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स्वामी दयानन्द को वेदों की प्रथम प्राप्ति धौलपुर से हुई थी?

ओ३म्

स्वामी दयानन्द को वेदों की प्रथम प्राप्ति धौलपुर से हुई थी?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

स्वामी दयानन्द मथुरा में अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से अपनी शिक्षा पूर्ण कर सन् 1863 में आगरा पधारे थे और यहां लगभग डेढ़ वर्ष प्रवास किया था।  गुरु जी से विदाई के अवसर पर गुरु दक्षिणा प्रकरण के अन्तर्गत स्वामी दयानन्द जी के जीवनी लेखक पं.  लेखराम जी ने लिखा है कि तीन वर्ष के समय में उन्होंने दयानन्द जी को व्याकरण के अष्टाध्यायी, महाभाष्य, वेदान्तसूत्र और इससे अतिरिक्त भी जो कुछ विद्याकोष उनके पास था, वह सब उन्हें सौंप दिया था और ऋषिकृत ग्रन्थों से उन्होंने जो बातें निश्चित की हुईं थीं, वे सभी उनके मस्तिष्क में डाल दीं। उनका विचार था कि हमारे शिष्यों में से हमारे काम को यदि कुछ करेगा तो दयानन्द ही करेगा। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर विद्या समाप्ति की सफलता की गुरु दक्षिणा मांगी। दयानन्द ने निवेदन किया कि जो आपकी आज्ञा हो मैं उपस्थित हूं। तब दंडी जी ने कहा कि (1) देश का उपकार करो, (2) सत्य शास्त्रों का उद्धार करो (3) मतमतान्तरों की विद्या को मिटाओ और (4) वैदिक धर्म का प्रचार करो। स्वामी दयानन्द जी ने अत्यधिक क्षमा प्रार्थना करते हुए और बहुत विनय पूर्वक इसको स्वीकार किया और वहां से विदा हो गये। गुरु जी ने आशीर्वाद दिया और चलते हुए एक अमूल्य बात और भी कह दी कि मनुष्यकृत ग्रन्थों में परमेश्वर और ऋषियों की निन्दा है और ऋषिकृत ग्रन्थों में नहीं, इस कसौटी को हाथ से छोड़ना।

 

इसी ग्रन्थ में गुरु दक्षिणा के तुरन्त बाद का यह वर्णन भी उपलब्ध है कि स्वामी जी के पास एक गीता और विष्णुसहस्रनाम की पुस्तक थी वह मन्दिर लक्ष्मीनारायण के पुजारी को दे दी। स्वामी जी बैशाख मास के अन्त संवत् 1920 तदनुसार अप्रैल सन् 1863 में दो वर्ष 6 मास तक मथुरा में शिक्षा पाने के पश्चात् आगरे की ओर पधार गये। चूंकि गर्मी हो गई थी, इसलिये अपना लिहाफ भी वहां मथुरा के मन्दिर में छोड़ गये। मन्दिर लक्ष्मीनारायण का दूसरा पुजारी घासीराम भी स्वामी जी के साथ आगरे गया था।

 

आगरा में स्वामी दयानन्द जी ने अप्रैल-मई 1863 से सितम्बर-अक्तूबर सन् 1864 तक प्रवास किया। यहां वर्णन है कि स्वामी जी के पास आगरा में महाभाष्य और कुछ अन्य पुस्तकें थी। सायंकाल और प्रातःकाल समाधि लगाते थे। आगरा प्रवास में ही वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान शीर्षक से पृष्ठ 51 (जीवन चरित संस्करण 1985) वर्णन है कि एक दिन स्वामी जी ने पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। सुन्दर लाल जी बड़ी खोज करने के पश्चात् पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कुछ पत्रे वेद के लाये। स्वामी जी ने उन पत्रों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कुछ काम निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवस्था में स्वामी जी समय समय पर पत्र द्वारा अथवा स्वयं मिलकर स्वामी विरजानन्द जी से अपने सन्देह निवृत्त कर लिया करते थे।’ इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि आगरा में प्रवास तक स्वामी जी के पास चार वेद वा इनकी मूल संहितायें नहीं थी। इसके बाद जीवन चरित में धौलपुर में 15 दिन रहकर लश्कर की ओर शीर्षक के अन्तर्गत वर्णन है कि स्वामी जी कार्तिक बदि संवत् 1921 तदनुसार 1864 ईस्वी को आगरा से वेद की पुस्तक की खोज में धौलपुर पधारे और वहां 15 दिन तक निवास किया फिर ग्वालियर चले गये।

 

धौलपुर में स्वामी जी के 15 दिवसीय प्रवास का विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। वह यहां कहां रहे, किस-किससे मिले और यहां उनकी अन्य क्या-क्या गतिविधियां थी? पूर्व विवरणों में संकेत है कि स्वामीजी वेदों की खोज में यहां आये थे परन्तु इनको यहां वेद प्राप्त हुए या नहीं, इसका उल्लेख उपलब्ध विवरण में प्राप्त नहीं होता। यहां से स्वामी जी 2 नवम्बर, सन् 1864 को ग्वालियर आते हैं जहां महाराज जियाजी राव जी की ओर से भागवतकथा की बड़े पैमाने पर आयोजन की तैयारी चल रही थी जो कि 4 फरवरी, 1865 से आरम्भ होकर 11 फरवरी, 1865 को सम्पन्न हुई। स्वामी जी धौलपुर से चलकर 2 महीने 23 दिनों बाद ग्वालियर 24 जनवरी, 1865 को ग्वालियर पहुंचे थे। इसका अर्थ है कि स्वामी जी आगरा से धौलपुर 16-17 अक्तूबर, 1864 को आये होंगे। ग्वालियर आने से पूर्व स्वामी जी ने आबू पर्वत पर जाकर अपने योग गुरुओं से भेंट की थी। ग्वालियर से स्वामी जी करौली (राजस्थान) पधारे थे। जीवन चरित में करौली में कई मास रहकर जयपुर को प्रस्थान शीर्षक के अन्र्तगत जानकारी दी गई है कि ग्वालियर से स्वामी जी करौली में पधारे और राजा साहब से धर्मविषय पर वार्तालाप होता रहा और पण्डितों से भी कुछ शास्त्रार्थ हुए और यहां पर कई मास ठहर कर वेदों का उन्होंने पुनः अभ्यास किया, फिर वहां से जयपुर चले गये। यहां करौली में स्वामी जी ने वेदों का पुनः अभ्यास किया, इससे संकेत मिलता है कि वह यहां आने से पहले ग्वालियर, आबूपर्वत या धौलपुर में एक बार वेदों का अभ्यास कर चुके थे। करौली से पूर्व आबूपर्वत में वेदों का अभ्यास करने की सम्भावना अधिक दिखाई देती है, कारण यह कि वहां स्वामी जी लगभग ढाई माह से अधिक रहे। करौली से चलकर स्वामी जी जयपुर, अजमेर, पुष्कर, किशनमढ़, जयपुर, आगरा, मेरठ होते हुए हरिद्वार के कुम्भ के मेले में पहुंचे थे। मेरठ में वर्णन है कि स्वामी जी यहां चारों वेद, चार उपवेद, 6 वेदांग, मनुस्मृति, महाभारत, हरिवंश, वाल्मीकि रामायण और तीनों वर्णों को यज्ञोपवीत पहनने के पश्चात् सन्ध्या गायत्री की आज्ञा देते थे और दो समय सन्ध्या करने का निर्देश करते थे और पंचयज्ञ का उपदेश देते थे। यह भी स्पष्ट कर रहा है कि स्वामी जी को मेरठ आने से पूर्व ही वेदों की प्राप्ती हो चुकी थी।

 

हरिद्वार में स्वामी जी 12 मार्च, सन् 1867 को पधारे थे। श्री विश्वेश्रानन्द, स्वामी शंकरानन्द, दिल्ली निवासी श्री ईश्वरी प्रसाद गौड़ ब्राह्मण तथा पांच छः अन्य ब्राह्मण आपके साथ थे। सप्तस्रोत (वर्तमान में सप्त सरोवर) पर बाड़ा बांध कर और उसमें आठ-दस छप्पर डलवा कर वहां डेरा किया और वहां एक पताका गाड़ दी जिसका नाम पाखंड खण्डिनी रखा। जीवन चरित में हरिद्वार प्रवास काल में देहरादून के दादू पन्थी स्वामी महानन्द सरस्वती से जुड़ी एक घटना का वर्णन हुआ है जिसका शीर्षक है ‘उन्हें केवल वेद ही मान्य थेस्वामी महानन्द सरस्वती घटना इस प्रकार है कि स्वामी महानन्द सरस्वती जो उस समय दादूपंथ में थे, इस कुम्भ पर स्वामी जी से मिले। उनकी संस्कृत की अच्छी योग्यता है। वह कहते हैं कि स्वामी जी ने उस समय रुद्राक्ष की माला, जिसमें एकएक बिल्लौर या स्फटिक का दाना पड़ा हुआ था, पहनी हुई थी, परन्तु धार्मिक रूप में नही। हमने वेदों के दर्शन, वहां स्वामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहुत प्रसन्न हुए कि आप वेद का अर्थ जानते हैं। उस समय स्वामी जी वेदों के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रन्थ को (स्वतः प्रमाण) मानते थे। इस घटना में स्वामी जी के पास चार वेद होने का स्पष्ट वर्णन है जिसे महानन्द जी ने देखा था।

 

प्रश्न यह है कि स्वामी जी को वेद कहां से प्राप्त हुए? आगरा में उनके पास वेद नहीं थे जिसके लिए उन्होंने पं. सुन्दरलाल जी को लाने को कहा था। न मिलने पर उन्होंने कहा था कि हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। यह घटना वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थान शीर्षक से पं. लेखराम जी ने दी है। धौलपुर से स्वामी जी  आबूपर्वत और ग्वालियर गये और ग्वालियर से करौली आये। करौली में स्वामी जी द्वारा वेदों के पुनः अभ्यास करने का वर्णन है जिससे स्पष्ट है कि स्वामी जी को करौली आने से पहले वेद प्राप्त हो चुके थे और वह पहले भी एक बार वेदों का अभ्यास वा उस पर दृष्टिपात कर चुके थे। आबूपर्वत स्वामी जी अपने योगगुरुओं से भेंट करने गये थे। ग्वालियर में वेदों की प्राप्ति विषयक चर्चा उपलब्ध नहीं है। धौलपुर वह वेदों की खोज में आये थे और यहां उन्हें सफलता मिलने का भी कहीं किसी प्रकार का विवरण उपलब्ध नहीं है। इससे स्पष्ट हो रहा है स्वामी जी को वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। हमने कुछ समय पूर्व अपने लेखों में यह विषय उठाया था कि स्वामी दयानन्द जी को वेदों की प्राप्त कब, कहां व किससे हुई? उपर्युक्त विवरणों से संकेत मिलता है कि स्वामी जी को वेदों की प्राप्ति धौलपुर में उनकी कार्तिक कृष्ण पक्ष, सन् 1864 ईस्वी की 15 दिवसीय यात्रा में हुई। यह प्राप्ति किस व्यक्ति से हुई, यह विवरण उपलब्ध नहीं होता। हमें यह भी अनुमान होता है कि सन् 1864 तक वेदों का प्रकाशन किसी मुद्रणालय में मुद्रित होकर नहीं हुआ था। अतः उन्हें प्राप्ति वेद हस्त लिखित हो सकते हैं। स्वामी जी को धौलपुर से प्राप्त वेदों की उपलब्ध प्रतियां सम्प्रति परोपकारिणी सभा के नियंत्रण में है। उन प्रतियों को देखने पर यथार्थ स्थिति ज्ञान हो सकती है। हो सकता है कि उस पर उन प्रतियों के देने वाले का नाम, तिथि व स्थान आदि का उल्लेख हो, नहीं भी हो सकता है। इसके लिए परोपकारिणी सभा को अपने विद्वानों से महर्षि दयानन्द की मृत्यु पर प्राप्त उनके समस्त साहित्य जो परोपकारिणी सभा के संरक्षण में है, उसका निरीक्षण कराकर वस्तुस्थिति ऋषिभक्तों वा आर्यजगत को सूचित करनी चाहिये। इतना अनुमान इस समय हम कर रहे हैं कि स्वामी दयानन्द जी को वेदों की प्राप्ति लगभग सितम्बर, 1864 में धौलपुर से हुई थी। यह हमारा अनुमान है जो लेख में प्रस्तुत प्रमाणों व उद्धरणों के आधार पर लगाया गया है। यदि इससे इतर कोई जानकारी उपलब्ध हो तो हम विद्वानों से उसे उपलब्ध कराने का अनुरोध करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा-4

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा

– स्व. डॉ. रघुवंश

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे। वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्वमान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान् यदुवंश सहाय द्वारा रचित ‘महर्षि दयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषि भक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।    – समपादक

पिछले अंक का शेषभाग…..

वस्तुतः वैदिक संस्कृति में स्वस्थ और स्वच्छन्द जीवन के ऐसे मूल्यों की प्रतिष्ठा रही है, जो व्यक्ति और समाज, व्यक्ति और परिवार, परिवार और समाज, व्यक्ति और राष्ट्र, व्यवहार और अध्यात्म, आत्मा और ब्रह्म के उचित सन्तुलन पर प्रतिष्ठित हैं। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की पूरी संभावनाएँ समाज की व्यवस्था में समाहित रही हैं और समाज की गति तथा सर्जन शीलता को सुरक्षित रखने के लिए व्यक्ति दायित्व-बोध तथा आत्मानुशासन की प्रक्रिया से अपनी रचनात्मक क्षमता को समृद्ध बनाता रहा है। निश्चय ही संस्कृति की यह परिकल्पना भारतीय जीवन की नये स्तर पर संघटना तथा संरचना के लिए आकर्षक थी और इस भूमि पर भारतीय व्यक्तित्व को नये सन्दर्र्भों से जोड़ पाना अधिक उचित था। स्वामी दयानन्द के सामने यही संकल्प था कि भारतीय समाज अपनी तत्कालीन अधोगति से मुक्त होकर किसी प्रकार स्वस्थ होकर नई रचनात्मक क्षमता से गतिशील हो सके। उन्होंने स्पष्टतः इस समाज के पतन तथा ह्रास के कारणों को समझा और विवेचन किया। जैसा कहा गया कि मध्ययुगीन ब्राह्मणवाद, पुरोहितों-महन्तों का निहित स्वार्थ, पुराण-पंथ, धर्म और दर्शन की एकांगिता तथा आध्यात्मिक साधनाओं की व्यक्तिनिष्ठा आदि कारणों का विवेचन करके दयानन्द ने इनका घोर विरोध किया। परन्तु भारतीय समाज के प्रचलित अन्ध्विश्वासों, अन्यायों, रूढ़ियों, कुरीतियों तथा जड़ताओं के कारण पश्चिमी संस्कृति से आकर्षित नेताओं के समान उन्होंने समस्त भारतीयता अथवा भारतीय संस्कृति को उपेक्षणीय तथा अविकसित नहीं मान लिया। उन्होंने भारतीय संस्कृति के आदिस्रोत तक जाकर उसकी आन्तरिक शक्ति और ऊर्जा का अन्वेषण किया और फिर उन तत्त्वों के संयोजन के आधार पर भारतीय व्यक्तित्व को पुनः प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयत्न किया। वस्तुतः दयानन्द आधुनिक भारत की समस्त अपेक्षाओं से भली भाँति परिचित थे और उनमें से प्रत्येक को सामने रखकर भारतीय समाज के पुनर्गठन का कार्य उन्होंने शुरू किया था।

भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के नेताओं ने, मुखयतः गाँधी ने देश का आह्वान करते समय अपने समाज की जिन समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है और समाज के जिन क्षेत्रों में रचनात्मक कार्य के द्वारा गति प्रदान करने की चेष्टा की है, उन सभी समस्याओं को स्वामी दयानन्द ने बहुत बल देकर सामने रखा था और सभी क्षेत्रों में कार्य करना शुरू किया था। एक भी ऐसी समस्या नहीं है, जिसकी ओर उन्होंने संकेत न किया हो और कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जिसे उन्होंने छोड़ा हो। समाज के वर्ण-भेद, उनकी असमानता, उनमें छुआछूत, जन्म से वर्णों के विभाजन आदि के बारे में दयानन्द ने अपने प्रखर विचार रखे थे। उन्होंने इस प्रकार की असमानता को, छुआछूत को, जन्म से वर्ण के निर्धारण को धर्म-विरुद्ध और असत्य प्रतिपादित किया, परन्तु उन्होंने कर्म पर आश्रित वैदिक वर्ण-व्यवस्था की स्वीकृति दी है। हम आधुनिकता के समर्थक यह कह सकते हैं कि कर्म पर आश्रित वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार कर लेना एक प्रकार का समझौता है, क्योंकि इस प्रकार हम दूसरे मार्ग से पर परम्परित वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं, परन्तु स्थिति का यथार्थ-विवेचन करने से पता चलता है कि जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह अस्वीकार करने की घोषणा की है, उन्होंने अपने जीवन में अभी तक जातिवाद को बहुत महत्त्व दे रखा है। भारतीय राजनीति के विभिन्न स्तरों पर जातिवाद का कितना प्रभाव है, इससे यह प्रमाणित होता है। गाँधी ने सन्त भाव से निम्न जातियों को ‘हरिजन’ कहा, पर ‘हरिजन’ शबद ‘अछूत’ के समान एक पर्याय मात्र बन कर रह गया। इसकी तुलना में दयानन्द की दृष्टि अधिक स्पष्ट थी। पहले तो उन्होंनें कहा कि समाज के विविध अंग रूप उसके वर्णों में ऊँच-नीच का भाव ही अधर्म है, क्योंकि अंगों का ऊँचा-नीचा स्थान उनकी श्रेष्ठता का निर्धारक नहीं हो सकता। यह कहना नितान्त मूर्खता है कि पैरों से हाथ इसलिए श्रेष्ठ हैं, क्योंकि प्राणी के खड़े होने पर वे ऊपर स्थित होते हैं। समाज की व्यवस्था और सन्तुलन के लिए कार्यों का विभाजन किसी न किसी रूप में अनिवार्य है, पर कार्य के समपादन की क्षमता जन्मतः सिद्ध नहीं हो सकती, अतः वर्ण का जन्म से कोई समबन्ध नहीं है। इस प्रकार के तर्क और व्यवस्था में कितना बल है, यह स्पष्ट है। साथ ही दयानन्द ने वर्ण-व्यवस्था के नाम पर जो सामाजिक अन्याय हो रहा था, उसका बड़ा विरोध किया था और इस विद्रोह भाव को समाज की नई रचना में समाहित करने का प्रयत्न भी किया था। बाद के समन्वयवादियों के दृष्टिकोण से उनका विचार कहीं अधिक क्रान्तिकारी रहा है। यह अलग बात है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रयोग से जिस प्रकार की औद्योगिक और यांत्रिक प्रगति हो रही है, उसमें समाज-रचना का स्वरूप ऐसा बदल रहा है, जिसमें पिछली कर्माश्रित वर्ण-व्यवस्था असंगत हो गई है।

