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वर्णधारण और वर्णपरिवर्तन आदि की प्रक्रिया: डॉ सुरेन्द्र कुमार

यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि वैदिक या मनु की वर्णव्यवस्था में वर्णधारण, वर्णनिर्धारण, वर्णपरिवर्तन, वर्णपतन और वर्णबहिष्कार की क्या प्रक्रिया थी?

    (क) वर्णधारण-सर्वप्रथम, आचार्य, आचार्या अथवा शिक्षासंस्था का मुखिया निर्धारित आयु में विधिवत् शिक्षा प्राप्त कराने के लिए गुरुकुल में आने वाले बालक या बालिका का उपनयन संस्कार (विद्या संस्कार) करके उसे इच्छित वर्ण में दीक्षित करता था, अथवा वर्ण धारण कराता था। यह वर्णधारण बालक-बालिका की रुचि या लक्ष्य, अथवा माता-पिता की इच्छा के अनुसार होता था, जैसे आज भी प्राथमिक विद्यालयों में माता-पिता बालक-बालिका को अपनी इच्छा के अनुसार विषयों का अध्यापन करवाते हैं। किन्तु, शिक्षा प्राप्त करते समय जैसे बड़े बच्चों की रुचि बदल जाती है और वे स्वयं अपना व्यावसायिक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं, उसी प्रकार गुरुकुल में अध्ययन करते समय बालक भी वर्णशिक्षा में परिवर्तन कर सकते थे। वर्णशिक्षा के लिए प्रवेश की सर्वसामान्य आयु इस प्रकार निश्चित थी- ब्राह्मणवर्ण की शिक्षार्थ प्रवेश की आयु 5-7 वर्ष, क्षत्रियवर्ण की शिक्षा के लिए 6-10, वैश्यवर्ण की शिक्षा के लिए 8-11 वर्ष (मनुस्मृति 2.36-37)। शिक्षार्थ प्रवेश की अधिकतम आयु ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा के लिए 16 वर्ष तक, क्षत्रियवर्ण की शिक्षा के लिए 22 वर्ष, वैश्यवर्ण की शिक्षा के लिए 24 वर्ष तक थी (मनु0 2.38)। इस आयु तक भी शिक्षार्थ प्रवेश न लेने वाले व्यक्ति निन्दित समझे जाते थे, और वे आर्यों के समाज में बहिष्कृत या शूद्र स्तर के माने जाते थे, क्योंकि शिक्षा आर्यों के समाज में महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य थी। विधिवत् शिक्षा न प्राप्त करने वाला ही ‘शूद्र’ होता था, अर्थात् दूसरा विद्याजन्म न होने के कारण ही वह ‘एकजाति’ अर्थात् ‘केवल माता-पिता से ही जन्म लेने वाला’ कहाता था। उसी का नाम ‘एकजाति’ या ‘शूद्र’ होता था (10.4), जन्म के आधार पर नहीं।

कुछ पाठक मनुस्मृति के इस प्रकरण पर शंका प्रस्तुत करते हैं कि प्रवेश-प्रकरण में ‘शूद्र’ का उल्लेख क्यों नहीं है? वे इसका अभिप्राय यह निकालते हैं कि शूद्र को विद्याप्राप्ति का अधिकार नहीं था। यह शंका भी भूल में भूल से हो रही है। जो अपने मस्त्तिष्क में वर्णों को जन्म से मान लेने का भ्रम पाले हुए हैं, उन्हें यह शंका होती है। वास्तविक प्रक्रिया यह थी कि चारों वर्णों के बालक जिस द्विज-वर्ण में दीक्षा लेना चाहते थे, उसमें ले सकते थे। विद्या प्राप्त करके द्विज बनने वाले तीन वर्ण हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। इन्हीं में प्रवेश का औचित्य है। शूद्र बनने के लिए प्रवेश की आवश्यकता ही नहीं है। शूद्र तो वह था जो इन तीनों वर्णों में प्रवेश नहीं लेता था, अथवा प्रवेश लेकर विधिवत् शिक्षा पूर्ण नहीं करता था। इसी प्रकार शूद्र माता-पिता से उत्पन्न बालक-बालिका भी उच्च तीन वर्णों में से इच्छित वर्ण में दीक्षित हो जाते थे। इन श्लोकों में पठित ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के प्रवेश की आयु से अभिप्राय है इन वर्णों में प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थी की आयु से; जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बालक की आयु से नहीं। यह मनुस्मृति के निनलिखित श्लोक से स्पष्ट है-

       ब्रह्मवर्चसकामस्य   कार्यं विप्रस्य पञ्चमे।

       राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे॥ (2.37)

अर्थ-माता-पिता की अपेक्षा से यह कथन है कि जो अधिक विद्या और ब्रह्मचर्य की कामना रखते हों, ऐसे ब्राह्मण बनने के इच्छुक बालक का उपनयन पांचवें वर्ष में करावें। अधिक बल की इच्छा रखने वाले क्षत्रिय बनने के इच्छुक बालक का छठे वर्ष में और अधिक धन की इच्छा रखने वाले वैश्य बनने के इच्छुक बालक आठवें वर्ष में उपनयन करावें।

