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‘महर्षि दयानन्द का नवदम्पत्तियों व गृहस्थियों को वेदसम्मत कर्तव्योपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द महाभारतकाल के बाद संसार में वेदों के सर्वाधिक ज्ञानसम्पन्न विद्वान व ऋषि हुए हैं। उन्होंने वेदों वा वेदों की संहिताओं की खोज कर उनका संरक्षण करने के साथ वेदों पर भाष्य भी किया। मनुष्य जाति मुख्यतः वेदप्रेमियों का यह दुर्भाग्य था कि कुछ पतित लोगों ने उनको विषपान करा कर अकाल मृत्यु का ग्रास बना दिया जिससे उनका वेदभाष्य पूरा न हो सका। उन्होंने जितना वेदभाष्य किया है, वह उपलब्ध वैदिक साहित्य में महत्वूपर्ण एवं वैदिक विद्वानों द्वारा सर्वत्र आदरणीय एवं सम्माननीय है। स्वामीजी ने वेदभाष्य से इतर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है जिसमें उन्होंने वेद अर्थात् ईश्वर की आज्ञानुसार सभी स्त्री-पुरुषों के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला है। संस्कारविधि ग्रन्थ में उन्होंने मनुष्यों के 16 संस्कारों पर प्रकाश डालने के साथ संस्कारों में प्रासंगिक वेदमन्त्रों का विनियोग कर संस्कार व उससे सम्बन्धित कर्तव्यों की विस्तृत व पूर्ण विधि पर भी प्रकाश डाला है। यह ज्ञातव्य है कि महर्षि दयाननन्द ने समावर्तन, विवाह एवं गृहस्थाश्रम संस्कारों में अनेक वेदमन्त्रों को प्रस्तुत कर उनके अर्थों पर प्रकाश डाला है। यह सभी मन्त्र व उनके अर्थ उनके नवदम्पतियों को वेदोपदेश ही हैं। आईये, गृहस्थ आश्रम पर उनका सम्पादनयुक्त एक उपदेश सुनते हैं।

 

(हे स्त्री-पुरुषों) गृहाश्रमसंस्कार उसे कहते हैं कि जो ऐहिक और पारलौकिक सुखप्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामथ्र्य के अनुसार परोपकार करना, नियतकाल में यथाविधि ईश्वरउपासना, गृहकृत्य करना, सत्य धर्म में ही अपना तनमनधन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पति करना। इसके बाद वेद मन्त्रों को प्रस्तुत कर उन्होंने उनके अर्थ किये हैं जिसमें वह कहते हैं कि सुकुमार, शुभगुणयुक्त, वधू की कामना करनेवाला पति तथा पति की कामना करनेवाली वधू और दोनों श्रेष्ठ, तुल्य गुण-कर्म-स्वभाववाले होवें। ऐसी जो सूर्य की किरणवत् सौन्दर्य गुणयुक्त, पति के लिए मन से गुणकीर्तन करनेवाली वधू है, उसको पुरुष और इसी प्रकार के पुरुष को स्त्री सकल जगत् का उत्पादक परमात्मा देता है अर्थात् बड़े भाग्य से दोनों स्त्रीपुरुषों का जो कि तुल्य गुणकर्मस्वभाव वाले हों, जोड़ा मिलता है।

 

