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मनु यज्ञसंस्था के आदिप्रवर्तक धर्मगुरु: डॉ. सुरेन्द कुमार

मनु स्वायभुव यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों के आदि प्रवर्तक हैं। इतिहास से ज्ञात होता है कि मनु, स्वायभुव ने ही सर्वप्रथम वेदों से ज्ञान ग्रहण कर स्वयं और अपने राज्य में यज्ञों का अनुष्ठान आरंभ किया था। इस प्रकार मनु स्वायंभुव धार्मिक यज्ञसंस्था के आदिप्रवर्तक एवं धर्मगुरु हैं। इस ऐतिहासिक तथ्य का प्रमाण ब्राह्मण ग्रन्थों और संहिता ग्रन्थों में उपलध है। शतपथ ब्राह्मण में इस ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख स्पष्ट शदों में मिलता है-

(क) ‘‘मनुराह वै अग्रे यज्ञेन ईजे। तद् अनुकृत्य इमाः प्रजाः यजन्ते। तस्माद् आह-‘मनुष्वद्’ इति। ‘मनोः यज्ञः’ इति उ-वै-आहुः। तस्माद् वा इव आहुः ‘मनुष्वद्’ इति।’’ (शत0 ब्रा0 1.5. 1.7)

    अर्थात्-‘यह सुनिश्चित तथ्य है कि मनु ने सर्वप्रथम यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसी मनु का अनुसरण करके सब प्रजाएं (जनता) यज्ञ करती हैं। इसी आधार पर कहा जाता है कि यज्ञ मनु के अनुसरण पर किया जाता है अर्थात् यज्ञ का आदिप्रवर्तक मनु है।’ यह आदि मनु ब्रह्मापुत्र स्वायंभुव मनु ही है।

(ख) इसी तथ्य का उल्लेख शतपथ ब्रह्मण में अन्यत्र भी वर्णित मिलता है, जिससे इसकी पुष्टि हो जाती है। ब्राह्मणकार कहता है-

‘‘प्रजापतये मनवे स्वाहा, इति। प्रजापतिर्वै मनुः। स हि इदं सर्वं मनुत। प्रजापतिर्वै एतद् अग्रे कर्म अकरोत्।’’ (6.6.1.19)

    अर्थात्- ‘प्रजापति मनु के प्रति मैं आदर प्रकट करता हूं। मनु निश्चय ही प्रजापति (प्रजाओं का प्रमुख और स्वामी) है। उस मनु ने सर्वप्रथम संसार की व्यवस्थाओं का निर्माण किया और उनका प्रवर्तन किया। उस प्रजापति मनु ने ही सर्वप्रथम इस यज्ञानुष्ठान को क्रियात्मक रूप में प्रवर्तित किया। अथवा, समाज व्यवस्थापन रूप कर्म सर्वप्रथम मनु ने किया।’ मनु स्वायंभुव आदि समाज-व्यवस्थापक था। अपने राज्य में उसने धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक आदि सभी व्यवस्थाओं का प्रवर्तन कर समाज को सुसय, सुसंस्कृत और व्यवस्थित बनाया।

(ग) शतपथ ब्राह्मण से भी प्राचीन तैत्तिरीय संहिता में भी मनु की इस ऐतिहासिक घटना का उल्लेख मिलता है –

‘‘मन्विद्ध’ इत्याह, मनुर्हि एतं उत्तरो देवेयः ऐन्ध।’’                                                                        (2.5.9.1)

    अर्थात्-‘मनु ने यज्ञ किया’ यह कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि भावी देवजनों के लिए मनु ने यज्ञ किया अर्थात् उनके लिए यज्ञपरपरा का प्रवर्तन किया।’

(घ) मनु स्वायंभुव के अनुकरण पर परवर्ती मनुओं ने भी मनु द्वारा प्रवर्तित धार्मिक और सामाजिक विधानों का पालन और प्रवर्तन किया। यही कारण है कि बहुत से उल्लेख कई मनुओं के साथ घुल-मिल गये हैं। वही वर्णन कहीं स्वायंभुव के साथ वर्णित मिलते हैं तो कहीं वैवस्वत के साथ। माना जाता है कि मनु-परपरा में जो सातवां वैवस्वत मनु था उसका मूल नाम ‘श्रद्धादेव’ था। शतपथ ब्राह्मण में श्रद्धादेव मनु को भी यज्ञ के प्रति अतिशय श्रद्धालु और समर्पणशील वर्णित किया है। उसके यज्ञ-प्रेम का उल्लेख करते हुए कहा है कि वह यज्ञानुष्ठान से सभी आसुरी प्रवृत्तियों और असुर प्रवृत्ति के लोगों को वश में कर लेता था-‘‘श्रद्धादेवो वै मनुः’’ (1.1.4.14)

-यह मनु श्रद्धादेव है।

‘‘मनोः श्रद्धादेवस्य यजमानस्य असुरघ्नी वाग् यज्ञायुधेषु प्रविष्टा आसीत्।’’ (तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.2.6.9)

    अर्थात्-‘यजमान श्रद्धादेव मनु की वाणी यज्ञविधियों रूप शस्त्रों में प्रविष्ट थी और वह असुरों का विनाश करने वाली थी। अर्थात् यज्ञीय विधियों के श्रद्धापूर्वक सयक् अनुष्ठान के द्वारा मनु आसुरी प्रवृत्तियों और असुर प्रवृत्ति के प्रजाजनों या शत्रुओं को प्रभावित और नियन्त्रित कर लेते थे।’ यह नियन्त्रण यज्ञ के श्रद्धापूर्ण अनुष्ठान का परिणाम था।

(ङ) यही नहीं मनु श्रद्धादेव की पत्नी भी वेदविदुषी और मन्त्रोच्चारण में कुशल थी। वह यज्ञानुष्ठान में जब उच्चस्वर से वेदमन्त्रों का उच्चारण करती थी तो असुर प्रवृत्ति के लोग भी उससे प्रभावित होकर पराजित हो जाते थे। काठक ब्राह्मण में वर्णित एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना इसी संदर्भ में पठनीय है –

‘‘तत् पत्नीं यजुर्वदन्तीं प्रत्यपद्यत। तस्याः वाग् द्याम् आतिष्ठत्। तस्याः वदन्त्याः यावन्तोऽसुराः उपाशृण्वन् ते पराावन्।’’ (3.30.1)

    अर्थात्-मनु अपनी पत्नी के महल में जाते हैं तो देखते हैं कि ‘उनकी पत्नी यजुर्वेद के मन्त्रों का उच्चारण कर रही थी। उसकी उच्च-स्वरीय वाणी आकाश को गुंजा रही थी। उसके मन्त्रपाठ को सुनकर सभी असुर-प्रवृत्ति के लोग इस प्रकार प्रभावित हुए मानो पराजित हो गये हों या सस्वर मन्त्रपाठ से आसुरी भावनाएं नष्ट हो रही थीं।’

इससे यह भ्रान्तिाी निर्मूल हो जाती है कि प्राचीन मनु स्त्रियों के धार्मिक अधिकारों के विरोधी थे। इस घटना में स्वतन्त्ररूप से मनुपत्नी द्वारा यजुर्वेद के मन्त्रों का उच्चारण और उनसे यज्ञानुष्ठान का स्पष्ट उल्लेख है।

वैदिक ग्रन्थों के इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि स्वायभुव मनु और उसकी परपरा में परिगणित अन्य मनु यज्ञ की धार्मिक परपरा के आदि प्रवर्तक और श्रद्धापूर्वक संवाहक थे। अतः प्राचीन इतिहास में मनु का एक धार्मिक प्रतिष्ठाता के रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।