सभी नागरिकों, नेताओं व सुधी जनों का कर्तव्य हैं कि वह देश की अधिक से अधिक उन्नति पर विचार करें और अच्छे-अच्छे सुझाव समाज व देश को दें। देश में जो लोग व शक्तियां देश व सर्वहितकारी विचारों व योजनाओं का किसी भी कारण से विरोध करें, देश की शिक्षित प्रजा को मत-सम्प्रदाय-पन्थ आदि से ऊपर उठकर सामूहिक रूप से असरदार विरोध करना चाहिये जिससे उनकी हिम्मत पस्त हो जाये। देश की सभी समस्याओं का हल और उन्नति का मूल मन्त्र क्या है? इसका उत्तर बहुत सरल है और वह यह है कि देश के सभी लोगों के लिए एक समान व सत्य मूल्यों पर आधारित ऐसी शिक्षा जिससे देश के सभी मनुष्यों का पूर्ण बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक विकास हो। अविद्या का नाम व विद्या की वृद्धि होनी चाहिये। यह सिद्धान्त धर्म, ज्ञान व विज्ञान के सभी क्षेत्रों पर लागू होता है। अत्यधिक स्वतन्त्रता व इसके नाम पर कुछ भी करने की छूट किसी को नहीं होनी चाहिये। हर कार्य मर्यादित हो और उसकी उपेक्षा व उल्लघंन दण्डनीय हो। यदि ऐसा होता है तो हमें सच्चरित्र, देश भक्त व समाज का सुधार करने की भावना रखने वाले बड़ी संख्या में युवक व युवतियां मिल सकती हैं जिससे देश की तस्वीर बदल सकती है। इसके साथ ही आजकल समाज में धर्म के नाम पर जो व्यापार व दुश्चरित्रता की घटनायें घट रही हैं एवं भोले-भाले लोगों का शोषण हो रहा है, उसको नियन्त्रित करने में भी सहायता मिल सकती है। यदि अन्धविश्वास व मिथ्या मान्यताओं के मकड़़जाल की वर्तमान स्थिति को निर्मूल नहीं किया गया तो यह देश के भविष्य के लिए घातक हो सकती है।
शिक्षा क्या होती है? शिक्षा हमारी बुद्धि का परिष्कार करने वाली व उसको शोभा प्रदान करने वाली ज्ञान से युक्त एक ऐसी ओषधि है जिससे मनुष्य का जीवन अज्ञान व अविद्या के रोग से मुक्त रहता है व जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में सफल होता है। वेद ज्ञान रहित शिक्षा मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास करने में असफल है यह हमने विगत अनुभवों से देखा है। मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, आचार्य चाणक्य व महर्षि दयानन्द पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य प्रकट होता है कि इनका निर्माण वैदिक शिक्षा द्वारा ही हुआ था। वैदिक शिक्षा की महत्ता यह है कि इससे मनुष्य को अपने जन्म के कारणों व उद्देश्य का पता चलता है जो कि अन्य किसी भी शिक्षा पद्धति से सम्भव नहीं है। वैदिक शिक्षा पद्धति से शिक्षित व दीक्षित बालक व विद्यार्थी मानव बनता है, दानव नहीं। दानव शब्द का अर्थ गलत व बुरे काम करने वाला मनुष्य कर सकते हैं। यदि वैदिक शिक्षा में शिक्षित व्यक्ति भी कोई गलत काम करता है तो यह उसके अपने अत्यन्त बुरे संस्कारों, सामाजिक वातावरण व पढ़ाने वाले अध्यापकों की अध्यापन क्षमता में कमी के कारण होता है। हम यहां एक आर्य संन्यासी के जीवन का एक उदाहरण देते हैं। यह स्वामीजी गुरूकुल खोलने के लिए भूमि की तलाश में किसी ग्राम में आकर किसी मैदान के बडे वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे। वहां के भूस्वामी एक जमींदार अपने घोड़े पर आते हैं और स्वामीजी से प्रश्नोत्तर करते हैं। स्वामीजी ईश्वर भक्त थे, अतः क्रोधी व अहंकारी कोटि के मनुष्यों से उन्हें कोई भय नहीं था। दूसरी ओर यह जमींदार क्रोधी व अंहकारी प्रवृत्ति के थे। स्वामीजी ने उसका व्यवहार देखा तो उसकी उपेक्षा की और उसे फटकार दिया। आग बबूला होकर वह घर लौटा। पत्नी ने उनकी दशा देखी तो कारण पूछा? कारण जानकर उस देवी ने कहा कि जीवन में अभी तक आपको कोई दिव्य पुरूष नहीं मिला जिसके कारण आपके स्वभाव में क्रोध व अहंकार आदि अवगुण विद्यमान हैं। जिस व्यक्ति ने आपको फटकारा है वह कोई साधारण मनुष्य नहीं हो सकता। जाईये, उनसे क्षमा याचना कर उनकी योग्य सेवा पूछिये? पत्नी की सलाह उन्हें ठीक लगी और वह स्वामीजी के पास आकर अपने कृत्य पर क्षमाप्रार्थी हुए। उसी व्यक्ति ने स्वामी जी को सैकड़ों बीघा भूमि दान की जहां बाद में एक गुरूकुल बना। ऐसी ही एक घटना में एक जमीदार श्री अमन सिंह ने कांगड़ी ग्राम की अपनी 1400 बीघा जमीन महात्मा मुंशी राम, बाद में स्वामी श्रद्धानन्द, को गुरूकुल कांगड़ी के निर्माण के लिए निःशुल्क प्रदान की थी। मनुष्य के जीवन में ऐसा सात्विक परिवर्तन वैदिक विचारों व संस्कारों के उद्भव से ही होता है। यह तो एक घटना का प्रभाव है। यदि पूरे वेद की शिक्षायें किसी मनुष्य को प्राप्त हो जायें तो वह वैदिक विद्वान व ऋषि कोटि का आप्त पुरूष बन सकता है, जो ईश्वर के बाद सबका पूजनीय होता है।
वैदिक शिक्षा की एक विशेषता यह है कि इसमें सत्य पर अधिक बल दिया जाता है। बालक व विद्यार्थी के जीवन से उसके दुर्गुणों व दुव्र्यस्नों को दूर करने के लाभ व हानियों से परिचय कराया जाता है। प्रातः 4 बजे उठकर शौच, वायुसेवन व व्यायाम से आरम्भ कर ईश्वर का ध्यान-संध्या-उपासना, तदन्तर अग्निहोत्र-यज्ञ व दिन में सभी आवश्यक विषयों का अध्ययन कराया जाता है। सन्ध्या व ध्यान इसलिये किया जाता है कि हमारे दुष्ट दुर्गुण हमसे दूर होकर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव हमारे जीवन में प्रविष्ट हों। ऐसा व्यक्ति ही महात्मा, सज्जन, धर्मात्मा, विद्वान व पूजनीय कहलाता है। गुरूकुल व वैदिक शिक्षा का विद्यार्थी शुद्ध शाकाहारी भोजन जिसमें गोदुग्ध व फल आदि भी होते हैं, ही करता है। आज हम समाज में पढ़े लिखे लोगों द्वारा असत्य व्यवहार यथा दुष्टता, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार आदि के अनेक उदाहरण देखते हैं। इसका कारण केवल बाल्यावस्था में बच्चाचें को वैदिक संस्कारों का न दिया जाना है। जितने दोषी ऐसे बुरे कार्य करने वाले व्यक्ति होते हैं, उतना ही दोष इनकी शिक्षा प्रणाली का है। यह ऐसा ही है कि कोई किसी अविद्वान से अध्ययन कर विद्वान बनना चाहे। शिक्षा एकांगी न होकर सर्वांगीण होनी चाहिये। हमें वर्तमान शिक्षा एंकागी लगती है और वर्तमान शिक्षा और वैदिक शिक्षा का समन्वित रूप ही सर्वांगीण प्रतीत होता है। यदि वैदिक शिक्षा में कोई त्रुटि या कमी होती तो इसके द्वारा राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य जैसे देवता और माता सीता, रूकमणी, गार्गी, सती अनुसूया जैसी देवियां का निर्माण न हुआ होता। आधुनिक काल में भी हम स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महात्मा हंसराज, पं. चमूपति, स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी सर्वानन्द, पं. बुद्धदेव मीरपुरी, पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि विद्वानों को देखते हैं तो हमें वैदिक शिक्षा का महत्व पता चलता है। इन लोगों ने वैदिक संस्कारों को प्राप्त कर देश व जाति के सुधार व निर्माण के जो कार्य किये हैं, उनसे देश की उन्नति व विद्या के प्रचार प्रसार में बहुत योगदान किया है।
वैदिक शिक्षा के अध्ययन व पाठ्यक्रम पर महर्षि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में प्रकाश डाला है। वर्तमान शिक्षा के साथ उसका सामंजस्य कर उसका समावेश वर्तमान सरकारी व प्राइवेट विद्यालयों की शिक्षा में होना चाहिये। वैदिक शिक्षा की एक विशेष देन ईश्वरोपासना है। यह ईश्वरोपासना एक ऐसी साधना है कि जिसमें ईश्वर के समस्त गुणों का चिन्तन कर स्तुति की जाति है। संसार के सभी गुणों की पराकाष्ठा ईश्वर में है। ईश्वरोपासना से ईश्वर के सभी गुण उपासना करने वाले मनुष्य के जीवन में स्वतः आना आरम्भ हो जाते हैं। स्तुति-प्रार्थना-उपासना का अर्थ ही ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का वेद एवं वैदिक साहित्य के आधार पर विचार कर उसे अपने जीवन में धारण करना है। जो व्यक्ति उपासना तो करते हैं परन्तु उनमें ईश्वर के श्रेष्ठ गुणों का समावेश नहीं होता उनकी उपासना दिखावा मात्र होती है। महर्षि मनु ने ऐसे मनुष्यों को श्रेष्ठ मनुष्यों के समूह से पृथक कर उन्हें निम्न व्यक्तियों के समूह में रखने का विधान किया हुआ है। वैदिक शिक्षा का एक अनिवार्य विषय आर्ष संस्कृत का ज्ञान है। देश बालक हिन्दी व अंग्रेजी तथा क्षेत्रीय भाषायें पढ़ सकते हैं तो वह ईश्वर प्रदत्त व विश्व की सभी भाषाओं की जननी वैदिक संस्कृत को भी अवश्य पढ़ सकते हैं। इसका विरोध धर्मान्ध व्यक्ति ही कर सकते हैं। संस्कृत का ज्ञान जीवन को सफल बनाने के लिए अति आवश्यक है। अतः देश भर में इसका प्रचार व अनिवार्यता होनी चाहिये तभी शिक्षा से शुभ परिणाम हमारे सामने आयेंगे। यदि संस्कृत नहीं पढ़ेगें तो देश का वेद व विशाल वैदिक साहित्य अनुपयोगी हो जायेगा जिसकी रचना हमारे सभी पूर्वजों ने हमारे हित को ध्यान में रखकर की थी। इससे हम सब अपने पूर्वजों के कृतघ्न होंगे। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिये। इस कार्य की अपेक्षा वर्तमान में किसी भी विचारधारा वाली सरकार से नहीं की जा सकती। सबके अपने अपने पूर्वाग्रह हैं। आर्य समाज गुरूकुलों के माध्यम से यथाशक्ति यह कार्य कर रहा है जो कि प्रशंसनीय है।
वैदिक शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य मनुष्य का चरित्र निर्माण है। जो व्यक्ति जीवन में बुरे काम करता है वह अपने माता-पिता, आचार्य व कुल को दूषित करता है। ऐसी सन्तानें प्रशस्य न होकर निन्दनीय होती हैं। आजकल तो ऐसे दूषित कार्य साधारण लोग नहीं अपितु धर्मात्मा व महात्मा कहलाने वाले लोग कर रहे हैं। ऐसा वर्तमान शिक्षा, सामाजिक वातावरण, विदेशी मूल्यों व मान्यताओं को प्राथमिकता तथा कुछ अन्य कारणों से है। इन कारणों को दूर करने का एक ही उपाय वैदिक शिक्षा का वर्तमान शिक्षा में पूर्ण समावेश करने का हमने उपर्युक्त पंक्तियों में दिया है। ऐसा करके मनुष्यों के चरित्र निर्माण सहित देशोन्नति का लक्ष्य तो प्राप्त होगा ही, साथ हि मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष को भी प्राप्त करने में आगे बढ़ेगा। इन्हीं पंक्तियों के साथ हम लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121