सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार

सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार

भाषार्थइससे जो अध्यापक विलसन साहेब और अध्यापक मोक्षमूलर साहेब आदि यूरोपखण्डवासी विद्वानों ने बात कही है कि- वेद मनुष्य के रचे हैं किन्तु श्रुति नहीं है, उनकी यह बात ठीक नहीं है। और दूसरी यह है-कोई कहता है (2400) चौबीस सौ वर्ष वेदों की उत्पत्ति को हुए, कोई (2900) उनतीस सौ वर्ष, कोई (3000) तीन हजार वर्ष और कोई कहता है (3100) इकतीस सौ वर्ष वेदों को उत्पन्न हुए बीते हैं, उनकी यह भी बात झूठी है। क्योंकि उन लोगों ने हम आर्य्य लोगों की नित्यप्रति की दिनचर्या का लेख और संकल्प पठनविद्या को भी यथावत् न सुना और न विचारा है, नहीं तो इतने ही विचार से यह भ्रम उनको नहीं होता। इससे यह जानना अवश्य चाहिए कि वेदों की उत्पत्ति परमेश्वर से ही हुई है, और जितने वर्ष अभी ऊपर गिन आये हैं उतने ही वर्ष वेदों और जगत् की उत्पत्ति में भी हो चुके हैं। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जिन-जिन ने अपनी-अपनी देश भाषाओं में अन्यथा व्याखयान वेदों के विषय में किया है, उन-उन का भी व्याखयान मिथ्या है। क्योंकि जैसा प्रथम लिख आये हैं जब पर्यन्त हजार चतुर्युगी व्यतीत न हो चुकेंगी तक पर्यन्त ईश्वरोक्त वेद का पुस्तक, यह जगत् और हम सब मनुष्य लोग भी ईश्वर के अनुग्रह से सदा वर्त्तमान रहेंगे।

भाषार्थ इसमें विचारना चाहिये कि वेदों के अर्थ को यथावत् विना विचारे उनके अर्थ में किसी मनुष्य को हठ से साहस करना उचित नहीं, क्योंकि जो वेद सब विद्याओं से युक्त हैं, अर्थात् उनमें जितने मन्त्र और पद हैं, वे सब सपूर्ण सत्यविद्याओं के प्रकाश करनेवाले हैं। और ईश्वर ने वेदों का व्याखयान भी वेदों से कर रखा है, क्योंकि शबद धात्वर्थ के साथ योग रखते हैं। इसमें निरुक्त का भी प्रमाण है, जैसा कि यास्कमुनि ने कहा – (तत्प्रकृतीत0) इत्यादि। वेदों के व्याखयान करने के विषय में ऐसा समझना चाहिए कि जब तक सत्य प्रमाण, सुतर्क, वेदों के शबदों का पूर्वापर प्रकरणों, व्याकरण आदि वेदांगों, शतपथ आदि ब्राह्मणों, पूर्वमीमांसा आदि शास्त्रों और शास्त्रकारों का यथावत् बोध न हो, और परमेश्वर का अनुग्रह, उत्तम विद्वानों की शिक्षा, उनके संग से पक्षपात छोड़ के आत्मा की शुद्धि न हो, तथा महर्षि लोगों के किये व्याखयानों को न देखें, तब तक वेदों के अर्थ का यथावत् प्रकाश मनुष्य के हृदय में नहीं होता। इसलिये सब आर्य विद्वानों का सिद्धान्त है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से युक्त जो तर्क है, वही मनुष्यों के लिये ऋषि है।

इससे यह सिद्ध होता है कि जो सायणाचार्य और महीधरादि अल्पबुद्धि लोगों के झूठे व्याखयानों को देख के आजकल के आर्यावर्त्त और यूरोपदेश के निवासी लोग जो वेदों के ऊपर अपनी-अपनी देश-भाषाओं में व्याखयान करते हैं, वे ठीक-ठीक नहीं हैं, और उन अनर्थयुक्त व्याखयानों के मानने से मनुष्यों को अत्यन्त दुःख प्राप्त होता है। इससे बुद्धिमानों को उन व्याखयानों का प्रमाण करना योग्य नहीं। ‘तर्क’ का नाम ऋषि होने से सब आर्य लोगों का सिद्धान्त है सब कालों में अग्नि जो परमेश्वर है, वही उपासना करने के योग्य है।

भाषार्थजगत् के कारण=प्रकृति में जो प्राण हैं, उनको प्राचीन, और उसके कार्य में जो प्राण हैं, उनको नवीन कहते हैं। इसलिये सब विद्वानों को उन्हीं ऋषियों के साथ योगायास से अग्नि नामक परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी योग्य है। इतने से ही समझना चाहिये कि भट्ट मोक्षमूलर साहेब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ ठीक-ठीक नहीं जाना है।

भाषार्थजैसे ‘छन्द’ और‘मन्त्र’ ये दोनों शबद एकार्थवाची अर्थात् संहिता भाग के नाम हैं, वैसे ही ‘निगम’ और ‘श्रुति’ भी वेदों के नाम हैं। भेद होने का कारण केवल अर्थ ही है। वेदों का नाम ‘छन्द’ इसलिये रखा है कि वे स्वतन्त्र प्रमाण और सत्यविद्याओं से परिपूर्ण हैं तथा उनका ‘मन्त्र’ नाम इसलिये है कि उनसे सत्यविद्याओं का ज्ञान होता है और ‘श्रुति’ इसलिये कहते हैं कि उनके पढ़ने, अभयास करने और सुनने से सब पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो उसको ‘निगम’ कहते हैं। इससे यह चारों शबद पर्याय अर्थात् एक अर्थ के वाची हैं, ऐसा ही जानना चाहिये।

भाषार्थ वैसे ही अष्टाध्यायी व्याकरण में भी छन्द, मन्त्र और निगम ये तीनों नाम वेदों के ही हैं। इसलिये जो लोग इनमें भेद मानते हैं उनका वचन प्रमाण करने के योग्य नहीं।

प्रश्न प्रथम इस देश का नाम क्या था और इसमें कौन बसते थे?

उत्तरइसके पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्य्यों के पूर्व इस देश में बसते थे। क्योंकि आर्य्य लोग सृष्टि की आदि में कुछ काल के पश्चात् तिबबत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे।

प्रश्न कोई कहते हैं कि ये लोग ईरान से आये। इसी से इन लोगों का नाम ‘आर्य’ हुआ है। इनके पूर्व यहाँ जंगली लोग बसते थे कि जिनको ‘असुर’ और ‘राक्षस’ कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उनका जब संग्राम हुआ, उसका नाम ‘देवासुरसंग्राम’ कथाओं में ठहराया।

उत्तर यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि- वि जानीह्यार्यान् ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान।। ऋ0 म0 1। सू051। मं08।।

उत शूद्र उतार्ये।।

-यह भी अथर्ववेद कां0 19। सू062। मं01 का प्रमाण है।। हम लिख चुके हैं कि ‘आर्य’ नाम धार्मिक, विद्वान्, आप्त पुरुषों का और इनसे विपरीत जनों का नाम ‘दस्यु’ अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है। तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, द्विजों का नाम ‘आर्य’ और शूद्र का नाम ‘अनार्य्य’ अर्थात् ‘अनाड़ी’ है। जब वेद यह कहता है तो दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। और देवासुर-संग्राम में आर्य्यावर्त्तीय अर्जुन तथा महाराजे दशरथ आदि जो कि हिमालय पहाड़ में आर्य विद्वान् और दस्यु, लेच्छ असुरों का जो युद्ध हुआ था, उसमें ‘देव’ अर्थात् आर्य्यों की रक्षा और असुरों के पराजय करने को सहायक हुए थे। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्य्यावर्त्त (के) बाहर चारों ओर जो हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान देश में मनुष्य रहते हैं उन्हीं का नाम ‘असुर’ सिद्ध होता है। क्योंकि जब-जब हिमालय-प्रदेशस्थ आर्य्यों पर लड़ने को चढ़ाई करते थे, तब-तब यहाँ के राज महाराजे लोग उन्हीं उत्तर आदि देशों में आर्य्यों के सहायक होते थे। और जो श्रीरामचन्द्रजी से दक्षिण में युद्ध हुआ है, उसका नाम ‘देवासुर संग्राम’ नहीं है, किन्तु राम-रावण अथवा आर्य्य और राक्षसों का संग्राम कहते हैं। किसी संस्कृत ग्रन्थ वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जङ्गलियों को लड़ कर , जय पाके, निकाल के, इस देश के राजा हुए, पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? और

आर्यावाचो लेच्छवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः।।1।।                         – मनु0 (तु0-10। 45)।।

लेच्छदेशस्त्वतः परः।।2।।  मनु0(2। 23)

जो आर्यावर्त्त देश से भिन्न देश हैं, वे ‘दस्युदेश’ और ‘लेच्छदेश’ कहाते हैं। इससे भी यह सिद्ध होता है कि  आर्य्यावर्त्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर ईशान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम ‘दस्यु’ और ‘लेच्छ’ तथा ‘असुर’ है।  और नैर्ऋत, दक्षिण तथा आग्न्रेय दिशाओं में आर्य्यावर्त्त देश से भिन्न रहने वाले मनुष्यों का नाम ‘राक्षस’ है।

