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मनु की वर्णव्यवस्था की विशेषताएं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वैदिक वर्णव्यवस्था एक मनोवैज्ञानिक एवं समाज-हितकारी व्यवस्था थी। जैसा कि महर्षि मनु ने (1.31, 87-91 में) स्वयं कहा है, वह निश्चय ही समाज को सुरक्षित और व्यवस्थित करके उसकी प्रगति और उन्नति करने वाली व्यवस्था है। उसकी विशेषताएं थीं –

  1. मनोवैज्ञानिक आधार-वर्णव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों, रुचियों, योग्यताओं का और तदनुसार प्रशिक्षण का ध्यान रखा गया है। प्रत्येक मनुष्य में ये भिन्नताएं स्वाभाविक हैं। प्रत्येक को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के आधार पर कार्यचयन का अवसर प्रदान किया गया है। इसमें महाविद्वान् से लेकर अनपढ़ तक, सबको कार्य का अवसर प्राप्त है। एक के कार्य में दूसरे के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है।
  2. कार्यसिद्धान्त का समान महत्त्व-मनुस्मृति की व्यवस्था ऐसे कार्यसिद्धान्त पर आधारित है जिसमें चारों वर्णों के कार्यों का समान और अनिवार्य महत्त्व है। जैसे शरीर के लिए मुख, बाहु, उदर, पैर सबका समान महत्त्व है और किसी एक के बिना शरीर अपंग हो जाता है, उसी प्रकार समाजरूपी पुरुष के लिए चारों वर्णों का महत्त्व है। किसी एक के बिना वह अपंग है। अतः चारों वर्ण अपने कार्यों से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। सबका कार्य अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है।
  3. शक्ति का विकेन्द्रीकरण एवं संतुलन-मनुस्मृति में शक्तियों का विकेन्द्रीकरण करके, साी वर्णों में शक्तियों को बांटकर समाज में शक्ति-संतुलन स्थापित किया गया है। सभी वर्णों की शक्तियां और अधिकार सुनिश्चित हैं। वर्णव्यवस्था में किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के पास असीमित शक्ति का संग्रह नहीं हो सकता। विविध शक्तियों का एक स्थान पर संग्रह होना ही समाज में असन्तुलन, अन्याय, अत्याचार, अभाव को पैदा करता है। अतः वर्णव्यवस्था ने ज्ञान, बल, धन और श्रम को पृथक्-पृथक् किया है। भारत में जब तक वर्णव्यवस्था रही कभी समाज में शक्ति का असन्तुलन नहीं हुआ। सबके लिए काम था। सबकी मूल आवश्यकताएं पूर्ण होती थीं।

आज ही कथित श्रेष्ठ व्यवस्था का उदाहरण लीजिए। व्यवसाय- स्वतन्त्रता के नाम पर आज कोई भी एक व्यक्ति या व्यक्तिसमूह ज्ञान, धन, बल और श्रम का अपरिमित संग्रह कर सकता है। एक ही व्यक्ति अनेक व्यवसायों पर नियन्त्रण कर लेता है। उसका दुष्परिणाम यह होता है कि तुलना में उतने ही व्यक्ति या परिवार व्यवसाय से वंचित हो जाते हैं। अनेक प्रकार की शक्तियां एकत्र करके वह व्यक्ति व्यवसाय तक सीमित नहीं रहता, अपितु साथ ही शासन, प्रशासन और समाज को अपने हितों के लिए नियन्त्रित करना आरभ कर देता है। वह मनमानियां भी करता है। एक स्थान पर अनेक व्यवसायों की शक्ति का संग्रह होने के परिणामस्वरूप गरीब, अधिक गरीब और शक्तिहीन हो रहे हैं। शक्तिसपन्न लोग अधिक शक्तिसपन्न हो रहे हैं। समाज में दो ही वर्ग बनते जा रहे हैं-पूंजीपति और गरीब। लोकतन्त्र होते हुएाी शक्ति-सपन्नों का राज्य है। वे प्रायः निरंकुश हैं, कानून की पकड़ से बाहर हैं। वर्णव्यवस्था वाले समाज में ज्ञान में ब्राह्मणों का वर्चस्व था, बल में क्षत्रियों का, धन में वैश्यों का, श्रम में शूद्रों का। ब्राह्मणों पर क्षत्रियों का अंकुश था और क्षत्रियों पर ब्राह्मणों का। वैश्य-शूद्रों पर भी राज्य का अंकुश था और राज्य पर वैश्यों का। एक वर्ण के व्यवसाय में दूसरा वर्ण हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, अतः रोजगार के अधिक अवसर थे।

  1. विशेषज्ञ बनाने की पद्धति-वर्णव्यवस्था की पद्धति से शिक्षित-दीक्षित होकर जो व्यक्ति निकलते हैं वे अपने-अपने कर्मों में कुशल प्रशिक्षित अर्थात् विशेषज्ञ नागरिक होते हैं। ऐसे विशेषज्ञों से कोई भी समाज सदा उन्नति ही करेगा। प्रत्येक क्षेत्र के कार्यों में निरन्तर प्रगति होती रहेगी।
  2. विशेषता का हस्तान्तरण-मनुस्मृति में विहित व्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता से है। किन्तु इसमें यह भी स्वतन्त्रता है कि कोई बालक अपने माता-पिता के व्यवसाय को अपना सकता है। इस प्रकार विशेषज्ञता पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती जाती है। इससे विशेषज्ञता और विकासदर दोनों बढ़ती हैं। इसी विशेषता के कारण प्राचीनाारत में प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति हुई।
  3. कठोरता और लचीलेपन का समन्वय-वर्णव्यवस्था पद्धति में सभी के अधिकार, कर्तव्य और व्यवसाय निर्धारित हैं। जब तक व्यक्ति किसी वर्ण में रहता है, उसे कठोरता से उसके नियमों का पालन करना पड़ता है। उसके भंग करने पर राजदण्ड की व्यवस्था है।

किन्तु यदि कोई व्यक्ति वर्णपरिवर्तन करना चाहता है तो उसे इसकी छूट है। वह जिस वर्ण में जाना चाहता है उसकी आवश्यक योग्यता प्राप्त करके उस वर्ण को ग्रहण कर सकता है।

  1. वर्णव्यवस्था के मूल तत्त्व विश्व की सभी व्यवस्थाओं के अपरिहार्य तत्त्व-क्या हम वर्णव्यवस्था के मूल तत्त्वों की उपेक्षा कर सकते हैं? कदापि नहीं। जैसा कि बार-बार कहा गया है कि मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं-गुण, कर्म, योग्यता। मनु व्यक्ति अथवा वर्ण को महत्त्व और आदर-समान नहीं देते अपितु वर्णस्थ गुणों को देते हैं। जहां इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्त्व और आदर-समान अधिक है, न्यून होने पर न्यून है। आज तक संसार की कोई भी सय व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पायी है और न नकारेगी। इनको नकारने का अर्थ है-अन्याय, असन्तोष, आक्रोश, अव्यवस्था और अराजकता। मुहावरों की भाषा में इसी स्थिति को कहते हैं ‘घोड़े-गधे को एक समझना’ या ‘साी को एक लाठी से हांकना।’ उसका परिणाम यह होता है कि कोई भी समाज या राष्ट्र न विकास कर सकता है, न उन्नति; न समृद्ध हो सकता है, न सपन्न; न सुखी हो सकता है, न संतुष्ट; न शान्त रह सकता है, न अनुशासित; न व्यवस्थित रह सकता है, न अखण्डित। उक्त गुणों से रहित व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती। वर्तमान में निश्चित सर्वसमानता का दावा करने वाली सायवादी व्यवस्थााी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी है। उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं। उन्हीें के अनुरूप वेतन, सुविधा और समान में अन्तर हैं। वर्णव्यवस्था के मूल तत्वों को विश्व की कोई व्यवस्था नकार नहीं सकती।

वर्णव्यवस्था की वर्तमान में प्रासंगिकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार

इस युग में वर्णव्यवस्था की प्रासंगिकता पर बार-बार चर्चा उठती है। साथ ही यह प्रश्नाी उत्पन्न होता है कि क्या वर्तमान में वर्णव्यवस्था लागू हो सकती है? इसका उत्तर यह है कि यदि कोई शासनतन्त्र इसमें रुचि ले तो हो सकती है। जैसे मुस्लिम देशों में शरीयत प्रणाली का शासन आज भी लागू कर दिया जाता है। वर्णव्यवस्था प्रणाली तो बहुत ही मनोवैज्ञानिक और समाज-हितकारी व्यवस्था है। इससे समाज की निश्चय ही योजनाबद्ध रूप से उन्नति होती रही है और हो सकती है। प्राचीन काल में भारत जो विद्या, धन और बल में विश्व में सर्वोपरि था, वह इसी वैदिक वर्णव्यवस्था के अर्न्तगत रहकर था। महर्षि मनु के समय यह देश ‘विश्वगुरु’ था और अन्य देशों के जन यहां शिक्षा प्राप्त करने आते थे-

एतद्देशप्रसूतस्य     सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (2.20)

    अर्थ-समस्त पृथिवी के मनुष्य आयें और इस भारतभू पर उत्पन्न विद्वान् एवं सदाचारी ब्राह्मणों के समीप रहकर अपने-अपने योग्य कर्त्तव्यों-व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त करें।

