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अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याखयास्याम्

– शिवनारायण उपाध्याय

वैदिक वाङ्मय में इस विषय पर कई स्थानों पर विचार किया गया है। ऋग्वेद, मुण्डकउपनिषद्, तैत्तिरीयउपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, छान्दोग्यउपनिषद् तथा बृहदारण्यकउपनिषद् में इस विषय पर विस्तार से विचार किया गया है। इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर मैं भी इस विषय पर पूर्व में छः लेख लिख चुका हूँ। एक बार पुनः इसी विषय को लिखने का उपक्रम इसलिए करना पड़ रहा है कि आर्य समाज के ही प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती आन्ध्रप्रदेश ने माह जून 2015 में ‘वैदिकपथ’ पत्रिका में एक लेख प्रकाशित करवाया है, जिसमें सृष्टि की आयु के स्वामी दयानन्द सरस्वती के निर्णय का विरोध किया है।

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विज्ञान का मानना तो यह है कि सृष्टि की उत्पत्ति Big Bang (भयंकर विस्फोट) के साथ ही प्रारमभ हुई और परिवर्तन के कई चरणों से गुजरती हुई वर्तमान स्थिति में पहुँची है। Big Bang के साथ ही आकाश और समय का कार्य प्रारमभ हुआ। सृष्टि उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार रहा- आकाश, ज्वलनशील वायु, अग्नि, जल और निहारिका का मण्डल। निहारिका मण्डल में ही सौर मण्डलों ने स्थान पाया। पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से छिटक कर अलग होने के बाद धीरे-धीरे परिवर्तित होकर वर्तमान रूप में हुई। श्वास लेने योग्य वायु के बनने, पानी के पीने योग्य होने पर पानी के अन्दर सर्वप्रथम जलचरों को जीवन मिला। फिर क्रमशः जल-स्थलचर, स्थलचर और आकाशचर प्राणियों की उत्पत्ति हुई। सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व क्या था? इस विषय में विज्ञान का कहना है कि Big Bang के बाद ही सृष्टि नियम विकसित हुए हैं और उनके आधार पर हम घोषित कर सकते हैं कि भविष्य में कब क्या होगा और वे घोषणाएँ सब सत्य सिद्ध हो रही हैं, अतः हमें Big Bang के पूर्व की स्थिति को जानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अज्ञान से हमारे वैज्ञानिक कार्य पर कोई भी प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। अस्तु।

वैज्ञानिक विचार धारा पर संक्षेप में वर्णन कर देने के उपरान्त अब हम इस विषय पर वैदिक वाङ्मय के विचार पाठकों के सामने रखने का प्रयास कर रहे हैं। वैदिक वाङ्मय में सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व की स्थिति का वर्णन भी किया गया है। पाठकों के लिए नासदीय सूक्त के मन्त्र दिये जा रहे हैं-

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमाऽपरोयत्।

किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नभः किमासीद्गहनं गभीरम्।।

-ऋग्वेद 10.129.1

अर्थ- (नासदासीत्) जब यह कार्य सृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण विद्यमान था। असत् शून्य नाम आकाश भी उस समय नहीं था क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। (ना सदासीत्तदानीम्) उस काल में सत् अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाकर जो प्रधान कहाता है, वह भी नहीं था। (नासीद्रजः) उस समय परमाणु भी नहीं थे तथा (नो व्योमाऽपरोयत्) विराट अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के निवास का स्थान है, वह (आकाश) भी नहीं था। (किमावरीव…….गभीरम्) जो यह वर्तमान जगत् है, वह भी अत्यन्त शुद्ध ब्रह्म को नहीं ढँक सकता है और उससे अधिक वा अथाह भी नहीं हो सकता है, जैसे कोहरे का जल पृथ्वी को नहीं ढँक सकता है तथा उस जल से नदी में प्रवाह नहीं आ सकता है और न वह कभी गहरा अथवा उथला हो सकता है।

                        तम आसीत्तमसा गुलमग्रेऽप्रकेतं सलितं सर्वमा इदम्।

                        तुच्छ्येनावपिहितं यवासीत्तपसस्तन्माहिना जायतैकम्।।

– ऋ. 10.129.3

अर्थ- उस समय यह जगत् अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सममुख एकदेशी आच्छादित तथा पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से कारण रूप से कार्य रूप में कर दिया।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।

                       आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं चनास।।

– ऋ. 10.129.2

सृष्टि के पूर्व प्रलयकाल में मृत्यु नहीं थी, मृत्यु के अभाव में अमरता भी नहीं थी। न मारक शक्ति के विपरीत अमृत अथवा सब जीव मुक्तावस्था में थे, ऐसा भी नहीं कह सकते। रात्रि एवं दिन का प्रज्ञान भी नहीं था। उस समय केवल वायु की अपेक्षा न रखने वाला सदा जाग्रत ब्रह्म ही था। उस समय उससे भिन्न, उसके समान अथवा उससे अधिक कुछ भी नहीं था। प्रकृति ऊर्जारूप में परिवर्तित होकर अव्यक्त थी।

फिर सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई, इस पर तैत्तिरीय उपनिषद् का कहना है-

‘सो कामयत। बहुस्यां प्रजायेयेति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इदं सर्वमसृजत। यदिद किञ्च। तत सृष्टावा तदेवानु प्राविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्चत्यच्यामवत्। निरुक्तं चानिरुक्तं च। निलयन चानिलयन च। विज्ञानं चापिज्ञानं च। सत्यं चानृतं च। सत्यमभवत। यदिद किञ्च। तत्सत्यमित्या चक्षते।

-तै.उप. ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक 6

अर्थ- उसने कामना की कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ, तब उसने तप किया। क्रिया का प्रारमभ हो गया। जब यह क्रिया बढ़ते-बढ़ते उग्र रूप में पहुँची, तब उसे तप कहा गया। तप के प्रभाव से यह सब विश्व सृजा गया। सबकी सृष्टि करके वह ब्रह्म सृष्टि में अनुप्रविष्ट हो गया। आगे विपरीत कणों का वर्णन भी किया गया है-

सत्व रजस्तमसा सामयावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारोऽहंकारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूल भूतानि पुरुष इति पञ्च विंशतिर्गण।।

अर्थ- सत्व, रज और तम रूप शक्तियाँ हैं। इन शक्ति रूपों की समावस्था, निश्चेष्ठावस्था प्रकट रूपावस्था को प्रकृति कहते हैं। प्रकृति से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ तथा पञ्चतन्मात्राओं से पाँच स्थूलभूत, स्थूलभूतों से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन उत्पन्न होता है। पुरुष (चेतन सत्ता) इनसे भिन्न हैं। इन 25 पदार्थों को जानना, समझना विवेक में आवश्यक है।

ऋग्वेद में सृष्टि उत्पत्ति परमेश्वर ने इस प्रकार की है-

ब्रह्मणस्पतिरेता सं कर्मारइवाधमत्।

देवानां पूर्व्ये युगेऽसतः सद जायत।।

– ऋ. 10.72.2

प्रकृति और ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर ने दिव्य पदार्थों के परमाणुओं को लोहार के समान धोंका, अर्थात ताप से तप्त किया है। वास्तव में इसी को वैज्ञानिकों ने भयंकर विस्फोट Big Bang कहा है। इन दिव्य पदार्थों के पूर्व युग, अर्थात् सृष्टि के प्रारमभ में अव्यक्त (असत्) प्रकृति से (सत्) व्यक्त जगत् उत्पन्न किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मानन्दवल्ली के प्रथम अनुवाक में सृष्टि उत्पत्ति का क्रम भी बताया गया है-

तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः समभूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी।      पृथिव्या ओषधय। ओषधीयोऽन्नम् अन्नाद् रेतः। रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।।

अर्थात् परम पुरुष परमात्मा से पहले आकाश, फिर वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी उत्पन्न हुई है। पृथ्वी से ओषधियाँ, (अन्न व फल फूल) ओषधियों से वीर्य और वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुए, इसलिए पुरुष अन्न रसमय है।

पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य में से छिटक कर हुई है, इस पर कहा गया है-

                           भूर्जज्ञ उत्तानपदो भूव आशा अजायन्त |

अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदितिः परि।।

– ऋ. 10.72.4

अर्थ- पृथ्वी सूर्य से उत्पन्न होती है। पृथ्वी से पृथ्वी की दशा को बताने वाले भेद उत्पन्न होते हैं। प्रातःकालीन उषा से आदित्य उत्पन्न होता है, अर्थात् दृष्टि गोचर होता है और सांय कालीन उषा आदित्य से उत्पन्न होती है।

सृष्टि उत्पत्ति पर विचार कर लेने पर अब सृष्टि की वर्तमान आयु पर विचार करते हैं। वर्तमान में सृष्टि का वर्णन Friedmann Model के अनुसार किया जाता है। इसमें Big Bang के साथ ही आकाश-समय निरन्तरता का जन्म हो जाता है, अर्थात् समय की गणना Big Bang के प्रारमभ होने के साथ ही शुरू हो जाती है। एक अमेरिकन वैज्ञानिक Edwin Hubble ने 9 विभिन्न आकाश गंगाओं (Galaxies) की दूरी जानने का प्रयत्न किया। उसने बताया कि हमारी आकाश गंगा तो अत्यन्त छोटी है, ऐसी तो करोड़ों आकाश गंगाएँ हैं। साथ ही उसने यह भी बताया कि जो (Galaxy) हमसे जितना अधिक दूर है, उतनी ही अधिक तेजी से वह हम से दूर भागती जा रही है। उसने उनकी हमसे दूर होने की चाल की गति भी ज्ञात कर ली। फिर इस सिद्धान्त पर भी Big Bang के समय तो सब एक ही स्थान पर थे। उन्हें इतना दूर जाने में कितना समय लगा, उसका एक नियम भी खोज लिया।

नियम है- V=HR. यहाँ V आकाश गंगा की हमसे दूर भागने की गति है,  R आकाश गंगा की हमसे दूरी है और H Constant है। Edwin Hubble ने यह भी ज्ञात किया कि कोई भी आकाश गंगा जो हमसे d दश लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर है, उसकी दूर हटने की गति 19d मील प्रति सैकण्ड है। अतः अब समय R=106 d प्रकाश वर्ष, T =106×365×24×3600×186000d वर्ष

19d×3600×24×365

=186×109=9.7×109वर्ष

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Saint Augustine ने अपनी पुस्तक The City of God में बताया कि उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 500 वर्ष पूर्व हुई है।