स्वामी दयानन्द ने सत्य धर्म एक ही माना है और उनकी दृष्टि में वह धर्म वही हो सकता है जो श्रेष्ठ मानव मूल्यों की रचनात्मक प्रक्रिया को गतिशील रखने में सक्षम हो सके। बाद  के समन्वयवादियों और अन्तर्राष्ट्रीयतावादियों ने दयानन्द को कट्टर पंथी और खण्डन-मण्डन करने वाले सुधारक के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है, परन्तु वस्तु स्थिति यह है कि उनके जैसा उदार मानवतावादी नेता दूसरा नहीं रहा है। उन्होंने धर्म की सदा भारतीय व्यापक परिकल्पना सामने रखी है। वे धार्मिक समप्रदायों को अस्वीकार कर शुद्ध मानव मूल्यों पर प्रतिष्ठित धर्म को स्वीकार करने के पक्ष में रहे हैं। सन्तों का दृष्टिकोण मुखयतः आध्यात्मिक जीवन तक सीमित था, जब कि दयानन्द के सामने भारतीय जन-समाज के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य था।उन्होंने धर्म के निरर्थक कर्मकाण्डों के नाम पर चलाई गई कुरीतियों, अन्धविश्वासों, जड़-पूजाओं और मान्यताओं का घोर विरोध किया है। उन्होंने वस्तुतः जब कभी हिन्दू, मुसलमान या ईसाई धर्म का खण्डन किया है तो स्पष्टतः उन्होंने असत्य, अन्धविश्वास और जड़मान्यताओं का उल्लेख किया है और यह भी उन्होंने बार-बार घोषित किया है कि सभी धर्मों के मूल में शुद्ध मानव धर्म के तत्त्व विद्यमान हैं। यहाँ तक कि उन्होंने कई अन्य धर्म के नेताओं से प्रस्ताव भी किया कि सममिलित रूप से धर्म के मूलतत्त्वों पर विचार करके उन्हें निर्धारित कर लिया जाय और फिर सभी धर्म के नेता उन्हें स्वीकार करके उनका प्रचार-प्रसार करें। उनके मन में धर्म को लेकर कभी कोई दुराग्रह या पक्षपात नहीं रहा, उन्होंने सदा धर्म के श्रेष्ठ तत्त्वों पर ही बल दिया है। एक तथ्य की ओर ध्यान देना आवश्यक है। दयानन्द की प्रमुख चिन्ता भारतीय समाज के पुनरुद्धार की थी। उनके मन में उस समाज की अवस्था से अत्यन्त व्यथा थी। वे उसमें प्रचलित अन्धविश्वास, अन्याय, शोषण तथा नृशंसताओं से मर्माहत हो गये थे। क्रमशः उनको बोध हुआ था कि इस समाज की सदा से ऐसी अवस्था नहीं रही है। एक समय यह समाज मानव मूल्यों का वाहक रहा है, अतः उनका पहला संकल्प भारतीय व्यापक हिन्दू जन-समाज के उद्धार का था और उसके लिए उन्होंने हिन्दू धर्म की जड़ताओं पर सर्वाधिक प्रहार किया है। उनका विश्वास था कि इस आघात के बिना असत्य के मार्ग पर चलने वाले हिन्दू समाज के उद्धार का कोई उपायन हीं है। उनका सबसे बड़ा विरोध पौराणिकों, ब्राह्मण-पुरोहितों और आडमबर फैलाकर जनता को गुमराह करने वाले संन्यासियों से था और दयानन्द के विरुद्ध यह निहित स्वार्थों का वर्ग ही सदा रहा। वस्तुतः इस्लाम और ईसाई धर्म की आलोचना उन्होंने प्रासंगिक रूप में की है, क्योंकि हिन्दू धर्म के अन्धविश्वास आदि की आलोचना करके ये धर्मावलबी हिन्दुओं को मत-परिवर्तन के लिए प्रेरित करते थे, इस कारण दयानन्द ने यह प्रतिपादित किया है कि इन सभी धर्मों में हिन्दू-धर्म के समान अन्धविश्वास और जड़ताएँ प्रचलित हैं।

उनका धार्मिक उद्देश्य बहुत ऊँचा था। वस्तुतः उन्होंने संसार के सामने दो महत्त्वपूर्ण बातें रखी थीं। एक तो उन्होंने प्रतिपादित किया कि मूल सत्य तथा मानवीय मूल्यों की सर्जनशीलता से प्रेरित एक ही धर्म है। यह धर्म तत्त्व (अथवा ये तत्त्व) संसार के सभी श्रेष्ठ धर्मों के मूल में निहित है। यह धर्मों की सामप्रदायिकता है जो उन्हें अलग रूपों में प्रकट करती है। इसके साथ अनेक निहित स्वार्थ जुट जाते हैं और धर्म में अन्धविश्वासों तथा जड़ताओं का आश्रय लेकर असत्य का प्रवेश होता है। उन्होंने इसीलिए बार-बार प्रस्ताव किया कि सभी धर्म के लोग शुद्ध मानवीय धर्म का पालन कर सकते हैं, क्योंकि किसी धर्म का इससे विरोध नहीं हो सकता है और स्थान-स्थान पर यह स्वीकार किया है कि कोई भी धर्मावलमबी आर्य-धर्म अर्थात् श्रेष्ठ मानव धर्म का पालन कर सकता है। वस्तुतः उनके लिए ‘आर्य’ शबद किसी सामप्रदायिक धर्म का पर्याय कभी नहीं बना, यह उनके द्वारा ‘आर्य समाज’ की स्थापना से भी सिद्ध है। ‘आर्य समाज’ कभी किसी धर्म का रूप नहीं ले सका, यह उनकी इच्छा और विश्वास का ही परिणाम था। आज कल भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता की चर्चा काफी होती है, परन्तु उसकी विडमबना भी स्पष्ट है। स्वामी दयानन्द ने मानव मूल्यों पर प्रतिष्ठित धर्म की जो व्यापक तथा सर्जनशील व्याखया की थी, वह आज के भारत में अनेक धर्मो के स्वस्थ, सहज और रचनात्मक समन्वय की उचित भूमिका है।

स्वामी दयानन्द ने समाज में स्त्री के स्थान पर विशेष ध्यान दिया था। वे पुरुष के साथ नारी की समानता का पूर्ण समर्थन करते हैं। भारतीय समाज की हीनावस्था का एक महत्त्वपूर्ण कारण उनके अनुसार यह भी है कि इस समाज में नारी का सममानपूर्ण स्थान नहीं रह गया है। वे नारी और पुरुष के अधिकारों की पूर्ण समानता स्वीकार करते हैं, पर दोनों के कार्य-क्षेत्र का विभाजन मानते हैं। आज के बदलते हुए समाज में स्त्री-पुरुष के कार्य-क्षेत्रों का अलगाव संभव नहीं रह गया है, परन्तु इससे दयानन्द के विचारों को संकुचित नहीं माना जा सकता और न उनकी क्रान्तिकारिता पर प्रश्न किया जा सकता है, क्योंकि इस प्रकार जो समाज आज बनता जा रहा है, वह अपने आप में परिस्थिति की उपज है, उसे आदर्श समाज कहना विवादास्पद है। स्त्री-शिक्षा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, वेश्या-उद्धार आदि अनेक समस्याओं को दयानन्द ने अपने युग के सर्न्दभ में उठाया था और उनका उचित समाधान प्रस्तुत किया था। आज ये प्रश्न हमारे लिए अमहत्त्वपूर्ण हो गये हैं, परन्तु जिस साहस और दृढ़ता के साथ उन्होंने इन समस्याओं का समाधान समाज के सामने रखा था, उससे उनके व्यक्तित्व की क्रान्तिकारिता लक्षित होती है और उनका द्रष्टा रूप भी सामने आता है।

एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व को सूक्ष्मता से उद्घाटित करता है। उन्होंने धर्म को मूल्य के स्तर पर ग्रहण किया है, उससे सामप्रदायिक व्यवस्था और कर्मकाण्डी पक्ष को बिल्कुल अलग कर दिया है, अतः धर्म संस्कृति के उच्चतम मूल्यों के स्तर को स्थापित करता है। जिस प्रकार संस्कृति के अन्तर्गत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्तरों के मूल्यों का संचरण होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म स्तर पर धार्मिक, कलात्मक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की उपलबधि का क्षेत्र भी संस्कृति है। इस प्रकार संस्कृति मानवीय मूल्यों की सर्जनशीलता की दृष्टि से अधिक व्यापक है। दयानन्द का सारा प्रयत्न इस प्रकार सांस्कृतिक पुनरुत्थान से सबन्धित है। उनके लिए धर्म उसी सीमा तक महत्त्वपूर्ण है, जहाँ तक वह सांस्कृतिक मूल्यों के क्षेत्र में एक भूमिका प्रस्तुत करता है। यही कारण हे कि उनके दृष्टिकोण में संस्कृति के सभी स्तरों का समाहार है और उन्होंने भारतीय जीवन के सभी पक्षों तथा स्तरों के मूल्यों का इस प्रकार निरूपण किया है, जिससे उसका एक व्यापक तथा संश्लिष्ट सांस्कृतिक स्वरूप लक्षित होता है। इसके अन्तर्गत सामाजिक आचार, नैतिक आदर्श, व्यक्तित्व की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा, लोकजीवन में समत्व, राजनीतिक आदर्श व्यवस्था, राजतंत्र की लोकसत्तात्मक तथा समत्वमूलक परिभाषा, लोकोन्मुखी तथा सामयवादी अर्थतंत्र आदि के समस्त मूल्यों का प्रतिष्ठान वेदों को अवश्य माना तथा प्रमाणित किया है, परन्तु इनकी व्याखया आधुनिक जीवन के अनुरूप की गई है। साथ ही द्रष्टा के रूप में दयानन्द ने इन समस्त मूल्यों को संस्कृति के मर्म तथा अध्यात्म समबन्धी उच्च भूमियों पर प्रतिष्ठित कर तत्समबन्धी उच्च मूल्यों में उनका संक्रमण किया है। गाँधी ने अपने सत्य और अहिंसा जैसे मूल्यों में व्यावहारिक तथा पारमार्थिक मूल्य-दृष्टियों का समाहार किया है और भौतिकतावादी तथा अध्यात्मवादी एकांगी संस्कृतियों की तुलना में गाँधी के सांस्कृतिक संतुलन को बहुत महत्त्व मिला है, पर यहाँ ध्यान देने की बात है कि दयानन्द ने लौकिक तथा आध्यात्मिक जीवन के मूल्यों के पारस्परिक अन्तःसमबन्ध को जितनी स्पष्टता के साथ प्रतिपादित और विवेचित किया है, वह अन्यत्र नहीं मिलता। वस्तुतः जीवन्त, सप्राण, गतिशील तथा सर्जनात्मक संस्कृति में इन दोनों पक्षों का समाहार और उनके मूल्यों का अन्तः संक्रमण अनिवार्य है। स्वामी दयानन्द ने संस्कृति के इसी रूप की परिकल्पना की है और उनकी दृष्टि में यही भारतीय संस्कृति का सच्चा स्वरूप है। उनकी संस्कृति समबन्धी अवधारणा के आधार पर समाज के भारतीयकरण के प्रश्न का समुचित उत्तर दिया जा सकता है।

स्वामी दयानन्द आधुनिक युग में ऋषि और द्रष्टा माने जायँगे। उनमें जितनी गहरी यथार्थ की पकड़ थी, उतनी ही व्यापक इतिहास और परमपरा को ग्रहण करने की क्षमता भी। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने समाज की प्रक्रिया को तथा उसके भविष्य की संभावनाओें को पहचाना और फिर उसको एक स्वस्थ और सर्जनशील समाज-रचना की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न किया। कोई भी परिकल्पना युग के साथ, परिस्थितियों के सन्दर्भ में परिवर्तित होती है। इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द की भारतीय समाज की नयी रचना की परिकल्पना में भी आज अन्तर पड़ जाना स्वाभाविक है, पर उनका भारतीय समाज की वर्तमान स्थिति का निदान आज भी उतना ही सटीक है। उनकी समाज-रचना की परिकल्पना भी बहुत कुछ आज स्वीकार की जा सकती है, क्योंकि उनकी सांस्कृतिक मूल्यों की अवधारणा मानव धर्म की व्यापक प्रतिष्ठा तथा सर्जन शीलता से समबन्धित है। परन्तु इन से भी अधिक महत्त्व की बात है उनके व्यक्तित्व की क्रान्तिकारिता, जो असत्य और अन्याय के सममुख अडिग खड़े होने की क्षमता प्रदान करती है और जिसके कारण उन्होंने कभी विश्व में समझौता नहीं किया। आज यह स्पष्ट हो गया है कि समस्त देशी-विदेशी पुराण-पंथ के विरुद्ध सतत विद्रोह करने के लिए ऐसे क्रान्तिकारी व्यक्तित्व की देश को सर्वाधिक आवश्यकता है। इसके बिना देश का कोई भविष्य नहीं है।

-इलाहाबाद विश्वविद्यालय

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा- 3

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा

– स्व. डॉ. रघुवंश

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे। वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्वमान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान् यदुवंश सहाय द्वारा रचित ‘महर्षिदयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषिभक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।     – सपादक

पिछले  अंक का शेषभाग…..

दयानन्द ने वेदों के प्रामाण्य पर ही यह घोषित किया कि जो हमारे विवेक को स्वीकार्य नहीं, उसके त्याग में हमको एक क्षण का विलमब नहीं करना चाहिए। यदि वेदों में ज्ञान के बदले अज्ञान है, मानवीय उच्च मूल्यों के बजाय घोर हिंसा-वृत्ति, भोगवाद और स्वार्थ की उपासना है, तो उनको अस्वीकार कर देना चाहिए। उनके प्रामाण्य से क्या प्रयोजन? पर उन्होंने गुरु के द्वारा दिखाये गये मार्ग पर चलकर वेदों की व्याखया के लिए आर्ष व्याकरण ग्रन्थों का मन्थन किया। उन्होंने निघण्टु, निरुक्त, अष्टाध्यायी और महाभाष्य जैसे व्याकरण ग्रन्थों के आश्रय से वेद-मन्त्रों की सुसंगत और व्यवस्थित व्याखया प्रस्तुत की। इस दृष्टि से गहन अध्ययन करने के बाद उन्होंने घोषित किया कि वेद, वैदिक साहित्य और अन्य आर्ष ग्रन्थ ही प्रामाण्य हैं, उनमें सत्य-ज्ञान सुरक्षित है, उनमें भारतीय संस्कृति के उच्चतम मूल्य सुरक्षित हैं और ये मूल्य भारतीय समाज और व्यक्ति के जीवन के सभी पक्षों को मौलिक सर्जनशीलता से गतिशील करने में सक्षम रहे हैं। इन ग्रन्थों में कहीं कोई विरोधाभास नहीं है, असंगतियाँ नहीं हैं। आवश्यकता है कि वेदों का अर्थ साधारण लौकिक व्याकरणों की पद्धति से न लगाकर, निघण्टु तथा निरुक्त आदि की यौगिक पद्धति से लगाया जाय। दयानन्द ने स्वयं इस पद्धति का स्वरूप प्रतिपादित किया और अपने समय के समस्त विद्वानों का आह्वान किया कि वे उन से इस सबन्ध में विचार-विनिमय करें। उनके तर्कों में बड़ा बल था, वे अकाट्य थे, उनकी पद्धति शास्त्रों के गहन-मन्थन पर आश्रित थी, उन्होंने अपना आधार शुद्ध विवेक माना था। यद्यपि उनकी बात को कोई काट नहीं सका और महर्षि अरविन्द के अनुसार उन्होंने वेदों के मूल अर्थ तक पहुँचने की एक सही पद्धति निरूपित की है, किन्तु पश्चिमी प्रभाव से आधुनिक शिक्षितों ने और अपने स्वार्थ वश परमपरावादियों ने उनकी व्याखया-पद्धति को अधिक गमभीरता से लेने का वातावरण नहीं बनने दिया। परन्तु आज भी उनके उठाये हुए प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है और वेदों के सत्य को उद्घाटित करने और ज्ञान को प्रकाशित करने की कोई अन्य एवं इतनी उपयुक्त पद्धति नहीं है।

स्वामी दयानन्द ने भारतीय समाज में व्याप्त निष्क्रियता, अन्धविश्वास और स्वार्थपरता के मूल में मध्ययुग के पुराण पंथ को माना है। यह धर्म पलायनवादी है। पलायनवादी मनोवृत्ति मनुष्य को आत्मकेन्द्रित, असामाजिक और स्वार्थपरायण बनाती है। दयानन्द के अनुसार वैदिक धर्म परम ब्रह्म परमेश्वर की उपासना का विधान है, परन्तु पुराण पंथियों ने उसके स्थान पर अनेकेश्वरवाद, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, देवी-देवताओं की पूजा और यहाँ तक कि अपदेवताओं तक की पूजा प्रचलित करके अपना स्वार्थसिद्ध किया। वेद-समर्थित समाज में चार वर्णों की व्याखया है, और यह व्यवस्था कर्म के आधार पर थी। इन वर्णों में ऊँच-नीच तथा छुआछूत का अन्तर नहीं था। ब्राह्मण को सममान उसकी त्याग और सेवावृत्ति के कारण प्राप्त था। क्योंकि वह निःस्वार्थ भाव से ज्ञान-साधना में लगा रहता था, समाज के नैतिक जीवन का संरक्षक था और समाज के अन्य अंगों में अपने विवेक से सन्तुलन बनाये रखता था, अतः उसे अन्यों का आदर भाव प्राप्त था। पौराणिकों ने वर्ण व्यवस्था को जन्मना स्वीकार करके घोर अनर्थ किया और समाज की सारी गत्यात्मक क्षमता को कुंठित कर दिया। उनमें ऊँच-नीच और छुआछूत का भाव भरकर मनुष्य मात्र की बराबरी की वैदिक भावना को नष्ट कर दिया। वेदों में तो प्राणी मात्र को नश्वर तथा सममाननीय माना है। इस ऊँच-नीच के चक्र ने सारे समाज को सहस्रों जाति-पाँतियों में विभक्त कर छिन्न-भिन्न कर दिया।

