Category Archives: महर्षि दयानंद सरस्वती

‘पं. विष्णुलाल शर्मा द्वारा ऋषि दयानन्द के दर्शन का वृतान्त’

ओ३म्

‘पं. विष्णुलाल शर्मा द्वारा ऋषि दयानन्द के दर्शन का वृतान्त’

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

पं. विष्णुलाल शर्मा उत्तर प्रदेश में अवकाश प्राप्त सब जज रहे। स्वामी दयानन्द जब बरेली आये तब वहां 11 वर्ष की अवस्था में पं. विष्णुलाल शर्मा जी ने उनके दर्शन किए थे। उन्होंने इसका जो प्रमाणित विवरण स्वस्मृति से लेखबद्ध किया उसका वर्णन कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि श्री स्वामी दयानन्द जी महाराज जब बरेली आकर लाला लक्ष्मीनारायण खंजाची साहूकार की कोठी में निवास कर रहे थे, तब मैंने उनके दर्शन किये। उस समय मेरी आयु 11 वर्ष की थी। व्याख्यान में बड़ी भीड़ होती थी परन्तु एक अजीब सा सन्नाटा सभा में दिखाई देता था। प्रशान्त सरोवर की तरह लोग शान्त चित्त होकर आपके मनोहर वचनों को सुनते थे। आपका वेश बड़ा सादा था। आप टोपा और मिर्जई पहने चौकी पर वीरासन लगाये एक देवमूर्ति के समान देदीप्यमान दिखाई देते थे। स्वर बड़ा मधुर तथा गम्भीर था। बहुत से आदमी तो आपका स्वरूप और शारीरिक अवस्था देखने तथा बहुत से श्लोक और मंत्र सुनने के लिए ही जाते थे। निदान सब ही आपके दर्शन से कुछ कुछ प्राप्त कर लेते थे। मेरे चित्त में तभी से वैदिक धर्म का वह अंकुर उत्पन्न हुआ। मैं जब आगरा कालेज चला गया तो वहां पर देखा कि एक साधरण व्यक्ति चौबे कुशलदेव, जिन्होंने कि कुछ दिन तक स्वामी जी की रोटी बनाते हुए उनके चरणों की सेवा की थी, एक अच्छे उपदेश बन गये थे।

 

यह भी जान लेते हैं कि स्वामी दयानन्द 14 अगस्त सन् 1879 को बरेली आये थे और यहां 3 सितम्बर सन् 1879 तक 21 दिनों तक यहां रहे थे। इसी बीच उन्होंने यहां अनेक प्रवचन वा उपदेश दिये। आर्यजगत के विख्यात संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द ने भी अपनी किशोरावस्था में बरेली में ही स्वामी दयानन्द जी के दर्शन किये थे। इस दर्शन और दोनों, गुरु व शिष्य, के परस्पर वार्तालाप व शंका समाधान का ही परिणाम था कि स्वामी श्रद्धानन्द जो पहले लाला मुंशीराम जी कहलाते थे, वह महात्मा मुंशीराम होते हुए स्वामी श्रद्धानन्द बने और देश व समाज की उल्लेखनीय सेवा की। महर्षि दयानन्द की गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति को साक्षात क्रियान्वयन का श्रेय भी उन्हीं को है। देश की आजादी से लेकर समाज सुधार और दलितोत्थान आदि अनेकानेक समाजोत्थान के महनीय कार्य उन्होंने किये।

 

पं. विष्णुलाल शर्मा जी से संबंधित उपर्युक्त विवरण सन् 1925 में आर्यमित्र पत्र के दयानन्द-जन्म-शताब्दी अंक में प्रकाशित हुआ था। इसका उल्लेख महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व व कृतित्व को अपने जीवन में अपने चिन्तन व लेखन का लक्ष्य बनाने वाले आर्यजगत के वयोवृद्ध विद्वान डा. भवनानीलाल भारतीय जी ने मैंने ऋषि दयानन्द को देखा पुस्तक में भी प्रकाशित किया है। वही मुख्यतः हमारे इस लेख का आधार है। उनका हार्दिक धन्यवाद करते हैं। महर्षि दयानन्द ने व्यक्तित्व का ही कमाल है कि उनके यहां एक रोटी बनाने वाला व्यक्ति धर्मोपदेशक बन गया। हम स्वयं भी ऋषि दयानन्द के साहित्य को पढ़कर व विद्वानों के उपदेश सुनकर आज लेखों के माध्यम से कुछ नाम मात्र सेवा कर पा रहे हैं। महर्षि दयानन्द को सादर प्रणाम। मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सब तोर, तेरा तुझको सौंपते क्या लागत है मोर। इति।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘शहीद भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह और ऋषि दयानन्द’

ओ३म्

शहीद भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह और ऋषि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

देश की गुलामी को दूर कर उसे स्वतन्त्र कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीद भगत सिंह के पिता का नाम सरदार किशन सिंह  और दादा का नाम सरदार अर्जुन सिंह था। सरदार अर्जुन सिंह जी ने महर्षि दयानन्द के साक्षात दर्शन किये थे और उनके श्रीमुख से अनेक उपदेशों को भी सुना था। ऋषि दयानन्द जी के उपदेशों का उनके मन व मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा था और उन्होंने मन ही मन वैदिक विचारधारा को अपना लिया था। आप जालन्धर जिले के खटकड़कलां ग्राम के रहने वाले थे। सन् 1890 में आपने विधिवत आर्यसमाज की सदस्यता स्वीकार की और आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा व सिद्धान्तों का उत्साहपूर्वक प्रचार करने लगे। आपका आर्यसमाज और वैदिक धर्म से गहरा भावानात्मक संबंध था। इसका प्रमाण था कि आपने अपने दो पोतों श्री जगतसिंह और भगतसिंह का यज्ञोपवीत संस्कार वैदिक विघि से कराया था। यह संस्कार आर्यजगत के विख्यात विद्वान पुरोहित और शास्त्रार्थ महारथी पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति के आचार्यात्व में महर्षि दयानन्द लिखित संस्कार विधि के अनुसार सम्पन्न हुए थे। यह पं. लोकनाथ तर्कवाचस्पति श्री राकेश शर्मा के दादा थे जिन्होंने अमेरिका के चन्द्रयान में जाकर चन्द्रमा के चक्कर लगाये थे।

 

सरदार अर्जुन सिंह जी ने सिख गुरुओं की शिक्षाओं को वेदों के अनुकूल सिद्ध करते हुए एक उर्दू की पुस्तक हमारे गुरु साहबान वेदों के पैरोकार थे लिखी थी जो वर्मन एण्ड कम्पनी लाहौर से छपी थी। वह यज्ञ कुण्ड अपने साथ रखते थे और प्रतिदिन यज्ञ-हवन-अग्निहोत्र भी करते थे। उनका वैदिक धर्म व संस्कृति एवं महर्षि दयानन्द के प्रति दीवानापन अनुकरणीय था। सरदार अर्जुन सिंह जी का निधन महर्षि दयानन्द अर्धनिर्वाण षताब्दी वर्ष सन् 1933 में हुआ था। यह स्वाभाविक नियम है कि पिता के गुण उसके पुत्र में सृष्टि नियम के अनुसार आते हैं। पिता प्रदत्त यह संस्कार भावी संन्तानों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश और आर्याभिविनय में देश भक्ति की अनेक बातें कहीं है जिसका प्रभाव उनके अनुयायियायें पर पड़ा। हमारा अनुमान है कि दयानन्द जी की देशभक्ति के गुणों का संचरण परम्परा से सरदार अर्जुन सिह जी व उनके परिवार में हुआ था।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘पंडित चमूपति द्वारा अमर दयानन्द का स्तवन’

ओ३म्

पंडित चमूपति द्वारा अमर दयानन्द का स्तवन

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

पंडित चमूपति आर्यसमाज के विलक्षण विद्वान सहित हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, अरबी व फारसी आदि अनेक भाषाओं के विद्वान थे। आपने कई भाषाओं में अनेक प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की है। गुरुकुल में अध्यापन भी कराया, आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के उपदेशक व प्रचारक भी रहे। सोम सरोवर, चौदहवीं का चांद, जवाहिरे जावेद आदि आपकी प्रसिद्ध रचनायें हैं। सोम सरोवर ऐसी रचना है जिसका स्वाध्याय कर पाठक इस वेद ज्ञान की गंगा रूपी सोम सरोवर में स्नान का सा भरपूर आनन्द ले सकते हैं। इस ग्रन्थ में आपका लिखा एक एक शब्द अनमोल व पठनीय है जिसमें ईश्वर, वेद, व ऋषि दयानन्द के प्रति गहरी श्रद्धा व भक्ति के भाव भरे हुए हैं। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने पं. चमूपति जी की विस्तृत जीवनी कविर्मनीषी पं. चमूपति के नाम से लिखी है जिसने इस विभूति को अमर कर दिया है। आज के इस संक्षिप्त लेख में हम पं. चमूपति जी की ऋषि दयानन्द को भाव भरित दयानन्द वन्दन रूपी श्रद्धांजलि के कुछ प्रेरणा व प्रभावशाली शब्दों को  प्रस्तुत कर रहे हैं। आप इन शब्दों को पढ़ेंगे तो यह दयानन्द स्तवन आपकी ओर से ऋषि के प्रति श्रद्धांजलि होगी। इसे पढ़कर इसका आनन्द अवश्य लें।

 