बिशप उशर का मानना है कि सृष्टि की उत्पत्ति ईसा से 4004 वर्ष पूर्व हुई है और केब्रीज विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. लाइटफुट ने सृष्टि उत्पत्ति का समय 23 अक्टूबर 4004 ईसा पूर्व प्रातः 9 बजे बताया है जो हास्यास्पद है। अब हम वैदिक वाङ्मय के आधार पर सृष्टि की आयु पर विचार करते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के दूसरे अध्याय अथ वेदोत्पत्ति विषय में इस पर विचार किया है कि वेद की उत्पत्ति कब हुई? इससे यह मानना चाहिए कि सृष्टि में मानव की उत्पत्ति कब हुई, क्योंकि मानव के उत्पन्न होने पर ही तो वेद का ज्ञान उसे प्राप्त हुआ है। इससे पूर्व की स्थिति अर्थात् सृष्टि उत्पन्न होने के प्रारमभ से मानव के उत्पन्न होने के समय पर उन्होंने अपने विचार देना उचित नहीं समझा। वास्तव में मनुष्य ने तो अपने उत्पन्न होने के बाद ही समय की गणना प्रारमभ की है। सृष्टि के उस समय की गणना वह कैसे करता, जब बन ही रही थी? वह कैसे जानता कि सृष्टि उत्पन्न होने की क्रिया के प्रारमभ होने से उसके पूर्ण होने तक सृष्टि निर्माण में कितना समय व्यतीत हुआ है? इस पर फिर चर्चा करेंगे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी गणना में मनुस्मृति के श्लोकों को ही मुखय रूप से काम में लिया है-

अत्वार्याहुः सहस्त्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्।

तस्य यावच्छतो सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथा विधः।।

-मनु. 1.69

उन दैवीयुग में (जिनमें दिन-रात का वर्णन है) चार हजार दिव्य वर्ष का एक सतयुग कहा है। इस सतयुग की जितने दिव्य वर्ष की अर्थात् 400 वर्ष की सन्ध्या होती है और उतने ही वर्षों की अर्थात् 400 वर्षों का सन्ध्यांश का समय होता है।

इतंरेषु ससन्ध्येषु ससध्यांशेषु च त्रिषु।

एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्त्राणि शतानि च।।

-मनु. 1.70

और अन्य तीन-त्रेता, द्वापर और कलियुग में सन्ध्या नामक कालों में तथा सन्ध्यांश नामक कालों में क्रमशः एक-एक हजार और एक-एक सौ कम कर ले तो उनका अपना-अपना काल परिणाम आ जाता है।

इस गणना के आधार पर सतयुग 4800 देव वर्ष, त्रेतायुग 3600 देव वर्ष, द्वापर 2400 वर्ष तथा कलियुग 1200 देव वर्ष के होते हैं। इस चारों का योग अर्थात् एक चतुर्युगी 12000 देव वर्ष का होता है।

दैविकानाम युगानां तु सहस्त्रं परि संखयया।

ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च।। – मनु. 1.72

देव युगों को 1000 से गुण करने पर जो काल परिणाम निकलता है, वह ब्रह्म का एक दिन और उतने ही वर्षों की एक रात समझना चाहिए। यह ध्यान रहे कि एक देव वर्ष 360 मानव वर्षों के बराबर होता है।

तद्वै युग सहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः।

रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदोजनाः।।मनु. 1.73

जो लोग उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को और उतने की युगों की परमात्मा की रात्रि समझते हैं, वे ही वास्तव में दिन-रात = सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय काल के विज्ञान के वेत्ता लोग  हैं।

इस आधार की सृष्टि की आयु = 12000×1000 देव वर्ष = 12000000 देव वर्ष

12000000×360 = 4320000000 देव वर्ष

12000000 देव वर्ष = 4320000000 मानव वर्ष

यत् प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविक युगम्।

तदेक सप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते।।   -मनु. 1.79

पहले श्लोकों में जो बारह हजार दिव्य वर्षों का एक दैव युग कहा है, इससे 71 (इकहत्तर) गुना समय अर्थात् 12000×71 = 852000 दिव्य वर्षों का अथवा 852000×360= 306720000 वर्षों का एक मन्वन्तर का काल परिणाम गिना गया है।

फिर अगले श्लोक में कहा गया है कि वह महान् परमात्मा असंखय मन्वन्तरों को, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय को बार-बार करता रहता है, अर्थात् सृष्टी  प्रवाह से अनादि है।

फिर स्वामी दयानन्द सरस्वती संकल्प मन्त्र के आधार पर वेद का उत्पत्ति काल बताते हैं।

3म् तत्सत् श्री  ब्रह्मणः द्वितीये प्रहरोत्तरार्द्धे वैवस्वते मन्वन्तरेऽअष्टाविंशतितमे कलियुगे कलियुग प्रथम चरणेऽमुकसंवत्सरायमनर्तु मास पक्ष दिन नक्षत्र लग्न मुहूर्तेऽवेदं कृतं क्रियते च।

यह जो वर्तमान सृष्टि है, इसमें सातवें वैवस्वत मनु का वर्तमान है। इससे पूर्व छः मन्वन्तर हो चुके हैं और सात मन्वन्तर आगे होवेंगे। ये सब मिलकर चौदह मन्वन्तर होते हैं।

इस आधार पर वेदोत्पत्ति की काल गणना इस प्रकार होगी-

छः मन्वन्तरों का समय = 4320000×71×6= 1840320000 वर्ष

वर्तमान मन्वन्तर की 27 चतुर्युगी का काल= 4320000×27= 116640000 वर्ष

अट्ठाइसवीं चतुर्युगी के गत तीन युगों का काल= 3888000 वर्ष

कलियुग के प्रारभ से विक्रम सं. 2072 तक का काल= 3043 + 2072 वर्ष

= 5115 वर्ष

कुल योग = 1840320000 +116640000 + 3888000 +5115 वर्ष

= 1960853115 वर्ष। चूंकि विक्रम संवत् के प्रारमभ तक कलियुग के 3043 वर्ष व्यतीत हो चुके थे और 3044 वाँ वर्ष चल रहा था, इसलिए वर्तमान में 1960853116वाँ वर्ष चल रहा है।