वेदों में व्यक्ति और समाज के सबन्धों की सुन्दरतम कल्पना है। व्यक्ति का विकास सामाजिक दायित्व को पूरा करने की प्रक्रिया में माना गया है। व्यक्ति के जीवन को चार आश्रमों में इसी दृष्टि से विभक्त किया गया है। प्रथम आश्रम की कल्पना में व्यक्ति के विकास की पूरी समभावना है। शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्ति संगृहीत करने के लिये इस आश्रम में व्यक्ति समाज की पूरी सहायता और संरक्षण प्राप्त करता है। गृहस्थाश्रम में व्यक्ति पारिवारिक जीवन का दायित्व ग्रहण करता और इस सीमा में वह समाज के प्रति अपना दायित्व पारिवारिक दायित्वों को निभाते हुए ही पूरा कर सकता है। वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति पारिवारिक बन्धनों से मुक्त होकर पूर्ण सामाजिक दायित्व का वहन करता है। समाज के विकास के लिए वह हर सेवा के लिए प्रस्तुत रहता है। अन्त में संन्यास आश्रम में व्यक्ति अपनी निजी आध्यात्मिक उपलबधियों की ओर प्रवृत्त होता है और समाज के आध्यात्मिक जीवन के उन्नयन का दायित्व वहन करता है। इस प्रकार वैदिक आश्रमों की कल्पना व्यक्ति और समाज के आन्तरिक सबन्धों की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें व्यक्ति की उन्नति और समाज के विकास की पूरी संभावना रक्षित है। इसी प्रकार विभिन्न ऋणों की कल्पना में भी व्यक्ति और समाज के सन्तुलन का दृष्टिकोण सुरक्षित है। व्यक्ति अपने विकास में समाज से पाता है, अतः उसे समाज को चुकाना भी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति पर स्वस्थ वंश-परमपरा चलाने, ज्ञान की परमपरा को आगे बढ़ाने, प्राणिमात्र की सेवा और सहायता करने तथा आध्यात्मिक जीवन को अग्रसर करने का दायित्व है। इन दायित्वों को पूरा किए बिना कोई व्यक्ति मुक्त हो नहीं सकता।

वेदों में समत्व की भावना प्राणिमात्र की बराबरी में विकसित हुई है। नारियों को नरक का द्वार, माया, ज्ञान की अनधिकारिणी और ताड़ना की अधिकारिणी आदि पौराणिकों ने माना है। यह ह्रासोन्मुखी मध्ययुगीन समाज का लक्षण है, व्यक्तिपरक वैराग्यमूलक साधनाओं की दृष्टि से कहा गया है। वेदों में नारी को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है, पुरुष के समकक्ष तो वे हैं ही। उनको वेदादि के ज्ञान प्राप्त करने का पुरुषों के समान ही अधिकार है। ज्ञानस्वरूप वेदज्ञान प्राप्त करने का अधिकार सबको प्रदान करते हैं। वेद में समाज और समत्व की परिव्याप्ति है। वहाँ व्यक्तिगत उन्नति, यहाँ तक कि आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी सामाजिक और नैतिक मूल्यों की उपलबधि से होकर जाता है। व्यक्ति सामाजिक दायित्वों को पूरा करते हुए ही अपनी आत्मा के विकास में प्रवृत्त हो सकता है। इसी प्रकार वैदिक कर्मवाद शुद्धकर्म की प्रेरणा और कर्म के सत् और असत् विचार पर प्रतिष्ठित है। मनुष्य की मुक्ति सत्कर्मों पर निर्भर है। कर्मों का परिणाम भोगना ही है, जन्मान्तर तक कर्म के इस बन्धन में जीव को रहना पड़ता है। आगे चलकर कर्म-फल का भावी-भवितव्यता आदि में पर्यवसान पुराणपंथियों के कारण हुआ। मध्ययुग में कर्म का बन्धन ढीला पड़ गया। ईश्वर के कृपालु, भक्तवत्सल होने का अर्थ लगाया गया कि पापी से पापी व्यक्ति ईश्वर की शरण में चले जाने पर अपने कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह समाज की व्यवस्था और ईश्वरीय विधान की दृष्टि से घातक परिकल्पना है।

दयानन्द ने मध्ययुग के व्यक्तिपरक धर्म, दर्शन, साधना तथा अध्यात्म को पुनः वैदिक समाजपरक आधार पर प्रतिष्ठित किया। मध्ययुगीन अद्वैत तथा अद्वैत आधारित दर्शनों को अस्वीकार कर उन्होंने वैदिक द्वैतवाद की स्थापना की। एक परम ब्रह्म परमेश्वर सर्वत्र व्याप्त, शाश्वत, अनादि, अनन्त सत्यस्वरूप है। वह समस्त मानवीय गुणों का, परम मूल्यों का चरमस्थल है- दया, न्याय और करुणा आदि का । वह हम जीवों का परमपिता है और पालन-पोषण-संरक्षण करने वाला है। वस्तुतः इस प्रकार की अवधारणा में व्यक्ति और समाज के सबन्धों का सुन्दर स्वरूप सुरक्षित है। इसी कारण दयानन्द ने ज्ञान और भक्ति के सूक्ष्म चिन्तन और अनुभव के स्तर पर विकसित होने वाले आत्मा तथा ब्रह्म के अद्वैतपरक भेदाभेद को महत्त्व नहीं दिया, वरन् उसे अस्वीकार किया है, क्योंकि इस प्रकार का दार्शनिक चिन्तन जिस प्रकार की आध्यात्मिक साधना को प्रेरित करता है, वह व्यक्ति सापेक्ष और समाज निरपेक्ष है। जैसा उल्लेख किया गया है, दयानन्द का दृष्टिकोण भारतीय समाज को स्वस्थ और सन्तुलित आधार प्रदान करना था। उनके मन में ऐसे समाज की परिकल्पना थी जो शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक क्षमता, बौद्धिक विवेक, नैतिक दायित्व भावना व सामाजिक समत्व भाव से समपन्न हो, इसीलिए उन्होंने मध्ययुगीन धर्म, साधना, दर्शन, समाजनीति, राजनीति तथा अर्थनीति का डटकर विरोध किया है। वे हर प्रकार की सामाजिक, धार्मिक तथा वैयक्तिक एकांगिता के विरोधी थे। पौराणिकों ने आध्यात्मिकता के नाम पर समस्त भारतीय समाज में भावावेश पूर्णभक्ति, रहस्यमयी साधनाओं और जड़ मूर्ति पूजा का प्रचार किया था। समाज, जाति तथा राष्ट्र के राम तथा कृष्ण जैसे महान् नेताओं को अवतार मान कर उनके चारों ओर भक्ति और लीला का ऐसा वातावरण बनाया गया था, जो व्यक्ति को व्यापक सामाजिक मूल्यों तथा दायित्वों के प्रति निरपेक्ष बनाता है। दयानन्द ने इस मध्ययुगीन वातावरण को छिन्न-भिन्न करके भारतीय जीवन को नयी प्राण-शक्ति और प्रेरणा प्रदान करने का अथक प्रयत्न किया।

स्वामी दयानन्द क्रान्तिकारी द्रष्टा थे। वे समन्वयवादी समाज-सुधारक नहीं थे। पुनरुत्थान काल के अन्य सभी नेताओं ने समन्वय का सहारा लिया है। उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशेषता मानी है कि वह समन्वयशील है। इस दृष्टि से उन्होंने समपूर्ण भारतीय परमपरा को स्वीकार कर अपना समर्थन दिया है। ज्ञान से भक्ति का समन्वय, इनसे कर्मका समन्वय, वेदों से पुराणों तक का समन्वय, सभी विचार-धाराओं का समन्वय, सभी धर्मों का समन्वय, सभी सांस्कृतिक परमपराओं का समन्वय, और अन्ततः पूर्व से पश्चिम का समन्वय…. इस अध्यवसाय में उनका अधिकांश श्रम लगा। उनका विचार था कि इस प्रकार हम भारतीय संस्कृति को सुरक्षित रख सकेंगे और पश्चिमी संस्कृति के आधार पर आधुनिक युग में विकास करने का मौका भी पा सकेंगे। परन्तु दयानन्द की क्रान्तिकारी दृष्टि में यह समन्वय सत्य को लेकर समझौता करने की मनोवृत्ति का परिचायक है और इस मनोवृत्ति से कोई भी समाज न गतिशील हो सकता है और न सर्जनात्मक ही। समन्वय यदि समझौता है, दो विचारों, मूल्यों अथवा परमपराओं की मिलावट है, तो वह हेय ही नहीं, किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की व्यक्तित्वहीनता का परिचायक भी है। दो विचार, दो मत अथवा दो संस्कृतियाँ एक-दूसरे के लिए चुनौती रूप में उपस्थित होती हैं और इन चुनौतियों को स्वीकार करने की प्रक्रिया में उनमें नया संस्कार आता है, नई गति आती है और अन्ततः उनका नया सर्जनात्मक रूप व्यक्त होता है। यह एक स्वस्थ प्रक्रिया है। दयानन्द ने इसी स्तर पर और इसी रूप में चुनौतियों को स्वीकार किया है। निश्चय ही वेद उनके लिए आश्रय-स्थल रहे हैं, पर वेद के सत्य-ज्ञान की समस्त परिकल्पना उन्होंने भारतीय समाज की पुनर्रचना और गत्यात्मक क्षमता की दृष्टि से ही स्वीकार की।

उन्होंने स्पष्टतः अनुभव किया कि जब तक मध्ययुगीन मूल्यों, स्थापनाओं, मान्यताओं, जीवन-पद्धतियों और परमपराओं का खुला विरोध नहीं किया जायगा और भारतीय समाज को इनकी कुंठाओं, जड़ताओं और स्वार्थपरताओं से पूर्णतःमुक्त नहीं किया जायगा, इस समाज के पुनर्जीवित होने और फिर से मौलिक सर्जनशीलता से गतिशील होने का कोई अवसर नहीं है। इसी कारण उन्होंने इन सब पर कसकर प्रहार किया है और इसमें उन्होंने कभी किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया। इस क्रान्तिकारी व्यक्तित्व ने अपने सत्य को लेकर किसी बड़ी से बड़ी शक्ति से भय, लोभ, आतंक वश कभी समझौता नहीं किया। उनका एक ही उत्तर था- असत्य से समझौता करके सत्य का प्रकाश करना कभी संभव नहीं है। वस्तुतः अपनी गहरी अन्तर्दृष्टि से उन्होंने समझ लिया था कि विजड़ित और कुंठित परमपरा से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है उसको तोड़कर फेंक देना। स्वामी दयानन्द यह भी समझते थे कि कोई भी प्राचीन संस्कृति की परमपरा से जुड़ा हुआ समाज अपने अन्तर्वर्ती ऐतिहासिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्व से नितान्त विच्छिन्न होकर गतिशील नहीं हो सकता, वह नये मूल्यों की उपबलधि में सक्षम नहीं हो सकता। इस दृष्टि से उन्होंने नई समाज-रचना के लिए, नये मानस के संघटन के लिए और नई सर्जन-क्षमता से सक्रिय होने के लिए भारतीय व्यक्तित्व को वैदिक संस्कृति के आधार पर प्रतिष्ठित किया है। कुछ आधुनिकतावादी इसको प्राचीन के प्रति उन्मुखता मानते हैं, अथवा पीछे वापस जाना कहते हैं, परन्तु दयानन्द की क्रान्तिकारिता को देखते हुए यह कहना गलत है। उन्होंने वेदों के प्रामाण्य का आधार विवेक संगत ही ग्रहण किया है। वेद उनके लिए अपौरुषेय तथा परमसत्य-ज्ञान के स्रोत इसलिए नहीं है कि यह मात्र आस्था का विषय है, वरन् परम सत्य को विवेक ज्ञान तथा आत्मसाक्षात्कार के स्तर पर ग्रहण किया जा सकता है। वेदों के स्वतःप्रमाण होने का भी यही अर्थ माना गया है कि उनमें जिस सत्य ज्ञान की अभिव्यक्ति है, वह सहज ही सबके लिए समान रूप से ग्राह्य है, वह सार्वभौम और सार्वकालिक है, उसके बारे में युग की मर्यादा के महत्त्व अथवा समाज की सापेक्षता के बन्धन की चर्चा नहीं की जा सकती।

ध्यान देने की बात है कि वैदिक संस्कृति की व्याखया के माध्यम से स्वामी दयानन्द ने जिन मानव मूल्यों की स्थापना की है, वे भारतीय समाज की आधुनिक प्रगति तथा रचना दृष्टि के अनुकूल हैं। ऐसा लग सकता है कि आधुनिक समाज-रचना और उसकी प्रगति की समस्त दिशाओं तथा समभावनाओं को निरूपित, व्याखयायित तथा प्रतिष्ठित करने वाले मूल्यों को वेदों में ढूँढ़ने का प्रयत्न अतिवाद है। फैशनपरस्त आधुनिकतावादी दयानन्द पर इस प्रकार का आक्षेप लगाते रहे हैं कि उन्होंने वेदों में आज के वैज्ञानिक आविष्कारों को खोज निकालने की चेष्टा की है। यह इसी प्रकार का आक्षेप है, जैसे तथाकथित विज्ञानवादी गाँधी पर आरोप लगाते हैं कि वे बेलगाड़ी के पक्षधर थे। वस्तुतः दयानन्द ने सदा इस बात पर बल दिया है कि वेदों का दृष्टिकोण सत्य के वैज्ञानिक अन्वेषण का रहा है। वेद-काल के मनीषियों ने भौतिक जीवन की उपेक्षा करके आध्यात्मिक जीवन के विकास पर कभी बल नहीं दिया था। उन्होंने भौतिक जीवन के सत्यों के अनुसन्धान में वैसी ही प्रवृत्ति दिखाई है, जैसी आत्मिक सत्यों के आत्मानुभव के स्तरों की खोज की। सत्य का यह समस्त अनुसन्धान ज्ञान के प्रत्यक्ष अनुभव, विवेकशील चिन्तन और आत्म साक्षात्कार के आधार पर हुआ है, अतः वे इसे वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। प्रत्यक्ष जीवन के अनुभवों के आधार पर ज्ञान की खोज में प्रवृत्त होने के कारण इन मनीषियों ने अनेक भौतिक सत्यों की खोज भी की थी। परन्तु जहाँ तक आधुनिक विज्ञान का प्रश्न है, स्वामी दयानन्द का ध्यान उसकी ओर गया था और वे बहुत चाहते थे कि जर्मनी जाकर हमारे विद्यार्थी इस आधुनिक विज्ञान का समुचित अध्ययन करें और वापस आकर उसका प्रचार अपने देश में करें। उनके अनुसार इस आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में बिना अधिकार प्राप्त किये कोई देश या समाज आज उन्नति नहीं कर सकता।

शेष भाग अगले अंक में…..

चाँदापुर के शास्त्रार्थ विषयक प्रश्नः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

चाँदापुर के शास्त्रार्थ विषयक प्रश्नः

उ.प्र. के दो तीन आर्य युवकों ने गत दिनों चलभाष पर चाँदापुर शास्त्रार्थ विषय में कुछ अच्छे प्रश्न पूछे। वे ऋषि मेले पर न पहुँच सके। आ जाते तो उनको नई-नई ठोस जानकारी दी जाती। राहुल जी  ने भारत सरकार के रिकार्ड से एक अभिलेख खोज कर दिया है। इसमें चाँदापुर शास्त्रार्थ में महर्षि के विशेष योगदान की चर्चा है। वहाँ गोरे, काले पादरी व कई मौलवी पहुँचे। इस्लाम का पक्ष देवबन्द के प्रमुख मौलाना मुहमद कासिम ने रखा। पादरी टी.जे. स्काट भी बोले। राजकीय रिकार्ड में केवल ऋषि जी के नाम का उल्लेख है। यह अपने आपमें एक घटना है। आर्य समाज स्थापित हुए अभी दो वर्ष भी नहीं हुए थे कि ऋषि के व्यक्तित्व का लोहा गोराशाही ने माना।

चाँदापुर शास्त्रार्थ के सबन्ध में हमने तत्कालीन नये-नये स्रोत खोज कर इस पर नया प्रकाश डाला है। राधा स्वामी मत के तीसरे गुरु हुजूरजी महाराज की पुस्तक में इस विषय में बहुत महत्त्वपूर्ण नये व ठोस तथ्य हमें मिले हैं। वह उस युग के जाने माने लेखक थे। ‘आर्य दर्पण’ का वह अंक भी हमारे पास है, जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था।

शास्त्रार्थ हुआ ही क्यों?

चाँदापुर में मेला पहले भी हुआ करता था। सन् 1877 का मेला कोई पहली बार नहीं हुआ था। पादरी व मौलवी मेले पर आकर अपने-अपने मत का प्रचार किया करते थे। गये वर्ष के मेले में यह प्रसिद्ध हो गया कि मौलवी जीत गये और कबीर पंथी हार गये। मुंशी इन्द्रमणि जी व ऋषि जी को मुंशी मुक्ताप्रसाद व मुंशी प्यारेलाल ने बचाव के लिए ही तो बुलवाया था। यह बात स्पष्ट रूप से राधास्वामी गुरुजी ने लिखी है। एक लेखक ने लिखा है कि इन दो बन्धुओं का झुकाव कबीरपंथ की ओर था। यह कोरी कल्पना है। वे तो कुल परपरा से ही कबीर पंथी थे अतः यह हदीस गढ़न्त है। हरबिलास जी आदि का यह कथन सत्य है कि मुक्ताप्रसाद जी का झुकाव ऋषि की शिक्षा की ओर था। मेले के बाद दोनों बन्धु आर्य समाज से जुड़ते गये। इसके पुष्ट प्रमाण परोपकारिणी सभा तथा श्री अनिल आर्य जी,महेन्द्रगढ़ को सौंप दिये हैं।

सब बड़े-बड़े लेखकों ने (लक्ष्मणजी के ग्रन्थ में भी) यह लिखा है कि मौलवी व पादरी चाँदापुर पहुँचे। फिर कुछ लोगों ने ऋषि जी से कहा कि हिन्दू मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करके इन्हें पराजित करें। प्रश्न यह भी पूछा गया है कि ये कुछ लोग कौन थे? हमारा स्पष्ट उत्तर है कि ऐसा मुसलमानों ने कहीं कहा था। पूछा गया है कि इसका प्रमाण क्या है? हमारा उत्तर है- बस तथ्य सुस्पष्ट हैं और प्रमाण क्या चाहिये? ईसाइयों को तो पराजित करने के लिए मिलकर शास्त्रार्थ करने को कहा गया था सो ये लोग ईसाई हो नहीं सकते थे। हिन्दुओं को विशेष रूप से कबीर पंथियों को मुसलमान बनाने के लिए मौलवी जोर मार रहे थे। चिढ़ा भी रहे थे। मुसलमानों से रक्षा के लिए हिन्दुओं ने ऋषि जी को बुलवाया था, सो हिन्दू अब मुसलमानों से मिलकर ईसाइयों को क्यों पछाड़ने की बात कहेंगे। बड़ा खतरा तो मुसलमान थे।

श्री शिवव्रतलाल (हजूरजी महाराज) के वृत्तान्त से और प्रसंग से पहले मौलवियों व पादरियों के आगमन की सबने चर्चा की है। इससे स्पष्ट है कि ‘‘ये कुछ लोग’’ मुसलमान ही थे। बिना प्रमाण के हमने कुछ नहीं लिखा है। दुर्भाग्य से भ्रमित करने वालों की हजूरजी महाराज की पुस्तक तक पहुँच नहीं है। हजूरजी मूलतः कबीरपंथी ही तो थे, सो वह सब कुछ जानते थे। थे भी उ.प्र. के। पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी आदि के उपदेश, आदेश सुनकर सप्रमाण लिखना मेरा स्वभाव बन चुका है। पक्षपात के रोग से ग्रस्त होकर बड़े जोर से मेरे लेख पर आपत्ति की गई कि मौलवियों या मुसलमानों ने ऋषि जी से कहाँ कहा था कि हिन्दू मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करें? इस सोच के व्यक्ति क्या जानें कि श्री पंडित लेखराम जी ने अपने एक प्रसिद्ध ग्रन्थ में यही बात लिखी है। किसी की पहुँच हो तो पढ़ ले।