उस समय यह देश न केवल विद्या में ‘विश्वगुरु’ था अपितु धन-ऐश्वर्य में ‘स्वर्णभूमि’ और ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। बल-पराक्रम में अजेय था। कभी इसकी ओर आंख उठाकर देखने की किसी की हिमत नहीं हुई। यह व्यवस्था आदिपुरुष ब्रह्मा से लेकर महाभारत काल के बाद तक रही। इसी व्यवस्था में रहकर ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि जैसे विद्याविशेषज्ञ ऋषि हुए। स्वायभुव मनु, वैवस्वत मनु, जनक, अश्वपति जैसे राजर्षि; मय, त्वष्टा और विश्वकर्मा जैसे वास्तुकार; नल, नील जैसे सेतुविशेषज्ञ; वाल्मीकि, व्यास, कालिदास जैसे महाकवि; चरक, सुश्रुत, धन्वंतरि, वाग्भट्ट जैसे आयुर्वेदज्ञ; राम, कृष्ण जैसे पुरुषोत्तम; अर्जुन, कर्ण जैसे धनुर्धारी; वीर हनुमान जैसे शस्त्र और शास्त्रनिपुण, ऋषि भारद्वाज जैसे विमानविद्या विशेषज्ञ; आर्यभट्ट जैसे खगोलविद्, षड्दर्शनकारों जैसे अद्भुत चिन्तक उत्पन्न हुए थे।

देश का सर्वतोमुखी पतन तो तब हुआ जब यहाँ जन्मना जातिवाद का बोलबाला हो गया और अधिकांश समाज अज्ञानी हो गया और जातियों में विभाजित हो गया। इस जातिवाद को कर्मणा व्यवस्था की भावना ही मिटा सकती है। मैं तो इस बात को बल देकर कहना चाहूंगा कि जातिवादी व्यवस्था न तो वैदिक व्यवस्था है और न आर्यों की व्यवस्था। स्वयं को आर्य या वैदिक कहने वाले व्यक्तियों को या तो जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूआछूत को छोड़ देना चाहिये अथवा स्वयं को आर्य या वैदिक कहना छोड़ देना चाहिये। जब से ये भावनाएं रही हैं देश-जाति की हानि ही हुई है, और जब तक रहेंगी और अधिक हानि होती रहेगी। इनको छोड़ने पर ही वास्तविक एकता और विकास हो सकेगा।

जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप डॉ अम्बेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर ने निनलिखित उल्लेखों में जातिव्यवस्था को वर्णव्यवस्था का विकृत या भ्रष्ट रूप माना है, जो बिल्कुल सही मूल्यांकन है। जो यह कहा जाता है कि जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था से विकसित हुई है, यह सरासर गलत है क्योंकि दोनों परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। डॉ0 अम्बेडकर विकास की धारणा को बकवास मानते हुए लिखते हैं-

(क) ‘‘कहा जाता है कि जाति, वर्ण-व्यवस्था का विस्तार है। बाद में मैं बताऊंगा कि यह बकवास है। जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है। यह विपरीत दिशा में प्रसार है। जात-पात ने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 181)

(ख) ‘‘जातिप्रथा, चातुर्वर्ण्य का, जो कि हिन्दू आदर्श है, एक भ्रष्ट रूप है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 263)

(ग) ‘‘अगर मूल वर्णपद्धति का यह विकृतीकरण केवल सामाजिक व्यवहार तक सीमित रहता, तब तक तो सहन हो सकता था। लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना कर चुकने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहा। उसने इस चातुर्वर्ण्य पद्धति के परिवर्तित तथा विकृत रूप को कानून बना देना चाहा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 216)

(आ) मनु जातिनिर्माता नहीं : डॉ0 अम्बेडकर का मत-

    कभी-कभी मनुष्य के हृदय से सत्य स्वयं निकल पड़ता है। डॉ0 अम्बेडकर के हृदय से भी ये निष्पक्ष शब्द एक समय निकल ही पड़े-

    (क) ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूं कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था। जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी।’’

(डॉ0 अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)

    (ख) कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिमेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है। वर्णव्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक नाी हो, परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लगाया जा सकता है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 43)

कोई कितनााी आग्रह करे, किन्तु यह निश्चित है कि डॉ0 अम्बेडकर ने उक्त वाक्य लिाकर किसी एक मनु को ही नहीं, अपितु सभी मनुओं को जाति-व्यवस्था के निर्माता के आरोप से सदा-सदा के लिए मुक्त कर दिया है। इसके बाद जातिवाद के नाम पर मनु का विरोध करने का कोई औचित्य ही नहीं बनता।

जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप: डॉ सुरेन्द्र कुमार

यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि जन्मना जातिव्यवस्था वर्णव्यवस्था से विकसित व्यवस्था नहीं है अपितु उसकी विकृत व्यवस्था है। इसको मनु स्वायभुव के साथ कदापि नहीं जोड़ा जा सकता। यह बताया जा चुका है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती। इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता है। वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख है और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख है। जिन्होंने इनका समानार्थ में प्र्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया। ‘वर्ण’ शब्द ‘वृञ्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको स्वेच्छा से वरण किया जाये वह समुदाय’। निरुक्त में आचार्य यास्क ने ‘वर्ण’ शब्द के अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