अब कुछ विद्वान् कहते हैं कि सृष्टि की आयु जब मनु 1000 चतुर्युगी मानते हैं और दूसरी तरफ इसी आयु को 14 मन्वन्तर अर्थात् 994 चतुर्युगी कहा जाता है, तो दोनों के अन्तर 6 चतुर्युगों का समन्वय कैसे होगा? इसका उत्तर यह है कि 994 चतुर्युग तो मानव भोग काल है और 6 चतुर्युगों का समय सृष्टि उत्पत्ति के प्रारमभ से लेकर मानव अथवा वेदों की उत्पत्ति तक का है। सृष्टि उत्पत्ति में जो समय लगा है, वह सृष्टि की आयु में माना जावेगा। इसी प्रकार भोग काल 994 चतुर्युगों के अन्त में प्रलय काल प्रारमभ होगा और वह प्रलय की आयु में जोड़ा जायेगा।

ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है कि काल लगे बिना कोई कार्य नहीं होता-

त्वेषं रूपं कृणुत उत्तरं यत्संपृञ्चानः सदने गोभिरद्भि।

                        कविबुध्नं परि मर्मृज्यते धीः सा देवताता समिति र्बभूवः।।

– ऋ. 1.95.8

अर्थ- मनुष्य को चाहिए कि (यत्) जो (संपृञ्चानः) अच्छा परिचय करता कराता हुआ (कविः) जिसका क्रम से दर्शन होता है, वह समय (सादने) सदन में (गोभिः) सूर्य की किरणों वा (अद्भिः) प्राण आदि पवनों से (उत्तरम्) उत्पन्न होने वाले (त्वेषम्) मनोहर (बुध्नम्) प्राण और बल सबन्धी विज्ञान और (रूपम्) स्वरूप को (कृणुते) करता है तथा जो (धीः) उत्पन्न बुद्धि वा क्रिया (परि) (मर्मृज्यते) सब प्रकार से शुद्ध होती है (सा) वह (देवताता) ईश्वर और विद्वानों के साथ (समितिः) विशेष ज्ञान की मर्यादा (बभूव) होती है, इस समस्त उक्त व्यवहार को जानकर बुद्धि को उत्पन्न करें।

भावार्थ- मनुष्यों को जानना चाहिये कि काल के बिना कार्य स्वरूप उत्पन्न होकर और नष्ट हो जाये- यह होता ही नहीं है और न ब्रह्मचर्य आदि उत्तम समय के सेवन के बिना शास्त्र बोध कराने वाली बुद्धि होती है, इस कारण काल के परम सूक्ष्म स्वरूप को जानकर थोड़ा-सा भी समय व्यर्थ न खोवें, किन्तु आलस्य छोड़कर समय के अनुसार व्यवहार और परमार्थ के कामों का सदा अनुष्ठान करें।

यह भी ध्यान रखें कि जिस क्रिया में जो समय लगे, वह उसी का होगा। स्वामी जी ने इस प्रकरण में वेद का उत्पत्ति काल बताया है, सृष्टि की आयु नहीं बताई है। यदि सृष्टि की आयु जानना चाहें तो इसमें सृष्टि का उत्पत्ति काल जोड़ दें, तब सृष्टि की आयु होगी-

= 1960853116+25920000= 1986773116 वर्ष

साथ ही सृष्टि की शेष आयु होगी= 4320000000-1986773116= 2333226884 वर्ष सन्धि और सन्ध्यांश काल तो युगों की आयु में पहिले ही जोड़ लिए हैं, फिर मन्वन्तर के प्रारमभ और अन्त में एक सतयुग का जोड़ना व्यर्थ है। स्वामी जी ने ही नहीं, मनु ने भी इसका उल्लेख नहीं किया है। ज्ञान के अभाव में सृष्टि उत्पत्ति काल को न समझ कर 25920000 वर्षों को 15 भागों में व्यर्थ विभाजित कर क्षति पूर्ति करने का प्रयत्न किया गया है। इससे तो यहूदी ही अच्छे हैं, जो सृष्टि की उत्पत्ति 6 दिनों में स्वीकार करते हैं। यदि उनके दिन का मान एक चतुर्युगी मान लें तो उनकी सृष्टि उत्पत्ति की गणना ठीक वेदों के अनुरूप हो जाती है। इति।

 

– 73, शास्त्रीनगर, दादाबाड़ी, कोटा-324009 (राजस्थान)

सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द

ओ३म्

सृष्टि विज्ञान, वैदिक साहित्य और स्वामी दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़े अनेक रहस्य हैं जिन्हें विज्ञान आज भी खोज नहीं पाया अथवा जिसका विज्ञान जगत व हमारे धार्मिक व सामाजिक लोगों का यथोचित ज्ञान नहीं है। महर्षि दयानंद सत्य-ज्ञान के जिसाज्ञु थे। उन्होंने धर्म-समाज-ज्ञान-विज्ञान किसी भी पक्ष की उपेक्षा न कर सभी विषयों का यथोचित ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से देश का भ्रमण कर उस समय उपलब्ध प्राचीन व प्राचीनतम ग्रन्थों सहित अधिकारी विद्वानों के उपलब्ध ग्रन्थों का भी अध्ययन कर उनमें उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त किया। ऐसा कर उनको अनेक नये तथ्यों व रहस्यों का ज्ञान हुआ जिसे वह अपने प्रवचनों में प्रस्तुत करते थे और जब उन्होंने साहित्य सृजन का कार्य किया तो सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों में उस ज्ञान का प्रसंगानुसार वर्णन किया। उनसे प्राप्त सृष्टि के रहस्य सम्बन्धी ज्ञान के लिए तो उनके सभी ग्रन्थों को पढ़ना आवश्यक है परन्तु आज के लेख में हम सत्यार्थप्रकाश से उनके कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे कुछ प्रमुख बातों का ज्ञान हो सके।

