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#पेरियार के प्रश्नों का श्रृंखलाबद्ध #प्रश्न – उत्तर #संख्या (०१.) क्या तुम कायर हो जो हमेशा छिपे रहते हो, कभी किसी के सामने नहीं आते? उत्तर – आचार्य योगेश भारद्वाज

#पेरियार के प्रश्नों का श्रृंखलाबद्ध उत्तर।(प्रत्येक उत्तर के बाद मेरे हस्ताक्षर अंकित हैं, अर्थात् मैं अपने उत्तर का उत्तरदायित्व भी घोषणापूर्वक धारण करता हूं।)

#प्रश्न#संख्या (०१.) क्या तुम कायर हो जो हमेशा छिपे रहते हो, कभी किसी के सामने नहीं आते? –ई वी रामासामी पेरियार#उत्तर:✓क्या कोई यह कह सकता है, कि मैंने ऐसे बालक को गोद में खिलाया, जो कभी पैदा ही नहीं हुआ …?✓क्या कोई यह कह सकता है, कि मैंने ऐसा भोजन किया, जो कभी संसार में था ही नहीं….?✓क्या कोई यह कह सकता है, कि मैं ऐसे वृक्ष पर बैठा रहा, जो कभी उत्पन्न नहीं हुआ…? उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर एक सामान्य से सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी #नहीं में ही देगा। यह पेरियार महोदय जो स्पष्ट तौर पर घोषणा करते हैं, कि मैं नास्तिक हूं। अर्थात ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता; वह आश्चर्यजनक रूप से ईश्वर को संबोधित कर रहे हैं। आखिर जिस वस्तु की सत्ता ही आप स्वीकार नहीं करते है, उस वस्तु को आप संबोधित कैसे कर सकते हैं …? बंधुओं ..! कभी आप पागल खाने में जाओगे, तो वहां पाओगे, कि वहां पागल लोग हवा में बातें करते रहते हैं। उनके मस्तिष्क विक्षिप्त होते हैं। इसलिए वे अपने सामने किसी के होने की कल्पना कर लेते हैं; और उन्ही कल्पनाओं से भी बात करते रहते हैं। पेरियार महोदय ईश्वर को संबोधित करना, जिसे वह मानते ही नहीं है…. भला मानसिक विक्षिप्तता नहीं तो और क्या है….?आइए…. अब मूल प्रश्न की ओर लौटते हैं। पेरियार महोदय का कहना है, कि ईश्वर अगर है, तो वह दिखाई देना चाहिए अर्थात दिखाई नहीं देता तो ईश्वर नहीं है। बंधु यह बात बालकों के समान है, कि जो वस्तु दिखाई नहीं देती वह नहीं है, या कभी नहीं थी। हमें संसार में ऐसी अनेक वस्तुएं अस्तित्व में दिखाई देती हैं जो कभी दिखाई नहीं देती….. जैसे भूख प्यास, ईर्ष्या, ममता, स्नेह यह सभी भाव हैं, जो दिखाई नहीं देते, किंतु इनकी सत्ता को नकारा नहीं जा सकता। आकाश अर्थात space….संसार में आकाश को कोई नहीं देख सकता लेकिन फिर भी आकाश की सत्ता है। अर्थात ऐसे अस्तित्व संसार में होते हैं, जो दिखाई नहीं देते; उन्हे आंख से नही बुद्धि से देखना पड़ता है। तो पेरियार साहब का यह प्रश्न निरा बालको वाला प्रश्न है। प्रत्युत् मुझे तो लगता है, कि वह कल्पनाओं में रहते थे, जैसे एक विक्षिप्त मनुष्य रहता है। वैसी ही कल्पनाओं में उन्होंने अनेक चिन्हित और अचिन्हित कल्पनाएं कर ली; जिसे उन्होंने भोले भाले लोगों के सिर पर रख दिया। उन्ही भोले लोगों में से कुछ लोग उनके अनुयाई हो गए। इन अनुयायियों को पेरियार से प्रश्न करना चाहिए, कि तुम्हारी 12 साल की नाबालिक बहन को देखकर तुम्हारे मन में जो वासना उठी ….क्या उस वासना को कोई देख सकता है …?तुम्हारी अपनी बेटी को, जो तुमसे 38 साल छोटी थी, उसे देखकर तुम्हारे मन में जो वासना उठी क्या वह दिख सकती थी।अपने अनन्य मित्र “मुदलियार” की विधवा पत्नी को देखकर तुम्हारे मन में जो वासना उठी… क्या उस वासना का कोई स्वरूप था….? किंतु वह मौजूद तो थी ना….इसलिए पहला प्रश्न पूरी तरह निरर्थक है।अब प्रश्न का दूसरा भाग जिसमें वह कहते हैं क्या तुम कायर हो, तो यह केवल गाली गलौच है। इसका उत्तर देने की मैं आवश्यकता नहीं समझता। धन्यवाद नमस्ते।


वामपंथ के इशारों पर हिन्दू

सबरीमाला
केरल में चल रहे इस भयंकर ड्रामे का अंत मुझे तो नही दिखता
वामपंथी और जो समूह महिलाओं के प्रवेश करने को लेकर समर्थन देकर आगे हुए है वे भी नही चाहते है कि ये ड्रामा बन्द हो

वामपंथ यही तो चाहता है कि हिन्दू अपनी मानसिकता को इतना संकीर्ण बनाये रखे और वे नारी सशक्तिकरण के नाम पर तुम्हें एक घटिया और नारी विरोधी मत पंथ सिद्ध करते रहे

क्योंकि हिंदुओं को वामियों ने दलितों से तो अलग कर ही दिया है (विश्वास नही होता ना अभी तीन राज्यों में आये परिणाम इसका चीखता चिल्लाता हुआ प्रमाण है कि तुम लोगों से दलितों को दूर कर लिया गया है)

अब नारी सशक्तिकरण की चाह रखने वाले उस बड़े महिला वर्ग को भी तुमसे अलग कर लिया जाए

वे तो चाहते है कि सबरीमाला के वे कब्जाधारी पण्डित समूह इसका भरपूर विरोध करें और आस्था के नाम पर हिंदुओं को भड़का कर महिलाओं के प्रवेश के विरुद्ध खड़ा रखे जिससे हिन्दू मत और उसकी संकीर्ण सोच के विरुद्ध महिलाओं को हर क्षेत्र में खड़ा किया जा सके

आज यह मंदिर है कल कोई और होगा और इसमें भी आश्चर्य नही होना चाहिए कि आगे चल ये जो जातिगत छुटपुट विवाद चल रहे है ये भी इसी तरह के बड़े तूल पकड़ेंगे

वामपंथियों का होमवर्क, उनकी तैयारी इतनी जबरदस्त है कि आध्यात्मिक अंधभक्ति, अंधविश्वास की जंजीरों में बंधा यह हिन्दू दिमाग उससे कभी पार नही पा सकता

क्या फर्क पड़ जायेगा यदि महिलाएं भी सबरीमाला में प्रवेश कर लेगी तो ? यदि हिन्दू तैयार हो जाये तो यह निर्णय तो उनके विशाल हृदय का प्रमाण सिद्ध होगा

महिलाओं की एक आयुसीमा तय कर रखी है और उसके पीछे तर्क यह है कि वे मासिक धर्म में जो अपवित्रता होती है उसके साथ मन्दिर में प्रवेश करेगी तो मन्दिर अपवित्र हो जाएगा

अर्थात वे सभी मन्दिर अपवित्र है जिनमें महिलाएं प्रवेश कर सकती है, क्या अपवित्र हृदय लिया हुआ व्यक्ति सबरीमाला में प्रवेश करेगा तो मन्दिर दूषित नही होगा ??

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता”
फिर क्यों यह पंक्ति सुना सुनाकर इस बात का ढोंग करते हो कि हिन्दू मत पंथ में नारी को समान अधिकार दिया गया है

एक तरफ कहते हो जहां नारी पूजी जाती है वहां देवता रमण करते है, वही देव स्थान में ही नारी को नही जाने देते हो, फिर जब तुम पर नारी अधिकार हनन का आरोप लगता है तो चीखते चिल्लाते हो, रोते हो, सर फोड़ते हो

यही संकीर्ण सोच तो हिंदुओं को बांट रही है और विश्वास कीजिये आगे भी बांटेगी, किसी घमण्ड में मत रहिये की आपको कोई मिटा नही सकता, आपको मिटाने की अब किसी को आवश्यकता ही नही आप स्वयं अब मिटने को आतुर दिख रहे है

यह सबरीमाला उस तीन तलाक का ही तो जवाब है जिसे समाप्त करने पर सबसे अधिक खुश हिन्दू दिख रहे थे आज उसी का तमाचा खुद हिंदुओं की इस फ़तवाधारी सोच की वजह से पड़ा है जिसकी आग में केरल जल रहा है

वरना जो सहृदयता दिखाई होती महिलाओं के प्रवेश पर समर्थन दिखाया होता तो तीन तलाक से अधिक बड़ा तमाचा इन वामपंथियों को लगता

हिंदुओं को तो चाहिए कि वे अब नारी सशक्तिकरण के इस ड्रामे को खुद बढ़ाये और मस्जिदों में नारी के प्रवेश को लागू करवाने को इसी स्तर की मुहिम छेड़े

डटकर मस्जिदों के आगे खड़ी होकर इसी तरह प्रवेश करने को आगे आये

परन्तु वहां आपकी हिम्मत नही होती हिन्दू अपने आप में खुश है उसे बदला लेना नही आता, क्रिया की प्रतिक्रिया करना नही आता, सामने वाले को उसी की भाषा में जवाब देना नही आता, हिन्दू तो चाहता है कि उससे उसकी धार्मिक स्वतंत्रता नही छीनी जाए अरे राम मंदिर नही स्वयं राम बनों और उसकी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला करो जिसने आप पर यह हमला किया है

हर समय रक्षात्मक स्थिति बनाये रखने से आप जीवित नही रह पाओगे, समय की आवश्यकता को देखते हुए आपको सठे साठयम समाचरेत को अपनाते हुए आक्रमक मुद्रा में आना ही होगा तभी आपका भविष्य उज्ज्वल, स्वछन्द और स्वतंत्र होगा अन्यथा एक दिन इसी संकीर्ण सोच के बोझ तले दबकर समाप्त हो जाओगे तब न मोदी आएगा न राम न ईश्वर

औ३म्🙏

गौरव आर्य
(पण्डित लेखराम वैदिक मिशन)

नारी उत्थान में महर्षि का योगदान : डॉ दिनेश

वर्तमान युग कहने को तो बहुत प्रगतिशील, तर्कवादी और वैज्ञानिक सोच का युग है, परन्तु जब इस युग में प्रभावी समस्याओं पर दृष्टिपात करते हैं, तो बहुत निराशा होती है। राजनीतिक, सामाजिक, वैयक्तिक समस्याओं से व्यक्ति हर स्तर पर जूझ रहा है। इन समस्याओं का समाधान क्या है? इस पर बहुत-से चिंतन और विचार सामने आते हैं, परन्तु कोई भी प्रभावी नहीं हो पाता। इतिहास का सूचना-भंडार हमारे सामने मौजूद हैं, परन्तु इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का बोध उत्तरदायी या समर्थजनों में शायद नहीं है।

वैदिक दृष्टिकोण से हम आर्यजन प्रत्येक समस्या पर विचार करने के अभ्यस्त हैं। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हमारा मानना है कि इसी दृष्टिकोण से विचार करने पर हम प्रत्येक समस्या का समुचित निदान पा सकते हैं। वेदों पर आधारित अन्य वैदिक साहित्य और महापुरुषों ने हमें पदे-पदे मार्गदर्शन दिया ही है। अत: हमें उनकी अवहेलना न करते हुए समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए।

आज एक विकराल समस्या महिलाओं के उत्पीडऩ की है। वैज्ञानिक युग में, उदारवादी सोच और विपुल कानूनी प्रावधानों के बावजूद आज भी स्त्री प्रताडि़त और शोषित है, अकल्पनीय अत्याचारों की शिकार है। आखिर दोष कहाँ है? हमारे विचार में दोष सोच में है। विभिन्न संचार-माध्यमों ने नारी के प्रति एक संकुचित और विकृत सोच को जन्म दिया है, जो उसे स्वेच्छाचारिणी और भोग्या के रूप में देखने का संस्कार या विकार शिक्षा एवं समाज में प्रारम्भिक स्तर से उत्पन्न करता है। इस विकृत सोच या मानसिकता को स्त्री-स्वातन्त्र्य का बाना पहनाकर प्रस्तुत किया गया है, ताकि स्त्री इस आकर्षण में आबद्ध रहकर लम्पटों का शिकार बनती रहे।

ऐसे में किसी भी पुरातन या शास्त्रीय विचार को पिछड़ा या प्रतिगामी कहकर तुरन्त खारिज किया जा सकता है या फिर ऐसा विचार देने वालों की बौद्धिक कुटाई-पिटाई की जा सकती है। परन्तु जब तथ्यों और तर्क की कसौटी पर हम शास्त्रीय, विशेषत: वैदिक विचारों को परखते हैं, तो हमें स्पष्ट प्रतीत होता है कि वैदिक मार्ग के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग स्त्री के उद्गार का और उसे न्याय दिलाने का है ही नहीं। विचारिए कि वैदिक साहित्य में नारी ब्रह्मवादिनी है, देवी है, साम्राज्ञी है, शिक्षिका है, विदुषी है, नेत्री है, उपदेशिका है, पूज्या है और प्रकाशिका है। पति की सर्वोत्तम मित्र और सचिव भी वही है। यदि इन गुणों की धारणकत्र्री को आदर्श जानकर चला जाए, तो कौन उसे सम्मान नहीं देना चाहेगा? दुर्भाग्य से मध्यकाल में विपरीत विचारों वाले विदेशी आततायियों का देश में शासन होने पर स्त्रियों की दुर्दशा प्रारम्भ हुई। उनको सहेजकर रखने वाली ‘वस्तुÓ के रूप में रखा गया। उनको बंधन में रखने के लिए स्मृतियों और विधानों की रचना की गई। परन्तु, भारतवर्ष में उन्नीसवीं शताब्दी में उनके एक उद्घाटक का आविर्भाव हुआ, जो मानवमात्र के परम हितैषी सिद्ध हुए। वे ‘ऋषिÓ की पदवी के योग्य महामानव थे।

दयानन्द का ऋषित्व यह था कि वेदार्थ को समझने के अधिकारी होने की योग्यता तो उनमें थी ही, परमात्मा के सत्यस्वरूप और न्यायकारी होने का गुण भी उनमें मानवीय सामथ्र्य की सीमा तक विद्यमान था। वे प्राणिमात्र के प्रति सहानुभूति की भावना को सत्य का ही अंश समझते थे। स्त्री-पुरुष में असमानता का बर्ताव उन्हें असह्य था। महर्षि ने वेदों के प्रमाणों और तर्क के आधार पर पुरुष और नारी की समानता का उद्घोष किया। उनका कथन था ”ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं। कारण, ईश्वर न्यायकारी है। अत: उसमें पक्षपात का लेश भी संभव नहीं है।ÓÓ पुराकाल में जो स्त्री परिवार की धुरी की भाँति थी, संतति की निर्मात्री थी, जिसके बिना समाज में विद्या और शिक्षा का प्रचार और प्रसार संभव नहीं था। उसे ही विद्या-विहीन और सामाजिक कार्यों से विरत कर घर की सीमा में पशु की भाँति बाँध दिया गया था। महर्षि की विचारधारा ने स्त्री-जगत् को यह साहस दिया कि वह अपनी पीड़ा और अपनी दुरवस्था के विचारों को प्रकट कर सके।

महर्षि दयानन्द ने अपने उद्बोधन, पत्रों तथा अन्यान्य लेखन में सर्वत्र महिला-उत्पीडऩ के विरुद्ध कार्य करने के निर्देश दिए हैं। यद्यपि महाभारत युद्ध के बाद समाज में अनेक दुर्गुणों का समावेश हो गया था और जहाँ राजधर्म विखण्डित हुआ वहीं समाज में विभिन्न प्रकार की दुर्नीतियाँ प्रचलित हो गईं। 8वीं शताब्दी के बाद इस्लामी आक्रमण के प्रारम्भ होने से भारतीय समाज में नारी की दशा और भी दयनीय होती गई। पुरुषों का वर्चस्व और नारी को हेय मानने की प्रवृत्ति बढ़ती ही गई। जबकि प्राचीन भारतीय सत्शास्त्रों में नारी की गौरवमयी स्थिति विद्यमान थी, जिसके अनुसार नारियाँ सभा और समिति में भाग लेती थीं, युद्धों में और खेलों में उनकी भागीदारी थी, विदुषी और ब्रह्मवादिनी महिलाओं के नाम भारतीय इतिहास में बिखरे पड़े हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सामान्यतया महिलाओं के अधिकार सुरक्षित थे, भले ही वैदिक शास्त्रों से इतर ग्रन्थों में यत्र-तत्र उनके अधिकारों का अतिक्रमण किया गया हो, लेकिन वे वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध होने के कारण स्वीकार नहीं किए जा सकते।

महर्षि ने नारी की दशा को देश में भ्रमण करते हुए अनुभव किया था। इसीलिए उन्होंने स्त्री-शिक्षा, स्त्री के विवाह की उम्र, स्त्री की समाज में सक्रियता, उनकी शिक्षा इत्यादि के संबन्ध में लिखा और अपने भाषणों में भी इस विषय पर पर्याप्त प्रवचन किया। उन्हीं के उपदेशों का अनुसरण कर बाद के आर्य नेताओं ने कन्या-गुरुकुल, कन्या डीएवी कॉलेज, स्त्री आर्यसमाज इत्यादि संगठनों का निर्माण किया और महिलाओं के बीच जागृति उत्पन्न करके उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोडऩे का महनीय कार्य किया।

उदाहरण रूप में हम चर्चा करें, तो एक साहसी महिला थी हरदेवी। इस अप्रसिद्ध-सी विधवा महिला ने 1881 में स्त्री-विलाप नामक एक कविता लिखी थी जिसके द्वारा तत्कालीन महिलाओं की स्थिति को बखूबी समझा जा सकता है। महिला सुधार हेतु उपर्युक्त हरदेवी का योगदान महत्त्वपूर्ण है। ये प्रसिद्ध रायबहादुर कन्हैयालाल की पुत्री थीं। कन्हैयालाल जी लाहौर के आधुनिक भवन-निर्माताओं में से थे। हरदेवी पहली ऐसी महिला थी जिसका महर्षि दयानन्द के उपदेशों के बाद विधवा-विवाह आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान् और एडवाकेट रोशनलाल, बैरिस्टर एट लॉ के साथ बहुत विरोधों के बावजूद हुआ। बाद में रोशनलाल आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के मंत्री चुने गए जिन्होंने इंग्लैण्ड से वकालत की डिग्री प्राप्त की थी। वे गौरक्षक और प्रसिद्ध समाजसुधारक थे। इन्हीं आर्यसमाजी रोशनलाल ने जब समाज के विरोध के बावजूद इस विधवा महिला से विवाह किया तो उसका कारण इस महिला के द्वारा महिला कल्याण के लिए किए जा रहे कार्यों से प्रभावित होना ही था। तत्कालीन एक अन्य प्रसिद्ध महिला जानकी देवी ने हरदेवी के विषय में लिखा था कि ”हरदेवी लाहौर के बैरिस्टर रोशनलाल की पत्नी, समाजसेविका, हिन्दी पत्रिका ‘भारत-भगिनीÓ की सम्पादिका थीं जो क्रांतिकारियों के मुकदमों में धन इक_ा करके सहायता देती रहीं।ÓÓ आर्यसमाज के इतिहास में सत्यकेतु विद्यालंकार ने पटियाला षड्यंत्र केस में हरदेवी द्वारा प्रकाशित समाचारपत्र ‘भारत-भगिनीÓ को राजद्रोहात्मक साहित्य मानकर उसे जब्त करने का उल्लेख किया है तथा रोशनलाल के योगदान को रेखांकित किया। स्पष्टत: हरदेवी ने आर्यसमाज और महर्षि दयानन्द के साथ-साथ पण्डिता रमाबाई से भी महिला कल्याण की प्रेरणा ली थी।

हरदेवी को पढ़ाई के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया और यह माना जाता है कि वे पहली ऐसी हिन्दीभाषी महिला थीं जिन्होंने लंदन में जाकर बालिकाओं के लिए किण्डर गार्डन पद्धति से शिक्षा का अध्ययन किया। हरदेवी ने भाग्यवती, सासपतोहु वामाशिक्षक, लंदन यात्रा, हुकुमदेवी-हिन्दू धर्म की उच्चता में एक सच्ची कहानी, सीमन्तनी उपदेश, स्त्रियों पर सामाजिक अन्याय, पुनर्विवाह से रोकना, भारत-भगिनी, स्त्री-विलाप इत्यादि अन्यान्य पुस्तकों और पत्रकों की रचना की।

उपर्युक्त विदुषी महिला श्रीमती हरदेवी का उदाहरण इस कारण प्रस्तुत किया गया है कि तत्कालीन स्त्रीशिक्षा-विरोधी वातावरण में भी महर्षि दयानन्द और उनके अनुयायियों ने किस प्रकार स्त्रीशिक्षा और उनकी अन्य समस्याओं के निराकरण हेतु जो कार्य किया; इसके महत्त्व को आज के शोधार्थी समझें और वर्तमान संदर्भों में वैदिक शिक्षा के दृष्टिकोण को अपनाएँ। स्त्रियों की महत्ता और स्वस्थ समाज के निर्माण में उनकी महती और शाश्वत भूमिका को केवल वैदिक दृष्टि से ही समझा जा सकता है, क्योंकि संस्कारों के सुदीर्घकालीन अभ्यास से ही वैचारिक शुद्धता संभव है, और ऐसी स्थिति का निर्माण होने पर ही स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना का उदय होगा और जिससे उनके प्रति अन्याय समाप्त हो सकेगा। स्त्रियों की शास्त्रोक्त महत्ता को समझना आवश्यक है, जहाँ कहा गया है-

यस्यां भूतं समभवद् यस्यां विश्वमिदं जगत्।

तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यश:।।

– दिनेश

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन? –डॉ. धर्मवीर जी

साभार :- परोपकारी पत्रिका 1994

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन?

 

कुछ दिन पहले परली बैजनाथ में था, वहाँ यमुनानगर से श्री इन्द्रजित देव का दूरभाष आया, जिसमें सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश द्वारा दिये गये वक्तव्य की चर्चा थी। कल उनके द्वारा भेजी गई समाचार पत्रों की कतरने भी मिलीं, जिनमें अग्निवेश का वक्तव्य तथा पंजाब में उस पर हुई प्रतिक्रिया छपी है। अग्निवेश का यह वक्तव्य भड़काऊ और शान्तिभंग करने वाला है। यह बात उस पर हई प्रतिक्रिया से भली प्रकार जानी जा सकती है।

११ जून के पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ के पृष्ठ १ पर छपे अग्निवेश के वक्तव्य में कहा गया है कि वह आर्यसमाज का मुखिया हैं। और उन्होंने जोर देकर कहा- मुखिया होने के नाते वह वायदा करता है कि सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ दोबारा छापा जायेगा, इस ग्रन्थ को दोबारा छापने से पूर्व शिरोमणि कमेटी से वांछनीय सझाव मांगे जायेंगे। उसका यह भी कहना है कि सब धर्म महान् और सब ग्रन्थ पवित्र हैं।

इस वक्तव्य को पढ़कर ऐसा लगता है कि कल अग्निवेश पाकिस्तान में मुशर्रफ से मिलने जाये और तोहफे में दिल्ली भेट कर आये तो आप उसे क्या कहेंगे? यह तो उसकी मर्जी है, वह दिल्ली भेंट दे सकता है, परन्तु क्या अग्निवेश के कहने से दिल्ली मुशर्रफ की भेंट हो जायेगी?

सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में दिया गया वक्तव्य इसी कोटि का है।

पहले तो जो व्यक्ति अपने को आर्यसमाज का मुखिया बता रहा है, वह मुखिया है भी? इस व्यक्ति ने अपने जीवन में जो किया, चोर दरवाजे से, उलटे रास्ते किया। दूसरों के द्वारा बुलाये गये सम्मेलनों में जाकर उनका कार्यक्रम बिगाड़ना इस व्यक्ति फितरत रही है।

सभी संस्थाओं में धाँधली करना. चोर दरवाजे से घुसने की कोशिश करना जीवन भर का कार्यक्रम रहा उसी के चलते सार्वदेशिक सभा के भवन में उसने कब्जा कर लिया, ऐसा करके यदि कोई अपने को मुखिया कहे तो इसमें गलत कुछ भी नहीं। आज समाज और राजनीति में दादा लोग स्वयं ही मुखिया बन जाते हैं, उन्हें कोई मुखिया बनाता नही है।

इससे भी महत्त्वपूर्ण बात है कि इस मुखिया को पता नहीं है कि आर्यसमाज के संगठन की वैधानिक स्थिति क्या है, ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में तीन संगठन बनाये और तीन ही संविधान बनाये।

गोकरुणानिधि लिखी तो गोकृष्यादिरक्षणी सभा बनाई, उसके नियम और विधान बनाये, जीवन के अन्तिम दिनों में ऋषि ने परोपकारिणी सभा बनाई और उसका विधान और नियम बनाये।

इस अन्तिम सभा को महाराणा उदयपुर के यहाँ पर पंजीकृत कराया और सभा को अपनी समस्त चल, अचल सम्पत्ति सौंपी तथा अपने ग्रन्थ, यंत्रालय, वस्त्र, रुपये के साथ अपना उत्तराधिकार सौंपा।

इतनी ही नहीं, ऋषि ने अधिकांश ग्रन्थों की रजिस्ट्री भी कराई, जिससे कोई अग्निवेश उनके ग्रन्थों में उलट फेर न कर सके। चूंकि रजिस्ट्री कानूनन पचास साल तक चलता है, अत: अन्य लोग ऋषि ग्रन्थ पचास साल बाद ही छाप सके। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश को किसी तरह का वक्तव्य देने का अधिकार ही नहीं है, परन्तु अग्निवेश को नियम औचित्य की परवाह ही कब है? यह फुंस के ढेर में आग लगाकर तमाशा देखने का आदी है।

यह वक्तव्य गलत है, एक अनधिकृत व्यक्ति के द्वारा दिया गया है, परन्तु लोगों को क्या पता कौन अधिकृत है। और कौन नहीं है? समाज गुटों में बँटा है, मुकदमों में फँसा है, जो चाहे अपने को मुखिया कह सकता है, इसलिए इस गलत वक्तव्य का भी समाज पर गंभीर प्रभाव होना ही था, हो रहा है।

पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ १२ जून के पृष्ठ ३ पर खबर जो बरनाला शहर के हवाले से छपी है, उसमें कहा गया है,

“आर्यसमाज के मुखिया अग्निवेश की ओर से अमृतसर में श्री गुरु अर्जुनदेव की चौथी बलिदान शताब्दी को समर्पित शिरोमणि कमेटी की ओर से कराये गये आर्यसमाज के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को दोबारा शोध कर प्रकाशित करने की घोषणा का हार्दिक स्वागत करते हुए गुरु गोविन्द सिंह स्टडी सर्किल युनिट बरनाला के प्रधान प्रि. कर्मसिंह भण्डारी ने कहा कि इस ग्रन्थ का शोधन करते समय केवल गुरु नानक देव जी के बारे में लिखे अपशब्द ही नहीं हटाये जायें अपितु श्री गुरु अर्जुनदेव जी के महावाक्य ‘ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर’ के अर्थ का बिगाड़ रूप, श्री गोविन्दसिंह जी की ओर सज्जित व खालसा पन्थ के वरदान रूप में दिये ५ ककारों का उड़ाया गया मखौल तथा श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के सत्कार प्रति लिखे अपशब्दों के अतिरिक्त भक्त शिरोमणि कबीर जी, दाददयाल, महात्मा बद्ध तथा जैन धर्म की की गई निन्दा के शब्द भी हटाये जायें।”

समाचारों की इन पंक्तियों को पढने के बाद यह समझना इतना कठिन नहीं है कि अग्निवेश ने अपने वक्तव्य से ऋषि दयानन्द को गलत साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अगले ही दिन १२ जून के पंजाबी अखबार दैनिक स्पोक्समेन पृष्ठ ३ पर जालन्धर के हवाले से छपी पंक्तियां गौर करने लायक हैं-

“अमृतसर में अग्निवेश की ओर से सत्यार्थ प्रकाश में संशोधन करने सम्बन्धी बयान पर प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए महान् चिन्तक श्री सी.एल. चुम्बर ने इस पुस्तक पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने की माँग की। उन्होंने  कहा कि इस पुस्तक में श्री गुरुनानक देव साहिब के अतिरिक्त भक्त कबीर जी, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों तथा मुसलमानों विरुद्ध काफी कुछ आपत्तिजनक शब्द लिखे गये हैं…। सत्यार्थ प्रकाश सम्बन्धी और विवरण देते हुए श्री चुम्बर ने बताया कि इसमें समाज को जातियों-पॉतियों में बाँटने वाली मनुस्मति के १५० से अधिक सन्दर्भ दर्ज हैं।” |

२६ जून २००६ को आउटलुक पत्रिका ने लिखा- चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता और प्रगतिशील संत कहे जाने वाले स्वामी अग्निवेश ने एक नया शिगूफा छोड़ दिया है। पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा पंचम गुरु अर्जुन देव जी के ४०० वे शहीदो वर्ष को समर्पित एक सेमीनार को संबोधित करते हुए स्वामी अग्निवेश ने यह दावा कर दिया कि आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में सिखों के प्रथम गुरु गुरुनानक देव जी  के बारे में की गई टिप्पणियों को संशोधित किया जाएगा।

वर्ल्ड कौंसिल ऑफ आर्यसमाज के अध्यक्ष होने के नाते स्वामी अग्निवेश ने पंजाब के राज्यपाल जनरल (सेवा.) एस. एफ. रोड्रिग्स, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, एसजीपीसी के मुखिया अवतार सिंह मक्कड बोबी जागीर कौर की मौजूदगी में यह दावा किया कि सत्यार्थ प्रकाश का आगामी संस्करण संशोधित होगा और जिन बातों पर सिख बुद्धिजीवियों को आपत्ति है, उन अंशों को हटा दिया जाएगा।

उसके इस दावे से पंजाब में एक नई बहस उठ खड़ी हुई है, जिसने नई पीढ़ी के सिख युवकों में जिज्ञासा पैदा कर दी है कि स्वामी दयानन्द जी ने प्रथम गुरु श्री गुरुनानक देव जी के बार में ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक बातें लिखी थी जिन्हें इस वक्त हटाने की जरूरत पड़ गई है? दूसरी तरफ पुरानी पीढ़ी के सिखों को शिरोमणि अकाली दल व आर्यसमाज के बीच पुराने विवादों का वह दौर याद आ गया है, जब अकालियों व आर्यसमाजियों के बीच तनातनी के रिश्ते थे |

 

 अग्निवेश को आर्यसमाज के सिद्धान्तों में कोई आस्था नहीं रही। ऋषि में कोई निष्ठा नहीं, उसकी आर्यसमाज को समाप्त करने के लिए विधर्मी और राष्ट्र विरोधी लोगों की ताकत बढ़ाने वाले कार्यकर्ता की छवि है। जो व्यक्ति सब धर्मों को पवित्र और सब धर्म ग्रन्थों को महान् बता रहा है, वही व्यक्ति ऋषि दयानन्द को और सत्यार्थ प्रकाश को गलत साबित कर रहा है। उसकी नजर में वैदिक धर्म महान् नहीं है, सत्यार्थ प्रकाश उसके लिए पवित्र नहीं है।

अग्निवेश का यह कोई आर्यसमाज और दयानन्द को गलत साबित करने का पहला प्रयास नहीं है, व्यक्तिगत रूप से और मंच से ऐसी बातें पहले भी अनेक बार कही गई हैं। परली बैजनाथ में कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श के दौरान दिल्ली सभा के प्रधान श्री राजसिंह ने बताया था कि हवाई जहाज में यात्रा करते हुए सत्यार्थ प्रकाश से १३वें व १४वें समुल्लास को निकालने की चर्चा अग्निवेश ने की थी। आर्यसमाज को सन्ध्या एण्ड हवन कम्पनी कहना इन्हीं लोगों ने शुरू किया था।

पिछले दिनों स्वामी सम्पूर्णानन्द करनाल वालों ने एक प्रसंग सुनाया। जब उड़ीसा में एक पादरी को जिन्दा जलाया गया था, अग्निवेश ने एक यात्रा निकालने की तैयारी की थी। इस व्यक्ति ने स्वामी सम्पूर्णानन्द को यात्रा के लिये निमन्त्रित किया।

उन्होंने कहा- उससे अधिक हिन्दू कश्मीर में मारे गये हैं, उनके लिए यात्रा निकालना पहले आवश्यक है।

अग्निवेश ने कहा ईसाई अल्पसंख्यक हैं, अत: उनका समर्थन जरूरी है।

स्वामी सम्पूर्णानन्द ने कहा- कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनका ध्यान रखना अधिक जरूरी है।

इसका उत्तर अग्निवेश के पास नहीं था, क्योंकि समर्थन कमजोर का नहीं ईसाई का करना था। यहाँ स्मरण दिलाना उचित होगा कि अग्निवेश की सिफारिश पर चर्च ने धर्मबन्धु को २२ लाख रुपये का सहयोग किया था।

इससे अग्निवेश और चर्च के रिश्तों का अनुमान लगाया जा सकता है। अमेरिका वैदिक धर्म का प्रचार करने वालों को राय बहादुर नहीं बनाता, राय बहादुर बनने के लिए उनकी सेवा उनकी शर्तों पर करनी पड़ती है।

इस व्यक्ति की न संगठन में आस्था है, न सिद्धान्त में। इस व्यक्ति ने अपने जीवन में संगठन और सिद्धान्त को जितना तहसनहस किया जा सकता था, उसे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर इस व्यक्ति को जो मिला, उसके पीछे समाज में और संगठन में सिद्धान्तहीन, स्वार्थी, कमजोर लोगों का होना ही मुख्य कारण रहा है। जिस समय इस व्यक्ति ने सार्वदेशिक सभा भवन पर कब्जा किया, उस समय आर्यजनता को दु:ख हुआ, परन्तु जो गये उनको समाज के लोग स्वार्थी और कमजोर मानते थे। समाज के लोग सिद्धान्तहीन होते जाते हैं, तभी दुष्ट लोग नेतृत्व पर काबिज होते हैं।

सार्वदेशिक भवन में बैठकर तथा उससे पहले भी संगठन को विकृत करने के लिए अग्निवेश ने मुसलमान, ईसाइयों को आर्यसमाज का सदस्य बनाने की वकालत की थी। ऐसा करने वालों के बारे में हमें स्पष्ट होना चाहिए जो कि स्वार्थी दष्ट प्रकृति का होता है उसे संस्था, समाज या देश के नुकसान की चिन्ता नहीं होती। यह कहना कि ईसाई मुसलमान रहते हुए वह आर्यसमाजी हो सकता है तो उससे भी आसान है सनातनी रहते हुए आर्यसमाजी रहना। अग्निवेश की नजर में सनातनी, मूर्तिपूजक, पुराणपन्थी का आर्यसमाजी होना रुचिकर नहीं होगा, जबकि वेद विरोधी सिद्धांत

 

विरोधी ईसाई और मुसलमानों का आर्यसमाजी होना उसे सही लगता है। वास्तविकता यह है कि ईसाई, की उपासना करने वाले व्यक्ति को आर्यसमाजी कहना बौद्धिक व्यभिचार व सैद्धान्तिक वेश्यावृत्ति है। या वेश्या, स्त्री के नाते तो एक है, परन्तु अन्तर इतना ही हैं कि एक की एक के साथ निष्ठा है, दूसरा निष्ठा नहीं, उसकी निष्ठा पैसों के साथ है।

ऐसे ही अग्निवेश की निष्ठा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ लक्ष्य की पूर्ती में है अतः उसका यह कथन कि कोई मुसलमान, ईसाई, जड़ पूजक, साकार उपासना वाला व्यक्ति हो सकता है, यह केवल बौद्धिक वेश्यावृत्ति है और कुछ नहीं।

इस बात की पुष्टि में एक और प्रसंग उद्धृत करना उचित रहेगा। दिसम्बर मास में नागपुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रसंग। गोष्ठी की समाप्ति के दिन सायंकाल भोजन के पश्चात् डॉ. रामप्रकाश और अग्निवेश चर्चा कर रहे थे। अग्निवेश को डॉ. साहब से शिकायत थी।

अग्निवेश ने आचार्य बलदेव जी और आचार्य विजयपाल जी को हवालात पहुचाने का षड्यंत्र रच रखा था, जिसे डॉ. राम प्रकाश जी ने अनुचित मानकर असफल करा दिया। उनका कहना था- उनके जानते-बुझते आर्यसमाज की साधु गलत आरोप में हवालात भेजा जाय, यह कभी संभव नहीं। अग्निवेश से कहा गया- आचार्य बलदेव साधु हैं, उनके विरुद्ध ऐसा मिथ्या आरोप उचित नहीं, तो अग्निवेश का उत्तर था- कोई भी गेरवे कपड़े से क्या साधु हो जाता है? अब कोई बताये कौन साधु है या नहीं- यह प्रमाण-पत्र भी ढोंगी साधु से लेना पड़ेगा?

इससे इस व्यक्ति की मानसिकता का पता चलता है।

पाठको को याद होगा, अग्निवेश डॉट काम पर वर्षों तक वैदिक धर्म और ऋषि विरोधी बातों का प्रचार-प्रसार होता रहा। जब आपत्ति हुई तो मासूम कहता है, ये तो हमारे नाम से किसी ने बना दी है। हर बार अपराध करना और लोगों ने मुझे गलत समझा है- कहकर पीछा छुड़ाना, क्या यह लोगों को बेवकूफ बनाने वाली बात नहीं है? अग्निवेश का सिद्धान्तों और स्वामी दयानन्द से कितना प्रेम है.

इसके उदाहरण रूप में जनसत्ता दिनांक ६ अक्टूबर १९८९ का निम्न सन्दर्भ पढ़ने लायक है- “मुकदमें में स्वामी अग्निवेश ने मनु को देशद्रोही करार देते हुए उसे समाज का प्रबल शत्रु बताया। उन्होने कहा कि न्यायालय में जात-पाँत और छुआछुत के जन्मदाता मनु की प्रतिमा की स्थापना अन्यायपूर्ण है।” क्या ऐसा व्यक्ति ऋषि दयानन्द के सम्मान की रक्षा कर सकता है? अग्निवेश के बारे में सत्यार्थ प्रकाश की एक पंक्ति बड़ी सटीक लगती है

“अन्तः शाक्ता बहिश्शैवा: सभा मध्ये त वैष्णवाः’।

जहाँ तक दूसरे लोगों द्वारा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप करने का प्रश्न है, उन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऋषि दयानन्द का स्थान किसी समाज सुधारक की तुलना में कम आँकने से ऋषि दयानन्द का कुछ बिगड़ने वाला है, परन्तु यह काम आकलन कर्ता के बुद्धि के दिवालियेपन का द्योतक अवश्य है।

ऋषि दयानन्द ने जो लिखा और जो कहा, छिप कर नहीं कहा, समाज में उन वर्गों में जाकर कहा। उनका उद्देश्य देश और समाज के हित में वास्तविकता का बोध कराना मात्र था, किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं। उन्होंने किसी बात को अच्छी लगने पर उसकी प्रशंसा में कोई कमी नहीं छोड़ी।।

सत्यार्थ प्रकाश पिछले डेढ़ सौ वर्षों से पढ़ा-पढ़ाया जा रहा है, क्या पहले लोगों की समझ नहीं थी? मालूम होना चाहिए कि पटियाला नरेश के सामने शास्त्रार्थ के समय यही प्रश्न उठा था। उस समय भी यही उचित समझा गया था कि गुरु भी बड़े हैं स्वामी जी भी बड़े। किसी ने किसी को कुछ कहा-सुना तो उसके लिए अनुयायियों को लड़ना उचित नहीं है।

आज तो नेता बनने के चक्कर में लोग ऐसी बात ढूँढने की कोशिश में रहते हैं, जिससे समाज में विघटन और संघर्ष पैदा हो और उनको नेतागिरी करने का मौका मिले। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सिक्खों में बहुत लोग आर्यसमाजी थे, क्या वे गुरुओं का महत्त्व नहीं मानते थे या शहीद भगतसिंह के पिता, चाचा को सत्यार्थ प्रकाश समझ में नहीं आता था? जब तब आपत्ति नहीं हुई तो आज क्यों होनी चाहिए?