और जितनी विद्या भूगोल में फैली है, वह सब आर्य्यावर्त्त देश से मिश्रवालों, उनसे यूनानी, उनसे रोम और उनसे यूरोप देश में, उनसे अमेरिका आदि देशों में फैली है। अब तक जितना प्रचार संस्कृत विद्या का आर्य्यावर्त्त देश में है उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि जर्मनदेश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहने मात्र है। क्योंकि ‘यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते’ अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता, उस देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों  और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा सा पढ़ा, वही उस देश के लिए अधिक है। परन्तु आर्य्यावर्त्त देश की ओर देखें, तो उनकी बहुत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मन देशनिवासी के-एक ‘प्रिन्सिपल’ के पत्र से जाना कि जर्मन देश में संस्कृत-चिट्ठी का अर्थ करनेवाले भी बहुत कम हैं। और मोक्षमूलर साहेब के संस्क़ृत-साहित्य और थोड़ी-सी वेद की व्याखया देखकर मुझको विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर-उधर आर्य्यावर्त्तीय लोगों की की हुई टीका देखकर कुछ-कुछ यथा-तथा लिखा है। जैसा कि-

‘युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः।

रोचन्ते रोचना दिवि।।

इस मन्त्र का अर्थ ‘घोड़ा’ किया है। इससे तो जो सायणाचार्य ने ‘सूर्य्य’ अर्थ किया है सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ ‘परमात्मा’ है, सो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। उसमें इस मन्त्र का अर्थ यथार्थ किया है। इतने से जान लीजिये कि जर्मन देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत-विद्या का कितना पाण्डित्य है।

यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्य्यावर्त्त देश ही से प्रचरित हुए हैं। देखो! एक जैकालियट साहब पैरस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी ‘बायबिल इन इण्डिया’ में लिखते हैं कि-‘‘सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्य्यावर्त्त देश है सब विद्या और मत इसी देश से फैले हैं’’ और परमात्मा की प्रार्थना करते हैं कि ‘‘हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्य्यावर्त्त देश की पूर्व काल में थी, वैसी ही हमारे देश की कीजिये’’, सो उस ग्रन्थ में देख लो। तथा  ‘दाराशिकोह’ बादशाह ने भी यही निश्चय किया था कि जैसी पूरी विद्या संस्कृत में है, वैसी किसी भाषा में नहीं। वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि -‘‘मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषा पढ़ीं, परन्तु मेरे मन का सन्देह छूट कर आनन्द न हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब निःसन्देह होकर मुझको बड़ा आनन्द हुआ है’’ देखो, काशी के ‘मानमन्दिर’ में शशिमालचक्र को कि जिसकी पूरी रक्षा भी नहीं रही है, तो भी कितना उत्तम है कि जिसमें अब तक भी खगोल का बहुत सा वृत्तान्त विदित होता है। जो ‘सवाई जयपुराधीश’ उसकी सम्भाल और फूटे-टूटे को  बनवाया करेंगे  तो बहुत अच्छा होगा। परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह?

विनाशकाले विपरीतबुद्धिः।। चाणक्यनीतिदर्पण अ0 16। श्लो0 5 ।।

 

 

4 thoughts on “सन्दर्भ-1 ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं सत्यार्थ प्रकाश में मैक्समूलर से सबन्धित महर्षि के विचार”

  1. I have read your article and I think there is an urgent need to write these kind of articles in English. We need to expose the western pseudo Sanskrit scholars like Max Muller, William Jones, Alexander Hamilton and professor Griffith who was teaching an Banaras Hindu college.
    I would appreciate if you get back to me at rvsharma@rogers.com

    Thanks,

    Rajinder Sharma

    1. राजेन्द्र शर्मा जी
      हम प्रयास में है की इंग्लिश में भी आर्टिकल लिखे और बहुत जल्द कई आर्टिकल साईट पर डालने की कोशिश की जा रही है | हमारे पास लोगो का आभाव होने के कारण हम कई कार्य को नहीं कर पा रहे हैं | यदि आप हमसे जुड़ना चाहते हैं तो fb पेज पर msg करे और हमसे जुड़े | वैसे बहुत जल्द इंग्लिश में भी कई आर्टिकल आयेंगे और कई आर्टिकल अभी हमारे साईट पर हैं उसे भी आप पढ़ सकते हो जी |
      धन्यवाद

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *