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‘वर्तमान शिक्षा में समग्र वैदिक विचारधारा को सम्मिलित करना सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास और देशोन्नति के लिए आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

सभी नागरिकों, नेताओं व सुधी जनों का कर्तव्य हैं कि वह देश की अधिक से अधिक उन्नति पर विचार करें और अच्छे-अच्छे सुझाव समाज व देश को दें। देश में जो लोग व शक्तियां देश व सर्वहितकारी विचारों व योजनाओं का किसी भी कारण से विरोध करें, देश की शिक्षित प्रजा को मत-सम्प्रदाय-पन्थ आदि से ऊपर उठकर सामूहिक रूप से असरदार विरोध करना चाहिये जिससे उनकी हिम्मत पस्त हो जाये। देश की सभी समस्याओं का हल और उन्नति का मूल मन्त्र क्या है? इसका उत्तर बहुत सरल है और वह यह है कि देश के सभी लोगों के लिए एक समान व सत्य मूल्यों पर आधारित ऐसी शिक्षा जिससे देश के सभी मनुष्यों का पूर्ण बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक विकास हो। अविद्या का नाम व विद्या की वृद्धि होनी चाहिये। यह सिद्धान्त धर्म, ज्ञान व विज्ञान के सभी क्षेत्रों पर लागू होता है। अत्यधिक स्वतन्त्रता व इसके नाम पर कुछ भी करने की छूट किसी को नहीं होनी चाहिये। हर कार्य मर्यादित हो और उसकी उपेक्षा व उल्लघंन दण्डनीय हो। यदि ऐसा होता है तो हमें सच्चरित्र, देश भक्त व समाज का सुधार करने की भावना रखने वाले बड़ी संख्या में युवक व युवतियां मिल सकती हैं जिससे देश की तस्वीर बदल सकती है। इसके साथ ही आजकल समाज में धर्म के नाम पर जो व्यापार व दुश्चरित्रता की घटनायें घट रही हैं एवं भोले-भाले लोगों का शोषण हो रहा है, उसको नियन्त्रित करने में भी सहायता मिल सकती है। यदि अन्धविश्वास व मिथ्या मान्यताओं के मकड़़जाल की वर्तमान स्थिति को निर्मूल नहीं किया गया तो यह देश के भविष्य के लिए घातक हो सकती है।

शिक्षा क्या होती है? शिक्षा हमारी बुद्धि का परिष्कार करने वाली व उसको शोभा प्रदान करने वाली ज्ञान से युक्त एक ऐसी ओषधि है जिससे मनुष्य का जीवन अज्ञान व अविद्या के रोग से मुक्त रहता है व जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में सफल होता है। वेद ज्ञान रहित शिक्षा मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास करने में असफल है यह हमने विगत अनुभवों से देखा है। मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, आचार्य चाणक्य व महर्षि दयानन्द पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य प्रकट होता है कि इनका निर्माण वैदिक शिक्षा द्वारा ही हुआ था। वैदिक शिक्षा की महत्ता यह है कि इससे मनुष्य को अपने जन्म के कारणों व उद्देश्य का पता चलता है जो कि अन्य किसी भी शिक्षा पद्धति से सम्भव नहीं है। वैदिक शिक्षा पद्धति से शिक्षित व दीक्षित बालक व विद्यार्थी मानव बनता है, दानव नहीं। दानव शब्द का अर्थ गलत व बुरे काम करने वाला मनुष्य कर सकते हैं। यदि वैदिक शिक्षा में शिक्षित व्यक्ति भी कोई गलत काम करता है तो यह उसके अपने अत्यन्त बुरे संस्कारों, सामाजिक वातावरण व पढ़ाने वाले अध्यापकों की अध्यापन क्षमता में कमी के कारण होता है। हम यहां एक आर्य संन्यासी के जीवन का एक उदाहरण देते हैं। यह स्वामीजी गुरूकुल खोलने के लिए भूमि की तलाश में किसी ग्राम में आकर किसी मैदान के बडे वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे। वहां के भूस्वामी एक जमींदार अपने घोड़े पर आते हैं और स्वामीजी से प्रश्नोत्तर करते हैं। स्वामीजी ईश्वर भक्त थे, अतः क्रोधी व अहंकारी कोटि के मनुष्यों से उन्हें कोई भय नहीं था। दूसरी ओर यह जमींदार क्रोधी व अंहकारी प्रवृत्ति के थे। स्वामीजी ने उसका व्यवहार देखा तो उसकी उपेक्षा की और उसे फटकार दिया। आग बबूला होकर वह घर लौटा। पत्नी ने उनकी दशा देखी तो कारण पूछा? कारण जानकर उस देवी ने कहा कि जीवन में अभी तक आपको कोई दिव्य पुरूष नहीं मिला जिसके कारण आपके स्वभाव में क्रोध व अहंकार आदि अवगुण विद्यमान हैं। जिस व्यक्ति ने आपको फटकारा है वह कोई साधारण मनुष्य नहीं हो सकता। जाईये, उनसे क्षमा याचना कर उनकी योग्य सेवा पूछिये? पत्नी की सलाह उन्हें ठीक लगी और वह स्वामीजी के पास आकर अपने कृत्य पर क्षमाप्रार्थी हुए। उसी व्यक्ति ने स्वामी जी को सैकड़ों बीघा भूमि दान की जहां बाद में एक गुरूकुल बना। ऐसी ही एक घटना में एक जमीदार श्री अमन सिंह ने कांगड़ी ग्राम की अपनी 1400 बीघा जमीन महात्मा मुंशी राम, बाद में स्वामी श्रद्धानन्द, को गुरूकुल कांगड़ी के निर्माण के लिए निःशुल्क प्रदान की थी। मनुष्य के जीवन में ऐसा सात्विक परिवर्तन वैदिक विचारों व संस्कारों के उद्भव से ही होता है। यह तो एक घटना का प्रभाव है। यदि पूरे वेद की शिक्षायें किसी मनुष्य को प्राप्त हो जायें तो वह वैदिक विद्वान व ऋषि कोटि का आप्त पुरूष बन सकता है, जो ईश्वर के बाद सबका पूजनीय होता है।

वैदिक शिक्षा की एक विशेषता यह है कि इसमें सत्य पर अधिक बल दिया जाता है। बालक व विद्यार्थी के जीवन से उसके दुर्गुणों व दुव्र्यस्नों को दूर करने के लाभ व हानियों से परिचय कराया जाता है। प्रातः 4 बजे उठकर शौच, वायुसेवन व व्यायाम से आरम्भ कर ईश्वर का ध्यान-संध्या-उपासना, तदन्तर अग्निहोत्र-यज्ञ व दिन में सभी आवश्यक विषयों का अध्ययन कराया जाता है। सन्ध्या व ध्यान इसलिये किया जाता है कि हमारे दुष्ट दुर्गुण हमसे दूर होकर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव हमारे जीवन में प्रविष्ट हों। ऐसा व्यक्ति ही महात्मा, सज्जन, धर्मात्मा, विद्वान व पूजनीय कहलाता है। गुरूकुल व वैदिक शिक्षा का विद्यार्थी शुद्ध शाकाहारी भोजन जिसमें गोदुग्ध व फल आदि भी होते हैं, ही करता है। आज हम समाज में पढ़े लिखे लोगों द्वारा असत्य व्यवहार यथा दुष्टता, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार आदि के अनेक उदाहरण देखते हैं। इसका कारण केवल बाल्यावस्था में बच्चाचें को वैदिक संस्कारों का न दिया जाना है। जितने दोषी ऐसे बुरे कार्य करने वाले व्यक्ति होते हैं, उतना ही दोष इनकी शिक्षा प्रणाली का है। यह ऐसा ही है कि कोई किसी अविद्वान से अध्ययन कर विद्वान बनना चाहे। शिक्षा एकांगी न होकर सर्वांगीण होनी चाहिये। हमें वर्तमान शिक्षा एंकागी लगती है और वर्तमान शिक्षा और वैदिक शिक्षा का समन्वित रूप ही सर्वांगीण प्रतीत होता है। यदि वैदिक शिक्षा में कोई त्रुटि या कमी होती तो इसके द्वारा राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य जैसे देवता और माता सीता, रूकमणी, गार्गी, सती अनुसूया जैसी देवियां का निर्माण हुआ होता। आधुनिक काल में भी हम स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महात्मा हंसराज, पं. चमूपति, स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी सर्वानन्द, पं. बुद्धदेव मीरपुरी, पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ, डा. रामनाथ वेदालंकार आदि विद्वानों को देखते हैं तो हमें वैदिक शिक्षा का महत्व पता चलता है। इन लोगों ने वैदिक संस्कारों को प्राप्त कर देश व जाति के सुधार व निर्माण के जो कार्य किये हैं, उनसे देश की उन्नति व विद्या के प्रचार प्रसार में बहुत योगदान किया है।

वैदिक शिक्षा के अध्ययन व पाठ्यक्रम पर महर्षि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में प्रकाश डाला है। वर्तमान शिक्षा के साथ उसका सामंजस्य कर उसका समावेश वर्तमान सरकारी व प्राइवेट विद्यालयों की शिक्षा में होना चाहिये। वैदिक शिक्षा की एक विशेष देन ईश्वरोपासना है। यह ईश्वरोपासना एक ऐसी साधना है कि जिसमें ईश्वर के समस्त गुणों का चिन्तन कर स्तुति की जाति है। संसार के सभी गुणों की पराकाष्ठा ईश्वर में है। ईश्वरोपासना से ईश्वर के सभी गुण उपासना करने वाले मनुष्य के जीवन में स्वतः आना आरम्भ हो जाते हैं। स्तुति-प्रार्थना-उपासना का अर्थ ही ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का वेद एवं वैदिक साहित्य के आधार पर विचार कर उसे अपने जीवन में धारण करना है। जो व्यक्ति उपासना तो करते हैं परन्तु उनमें ईश्वर के श्रेष्ठ गुणों का समावेश नहीं होता उनकी उपासना दिखावा मात्र होती है। महर्षि मनु ने ऐसे मनुष्यों को श्रेष्ठ मनुष्यों के समूह से पृथक कर उन्हें निम्न व्यक्तियों के समूह में रखने का विधान किया हुआ है। वैदिक शिक्षा का एक अनिवार्य विषय आर्ष संस्कृत का ज्ञान है। देश बालक हिन्दी अंग्रेजी तथा क्षेत्रीय भाषायें पढ़ सकते हैं तो वह ईश्वर प्रदत्त विश्व की सभी भाषाओं की जननी वैदिक संस्कृत को भी अवश्य पढ़ सकते हैं। इसका विरोध धर्मान्ध व्यक्ति ही कर सकते हैं। संस्कृत का ज्ञान जीवन को सफल बनाने के लिए अति आवश्यक है। अतः देश भर में इसका प्रचार व अनिवार्यता होनी चाहिये तभी शिक्षा से शुभ परिणाम हमारे सामने आयेंगे। यदि संस्कृत नहीं पढ़ेगें तो देश का वेद व विशाल वैदिक साहित्य अनुपयोगी हो जायेगा जिसकी रचना हमारे सभी पूर्वजों ने हमारे हित को ध्यान में रखकर की थी। इससे हम सब अपने पूर्वजों के कृतघ्न होंगे। इस पर ध्यान दिया जाना चाहिये। इस कार्य की अपेक्षा वर्तमान में किसी भी विचारधारा वाली सरकार से नहीं की जा सकती। सबके अपने अपने पूर्वाग्रह हैं। आर्य समाज गुरूकुलों के माध्यम से यथाशक्ति यह कार्य कर रहा है जो कि प्रशंसनीय है।

वैदिक शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य मनुष्य का चरित्र निर्माण है। जो व्यक्ति जीवन में बुरे काम करता है वह अपने माता-पिता, आचार्य व कुल को दूषित करता है। ऐसी सन्तानें प्रशस्य न होकर निन्दनीय होती हैं। आजकल तो ऐसे दूषित कार्य साधारण लोग नहीं अपितु धर्मात्मा व महात्मा कहलाने वाले लोग कर रहे हैं। ऐसा वर्तमान शिक्षा, सामाजिक वातावरण, विदेशी मूल्यों व मान्यताओं को प्राथमिकता तथा कुछ अन्य कारणों से है। इन कारणों को दूर करने का एक ही उपाय वैदिक शिक्षा का वर्तमान शिक्षा में पूर्ण समावेश करने का हमने उपर्युक्त पंक्तियों में दिया है। ऐसा करके मनुष्यों के चरित्र निर्माण सहित देशोन्नति का लक्ष्य तो प्राप्त होगा ही, साथ हि मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष को भी प्राप्त करने में आगे बढ़ेगा। इन्हीं पंक्तियों के साथ हम लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

इतिहास प्रदूषक विदुषि लेखिका बहन फरहाना ताज “पार्ट – २”

अंगिरा ऋषि के विषय में मत्स्य पुराण,  भागवत, वायु पुराण महाभारत और भारतवर्षीय प्राचीन ऐतिहासिक कोष में वर्णन किया गया है।

मत्स्य पुराण में अंगिरा ऋषि की उत्पत्ति अग्नि से कही गई है।

भागवत का कथन है कि अंगिरा जी ब्रह्मा के मुख से यज्ञ हेतु उत्पन्न हुए।

महाभारत अनु पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है।

भार्गववंश की मान्यतानुसार महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का नाम
अंगिरा था।

ब्रह्मपुराण अध्याय – ३४ मे ऋषि अंगिरा को विषमबुद्धि से पढ़ाने वाला गुरु अर्थात शिष्यो मे भेदभाव कर पढ़ाने वाला बताया है

इसके अतिरिक्त अंगिरा ऋषि को शिवपुराण मे लोभी लालची आदि बताया है

आप सोच रहे होगे मै ये सब क्यो बता रहा हूं ?

इसलिए बता रहा हूं कि आर्यो के ऋषि सिद्धांतो को बदलने की गहरी साजिश चल रही है वेदो मे इतिहास सिद्ध करने का षडयंत्र रचा जा रहा है यकीन नही ?

फरहाना ताज जी जैसी विदुषि लेखिका का पोस्ट पढ़े वो ये साबित करने की फिराक मे नजर आती है कि कैलाश के राजा शंकर और हृदय मे वेद ज्ञान प्रकाश पाने वाले ऋषियो मे एक ऋषि अंगिरा एक ही है

इनकी लेखनी यही नही रुकी इसके आगे इन्होने और लिखते हुए जोर डाला कि शिव की पूजा करनी है मतलब सच्चे शिव की तो अंगिरा ऋषि को पूजो यही नही हमारी बहन फरहाना ताज जी लिखती है :
“अरे भोले लोगो देवो के देव आदि महादेव की ही पूजा करनी है तो अंगिरा की पूजा करो, शिवपुराण में भी शिव का आदि नाम अंगिरा ही है और अंगिरा के मुख से परमात्मा की वाणी अथर्ववेद प्रकट हुआ, इसलिए वेद पढ़ो।”

मतलब समझ आया ?

हम देवो के देव महादेव यानी ईश्वर की बात करते है क्योकि महादेव ईश्वर को ही संबोधन है हम उन्ही की उपासना करते है मगर हमारी बहन शायद हमारे सिद्धांतो पर चोट करके उन्हे बदल कर हमे ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की पूजा करवाना सिखाना चाह रही है लेकिन भूल गई हिन्दू समाज मे भी मुर्दापूजा निकृष्ट है आप उन्हे सच्चाई बताने की जगह एक मुर्दापूजा से निकाल दूसरी मुर्दापूजा मे दाखिला दिलवा रही हो जैसे आर्य समाज मे अंगिरा ऋषि को शिव घोषित कर वेदो मे इतिहास साबित करना चाहती हो

ऋषि अंगिरा और शिव को एक बताने से पहले शिवपुराण पर ही सही से दृष्टि डाल ली होती है, क्योंकि शिवपुराण में ही शिव की शादी के चक्कर में अंगिरा ऋषि को लालची और लोभी बताया है,

क्या आप लोभी और लालची व्यक्ति को शिव या अंगिरा मान सकती हो ? ऊपर और भी प्रमाण दिए हैं की पुराणो में ऋषि अंगिरा का चरित्र कैसा दिखाया है – यदि आपने पुराण ही मानने हैं तो कृपया ऋषि सिद्धांतो पर चलने वाली स्वयं की उद्घोषणा न करे क्योंकि ऋषि ने महापुरषो के चरित्र पर दाग लगाने वाले पुराणो को त्याज्य बताया है और यहाँ ऋषि अंगिरा के चरित्र पर भी पुराण आक्षेप लगा रहे हैं, बेहतर है आप अपने लेख को ठीक करे।

मेरी बहन आर्य समाज सिद्धांत पर आधारित है कृपया अप्रमाणिक तथ्यहीन और मनगढंत बात लिखने से पूर्व एक बार ऋषि के सिद्धांत और उनके महान कर्मो पर दृष्टि जरूर डाले

हो सके तो सत्य को स्वीकार कर असत्य को त्याग दे

नमस्ते

स्वस्थ सुखी जीवन के कुछ रहस्य – डॉ. सुशीलरत्न मिगलानी

सांस लें     – भरपूर गहरा

प्रार्थना करें  – प्रातः सांय दोनों समय, ओ3म् का उच्चारण करें, गायत्री गान करें। थोड़ी देर के लिए श्रद्धा-भक्ति पूर्वक प्रभु का ध्यान करें।

व्यायाम करें प्रतिदिन योगासन, प्राणायाम, प्रातः कालीन सैर।

भोजन      – (हिताुक्, ऋतभुक्, मितभुक्)

स्वास्थ्यवर्द्धक मौसम के अनुसार,

भूख से थोडा कम आहार चबा-चबा कर खाएँ।

स्वाध्याय   – प्रतिदिन वेदशास्त्रों में से आध्यात्मिक विचार, महापुरुषों की जीवनी पढ़ने के लिए थोड़ा समय जरूर निकालें। प्रतिदिन अपना अध्ययन करें यानि अपने आप को परखें व सुधारें।

नींद       – पूरी लें।

वार्ता       – सत्य, मधुर, हितकर एवं अल्प। पहले बात को तोलो फिर मुँह से बोलो।

सदाचार    – अपने चरित्र की रक्षा करें। धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, अगर चरित्र गया तो सब कुछ गया।

पहनावा    – साफ सुथरा, शालीन एवं चुस्त।

सोच विचार – आस्तिक एवं सकारात्मक ।

कार्य       – रोजाना एक शुभ कार्य अवश्य करें। अपने सभी कार्य योजनाबद्ध एवं शान्त स्वभाव से करें। समय नष्ट करना जीवन नष्ट करने के समान है।

परिवार में   – स्वर्ग की तरह प्रेमपूर्ण शान्त वातावरण बनाकर रहें। मनमुटाव होने पर चिल्लाएँ नहीं, मैत्रीभाव से शीघ्र ही समाधान निकाल लें। दिन में दो मिनट के लिए बजुर्गों के पास बैठकर प्यार से उनसे बातचीत करें। बजुर्ग लोग भी परिवार सदस्यों का उचित मार्गदर्शन करें। सारा परिवार मिलकर प्रतिदिन इक्कठे प्रभु-प्रार्थना करें या प्रभु-भजन गाएँ। किसी से भी गलती हो जाने पर नुक्ताचीन न करें, अकेले में प्यार से समझा दें। परिवार से बढ़कर दुनिया का कोई सबन्ध नहीं।

कमाई करें  – ईमानदारी से।

खर्चा करें   – सोच समझकर

बचत      – अवश्य करें

त्यागते जाएँ – बुरे विचार, बुरी संगति। दुर्जनों को गिराएँ।

अपनाते जाएँ  – अच्छे विचार, अच्छी संगति। सज्जनों को बढाएँ।

कर्तव्य कर्म – निर्भय होकर करें। कर्तव्य ना करना अधर्म को भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना है।

जीवन में   – सादा जीवन, उच्च विचार रखें। सदा मुस्कराते रहें।

एकाग्रता    – अपने लक्ष्य की ओर सुमार्ग पर एकाग्र रहें।

विश्वास    – दूसरों पर सभल कर विश्वास रखें। अपने में भरपूर विश्वास रखें कि आप जो चाहे प्राप्त कर सकते हैं ।

सहायता    – जरुरतमन्द सुपात्रों की तन-मन-धन से सहायता करें।

व्यवहार    – दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करें जैसा कि आप चाहते हैं कि दूसरे आपके साथ करें। माता-पिता, आचार्य, विद्वान् एवं बड़ों के साथ समान भाव से, छोटों के साथ स्नेह भाव से, अपने अधीन यानि नौकरों के साथ दयाभाव से, उन्नति करने वालों के साथ मैत्री भाव से व्यवहार करें।

बढ़ते जाना     – राग-द्वेष से बचते हुए प्रेमभावना से सबके साथ मिलकर प्रसन्नता पूर्वक प्रभु भक्ति व देश शक्ति की दिशा में।

 

इतिहास प्रदूषक “फरहाना ताज”

आर्य समाज में प्रक्षिप्त और झूठी बातो का प्रचार असहनीय है
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फरहाना ताज जी की बहुत सी पोस्ट देखी – बहुत से मित्र बंधू इन पोस्ट्स को व्हाट्सप्प पर प्रसारित भी करते हैं – कुछ चीज़े वैदिक संपत्ति पुस्तक से उद्धृत हैं और कुछ इनके अपने दिमाग की उपज है –

जो वैदिक संपत्ति से उद्धृत है वो ठीक लगता है मगर जो इनके अपने दिमाग की उपज (व्याख्या) है वो गड़बड़ झाला है – आर्य समाज को बदनाम न करे – आपकी बहुत सी पोस्ट पर कमेंट किया पर आपने आजतक जवाब नहीं दिया – ये बहुत ही खेद का विषय है – कृपया समझे –

1. आपकी पुस्तक “घर वापसी” में आपने अपने पति को आर्य समाजी बताया – मगर वही आर्य समाजी बंधू एक्सीडेंट के बाद पौराणिक बन जाता है ? ऐसा क्यों ?

क्या आप इसे मानती हैं ? यदि हाँ तो आप अंधविश्वास और चमत्कार वाली झूठी बातो का समर्थन करती हैं जो आर्य समाज के सिद्धांत विरुद्ध है। कृपया स्पष्टीकरण देवे।

2. हनुमान जी – एक ऐसा वीर, धर्मात्मा, श्रेष्ठ पुरुष जिसका रामायण में बहुत उत्तम चरित्र है जो रामायण में पूर्ण ब्रह्मचारी पुरुष है। महर्षि दयानंद भी हनुमान जी के ब्रह्मचर्य से पूर्ण सहमत थे। फिर आपने ऐसे महावीर हनुमान को गृहस्थ घोषित कर दिया वो भी बिना कोई प्रमाण ?

केवल दक्षिण के मंदिरो को देखकर ही आपको लग गया की हनुमान जी ब्रह्मचारी नहीं गृहस्थ थे ? ऐसा मंदिर तो दिल्ली के भैरो मंदिर में भी देख लेती वहां भी हनुमान जी के चरित्र को दूषित किया गया है जैसे आप दक्षिण के मंदिरो को प्रमाण मान कर एक पूर्ण ब्रह्मचारी को गृहस्थ घोषित करकर ? यदि वहां के मंदिरो को देखकर ही आपको सिद्ध हो गया की हनुमान जी गृहस्थ ही हैं तो वहां के मंदिरो में तो हनुमान जी बन्दर स्वरुप भी दर्शाया गया होगा तब उन्हें क्यों नहीं मान लेती ?

3. आपने अपनी एक पोस्ट में कहीं लिखा था की ऋषि अंगिरा ही शिव थे – जो कैलाश के राजा हुए – तो मेरी बहन मैं आप से कुछ पूछना चाहता हु –

यदि ऋषि अंगिरा ही शिव थे जो कैलाश के राजा हुए तो इसका मतलब बाकी के बचे तीन ऋषि भी कुछ न कुछ होंगे ? मतलब वो भी कहीं के राजा हुए होंगे ? यानी वो वेद ज्ञान प्राप्त कर राजा हो गये ? फिर उन्होंने वो ज्ञान अन्य मनुष्यो को कैसे सुनाया होगा ? क्योंकि ये वेद श्रुति हैं।

यदि फिर भी मानो तो एक बात बताओ – हमारा इतिहास यही बताता है की इस धरती का पहला राजा “स्वयाय्मभव मनु” महाराज थे – और इसी बात को महर्षि दयानंद भी बता गए। अब मुझे आप बताओ यदि “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा थे तो अंगिरा ऋषि इनसे पहले हुए होंगे क्योंकि उन्हें वेद ज्ञान प्रकाशित हुआ – तो वो आप शिव कल्पना कर कैलाश का राजा बना दिया – तो “स्वयाय्मभव मनु” पहले राजा कैसे हुए ?

कृपया अभी इन ३ के जवाब ही दे देवे – बाकी की आपकी अनेको पोस्ट्स पर जो आपत्ति है उनका भी निराकरण आपसे अवश्य मांगेंगे।

नोट : आपसे निवेदन है कृपया आर्य समाज के सिद्धांतो और नियमो को भली प्रकार समझ कर तब सत्य और असत्य निष्कर्ष निकालकर पोस्ट लिखा करे। हिन्दू समाज वैसे ही बहुत से अंधविश्वासों में डूबा है – अब आर्य समाज को भी अन्धविश्वास की दलदल न बनाये।

नमस्ते।

गृहस्थाश्रम को स्वर्ग का साधन समझें – कन्हैयालाल आर्य

गृहस्थ और सुख? यह तो कुछ अनोाी बात है। इसमें इतने दुःख हैं कि आरभ से ही इसे दुःखों का घर समझा जाता है। आधुनिक काल में जबकि हमने अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को बहुत बढ़ा रखा है तो कुछ बात यथार्थ प्रतीत होने लगती है, परन्तु यदि गभीरता पूर्वक इस पर विचार किया जाये तो महर्षि मनु की यह बात सही है कि गृहस्थ आश्रम व्यवस्था की दृष्टि से ज्येष्ठ तथा श्रेष्ठ सिद्ध है।

गृहस्थाश्रम तो लोक और परलोक दोनों को सुधारने का एक माध्यम है। इस माध्यम को मानव ने अपने स्वार्थ, आलस्य, प्रमाद, अतिवासना तथा लोभ और मर्ूाता से बिगाड़ रखा है। हम स्वयं ही जंजीरे गढ़ते हैं और अपने हाथ-पाँव में बाँध लेते हैं और फिर चिल्लाने लगते हैं कि हम बाँधे गये। गृहस्थाश्रम का तो इसलिए निर्माण किया गया ताकि लबी जीवन यात्रा में नर या नारी अकेला थक न जाये। लबी यात्रा में साथी साथ हो तो यात्रा सरल बन जाती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन पाँचों को ठीक मर्यादा में रखने का सुन्दर साधन गृहस्थ है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे आजीवन ब्रह्मचारी विरले ही होते हैं, उन्होंने भी गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहा है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में बताया है कि-

  1. यथा नदी नदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

   तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।

-मनु. 6/90

जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं हो जाते। वैसे ही गृहस्थ के आश्रम में सब आश्रम स्थिर रहते हैं, बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।

  1. यथा वायुं समाश्रित्य, वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः।

   तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः।।

-मनु. 3/77

जैसे वायु के आश्रय पर सब प्राणी हैं वैसे गृहस्थाश्रम सब आश्रमों का आश्रय दाता है।

  1. यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्।

   गृहस्थेनैव धार्य्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।

– मनु. 3/78

जिससे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देकर गृहस्थ ही धारण करता है इसीलिए गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।

  1. स संधार्य्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।

    सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।

– मनु. 3/76

जो अक्षय, मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो, वह प्रयत्न से गृहाश्रम धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बल इन्द्रिय, भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने योग्य नहीं है, उसको अच्छे प्रकार धारण करे।

इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहाश्रम है, जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहाँ से हो सकते? जो कोई गृहस्थ आश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है, जो प्रशंसा करता है, वह प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहस्थाश्रम में सुख होता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हो।

प्राचीन इतिहास बतलाता है कि ऋषि-मुनि गृहस्थाश्रम में रहकर सबका पथ प्रदर्शन करते थे और हमारे पूर्वज नारी जाति का अत्यधिक मान करते थे, तभी तो कहा हैः-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।

जहाँ नारियों का समान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। महर्षि मनु ने तो यहाँ तक कह दिया है कि नारी ही घर की शोभा है, जहाँ गृहिणी नहीं, वह घर ही नहीं। जहाँ पति और पत्नी का एक दूसरे से प्यार है, वही घर स्वर्ग समान है। जहाँ पुत्र-पुत्रियाँ आज्ञाकारी हों, वही घर स्वर्ग समान हैं। स्वर्ग किसी ऊपर या नीचे के लोकों का नाम नहीं है, यदि इसी गृहस्थ में आप सुखी हैं तो आप इस जीवन काल में भी ‘स्वर्गीय’ अर्थात् सुखी बन सकते हैं। स्वर्गीय का अर्थ है- स्वर्ग में रहना, जहाँ प्रत्येक प्रकार का सुख, समृद्धि, सन्तोष हो, उसी का नाम स्वर्ग है और ऐसे स्वर्ग की प्राप्ति गृहस्थाश्रम के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है। इसलिए यह धारणा कि गृहस्थी सुखी नहीं हो सकता और गृहस्थ तो दुःखों का घर है, यह गलत है। गृहस्थ ही एक ऐसा आश्रम है जिसके माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति संभव है।

विवाह के समय वर-वधू का सात कदम एक साथ चलना भी इसी भाव का प्रतीक है। जहाँ अन्न शारीरिक बल, धन, सुख, सन्तान प्राप्ति, चारों तरफ की प्राकृतिक परिस्थिति का अनुकूल होना कहा है, वहाँ सातवाँ कदम रखते हुए वर कहता है-

3म् सखे सप्तपदी भव विष्णुस्त्वा नयतु

पुत्रान् विन्दावहै, बहूंस्ते सन्तु जरदष्टयः

अर्थात् हम सदा साथ रहें, हममें मैत्री भाव रहे, तेरा मन मेरे मन के अनुकूल हो, हम दोनों मिलकर पुत्र-पुत्रियों को प्राप्त करें और वे वृद्धावस्था तक जीने वाले हों।

शास्त्रों में गृहस्थ को एक आश्रम कहा गया है। यह एक मंजिल है। मंजिल तक पहुँचने के लिए खड़े रहने से काम नहीं चलता, मंजिल की तरफ चलना पड़ता है। सप्तपदी का अभिप्राय यही होता है कि वर-वधु को इस बात की प्रतीति कराई जाती है कि गृहस्थाश्रम आराम से बैठे रहने का नाम नहीं है। इस आश्रम के कुछ उद्देश्य हैं, प्रयोजन हैं। इन प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए अलग-अलग नहीं, एक साथ चलना होगा, कदम से कदम मिलाकर चलना होगा, तभी वे इस आश्रम के उद्देश्य को पा सकेंगे। तभी तो ऋग्वेद में कहा है-

3म् समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ।

सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ।।

हम दोनों पति-पत्नी निश्चयपूर्वक तथा प्रसन्नतापूर्वक यह घोषणा करते हैं कि हम दोनों के हृदय जल के समान सदा शान्त रहें, जैसे प्राणवायु हमको प्रिय है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे के साथ प्रसन्न रहेगें, जैसे धारण करने वाला परमात्मा सबमें मिला हुआ, सब जगत् को धारण करता है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे को धारण करते रहेंगे।

गृह्यसूत्र में लिखा हैंः-

3म् यदेतद् हृदयं तव तदस्तु हृदयं मम्।

यदिदम् हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव।।

जो तेरा हृदय है, वह मेरा हृदय हो जाये और जो मेरा हृदय है, वह तेरा हृदय हो जाये।

3म् मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु।

मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्।

हमारा एक-दूसरे के साथ श्रेष्ठ व्यवहार हो। हमारा चित्त एक-दूसरे के अनुकूल हो। प्रजापति ने हमें एक-दूसरे के साथ नियुक्त किया है। हमें इसका सफल निर्वाह करना है।

विवाह का उद्देश्य तो जीवन के आदर्श को पूर्ण करने के लिए एक साधन मात्र है। जीवन का आदर्श, सब प्राणियों में अपनापन अनुभव करना है। इसलिए विवाह में पति-पत्नी में मित्रता, सखा-भाव जरुरी है, नहीं तो विवाह का प्रधान उद्देश्य पूरा नहीं होता।

स्त्री-पुरुष में तो प्रेम स्वाभाविक है, इसे सीखने के लिए किसी विद्यालय में नहीं जाना पड़ता। स्त्री तथा पुरुष के इसी स्वाभाविक प्रेम को प्राणिमात्र तक ले जाने का एक कठिन काम को आसान बनाने का प्रयत्न गृहस्थाश्रम द्वारा किया जाता है। इसी प्रेम का, मैत्री भाव का आगे विस्तार करना है। विवाह में यही प्रेम, सखा भाव ही एक ऐसा तत्व है जिसे संकुचित क्षेत्र से निकालकर हम विस्तृत क्षेत्र में विकसित करना चाहते हैं।

गृहस्थाश्रम में अपनेपन का केन्द्र अपने से हटकर दूसरों में जाना प्रारभ हो जाता है, स्वार्थ का अंश पर्दे की ओट में चला जाता है और उसकी जगह परार्थ का भाव सामने आने लगता है। अतः यह बड़ी जिमेदारी का आश्रम है।

आत्मा के अपने आदर्श लक्ष्य तक पहुँचने का उसके पूर्ण रूप में विक सित होने का यही उपाय है। ब्रह्मचर्यावस्था ‘स्व’ की उन्नति से प्रारभ होती है। इस आश्रम में ‘स्व’ या ‘अपने’ आपका उत्थान प्रमुख होता है, ब्रह्मचारी अपने इर्द-गिर्द ही घूमता है परन्तु जब वह अपने ‘स्व’ को दृढ़ बना चुका होता है, तब उसे अपनी आत्मा को अधिक विकसित करने को कहा जाता है तो वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम अपने तक सीमित होता है परन्तु गृहस्थ आश्रम अपने से हटकर सन्तानों तक विस्तृत होता ही है। वह पूरे समाज में अपने आपको विस्तृत कर देता है। गृहस्थाश्रम आत्मिक विकास की एक सीढ़ी है यह सभी आश्रमों का पालक, पोषक एवं सहयोगी है। तभी तो इस आश्रम को स्वर्ग प्राप्ति का माध्यम माना गया है। महर्षि मनु की स्पष्ट घोषणा है-

अनेन विप्रो वृत्तेन वर्तयन् वेदशास्त्रवित्।

व्यपेत कल्मषो नित्यं ब्रह्मलोके महीयते।।

(4.260)

अर्थात् – जो वेद शास्त्रों को पढ़ने वाला गृहस्थ शास्त्रोक्त कर्त्तव्यों का पालन करता है वह पाप रहित जीवन स्वर्ग अथवा मोक्ष के आनन्द को प्राप्त करता है।

– 4/44, शिवाजी नगर, गुड़गाँव, हरियाणा

चलभाष-09911197073

धर्मान्तरण (इतिहास के परिप्रेक्ष्य में) – – सत्येन्द्र सिंह आर्य

ईसवी सन् 2014 में जब से मोदी सरकार ने केन्द्र में सत्ता सभाली है तब से धर्मान्तरण का मुद्दा समाचार पत्रों सहित संचार माध्यमों में बहस का विषय बना हुआ है। हिन्दी समाचार पत्रों के संजय गुप्त और ए. सूर्यप्रकाश जैसे वरिष्ठ और यथार्थवादी पत्रकारों को छोड़कर अधिकांश लोगों का लेखन और विमर्श सतही प्रकृति का और पक्षपातपूर्ण रहा है और सच्चाई से मुँह छिपाता दिखाई पड़ता है। उत्तरप्रदेश में उच्च न्यायालय जब कहता है कि एक निश्चित कालावधि में न्यायालय में पंजीकृत 400 अन्तरजातीय (वास्तव में विभिन्न धर्मों वाले) विवाहों में लड़के सभी इस्लाम मतानुयायी हैं और लड़कियाँ सब हिन्दू हैं तो इस मामले में यह देखा जाना चाहिए कि कहीं कुछ धोखाधड़ी, छल-कपट तो नहीं है। तब कांग्रेस, बसपा, सपा, कयुनिष्टों सहित सारे तथाकथित सैकुलरवादी मौन साध जाते हैं। विदेशी और सरकारी पैसे पर अपना एन.जी.ओ. चलाने वाले स्वयभू बुद्धिजीवी और संचार माध्यम भी चुप रहने में अपना भला समझते हैं। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त विदेशी ईसाई पादरी को भारत से निष्कासित करने का आदेश देता है तो सोची समझी नीति के तहत सब स्वार्थी और वोट बैंक के लालची राजनेता चुप्पी लगा जाते हैं। गैर मुस्लिमों का इस्लामीकरण, बलात् धर्म परिवर्तन और इस्लाम की आक्रामकता  का मुद्दा हैदराबाद सहित कश्मीर से केरल तक जग-जाहिर है परन्तु उस पर कहीं भी कोई किसी प्रकार की आलोचनात्मक टिप्पणी करने का साहस नहीं जुटा पाता। न्यायपालिका यदाकदा किसी जनहित याचिका के अन्तर्गत ऐसी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का संज्ञान ले लेती है।

हिन्दू जाति अपनी जातिगत दुर्बलताओं के कारण शतादियों से छुआछूत, अस्पृश्यता, ऊँच-नीच के रोग से ग्रसित रही है। स्वाध्याय-शून्य जन्मना पण्डित वर्ग अपने हठ और धर्म के क्षेत्र में व्यवस्था (फतवा) देने के अपने विशेषाधिकार के कारण किसी हिन्दू के मुसलमान या ईसाई बन जाने पर उसे पुनः हिन्दू धर्म में वापस लेने का घोर विरोधी रहा है। यह स्थिति स्वाधीनता प्राप्ति के बीसों वर्ष बाद तक यथावत् रही है। भारत विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश)से वे हिन्दू नर-नारी जिन्हें वहाँ उसी समय कलमा पढ़ाकर मुसलमान बनाया गया था, राष्ट्र के स्वाधीन होने पर अपना सब कुछ गवाँकर यहाँ आए। ऐसे कुछ लोगों ने दिल्ली आकर प्रसिद्ध हिन्दू नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी से सपर्क किया और कहा कि वे पुनः हिन्दू धर्म में लौटना चाहते हैं। उस समय हिन्दुओं के सर्वोच्च नेता (स्वामी हरिहरानन्द) करपात्री जी ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को कह दिया कि हमारे शास्त्र इस बात कहीं अनुमति नहीं देते । ऐसा लगता है कि संघ वालों को अब लगा होगा कि यह भूल थी, यदि उसी बात पर अड़े रहे तो हिन्दू जाति का नाम शेष होने में कुछ ही दशादियाँ लगेंगी।

इस पृष्ठभूमि में सभवतः आगरा आदि में कुछ लोगों ने हिन्दू धर्म में वापसी की इच्छा जताई हो और उसे ‘‘घरवापसी’’ का नाम देकर संधियों ने कुछ प्रोपैगेण्डा किया हो तो संचार माध्यमों में सारे सैकुलरिस्टों ? बुद्धिजीवियों? ने तूफान मचा दिया। दूसरी ओर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, छोटानागपुर, मध्यप्रदेश, केरल और पूर्वोत्तर राज्यों में हिन्दुओं के ईसाईकरण का महाभियान चल रहा है उस पर इनका ध्यान नहीं जाता और न कोई कुछ बोलता है। सत्य बात कहने का उनमें साहस नहीं होता। इस (धर्मान्तरण) विषय पर निष्पक्षता के साथ यथार्थ के धरातल पर और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में विचार होना चाहिए। सतही तौर पर लीपापोती करने से कुछ हल नहीं निकल सकेगा।

वर्तमान समय में विभिन्न मत-मतान्तरों को भी धर्म का नाम देकर धर्म शद को बहुवचन के रूप में प्रयोग करने की परपरा चल पड़ी है। महात्मा जरदुश्त, महावीर स्वामी, गौतम बुद्ध, ईसामसीह और मुहमद हजरत के जन्म से पूर्व इनके द्वारा  चलाये गये मत- पंथों का कहीं नामो-निशान नहीं था। परन्तु मानवीय मर्यादाओं के रूप में कुछ नियम और व्यवहार की मान्यताएँ तो उस समय भी थीं और वे तब से थीं जब से मानव जाति इस धरा पर है और वे मानव-मात्र के लिए हित-साधक, उपयोगी और ग्राह्य थीं, हैं और रहेंगी। आप्त पुरुष उस बात को यह कहकर परिभाषित करते थे कि ‘‘पक्षपात रहित न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा और जो वेदों से अविरुद्ध है, वह धर्म है।’’ वेदों में ऐसा कुछ नहीं है जो तर्क-संगत, विज्ञान के और सृष्टि के अनुकूल न हो। संयुक्त राष्ट्र के यूनेस्को विभाग में ऋग्वेद को प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। महाभारत युद्ध के भी सैकड़ों वर्ष बाद की अवधि तक वैदिक धर्म ही इस पृथ्वी पर एक मात्र धर्म था।

जिन महापुरुषों, पैगबरों आदि ने नए मत-पंथ चलाये, पहला धर्मान्तरण तो उन्होंने ही किया, वैदिक धर्म के मानने वालों को पारसी, यहूदी, ईसाई, जैन, बौद्ध या मुसलमान बनाया । इन पंथ प्रवर्तकों के बनाये । प्रचारित किये गये ग्रन्थों में जो भी अच्छी और बुद्धि-गय बातें हैं, उनमें एक भी ऐसी नहीं जो वेदों में न हो  परन्तु फिर भी पंथ-प्रवर्तकों ने नए-नए पंथ चलाकर धर्मान्तरण नाम के वायरस का बीजारोपण तो कर ही दिया । वही रोग धीरे-धीरे महारोग बनता चला गया। ईसाई और इस्लाम मतावलबियों ने धर्मान्तरण के लिए जोर-जबरदस्ती, छल-कपट सहित क्या-क्या हथकण्डे अपनाए, यह इतिहास के पन्नों में भरा पड़ा है। भारत के स्वाधीन होने के बाद भी इस रोग की कोई रोकथाम नहीं हुई। आज तो ईसाई एवं इस्लाम मतावलबी मन से यह चाहते हैं कि उनके द्वारा किये जा रहे हिन्दुओं के धर्मान्तरण के मार्ग में कोई भी रुकावट न हो परन्तु एक भी ईसाई या मुसलमान पुनः हिन्दू न बने । इस बेईमानी का पूर्वानुमान हमारे संविधान निर्माताओं को था। संविधान सभा के सदस्य श्री अनन्त शयनम् अयंगार (जो बाद में बिहार के राज्यपाल और लोकसभा के अध्यक्ष भी रहे) ने कहा था कि भारत में धर्मान्तरण की समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी। ‘‘यह बड़ा दुर्भाग्य पूर्ण है कि मजहब का उपयोग किसी की आत्मा को बचाने के लिए नहीं बल्कि समाज को तोड़ने के लिए किया जा रहा है।…..इसलिए मैं चाहता हूँ कि भारतीय संविधान में एक मूृल अधिकार जोड़ा जाए जिससे धर्मान्तरण पर रोक की व्यवस्था हो। मैं सभी को अपील करता हॅूँ कि धर्मान्तरण के भयंकर परिणाम को महसूस करें । बाद में जाकर यह समस्या विकराल रूप धारण कर लेगी।’’

संविधान सभा में धर्म विषयक प्रकरणः भारतीय संविधान के निर्माण के समय जब संविधान सभा की बैठकों में धर्म के अधिकार का प्रश्न आया तो ईसाइयों के दबाव पर यह निर्णय लिया गया कि अनुच्छेद 25 (ए)के अन्तर्गत किसी भी धर्म के प्रचार या मानने की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख किया जाए। हमारे राष्ट्रवादी नेताओं का विचार था कि धर्म के प्रचार और मानने की स्वतन्त्रता पर कोई प्रतिबन्ध ही नहीं लगाया जा रहा तो ऐसे में इस अधिकार के लिखने की क्या आवश्यकता है। परन्तु फिर भी ईसाइयों के हठ और आग्रह पर यह प्रावधान जोड़ा गया।

सरदार बल्लभभाई पटेल ने जब संविधान सभा के समक्ष एक अन्तरिम रिपोर्ट प्रस्तुत की तो कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी ने उसमें निम्न प्रावधान जोड़ने का प्रस्ताव किया-

‘‘कोई भी धर्मान्तरण यदि धोखे, दबाव या लालच के द्वारा या 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति का होता है तो उसे कानून की मान्यता नहीं होगी।’’

श्री मुंशी के इस प्रस्ताव का ईसाई सदस्यों ने एक जुट होकर विरोध किया।

इस प्रकार के धर्मांतरण को रोकने के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद मध्यप्रदेश और उड़ीसा की राज्य सरकारों द्वारााी समय -समय पर कानून बनाये गये । इन  कानूनों को भी ईसाइयों ने सर्वोच्च न्यायालय तक चुनौती दी। परिणाम स्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह राय व्यक्त की कि लोभ, लालच और दबाव से कराया गया धर्मान्तरण धर्म प्रचार की स्वतन्त्रता का अंग नही है।

इस चर्चा से यह तो स्पष्ट रूप से निर्विवादित है कि धर्मान्तरण जैसी असामाजिक घटनाओं पर रोकथाम का जब कभी भी प्रयास किया गया तो ईसाई वर्ग ही इसके विरोध में उठ खड़ा होता है। ऐसा क्यों?

भारतीय संसद में धर्मान्तरण की गूंजः वर्ष 1960 में आर्य नेता पं. प्रकाशवीर शास्त्री (स्वतन्त्र सांसद) ने धर्मान्तरण पर अंकुश सबन्धी एक विधेयक प्रस्तुत किया था। श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस विधेयक के समर्थन में 19 फरवरी 1960 को लोकसभा में अपने ओजस्वी भाषण में कहा था कि ‘‘अपनी परपरा के अनुसार हमने एक असाप्रदायिक राष्ट्र की स्थापना की है।’’ हमने कहा है कि राज्य किसी धर्म के साथ अपने को नहीं जोड़ेगा और किसी पूजा की विशेष पद्धति के साथ भेदभाव नहीं करेगा। लेकिन असाप्रदायिकता का अर्थ यह नहीं है और धार्मिक स्वतन्त्रता का यह मतलब नहीं हो सकता कि धर्म का परिवर्तन बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास की सीढ़ी न होकर एक ऐसी योजना का अंग बन जाए जिसके पीछे राजनैतिक उद्देश्य छिपे हों।’’

उस समय सरकार और संसद में नेहरु का असाधारण दबदबा था। अतः उस बिल का परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा।

धर्म स्वातन्त्र्य विधेयक 1978:- जून 1975 से मार्च 1977 के मध्य थोपे गये आपातकाल की त्रासदी के  पश्चात् वर्ष 1977 में जनता पार्टी ने मोरारजी भाई रणछोड़ जी भाई देसाई के नेतृत्व में केन्द्रीय सत्ता सभाली । वर्ष 1978 में उसी पार्टी के लोकसभा सदस्य श्री ओमप्रकाश त्यागी ने धर्म स्वातन्त्र्य विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया जो इस प्रकार था-

संक्षिप्त नाम और आरभ

  1. (1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम धर्म स्वातन्त्र्य अधिनियम 1978 होगा।

(2) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जो के न्द्र सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा नियत करे।

परिभाषाएं :

  1. इस अधिनियम में जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो।

(क) संपरिवर्तन से अभिप्रेत है कि एक धर्म को त्यागकर दूसरे धर्म को अंगीकृत करना।

(ख) बल के अन्तर्गत बल प्रदर्शन या किसी प्रकार की क्षति की धमकी (जिसके अन्तर्गत दैवी अप्रसाद या समाज से बाहर करने की धमकी है) भी होगी।

(ग) कपट के अन्तर्गत दुर्व्यपदेशन या कोई अन्य कपटपूर्ण उपाय भी होगा।

(घ) उत्प्रेरणा के अन्तर्गत किसी दान या परितोषण को, चाहे वह नकद रूप में हो या वस्तुरूप में, प्रस्थापना भी होगी और इसके अन्तर्गत कोई फायदा करना भी होगा चाहे वह धन सबन्धी हो या अन्यथा और-

(ङ) अवयस्क से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जो अट्ठारह वर्ष से कम आयु का हो।

(यह विधेयक विषयक विवरण उनकी पुस्तक ‘धर्मान्तरण’ से लिया है।)

इस विधेयक का भाव यही था कि कोई भी धर्मावलबी दूसरे धर्म के व्यक्ति को छल-कपट, लालच, दबाव आदि के द्वारा धर्मान्तरित न करे। यह व्यवस्था हिन्दू, मुसलिम, ईसाई, सिख आदि पर बिना किसी भेदभाव के लागू होती । विधेयक संसद के पटल पर रखा गया था। इतने भर से ही चिढ़कर मदर टेरेसा जिसे वेटिकन ने बाद में सन्त घोषित कर दिया ने प्रधानमन्त्री मोरार जी देसाई को पत्र लिखा कि यदि यह विधेयक पास हो गया तो चर्च को चिकित्सालयों एवं विद्यालयों के द्वारा की जा रही सेवा का काम करना कठिन हो जाएगा। श्री देसाई को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने मदर टेरेसा को दो टूक उत्तर दिया कि चर्च यदि धर्मान्तरण के लिए ही (सेवा के नाम पर) चिकित्सालय और विद्यालय चलाता है तो उसे यह कार्य बन्द कर देना चाहिए। यह सेवा नहीं छल है।

यह विधेयक भी कानून का रूप नहीं ले सका परन्तु ईसाइयों के छल-प्रपंच की पोलपट्टी खुल गयी।

पिछले तीन चार महीनों में जब-जब विचारशील लोगों द्वारा यह बात उठाई गयी कि धर्मान्तरण रोकने के लिए कोई भेदभाव रहित कानून बनाया जाये तो मुस्लिम उलेमा भी चर्च के सुर में सुर मिलाते हुए उसका विरोध करने लगते हैं। यह समस्या वास्तव में गभीर है। हिन्दुओं की घर-वापसी पर विरोध हो और ईसाईकरण और इस्लामी करण निर्बाध चलता रहे, यह बात सय समाज क ो स्वीकार करने योग्य नहीं है। सरकार इस पर निष्पक्ष दृष्टि से विचार करे तभी समस्या का समाधान निकल सकता है।

– जागृतिविहार, मेरठ

-इतिहास प्रदूषण- ‘पं. लेखराम एवं वीर सावरकर के जीवन विषयक सत्य घटनाओं का प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य अल्पज्ञ है इसलिये उससे अज्ञानता व अनजाने में यदा-कदा भूल व त्रुटियां होती रहती है। इतिहास में भी बहुत कुछ जो लिखा होता है, उसके लेखक सर्वज्ञ न होने से उनसे भी न चाहकर भी कुछ त्रुटियां हो ही जाती हैं। अतः इतिहास विषयक घटनाओं की भी विवेचना व छानबीन होती रहनी चाहिये अन्यथा वह कथा-कहानी ही बन जाते हैं। आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्यसमाज के इतिहास विषयक साहित्य के अनुसंधान व तदविषयक ऊहापोह के धनी है। हिन्दी, अंग्रेजी व उर्दू के अच्छे जानकार है। लगभग 300 ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक, सम्पादक व प्रकाशक हैं। नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते हैं। मिथ्या आरोपों का खण्डन करते हैं। वह इतिहास विषयक एक सन्दर्भ को एक ही पुस्तक में देखकर सन्तोष नहीं करते अपितु उसे यत्र-तत्र खोजते हैं जिससे कि उस घटना की तिथियां व उसकी विषय-वस्तु में जानबूझ, अल्पज्ञता व अन्य किसी कारण से कहीं कोई त्रुटि न रहे। उनके पास प्रकाशित पुस्तकों व लेखों में जाने-अनजाने में की गईं त्रुटियों की अच्छी जानकारी है जिस पर उन्होंने इतिहास प्रदूषण नाम से एक  पुस्तक भी लिखी है। 160 पृष्ठीय पुस्तक का हमने आज ही अध्ययन समाप्त किया है। इस पुस्तक में रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी के जीवन की एक घटना के प्रदूषण की ओर भी उनका ध्यान गया है जिसे उन्होंने सत्य की रक्षार्थ प्रस्तुत किया है। हम यह बता दें कि पण्डित लेखराम महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त थे। आपने लगभग 7 वर्ष तक निरन्तर देशभर में घूम कर महर्षि दयानन्द के सम्पर्क में आये प्रत्येक व्यक्ति व संगठनों से मिलकर उनके जीवन विषयक सामग्री का संग्रह किया जिसके आधार पर उनका प्रमुख व सर्वाधिक महत्वपूर्ण जीवनचरित्र लिखा गया। 39 वर्ष की अल्प आयु में ही एक मुस्लिम युवक ने धोखे से इनके पेट में छुरा घोप कर इन्हें वैदिक धर्म का पहली पंक्ति का शहीद बना दिया था। कवि हृदय प्रा. जिज्ञासु जी ने इस शहादत पर यह पंक्तियां लिखी हैं-जो देश को बचा सकें, वे हैं कहां जवानियाँ ? जो अपने रक्त से लिखें, स्वदेश की कहानियां।। पं. लेखराम जी के जीवन की इस घटना को प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य है कि पाठक यह जान सकें सच्चे विद्वानों से भी अनजाने में इतिहास विषयक कैसी-कैसी भूलें हो जाती हैं, इसका ज्ञान हो सके।

 

स्मृतिदोष की यह घटना आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान जिन्हें भूमण्डल प्रचारक के नाम से जाना जाता है, उन मेहता जैमिनी से सम्बन्ध रखती है। मेहता जैमिनी जी की स्मरण शक्ति असाधारण थी। इस कारण वह चलते फिरते इतिहास के ग्रन्थ थे। उनकी स्मरण शक्ति कितनी भी अच्छी हो परन्तु वह थे तो एक जीवात्मा ही। जीव की अल्पज्ञता के कारण उनमें भी अपवाद रूप में स्मृति दोष पाया गया है। आपकी स्मृति दोष की एक घटना से आर्यसमाज में एक भूल इतिहास बन कर प्रचलित हो गई। प्रा. जिज्ञासु जी बताते हैं कि यह सम्भव है कि इस भूल का मूल कुछ और हो परन्तु उनकी खोज व जांच पड़ताल यही कहती है कि यह भ्रान्ति मेहता जैमिनि जी के लेख से ही फैली। घटना तो घटी ही। यह ठीक है परन्तु श्री मेहता जी के स्मृति-दोष से इतिहास की इस सच्ची घटना के साथ कुछ भ्रामक कथन भी जुड़ गया। कवियों ने उस पर कविताएं लिख दीं। लेखकों ने लेख लिखे। वक्ताओं ने अपने ओजस्वी भाषणों में उस घटना के साथ जुड़ी भूल को उठा लिया। घटना तो अपने मूल स्वरूप में ही बेजोड़ है और जो बात मेहता जी ने स्मृति-दोष से लिख दी व कह दी उससे उस घटना का महत्व और बढ़ गया।

 

घटना पं. लेखराम जी के सम्बन्ध में है। इसे आर्यसमाजेतर जाति प्रेमी हिन्दू भी कुछ-कुछ जानते हैं। यह सन् 1896 की घटना है। पं. लेखराम जी सपरिवार तब जालन्धर में महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती) जी की कोठी से थोड़ी दूरी पर रेलवे लाईन के साथ ही एक किराये के मकान में रहते थे। मेहता जैमिनि जी (तब जमनादास) भी जालन्धर में ही रहते थे। मुंशीराम जी आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे। मेहता जैमिनि जी सभा प्रधान के पास बैठे हुए थे। पण्डित लेखराम जी प्रचार-यात्रा से लौटकर आये। महात्मा मुंशी राम जी ने उन्हें बताया कि मुस्तफाबाद (जिला अम्बाला) में पांच हिन्दू मुसलमान होने वाले हैं। आपका प्रिय पुत्र सुखदेव रूग्ण है। आप तो उसको देखें, सम्भालें ( उपचार करायें) मैं हकीम सन्तराम जी (जो शाहपुरा राजस्थान भी रहे) को तार देकर वहां जाने के लिए कहता हूं।

 

मेहता जी ने अपने इस विषयक लेख में लिखा है-‘‘नहीं, वहां तो मेरा (पं. लेखराम का) ही जाना ठीक है। मुझे अपने एक पुत्र से (आर्यहिन्दू) जाति के पांच पुत्र अधिक प्यारे हैं। आप वहां तार दे दें। मैं सात बजे की गाड़ी से सायं को चला जाऊंगा। यह भी लिखा कि वह केवल दो घण्टे घर पर रुके। उनकी अनुपस्थिति में डा. गंगाराम जी ने बड़ा उपचार निदान किया, परन्तु सुखदेव को बचाया न जा सका। 18 अगस्त 1896 ई. को वह चल बसा। (द्रष्टव्यः ‘आर्यवीर’ उर्दू का शहीद अंक सन् 1953 पृष्ठ 9-10)।  ईश्वर का विधि-विधान अटल है। जन्म-मृत्यु मनुष्य के हाथ में नहीं है।