‘‘वर्णःवृणोतेः’’(2.14)=स्वेच्छा से वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है।

वैदिक वर्णव्यवस्था में समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया था। जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक वह वर्णव्यवस्था कहलायी। जब अकर्मण्यता और स्वार्थवश जन्म से ब्राह्मण, शूद्र आदि माने जान लगे तो वह व्यवस्था विकृत होकर जातिव्यवस्था बन गयी। इस प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था का विकास नहीं, अपितु विकार है। विकृत व्यवस्था का दोष मनु को नहीं दिया जा सकता। मनु न तो काल की दृष्टि से, न व्यवस्था की दृष्टि से जाति-व्यवस्था के निर्माता माने जा सकते हैं। जाति का निर्माता तो मनु से बहुत परवर्ती अर्थात् महाभारत काल के बाद का समाज है। वही मनुस्मृति में जातिवादी प्रक्षेप करने का उत्तरदायी है।

डॉ अम्बेडकर का जाति उद्भव सबन्धी मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ अम्बेडकर बुद्ध (550 ईसा पूर्व) के लगभग जन्मना जातिव्यवस्था का उदव मानते हैं। यद्यपि तब तक व्यवहार में लचीलापन था किन्तु असमानता का भाव आ चुका था। जातिवादी कठोरता का समय वे पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ई0पू0) नामक ब्राह्मण राजा के काल को मानते हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था महाभारत काल तक प्रचलित थी, इसके प्रमाण और उदाहरण महाभारत और गीता तक में मिलते हैं। डॉ0 अम्बेडकर ने शान्तनु क्षत्रिय और मत्स्यगंधा शूद्र-स्त्री के विवाह का उदाहरण देकर इस तथ्य को स्वीकार किया है (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 175, 195)। उससेाी आगे बौद्ध काल तक भी अन्तर-जातीय विवाह और अन्तर-जातीय भोजन का प्रचलित होना उन्होंने स्वीकार किया है कि ‘‘जातिगत असमानता तब तक उभर गयी थी’’ (वही, पृ0 75)। डॉ0 अम्बेडकर यह भी मानते हैं कि ‘‘तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी’’ (वही, पृ0 75)। उनके मत ध्यानपूर्वक पठनीय हैं-

(क) ‘‘बौद्धधर्म-समय में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था एक उदार व्यवस्था थी और उसमें गुंजाइश थी………किसी भी वर्ण का पुरुष विधिपूर्वक दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह कर सकता था। इस दृष्टिकोण की पुष्टि में अनेक दृष्टान्त उपलध हैं’’ (वही, खंड 7, पृ0 175)।

(ख) ‘‘इन दो नियमों ने जातिप्रथा को जन्म दिया। अन्तर-विवाह और सहभोज का निषेध दो स्तंभ हैं, जिन पर जातिप्रथा टिकी हुई है’’ (वही, खंड 7, पृ0 178)।

(ग) ‘‘वास्तव में जातिप्रथा का जन्म भारत की विभिन्न प्रजातियों के रक्त और संस्कृति के आपस में मिलने के बहुत बाद में हुआ’’(वही, खंड 1, पृ0 67)

(घ) ‘‘बुद्ध ने जातिप्रथा की निंदा की। जातिप्रथा उस समय (550 ई0पू0) वर्तमान रूप में विद्यमान नहीं थी। अन्तर्जातीय भोजन और अन्तर्जातीय विवाह पर निषेध नहीं था। तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी। किन्तु असमानता का सिद्धान्त, जो कि जातिप्रथा का आधार है, उस समय सुस्थापित हो गया था और इसी सिद्धान्त के विरुद्ध बुद्ध ने एक निश्चयात्मक और कठोर संघर्ष छेड़ा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 75)

(ङ) ‘‘जिज्ञासु सहज ही यह पूछेगा कि (185 ई0 पूर्व पुष्यमित्र की क्रान्ति के बाद) ब्राह्मणवाद ने विजयी होने के बाद क्या किया?……….’’ (3) इसने वर्ण को जाति में बदल दिया।………(6) इसने वर्ण-असमानता की प्रणाली को थोप दिया और इसने सामाजिक व्यवस्था को कानूनी और कट्टर बना दिया, जो पहले पारंपरिक और परिवर्तनशील थी।’’ (वही खंड 7, पृ0 157)

(च) ‘‘ब्राह्मणवाद अपनी विजय के बाद मुय रूप से जिस कार्य में जुट गया, वह था वर्ण को जाति में बदलने का कार्य, जो बड़ा ही विशाल और स्वार्थपूर्ण था।’’ (वही खंड 7, पृ0 168)