 

सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द

ओ३म्

सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़े अनेक रहस्य हैं जिन्हें विज्ञान आज भी खोज नहीं पाया अथवा जिसका विज्ञान जगत व हमारे धार्मिक व सामाजिक लोगों का यथोचित ज्ञान नहीं है। महर्षि दयानंद सत्य-ज्ञान के जिसाज्ञु थे। उन्होंने धर्म-समाज-ज्ञान-विज्ञान किसी भी पक्ष की उपेक्षा न कर सभी विषयों का यथोचित ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से देश का भ्रमण कर उस समय उपलब्ध प्राचीन व प्राचीनतम ग्रन्थों सहित अधिकारी विद्वानों के उपलब्ध ग्रन्थों का भी अध्ययन कर उनमें उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त किया। ऐसा कर उनको अनेक नये तथ्यों व रहस्यों का ज्ञान हुआ जिसे वह अपने प्रवचनों में प्रस्तुत करते थे और जब उन्होंने साहित्य सृजन का कार्य किया तो सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों में उस ज्ञान का प्रसंगानुसार वर्णन किया। उनसे प्राप्त सृष्टि के रहस्य सम्बन्धी ज्ञान के लिए तो उनके सभी ग्रन्थों को पढ़ना आवश्यक है परन्तु आज के लेख में हम सत्यार्थप्रकाश से उनके कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे कुछ प्रमुख बातों का ज्ञान हो सके।

 

जगत की उत्पत्ति में कितना समय व्यतीत हुआ, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि एक अरब, छानवें करोड़, कई लाख और कई सहस्र वर्ष जगत् की उत्पत्ति और वेदों के प्रकाश होने में हुए हैं। इस का स्पष्ट व्याख्यान उन्होंने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में विस्तार से किया है, वहीं देखना उचित है। वह आगे बताते हैं कि सब से सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात् जो काटा नहीं जा सकता उसका नाम परमाणु है। साठ परमाणुओं के मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है, तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात् तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उस का दोगुना होने से पृथिवी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिला कर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं। यहां हम विचार करते हैं कि यदि स्वामी दयानन्द के जीवनकाल में कोई व्यक्ति उनसे परमाणु विषयक इस विवरण पर विस्तृत व्याख्या लिखने का अनुग्रह करता तो उत्तम होता जिससे हमें इस विषय के व्याख्या सहित उनके विस्तृत विचार ज्ञात हो सकते थे। उनसे इनका श्रोत व सन्दर्भ भी जाना जा सकता था। अब उनके न रहने पर हमें नहीं लगता की कोई ऐसा विद्वान है जो परमाणु विज्ञान उनके इन कथनों का आधुनिक विज्ञान से संगति लगाकर व समाधान कर सके।

 

अगला प्रश्न महर्षि दयानन्द यह लेते हैं कि इस सृष्टि का धारण कौन करता है। कोई कहता है शेष अर्थात् सहस्र फण वाले सप्र्प के शिर पर पृथिवी है। दूसरा कहता है कि बैल के सींग पर, तीसरा कहता है कि किसी पर नहीं, चैथा हता है कि वायु के आधार, पांचवां कहता है कि सूर्य के आकर्षण से खिंची वा खैंची हुई अपने स्थान पर स्थित, छठा कहता है कि पृथिवी भारी होने से नीचे-नीचे आकाश में चली जाती है इत्यादि। इनमें से किस बात को सत्य मानें? इसके उत्तर में वह कहते हैं कि जो शेष, सर्प्प और बैल के सींग पर धरी हुई पृथिवी स्थित बतलाता है उस को पूछना चाहिये कि सर्प्प और बैल के मां बाप के जन्म समय किस पर थी? तथा सर्प्प और बैल आदि किस पर हैं? बैल वाले मुसलमान तो चुप ही कर जायेंगे। परन्तु सप्र्प वाले कहेंगे कि सर्प्प कूर्म पर, कूर्म जल पर, जल अग्नि पर, अग्नि वायु पर तथा वायु आकाश में ठहरा है। उन से पूछना चाहिये कि सब किस पर हैं? तो अवश्य कहेंगे परमेश्वर पर। जब उन से कोई पूछेगा कि शेष और बैल किस का बच्चा है? शेष कश्यप-कद्रू और बैल गाय का। कश्यप मरीची, मरीची मनु, मनु विराट्, विराट् ब्रह्मा का पुत्र, ब्रह्मा आदि सृष्टि का था। जब शेष का जन्म ही नही हुआ था, उसके पहले पांच पीढ़ी हो चुकी है, तब किस ने धारण की थी? अर्थात् कश्यप के जन्म समय में पृथिवी किस पर थी? तो तेरी चुप मेरी भी चुप और लड़ने लग जायेंगे। इस का सच्चा अभिप्राय यह है कि जो बाकी रहता है उस को शेष कहते हैं। किसी कवि ने शेषाधारा पृथिवीत्युक्तम्  ऐसा कहा कि शेष के आधार पृथिवी है। दूसरे ने उसके अभिप्राय को न समझ कर सर्प्प की मिथ्याकल्पना कर ली। परन्तु जिसलिये परमेश्वर उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक रहता है इसी से उसको, परमेश्वर को, शेष कहते हैं और उसी के आधार पर पृथिवी है। सत्येनोत्तभिता भूमिःयह ऋग्वेद का वचन है। इसका अर्थ है कि जो त्रैकाल्याबाध्य है अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता उस परमेश्वर ने भूमि, सूर्य और सब लोकलोकान्तरों का धारण किया है। उक्षा दाधार पृथिवीमुत द्याम्, यह भी ऋग्वेद का वचन है। इसमें ‘‘उक्षा शब्द को देखकर किसी ने बैल का ग्रहण किया होगा क्योंकि उक्षा बैल का भी नाम है। परन्तु उस मूढ़ को यह विदित न हुआ कि इतने बड़े भूगोल के धारण करने का सामर्थ्य बैल में कहां से आयेगा? वैदिक साहित्य में उक्षा वर्षा द्वारा भूगोल के सेचन करने से सूर्य का नाम है। उस ने अपने आकर्षण से पृथिवी को धारण किया है। परन्तु सूर्यादि का धारण करने वाला बिना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं है। अतः महर्षि दयानन्द सभी उपलब्ध विवरणों की वैदिक साहित्य से तुलना कर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि इस सृष्टि को धारण करने वाला ईश्वर वा परमेश्वर ही है, और कोई नहीं। महर्षि दयानन्द समाधि सिद्ध अर्थात् ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार किये हुए अथवा ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति किये हुए मनुष्य वा विद्वान थे। वह वैज्ञानिकों के मत कि समस्त सौर्य मण्डल वा ब्रह्माण्ड को आकर्षण-अनुकर्षण, प्रत्येक पिण्ड की अपनी-अपनी धुरी व वृत्ताकार गति के कारण स्थित-स्थिर हैं वा गति कर रहे हैं, इनको स्वीकार करने के साथ परमेश्वर का इन सबका उत्पत्तिकर्ता व धारणकर्ता स्वीकार करते हैं।

 

इसी प्रसंग में एक अन्य प्रश्न महर्षि दयानन्द ने यह किया है कि इतने बड़े-बड़े  भूगोलों को परमेश्वर कैसे धारण कर सकता होगा? इसका उत्तर वह यह कहकर देते हैं कि जैसे अनन्त आकाश के सामने बड़े-बड़े भूगोल अर्थात् समुद्र के आगे जल के छोटे कण के तुल्य भी नहीं हैं, वैसे अनन्त परमेश्वर के सामने असंख्यात लोक एक परमाणु के तुल्य भी नहीं कह सकते। वह बाहर भीतर सर्वत्र व्यापक अर्थात् विभूः प्रजासु (यजुर्वेद वचन), वह परमात्मा सब प्रजाओं में व्यापक होकर सब का धारण कर रहा है। जो वह ईसाई, मुसलमान व पुराणियों के कथनानुसार विभू न होता तो इस सब सृष्टि का धारण कभी नहीं कर सकता था क्योंकि विना प्राप्ति (ईश्वर के सर्वव्यापक अर्थात् सबको सर्वत्र प्राप्त हुए बिना) के किसी को कोई धारण नहीं कर सकता। वह आगे कहते हैं कि यदि कोई कहे कि ये सब लोक-लोकान्तर परस्पर आकर्षण से धारित होंगे, पुनः परमेश्वर के धारण करने की क्या अपेक्षा है? उन को यह उत्तर देना चाहिये कि यह सृष्टि अनन्त है वा सान्त (अन्त वाली वा सीमित)? जो अनन्त कहें तो आकार वाली वस्तु अनन्त कभी नहीं हो सकती और जो सान्त कहें तो उनके पर भाग सीमा अर्थात् जिस के परे कोई भी दूसरा लोक नहीं है, वहां किस के आकर्षण से धारण होगा? जैसे समष्टि कहाता है और एक-एक वृक्षादि को भिन्न-भिन्न गणना करें तो व्यष्टि कहाता है, वैसे सब भूगोलों को समष्टि गिनकर जगत् कहें तो सब जगत् का धारण और आकर्षण का कर्ता विना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं। इसलिए जो सब जगत् को रचता है वही दाधार पृथिवीमुत द्याम्।।, यह यजुर्वेद का वचन है, इसमें कहा गया है कि जो पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोक-लोकान्तर पदार्थ तथा सूर्यादि प्रकाश वाले लोक और पदार्थों का रचन व धारण परमात्मा ही करता है। जो सब में व्यापक हो रहा है वही सब जगत् का कर्ता और धारण करने वाला है।

 

महर्षि दयानन्द सौर मण्डल विषयक कुछ प्रश्नोत्तर प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथव्यादि लोग घूमते हैं वा स्थिर हैं? वह उत्तर में कहते हैं कि घूमते हैं। (प्रश्न) कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है सूर्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाये? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द वेदों के आधार पर देते हैं। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए। वेदों का ज्ञान और आधुनिक विज्ञान की खोजे परस्पर एक समान व पूरक हैं। पूर्व प्रश्न के उत्तर में महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के अध्याय 3 के मन्त्र 63 आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं प्रयन्त्स्वः।। को प्रस्तुत कर उसका अर्थ बताते हुए कहा है कि यह भूगोल समुद्र नदी के जल सहित सूर्य के चारों ओर घूमता जाता है इसलिए भूमि अर्थात् सम्पूर्ण पृथिवी घूमा करती है। एक अन्य वैज्ञानिक खोज को वेदों में दिखाने हेतु वह यजुर्वेद के 33/43 मन्त्र कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।। को प्रस्तुत कर कहते हैं कि जो सविता अर्थात् सूर्य वर्षादि का कर्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्तमान, सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप, वृष्टि वा किरण के साथ आकर्षण गुण से सह वर्तमान, अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। इसी प्रकार एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे- दिवि सोमो अधि श्रितः।। यह अथर्ववेद का 14/1/1 मन्त्र है। इसका तात्पर्य बताते हुए दयानन्द जी कहते हैं कि यह चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्यान्ह, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्यावर्त में सूर्यादय होता है उस समय पाताल अर्थात् अमेरिका में अस्त होता है और जब आर्यावर्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्यावर्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है।

 

महर्षि दयानन्द ने सृष्टि रचना व इससे जुड़े विषयों पर जो तथ्य वैदिक साहित्य के आधार पर प्रस्तुत किये हैं वह अति विस्तृत एवं विज्ञानसम्मत हैं। इसके लिए उनके समस्त ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। महाभारत काल के बाद भारत के ब्राह्मण कहे जाने वाले विद्वानों ने वैदिक साहित्य की उपेक्षा कर अज्ञानयुक्त पुराणों आदि की रचना कर मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जाति आदि की मिथ्या परम्पराओं को प्रचलित किया। उन्होंने सांगोपांग वेदाध्ययन न कर इसका परिणाम सामाजिक व वैज्ञानिक उन्नति का कार्य बन्द कर दिया था जिसके कारण भारत का पतन हुआ। वहीं दूसरी ओर यूरोप के सुधीजनों ने वहां की विज्ञान विरूद्ध व विज्ञान रहित धार्मिक मान्यताओं की उपेक्षा कर विज्ञान की उन्नति पर अपना ध्यान व शक्ति को केन्द्रित किया जिसका परिणाम आज का आधुनिक विज्ञान है। हमारे पौराणिक विद्वान व संसार के अन्य मतवाले आज भी वहीं हैं जहां वह मध्यकाल में थे। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ऐसे पहले वैदिकधर्मी विद्वान उत्पन्न हुए जिन्होंने विज्ञान को धर्म को आवश्यक अंग स्वीकार किया और विज्ञान की उपेक्षा न कर उसका पोषण किया। महाभारत काल से पूर्व वैदिक धर्म विज्ञान का पूर्ण पोषक व आधार रहा है। इसी कारण महाभारत काल तक भारत में ज्ञान व विज्ञान सर्वोच्च रहा। ज्ञान व विज्ञान से युक्त धार्मिक मान्यतायें एवं इनके परस्पर समन्वय से धर्म, समाज व विज्ञान की उन्नति होकर मानवजाति को लाभ वा सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। आज भी मध्यकालीन अज्ञानतापूर्ण मान्यतायें चाहे वह किसी भी मत व मतान्तर की हों, उचित नहीं कही जा सकती। सभी मतों व धर्मों को विज्ञान के आलोक में अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों का संशोधन कर अपने-अपने मत व धर्म को मनुष्यों के लिए अधिक उपयोगी, स्वीकार्य एवं परिणाम प्राप्ति में सहायक बनाना चाहिये। हम स्वामी दयानन्द के धर्म व विज्ञान के सन्तुलित सिद्धान्तों का अध्ययन करने व उसमें निहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति की प्ररेणा को आज के युग में सर्वाधिक प्रासंगिक व सभी मनुष्यों द्वारा ग्रहण किये जाने की आवश्यकता को अनुभव करते हैं क्योंकि इसी में मनुष्यजाति का कल्याण है।

मनमोहन कुमार आर्य

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पाखण्ड खण्डिनी पताका, सद्धर्म प्रचार और महर्षि दयानन्द

ओ३म्

पाखण्ड खण्डिनी पताका, सद्धर्म प्रचार और महर्षि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

किसी भी विषय में सत्य का निर्धारण करने पर सत्य वह होता है जो तर्क व युक्ति के आधार पर सिद्ध हो। दो संख्याओं 2  व 3 का योग 5 होता है। तर्क व युक्ति से यही उत्तर सत्य सिद्ध होता है। अतः 2 व 3 का योग 4 या 6 अथवा अन्य कुछ कहा जाये तो वह असत्य की कोटि में आता है। धार्मिक मान्यताओं व सिद्धान्तों की दृष्टि से भी एक विषय में सत्य मान्यता व सिद्धान्त केवल एक ही होता है। इसका प्रथम ज्ञान परमात्मा ने स्वयं ही सृष्टि के आरम्भ में वेदों के द्वारा आदि ऋषियों को कराया था। आज भी सम्पूर्ण वेद अपने मूल स्वरूप सहित संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में भाष्यों के रूप में उपलब्ध है। इनके द्वारा सत्य धर्म, मत, मान्यताओं व सिद्धान्तों का निर्धारण किया जा सकता है। धर्म का सम्बन्ध ईश्वर व आत्मा के ज्ञान व मनुष्य द्वारा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से भी जुड़ा हुआ है। अतः ईश्वर, जीव व उपासना से जुड़ी सभी मान्यतायें व सिद्धान्त जो परस्पर विरोधी व युक्ति प्रमाणों के विरुद्ध हैं, सत्य नहीं कहे जा सकते। सत्य की विस्मृति से ही अज्ञान उत्पन्न होता है जो समय के साथ बढ़ता रहता है। महाभारत युद्ध के बाद वेदों के विलुप्त हो जाने व अल्प ज्ञानी लोगों द्वारा वेदों के अर्थ न समझने के कारण भारत व विश्व के सभी देशों में अज्ञान व पाखण्ड में वृद्धि होती रही।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य ज्ञान की खोज की। उन्होंने भारत के सभी ज्ञानी गुरूओं से धर्म, योग व उपासना आदि का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने संस्कृत का व्याकरण व अन्य सभी आर्ष व अनार्ष ग्रन्थों को पढ़ कर उनका मन्थन कर अपने विद्यागुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की कृपा से सत्य व असत्य के भेद व अन्तर को जाना था। इसके साथ उन्होंने गुरू की प्रेरणा व आज्ञा तथा स्वयं के विवेक से समस्त मानवता के हित व कल्याण के लिए पाखण्ड व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का खण्डन कर सत्य वैदिक मान्यताओं की स्थापना का संकल्प किया था जिसका उन्होंने अपनी अन्तिम श्वांस तक पालन किया। स्वामी जी ने सन् 1863 तक गुरु विरजानन्द की मथुरा स्थित कुटिया वा गुरुकुल में अध्ययन कर इसके बाद सत्य धर्म वैदिक मत का प्रचार आरम्भ किया था। आगरा व ग्वालियर आदि अनेक स्थानों पर प्रचार करते हुए वह सन् 1867 के हरिद्वार के कुम्भ मेले में धर्म प्रचार करने के उद्देश्य से आये थे। इसका कारण था कि कुम्भ के मेले में हिन्दू स्त्री-पुरुष और साधु लाखों की संख्या में इकट्ठे होते हैं। यह लेाग समझते हैं कि कुम्भ के मेले पर गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं और मनुष्य को दुःखों व जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाती है। हरिद्वार में उन्होंने देखा कि साधु और पण्डे धर्म का उपदेश देकर लोगों को सीधे रास्ते पर लाने के स्थान पर उन्हें पाखण्ड की शिक्षा देकर लूट रह हैं। उन्होंने पाया कि संसार सत्य धर्म पर चलने के स्थान पर अज्ञान के गहरे गड्ढ़े में गिर रहा है। जिसे हर की पैड़ी कहा जाता है, वह हर की पैड़ी न होकर हाड़ की पैड़ी बन रही है। गंगा में डुबकी लगाने से सब पाप दूर हो जाते है, इस मिथ्या विश्वास से लोग बिना सोचे विचारे अन्धाधुन्ध गंगा नदी में डुबकियां लगा रहे थे।

 

हरिद्वार में इन दृश्यों को देखकर स्वामी दयानन्द जी को गहरी चोट लगी। उन्होंने पाया कि इन कृत्यों से लोग दुःखों से छूटने के स्थान पर दुःखों के सागर में डूब रहे हैं। अतः उन्होंने साधुओं और पण्डों के इस पाखण्ड की पोल खोलने का निर्णय लिया। इसके बाद एक दिन यात्रियों ने देखा कि हरिद्वार से ऋषिकेश को जाने वाली सड़क पर वहां एक स्थान पर स्वामी दयानन्द ने पाखण्ड-खण्डिनी पताका गाड़ दी है। वह वहां गरज-गरज कर उपदेश दे रहे हैं। वह अपने उपदेशों में साधुओं और पण्डों की करतूतें दिखला कर झूठे गंगा-महात्म्य की धज्जियां उड़ा रह हैं। स्वामी दयानन्द की इस गरजना से मेले में भारी हलचल मच गई। आज तक लोगों ने किसी संन्यासी को श्राद्ध, मूर्ति-पूजा, अवतार और गंगा-स्नान से मुक्ति मिलने का खण्डन करते हुए तथा पुराणों को झूठा कहते नहीं सुना था। सहस्त्र्रों की संख्या में लोग उनका क्रान्तिकारी उपदेश सुनने आने लगे। स्वामीजी सबसे यही कहते थे कि हर की पैड़ी पर नहाने से पाप नहीं धुलते। वेद की शिक्षा पर चलो। अच्छे काम करो। इसी से सुख और मोक्ष मिलेगा। धर्म ग्रन्थों का पढ़ना-सुनना और सच्चे धर्मात्माओं की संगति ही सच्चा तीर्थ होती है।

 

आने को तो स्वामी दयानन्द जी के सत्संग व प्रवचन में सहस्त्रों लोग उपदेश सुनने आते थे परन्तु वे केवल सुनकर चले जाते, उन पर उनके उपदेशों का प्रभाव दिखाई नहीं देता था। यह देख कर स्वामीजी को गहरी निराशा हुई। उन्होंने विचार किया कि मेरे तप व त्याग में कहीं कुछ कमी है जिस कारण से उनकी बात का लोगों पर असर नहीं हो रहा है। बस उन्होंने निर्णय किया कि वह अब आगे प्रचार न कर मौन रहकर तपस्या करेंगे। उन्होंने अपने सब वस्त्र उतार कर फेंक दिये। महाभाष्य की एक कापी, सोने की एक मुहर और मलमल का एक थान अपने गुरूदेव स्वामी विरजानन्द जी के लिए मथुरा भिजवा दिया। श्री कैलासपर्वत नाम के एक साधु ने स्वामी से पूछा कि महाराज आप यह क्या कर रहे हैं? स्वामी जी ने उन्हें उत्तर दिया कि जब तक अपनी आवश्यकताओं को कम से कम न किया जाये, पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती और कार्य में सफलता भी नहीं हो सकती। कैलास पर्वत को उन्होंने कहा कि वह सत्य वैदिक धर्म के विरोधी सभी असत्य मत, पन्थों व सम्प्रदायों का खण्डन कर सत्य को स्थापित करना चाहते हैं। इसके लिए वह सांसारिक आवश्यकताओं और सुख-दुःख से ऊपर उठना चाहते हैं। इसके बाद स्वामीजी ने पुस्तकें आदि छोड़कर अपने सारे शरीर पर राख रमा ली। अपने तन पर केवल एक कौपीन रख कर मौन रहने का व्रत ले लिया। जो वेदों का विद्वान शेर की तरह किसी समय लाखों के समूह में गरजता था, जिसकी गरज को सुनकर झूठे मतों और पंथों के दिल दहल जाते थे, वह अब मौन रहकर अपनी कुटी में बैठ गया। बातचीत करना पूरी तरह से बन्द हो गया। इस स्थिति में उनके मन में जो तूफान उठ रहा होगा, उसका अनुमान किया जा सकता है। अतः यह स्थिति अधिक दिन नहीं चली। उन्होंने तो यह पाठ पढ़ा हुआ था कि मौन रहने से अच्छा सत्य बोलना होता है। ऐसा व्यक्ति कब तक चुप रह सकता था? कुछ दिन बाद एक घटना घटी। एक व्यक्ति उनके तम्बू के बाहर खड़ा होकर पुराणों की प्रशंसा करने लगा। उसने वेदों को पुराणों से हेय बताया। इस असत्य वचन को सुनकर स्वामी जी से रहा न गया और वह अपना मौन व्रत तोड़कर बाहर निकले और उस व्यक्ति के असत्य वाक्यों का खण्डन आरम्भ कर दिया। हो सकता है कि उस व्यक्ति ने यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा से स्वामी जी का मौन व्रत भंग करने के लिए किया हो? जो भी रहा हो, यह अच्छा ही हुआ और अब स्वामीजी पूरे बल से वेद प्रचार करने लगे।

 

अब स्वामी दयानन्द नगर-नगर और स्थान-स्थान में घूम कर वैदिक धर्म का प्रचार करने लगे। चारों वेदों का अध्ययन कर उन्होंने जाना था कि वेदों में कहीं मूर्तिपूजा का विधान व समर्थन नहीं है। उन्होंने मूर्तिपूजा और अन्य अवैदिक अन्धविश्वासों व पाखण्डों का खण्डन करना आरम्भ कर दिया। बहुत से लोग उनके साथ शास्त्रार्थ करने आते परन्तु हार खाकर चले जाते। कर्णवास में पं. हीरावल्लभ नाम के एक बहुत बड़े विद्वान पण्डित थे। वह नौ और पण्डितों को अपने साथ लेकर स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने आये। आते हुए साथ में एक पाषाण मूर्ति भी उठा लाये और प्रतिज्ञा की कि जब तक दयानन्द से इसकी पूजा न करा लूंगा, वापस न जाऊंगा। कोई एक सप्ताह तक प्रतिदिन ना-नौ घंटे तक शास्त्रार्थ हुआ करता था। दोनों ओर से संस्कृत बोली जाती थी और वाद प्रतिवाद होता था। अन्तिम दिन पण्डित जी उठे और ऊंचे स्वर से बोले–स्वामी दयानन्द जी महाराज जो कुछ कहते हैं, वह सब सत्य है। इतना कहकर उन्होंने अपनी मूर्तियां उठाई और गंगा में फेंक दीं। उनको देखकर बाकी पण्डितों और नगर-निवासियों ने भी अपनी-अपनी मूर्तियां घर से लाकर गंगा की भेंट कर दीं। हीरावल्लभजी ने मूर्तियों की जगह सिंहासन पर वेदों को प्रतिष्ठत कर दिया। इस कर्णवास के शास्त्रार्थ की सर्वत्र बड़ी धूम मची। बहुत से ठाकुर लोग स्वामी जी महाराज के पास आकर उपदेश लेने लगे। स्वामी जी ने उन्हें यज्ञोपवीत-जनेऊ देकर गायत्री मन्त्र को गुरु-मन्त्र के रूप में दिया। गंगा के किनारे भ्रमण करते हुए स्वामी दयानन्द ने इस प्रकार गायत्री के उपदेश से सहस्त्रों स्त्री-पुरुषों को धर्म का अमृत पिलाकर उनका कल्याण किया।

 

महर्षि दयानन्द ने देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, परतन्त्रता, गोहत्या दूर करने, गोरक्षा का महत्व स्थापित करने, हिन्दी को अपनाने, विदेशी भाषाओं के अंधाधुन प्रयोग न करने सहित सामाजिक विषमा दूर करने, समाज सुधार व मानव जाति के हित के अनेकानेक कार्य किये और इनके लिए अपना एक-एक पल व एक-एक श्वांस व्यतीत किया। उनके जैसा महापुरूष इतिहास के पृष्ठों पर दूसरा देखने को नहीं मिलता जिसने देश व मानवता के हित के लिए अपना सर्वस्व त्याग किया हो। उनका बलिदान तो महत्व पूर्ण है ही परन्तु हमें लगता है कि उनका कार्य उनके बलिदान से भी अधिक महत्वूपर्ण है। उनके कार्य का किंचित परिचय देना ही आज के इस लेख का उद्देश्य है। आज के इस लेख में हमने महर्षि दयानन्द भक्त श्री सन्तराम जी के ऋषि जीवन से सहायता ली है। उनका आभार व्यक्त करते हैं। आशा है कि पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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पुनरुत्थान युग का द्रष्टा -2

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा

– स्व. डॉ. रघुवंश

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे । वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्व मान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान्यदुवंशसहाय द्वारा रचित ‘महर्षि दयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषि भक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।    –  सपादक

पिछले अंक का शेष भाग……..

विवेकानन्द ने, और बहुत कुछ गाँधी ने भी यह माना है कि भारतीय संस्कृति का स्वर आध्यात्मिक है। भारतीय जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों को अधिक मान मिला है। विवेकानन्द के अनुसार यदि भारत को पश्चिम के विज्ञान और प्रविधि की आवश्यकता है तो पश्चिम को अपने सन्तुलित विकास के लिए भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों की अपेक्षा है। और गाँधी के अनुसार भारत को नई समाज-रचना के लिए अपनी आध्यात्मिक मूल्यों की नई वैज्ञानिक उद्भावना द्वारा समस्त आधुनिक समाज तंत्र, राजतंत्र और अर्थतंत्र के मूल्यों को नया रूपप्रदान करना है। ये मूल्य भारतीय समाज-रचना का आधुनिकीकरण करने में सहायक होंगे और यह नया समाज व्यक्ति को समत्व और स्वाधीनता का वास्तविक मूल्य-बोध प्रदान करेगा। साथ ही पश्चिमी संस्कृति उन मूल्यों के आधार पर अपने संकट और संत्रास से मुक्त होकर नये भविष्य की संभावना से प्रेरित हो सकेगी। यहाँ ध्यान देने की बात है कि विवेकानन्द ने भारतीय अध्यात्म के अद्वैततत्त्व पर बल दिया है और गाँधी ने वैष्णव भावना को महत्त्व प्रदान किया है। ये दोनों तत्त्व भारतीयदर्शन, साधना और अध्यात्म के उच्चतम स्वरूप का परिचय दे सकते हैं, परन्तु सपूर्ण भारतीय मानस को इन तत्त्वों ने एकांगी और लोक निरपेक्ष भी बनाया है। इनके आधार पर व्यक्ति साधना की उच्चतम भूमिओं में भले ही प्रवेश करता हो, परलौकिक जीवन के विकास और समृद्धि के लिए अपेक्षित चरित्र-बल और आत्म-विश्वास उनसे जनता को प्राप्त नहीं हो सका। अधिक से अधिक सामाजिक जीवन के आचार तथा नैतिकता को आध्यात्मिक जीवन की अपेक्षा में महत्त्व मिला, परन्तु जब आत्मा और ब्रह्म में अभेद प्रतिपादित किया जाता हो, अथवा भक्त को सपूर्णतः अपने समस्त कर्मों को अपने प्रभु के प्रति समर्पण करना है, ऐसी स्थिति में समस्त सामाजिक दायित्व असंगत हो जाते हैं। यह अवश्य है कि विवेकानन्द और गाँधी दोनों ने इन आध्यात्मिक तत्त्वों की व्यायामें समाज-सेवा, परस्पर प्रेम और सहयोग आदि को स्थान दिया है, परन्तु जिस परमपरा से इन तत्त्वों का गहरा सबन्ध रहा है, इन तत्त्वों की स्वीकृति के साथ उस परमपरा की स्थापना तथा स्वीकृति ही अधिक हो सकी, समाज-सेवा, लोक-कल्याण, प्रेम-सहयोग आदि अधिकाधिक गौण होते गये हैं। आज के अवसरवादी समाज में भजन-कीर्तन और योगआदि की जितनी प्रतिष्ठा बढ़ी, प्रेम-सेवा आदि उतने ही उपेक्षणीय होते गये हैं।

इस दृष्टि से दयानन्द का भारतीय समाज का ज्ञान अधिक गहरा था और उनका भारतीय सांस्कृतिक परमपरा का अध्ययन अधिक पूर्ण माना जा सकता है। दयानन्द में प्रखर प्रतिभा और गहरी अन्तर्दृष्टि थी। साथ ही उनमें मानवीय संवेदना की बहुत व्यापक और आन्तरिक क्षमता थी, इसलिए घर से बाहर निकलने के बाद लगभग चौबीस वर्ष उन्होंने देश के स्थान-स्थान पर घूमने में बिताये और सारे भारतीय जन-समाज का बहुत व्यापक अनुभव प्राप्त किया। अपनी सूक्ष्म संवेदना के कारण ही उनको भारतीय समाज के जीवन का यथार्थ ज्ञान हो सका। भारतीय जन-समाज की विकृत, कुंठित, जड़ित और गतिरुद्ध स्थिति को देखकर उनका मन पीड़ा, दुःख और करुणा से अभिभूत हो गया। यह एक ऐतिहासिक संयोग ही कहा जायगा कि गौतम संसार के कष्ट, पीड़ा, दुःख-दर्द और जरा-मरण को देखकर इनसे मुक्त होने के उपाय की खोज में घर से निकले और बुद्ध ने अन्ततः पाया व्यक्ति के निर्वाण का मार्ग। पर मूलशंकर घर से निकले थे, संसार के बन्धनों से मुक्त होकर शुद्धस्वरूप शिव की खोज में और दयानन्द को मिला दुःखी, संतप्त व हीन-भाव से ग्रस्त, अनेक कुरीतियों, पाखण्डों और दुराचारों से पीड़ित, कुंठित, गतिरुद्ध भारतीय समाज। और फिर वे व्यक्तिगत मोक्ष के मार्ग को भूलकर अपने समाज के उद्धार में प्राण-पण से लग गये। न कोई गौतम बुद्ध को अपने मार्ग से विचलित कर सका और न स्वामी दयानन्द को ही कर सकता था।

दयानन्द की संवेदन-क्षमता के समान उनकी विवेक-बुद्धि बहुत प्रखर थी। उन्होंने भारतीय समाज की यथार्थ स्थिति का जितना मार्मिक अनुभव प्राप्त किया, उतनी ही गहराई से उन्होंने इस समाज के अधःपतन के कारणों का विवेचन-विश्लेषण किया। भारतीय समाज की धारावाहिक परमपरा का बहुत सटीक विश्लेषण उन्होंने किया है और उसके द्वारा वे ठीक निदान भी कर सके हैं। स्मरणीय है दयानन्द स्वामी विरजानन्द के पास पढ़ने के लिए मथुरा जब पहुँचे तो उनकी अवस्था लगभग सैंतीस-अड़तीस वर्ष की थी। इस प्रकार चालीस वर्ष की अवस्था तक दयानन्द विभिन्न शास्त्रों, दार्शनिक सिद्धान्तों और आध्यात्मिक साधनाओं के अध्ययन और अभयास में लगे रहे थे। एक ओर उनको तत्कालीन भारतीय समाज की यथार्थ स्थिति का सही ज्ञान था, तो दूसरी और भारतीय संस्कृति का उन्होंने मन्थन भी किया था। स्वामी विरजानन्द ने आर्य ग्रन्थों और वैदिक संस्कृति की ओर उनका ध्यान आकर्षित करके उनको दिशा-निर्देश दिया था। अपने परिभ्रमण काल में दयानन्द ने यह अनुभव किया था कि देश के समाज को अवरुद्ध करने वाला वर्ग पौराणि कों, पुरोहितों, साप्रदायिकों तथा महन्तों का है। यह इतना बड़ा निहितस्वार्थों का वर्ग बन गया है, जो अपनी शक्ति में बहुत व्यापक और समर्थ है। सामाजिक जीवन में जितने अन्धविश्वास, कुरीतियाँ, नृशंसताएँ और अन्याय फैले हुए हैं, उनके पीछे इसी वर्ग का समर्थन है। उन्होंने इस बीच भारतीय दर्शन, धर्म, अध्यात्म, आचार-शास्त्र और साधना का गहरा अध्ययन और अभयास किया था। इसके माध्यम से उन्हें भारतीय संस्कृति की मूलधारा की स्वछन्दता, गतिशीलता और मौलिकता की सही पहचान भी हुई। अपनी संस्कृति के उच्चतम मूल्यों के अनुभव और साक्षात्कार से उनके मन में यह प्रश्न बार-बार उमड़ता-घुमड़ता रहा कि इस महान संस्कृति के देश और समाज की पतनावस्था का कारण क्या है? जिस जाति ने जीवन के उच्चतम मूल्यों की उपलबधि की, व्यक्ति और समाज तथा व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन के समन्वय तथा सामंजस्य की श्रेयस्कर भूमिकाएँ प्रस्तुतकी हैं, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों की सुन्दर व्यवस्थाएँ दी हैं, उस जाति की ऐसी दीन-हीन अवस्था का कारण क्या है? ऐसे शक्तिशाली और समर्थ मानस की ऐसी कुंठित, गतिरुद्ध और विवेकहीन अवस्था क्यों हो गई है?

स्वामी विरजानन्द ने दयानन्द का ध्यान अनार्ष ग्रन्थों की ओर से हटाकर, आर्ष ग्रन्थों की ओर आकर्षित किया। उस प्रज्ञा चक्षु संन्यासी ने यह समझ लिया था कि वैदिककाल के बाद के ब्राह्मण और पुरोहित वर्ग ने स्वार्थवश और शक्ति को प्रतिद्वंद्विता में शुद्ध आर्षग्रन्थों की मनमानी टीकाएँ और व्याखयाएँ की हैं, अनेक समानान्तर ग्रन्थों की रचना की है। इन संहिताओं, स्मृतियों, उपनिषदों और पुराणों में अपने स्वार्थ-सिद्धि के नियमों और सिद्धान्तों का समाहार किया। किया ही नहीं, मनमाने ढंग से आर्ष ग्रन्थों में प्रक्षेप भी किये गये। इसलिए उन्होंने दयानन्द को विदा देते समय यही गुरु-दक्षिणा माँगी कि भारतीय संस्कृति के स्रोतों का आर्षग्र्रन्थों में अनुसन्धान करके भारतीयजन-समाज को पुनःएकत्रित और गतिशील करो। इस दिशा को पाकर दयानन्द ने भारतीय समाज के पुनर्जागरण का जो मार्ग प्रशस्त किया है, और उसके लिए जिन सिद्धान्तों और मूल्यों की विवेचना की है, वे उनकी दिव्य-दृष्टि का परिचायक हैं। उन्होंने भारतीय समाज का यथार्थ साक्षात्कार किया, उसकी दीनावस्था के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कारणों का वैज्ञानिक विवेचन किया और अपने युगीन-परिवेश के अनुकूल समाज की नई रचना के लिए मार्ग दिखाया । क्योंकि उन्होंने सपूर्ण भारतीय समाज से अपना तादात्य स्थापित किया था, इस समाज की पहचान उनकी सही थी। उन्होंने पूरी आत्मीय संवेदना के साथ अपने समाज की पीड़ा-व्यथा को ग्रहण किया था, अतः उनमें समाज के प्रति गहरा आन्तरिक भाव था, उसके उद्धार के लिए जीवन भर वे पूरी तन्मयता के साथ लगे रहे। दयानन्द ने बार-बार अनेक अवसरों पर घोषित किया है कि अपने समाज के उत्थान और सेवा-कार्य के समुख, वे अपने निजीआत्मोद्धार और मोक्ष को कुछ भी महत्त्व नहीं देते। इस कार्य को वे अगले जन्मों के लिए स्थगित कर सकते हैं, पर उनका जीवन पूर्णतः अपने समाज के लिए उत्सर्ग है। उनका सपूर्ण जीवन और अन्त में मृत्यु भी इसका प्रमाण है। उनके सामने एकमात्र लक्ष्य था-भारतीय समाज का उत्थान, भारतीय मानस की मुक्ति ।

स्वामी दयानन्द के सामने बड़ा सवाल था कि भारतीय संस्कृति के परस्पर विरोधी तत्त्वों का समाधान किस प्रकार हो? उन्होंने देखा कि एक ओर इस संस्कृति में मानव जीवन और समाज के उच्चतम मूल्यों की रचना शीलता परिलक्षित होती है, और दूसरी ओर उसमें मानवता विरोधी, समाज के शोषण को समर्थन देने वाले, अन्धविश्वासों का पोषण करनेवाले विचार भी पाये जाते हैं, अतः उनके मनको उद्वेलित करनेवाली बात थी कि हमारी सांस्कृतिक मूल्य-दृष्टि की प्रामाणिकता क्या है?  कहा जा सकता है कि सत्य के लिए, मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए प्रामाणिकता की आवश्यकता क्या है? गाँधी को अपने सत्य के लिए किसी धर्म-विशेष के ग्रन्थ की प्रामाणिकता की आवश्यकता नहीं हुई। यहाँ दो बातों की ओर ध्यान देना चाहिए। दयानन्द के युग में पश्चिमी संस्कृति की बड़ी आक्रमक चुनौती थी। यूरोप में 19 वीं शती से विज्ञान और नये मानववाद के प्रभाव से मध्ययुगीन धर्म की उपेक्षा की जा रही थी, और मध्ययुगीन आस्था के स्थान पर बुद्धि और तर्क का आग्रह बढ़ा था, परन्तु भारत में यूरोप के मध्ययुगीन धर्म को विज्ञान और मानववाद के साथ आधुनिक कह कर रखा जा रहा था। धर्म को अपने प्रभाव को बढ़ाने और सत्ता को स्थायी बनाने में इस्तेमाल किया जा रहा था। अतः भारतीय संस्कृति की ओर से इस चुनौती को स्वीकार करने में भारतीय अध्यात्म के वैज्ञानिक तथा मानवतावादी स्वरूप की स्थापना आवश्यक थी। फिर भारतीय अध्यात्म को इस रूप में विवेचित करने के लिए आधार रूप प्रामाणिकता की अपेक्षा थी। गाँधी को इस बात की सुविधा थी कि उनके पहले भारत के धर्म, अध्यात्म तथा संस्कृति के समन्वयात्मक रूप की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। दूसरे, दयानन्द को भारतीय परमपरा के जिन पुराणपंथियों, पुरोहितों और महन्तों का विरोध करना था, वे परमपरा की प्रामाणिकता की दुहाई देकर जनता के जीवन को पतन के गर्त में ढकेलते आये थे। भारतीय जनता प्रामाणिकता की अभयस्त बना दी गई थी, चाहे वे प्रमाण उसके लिए कोई अर्थ न रखते हों। इस निहित स्वार्थ के वर्ग के गढ़ को ध्वस्त करने के लिए दयानन्द भारतीय संस्कृति के स्रोत की खोज में प्रामाणिक आधार पाने के लिए बेचैन थे।

वे स्वयं इस बात का अनुभव कर रहे थे कि भारतीय समाज को इस अवस्था में पहुँचाने का कार्य यहाँ के ब्राह्मण, पुरोहित, पौराणिक तथा साप्रदायिक वर्ग ने अपने स्वार्थ-साधन के लिए किया है। उन्होंने देखा कि यहाँ विभिन्न धर्म सप्रदायों के कर्मकाण्ड, दार्शनिक मान्यताएँ, साधना-पद्धतियाँ अन्ततःसाप्रदायिकों, गुरुओें, महन्तों के स्वार्थ-साधन में सहायक हैं। इस प्रकार मौलिक धर्म, दर्शन, अध्यात्म और साधना में जितना विकास परिलक्षित होता है, उसका उपयोग सामाजिक जीवन को अन्धविश्वासी, निष्क्रिय और जड़ बनाने के लिए ही हुआ है। अद्वैतवाद जैसे दार्शनिक सिद्धान्त चिन्तन के स्तर पर जैसे भी हों, पर वे जन-समाज के जीवन को कर्म, दायित्व, सेवा जैसे मूल्यों से निरपेक्ष करने वाले हैं। योग का मध्ययुगीन विकृत रूप इसी प्रकार जन समाज में अनेक गुह्य और रहस्य साधनाओंके प्रचार का कारण बना। ये साधना भ्रष्टाचार, अनैतिकता, असामाजिकता का कारण बन गईं। मध्ययुग की प्रेम-साधना और भक्ति ने सामाजिक जीवन को व्यक्तिगत भावावेश का विषय बना दिया। पौराणिक धर्म ने आध्यात्मिक जीवन की उपलबधियों को सरल बना दिया, सामाजिक कर्म और दायित्व को इस प्रकार गौण बना दिया गया। नाम लेने मात्र से पापियों का उद्धार हो जाता है, तीर्थ-व्रत-स्नान से मुक्ति मिलती है, मूर्ति-पूजन से ईश्वर-भक्ति होती है, आदि ऐसे सरल उपाय बताये गये, जिनके सामने ज्ञान-विवेक-कर्म की उपेक्षा की जाने लगी। इस प्रकार दयानन्द ने देखा कि मध्य-युग के पुराण-पंथियों ने व्यक्तिगत साधनाओं पर बल देकर सामाजिक जीवन को विशृंखल कर दिया है, व्यक्ति और समाज के सन्तुलन को बिगाड़ दिया और ज्ञान-कर्म-भाव के सामंजस्य को नष्ट कर दिया है।

इसी ऊहापोह में दयानन्द ने समझ लिया कि वेद और वैदिक-साहित्य तथा अन्य आर्षग्रन्थों के प्रमाण के आधार पर इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। सामान्यतः भारतीयदर्शन, धर्म तथा अध्यात्म आदि से सबन्धित सभी सिद्धान्त अथवा सप्रदाय वेदों को प्रमाण मानते आये हैं। वेदों को प्रमाण मानने की परमपरा भारत में इस सीमा तक स्वीकृत रही है कि एक-दूसरे से विरोधी मत समान रूप से वेदों को प्रमाण मान कर चलते हैं। वेदों के प्रामाण्य की इतनी सुदृढ़ परमपरा के पीछे कोई न कोई तार्किक विवेक सममत आधार चाहिए। स्वामी विरजानन्द से वेदों के सच्चे अर्थ तक पहुँचने का दिशा-निर्देश मिल सका था। दयानन्द अपने विवेक से यह मानने को तैयार नहीं थे कि वेद, जिसका साधारण सहज अर्थ ही ज्ञान है, केवल मंत्र-शक्ति से अभिमंत्रित मन्त्रों के संकलन हैं। निश्चय ही सायणवेदों के बहुत बाद के भाष्यकार हैं, उनके समय तक वेदों के अध्ययन की परमपरा समाप्त हो चुकी थी। इसी प्रकार पश्चिमी दृष्टि से धर्म गाथा, नृतत्त्व और समाज शास्त्र आदि के आधार पर वेदों को धर्म और अभिव्यक्ति का प्रारमभिक रूप मानना भी असंगत है। यह पश्चिमी चिन्तकों और शास्त्रों की अपनी सीमा है। भारतीय ज्ञान की समर्थ परमपरा में वेदों की जो मान्यता और प्रामाणिकता रही है, उसको देखते हुए पश्चिमी विद्वानों के द्वारा प्रस्तुत वेदों की व्याखया बचकानी लगती है। दयानन्द के अनुसार वेद यदि ज्ञान के भण्डार हैं, अन्य दर्शनों के लिए तथा भारत के महान चिन्तकों के लिए प्रामाण्य हैं, ऋषियों और द्रष्टाओं के द्वारा उनके मन्त्रों का साक्षात्कार किया गया है, तो उनके मन्त्रों का संगत अर्थ होना चाहिए, उनकी अर्थ और भावकी व्यंजनाओं में ज्ञान, अनुभव और मूल्यों की श्रेष्ठ तथा उच्चतम भूमियाँ लक्षित होनी चाहिए। अरविन्द ने दयानन्द की वेद-सबन्धी दृष्टि पर विचार करते समय स्पष्ट शबदों में घोषित किया है कि वेदों की व्याखया के बारे में उनका दृष्टिकोण ही मात्र सही दृष्टिकोण है, अन्यथा भारतीय परमपरा में वेदों की महिमा का आधार ही क्या है?

स्वामी दयानन्द ‘वेद’ को ज्ञान मानते हैं, अतः उनका उद्घोष था कि यदि ‘वेद’ सत्य-ज्ञान के आदिस्रोत हैं, जैसा कि सभी भारतीय ज्ञान और शास्त्र की परमपराएँ स्वीकार करती हैं, तो उनमें मानवीय ज्ञान का विवेक-संगतस्वरूप सुरक्षित है, जिसकी स्पष्ट और सुसमबद्ध व्याखया की जा सकती है। उनके अनुसार जो यह मानते हैं कि वेद के मन्त्रों का स्पष्ट अर्थ नहीं है, उनमें मन्त्र-शक्ति ही प्रमुख है, अथवा पशु-चारण-युगीन संस्कृति के गीत सुरक्षित हैं, उनके पास वेदों को अपौरुषेय कहने, सत्य-ज्ञान के मूलस्रोत मानने और भारतीय ज्ञान और अध्यात्म के प्रामाण्य स्वीकार करने के लिए कोई आधार नहीं है। उनके अनुसार सायण के द्वारा लगाये जानेवाले वेद-मन्त्रों के भाष्य अथवा पश्चिमी पद्धतियों से की जाने वाली इन मन्त्रों की व्याखया के अनुसार जो अर्थ निकाला गया है, उसमें विरोधाभास, असंगतियाँ और क्लिष्ट कल्पनाएँ तो हैं ही, पर यदि उसको मानकर चला जाय, तो वेदों को उच्चतम मानवीय ज्ञान और मूल्यों के स्रोत मानने की बात तो दूर रही, कोई और विवेकशील व्यक्ति उसकी ओर ध्यान देने की जरूरत भी नहीं समझेगा। साथ ही इस प्रकार के अर्थों से यह भी प्रमाणित होगा कि वेदों में मानवीय समाज के असंस्कृत अथवा अर्द्धसंस्कृत आदिम स्तर की अभिव्यक्ति है। पश्चिमी संस्कृति और उसके समर्थन में विकसित पश्चिमी चिन्तन के लिए यह व्याखया अनुकूल हो सकती है, पर जिस भारतीय परमपरा ने सदा अपनी संस्कृति और ज्ञान का मूल-स्रोत वेदों को माना है, और जो वेदों के प्रामाण्य पर सर्वदा अत्यधिक बल देते हैं, वे इसका क्या समाधान दे सकेंगे ?

शेष भाग अगले अंक में……

पुनरुत्थान युग का द्रष्टा – स्व. डॉ. रघुवंश

 

कीर्तिशेष डॉ. रघुवंश हिन्दी-जगत् के जाने-माने विद्वान् थे। वे हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी के परिपक्व ज्ञाता तो थे ही, भारत की शास्त्रीयता और उसके इतिहास के अनुशीलन में भी उनकी विपुल रुचि और गति थी। उन्होंने साहित्य के विभिन्न पक्षों पर साहित्य-सर्जन कर अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और समर्थ लेखक के रूप में वे सर्वमान्य रहे। अपने अग्रज श्रीमान् यदुवंश सहाय द्वारा रचित ‘महर्षि दयानन्द’ नामक ग्रन्थ की भूमिका-रूप में लिखे गए उनके इस लेख से हमारे ऋषिभक्त पाठक लाभान्वित हों, अतः इसे हम उक्त ग्रन्थ से साभार उद्धृत कर रहे हैं।     – सपादक

भारतीय पुनरुत्थान का आधुनिक युग उन्नीसवीं शती के दूसरे चरण से शुरू हुआ। इस युग का सही चित्र प्रस्तुत करते समय इस तथ्य को ठीक परिप्रेक्ष्य में सदा रखना होगा कि इस युग के मानस में पश्चिम का गहरा प्रभाव-संघात रहा है और पश्चिमी संस्कृति का सजग प्रयत्न रहा है कि यह मानस उससे अभिाूत रहे। पश्चिमी आधुनिक संस्कृति अन्य समस्त संस्कृतियों से इस माने में भिन्न है कि वह जागरूक और आत्मालोचन करने में समर्थ है। उसके  इतिहास-बोध ने उसे अपने विस्तार, आरोप और संरक्षण का अधिक सामर्थ्य दिया है। उसकी वैज्ञानिक प्रगति ने अपनी शक्ति-विस्तार की उसे अपूर्व क्षमता प्रदान की है। अनेक मानवीय शास्त्रों के वैज्ञानिक विकास में उसने अपना प्रभाव-क्षेत्र अनेक स्तरों और आयामों में फैला लिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि पश्चिमी संस्कृति से पिछली पुरानी संस्कृति और परपरा वाले एशिया के राष्ट्रों और आदि (मैं आदिम कहना अनुचित मानता हूँ) संस्कृति वाले अफ्रीकी और अमरीकी समाजों और देशों को राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक प्रभावों में अपने उपनिवेश बने रहने के लिए विवश कर दिया है।

पुनरुत्थान युग से शुरू होकर स्वाधीनता प्राप्त होने के बाद तक के भारतीय मानस पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है। यहाँ इस समस्या का विस्तृत विवेचन-विश्लेषण करने के बजाय केवल ऐसे कुछ तथ्यों की और ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। भारतीय बौद्धिक वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानता है कि भारत, वस्तुतः समस्त एशियाई देशों का आधुनिकीकरण तभी संभव हो सका है, जब यूरोप के देशों ने वहाँ उपनिवेश बनाये और वहाँ के निवासियों को पश्चिमी ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा का अवसर प्रदान किया। भारत की राष्ट्रीय इकाई की परिकल्पना अंग्रेजी राज्य की देन है। भारतीय  संस्कृति, वस्तुतः समस्त एशियाई संस्कृतियाँ पिछड़ी हुई, मध्ययुगीन, प्रगति की सभावनाओं से शून्य, अन्धविश्वास और जड़ताओं से ग्रस्त हैं। इनके उद्धार का एक मात्र उपाय है कि ये पश्चिमी संस्कृति को अपना लें। और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पश्चिमी संस्कृति संसार की समस्त संस्कृतियों में श्रेष्ठ है, अन्य संस्कृतियाँ अपनी कमियों और कमजोरियों के कारण ह्नासोन्मुखी हुई और अन्ततः विनष्ट हो गई हैं, लेकिन पश्चिम की आधुनिक संस्कृति सबसे श्रेष्ठ और निरन्तर विकासशील है। इस प्रकार के चिन्तन को अग्रसर करने का पश्चिम के समस्त बौद्धिक वर्ग ने और उनके तथा कथित वैज्ञानिक तथा तटस्थ अध्ययनों ने निरन्तर प्रयत्न किया है। ऐसे पश्चिमी विद्वान् अपवाद ही माने जायँगे, जिन्होंने पश्चिमी संस्कृति की इस श्रेष्ठता और अन्य संस्कृतियों की हीनता के विचार को चुनौती दी हो। और मजे की बात है कि मानसिक रूप से पश्चिम के गुलाम भारत के बौद्धिक उनके विचारों को प्रामाणिकता तो नहीं देते, पर उनके आधार पर पश्चिमी संस्कृति की महनीयता का समर्थन अवश्य करते हैं।

भारत में अंग्रेजों के प्रभुत्व काल में प्रारभ से यह प्रयत्न रहा है कि राजसत्ता के क्रमशः बढ़ते हुए विस्तार के साथ इस देश के परपरित सामाजिक, प्रशासनिक और आर्थिक ढाँचे को छिन्न-भिन्न कर दिया जाय। इस प्रकार अंग्रेजी राजनीति और राजनय का सारा दृष्टिकोण यह रहा है कि यहाँ की पिछली संस्थाओं, व्यवस्थाओं और परपराओं को नष्ट कर देश की समस्त आन्तरिक शक्ति, आस्था तथा विश्वास को तोड़कर उसे नैतिक मेरुदण्ड-विहीन बना दिया जाय। भारतीय जन-समाज को उसके स्वीकृत आधार से उन्मूलित कर, ग्राम-समाज और पंचायतों के ढाँचों को विशृृंखल कर, धार्मिक आस्थाओं को खण्डित कर तथा उद्योग-धन्धों और व्यापार को विनष्ट कर अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान की दीक्षा देकर भारतीय मानस को यूरोपीय संस्कृति की महत्ता से इस प्रकार अभिभूत कर दिया कि अधिकांश शिक्षित वर्ग अपने देश के धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हीन भावना से भर गया। इसका सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि पुनरुत्थान युग के प्रारभ से उन्नति और विकसित होने के लिए पश्चिमीकरण पर बल दिया जाने लगा। यह पश्चिमीकरण अधिकांशतः अनुकरणमूलक ही रहा। कोई भी आरोप अनुकरणमूलक ही हो सकता है।

यह अवश्य हुआ कि अंग्रेजी राजनीति के परिणामस्वरूप भारत में उनके उपनिवेश की जड़ें काफी गहरी और मजबूत रहीं और इस प्रक्रिया में अर्थात् पश्चिमीकरण के दौरान भारत मध्ययुगीन संस्कारों तथा मनोवृत्तियों से अपने को मुक्त कर आधुनिक बन सका। यह बात संस्कारगत और परिवेशगत पक्षपात के कारण मार्क्स तथा ट्वायनवी जैसे यूरोपीय विचारकों ने भी कही है, अन्यों की तो बात अलग है। पश्चिम के मानस-पुत्र भारतीय तो यह राग अलापते कभी थकते नहीं। बुद्धदेव जैसे सुपुत्र तो कृतज्ञ भाव से यह मानकर अपना सन्तोष प्रकट करते हैं कि यह तो स्वाभाविक है,क्योंकि हम भारतीय यूरोप के ही आगत प्रवासी हैं। निश्चय ही यह हीन-भाव की उपज है। इस प्रसंग का अधिक विवेचन यहाँ नहीं करना चाहूँगा, क्योंकि अन्यत्र किया गया है, पर सिद्धान्त रूप में कहा जा सकता है कि गुलामी की हीन-भावना से क ोई व्यक्ति या राष्ट्र अपने निजी व्यक्तित्व के विकास की दिशा नहीं पा सकता है, क्योंकि व्यक्तित्व की स्वाधीनता तथा निजता का अनुभव विकास की पहली शर्त है। इसी प्रकार कोई भी प्राचीन संस्कृत समाज अपनी जड़ता और अवरुद्धता में भी अपने निजी व्यक्तित्व की खोज बिना किये आगे बढ़ने में समर्थ नहीं हो सकता। अन्ततः यहाी सही है कि अनुकरण किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र को न गौरव प्रदान कर सकता है और न मौलिक सर्जनशीलता का मार्ग ही प्रशस्त कर सकता है, जिसके बिना किसी प्रकार की प्रगति संभव नहीं है। साथ ही दृष्टान्त रूप में जापान का उल्लेख करके कहा जा सकता है कि एशिया के सर्वाधिक उन्नत राष्ट्र जापान को न किसी यूरोपीय शक्ति के उपनिवेश होने का सौााग्य मिला और न किसी विदेशी भाषा के सहारे वहाँ ज्ञान-विज्ञान फैलाने का सुयोग हुआ।