 

जगत की उत्पत्ति में कितना समय व्यतीत हुआ, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि एक अरब, छानवें करोड़, कई लाख और कई सहस्र वर्ष जगत् की उत्पत्ति और वेदों के प्रकाश होने में हुए हैं। इस का स्पष्ट व्याख्यान उन्होंने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में विस्तार से किया है, वहीं देखना उचित है। वह आगे बताते हैं कि सब से सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात् जो काटा नहीं जा सकता उसका नाम परमाणु है। साठ परमाणुओं के मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्वयणुक जो स्थूल वायु है, तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्वयणुक का जल, पांच द्वयणुक की पृथिवी अर्थात् तीन द्वयणुक का त्रसरेणु और उस का दोगुना होने से पृथिवी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिला कर भूगोलादि परमात्मा ने बनाये हैं। यहां हम विचार करते हैं कि यदि स्वामी दयानन्द के जीवनकाल में कोई व्यक्ति उनसे परमाणु विषयक इस विवरण पर विस्तृत व्याख्या लिखने का अनुग्रह करता तो उत्तम होता जिससे हमें इस विषय के व्याख्या सहित उनके विस्तृत विचार ज्ञात हो सकते थे। उनसे इनका श्रोत व सन्दर्भ भी जाना जा सकता था। अब उनके न रहने पर हमें नहीं लगता की कोई ऐसा विद्वान है जो परमाणु विज्ञान उनके इन कथनों का आधुनिक विज्ञान से संगति लगाकर व समाधान कर सके।

 

अगला प्रश्न महर्षि दयानन्द यह लेते हैं कि इस सृष्टि का धारण कौन करता है। कोई कहता है शेष अर्थात् सहस्र फण वाले सप्र्प के शिर पर पृथिवी है। दूसरा कहता है कि बैल के सींग पर, तीसरा कहता है कि किसी पर नहीं, चैथा हता है कि वायु के आधार, पांचवां कहता है कि सूर्य के आकर्षण से खिंची वा खैंची हुई अपने स्थान पर स्थित, छठा कहता है कि पृथिवी भारी होने से नीचे-नीचे आकाश में चली जाती है इत्यादि। इनमें से किस बात को सत्य मानें? इसके उत्तर में वह कहते हैं कि जो शेष, सर्प्प और बैल के सींग पर धरी हुई पृथिवी स्थित बतलाता है उस को पूछना चाहिये कि सर्प्प और बैल के मां बाप के जन्म समय किस पर थी? तथा सर्प्प और बैल आदि किस पर हैं? बैल वाले मुसलमान तो चुप ही कर जायेंगे। परन्तु सप्र्प वाले कहेंगे कि सर्प्प कूर्म पर, कूर्म जल पर, जल अग्नि पर, अग्नि वायु पर तथा वायु आकाश में ठहरा है। उन से पूछना चाहिये कि सब किस पर हैं? तो अवश्य कहेंगे परमेश्वर पर। जब उन से कोई पूछेगा कि शेष और बैल किस का बच्चा है? शेष कश्यप-कद्रू और बैल गाय का। कश्यप मरीची, मरीची मनु, मनु विराट्, विराट् ब्रह्मा का पुत्र, ब्रह्मा आदि सृष्टि का था। जब शेष का जन्म ही नही हुआ था, उसके पहले पांच पीढ़ी हो चुकी है, तब किस ने धारण की थी? अर्थात् कश्यप के जन्म समय में पृथिवी किस पर थी? तो तेरी चुप मेरी भी चुप और लड़ने लग जायेंगे। इस का सच्चा अभिप्राय यह है कि जो बाकी रहता है उस को शेष कहते हैं। किसी कवि ने शेषाधारा पृथिवीत्युक्तम्  ऐसा कहा कि शेष के आधार पृथिवी है। दूसरे ने उसके अभिप्राय को न समझ कर सर्प्प की मिथ्याकल्पना कर ली। परन्तु जिसलिये परमेश्वर उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक रहता है इसी से उसको, परमेश्वर को, शेष कहते हैं और उसी के आधार पर पृथिवी है। सत्येनोत्तभिता भूमिःयह ऋग्वेद का वचन है। इसका अर्थ है कि जो त्रैकाल्याबाध्य है अर्थात् जिसका कभी नाश नहीं होता उस परमेश्वर ने भूमि, सूर्य और सब लोकलोकान्तरों का धारण किया है। उक्षा दाधार पृथिवीमुत द्याम्, यह भी ऋग्वेद का वचन है। इसमें ‘‘उक्षा शब्द को देखकर किसी ने बैल का ग्रहण किया होगा क्योंकि उक्षा बैल का भी नाम है। परन्तु उस मूढ़ को यह विदित न हुआ कि इतने बड़े भूगोल के धारण करने का सामर्थ्य बैल में कहां से आयेगा? वैदिक साहित्य में उक्षा वर्षा द्वारा भूगोल के सेचन करने से सूर्य का नाम है। उस ने अपने आकर्षण से पृथिवी को धारण किया है। परन्तु सूर्यादि का धारण करने वाला बिना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं है। अतः महर्षि दयानन्द सभी उपलब्ध विवरणों की वैदिक साहित्य से तुलना कर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि इस सृष्टि को धारण करने वाला ईश्वर वा परमेश्वर ही है, और कोई नहीं। महर्षि दयानन्द समाधि सिद्ध अर्थात् ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार किये हुए अथवा ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति किये हुए मनुष्य वा विद्वान थे। वह वैज्ञानिकों के मत कि समस्त सौर्य मण्डल वा ब्रह्माण्ड को आकर्षण-अनुकर्षण, प्रत्येक पिण्ड की अपनी-अपनी धुरी व वृत्ताकार गति के कारण स्थित-स्थिर हैं वा गति कर रहे हैं, इनको स्वीकार करने के साथ परमेश्वर का इन सबका उत्पत्तिकर्ता व धारणकर्ता स्वीकार करते हैं।