(छ) डॉ0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना है कि ‘‘तर्क में यह सिद्धान्त है कि ब्राह्मणों ने जाति-संरचना की।’’ (वही, खंड 1, पृ. 29)

(ज) ‘‘उपनयन के मामले में ब्राह्मणवाद ने जो मुय परिवर्तन किया, वह था उपनयन कराने का अधिकार गुरु से लेकर पिता को देना। इसका परिणाम यह हुआ कि चूंकि पिता को अपने पुत्र का उपनयन करने का अधिकार था, इसलिए वह अपने बालक को अपना वर्ण देने लगा और इस प्रकार उसे वंशानुगत बना दिया। इस प्रकार वर्ण निर्धारित करने का अधिकार गुरु से छीनकर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।’’

(वही, खंड 7, पृ0 172)

इससे यह निष्कर्ष निकला कि बौद्धकाल तकाी जाति-व्यवस्था नहीं पनप पायी थी। तब तक प्राचीन वर्णव्यवस्था का ही समाज पर अधिक प्रभाव था। इससे एक निष्कर्ष स्पष्ट रूप से सामने आता है कि हजारों पीढ़ी पूर्व जो आदिपुरुष मनु हुए हैं, उनके समय में जाति-पांति व्यवस्था का नामो-निशानाी नहीं था। उस समय विशुद्ध गुण-कर्म पर आधारित वैदिक वर्ण-व्यवस्था थी, जिसकी डॉ. अम्बेडकर ने गत उद्धरणों में प्रशंसा की है। अतः मनु पर जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत आदि का आरोप किंचित् मात्र भी नहीं बनता। फिर भी मनु का विरोध क्यों?

वर्णव्यवस्था का ह्रास और जातिवाद का उद्भव काल: डॉ सुरेन्द्र कुमार

विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त वैदिक कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है। गीता में स्पष्ट शदों में कहा गया है-

    ‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’’    [4। 13]

    अर्थात्गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण किया गया है। जन्म के अनुसार नहीं।’ इसका अभिप्राय यह हुआ कि तब तक वर्णों का निर्धारक तत्त्व ‘जन्म’ नहीं था। वर्णव्यवस्था के अर्न्तगत रहकर भारत ने विद्या, बुद्धि, बल में अद्भुत उन्नति की थी; किन्तु महाभारत के विशाल युद्ध ने भारत के सारे ढांचे को चरमरा दिया। सारी सामाजिक व्यवस्थाओं में अस्त-व्यस्त स्थिति बन गई। धीरे-धीरे लोगों में अकर्मण्यता, स्वार्थ एवं लोभ के भावों ने स्थान बना लिया। कर्म की प्रवृत्ति नष्ट हो गई किन्तु सुविधा-समान की प्रवृत्ति बनी रही। इस प्रकार धीरे-धीरे वर्णव्यवस्था में विकार आने लगा और जन्म को महत्त्व दिये जाने के कारण जातिव्यवस्था का उद्भव हुआ। पहले वर्णों में जन्म का महत्त्व प्रारभ हुआ फिर वर्ण- संकरता के नाम पर जन्माधारित जातियों का निर्माण हुआ। इसी प्रकार जातियों में उपजातियों का विकास हुआ और भारत में पूरा जातितन्त्र फैल गया। इस निर्माण के साथ जातिगत असमानता का भाव भी उभरने लगा। उसी भाव के कारण अन्तर-वर्ण विवाह और सहभोज भी समाप्त होते गये। लेकिन फिर भी व्यवहार में लचीलापन था।

ऐसा प्रतीत होता है कि ईसा से 185 वर्ष पूर्व पुष्यमित्र शुङ्ग नामक ब्राह्मण राजा के काल में, जो अपने राजा मौर्य सम्राट् बृहद्रथ की हत्या करके, वर्णव्यवस्था के नियमों को तोड़कर राजा बन बैठा था, राज्य की ओर से जातिव्यवस्था को बढ़ावा दिया गया, जन्माधारित भावनाओं को सुदृढ़ बनाया गया, जातिवाद का सुनियोजित रूप से प्रसार किया गया। तभी ब्राह्मणों को जन्म के आधार पर महिमामण्डित और सर्वाधिकार-युक्त घोषित किया गया तथा शूद्र आदि निन वर्गों पर अनेक अंकुश लगाये गये और उनके विरुद्ध कठोर नियम लागू किये गये।