पं. चमूपति जी लिखते हैं कि आज केवल भारत ही नहीं, सारे धार्मिक सामाजिक, राजनैतिक संसार पर दयानन्द का सिक्का है। मतों के प्रचारकों ने अपने मन्तव्य बदल लिए हैं, धर्म पुस्तकों के अर्थों का संशोधन किया है, महापुरुषों की जीवनियों में परिवर्तन किया है। स्वामी जी का जीवन इन जीवनियों में बोलता है। ऋषि मरा नहीं करते, अपने भावों के रूप में जीते हैं। दलितोद्धार का प्राण कौन है? पतित पावन दयानन्द। समाज सुधार की जान कौन है? आदर्श सुधारक दयानन्द। शिक्षा के प्रचार की प्रेरणा कहां से आती है? गुरुवर दयानन्द के आचरण से। वेद का जय जयकार कौन पुकारता है? ब्रह्मार्षि दयानन्द। माता आदि देवियों के सत्कार का मार्ग कौन सिखाता है? देवी पूजक दयानन्द। गोरक्षा के विषय में प्राणिमात्र पर करूणा दिखाने का बीड़ा कौन उठाता है? करुणानिधि दयानन्द।

           

            आओ ! हम अपने आप को ऋषि दयानन्द के रंग में रंगें। हमारा विचार ऋषि का विचार हो, हमारा आचार ऋषि का आचार हो, हमारा प्रचार ऋषि का प्रचार हो। हमारी प्रत्येक चेष्टा ऋषि की चेष्टा हो। नाड़ी नाड़ी से ध्वनि उठेमहर्षि दयानन्द की जय। 

 

            पापों और पाखण्डों से ऋषि राज छुड़ाया था तूने।

भयभीत निराश्रित जाति को, निर्भीक बनाया था तूने।।

बलिदान तेरा था अद्वितीय हो गई दिशाएं गुंजित थी।

जन जन को देगा प्रकाश वह दीप जलाया था तूने।।

 

हमारा सौभाग्य है और अपने इस सौभाग्य पर हमें गर्व है कि हम महर्षि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित ईश्वरीय ज्ञान वेदों के अनुयायी है। महर्षि दयानन्द द्वारा प्रदर्शित मार्ग ऐहिक व पारलौकिक उन्नति अथवा अभ्युदय व निःश्रेयस प्राप्त कराता है। इसे यह भी कह सकते हैं कि वेद मार्ग योग का मार्ग है जिस पर चल कर धर्म, अर्थ काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। संसार की यह सबसे बड़ी सम्पादायें हैं। अन्य सभी भौतिक सम्पदायें तो नाशवान है परन्तु दयानन्द जी द्वारा दिखाई व दिलाई गई यह सम्पदायें जीते जी तो सुख देती ही हैं, मरने के बाद भी लाभ ही लाभ पहुंचाती हैं। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘मत-पंथों की विज्ञान एवं मनुष्य स्वभाव विषयक असत्य मान्यतायें’

ओ३म्

मतपंथों की विज्ञान एवं मनुष्य स्वभाव विषयक असत्य मान्यतायें

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत व विदेशों में प्रचलित सभी मत-मतान्तर आज से पांच हजार एक सौ 118 वर्ष पूर्व हुए महाभारत के विनाशकारी युद्ध के बाद अस्तित्व में आये हैं। महाभारत युद्ध के बाद न केवल भारत अपितु विदेशों में भी अविद्यान्धकार छा गया था। इस कारण सर्वत्र अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियां फैल गईं थीं। इन्हें दूर करने के लिए समय-समय पर कुछ महात्मा देश-देशान्तर में हुए और उन्होंने समाज सुधार की दृष्टि से प्रचार किया। उन्होंने अथवा उनके अनुयायियों ने उनके नाम पर मत स्थापित कर दिए और उनकी शिक्षाओं के आधार पर अपने अपने मत-पन्थ-धर्म के ग्रन्थ बना दिये। यह सर्वविदित व सर्वमान्य तथ्य है कि मनुष्य अल्पज्ञ होता है। अतः उसकी कुछ बातें सत्य व कुछ, अल्पज्ञता के कारण, असत्य भी हुआ करती हैं। महर्षि दयानन्द इस तथ्य को भली प्रकार से जानते थे इसलिए उन्होंने कहा है कि मैं सर्वज्ञ नहीं हूं। सर्वज्ञ तो केवल परमात्मा हैं। इसलिए दयानन्द जी की भी कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जो सत्य न हो। उसके लिए उन्होंने विद्वानों को परीक्षा करने व यदि उनकी कोई मान्यता व विचार वस्तुतः असत्य पाया जाये तो उसके संशोधन का अधिकार भी उन्होंने स्वयं अपने अनुयायियों को दिया है। यह बात अन्य किसी मत में नहीं है। मतों की सत्य व असत्य मान्यताओं के अन्वेषण व परीक्षा हेतु ही ऋषि दयानन्द सत्यासत्य के खण्डन-मण्डन में प्रवृत्त हुए थे जिससे उन उन मतों में उपलब्ध सत्य को जानने के साथ उनके अनुयायी असत्य से भी परिचित हो सकें और उससे सबको परिचित कराकर सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए प्रेरित कर सके। ऐसा इसलिए क्योंकि सत्य ही एकमात्र मनुष्य जाति की उन्नति का कारण है। यदि कोई व्यक्ति अपने मत की असत्य बातांे को नहीं छोड़गा तो सृष्टि की प्रलयावस्था तक भी वह सत्य को प्राप्त न होने के कारण उन्नति नहीं कर सकता।