यहां ‘बालक’ भी उपलक्षक पद है। इससे बालक और बालिका दोनों का ग्रहण होता है। कानून की भाषा में जैसे यह कहा जाता है कि ‘जो चोरी करेगा उसको दण्ड मिलेगा’, इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं होता कि केवल पुरुषों को ही दण्ड मिलेगा, स्त्रियों को नहीं। ऐसे वाक्यों से दोनों का ग्रहण होता है। इसी प्रकार धर्मशास्त्रों में पुल्लिंग प्रयोग दोनों का उपलक्षक है, उससे पुरुष और स्त्री दोनों का ही ग्रहण होता है।

वर्णव्यवस्था में स्त्रियों का उपनयन संस्कार होता था और वे ऋषिकाएं बनती थीं। उनके पृथक् गुरुकुल थे। वह परपरा उक्त अर्थ को पुष्ट करती है। (द्रष्टव्य ‘नारी की स्थिति’ शीर्षक पंचम अध्याय)

    (ख) वर्णनिर्धारण-गुरुकुल में साथ-साथ दो प्रकार की शिक्षाएं चलती थीं- एक, वेदादिशास्त्रों एवं भाषा प्रशिक्षण की शिक्षा, जो तीनों वर्णों के लिए समान थी। दूसरी, अपने-अपने स्वीकृत वर्ण की व्यावसायिक शिक्षा थी। कम से कम एक वेद की आध्यात्मिक शिक्षा अर्जित करने तक की शिक्षा सबके लिए अनिवार्य थी। आयु के अनुसार, पुरुषों के लिए 25 वर्ष तक और बालिकाओं के लिए 16 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करनी अनिवार्य थी। उसे पूर्ण न करने वाला शूद्र घोषित हो जाता था। इससे अधिक कितनी भी शिक्षा प्राप्त की जा सकती थी। गुरुकुल से स्नातक बनते समय आचार्य बालक-बालिका के वर्ण का निर्धारण करके उसकी घोषणा करता था, जो बालक प्राप्त वर्ण शिक्षा के अनुसार होता था। जैसे, आजकल प्राप्त शिक्षा के अनुसार विद्यालय और विश्वविद्यालय कलास्नातक, वाणिज्य-स्नातक, विज्ञान-स्नातक, कानूनस्नातक आदि की उपाधियां प्रदान करते हैं और जैसे, अग्रिम आयु में व्यक्ति उन उपाधियों के अनुसार ही व्यवसाय को सपादित करता है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में गुरु द्वारा निर्धारित वर्ण के अनुसार ही व्यवसाय, पद आदि ग्रहण करता था। मनुस्मृति में कहा है-

आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद् वेदपारगः।

उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या सा जराऽमरा॥

(2.148)

    अर्थ-‘वेदों में पारंगत आचार्य सावित्री=गायत्री मन्त्रपूर्वक उपनयन संस्कार करके, विधिवत् शिक्षण देकर जो बालक के वर्ण का निर्धारण करता है, वही वर्ण उसका वास्तविक और स्वीकार्य है अर्थात् उसको कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।’ इसको ब्रह्मजन्म कहा जाता है। इसी ब्रह्मजन्म को पाकर व्यक्ति द्विजाति बनते हैं। इस प्रकार बालक-बालिका का वर्णनिधारण होता था।

    (ग) वर्णपरिवर्तन-एक बार वर्णनिर्धारण के बाद भी यदि कोई व्यक्ति वर्णपरिवर्तन करना चाहता था तो उसको उसकी स्वतन्त्रता थी और परिवर्तन के अवसर प्राप्त थे। जैसे, आज कोई कलास्नातक पुनः वाणिज्य की आवश्यक शिक्षा अर्जित करके, वाणिज्य की उपाधि प्राप्त कर व्यवसायी हो सकता है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में अभीष्ट वर्ण का शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करके व्यक्ति वर्णपरिवर्तन कर सकता था। आज भी उसकी अनुमति उपाधियों द्वारा शिक्षासंस्थान, या मान्यता द्वारा सरकार देती है; वर्णव्यवस्था-काल में भी शिक्षासंस्थान और शासन देते थे, अथवा धर्मसभा देती थी। (द्रष्टव्य हैं, इसी अध्याय के 3.8 ‘अ’ में ऐतिहासिक उदाहरण ‘वर्णपरिवर्तन’ शीर्षक में)

    (घ) वर्णपतन-एक बार वर्णग्रहण करने के बाद यदि व्यक्ति अपने वर्ण, पद, या व्यवसाय के निर्धारित कर्त्तव्यों और आचार-संहिता का पालन नहीं करता था तो उसको राजा या अधिकार प्राप्त धर्मसभा वर्णावनत या वर्ण से पतित कर देते थे। अपराध करने पर भी वर्ण से पतित हो जाते थे। जैसे, आजकल नौकरी, व्यवसाय या निर्धारित कार्यों में कर्त्तव्य या कानून का पालन न करने पर, नियमों का पालन न करने पर, अथवा अपराध करने पर उस नौकरी या व्यवसाय का कुछ समय तक अधिकार छीन लिया जाता है, या उससे हटा दिया जाता है, या पदावनत कर दिया जाता है। ऐसे ही वर्णव्यवस्था में प्रावधान था। (द्रष्टव्य हैं, इसी अध्याय के 3.8 ‘इ’ में ‘वर्णपतन’ शीर्षक में ऐतिहासिक उदाहरण)

(ङ) वर्ण-बहिष्कार-जैसे आजकल विद्यालयों या शिक्षा संस्थानों में निर्धारित आयु में या समय पर प्रवेश न लेने पर बालक वैधानिक शिक्षा से और शिक्षाधारित अधिकारों से वंचित रह जाते हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल में अधिकतम निर्धारित आयु (ब्राह्मण बनने के लिए 16 वर्ष, क्षत्रिय बनने के लिए 22 वर्ष, वैश्य बनने के लिए 24 वर्ष) तक प्रवेश न लेने पर बालक या युवक उच्च वर्णों से पतित अथवा वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत हो जाता था। यह आर्यों का वर्ण-बहिष्कार था। ऐसा व्यक्ति ‘‘व्रात्य’’=व्रत से पतित या अनार्य कहाता था (2.39)। अन्यत्र भी महर्षि मनु ने स्पष्ट कहा है-

वर्णापेतं………………………………..अनार्यम्॥  (10.57)

अर्थ-‘वर्णों की दीक्षा से रहित व्यक्ति ‘अनार्य’ है।’ उन्हीं लोगों को ‘दस्यु’ भी कहा है-

       मुखबाहूरूपज्जानां या लोके जातयो बहिः।

       लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः॥   (10.45)

अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्णों से बाहर अर्थात् इनमें जो दीक्षित नहीं हैं, वे सब व्यक्ति और समुदाय ‘दस्यु’ संज्ञक हैं, चाहे वे आर्यभाषाएं बोलते हैं अथवा लेच्छ=विकृत भाषाएं। इसी प्रकार वेद में भी ‘दस्यु’, ‘आर्य’ का विपरीतार्थक प्रयोग है।

यदि वह पुनः वर्णग्रहण करना चाहता था तो प्रायश्चित्त करके पुनः किसी अभीष्ट वर्ण की दीक्षा ले सकता था। (प्रमाण पृष्ठ

81-82 पर द्रष्टव्य हैं)।

    (च) वर्ण-वरण में अपवाद – ऐसा भी अपवाद मिलता है कि रेभ नामक व्यक्ति वेदों का श्रेष्ठ विद्वान् था किन्तु उसने आजीविका के लिए स्वेच्छा से शूद्रवर्ण को ग्रहण किया (कूर्म पुराण अ0 10.2)। इससे यह संकेत मिलता है कि कभी-कभी व्यक्ति स्वेच्छा से भी निनवर्ण को ग्रहण कर लेता था।

मनु की वर्णव्यवस्था को समझने में भूलें व उसका यथार्थ स्वरूप: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों को जानने के लिए मनु की वर्णव्यवस्था पर विचार किया जाना परम आवश्यक है क्योंकि अधिकांश जनों को मनु की वर्णव्यवस्था के मौलिक या वास्तविक स्वरूप की तथ्यपरक जानकारी नहीं है। ऐसा देखने में आया है कि भ्रामक जानकारियों के आधार पर ही लोग मनु को गलत समझ बैठे हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था अथवा वैदिक वर्णव्यवस्था को समझने में सबसे पहली और बड़ी भूल यह की जाती है कि कुछ लोग चातुर्वर्ण्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का अस्तित्व जन्म से मान लेते हैं, जबकि ये जन्म से नहीं होते। जन्म से वर्ण को मानने की भ्रान्ति के कारण ही मनु पर उच्च वर्णों को सुविधा-समान देने का और शूद्र को तिरस्कृत करने का आरोप लगाया जाता है। ऐसे ही लोग वर्णों को वंशानुगत मानने की भ्रान्ति का शिकार हैं। वास्तविकता यह है कि मनु की वर्णव्यवस्था गुण, कर्म, योग्यता पर आधारित व्यवस्था थी, जन्म पर आधारित जातिव्यवस्था नहीं। इसका अभिप्राय यह है कि किसी भी कुल या वर्ण में जन्म लेने के बाद बालक या व्यक्ति में जैसे-जैसे गुण, कर्म, योग्यता के लक्षण होंगे, उन्हीं के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित होगा। उसके बाद वह उसी वर्ण के नाम से पुकारा जायेगा, चाहे उसके माता-पिता का वर्ण कुछ भी रहा हो। ब्राह्मण के कुल या वर्ण में उत्पन्न बालक यदि ब्राह्मण के गुण, कर्म, योग्यता वाला है तो ‘ब्राह्मण’ कहलायेगा; यदि शूद्र के गुण, कर्म, योग्यता वाला है तो ‘शूद्र’ कहा जायेगा। इस प्रकार जन्म के आधार पर कुछ भी निर्धारित नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण-नाम जन्म से ब्राह्मण आदि होने का संकेत देने के लिए नहीं हैं, अपितु केवल लोक व्यवहार के लिए हैं। जैसे, यह कहा जाता है कि अध्यापक, डॉक्टर , सैनिक, व्यापारी और श्रमिक के अमुक-अमुक कर्त्तव्य हैं, तो हमें आज कोई भी भ्रान्ति नहीं होती, और न यह अनुभव होता है कि ये नाम जन्म के आधार पर हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमान व्यवस्था की यथार्थ स्थिति हमारे सामने है और यह मालूम है कि ये पद या नाम लबी प्रक्रिया को पूरी करने के बाद प्राप्त होते हैं, किन्तु प्रयोग इसी तरह होता है कि जैसे ये जन्माधारित व्यवसाय हों। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम भी एक निर्धारित प्रक्रिया के बाद प्राप्त होते थे। आज वह व्यवस्था प्रचलित नहीं है अतः जन्माधारित नाम का संदेह हो जाता है।

मनु की वर्णव्यवस्था को समझने में दूसरी भूल अशुद्ध अनुवादों के कारण हुई है। वर्णव्यवस्था की परपरा को गभीरता और वास्तविकता से न समझ पाने के कारण अंग्रेज लेखकों ने वर्ण का जाति (ष्टड्डह्यह्ल) अर्थ कर दिया। परवर्ती लेखक इसी का अन्धानुकरण करके वर्ण का जाति अर्थ करते आ रहे हैं। यह मूल में भूल है, जिससे वर्णों के विषय में जन्माधारित जाति का भ्रम हो रहा है। क्योंकि ‘जाति’ का ‘जन्म’ अर्थ आज रूढ़ हो चुका है। वर्ण और जन्मना जाति तो परस्परविरोधी हैं। वर्ण गुण-कर्म-योग्यता से प्राप्त किया जाता है, जबकि जाति जन्म से प्राप्त होती है। वर्ण स्वेच्छा से वरण किया जाता है, जबकि जाति अनिवार्यतः माता-पिता से मिलती है। वर्ण का अर्थ समुदाय  है और जाति का अर्थ जन्मना जाति है। इस प्रकार वर्ण का ‘जाति’ अर्थ करने से वर्ण के जन्माधारित होने की भ्रान्ति फैल गयी है।

वर्णव्यवस्था आर्यों के परिवारों और समाज की व्यवस्था है। उसमें चार वर्ण हैं। ये चार वर्ण आर्यों के परिवारों के बालकों या व्यक्तियों से अस्तित्व में आते हैं। किसी भी कुल या वर्ण में उत्पन्न होकर बालक या व्यक्ति जिस वर्ण का विधिवत् शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करेगा, उसका वही वर्ण निर्धारित होगा। इस प्रकार चारों वर्ण मुयतः आर्यों के कुलों में से ही निर्मित होने के कारण वर्णव्यवस्था में न तो असमानता थी, न ऊंच-नीच, न स्पृश्यता-अस्पृश्यता और न भेदभाव। हाँ, यथायोग्य सामाजिक समान-व्यवस्था अवश्य निर्धारित थी। वह तो प्रत्येक व्यवस्था, प्रत्येक संस्था और प्रत्येक विभाग में आज भी है। आज की चतुर्वर्गीय सरकारी प्रशासन-व्यवस्था से यदि हम मनु की वर्णव्यवस्था की तुलना करें तो हमें मनु की वर्णपद्घति का बहुत-सा अंश समझ में आ जायेगा, क्योंकि दोनों व्यवस्थाओं में पर्याप्त मूलभूत समानता है। अन्तर इतना ही है कि मनु की व्यवस्था सामाजिक व प्रशासनिक दोनों स्तरों पर लागू थी, जबकि वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था केवल प्रशासन तक सीमित है। आज सरकार की प्रशासन-व्यवस्था में चार वर्ग ये हैं-

  1. प्रथम श्रेणी अधिकारी,
  2. द्वितीय श्रेणी अधिकारी,
  3. तृतीय श्रेणी कर्मचारी,
  4. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी।

इनमें प्रथम दो वर्ग अधिकारियों के हैं, दूसरे दो कर्मचारियों के। संविधान के अनुसार यह विभाजन योग्यता के आधार पर है और इसी आधार पर इनका महत्त्व, समान एवं अधिकार हैं। इन पदों के लिए योग्यताओं का प्रमाणीकरण पहले भी शिक्षासंस्थान (गुरुकुल, आश्रम, आचार्य) करते थे और आज भी शिक्षासंस्थान (विद्यालय, विश्वविद्यालय आदि) ही करते हैं। विधिवत् शिक्षा का कोई प्रमाणपत्र नहीं होने से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सेवा और शारीरिक श्रम के कार्य ही करता है और वह अन्तिम कर्मचारी-श्रेणी में आता है। पहले भी जो गुरु के पास जाकर विधिवत् विद्या प्राप्त नहीं करता था, वह इसी स्तर के कार्य करता था और उसकी संज्ञा ‘शूद्र’ थी। शूद्र के अर्थ हैं-‘जो विधिवत् शिक्षित न हो’, ‘निन स्थिति वाला’ ‘आदेशवाहक’ ‘आदेश के अनुसार सेवा या श्रमकार्य करने वाला’ अशिक्षित मजदूर आदि। नौकर, चाकर, मजदूर, पीयन, सेवक, प्रेष्य, सर्वेंट, अर्दली, भृत्य, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी आदि संज्ञाओं में कितनी अर्थसमानता है, आप स्वयं देख लीजिये। व्यवसायों के निर्धारण में भी बहुत अन्तर नहीं है। शिक्षासंस्थानों से डाक्टर, वकील, अध्यापक, आदि की डिग्री प्राप्त करने के बाद ही उसी व्यवसाय की अनुमति सरकार से मिलती है, उसके बिना नहीं। सबके नियम-कर्तव्य और आचार संहिता निर्धारित है। उनकी पालना न करने वाले को व्यवसाय और पद से हटा दिया जाता है, या दण्डित किया जाता है।

इसी प्रकार वर्णव्यवस्था में गुरुकुल आदि से स्नातक बनने के बाद उसी अधीत विषय का व्यवसाय करने की अनुमति होती थी, उसी पर आधारित वर्णनाम आचार्य द्वारा निर्धारित होता था। निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन न करने पर व्यक्ति को राजा अथवा धर्मसभा द्वारा उस पद या व्यवसाय से अपात्र घोषित करके वर्णावनत (पदावनत) कर दिया जाता था या दण्डित किया जाता था। पद और व्यवसाय की स्वतन्त्रता, योग्यता एवं नियम के अनुसार जैसे आज की प्रशासनिक व्यवस्था में है, उसी प्रकार वर्णव्यवस्था में थी।

