिन जिन घटनाओ का वर्णन है उस के लिए साक्षी भी एकत्रित की गयी थी। अस्तु इस के नाम से तो यही सिद्ध होता है की यह मनुष्य की बनाई हुई है, ईश्वर की नहीं। ईश्वर निराकार सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है अतः ईश्वर के विषय में यह नहीं कहा जा सकता की उस ने बहुत सी पुस्तके एकत्रित की अथवा साक्षी ढूंढने गया।
अलक़ुरआन एक संयुक्त शब्द है जो अरबी के दो शब्दों से बना है, एक “अल” जिसका अर्थ है “विशेष” दूसरा “कुरान” जो “किरतैअन” धातु से निकला है जिसका अर्थ “पढ़ना” है अतः अलक़ुरआन का अर्थ हुआ वह जो लेख विशेष प्रकार से पढ़ा जाये। इस से सिद्ध हुआ की अलक़ुरआन भी लिखी हुई पुस्तक का नाम है न की ईश्वर के ज्ञान का।
“वेद” “विद्” ज्ञाने धातु से निकला है। वेद का अर्थ है “ज्ञान”। यह किसी लेख वा पुस्तक का नाम नहीं प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो के कल्याणार्थ प्रकाशित किया है।
अतः ये सिद्ध है कि वेद किसी पुस्तक का नाम नहीं है, प्रत्युत उस ज्ञान का नाम है जो परमात्मा ने मनुष्यो का कल्याणार्थ प्रकाशित किया, इसलिए कहने का तात्पर्य यही है की अनेक लोग जो अनेक प्रकार से ईश्वर को मानते हैं, विश्वास करते हैं, मगर उस ईश्वर के विषय में जानते कभी नहीं, न ही जानना चाहते हैं, क्योंकि वो केवल मान्यता पर विश्वास करते हैं जिससे लड़ाई, झगड़ा, वैमनस्य और मानव समाज में दया के बदले, हिंसा का बोलबाला हो जाता है, यदि यही बात ईश्वर को जानकार, तब मानना लागू हो जाए तो कहीं भी अशांति नहीं दिखेगी चहु और शांति और दया भाव नजर आएगा। इसलिए पहले ईश्वर को जानो, तब मानो, क्योंकि बिना जाने ही मान लेना अन्धविश्वास है, और धर्म में अन्धविश्वास नहीं होना चाहिए, इसीलिए वेद निंदकों नास्तिक कहा जाता है। और ईश्वर का सच्चा स्वरुप वेद ज्ञान के माध्यम से ही जाना जाता है, क़ुरान बाइबिल आदि मजहबी ग्रंथो में केवल इतिहास की बाते हैं, जिससे ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता, अपितु इतिहास का ही अवलोकन हो सकता है वो भी क्षेत्रीय वा प्रांतीय इतिहास, परन्तु वेद आदि मानवी सृष्टि में प्रकाशित होता है, इससे वेद में इतिहास का ज्ञान नहीं अपितु, मानव मात्र के कल्याण का ज्ञान है।
अब दस्यु शब्द को देखते हैं :
आक्षेपकर्ता कहता है, दस्यु आदि शब्द स्थानवाचक लोगो के लिए प्रयुक्त हैं, जो आर्यावर्त की सीमा से बाहर रहते हैं, उन्हें दस्यु कहा जाता है, और ये गलत है। साथ ही दयानंदीय आस्था को जोड़कर हिन्दू समाज और आर्यो पर वेद का ज्ञान न होने का मनगढंत आरोप भी जड़ दिया, शायद आक्षेपकर्ता का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है क्योंकि जो आर्य समाज का सिद्धांत है, और जो ऋषि ने १० नियम बनाए हैं वे वेद और ऋषि प्रणीत ग्रन्थ आधारित हैं, जिनमे वेद का पढ़ना और पढ़ाना आर्यो का परम धर्म कहा गया है। लेकिन पूर्वाग्रही मानसिकता का बोध करवाते हुए, आक्षेपकर्ता केवल ऋषि दयानंद पर झूठे आरोप ही करते चले गए, शायद उन्हें आर्य समाज की कार्य पद्धति का समुचित अवलोकन नहीं किया तब बिना जाने ही आर्यो पर पुस्तक लिखना और ऋषि पर आक्षेप करना मानसिक दिवालियापन नहीं तो क्या है ?
आर्य दस्यु पृथक जातियों के न थे, दस्यु आर्यो में से थे जो धर्म कर्म न करने से, आचार भ्रष्ट होने से, बहिष्कृत और पतित समझे गए थे। दोनों शब्दों की व्युत्पत्तिये इसी की पुष्टि करती हैं, वेद और उत्तरकालीन वैदिक और संस्कृत साहित्य इसी बात को पुष्ट करता है, पारसियों की जिंदावस्था की भी इसमें साक्षी है। देखिये :
