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वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं। इतनी विरोधी हैं कि एक की उपस्थिति में दूसरी व्यवस्था का अस्तित्व नहीं रहता। इनके विभाजक मूलभूत अन्तर इस प्रकार हैं-

  1. वर्णव्यवस्था में बालक-बालिका या व्यक्ति किसी भी कुल में उत्पन्न होने के पश्चात् अपनी रुचियों, गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार किसी भी इच्छित वर्ण को ग्रहण कर सकता है, जबकि जातिव्यवस्था में जाति का माता-पिता से निर्धारण होने के कारण व्यक्ति किसी अन्य इच्छित जाति को ग्रहण नहीं कर सकता।
  2. वर्णव्यवस्था में वर्णों के निर्धारक तत्त्व गुण, कर्म, योग्यता होते हैं, जबकि जातिव्यवस्था में केवल जन्म ही जाति का निर्धारक तत्त्व होता है। वर्णव्यवस्था में जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था में जन्म का सर्वोच्च महत्त्व होता है।
  3. वर्णव्यवस्था में पद और व्यवसाय वंशानुगत होने अनिवार्य नहीं हैं, जबकि जातिव्यवस्था में ये अनिवार्य होते हैं।
  4. वर्णव्यवस्था में व्यक्ति की बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक क्षमताओं के विकास का स्वतन्त्र व खुला अवसर रहता है, जबकि जातिव्यवस्था में वह अवरुद्ध रहता है।
  5. वर्णव्यवस्था में असमानता के आधार पर ऊंच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्य आदि का भेदभाव नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था में इनका अस्तित्व उग्र या शिथिल रूप में अवश्य बना रहता है।
  6. वर्णव्यवस्था में जीवनभर वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता बनी रहती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहां एक बार जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त अनिवार्य रूप से उसी जाति में रहना पड़ता है।
  7. वर्णव्यवस्था में व्यक्ति निर्धारित कर्मों के न करने पर या उनके त्यागने पर वर्ण से अनिवार्यतः पतित हो जाता है, जबकि जातिव्यवस्था में अच्छा-बुरा कुछ भी करने पर उसी जाति का बना रहता है। जैसे-वर्णव्यवस्था में अनपढ़, मूढ़, चोर या डाकू को कभी ब्राह्मण वर्णस्थ नहीं माना जा सकता, जबकि जातिव्यवस्था में अनपढ, मूढ़, चोर या डाकू भी ब्राह्मण ही रहता है और वह उस पतित स्थिति में भी उच्च जातीयता का अभिमान रखता है।
  8. वर्णव्यवस्था में सवर्ण विवाह की प्राथमिकता होते हुए भी समान गुण-कर्म-योग्यता की कन्या से अन्य वर्ण में भी विवाह किया जा सकता है। मनु का कथन है-‘‘स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि’’ (2.238, 240)= ‘श्रेष्ठ स्त्री निनकुल से भी ग्रहण की जा सकती है।’ इस प्रकार वर्णव्यवस्था में अन्तर-वर्ण विवाह (अन्तर-जातीय विवाह) और सहभोज स्वीकार्य होते हैं। जातिव्यवस्था में ये दोनों ही स्वीकार्य नहीं होते।
  9. वर्णव्यवस्था स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक तथा स्वैच्छिक है, जबकि जातिव्यवस्था अस्वाभाविक, अमनोवैज्ञानिक और बलात् आरोपित है।
  10. वर्णव्यवस्था का व्यावहारिक क्षेत्र उदार एवं विस्तृत है, जबकि जातिव्यवस्था का संकीर्ण एवं सीमित।
  11. वर्णव्यवस्था समाज और राष्ट्र में सामुदायिक भावना एवं समरसता उत्पन्न कर दृढ़ता प्रदान करती है, जबकि जातिव्यवस्था विघटन पर विघटन पैदा करती है। जातिव्यवस्था का विघटन असीम है।
  12. वर्णव्यवस्था में शरीर, बुद्धि, मन का सामञ्जस्य बना रहता है, जबकि जातिव्यवस्था में इनका सामञ्जस्य होना सदा संभव नहीं होता।

शारीरिक रंग का वर्णों से सबन्ध : एक भ्रान्ति: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णों की संरचना-प्रक्रिया तथा वर्णव्यवस्था के इतिहास को न जानने-समझने वाले कुछ कथित लेखकों ने जाने या अनजाने में एक भ्रान्ति फैला दी है कि वर्णों का निर्धारण शरीर के वर्ण के आधार पर किया गया था, अथवा होता था। यह भ्रान्ति जिन संदर्भों के आधार पर उत्पन्न हुई है उनको गभीरता से न तो समझा गया है और न उस पर चिन्तन किया गया है। यदि किसी संस्कृत के ग्रन्थ में भी यह बात कही गयी है तो वह भी मिथ्या चिन्तन का परिणाम है।

वस्तुतः, जहां कहीं वर्णों के संदर्भ में शारीरिक वर्णों (रंगों) की चर्चा है वह केवल प्रतीकात्मक है। यह प्रतीकात्मकता पुराकाल में भी रही है और आज भी है। जैसे, तिरंगे ध्वज में तीनों रंग एक-एक विशेषता के प्रतीक हैं। केसरिया त्याग का, सफेद शान्ति का, हरा समृद्धि का प्रतीक है। काला धन, सफेद धन, लाल झंडा, पीत पत्रकारिता, सड़कों पर लगी तीन रंगों की बत्तियां, गाड़ियों पर लगी लाल-पीली हरी बत्तियां आदि सभी प्रतीक हैं किसी भाव या गुण की। आज भी जब यह कहा जाता है कि ‘यह आदमी काले दिल का है’ या ‘बड़ा काला है’ तो उसका अभिप्राय शरीर के रंग से नहीं होता अपितु उसकी प्रकृति की विशेषता को व्यक्त करता है। इसी प्रकार चारों वर्णों की मूल प्रकृति को कभी-कभी रंगों की प्रतीकात्मकता के द्वारा व्यक्त किया जाता रहा है। वहां वर्णानुसार शरीर के रंग से अभिप्राय नहीं है।

वर्णों के साथ शरीर के रंगों का सबन्ध इतिहास-परपरा से भी गलत सिद्ध होता है। विष्णु, लक्ष्मण गौरवर्ण थे, फिर भी क्षत्रिय थे। शिव, राम, कृष्ण, काले रंग के थे, किन्तु क्षत्रिय थे। महर्षि वेदव्यास गहरे काले रंग के थे, किन्तु ब्राह्मण थे। ऐसे अनेक उदाहरण पाये जाते हैं। अतः यह बात सर्वथा गलत है कि रंग के आधार कभी वर्ण-निश्चय किया जाता था। यह संभव भी नहीं है। मनु ने सपूर्ण मनुस्मृति में रंग-आधारित वर्णव्यवस्था के निर्माण की कहीं चर्चा भी नहीं की है। उन्होंने केवल गुण-कर्म-योग्यता को वर्णनिर्धारण का आधार माना है।

महाभारत में जो श्लोक वर्णों के रंग का वर्णन कर रहा है, वह प्रतीकात्मक है। वहां यह कहा गया है कि पहले एक वर्ण ब्राह्मण वर्ण ही था। सभी ब्राह्मण थे। उनमें से रक्तवर्ण क्षत्रिय बने, पीत वैश्य बने, कृष्णवर्ण शूद्र बने। ‘वर्णों (रंगों) के आधार पर वर्ण बने,’ इसका सही अभिप्राय यह स्पष्ट हो रहा है कि स्वभावगत विशेषताओं के आधार पर उनमें से अन्य वर्ण बने। यदि उन श्लोकों का प्रतीकार्थ नहीं मानेंगे तो पहले-पिछले श्लोकों में विरोध उपस्थित होगा। पहले श्लोक में सभी ब्राह्मण-वर्णस्थों को ‘उजले’ रंग का कहा है। जब सभी उजले-गोरे रंग के थे तो उनमें से लाल, पीले, काले कहां से उत्पन्न हो गये? इस विरोध का समाधान प्रतीकार्थ द्वारा ही संभव है। वह श्लोक यह है-

ब्राह्मणानां सितो वर्णः क्षत्रियाणां च लोहितः।

वैश्यानां पीतको वर्णः शूद्राणामसितं तथा॥

(महाभारत, शान्तिपर्व 188.5 तथा आगे)

    अर्थ-‘ब्राह्मणों का उजला (गोरा) रंग है। क्षत्रियों का लाल रंग है। वैश्यों का पीला रंग है। शूद्रों का असित=काला या मैला रंग है।’ यहां सफेद या उजला रंग ज्ञान का, लाल रंग वीरता का, पीला समृद्धि का, और काला अज्ञान का प्रतीक है। आज भी इन विशेषताओं के प्रतीक यही रंग हैं। चारों वर्णों की यह प्रतीकात्मकता ही आधारभूत विशेषता है।

इसकी पुष्टि में एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण उपलध है। शाल्मलि द्वीप नामक देश में तो चारों वर्णों के नाम ही रंगों की प्रतीकात्मकता के आधार पर प्रचलित थे-

शाल्मले ये तु वर्णाश्च वसन्ति ते महामुने॥

कपिलाश्चारुणाः पीताः कृष्णाश्चैव पृथक्-पृथक्।

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चैव यजन्ति ते॥

(विष्णुपुराण 2.4.12, 13)

    अर्थ-यहां ब्राह्मणों का सफेद के स्थान पर भूरा रंग बताया है। कहा है-‘शाल्मलि द्वीप में ब्राह्मणों का कपिल, क्षत्रियों का अरुण, वैश्यों का पीत और शूद्रों का कृष्ण नाम प्रचलित है। वे चारों वर्ण यज्ञानुष्ठान करते हैं।’

भागवतपुराण के निम्नलिखित श्लोक में तो कृष्ण रंग को शूद्र के पर्याय-रूप में ही प्रयुक्त किया है। जो यह सिद्ध करता है कि यह लाक्षणिक नाम है-

‘‘ब्रह्माननं क्षत्रभुजो महात्मा विडूरूरङ्घिश्रितः कृष्णवर्णः’’

(2.1.37)

    अर्थात्-‘उस महान् पुरुष के मुख में ब्राह्मण वर्ण, भुजाओं में क्षत्रिय वर्ण, जंघाओं में वैश्य और चरणों में कृष्णवर्ण अर्थात् शूद्र वर्ण का निवास है।’ यहां स्पष्ट हो रहा है कि वर्णों की मुय प्रकृति के आधार पर यह रंग-आधारित नामकरण प्रचलित हुआ। आज भी व्यक्तियों के कपिल, अरुण, कृष्ण नाम प्रायः मिलते हैं, वस्तुतः वे भूरे, लाल, काले नहीं होते। वहां लाक्षणिक प्रतीकार्थ ही अभिप्रेत हुआ करता है। अतः पाठकों को रंग-आधारित वर्णव्यवस्था की भ्रान्ति में नहीं पड़ना चाहिए। ऐसी भ्रान्ति से ग्रस्त लेखक, बुद्धिमानों में साहित्यज्ञान से रहित और विचारशून्य माने जाते हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म की उपेक्षा: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था सामाजिक और प्रशासनिक दोनों व्यवस्थाओं का मिला-जुला रूप थी, जो मृत्युपर्यन्त व्यवहृत होती थी, किन्तु यह निर्विवाद रूप से सुनिश्चित है कि वह जन्म के आधार पर निर्णीत नहीं होती थी। ‘जन्म’ उसका निर्णायक तत्त्व नहीं था। वर्णव्यवस्था में ‘जन्म’ गौण अथवा उपेक्षित तत्त्व था। उसकी जातिव्यवस्था से कुछ भी समानता नहीं थी। अतः उसकी जातिव्यवस्था से तुलना करना न्यायसंगत नहीं है। जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें वर्णव्यवस्था के वास्तविक या यथार्थ स्वरूप का सही ज्ञान नहीं है या वे सही स्थिति को स्वीकार करना नहीं चाहते।

सपूर्ण मनुस्मृति में महर्षि मनु ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि ब्राह्मण आदि जन्म से होते हैं अथवा ब्राह्मण आदि का पुत्र ब्राह्मण आदि ही हो सकता है। मनु ने निर्धारित कर्मों को करने वाले को ही उस-उस वर्ण का माना है। ब्राह्मण किस प्रकार बनता है? इसका स्पष्ट निर्देश मनु ने निनलिखित श्लोक में दिया है-

       स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।

       महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥     (2.28)

अर्थ-‘विद्याओं के पढ़ने से; ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि व्रतों के पालन से, विहित अवसरों पर अग्निहोत्र करने से, वेदों के पढ़ने से, पक्षेष्टि आदि अनुष्ठान करने से, धर्मानुसार सुसन्तानोत्पत्ति से, पांच महायज्ञों के प्रतिदिन करने से, अग्निष्टोम आदि यज्ञ-विशेष करने से मनुष्य का शरीर ब्राह्मण का बनता है।’ इसका अभिप्राय यह है कि इसके बिना मनुष्य ब्राह्मण नहीं बनता।

इसी प्रकार सप्तम अध्याय में राजा के पुत्र को कहीं राजा नहीं कहा है, अपितु उपनयनकृत क्षत्रियवर्णस्थ को राजा होना कहा है (7.2)। ऐसे ही वैश्य भी कृतसंस्कार व्यक्ति होता है, उसके बिना नहीं [9.326 (10.1)]। यदि मनु को वंशानुगत रूप से या जन्म से वर्ण अभीष्ट होते तो वे ऐसा वर्णन नहीं करते, यही कह देते कि ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण होता है, क्षत्रिय का क्षत्रिय, वैश्य का वैश्य और शूद्र का शूद्र होता है। निष्कर्ष यह है कि मनु को जन्म से वर्ण अभिप्रेत नहीं थे।

    मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते थे, इसका ज्ञान उस श्लोक से होता है जहां भोजनार्थ अपने जन्म के कुल-गोत्र का कथन करने वाले को उन्होंने ‘वान्ताशी = वमन करके खाने वाला’ जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है-

(क) न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत्।

       भोजनार्थं हि ते शंसन् वान्ताशी उच्यते बुधै॥ (3.109)

    अर्थ – कोई द्विज भोजन प्राप्त करने के लिए अपने कुल और गोत्र का परिचय न दे। भोजन या भिक्षा के लिए कुल और गोत्र का कथन करने वाला ‘‘वान्ताशी’’ अर्थात् ‘वमन किये हुए को खाने वाला’ माना जाता है।

(ख)    वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।

       एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम्॥   (2.136)

    अर्थ :-वित्त = धनी होना, बन्धु-बान्धव होना, आयु में अधिकता, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता, ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला अधिक-समान का पात्र है। अर्थात् सर्वाधिक समाननीय विद्वान् होता है, फिर क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में अधिक, बन्धु और धनवान् होते हैं। वैसे यह एक ही प्रमाण पर्याप्त है जो वर्णव्यवस्था में जन्म के महत्त्व को पूर्णतः नकार देता है। यदि जन्म का महत्त्व होता तो यह कहा जाता कि जन्मना ब्राह्मण प्रथम समाननीय है। किन्तु ऐसा नहीं है।

मनु की वर्णव्यवस्था में कर्म का ही महत्त्व है, जन्म का नहीं; इसको सिद्ध करने वाला उनका महत्त्वपूर्ण विधान यह भी है कि कोई बालक यदि निर्धारित आयु सीमा तक उपनयन संस्कार नहीं कराता है और किसी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त नहीं करता है तो वह आर्यों के वर्णों से बहिष्कृत हो जाता है। जैसे आज की व्यवस्था में निर्धारित आयु तक विद्यालयों में या अन्य शिक्षा संस्थानों में प्रवेश न लेने पर उन्हें प्रवेश नहीं मिलता। तब वह वैधानिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाता। यदि मनु जन्म से वर्ण मानते तो इस प्रतिबन्धात्मक विधान का उल्लेख ही नहीं करते। जो जिस वर्ण में पैदा हो गया, आजीवन वही रहता। न तो उसका वर्णनिर्धारण होता, न वर्ण से पतन होता, न परिवर्तन होता। इससे सिद्ध है कि मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म का आधार मुय नहीं है। देखिए श्लोकोक्त विधान-

आषोडशात् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते।

आद्वाविंशात् क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः॥ (2.38)

अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः।

सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः॥ (2.39)

नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि   हि   कर्हिचित्।

ब्राह्मान् यौनांश्च सबन्धानाचरेद् ब्राह्मणः सह॥ (2.40)

    अर्थ-‘सोलह वर्ष का होने के बाद ब्राह्मण बनने के इच्छुक बालक का, बाईस वर्ष के बाद क्षत्रिय बनने के इच्छुक का, चौबीस वर्ष के बाद वैश्य बनने के इच्छुक का, उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं रहता। उसके बाद ये सावित्री व्रत (उपनयन) से पतित होकर आर्यवर्णों से बहिष्कृत हो जाते हैं। व्रत का पालन न करने वाले इन पतितों से फिर कोई द्विज अध्ययन-अध्यापन तथा विवाह सबन्धी वैधानिक व्यवहार न करे।’

यहां इस बिन्दु पर ध्यान दीजिए कि मनु ने ‘व्रात्य’ लोगों से वैधानिक सबन्धों का निषेध किया है, सामान्य व्यवहारों का नहीं। इसे हम आज के संदर्भ में यों समझ सकते हैं कि जैसे वैधानिक शिक्षा से वंचित व्यक्ति कहीं औपचारिक प्रवेश नहीं ले सकता किन्तु स्वयं अध्ययन आदि कर सकता है। उसी प्रकार व्रत से पतितों को स्वयं अध्ययन, धर्माचरण आदि का निषेध नहीं था। दूसरी विशेष बात यह है कि उस स्थिति में भी मनु ने उनका सदा-सदा के लिए वर्णग्रहण का मार्ग अवरुद्ध नहीं किया है। यदि वे लोग फिर भी वर्णग्रहण करना चाहें तो उनके लिए यह अवसर था कि वे प्रायश्चित्त के रूप में तीन कृच्छ व्रत करके पुनः उपनयन करा सकते थे (मनु0 11.191-992-, 212-214)। प्रायश्चित्त इसलिए है कि उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को भंग किया है, शिक्षा के पवित्र उद्देश्य की उपेक्षा की है, समाज में अज्ञान को बढ़ाने का पाप किया है; अतः उनको पहले इस दोष के लिए खेद अनुभव करने हेतु तथााविष्य में विधानों की दृढ़पालना हेतु प्रायश्चित्त करना चाहिए। यह आत्मा-मन को प्रभावित करने वाली धार्मिक विधि थी। आजकल इस प्रकार के मामलों में कानूनी शपथपत्र लिया जाता है। आजकल यह कानूनी प्रक्रिया है, पहले सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया थी। सामाजिक-धार्मिक प्रक्रिया में अधिक दृढ़ता और ईमानदारी रहती है, कानूनी केवल कागज का टुकड़ा बनकर रह जाता है।

(ई) मनु को जातिव्यवस्थापक मानने से मनुस्मृति-रचना व्यर्थ

यदि मनु को जन्मना जातिव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इसमें मनुस्मृति की रचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा। क्योंकि, मनुस्मृति में पृथक्-पृथक् वर्णों के लिए पृथक्-पृथक् कर्मों का विधान किया गया है। यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने लगेगा तो वह विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा। जैसा कि आजकल जन्मना जाति-व्यवस्था में है। कोई कुछ भी अच्छा-बुरा कर्म करे, वह वही कहलाता है, जो जन्म से है। उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक है। मनु ने जो पृथक्-पृथक् कर्मों का निर्धारण किया है, वही यह सिद्ध करता है कि वे कर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था को मानते हैं, जन्म से नहीं।

जैसे आज भी पढ़ाना कार्य अध्यापक का है, जो पढ़ायेगा वह ‘अध्यापक’ कहलायेगा, सब कोई नहीं। इसी प्रकार चिकित्सा करने वाला ‘डॉक्टर’, वकालत करने वाला ‘वकील’ कहलाता है, अन्य नहीं। इसी तरह मनुस्मृति में निर्धारित कर्म करने वाला ही उस वर्ण का कहलायेगा। निर्धारित कर्म न करने वाला व्यक्ति केवल जन्म के आधार पर ब्राह्मण आदि नहीं कहा जायेगा।

वर्णधारण और वर्णपरिवर्तन आदि की प्रक्रिया: डॉ सुरेन्द्र कुमार

यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि वैदिक या मनु की वर्णव्यवस्था में वर्णधारण, वर्णनिर्धारण, वर्णपरिवर्तन, वर्णपतन और वर्णबहिष्कार की क्या प्रक्रिया थी?

    (क) वर्णधारण-सर्वप्रथम, आचार्य, आचार्या अथवा शिक्षासंस्था का मुखिया निर्धारित आयु में विधिवत् शिक्षा प्राप्त कराने के लिए गुरुकुल में आने वाले बालक या बालिका का उपनयन संस्कार (विद्या संस्कार) करके उसे इच्छित वर्ण में दीक्षित करता था, अथवा वर्ण धारण कराता था। यह वर्णधारण बालक-बालिका की रुचि या लक्ष्य, अथवा माता-पिता की इच्छा के अनुसार होता था, जैसे आज भी प्राथमिक विद्यालयों में माता-पिता बालक-बालिका को अपनी इच्छा के अनुसार विषयों का अध्यापन करवाते हैं। किन्तु, शिक्षा प्राप्त करते समय जैसे बड़े बच्चों की रुचि बदल जाती है और वे स्वयं अपना व्यावसायिक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं, उसी प्रकार गुरुकुल में अध्ययन करते समय बालक भी वर्णशिक्षा में परिवर्तन कर सकते थे। वर्णशिक्षा के लिए प्रवेश की सर्वसामान्य आयु इस प्रकार निश्चित थी- ब्राह्मणवर्ण की शिक्षार्थ प्रवेश की आयु 5-7 वर्ष, क्षत्रियवर्ण की शिक्षा के लिए 6-10, वैश्यवर्ण की शिक्षा के लिए 8-11 वर्ष (मनुस्मृति 2.36-37)। शिक्षार्थ प्रवेश की अधिकतम आयु ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा के लिए 16 वर्ष तक, क्षत्रियवर्ण की शिक्षा के लिए 22 वर्ष, वैश्यवर्ण की शिक्षा के लिए 24 वर्ष तक थी (मनु0 2.38)। इस आयु तक भी शिक्षार्थ प्रवेश न लेने वाले व्यक्ति निन्दित समझे जाते थे, और वे आर्यों के समाज में बहिष्कृत या शूद्र स्तर के माने जाते थे, क्योंकि शिक्षा आर्यों के समाज में महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य थी। विधिवत् शिक्षा न प्राप्त करने वाला ही ‘शूद्र’ होता था, अर्थात् दूसरा विद्याजन्म न होने के कारण ही वह ‘एकजाति’ अर्थात् ‘केवल माता-पिता से ही जन्म लेने वाला’ कहाता था। उसी का नाम ‘एकजाति’ या ‘शूद्र’ होता था (10.4), जन्म के आधार पर नहीं।

कुछ पाठक मनुस्मृति के इस प्रकरण पर शंका प्रस्तुत करते हैं कि प्रवेश-प्रकरण में ‘शूद्र’ का उल्लेख क्यों नहीं है? वे इसका अभिप्राय यह निकालते हैं कि शूद्र को विद्याप्राप्ति का अधिकार नहीं था। यह शंका भी भूल में भूल से हो रही है। जो अपने मस्त्तिष्क में वर्णों को जन्म से मान लेने का भ्रम पाले हुए हैं, उन्हें यह शंका होती है। वास्तविक प्रक्रिया यह थी कि चारों वर्णों के बालक जिस द्विज-वर्ण में दीक्षा लेना चाहते थे, उसमें ले सकते थे। विद्या प्राप्त करके द्विज बनने वाले तीन वर्ण हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। इन्हीं में प्रवेश का औचित्य है। शूद्र बनने के लिए प्रवेश की आवश्यकता ही नहीं है। शूद्र तो वह था जो इन तीनों वर्णों में प्रवेश नहीं लेता था, अथवा प्रवेश लेकर विधिवत् शिक्षा पूर्ण नहीं करता था। इसी प्रकार शूद्र माता-पिता से उत्पन्न बालक-बालिका भी उच्च तीन वर्णों में से इच्छित वर्ण में दीक्षित हो जाते थे। इन श्लोकों में पठित ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के प्रवेश की आयु से अभिप्राय है इन वर्णों में प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थी की आयु से; जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बालक की आयु से नहीं। यह मनुस्मृति के निनलिखित श्लोक से स्पष्ट है-

       ब्रह्मवर्चसकामस्य   कार्यं विप्रस्य पञ्चमे।

       राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे॥ (2.37)

अर्थ-माता-पिता की अपेक्षा से यह कथन है कि जो अधिक विद्या और ब्रह्मचर्य की कामना रखते हों, ऐसे ब्राह्मण बनने के इच्छुक बालक का उपनयन पांचवें वर्ष में करावें। अधिक बल की इच्छा रखने वाले क्षत्रिय बनने के इच्छुक बालक का छठे वर्ष में और अधिक धन की इच्छा रखने वाले वैश्य बनने के इच्छुक बालक आठवें वर्ष में उपनयन करावें।

यहां ‘बालक’ भी उपलक्षक पद है। इससे बालक और बालिका दोनों का ग्रहण होता है। कानून की भाषा में जैसे यह कहा जाता है कि ‘जो चोरी करेगा उसको दण्ड मिलेगा’, इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं होता कि केवल पुरुषों को ही दण्ड मिलेगा, स्त्रियों को नहीं। ऐसे वाक्यों से दोनों का ग्रहण होता है। इसी प्रकार धर्मशास्त्रों में पुल्लिंग प्रयोग दोनों का उपलक्षक है, उससे पुरुष और स्त्री दोनों का ही ग्रहण होता है।

