जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप डॉ अम्बेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर ने निनलिखित उल्लेखों में जातिव्यवस्था को वर्णव्यवस्था का विकृत या भ्रष्ट रूप माना है, जो बिल्कुल सही मूल्यांकन है। जो यह कहा जाता है कि जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था से विकसित हुई है, यह सरासर गलत है क्योंकि दोनों परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। डॉ0 अम्बेडकर विकास की धारणा को बकवास मानते हुए लिखते हैं-

(क) ‘‘कहा जाता है कि जाति, वर्ण-व्यवस्था का विस्तार है। बाद में मैं बताऊंगा कि यह बकवास है। जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है। यह विपरीत दिशा में प्रसार है। जात-पात ने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 181)

(ख) ‘‘जातिप्रथा, चातुर्वर्ण्य का, जो कि हिन्दू आदर्श है, एक भ्रष्ट रूप है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 263)

(ग) ‘‘अगर मूल वर्णपद्धति का यह विकृतीकरण केवल सामाजिक व्यवहार तक सीमित रहता, तब तक तो सहन हो सकता था। लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना कर चुकने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहा। उसने इस चातुर्वर्ण्य पद्धति के परिवर्तित तथा विकृत रूप को कानून बना देना चाहा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 216)

(आ) मनु जातिनिर्माता नहीं : डॉ0 अम्बेडकर का मत-

    कभी-कभी मनुष्य के हृदय से सत्य स्वयं निकल पड़ता है। डॉ0 अम्बेडकर के हृदय से भी ये निष्पक्ष शब्द एक समय निकल ही पड़े-

    (क) ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूं कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था। जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी।’’

(डॉ0 अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)

    (ख) कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिमेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है। वर्णव्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक नाी हो, परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लगाया जा सकता है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 43)

कोई कितनााी आग्रह करे, किन्तु यह निश्चित है कि डॉ0 अम्बेडकर ने उक्त वाक्य लिाकर किसी एक मनु को ही नहीं, अपितु सभी मनुओं को जाति-व्यवस्था के निर्माता के आरोप से सदा-सदा के लिए मुक्त कर दिया है। इसके बाद जातिवाद के नाम पर मनु का विरोध करने का कोई औचित्य ही नहीं बनता।

2 thoughts on “जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप डॉ अम्बेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार”

  1. क्या विष कभी अमृत बन सकता है हजारो कसौटी के पश्चात भी उसे अमृत समझना निरी मूर्खता है .जातिव्यवस्था या वर्ण व्यवस्था कहे एक ही सिक्के दो पहलू है दोनों का उद्देश् मात्र भेदभाव पूर्ण सामाजिक व्यवहार का फल है ऐसे में जाती से वर्ण अच्छे है या वर्ण से जाती बेकार की उलझने है . संविधान में मात्र हजारो जातियो को बहुत अल्प वर्ग में सम्मिलित किया गया है ताकि किसी एक वर्ग की एकाधिकार शाही को मात दे सके. तथा लोगो में लोकतांत्रिक विचार धारा की जड़े मजबूत बन सके.

    1. विष तो विकृत रुप है मूल रूप तो अमृत है जाबाल ऋषि वाल्मीकि ऋषी आदि इसके प्रमाण हैं जहां योग्यतानुसार वर्ण व्यवस्था में परिवर्तन हुए और लोग निम्न से उच्च और उच्च वर्ण से निम्न वर्ण में गए

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