पश्चिमी संस्कृति के रंग में रँगे हुए बौद्धिकों ने एक मिथ रचा है कि भारतीय जागरण अंग्रेजी भाषा और शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही संभव हुआ। पुनरुत्थान का नेतृत्व अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त महापुरुषों ने ही किया है। इस मिथ में तथ्यात्मक आधार जरूर है, पर यह सत्य नहीं है। यह संयोग था और इस संयोग के पीछे पश्चिमी उपनिवेशवाद की सारी विभीषिका थी, कि पश्चिम के सपर्क में भारत अंग्रेजों और अंग्रेजी के  माध्यम से आया तथा यहाी संयोग इसी से संभव हुआ कि भारत के इस नये पुनरुत्थान युग के नेता स्वामी दयानन्द को छोड़कर अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पश्चिम, विशेषकर इंग्लैण्ड से परिचित हुए थे।  उन्होंने यूरोप के आधुनिक मूल्यों-स्वतंत्रता, समता, प्रजातंत्र, समाजवाद, सायवाद आदि का परिचय अंग्रेजी शिक्षा के दौरान प्राप्त किया था। यहाँ तक कि उन्होंने अपने देश की परपरा, इतिहास, धर्म-दर्शन, समाज और संस्कृति के बारे में क्रमशः अंग्रेज लेखकों और अंग्रेजी के माध्यम से जाना। इस बात का उल्लेख पश्चिमी लेखकों के साथ हमारे भारतीय लेखक भी बड़े गौरव के साथ करते हैं। परन्तु यह सत्य वे नजर अन्दाज कर जाते हैं, सभवतः दृष्टिभ्रम के कारण उन्हें सही दिखाई ही नहीं पड़ता कि जिस चश्मे से वे पश्चिमी संस्कृति और सयता को देख रहे हैं, उससे उसका गौरवशाली और भव्य रूप सामने उभरता है, और जिस चश्मे से वे अपने देश को और उसकी संस्कृति को देखते हैं, उससे उसका बौना, कुरूप, विकृत रूप सामने आता है। परिणाम होता है कि इस वर्ग का मानस हीन-भाव से भरा हुआ है।

परन्तु यदि स्वामी दयानन्द को ही लिया जाय तो वे अकेले होकर भी अपवाद नहीं है, वरन् एक प्रतीक हैं। और इस एक  प्रतीक के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत के (एशिया को भी लिया जा सकता है) पुनरुत्थान के लिए न अंग्रेजी राज्य की अपेक्षा थी और न अंग्रेजी शिक्षा की। उसके लिए एक ऐसे व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, जो सबसे पहले अपनी अन्तर्दृष्टि से अपने देश, समाज, जाति तथा राष्ट्र के व्यापक और सामूहिक जीवन की जड़ता, विडबना, गतिरुद्धता, उसके अन्याय और शोषण की गहराई देख सके, उनके कारणों की ऐतिहासिक, यथार्थ तथा सांस्कृतिक खोज करने में समर्थ हो सके और अन्ततः अपनी विवेक दृष्टि से गतिरोध को दूर करके समाज को मौलिक सर्जनशीलता से संचालित-प्रेरित करने में समर्थ हो सके। यह अवश्य है कि उसके लिए किसी न किसी प्रकार या स्तर का पश्चिमी आधुनिक संस्कृति के वातावरण का संस्पर्श सहायक था। इसी वातावरण में दयानन्द ने जन्म लिया था, यद्यपि यह भी नहीं क हा जा सकता कि अपनी पैंतीस-चालीस वर्ष की अवस्था तक उन्होंने वस्तुतः इस वातावरण का भी एहसास पाया था।

दयानन्द का जन्म गुजरात के टंकारा नामक नगर में सन् 1823 ई. में हुआ। यह वही समय है, जब बंगाल में राजा राममोहन राय भारतीय पुनरुत्थान में संलग्न थे। वे पश्चिमी संस्कृति से पूर्णतः प्रभावित और अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक थे। उनके सामने देश का जो रूप था, वह अंग्रेजी राजनीति और राजनय के द्वारा सत्ता-संघर्ष में राजनीतिक तथा सांस्कृतिक औपनिवेशिक महत्त्वाकांक्षा को प्रतिफलित करने वाला रूप था। निश्चय ही भारतीय समाज कीअनेक जड़ताएँ, विकृतियाँ और नृशंस रीतियाँ उनके सामने थीं, परन्तु उनको देखने, समझने और व्यापक सन्दर्भों से जोड़कर लबी भारतीय संस्कृति की परपरा में उनके कारणों के विश्लेषण-विवेचन की दृष्टि उनके पास नहीं थी। और उसका कारण था कि  बंगाल और कलकत्ता में अंग्रेज पश्चिमी सयता का चमत्कारी प्रभाव डालने में समर्थ हो चुके थे और पढ़े-लिखे वर्ग के मानस को अपने ढंग से सोचने-समझने के लिए प्रेरित कर सके थे। उनकी नीति के अनुसाराारतीय शिक्षित वर्ग जितना प्रबुद्ध होता जा रहा था, उसका मानस पश्चिमी संस्कृति (प्रायः अंग्रेजी मानना चाहिए) से अभिभूत हो रहा था, अंग्रेजी शिक्षा और संस्कृति को अपनाने की उसकी आकांक्षा बढ़ती जा रही थी। इसका परिणाम यह हुआ कि अपने देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हमारे बौद्धिक वर्ग में हीन-भाव उत्पन्न हुआ। हमारे अधिकांश बड़े नेताओं में भी एक स्तर पर इसका प्रभाव देखा जा सकता है, जो उनकी इस कामना में परिलक्षित हुआ है किाारतीय समाज का नव-निर्माण पश्चिमीकरण के रूप में होना चाहिए। उनमें अपनेपन की गौरव-भावना की चेतना प्राचीन भारतीय संस्कृति के धर्म, दर्शन, अध्यात्म के कुछ प्रतीकों से सन्तोष ग्रहण करती रही है। इनकी अपेक्षा दयानन्द जिस पारिवारिक वातावरण में पले, सामाजिक वातावरण में बढ़े और उन्होंने जिस प्रकार की शुद्ध परपरित संस्कृत शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की, उनमें उनका पश्चिमीकरण से कोई सपर्क नहीं था, अतः उन पर पश्चिमी संस्कृति का सीधा कोई भी प्रभाव नहीं स्वीकार किया जा सकता।

दयानन्द राजा राममोहन राय से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक ऐसे भारतीय नेताओं से बिल्कुल अलग थे, जो अपनी समस्त सद्भावनाओं और देश-कल्याण की भावनाओं के बावजूद भारतीय आधुनिकीकरण का रास्ता हर प्रकार से पश्चिमीकरण से होकर गुजरता पाते रहे हैं। और उनके  पीछे अधिसंयक भारतीय अंग्रेजी शिक्षित वर्ग रहा है, जो पश्चिमीकरण को पश्चिम के बाहरी या ऊपरी अनुकरण के स्तर पर स्वीकार कर अपने को सय मानकर असंय भारतीय जनता को उपेक्षा और अवहेलना के भाव से देखता रहा है। यहाँ इस बात के विवेचन का अवसर नहीं है, पर उल्लेख करना जरूरी है कि अंग्रेजी राजनीति के सही परिणाम के रूप में यह शिक्षित वर्ग अपने निहित स्वार्थों में संगठित होता गया है। स्वाधीनता के संघर्ष-काल में यह वर्ग अंग्रेजों के पक्ष में रह कर हर स्तर पर और हर प्रकार सेाारतीय जनता की स्वाधीनता की महत्त्वाकांक्षाओं के विरुद्ध कार्य करता रहा है। और उससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात यह रही है कि अपनी मानसिक संस्कारगत एकता के कारण जवाहरलाल नेहरू स्वाधीनता-युग में इस वर्ग के अघोषित नेता बन गये। आगे चलकर अपने नेतृत्व को सुदृढ़ बनाने के लिए नेहरू ने इस निहित स्वार्थ के वर्ग से समझौता कर लिया। अनुकरणमूलक पश्चिमीकरण को प्रगतिशीलता उद्घोषित करते रहकर नेहरू ने इस वर्ग का अपने उन प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ इस्तेमाल किया है, जो मात्र पश्चिमीकरण के रूप में भारत के आधुनिकीकरण को स्वीकार नहीं करते रहे हैं। अन्ततः नेहरूऔर इस वर्ग का एक ही निहित स्वार्थ बन गया, क्योंकि नेहरू को उनसे शक्ति प्र्राप्त होती रही है। इस वर्ग के लोग ही क्रमशः भारतीय जीवन के सभी क्षेत्रों में शक्ति और प्रभाव की जगह पाते गये और नेहरूकी सत्ता की छत्र-छाया में यह वर्ग अधिकाधिक संगठित और गतिमान् होता गया है।

पुनरुत्थान युग के नेताओं में दयानन्द का स्थान अप्रतिम है, पर उनको विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय और महात्मा गाँधी जैसे नेताओं का अग्रणी माना जा सकता है। इन नेताओं ने भारतीय समाज के पुनर्गठन, विकास और आधुनिकीकरण के लिए भारतीय संस्कृति के मूलाधार को आवश्यक माना है। उनके अनुसार पश्चिम से प्रेरणा पाना, पश्चिम से नया ज्ञान-विज्ञान सीखना एक बात है, पर उसका अन्धानुकरण न हमारे गौरव के अनुकूल है और न हमारी वास्तविक प्रगति के लिए ही उपयोगी है। यह अवश्य है कि इन नेताओं की पद्धति में भिन्नता रही है। कुछ नेता भारतीय प्राचीन गौरवशाली सांस्कृतिक परपरा के पुनरुत्थान में भारतीय समाज के विकास की संभावना देखते रहे हैं, यद्यपि उन्होंने यहाी स्वीकार किया है कि पश्चिम से हमको ज्ञान-विज्ञान सीखना है। इस दृष्टि से दयानन्द और गाँधी को उनके साथ रखा जा सकता है, क्योंकि दयानन्द ने यह स्वीकार किया है कि भारतीय पुनरुत्थान और आधुनिकीकरण भारत की प्राचीन वैदिक संस्कृति के आधार पर ही संभव है और गाँधी ने माना है कि हमारे सपूर्ण विकास की सभावनाएँ भारतीय व्यक्तित्व की खोज के आधार पर ही संयोजित की जा सकती हैं। एक स्तर पर ये दो व्यक्तित्व समान माने जा सकते हैं। इन दोनों ने भारतीय जन-समाज से गहरा और आन्तरिक तादात्य स्थापित किया था। उन्होंने भारतीय जीवन को उसके वर्तमान यथार्थ तथ्य में और सपूर्ण ऐतिहासिक सांस्कृतिक परपरा में आत्म-साक्षात्कार के स्तर पर ग्रहण किया था, परन्तु दयानन्द और गाँधी के युग, परिवेश, शिक्षा और संस्कार में अन्तर रहा है, और उसके कारण इन दोनों के आत्म-साक्षात्कार की प्रकृति में अन्तर पड़ गया है।

गाँधी भारतीय रंगमंच पर उस समय अवतरित हुए जब दयानन्द के द्वारा उठाये हुए, भारतीय समाज के सारे सवाल पूरी तरह शिक्षित समाज में चर्चा के विषय बन चुके  थे। अनेक दिशाओं में उसका मानस आन्दोलित हो चुका था, उसमें आत्म-गौरव और आत्म-विश्वास का भाव जा चुका था। गाँधी के समय तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत में राजनीतिक आन्दोलन का स्वरूप अधिक स्पष्टता के साथ उभर आया था, अतः गाँधी ने भारतीय समाज के पुनर्गठन और नवीकरण के प्रश्न को राजनीतिक स्वाधीनता के साथ जोड़ दिया। उनको यह लगना स्वाभाविक था कि पूर्ण स्वाधीनता पा लेने के बाद सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढंग से भारतीय जीवन को एक नया संरचात्मक रूप प्रदान करना सभव होगा। गाँधी की स्थिति इस दृष्टि सेाी विशिष्ट थी कि उनको पश्चिम की संस्कृति का गहरा परिचय था। दयानन्द को भी अन्ततः भारतीय जीवन के पुनर्गठन में पश्चिम की सांस्कृतिक चुनौती का सामना करना पड़ा था, पर उन्होंने उसका समुचित समाधान पश्चिमी संस्कृति के अन्तर्वर्ती तत्त्वों के माध्यम से प्रस्तुत नहीं किया, जैसी सुविधा गाँधी को प्राप्त थी। वस्तुतः किसी सशक्त और गतिशील संस्कृति के  संघात (ढ्ढद्वश्चड्डष्ह्ल) को सहने का सबसे दक्ष उपाय भी यही है कि गाँधी के समान उस संस्कृति के सबल तत्त्वों का विकास अपनी भूमिका पर करके उसका सामना किया जाय। दयानन्द के सामने चुनौती थी, पर उसकी शक्ति का और उसके सामर्थ्य के स्रोत का उन्हें ठीक अन्दाज नहीं था, अतः उनके  पास उस चुनौती का सामना करने के लिए अपनी ही सांस्कृतिक परपरा में अन्तर्निहित शक्ति और ऊर्जा के अनुसन्धान के अलावा कोई उपाय नहीं था।

शेष भाग अगले अंक में…….

contribution of Rishi Dayanand

गृहस्थ आश्रम पर महर्षि दयानन्द के कुछ ग्राह्य विचार

ओ३म्

गृहस्थ आश्रम पर महर्षि दयानन्द के कुछ ग्राह्य विचार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द सिद्ध योगी और बाल ब्रह्मचारी थे। उन्होंने समस्त वेदों एवं वैदिक साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन किया था और अपनी ऊहापोह व तर्कणा शक्ति से उसका मन्थन कर सत्य व असत्य विचारों व मान्यताओं को पृथक-पृथक किया था। देश हित में उन्होंने वेदों का उद्धार व समाज सुधार के अनेकानेक कार्य किये जिससे देश व समाज को अभूतपूर्व लाभ हुआ और वह अनेक भावी कठिन व जटिल विपदाओं से बच गया। उनके बाद उनके अनुयायियों से इतर लोगों में उन जैसा ज्ञान, सामर्थ्य, सोच, योजना, त्याग व समर्पण न होने के कारण उनका वह स्वप्न आज भी अधूरा है। आज देश के जो हालात हैं, वह भारत के इतिहास का एक कठिनतम दौर है और भविष्य क्या होगा? यह अनुमान लगाना कठिन है जिसके प्रति अनेक आशंकायें हैं। आज इतना ही कहना समीचीन है कि सभी राष्ट्रवादियों को एक जुट होना होगा और छद्म राष्ट्रवादियों को बेनकाब कर उन्हें वैचारिक आधार पर परास्त करना होगा।

 

वैदिक आश्रम व्यवस्था में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम को लेकर अनेकानेक भ्रान्तियां प्रचलित रही हैं जिनका निराकरण नहीं हो पा रहा था। महर्षि दयानन्द जी ने अपने समय में अपने अपूर्व ज्ञान से सभी भ्रान्तियों का निराकारण किया। आश्रम व्यवस्था में गृहस्थाश्रम पर आपने अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत किये हैं जिन पर इस लेख में दृष्टि डाल रहे हैं। महर्षि दयानन्द प्रश्न करते हैं कि गृहस्थाश्रम अन्य तीन ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में सब से छोटा है वा बड़ा है? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि अपनेअपने कर्तव्यकर्मों में सब आश्रम बड़े् हैं। परन्तु–

 

यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।1।।

 

यथा वायुं समाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वजन्तवः।

तथा गृहस्थमाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वं आश्रमाः।।2।। 

 

उपर्युक्त दोनों श्लोक मनुस्मृति के हैं। महर्षि दयानन्द ने इस प्रसंग में अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में अन्य दो श्लोक भी दिये हैं। इन चारों श्लोकों का अर्थ करते हुए वह कहते हैं कि जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमण करते व बहते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते है।।1।। बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।।2।। जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को गृहस्थाश्रमी दान और अन्नादि देके प्रतिदिन ही धारण करते हैं इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहलाता है। इसलिये जो मनुष्य वा स्त्री-पुरुष अक्षय मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम को धारण करे। यह गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने से अयोग्य है। इसको (ब्रह्मचारीगण) अच्छे प्रकार से वरण कर धारण करें। यह मनुजी के विचार व आदेश हैं। मनु जी के इन विचारों को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि इस कारण से जितना कुछ व्यवहार संसार में है उस का आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहाश्रम होता तो सन्तानोत्पत्ति के होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है। परन्तु गृहाश्रम में तभी सुख होता है जब स्त्री पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और स्वयंवर (वरवधु द्वारा विवेकपूर्वक स्वयं निश्चित) विवाह है।

 

वैवाहिक जीवन में संयम रखने और ब्रह्मचर्य का पालन करने की ओर भी महर्षि दयानन्द गृहस्थियों का ध्यान दिलाते हैं। वह कहते हैं कि गृहस्थ के स्त्री व पुरुषों को यह ध्यान रखना चाहिये कि उनके शरीर में सन्तान उत्पन्न करने के ईश्वर ने जो पदार्थ रज व वीर्य बनाये हैं उनको वह अमूल्य समझे। जो कोई इस अमूल्य पदार्थ को परस्त्री, वेश्या वा दुष्ट पुरुषों के संग में खोते हैं वे महामूर्ख होते हैं। किसान वा माली मूर्ख होकर भी अपने खेत वा वाटिका के विना अन्यत्र बीज नहीं बोते। जब साधारण बीज और मूर्ख किसान वा माली का ऐसा वर्तमान है तो जो सर्वोत्तम मनुष्य-शरीर रूप के बीज को कुक्षेत्र में खोता है वह महामूर्ख कहाता है, क्योंकि उस का उत्तम फल उस मानव बीज की महत्ता न समझने वाले को नहीं मिलता। आत्मा वै जायते पुत्रः यह ब्राह्मण ग्रन्थ और निम्न श्लोक सामवेद के ब्राह्मण ग्रन्थ का है।

 

अंगादंगात् सम्भवसि हृदयादधि जायसे।

            आत्मासि पुत्र मा मृथाः जीव शरदः शतम्।।

 