कुरान समीक्षा : बाल बच्चे भी जन्नत में जायेंगे

बाल बच्चे भी जन्नत में जायेंगे

जन्नत में जाते समय तक भी बच्चे क्या बच्चे ही बने रहेंगे या वे उस वक्त तक कब्रों में बढ़ कर दाड़ी मूंछ वाले बड़े बन जावेंगे? जन्नत में उन बाल बच्चों के निकाह को ओरतें भी मिलेंगी या बेचारे सदा क्वारें ही रहा करेंगे?

क्या उनको भी हूरों का मजा चखने को मिलेगा?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व यन्कलिबु इला अह्लिही मस्रूरा……….।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा इन्श्किाक रूकू १ आयत ९)

और (जन्नती) खुश-खुश अपने बाल-बच्चों में वापस जायेगा।

समीक्षा

मुसलमानों के बीबी बच्चे भी बहिश्त में साथ जायेंगे और वहाँ भी हुरों से बेशुमार पैदा हुआ करेंगे। बधाई है, उनके इस्लाम का कुनबा खूब बढ़ेगा।

कुरान समीक्षा : आसमान व जमीन खुदा की बात सुनेंगे

आसमान व जमीन खुदा की बात सुनेंगे

आसमान व जमीन के भी क्या बातें सुनने को कान होते हैं? यदि हों तो वे कितने-कितने बड़े हैं और किधर हैं यह साबित करें?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

इजस्समाउन्शक्कत्…………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा इन्शिकाक रूकू १ आयत १)

और जब आसमान फट जावेगा।

व अजिनत लिरब्बिहा व हुक्कत…….।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा इन्श्किाक रूकू १ आयत २)

और अपने परवर्दिगार की बात सुनेगा और यह उसका फर्ज ही है।

व इजल्अर्जु मुद्दत्…………..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा इन्श्किाक रूकू १ आयत ३)

और जब जमीन तान दी जायेगी।

व अल्कत मा फीहा व त-खल…….।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा इन्श्किाक रूकू १ आयत ४)

और जो कुछ उसमें है बाहर डाल देगी और खाली हो जायेगी।

व अजिनत लिरब्बिहा व हुक्मत………..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा इन्श्किाक रूकू१ आयत ५)

और अपने परवर्दिगार की बात सुनेगी यह तो उसका फर्ज ही है।

समीक्षा

शून्य आकाश और जड़ जमीन खुदा की बातें सुनेंगे यह बात बेतुकी है। जमीन क्या कोई चादर है जो तान दी जायेगी? जब जमीन की हर चीज अलग-अलग हो जावेगी तो जमीन नाम की कोई चीज खुदा की बात सुनने को बाकी ही न रहेगी।

कुरान समीक्षा : खुदा के पास नेकी और बदी के पृथक-पृथक रजिस्टर रहते हैं

खुदा के पास नेकी और बदी के पृथक-पृथक रजिस्टर रहते हैं

खुदा के ये रजिस्टर एक दो हैं या लाखों जिल्दों में है। रजिस्टरों के कागज किस पेपर मिल से मंगाये जाते हैं? तथा इनकी जिल्दें कहां पर बनती हैं?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

कल्ला इन्-न किताबल् फुज्जारि…………………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा मुताफ्फिफीन रूकू १ आयत ७)

कुकर्मी लोगों के कर्म रोजनामचा और कैदियों के रजिस्टर में हैं।

व मा अद्रा-क मा सिज्जीन…………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा मुताफ्फिफीन रूकू १ आयत ८)

और ऐ पैगाम्बर! तू क्या समझे कि कैदियों का रजिस्टर क्या चीज है?

किताबुम्-मर्कूम…………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा मुताफ्फिफीन रूकू १ आयत ९)

वह एक किताब है जिसकी खाना पूरी होती है।

कल्ला इन्-न किताबल् अब्रारि……….।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा मुताफ्फिफीन रूकू १ आयत १८)

अच्छे लोगों का कर्म लेखा बड़े रूतबे वाले लोगों के रजिस्टर में है।

किताबुम् मर्कूमुंय………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा मुताफ्फिफीन रूकू १ आयत २०)

वह एक किताब है जिसकी खाना पूरी होती रहती है।

यश्हदुहुल् मुकर्रबून…………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा मुताफ्फिफीन रूकू १ आयत २१)

फरिश्ते जो नजदीक हैं उस पर तैनात हैं।

समीक्षा

खुदा के यहाँ भी पुलिस विभाग की रोजनामचा के रजिस्टर पृथक-पृथक रहते हैं और उनकी रक्षा को सिपाही तैनात रहते हैं। हर महकमे के कार्यालय भी खुदा के यहाँ बने हुए हैं।

खुद भी बिचारा बिना रजिस्टरों के कोई न्याय नहीं कर सकता है। कुरानी खदा वास्तव में ही बड़ा मजबूर है जिस पर हमें बड़ी दया आती है।

जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

 

 