यह भी अनुमान सही प्रतीत हाता है कि उसी काल में प्रायः समस्त वैदिक भारतीय वाङ्मय में सुनियोजित पद्धति से जातिवादी प्रक्षेप किये गये जिनमें ब्राह्मणों की पक्षपातपूर्ण पक्षधरता और शूद्रों की अन्यायपूर्ण उपेक्षा प्रमुख विषय रहे। इस प्रकार धीरे-धीरे जातिवाद का जाल फैलता चला गया। ब्राह्मणों का वर्चस्व एवं धार्मिक एकाधिकार जातिवाद के प्रचार-प्रसार में सबसे सशक्त कारण बना। जब से जातिवाद का उदय हुआ तब से भारत का भाग्य सो गया क्योंकि जातिवाद ने भारत का चहुंमुखी विनाश किया है और कर रहा है।

लगभग 140 वर्ष पूर्व आर्यसमाज के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द ने जब भारतीय समाज की दयनीय स्थिति को देखा तो उन्होंने वैदिक वर्णव्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को जनता के सामने स्पष्ट किया और मनु की मान्यताओं को सही अर्थ में समझाते हुए बताया कि ‘वर्ण’ कर्म से निर्धारित होते हैं, जन्म से नहीं; जातिवादी व्यवस्था वैदिक व्यवस्था नहीं है, आदि। उन्होंने मनुष्यमात्र के लिए शिक्षा का अधिकार घोषित किया और स्त्रियों तथा दलितों को समानशिक्षा और समानता का अधिकार घोषित करके एक नयी क्रान्ति का सूत्रपात किया। आज के ऊंच-नीच रहित समाज के निर्माण में महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने वैदिक प्राचीन वर्णव्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को हमारे सामने रख कर जहां नये समाज का निर्माण किया, वहीं प्राचीन संस्कृति का भी पुनरुद्धार किया।

डॉ अबेडकर द्वारा प्रस्तुत जातीय वर्णपरिवर्तन के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) ‘‘पतित जातियों में मनु ने उन्हें समिलित किया है जिन क्षत्रियों ने आर्य अनुष्ठान त्याग दिए थे, जो शूद्र बन गए थे और ब्राह्मण पुरोहित जिनके यहां नहीं आते थे। मनु ने इनका उल्लेख इस प्रकार किया है-पौड्रक, चोल, द्रविड़, काबोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद।’’ (अंबेडकरवाङ्मय, खंड 8, पृ0 218)

(ख) ‘‘दस्यु आर्य सप्रदाय के सदस्य थे किन्तु उन्हें कुछ ऐसी धारणाओं और आस्थाओं का विरोध करने के कारण ‘आर्य’ संज्ञा से रहित कर दिया गया, जो आर्यसंस्कृति का आवश्यक अंग थी।’’ (वही, खंड 7, पृ0 321)

(ग) ‘‘सेन राजाओं के सबन्ध में इतिहासकारों में मतभेद है। डॉ0 भंडारकर का कहना है कि ये सब ब्राह्मण थे, जिन्होंने क्षत्रियों के सैनिक व्यवसाय को अपना लिया था।’’ (डॉ0 अम्बेडकर वाङ्मय खंड 7, पृ0 106)

डॉ0 अम्बेडकर मनु के उदाहरणों तथा ऐतिहासिक उदाहरणों द्वारा समुदाय या जाति के वर्णपरिवर्तन को ऐतिहासिक सत्य स्वीकार करते हैं। ये उदाहरण जन्मना जातिवादी व्यवस्था के विरुद्ध हैं। स्पष्ट है कि मनु की व्यवस्था जातिवादी नहीं थी। फिर मनु पर जातिवादी होने का निराधार आक्षेप लगाकर उनका विरोध क्यों?

समुदायों के वर्णपरिवर्तन एवं वर्णबहिष्कार के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) व्यक्तिगत उदाहरणों के अतिरिक्त, इतिहास में पूरी जातियों का अथवा जाति के पर्याप्त भाग का वर्णपरिवर्तन भी मिलता है। महाभारत में और मनुस्मृति में कुछ पाठभेद के साथ पाये जाने वाले निन-उद्धृत श्लोकों से ज्ञात होता है कि निन जातियां पहले क्षत्रिय थीं किन्तु अपने क्षत्रिय-कर्त्तव्यों के त्याग के कारण और ब्राह्मणों द्वारा बताये शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त न करने के कारण वे शूद्रकोटि में अथवा वर्णबाह्य परिगणित हो गयीं-

शनकैस्तु   क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातयः।

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च॥

पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काबोजाः यवनाः शकाः।

पारदाः पह्लवाश्चीनाः किराताः दरदाः खशाः॥

(मनु0 10.43-44)

    अर्थात्-अपने निर्धारित कर्त्तव्यों का त्याग कर देने के कारण और फिर ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्चित्तों को न करने के कारण धीरे-धीरे ये क्षत्रिय जातियां शूद्र कहलायीं- पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड़, कबोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दरद, खश॥ महाभारत अनु0 35.17-18 में इनके अतिरिक्त मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर जातियों का भी उल्लेख है।