हे स्त्री और पुरुषों ! मैं परमेश्वर आज्ञा देता हूं कि तुम्हारे लिए विवाह में जो प्रतिज्ञा हो चुकी है, जिसे तुम दोनों ने स्वीकार किया है, इसी में तत्पर रहो, इस प्रतिज्ञा से वियुक्त मत होओ। ऋतुगामी होके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सम्पूर्ण आयु जो सौ वर्षों से कम नहीं है, उसे प्राप्त होओ और वैदिक धर्म रीति से पुत्रों और नातियों के साथ क्रीड़ा करते हुए उत्तम गृहवाले आनन्दित होकर गृहाश्रम में प्रीतिपूर्वक निवास करो। वघू को सम्बोधित कर वह कहते है कि हे वरानने ! तू अच्छे मंगलाचरण करने तथा दोष और शोकादि से पृथक् रहनेवाली, गृहकार्यों में चतुर और तत्पर रहकर उत्तम सुखयुक्त होके पति, श्वशुर और सासु (देवर और ननद सहित) के लिए सुखकत्र्री और स्वयं प्रसन्न हुई इन घरों में सुखपूर्वक प्रवेश कर। हे वघू ! तू श्वशुरादि के लिए सुखदाता, पति के लिए सुखदाता, गृहस्थ सम्बन्धियों (देवर ननद आदि) के लिए सुखदायक हो और इस सब प्रजा के अर्थ सुखप्रद और इनके पोषण के अर्थ तत्पर हो। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि जो दुष्ट हृदयवाली अर्थात् दुष्टात्मा जवान स्त्रियां (यदि कोई हो) और जो इस स्थान में बू्ढ़ी-वृद्ध स्त्रियां हों, वे भी इस वधू को शीघ्र तेज अर्थात् शुभकामनायें व आर्शीवाद देवें। इसके पश्चात् अपने-अपने घर को चली जायें और फिर इसके पास कभी न आवें। हे वरानने ! तू प्रसन्नचित होकर पलंग पर शयन कर और गृहाश्रम में स्थिर रहकर इस पति के लिए प्रजा को उत्पन्न कर। सुन्दर ज्ञानी उत्तम शिक्षा को प्राप्त सूर्य की कान्ति के समान तू उषःकाल से पहली ज्योति के तुल्य प्रत्यक्ष सब कामों में जागती रह (सजग व सावधान रह)।

 

हे सौभाग्यप्रदे नारी ! जैसे इस गृहाश्रम में प्रथम विद्वान लोग उत्तम स्त्रियों को प्राप्त होते हैं, वैसे तू विविध प्रकार से सुन्दररूप को धारण करनेहारी, सत्कार को प्राप्त होके सूर्य की कान्ति के समान अपने स्वामी के साथ मिलके प्रजा को प्राप्त होनेवाली अच्छे प्रकार हो। हे स्त्री-पुरुषों ! तुम बालकों के जनक गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए सन्तानों को अच्छे प्रकार उत्पन्न करो। हे पुरुष वा पति ! इस अपनी स्त्री को सन्तानों से बढ़ा और दोनों परस्पर मिलकर इस गृहाश्रम में प्रजा को उत्पन्न करो, पालन-पोषण करो और पुरुषार्थ से धन को प्राप्त होओ। हे वृद्धिकारक पुरुष ! जिसमें मनुष्य लोग बीज को बोते हैं, उस अतिशय कल्याण करनेवाली स्त्री को सन्तानोत्पत्ति के लिए प्रेम से प्रेरणा कर। हे स्त्री और पुरुष ! जैसे सूर्य सुन्दर प्रकाशयुक्त प्रभातवेला को प्राप्त होता है, वैसे सुख से घर के मध्य में सन्तानोत्पत्ति आदि की क्रिया को अच्छे प्रकार जाननेवाले, सदा हास्य और आनन्दयुक्त, बड़े प्रेम से अत्यन्त प्रसन्न हुए, उत्तम चालचलन से धर्मयुक्त व्यवहार में अच्छे प्रकार चलनेवाले, उत्तम पुत्रवाले, श्रेष्ठ गृहादि सामग्रीयुक्त उत्तम प्रकार की सत्नानों को धारण करते हुए गृहाश्रम के व्यवहारों को पूरा करो।

 