 

इसी प्रसंग में एक अन्य प्रश्न महर्षि दयानन्द ने यह किया है कि इतने बड़े-बड़े  भूगोलों को परमेश्वर कैसे धारण कर सकता होगा? इसका उत्तर वह यह कहकर देते हैं कि जैसे अनन्त आकाश के सामने बड़े-बड़े भूगोल अर्थात् समुद्र के आगे जल के छोटे कण के तुल्य भी नहीं हैं, वैसे अनन्त परमेश्वर के सामने असंख्यात लोक एक परमाणु के तुल्य भी नहीं कह सकते। वह बाहर भीतर सर्वत्र व्यापक अर्थात् विभूः प्रजासु (यजुर्वेद वचन), वह परमात्मा सब प्रजाओं में व्यापक होकर सब का धारण कर रहा है। जो वह ईसाई, मुसलमान व पुराणियों के कथनानुसार विभू न होता तो इस सब सृष्टि का धारण कभी नहीं कर सकता था क्योंकि विना प्राप्ति (ईश्वर के सर्वव्यापक अर्थात् सबको सर्वत्र प्राप्त हुए बिना) के किसी को कोई धारण नहीं कर सकता। वह आगे कहते हैं कि यदि कोई कहे कि ये सब लोक-लोकान्तर परस्पर आकर्षण से धारित होंगे, पुनः परमेश्वर के धारण करने की क्या अपेक्षा है? उन को यह उत्तर देना चाहिये कि यह सृष्टि अनन्त है वा सान्त (अन्त वाली वा सीमित)? जो अनन्त कहें तो आकार वाली वस्तु अनन्त कभी नहीं हो सकती और जो सान्त कहें तो उनके पर भाग सीमा अर्थात् जिस के परे कोई भी दूसरा लोक नहीं है, वहां किस के आकर्षण से धारण होगा? जैसे समष्टि कहाता है और एक-एक वृक्षादि को भिन्न-भिन्न गणना करें तो व्यष्टि कहाता है, वैसे सब भूगोलों को समष्टि गिनकर जगत् कहें तो सब जगत् का धारण और आकर्षण का कर्ता विना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं। इसलिए जो सब जगत् को रचता है वही दाधार पृथिवीमुत द्याम्।।, यह यजुर्वेद का वचन है, इसमें कहा गया है कि जो पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोक-लोकान्तर पदार्थ तथा सूर्यादि प्रकाश वाले लोक और पदार्थों का रचन व धारण परमात्मा ही करता है। जो सब में व्यापक हो रहा है वही सब जगत् का कर्ता और धारण करने वाला है।

 

महर्षि दयानन्द सौर मण्डल विषयक कुछ प्रश्नोत्तर प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथव्यादि लोग घूमते हैं वा स्थिर हैं? वह उत्तर में कहते हैं कि घूमते हैं। (प्रश्न) कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है सूर्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाये? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द वेदों के आधार पर देते हैं। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए। वेदों का ज्ञान और आधुनिक विज्ञान की खोजे परस्पर एक समान व पूरक हैं। पूर्व प्रश्न के उत्तर में महर्षि दयानन्द यजुर्वेद के अध्याय 3 के मन्त्र 63 आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन्मातरं पुरः। पितरं प्रयन्त्स्वः।। को प्रस्तुत कर उसका अर्थ बताते हुए कहा है कि यह भूगोल समुद्र नदी के जल सहित सूर्य के चारों ओर घूमता जाता है इसलिए भूमि अर्थात् सम्पूर्ण पृथिवी घूमा करती है। एक अन्य वैज्ञानिक खोज को वेदों में दिखाने हेतु वह यजुर्वेद के 33/43 मन्त्र कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।। को प्रस्तुत कर कहते हैं कि जो सविता अर्थात् सूर्य वर्षादि का कर्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्तमान, सब प्राणी अप्राणियों में अमृतरूप, वृष्टि वा किरण के साथ आकर्षण गुण से सह वर्तमान, अपनी परिधि में घूमता रहता है किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। इसी प्रकार एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य हैं। जैसे- दिवि सोमो अधि श्रितः।। यह अथर्ववेद का 14/1/1 मन्त्र है। इसका तात्पर्य बताते हुए दयानन्द जी कहते हैं कि यह चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश ही से प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्तमान रहते हैं क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूम कर जितना भाग सूर्य के सामने आता है उतने में दिन और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है उतने में रात। अर्थात् उदय, अस्त, सन्ध्या, मध्यान्ह, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं वे देशदेशान्तरों में सदा वर्तमान रहते हैं अर्थात् जब आर्यावर्त में सूर्यादय होता है उस समय पाताल अर्थात् अमेरिका में अस्त होता है और जब आर्यावर्त में अस्त होता है तब पाताल देश में उदय होता है। जब आर्यावर्त में मध्य दिन वा मध्य रात है उसी समय पाताल देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है।

 