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    एक न्यूज रिपोर्ट के मुताबिक, कुछ मुस्लिम महिलाएं तलाक के बाद अपनी शादी बचाने के लिए मोटी रकम देकर ‘हलाला’ विवाह करती हैं. कुछ मुस्लिमों के द्वारा माने जाने वाले ‘हलाला’ परंपरा में तलाक के बाद महिला अगर पहले पति के पास जाना चाहती है तो उसे किसी दूसरे पुरुष से शादी करनी पड़ती है और फिर उसे तलाक देना होता है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

     

    बीबीसी लंदन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, डिजिटल एज में हलाला सर्विस देने के नाम पर कई ऑनलाइन एकाउंट चल रहे हैं. किसी अजनबी के साथ हलाला विवाह करने के लिए महिलाएं से सर्विस एजेंसी पैसे मांगती है और उस शख्स के साथ उसे सोना भी पड़ता है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    हालांकि, काफी मुस्लिम हलाला को गलत मानते हैं. लंदन के इस्लामिक शरिया काउंसिल भी इस परंपरा का कड़ा विरोध करती है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    हालांकि, काफी मुस्लिम हलाला को गलत मानते हैं. लंदन के इस्लामिक शरिया काउंसिल भी इस परंपरा का कड़ा विरोध करती है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं
     

    रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि ऑनलाइन एजेंसी सर्विस देने के लिए महिलाओं से 2 लाख रुपए तक चार्ज करते हैं. ऐसी ही एक सर्विस देने वाले शख्स ने यह भी बताया कि एक बार हलाला होने के बाद एक पुरुष महिला को तलाक देने से इनकार करने लगा.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    कई बार हलाला के तहत महिलाओं को कई मर्दों के साथ भी सोना पड़ता है. उनका यौन शोषण भी होता है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    लंदन के इस्लामिक शरिया काउंसिल की खोला हसन कहती हैं कि हलाला पाखंड है. यह सिर्फ पैसा बनाने के लिए किया जाता है.

  • जब मुस्लिम महिलाएं शादी बचाने के लिए अजनबी के साथ सोती हैं

    खोला हसन यह भी कहती हैं कि महिलाओं को इससे बचाने के लिए काउंसिलिंग मुहैया कराई जानी चाहिए.

    source:http://aajtak.intoday.in/gallery/muslim-women-sleep-stranger-save-marriage-4-11853.html

कुरान समीक्षा : सूरज लपेटना और तारे झड़ना

सूरज लपेटना और तारे झड़ना

सूरज को चादर में लपेटा जावेगा या रस्सी से बाँधा जावेगा? और तारे झाड़कर किसी मैदान में जमा किये जावेंगे किसी तालाब में, या अरब में किसी विशेष स्थान पर इकट्ठे किये जावेंगे ? क्या यही खुदाई इल्म का नमूना है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

इजश्शम्सु कुव्विरत्……………।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा तक्वीर रूकू १ आयत १)

……….जिस वक्त सूरज लपेट लिया जायेगा।

व इजन्नजुजूमुन-क-द-रत्…………..।।

(कुरान मजीद परा ३० सूरा तक्वीर रूकू १ आयत २)

……….और जिस वक्त तारे झड़ पड़े

व इजस्समाउ कुशितत्………….।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा तक्वीर रूकू १ आयत ११)

……..जिस वक्त आसमान की खाल खींची जायेगी।

इजस्समाउन्फ त-रत…………..।।

(कुरान मजीद पारा ३० सूरा इन्फितार रूकू १ आयत १)

……….जब आसमान फट जाये।

समीक्षा

सूरज को किस चादरे में लपेटा जायेगा? और तारे जो जमीन से भी कई गुणा बड़े-बड़े लोक हैं वह झड़ कर कहाँ पर गिरेंगे? कुरान की कल्पना भी प्रलय की विलक्षण है।

शून्य आकाश का फाड़ा जाना व उसकी खाल खींची जाना लिखना अक्लमन्दी की बात नहीं है।

नोट- आप कुरान-ए मजीद की यह सूरा तक्वीर जरूर पढ़ें, जहां अनेकों असम्भव बातों का जिकर अल्लाह मियाँ की ओर से किया गया है।

लाजपत राय अग्रवाल

आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक

Swami Satyanand

आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक

आपका  जन्म १९३९ में जिला करनाल के  गांव कत्तलेहडी में मराठा कुल के एक किसान  परिवार में हुआ। लगभग २५ वर्ष की  आयु में आपने पास के   गांव गोन्दर में आर्यसमाज का  वेदप्रचार कार्यकम  सुना। इतने प्रभावित हुए  की आपने घर ही छोडऩे का  फैसला लिया। आर्यसमाज  के लिए आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मïचारी का संकल्प लेकर स्वामी भीष्म के   गुरुकुल घरौंड़ा से प्रथम कक्षा से पढऩा शुरू किया   एम०ए० संस्कृत , व्याकरण, आचार्य तक की शिक्षा ग्रहण की ।  बड़ी आयु में शिक्षा ग्रहण करके यहाँ तक पहुँचना आपने एके मिशाल बनाई।