 

जिज्ञासु जी आगे लिखते हैं कि यह तो हम समझते हैं कि पण्डित जी के लौटने पर मेहता जी ने महात्मा जी पण्डित जी का संवाद अवश्य सुना, परन्तु आगे का घटनाक्रम उनकी स्मृति से ओझल हो गया। पण्डित जी पुत्र की मृत्यु के समय जालन्धर में ही थे। घर से बाहर होने की बात किसी ने नहीं लिखी। वह पुत्र के निधन के पश्चात् मुस्तफाबाद जाति रक्षा के लिए गये। अब इस सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखा जाए? एक छोटी सी चूक से इतिहास में भ्रम फैल गया। लोक झूम-झूम कर गाते रहे-

 

लड़का तिरा बीमार था

                        शुद्धि को तू तैयार था ।।

                        मरने का पहुंचा तार था।

                        पढ़कर के तार यूं कहा।।

                        लड़का मरा तो क्या हुआ।

                        दुनिया का है यह सिलसिला ।।

 

इससे भी अधिक लिफाफे वाले गीत को लोकप्रियता प्राप्त हुई। अब तो वह गीत नहीं गाया जाता। उस गीत की ये प्रथम चार पंक्तियां स्मृति-दोष से इतिहास प्रदूषण का अच्छा प्रमाण है।

 

लिफाफा हाथ में लाकर दिया जिस वक्त माता ने।

                        लगे झट खोलकर पढ्ने दिया है छोड़ खाने को।।

                        मेरा इकलौता बेटा मरता है तो मरने दो लेकिन

                        मैं जाता हूं हजारों लाल जाति के बचाने को।।

 

इस प्रसंग की समाप्ति पर जिज्ञासु जी कहते हैं कि स्मृति दोष से बचने का तो एक ही उपाय है कि इतिहास लेखक घटना के प्रमाण को अन्यान्य संदर्भों से मिलाने को प्रमुखता देवें।

 

विद्वान लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने वीर सावरकर पर भी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। हम इस प्रसंग से पहली बार परिचित हुए हैं जिसे हम पाठकों के साथ साज्ञा कर रहे हैं। पुस्तक इतिहास प्रदूषण में लेखक ने लिखा है कि वीर सावरकर ने अपनी आत्मकथा में ऋषि दयानन्द तथा आर्य समाज से प्राप्त ऊर्जा प्रेरणा की खुलकर चर्चा की है। यदि ये बन्धु लार्ड रिपन के सेवा निवृत्त होने पर काशी के ब्राह्मणों द्वारा उनकी शोभा यात्रा में बैलों का जुआ उतार कर उसे अपने कन्धों पर धरकर उनकी गाड़ी को खींचने वाला प्रेरक प्रसंग (श्री आर्यमुनि, मेरठवैदिकपथपत्रिका में वीर सावरकर जी पर प्रकाशित अपने लेख में) उद्धृत कर देते तो पाठकों को पता चला जाता कि इस विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी को देश के लिए जीने मरने के संस्कार विचार देने वालों में ऋषि दयानन्द अग्रणी रहे। इसी क्रम में दूसरी घटना है कि मगर आर्यसमाज ने जब अस्पृश्यता निवारण के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज आयोजित किया तो आप (यशस्वी वीर सावरकर जी) विशेष रूप से इसमें भाग लेने के लिए अपने जन्मस्थान पर पधारे। इससे यह एक ऐतिहासिक घटना बन गई। इस लेखक (प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु) ने कई बार लिखा है कि भारत के राजनेताओं में से वीर सावरकर ने सर्वाधिक आर्य हुतात्माओं तथा देशभक्तों पर हृदय उड़ेल कर लेख लिखे हैं। आर्यसमाज ऋषि के विरोधियों को लताड़ने में वीर सावरकर सदा अग्रणी रहे। कम से कम भाई परमानन्द स्वामी श्रद्धानन्द जी की चर्चा तो की जानी चाहिये। आपके एक प्रसिद्ध पत्र का नाम ही श्रद्धानन्द था। यह पत्र भी इतिहास साहित्य में सदा अमर रहेगा। 

 

महर्षि दयानन्द आर्यसमाज संगठन के प्रति समर्पित अनेक विद्वान हुए हैं परन्तु जो श्रद्धा, समर्पण, इतिहास साहित्य के अनुसंधान की तड़फ पुरूषार्थ सहित महर्षि समाज के प्रति दीवानगी वर्तमान समय में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी में दिखाई देती है, वह अन्यतम एव अनुकरणीय है। नाज नखरों से रहित उनका जीवन एक सामान्य सरल व्यक्ति जैसा है। आज की हाईफाई जीवन शैली से वह कोसों दूर हैं। उन्होंने आर्यसमाज को जो विस्तृत खोजपूर्ण प्रामाणिक साहित्य प्रदान किया है वह स्वयं में एक कीर्तिमान है। पाठकों हममें उनका समस्त साहित्य प्राप्त कर अध्ययन करने की क्षमता भी नहीं है। हम उनकी ऋषिभक्ति खोजपूर्ण साहित्यिक उपलब्धियों के प्रति नतमस्तक हैं।  उनके साहित्य का अध्ययन करते हुए जबजब हमें नये खोजपूर्ण प्रसंग मिलते हैं तो हम गद्गद् हो जाते हैं और हमारा हृदय उनके प्रति श्रद्धाभक्ति से भर जाता है। कुछ अधूरे प्रसंग पढ़कर संदर्भित पुस्तक तथा प्रमाण तक हमारी पहुंच होने के कारण मन व्यथित भी होता है। उनके समस्त साहित्य में ऋषि भक्ति साहित्यिक मणिमोती बिखरे हुए हैं जो अध्येता को आत्मिक सुख देते हैं। हम ईश्वर से अपने इस श्रद्धेय विद्वान की शताधिक आयु के स्वस्थ क्रियात्मक जीवन की प्रार्थना करते हैं।

हम समझते हैं कि लेखकों से स्मृति दोष व अन्य अनेक कारणों से ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण व वर्णन में भूलें हो जाती हैं। इतिहास में विगत कई शताब्दियों से अज्ञानता व स्वार्थ के कारण धार्मिक व सांस्कृतिक साहित्य में परिवर्तन, प्रेक्षप, मिलावट व हटावट होती आ रही है जिसे रोका जाना चाहिये। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की इतिहास प्रदूषण पुस्तक इसी उद्देश्य से लिखी गई है। विद्वान लेखक ने अपनी इस पुस्तक में जाने-अनजाने में होने वाली भूलों के सुधार के लिए एक से अधिक प्रमाणों को देखकर व मिलान कर ही पुष्ट बातों को लिखने का परामर्श दिया है जो कि उचित ही है। इतिहास प्रदूषण से बचने के उनके द्वारा दिये गये सभी सुझाव यथार्थ व उपयोगी हैं। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

रामायण में वर्णित लक्ष्मण रेखा का मिथक – सुलक्षण रेखा की सच्चाई

हमारे महान भारत में पहले अनेको ऋषि, महर्षि, ज्ञानी, विद्वतजन होते थे जो धर्म, ग्रन्थ और इतिहास का अतिसूक्ष्म निरिक्षण करकर सत्य असत्य से जनता को सदैव परिचित करवाते रहते थे। कालांतर में ये पद्धति मृतप्राय हो गयी और अनेको मूर्खो, लालची, लोभी, कुसंगियो द्वारा धर्म और इतिहास विषयक सामग्री में मिलावट की जाने लगी। जहाँ मिलावट संभव नहीं हो सकती थी वहां मिलावट के स्थान पर लोकोक्ति के माध्यम से मिथ्या जाल प्रपंच रचा गया।

इस आर्यावर्त में दुर्भाग्य से विद्वानो की कमी होने के कारण सत्य असत्य का निर्धारण करने के ठेका ढोंगी, कपटी, चालाक, तथाकथित स्वयंभू धर्म के ठेकेदारो ने ले लिया। फिर तो मौज बन आई। महापुरषो को बदनाम किया जाने लगा। सत्य इतिहास को बदनाम किया गया। द्रौपदी का चीरहरण, हनुमान जी बन्दर स्वरुप, ब्रह्मा जी के ४ सर आदि अनेको मिथ्या कपोलकल्पित कथाये प्रचारित की जाने लगी। भारतीय जनमानस अपने ही इतिहास से रुष्ट होकर ईसाई, मुसलमान आदि पथभ्रष्ट होना स्वेच्छा से स्वीकार करने लगे। क्योंकि वो अपनी बुद्धि से ऐसे इतिहास को अपनाना नहीं चाहते थे। ऐसे ही एक कथा रामायण में जोड़ी गयी :

लक्ष्मण रेखा

जो महानुभाव लक्ष्मण ने सीता माता की रक्षा हेतु खेंची थी। लेकिन ये पौराणिक मिथ्या ज्ञान बांटने वाले कभी ये नहीं बताते की यदि ये रेखा वाकई लक्ष्मण जी ने खेंची थी तो फिर सीता माता का अपहरण कैसे हो गया ?

आइये एक नजर वाल्मीकि रामायण पर डालते हैं और इस मिथ्या कपोलकल्पित लोकोक्ति का सत्य जानते हैं :

रामायण जैसा महाकाव्य ऋषि वाल्मीकि ने लिखा है। ये महाकाव्य इतना अनूठा है की आने वाले समय के अनेको कवियों ने भी इस महाकाव्य पर अपनी अपनी पुस्तके लिखी। लेकिन हमें ये ध्यान रखना चाहिए की रामायण विषय पर प्रमाणिकता केवल वाल्मीकि ऋषि द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण की ही होती है। देखिये ऋषि वाल्मीकि क्या लिखते हैं :

श्री राम जब मृग रूप में मारीच को पकड़ने जाते हैं और मृग (मारीच) श्री लक्ष्मण को श्री राम की आवाज़ में पुकारता है तब माता सीता द्वारा मार्मिक वचन कहे जाने पर श्री लक्ष्मण अपशकुन उपस्थित देखकर माता सीता को सम्बोधित करते हुए कहते हैं –

”रक्षन्तु त्वाम…पुनरागतः ”
[श्लोक-३४,अरण्य काण्ड , पञ्च चत्वाविंशः ]

अर्थात -विशाललोचने ! वन के सम्पूर्ण देवता आपकी रक्षा करें क्योंकि इस समय मेरे सामने बड़े भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं उन्होंने मुझे संशय में डाल दिया है . क्या मैं श्री रामचंद्र जी के साथ लौटकर पुनः आपको कुशल देख सकूंगा ?”

माता सीता लक्ष्मण जी के ऐसे वचन सुनकर व्यथित हो जाती हैं और प्रतिज्ञा करती हैं कि श्रीराम से बिछड़ जाने पर वे नदी में डूबकर ,गले में फांसी लगाकर ,पर्वत-शिखर से कूदकर या तीव्र विष पान कर ,अग्नि में प्रवेश कर प्राणान्त कर लेंगी पर ‘पर-पुरुष’ का स्पर्श नहीं करेंगी .
[श्लोक-३६-३७ ,उपरोक्त]

माता सीता की प्रतिज्ञा सुन व् उन्हें आर्त होकर रोती देख लक्ष्मण जी ने मन ही मन उन्हें सांत्वना दी और झुककर प्रणाम कर बारम्बार उन्हें देखते श्रीरामचंद्र जी के पास चल दिए .[श्लोक-39-40 ] .