(ख) बाद तक भी वर्णपरिवर्तन के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं। जे.विलसन और एच.एल. रोज के अनुसार राजपूताना, सिन्ध और गुजरात के पोखरना या पुष्करण ब्राह्मण और उत्तरप्रदेश में उन्नाव जिला के आमताड़ा के पाठक और महावर राजपूत वर्णपरिवर्तन से निन जाति से ऊंची जाति के बने (देखिए, हिन्दी विश्वकोश भाग 4, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी)

वर्णपतन तथा वर्णबहिष्कार के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) मर्यादापुरुषोत्तम राम के पूर्वज सम्राट् रघु का ‘प्रवृद्ध’ नामक एक पुत्र था। नीच कर्मों के कारण उसे ‘राक्षस’ घोषित किया गया था और इस प्रकार वह वर्णों से पतित हो गया था।

(ख) राम के ही पूर्वज सगर का एक पुत्र ‘असमंजस्’ था। उसके अन्यायपूर्ण कर्मों के कारण उसे क्षत्रिय से शूद्र घोषित करके राज्याधिकार से वंचित कर राज्य से बहिष्कृत कर दिया था। (भागवतपुराण 6.8.14-19; महाभारत, वनपर्व 107)।

(ग) लंका का राजा रावण पुलस्त्य ऋषि के वंश में उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मणोपेत क्षत्रिय था। अन्यायी और दुराचारी होने के कारण उसे ‘राक्षस’ घोषित किया गया। (वाल्मीकि-रामायण, बाल एवं उत्तरकांड)

(घ) सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी क्षत्रियों के मूल पुरुष सातवें मनु वैवस्वत, जो एक चक्रवर्ती राजा थे, उनके पुत्र पृषध्र से किसी कारण गोवध हो गया। वैदिक काल में गोवध महापाप माना जाता था। इस पाप के दण्डस्वरूप उसको शूद्र घोषित कर दिया गया था। (भागवत0 8.13.3,9.1.12, 2.3-14; वायु0 64.30, 85.4, 86.1; विष्णु0 3.1.34, 4.1.7, 17 आदि)।

वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण

    भारतीय इतिहास में वर्णपरिवर्तन या वर्णपतन के सैंकड़ों ऐतिहासिक उदाहरण मिलते हैं जिनसे वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता तथा वर्णपतन की दण्डात्मकता का परिज्ञान होता है। यहां कुछ प्रमुख उदाहरण दिये जा रहे हैं-