आपका प्रारम्भिक रूझान आयुर्वेद में रहा, फिर साहित्य के क्षेत्र उतरे। स्वामी जी ने अपने पुरुषार्थ व कर्मठता से आर्यसामाजिक साहित्य की रूप देख ही बदल दी। आकर्षक रंगीन टाइटलों सहित ग्रन्थों का कम्प्यूटरीकरण, सुन्दर प्रिटिंग व बढिय़ा  लगाने कागज परम्परा आपने ही सर्वप्रथम शुरू  की बाद में अन्य सभी प्रकाशको ने भी यह रास्ता अपनाया। सत्यधर्म प्रकाशन के नाम से २०० से अधिक ग्रन्थों का प्रकाशन किया  वेदों सहित अभी लगभग ३० ग्रन्थों का प्रकाशन के  लिए कार्य  चल रहा था। वैदिका साहित्य की सेवा आपके जीवन सबसे बड़ी उपलब्धि रही।

पिछले ६ महीनों से अस्वस्थ चल रहे थे। २ अप्रैल २०१७ को  देहरादून अस्पताल में आपने अन्तिम श्वास ली। इससे १५ दिन पूर्व पतंजलि योगग्राम में चिकीत्सा होती रही। बहुत लाभ मिला, बहुत प्रसन्न थे। दो दिन पूर्व अचानक  स्वास्थ्य गिरने लगा और गिरते ही चला गया। अस्पताल में डाक्टर भी कोई    विशेष सहायता नहीं कर सके और वे चले ही गये। प्रभु इच्छा पूर्ण हुई।

आर्यसमाज के लिए यह बहुत बड़ी क्षति है। उनके पुरुषार्थ व तप को  हमेशा याद रखेगा।

(द्वारा—महेन्द्र सिंह आर्य, करनाल)