 

एक प्रमुख मत का अध्ययन करते हुए महर्षि दयानन्द के सम्मुख उस मत के प्रवर्तक की यह मान्यता दृष्टिगोचर हुई जिसमें कहा गया है कि ईश्वर ने सूर्य व चन्द्र को फिरने वाला (घूमने वाला या गति करने वाला) किया है। इसी प्रसंग में उस मत में यह भी कहा गया है कि निश्चय मनुष्य अवश्य अन्याय और पाप करने वाला है।

 

महर्षि दयानन्द ने इस साम्प्रदायिक वा पन्थीय मान्यता पर विचार कर लिखा है कि क्या चन्द्र, सूर्य सदा फिरते और पृथिवी नहीं फिरती? जो पृथिवी नहीं फिरे तो कई वर्ष का दिन रात होंवे। (यदि पृथिवी अपनी धूरी पर न घूमे तो रात्रि व दिन नहीं हांेगे और यदि सूर्य की परिक्रमा न करे तो फिर दिन, महीने व वर्ष की काल गणना भी नहीं हो सकती। पृथिवी यदि न घूमती होती तो पृथिवी व चन्द्रमा गुरुत्वाकर्षण के कारण एक दूसरे से टकरा कर कब के नष्ट भ्रष्ट हो जाते। ऋतु परिवर्तन भी पृथिवी के घूमने के कारण होता है, वह भी पृथिवी के घूमने व गति न करने से न होता।) और जो मनुष्य निश्चय (स्वभाव से) अन्याय और पाप करने वाला है तो धर्म प्रवत्र्तक का धर्म ग्रन्थ के द्वारा शिक्षा करना व्यर्थ है। क्योंकि जिनका (मनुष्यों का) स्वभाव ही पाप करने का है तो उन में पुण्यात्मता कभी न होगी (क्योंकि वस्तु का स्वभाव अपरिवर्तनीय होता है) और संसार में पुण्यात्मा और पापात्मा सदा दीखते हैं। (इन दोनों प्रकार के लोगों के पाये जाने से यह ज्ञात होता है यह गुण स्वभाव के कारण नहीं अपतिु ज्ञान, शिक्षा व पूर्व जन्म के संस्कार आदि के निमित्त से व संगति आदि के कारण हैं।) इसलिये ऐसी बात (सत्य के विपरीत बात) ईश्वरकृत पुस्तक की नहीं हो सकती। (निभ्र्रान्त व पूर्णसत्यमय ग्रन्थ केवल वेद हैं जो ईश्वर प्रदत्त हैं।)।

 

हम आशा करते हैं कि आर्य व अन्य सभी पाठक ऋषि दयानन्द के विचारों से सहमत होंगे। हम निवेदन करते हैं कि सत्य व असत्य के ज्ञान के लिए पाठक सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का अध्ययन करें। इसे पढ़कर और आचरण में लाकर उनका मानव जीवन सफल हो सकता है।

                                                                                                                                       –मनमोहन कुमार आर्य

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‘आर्यसमाज की स्थापना के समय ऋषि दयानन्द द्वारा व्यक्त की गई आशंका’