प्रवचन को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द आगे कहते हैं कि हे परमैश्वर्ययुक्त विद्वान् राजन् ! आप इस संसार में इन स्त्रीपुरुषों को समय पर विवाह करने की आज्ञा और ऐसी व्यवस्था दीजिए कि जिससे कोई स्त्रीपुरुष वैदिक रीति के विपरीत विवाह योग्य आयु से पूर्व वा अन्यथा विवाह कर सकें। वैसे सबको प्रसिद्धि से प्रेरणा कीजिए जिससे ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा को पाकर जाया और पति चकवाचकवी के समान एकदूसरे से प्रेमबद्ध रहें और गर्भाधानसंस्कारोक्त विधि से उत्पन्न हुई प्रजा से ये दोनों सुखयुक्त होके सम्पूर्णसौ वर्षपर्यन्त आयु को प्राप्त होवें। हे मनुष्यों! जैसे विद्यादि उत्तम गुणों का (उपदेश व प्रवचन द्वारा) दान करने वाले उत्तम स्त्री-पुरुष पुत्रोत्पत्ति करते और पुत्र की कामना करते हैं, वैसे हमारे भी सन्तान उत्तम होवें तथा बल, प्राण का नाश न करनेवाले होकर बड़े परोपकार के अर्थ विज्ञान और अन्न आदि के दान के लिए कटिबद्ध सदा रहें, जिससे हमारे सन्तान भी उत्तम होवें। पति अपनी पत्नी को सम्बोधित कर शिक्षा देता है कि हे पत्नि ! तू शतवर्षपर्यन्त वा दीर्घकाल तक जीने के लिए उत्तम बुद्धियुक्त, सद्ज्ञानयुक्त होकर मेरे घरों को प्राप्त हो और मुझ घर के स्वामी की तुझ स्त्री, जैसे तेरा दीर्घकाल-पर्यन्त जीवन होवे, वैसे प्रकृष्ट ज्ञान और उत्तम व्यवहार को यथावत् जान। दम्पति की इस आशा को सब जगत् की उत्पत्ति और सम्पूर्ण ऐश्वर्य को देनेवेाला परमात्मा अपनी कृपा से सदा सिद्ध करे। जिससे वह दोनों सदा उन्नतिशील होकर आनन्द में रहें। ईश्वर गृहस्थों को उपदेश कर कहते है कि हे गृहस्थो ! मैं ईश्वर तुमको जैसी आज्ञा देता हूं, वैसा ही आचरण व व्यवहार करो, जिससे तुम्हें अक्षय सुख हो, अर्थात् जैसे तुम अपने लिए सुख की इच्छा करते और दुःख नहीं चाहते हो, वैसे ही तुम दोनों माता-पिता, सन्तान, स्त्री-पुरुष, भृत्य, मित्र, पड़ोसी और अन्य सबसे समान हृदय रहो। मन से सम्यक् प्रसन्नता और वैर-विरोधादिरहित व्यवहार को तुम्हारे लिए स्थिर करता हूं। तुम (अघ्नया) हनन न करने योग्य गाय जैसे अपने सद्योजात उत्पन्न हुए बछड़े पर वात्सल्यभाव से वर्तती है, वैसे एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कामना (सद्भावना) से वर्ता करो।

 

परमात्मा के गृहस्थियों को उपदेश को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि हे गृहस्थों ! जैसे तुम्हारा पुत्र माता के साथ प्रीतियुक्त मनवाला, अनुकूल आचारणयुक्त, और पिता के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का प्रेमवाला होवे, वैसे तुम भी अपने पुत्रों के साथ सदा वर्ता करो। पुत्रों के समान व्यवहार ही पुत्रियों के प्रति भी करो। जैसे स्त्री पति की प्रसन्नता के लिए माधुर्यगुणयुक्त वाणी को कहे, वैसे पति भी शान्त होकर अपनी पत्नी से सदा मधुर भाषण किया करे। हे गृहस्थो ! तुम में भाई भाई के साथ द्वेष कभी करे। और बहिन बहिन से द्वेष कभी करे तथा बहिनभाई भी परस्पर द्वेष मत करो, किन्तु सम्यक् प्रेमादि गुणों से युक्त समान गुणकर्मस्वभाववाले होकर मंगलकारक रीति से एकदूसरे के साथ सुखदायक वाणी को बोला करो। हे गृहस्थो !  जिस प्रकार के व्यवहार से विद्वान लोग परस्पर पृथक भाववाले नहीं होते और परस्पर में द्वेष कभी नहीं करते, वही कर्म, मैं ईश्वर, तुम्हारे लिए निश्चित करता हूं। पुरुषों को अच्छे प्रकार चिताता हूं कि तुम लोग परस्पर प्रीति से वर्तकर बड़े धनैश्वर्य को प्राप्त होओ। हे गृहस्थादि मनुष्यो ! तुम उत्तम विद्यादिगुणयुक्त, विद्वान, सद्ज्ञानी, धुरन्धर होकर विचरण करते हुए और परस्पर मिलकर धन-धान्य व राज्यसमृद्धि को प्राप्त होते हुए विरोधी वा पृथक्-पृथक् भाव परस्पर मत करो। एक दूसरे के लिए सत्य, मधुर भाषण करते हुए एक-दूसरे को प्राप्त होओ। इसीलिए समान लाभ व हानि में एक-दूसरे के सहायक तथा एक-मत (समान-मत) वाले तुमको करता हूं अर्थात् मैं ईश्वर तुमको जो आज्ञा देता हूं, इसको आलस्य छोड़कर किया करो (जिससे तुम सुखी, आनन्दित व सम्पन्न हों)।