जो व्यक्ति सत्यार्थ प्रकाश से आपत्तिजनक वक्तव्य हटाने की बात कर सकता है, क्या वह कुरान की उन आयतों को जिसे न्यायालय ने भी आपत्तिजनक माना है, उन्हें हटाना तो दूर हटाने की सिफारिश भी कर सकता है या नहीं, क्योंकि उसकी नजर में इस्लाम महान् धर्म है और कुरान पवित्र धर्म पुस्तक है। यहाँ वह उनका वकील है। ईसाइयों द्वारा देश में किये जा रहे षड्यन्त्रों की वह वकालत करता है, क्योंकि राजनीति में स्थान चाहिए।

क्या गुरु गोविन्दसिंह के शब्दों को वह पुस्तक से निकलवा सकता है, जिनमें तुर्क को गो-ब्राह्मण घातक कहकर उनके नाश की प्रतिज्ञा की है

जगे धर्म हिन्दू सकल धुन्ध भाजे

 

आर्यसमाज और हरिजन-समस्या: – स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

सन् १९८० में १९ मार्च से ३० अप्रैल तक पाँच सप्ताह की अनुज्ञा पर मैं उत्तरी बर्मा गया था। रंगून के भव्य आर्यसमाज मन्दिर में एक वाक्य अंकित था- ‘अस्पृश्यता हिन्दू-जाति का सबसे बड़ा कलङ्क है’ – महात्मा गांधी। अछूतपन की कहानी देश में बड़ी पुरानी है। एक भारतीय इतिहासज्ञ की यह बात मुझे जँची थी, नितान्त सत्यता इस बात में कितनी है, यह कहना कठिन है। उस इतिहास का यह संकेत था कि देश के गरीब तबके पर ब्राह्मणों ने अत्याचार किये। यह तबका शूद्रों में से था। जब शूद्रों पर अत्याचार हुए, तो ये बौद्ध हो गये। शंकराचार्य के बाद बौद्धों का ह्रास और ब्राह्मण वर्ग का प्रभुत्व बढ़ा। इन ब्राह्मणों ने बौद्धों को नगरों से निकालकर बाहर की सीमा पर खदेड़ा और उनसे नीच से नीच काम लेने लगे, यह वर्ग ही हमारा चमार, भंगी, पासी, चाण्डाल अछूत वर्ग है। मनुस्मृति में शुनां च पतितानां च श्वपचां ऐसे शब्द हैं, जिनका अर्थ पापी, चाण्डाल ऋषि दयानन्द ने किया है (मनु ३/९२)। असम, बंगाल और उड़ीसा में मुसलमानों के आते ही यह वर्ग मुसलमान हो गया, वहाँ जितने बौद्धों के प्रबल केन्द्र थे, वे सब मुस्लिम-प्रभुत्व के प्रदेश बन गये। इसीलिए असम, बंगाल, उड़ीसा में मुसलमानों की संख्या आज भी अधिक है।

अत: देश के वर्तमान अछूत वे पददलित तिरस्कृत वर्ग हैं, जो बौद्ध थे और जिन पर ब्राह्मण वर्ग (द्विज) ने अत्याचार किये थे।

मेहतर या भंगी का जन्मना पेशा करने वाला वर्ग भारत में ही पैदा हुआ, अन्य देशों में नहीं। प्राचीन भारत में शौचालय किस प्रकार के होते थे और उन्हें साफ करने वाले व्यक्ति का समाज में क्या स्थान था, यह कहना कठिन है। ऐसा लगता है, छोटी-छोटी बस्तियाँ होती थीं और नर-नारी समीप के खेतों और जंगलों में शौच करने जाते थे। अछूत या अस्पृश्य कोई व्यक्ति न था। मृत पशुओं के चर्म से अनेक उपयोगी सामान बनाये जाते थे और ये चर्मकार समाज के सामान्य व्यापारी अंग थे (वैश्य)- इनका परस्पर के सम्पर्क में कोई सामाजिक तिरस्कार न था।

सामान्यतया वर्ग चार ही थे और सभी द्विजेतरों की गिनती शूद्र वर्ग में थी। शूद्र अस्पृश्य नहीं था। वह तीनों वर्गों की सेवा करता था और यजमान के परिवार में ही उसका पोषण होता था। उसमें निम्न गुण होते थे, तभी वह परिवार का अंग बन जाता था-

१. परिवार के सदस्यों में वह सबसे अधिक बलिष्ठ, निरोग और स्वस्थ था। वह परम-साहसी था- जोखम के घटनास्थलों पर वह सबसे पहले पहुँचता था।

२. रंग उसका कैसा ही हो, उसमें स्वस्थ सौन्दर्य था, अत: उसे परिवार के बच्चे नि:संकोच सौंपे जा सकते थे।

३. वह अत्यन्त विश्वसनीय और सदाचारी था, अत: परिवार में उसका निर्वाह हो सकता था और उसके विश्वास पर घर की सारी सम्पत्ति छोड़ी जा सकती थी।

४. वह अत्यन्त विनम्र और विनयशील था, अत: शूद्रसेवक अतिथियों का स्वागत शिष्टता से करता था।

द्विजों की अपेक्षा मानवीय गुण शूद्रों में अधिक थे। कमी यही थी कि वह शिक्षित-दीक्षित और मंत्र-पाठी न था।

शूद्र शब्द ऋग्वेद में एक ही बार प्रयुक्त हुआ है (१०/९०/१२) और वह भी वही प्रसिद्ध मन्त्र, जो पुरुष-सूक्त से अन्य वेदों में आया- ‘ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्’ वाला मन्त्र। शूद्र विराट् पुरुष का पाद स्थानीय है- ‘का ऊरू पादा उच्येते’ के उत्तर में।

मेरे एक विद्वान् मित्र ने शुच्-शोकार्थक (भ्वादि.) धातु से शुचेर्दश्च (उणादि. २/१९) सूत्र से रक् प्रत्यय, उकार को दीर्घ, च को द होकर शूद्र शब्द बनाने का दुरूह प्रयास किया है-

शूद्र: शोचनीय: शोच्यां स्थितिमापन्नो वा,

सेवायां साधूरविद्यादि गुणसहितो मनुष्यो वा।

अर्थात् शूद्र वह व्यक्ति है, जो अपने अज्ञान के कारण किसी प्रकार की उन्नत स्थिति को नहीं प्राप्त कर पाया और जिसे अपनी निम्न स्थिति होने की तथा उसे उन्नत करने की सदैव चिन्ता बनी रहती है। अथवा स्वामी के द्वारा जिसके भरण-पोषण की चिन्ता की जाती है, ऐसा सेवक मनुष्य। निम्न बातों से शूद्र की निम्नतर पदवी भी उन्नत हो जाती है-

विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्।

शुश्रुषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैऽश्रेयस: पर:।।

शुचिरुत्कृष्ट शुश्रूषूर्मृदुवागनहंकृत:।

ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते।।

– (मनु. ९/३३४-३३५)

अच्छे कुलीन परिवारों की सेवा करके शूद्र भी प्रतिष्ठा का स्थान पाते हैं।

वर्तमान युग की सामाजिक व्यवस्था में अब चातुर्वण्र्य का प्रश्न केवल शास्त्रीय प्रश्न रह गया है। शनै: शनै: सभी परिवार साक्षर हो रहे हैं और देश के शासन में सभी को मताधिकार देने का समान अधिकार है। हरिजन, अस्पृश्य या अछूत शब्द सब संक्रान्ति काल के लिए हैं। भविष्य में न वर्णभेद जन्मना रह जायेगा, न गुण-कर्म-विभागाश्रित। इसे आप वर्ण-संकरता कहें या वर्ण-समन्वय या वर्ण-निरपेक्ष कहें, सब कुछ कह सकते हैं। ऐसी परिस्थिति में हरिजन शब्द भी अब कोई अर्थ नहीं रखता है।

आर्यसमाज ने निम्नवर्ग के समाज में जागृति लाने का कार्य प्रारम्भ से किया। दलित वर्ग के लोगों का यज्ञोपवीत कराया और उन्हें समस्त धार्मिक कृत्यों में स्थान दिया। वोट के अधिकार से यह अधिकार अधिक सम्मानपूर्ण था। आर्यसमाज ने अपनी संस्था के द्वार सबके लिए खोल दिए, यज्ञ करने-कराने का अधिकार देकर अन्त्यजों में से याज्ञिक तैयार कर डाले। मंै तो दिल्ली में देखता हूँ कि हमारे याज्ञिकों से विवाह आदि संस्कार कराने में किसी पौराणिक प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी संकोच नहीं होता। हमारे पुरोहितों से कोई नहीं पूछता कि वे जन्मना किस वर्ग के हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् सभी संस्थाएँ दलित वर्ग के व्यक्तियों को मन्दिरों में प्रवेश नहीं करा सकतीं। वे दलितों को पण्डित बन जाने पर भी बिड़ला जी के लक्ष्मीनारायण मन्दिर में पुजारी नहीं बना सकतीं और न वे उन्हें शंकराचार्य की गद्दी पर बिठा सकती हैं। हिन्दू मन्दिर में आप हरिजनों का एक बार बलात् प्रवेश करा भी दें, तो वे मन्दिर के प्राङ्गण को गंगाजल या गो-दुग्ध से धोकर पवित्र कर लेंगे। मैंने सुना था कि काशी के एक मन्दिर में जगजीवनराम जी के चले जाने पर ऐसा ही किया गया था।

पुरी के शंकराचार्यों ने अभी हाल में हरिजनों के सम्बन्ध में अनर्गल बातें कहीं थीं।

भाई अग्निवेश जी का मुझे २ जुलाई १९८८ का पत्र मिला है। वे चाहते हैंं कि मैं उनके साथ १० जुलाई के बाद नाथद्वारा में हरिजनों के साथ प्रवेश करने के लिए उदयपुर चलूं। मैंने जो उत्तर दिया है, उसकी प्रतिलिपि परोपकारी में प्रकाशनार्थ इस लेख के साथ भेज रहा हूँ।

‘‘भाई अग्निवेश आपका २ जुलाई का पत्र मिला। आप अपने आन्दोलनों से इन मूर्ख शंकराचार्यों को प्रोत्साहित न करें। मैं हरिजनों को मन्दिरों में ले जाकर मूर्तिपूजक नहीं बनाना चाहता। आप प्रोत्साहित करें कि आर्यसमाज मन्दिरों में ये अधिक से अधिक संख्या में आयें। आर्यसमाज में प्रतिबन्ध न होने पर भी ये अधिक संख्या में क्यों नहीं आते- हम तो इन्हें अपने संगठनों में ऊँचे-से-ऊँचा स्थान भी देते हैं- ये पुरोहित, ब्रह्मा, ऋत्विक् आदि के कर्म भी करते हैं। मूर्ख हिन्दुओं को अतिमूर्ख शंकराचार्यों से निपटने दीजिए।’’

हिन्दू मन्दिरों में जाकर ये हरिजन पायेंगे भी क्या? क्या उनमें से कोई शंकराचार्य बनने का अधिकारी भी हो सकेगा?

राष्ट्रीय पौराणिकों में यदि साहस हो तो वे घोषित करें कि जिन मन्दिरों में हरिजनों का प्रवेश करने का अधिकार न होगा, उनमें वे भी कभी नहीं जावेंगे, उनका वे बायकॉट करेंगे।

दलित वर्ग की समस्या सुलझाने के कतिपय उपाय निम्न हैं-

१. हरिजन शब्द का परित्याग तत्काल परम आवश्यक है।

२. राजनीतिक संरक्षण की अवधि समाप्त होनी चाहिए। जिसके परिवार को एक बार संरक्षण मिला गया, दोबारा नहीं मिलना चाहिए।

३. नगर के बाहर की बस्तियों से इन्हें निकालकर अन्य नागरिकों के बीच में ही प्रतिष्ठापूर्वक बसाना चाहिए।

४. नगर की सडक़ों और शौचालयों को सा$फ करने का काम द्विज नागरिकों को भी साधना चाहिए (कूड़ा गाड़ी, मैला गाड़ी का परिवहन शुद्धतापूर्वक सभी वर्ग के शिक्षित व्यक्ति करें।)

५. आर्यसमाज के अधिवेशनों में सम्मानपूर्वक लाना चाहिए और निर्वाचनों में इन्हें उच्चतम पद उनकी योग्यतानुसार मिलने चाहिएँ।

६. फैक्ट्रियों में अन्य श्रमिकों के साथ इनकी भी भरती होनी चाहिए।

७. इनको यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए और इनके घरों में, संस्थाओं में सभी प्यार से सम्मिलित हों।

८. यज्ञों में इन्हें सब लोग अपने घरों में ऋत्विक् बनावें।

ऋषि दयानन्द की कल्पना के यज्ञ – होतर्यज- स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

भारतीय स्वातन्त्र्य के अनन्तर का आर्यसमाज कई दृष्टियों से १९४९ से पूर्व के आर्यसमाज से आगे भी है और कई दृष्टियों से यह ऋषि दयानन्द के स्वप्नों से पीछे हटता जा रहा है।

यह आवश्यक है कि इसमें से कतिपय बुद्धिजीवी व्यक्ति प्रति तीसरे या पाँचवें वर्ष स्वयं अपनी स्थिति का सिंहावलोकन कर लिया करें। अपने सामाजिक और व्यक्तिगत निर्देशन के लिए एक ‘ब्ल्यू-प्रिन्ट’ तैयार कर लिया करें।

