वर्णव्यवस्था की वर्तमान में प्रासंगिकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार

इस युग में वर्णव्यवस्था की प्रासंगिकता पर बार-बार चर्चा उठती है। साथ ही यह प्रश्नाी उत्पन्न होता है कि क्या वर्तमान में वर्णव्यवस्था लागू हो सकती है? इसका उत्तर यह है कि यदि कोई शासनतन्त्र इसमें रुचि ले तो हो सकती है। जैसे मुस्लिम देशों में शरीयत प्रणाली का शासन आज भी लागू कर दिया जाता है। वर्णव्यवस्था प्रणाली तो बहुत ही मनोवैज्ञानिक और समाज-हितकारी व्यवस्था है। इससे समाज की निश्चय ही योजनाबद्ध रूप से उन्नति होती रही है और हो सकती है। प्राचीन काल में भारत जो विद्या, धन और बल में विश्व में सर्वोपरि था, वह इसी वैदिक वर्णव्यवस्था के अर्न्तगत रहकर था। महर्षि मनु के समय यह देश ‘विश्वगुरु’ था और अन्य देशों के जन यहां शिक्षा प्राप्त करने आते थे-

एतद्देशप्रसूतस्य     सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (2.20)

    अर्थ-समस्त पृथिवी के मनुष्य आयें और इस भारतभू पर उत्पन्न विद्वान् एवं सदाचारी ब्राह्मणों के समीप रहकर अपने-अपने योग्य कर्त्तव्यों-व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त करें।

उस समय यह देश न केवल विद्या में ‘विश्वगुरु’ था अपितु धन-ऐश्वर्य में ‘स्वर्णभूमि’ और ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था। बल-पराक्रम में अजेय था। कभी इसकी ओर आंख उठाकर देखने की किसी की हिमत नहीं हुई। यह व्यवस्था आदिपुरुष ब्रह्मा से लेकर महाभारत काल के बाद तक रही। इसी व्यवस्था में रहकर ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि जैसे विद्याविशेषज्ञ ऋषि हुए। स्वायभुव मनु, वैवस्वत मनु, जनक, अश्वपति जैसे राजर्षि; मय, त्वष्टा और विश्वकर्मा जैसे वास्तुकार; नल, नील जैसे सेतुविशेषज्ञ; वाल्मीकि, व्यास, कालिदास जैसे महाकवि; चरक, सुश्रुत, धन्वंतरि, वाग्भट्ट जैसे आयुर्वेदज्ञ; राम, कृष्ण जैसे पुरुषोत्तम; अर्जुन, कर्ण जैसे धनुर्धारी; वीर हनुमान जैसे शस्त्र और शास्त्रनिपुण, ऋषि भारद्वाज जैसे विमानविद्या विशेषज्ञ; आर्यभट्ट जैसे खगोलविद्, षड्दर्शनकारों जैसे अद्भुत चिन्तक उत्पन्न हुए थे।

देश का सर्वतोमुखी पतन तो तब हुआ जब यहाँ जन्मना जातिवाद का बोलबाला हो गया और अधिकांश समाज अज्ञानी हो गया और जातियों में विभाजित हो गया। इस जातिवाद को कर्मणा व्यवस्था की भावना ही मिटा सकती है। मैं तो इस बात को बल देकर कहना चाहूंगा कि जातिवादी व्यवस्था न तो वैदिक व्यवस्था है और न आर्यों की व्यवस्था। स्वयं को आर्य या वैदिक कहने वाले व्यक्तियों को या तो जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूआछूत को छोड़ देना चाहिये अथवा स्वयं को आर्य या वैदिक कहना छोड़ देना चाहिये। जब से ये भावनाएं रही हैं देश-जाति की हानि ही हुई है, और जब तक रहेंगी और अधिक हानि होती रहेगी। इनको छोड़ने पर ही वास्तविक एकता और विकास हो सकेगा।

2 thoughts on “वर्णव्यवस्था की वर्तमान में प्रासंगिकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार”

  1. कमाल है , दुनिया आगे जाना चाहती है विकास करना चाहती है , जो विज्ञान का उपयोग कर के ही संभव है . आपको मनुस्रमुति के ‘ मुंगेरीलाल के हसीन सपने ‘ याद आ रहे है.

    1. kabhi parhe bhi ho kya janab manusmriti ko ??? aur naa aapke paas itni akal hai ki aap use samajh sako nahi to is tarah ki comment nahi karte…..vigyaan khud apani baat ko kaatate rahata hai…. example : kabhi element 108 thaa kabhi 108 thaa aaj 118 ho gaya hai.. fir aaur aaage hote jaayega… koi doctor bolta hai… fever me nahaya karo aur bahut saa doctor bolte hain fever me mat nahao…. bhai science bhi hameshaa sahi nahi hota… yah baat aapko samjh me nahi aayegi kyunki aapke paas itni akal nahi hai samjhane ko

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *