Category Archives: महर्षि दयानंद सरस्वती

‘अविद्यायुक्त असत्य धार्मिक मान्यताओं का खण्डन और आर्यसमाज’

ओ३म्

अविद्यायुक्त असत्य धार्मिक मान्यताओं का खण्डन और आर्यसमाज

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द प्राचीन वैदिक कालीन ऋषियों की परम्परा वाले वेदों के मंत्रद्रष्टा ऋषि थे। वह सफल व सिद्ध योगी होने के साथ समस्त वैदिक व  इतर धर्माधर्म विषयक साहित्य के पारदर्शी विद्वान भी थे। उन्होंने मथुरा निवासी वैदिक व्याकरण के सूर्य प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से आर्ष व्याकरण की अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति का अध्ययन किया था। इससे पूर्व भी अपने लगभग 30 वर्षों के अध्ययन काल (1833-1863) में उन्होंने विभिन्न गुरुओं वा विद्वानों से लौकिक संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया था। गृहत्याग के बाद के लगभग 29 वर्षों में (1846-1875) आप देश के अनेक भागों के अनेक लोगों के सम्पर्क में आये। आपने देश में फैले हुए नाना मत मतान्तरों के अनुयायियों सहित उनके आचार्यों से सम्पर्क कर उनके मत के गुणागुणों व विशेषताओं सहित उनमें निहित सत्यासत्य को जानने का सत्प्रयास किया था। स्वामी दयानन्द ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो किसी भी अविद्यायुक्त वा मिथ्या बात को बिना पूरी परीक्षा व सन्तुष्टि के स्वीकार कर लेते। यही कारण था कि भारत के प्रायः सभी मत-मतान्तरों को जानने व समझने पर भी उनकी तृप्ति नहीं हुई थी। वह योग विद्या में प्रवृत्त हुए और उसमें दिन प्रतिदिन प्रगति करते रहे। उसका उन्होंने जीवन के अन्तिम क्षणों तक अभ्यास व पालन किया। नाना मत-मतान्तरों में से वह किसी एक मत के चक्रव्यूह में नही फंसे। ऐसा प्रतीत होता है कि वह जान गये थे कि भारत में प्रचलित किसी भी मत-मतान्तर में निर्भ्रांत व सत्य पर आधारित मान्यतायें नहीं हैं। उन्हें योग ही प्रिय प्रतीत हुआ जिसका उन्होंने मन-वचन-कर्म से क्रियात्मक अभ्यास किया। इतना होने पर भी वह अभी सत्य विद्या व सद्ज्ञान की उपलब्धि के लिए आशान्वित व प्रयत्नशील थे। सन् 1857 का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम हो जाने व उसके बाद देश में कुछ शान्ति व स्थिरता बहाल होने पर वह सन् 1860 में मथुरा में दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु दिव्य गुरु विरजानन्द की संस्कृत पाठशाला में विद्या के अध्ययन के लिए पहुंचते हैं और लगभग 3 वर्ष अध्ययन कर सफल मनोरथ व कृतकार्य होते हैं। अध्ययन पूरा होने पर गुरुजी से दीक्षा लेते हैं और गुरु की आज्ञा के अनुसार असत्य अविद्या से ग्रसित मतों के खण्डन सत्य वैदिक मत की स्थापना के लिए प्रवृत्त होते हैं।

 

महर्षि दयानन्द के जितने भी किंचित विस्तृत व संक्षिप्त उपदेश उपलब्ध होते हैं उनसे यही पता चलता है कि वह वेद एवं वैदिक सिद्धान्तों का मण्डन करते थे। वेद से इतर वेद विरुद्ध मिथ्या मतों का वह युक्ति, तर्क व वेद के प्रमाणों के आधार पर खण्डन भी करते थे। वह सब श्रोताओं किंवा मत-मतान्तरों के आचार्यों को चुनौती भी देते थे कि वह अपने-अपने मत की मिथ्या मान्यताओं का निराकरण करें वा सत्य मत वेद को अपनायें और यदि चाहें तो वह उनसे शास्त्रार्थ, वार्तालाप, चर्चा व शंका समाधान भी कर सकते हैं। हमें यह देख कर आश्चर्य होता है कि उन्हें सभी मत-मतान्तरों की उत्पत्ति, मान्यताओं एवं सिद्धान्तों का भी व्यापक ज्ञान था। ऐसा भी देखा गया है कि अनेक मतों के आचार्यों को अपने मत की मिथ्या मान्यताओं का परिचय नहीं होता था। वह तो अपने मत के प्रति अन्धी श्रद्धा व विश्वास के कारण उनको बाबा वाक्यं प्रमाणम् के आधार पर आंखे बन्द कर स्वीकार करते थे और उनका पालन करते थे जबकि उनके मत सत्यासत्य की दृष्टि से असत्य मान्यताओं से मिश्रित होते थे। महर्षि दयानन्द के सामने आकर वह सभी निरुत्तर होकर लौट जाते थे। महर्षि दयानन्द के प्रचार के कारण मतमतान्तरों के अनेकानेक विद्वानों वा आचार्यों को अपनेअपने मत के मिथ्यात्व का ज्ञान हो गया था। वह उन्हें चुनौती देने वा आमंत्रित करने पर भी शास्त्रार्थ व शंका समाधान तक के लिए उनके निकट नहीं आते थे और येन केन प्रकारेण अपने मतानुयायियों को स्वामी दयानन्द जी की सभाओं में जाने के लिए निषिद्ध करते थे। प्रायः सभी मतानुयायियों की स्थिति यह थी कि वह अपने-अपने मत के आचार्यों के अनुचित आदेश को मानते थे और स्वामी दयानन्द की सभाओं में नहीं आते थे। इससे अनुमान किया जा सकता है कि अपने-अपने मत-मतान्तरों को अच्छा बताने वाले आचार्यों की क्या स्थिति थी। आज भी उस स्थिति में कोई अधिक अन्तर नहीं आया है। अब वह अधिक रूढि़वादी और कट्टर हो गये हैं और अविद्यान्धकर से ग्रसित, हठ व दुराग्रह आदि से घिरे हुए हैं।  अतः आज वेद मत के मण्डन सहित मत-मतान्तरों के खण्डन की महती आवश्यकता बनी हुई है। ऐसा होने पर ही मनुष्य जाति उन्नत व अपने-अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में सफल हो सकती है अन्यथा अविद्या के अन्धकार में पड़कर उनका यह मानव जीवन व्यर्थ व नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा।

 

महर्षि दयानन्द ने विश्व जन समुदाय पर एक बहुत बड़ा उपकार यह किया है कि उन्होंने अपने समय में केवल मौखिक प्रचार ही नहीं किया अपितु अपनी वैदिक विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी किया। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश विश्व के धार्मिक व सामाजिक साहित्य में अन्यतम है। वेदों के बाद विश्व साहित्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसे 14 समुल्लासों वा अध्यायों में लिखा गया है जिसमें प्रथम 10 अध्याय वैदिक मत का मण्डन करते हुए ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित सभी विषयों व सामाजिक मान्यताओं पर वैदिक दृष्टिकोण व विचारों को प्रस्तुत करते हैं। इस अपूर्व ग्रन्थरत्न में प्रायः सभी आवश्यक विषयों की चर्चा कर तद्विषयक वैदिक दृष्टिकोण को तर्क व युक्ति सहित एवं अनेक स्थानों पर प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत कर उसे सरल व सहज बना दिया गया है। इन सिद्धान्तों की सत्यता का विश्वास एक साधारण हिन्दी पाठी मनुष्य भी आसानी से कर सकता है जो कि इस ग्रन्थ की रचना से पूर्व कदापि सम्भव नहीं था। संसार में अनेक लोगों ने इस ग्रन्थ को पढ़ा है और इससे सहमत होकर अपना मत परिवर्तन कर आर्यसमाज के अनुयायी बने हैं। आज आर्यसमाज में जितने भी सदस्य परिवार हैं वह सब प्रायः सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन प्रचार का ही परिणाम है। संसार में किसी विद्वान, मताचार्य व मतानुयायी में यह योग्यता नहीं है कि वह सत्यार्थप्रकाश के प्रथम से दशम समुल्लासों में व्यक्त विचारों, मान्यताओं, सिद्धान्तों सहित उसमें दी गई तर्क व युक्तियों का खण्डन कर सकें। यदि कभी किसी ने ऐसा करने का प्रयत्न किया है तो उसका आर्य विद्वानों ने तर्क, युक्ति व प्रमाण सहित समाधान कर दिया है। यह कोई  सामान्य नहीं अपितु असाधारण बात है।

 

वैदिक सिद्धान्तों के आदर्श ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में वैदिक मान्यताओं का विस्तार से उल्लेख करने के बाद स्वामी दयानन्द उसके उत्तर भाग में आर्यवर्तीय व आर्यावर्त्त से बाहर के देशों में उत्पन्न मतों की समीक्षा करते हैं जिसमें सत्यासत्य की परीक्षा करते हुए असत्य विचारों व मान्तयओं का खण्डन भी किया गया है। सत्यार्थप्रकाश का ग्यारहवां समुल्लास आर्यवर्तीय आस्तिक मतों की समीक्षा व खण्डन में लिखा गया है जिसका आरम्भ अनुभूमिका से होता है। यह भूमिका बहुत महत्वपूर्ण एवं विस्तृत है। इस अनुभूमिका में महर्षि दयानन्द ने मत-मतान्तरों के खण्डन में अपनी निष्पक्ष व सभी मतों के मनुष्यों के प्रति अपनी सदभावना को प्रदर्शित किया है। उनके अनमोल व स्वर्णिम वाक्य हैं कि यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेदमत से भिन्न दूसरा कोई भी मत भूगोल में था क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हुआ। इन (वेदों) की अप्रवृत्ति से अविद्याऽन्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिस के मन में जैसा आया वैसा मत चलाया। इन सब मतों में 4 चार मत अर्थात् जो वेद-विरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी और कुरानी (अन्य) सब मतों (मतों की शाखा-प्रशाखा रूप इकाईयों) के मूल हैं, वे क्रम से एक के पीछे दूसरा, तीसरा, चौथा चला है। अब इन चारों की शाखा एक सहस्र से कम नहीं हैं। इन सब मतवादियों, इनके चेलों और अन्य सब को परस्पर सत्याऽसत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम हो इसलिए यह ग्रन्थ (सत्यार्थप्रकाश) बनाया है। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं कि जोजो इस में सत्य मत का मण्डन और असत्य मत का खण्डन लिखा है वह सब को जनाना ही प्रयोजन समझा गया है। इसमें जैसी मेरी बुद्धि, जितनी विद्या और जितना इन चारों मतों के मूल ग्रन्थ देखने से बोध हुआ है उसको सब के आगे निवेदित कर देना मैंने उत्तम समझा है क्योंकि विज्ञान (धर्म व समाज विषयक सत्य ज्ञान) गुप्त (विलुप्त) हुए का पुनर्मिलना सहज नहीं है। पक्षपात छोड़कर इस (सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ) को देखने से सत्याऽसत्य मत सब को विदित हो जायेगा। पश्चात् सब को अपनीअपनी समझ के अनुसार सत्यमत का ग्रहण करना और असत्य मत को छोड़ना सहज होगा। इन में से जो पुराणिादि ग्रन्थों से शाखा शाखान्तर रूप मत आर्यावर्त्त देश में चले हैं उन का संक्षेप से गुण व दोष इस (सत्यार्थप्रकाश के) ग्यारहवें समुल्लास में दिखलाया जाता है। स्वामी दयानन्द सभी मतों के लोगों से अपेक्षा करते हुए कहते हैं कि इस मेरे कर्म से यदि उपकार मानें तो विरोध भी करें। क्योंकि मेरा तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करनेकराने का है। इसी प्रकार सब मुनष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने के लिये है कि वादविवाद विरोध करने कराने के लिये। इसी मतमतान्तर के विचार से जगत् में जोजो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और आगे होंगे, उन को पक्षपातरहित विद्वज्जन जान सकते हैं।

 

मत-मतान्तरों के खण्डन-मण्डन के सदर्भ में स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मत-मतान्तर का विरूद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहे, तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सब को विरोध जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन (हित वा स्वार्थ) में न फंस कर सब के प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इस के होने की युक्ति (स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के अन्तर्गत) इस (ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश) की पूर्ति पर लिखेंगे। सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत (वैदिक मत) में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों की आत्माओं में प्रकाशित करे। स्वामी जी ने उपर्युक्त पंक्तियों में मत-मतान्तरों की परस्पर विरोधी मान्यताओं के खण्डन के अपने आशय को स्पष्ट कर उसकी आवश्यकता व अपरिहार्यता पर प्रकाश डाला है। उनका ऐसा करना उचित, न्यायसंगत व प्रशंसनीय था तथा सभी विद्वान व ज्ञानी कहलाने वाले मतों के आचार्य व अनुयायियों को उसी भावना से उनके खण्डन को समझ कर स्वीकार करना चाहिये अन्यथा उनके ज्ञान व विद्वता का कोई महत्व व उपयोग प्रतीत नहीं होता।

 

सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में स्वामी दयानन्द ने आर्यावर्त की महत्ता का वर्णन कर शंकराचार्य के अद्वैतमत, वाममार्ग, शैवमत, वैष्णवमत, सभी प्रकार की अवैदिक मूर्तिपूजा, तन्त्र ग्रन्थ, गया श्राद्ध, हरिद्वार आदि तीर्थों, अवैदिक गुरु माहात्म्य, अठारह पुराण, ग्रहों का फल, गरुड़ पुराण की मिथ्या बातें, ब्राह्मसमाज और प्रार्थनासमाज आदि मतों की समीक्षा व खण्डन कर उनकी मिथ्या बातों का युक्ति व तर्क के साथ खण्डन किया है। इसी प्रकार बारहवें से चौदहवें समुल्लासों में जैन-बौद्ध मत, ईसाई व कुरानी मत की समीक्षा कर इनके मिथ्यात्व पर प्रकाश डाला है जिससे कि इन वा अन्य मतों के सभी अनुयायी व निष्पक्ष जिज्ञासु सरलता से सत्याऽसत्य का निर्णय कर सकें।

 

महर्षि दयानन्द के उपर्युक्त वाक्यों से यह विदित होता है कि उनका मत-मतान्तरों की समीक्षा व खण्डन का हेतु सभी मतों के लोगों को मत-पन्थों के धर्म ग्रन्थों में निहित मिथ्या मान्यताओं का ज्ञान कराना था। ऋषि ने ऐसा क्यों किया? यदि करते तो क्या हानि थी? अन्य मतों के आचार्यों विद्वानों ने तो ऐसा नहीं किया तो फिर महर्षि दयानन्द को इनके खण्डन करने की क्या मजबूरी थी? इनका उत्तर है कि ऋषि ने मत-मतान्तर की असत्य मान्यताओं का खण्डन इस लिये किया कि वह विद्वान थे और विद्वान वही होता है जो सत्य को ग्रहण करे व कराये और असत्य को छोड़े वा छुड़वाये। वह व्यक्ति विद्वान नहीं कहला सकता जो जानते हुए भी असत्य का खण्डन नहीं करता। एक डाक्टर यदि रोगी का उपचार न करे तो क्या वह डाक्टर कहला सकता है? कदापि नहीं। यदि वह रोगी का उपचार करता है तभी वह डाक्टर है। दर्जी यदि लोगों के कपड़े को उसके दाता की नाप के अनुसार काट-छांट कर नहीं सिलता तो वह दर्जी किसी काम का नहीं होता। यदि नाप में न्यूनता व अधिकता करता है तो भी वह अच्छा दर्जी नहीं हो सकता। महर्षि दयानन्द ने भी मतों की असत्य बातें जिनसे मतानुयायियों को हानि होती है, उनसे परिचित कराकर उनके उस असत्यता के रोग को दूर कर उचित मात्रा में उन्हें सत्य का यथार्थ ज्ञान कराया जिससे वह तदनुसार आचरण कर अपना जीवन सफल बना सके जो कि परम्परा के अनुसार चलने से नहीं बन सकता था। किसान भी फसल की अच्छी पैदावार के लिए खेत में हल चलाकर भूमि को पोला व नरम करता है। उसमें पानी व खाद डालता है जिससे बीज अच्छी प्रकार से पल्लवित और पुष्पित हो सके। खेत में हल चलाना, खाद व पानी डालना, निराई व गुड़ाई करना व अन्त में बोई गई फसल को काटना व उनसे अन्न के दाने निकालना, यह एक प्रकार का खण्डन व मण्डन दोनों ही है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हमें अन्न प्राप्त नहीं होगा। यही सृष्टि का नियम है। यही नियम माता-पिता द्वारा सन्तान को शिक्षित करने के लिए ताड़ना करने व डाक्टर द्वारा गम्भीर रोगों की चिकित्सा करने में शल्य क्रिया करने, यदा-कदा हाथ व पैर तक काट डालने आदि की तरह, असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन अर्थात् जो ठीक है, उसे नहीं छेड़ना यथावत् रहने देना रूपी मण्डन है। सभी क्षेत्रों में सभी लोग आवश्यकतानुसार खण्डन व मण्डन करते हैं। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो सभी मतों के आचार्यों ने अपने पूर्व मतों व उनके आचार्यों की मान्यताओं का खण्डन कर ही स्वमत को स्थापित किया। यदि वह सब ऐसा कर सकते थे तो मनुष्य मात्र के हित व उन्नति की दृष्टि से महर्षि दयानन्द द्वारा किया गया खण्डन उचित क्यों नहीं? उनका खण्डन करना सर्वथा उचित है।

 

महर्षि दयानन्द का उद्देश्य संसार के मनुष्यों को मत-मतान्तरों के जाल से निकाल कर उन्हें उनसे स्वतन्त्र कराना व सच्चिदानन्द, सर्वव्यापक, निराकार, घट-घट में व्यापक वा सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान ईश्वर की सच्ची स्तुति, प्रार्थना व उपासना में लगाना था। इससे मनुष्यों को इस जन्म व परजन्म, दोनों में ही, सभी प्रकार की उन्नति अभ्युदय व निःश्रेयस का लाभ मिलना निश्चित था। यदि धर्मान्तरण कर अपनी संख्या में वृद्धि करने वाले सत्यासत्य से मिश्रित मान्यताओं के मतों को अपना-अपना प्रचार व खण्डन मण्डन का अधिकार है तो फिर महर्षि दयानन्द को सत्य का मण्डन व असत्य के खण्डन का अधिकार क्यों नहीं? स्वामी दयानन्द जी ने ईश्वर प्रदत्त अधिकार का उपयोग किया, लोगों को असत्य से दूर किया सत्य को प्राप्त कराया, इस कारण सारी मनुष्य जाति उनकी ऋणी हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। महर्षि दयानन्द ने खण्डन का कार्य अपने गुरु स्वामी विरजानन्द और ईश्वर की प्रेरणा से ही किया था। हमें उनके मार्ग पर चलकर संसार को सत्य व असत्य के स्वरुप से परिचित कराना है। कोई सत्य वैदिक मत को स्वीकार करे या न करें, यह उसका निजी अधिकार है, परन्तु आर्यसमाज व इसके अनुयायियों को सत्य के प्रचार का अपना कर्तव्य निभाना है। सत्यमेव जयते नानृतं की भांति सत्य देर में ही सही, विजयी अवश्य होता है। आगे भी होगा। ईश्वर संसार के मनुष्य के हृदय में सत्य व असत्य को जानने, सत्य को ग्रहण करने एवं असत्य का त्याग करने की प्रेरणा करें, यही उससे प्रार्थना है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘पण्डित चमूपति द्वारा ऋषि दयानन्द का गौरव गान’

ओ३म्

 ‘पण्डित चमूपति द्वारा ऋषि दयानन्द का गौरव गान

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ऋषि दयानन्द का व्यक्तित्व और कृतित्व सात्विक बुद्धि के लोगों के आकर्षण व प्रेरणा का स्रोत वा केन्द्र रहा है। अनेक लोग आर्यसमाज की विचारधारा का परिचय पाकर और सत्यार्थप्रकाश पढ़कर या फिर आर्यसमाज के समाज सुधार के कार्यों से प्रभावित होकर आर्यसमाजी वा वैदिक धर्मी बने और फिर उन्होंने देश, धर्म व समाज की प्रशंसनीय सेवा की। ऐसे ही आर्यसमाज के एक सुप्रसिद्ध विद्वान एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी पण्डित चमूपति जी थे। आप संस्कृत, हिन्दी, इग्लिश, उर्दू व फारसी आदि अनेक भाषाओं के विद्वान व प्रभावशाली वक्ता थे। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षक एवं प्रभावशाली था। आपकी हिन्दी, संस्कृत व उर्दू आदि में अनेक रचनायें हैं जिनमें से एक सुप्रसिद्ध रचना ‘‘सोम सरोवर भी है। सोम सरोवर में आपने सामवेद के पवमान सूक्त के मन्त्रों की अत्यन्त मनोहर व्याख्या की है। आर्यसमाज के विद्वान व नेता महाशय कृष्ण ने इस पुस्तक की समीक्षा कर प्रशंसा करते हुए लिखा था कि यदि निष्पक्षता से साहित्य का नोबेल पुरुस्कार दिया जाता तो पण्डित चमूपति जी की यह रचना नोबेल पुरुस्कार प्राप्त करने योग्य थी। ऐसे विद्वान द्वारा महर्षि की महिमा का गान करने वाले कुछ शब्द पाठकों को भेंट कर रहे हैं।

 

पण्डित चमूपति जी ऋषि दर्शन नामक अपनी लघु पुस्तिका में अमर दयानन्द शीर्षक के अन्तर्गत लिखते हैं कि आज केवल भारत ही नहीं, सारे धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक संसार पर दयानन्द का सिक्का है। मतों के प्रचारकों ने अपने मन्तव्य बदल दिए हैं, धर्म पुस्तकों के अर्थों का संशोधन किया है, महापुरुषों की जीवनियों में परिवर्तन किया है। स्वामी जी का जीवन उन जीवनियों में बोलता है। ऋषि मरा नहीं करते, अपने भावों के रूप में जीते हैं। दलितोद्धार का प्राण कौन है? आदर्श सुधारक दयानन्द। शिक्षा प्रचार की प्रेरणा कहां से आती है? गुरुवर दयानन्द के आचरण से। वेद का जय जयकार कौन पुकारता है? ब्रह्मर्षि दयानन्द। देवी (स्त्री) सत्कार का मार्ग कौन दिखाता है? देवीपूजक दयानन्द। गोरक्षा के विषय में प्राणिमात्र पर करूणा दिखाने का बीड़ा कौन उठाता है? करूणानिधि दयानन्द। (संस्कृत आर्यभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार की प्रेरणा कौन करता है? वेदर्षि दयाननन्द।) आओ! हम अपने आपको ऋषि के रंग में रंगे। हमारा विचार ऋषि का विचार हो, हमारा आचार ऋषि का आचार हो, हमारा प्रचार ऋषि का प्रचार हो। हमारी प्रत्येक चेष्टा ऋषि की चेष्टा हो। नाड़ी नाड़ी से ध्वनि उठेमहर्षि दयानन्द की जय।

 

पापों और पाखण्डों से ऋषिराज छुड़ाया था तुने।

भयभीत निराश्रित जाति को निर्भीक बनाया था तूने।।

बलिदान तेरा था अद्वितीय हो गई दिशाएं गुंजित थी।

जन जन को देगा प्रकाश वह दीप जलाया था तूने।।

 

हम आशा करते हैं कि पाठकों को यह लघु प्रयास पसन्द आयेगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘महर्षि दयानन्द और उनका विश्व के कल्याण का अपूर्व कार्य’

ओ३म्

महर्षि दयानन्द और उनका विश्व के कल्याण का अपूर्व कार्य

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने विश्व के सभी मनुष्यों व प्राणिमात्र के हित के लिए जो कार्य किया वह अपूर्व एवं सर्वोत्तम है। देश व विश्व की जनता का यह दुर्भाग्य है कि वह उनके कार्यों के यर्थाथ स्वरूप व उन कार्यों की संसार के सभी मनुष्यों के सन्दर्भ में महत्ता व उपयोगिता से परिचित नहीं है। इसका कारण भी मत-मतान्तर व उनके आचार्य व प्रचारक हैं जो अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण सत्य को सामने आने देना नहीं चाहते। महर्षि दयानन्द के जीवन पर यदि दृष्टि डालें तो उनके जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह मिलती है कि उन्होंने सत्य ज्ञान की खोज को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर उसे प्राप्त किया था। ऐसा कोई अन्य मनुष्य जिसके जीवन का उद्देश्य महर्षि दयानन्द के समान हो और उसे अपने उस कार्य में सफलता मिली हो, विश्व के क्षितिज पर दृष्टिगोचर वा उपलब्ध नहीं होता। विज्ञान के सामने जो भी बातें आती हैं, वह उनकी परीक्षा कर उसमें सत्य को स्वीकार करता है और असत्य को अस्वीकार व उनका तिरस्कार कर देता है। परन्तु धार्मिक सिद्धान्तों व मान्यताओं में विज्ञान के इस सिद्धान्त, सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग, को हम कहीं लागू होते हुए नहीं देखते। सभी मत अपने अपने सत्यासत्य मिश्रित सिद्धान्तों को मानते चले आ रहे हैं और शायद प्रलय पर्यन्त मानते ही रहेंगे? इसका एक कारण मत-मतान्तरों के लोगों का अपना अपना अज्ञान व स्वार्थ आदि हैं। वहीं भिन्न-भिन्न देशों की राजनैतिक व्यवस्थाओं द्वारा मत-मतान्तरों के पोषण सम्बन्धी व्यवस्थायें भी हैं। पाठक सुविज्ञ हैं, वह इन बातों को भली प्रकार से जानते हैं, अतः इस पर अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं है।

 

महर्षि दयानन्द ने 14हवें वर्ष की आयु में शिवरात्रि के दिन की जाने वाली मूर्तिपूजा को देखकर उसकी निस्सारता वा व्यर्थता को समझ लिया था। 13 वर्ष के बालक के मूर्तिपूजा पर समाधानकारक उत्तर न शिवभक्त उनके पिता के पास थे न किसी अन्य पौराणिक विद्वान व आचार्य के ही पास। इसने बालक दयानन्द के सम्मुख धर्म वा मत में निहित असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का संकेत दे दिया था। इसी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने 21 वर्ष की आयु तक शास्त्राध्ययन कर विवाह से बचने के लिए और सत्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिए माता-पिता के भौतिक सुख-सुविधाओं से पूर्ण गृह का त्याग कर दिया था। गृहत्याग के बाद सन् 1863 तक के 17 वर्षों तक सत्य धर्म सत्य ज्ञान की खोज करते रहे थे। इसी बीच उन्होंने योग विद्या सीखी जिससे वह ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ हुए। उन्हें इस बात का ज्ञान हुआ कि ईश्वर का ज्ञान, ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना, ईश्वर का ध्यान, धारणा और समाधि तथा ईश्वर का साक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है। यह लक्ष्य भी विज्ञान की तरह अनेक क्रियाओं व सदाचारण करने से प्राप्त होता है। इनसे इतर विवेक की प्राप्ति के लिए सब सत्य विद्याओं का अध्ययन करके उनकी प्राप्ति करना भी आवश्यक है। उनकी दृष्टि में बिना सत्य विद्याओं की प्राप्ति के केवल योगाभ्यास व ईश्वर का ध्यान वा साक्षात्कार करना अधूरा जीवन था। वह दोनों ही उद्देश्यों की पूर्ति में कृतकार्य वा सफल हुए थे। सब सत्य विद्याओं का संसार मे एकमात्र ग्रन्थ चार वेद संहितायें हैं जिन्हें संसार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद के नाम से जानता है। यह चार मन्त्र संहितायें सृष्टि की आदि मे चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा के पवित्र हृदयों में ईश्वर द्वारा स्थापित समस्त सम्भव सत्य ज्ञान है। महाभारत काल तक हमारे देश में सहस्रों ऋषि व विद्वान होते थे व परस्पर व्यवहार की भाषा संस्कृत होती थी जिस कारण वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थ लोगों को विदित होते थे। महाभारत काल के बाद विद्वानों व ऋषियों की निरन्तर कमी होती गई जिससे वेदों के अर्थ के अनर्थ होने लगे। वेदों के अर्थ के अनर्थ होने से अज्ञान भ्रान्तियां उत्पन्न हुईं, इससे अज्ञानपूर्वक कार्य होने लगे और इसी के परिणाम से हिंसात्मक यज्ञ मिथ्याचार की बातें उत्पन्न हुईं जो समयसमय पर अनेक मतमतान्तरों की उत्पत्ति का कारण बनीं।

 

यह सर्वविदित है कि जहां अन्धकार होता है वहां अन्धकार दूर करने के लिए दीपक जलाना ही पड़ता है। दीपक कई प्रकार के हो सकते हैं। कोई कम प्रकाश देता है और कोई अधिक। इसी प्रकार के सभी मत-मतान्तर हैं जो दीपक के समान हैं जिन्होंने अपने अपने समय व बाद में भी अज्ञान के अन्धकार को कुछ-कुछ दूर करने का प्रयास किया है। अज्ञान को पूर्णतया नष्ट करने के लिए जिस पूर्ण प्रकाश, ज्ञान वा विद्या की आवश्यकता थी, वह मत-मतान्तरों के संस्थापकों व आचार्यों के पास नहीं थी और संसार के किसी भी मनुष्य के पास, वेदों वा ऋषि परम्परा के समाप्त होने के कारण, हो भी नहीं सकती। यह क्षमता वा योग्यता तो केवल सृष्टि की रचना करने वाले परम पिता परमेश्वर व उसके वेद ज्ञान में ही हुआ करती है। महर्षि दयानन्द को खोज करते हुए समस्त ज्ञान वा विद्याओं के स्रोत इन वेदों के सत्य अर्थों की कुंजी, अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति, गुरु विरजानन्द सरस्वती से प्राप्त हुई थी। वेदों के रहस्यों को जानने की इस कुंजी से दयानन्द जी ने सन् 1863 से 1883 के अपने वेद भाष्य व इतर वेद प्रचार कार्यों को पूरा करने का भरसक प्रयत्न किया। उन्होंने चार वेदों का संस्कृत आर्यभाषा हिन्दी में भाष्य करते हुए लिखा भी है कि यदि ईश्वर की कृपा बनी रही और उनका वेद भाष्य का कार्य पूर्ण हो गया तो उस दिन देश देशान्तर में सर्वत्र ज्ञान के क्षेत्र में सूर्य का सा प्रकाश हो जायेगा कि जिसको मेटने, दृष्टि से ओझल करने उसे स्वीकार करने की स्थिति किसी मनुष्य वा मतमतान्तर की नहीं होगी। इसे मनुष्य जाति का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अज्ञानी व स्वार्थप्रिय लोगों को मनुष्य की भलाई का यह कार्य पसन्द नहीं आया और उन्होंने स्वामी दयानन्द को विष देकर उनके शरीर को 30 अक्तूबर, सन् 1883 को समाप्त कर दिया जिससे वेदों का सूर्य अस्त हो गया और हम उनके पूर्ण प्रकाश सं वंचित हो गये। वेदों के भाष्य का कार्य अपूर्ण रहने के अनेक कारण थे। महर्षि दयानन्द को अपने जीवन में योग्य लिपिकर और विद्वान नहीं मिले जो उनके बोले गये वचनों को ठीक-ठीक लिखते और उनके संस्कृत में लिखाये गये वचनों का  सरल व सुबोध हिन्दी में अनुवाद करते। इसके अतिरिक्त दयानन्द जी को वेदों का भाष्य करने के साथ-साथ एक स्थान से दूसरे स्थानों पर मौखिक प्रचार, शास्त्रार्थ, शंका समाधान व आर्यसमाजों को स्थापित करने के लिए भी जाना पड़ता था जिसमें समय लगता था तथा जिसका प्रतिकूल प्रभाव वेद भाष्य के कार्य पर भी पड़ता था। महर्षि दयानन्द जी की मृत्यु से मनुष्य जाति का बहुत बड़ा अपकार हुआ अन्यथा हमें वेद भाष्य सहित अनेक नये ग्रन्थों सहित उनके अनेक विषयों के उपदेश सुनने व पढ़ने को मिल सकते थे जिससे तत्कालीन व बाद की मनुष्य जाति वंचित हो गयी। शोक वा महाशोक।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में जितना कार्य किया वह वेद के सत्य अर्थों सहित धर्म का यथार्थ व सत्य स्वरूप प्रस्तुत करने के साथ मत-मतान्तरों की अविद्याजनित बातों का प्रकाश करने में समर्थ है। यह सर्वविदित तथ्य है कि जितने मत-मतान्तर होंगे वह मनुष्यों को आपस में बाटेंगे व लड़ायेंगे, इतिहास व वर्तमानकाल इस बात का प्रमाण है, जिससे हिंसा आदि होती रहेगी और स्थाई शान्ति की आशा नहीं की जा सकती। इससे भी बड़ी बात यह है कि मतमतान्तर का व्यक्ति योग विद्या वैदिक ज्ञान से दूर होने के कारण अपनी पूर्ण बौद्धिक आत्मिक उन्नति नहीं कर सकता। बौद्धिक उन्नति न होने से इसका कुप्रभाव मनुष्यों की शारीरिक उन्नति पर भी सीधा पड़ता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है कि आजकल के वैज्ञानिक भी मनुष्य का संतुलित व स्वास्थ्यवर्धक भोजन क्या हो, निश्चित नहीं कर पाये। आज भी संसार के लोग भिन्न-भिन्न पशु, पक्षी, जलचर, थलचर व नभचर आदि प्राणियों की निर्दयतापूर्वक हत्या कर अर्थात् हिंसा कर, उसे पकाकर खा जाते हैं। यह व्यवहार मनुष्य के प्राकृतिक स्वभाव व पवित्र व्यवहार के विपरीत और मनुष्य की शारीरिक, सामाजिक, आत्मिक सहित इस जन्म व परजन्म की उन्नति में बाधक है। इन कार्यों से मनुष्य योगाभ्यास, ईश्वर के ध्यान व उसकी प्राप्ति के कार्यों से दूर होकर अपने वर्तमान व भावी जन्म को बिगाड़ कर युगों-युगों तक के लिए अवनति वा दुःख की स्थिति को उत्पन्न करता है। आज संसार के लोग आधुनिक जीवन शैली के कारण नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर अल्पायु में ही मर जाते हैं। कुछ आतंकवाद का शिकार होकर तो कुछ दुर्घटनाओं में और अनेक स्वादिष्ट भोजन के सेवन व अनियमित दिनचर्या से अल्पायु मे ही चल बसते हैं। उनका परजन्म भी इस जन्म के शुभ वा अशुभ कर्मों का परिणाम होता है। अनुमान किया जा सकता है कि ऐसे लोग भोग योनि, निन्दित पशु, पक्षी, स्थावर आदि में ही जायेंगे। अशुभ कर्मों को करके वह स्वतन्त्र वा मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकते। पर जन्म में उन्नति तो तभी सम्भव थी जब कि वह अपने पिछले जन्मों के कर्मों का इस जन्म में भोग करने के साथ नये सत्कर्मों, ईश्वरोपासना, परोपकार, पीडि़तों की सेवा व सहायता आदि रूपी शुभ कर्मो की इतनी पूंजी एकत्रित करते कि ईश्वर से उन्हें सर्वोत्तम सुख मोक्ष की प्राप्ति होती। इस जन्म वा परजन्म में उन्नति की स्थिति तभी सम्भव है कि जब लोग महर्षि दयानन्द वा सत्य सनातन ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म वा वेद के मार्ग पर पूर्णतः चलें जैसे कि महर्षि दयानन्द व उनके शिष्य पं. गुरुदत्त विद्वार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम जी व स्वामी दर्शनानन्द जी आदि चले थे।

 

वैदिक धर्म ईश्वर प्रदत्त होने से पूर्ण सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित धर्म है। महर्षि दयानन्द वैदिक धर्म की तर्क व युक्ति पूर्वक विवेचना अपने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में की हुई है। अपनी विशेषताओं के कारण वेद ही विश्व के सभी मनुष्यों का श्रेष्ठतम् धर्म है। विश्व में वैदिक धर्म की स्थापना से सभी अपना जीवन सुख व शान्ति पूर्वक भोग सकते हैं और परजन्म में भी उन्नति वा मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। मनुष्य की आत्मा और जीवन की उन्नति करने का एक ही मार्ग है और वह है सुसंस्कार जो वेदाचरण वा सत्याचरण से मिलते हैं। वेदाचरण एवं सत्याचरण दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हम विश्व के सभी मतों के आचार्यों व लोगों से संस्कृत पढ़कर वेदों की परीक्षा करने, सभी मत-मतान्तरों का अध्ययन कर सत्य व श्रेष्ठ को स्वीकार करने का अनुरोध करते हैं। इसी में संसार के सभी लोगों का हित छिपा हुआ है। इसी के लिए महर्षि दयानन्द ने अपना पूरा जीवन समर्पित किया था और अकाल मृत्यु का वरण किया था। वर्तमान व परजन्म की उन्नति का वेद मार्ग के आचरण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

वह कौन स्वामी आया? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

वह कौन स्वामी आया? :- हरियाणा के पुराने भजनीक पं. मंगलदेव का एक लबा गीत कभी हरियाणा के गाँव-गाँव में गूंजता थाः- ‘‘वह कौन स्वामी आया?’’

सारे काशी में यह रुक्का (शोर) पड़ गया कि यह कौन स्वामी आ गया? ऋषि के प्रादुर्भाव से काशी हिल गई। मैं हरियाणा सभा के कार्यालय यह पूरा गीत लेने पहुँचा। मन्त्री श्री रामफल जी की कृपा से सभा के कार्यकर्ता ने पूरा भजन दे दिया। यह किस लिये? इंग्लैण्ड की जिस पत्रिका का हमने ऊपर अवतरण दिया है, उसमें ऋषि की चर्चा करते हुए सन् 1871 में कुछ इसी भाव के वाक्य पढ़कर इस गीत का ध्यान आ गया। यह आर्य समाज स्थापना से चार वर्ष पहले का लेख है। सन् 1869 के काशी शास्त्रार्थ में पौराणिक आज पर्यन्त ऋषि जी को पराजित करने की डींग मारते चले आ रहे हैं। इंग्लैण्ड से दूर बैठे गोरी जाति के लोगों में काशी नगरी के शास्त्रार्थ में महर्षि की दिग्विजय की धूम मच गई। हमारे हरियाणा के आर्य कवि सदृश एक बड़े पादरी ने काशी में ऋषि के प्रादुर्भाव पर इससे भी जोरदार शब्दों  में यह कहा व लिखा The entire city was excited and convulsed   अर्थात् सारी काशी हिल गई। नगर भर में उत्तेजना फैल गई- ‘‘यह कौन स्वामी आया?’’ रुक्का (शोर) सारे यूरोप में पड़ गया। लिखा है, The reputation of the cherished idols began to suffer, and the temples emoluments sustained a serious deputation in the value प्रतिष्ठित प्रसिद्ध मूर्तियों की साख को धक्का लगा। मन्दिरों के पुजापे और चढ़ावे को बहुत आघात पहुँचा। ध्यान रहे कि मोनियर विलियस के शदकोश में Convulsed  का अर्थ कपित भी है। काशी को ऋषि ने कपा दिया।

जब ऋषि के साथ केवल परमेश्वर तथा उसका सद्ज्ञान वेद था, उनका और कोई साथी संगी नहीं था, तब सागर पार उनके साहस, संयम, विद्वत्ता व हुंकार की ऐसी चर्चा सर्वत्र सुनाई देने लगी।

‘ऋषि दयानन्द के पत्रों की संग्रहकर्ता व प्रकाशक विभूतियां’

ओ३म्

ऋषि दयानन्द के पत्रों की संग्रहकर्ता प्रकाशक विभूतियां

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द से आर्ष ज्ञान व शिक्षा का अध्ययन कर संसार से अज्ञानान्धकार वा धार्मिक तिमिर का नाश करने के लिए वेद प्रचार का कार्य किया। इसके लिए उन्होंने मौखिक उपदेश, प्रवचन व व्याख्यानों सहित वार्तालाप व शास्त्रार्थ और अपनी विचारधारा व मान्यताओं के ग्रन्थों का प्रकाशन किया जिनमें प्रमुख सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, वेदभाष्य आदि हैं। इन कार्यों को करते हुए आप स्थान-स्थान की यात्रायें भी करते थे और लोगों से पत्रव्यवहार भी करते थे। नये स्थानों पर जाकर लोगों को जानकारी देने के लिए विज्ञापन प्रकाशित कर उनको उपदेशामृत का पान कराने व शंका-समाधान सहित शास्त्रार्थ आदि की चुनौती भी दिया करते थे। उनके ग्रन्थों की ही भांति उनके पत्रों एवं विज्ञापनों का भी अपना विशिष्ट महत्व है जिससे उनके जीवन की घटनाओं, निजी विचारों व ऐसी घटनाओं व समस्याओं आदि पर प्रकाश पड़ता है जिनका उल्लेख उनके साहित्य व किसी अन्य प्रकार से प्राप्त नहीं होता। इससे उनके सम्पर्क में आये लोगों सहित उनके यात्रा कार्यक्रमों की जानकारी भी मिलती है। यह हमारा सौभाग्य है कि आज पं. लेखराम, महात्मा मुंशीराम वा स्वामी श्रद्धानन्द जी, श्री पण्डित भगवद्दत्त जी, श्री महाशय मामराजजी, श्री पं. चमूपति जी एम.ए. और पं. युधिष्ठिर मीमांसक महामहोपाध्याय के प्रयत्नों से एकत्रित, सम्पादित वा प्रकाशित उनके पत्रों, विज्ञापनों आदि की एक विशाल राशि चार खण्डों में उपलब्ध है।

 

पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास लिखा है। यह अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ सम्प्रति अप्राप्य हो गया है। आर्यसमाज में महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन आर्यसमाज की स्थापना के काल से ही प्रभावित होता आ रहा है। इसी कारण अनेक ग्रन्थ प्रकाश में ही नहीं आ पाये व आ पाते हैं। आशा करते हैं कि इस ग्रन्थ का निकट भविष्य में प्रकाशन हो सकेगा? यह भी उल्लेखनीय है कि आर्यसमाज में दिन प्रतिदिन स्वाध्याय के प्रति लोगों की प्रवृत्ति कम होती जा रही है। यह मुख्य बाधा है साहित्य के प्रकाशन की। यदि साहित्य बिकेगा नहीं तो छपेगा भी नहीं। वही साहित्य छपा करता है जिसको पाठक पसन्द करते हैं वा जिसकी बिक्री होती है। यही सिद्धान्त आर्य वैदिक साहित्य पर भी लागू होता है, अस्तु।  आज हम इस लेख में महर्षि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापनों की खोज कर उन्हें सुरक्षित करने व प्रकाश में लाने वाले महर्षि दयानन्द के कुछ महान अनुयायियों का वर्णन कर रहे हैं जिसका आधार पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी का ग्रन्थ ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास है।

 

ऋषि दयानन्द के पत्रों व विज्ञापनों के प्रथम व मुख्य संग्रहकर्ता महर्षि दयानन्द की मुख्य व विस्तृत जीवनी के लेखक पं. लेखराम जी हैं। इनका परिचय देते हुए मीमांसक जी ने लिखा है कि श्री पण्डित लेखराम जी ने ऋषि दयानन्द के जीवनचरित लिखने के लिए प्रायः समस्त उत्तर भारत में भ्रमण किया था। उन्होंने ऋषि के जीवन की घटनाओं के संग्रह के साथ-साथ ऋषि के लिखे हुए पत्रों और विज्ञापनों तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा ऋषि दयानन्द के प्रति लिखे गये पत्रों और विज्ञापनों का भी संग्रह किया था। वह संग्रह उनके द्वारा संकलित उर्दू भाषा में प्रकाशित ऋषि दयानन्द के वृहद् जीवनचरित में प्रसंगवश यत्र तत्र छपा है। यह जीवनचरित ऋषि दयानन्द जीवन से सम्बद्ध घटनाओं और दस्तावेजों का ऐसा अपूर्व संग्रह है कि इसके विना अगला कोई भी चरितलेखक एक कदम भी नहीं चल सकता। इस ग्रन्थ का आर्यसमाज नया बांस, दिल्ली क सत्प्रयास से सम्वत् 2028 में आर्यभाषानुवाद भी प्रकाशित हो गया है। इसके बाद से यह ग्रन्थ यहां से प्रकाशित होता आ रहा है और हमारी जानकारी के अनुसार यह अब भी उपलब्ध है।

 

महर्षि दयानन्द के पत्र और विज्ञापनों के दूसरे प्रमुख संग्रहकर्ता, सम्पादक व प्रकाशक श्री महात्मा मुंशीराम वा स्वामी श्रद्धानन्द जी थे। पण्डित मीमांसक जी ने उनका परिचय देते हुए लिखा है कि श्री स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्द जी का पूर्व नाम महात्मा मुन्शीराम था। उन्होंने ऋषि दयानन्द के अन्यों के नाम लिखे गये तथा अन्य व्यक्तियों के द्वारा ऋषि को लिखे गये उभयविधि पत्रों का संग्रह किया था। उनमें से कुछ पत्रों को उन्होंने पहले सद्धर्म प्रचारक के सम्वत् 1966 के कुछ अंकों में प्रकाशित किया था। तत्पश्चात् सम्वत् 1966 में ही उन्होंने ‘‘ऋषि दयानन्द का पत्रव्यवहार (प्रथम भाग) नाम से कुछ पत्रों का संग्रह छपवाया था। यद्यपि इस संग्रह में ऋषि के अपने लिखे हुए पत्र बहुत स्वल्प हैं, अधिकतर पत्र ऋषि के नाम भेजे गए विभिन्न व्यक्तियों के हैं, तथापि यह संग्रह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस संग्रह की भूमिका से विदित होता है कि श्री महात्मा मुन्शीरामजी के पास और भी बहुत से पत्रों का संग्रह था। जिसे वे द्वितीय भाग में छापना चाहते थे। परन्तु अपने को ऋषिभक्त मानने वाले आर्यजनों का सहयोग मिलने से दूसरा भाग नहीं छप सका। अवशिष्ट पत्रों के संग्रह की क्या दशा हुई, इसका हमें काई ज्ञान नहीं। अवशिष्ट पत्र प्रकाशित हो सके और सम्भवतः वह नष्ट हो गये, यह आर्यसमाज के लिए अपमानजनक होने के साथ पीड़ादायक भी है।

 

पत्र और विज्ञापनों के संग्रह व प्रकाशन-सम्पादन में श्री पण्डित भगवद्दत्त जी की प्रमुख भूमिका है। आपने सम्वत् 1972 से ऋषि दयानन्द के पत्रों और विज्ञापनों तथा ऋषि के जीवन कार्य से सम्बन्ध रखने वाली विविध सामग्रियों का अनुसन्धन तथा संग्रह प्रारम्भ किया। उन्होंने सम्वत् 1975, 1976, 1983, 1984 में क्रमशः चार भागों में ऋषि के स्वलिखित 246 पत्रों और विज्ञापनों का संग्रह प्रकाशित किया। इसके अनन्तर भी वह शनैः शनैः इसी कार्य के अनुसंधान में लगे रहे। सम्वत् 2002 तक उन के पास ऋषि दयानन्द के लगभग 500 पत्रों और विज्ञापनों का संग्रह हो गया था। माननीय पण्डित भगवद्दत्त जी ने उपलब्ध समस्त पत्रों और विज्ञापनों का तिथि क्रम से सम्पादन करके रामलाल कपूर ट्रस्ट लाहौर के द्वारा उनको प्रकाशित किया। यह संग्रह ट्रस्ट ने सम्वत् 2002 में 20×30 अठपेजी आकार के 550 पृष्ठों में छपवाकर प्रकाशित किया था। माननीय पण्डित जी ने ऋषि दयानन्द का प्रमाणिक जीवन चरित लिखने के लिए भी बहुत सी सामग्री पत्रों के अनुसन्धान काल में संगृहीत कर ली थी और वे उसे व्यवस्थित करना ही चाहते थे कि सम्वत् 2004 में देश-विभाग-जनित भयंकर उपद्रवों में वह सम्पूर्ण महत्वपूर्ण सामग्री माडल टाउन, लाहौर में उनके घर में ही छूट गई। उसके साथ ही ऋषि दयानन्द के हस्तलिखित शतशः असली पत्र और ऋषि के नाम आये हुए अन्य व्यक्तियों के पत्र नष्ट हो गये। आर्यसमाज के इतिहास मे यह एक ऐसी दुःखद घटना है कि जिसका पूरा होना सर्वथा असम्भव है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि श्री माननीय पण्डित जी के पास ऋषि के द्वारा लिखे हुए जितने प़त्र और विज्ञापन संगृहीत थे, वे देशविभाजन से कुछ काल पूर्व ही रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हो गये थे और उसकी कुछ कापियां बाहर निकल चुकी थी। अन्यथा आर्य-जाति ऋषि के इन महत्वपूर्ण पत्रों से भी सदा के लिए वंचित रह जाती और माननीय पण्डित जी का सारा परिश्रम निष्फल जाता। पण्डित मीमांसक जी ने इन पंक्तियों में इतिहास की दुर्लभ सामग्री संग्रहित कर हमें प्रदान की है जिसके लिए सारे आर्यजगत को उनका ऋणी होना चाहिये। हमें दुःख है कि आर्यसमाज उनके जीवनकाल में उनका वह सत्कार नहीं कर सका जिसके कि वह अधिकारी थे।

 

महर्षि दयानन्द के पत्रों व विज्ञापनों के संग्रह में श्री महाशय मामराज जी का महत्वपूर्ण योगदान है। श्री महाशय मामराजजी खतौली जिला मुजफफरनगर के निवासी थे। आप के हृदय में ऋषि दयानन्द के प्रति कितनी श्रद्धा भरी थी, यह वही जान सकता है, जिसे उनके साथ कुछ समय रहने का सौभाग्य मिला हो। वे ऋषि के कार्य के लिए सदा पागल बने रहते थे। श्री पण्डित भगवद्दत्तजी ने पत्रों का जो महान् संग्रह किया था, उसमें अपका बहुत बड़ा भाग है। आपने जिस धैर्य और परिश्रम से ऋ़षि के पत्रों की खोज और संग्रह का कार्य किया है, वह केवल आप के ही अनुरूप है। यदि श्री पण्डित भगवद्दत्तजी को आप जैसा कर्मठ सहयोगी न मिलता तो वे कदापि इतना बड़ा संग्रह नहीं कर सकते थे। आपने भी ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज से सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी पुरानी सामग्री क वृहत् संग्रह किया था और उसका अधिक भाग श्री पण्डित भगवद्दत्तजी के ही पास माडलटाउन (लाहौर) में रक्खा हुआ था। अतः इनका बहुत सा संग्रह भी वहीं नष्ट हो गया। इन पंक्तियों को पढ़कर इन पंक्तियों के लेखक को महर्षि दयानन्द विषयक एक-एक पत्र व उसके शब्दों की महत्ता का अनुभव होता है। हम इन पत्रों का महत्व जाने या न जानें व उपेक्षा भी करे तथापि इन सभी महापुरूषों का समस्त आर्यजगत ऋणी है और सदा रहेगा।

 

महर्षि दयानन्द के पत्रों के संग्रह में एक मुख्य नाम पं. चमूपति जी एम.ए. का भी है। श्री पण्डित चमूपति जी को ठाकुर किशोरीसिंह से ऋषि दयानन्द के पत्रव्यवहार का एक बहुमूल्य संग्रह प्राप्त हुआ था। उसमें ऋषि दयानन्द के तथा अन्यों के ऋषि के नाम लिखे हुए लगभग 172 पत्रों का संग्रह था। उसे उन्होंने सम्वत् 1992 (सन् 1935) में गुरुकुल कांगड़ी से प्रकाशित किया था। इस संग्रह में ऋषि दयानन्द के अन्तिम समय के राजस्थान के विश्ष्टि व्यक्तियों से सम्बद्ध पत्र हैं। इस दृष्टि से यह संग्रह अत्यन्त महत्वूपूर्ण है।

 

पं. भगवदत्तजी के बाद ऋषि दयानन्द के पत्र औश्र विज्ञापनों के सम्पादन का सबसे अधिक सराहनीय व योग्यतापूर्वक कार्य यदि किसी ने किया है तो वह पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी हैं। आर्यसमाज उनका चिऱऋणी है। आपने महर्षि दयानन्द के सभी पत्रों, उनके द्वारा व उनको लिखे गये पत्रों सहित, समस्त विज्ञापनों का समावेश चार भागों में रामलाल कपूर ट्रस्ट से प्रकाशित स्वसम्पादित ग्रन्थ में किया है। इसे ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापनों का अब तक का सर्वांगपूर्ण सुसम्पादित संस्करण कह सकते हैं। आर्यसमाज की यह एक महानिधि है जिसमें ऋषि दयानन्द की आत्मा विद्यमान हैं। इसके अध्ययन का अपना अलग ही महत्व है। आर्यसमाज में इस ग्रन्थ की जितनी खपत व उपयोग होना चाहिये था, ऐसा हुआ नहीं दीखता। आर्यसमाज के विद्वानों को आर्यों में स्वाध्याय के प्रति रूचि उत्पन्न करने के लिए ठोस प्रयास करने चाहिये अन्यथा आर्यसमाज का विशाल साहित्य भविष्य में सुरक्षित न रह सकेगा, इसमें सन्देह नहीं है। यह ऐसा ही होगा जैसा महाभारत काल क बाद वेदों की अप्रवृत्ति से हुआ और कठिनता से महर्षि को वेद प्राप्त हुए थे। वेदों व आर्ष साहित्य के अध्ययन सहित ऋषि ग्रन्थों व पत्रव्यवहार के अध्ययन का अपना ही महत्व है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के महर्षि दयानन्द जी के साहित्य के प्रति किये गये कार्यों को हम श्रद्धापूर्वक स्मरण कर उनका कृतज्ञता पूर्वक अभिनन्दन करते हैं और आर्यों से अनुरोध करते हैं कि वह रामलालकपूर ट्रस्ट, रेवली, सोनीपत, हरयाणा से पं. मीमांसक जी द्वारा सम्पादित पत्र और विज्ञापनों के संस्करण को मंगाकर उसे मननपूर्वक आद्योपान्त पूरी श्रद्धा से पढ़े। हमारी जानकारी में यह भी आया है कि परोपकारिणी सभा ने भी ऋषि के पत्रों और विज्ञापनों का नया संस्करण प्रकाशित किया है। इसका सम्पादन आर्य विद्वान श्री वेदपाल जी ने किया है। इस संस्करण को मीमांसक जी के संस्करण का ही नया रूप कह सकते हैं।

 

हमने आर्यसमाज में ऋषि दयानन्द जी के पत्र और विज्ञापनों का पाठकों को किंचित परिचय देने का प्रयास किया है। हम आशा करते हैं कि पाठक इनका सदुपयोग करेंगे और महर्षि दयानन्द के वैदिक धर्म व संस्कृति को योगदान को सर्वत्र प्रचारित करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘आर्यों वा सभी मनुष्यों के यथार्थ आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर और ऋषि दयानन्द’

ओ३म्

आर्यों वा सभी मनुष्यों के यथार्थ आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर और ऋषि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रत्येक बनी हुई व बनने वाली जड़-जन्तु सामग्री का काई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है। यदि उद्देश्य न हो तो उस वस्तु को बनाने वाली पौरुषेय या अपौरुषेय सत्ता की उसके निर्माण में प्रवृत्ति ही नहीं  होती। हमें मनुष्य का जन्म मिला है, इस कारण हमारे बनाने वाली कारण सत्ता का अवश्य ही कोई उद्देश्य रहा है। प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने इस व ऐसे अन्य प्रश्नों पर विचार किया था। उन्होंने सृष्टि की आदि में प्रदत्त वा उपलब्ध वेद ज्ञान का भी अध्ययन किया और उसका निभ्र्रान्त ज्ञान प्राप्त किया। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार में एक ईश्वर की ही सत्ता है। यह ईश्वर की सत्ता सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनदि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, जीवात्मा को उसके कर्मानुसार जन्म देने कर्मों के सुखदुःख रूपी फल देने वाली सृष्टि की रचना करने वाली है। मनुष्यों को सृष्टि के आदि काल में वेद ने ही ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप सहित मनुष्यों के अपने व अन्यों के प्रति कर्तव्यों का ज्ञान कराया था। वेद से शब्दों को लेकर ही मनुष्यों, प्राकृतिक वा भौतिक पदार्थों यथा अग्नि, जल, वायु, आकाश सहित स्थानादि के नाम प्राचीन ऋषियों ने रखे थे जो समय के साथ कुछ उच्चारण दोष, भेद व भौगोलिक कारणों से न्यूनाधिक बदलते रहे हैं।

 

वेदों में ईश्वर का जो स्वरूप उपदिष्ट है, वह ईश्वर का सत्य वा यथार्थ स्वरूप हैं। वेद कथित ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप से इतर व भिन्न जितने भी विचार, मान्यतायें, सिद्धान्त व कथन हैं, वह वेद विरुद्ध होने से असत्य, मिथ्या, झूठे व भ्रान्त हैं। संसार के सभी मनुष्यों को सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करते हुए वेद वर्णित ईश्वर के सत्य स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभाव को मानना चाहिये और ईश्वर को अपना आदर्श बनाकर उसके अनुरूप ही अपने गुण, कर्म व स्वभाव बनाने चाहिये। मनुष्यों को सुख, कल्याण, शान्ति, समृद्धि, आरोग्य, बल व शक्ति, धन, वैभव, ऐश्वर्य, पुत्र-पुत्री आदि योग्य सन्तानें प्रदान करने के लिए ही ईश्वर ने स्वयं सृष्टि के आदिकालीन चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को क्रमशः चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। संसार में सर्वोत्तम सुख के साधन इस वेद ज्ञान को मानकर ही ऋषियों ने प्राणपन से इसकी रक्षा की। यही कारण है कि यह वेद ज्ञान सृष्टि के आदि से अब तक के एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष से निरन्तर बना हुआ वा सुरक्षित है। महाभारत काल व उसके बाद यह ज्ञान अप्रचलित व अप्रसारित होने से विलुप्तता की स्थिति में आ गया था जिसका पुनः सूर्यसम प्रकाश ईश्वर द्वारा महर्षि दयानन्द के द्वारा कराया गया। मानव जाति का सौभाग्य है कि आज चारों वेदों का ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए हिन्दी व अनेक भाषाओं में उपलब्ध हैं। महर्षि दयानन्द की यह मानवमात्र को अनुपम देन है। सृष्टि के इतिहास की यह अपूर्व व महानतम घटना है। महर्षि दयानन्द ने स्त्री, अज्ञानी शूद्रों व मनुष्यमात्र के लिए इसे पढ़ने व पढ़ाने का अधिकार दिला दिया है जिससे लोग धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को जानकर उसके अनुरुप साधना कर अभ्युदय व मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। यह ज्ञातव्य है कि मध्यकाल व उसके बाद स्त्री, शूद्रों व ब्राह्मणेतर मनुष्यों को वेदों का अध्ययन करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। पौराणिक जगत में आज भी ब्राह्मणेतर लोगों को यह अधिकार नहीं दिया जाता।

 

हमारा सौभाग्य रहा है कि हम आर्यसमाज के सम्पर्क में आये और हमने महर्षि दयानन्द और उनके ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय व उनके जीवनचरित आदि से प्रेरणा ग्रहण कर वेदों का किंचित नाममात्र व सामान्य अध्ययन किया और हमें मनुष्य जीवन के उद्देश्य, प्रयोजन, मनुष्य जीवन वा जीवात्मा की उन्नति के साधन सहित समस्त दुःखों से मुक्त होने के साधनों वा उपायों का ज्ञान हुआ। इस सबसे यह ज्ञात होता है कि मनुष्य जीवन की सफलता ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर व उसकी सही व प्रभावकारी विधि से उपासना करने में हैं जिससे मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य पूरा होता है। अतः हमारे संसार के सभी ज्ञानी मनुष्यों का सत्य आदर्श वेद प्रतिपादित ईश्वर ही है। उसके गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर और उसे अपने जीवन में धारण वा आचरण करने से ही मनुष्य दुःखों से मुक्त होकर सुख व शान्ति को प्राप्त कर सकता है। यह केवल भ्रान्ति नहीं है अपितु धु्रव व अटल सत्य है जिसे महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में प्रमाणों से सिद्ध किया है और जो सत्य, तर्क व विवेचन की कसौटी पर भी पूर्णतया पुष्ट व प्रामाणिक है। अतः संसार के लोगों को मिथ्या मत-मतान्तरों के जाल से ऊपर उठकर ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर वैदिक विधि से उपासना कर अपने-अपने जीवन को सफल करना चाहिये। ईश्वर ही संसार के सब मनुष्यों का एकमात्र सर्वोत्तम, परम, श्रेष्ठतम महानतम आदर्श है, इस सत्य को जानकर इस पर दृणप्रतिज्ञनिश्चय होना चाहिये और जीवन में कोई कार्य ऐसा नहीं करना चाहिये जो इस धारणा के विपरीत हो। हमें यह भी जानना है कि ईश्वर अनन्त काल से हमारा साथी, मित्र, बन्धु व रक्षक है और हमेशा से हमारे साथ है व रहेगा। उसने हमे कभी नहीं भुलाया। प्रत्येक पल वह हमारे साथ है और हमारा हित व कल्याण करता रहता है। हम ही उसे भूले हुए हैं। उसे भूलना ही एक प्रकार से मृत्यु के समान है। जो व्यक्ति ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर उसका ध्यान व उपासना नहीं करता, वह यस्य छाया अमृतं यस्य मृत्युः के समान मृतक मनुष्य के समान है। उस ईश्वर का आश्रय ही मनुष्य को अमृतमय सुख को प्राप्त कराता है और उसे भूलना व उससे दूर होना ही मृत्यु है। हमें ग्राह्य का वरण करना व चुनना है तथा अगाह्य का त्याग करना है।

 

ईश्वर के बाद हमारे आदर्श महर्षि दयानन्द सरस्वती हैं। वह क्यों हैं? इसलिए की वह साक्षात वेदमूर्ति थे। उनके गुण, कर्म व स्वभाव सर्वथा ईश्वर व वेद की शिक्षाओं के अनुरूप थे। वह ईश्वर से प्ररेणा ग्रहण कर सदैव सत्य व कल्याणकारी कार्य ही करते थे। उन्होंने विद्याग्रहण कर अपने स्वार्थ का कोई कार्य न कर अपने प्रत्येक कार्य को मनुष्य व प्राणी मात्र के हित को ध्यान में रखकर किया। यदि वह न हुए होते और उन्होंने वेदों का ज्ञान प्राप्तकर आर्यसमाज की स्थापना व वेदों का प्रचार न किया होता तो आज हम जो कुछ हैं, वह न होते, अपितु ज्ञान व आचरण की दृष्टि से, उससे कहीं अधिक दूर व गिरे हुए होते। हमारा आहार व विहार तथा अध्ययन व प्रचार उन्हीं के विचारों से प्रभावित व प्रेरित है। हमारा मानना है कि सृष्टि में अब तक हुए ज्ञात मनुष्यों, ऋषियों, मुनियों तथा योगियों में वह अद्वितीय, अनुपम तथा अपनी उपमा आप थे। अन्य जो महात्मा व महापुरुष हुए हैं वह भी अपने अच्छे कार्यों के लिए हमें मान्य हैं, परन्तु महर्षि दयानन्द का स्थान महात्माओं, विद्वानों व सभी महापुरूषों में सर्वोपरि है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि महर्षि दयानन्द का यथार्थ महत्व उनके व उन पर उपलब्घ समस्त साहित्य को पढ़कर, ईश्वर का ध्यान-उपासना व यज्ञ आदि करने व ईश्वर की कृपा होने पर ही विदित होता। अन्य लोगों को हमारी यह बाद स्वीकार्य नहीं होगी जिसका कारण यह है कि उन्होंने महर्षि दयानन्द के मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ बनाने वाले विचारों, आचरणों व कार्यों को पूर्णतः जाना व समझा नहीं है। ऐसे लोगों की उन पर की जाने वाली किसी टिप्पणी का कोई महत्व नहीं है।

 

ईश्वर संसार का रचयिता, धारणकर्ता, पालनकर्ता व मनुष्य के जन्म व मृत्यु सहित उनके सुख व दुःखों का नियामक है। वह हमारा व सब मनुष्यों, स्त्री-पुरुषो-बाल-वृद्धों, का इष्टदेव होने सहित आदर्श भी है। इसी प्रकार से सृष्टि के ज्ञात मनुष्यों में ईश्वर उपासना आदि श्रेष्ठ कार्य व आचरण की दृष्टि से महर्षि दयानन्द हमारे व संसार के सभी लोगों के आदर्श हैं। कोई जाने या न जाने वा कोई माने व न माने परन्तु यह धु्रव सत्य है। ईश्वर वा महर्षि दयानन्द के बताये हुए मार्ग पर चलकर ही मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। उनकी शिक्षाओं के पालन से ही राष्ट्र एक वेद पर आधारित ईश्वरनिष्ठ, संगठित, समृद्ध, सशक्त तथा अपराजेय राष्ट्र बन सकता है। इत्योम्।

                –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द के शिक्षा सबन्धी मौलिक विचार

        महर्षि दयानन्द के शिक्षा सबन्धी मौलिक विचार

श्री पं. प्रियव्रत वेदवाचस्पति

महर्षि दयानन्द के शिक्षा विषयक मौलिक विचार सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय समुल्लास में संकलित हैं। समुल्लास के विषय का निर्देश करते हुए स्वामी जी लिखते हैं- ‘अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामः।’ अर्थात् इस समुल्लास में शिक्षा-सबन्धी विचारों का प्रतिपादन होगा। स्वामी जी ने इस विषय में अपनी विचार-सबन्धी स्पष्टता का प्रशंसनीय परिचय दिया है। उनके विचार उलझे हुए नहीं हैं, सभी मन्तव्य स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। प्रत्येक मन्तव्य अपने-आप में पूर्ण है। स्वामी जी ने इस समुल्लास में शिक्षा के मूलभूत सिद्धान्तों पर ही अपना मत प्रकट किया है। पाठयक्रम सबन्धी विस्तृत सूचनायें उपस्थित करना उन्हें (द्वितीय समुल्लास में) अभीष्ट नहीं।

स्वामी जी के विचार से ज्ञानवान् बनने के लिए निमनलिखित तीन उत्तम शिक्षक अपेक्षित होते हैं- माता, पिता और आचार्य। शतपथ ब्राह्मण का निम्नलिखित वचन उनके उक्त विचार का आधार है।

‘मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद।’

अर्थात् वही पुरुष ज्ञानी बनता है, जिसे शिक्षक के रूप में प्रशस्त माता, प्रशस्त पिता तथा प्रशस्त आचार्य प्राप्त हों। बालकों की शिक्षा में तीनों में से किस-किसको कितने समय तक अपना कर्त्तव्य निभाना है, इस विषय में स्वामी जी ने स्पष्ट निर्देश दे दिया है- ‘‘जन्म से 5 वें वर्ष तक बालकों को माता, 6 वें से 8 वें वर्ष तक पिता शिक्षा करे और 9 वें वर्ष के आरा में द्विज अपनी सन्तानों का उपनयन करके विद्यायास के लिए गुरुकुल में भेज दें।’’

स्वामी जी ने बालक की शिक्षा में माता का भाग और दायित्व सबसे अधिक बताया है और यह उचित भी है। क्योंकि माता ही बालक को अपने गर्भ में धारण करती है, अतः गर्भकाल में माता के आचार-विचार का बालक पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अभिमन्यु द्वारा गर्भ निवासकाल में माता के सुने चक्रव्यूह-भेदन का रहस्य सीख जाना, महाभारत की प्रसिद्ध कथा है। जन्म प्राप्त करने के बाद भी काफी समय तक बालक माता के समपर्क में ही सबसे अधिक रहता है। स्वामी जी ने इस समय की सीमा 5 वर्ष निर्धारित की है। यह काल बालक के जीवन रूपी वृक्ष का अंकुर काल है। इसमें जो गुण, उसके अन्दर पड़ जायेंगे, वे बहुत गहरे होंगे, इसलिये माता का श्रेष्ठ होना अत्यन्त आवश्यक है। स्वामी जी लिखते हैं, ‘‘वह कुल धन्य, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्। जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता है, उतना किसी से नहीं। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम (और) उनका हित करना चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं करता; इसलिए (मातृमान्) अर्थात्

‘‘प्रशस्ता धार्मिकी माता विद्यते यस्य स मातृमान्’’

धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर जब तक विद्या पूरी न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।’’

अनेक महापुरुषों ने अपनी जीवनियों में माता का ऋण स्वीकार किया है और अपने समस्त गुणों को माता से प्राप्त हुआ बताया है।

स्वामी जी की विशेषता यह है कि इन्होंने गर्भाधान के पूर्व मध्य और पश्चात्-तीनों समयों में माता-पिता की आचार-विचार समबन्धी शुद्धता का विधान किया है। वे लिखते हैं- ‘‘माता और पिता को अति उचित है कि गर्भाधान के पूर्व, मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य दुर्गन्ध, रुक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड़ के, जो शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभयता को प्राप्त करे, वैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करे कि जिससे रजस् वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम गुण युक्त हों।’’ इस प्रकार शुद्ध वीर्य तथा रजस् के संयोग से उत्पन्न सन्तान भी श्रेष्ठ गुणों वाली होगी। माता और पिता का यह शुद्ध आचार-विचार प्रकारान्तर से गर्भस्थ शिशु की शिक्षा ही है। स्वामी जी आगे लिखते हैं- ‘‘बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम, शान्ति आदि गुणकारक द्रव्यों का ही सेवन स्त्री करती रहे, जब तक सन्तान का जन्म हो।’’ ऐसा करने से सन्तान भी बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम आदि गुणों को धारण करेगी। यही उसके शिक्षित होने का दूसरा रूप है, जिसका दायित्व शुद्ध रूप से माता पर है, क्योंकि सन्तान गर्भस्थ दशा में उसी के रक्त-मांस से पुष्ट होती है।

इसके बाद स्वामी जी ने जन्म प्राप्त सन्तान को शिक्षित करने में माता के कर्त्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया है। माता के द्वारा दी जाने वाली शिक्षा दो प्रकार की हो- (1) आचार-सबन्धी (2) प्रारमभिक अध्ययन-समबन्धी। आचार सबन्धी शिक्षा में माता सन्तान को उससे बड़ों के प्रति किये जाने वाले व्यवहार का उपदेश दे। बड़े, छोटे, माता, पिता, राजा, विद्वान् आदि से कैसे भाषण करना चाहिये, उनके पास किस प्रकार बैठना चाहिये, उनसे किस भाँति बरतना चाहिये- आदि बातों को निर्देश देना चाहिये। इससे बालक सर्वत्र प्रतिष्ठा योग्य बनेगा। दूसरे, माता सन्तान को जितेन्द्रिय, विद्याप्रिय तथा सत्संग प्रेमी बनाये, जिससे सन्तान व्यर्थ क्रीड़ा, रोदन, हास्य, लड़ाई, हर्ष, शोक, लोलुपता, ईर्ष्या द्वेषादि दुर्गुणों में न फँसे। माता सन्तान को सत्य भाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नवदन बनने वाले उपदेश दे। तीसरे, गुप्तांगों का स्पर्श आदि कुचेष्टाओं से उसे रोके और उसे सभय बनाये। प्रारमभिक अध्ययन-सबन्धी शिक्षा में माता सन्तान को शुद्ध उच्चारण की शिक्षा दे। ‘‘माता बालक की जिह्वा जिस प्रकार कोमल होकर स्पष्ट उच्चारण कर सके, वैसा उपाय करे कि जो जिस वर्ण का स्थान, प्रयत्न अर्थात् ‘प’ इसका ओष्ठ स्थान और स्पष्ट प्रयत्न दोनों ओष्ठों को मिलाकर बोलना, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत अक्षरों को ठीक-ठीक बोल सकना। मधुर, गमभीर, सुन्दर, स्वर, अक्षर, मात्रा, पद, वाक्य, संहिता, अवसान भिन्न-भिन्न श्रवण होवे।’’ शुद्ध उच्चारण का बहुत महत्त्व होता है।

महाभाष्य का वचन है, ‘‘माता ही सन्तान को वस्तुतः शुद्ध उच्चारण की कला सिखा सकती है, क्योंकि शैशव में उसी का समपर्क सबसे अधिक होता है।’’

इसके बाद सन्तान को देवनागरी अक्षरों का तथा अन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का अभयास कराये। अक्षराभयास कराने के उपरान्त माता सामाजिक पारिवारिक  आचार सिखाने वाले शास्त्रीय वचनों को कण्ठस्थ करावे। इन सबके अतिरिक्त माता सन्तान को भूत, प्रेत, माता, शीतला देवी, गण्डा, ताबीज आदि अन्धविश्वासपूर्ण, छलभरी तथा धोखाधड़ी की बातों से सचेत करे तथा उस पर उसे विश्वास न करने दे। स्वामी जी ने इन अन्धविश्वास की बातों का विस्तृत तथा रोचक शैली में वर्णन किया है। बाल्यावस्था में अन्धविश्वास-विरोधी संस्कार डाल देने से वे बद्धमूल हो जायेंगे। इसके अतिरिक्त माता का यह भी कर्त्तव्य है कि बालक को वीर्यरक्षा का महत्त्व बताये। वीर्यरक्षा का महत्त्व जिन शबदों में माता बताये, उनका भी स्वामी जी ने निर्देश कर दिया है। हम उन्हें अविकलभाव से उद्धृत करना उचित समझते हैं- ‘‘देखो जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है, तब उसको आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम, बढ़ के बहुत सुख की प्राप्ति होती है। इसके रक्षण में यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का संग, विषयों का ध्यान, स्त्री का दर्शन, एकान्त सेवन, समभाषण और स्पर्श आदि कर्म से ब्रह्मचारी लोग पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त होवें। जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता, वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है, वह दुर्बल, निस्तेज, निर्बुद्धि, उत्साह, साहस, धैर्य, बल, पराक्रमादि गुणों से रहित होकर नष्ट हो जाता है। जो तुम लोग सुशिक्षा और विद्या के ग्रहण, वीर्य की रक्षा करने में इस समय चूकोगे तो पुनः इस जन्म में तुमको यह अमूल्य समय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक हम लोग गृह कर्मों के करने वाले जीते हैं, तभी तक तुमको विद्या-ग्रहण और शरीर का बल बढ़ाना चाहिये।’’

स्वामी जी ने पिता के दायित्व का स्पष्ट शबदों में पृथक् उल्लेख नहीं किया, परन्तु उनके इस निर्देश से कि 5 से 8 वर्ष तक की आयु तक सन्तान पिता से शिक्षण प्राप्त करे, पिता का कर्त्तव्य भी स्पष्ट हो जाता है। वस्तुतः अन्धविश्वास-विरोधी संस्कारों का निराकरण तथा ब्रह्मचर्य-महिमा का प्रतिपादन पिता अधिक सुचारु रूप से कर सकता है, अतः स्वामी जी ने अन्त में माता के साथ पिता का भी उल्लेख कर दिया है।

स्वामी जी कहते हैं कि अध्ययन के विषय में लालन का कोई स्थान नहीं, वहाँ ताड़न ही अभीष्ट है। ‘‘उन्हीं की सन्तान विद्वान्, सभय और सुशिक्षित होती हैं जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते, किन्तु ताडना ही करते रहते हैं।’’ इस प्रकार स्वामी जी spare the rod and spoil the child के सिद्धान्त में विश्वास रखते थे। उन्होंने महाभाष्य का प्रमाण भी दिया है-

सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।

लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः।।

अर्थात् गुरुजन अमृतमय हाथों से ताड़ना करते हैं, विषाक्त हाथों से नहीं। भाव यह है कि गुरु की ताड़ना अमृत का प्रभाव करने वाली होती है, न कि विष का। लालन, प्रेम आदि से दुर्गुण पैदा होते हैं और ताड़न से शुभगुणों की प्रतिष्ठा होती है। ताड़ना का वस्तुतः अपना महत्त्व होता है। आजकल हम पबलिक स्कूलों की पढ़ाई को बहुत अच्छा समझते हैं। वहाँ ताड़न निषिद्ध नहीं है। स्वामी जी के इस विचार को अशुद्ध नहीं कहा जा सकता। परन्तु स्वामी जी यह लिखना न भूले कि ‘‘माता, पिता तथा अध्यापक लोग, ईर्ष्या, द्वेष से ताड़ना न करें, किन्तु ऊपर से भय प्रदान तथा भीतर से कृपा दृष्टि रखें।’’ कबीर का निम्नलिखित दोहा इसी तथ्य को स्पष्ट करता है-

गुरु कुहार सिष कुभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।

अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

इसके बाद स्वामी जी ने लिखा है कि आचार्य सत्याचरण की शिक्षा शिष्य को दे। सत्याचरण बहुत व्यापक शबद है। इस शबद में समस्त नैतिक तथा सामाजिक व्यवहार की मर्यादायें अन्तर्भूत हो जाती हैं। शिष्य को सच्चे अर्थों में सामाजिक व्यवहार की शिक्षा देने का दायित्व आचार्य पर है। आचार्य ही उसे सामाजिक दृष्टि से उपयोगी बना सकता है। इसके अतिरिक्त शिष्य को गमभीर ज्ञान की प्राप्ति तो आचार्य करायेगा ही, साथ ही  परा विद्या तथा अपरा विद्या में भी शिष्य को पारंगत करना, उसका कर्त्तव्य है।

एक और महत्त्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए स्वामी जी ने तैत्तिरीय उपनिषद् का निम्नलिखित वचन उद्घृत किया है-

यान्यस्माकं सुचरितानि तानि

त्वयोपास्यानि नो इतराणि।

अर्थात् शिष्य को उचित है कि वह माता, पिता तथा आचार्य के शुभ कार्यों का अनुकरण करे, अन्यों का नहीं। उक्त तीनों शिक्षक भी उसे यही उपदेश करें। मानव सुलभ त्रुटियाँ सभी में होती हैं। माता, पिता तथा आचार्य भी इसके अपवाद नहीं हो सकते, अतः शिष्य को अपने विकास में उपयोगी सब गुणों को अपने तीनों शिक्षकों से ग्रहण कर लेना चाहिये।

स्वामी जी ने यह भी लिखा है कि सामान्य व्यवहार की छोटी-छोटी बातें भी यह शिक्षकत्रय शिष्य को बतायें। इन छोटी-छोटी बातों का सुन्दर संकलन मनु के निम्नलिखित श्लोक में है-

दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।

सत्यपूतां वदेद्वाचं, मनःपूतं समाचरेत्।।

अन्त में स्वामी जी लिखते हैं कि अपनी सन्तान को तन, मन, धन से विद्या, धर्म, सयता और उत्तम शिक्षा-युक्त करना माता-पिता का कर्त्तव्य कर्म, परम धर्म तथा कीर्ति का काम है।

चाणक्य नीति के निम्नलिखीत श्लोक में माता-पिता के उक्त दायित्व का वर्णन किया गया है-

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।

न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।

इस प्रकार सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास में स्वामी जी ने शिक्षा समबन्धी मौलिक बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला है। उनकी स्थापनायें शास्त्रानुमोदित होने के साथ-साथ उपयोगितावादी, व्यावहारिक कसौटी पर भी खरी उतरती है।

– आचार्य, गुरुकुल विश्वविद्यालय काँगड़ी हरिद्वार,

सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार

सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार

भाषार्थइससे जो अध्यापक विलसन साहेब और अध्यापक मोक्षमूलर साहेब आदि यूरोपखण्डवासी विद्वानों ने बात कही है कि- वेद मनुष्य के रचे हैं किन्तु श्रुति नहीं है, उनकी यह बात ठीक नहीं है। और दूसरी यह है-कोई कहता है (2400) चौबीस सौ वर्ष वेदों की उत्पत्ति को हुए, कोई (2900) उनतीस सौ वर्ष, कोई (3000) तीन हजार वर्ष और कोई कहता है (3100) इकतीस सौ वर्ष वेदों को उत्पन्न हुए बीते हैं, उनकी यह भी बात झूठी है। क्योंकि उन लोगों ने हम आर्य्य लोगों की नित्यप्रति की दिनचर्या का लेख और संकल्प पठनविद्या को भी यथावत् न सुना और न विचारा है, नहीं तो इतने ही विचार से यह भ्रम उनको नहीं होता। इससे यह जानना अवश्य चाहिए कि वेदों की उत्पत्ति परमेश्वर से ही हुई है, और जितने वर्ष अभी ऊपर गिन आये हैं उतने ही वर्ष वेदों और जगत् की उत्पत्ति में भी हो चुके हैं। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जिन-जिन ने अपनी-अपनी देश भाषाओं में अन्यथा व्याखयान वेदों के विषय में किया है, उन-उन का भी व्याखयान मिथ्या है। क्योंकि जैसा प्रथम लिख आये हैं जब पर्यन्त हजार चतुर्युगी व्यतीत न हो चुकेंगी तक पर्यन्त ईश्वरोक्त वेद का पुस्तक, यह जगत् और हम सब मनुष्य लोग भी ईश्वर के अनुग्रह से सदा वर्त्तमान रहेंगे।

भाषार्थ इसमें विचारना चाहिये कि वेदों के अर्थ को यथावत् विना विचारे उनके अर्थ में किसी मनुष्य को हठ से साहस करना उचित नहीं, क्योंकि जो वेद सब विद्याओं से युक्त हैं, अर्थात् उनमें जितने मन्त्र और पद हैं, वे सब सपूर्ण सत्यविद्याओं के प्रकाश करनेवाले हैं। और ईश्वर ने वेदों का व्याखयान भी वेदों से कर रखा है, क्योंकि शबद धात्वर्थ के साथ योग रखते हैं। इसमें निरुक्त का भी प्रमाण है, जैसा कि यास्कमुनि ने कहा – (तत्प्रकृतीत0) इत्यादि। वेदों के व्याखयान करने के विषय में ऐसा समझना चाहिए कि जब तक सत्य प्रमाण, सुतर्क, वेदों के शबदों का पूर्वापर प्रकरणों, व्याकरण आदि वेदांगों, शतपथ आदि ब्राह्मणों, पूर्वमीमांसा आदि शास्त्रों और शास्त्रकारों का यथावत् बोध न हो, और परमेश्वर का अनुग्रह, उत्तम विद्वानों की शिक्षा, उनके संग से पक्षपात छोड़ के आत्मा की शुद्धि न हो, तथा महर्षि लोगों के किये व्याखयानों को न देखें, तब तक वेदों के अर्थ का यथावत् प्रकाश मनुष्य के हृदय में नहीं होता। इसलिये सब आर्य विद्वानों का सिद्धान्त है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से युक्त जो तर्क है, वही मनुष्यों के लिये ऋषि है।

इससे यह सिद्ध होता है कि जो सायणाचार्य और महीधरादि अल्पबुद्धि लोगों के झूठे व्याखयानों को देख के आजकल के आर्यावर्त्त और यूरोपदेश के निवासी लोग जो वेदों के ऊपर अपनी-अपनी देश-भाषाओं में व्याखयान करते हैं, वे ठीक-ठीक नहीं हैं, और उन अनर्थयुक्त व्याखयानों के मानने से मनुष्यों को अत्यन्त दुःख प्राप्त होता है। इससे बुद्धिमानों को उन व्याखयानों का प्रमाण करना योग्य नहीं। ‘तर्क’ का नाम ऋषि होने से सब आर्य लोगों का सिद्धान्त है सब कालों में अग्नि जो परमेश्वर है, वही उपासना करने के योग्य है।

भाषार्थजगत् के कारण=प्रकृति में जो प्राण हैं, उनको प्राचीन, और उसके कार्य में जो प्राण हैं, उनको नवीन कहते हैं। इसलिये सब विद्वानों को उन्हीं ऋषियों के साथ योगायास से अग्नि नामक परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी योग्य है। इतने से ही समझना चाहिये कि भट्ट मोक्षमूलर साहेब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ ठीक-ठीक नहीं जाना है।

भाषार्थजैसे ‘छन्द’ और‘मन्त्र’ ये दोनों शबद एकार्थवाची अर्थात् संहिता भाग के नाम हैं, वैसे ही ‘निगम’ और ‘श्रुति’ भी वेदों के नाम हैं। भेद होने का कारण केवल अर्थ ही है। वेदों का नाम ‘छन्द’ इसलिये रखा है कि वे स्वतन्त्र प्रमाण और सत्यविद्याओं से परिपूर्ण हैं तथा उनका ‘मन्त्र’ नाम इसलिये है कि उनसे सत्यविद्याओं का ज्ञान होता है और ‘श्रुति’ इसलिये कहते हैं कि उनके पढ़ने, अभयास करने और सुनने से सब पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो उसको ‘निगम’ कहते हैं। इससे यह चारों शबद पर्याय अर्थात् एक अर्थ के वाची हैं, ऐसा ही जानना चाहिये।

भाषार्थ वैसे ही अष्टाध्यायी व्याकरण में भी छन्द, मन्त्र और निगम ये तीनों नाम वेदों के ही हैं। इसलिये जो लोग इनमें भेद मानते हैं उनका वचन प्रमाण करने के योग्य नहीं।

प्रश्न प्रथम इस देश का नाम क्या था और इसमें कौन बसते थे?

उत्तरइसके पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्य्यों के पूर्व इस देश में बसते थे। क्योंकि आर्य्य लोग सृष्टि की आदि में कुछ काल के पश्चात् तिबबत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे।

प्रश्न कोई कहते हैं कि ये लोग ईरान से आये। इसी से इन लोगों का नाम ‘आर्य’ हुआ है। इनके पूर्व यहाँ जंगली लोग बसते थे कि जिनको ‘असुर’ और ‘राक्षस’ कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उनका जब संग्राम हुआ, उसका नाम ‘देवासुरसंग्राम’ कथाओं में ठहराया।

उत्तर यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि- वि जानीह्यार्यान् ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान।। ऋ0 म0 1। सू051। मं08।।

उत शूद्र उतार्ये।।

-यह भी अथर्ववेद कां0 19। सू062। मं01 का प्रमाण है।। हम लिख चुके हैं कि ‘आर्य’ नाम धार्मिक, विद्वान्, आप्त पुरुषों का और इनसे विपरीत जनों का नाम ‘दस्यु’ अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है। तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, द्विजों का नाम ‘आर्य’ और शूद्र का नाम ‘अनार्य्य’ अर्थात् ‘अनाड़ी’ है। जब वेद यह कहता है तो दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। और देवासुर-संग्राम में आर्य्यावर्त्तीय अर्जुन तथा महाराजे दशरथ आदि जो कि हिमालय पहाड़ में आर्य विद्वान् और दस्यु, लेच्छ असुरों का जो युद्ध हुआ था, उसमें ‘देव’ अर्थात् आर्य्यों की रक्षा और असुरों के पराजय करने को सहायक हुए थे। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य्यावर्त्त (के) बाहर चारों ओर जो हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान देश में मनुष्य रहते हैं उन्हीं का नाम ‘असुर’ सिद्ध होता है। क्योंकि जब-जब हिमालय-प्रदेशस्थ आर्य्यों पर लड़ने को चढ़ाई करते थे, तब-तब यहाँ के राज महाराजे लोग उन्हीं उत्तर आदि देशों में आर्य्यों के सहायक होते थे। और जो श्रीरामचन्द्रजी से दक्षिण में युद्ध हुआ है, उसका नाम ‘देवासुर संग्राम’ नहीं है, किन्तु राम-रावण अथवा आर्य्य और राक्षसों का संग्राम कहते हैं। किसी संस्कृत ग्रन्थ वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जङ्गलियों को लड़ कर , जय पाके, निकाल के, इस देश के राजा हुए, पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? और

आर्यावाचो लेच्छवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः।।1।।                         – मनु0 (तु0-10। 45)।।

लेच्छदेशस्त्वतः परः।।2।।  मनु0(2। 23)

जो आर्यावर्त्त देश से भिन्न देश हैं, वे ‘दस्युदेश’ और ‘लेच्छदेश’ कहाते हैं। इससे भी यह सिद्ध होता है कि  आर्य्यावर्त्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर ईशान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम ‘दस्यु’ और ‘लेच्छ’ तथा ‘असुर’ है।  और नैर्ऋत, दक्षिण तथा आग्न्रेय दिशाओं में आर्य्यावर्त्त देश से भिन्न रहने वाले मनुष्यों का नाम ‘राक्षस’ है।

और जितनी विद्या भूगोल में फैली है, वह सब आर्य्यावर्त्त देश से मिश्रवालों, उनसे यूनानी, उनसे रोम और उनसे यूरोप देश में, उनसे अमेरिका आदि देशों में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या का आर्य्यावर्त्त देश में है उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि जर्मनदेश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहने मात्र है। क्योंकि ‘यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते’ अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता, उस देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों  और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा सा पढ़ा, वही उस देश के लिए अधिक है। परन्तु आर्य्यावर्त्त देश की ओर देखें, तो उनकी बहुत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मन देशनिवासी के-एक ‘प्रिन्सिपल’ के पत्र से जाना कि जर्मन देश में संस्कृत-चिट्ठी का अर्थ करनेवाले भी बहुत कम हैं। और मोक्षमूलर साहेब के संस्क़ृत-साहित्य और थोड़ी-सी वेद की व्याखया देखकर मुझको विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर-उधर आर्य्यावर्त्तीय लोगों की की हुई टीका देखकर कुछ-कुछ यथा-तथा लिखा है। जैसा कि-

‘युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः।

रोचन्ते रोचना दिवि।।

इस मन्त्र का अर्थ ‘घोड़ा’ किया है। इससे तो जो सायणाचार्य ने ‘सूर्य्य’ अर्थ किया है सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ ‘परमात्मा’ है, सो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। उसमें इस मन्त्र का अर्थ यथार्थ किया है। इतने से जान लीजिये कि जर्मन देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत-विद्या का कितना पाण्डित्य है।

यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्य्यावर्त्त देश ही से प्रचरित हुए हैं। देखो! एक जैकालियट साहब पैरस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी ‘बायबिल इन इण्डिया’ में लिखते हैं कि-‘‘सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्य्यावर्त्त देश है सब विद्या और मत इसी देश से फैले हैं’’ और परमात्मा की प्रार्थना करते हैं कि ‘‘हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्य्यावर्त्त देश की पूर्व काल में थी, वैसी ही हमारे देश की कीजिये’’, सो उस ग्रन्थ में देख लो। तथा  ‘दाराशिकोह’ बादशाह ने भी यही निश्चय किया था कि जैसी पूरी विद्या संस्कृत में है, वैसी किसी भाषा में नहीं। वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि -‘‘मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषा पढ़ीं, परन्तु मेरे मन का सन्देह छूट कर आनन्द न हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब निःसन्देह होकर मुझको बड़ा आनन्द हुआ है’’ देखो, काशी के ‘मानमन्दिर’ में शशिमालचक्र को कि जिसकी पूरी रक्षा भी नहीं रही है, तो भी कितना उत्तम है कि जिसमें अब तक भी खगोल का बहुत सा वृत्तान्त विदित होता है। जो ‘सवाई जयपुराधीश’ उसकी सम्भाल और फूटे-टूटे को  बनवाया करेंगे  तो बहुत अच्छा होगा। परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह?

विनाशकाले विपरीतबुद्धिः।। चाणक्यनीतिदर्पण अ0 16। श्लो0 5 ।।

 

 

क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?