आर्यसमाज जीवित और उदात्त संस्था है- अनेक राजनीतिक दल पनपते रहेंगे, मरते रहेंगे, अपना कलेवर बदलते रहेंगे। अनेक बाबा-गुरु-अवतार-भगवान्-माताएँ आती रहेंगी, जाती रहेंगी, पर जो जितना ही स्वामी दयानन्द के दृष्टिकोण के निकट रहेगा, उतना ही आर्यसमाज का महत्त्व बढ़ता जावेगा। हिन्दुओं के अनेक रूप हमारे सामने आर्यमाज का विरोध करने के लिए आये, पर वे चले नहीं, बदलते गये, क्योंकि ये मूत्र्तिपूजा, अवतारवाद, रूढिय़ों, अन्धविश्वासों, वर्गभेदों, देशभेदों, जातिभेदों आदि पर निर्भर थे। आर्यसमाज के कार्यकत्र्ताओं को समझना चाहिए कि वे धरती के पुत्र हैं, सब नदी-नदियाँ उनके लिए एक-सी पवित्र हैं। उनको ईश्वर, ईश्वर के स्वरूप, ईश्वरीय-ज्ञान, ईश्वरीय-व्यवस्था और मानव-मात्र की श्रेष्ठता और समवेत कर्मठता में आस्था है- वे सत्य और ऋत के उपासक हैं। इस स्वरूप का आर्यसमाज सदा जीवित रहेगा। आगे की मानवता न पैगम्बरों पर एक होने वाली है, न धर्म और न सम्प्रदायों पर, न मन्दिरों-मस्जिदों या गिरजों पर, वेद-वेदांगों पर ही एक होगी, भौतिक विज्ञान, रसायन शास्त्र, विकासवान् ज्ञान-विज्ञान के विविध शास्त्र (वेदांग-उपांग) समस्त मानव के एक होंगे। (भारतीय ज्योतिष, चीन देश की केमिस्ट्री, भारतीय रसायन, यूनान की ज्यामिति, इस प्रकार के भौगोलिक शब्द मिट जायेंगे)।

वेद-वेदांग के ऋषि एक होंगे, चाहे आइन्स्टाइन हो, मैक्स प्लांक हो, प्रो. रमन् या रामानुजन् हों, चाहे मैडम क्यूरी हों- इन ऋषियों के नाम पर सबको गर्व होगा। ये ऋषि जो भी मार्ग-निर्देशन करेंगे, उनके संकेतों पर यज्ञों का निर्माण होगा।

यज्ञेन कल्पन्ताम्। (यजु. अध्याय १८), यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:। (यजु. ३१/१६), यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्। (१८/२९)- इन वाक्यों के नूतनतम अर्थ हमें धीरे-धीरे समझ में आवेंगे। मैं अभी करनाल (हरियाणा) में अपनी दाहिनी आँख नई करवा के आया हूँ, डॉ. जे.के. पसरीचा की यज्ञस्थली में मानो ‘चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्’ (यजु. १८/२९) का यज्ञ कराया हो। कुछ मास पूर्व मैंने बम्बई के हिन्दूजा-अस्पताल में प्रोस्टेट-ऑपरेशन द्वारा अपने जीवन की नई आयु प्राप्त की थी (आयुर्यज्ञेन कल्पताम्)। ऋषि दयानन्द की दृष्टि में यह सब यज्ञ है। इन यज्ञों में भाग लेने वाले ही ऋत्विक्, होता, अध्वर्यु हैं। इसी प्रकार के होताओं को दृष्टि में रखकर यजुर्वेद, अध्याय २१ के ४८-५८ मन्त्रों में बार-बार ‘दधुरिन्द्रियं वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज’ और इससे पूर्व ‘पय: सोम: परिस्रुता घृतं मधु व्यन्त्वाज्यस्य होतर्यज’ (मन्त्र २९-४७), यजुर्वेद संहिता में पठित है।

स्वामी दयानन्द की कल्पना के यज्ञ क्या है, यह समझना हो तो यजुर्वेद अध्याय २१ के मन्त्रों के भावार्थ देखिये। ये यज्ञ काष्ठाग्नि में घृत और हव्य डालना नहीं हैं।

मन्त्र २९- येऽस्य संसारस्य मध्ये साधनोपसाधनै: पृथिव्यादिविद्यां जानन्ति, ते सर्व उत्तमान् पदार्थान् प्राप्नुवन्ति।।

मन्त्र ३०- ये संगन्तारो विद्यासुशिक्षासहितां वाचं प्राप्य पथ्याहारविहारैर्वीर्यं वद्र्धयित्वा पदार्थविज्ञानं प्राप्यैश्वर्यं वर्धयन्ति ते जगद्भूषका भवन्ति।।

मन्त्र ३१- ये निर्लज्जान् दण्डयन्ति प्रशंसनीयान् स्तुवन्ति जलेन सहौषधं सेवन्ते ते बलाऽऽरोग्ये प्राप्यैश्वर्यवन्तो जायन्ते।।

मन्त्र ३२- मनुष्या ब्रह्मचर्येण शरीरात्मबलं विद्वत्सेवया विद्यापुरुषार्थेनैश्वर्यं प्राप्य पथ्यौषधसेवनाभ्यां रोगान्हत्वारोग्यमाप्नुयु:।।

मन्त्र ३३- यदि मनुष्या विद्यासंगतिभ्यां सर्वेभ्य: पदार्थेभ्य उपकारान् गृöीयुस्तर्हि वाय्वग्निवत्सर्वविद्यासुखानि व्याप्नुयु:।।

मन्त्र ३४- ये मनुष्या: सर्वदिग्द्वाराणि सर्वर्तुसुखकराणि गृहाणि निर्मिमीरंस्ते पूर्णसुखं प्राप्नुयु:। नैतेषामाभ्युदयिकसुखन्यूनता कदाचिज्जायेत।।

मन्त्र ३५- हे मनुष्या:! यथाहर्निशं सूर्याचन्द्रमसौ सर्वं प्रकाशयतो रूप-यौवनसम्पन्ना: पत्न्य: पतिं परिचरन्ति च यथा वा पाकविद्याविद्विद्वान् पाककर्मोपदिशति तथा सर्वप्रकाशं सर्वपरिचरणं च कुरुत भोजनपदार्थांश्चोत्तमतया निर्मिमीध्वम्।।

मन्त्र ३६- हे विद्वांसो यथा सद्वैद्या: स्त्रिय: कार्याणि साधयितुमहर्निशं प्रयतन्ते यथा वा वैद्या रोगान्निवाय्र्यं शरीरबलं वर्धयन्ति तथा वत्र्तित्वा सर्वैरानन्दितव्यम्।।

इसी प्रकार की प्रेरणायें और उद्बोधन अन्य मन्त्रों में भी हैं (होतर्यज)- मनुष्यै: पुरुषार्थेन लक्ष्मी: प्राप्तव्या (३८), विद्यया वह्निशान्त्या विद्वांसं पुरुषार्थेन प्रज्ञां न्यायेन राज्यं च प्राप्यैश्वर्यं वद्र्धयन्ति ते ऐहिकपारमार्थिके सुखे प्राप्नुवन्ति। (३९), ये…..विद्यां विज्ञाय गवादीन् पशून् संपाल्य सर्वोपकारं कुर्वन्ति ते वैद्यवत्प्रजादु:खध्वंसका जायन्ते। (४०), ये कृषिकरणाद्यायैतान्वृषभान्युञ्जन्ति ते धनधान्ययुक्ता जायन्ते।। (४१)

ऋषि दयानन्द की कल्पना उदात्त समाज के निर्माण की थी, जिसमें सभी शास्त्रों की विद्यायें विकसित हों, सभी विषयों के ज्ञाता हों और सभी प्रकार के सर्वोपयोगी संस्थान हों। उनकी दृष्टि में यजुर्वेद का २१वाँ अध्याय इन्हीं प्रेरणाओं का स्रोत है। आज आर्यसमाज के यज्ञ और हमारे याज्ञिक आर्यसमाज को भटका रहे हैं और हमारे पुरोहित और विद्वान् हमें फिर उस ओर ढकेलने में कटिबद्ध हैं, जिस ओर से ऋषि हमें बचाना चाहते थे।

महर्षि ने वसुवने वसुधेयस्य व्यन्तु यज (२१/४८-५८) मन्त्रों के भावार्थों में भी उदात्त प्रेरणायें दी हैं-

मन्त्र ४८- यथा विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी स्वार्थं हृद्यं पतिं प्राप्यानन्दति तथा विद्यासृष्टिपदार्थबोधं प्राप्य भवद्भिरप्यानन्दितव्यम्।।

मन्त्र ५०- ये पुरुषार्थिनो मनुष्या: सूर्यचन्द्रसन्ध्यावन्नियमेन प्रयतन्ते सन्धिवेलायां शयनाऽऽलस्यादिकं विहायेश्वरस्य ध्यानं कुर्वन्ति ते पुष्कलां श्रियं प्राप्नुवन्ति।।

मन्त्र ५३- यथा विद्वत्सु विद्वांसौ सद्वैद्यो सत्क्रियया सर्वानरोगीकृत्य श्रीमत: सम्पादयतो यथा वा विदुषां वाग्विद्यार्थिनां स्वान्ते प्रज्ञामुन्नयति तथाऽन्यैर्विद्याधने संचयनीये।।

मन्त्र ५८- ये मनुष्या ईश्वरनिर्मितानेतन्मन्त्रोक्तयज्ञादीन् पदार्थान् विद्ययोपयोगाय दधति ते स्विष्टानि सुखानि लभन्ते।।

यजुर्वेद के १८वें अध्याय में ‘यज्ञेन कल्पताम्’ पद मन्त्र १-१७ और २९ में बराबर प्रयुक्त हैं, जिनमें भी ऋषि दयानन्द ने यज्ञ के कर्मोदात्त और कर्म-प्रेरक अर्थ दिए हैं- कर्मकाण्डी अर्थ नहीं। स्वामी दयानन्द की कल्पना का आर्य परिवार रूढि़ अर्थों में याज्ञिक नहीं है, जैसा कि हमारे पुरोहितों, कर्मकाण्डियों और तथाकथित याज्ञिकों ने भटका रखा है। स्मरण रखना चाहिए कि वेदमन्त्रों से राष्ट्र शब्द संकलित करके उनसे काष्ठाग्नि में घृतादि की आहुतियाँ डलवा देना राष्ट्रभृत् यज्ञ नहीं है। जिन मन्त्रों में अक्षि या चक्षु शब्द प्रयोग हुए हों, उन्हें संकलित करके आहुतियाँ दिला देना नेत्र-यज्ञ या चक्षु-यज्ञ का उपहास मात्र होगा।

मैं अपने युवकों और बुद्धिजीवियों से आग्रह करूँगा कि यदि आप मेरी कही हुई बातों में कुछ तथ्य समझते हों, तो आपको आर्यसमाज के परिवारों में प्रचलित वर्तमान यज्ञों की कुप्रथा को रोकने के लिए कुछ सक्रिय कदम उठाने होंगे, नहीं तो कैन्सर की तरह बढ़ता हुआ यह कर्मकाण्ड हमें मध्यकालीन हिन्दुओं की तरह ही विकृत और पथभ्रष्ट कर देगा। आर्यसमाज में यज्ञ के रूप में फैला हुआ यह कैन्सर चालीस-पचास वर्ष ही पुराना है, अभी तो हम इसकी रोकथाम कर सकते हैं, अन्यथा आगे रोकना कठिन होगा।

मेरी आयु ८५ वर्ष है, आगे की बात ईश्वर जाने, इसीलिए कुछ तीखे उपाय बता रहा हूँ, हो सकता है कि मेरे मित्रों को और आर्यसमाज के वर्तमान कर्णधारों को शायद ये पसन्द न आवें। कुछ उपाय ये हैं-

१. विद्वान् युवकों को चाहिए कि वर्तमान यज्ञों के विरुद्ध उचित वातावरण तैयार करें (प्यार और स्नेह से)

२. जहाँ-कहीं भी ये कैंसर-यज्ञ हों, उनका सक्रिय विरोध करें।

३. स्वामी दयानन्द ने दो ग्रन्थ हमें व्यावहारिक महत्त्व के दिए हैं- पंचमहायज्ञविधि और संस्कारविधि। संस्कारविधि का सामान्य प्रकरण केवल १६ संस्कारों और नवशस्येष्टि-संवत्सरेष्टि एवं शालानिर्माण विधि के लिए है। कर्मकाण्ड एवं विनियोगों को यहीं तक सीमित रक्खें।

४. भारतवर्ष में कैंसर-यज्ञ चलने लगे हैं और इनकी छूत देश के बाहर भी फैलने लगी है। हमें चाहिए कि वह हवा देश के बाहर न जावे।

(मैं वेदपारायण यज्ञ और मृत्युञ्जय यज्ञों को कैन्सर-यज्ञ कहता हूँ।)

५. लोगों को बतावें कि जो हम विद्या-संस्थायें खोलते हैं (चाहे गुरुकुल शैली की या कॉलेज शैली की) ये संस्थायें ही हमारी यज्ञस्थली हैं, हमारे सभी चिकित्सालय, अनाथाश्रम, सेवागृह, फैक्टरियाँ, पशुधन-विस्तारशालायें- इन सबको आर्यसमाज यज्ञ मानता है। दीनदु:खियों की सहायता के लिए, दुर्भिक्ष-पीडि़तों और बाढ़ से सन्तप्त व्यक्तियों की सहायता के लिए जो भी कुछ हम करेंगे, वह सब यज्ञ है।

आर्यसमाज के प्रारम्भिक युग में लाला मुन्शीराम, लाला लाजपतराय, लाला हंसराज आदि मनीषियों ने ऐसा ही किया था। वे हमारे महान् याज्ञिक थे, कर्मयोगी थे। आज हम कर्मयोगी नहीं कर्मकाण्डी पैदा कर रहे हैं। मिशनरी नहीं, पुरोहित मण्डली तैयार कर रहे हैं।

युवकों से मेरा आग्रह है कि जहाँ-कहीं भी कर्मकाण्डियों द्वारा वेदपारायण यज्ञ होता देखें, मृत्युञ्जय-यज्ञ देखें, वर्षा के निमित्त यज्ञ करते-कराते देखें, उनके विरुद्ध सक्रिय विरोध और रोष प्रकट करें।

महर्षि दयानन्द का जन्म १८२४ ई. में हुआ था। उनकी द्वितीय जन्मशती २०२४ ई. में मनाई जायेगी। तब तक हमें अपने कैन्सर-यज्ञों को दूर कर देना चाहिए। अगली शती के लिए वर्तमान आर्यसमाज के सामने जीता-जागता गौरवमय कार्यक्रम होना चाहिए। केवल नारे, लंगर और जलूसों से काम न चलेगा।

मूर्तिपूजा अवैदिक होने पर भी हमारे देश से दूर क्यों नहीं हुई, क्योंकि यह पण्डितों, पुरोहितों, शंकराचार्यों और महन्तों की जीविका बन गई है। आर्यसमाज के कर्मकाण्डी यज्ञ भी जीविका के साधन बन गये, तो आप आगे इन्हें बन्द न कर सकेंगे।

लोकतन्त्र की जीत: दिनेश

कोई भी समाज अपने आस-पास घट रही घटनाओं से उदासीन नहीं रह सकता/विशेषकर यदि वे घटनाएँ राजनीति या सरकार से सम्बन्ध रखती हैं। यद्यपि आर्यसमाज एक धार्मिक-सामाजिक संगठन है, परन्तु इसकी ‘धर्म’ की परिभाषा विशद है, जिसमें मानव जीवन से सम्बन्धित सभी पक्षों का सम्यक् समावेश रहता है। इसी दृष्टि से हमें पिछले दिनों भारत के पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव और उनके परिणामों पर विचार करना उचित होगा।

उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, मणिपुर और गोवा में चुनाव सम्पन्न हुए और दो प्रदेशों में (उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड) भाजपा ने प्रधानमन्त्री श्रीमान् नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में प्रचण्ड विजय प्राप्त की। पंजाब में जो सरकार कैप्टन अमरिन्दर सिंह के नेतृत्व में बनी उसका श्रेय बादल सरकार के भ्रष्टाचार एवं व्यक्तिगत रूप से कैप्टन अमरिन्दर सिंह को ही जाता है। कांग्रेस पार्टी के रूप में वहाँ कोई विशेष प्रभाव नहीं था। शेष दो राज्यों में स्पष्ट बहुमत न होने पर भी भाजपा की सरकार बनी है, क्योंकि कांग्रेस नेतृत्व सक्रिय रहकर निर्णय लेने में अक्षम है। श्री नरेन्द्र मोदी जी के सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबन्दी जैसे सफल अभियानों को जनता ने हृदय से स्वीकार किया है।

यह उल्लेखनीय है कि भाजपा ने उत्तर-पूर्व में अपना परचम मणिपुर में फहराकर अपनी जन स्वीकार्यता को स्पष्ट किया है। इस प्रकार कुल मिलाकर भाजपा इन चुनावों में विशेष लाभ की स्थिति में रही। इस समय सिद्ध हुआ कि भाजपा के प्रधानमन्त्री श्री मोदी जी ही विजयी हुए हैं, इसमें दो राय नहीं। हालाँकि भाजपा कार्यकत्र्ताओं और अपने अन्य संगठनों (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) की बदौलत एक सुगठित पार्टी है। भाजपा को समान विचारधारा के सभी संगठनों का सहयोग भी मिला है।

हमें यह देखना चाहिए कि आखिर क्या बात है कि मोदी जी की स्वीकार्यता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इस विजय में जहाँ अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की नेतृत्व-अक्षमता मुख्य कारण बनी, वही राष्ट्रीय समस्याओं को सही परिपे्रक्ष्य में न देख पाना भी कारण रहा। यद्यपि सभी पार्टियाँ विकास का नारा देती दीख रहीं थीं, परन्तु वे यह बताने में असमर्थ थीं कि मोदी जी स्वयं ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे के साथ इस चुनाव में उतरे थे। जहाँ क्षेत्रीय पार्टियों ने जातिवाद तथा साम्प्रदायिकता का सहारा लिया, वहीं मोदी जी ने सर्वसमावेशी दृष्टिकोण अपनाए रखा तथा कोई भी विभेदकारी वक्तव्य नहीं दिया है।

प्रधानमन्त्री जी के इस दृष्टिकोण की प्रशंसा की जानी चाहिए कि वे एक सच्चे शासक की भाँति सभी वर्गों, धर्मों, समाजों को समान दृष्टि से देखते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि देश के कुछ (धार्मिक, सामाजिक एवं क्षेत्रीय) वर्गों के शासकों की विभेदकारी एवं तुष्टिकरण की नीति का शिकार समाज स्वतन्त्रता के बाद से ही बनता आया है, जिससे उन्हें विशेष पहचान के कारण कुछ अतिरिक्त सुविधाएँ आजादी के बाद से ही प्राप्त होती आई हैं। अत: वे मोदी जी की समानता की विचारधारा को भी अपने लिए हानिकारक समझते हैं। लेकिन उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि उनके शेष देशवासी, जो उन सुविधाओं से वंचित रहते हैं, वे उन्हें अपना विरोधी और शत्रु मानने लगते हैं।

अस्तु, प्रधानमन्त्री जी ने विशेषत: उत्तर प्रदेश की बड़ी विजय के पश्चात् अपने सम्बोधन में कहा कि सभी के साथ समानता का बर्ताव करते हुए सभी को साथ लेकर देश का विकास किया जाएगा। इससे हम आशान्वित हैं कि सभी वर्गों, मतों, सम्प्रदायों एवं क्षेत्रों-प्रदेशों को विकास के समान अवसर दिए जाएँगे एवं हार-जीत की निराशा एवं गर्वोन्मत्तता से दूर रहकर राजधर्म का निर्वाह किया जाएगा।

सौभाग्य से प्रधानमन्त्री में हम उन गुणों का समावेश पाते हैं, जो ऋषियों की दृष्टि से एक शासक में अनिवार्यत: होने चाहिएं- सदाचार, ईमानदारी, कर्मठता, निरालस्य, राष्ट्रप्रेम, अर्थ-शुचिता, सतत अथक परिश्रमशीलता, प्रजा (जनता) के प्रति समदृष्टि इत्यादि। हमें ज्ञात नहीं कि उन्होंने किसी गुरु से आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन किया अथवा नहीं, परन्तु यदि किया होता तो वे ‘राजर्षि’ की उपाधि अवश्य प्राप्त करते।

मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान सो एक।

पालइ पोसइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक।।

– दिनेश

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता : दिनेश

अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रता और देशभक्ति विगत लगभग ढाई वर्षों में अत्यन्त ज्वलन्त प्रश्न रहा है। अभिव्यक्ति  मानव वाणी के द्वारा, लेखन के द्वारा या क्रियात्मक  सृजना शक्ति के  द्वारा, संगीत के द्वारा या अभिनय के द्वारा व्यक्त हो सकती है। प्रश्न यह है कि अभिव्यक्ति  की मर्यादाएँ और उसका उद्देश्य किस प्रकार सुनिश्चित किया जा सकेगा। प्राचीन भारतीय संस्कृति अभिव्यक्ति  की स्वतन्त्रता की सर्वोन्मुखी प्रवक्ता रही है। जहाँ विचारधाराओं के आधार पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध न राज्य की ओर से होता था और न किसी विचारधारा विशेष के द्वारा। यही कारण था कि चिन्तन की इस उर्वरा भूमि में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएँ पल्लवित हुईं और पुष्पित हुईं। भले ही उन विचारों से अन्य मत्तावलम्बी सहमत हों या ना हों।

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी प्रकार जैन और बौद्ध धर्मों का उद्भव हुआ। क्या यह सुखद आश्चर्य नहीं है उन लोगों के लिए जो वैदिक परम्परा और विचारधारा के भिन्न चिन्तन को प्रस्फुटित कर रहे थे, वैदिक मीमांसा और कर्मकाण्ड पर तीव्र प्रहार हो रहे थे, तब न किसी शासक ने और न किसी चिन्तक ने बल प्रयोग या हिंसा के आधार पर स्वमत के विरुद्ध प्रचलित चिंतन की विभिन्न धाराओं के विपरीत बल प्रयोग किया हो। यही कारण है कि भारत में चरक जहाँ सांख्य का विचार देता है, वहीं पतंजलि महाभाष्य में दर्शन के मूल प्रश्नों को भाषा के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। नागार्जुन और अश्वघोष भले ही वे ब्राह्मण कुल में जन्में हों, वैदिक परम्परा का अध्ययन किया हो फिर भी उन्होंने बौद्ध दर्शन के आधारभूत ग्रन्थों का प्रणयन ही नहीं किया अपितु उनके साहित्य सृजन में अनवरत योगदान भी दिया। चार्वाक ने तो सभी तत्कालीन दार्शनिक विचारधाराओं पर तीव्र कुठाराघात किया।

मध्यकालीन भारतीय संस्कृति में सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, जगत सत्य है या असत्य, इत्यादि अनेक विचारधाराओं पर भारतीय तत्ववेत्ताओं, साहित्यकारों और सन्तों ने अपनी भावभूमि को निर्मित किया। यद्यपि शासन मताग्रही था, तथापि देश के विभिन्न क्षेत्रों में सृजन की अनवरत प्रक्रिया संचालित होती रही। भारत में अभिव्यक्ति के विभिन्न आयाम रहे हैं, जिनमें प्रतीकों की प्रधानता सर्वत्र विद्यमान रही है।

समकालीन संदर्भों में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और देशभक्ति के विश्लेषण की गहरी परख की आवश्यकता है। वेद में मातृभूमि की अभ्यर्थना विभिन्न मतों के द्वारा अभिव्यक्त की गई है। भाव और समर्पण मातृभूमि के प्रति अभिव्यक्त होते हैं। अभी हाल ही में दिल्ली के रामजस कॉलेज और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति की विद्रूप घटनायें, जिनमें विभिन्न राजनीतिक दलों का सोची समझी नीति के तहत कूदना अप्रत्याशित नहीं है फिर भी देश के भावनात्मक लगाव और देश को तोडऩे वाली शक्तियों के बीच गहरी खाई का निर्माण अवश्य करती है।

तथाकथित राजनीतिक अकादमिक विश्लेषण किसी ऐसी प्रविधि का निर्माण नहीं कर पाये कि ‘कश्मीर की आजादी’, ‘भारत के टुकड़े करने’, ‘अफजल गुरु की फाँसी…….’ जैसे नारों का औचित्य देशभक्ति के रूप में सिद्ध कर सकें। फिर क्यों नेताओं के रूप में विभिन्न घटकों में बंटे मीडिया, शिक्षक और नेता पिष्टपेषण की नूरा कुश्ती करते दिख रहे हैं?

वस्तुत: सामान्य सी घटना बताने वाले युद्ध और पाकिस्तान जैसे शब्द की पक्षधर्मिता को समझना नहीं चाहते। जाने-अनजाने में कहे गये कथनों को अपने पक्ष में करने की जिद अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मूल भाव को ही तिरोहित कर देती है।

आवश्यकता है कि महर्षि दयानन्द की चिन्तनधारा के आलोक में ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोडऩे में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और देशभक्ति की भावना चाहिए तभी हम शिक्षा के मन्दिरों को निष्पक्ष ज्ञान की प्रयोगशाला बना पायेंगे। अभी तक ये सभी केन्द्र विशेष मतों के मठ बन रहे थे, अब उनके ढहने की बारी है, बस इसी अकुलाहट का परिणाम है यह भ्रान्त धारणा कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता वर्तमान में बाधित हो रही है।

भारत ही ऐसा देश है कि जहाँ देश-प्रेम हमारी संस्कृति की आधारशिला है और अभिव्यक्ति की अनन्त स्वतन्त्रता यहाँ के कण-कण में विद्यमान है। जिगर मुरादाबादी ने ठीक ही लिखा है-

उनका जो काम है, वह अहले सियासत जानें

मेरा पैगाम मुहब्बत है, जहाँ तक पहुँचे।

इसलिए स्थापित मठाधीशों के अस्तित्व को अब चुनौती दी जा रही है, जिसे वे पचा नहीं पा रहे और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आड़ लेकर अपना बचाव करने का ढोंग कर रहे हैं।

आपका

दिनेश

‘जल्लीकट्टू का विरोध’-एक अन्तर्राष्ट्रीय षडय़न्त्र: -प्रभाकर

कुछ कार्य बाहर से देखने पर तो बड़े अच्छे और कल्याणकारी प्रतीत होते हैं, पर उनके पीछे छिपा स्वार्थ उतना ही भयावह होता है। हमारी दृष्टि केवल थोड़ा ही देख पाती है, पर उसकी जडं़े कहाँ तक हैं, ये शायद हम सोच भी नहीं पाते।

तमिलनाडु के पारम्परिक खेल ‘जल्लीकट्टू’ का एक गैर-सरकारी संस्था क्कश्वञ्ज्र द्वारा किया गया विरोध भी कुछ ऐसा ही है।

पहले इन गैर-सरकारी संस्थाओं (हृत्रह्र)की पृष्ठभूमि और उनके उद्देश्य को समझ लें तो बाकि अपने आप समझ में आ जायेगा।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच आगे बढऩे की प्रतियोगिता रहती है। दूसरे देशों को पिछड़ा और गरीब बनाये रखने के लिये कुछ विकसित देश जिन तरीकों का उपयोग करते हैं, उनमें एक तरीका है-एन.जी.ओ.। बाहर से दिखने में ये संस्थायें समाज, पशु, मानव, प्रकृति की हितैषी लगती हैं, परन्तु इनका मूल उद्देश्य समाज और सरकारों को अस्थिर करना होता है, जिससे देश में कोई प्रगति का कार्य ना हो सके और वह देश वैश्विक मंच पर पिछड़ा बना रहे। प्राकृतिक संतुलन का मुखौटा ओढक़र बांध न बनने देना, सडक़ों उद्योगों का विरोध करना, पिछड़े दलित वर्ग को भडक़ाकर उन्हें देश के विरोध में खड़ा कर देना आदि इनके माध्यम होते हैं।

जल्लीकट्टू के विरोध के पीछे कितनी गहरा और दूरगामी षडय़न्त्र है, इसके बारे में जानना प्रत्येक भारतीय के लिये आवश्यक है।

क्या है ‘जल्लीकट्टू’?- ‘जल्लीकट्टू’ भारतीय गायों की नस्लों का संवर्धन करने वाली एक प्रतियोगिता है। जैसे मनुष्यों में योग्यताओं को बढ़ाने के लिये कुश्ती आदि खेल होते हैं, ठीक वैसे ही। इस प्रथा में केवल भरतीय नस्लों को ही लिया जाता है। किसी समय इस खेल में ६ नस्लों को बैलों के लिया जाता था। अब एक प्रजाति ‘अलामबादी’ विलुप्त हो चुकी है, बाकी प्रजातियाँ भी विलुप्ति के कगार पर हैं। १९९० में कंगायम प्रजाति के १० लाख बैल थे, अब वह संख्या मात्र १५००० रह गई है। प्रतियोगिता में सभी पशुपालक अपने बलिष्ठ बैलों को लाते हैं। बैलों को बड़ी चारदीवारी में छोड़ दिया जाता है, फिर उन्हें नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है, जिन बैलों को वश में नहीं किया जा सकता, उन्हें वंशवृद्धि के लिये प्रयोग किया जाता है। बाकि बैलों को खेती के कार्य में लिया जाता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित किया जाता है कि सबसे ताकतवर बैल ही गोधन की वृद्धि के लिये प्रयुक्त हो, जिससे होने वाला पशु भी बलिष्ठ, रोगों से लडऩे वाला और अधिक दूध देने वाला होता है। यह एक परम्परागत, व्यावहारिक तरीका है, जिससे किसान अच्छे जीन को सुरक्षित व देशी नस्ल की वृद्धि कर सकते हैं। किसानों को इस स्पर्धा से पशुओं का अच्छा मूल्य भी मिलता है। इस कारण भी यह प्रथा महत्त्वपूर्ण है। यदि यह प्रतियोगिता ना हो तो पशुपालकों का उत्साह गिरेगा, जिससे कि लोग पशु पालना, खरीदना कम कर देगें। फलस्वरूप गाय व बैलों का मूल्य कम हो जायेगा और इसका सीधा-सीधा लाभ कत्लखानों को मिलेगा।

२०११ में इस परम्परा पर तब विवाद शुरु हुआ, जब एक पशु अधिकार संस्था ने उच्चतम न्यायालय में ‘जल्लीकट्टू’ पर रोक लगाने की माँग की। उनकी अपील का आधार जानवरों के साथ क्रूरता का व्यवहार था। उच्चतम न्यायालय ने २०१४ में फैसला सुनाते हुए इस प्रथा पर रोक लगा दी।

‘जल्लीकट्टू’ के विरोध का अन्तर्राष्ट्रीय कारण- इस प्रथा के विरोध का कारण पशुओं पर होने वाली क्रू रता नहीं, बल्कि व्यापारिक स्वार्थ है।

गाय के दूध में दो प्रकार के क्चद्गह्लड्ड ष्टड्डह्यद्गद्बठ्ठ प्रोटीन पाये जाते हैं- ए१ व ए२। अधिकतर लोग मानते हैं कि ए२ प्रोटीन ज्यादा लाभकारी है। भारत में देशी गाय की ३७ नस्लें हैं (१०० वर्ष पहले १५०० नस्लें थीं)। इनमें से ३६ में ए२ प्रोटीन पाया जाता है। माना जाता है कि ए१ प्रोटीन दीर्घकालिक बीमारियों जैसे-टाइप १ डायबिटीज़ और ऑटिज्म को जन्म देता है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी जो ए२ प्रोटीन वाले दूध का उत्पादन करती है, उसकी आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड में उपस्थिति है। इस कम्पनी के पास ए१/ए२ प्रोटीन वाले जीन के परीक्षण का पेटेंट है। समस्या यह है कि इसी कम्पनी के पास ए२ जीन वाले बैल से कृत्रिम गर्भाधान का पेटेंट भी है। उनके पास इस प्रयोग का पेटेंट भी है, जिससे ए२ जीन को प्रभावशाली बनाकर ए१ जीन को प्रमुख होने से रोका जा सकता है। अगर भारत की सभी देसी नस्लें नष्ट हो जायें, तब या तो हमें ए१ प्रोटीन वाला हानिकारक दूध पीना पड़ेगा या बहुत मूल्य देकर इस कम्पनी की पेटेंट तकनीक का उपयोग करके ए२ दूध प्राप्त करना पड़ेगा।

नियम के अनुसार यह पेटेंट सिर्फ एक प्रजाति ‘बोस टॉरस’ (क्चशह्य ञ्जड्डह्वह्म्ह्वह्य) पर ही लागू होता है। और ‘बोस टॉरस’ से भी शुद्ध प्रजाति ‘बोस इण्डिकस’ (क्चशह्य ढ्ढठ्ठस्रद्बष्ह्वह्य) तमिलनाडु की है, जो कि ‘जल्लीकट्टू’ में प्रयोग की जाती है, पर यह प्रजाति पेटेंट में नहीं आती। इसलिये जब तक यह प्रजाति सुरक्षित है, तब तक कम्पनी अपना व्यापार पूरी तरह भारत में फैलाने में असमर्थ है। इसके समाप्त होते ही ए२ प्रोटीन का दूध लेने के लिये हमें विदेशी कम्पनियों पर आश्रित होना पड़ेगा। यही समस्या तमिलनाडु के किसानों को परेशान कर रही है।

‘जल्लीकट्टू’ पर रोक लगने से पहले तमिलनाडु में गाय-बैल का अनुपात ४:१ था, परन्तु अब यह बढक़र ८:१ हो गया है। इसके अतिरिक्त अब बैलों को कसाइयों को बेचा जा रहा है। इसलिये यह प्रथा देसी नस्ल के गाय-बैल के अनुपात को स्वस्थ रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रखती है, इससे देसी नस्ल को ही प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रथा का विरोध करने वाले ‘पेटा’ का मुख्य तर्क है कि इसमें पशुओं की पूँछ तोडऩा, घायल करना, शराब पिलाना, आदि क्रूरता की जाती है और कई बार पशु मर भी जाते हैं।

इस पर मदुरई निवासी श्री पंडीयन रंजीत (पशु-पालक) का कहना है कि वह पिछले २० वर्षों से इस प्रथा के लिये बैलों को तैयार कर रहे हैं। उन्होंने इस खेल में मनुष्यों को तो चोट खाते देखा है, पर बैलों को कभी नहीं। प्रतिभागियों और आयोजकों का ये कहना कि ‘‘यदि इस आयोजन में किसी पशु के खून की एक बँूद भी गिरती है तो खेल को रोक दिया जाता है’’ उनके पशुप्रेम का परिचायक है।

स्थानीय नेता व राज्य सरकार इस प्रथा की अनिवार्यता को देखते हुए इसके पक्ष में है, लेकिन केन्द्र और न्यायालय की मजबूरी क्या है-ये विचारणीय है।

ये कोई पहली घटना नहीं, इससे पहले भी मुम्बई में चलने वाली विक्टोरिया घोड़ा गाडिय़ों पर भी प्रतिबन्ध इसी ‘पेटा’ द्वारा लगवाया गया था। मिर्जापुर का कालीन उद्योग, भारतीय सर्कस, फिरोजाबाद का चूड़ी उद्योग भी इन्हीं हृ.त्र.ह्र. की भेंट चढ़ गया। भारत की भूमि में सदियों से उगाये जाने वाले बासमती चावल का पेटेंट आज अमेरिका के पास है। उत्तर प्रदेश में बैलों की दौड़ पर प्रतिबन्ध भी ऐसे ही षडय़न्त्रों का हिस्सा रहा है, आज वहाँ बैलों की कीमत नाममात्र की रह गई है। तर्क यही था-पशुओं पर अत्याचार।

विदेशों के दान और उनके इशारों पर चलने वाली इन संस्थाओं को पशुओं व समाज की इतनी ही चिन्ता है तो वह ईद जैसे हिंसक त्यौहार पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग क्यों नहीं करती? पशुओं को हलाल होते देख क्यों अपनी आँखें मूंद लेती है? सौन्दर्य प्रसाधनों के लिये निरीह जीवों को तड़पते वक्त उनकी चीख इन संस्थाओं को दिखाई नहीं देती। कत्लखानों में कटते छोटे-छोटे पशुओं के बच्चे इनके विरोध के दायरे में क्यों नहीं आते?

पशुहिंसा ना हो ये आवश्यक है, लेकिन उनके संवर्धन को हिंसा नाम देना कहाँ तक उचित है?

कमियाँ तो कहीं भी ढूँढी जा सकती हैं, आपत्ति कहीं भी हो सकती है। एक महिला जब प्रसव पीड़ा झेलती है तो उसे भी हिंसा घोषित किया जा सकता है। सैनिक सीमा पर खड़ा होकर जान को जोखिम में डालता है। एक मजदूर भवन निर्माण में जो मेहनत करता है, क्या उसे भी क्रूरता कहा जायेगा?

नहीं, क्योंकि ये सब अनिवार्य हैं, हित के लिये हैं। भारतीय संस्कृति की नींव अनिवार्यता पर टिकी है, आवश्यकता व संतुलन ही उसका आधार है, विलासिता, हिंसा और उपद्रव नहीं। यहाँ का त्यौहार, हर खानपान, ऋतु, फसल, प्रकृति से अनिवार्यता से जुड़ा है, जिनका उद्देश्य व्यक्ति व समाज को उन्नति प्रदान करना है। दुनिया के हर कार्य में कष्ट हैं। अच्छाई है, तो कुछ समस्यायें भी हैं, पर हम हर कार्य को प्रतिबन्धित नहीं कर सकते। यदि कार्य का उद्देश्य व विधि सही है तो कुछ समस्याएं होते हुए भी कार्य सही होगा, क्योंकि समस्या और कार्य परस्पर साथी हैं, परन्तु यदि किसी कार्य का उद्देश्य गलत है तो उसकी दलीलें सही प्रतीत होते हुए भी वह कार्य गलत ही होगा। बाहर से अच्छा दिखने वाला यह कार्य समाज व राष्ट्र के लिये अहितकर ही होगा।

 

अविद्या को दूर करना ही देशोन्नति का उपाय है: – सत्यवीर शास्त्री

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह।

अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते।।

– (यजु. ४०/१४)

साधारण संस्कृत भाषा का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी इस वेदमन्त्र के सामान्य अर्थ को समझ सकता है।

अर्थ-जो विद्वान् विद्या और अविद्या को साथ-साथ जानता है, वह महान् आत्मा, अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमृत (मोक्ष) सुख को प्राप्त कर लेता है, परन्तु चिन्तन इस विषय का है कि महर्षि स्वामी दयानन्द जी सरस्वती तथा आर्यसमाज तथा वैदिक-धर्मी विद्वानों के सिद्धान्तानुसार विद्या से सुख और अविद्या से दु:ख की प्राप्ति होती है और ‘‘जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही मानना’’ विद्या है, इसके विपरीत ‘‘जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा न मानना’’ अविद्या है।

महर्षि पतञ्जलि ने भी ‘योगदर्शन’ में विद्या का लक्षण बताते हुए कहा है-

अनित्याशुचिदु:खानात्मसुनित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या

अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दु:ख को सुख और जड़ को चेतन आत्मा या परमात्मा मानना अविद्या है। इसके विपरीत मानना अर्थात् अनित्य को अनित्य, नित्य को नित्य, अपवित्र को अपवित्र, पवित्र को पवित्र, दु:ख को दु:ख, सुख को सुख, जड़ पदार्थ को जड़ एवं चेतन आत्मा व परमात्मा को चेतन मानना विद्या कहलाती है। व्याख्या के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति यह मानता है कि यह भौतिक शरीर या पंचभूतों से निर्मित ब्रह्माण्ड ऐसा ही था, ऐसा ही है और ऐसा ही रहेगा- यह नास्तिकवादियों की अविद्या नहीं है तो और क्या है? यक्ष के प्रश्र के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर ने ठीक ही उत्तर दिया है-

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयं, शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यत: परम्।

प्रतिदिन हम देख रहे हैं कि प्राणी मृत्यु का ग्रास बनते जा रहे हैं, फिर भी सबसे अधिक आश्चर्य यह है कि शेष बचे  प्राणियों (चिन्तनशील मानव) को यह विश्वास नहीं हो रहा कि एक दिन हमको भी मृत्यु का ग्रास बनना पड़ेगा। इससे बड़ी अविद्या और क्या हो सकती है? यदि यह भौतिक शरीर ऐसा ही था और ऐसा ही रहेगा तो जिन माता-पिता ने हमें उत्पन्न किया, पालन-पोषण किया, वे माता-पिता, दादा-दादी, दयानन्द, श्रद्धानन्द, राम और कृष्ण हमें छोडक़र क्यों चले गये?

पतञ्जलि ऋषि ने अविद्या का दूसरा लक्षण अशुचि को शुचि मानना अर्थात् अपवित्र को पवित्र मानना कहा है। वास्तव में ऋषि जी ने बात तो सत्य ही कही है, लेकिन शास्त्रों ने तो इस शरीर की उपमा राम की प्यारी नगरी अयोध्या से की है, यथा-

‘अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पुरयोध्या’

इस शरीर रूपी देवताओं की सुन्दर नगरी में नौ द्वार हैं तथा इसकी रक्षा हेतु अष्ट (आठ) चक्र लगे हुए हैं। कवियों ने इसकी सुन्दरता का वर्णन करते हुए अपनी कलम ही तोड़ दी है। इस शरीररूपी अयोध्या के मुख्य द्वार मुख की उपमा चन्द्रमा से की है। इसके दूसरे द्वार नेत्रों की उपमा कमलनयन कमल के फूल की पँखुडिय़ों से की है। तीसरे, मुख पर होठों की उपमा गुलाब के फू ल की पंखुडिय़ों से की है। चौथे, नाक की तुलना सुन्दर पक्षी तोते की नाक से की है। नर और मादा एक-दूसरे के साथ ऐसे समाहित हो जाते हैं कि स्वयं को भूल जाते हैं। इसी प्रकार सांसारिक भौतिक धन, ऐश्वर्य, महल, अटारी के लिये तथा उपरोक्त सुन्दर शरीर रूपी अयोध्या के पोषण के लिए प्राणी, प्राणी की हत्या कर रहा है। आज इस स्वार्थसिद्धि के लिए मानव जिस गोमाता के दुग्ध से अपने तथा अपने परिवार का पालन-पोषण करता है, उसी के खून, मांस का भी स्वाद ले रहा है।

अब उस शरीर रूपी अयोध्या का दूसरा रूप भी देखें। जिस मुख की तुलना चन्द्रमा से की गई है, उस मुख से क्या निकलता है? जिन नेत्रों की तुलना कमल की पंखुडिय़ों से की गई है, प्रात:काल उन नेत्रों से कौन-सा मल निकलता है? जिस नाक की तुलना तोते की नाक से की है, उससे क्या निकलता है? शरीर के प्रत्येक रोम से पसीने के रूप में क्या निकलता है? गुह्य इन्द्रियों से क्या निकलता है? इन सभी मलों को नाम लेने मात्र से मानव को घृणा होती है। इसके उपरान्त भी इस अशुचि, अपवित्र शरीर को पवित्र मानकर इसके पोषणार्थ मानव प्राणियों की ही नहीं, मानवों की भी हत्या कर हाड़-मांस का व्यापार करता है, जबकि  इस शरीर ने एक दिन साथ छोडऩा है। जिन भौतिक पदार्थों का हम संग्रह कर रहे हैं, उन्हें हमारे साथ चलना नहीं है, फिर मानव ऐसा क्यों कर रहा है? इसी का नाम तो अविद्या है तथा जानते हुए भी न जानना है।

तीसरा, ऋषि पतञ्जलि ने अविद्या का लक्षण दु:ख को सुख मानना बताया है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दु:ख के कारणों में मानव सुख की इच्छा से फँसता है। कामवासना-जो दु:ख का कारण है, उसको सुख का कारण समझकर रावण ने सीता का हरण किया। कामवासना रूपी दु:ख के कारण को सुख मानने के कारण ही रावण स्वर्ण नगरी लंका सहित विनाश को प्राप्त हुआ। संयोगिता के मोह में फँसकर पृथ्वीराज स्वयं नष्ट हो गया तथा सम्पूर्ण भारत को लगभग ग्यारह सौ वर्षों तक गुलाम कर गया। क्रोध के वशीभूत होकर दुर्योधन ने महाभारत के युद्ध का सूत्रपात किया, जिसके परिणाम को आज तक राष्ट्र भुगत रहा है। लोभरूपी दु:ख को सुख मानने के कारण घर-बार, जमीन-जायदाद के लोभ में आज भाई-भाई की हत्या कर रहा है। पुत्र पिता का हत्यारा बना हुआ है। भाई बहन के मुकदमे चले हुए हैं। दु:ख को सुख मानने वाली अविद्या ने मानव का ही पतन नहीं किया, अपितु राष्ट्र को भी भयंकर कालग्रस्त किया हुआ है।

चौथा-‘अनात्मसु आत्मख्यातिरविद्या’ कहा है, अर्थात् अनात्म जड़ भौतिक पत्थर मूर्ति को चेतन आत्मा अथवा परमात्मा मानना अविद्या का चौथा लक्षण कहा है। इस प्रकार माता-पिता तथा ईश्वर की जड़, पत्थर मूर्ति बनाकर पूजना, उनके किये गये उपकारों के प्रति भयंकर कृतघ्रता है, जिसका कोई भी प्रायश्चित्त नहीं हो सकता है, क्योंकि आत्मा व परमात्मा जड़-पदार्थ के बने हुए नहीं है।

आत्मा का लक्षण- आत्मा का लक्षण बताते हुए न्यायदर्शनकार मुनि ने कहा है कि

‘सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नज्ञानानि आत्मनो लिङ्गम्’

जो सुख-दु:ख को अनुभव करता हो, जिसमें इच्छा, राग, द्वेष, प्रयत्न तथा ज्ञान हो, ये लक्षण आत्मा के होते हैं। बहुत से व्यक्ति यह कहेंगे कि सुख-दु:ख का अनुभव शरीर करता है। इच्छा, राग, द्वेष, प्रयत्न और ज्ञान ये भी शरीर के ही लक्षण हैं, परन्तु उनका यह कथन तर्क एवं विज्ञान की कसौटी में नहीं आता, न ही इसका कोई प्रमाण है।

श्रुति, उपनिषद् तथा दर्शनों के प्रमाण आत्मा के लिये तो अनेक प्राप्त हो जायेंगे, जैसे उदाहरण के लिये एक प्रमाण यहाँ प्रस्तुत करते हैं-

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूंषि पश्यति:।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।

– केनोपनिषद्

जो आँख से नहीं देखता, जिसके कारण से आँख देखती है, वही ब्रह्म (अध्यात्म) है।

अन्यच्च ‘परांचिखानि व्यतृणत् स्वयंभू:’ (कठोपनिषद्)। परमात्मा ने इस शरीर के पुतले में काट-काटकर पाँच छेद बनाए हैं, जिसमें से ज्ञान अन्दर आता है। ये पाँच छेद वाली पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ स्वयं कुछ नहीं करतीं, इन छेदों (इन्द्रियों) के भीतर बैठा (आत्मा) जो झाँक रहा है, वही सब ज्ञान प्राप्त करता है। आँखें खुली हों, परन्तु देखने वाला कहीं अन्यत्र मग्र हो तो आँखें खुली होने पर भी नहीं देखतीं, कान खुले होने पर भी नहीं सुनते।

इस शरीर में जो सुन्दरता, ओज, कान्ति आदि दिखाई देती हैं, वह भी आत्मा के कारण ही दिखाई देती हैं। जब आत्मा शरीर को छोडक़र निकल जाती है, तब न तो आँखें देखने का कार्य करती है, न कान सुन सकते है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जड़ हो जाती हैं। शरीर का ओज व कान्ति नष्ट हो जाती है। इस शरीर से कोसों दूर तक दुर्गन्ध आने लग जाती है, अत: मूर्ति जड़ पदार्थ की होती है, चेतन आत्मा की नहीं।

परमात्मा का लक्षण- क्लेषकर्मविपाकाश-यैरपरामृष्ट:पुरुषविशेष ईश्वर:। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश-मानव के जीवन में ये पाँच क्लेश हैं। इन क्लेशों से ईश्वर अछूता है, दूर है। चारों प्रकार की अविद्या का वर्णन तो ऊपर कर ही चुके हैं।

अस्मिता- ज्ञान को प्राप्त करने वाला जीवात्मा तथा ज्ञान को आत्मा जिस बुद्धिरूपी साधन से प्राप्त करता है, उन दोनों को एक मानना अस्मिता नामक क्लेश है।

राग- सुख भोगने पर पुन: सुख भोगने की तृष्णा राग नामक क्लेश है।

द्वेष- दु:ख भोगने के उपरान्त उसके प्रति क्रोध, रोष द्वेष नामक क्लेश है।

अभिनिवेश- पूर्वजन्मों के संस्कारों के वश मैं मृत्यु को प्राप्त नहीं होऊँ, यह दु:ख सभी प्राणियों की तरह शब्द ज्ञानी विद्वानों को भी होता है, जिसे अभिनिवेश नामक क्लेश कहते हैं। ये पाँच क्लेश परमात्मा को नहीं छूते। उसके अन्दर नहीं आते।

कर्म- कर्म तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें सामान्य व्यक्ति करते हैं- सत्, असत् और मिश्रित, अर्थात् शुभ-अशुभ व मिले-जुले, पुण्य, पाप व पाप-पुण्य से मिले-जुले। इन तीनों प्रकार के कर्मों तथा इनके फलों से ईश्वर अछूता होता है। परमात्मा आत्मा से भिन्न है। आत्मा पुरुष है तो परमात्मा पुरुषविशेष ईश्वर है। परमात्मा कभी भी क्लेश, कर्म आदि के निकट नहीं आता। जीव क्लेश तथा तीनों प्रकार के कर्मों के सम्पर्क में आते रहते हैं और छूटते रहते हैं।

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्- योगदर्शनकार बताते हैं कि ईश्वर के समान तथा उससे अधिक किसी का ज्ञान नहीं है, अत: वह सर्वज्ञ है, जबकि जीवात्मा अल्पज्ञ तथा प्रकृति जड़ है। ईश्वर पूर्व समय के गुरुओं, ऋषियों, महर्षियों का भी गुरु है, क्योंकि वह तीनों कालों में एकरस रहता है। उसका जन्म-मरण नहीं होता। सृष्टि के आदि तथा पूर्व सृष्टियों में भी ईश्वर ने ही ऋषियों के हृदय में वेद का ज्ञान दिया है, अत: ईश्वर ही पूर्व के  सभी गुरुओं, ऋषियों, महर्षियों का गुरु है और रहेगा।

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्- इस ब्रह्माण्ड में, सृष्टि में जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, उसके कण-कण में ईश्वर का निवास उसी प्रकार है, जिस प्रकार दूध के एक-एक कण में घृत समाया हुआ होता है अथवा यह कहा जाये- जिस प्रकार फूल में सुगन्ध का वास होता है, अर्थात् वह एकदेशीय नहीं, सर्वव्यापक विभु है।

‘अकायमव्रणम्’ (यजु. ४०/४) वह परमपिता परमेश्वर निराकार शरीर रहित बिना नस-नाडिय़ों वाला है।

‘न तस्य प्रतिमास्ति’ (यजु. ३२/३) उस ईश्वर की कोई प्रतिमा अर्थात् मूर्ति नहीं है।

‘स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम्’ वह ईश्वर ही पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा तथा तारागण आदि लोक-लोकान्तरों को धारण किये हुए है।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति

इसी ईश्वर के प्रकाश को लेकर ये सब सूर्य, चन्द्र, तारे और बिजली आदि प्रकाशित होते हैं। यदि ईश्वर इनको प्रकाश न दे तो ये कुछ भी प्रकाश नहीं कर सकते। इनके अन्दर जो भी प्रकाश है, वह उनका अपना नहीं, यह प्रकाश परमात्मा का दिया हुआ ही है। जैसे सभी व्यक्ति जानते हैं कि घड़ी में अपनी गति नहीं है, किसी के द्वारा चाबी भरकर गति दी गई है, अत: इस ब्रह्माण्ड मेें जो गति दिखाई दे रही है, वह उस परमात्मा की दी हुई है।

‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’- जिस प्रकार आत्मा इस शरीर को गति दिये हुये है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड में जो गति दिखाई दे रही है, वह उस परमपिता परमेश्वर की ही दी हुई है।

अत: जड़ अनात्म को चेतन आत्मा अथवा परमात्मा मानना अविद्या का चौथा लक्षण है। इस अविद्या के चौथे लक्षण ने व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को बहुत बड़ी हानि पहुँचाई है, जिसकी पूर्ति होना संभव नहीं है।

जैसा कि महर्षि पतञ्जलि ने योगशास्त्र में कहा है-

‘विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्’

विपर्यय मिथ्या (विपरीत) ज्ञान को कहते हें। जैसे अँधेरे मेें पड़ी रज्जू (रस्सी) को साँप मान लेने से वह साँप नहीं हो सकती, इसी प्रकार जीवित माता-पिता का अपमान कर उनकी मूर्ति बना, भोग लगा, पूजा करने से माता-पिता का प्यार व सम्पत्ति प्राप्त नहीं हो सकती, न ही ऐसा व्यक्ति कभी भी जन्म-जन्मान्तरों तक मोक्ष सुख के मार्ग का अनुगामी ही हो सकता है। उस परम कृपालु ईश्वर की दया के लिये महर्षि दयानन्द के बताये आर्यसमाज के दूसरे नियम के स्वरूप वाले ईश्वर की आराधना ही करनी आवश्यक है।

शेष भाग अगले अंक में….