स्पष्ट है इस पुरे प्रकरण में कहीं भी लक्ष्मण जी ने कोई रेखा नहीं खींची। यहाँ तर्क दृष्टि से देखा जाये तो भी “लक्ष्मण रेखा” से सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता क्योंकि यदि एक लक्ष्मण रेखा से ही माता सीता की सुरक्षा हो सकती थी तो प्रभु राम लक्ष्मण को साथ क्यों नहीं ले गए ?

या फिर दूसरा तर्क ये है जो श्री राम ने लक्ष्मण जी को निर्देश दिया :

”प्रदक्षिणेनाती ….शङ्कित: ‘
[श्लोक-५१ ,अरण्य काण्ड ,त्रिचत्वा रिनश: ] –

”लक्ष्मण ! बुद्धिमान गृद्धराज जटायु बड़े ही बलवान और सामर्थ्यशाली हैं .उनके साथ ही यहाँ सदा सावधान रहना .मिथिलेशकुमारी को अपने संरक्षण में लेकर प्रतिक्षण सब दिशाओं में रहने वाले राक्षसों की और चैकन्ने रहना .”

यहाँ भी श्रीराम लक्ष्मण जी को यह निर्देश नहीं देते कि यदि किसी परिस्थिति में तुम सीता की रक्षा में अक्षम हो जाओ तो रेखा खींचकर सीता की सुरक्षा सुनिश्चित कर देना.

तीसरा तर्क भी देखे : यदि कोई रेखा खींचकर माता सीता की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती थी तो लक्षमण माता सीता को मार्मिक वचन बोलने हेतु विवश ही क्यों करते .वे श्री राम पर संकट आया देख-सुन रेखा खेंचकर तुरंत श्री राम के समीप चले जाते।

अतः वाल्मीकि रामायण में तो लक्ष्मण रेखा का कोई औचित्य नहीं बनता। आइये अब जो अन्य रामायण के संस्करण मिलते हैं उन्हें देखे :

श्री वेदव्यास जी द्वारा रचित ”अध्यात्म रामायण’ में भी ‘सीता-हरण’ प्रसंग के अंतर्गत लक्ष्मण जी द्वारा किसी रेखा के खींचे जाने का कोई वर्णन नहीं है .माता सीता द्वारा लक्ष्मण जी को जब कठोर वचन कहे जाते हैं तब लक्ष्मण जी दुखी हो जाते हैं –

’इत्युक्त्वा ……….भिक्षुवेषधृक् ”

[श्लोक-३५-३७,पृष्ठ -१२७]

”ऐसा कहकर वे (सीता जी ) अपनी भुजाओं से छाती पीटती हुई रोने लगी .उनके ऐसे कठोर शब्द सुनकर लक्ष्मण अति दुखित हो अपने दोनों कान मूँद लिए और कहा -’हे चंडी ! तुम्हे धिक्कार है ,तुम मुझे ऐसी बातें कह रही हो .इससे तुम नष्ट हो जाओगी .” ऐसा कह लक्ष्मण जी सीता को वनदेवियों को सौपकर दुःख से अत्यंत खिन्न हो धीरे-धीरे राम के पास चले .इसी समय मौका समझकर रावण भिक्षु का वेश बना दंड-कमण्डलु के सहित सीता के पास आया .” यहाँ कहीं भी लक्ष्मण जी न तो रेखा खींचते हैं और न ही माता सीता को उसे न लांघने की चेतावनी देते हैं .

हालांकि ये प्रामाणिक ग्रन्थ मैं नहीं मानता। और नाही लक्षमण जी ऐसे आर्य थे जो ऐसे वचन सीता जी को बोलते न ही सीता जी ने ऐसे लक्षण दिखाए होंगे। फिर भी यहाँ लक्ष्मण रेखा का सिद्धांत नहीं पाया जाता न ही किसी लक्ष्मण रेखा से सीता जी की सुरक्षा संभव थी क्योंकि इस रामायण में लक्ष्मण जी सीता माता को वनदेवियो को सौंपकर चले जाते हैं।

अब अन्य रामायण से जुड़े ग्रंथो पर विचार करते हैं। एक मान्य ग्रन्थ आज हिन्दू समाज में वाल्मीकि रामायण से भी ज्यादा प्रचलित है वो है तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस। लेकिन खेद की इस ग्रन्थ में भी लक्षमण रेखा का विवरण प्राप्त न हो सका।

अरण्य-काण्ड में सीता -हरण के प्रसंग में सीता जी द्वारा लक्ष्मण जी को मर्म-वचन कहे जाने पर लक्ष्मण जी उन्हें वन और दिशाओं आदि को सौपकर वहाँ से चले जाते हैं –

”मरम वचन जब सीता बोला , हरी प्रेरित लछिमन मन डोला !
बन दिसि देव सौपी सब काहू ,चले जहाँ रावण ससि राहु !”

[पृष्ठ-५८७ अरण्य काण्ड ]

लक्ष्मण जी द्वारा कोई रेखा खीचे जाने और उसे न लांघने का कोई निर्देश यहाँ उल्लिखित नहीं है।

अब जब कहीं भी लक्ष्मण रेखा का उल्लेख किसी मान्य ग्रन्थ में नहीं तब क्यों और कैसे ये लक्ष्मण रेखा रामायण से जुड़ कर प्रचलित हुई ?

आइये एक विचार इसपर भी रखते हैं :

लक्ष्मण -रेखा का अर्थ कोई पंचवटी में कुटिया के द्वार पर खींची गयी रेखा नहीं बल्कि प्रत्येक नर-नारी के लिए ऋषियों द्वारा बनाये नियम और निर्धारित आदर्श लक्षणों से प्रतीत होता है। यह नारी-मात्र के लिए ही नहीं वरन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए आवश्यक है कि विपत्ति-काल में वह धैर्य बनाये रखे किन्तु माता सीता श्रीराम के प्रति अगाध प्रेम के कारण मारीच द्वारा बनायीं गयी श्रीराम की आवाज से भ्रमित हो गयी। माता सीता ने न केवल श्री राम द्वारा लक्ष्मण जी को दी गयी आज्ञा के उल्लंघन हेतु लक्ष्मण को विवश किया बल्कि पुत्र भाव से माता सीता की रक्षा कर रहे लक्ष्मण जी को मर्म वचन भी बोले। माता सीता ने उस क्षण अपने स्वाभाविक व् शास्त्र सम्मत लक्षणों, धैर्य,विनम्रता के विपरीत सच्चरित्र व् श्री राम आज्ञा का पालन करने में तत्पर देवर श्री लक्ष्मण को जो क्रोध में मार्मिक वचन कहे उसे ही माता सीता द्वारा सुलक्षण की रेखा का उल्लंघन कहा जाये तो उचित होगा। माता सीता स्वयं स्वीकार करती हैं –

”हा लक्ष्मण तुम्हार नहीं दोसा ,सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा !” [पृष्ठ-५८८ ,अरण्य काण्ड ]

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि लक्ष्मण रेखा को सीता-हरण के सन्दर्भ में उल्लिखित कर स्त्री के मर्यादित आचरण-मात्र से न जोड़कर देखा जाये। यह समस्त मानव-जाति के लिए निर्धारित सुलक्षणों की एक सीमा है जिसको पार करने पर मानव-मात्र को दण्डित होना ही पड़ता है।

तुलसीदास जी के शब्दों में –
”मोह मूल मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ”

इस आर्यावर्त में एक ऋषि ने सत्य का ज्ञान सूर्य उदय किया। ऋषि ने सभी झूठे तथ्यों और आधारहीन घटनाओ को सिरे से ख़ारिज किया। आज आर्य समाज इसी ऋषि कार्य के सिद्धांत को आगे बढ़ा रहा है। हमें चाहिए हम सत्य को जानकार असत्य को दूर फेक देवे।

आओ लौटो सत्य की और – लौटो न्याय और ज्ञान की और

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

असरदार और ताकतवर ढंग से जवाब चाहता है पाकिस्तान शिवदेव आर्य गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून Mobi.- 08810005096

भारत एक शान्तिप्रिय व सद्व्यवहार को बढ़ावा देने वाला देश है। जो प्रति क्षण प्रत्येक की उन्नति में स्वयं की उन्नति को स्वीकार करता है। शायद इसी कारण से भारत की ओर से पाकिस्तान के साथ दोनों देशों में शान्ति बनायें रखने के लिए वार्ता करने की कोशिश की जाती रही है। लिखित रूप से भी कई बार वार्तायें हो चुकी हैं किन्तु कोई ठोस हल नहीं निकल पा रहा है। पाकिस्तान अपना छद्म भरा चहरा कुछ काल के लिए तो छुपा लेता है किन्तु अत्यल्प काल में ही अपने असली विषैले रूप में आ जाता है।

जैसे अभी पाकिस्तान  के वजीर-ए-आजम नवाज शरीफ ने कुछ दिनों पहले हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के साथ रूस में बैठ कर कुछ खास ऐलानों पर हस्ताक्षर किये। जिस ऐलान में कहा गया था कि दहशदगर्दी को खत्म करने के लिए दोनों मुल्क उद्यत हैं और इसका कोई रंग नहीं होता, किन्तु नवाज़ शरीफ ने अपने देश पहुॅंचते ही अपना बयान बदल कर खूनी कलम चला दी। ऐसे अविश्वनीय देश के लिखे या कहे वादों पर जो यकीन या विश्वास करता है तो वह खुद ही एक तमाशा बनने लग जाता है। क्या जनवरी २॰॰४ में अटल बिहारी वाजपेयी को पकड़ाये गये उस कागज का कोई वजूद नहीं है, जिसमें परवेज मुशर्रफ ने लिखा था कि पाकिस्तान के जेरे साया वाली जमीन का प्रयोग भारत के खिलाफ दहशदगर्दी के लिए किसी कीमत पर नहीं होगा? क्या सन् १९७२ में शिमला समझौते में लिखे गये वो वाक्यांश जिनमें जुल्फिकार अली भुट्टो ने इंदिरा गांधी को लिख कर दिया था कि कश्मीर मसले के हल के लिए दोनों देश के नीति-नियन्ता सही वक्त पर बातचीत की मेज पर बैठेंगे? और तो और २00६ में डाॅ. मनमोहन सिंह को परवेश मुशर्रफ ने यहाॅं तक लिख कर दे दिया था कि दोनों मुल्क दहशदगर्दी के खात्मे के लिए मिलकर साथ देंगे और इसके लिए एक नया नेटवर्क तैयार करेंगे? किन्तु प्रत्येक बार भारत  को धोखेबाजी के सिवाए और मिला ही क्या है?