वर्णव्यवस्था में स्त्रियों का उपनयन संस्कार होता था और वे ऋषिकाएं बनती थीं। उनके पृथक् गुरुकुल थे। वह परपरा उक्त अर्थ को पुष्ट करती है। (द्रष्टव्य ‘नारी की स्थिति’ शीर्षक पंचम अध्याय)

    (ख) वर्णनिर्धारण-गुरुकुल में साथ-साथ दो प्रकार की शिक्षाएं चलती थीं- एक, वेदादिशास्त्रों एवं भाषा प्रशिक्षण की शिक्षा, जो तीनों वर्णों के लिए समान थी। दूसरी, अपने-अपने स्वीकृत वर्ण की व्यावसायिक शिक्षा थी। कम से कम एक वेद की आध्यात्मिक शिक्षा अर्जित करने तक की शिक्षा सबके लिए अनिवार्य थी। आयु के अनुसार, पुरुषों के लिए 25 वर्ष तक और बालिकाओं के लिए 16 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करनी अनिवार्य थी। उसे पूर्ण न करने वाला शूद्र घोषित हो जाता था। इससे अधिक कितनी भी शिक्षा प्राप्त की जा सकती थी। गुरुकुल से स्नातक बनते समय आचार्य बालक-बालिका के वर्ण का निर्धारण करके उसकी घोषणा करता था, जो बालक प्राप्त वर्ण शिक्षा के अनुसार होता था। जैसे, आजकल प्राप्त शिक्षा के अनुसार विद्यालय और विश्वविद्यालय कलास्नातक, वाणिज्य-स्नातक, विज्ञान-स्नातक, कानूनस्नातक आदि की उपाधियां प्रदान करते हैं और जैसे, अग्रिम आयु में व्यक्ति उन उपाधियों के अनुसार ही व्यवसाय को सपादित करता है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में गुरु द्वारा निर्धारित वर्ण के अनुसार ही व्यवसाय, पद आदि ग्रहण करता था। मनुस्मृति में कहा है-

आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद् वेदपारगः।

उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या सा जराऽमरा॥

(2.148)

    अर्थ-‘वेदों में पारंगत आचार्य सावित्री=गायत्री मन्त्रपूर्वक उपनयन संस्कार करके, विधिवत् शिक्षण देकर जो बालक के वर्ण का निर्धारण करता है, वही वर्ण उसका वास्तविक और स्वीकार्य है अर्थात् उसको कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।’ इसको ब्रह्मजन्म कहा जाता है। इसी ब्रह्मजन्म को पाकर व्यक्ति द्विजाति बनते हैं। इस प्रकार बालक-बालिका का वर्णनिधारण होता था।

    (ग) वर्णपरिवर्तन-एक बार वर्णनिर्धारण के बाद भी यदि कोई व्यक्ति वर्णपरिवर्तन करना चाहता था तो उसको उसकी स्वतन्त्रता थी और परिवर्तन के अवसर प्राप्त थे। जैसे, आज कोई कलास्नातक पुनः वाणिज्य की आवश्यक शिक्षा अर्जित करके, वाणिज्य की उपाधि प्राप्त कर व्यवसायी हो सकता है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में अभीष्ट वर्ण का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करके व्यक्ति वर्णपरिवर्तन कर सकता था। आज भी उसकी अनुमति उपाधियों द्वारा शिक्षासंस्थान, या मान्यता द्वारा सरकार देती है; वर्णव्यवस्था-काल में भी शिक्षासंस्थान और शासन देते थे, अथवा धर्मसभा देती थी। (द्रष्टव्य हैं, इसी अध्याय के 3.8 ‘अ’ में ऐतिहासिक उदाहरण ‘वर्णपरिवर्तन’ शीर्षक में)

    (घ) वर्णपतन-एक बार वर्णग्रहण करने के बाद यदि व्यक्ति अपने वर्ण, पद, या व्यवसाय के निर्धारित कर्त्तव्यों और आचार-संहिता का पालन नहीं करता था तो उसको राजा या अधिकार प्राप्त धर्मसभा वर्णावनत या वर्ण से पतित कर देते थे। अपराध करने पर भी वर्ण से पतित हो जाते थे। जैसे, आजकल नौकरी, व्यवसाय या निर्धारित कार्यों में कर्त्तव्य या कानून का पालन न करने पर, नियमों का पालन न करने पर, अथवा अपराध करने पर उस नौकरी या व्यवसाय का कुछ समय तक अधिकार छीन लिया जाता है, या उससे हटा दिया जाता है, या पदावनत कर दिया जाता है। ऐसे ही वर्णव्यवस्था में प्रावधान था। (द्रष्टव्य हैं, इसी अध्याय के 3.8 ‘इ’ में ‘वर्णपतन’ शीर्षक में ऐतिहासिक उदाहरण)

(ङ) वर्ण-बहिष्कार-जैसे आजकल विद्यालयों या शिक्षा संस्थानों में निर्धारित आयु में या समय पर प्रवेश न लेने पर बालक वैधानिक शिक्षा से और शिक्षाधारित अधिकारों से वंचित रह जाते हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल में अधिकतम निर्धारित आयु (ब्राह्मण बनने के लिए 16 वर्ष, क्षत्रिय बनने के लिए 22 वर्ष, वैश्य बनने के लिए 24 वर्ष) तक प्रवेश न लेने पर बालक या युवक उच्च वर्णों से पतित अथवा वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत हो जाता था। यह आर्यों का वर्ण-बहिष्कार था। ऐसा व्यक्ति ‘‘व्रात्य’’=व्रत से पतित या अनार्य कहाता था (2.39)। अन्यत्र भी महर्षि मनु ने स्पष्ट कहा है-

वर्णापेतं………………………………..अनार्यम्॥  (10.57)

अर्थ-‘वर्णों की दीक्षा से रहित व्यक्ति ‘अनार्य’ है।’ उन्हीं लोगों को ‘दस्यु’ भी कहा है-

       मुखबाहूरूपज्जानां या लोके जातयो बहिः।

       लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः॥   (10.45)

अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्णों से बाहर अर्थात् इनमें जो दीक्षित नहीं हैं, वे सब व्यक्ति और समुदाय ‘दस्यु’ संज्ञक हैं, चाहे वे आर्यभाषाएं बोलते हैं अथवा लेच्छ=विकृत भाषाएं। इसी प्रकार वेद में भी ‘दस्यु’, ‘आर्य’ का विपरीतार्थक प्रयोग है।

यदि वह पुनः वर्णग्रहण करना चाहता था तो प्रायश्चित्त करके पुनः किसी अभीष्ट वर्ण की दीक्षा ले सकता था। (प्रमाण पृष्ठ

81-82 पर द्रष्टव्य हैं)।

    (च) वर्ण-वरण में अपवाद – ऐसा भी अपवाद मिलता है कि रेभ नामक व्यक्ति वेदों का श्रेष्ठ विद्वान् था किन्तु उसने आजीविका के लिए स्वेच्छा से शूद्रवर्ण को ग्रहण किया (कूर्म पुराण अ0 10.2)। इससे यह संकेत मिलता है कि कभी-कभी व्यक्ति स्वेच्छा से भी निनवर्ण को ग्रहण कर लेता था।