 

स्वामी दयानन्द जी का गृहस्थियों को यह उपदेश जारी है। यदि हम इसे पूरा प्रस्तुत करें तो इस सामग्री की दुगुगी सामग्री अभी शेष है। अतः हम सभी पाठकों वा गृहस्थियों से निवेदन करते हैं कि वह संस्कारविधि का गृहस्थाश्रम प्रकरण पूरा पढ़े और महीने में एक या दो बार इसे दोहरा लिया करें जिससे इसके पाठ व आचरण से परिवार में प्रेम, सुख, शान्ति व समृद्धि विद्यमान रहे। हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के इन उपदेश को पसन्द करंेगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

गृहस्थाश्रम को स्वर्ग का साधन समझें – कन्हैयालाल आर्य

गृहस्थ और सुख? यह तो कुछ अनोाी बात है। इसमें इतने दुःख हैं कि आरभ से ही इसे दुःखों का घर समझा जाता है। आधुनिक काल में जबकि हमने अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं को बहुत बढ़ा रखा है तो कुछ बात यथार्थ प्रतीत होने लगती है, परन्तु यदि गभीरता पूर्वक इस पर विचार किया जाये तो महर्षि मनु की यह बात सही है कि गृहस्थ आश्रम व्यवस्था की दृष्टि से ज्येष्ठ तथा श्रेष्ठ सिद्ध है।

गृहस्थाश्रम तो लोक और परलोक दोनों को सुधारने का एक माध्यम है। इस माध्यम को मानव ने अपने स्वार्थ, आलस्य, प्रमाद, अतिवासना तथा लोभ और मर्ूाता से बिगाड़ रखा है। हम स्वयं ही जंजीरे गढ़ते हैं और अपने हाथ-पाँव में बाँध लेते हैं और फिर चिल्लाने लगते हैं कि हम बाँधे गये। गृहस्थाश्रम का तो इसलिए निर्माण किया गया ताकि लबी जीवन यात्रा में नर या नारी अकेला थक न जाये। लबी यात्रा में साथी साथ हो तो यात्रा सरल बन जाती है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार इन पाँचों को ठीक मर्यादा में रखने का सुन्दर साधन गृहस्थ है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे आजीवन ब्रह्मचारी विरले ही होते हैं, उन्होंने भी गृहस्थाश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहा है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में बताया है कि-

  1. यथा नदी नदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

   तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।

-मनु. 6/90

जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं हो जाते। वैसे ही गृहस्थ के आश्रम में सब आश्रम स्थिर रहते हैं, बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।

  1. यथा वायुं समाश्रित्य, वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः।

   तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः।।

-मनु. 3/77

जैसे वायु के आश्रय पर सब प्राणी हैं वैसे गृहस्थाश्रम सब आश्रमों का आश्रय दाता है।

  1. यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्।

   गृहस्थेनैव धार्य्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।

– मनु. 3/78

जिससे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देकर गृहस्थ ही धारण करता है इसीलिए गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।

  1. स संधार्य्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।

    सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।

– मनु. 3/76

जो अक्षय, मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो, वह प्रयत्न से गृहाश्रम धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बल इन्द्रिय, भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने योग्य नहीं है, उसको अच्छे प्रकार धारण करे।

इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है, उसका आधार गृहाश्रम है, जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहाँ से हो सकते? जो कोई गृहस्थ आश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है, जो प्रशंसा करता है, वह प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहस्थाश्रम में सुख होता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हो।

प्राचीन इतिहास बतलाता है कि ऋषि-मुनि गृहस्थाश्रम में रहकर सबका पथ प्रदर्शन करते थे और हमारे पूर्वज नारी जाति का अत्यधिक मान करते थे, तभी तो कहा हैः-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।

जहाँ नारियों का समान होता है वहाँ देवता निवास करते हैं। महर्षि मनु ने तो यहाँ तक कह दिया है कि नारी ही घर की शोभा है, जहाँ गृहिणी नहीं, वह घर ही नहीं। जहाँ पति और पत्नी का एक दूसरे से प्यार है, वही घर स्वर्ग समान है। जहाँ पुत्र-पुत्रियाँ आज्ञाकारी हों, वही घर स्वर्ग समान हैं। स्वर्ग किसी ऊपर या नीचे के लोकों का नाम नहीं है, यदि इसी गृहस्थ में आप सुखी हैं तो आप इस जीवन काल में भी ‘स्वर्गीय’ अर्थात् सुखी बन सकते हैं। स्वर्गीय का अर्थ है- स्वर्ग में रहना, जहाँ प्रत्येक प्रकार का सुख, समृद्धि, सन्तोष हो, उसी का नाम स्वर्ग है और ऐसे स्वर्ग की प्राप्ति गृहस्थाश्रम के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है। इसलिए यह धारणा कि गृहस्थी सुखी नहीं हो सकता और गृहस्थ तो दुःखों का घर है, यह गलत है। गृहस्थ ही एक ऐसा आश्रम है जिसके माध्यम से धर्म, अर्थ, काम और अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति संभव है।

विवाह के समय वर-वधू का सात कदम एक साथ चलना भी इसी भाव का प्रतीक है। जहाँ अन्न शारीरिक बल, धन, सुख, सन्तान प्राप्ति, चारों तरफ की प्राकृतिक परिस्थिति का अनुकूल होना कहा है, वहाँ सातवाँ कदम रखते हुए वर कहता है-

3म् सखे सप्तपदी भव विष्णुस्त्वा नयतु

पुत्रान् विन्दावहै, बहूंस्ते सन्तु जरदष्टयः

अर्थात् हम सदा साथ रहें, हममें मैत्री भाव रहे, तेरा मन मेरे मन के अनुकूल हो, हम दोनों मिलकर पुत्र-पुत्रियों को प्राप्त करें और वे वृद्धावस्था तक जीने वाले हों।

शास्त्रों में गृहस्थ को एक आश्रम कहा गया है। यह एक मंजिल है। मंजिल तक पहुँचने के लिए खड़े रहने से काम नहीं चलता, मंजिल की तरफ चलना पड़ता है। सप्तपदी का अभिप्राय यही होता है कि वर-वधु को इस बात की प्रतीति कराई जाती है कि गृहस्थाश्रम आराम से बैठे रहने का नाम नहीं है। इस आश्रम के कुछ उद्देश्य हैं, प्रयोजन हैं। इन प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए अलग-अलग नहीं, एक साथ चलना होगा, कदम से कदम मिलाकर चलना होगा, तभी वे इस आश्रम के उद्देश्य को पा सकेंगे। तभी तो ऋग्वेद में कहा है-

3म् समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ।

सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ।।

हम दोनों पति-पत्नी निश्चयपूर्वक तथा प्रसन्नतापूर्वक यह घोषणा करते हैं कि हम दोनों के हृदय जल के समान सदा शान्त रहें, जैसे प्राणवायु हमको प्रिय है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे के साथ प्रसन्न रहेगें, जैसे धारण करने वाला परमात्मा सबमें मिला हुआ, सब जगत् को धारण करता है, वैसे हम दोनों एक-दूसरे को धारण करते रहेंगे।

गृह्यसूत्र में लिखा हैंः-

3म् यदेतद् हृदयं तव तदस्तु हृदयं मम्।

यदिदम् हृदयं मम तदस्तु हृदयं तव।।

जो तेरा हृदय है, वह मेरा हृदय हो जाये और जो मेरा हृदय है, वह तेरा हृदय हो जाये।

3म् मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु।

मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्।

हमारा एक-दूसरे के साथ श्रेष्ठ व्यवहार हो। हमारा चित्त एक-दूसरे के अनुकूल हो। प्रजापति ने हमें एक-दूसरे के साथ नियुक्त किया है। हमें इसका सफल निर्वाह करना है।

विवाह का उद्देश्य तो जीवन के आदर्श को पूर्ण करने के लिए एक साधन मात्र है। जीवन का आदर्श, सब प्राणियों में अपनापन अनुभव करना है। इसलिए विवाह में पति-पत्नी में मित्रता, सखा-भाव जरुरी है, नहीं तो विवाह का प्रधान उद्देश्य पूरा नहीं होता।

स्त्री-पुरुष में तो प्रेम स्वाभाविक है, इसे सीखने के लिए किसी विद्यालय में नहीं जाना पड़ता। स्त्री तथा पुरुष के इसी स्वाभाविक प्रेम को प्राणिमात्र तक ले जाने का एक कठिन काम को आसान बनाने का प्रयत्न गृहस्थाश्रम द्वारा किया जाता है। इसी प्रेम का, मैत्री भाव का आगे विस्तार करना है। विवाह में यही प्रेम, सखा भाव ही एक ऐसा तत्व है जिसे संकुचित क्षेत्र से निकालकर हम विस्तृत क्षेत्र में विकसित करना चाहते हैं।

गृहस्थाश्रम में अपनेपन का केन्द्र अपने से हटकर दूसरों में जाना प्रारभ हो जाता है, स्वार्थ का अंश पर्दे की ओट में चला जाता है और उसकी जगह परार्थ का भाव सामने आने लगता है। अतः यह बड़ी जिमेदारी का आश्रम है।

आत्मा के अपने आदर्श लक्ष्य तक पहुँचने का उसके पूर्ण रूप में विक सित होने का यही उपाय है। ब्रह्मचर्यावस्था ‘स्व’ की उन्नति से प्रारभ होती है। इस आश्रम में ‘स्व’ या ‘अपने’ आपका उत्थान प्रमुख होता है, ब्रह्मचारी अपने इर्द-गिर्द ही घूमता है परन्तु जब वह अपने ‘स्व’ को दृढ़ बना चुका होता है, तब उसे अपनी आत्मा को अधिक विकसित करने को कहा जाता है तो वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। ब्रह्मचर्य आश्रम अपने तक सीमित होता है परन्तु गृहस्थ आश्रम अपने से हटकर सन्तानों तक विस्तृत होता ही है। वह पूरे समाज में अपने आपको विस्तृत कर देता है। गृहस्थाश्रम आत्मिक विकास की एक सीढ़ी है यह सभी आश्रमों का पालक, पोषक एवं सहयोगी है। तभी तो इस आश्रम को स्वर्ग प्राप्ति का माध्यम माना गया है। महर्षि मनु की स्पष्ट घोषणा है-

अनेन विप्रो वृत्तेन वर्तयन् वेदशास्त्रवित्।

व्यपेत कल्मषो नित्यं ब्रह्मलोके महीयते।।

(4.260)

अर्थात् – जो वेद शास्त्रों को पढ़ने वाला गृहस्थ शास्त्रोक्त कर्त्तव्यों का पालन करता है वह पाप रहित जीवन स्वर्ग अथवा मोक्ष के आनन्द को प्राप्त करता है।

– 4/44, शिवाजी नगर, गुड़गाँव, हरियाणा

चलभाष-09911197073