अब हमारे प्रधानमन्त्री पर दबाव बनाया जा रहा है कि पाकिस्तान से बात करें। अरे कोई समझता क्यों  नहीं? अब भी कोई कसर शेष रह गयी है? जिस देश ने अपना इमान बेच दिया हो, उससे किस मुख से बात की जाए। हमेशा की तरह वह अपनी बात से मुकर जाता है। जिस देश को बात ही करनी नहीं आती उससे बात करके क्या लाभ?  जैसे जुलाई मास में कहा गया था कि पाकिस्तान की ओर से कोई संघर्ष विराम का उल्लंघन नहीं किया जायेगा। किन्तु पाकिस्तानी सेना ईद-उल -फितर जैसे सुख-समृध्दि के पर्व पर भी खूनी जंग करने और शान्ति के माहौल को और बिगाड़ने से बाज नहीं आता।

इसका जीता जागता उदाहरण हमें जम्मू-कश्मीर के राजौरी और पुंछ सैक्टर में मिला, जहाॅं पाकिस्तानी सेना और रेंजरों ने छोटे-छोटे आग्नेयास्त्रों के जरिये कई  भारतीय चैकियों को निशाना बना कर  १८ जुलाई शनिवार को फिर से संघर्ष विराम का उल्लंघन किया गया।  अमृतसर के पास वाघा-अटारी सीमा पर त्यौहारों के दौरान एक-दूसरे को मिठाई देने की परम्परा का पाकिस्तानी रेंजरों ने निर्वाह करने से मना कर दिया अर्थात् उन्होंने सीमा सुरक्षा बल द्वारा भेंट की गई मिठाई लेने से मना कर दिया। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पाकिस्तान शान्ति के वातावरण की इच्छा नहीं रखता, अब शठ्ये शाठ्यं समाचरेत् इस सूक्ति को साकार करने का अवसर आ गया है।

पाकिस्तान ने भारत को अस्थिर व कमजोर करने के लिए एक और कदम शुरु किया है, जो आतंकवाद है। आतंकवाद की भारत में फैली विष बेल का जन्मदाता और कोई नहीं बल्कि यही पाकिस्तान है। अब यह बात तो निश्चित हो चुकी है कि पाकिस्तान के अस्तित्व को खतरा है। पाक के नापाक दिन शुरू हो गये हैं। उसे सबक सिखाने के लिए  ५६ इंच के सीने वाला अनोखा व्यक्तित्व आ चुका है। जब पाप की अति हो जाती है तब पापों के विध्वंस करने के लिए कोई भगवान् थोडे़ ही आते हैं बल्कि हममें से ही किसी एक को सामना करना पडता है।

शायद पाकिस्तान भारत को भूल गया है, जिस दिन पाकिस्तान के छक्के छुडा दिये थे। सन् १९७१ में हमारे भारतीय  नौजवान फौजी भाईयों ने कमाल ही कर दिया था। बांग्लादेश विभाजन के दौरान उनके ९०  हजार फौजियों को बंधक बना लिया था, यह देख उस देश के होश उड़ गये थे, और वह हमारे पैरों में गिड़गिड़ा कर नाक रगड़ रहा था। हम भी बड़े दयावान् हैं, हमे उनकी दशा को देखकर दया आ गयी और उन सब बन्दी बनाये गये सैनिकों को मुक्त कर दिया। यह देख सम्पूर्ण विश्व आश्चर्यचकित रह गया।

सीमा पर बढ़े तनाव और उसके चलते दोनों आरे के कुछ लोगों के मारे जाने के बीच भारत की ओर से केन्दीय गृह मन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान को कड़ी चेतावनी दी कि बिना उकसावे के फायरिंग और सीमा पार आतंकवाद का ‘असरदार और ताकतवर ढंग से’ जवाब दिया जाएगा।

दहशदगर्दी को अपना हथियार बनाने वाली पाकिस्तानी फौजों को उनकी सही यथार्थता (औकात)  बताने की जरूरत पड़ सकती है। इन फौजों को हम किसी मुल्क की फौज कैसे कह सकते हैं, जो सिर्फ मजहब पर ईमान लाकर लड़ाईयाॅं लडती हो? हमें ध्यान रखना होगा कि सीरिया की इस्लामी स्टेट (आईएस) के दहशदगर्दों और पाकिस्तान की फौजों में ज्यादा अन्तर नहीं है। इसलिए बातचीत के नतीजे कुछ भी  हो नहीं सकते। कितनी बार हम पाक के नापाक इरादों से भरे कागजी पन्नों को पढ़ चुके हैं, काजगों में तो कुछ भी लिख देते हैं, किन्तु आज भारत को सावधान होना  पडे़गा, पाकिस्तान को करारा वाचिक जवाब न देकर   सीधा कार्यान्वयन हो तो ज्यादा उचित रहेगा। एक ऐसे ही क्षण की प्रतिक्षा प्रत्येक देशवासी काफी लम्बे समय से कर रहें हैं।

टूटे पुतले-एक कहानी – महेन्द्र आर्य

मुन्नी अपनी नयी गुड़िया से बहुत खुश थी। वह अपनी गुड़िया को नए-नए कपड़े पहनाती, उसके बाल बनाती और उसे अपने पास सुलाती। इतना ही नहीं उसने अपनी सहेली के गुड्डे के साथ उसका याह ही रचा डाला। अपने सुख-दुःख की बातें गुड़िया से करती। कभी गुस्सा आता तो वह गुड़िया को डांट भी देती, हाँ, बाद में उसे सॉरी बोल देती।

एक दिन गजब हो गया। छोटे भाई बबलू ने नाराज होकर उसकी गुड़िया तोड़ दी। मुन्नी के दुःख और क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। वह बबलू पर चिल्लाई। इतने से उसका मन शान्त नहीं हुआ तो एक चांटा बबलू को रसीद कर दिया। बबलू रोते-रोते माँ के पास गया। माँ ने मुन्नी को धमकाया और उसके कान खींचे। मुन्नी ने कहा- बबलू ने उसकी प्यारी गुड़िया तोड़ दी, उसे कुछ कहने की जगह, मुझे क्यों डांटा जा रहा है। माँ ने कहा गुड़िया तोड़ दी, उसके लिए उसे डाँट मिलनी ठीक थी, लेकिन उसे इतनी छोटी गलती पर चांटा नहीं मारना चाहिए। गुड़िया का क्या है, बाजार से खरीद कर लाये थे, दूसरी आ जायेगी। बात रफा-दफा हो गयी।

5-7 साल बाद की एक घटना। दादी अपने पूजा घर में बैठकर भगवान जी की पूजा कर रही थी। दादी जी दिन में कम से कम 8-10 घंटे पूजा घर में बिताती। दिनचर्या शुरु होती भगवान जी को सुबह जगाने से लेकर। फिर वह भगवान जी को स्नान करवाती, धुले हुए कपड़े पहनाती, नाश्ते का भोग लगाती, झूला झुलाती। दोपहर का भोजन खिला कर भगवान जी को सुला देती।

उस दिन यही भगवान जी के सोने का समय था। बबलू बाहर से क्रिकेट खेल कर लौटा। उसके हाथ में क्रिकेट का बल्ला और भारी वाली गेंद थी। खेल की मस्ती में उसने गेंद को बल्ले से मार दिया। फिर कुछ ऐसा हुआ जिससे घर में एक तूफान खड़ा हो गया। बबलू की गेंद सीधी पूजा घर में गयी और भगवान जी की मूर्ति से टकराई। गेंद की चोट से मूर्ति का सर टूटकर अलग हो गया। दादी जी बिलकुल पगला गयी। बुरी तरह चिल्लाने लगी आज मेरी जीवन भर की तपस्या नष्ट हो गयी। मेरे ही घर में मेरे भगवान जी को चमड़े की गेंद से खंडित कर दिया। मैं कहाँ जाऊँ। लड़के ने मेरे लिए नर्क के द्वार खोल दिए।

माँ ने ये सब देखा तो अपना आपा खो दिया। लगी बुरी तरह बबलू को पीटने। बबलू डर के मारे सहमा हुआ तो था ही, माँ के इस आक्रमण से रोने लगा। उधर से पापा आ गए, उन्होंने जब सारा दृश्य देखा तो उनका भी पारा चढ़ गया। उन्होंने भी बबलू को 2 तमाचे लगा दिए।

ये सारा दृश्य मुन्नी देख रही थी। उससे नहीं रहा गया। उसने बीच में पड़कर बबलू को बचाया। उसे अपने पीछे छुपा कर जोर से बोली- क्यों पीट रहे हैं आप इसको? क्या बिगाड़ा है इसने?

दादी चिल्लाई- तुहें दिख नहीं रहा, इसने भगवान जी को तोड़ दिया। फिर भी पूछती है क्या बिगाड़ा है?

मुन्नी ने कहा- इसने सिर्फ एक पुतले को तोड़ा है, और वह भी जानबूझ कर नहीं।

माँ ने कहा- मुन्नी, देखती नहीं दादी जी रोज कितने प्यार से भगवान जी को तैयार करती है, भोग लगाती है और उनकी पूजा करती है। भगवान जी को एक पुतला कहके तुम उनका अपमान कर रही हो।

मुन्नी ने अपने उसी तेवर में कहा- आखिर क्या फर्क है, दादी जी के भगवान जी में और मेरी गुड़िया में? दोनों ही बाजार से खरीदकर लाये गए थे, दोनों ही टूटने वाली वस्तु से बने थे। जितना मैं मेरी गुड़िया से प्यार करती थी, उतना ही दादी अपनेागवान जी से करती थी। दोनों ही बबलू के हाथों टूट गयी। लेकिन दोनों बातों में इतना फर्क क्यों? मेरी गुड़िया मेरे लिए दादी जी के भगवान से कम नहीं थी, लेकिन फिर भी आप मुझ पर नाराज हुए जब मैंने बबलू को तमाचा मारा। आपका कहना सही था, एक गुड़िया थी उसकी जगह दूसरी आ जायेगी। फिर आज आप सभी की सोच क्यों बदल गयी? क्योंकि आपने इस पुतले को भगवान का नाम दे दिया और अगर यही भगवान थे तो फिर अपनी रक्षा क्यों नहीं कर पाये, एक मामूली गेंद की चोट से और एक मामूली चोट से बिखर भी गए। ये तो आम इंसान से भी कमजोर निकले। ऐसे भगवान जी की प्रार्थना से हमें क्या मिलेगा?

पापा ने प्यार से कहा- बेटी, बात तो तुहारी ठीक है, लेकिन इसमें दादी जी की आस्था का सवाल है।

मुन्नी ने प्यार से कहा- पापा, दादी जी की आस्था और मेरी बचपन की आस्था में कोई अंतर नहीं है। मैंने अपनी गुड़िया से भावनात्मक रिश्ता जोड़ लिया था, वैसे ही दादी जी ने अपने भगवान की मूर्ति से भावनात्मक रिश्ता जोड़ लिया था। दोनों के लिए ये एक मनोरंजन था।

दादी ने कहा- मुन्नी, तू सचमुच कितनी बड़ी हो गयी है। ये बातें कई बार मेरे दिमाग में भी आती हैं, क्या मैं सचमुच भगवान की पूजा कर रही हूँ या बुढ़ापे में अपना मन बहला रही हूँ। मेरे पास समय बिताने के लिए कोई काम नहीं है। मुझे लगता है कि मैं जैसे बचपन में तेरे पापा को प्यार से नहलाती-धुलाती, खाना खिलाती, सुलाती- वैसा ही एक अनुभव मैंने इस मूर्ति के साथ शुरु कर दिया। लेकिन ये सारा अनुभव एक तरफा था, मूर्ति की तरफ से कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी।

बबलू रुआंसा होकर बोला-दादी माँ! मुझे माफ कर दीजिये। आज के बाद मैं कभी कोई तोड़-फोड़ नहीं करुँगा। कभी आपके भगवान जी को कोई चोट नहीं लगने दूँगा।

दादी ने प्यार से बबलू को अपने पास खींचा। बोली- बेटा भगवान को चोट तुमने नहीं पहुँचाई, बल्कि हम सबने पहुँचाई है। तुहारी एक छोटी-सी गलती पर हम सबने तिल का ताड़ बना दिया। आज के बाद यहाँ कोई भगवान जी नहीं आएंगे। मेरे भगवान हो तुम सब। मेरा प्यार अब मैं एक मूर्ति पर नहीं लुटाऊँगी। मेरा प्यार हैं मेरे पोते और पोती के लिए।

दादी ने परिवार के सभी सदस्यों को अपनी बाँहों में भर लिया।                       – मुबई