आर्य और दस्यु शब्द का अर्थ निरुक्त और सायण के अनुसार –
आर्य ईश्वर पुत्रः [निरुक्त 6.26) Arya Is The Son of Lord
आर्य ईश्वर पुत्र हैं
दस्युः दस्यतेः क्ष्यर्थादुपदस्पन्त्यस्मिन्नसा, उपदासयति कर्माणि।। [नि० 7.23]
दस्यु क्षयार्थक दस धातु से बनता है, दस्यु में रस रूप जाते हैं [अतः मेघ दस्यु है] और वह वैदिक कर्मो का नाश करता है
He destryos religious ceremonies
यानी धर्म द्वारा स्थापित मर्यादाओ का उल्लंघन करने वाला, नाश करने वाला, दस्यु है। यही बात आक्षेपकर्ता स्वयं भी अपनी पुस्तक में दस्यु शब्द के बाद (दुष्ट) लिखकर मानता है। अतः दुष्ट वो व्यक्ति है जो मर्यादाओ का उल्लंघन करे, दुष्ट को धर्म से जोड़ना ही मूर्खता है, क्योंकि मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)
(धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, शौच (स्वच्छता), इन्द्रियों को वश मे रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
अतः जो इनका नाश करता है, इन मर्यादाओ का उल्लंघन करता है, वह दुष्ट है, इसमें आचार्य सायण का प्रमाण भी है, देखिये :
आर्यम = अरणीयं सर्वेर्गन्तव्य्म। ऋ० 1.130.4
आर्यान विदुषोनुष्टातन।। ऋ० 1.51.8
उत्तमं वर्णे त्रैवर्णिकम्।। 3.34.9
आर्याय यज्ञादि कर्म कृते यजमानाय।। 6.25.2
आर्यार्याणि कर्मानुष्ठातृत्वेन श्रेष्ठानी।। 6.33.3
दस्यु :
दस्यु चोरं वृत्रं वा।। ऋ० 1.33.4
दस्यवः अनुष्ठातृणामुपक्षयितारः शत्रवः।। ऋ० 1.51.8
दासीः कर्मणामुपक्षयित्री र्विश्वः सर्वा विशः प्रजाः 6.25.2
दासाः कर्म हीनाः शत्रवः।। 6.60.6
दस्यवः अव्रताः।। 1.51.8
“दासं वर्ण शूद्रादिकम्” । “दस्यु मव्रतम्”
दासः कर्म करः शूद्रः, आर्यस्त्रै वर्णिकः।। 10.38.3
यास्क और सायण के किये अर्थो में आर्य और दस्यु के जातीयभेद होने की गंध भी नहीं। सभी जगह यज्ञादि कर्म करने वाले त्रैवर्णिक को आर्य्य कहा है और यज्ञादि कर्म न करने वाले, विघ्न डालने वाले, अव्रत व शूद्रादि को दस्यु और दास नाम दिए हैं।
कहने का अर्थ है जो लोकोपकार और जगत के लाभ के लिए किये जाने वाले कर्मो को नहीं करता, विघ्न डालता है, वो दुष्ट यानी दस्यु कहा जाता है।
भारतीय संविधान में भी चोर, ठग आदि शब्द वर्णित हैं, तो क्या प्रत्येक भारतीय चोर, ठग आदि सिद्ध होता है ? नहीं, क्योंकि किसी नागरिक को चोर, लुटेरा, ठग आदि तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कोई नागरिक ऐसा कोई कुकर्म न करे, ठीक ऐसे ही दस्यु उन्हें कहा गया जो अवैदिक कृत्य करते थे।
वैदिक साहित्य तथा संस्कृत साहित्य से तो यह बात और भी पुष्ट हो जाती है की दस्यु आर्यो की संतान थे, जो वैदिक कर्म न करने से पतित और बहिष्कृत समझे गए थे, पाश्चात्य विद्वान भी इसको मानते हैं, दस्यु जातियों में से बहुतसी क्षत्रिय जातीय थी। ऐतरेय, मनु, रामायण और महाभारत इसमें साक्षी हैं :
तस्य ह विश्वामित्र ………………………….. विश्वामित्रा दस्यूनां भूयिष्ठाः (ऐ० ब्रा० 7.18)
(सायण) विश्वामित्र ऋषि के एक सौ पुत्र थे, मधुच्छन्दस, प्रभृति पचास बड़े और पचास छोटे। जो बड़े थे उन्होंने कहना नहीं माना। विश्वामित्र ने उनको कहा की तुम्हारी संतान चाण्डलादी नीच जातियों की हो जाए। वही अंधृ, पुण्ड्र, शबर, पुलिंद, मुतिव आदि जातीय हैं, दस्यु जातियों में से बहुत सी विश्वामित्र की संतान हैं।
अतः सिद्ध है की दस्यु कर्म से हीन होकर, अमर्यादित जातियां हुई, जो भारत से बाहर जाकर बसी, इन्हे ही दस्यु कहा गया।
द्विज लोग दस्यु कैसे बन गए, इस विषय में मनु महाराज कहते हैं :
शनकै स्तुक्रियालोपादिमाः क्षत्रिय जातयः।
वृषलत्वं गता लोके ब्रह्मणादर्शनेन च ।। मनु १०:४३
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः ।पारदापह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः । । १०.४४ । ।
मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः ।म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः । । १०.४५ । ।
पौण्ड्र आदि १२ क्षत्रिय जातीय वैदिक क्रियाए भुला देने से, और ब्राह्मण लोगो से सम्बन्ध टूट जाने से शनै शनै शूद्र हो गयी और यही जातीय दस्यु हैं चाहे म्लेच्छ (विदेशी) भाषा बोले चाहे आर्यो की भाषा।
महाभारत 12.136.1 “दस्युनां निष्क्रियानां च क्षत्रियो हर्तु मर्हति।।
तस्मादपयद्देहाददान मश्रद्दधान भयजमा नमाहु रासुरोबत इति (छा० उ० अ० ८ ख. 8.5)
महाभारत शान्तिपर्व अध्याय १९८ में भीष्म कहते हैं।
हे राजन मैं तुम्हे एक कथा सुनाता हु जो उत्तर दिशा में मलेच्छों में हुई। मध्य देश का कोई ब्राह्मण किसी ब्राह्मण और वेदज्ञों से रहित पर समृद्ध ग्राम में भिक्षा लेने के लिए घुस गया। वहां एक धनी, धर्मात्मा, सच्चा, दानी वर्णव्यवस्था जानने वाला दस्यु रहता था। उसके घर पर जाकर ब्राह्मण ने भिक्षा मांगी। वह गौतम नामक ब्राह्मण मलेच्छ में रहते रहते उनके सन्निकर्ष से उन जैसा बन गया। उसी ग्राम में एक और ब्राह्मण आ निकला, और पहले ब्राह्मण को देख कर कहने लगा की तू तो मध्य देश का कुलीन ब्राह्मण था पर उससे दस्यु कैसे बन गया।
इस कथा से स्पष्ट हो जाता है की दस्यु कोई पृथक नस्ल के न थे आर्यो में से ही पतित लोग, या धार्मिक लोग भी जो पतितो के संग से पतित हो जाते थे, दस्यु कहानी लगते थे।
अब एक और दृष्टान्त लीजिये, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा की किस प्रकार ब्राह्मण माता पिता की संतान भ्रष्टाचारी होने से राक्षस यातुधान कहाने लगती है। पुलस्त्य ब्रह्मषि थे, द्विज थे (पुलस्त्यो नाम ब्रह्मषि ; पुलस्त्यो यत्र स द्विजः) उनका पुत्र विश्रवा भी उन जैसा योग्य था। पर विश्रवा के पुत्रो में से रावण, कुम्भकर्ण, भ्रष्टाचारी, अधार्मिक होने से राक्षस, दस्यु, अनार्य, यातुधान कहाने लगे, पर छोटा पुत्र विभीषण धर्मात्मा होने से आर्य ही रहा। ये तो रामायण की कथा से ही सिद्ध हो जाता है, की आर्यावर्त की सीमा से बाहर भी जो दस्यु, कर्म से द्विज और वेद धर्म के पालनहारी हो, वे भी आर्य ही कहाते थे, और आज भी ऐसा ही है, क्योंकि पाप, भ्रष्टाचार और अवैदिक कर्म से ही दस्यु कहाते हैं।
अतः आक्षेपकर्ता का आरोप की वेद में दस्यु, नास्तिक मलेच्छ आदि आर्यावर्त की सीमा से बाहर के लोगो को कहते हैं, ये खंडित होता है, मगर जो काफ़िर, मुशरिक आदि शब्द अल्लाह मियां द्वारा मनुष्य में मनुष्य की लड़ाई और झगड़ा, वैमनस्य फैलाते हैं, उनपर आक्षेपकर्ता का मौन या दृढ समर्थन, इंसानियत के लिए ठीक प्रतीत नहीं होता, अतः आक्षेपकर्ता को ऐसी विकृत मानसिकता और मनुष्य की मनुष्य में वैमनस्य फैलानी वाली घृणित सोच से बचना चाहिए।
आओ लौटो वेदो की ओर
नमस्ते

2 thoughts on “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब Part 13”

  1. agar koi 4 ved hai inko na pad paye ya inko na mane to kya ??

    kyunki kaki log hai jo ki bechare jo puri zindagi ved gyan se dur eh jate hai ?? unka kya ??

    1. समरसता का व्यवहार करना ही धर्म है
      यही आज्ञा हिया

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