ओ३म्

क्या संसार महर्षि दयानन्द की मानव कल्याण की यथार्थ भावनाओं को समझ सका?’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने देश व समाज सहित विश्व की सर्वांगीण उन्नति का धार्मिक व सामाजिक कार्य किया है। क्या हमारे देश और संसार के लोग उनके कार्यों को यथार्थ रूप में जानते व समझते हैं? क्या उनके कार्यों से मनुष्यों को होने वाले लाभों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान विश्व व देश के लोगों को है? जब इन व ऐसे अन्य कुछ प्रश्नों पर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश व संसार के लोग महर्षि दयानन्द, उनकी वैदिक विचारधारा और सिद्धान्तों के महत्व के प्रति अनभिज्ञ व उदासीन है। यदि वह जानते होते तो उससे लाभ उठा कर अपना कल्याण कर सकते थे। न जानने के कारण वह वैदिक विचारधारा से होने वाले लाभों से वंचित हैं और नानाविध हानियां उठा रहे हैं। अतः यह विचार करना समीचीन है कि मनुष्य महर्षि दयानन्द की वैदिक विचारधारा के सत्य यथार्थ स्वरूप को क्यों नहीं जान पाये? इस पर विचार करने पर हमें इसका उत्तर यही मिलता है कि महर्षि दयानन्द के पूर्व व बाद में प्रचलित मत-मतान्तरों के आचार्यों व तथाकथित धर्मगुरुओं ने स्वार्थ, हठ, दुराग्रह व अज्ञानतावश उनका विरोध किया और उनके बारे में मिथ्या प्रचार करके अपने-अपने अनुयायियों को उनके व उनकी विचारधारा को जानने व समझने का अवसर व स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की। आज भी संसार के अधिकांश लोग मत-मतान्तरों के सत्यासत्य मिश्रित विचारों व मान्यताओं से बन्धे व उसमें फंसे हुए हैं। सत्य से अनभिज्ञ वा अज्ञानी होने पर भी उनमें ज्ञानी होने का मिथ्या अहंकार है। रूढि़वादिता के संस्कार भी इसमें मुख्य कारण हैं। इन मतों व इनके अनुयायियों में सत्य-ज्ञान व विवेक का अभाव है जिस कारण वह भ्रमित व अज्ञान की स्थिति में होने के कारण यदि आर्यसमाज के वैदिक विचारों व सिद्धान्तों का नाम सुनते भी हैं तो उसे संसार के मत-मतान्तरों व अपने मत-सम्प्रदाय का विरोधी मानकर उससे दूरी बनाकर रखते हैं।

 

महर्षि दयानन्द का मिशन क्या था? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि वह संसार के धार्मिक, सामाजिक देशोन्नति संबंधी असत्य विचारधारा, मान्यताओं सिद्धान्तों को पूर्णतः दूर कर सत्य मान्यताओं सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने अपने पिता का घर छोड़ा था और सत्य की प्राप्ति के लिए ही वह एक स्थान से दूसरे स्थान तथा एक विद्वान के बाद दूसरे विद्वान की शरण में सत्य-ज्ञान की प्राप्ति हेतु जाते गये और उनसे उपलब्ध ज्ञान प्राप्त कर उनको प्राप्त होने वाले सभी अर्वाचीन व प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन भी करते रहे। अपनी इसी धुन व उद्देश्य के कारण वह अपने समय के देश के सभी बड़े विद्वानों के सम्पर्क में आये, उनकी संगति की और उनसे जो विद्या व ज्ञान प्राप्त कर सकते थे, उसे प्राप्त किया और इसके साथ हि योगी गुरुओं से योग सीख कर सफल योगी बने। उनकी विद्या की पिपासा मथुरा में स्वामी विरजानन्द सरस्वती की पाठशाला में सन् 1860 से सन् 1863 तक के लगभग 3 वर्षों तक अष्टाध्यायी, महाभाष्य तथा निरुक्त प़द्धति से संस्कृत व्याकरण का अध्ययन करने के साथ गुरु जी से शास्त्र चर्चा कर अपनी सभी भ्रान्तियों को दूर करने पर समाप्त हुई। वेद व वैदिक साहित्य का ज्ञान और योगविद्या सीखकर वह अपने सामाजिक दायित्व की भावना व गुरु की प्ररेणा से कार्य क्षेत्र में उतरे और सभी मतों के सत्यासत्य को जानकर उन्होंने विश्व में धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में असत्य व मिथ्या मान्यताओं तथा भ्रान्तियों को दूर करने के लिए उसका खण्डन किया। प्रचलित धर्म-मत-मतान्तरों में जो सत्य था उसका उन्होंने अपनी पूरी शक्ति से मण्डन वा समर्थन किया। आज यदि हम स्वामी दयानन्द आर्यसमाज के किसी विरोधी से पूंछें कि महर्षि दयानन्द ने तुम्हारे मत की किस सत्य मान्यता वा सिद्धान्त का खण्डन किया तो इसका उत्तर किसी मतमतान्तर वा उसके अनुयायी के पास नहीं है। इसका कारण ही यह है कि उन्होंने सत्य का कभी खण्डन नहीं किया। उन्होंने तो केवल असत्य मिथ्या ज्ञान का ही खण्डन किया है जो कि प्रत्येक मनुष्य का मुख्य कर्तव्य वा धर्म है। दूसरा प्रश्न अन्य मत वालों से यदि यह करें कि क्या स्वामी दयानन्द जी ने वेद संबंधी अथवा अपने किसी असत्य व मिथ्या विचार व मान्यता का प्रचार किया हो तो बतायें? इसका उत्तर भी किसी मत के विद्वान, आचार्य व अनुयायी से प्राप्त नहीं होगा। अतः यह सिद्ध तथ्य है कि महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में कभी किसी मत के सत्य सिद्धान्त का खण्डन नहीं किया और ही असत्य मिथ्या मान्यताओं का प्रचार किया। उन्होंने केवल असत्य का ही खण्डन और सत्य का मण्डन किया जो कि मनुष्य जाति की उन्नति के लिए सभी मनुष्यों व मत-मतान्तरों के आचार्यों को करना अभीष्ट है। इसका मुख्य कारण यह है कि सत्य वेद धर्म का पालन करने से मनुष्य का जीवन अभ्युदय को प्राप्त होता है और इसके साथ वृद्धावस्था में मृत्यु होेने पर जन्ममरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त होता है।

 

यह भी विचार करना आवश्यक है कि सत्य से लाभ होता है या हानि और असत्य से भी क्या किसी को लाभ हो सकता है अथवा सदैव हानि ही होती है? वेदों के ज्ञान के आधार पर सत्य के सन्दर्भ में महर्षि दयानन्द ने एक नियम बनाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। यह नियम संसार में सर्वमान्य नियम है। अतः सत्य से लाभ ही लाभ होता है, हानि किसी की नहीं होती। हानि तभी होगी यदि हमने कुछ गलत किया हो। अतः मिथ्याचारी व्यक्ति व मत-सम्प्रदाय के लोग ही असत्य का सहारा लेते हैं और सत्य से डरते हैं। ऐसे मिथ्या मतों, उनके अनुयायी व प्रचारकों की मान्यताओं के खण्डन के लिए महर्षि दयानन्द को दोषी नहीं कहा जा सकता। इस बात को कोई स्वीकार नहीं करता कि मनुष्य को जहां आवश्यकता हो वहां वह असत्य का सहारा ले सकता है और जहां सत्य से लाभ हो वहीं सत्य का आचरण करे। किसी भी परिस्थिति में असत्य का आचरण अनुचित, अधर्म वा वा पाप ही कहा जाता है। अतः सत्याचरण करना ही धर्म सिद्ध होता है और असत्याचरण अधर्म। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश, ऋ़ग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में उन्होंने मनुष्य के धार्मिक व सामाजिक कर्तव्यों व अकर्तव्यों का वैदिक प्रमाणों, युक्ति व तर्क के आधार पर प्रकाश किया है। सत्यार्थप्रकाश साधारण मनुष्यों की बोलचाल की भाषा हिन्दी में लिखा गया वैदिक धर्म का सर्वांगीण, सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रभावशाली धर्मग्रन्थ है। धर्म व इसकी मान्यताओं का संक्षिप्त रूप महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश लिखकर प्रकाशित किया है। यह स्वमन्तव्यामन्तव्य ही मनुष्यों के यथार्थ धर्म के सिद्धान्त व कर्तव्य हैं जिनका विस्तृत व्याख्यान सत्यार्थप्रकाश व उनके अन्य ग्रन्थों में उपलब्घ है। स्वमन्तव्यामन्तव्य की यह सभी मान्यतायें संसार के सभी मनुष्यों के लिए धर्मपालनार्थ माननीय व आचरणीय है परन्तु अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण लोग इन सत्य मान्यताओं से अपरिचित होने के कारण इनका आचरण नहीं करते और न उनमें सत्य मन्तव्यों को जानने की सच्ची जिज्ञासा ही है। इसी कारण संसार में मत-मतान्तरों का अस्तित्व बना हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि देश व संसार में धर्म सम्बन्धी सत्य व यथार्थ ज्ञान के प्रचारकों की कमी है। यदि यह पर्याप्त संख्या में होते तो देश और विश्व का चित्र वर्तमान से कहीं अधिक उन्नत व सन्तोषप्रद होता।

 

महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 से वेद वा वैदिक मान्यताओं का प्रचार आरम्भ किया था जिसने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना के बाद तेज गति पकड़ी थी। इसके बाद सन् 1883 तक उन्होंने वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया जिसमें वैदिक मत के विरोधियों व विधर्मियों से शास्त्र चर्चा, विचार विनिमय, वार्तालाप और शास्त्रार्थ सम्मिलित थे। अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना सहित ऋग्वेद का आंशिक और पूरे यजुर्वेद का उन्होंने भाष्य किया। उनके बाद उनके अनेक शिष्यों ने चारों वेदों का भाष्य पूर्ण किया। न केवल वेदों पर अपितु दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, वाल्मीकि रामायण व महाभारत आदि पर भी भाष्य, अनुवाद, ग्रन्थ व टीकायें लिखी र्गइं। संस्कृत व्याकरण विषयक भी अनेक नये ग्रन्थों की रचना के साथ प्रायः सत्यार्थप्रकाश सहित सभी आवश्यक ग्रन्थों को अनेक भाषाओं में अनुवाद व सुसम्पादित कर प्रकाशित किया गया जिससे संस्कृत अध्ययन सहित आध्यात्मिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करना अनेक भाषा-भाषी लोगों के लिए सरल हो गया। एक साधारण हिन्दी पढ़ा हुआ व्यक्ति भी समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन कर सकता है। यह सफलता महर्षि दयानन्द, आर्यसमाज इसके विद्वानों की देश विश्व को बहुमूल्य देन है। यह सब कुछ होने पर भी आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा का जो प्रभाव होना चाहिये था वह नहीं हो सका। इसके प्रमुख कारणों को हमने लेख के आरम्भ में प्रस्तुत किया है। वह यही है कि देश संसार के लोग महर्षि दयानन्द की मानवमात्र की कल्याणकारी विचारधारा उनके यथार्थ भावों को अपनेअपने अज्ञान, स्वार्थ, हठ और पूर्वाग्रहों वा दुराग्रहों के कारण जान नहीं सके। कुछ अन्य और कारण भी हो सकते हैं। इसके लिए आर्यसमाज को अपने संगठन व प्रचार आदि की न्यूनताओं पर भी ध्यान देना होगा और उन्हें दूर करना होगा। वेद वा धर्म प्रचार को बढ़ाना होगा और वैदिक मान्यताओं को सारगर्भित व संक्षेप में लघु पुस्तकों के माध्यम से प्रस्तुत कर उसे घर-घर पहुंचाना होगा। यदि प्रचारकों की संख्या अधिक होगी और संगठित रूप से प्रचार किया जायेगा तो सफलता अवश्य मिलेगी और मानवता का कल्याण होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘सनातन वैदिक धर्म व संस्कृति के पुनरुद्धार में स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान’

ओ३म्

सनातन वैदिक धर्म संस्कृति के पुनरुद्धार में  स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का योगदान

भारतीय धर्म व संस्कृति विश्व की प्राचीनतम, आदिकालीन, सर्वोत्कृष्ट, ईश्वरीय ज्ञान वेद और सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित है। सारे विश्व में यही संस्कृति महाभारत काल व उसकी कई शताब्दियों बाद तक भी प्रवृत्त रहने सहित सर्वत्र फलती-फूलती रही है। इस संस्कृति की विशेषता का प्रमुख कारण यह था कि यह ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित होने के साथ वेदों के प्रचारक व रक्षक ईश्वर के साक्षात्कृत धर्मा हमारे ऋ़षि मुनियों द्वारा प्रचारित व संरक्षित थी। महाभारत के विनाशकारी युद्ध के प्रभाव से ऋषि परम्परा समाप्त हो गई जिससे संसार में धर्म व संस्कृति सहित शिक्षा के क्षेत्र में घोर अन्धकार छा गया। इस विषम परिस्थिति में देश-देशान्तर में वही हुआ जैसा कि नेत्रान्ध व अल्प नेत्र ज्योति वाले अशिक्षित व्यक्तियों के कार्य होते हैं। यह अन्धकार समाप्त नहीं हो रहा था अपितु समय के साथ बढ़ रहा था। इस स्थिति में हम देखते हैं कि देश-देशान्तर में कुछ महापुरुषों का जन्म हुआ जिन्होंने समाज को नई दिशा देने के लिए सामयिक ज्ञान की अपनी योग्यतानुसार अपने-अपने मत व धर्म प्रचलित किये और इन्हीं मत व धर्मों के पालन के लिए उन-उन देशों में, मुख्यतः यूरोप व अरब आदि देशों में, वहां की भौगोलिक एवं समाज के पुरुषों की योग्यता के अनुसार संस्कृति का प्रादुर्भाव व विकास हुआ। भारत में सृष्टि के आदि काल से लेकर महाभारत काल तक वैदिक धर्म व संस्कृति प्रचलित रही थी। समाज में अज्ञान बढ़ जाने से इसका विपरीत प्रभाव धर्म व संस्कृति दोनों पर हुआ जिस कारण संस्कृति का स्वरुप भी सत्य के विपरीत अज्ञान प्रधान होकर अनेक विकारों से युक्त हुआ।

 

संस्कृति का अध्ययन करने के लिए हमें धर्म, भाषा, स्वदेश गौरव की भावना, वेषभूषा, परम्परा वा रीति-रिवाजों आदि की स्थिति पर विचार और इसमें महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान की चर्चा करना उपयुक्त होगा।  धर्म के क्षेत्र में भारत सृष्टि के आदि काल से वेद और वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का पालक रहा है। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण सत्य मान्यताओं, यथार्थ धर्म व संस्कृति के पोषक रहे हैं। हमारे ऋषि-मुनि भी विचार, चिन्तन, ध्यान व मनन द्वारा वेदों के सभी मन्त्रों व शब्दों में निहित मनुष्यों के लिए कल्याणकारी अर्थों व ज्ञान से देश की जनता को उपकृत करते थे जिससे सारा समाज व देश सत्य ज्ञान से युक्त व उन्नत था। गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली से सभी मनुष्यों व वर्णों की सन्तानों को गुरुकुलीय शिक्षा दी जाती थी जहां निर्धन व धनवानों के लिए वेद-वेदांगों के ज्ञान कराने वाली शिक्षा का सबके लिए समान रूप से निःशुल्क प्रबन्ध था। स्वामी दयानन्द ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा को अनिवार्य करने की बात कही है। कृष्ण व सुदामा एक साथ पढ़ते थे और परस्पर मित्रवत् व्यवहार करते थे। वैदिक काल के सभी आचार्य व गुरु भी वैदिक ज्ञान के प्रबुद्ध विद्वान होते थे जिनके आचार्यत्व में विद्यार्थियों से नास्तिकता का नाश होकर एक सच्चे सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी, दयालु व सृष्टिकर्ता ईश्वर की उपासना देश देशान्तर में प्रचलित थी। सभी स्त्री व पुरुष स्वाध्यायशील व योगाभ्यासी होते थे जिससे सभी स्वस्थ, सुखी, अपरिग्रही व सन्तोषी होते थे। समाज व देश में ऋषि-मुनियों की बड़ी संख्या होने से कहीं कोई अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न व प्रचलित नहीं होता था। शंका होने पर राजाओं के द्वारा बड़े-बड़े शास्त्रार्थों का आयोजन होता था और विजयी पक्ष के विचारों को समस्त देश को स्वीकार करना पड़ता था। धर्मनिरपेक्षता जैसा शब्द महाभारत काल तक व उसके बाद के साहित्य में भी कहीं नहीं पाया जाता। इस प्रकार सर्वत्र वैदिक धर्म का पालन होता था।

 