(अ) व्यक्तिगत वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण

  1. मनुस्मृति के प्रवक्ता मनु स्वायंभुव के कुल में भी वर्ण-परिवर्तन हुए हैं। ब्राह्मण वर्णधारी महर्षि ब्रह्मा का पुत्र मनु स्वायंभुव स्वयं भी राजा बनने के कारण, ब्राह्मण से क्षत्रिय बना। मनुस्मृति के आद्यरचयिता इसी मनु स्वायंभुव के बड़े पुत्र राजा प्रियव्रत के दस पुत्र थे जो जन्म से क्षत्रिय थे। उनमें से सात क्षत्रिय राजा बने। तीन ने ब्राह्मण वर्ण को स्वीकार किया और तपस्वी बने। उनके नाम थे-महावीर, कवि और सवन (भागवतपुराण अ0 5)।
  2. दासी का पुत्र ‘कवष ऐलूष’ शूद्र परिवार का था। वह विद्वान् ब्राह्मण बनके मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहलाया। इस ऋषि द्वारा अर्थदर्शन किये गये सूक्त आज भी ऋग्वेद के दशम मण्डल में (सूक्त 31-33) मिलते हैं, जिन पर ऋषि के रूप में इसी का नाम अंकित है। (ऐतरेय ब्राह्मण 2.19; सांयायन ब्राह्मण 12.1-3)
  3. इसी प्रकार शूद्रा का पुत्र कहा जाने वाला वत्स काण्व भी पढ़-लिख कर ऋग्वेद के मन्त्रों का अर्थद्रष्टा ऋषि बना। (पंच0 ब्रा0 8.6.1; 14.6.6)
  4. सत्यकाम जाबाल अज्ञात कुल का था। वह अपनी सत्यवादिता एवं प्रखर बुद्धि के कारण महान् और प्रसिद्ध ऋषि बना। (बृहदारण्यक उप0 4.1.6; छान्दोग्य उप0 4.4-6; पंचविश ब्राह्मण 8.6.1)।
  5. निन कुल-परिवार में उत्पन्न हुआ मातंग अपनी विद्वत्ता के कारण ब्राह्मण एवं ऋषि बना। (महाभारत, अनु0 3.19)
  6. (कुछ कथाओं के अनुसार) वाल्मीकि निन कुल में उत्पन्न हुए, किन्तु वे ब्रह्मर्षि और महाकवि बने। (स्कंद पुराण, वै0 21)।
  7. विदुर दासी के पुत्र थे। वे महात्मा बने और राजा धृतराष्ट्र के महामन्त्री रहे। (महाभारत, आदिपर्व 100, 101, 135-137 अ0)
  8. पांचाल-राजा भर्याश्व का एक पुत्र मुद्गल राजा था, जो क्षत्रिय था। बाद में यह और इसके वंशज ब्राह्मण बन गये। इसके वंशज ब्राह्मण आज भी ‘मौद्गल ब्राह्मण’ कहलाते हैं (भागवतपुराण-9.21; वायु पुराण 99.198)
  9. कान्यकुज के राजा विश्वरथ राज्य को त्याग कर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने और फिर ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया और ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके अनेक पुत्रों में से कुछ क्षत्रिय ही रहे तो कुछ ब्राह्मण बन गये, जो आज कौशिक ब्राह्मण कहाते हैं। (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड 51-56 अध्याय)।
  10. इसी प्रकार दीर्घतमा नामक ऋषि के कई पुत्र थे, उनमें से कुछ ब्राह्मण बने तो कुछ क्षत्रिय। उनके वंशजों को ‘वालेय ब्राह्मण’ और ‘वालेय क्षत्रिय’ कहा जाता है। (विष्णुपुराण 4.18; भागवत पुराण 9.20)।
  11. चक्रवर्ती क्षत्रिय राजा मनु वैवस्वत (सातवां मनु) का नाभानेदिष्ट नामक पुत्र ब्राह्मण बना (ऐतरेय ब्राह्मण 5.14)। उसके लिए ‘ब्राह्मण’ संबोधन प्राप्त होता है (महाभारत 1.75.3)। यह ऋग्वेद के 1.61-62 सूक्तों का मन्त्रद्रष्टा ऋषि है (ऐतरेय ब्राह्मण 5. 14)।
  12. क्षत्रिय राजा मनु के इसी पुत्र का पुत्र नाभाग (किसी के मतानुसार दिष्ट राजा का पुत्र) वैश्य बना (भागवत0- 9.2.23, 28; मार्कण्डेय0 128.32; विष्णु0 4.1.19)। मुनि प्रभाति ने इसे पुनः क्षत्रिय वर्ण की दीक्षा दी थी।
  13. क्षत्रिय मनु वैवस्वत के पुत्र नरिष्यन्त के वंश में उत्पन्न देवदत्त का एक पुत्र अग्निवेश्य हुआ। यह ‘कनीन’ और ‘जातूकर्ण्य’ नामक ब्राह्मण ऋषि प्रसिद्ध हुआ। ब्राह्मणों में ‘आग्निवेश्य’ वंशीय ब्राह्मण इसी के वंशज हैं। (भागवत0-9.2.19; ब्रह्माण्ड0 3.47.49)
  14. वैवस्वत मनु के सूर्यवंश प्रवर्तक ज्येष्ठपुत्र राजा इक्ष्वाकु के वंश में पच्चीसवीं पीढ़ी में युवनाश्व राजा का ‘हरित’ नामक पुत्र हुआ। यह क्षत्रिय से ब्राह्मण बन गया। ‘हारित’ ब्राह्मणों का वंश इसी से प्रचलित हुआ (विष्णु0 4.3.5; ब्रह्माण्ड0 4.1.85)।
  15. चन्द्रवंशी चक्रवर्ती सम्राट् ययाति के दूसरे पुत्र पुरु के वंश में अप्रतिरथ राजा का पुत्र कण्व हुआ। उसका पुत्र मेधातिथि (दूसरा नाम प्रस्कण्व) ब्राह्मण बना। ‘काण्वायन’ ब्राह्मण इसी मेधातिथि के वंशज हैं। ये सभी ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित हो गये थे (विष्णु0 4.19.2,20; भागवत0 9.20.1)
  16. वीतहव्य नामक एक प्रसिद्ध राजा ब्राह्मण बन गया था। भृगु ऋषि ने इस राजा को ब्राह्मणत्व की दीक्षा दी थी (महाभारत, अनुशासन पर्व, अ0 30.57-58)
  17. राजा प्रतीप के तीन पुत्र हुए-देवापि, शान्तनु और महारथी। इनमें से देवापि ब्राह्मण बन गया और शान्तनु तथा महारथी (बाल्हीक) क्षत्रिय राजा बने। (महाभारत, आदि0 94.61; विष्णु0 4.22.7; भागवत0 9.22.14-17)।

ऐसे वर्णपरिवर्तन के उदाहरणों से प्राचीन भारतीय इतिहास भरा पड़ा है। ये उदाहरण मनु की और वैदिक वर्णव्यवस्था की पुष्टि करते हैं कि वह कर्म पर आधारित थी, जन्म पर नहीं।