इस श्लोक में पिता कहता है कि हे पुत्र ! तू अंग -अंग से उत्पन्न हुए वीर्य से और हृदय से उत्पन्न होता है। इसलिये तू मेरा आत्मा है, मुझ से पूर्व मत मरना किन्तु सौ वर्ष तक जीवत रहना। जिस पौरूष शक्ति वीर्य से ऐसे-ऐसे महात्मा और महाशयों के शरीर उत्पन्न होते हैं उस को वैश्यादि दुष्ट क्षेत्र में बोना वा दुष्टबीज अच्छे क्षेत्र में बुवाना महापाप का काम है। महर्षि दयानन्द ने इन पंक्तियों में जो बात कही है वह चिकित्साशास्त्र और वैदिक ज्ञान का निष्कर्ष है और सदाचार का आधार है।

 

एक समय था जब यूरोप में लोग बिना विवाह किये स्वेच्छाचार करते थे। तब वहां के एक सदाचारी पुरूष वैलेण्टाइन ने आन्दोलन किया और लोगों को विवाह के लिए सहमत किया था। वैलेण्टाइन अल्पायु में ही मृत्यु का ग्रास बन गये थे अन्यथा वह इस दिशा और बहुत कार्य करते। उनके नाम पर ही वैलेण्टाइन दिवस मनाया जाता है परन्तु उनकी भावनाओं को भुला दिया गया है। भारत में विवाह का प्रचलन सृष्टि के आदि काल में ही वेदों की शिक्षाओं के आधार पर अस्तित्व में आ गया था। अनेक दुर्मति लोग भी विवाह के विषय में समय-समय पर प्रश्न उठाते रहते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी इन प्रश्नों को उठाया और उनके उत्तर दिये हैं। उन्होंने प्रश्न किया है कि विवाह क्यों करना चाहिये? क्योंकि इस से स्त्री पुरुष को बन्धन में पड़के बहुत संकोच करना और दुःख भोगना पड़ता है इसलिये जिस के साथ जिस की प्रीति हो तब तक वह मिले रहें, जब प्रीति छूट जाय तो छोड़ देवें? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि यह पशु पक्षियों का व्यवहार है, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम रहे तो गृहाश्रम के अच्छेअच्छे व्यवहार सब नष्ट भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी की सेवा भी करे। और महाव्याभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर शीघ्रशीघ्र मर जायें। कोई किसी से भय लज्जा करे। वृद्धाश्रम में कोई किसी की सेवा भी नहीं करे और महाव्याभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर कुलों के कुल नष्ट हो जायें। कोई किसी के पदार्थों का स्वामी वा दायभागी भी हो सके और किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकालपर्यन्त स्वत्व वा अधिकार रहे, इत्यादि दोषों के निवारणार्थ विवाह ही होना सर्वथा योग्य है। महर्षि दयानन्द ने विवाह के पक्ष में इन तर्कों को देकर विवाह विषयक कुतर्क करने वालों के मुंह पर ताला लागा दिया है। आज के समाज में लिवइनरिलेशन व होमोसेक्सुअलिटी के अमर्यादित, ईश्वर व सृष्टि के नियमों के विरुद्ध, व्यवहार व मांगों के परिप्रेक्ष्य में भी महर्षि दयानन्द का विवाह के समर्थन में दिया गया उत्तर विचारणीय एवं महत्वपूर्ण हैं।

 

महर्षि दयानन्द जी ने गृहस्थाश्रम के विषय में सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास सहित संस्कारविधि व अपने वेदभाष्य में बहुत ही महत्वूपर्ण विचारों व वैदिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है जो आज भी प्रासंगिक एवं उपादेय हैं। अनेक वैदिक विद्वानों ने भी इस विषय में कुछ लाभकारी ग्रन्थों की रचना की है जिनसे लाभ उठाया जा सकता है। आधुनिक युग में महर्षि दयानन्द स्त्री जाति के सर्वाधिक हितैषी महापुरूष हुए हैं। विवाह की व्यवस्था का आरम्भ वेदों से संसार में हुआ है जिसको इस पृथिवी के सभी भूभागों के लोगों द्वारा अपनाया गया। कालान्तर में विवाह विषयक कुछ नियमों व व्यवहारों को लोग भूल बैठे थे जिससे अनेक समस्यायें उत्पन्न हुईं। आज महर्षि दयानन्द ने विवाह विषयक सभी समस्याओं एवं गृहस्वामी व गृहसम्राज्ञी अर्थात् पति व धर्मपत्नी के विषय में विवाह की अर्हतायें, गुणकर्मस्वभाव की समानता, आयुभेद, गृहस्थ आश्रम में पति व पत्नी के कर्तव्य वा दायित्व आदि विषयों पर पड़े अज्ञानता व रूढि़वाद के आवरण को हटा दिया है। महर्षि दयानन्द के विचार सभी मतों व धर्मों के लोगों के लिए उपादेय व प्रगतिसूचक हैं। सभी को इनका अध्ययन कर इनसे लाभ उठाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द के मुख्य कार्य वेदभाष्य का उनके द्वारा प्रस्तुत नमूना

ओ३म्

महर्षि दयानन्द के मुख्य कार्य वेदभाष्य का उनके द्वारा प्रस्तुत नमूना

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन के प्रारम्भिक 38 वर्ष धार्मिक व आध्यात्मिक तथ्यों के अन्वेषण व अध्ययन सहित योग विद्या को जानने व उसका अभ्यास करने में व्यतीत किए। सौभाग्य से उन्हें वेद एवं आर्ष ज्ञान के अद्भुत श्रद्धालु एवं मर्मज्ञ विद्वान प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती का शिष्यत्व प्राप्त हुआ। इन गुरुजी से मिलने से पहले स्वामीजी अनेक विषयों के अच्छे विद्वान व जानकार होने के साथ सफल योगी बन चुके थे। उनका व्यक्तित्व आकर्षक व प्रभावशाली था तथा उनकी बौद्धिक व शारीरिक क्षमतायें भी असामान्य व असाधारण थी। इस गुण के कारण वह स्वामी विरजानन्द जी से आर्ष व्याकरण सहित समस्त वैदिक ज्ञान मात्र लगभग 3 वर्षों में ग्रहण कर पाने में सफल हुए। गुरु विरजानन्द जी से स्वामी दयानन्द ने सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा प्रकाशित चार वेदों का ज्ञान वा उनके सभी मन्त्रों के सत्य अर्थ करने की योग्यता भी प्राप्त की। अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों आग्नि, वायु आदित्य व अंगिरा को ईश्वर ने चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद का ज्ञान उनकी आत्मा में अन्तःप्रेरणा द्वारा प्रदान किया था। इस ज्ञान से संबंधित सभी शंकाओं का समाधान स्वामी दयानन्द ने गुरु विरजानन्द से प्राप्त किया था व अपने शिक्षणकाल के बाद आवश्यकता पड़ने पर गुरुजी से उनके जीवनपर्यन्त प्राप्त समाधान प्राप्त करते रहते थे। गुरुजी की प्ररेणा व आज्ञा से ही स्वामी दयानन्द जी ने अपना समस्त जीवन भारत व विश्व की अज्ञानी व अबोध  जनता से अन्धविश्वासों व रूढि़यों को हटाकर इस मिथ्या ज्ञान के स्थान पर ईश्वर के ज्ञान वेद को स्थापित करने का कार्य किया। उन्होंने गुरू जी को दिए अपने वचनों को गुरूजी से विदाई के दिन से लेकर जीवन की अपनी अन्तिम श्वांस तक निभाया। स्वामी जी ने अनेक कार्य किये। उपदेशों द्वारा प्रचार के साथ उन्होंने ग्रन्थ लेखन, वार्तालाप, शंका-समाधान, लिखित व मौखिक शास्त्रार्थ, आर्यभाषा-हिन्दी और गोरक्षा के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान व देशवासियों को पत्र व लघु ग्रन्थों द्वारा प्रेरणा आदि कार्य किए। चार वेदों के संस्कृत व हिन्दी में अपूर्व भाष्य के लेखन का कार्य उनका एक प्रमुख कार्य था। इस कार्य का शुभारम्भ करते हुए उन्होंने सबसे पहले अपने करिष्यमाण वेदभाष्य का स्वरूप जनता पर प्रकट करने के लिये सन् 1875 (विक्रमी संवत् 1931) में ऋग्वेद के प्रथम सूक्त का भाष्य नमूने के रूप में प्रकाशित कराया था। इस सम्बन्ध में स्वामीजी के एक जीवनीकार पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने लिखा है कि ‘‘स्वामी जी ने ऋग्वेद के पहले सूक्त का भाष्य, जिसमें गुजराती और मराठी अनुवाद भी था, वेदभाष्य के नमूने के तौर पर प्रकाशित किया। जिसमें ऋग्वेद के पहले मन्त्रअग्निमीळे पुरोहितम् आदि के दो अर्थ किये थे। एक भौतिक दूसरा पारमार्थिक। उसकी भूमिका में लिखा था कि मैं सारे वेदो का इसी शैली पर भाष्य करूंगा। यदि किसी को इस पर कोई आपत्ति हो तो पहले ही सूचित कर दे, ताकि मैं उसका समाधान करके ही भाष्य करूं। यह नमूना स्वामी जी ने काशी के पण्डित बालशास्त्री, स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती प्रभृति तथा कलकत्ता और अन्य स्थानों के पण्डितों के पास भेजा था, परन्तु किसी ने भी उसकी आलोचना उस पर शंका नहीं की।

 

इसके बाद ही महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों की भूमिका के रूप में ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (लेखन आरम्भ तिथिः 20 अगस्त, 1976) से आरम्भ कर यजुर्वेद व इसके साथ-साथ ऋग्वेद का भाष्य किया। यजुर्वेद का पूर्ण भाष्य करने में वह सफल हुए तथा मृत्युपर्यन्त ऋग्वेद के सातवें मण्डल के 62 वें सूक्त के दूसरे मन्त्र तक (ऋग्वेद के कुल 10552 मन्त्रों में से 5649 मन्त्रों का) भाष्य किया। स्वामीजी ने अपने ग्रन्थों के प्रकाशन के लिए प्रयाग में एक मुद्रणालय वा प्रेस भी स्थापित किया था। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित यजुर्वेद भाष्य और ऋग्वेदभाष्य क्रमशः मासिक अंकों में प्रकाशित होता था और इस वेदभाष्य को देश-देशान्तर के ग्राहकों को भेजा जाता था।  इंग्लैण्ड के प्रोसेफर मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स भी वेदभाष्य के नियमित ग्राहक थे। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के मासिक अंक संख्या 7 पर ग्राहकों के नामों की सूची प्रकाशित की गई थी जिनमें यह दोनों प्रसिद्ध विदेशी विद्वान व हस्तियां भी सम्मिलित थी। सूची में इस बात का भी उल्लेख है कि विदेशी ग्राहकों से साढ़े चार रूप्या वार्षिक शुल्क प्राप्त हुआ था।

 

अब हम पाठकों की सेवा में महर्षि दयानन्द के ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के नौ मन्त्रों के भाष्य के नमूने के अंक से प्रथम मन्त्र का पारमार्थिक अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। मन्त्र है-ओ३म्। अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।।1।। मन्त्र को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द ने इस मन्त्र में प्रयुक्त अग्नि आदि शब्दों के उनके द्वारा किये जाने वाले अर्थों के संस्कृत में अनेक प्रमाण दिये हैं और उसके पश्चात संस्कृत व हिन्दी में भाष्य किया है। मन्त्र का हिन्दी भाष्य इस प्रकार है–‘(अग्निमीळे) इस मन्त्र का ईश्वर के अभिप्राय से जो अर्थ है सो प्रथम किया जाता है। इस मन्त्र में अग्नि शब्द से परमेश्वर का ग्रहण होता है। इसके ग्रहण से इन्द्र मित्रं वरुण इत्यादि यथालिखित प्रमाण का आधार है। सब जगत् को उत्पन्न करके, संसार के पदार्थों का और परमात्मा का जिससे यथार्थ ज्ञान होता है, उस सनातन अपनी विद्या का सब जीवों के लिए आदि सृष्टि में परमात्मा ने उपदेश किया है। जैसे अपनी संतानों को पिता उपदेश करता है, वैसे ही परम कृपालु पिता जो परमेश्वर है, उसने हम सब जीवों के हित के लिए सुगमता से वेदों का उपदेश किया है जिससे धर्म, अर्थ, काम मोक्ष और सब पदार्थों का विज्ञान और उनसे यथावत् उपकार लेवें, इसलिए अत्यन्त हित से हम लोगों को उपदेश किया है सो हम लोग भी अत्यन्त प्रेम से इसको स्वीकार करें। अब जैसा उपदेश परमात्मा को करना है सो सब जीवों की ओर से परमेश्वर करता है, कि जीव जब इस वेद को पढ़े, पढ़ावे, पाठ करें और विचारेंगे तब यथावत् कत्र्ता, क्रिया और कर्म का सम्बन्ध हो जाएगा। जो एक जानने-वाला, शुद्ध, सब विकारों से रहित, सनातन, जो सब काल में एकरस बना रहता है, जो अज है, जिसका कभी जन्म नहीं होता, जो अनादि है, जिसका आदि कारण कोई नहीं, जो अनन्त है, जिसका अन्त कोई नहीं जान सकता, जगत् में जो परिपूर्ण हो रहा है, सब जगत् का आदिकारण और जो स्वप्रकाशस्वरूप है, ऐसा जो परमेश्वर जिसका नाम अग्नि है, उसकी मैं स्तुति करता हूं। इससे भिन्न कोई दूसरा ईश्वर नहीं है, और उसको छोड़के दूसरे का लेशमात्र भी आश्रय मैं कभी नहीं करता। किस प्रयोजन के लिए? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनकी सिद्धि के लिए। अत्र्जु गतिपूजनयोः इत्यादि धातुओं से अग्नि शब्द सिद्ध होता है, अत्र्चतीत्यादि0 जो सबको जानता है, जो सब वेदादिक शास्त्रों से जाना जाता है, जो सबमें गत नाम प्राप्त हो रहा है, जो सर्वत्र प्राप्त होता है, जो सब धर्मात्माओं का सत्कार करता है, जिसका सत्कार सब विद्वान लोग करते हैं, जो सब सुखों को प्राप्त कराता है और जो सब सुखों के अर्थ प्राप्त किया जाता है, इस प्रकार व्याकरण निरुक्त आदि के प्रमाणों से अग्नि शब्द से परमेश्वर के ग्रहण में कोई भी विवाद नहीं है।

 

पूर्वोक्त अग्नि कैसा है कि (पुरोहितः) सब देहधारियों की उत्पत्ति से प्रथम ही सब जगत् और स्वभक्त धर्मात्माओं के लिए सब पदार्थों की उत्पत्ति जिसने की है और विज्ञानादि दान से जो जीवादि सब संसार का धारण और पोषण करता है, इससे परमात्मा का नाम पुरोहित है। पुरःपूर्वक क्त प्रत्ययान्त डुधाञ्ज धातु से पुरोहित शब्द सिद्ध हुआ है। इसी से सबका धारण और पोषण करने वाला एक परमात्मा ही है। अन्य कोई भी नहीं । इस पुरोहित शब्द में पुर एनं0 इत्यादि निरुक्त का भी प्रमाण है। (यज्ञस्य देवम्) यज् धातु से यज्ञ शब्द सिद्ध होता है। इसका यह अर्थ है कि अग्निहोत्र से लेके अश्वमेघपर्यन्त विविध क्रियाओं से जो सिद्ध होता है, जो वायु और वृष्टि जल की शुद्धि द्वारा सब जगत् को सुख देनेवाला है उसका नाम यज्ञ है, अथवा परमेश्वर के सामथ्र्य से सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों गुणों की जो एक अवस्थारूप कार्य उत्पन्न हुआ है जिसका प्रकृति अव्यक्त और अव्याकृतादि नामों से वेदादि शास्त्रों ने कथन किया है, उससे लेके पृथिवी पर्यन्त कार्य कारण संगति से उत्पन्न हुआ जो जगत् रूप यज्ञ है, अथवा सत्यशास्त्र सत्यधर्माचरण सत्पुरुषों के संग से जो उत्पन्न होता है, जिसका नाम विद्या, ज्ञान और योग है, उसका भी नाम यज्ञ है, इन तीनों प्रकार के यज्ञों का जो देव है, जो सब सुखों का देनेवाला, जो सब जगत् का प्रकाश करने वाला, जो सब भक्तों को आनन्द करानेवाला, जो अधर्म अन्यायकारी शत्रुओं का और काम क्रोधादि शत्रुओं का विजिगीषक नाम जीतने की इच्छा पूर्ण करनेवाला है, इससे ईश्वर का नाम देव है।

 

(ऋत्विजम्) जो सब ऋतुओं में पूजने योग्य है, जो सब जगत् का रचने वाला और ज्ञानादि यज्ञ की सिद्धि का करनेवाला है, इससे ईश्वर का नाम ऋत्विज् है। ऋतु शब्दपूर्वक क्वन् प्रत्ययान्त यज् धातु से ऋत्विज् शब्द सिद्ध होता है। (होतारम्) जो सब जगत् के जीवों को सब पदार्थों को देनेवाला है। जो मोक्ष समय में मोक्ष को प्राप्त हुए जीवों का ग्रहण करने वाला है तथा जो वर्तमान और प्रलय में सब जगत् का ग्रहण और धारण करनेवाला है, इससे परमात्मा का नाम होता है। हु दानादनयोः। आदाने चेत्येके। इस धातु से तृच् प्रत्यय करने से होता शब्द सिद्ध हुआ है। (रत्नधातमम्) जिनमें रमण करना योग्य है, जो प्रकृत्यादि पृथिवीपर्यन्त रत्न यथा विज्ञान, हीरादि जो रत्न और सुवर्णदि जो रत्न हैं, जिनके यथावत् उपयोग करने से आनन्द होता है, उन रत्नों का सब जीवों को दान के लिए जो धारण करता है, वह रत्नधा कहाता है, और जो अतिशय से पूर्वोक्त रत्नों का धारण करनेवाला है, इससे परमेश्वर का नाम रत्नधातम है। रत्न शब्दपूर्वक किप् प्रत्ययान्त डुधाञ्ज धातु से तमप् प्रत्यय करने से यह शब्द सिद्ध हुआ है। इस मन्त्र को निरुक्तकार यास्क मुनि ने जिस प्रकार की व्याख्या की है सो इस वेदमन्त्र के संस्कृत भाष्य में लिखी है, उसको वहीं देख लेना।

 

हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य के नमूने के रूप में प्रकाशित अंक से एक मन्त्र का केवल हिन्दी में एक ही अर्थ प्रस्तुत कर वैदिक ज्ञान व वेदभाष्य का नमूना पाठको के लाभार्थ प्रस्तुत किया है। पाठक सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न इस ईश्वरीय ज्ञान वेद के प्रथम मन्त्र व उसके हिन्दी अर्थ को जानकर इसमें निहित विचारों व व्याख्या से लाभान्वित होंगे और जीवन कल्याण के स्रोत वेदों को अपने भावी जीवन में स्वाध्याय व अध्ययन का अंग बनायेंगे, इस भावना के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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