महाभारत काल के बाद मध्यकाल में अज्ञान व अन्धविश्वासों के उत्पन्न हो जाने से धर्म का सत्य स्वरूप विकृत हो गया जिससे समाज में अवतारवाद, मूर्तिपजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, पाखण्ड व आडम्बर, जन्मना जातिवाद आदि मिथ्या विश्वास उत्पन्न हो गये। महर्षि दयानन्द (1825-1883) तक इन मिथ्या विश्वासों में वृद्धि होती रही। स्वामी दयानन्द जी को सन् 1938 की शिवरात्रि को ईश्वर विषयक बोध प्राप्त हुआ। इसके कुछ काल बाद उनसे छोटी बहिन व चाचा की मृत्यु ने उनमें वैराग्य के संस्कारों को प्रबुद्ध किया। उन्होंने सत्य धर्म व संस्कृति की खोज के लिए सन् 1846 में माता-पिता व स्वगृह का त्याग कर देश भर के धार्मिक विद्वानों, शिक्षकों व योगियों को ढूंढ कर उनकी संगति व शिष्यत्व प्राप्त किया। मथुरा के प्रज्ञाचक्षु गुरू स्वामी विरजानंद सरस्वती के पास वह सन् 1860 में पहुंचे और उनसे तीन वर्षों में संस्कृत के आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरुक्त संस्कृत-व्याकरण प्रणाली का ज्ञान प्राप्त कर समस्त वैदिक व इतर धार्मिक साहित्य के विद्वान बने। गुरु की प्रेरणा से उन्होंने संसार से मिथ्या ज्ञान नष्ट करने के साथ आर्ष ज्ञान व सत्य सनातन वैदिक मत एवं संस्कृति के प्रचार व स्थापना का कार्य किया। इस कार्य को सम्पादित करने के लिए ही उन्होंने देश का भ्रमण कर न केवल धर्मोपदेश व शास्त्रार्थ आदि ही किये अपितु आर्यसमाज की स्थापना सहित पंचमहायाविधि, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय का प्रणयन किया औरे साथ हि चारों वेदों का संस्कृत व हिन्दी में भाष्य का अभूतपूर्व महनीय कार्य भी आरम्भ किया। वह यजुर्वेद का पूर्ण व ऋग्वेद का आंशिक भाष्य ही कर पाये। उनके इन कार्यों ने धर्म व संस्कृति के सुधार व उन्नति का अपूर्व कार्य किया। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिख कर व उसमें देश व देशान्तर के प्रायः सभी मतों की समीक्षा कर वैदिक सनातन मत को वास्तविक व यथार्थ धर्म सिद्ध व घोषित किया। उनकी चुनौती उनके जीवनकाल व बाद में भी कोई स्वीकार नहीं कर सका जिस कारण से आज भी वेद धर्म सर्वोपरि महान व संसार के सभी लोगों के लिए आचरणीय बन गया है। महर्षि दयानन्द के समय व उनसे पूर्व ईसाई व इस्लाम के अनुयायी हिन्दुओं के धर्म-परिवर्तन का आन्दोलन चलाये हुए थे। बहुत बड़ी संख्या में उन्होंने सफलता भी प्राप्त की थी परन्तु स्वामी दयानन्द के कार्यों ने उनके धर्मान्तरण के कार्यपर प्रायः पूर्ण विराम लगा दिया। यदि हिन्दुओं ने उनकी वेद विषयक सत्य विचारधारा को अपना लिया होता तो आज देश का इतिहास कुछ नया व भिन्न होता। पतन को प्राप्त हो रहे वैदिक धर्म की रक्षा के लिए उनके द्वारा किया गया कार्य अपूर्व एवं महान है।

 

महर्षि दयानन्द ने स्वभाषा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। वह वेदों की संस्कृत को विश्व की सभी भाषाओं की जननी मानते थे और उसके अधिकारी विद्वान व प्रचारक हुए। इसके लिए उन्होंने वेदांग प्रकाश नाम से संस्कृत व्याकरण के अनेक ग्रन्थ भी लिखे हैं। गुजराती होते हुए भी उन्होंने गुजराती के प्रति कभी पक्षपात नहीं किया। वह प्रचार आरम्भ करने के समय से ही संस्कृत में व्याख्यान देते थे जो सरल सुबोध व मुहावरेदार होती थी जिसे संस्कृत न जानने वाले लोग भी समझ लेते थे। उनके वार्तालाप की भाषा भी यही भाषा थी। कालान्तर में उन्होंने हिन्दी भाषा को अपनाया और इसे आर्यभाषा का नाम दिया। बहुत कम समय में आपने हिन्दी सीख ली और हिन्दी में ही व्याख्यान, वार्तालाप व लेखन कार्य करने लगे। हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए आपने अपने सभी ग्रन्थ हिन्दी में ही लिखे व प्रकाशित किये। आपने अपने ग्रन्थों का उर्दू आदि भाषाओं में अनुवाद करने की अनुमति इस कारण नहीं दी कि इससे हिन्दी का प्रचार व प्रसार पर विपरीत प्रभाव हो सकता था। इस सन्दर्भ में उन्होंने यहां तक कह दिया था कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर और यहां का अन्न आदि खा कर यहां की सरल भाषा हिन्दी को नहीं सीख सकता उससे देश के हित के लिए और क्या उम्मीद की जा सकती है? भारत के सरकारी दफतरों में काम काज की भाषा तय करने के लिए अंग्रेजों ने जब एक कमीशन बनाया तो हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा स्वीकार कराने के लिए स्वामी दयानन्द जी ने देश भर में एक हस्ताक्षर अभियान चलाया और उस पर करोड़ो लोगों के हस्ताक्षर कराये। हस्ताक्षर अभियान चलाकर सरकार से अपनी बात स्वीकार कराने वाले शायद स्वामी दयानन्द भारत के प्रथम महापुरुष थे। ऐसा ही अभियान उन्होंने गोरक्षा अथवा गोहत्या बन्द कराने के लिए भी चलाया था। महर्षि दयानन्द के कार्यों से देश में हिन्दी भाषा का अपूर्व प्रचार हुआ जिसका प्रभाव उनके समकालीन व परवर्ती संस्कृत व हिन्दी साहित्य पर भी पड़ा। इस विषय पर शोधार्थियों ने शोध प्रबन्ध भी प्रस्तुत किये हैं। स्वभाषा संस्कृत व हिन्दी के प्रचार व प्रसार में स्वामी दयानंद जी का सर्वाधिक योगदान है।

 

मनुष्यों की वेशभूषा भी किसी संस्कृति का एक आवश्यक अंग होती है। भारत में प्राचीन काल से ही पुरुषों व स्त्रियों की वेश भूषा निर्धारित है। पुरुषों के लिए धोती, कुर्ता, लोई वा शाल सहित बन्द गले का कोट व जैकेट एवं सिर पर पगड़ी निर्धारित रही है। इसी प्रकार से स्त्रियों के लिए भी बचपन में फ्राक से आरम्भ कर किशोर, युवावस्था व उसके बाद शलवार, कुर्ता, चुन्नी वा दुपट्टा, साड़ी आदि का पहनावा प्रचलन में रहा है। भौगोलिक दूरियों के कारण इनमें कुछ न्यूनाधिक परिवर्तन आदि भी देखने को मिलता है जिसमें एक ही मूल भावना काम करती दिखाई देती है। वेशभूषा विषयक भारतीय चिन्तन फैशन न होकर शरीर की रक्षा व सभ्यता का सूचक होता है जिससे किसी के मन में किसी प्रकार विकार आदि उत्पन्न न हो। 8वीं शताब्दी से भारत में मुगलों का आना आरम्भ हुआ और उन्होंने अपने धर्म, भाषा व वेशभूषा आदि थोपने में कोई कसर नहीं रखी। उसके बाद अंग्रेज आये और देश को गुलाम बनाया। उन्होंने भी अपने ईसाई धर्म, अंग्रेजी भाषा व परम्पराओं का प्रचार व प्रसार किया। हमारे देश के लोग अंग्रेजों से कुछ अधिक ही प्रभावित हो गये और आज भी इनकी ही वेश भूषा का प्रचलन देश भर में देखने को मिलता है। भारतीय वेशभूषा का प्रचलन कम हो रहा है और विेदेशी यूरोपीय वेशभूषा का प्रचलन बढ़ रहा है। महर्षि दयानन्द ने भारतीय धर्म, संस्कृति के प्रति गौरव का भाव जगाया तो इसमें भारतीय वेशभूषा पर भी ध्यान केन्द्रित रखा। वह सदैव धोती का प्रयोग करते थे। भारतीय कुर्ते में भी उनके चित्र उपलब्ध है। सम्मान की निशानी सिर पर पगड़ी का भी वह प्रयोग करते थे और यदि ऊपर का उनका भाग वस्त्रहीन है, तो वह प्रायः शाल या लोई ओढ़ते थे। उनके जीवन में प्रसंग आता है कि एक बार उनका एक अनुयायी अपने पुत्र को उनके पास लाया और उसके सुधार के लिए स्वामी जी को उस युवक उपदेश देने को कहा। स्वामी जी ने देखा कि उस युवक ने विदेशी वेशभूषा पैण्ट-शर्ट पहन रखी है। इसका उल्लेख कर उन्होंने उस बालक को अपने पूर्वजों की याद दिलाई और बताया कि उनकी वेशभूषा क्या व कैसी होती थी? यह भी बताया कि ज्ञान व चरित्र की दृष्टि से हमारे उन पूर्वजों की संसार में कोई समानता नहीं है। उनके विचारों का उस युवक पर प्रभाव पड़ा और उसने अपना सुधार किया। आज भी हम देखते हैं कि आर्यसमाज के अनुयायी अपने घरों में बच्चों, विशेष कर कन्याओं व स्त्रियों के भारतीय वेशभूषा के पक्षधर है और उनके परिवारों में इस दृष्टि से सख्त निर्देश हैं कि भारतीय वेशभूषा का ही प्रयोग हो। जहां तक अन्य सभी संस्थाओं से तुलना की बात है, आर्यसमाज पहले भी और आज भी भारतीय वेशभूषा का सबसे बड़ा समर्थक व पक्षधर है। आज भी हमारे युवक व युवतियों के गुरुकुलों व शिक्षण संस्थाओं में भारतीय वेशभूषा का ही प्रचलन व प्रभाव है। हां, डी.ए.वी. कालेज को आर्यसमाज के वेशभूषा विषयक प्रभाव में सम्मिलित स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

किसी मनुष्य जाति व धर्म के मानने वाले लोगों की अपनी परम्परायें व रीति-रिवाज भी होते हैं जो कि उनकी संस्कृति का अंग कहलाते हैं। भारतीय धर्म व संस्कृति की बात करें तो यहां भी अनेकानेक परम्परायें व रीति-रिवाज प्रचलित हैं जिनके संशोधन व सुधार सहित अनावश्यक का त्याग तथा भूली हुई आवश्यक परम्पराओं का पुनः प्रचलन स्वामी दयानन्द जी व आर्यसमाज ने किया है। स्वामी दयानन्द ने समस्त वैदिक परम्पराओं को पंच महायज्ञों व 16 वैदिक संस्कारों में ढ़ालने सहित भारत में मनायें जाने वाले मुख्य पर्वों होली, दीपावली, शिवरात्रि आदि पर्वों को वैदिक विधि से मनाये जाने का शुभारम्भ किया। वैदिक परम्पराओं में प्रातः व सायं ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र, माता-पिता-आचार्य-वृद्धों आदि का सम्मान, पशु-पक्षी-कीट-पतंगों आदि को अन्न व भोजन कराना तथा अतिथियों का सत्कार करने सहित गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त 16 संस्कारों को प्रचलित किया। आर्यसमाज अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि का पक्षधर है और सभी मनुष्यों को वेदादि ग्रन्थों सहित सभी प्रकार के ज्ञान की पुस्तकों को नियमित रूप से पढ़ने व पढ़ाने को जीवन का अनिवार्य अंग मानता है। आर्यसमाज वेदादि सभी लाभकारी ग्रन्थों के नियमित सवाध्याय का प्रबल समर्थक है। वैदिक संस्कृति में अच्छी परम्पराओं का प्रचलन व अनावश्यक एवं बुरी प्रथाओं के नियंत्रण का आर्यसमाज समर्थक है। इस क्षेत्र में आर्यसमाज ने बहुमूल्य योगदान दिया है। आर्यसमाज की प्रत्येक मान्यता व सिद्धान्त सत्य मान्यताओं व तर्कों पर आधारित हैं जिनसे समाज लाभान्वित होता है। इसी कारण सभी लोग अपनी अपनी ज्ञान की योग्यता के अनुसार इसे पसन्द करते व अपनाते हैं। यही कारण है कि आर्यसंमाज भारत तक ही सीमित न होकर एक विश्वव्यापी संगठन है।

 

मनुष्य का व्यवहार, व्यक्तिगत व सामाजिक नियम तथा विधि-विधान कैसें हों, इसके लिए आर्यसमाज वैदिक परम्पराओं व मनुस्मृति के अविवादित सभी बुद्धिसंगत व देश समाजोपयोगी नियमों को स्वीकार करता है। स्वामी दयानन्द ने ऐसे अधिकांश नियमों का सत्यार्थप्रकाश सहित अपने ग्रन्थों में उल्लेख भी किया है। इसके अतिरिक्त स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म के प्रतीक चोटी, यज्ञोपवीत व सिर पर पगड़ी धारण करने के भी समर्थक है। बहुत से लोग आर्यसमाज के एतदविषयक तर्कों से सहमत होने के कारण इनका अनुसरण करते हैं। महर्षि दयानन्द द्वारा वैदिक धर्म के विश्वास व नियम मान्यता व परम्परा को सत्य व असत्य की कसौटी पर कस कर निर्धारित किये गये हैं। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, पुनविर्वाह व विधवा विवाह व इतर कार्यों विषयक नियम, जन्मना जातिवाद, वर्णव्यवस्था, स्त्री शिक्षा आदि विश्वासों को भी सत्य व असत्य की कसौटी पर कस कर निर्धारित किया गया है जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। अधिकांश शिक्षित लोग आर्यसमाज की विचारधारा से सहमत हैं। आर्यसमाज ही देश की पहली संस्था है जिसने अंग्रेजों के दमनकारी शासन में स्वदेश भक्ति को उदबुद्ध किया जिसका परिणाम भारत को सन् 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानन्द व शहीद भगतसिंह जी का परिवार स्वामी दयानन्द व आर्यसमाज के अनुयायी थे। आजादी के आन्दोलन में आर्यसमाज के अनुयायी की संख्या सर्वाधिक थी ऐसा इतिहास में अंकित है।

 

स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज भारत की वैदिक कालीन प्राचीन व विशुद्ध संस्कृति के पोषक व पक्षधर थे और इसी को उन्होंने अपने घर्म व संस्कृति प्रचार के आन्दोलन में समाहित किया। इनका समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ और आज के वैज्ञानिक युग में इसका भविष्य उज्जवल स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आर्यसमाज के पास संस्कृति से सम्बन्धित संसार की सबसे प्राचीन पुस्तकें चार वेद व महाभारतकाल व उससे पूर्व लिखे गये मनुस्मृति, 6 दर्शन, उपनिषदें, रामायण व महाभारत आदि ग्रन्थ हैं। यह ग्रन्थ न केवल भारतीय वैदिक धर्मियों के लिए ही मान्य हैं अपितु यह सारे संसार के मनुष्यों के धर्म व संस्कृति के आदि व आदर्श स्रोत हैं और सनातन सर्वकल्याणकारी शिक्षाओं के ग्रन्थ हैं। विश्व को सभी पूर्वाग्रह छोड़कर वैदिक साहित्य का अध्ययन कर अपने मत-पन्थों की अविद्या से युक्त मान्यताओं व परम्पराओं को संशोधित व सुधार कर अपनाना चाहिये जिससे संस्कृति के क्षेत्र में एकरूपता आ सके।

मनमोहन कुमार आर्य

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