महर्षि दयानन्द ने सृष्टि रचना व इससे जुड़े विषयों पर जो तथ्य वैदिक साहित्य के आधार पर प्रस्तुत किये हैं वह अति विस्तृत एवं विज्ञानसम्मत हैं। इसके लिए उनके समस्त ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। महाभारत काल के बाद भारत के ब्राह्मण कहे जाने वाले विद्वानों ने वैदिक साहित्य की उपेक्षा कर अज्ञानयुक्त पुराणों आदि की रचना कर मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जाति आदि की मिथ्या परम्पराओं को प्रचलित किया। उन्होंने सांगोपांग वेदाध्ययन न कर इसका परिणाम सामाजिक व वैज्ञानिक उन्नति का कार्य बन्द कर दिया था जिसके कारण भारत का पतन हुआ। वहीं दूसरी ओर यूरोप के सुधीजनों ने वहां की विज्ञान विरूद्ध व विज्ञान रहित धार्मिक मान्यताओं की उपेक्षा कर विज्ञान की उन्नति पर अपना ध्यान व शक्ति को केन्द्रित किया जिसका परिणाम आज का आधुनिक विज्ञान है। हमारे पौराणिक विद्वान व संसार के अन्य मतवाले आज भी वहीं हैं जहां वह मध्यकाल में थे। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ऐसे पहले वैदिकधर्मी विद्वान उत्पन्न हुए जिन्होंने विज्ञान को धर्म को आवश्यक अंग स्वीकार किया और विज्ञान की उपेक्षा न कर उसका पोषण किया। महाभारत काल से पूर्व वैदिक धर्म विज्ञान का पूर्ण पोषक व आधार रहा है। इसी कारण महाभारत काल तक भारत में ज्ञान व विज्ञान सर्वोच्च रहा। ज्ञान व विज्ञान से युक्त धार्मिक मान्यतायें एवं इनके परस्पर समन्वय से धर्म, समाज व विज्ञान की उन्नति होकर मानवजाति को लाभ वा सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है। आज भी मध्यकालीन अज्ञानतापूर्ण मान्यतायें चाहे वह किसी भी मत व मतान्तर की हों, उचित नहीं कही जा सकती। सभी मतों व धर्मों को विज्ञान के आलोक में अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों का संशोधन कर अपने-अपने मत व धर्म को मनुष्यों के लिए अधिक उपयोगी, स्वीकार्य एवं परिणाम प्राप्ति में सहायक बनाना चाहिये। हम स्वामी दयानन्द के धर्म व विज्ञान के सन्तुलित सिद्धान्तों का अध्ययन करने व उसमें निहित धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति की प्ररेणा को आज के युग में सर्वाधिक प्रासंगिक व सभी मनुष्यों द्वारा ग्रहण किये जाने की आवश्यकता को अनुभव करते हैं क्योंकि इसी में मनुष्यजाति का कल्याण है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अथर्व – 6.26. -सूक्त-विष्णु देवता के मन्त्रों का वैज्ञानिक विवेचन

अथर्व – 6.26. -सूक्त-विष्णु देवता के मन्त्रों का वैज्ञानिक विवेचन

– आर.बी.एल. गुप्ता एवं डॉ. पुष्पागुप्ता

श्री आर.बी.एल. गुप्ता बैंक में अधिकारी रहे हैं। आपकी धर्मपत्नी डॉ. पुष्पागुप्ता अजमेर के राजकीय महाविद्यालय संस्कृत विभाग की अध्यक्ष रहीं हैं। उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से आपकी वैदिक साहित्य में रुचि हुई, आपने पूरा समय और परिश्रम वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगा दिया, परिणाम स्वरूप आज वैदिक साहित्य के सबन्ध में आप अधिकार पूर्वक अपने विचार रखते हैं।

आपकी इच्छा रहती है कि वैज्ञानिकों और विज्ञान में रुचि रखने वालों से इस विषय में वार्तालाप हो। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर इसवर्ष वेद गोष्ठी में एक सत्र वेद और विज्ञान के सबन्ध में रखा है। इस सत्र में विज्ञान में रुचि रखने वालों के साथ गुप्तजी अपने विचारों को बाँटेंगे। आशा है परोपकारी के पाठकों के लिए यह प्रयास प्रेरणादायी होगा।

 -सपादक

इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में विष्णु के वीर्य कर्मों को बताया गया है। विष्णु गुरुत्वाकर्षण शक्ति के अधिष्ठाता देव हैं। वेद के जिन मन्त्रों में अथवा ब्राह्मण ग्रन्थों में जहाँ पर भी विट्,विशः, विष्णु शबद आते हैं- वहाँ पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति से सबन्धित व्याखयान हैं- ऐसा निश्चित रूप से समझ लेना चाहिये। विष्णु का प्रथम वीर्य कर्म है-पार्थिव रजों को नापना अर्थात पिण्ड की मात्रा के अनुसार गुरुत्वाकर्षण शक्ति का होना। दूसरा वीर्य कर्म है- उत्तर सधस्थ (उत्तम स्थान पर स्थित पिण्ड) को त्रेधा विचक्रमण (तीन प्रकार से धारित शक्ति से पिण्ड को चक्रित करना) तथा उरुगमन (एक बिन्दु से विस्तृत होते हुए जाना) प्रक्रियाओं से स्कंभित करना।

पार्थिव रज का तात्पर्य हैगुरुत्वाकर्षण (g) ऋ. 1.35.4 में कृष्णा रजांसि पद, ऋ. 1.35.9 में कृष्णेन रजसा पद, ऋ. 1.12.5 में अन्तरिक्षे रजसो-विमानः इन मन्त्रों में-कृष्णरज-पार्थिवरज-शबदों में वैज्ञानिक अर्थ है- g (गुरुत्वाकर्षण)। कोई भी भौतिक कण चाहे कितना भी हल्का क्यों न हो, जब तक एक निश्चित आकृति (volume) एवं निश्चित मात्रा (m) का बनकर एक निश्चित कण का रूप ले लेता है, तब उसमें एक निश्चित घनत्व एवं निश्चित गुरुत्वाकर्षण (g) आ जाता हैं। एक निश्चित आकृति के कण को वेदमन्त्रों में मृग कहा गया हैं। ऋ. 1.154.2 (अथर्व 7.26.2) में-मृगःनभीमःकुचरःगिरिष्ठा पद में गिरि में स्थित कुत्सित गति वाला भयानक मृग- यह अर्थ एक निश्चित मात्रा में आये कण जिसमें गुरुत्वशक्ति आ गई है- के लिये कहा गया हैं।