ओ३म्

आर्यसमाज की स्थापना के समय ऋषि दयानन्द द्वारा व्यक्त की गई आशंका

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने 10 अप्रैल, सन् 1875 के दिन मुम्बई के गिरगांव मोहल्ले में प्रथम आर्य समाज की स्थापना की थी। वर्तमान में यह आर्यसमाज काकाड़वाडी के नाम से प्रसिद्ध है। हमारा सौभाग्य है कि वर्ष, 1992 में एक बार हमें इस आर्यसमाज में जाने व वहां प्रातःकालीन यज्ञ में यजमान के आसन पर बैठने का अवसर मिला। आर्यसमाज अन्य धार्मिक संस्थाओं की तरह कोई संस्था या प्रचलित मतों की भांति कोई नवीन मत नहीं था। यह एक धार्मिक व सामाजिक आन्दोलन था जिसका उद्देश्य महाभारत काल के बाद वैदिक धर्म में आई अशुद्धियों, अज्ञान, अन्धविश्वासों व कुरीतियों आदि का संशोधन कर, वेद के आदर्श कृण्वन्तो विश्वमार्यम् वा सत्य वैदिक मत का प्रचार कर उसको देश देशान्तर में प्रतिष्ठित करना था। यह सुविदित है कि जब महर्षि दयानन्द जी ने आर्यसमाज की स्थापना की, उस समय देश अंग्रेजों का गुलाम था। महाभारत काल के बाद लगभग 5,000 वर्षों से लोग अज्ञान, अन्धविश्वासों सहित गुलामी का जीवन बिताने के कारण वह कुरीतियों के एक प्रकार से अभ्यस्त हो गये थे। बहुत से लोगों को महर्षि दयानन्द के सुधार व असत्य मतों के खण्डन के पीछे मनुष्य व देशहित की छिपी भावना के दर्शन नही होते थे। उस समय की अवस्था के विषय में यह कह सकते हैं कि अधिकांश देशवासियों के ज्ञान चक्षु अति मन्द दृष्टि के समान हो गये थे जिसमें उनको अपना स्पष्ट हित भी दिखाई देना बन्द हो गया था और वह एक प्रकार से विनाशकारी मार्ग, अन्धविश्वास व कुरीतियों का मार्ग, पर चल रहे थे। उनमें से अधिकांश अपनी अज्ञानता व कुछ अपने स्वार्थों को बनायें व बचायें रखने के लिए उनका विरोध करते थे। ऋषि दयानन्द के विचारों व मान्यताओं में स्वदेश भक्ति वा स्वदेश प्रेम की मात्रा भी विशेष उन्नत व प्रखर थी। इस कारण अंग्रेज भी आन्तरिक व गुप्त रूप से उनके विरोधी व शत्रु थे। ऐसी परिस्थितियों में ऋषि दयानन्द ने व्यक्ति, समाज व देश के सुधार के लिए आर्यसमाज की स्थापना की। इस स्थापना के समय ही महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज से जुड़़ने वाले लोगों को एक चेतावनी भी दी थी जिसे हम आज पाठकों को ज्ञानार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द द्वारा इस अवसर पर कहे गये शब्द लिखित रूप में उपलब्ध हैं। वह स्थापना के समय उपस्थित सभी लोगों का आह्वान करते हुए कहते हैं कि आप यदि समाज (बनाकर इस) से (मिलकर सामूहिक) पुरुषार्थ कर परोपकार कर सकते हों, (तो) समाज कर लो (बना लो), इस में मेरी कोई मनाई नहीं। परन्तु इसमें यथोचित व्यवस्था रखोगे तो आगे गड़बड़ाध्याय (अव्यवस्था) हो जाएगा। मैं तो मात्र जैसा अन्य को उपदेश करता हूं वैसा ही आपको भी करूंगा और इतना लक्ष में रखना कि कोई स्वतन्त्र मेरा मत नहीं है। और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूं। इस से यदि कोई मेरी गलती आगे पाइ जाए, युक्तिपूर्वक परीक्षा करके इस को भी सुधार लेना। यदि ऐसा करोगे तो आगे यह भी एक मत हो जायेगा, और इसी प्रकार से बाबा वाक्यं प्रमाणं करके इस भारत में नाना प्रकार के मतमतान्तर प्रचलित होके, भीतर भीतर दुराग्रह रखके धर्मान्ध होके (आपस में) लड़के नाना प्रकार की सद्विद्या का नाश करके यह भारतवर्ष दुर्दशा को प्राप्त हुआ है इसमें, यह (आर्यसमाज) भी एक मत बढ़ेगा। मेरा अभिप्राय तो है कि इस भारतवर्ष में नाना प्रकार के मतमतान्तर प्रचलित है वो भी () वे सब वेदों को मानते हैं, इस से वेदशास्त्ररूपी समुद्र में यह सब नदी नाव पुनः मिला देने से धर्म ऐक्यता होगी और धर्म ऐक्यता से सांसारिक और व्यवहारिक सुधारणा होगी और इससे कला कौशल्यादि सब अभीष्ट सुधार होके मनुष्यमात्र का जीवन सफल होके अन्त में अपने धर्म (के) बल से अर्थ काम और मोक्ष मिल सकता है।

 

महर्षि धर्म संशोधक ऋषि व समाज सुधारक महामानव थे। उनसे पूर्व उत्पन्न किसी धर्म प्रवर्तक वा समाज संशोधक ने अपने विषय में ऐसे उत्तम विचार व्यक्त नहीं किये। यदि किये भी होंगे तो उनके शिष्यों द्वारा उनका रक्षण नहीं किया गया। इन विचारों को व्यक्त करने से ऋषि दयानन्द एक अपूर्व निःस्वार्थ व निष्पक्ष महात्मा तथा आदर्श धर्म संशोधक समाज सुधारक ऋषि सिद्ध होते हैं। ऋषि दयानन्द ने जो आशंका व्यक्त की थी उसका प्रभाव हम आर्यसमाज के संगठन में देख सकते हैं। आर्यसमाज का संगठन गुटबाजी व अयोग्य लोगों के पदों पर प्रतिष्ठित होने से त्रस्त है। सभाओं में भी झगड़े देखने को मिलते हैं। इन्हें समाप्त करने के झुट पुट प्रयत्न भी हाते हैं परन्तु सफलता नहीं मिलती। इसका मूल कारण अविद्या है जिसे दूर नही किया जा सक रहा है। यही कारण है कि आर्यसमाज के सामने मनुष्य के जीवन व चरित्र के सुधार सहित जीवन निर्माण का जो महान लक्ष्य था, वह पूरा न हो सका। हम आर्यसमाज के सभी अधिकारियों व सदस्यों को ऋषि दयानन्द के उपर्युक्त विचारों पर ध्यान देने व विचार करने का अनुरोध करते हैं। यदि हमने ऋषि के सन्देश को समझ कर, अपनी अविद्या को हटाकर, उसको आचरण में ले लिया तो पूर्व की भांति आर्यसमाज सहित देश का कल्याण हो सकता है। इसी के साथ इन पंक्तियों को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सृष्टि उत्पत्ति विषयक वैदिक सिद्धान्त और महर्षि दयानन्द’

ओ३म्

सृष्टि उत्पत्ति विषयक वैदिक सिद्धान्त और महर्षि दयानन्द

 

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में महाभारत काल के बाद उत्पन्न मत-मतान्तरों के साहित्य में अनेक प्रकार की अवैज्ञानिक व अविश्वनीय विचार पायें जाते हैं। महर्षि दयानन्द इन सबमें अपवाद हैं। उनके जीवन में शिवरात्रि को घटी चूहे की घटना बताती है कि उन्होनें किशोरावस्था में ही जीवन की सभी बातों को तर्क व युक्ति के आधार पर सिद्ध होने पर ही स्वीकार करने का मन बना लिया था। यही कारण था कि वइ ईश्वर, जीव, प्रकृति व सृष्टि विषयक सत्य ज्ञान की खोज में अनेक वर्षों तक अध्ययन व अनुसंधान आदि करते रहे। उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति विषयक अपने विचार मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में व्यक्त किये हैं जिनका आधार वेद, दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थ हैं। हमनें भी महर्षि दयानन्द के इस विषय के विचारों का अनेक बार पाठ व मनन किया है और हमारा विश्वास है कि आने वाले समय में विज्ञान इन विचारों को पूर्णतः स्वीकार कर लेगा जिसका कारण वेदों का ईश्वर प्रदत्त होने से निर्भ्रांत होना व वैदिक साहित्य अल्पज्ञ वैज्ञानिकों से भी कहीं अधिक उच्च ज्ञान व विज्ञान के उच्च कोटि के चिन्तक मनीषी ऋषियों की देन है।

 

सत्यार्थप्रकाश में ऋग्वेद 12/129/7 मन्त्र के आधार पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि यह विविध सृष्टि इस जगत के स्वामी ईश्वर से प्रकाशित हुई है। वह इस जगत् का धारण व प्रलयकर्त्ता है। इस सृष्टि को बनाने वाला ईश्वर इस जगत में व्यापक है। उसी से यह सब जगत उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय को प्राप्त होता है। मनुष्य अर्थात् आत्मा को उस परमात्मा को जानना चाहिये और उसके स्थान पर किसी अन्य को सृष्टिकर्त्ता नहीं मानना चाहिये। ऋग्वेद के मन्त्र 10/29/3 में बताया गया है कि जगत की रचना से पूर्व सब जगत् अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से इस कारणरूप जगत् को कार्यरूप कर दिया अर्थात् बना दिया। ऋग्वेद के मन्त्र 10/129/1 में कहा गया है कि सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थो का आधार और जो यह जगत् हुआ है और होगा उस का एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिस ने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, हे मनुष्य ! उस परमात्म देव की प्रेम से भक्ति किया करें। यजुर्वेद के मन्त्र 31/2 में ईश्वर ने बताया है कि जो ईश्वर सब सृष्टिगत पदार्थों में पूर्ण पुरुष है, जो नाशरहित कारण जड़ प्रकृति और जीव का स्वामी है तथा जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, हे मनुष्य ! वही पुरुष इस सब भूत, भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् का बनाने वाला है, ऐसा सब मनुष्यों को जानना चाहिये। तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा गया है कि जिस परमात्मा द्वारा रचना करने से ये सब पृथिव्यादि भूत पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिस से जीते और जिससे जिसमें प्रलय को प्राप्त होते हैं, वह ब्रह्म है। उस को जानने की इच्छा सभी मनुष्यों को करनी चाहिये। शारीरिक सूत्रों में कहा गया है कि इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय जिस से होता है, वह ब्रह्म है और वह जानने के योग्य है।

 

प्राचीन वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार यह समस्त जगत् इसको बनाने वाले निमित्त कारण परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है। परमेश्वर ने इस जगत् को उपादान कारण अर्थात् सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म व मूल प्रकृति से बनाया है। इस मूल प्रकृति को ईश्वर ने उत्पन्न नहीं किया। यह भी जानने योग्य है कि संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति, यह तीन पदार्थ अनादि व नित्य हैं। इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव है वह इस संसार में पापपुण्यरूप फलों को अच्छे प्रकार भोक्ता है और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को न भोक्ता हुआ चारों ओर अर्थात् भीतर व बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न स्वरूप व तीनों अनादि हैं। उपनिषद् में बताया गया है कि प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिन का जन्म कभी नही होता और न कभी यह तीन पदार्थ जन्म लेते हैं अर्थात् ये तीन पदार्थ सब जगत् के कारण हैं। इन का कारण कोई नहीं। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ शुभ व अशुभ कर्म के बन्धनों में फंसता है और उस में परमात्मा नहीं फंसता क्योंकि वह प्रकृति व उसके पदार्थों का भोग नहीं करता।

 

प्रकृति क्या है, इसका वर्णन सांख्य दर्शन में है। इसके अनुसार प्रकृति (सत्व) शुद्ध (रजः) मध्य (तमः) जाड्य अर्थात् जडता गुणों से युक्त है। यह तीन गुण मिलकर इनका जो संघात है उस का नाम प्रकृति है अर्थात् सत्व, रज व तम गुणों का संघात प्रकृति के सूक्ष्तम कण की एक इकाई के समान है। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर इस प्रकृति के सूक्ष्म सत्व, रज व तम कणों में अपनी मनस शक्ति से विकार व विक्षोभ उत्पन्न कर इनसे महत्तत्व बुद्धि, उससे अर्थात् उस महतत्व बुद्धि से अहंकार, उस से पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चौबीस पदार्थ बनते हैं। पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर हैं। इनमें से सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति अधिकारिणी और महतत्व बुद्धि, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य हैं। यही पदार्थ इंद्रियों, मन तथा स्थूल भूतों के कारण हैं। पुरुष अर्थात् जीवात्मा न किसी की प्रकृति, न किसी का उपादान कारण और न किसी का कार्य है। एक उपनिषद वचन में कहा गया है कि हे श्वेतकेतो ! यह जगत् सृष्टि के पूर्व सत्, असत्, आत्मा और ब्रह्मरूप था। वही परमात्मा अपनी इच्छा से प्रकृति जीवों के द्वारा बहुरूप वा जगतरूप हो गया।

 

जगत् की उत्पत्ति के तीन कारण क्रमशः निमित्त, उपादान तथा साधारण, यह तीन कारण होते हैं। निमित्त कारण उसको कहते हैं कि जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, आप स्वयं बने नहीं और दूसरे को प्रकारान्तर बना देवे। दूसरा उपादान कारण उस को कहते हैं जिस के बिना कुछ न बने, वही अवस्थान्तर रूप होकर बने व बिगड़े भी। तीसरा साधारण कारण उस को कहते हैं कि जो बनाने में साधन और साधारण निमित्त हो। निमित्त कारण दो प्रकार के होते हैं। एक-सब को कारण से बनाने, धारण करने और प्रलय करने तथा सब की व्यवस्था रखने वाला मुख्य निमित्त कारण परमात्मा। दूसरा-परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अनेकविध कार्यान्तर बनाने वाला साधारण निमित्त कारण जीव। सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को कहते हैं। प्रकृति वा परमाणुरूप प्रकृति जिस को सब संसार के बनाने की सामग्री कहते हैं। वह जड़ होने से अपने आप बन और बिगड़ सकती है किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाड़ने से बिगड़ती है। कहींकही जड़ के निमित्त से जड़ भी बन और बिगड़ भी जाता है। जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी से गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड़ के संयोग से बिगड़ भी जाते हैं। परन्तु इनका नियमपूर्वक बनना और वा बिगड़ना परमेश्वर और जीव के आधीन है।

 

जब कोई वस्तु बनाई जाती है तब जिन-जिन साधनों का प्रयोग करते हैं वह ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ और नाना प्रकार के साधन कहलाते हैं और दिशा, काल और आकाश साधारण कारण होते हैं। जैसे घड़े का बनाने वाला कुम्हार निमित्त कारण, मिट्टी उपादान कारण और दण्ड चक्र आदि सामान्य कारण। दिशा, काल, आकाश, प्रकाश, आंख, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि साधारण और निमित्त कारण भी होते हैं। इन तीन कारणों के बिना कोई भी वस्तु नहीं बन सकती और न बिगड़ सकती है।

 

इस प्रकार से यह समस्त जगत् जिसमें सूर्य, चन्द्र, तारें, पृथिवी व पृथिवी के सभी पदार्थ तथा प्राणी जगत सम्मिलित है निमित्त कारण ईश्वर द्वारा उपादान कारण परमाणु रूप प्रकृति से बनाये गये हैं। परमात्मा के सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अनादि, नित्य आदि गुणों से युक्त होने से उसके द्वारा सृष्टि बनाने व उसे संचालित करने में असम्भव जैसा कुछ भी नहीं है। यह वर्णन पूर्णतः सत्य, वैज्ञानिक, तर्क संगत, विश्वसनीय, निभ्र्रान्त व वेदों के प्रमाणों से पुष्ट है। अतः इस सिद्धान्त को सभी आध्यात्मवादियों व भौतिक विज्ञान के वैज्ञानिकों को मानना चाहिये। इसके विपरीत वैज्ञानिकों के पास अभी तक सृष्टि उत्पत्ति का कोई सन्तोषजनक उत्तर इसलिए नहीं है कि यह सृष्टि अनादि निमित्त कारण ईश्वर द्वारा अनादि उपादान कारण प्रकृति से निर्मित की गई है जिसका उद्देश्य अनादि जीवात्माओं को उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का सुख व दुःखरूपी फल प्रदान करना है। सृष्टि रचना विषयक इस ज्ञान के विस्तार व संशयों के निवारण के लिए महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश का आठवां समुल्लास व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के सृष्टि की रचना व उत्पत्ति के प्रकरणों को देखना चाहिये। वेद, उपनिषदों व दर्शनों का अध्ययन भी इस विषय की सभी शंकाओं को दूर करता है। योग का अभ्यास, ध्यान व समाधि से भी ईश्वर द्वारा सृष्टि रचना का यह गुप्त व सूक्ष्म विषय जाना जा सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख से लाभान्वित होंगे। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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ऋषि की ऊँचाईः-प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ऋषि की  ऊँचाईः

हमें पहले ही पता था कि इतिहास प्रदूषण का उत्तर तो किसी से बन नहीं पड़ेगा। एक-एक बात का उसमें प्रमाण दिया गया है। विरोधी विरोध के लिए मेरे साहित्य में से इतिहास की कोई चूक खोज कर उछालेंगे। मैं तो वैसे ही भूल-चूक सुझाने पर उसके सुधार करने का साहस रखता हूँ। इसमें विवाद व झगड़े का प्रश्न ही क्या है। पता चला कि कुछ भाई ऋषि की ॥द्गद्बद्दद्धह्ल ऊँचाई का प्रश्न उठायेंगे। फिर पता नहीं, पीछे क्यों हट गये। मैंने निश्चय ही ऋषि को एक लबा व्यक्ति लिखा है। ग्रन्थ में यत्र-तत्र इसके प्रमाण भी दिये हैं। आक्षेप करने वाले ऋषि की खड़ाऊँ के आधार पर उनका कद बहुत बड़ा नहीं मानते। प्रश्न जब पहुँच ही गया है, तो एक प्रमाण यहाँ दे देता हूँ।

लाहौर में एक पादरी फोरमैन थे। वह लाहौर में बहुत ऊँचे व्यक्ति माने जाते थे। एक दिन डॉ. रहीम खाँ जी की कोठी से ऋषि जी समाज में व्यायान देने जा रहे थे। उनका ध्यान सामने से आ रहे पादरी फोरमेन पर नहीं गया। पादरी ने ऋषि का अभिवादन किया तो साथ वालों ने उन्हें कहा कि सामने देखो, पादरी जी आपका अभिवादन करते आ रहे हैं। जब पादरी जी पास आये तो मेहता राधाकिशन (ऋषि के जीवनी लेखक) ने देखा कि पादरी जी ऋषि के कंधों तक थे। अब विरोधी का जी चाहे तो मुझे कोस लें। मैं इतिहास को, तथ्यों को और सच्चाई को बदलने वाला कौन? मैं हटावट, मिलावट, बनावट करके मनगढ़न्त हदीसें नहीं गढ़ सकता। ऋषि जी ने स्वयं एक बार अपनी ऊँचाई की चर्चा की थी। वह प्रमाण हमारे विद्वानों की पकड़ में नहीं आया। ऋषि-जीवन की चर्चा करने वालों को वह भी बता दूँगा। प्रमाण बहुत हैं। चिन्ता मत करें।