मनु की वर्णव्यवस्था को समझने में भूलें व उसका यथार्थ स्वरूप: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों को जानने के लिए मनु की वर्णव्यवस्था पर विचार किया जाना परम आवश्यक है क्योंकि अधिकांश जनों को मनु की वर्णव्यवस्था के मौलिक या वास्तविक स्वरूप की तथ्यपरक जानकारी नहीं है। ऐसा देखने में आया है कि भ्रामक जानकारियों के आधार पर ही लोग मनु को गलत समझ बैठे हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था अथवा वैदिक वर्णव्यवस्था को समझने में सबसे पहली और बड़ी भूल यह की जाती है कि कुछ लोग चातुर्वर्ण्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का अस्तित्व जन्म से मान लेते हैं, जबकि ये जन्म से नहीं होते। जन्म से वर्ण को मानने की भ्रान्ति के कारण ही मनु पर उच्च वर्णों को सुविधा-समान देने का और शूद्र को तिरस्कृत करने का आरोप लगाया जाता है। ऐसे ही लोग वर्णों को वंशानुगत मानने की भ्रान्ति का शिकार हैं। वास्तविकता यह है कि मनु की वर्णव्यवस्था गुण, कर्म, योग्यता पर आधारित व्यवस्था थी, जन्म पर आधारित जातिव्यवस्था नहीं। इसका अभिप्राय यह है कि किसी भी कुल या वर्ण में जन्म लेने के बाद बालक या व्यक्ति में जैसे-जैसे गुण, कर्म, योग्यता के लक्षण होंगे, उन्हीं के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित होगा। उसके बाद वह उसी वर्ण के नाम से पुकारा जायेगा, चाहे उसके माता-पिता का वर्ण कुछ भी रहा हो। ब्राह्मण के कुल या वर्ण में उत्पन्न बालक यदि ब्राह्मण के गुण, कर्म, योग्यता वाला है तो ‘ब्राह्मण’ कहलायेगा; यदि शूद्र के गुण, कर्म, योग्यता वाला है तो ‘शूद्र’ कहा जायेगा। इस प्रकार जन्म के आधार पर कुछ भी निर्धारित नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण-नाम जन्म से ब्राह्मण आदि होने का संकेत देने के लिए नहीं हैं, अपितु केवल लोक व्यवहार के लिए हैं। जैसे, यह कहा जाता है कि अध्यापक, डॉक्टर , सैनिक, व्यापारी और श्रमिक के अमुक-अमुक कर्त्तव्य हैं, तो हमें आज कोई भी भ्रान्ति नहीं होती, और न यह अनुभव होता है कि ये नाम जन्म के आधार पर हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमान व्यवस्था की यथार्थ स्थिति हमारे सामने है और यह मालूम है कि ये पद या नाम लबी प्रक्रिया को पूरी करने के बाद प्राप्त होते हैं, किन्तु प्रयोग इसी तरह होता है कि जैसे ये जन्माधारित व्यवसाय हों। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम भी एक निर्धारित प्रक्रिया के बाद प्राप्त होते थे। आज वह व्यवस्था प्रचलित नहीं है अतः जन्माधारित नाम का संदेह हो जाता है।

मनु की वर्णव्यवस्था को समझने में दूसरी भूल अशुद्ध अनुवादों के कारण हुई है। वर्णव्यवस्था की परपरा को गभीरता और वास्तविकता से न समझ पाने के कारण अंग्रेज लेखकों ने वर्ण का जाति (ष्टड्डह्यह्ल) अर्थ कर दिया। परवर्ती लेखक इसी का अन्धानुकरण करके वर्ण का जाति अर्थ करते आ रहे हैं। यह मूल में भूल है, जिससे वर्णों के विषय में जन्माधारित जाति का भ्रम हो रहा है। क्योंकि ‘जाति’ का ‘जन्म’ अर्थ आज रूढ़ हो चुका है। वर्ण और जन्मना जाति तो परस्परविरोधी हैं। वर्ण गुण-कर्म-योग्यता से प्राप्त किया जाता है, जबकि जाति जन्म से प्राप्त होती है। वर्ण स्वेच्छा से वरण किया जाता है, जबकि जाति अनिवार्यतः माता-पिता से मिलती है। वर्ण का अर्थ समुदाय  है और जाति का अर्थ जन्मना जाति है। इस प्रकार वर्ण का ‘जाति’ अर्थ करने से वर्ण के जन्माधारित होने की भ्रान्ति फैल गयी है।

वर्णव्यवस्था आर्यों के परिवारों और समाज की व्यवस्था है। उसमें चार वर्ण हैं। ये चार वर्ण आर्यों के परिवारों के बालकों या व्यक्तियों से अस्तित्व में आते हैं। किसी भी कुल या वर्ण में उत्पन्न होकर बालक या व्यक्ति जिस वर्ण का विधिवत् शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करेगा, उसका वही वर्ण निर्धारित होगा। इस प्रकार चारों वर्ण मुयतः आर्यों के कुलों में से ही निर्मित होने के कारण वर्णव्यवस्था में न तो असमानता थी, न ऊंच-नीच, न स्पृश्यता-अस्पृश्यता और न भेदभाव। हाँ, यथायोग्य सामाजिक समान-व्यवस्था अवश्य निर्धारित थी। वह तो प्रत्येक व्यवस्था, प्रत्येक संस्था और प्रत्येक विभाग में आज भी है। आज की चतुर्वर्गीय सरकारी प्रशासन-व्यवस्था से यदि हम मनु की वर्णव्यवस्था की तुलना करें तो हमें मनु की वर्णपद्घति का बहुत-सा अंश समझ में आ जायेगा, क्योंकि दोनों व्यवस्थाओं में पर्याप्त मूलभूत समानता है। अन्तर इतना ही है कि मनु की व्यवस्था सामाजिक व प्रशासनिक दोनों स्तरों पर लागू थी, जबकि वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था केवल प्रशासन तक सीमित है। आज सरकार की प्रशासन-व्यवस्था में चार वर्ग ये हैं-

  1. प्रथम श्रेणी अधिकारी,
  2. द्वितीय श्रेणी अधिकारी,
  3. तृतीय श्रेणी कर्मचारी,
  4. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी।

इनमें प्रथम दो वर्ग अधिकारियों के हैं, दूसरे दो कर्मचारियों के। संविधान के अनुसार यह विभाजन योग्यता के आधार पर है और इसी आधार पर इनका महत्त्व, समान एवं अधिकार हैं। इन पदों के लिए योग्यताओं का प्रमाणीकरण पहले भी शिक्षासंस्थान (गुरुकुल, आश्रम, आचार्य) करते थे और आज भी शिक्षासंस्थान (विद्यालय, विश्वविद्यालय आदि) ही करते हैं। विधिवत् शिक्षा का कोई प्रमाणपत्र नहीं होने से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सेवा और शारीरिक श्रम के कार्य ही करता है और वह अन्तिम कर्मचारी-श्रेणी में आता है। पहले भी जो गुरु के पास जाकर विधिवत् विद्या प्राप्त नहीं करता था, वह इसी स्तर के कार्य करता था और उसकी संज्ञा ‘शूद्र’ थी। शूद्र के अर्थ हैं-‘जो विधिवत् शिक्षित न हो’, ‘निन स्थिति वाला’ ‘आदेशवाहक’ ‘आदेश के अनुसार सेवा या श्रमकार्य करने वाला’ अशिक्षित मजदूर आदि। नौकर, चाकर, मजदूर, पीयन, सेवक, प्रेष्य, सर्वेंट, अर्दली, भृत्य, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आदि संज्ञाओं में कितनी अर्थसमानता है, आप स्वयं देख लीजिये। व्यवसायों के निर्धारण में भी बहुत अन्तर नहीं है। शिक्षासंस्थानों से डाक्टर, वकील, अध्यापक, आदि की डिग्री प्राप्त करने के बाद ही उसी व्यवसाय की अनुमति सरकार से मिलती है, उसके बिना नहीं। सबके नियम-कर्तव्य और आचार संहिता निर्धारित है। उनकी पालना न करने वाले को व्यवसाय और पद से हटा दिया जाता है, या दण्डित किया जाता है।

इसी प्रकार वर्णव्यवस्था में गुरुकुल आदि से स्नातक बनने के बाद उसी अधीत विषय का व्यवसाय करने की अनुमति होती थी, उसी पर आधारित वर्णनाम आचार्य द्वारा निर्धारित होता था। निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन न करने पर व्यक्ति को राजा अथवा धर्मसभा द्वारा उस पद या व्यवसाय से अपात्र घोषित करके वर्णावनत (पदावनत) कर दिया जाता था या दण्डित किया जाता था। पद और व्यवसाय की स्वतन्त्रता, योग्यता एवं नियम के अनुसार जैसे आज की प्रशासनिक व्यवस्था में है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में थी।

विभिन्न विद्याओं के आदि प्रस्तुतकर्त्ता मनु: डॉ. सुरेन्द कुमार

प्राचीन समाज, संस्कृति, सयता, विद्याओं या विषयों का इतिहास-लेखन अथवा विश्लेषण मनुस्मृति के विवेचन के बिना संभव नहीं है। मनुस्मृति अनेक विषयों की संहिता है जिसमें वे विषय सार और मौलिक रूप में विश्लेषित किये गये हैं। उनसे प्राचीन समाज एवं संस्कृति-सयता पर प्रकाश पड़ता है। जिन विद्याओं या विषयों के आरभिक स्वरूप के ज्ञान और विश्लेषण के लिए मनुस्मृति की अनिवार्य आवश्यकता है, वे हैं-

  1. धर्मशास्त्र 6.     राजनीति शास्त्र
  2. समाजशास्त्र 7.     युद्धकला एवं नीति
  3. इतिहास (सांस्कृतिक) 8.     लोक प्रशासन
  4. विधिशास्त्र तथा दण्डविधि 9.     भाषा शास्त्र
  5. अध्यात्म एवं दर्शन 10.    अर्थशास्त्र
  6.     वाणिज्य

इन सब विषयों का संक्षिप्त विवेचन मनुस्मृति में पाया जाता है। प्राचीनतम समय में इतने सारे विषयों पर विचार एवं निर्णय प्रस्तुत करके मनु ने विश्व के लिए अनेक विद्याओं के द्वार खोल दिये थे। वेदों और अनेक विद्याओं की उद्गमस्थली होने के कारण तत्कालीन भारत ‘विश्वगुरु’ माना जाता था। भारत को ‘विश्वगुरु’ कहलाने और उस स्तर तक पहुंचाने का श्रेय मनु को ही जाता है। मनु घोषणापूर्वक विश्व के सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के शिक्षार्थ अपने देश में आमन्त्रित करते हैं-

       एतद्देशप्रसूतस्य       सकाशादग्रजन्मनः।

       स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (2.20)

अर्थ-हे पृथ्वी के निवासी सभी मनुष्यो! आओ, इस देश के विद्वान् तथा सदाचारी ब्राह्मणों के सान्निध्य में रहकर अपने-अपने चरित्रों=व्यवहारों और अभीष्ट व्यवसायों की शिक्षा ग्रहण करके विद्वान् बनो।

इस श्लोक से संकेत मिलता है कि मनु बिना किसी भेदभाव के, प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा को अनिवार्य मानते थे। उसका कारण यह था कि शिक्षा के बिना व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र किसी भी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता। अशिक्षित व्यक्ति समाज और राष्ट्र के लिए पर्याप्त योगदान नहीं कर पाता। मनु किसी भी व्यक्ति को राष्ट्र में निठल्ला और निकमा नहीं देखना चाहते थे, अतः उन्होंने शिक्षा पर बहुत अधिक बल दिया और किसी भी प्रकार का शिक्षण/प्रशिक्षण ग्रहण न करने वाले को निनवर्णस्थ माना तथा वर्णबाह्य करने का भी निर्देश दिया। मनु का यह ‘सबके लिए अनिवार्य शिक्षा’ का संदेश था।

इस देश को इतना महान् गौरव दिलाने वाले और उस आदियुग में विश्व के सभी मनुष्यों को बिना किसी भेदभाव के शिक्षा प्राप्त करने का अवसर देने वाले मनु स्वायंभुव हमारे लिए गर्व करने योग्य महापुरुष हैं। ऐसे महापुरुष की अनर्गल आलोचना करने का अभिप्राय है विश्व के समक्ष अपनी ऐतिहासिक अज्ञानता का परिचय देना।

मनु यज्ञसंस्था के आदिप्रवर्तक धर्मगुरु: डॉ. सुरेन्द कुमार

मनु स्वायभुव यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों के आदि प्रवर्तक हैं। इतिहास से ज्ञात होता है कि मनु, स्वायभुव ने ही सर्वप्रथम वेदों से ज्ञान ग्रहण कर स्वयं और अपने राज्य में यज्ञों का अनुष्ठान आरंभ किया था। इस प्रकार मनु स्वायंभुव धार्मिक यज्ञसंस्था के आदिप्रवर्तक एवं धर्मगुरु हैं। इस ऐतिहासिक तथ्य का प्रमाण ब्राह्मण ग्रन्थों और संहिता ग्रन्थों में उपलध है। शतपथ ब्राह्मण में इस ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख स्पष्ट शदों में मिलता है-

(क) ‘‘मनुराह वै अग्रे यज्ञेन ईजे। तद् अनुकृत्य इमाः प्रजाः यजन्ते। तस्माद् आह-‘मनुष्वद्’ इति। ‘मनोः यज्ञः’ इति उ-वै-आहुः। तस्माद् वा इव आहुः ‘मनुष्वद्’ इति।’’ (शत0 ब्रा0 1.5. 1.7)

    अर्थात्-‘यह सुनिश्चित तथ्य है कि मनु ने सर्वप्रथम यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसी मनु का अनुसरण करके सब प्रजाएं (जनता) यज्ञ करती हैं। इसी आधार पर कहा जाता है कि यज्ञ मनु के अनुसरण पर किया जाता है अर्थात् यज्ञ का आदिप्रवर्तक मनु है।’ यह आदि मनु ब्रह्मापुत्र स्वायंभुव मनु ही है।

(ख) इसी तथ्य का उल्लेख शतपथ ब्रह्मण में अन्यत्र भी वर्णित मिलता है, जिससे इसकी पुष्टि हो जाती है। ब्राह्मणकार कहता है-

‘‘प्रजापतये मनवे स्वाहा, इति। प्रजापतिर्वै मनुः। स हि इदं सर्वं मनुत। प्रजापतिर्वै एतद् अग्रे कर्म अकरोत्।’’ (6.6.1.19)

    अर्थात्- ‘प्रजापति मनु के प्रति मैं आदर प्रकट करता हूं। मनु निश्चय ही प्रजापति (प्रजाओं का प्रमुख और स्वामी) है। उस मनु ने सर्वप्रथम संसार की व्यवस्थाओं का निर्माण किया और उनका प्रवर्तन किया। उस प्रजापति मनु ने ही सर्वप्रथम इस यज्ञानुष्ठान को क्रियात्मक रूप में प्रवर्तित किया। अथवा, समाज व्यवस्थापन रूप कर्म सर्वप्रथम मनु ने किया।’ मनु स्वायंभुव आदि समाज-व्यवस्थापक था। अपने राज्य में उसने धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक आदि सभी व्यवस्थाओं का प्रवर्तन कर समाज को सुसय, सुसंस्कृत और व्यवस्थित बनाया।

(ग) शतपथ ब्राह्मण से भी प्राचीन तैत्तिरीय संहिता में भी मनु की इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख मिलता है –

‘‘मन्विद्ध’ इत्याह, मनुर्हि एतं उत्तरो देवेयः ऐन्ध।’’                                                                        (2.5.9.1)

    अर्थात्-‘मनु ने यज्ञ किया’ यह कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि भावी देवजनों के लिए मनु ने यज्ञ किया अर्थात् उनके लिए यज्ञपरपरा का प्रवर्तन किया।’

(घ) मनु स्वायंभुव के अनुकरण पर परवर्ती मनुओं ने भी मनु द्वारा प्रवर्तित धार्मिक और सामाजिक विधानों का पालन और प्रवर्तन किया। यही कारण है कि बहुत से उल्लेख कई मनुओं के साथ घुल-मिल गये हैं। वही वर्णन कहीं स्वायंभुव के साथ वर्णित मिलते हैं तो कहीं वैवस्वत के साथ। माना जाता है कि मनु-परपरा में जो सातवां वैवस्वत मनु था उसका मूल नाम ‘श्रद्धादेव’ था। शतपथ ब्राह्मण में श्रद्धादेव मनु को भी यज्ञ के प्रति अतिशय श्रद्धालु और समर्पणशील वर्णित किया है। उसके यज्ञ-प्रेम का उल्लेख करते हुए कहा है कि वह यज्ञानुष्ठान से सभी आसुरी प्रवृत्तियों और असुर प्रवृत्ति के लोगों को वश में कर लेता था-‘‘श्रद्धादेवो वै मनुः’’ (1.1.4.14)

-यह मनु श्रद्धादेव है।

‘‘मनोः श्रद्धादेवस्य यजमानस्य असुरघ्नी वाग् यज्ञायुधेषु प्रविष्टा आसीत्।’’ (तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.2.6.9)

    अर्थात्-‘यजमान श्रद्धादेव मनु की वाणी यज्ञविधियों रूप शस्त्रों में प्रविष्ट थी और वह असुरों का विनाश करने वाली थी। अर्थात् यज्ञीय विधियों के श्रद्धापूर्वक सयक् अनुष्ठान के द्वारा मनु आसुरी प्रवृत्तियों और असुर प्रवृत्ति के प्रजाजनों या शत्रुओं को प्रभावित और नियन्त्रित कर लेते थे।’ यह नियन्त्रण यज्ञ के श्रद्धापूर्ण अनुष्ठान का परिणाम था।

(ङ) यही नहीं मनु श्रद्धादेव की पत्नी भी वेदविदुषी और मन्त्रोच्चारण में कुशल थी। वह यज्ञानुष्ठान में जब उच्चस्वर से वेदमन्त्रों का उच्चारण करती थी तो असुर प्रवृत्ति के लोग भी उससे प्रभावित होकर पराजित हो जाते थे। काठक ब्राह्मण में वर्णित एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना इसी संदर्भ में पठनीय है –

‘‘तत् पत्नीं यजुर्वदन्तीं प्रत्यपद्यत। तस्याः वाग् द्याम् आतिष्ठत्। तस्याः वदन्त्याः यावन्तोऽसुराः उपाशृण्वन् ते पराावन्।’’ (3.30.1)

    अर्थात्-मनु अपनी पत्नी के महल में जाते हैं तो देखते हैं कि ‘उनकी पत्नी यजुर्वेद के मन्त्रों का उच्चारण कर रही थी। उसकी उच्च-स्वरीय वाणी आकाश को गुंजा रही थी। उसके मन्त्रपाठ को सुनकर सभी असुर-प्रवृत्ति के लोग इस प्रकार प्रभावित हुए मानो पराजित हो गये हों या सस्वर मन्त्रपाठ से आसुरी भावनाएं नष्ट हो रही थीं।’

इससे यह भ्रान्तिाी निर्मूल हो जाती है कि प्राचीन मनु स्त्रियों के धार्मिक अधिकारों के विरोधी थे। इस घटना में स्वतन्त्ररूप से मनुपत्नी द्वारा यजुर्वेद के मन्त्रों का उच्चारण और उनसे यज्ञानुष्ठान का स्पष्ट उल्लेख है।

वैदिक ग्रन्थों के इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि स्वायभुव मनु और उसकी परपरा में परिगणित अन्य मनु यज्ञ की धार्मिक परपरा के आदि प्रवर्तक और श्रद्धापूर्वक संवाहक थे। अतः प्राचीन इतिहास में मनु का एक धार्मिक प्रतिष्ठाता के रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।

मनु आदि-धर्मविशेषज्ञ और धर्मशास्त्र-प्रवक्ता: डॉ. सुरेन्द कुमार

वेदोक्त वैदिक धर्म जिन मानदण्डों, मर्यादाओं और मूल्यों पर आधारित है उनका सर्वप्रथम निर्धारण और विधान मनु ने अपनी ‘स्मृति’ में सर्वश्रेष्ठ विधि से किया है, इस कारण वे वैदिक धर्म के आदि-प्रवक्ता, आदि-व्यवस्थापक और आदि-शास्त्रप्रवक्ता हैं। सपूर्ण प्राचीन भारतीय साहित्य मनु-विहित धर्मों का आदर करता रहा है और उन्हें परीक्षा सिद्ध मानता रहा है। महाभारत में कहा गया है-

(क) भारतं मानवो धर्मः, वेदाः सांगाश्चिकित्सितम्।

       आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुमिः॥

(आश्वेमेधिक पर्व अ0 92 में श्लोक 53 के बाद)

    अर्थ-महाभारत, मनु का धर्मशास्त्र, सांगोपांग वेद और आयुर्वेद इनके आदेश सिद्ध हैं। कुतर्क का आश्रय लेकर नहीं काटना चाहिए।

(ख)    ‘‘तस्मात् प्रवक्ष्यते धर्मान् मनुः स्वायभुवः स्वयम्॥’’ 44॥

       ‘‘स्वायभुवेषु धर्मेषु शास्त्रे चौशनसे कृते॥’’46॥

(महा0 शान्ति0 335.44, 46)

    अर्थ-स्वायभुव मनु ने मानवसृष्टि के आरभ में ब्रह्मा के धर्मशास्त्र के अनुसार धर्मों का उपदेश दिया है॥ 44॥ स्वायभुव मनु के धर्मशास्त्र और औशनस = शुक्राचार्य के शास्त्र बन जाने पर धर्म- विधानों का प्रचार हुआ है।

(ग)    ऋषयस्तु व्रतपराः समागय पुरा विभुम्।

       धर्मं पप्रच्छुरासीनमादिकाले प्रजापतिम्॥

(महा0 शान्ति0 36.3)

    अर्थ-‘मानव-सृष्टि के आदिकाल में व्रतपालक तपस्वी ऋषि एकत्र होकर प्रजापालक राजर्षि मनु (स्वायभुव) के पास आये और उन राजर्षि से धर्मों के विषय में जानकारी प्राप्त की।’ मनुस्मृति से भी यही ज्ञात होता है कि मनु धर्मविशेषज्ञ थे। महाभारत का यह श्लोक मनुस्मृति के 1.1-4 की घटना का ही वर्णन कर रहा है-

मनुमेकाग्रमासीनमधिगय   महर्षयः।

प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन्॥

भगवन् सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः।

अन्तरप्रभवाणां च धर्मान्नो वक्तुमर्हसि॥ (1.1-2)

अर्थ-तत्कालीन ऋषि इस कारण ही राजर्षि मनु के पास धर्म की जिज्ञासा लेकर पहुंचे थे क्योंकि मनु अपने समय के सर्वोच्च धर्मप्रवक्ता एवं विशेषज्ञ थे।

(घ) महाभारत में अन्यत्र भी ऋषियों द्वारा राजर्षि मनु से धर्म-विषयक जिज्ञासाएं करने की घटनाओं का उल्लेख आता है। ऋषि बृहस्पति भी धर्मजिज्ञासा के लिए अन्य ऋषियों के साथ मिलकर मनु के पास जाते हैं-

प्रजापतिं श्रेष्ठतमं प्रजानां देवर्षिसंघप्रवरो महर्षिः।

बृहस्पतिः प्रश्नमिमं पुराणं पप्रच्छ शिष्योऽयं गुरुं प्रणय॥

(शान्तिपर्व अ0 201.3)

    अर्थ- एक समय ऋषियों के संघ के प्रमुख महर्षि बृहस्पति ने प्रजापालकों में सर्वश्रेष्ठ राजर्षि और गुरु मनु को प्रणाम करके उनसे धर्म-विषयक इस पुरातन प्रश्न को पूछा था।

(ङ) महाभारत में एक महत्वपूर्ण श्लोक आता है जिसमें एक ही श्लोक में तीन महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं-1. मनु ने धर्म का प्रवचन किया था, 2. वह आदिकाल में किया था, 3. वह प्राचीन धर्मसार वेदाधारित है। श्लोक है-

धर्मसारं महाप्राज्ञ मनुना प्रोक्तमादितः।

प्रवक्ष्यामि मनुप्रोक्तं पौराणं श्रुतिसंहितम्॥

(आश्वेमधिक पर्व, अ0 92 में श्लोक 53 से आगे)

    अर्थ-मैं मनुप्रोक्त धर्म का सार तुहें कहूंगा। वह वेदाधारित है और उसे मनु ने सृष्टि के आदि में कहा था।

(च) भागवतपुराण में भी कहा है कि आदिराजा मनु ने धर्मों का प्रवचन किया था-

    यः पृष्टो मुनिमिः प्राह धर्मान् नानाविधान् शुभान्।

    नृणां वर्णाश्रमाणां च सर्वभूतहितः सदा।

    एतद् आदिराजस्य-॥    (3.25, 38, 39)

    अर्थ-उस आदिराजा मनु ने आदिकाल में मुनियों के पूछने पर वर्णों और आश्रमों के अनेक धर्मों का प्रवचन किया था। वह ब्रह्मापुत्र मनु स्वायभुव आदिराजा था।

विदेशी लेखकों के मतानुसार मनु आदि-विधिप्रणेता: डॉ. सुरेन्द कुमार

महर्षि मनु की याति प्राचीन काल में विश्वभर में थी और आज भी है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उनको जो महत्त्व प्राप्त है वह भारतीयों के लिए गौरव का विषय है। कुछ प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

(क) अमेरिका से प्रकाशित ‘इंसाइक्लोपीडिया आफ दि सोशल सांइसिज’ में मनु को आदिसंविधानदाता और मनुस्मृति को सबसे प्रसिद्ध विधिशास्त्र बताया है-

““Throughout the farther east Manu is the name of the founder of law. Maun law book are knoun…..in

later times the name ‘MANU’ became a title which was given to juristic writers of exceptional

eminence.”” (P.260)

अर्थात्-पूर्वी देशों में सुदूर तक मनु का नाम विधि-प्रतिष्ठाता के रूप में जाना जाता है। मनु का संविधान (मनुस्मृति) भी प्रसिद्ध है। परवर्ती समय में मनु का नाम इतना महत्त्वपूर्ण बन गया कि उन देशों में संविधान निर्माताओं को ‘मनु’ नाम की उपाधि प्राप्त होने लगी। उनको ‘मनु’ कहकर पुकारा जाता था।

(ख) संस्कृत-साहित्य के प्रसिद्ध समीक्षक और विद्वान् ए.ए. मैकडानल अपने ‘ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर’ में मनुस्मृति को सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण संविधान मानते हैं-

““The most important and earliest of the matricol smrities is the Manava Dharm Shastra, or cod of Manu.”” (P.432)

    अर्थात्-स्मृतियों में सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण मानव धर्मशास्त्र है जिसको ‘मनु का संविधान’ कहा जाता है।

(ग) यूरोपियन लेखक पी. थामस ने अपनी ‘॥द्बठ्ठस्रह्व ह्म्द्गद्यद्बद्दद्बशठ्ठ ष्टह्वह्यह्लशद्वह्य ड्डठ्ठस्र द्वड्डठ्ठठ्ठद्गह्म्ह्य’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक में मनु को भारोतीयों का प्रथम संविधानदाता और मनुस्मृति को सबसे प्राचीन तथा सबसे महत्त्वपूर्ण संविधान माना है-

““Manu seems to have been the first law-giver of Indo Aryans, and all later law-givers accept his authority as Unquestionable.”” (P. 102)

       अर्थात्-मनु भारतीयों और यूरोपीय आर्यों के प्रथम विधिदाता हैं। सभी परवर्ती विधिदाता उनके संविधान मनुस्मृति को संदेहरहित मानते हैं।

(घ) जर्मन के प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से च्च्ञ्जद्धद्ग ख्द्बद्यद्य ह्लश श्चशख्द्गह्म्ज्ज् में मनुस्मृति को एक उत्तम पठनीय संविधान की संज्ञा देते हैं। मनु उस संविधान के दाता हैं-

““Close the Bible and open the code of Manu.””

(Vol.1, Book II., P. 126)

-बाइबल को पढ़ना बंद करो और मनु के संविधान (मनुस्मृति) को पढ़ो।

(ङ) यूरोपियन लेखक लुईस रेनो अपनी पुस्तक ‘क्रद्गद्यद्बद्दद्बशठ्ठह्य शद्घ ड्डठ्ठष्द्बद्गठ्ठह्ल ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड’ में मनुस्मृति को एक कानून का शिक्षाप्रद शास्त्र

मानते हैं-

““The laws of Manu provide a good illustration of the interlacing of themes in Indian literature, here we have a legislative text, or at any rate a book of legal maxims.”” (P.49)

 

अर्थात्-मनु के कानूनी विधान बहुत अच्छी शिक्षा देने वाले हैं। वे शिक्षाएं भारतीय साहित्य से जुड़ी हुई होती हैं। मनु की पुस्तक एक संवैधानिक पुस्तक है और वह हमें कानूनी विधि-विधानों की जानकारी देती है।

(च) न्यू जर्सी (अमेरिका) से प्रकाशित ‘दि मैकमिलन फेमिली इंसाइक्लोपीडिया’ में हिन्दू कानून में मनुस्मृति को महत्त्वपूर्ण संविधान माना गया है-

““Manu, his name is attached to the most important codification of Hindu law, the Manava-dharm shastra (Law of Manu)”” ( Vol. 13, P. 131)

अर्थात्-मानव धर्मशास्त्र अर्थात् मनु का संविधान हिन्दू विधि-विधानों की एक बहुत महत्वपूर्ण संहिता है। उसके रचयिता मनु है।

(छ) संस्कृत साहित्य के समीक्षक एवं इतिहासकार ए.बी.कीथ अपने ‘ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर’ में मनु को विधिदाता और न्यायमूर्ति स्वीकार करते हैं-

““Manu, he was the renewer of secrificial ordinances and the dispenser of maxims of justice.””

(P.440)

अर्थात्-मनु धार्मिक विधियों तथा न्याय की विधियों का सर्वप्रथम प्रदाता था।

(ज) ‘प्रिंसिपल आफ पोलिटिकल साइंस’ में आर.एन गिलब्रिस्ट मनुस्मृति को सबसे प्रभावी हिन्दू कानून मानते हैं –

““The most influential basis of Hindu law is the code of Manu”” (P. 163)

 

    अर्थात्-मनु का संविधान (मनुस्मृति) हिन्दू कानून के रूप में सबसे प्रभावशाली संविधान है।

विदेशी साहित्य में मनु का सबसे महत्त्वपूर्ण आदिविधिदाता के रूप में मूल्यांकन पूर्णतः सही है। मनु इस गौरवपूर्ण पद के वस्तुतः अधिकारी हैं। हम भारतीय अपने पूर्वज मनु की निन्दा करके जहां अपनी अज्ञानता का ढिंढोरा पीट रहे हैं वहीं अपने इतिहास, साहित्य, संस्कृति, सयता और पूर्वजों का अपने हाथों अपमान कर रहे हैं।

विश्व का आदि संविधान ‘मनुस्मृति’ और आदिविधि प्रणेता राजर्षि मनु: डॉ0 अम्बेडकर का मत

मनु विधिप्रणेता

यद्यपि डॉ0  अम्बेडकर ने उपलध मनुस्मृति को 185 ई0 पू0 की रचना माना है और उसका रचयिता सुमति भार्गव नामक ‘मनु’ को माना है तथापि वे पूर्व मनु और उनके संविधानों के अस्तित्व को भी स्वीकार करते हैं। मनुस्मृति-काल और रचयिता के सबन्ध में डॉ0 अबेडकर को कुछ भ्रान्तियां हैं जिनका निराकरण आगे किया जायेगा। यहां केवल यही कहना अभीष्ट है कि वे स्वायंभुव मनु को प्राचीनतम और ‘विधि-निर्माता’ मानते हैं। किसी के विधान अच्छे या बुरे हों, यह प्रश्न नहीं है; हैं तो वे विधिनिर्माता के पद के अधिकारी। डॉ0 अबेडकर लिखते हैं-

(क) ‘‘इससे प्रकट होता है कि केवल मनु ने विधान बनाया। जो स्वायभुव मनु था।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 283)

इस मनु का वंश विवरण देते हुए डॉ0 अंबेडकर ने सुदास राजा को इक्ष्वाकु की 50वीं पीढ़ी में माना है। इक्ष्वाकु सातवें मनु वैवस्वत का पुत्र था और वैवस्वत मनु स्वायंभुव मनु की सुदीर्घ वंशपरपरा में सातवां मनु था। (वही खंड 13, पृ0 104, 152)

(ख) ‘‘मनु सर्वप्रथम वह व्यक्ति था जिसने उन कर्त्तव्यों को व्यवस्थित और संहिताबद्ध किया, जिन पर आचरण करने के लिए हिन्दू बाध्य थे।’’ (वही, खंड 7, पृ0 226)

(ग) ‘‘मनुस्मृति कानून का ग्रन्थ है।…..चूकिं इसमें कर्त्तव्य न करने पर दंड की व्यवस्था दी गयी है, इसलिए यह कानून है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 226)

(घ) ‘‘पुराणों में वर्णित प्राचीन परपरा के अनुसार, जितनी अवधि के लिए किसी भी व्यक्ति का वर्ण मनु और सप्तर्षि द्वारा निश्चित किया जाता था, वह चार वर्ष की ही होती थी और उसे युग कहते थे।’’ (वही, खंड 7, पृ0 170)

यह प्राचीन विधिनिर्माता मनु की विधिव्यवस्था का वर्णन है जिस पर डॉ0 अबेडकर को कोई आपत्ति नहीं है। वे यहां इस व्यवस्था की प्रशंसा कर रहे हैं।

(ङ) ‘‘ये नियम मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, विष्णु, कात्यायन आदि की स्मृतियों आदि से संकलित किए गए हैं। ये कुछ ऐसे प्रमुख विधि-निर्माता हैं जिन्हें हिन्दू विधि के निर्माण के क्षेत्र में प्रमाण-स्वरूप मानते हैं।’’ (वही, खंड 9, पृ0 104)

(च) ‘‘इसे हिन्दुओं के विधि निर्माता मनु ने मान्यता प्रदान की है।’’ (वही, खंड 9, पृ0 26)

(छ) आज डॉ0 अबेडकर का समान विधिनिर्माता के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। इससे कहीं अधिक समान प्राचीन काल में मनु का था। इसी कारण जब लोकसभा में भारतीय संविधान प्रस्तुत किया गया था तो राजनेताओं और जनता ने डॉ0 अबेडकर को ‘आधुनिक मनु’ कहकर प्रशंसित किया था। तब डॉ0 अबेडकर को इस उपाधि पर गौरव की अनुभूति हुई थी उन्होंने इस तुलना पर कभी कोई आपत्ति प्रस्तुत नहीं की।

वस्तुस्थिति यह है कि डॉ0 अबेडकर जब तक विशुद्ध साहित्य समीक्षक रहे तब तक उनको मनु और मनुस्मृति की मौलिक व्यवस्था पर कोई विशेष आपत्ति नहीं हुई। तब उनके प्रायः वही निष्कर्ष थे जो प्राचीन इतिहास के थे। जब वे राजनीतिक क्षेत्र में उतरे और बौद्ध धर्म के व्यामोह से ग्रस्त हो गये, तब वे सुनियोजित रूप से मनु और मनुस्मृति की निन्दा के जाल को फैलाते चले गये। उक्त प्रसंगों में डॉ. अबेडकर ने मनु को विधिनिर्माता के रूप में जो महत्त्व और समान दिया है, उनके अनुयायियों को उसे स्मरण रखना चाहिए।