त्रेधा विचक्रमण क्या है ? हमारी पृथ्वी एवं सूर्य का उदाहरण-

पृथ्वी अपनी धुरी (axis) पर एक अहोरात्रि में पूरी घूम जाती है, तथा साथ ही लगभग 25000 कि.मी. दूरी सूर्य की परिक्रमा करती हुई आगे बढ़ती है। यहाँ पृथ्वी में दो प्रकार की गति (चक्रमण) है- (1.) अपनी धुरी पर घूमना (2.) सूर्य के परिक्रमा पथ पर घूमते हुये ही आगे बढ़ना।

सूर्य पृथ्वी से कई लाख गुणा आकार में अधिक है, तथा 15 करोड़ किलो मीटर दूरी पर है, फिर भी सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति घूमती हुई पृथ्वी को सतत अपनी ओर आकर्षित करती है। सूर्य की इस शक्ति को निःशेष करने के लिये पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है तथा परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ती है। इस प्रकार पृथ्वी का जो विचक्रमण हो रहा है, उसका कारण यह तीन प्रकार से पृथ्वी पर धारित शक्तियों के कारण हैं। यदि ऐसा न हो तो पृथ्वी सूर्य में गिरकर सूर्य में समा जायेगी। ऐसी स्थिति प्रलय अवस्था में अवश्य आयेगी।

उरुगमनजंघाओं को फैलाकर जब हम खड़े होते हैं- जब जंघाओं की स्थिति इस प्रकार की होती है, इसे विज्ञान की भाषा में उरुगमन कहते हैं (divertion of rays)। गुरुत्व शक्ति की किरणें इसी नियम का पालन करती हैं।

विष्णु का 3 पदों में विचक्रमण क्या है?

ऋ. 1.164.2 में त्रिनाभि चक्रं अजरं अनर्वं पद आया है। वेद मन्त्रों में आया त्रिनाभि चक्र- अण्डाकार आकृति को बताता है- जिसमें तीन केन्द्रबिन्दु (नाभियाँ) होती हैं। पृथ्वी का सूर्य की परिक्रमा का मार्ग भी अण्डाकार है। इस अण्डाकार मार्ग का मूल सिद्धान्त है- केन्द्र में बड़ा पिण्ड जैसे सूर्य उसके दोनों तरफ दो और केन्द्र बिन्दु् A व B होते हैं। पृथ्वी (E) इस प्रकार घूमती है कि पृथ्वी का इन दोनों बिन्दुओं A व B से दूरी का योग हमेशा समान अर्थात् दूरी् AE + BE का योग हमेशा समान रहेगा तथा इस प्रकार पृथ्वी का परिभ्रमण मार्ग अण्डाकार बन जाता है।

यही उदाहरण सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करनेवाले अन्य ग्रह-बुध, शुक्र, मंगल, ब्रहस्पति, शनि आदि में भी दिया जा सकता है। यही नहीं, अति सूक्ष्म परमाणु में भी प्रोटोन एवं इलेक्ट्रोन भी इसी त्रिनाभि चक्रं-त्रेधा विक्रमण आदि नियमों का पालन करते हैं।

इन्द्रस्य युज्यसखाः इस सूक्त के मन्त्र संखया 6 में यह पद आया है। इन्द्र दिव्य रजः (emt) का अधिष्ठाता देव है, तथा विष्णु पार्थिव रजः (g) का। परमाणु के अन्दर प्रोटोन का उदाहरण- प्रोटोन के दो भाग हैं- (1.) पार्थिव भाग (matter) तथा (2.) दिव्य भाग (e.m.t)। इसी प्रकार इलेक्ट्रॉन भी है, पर उसमें विद्युत शक्ति – है जबकि प्रोटोन में + है। प्रोटोन तथा इलेक्ट्रोन के मध्य भी दो प्रकार की आकर्षण शक्ति (1) विद्युत शक्ति का आकर्षण (इन्द्र की शक्ति) एवं (2) गुरुत्वाकर्षण शक्ति (विष्णु की शक्ति)। अतःमन्त्र 6 में कहा है कि विष्णु के कर्मों को देखो जहाँ वह व्रतों को स्पर्श करता है तथा इन्द्र का योजित सखा है। प्रोटोन तथा इलेक्ट्रोन दोनों परामाणु के अन्दर अपने-अपने व्रत्तों में घूमते हैं- एक-दूसरे के व्रत्त (orbit) को स्पर्श करते हुए।

मन्त्र 7 में सूर्यःविष्णु के परम् पद को सदा देखते हैं। यहाँ परम पद से तात्पर्य है गुरुत्व शक्ति का केन्द्र बिन्दु (center of gravity )

मन्त्र 4 में समूढं अस्य पांसुरे।पांसुरे शबद (collective) अर्थ में है। छोटा पिण्ड हो या बड़ा, मात्रा अधिक या कम होने से पूरे पिण्डकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति कम या अधिक हो जायेगी, परन्तु समूह रूप में पूरे पिण्ड की गुरुत्वाकर्षण शक्ति केन्द्र बिन्दु (पांसुरे पद) में गुप्त रूप से निहित हो जाती है।