लोक हित के कामों से उन्नति सम्भव

लोक हित के कामों से उन्नति सम्भव
डा. अशोक आर्य
संसार में हमारी जितनी भी कृयाएं हैं , उन सब में हमारा दृष्टीकोण ” प्राण शक्ति की रक्षा, तीनों प्रकार के तापों से निवृति तथा लोक हित होना चाहिये । यदि हम एसा कर पाये तो निश्चय ही हमारे घर उच्चकोटि के निवास के योग्य , मंगल से भरपूर, सुखकारी , लोगों के विश्राम के योग्य , सब प्रकार के बलों व प्राण – शक्ति से सम्पन्न तथा सब प्रकार की वृद्धि , उन्नति का कारण बनेंगे ।” यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का यह २७ वां मन्त्र इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि :-
गायत्रेण त्वा छन्दसा परिगृह्णामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि जागतेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि। सुक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्यूर्जस्वती चासि पयस्वती च॥27॥
मानव के लिए उसकी तीन क्रियाओं का विशेष महत्व होता है । इनमें एक प्राण शक्ति की रक्षा करना, दूसरे त्रिविध अर्थात् तीनों प्रकार के तापों से निवृति तथा जनकल्याण या लोकहित के कार्य करना । जब इस प्रकार के कार्य होंगे तो हमारे घर , जिन्हें निवास भी कहते हैं , यह उत्तम प्रकार के निवास के योग्य होंगे , सुखकारक होंगे, लोगों के विश्राम के योग्य होंगे, यह बल तथा प्राण शक्ति से सम्पन्न होंगे । इस प्रकार यह सब प्रकार की वृद्धि , उन्नति का कारण होंगे ।
आओ अब हम इस मन्त्र के विस्तृत भाव को समझने का प्रयास करें ।
प्रभु की सम्पतियों को किस स्वीकारें :-
इस मन्त्र में प्रथम बात की चर्चा करते हुए कहा गया है कि हम इस संसार में आये हैं । हमारे लिए इस संसार में परम पिता परमात्मा ने अनेक वस्तुएं भी बना रखी हैं । यह हमारे ऊपर है कि हम इन वस्तुओं को किस रुप में लें अथवा किस प्रकार स्वीकार करें ?, या यूं कहें कि हम इन वस्तुओं को किस दृष्टिकोण से लें अथवा प्रयोग करें ? इस विषय का उतर देते हुए प्रभु ने चार बिन्दुओं को सामने रखा है :-
१. हम प्राणशक्ति के लिए ग्रहण करें :-
मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि मानव जब इन पदार्थों की आवश्यकता अनुभव करता है तो यह विचार कर इन्हें प्राप्त करता है कि वह जो भी वस्तु ईश की दी हुई प्राप्त कर रहा है , वह केवल प्राणॊं की रक्षा के लिए प्राप्त कर रहा है । मानव के लिए प्राण ही इस शरीर में सब से महत्व पूर्ण होते हैं । जब तक इस शरीर में प्राण गति कर रहे हैं , तब तक ही शरीर गति करता है । ज्यों ही इस से प्राण निकल जाते हैं , त्यों ही शरीर उपयोग के लिए नहीं रहता । अब तो परिजन भी इस शरीर से मोह नहीं करते तथा अब वह इसे शीघ्र ही परिवार से दूर एकान्त में जा कर सब के सामने इस का अन्तिम संस्कार कर देते हैं , दूसरे शब्दों में इसे अग्नि की भेंट कर देते हैं ।
इस लिए मन्त्र में कहा गया है कि हम इस पदार्थ को प्राणशक्ति की रक्षा के लिए प्रयोग कर रहे हैं , ग्रहण कर रहे हैं । अत: हम इस वस्तु को अपने प्राणों की रक्षा की भावना से , रक्षा की इच्छा से प्राप्त कर रहे हैं । इस के लिए कुछ अन्य धारणाएं इस प्रकार दी हैं :-
क). खुला व हवादार घर बनावें :-
मानव को अन्य पशु व पक्षियों की भान्ति नहीं रहना होता । इसलिए कहा जाता है कि प्रत्येक मानव के लिए सर छुपाने के लिए छत की आवश्यकता होती है । अपने साधनों को ध्यान में रखते हुए घर का निर्माण किया जाता है , इस कारण किसी का घर बडा होता है और किसी का छोटा । यह मन्त्र हमारे निवास के लिए बनाए जाने वाले घर के लिए उपदेश कर रहा है कि हमारा घर एसा हो , जिसमें हमारे प्राण शक्ति की बडी सरलता से वृद्धि हो सके । सूर्य सब रोगों का विनाश करने वाला होता है , इसलिए घर एसा हो कि जिसमें सूर्य की किरणें सरलता से प्रवेश कर सकें । इस के साथ ही साथ इस घर की छत ऊंची हो, खूब खिडकियां व खुले दरवाजे बनाये जावें ताकि खुली वायु का प्रवेश इस घर में सरलता से हो सके । यह वायु और सूर्य का प्रकाश व किरणें यदि घर में सरलता से प्रवेश करेंगे तो हमारे प्राणशक्ति बढने से हमारी आयु भी लम्बी होगी ।
ख). पौषक भोजन :-
प्रत्येक प्राणी के लिए क्षुद्धा शान्ति के लिए भोजन की आवश्यकता होती है । भोजन तो कोई भी किया जा सकता है किन्तु यदि भोजन की व्यवस्था सोच समझ कर न की जावेगी तो यह रोग का कारण भी बन सकता है तथा प्राण – शक्ति के नाश का भी , जब कि भोजन प्राण – शक्ति की रक्षा के लिए किया जाता है । इसलिए हम सदा खाद्य पदार्थ लाते समय यह ध्यान रखें कि हम अपने घर वह ही खाद्य सामग्री लावें , जिसमें पौष्टिकता की प्रचुर मात्रा हो, ताकि प्राण – शक्ति की वृद्धि हो सके ।
ग). प्राणशक्ति बढाने वाले कार्य करें :-
मनुष्य कुछ न कुछ कार्य करता ही रहता है , वह खाली , निठल्ला बैठ ही नहीं सकता । यदि वह निठल्ला बैठता है तो वह बेकार हो जाता है , शारीरिक श्रम करने की शक्ति क्षीण हो जाती है तथा प्राणशक्ति कम हो कर उसकी आयु भी कम हो जाती है । जो मनुष्य श्रम करते हैं , कोई न कोई काम करते रहते हैं , उनके लिए मन्त्र आदेश देता है कि वह सदा एसा कार्य करें , एसा श्रम करें , एसी सीद्धियां पाने का यत्न करें , जो प्राण शक्ति को बढाने वाली हों ।
घ). सत्संग में रहें :-
मानव का रहन – सहन दो प्रकार का होता है । एक सत्संग के साथ तथा दूसरा बिना सत्संग अर्थात् कुसंग के साथ । कुसंग नाश का कारण होता है तो सत्संग निर्माण का कारण होता है । कुसंग में रहने वाला व्यक्ति बुरे कार्य करता है , मद्य , मांस व नशा आदि का सेवन करता है । इन वस्तुओं के सेवन से उसकी प्राणशक्ति का नाश होता है तथा वह जल्दी ही भायानक रोगों का शिकार हो कर मत्यु को छोटी आयु में ही प्राप्त हो जाता है ।
इस सब के उलट जब वह सत्संग में रहता है , उत्तम आचरण में रहता है तो कुसंग में व्यर्थ होने वाला धन बच जाता है । यह धन प्रयोग करके वह अति पौष्टिक पदार्थ अपने परिवार व स्वयं के लिए लेने में सक्षम हो जावेगा , जिससे उसके प्राणशक्ति विस्तृत होंगे । इस के अतिरिक्त उसके पास दान देने की शक्ति भी बढ जावेगी । इस धन से दूसरों को भी ऊपर उठाने में भी सहायक हो सकता है । इससे उसकी ख्याति भी बटती है , जो खुशी लाने का कारण बनती है । इस खुशी से भी प्राणशक्ति बढ जाती है । जब सत्संग में रहते हुए सत्य पर आचरण करेंगे तो उसकी मनोवृतियां भी उत्तम बन जावेंगी । यह वृतियां भी उसकी प्राणशक्ति बढाने का कारण बनेगी ।
२.त्रिविध दु:खों की निवृति के लिए ग्रह्ण कर :-
मानव सब प्रकार के दु:खों से दूर तथा सुखों के साथ रहने की सदा अभिलाषा करता है । इस के लिए उसे कई प्रकार के यत्न करने होते हैं । इसलिए मन्त्र कह रहा है कि हमारे उपभोग में आने वाले सब पदार्थ हम सब लोगों को प्राणशक्ति को सम्पन्न करने वाले हों । इन के प्रयोग से सब लोगों की प्राणशक्ति सम्पन्न हो । इसलिए ही हम पदार्थों को ग्रहण करंन । हम इस इच्छा से , इस भावना से इन पदार्थों को , इन वस्तुओं को ग्रहण करें कि जिनके सेवन से हम त्रिविध तपों को प्राप्त कर सकें । यह त्रिविध तप हैं , आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तप । इन त्रिविध तपों से हमारे सब प्रकार के दु:खों का नाश होता है ।
दूसरे शब्दों में हम यूं कह सकते हैं कि हम इस इच्छा से , इस भावना से तुझे ग्रहण करते हैं ताकि मेरे घर परिवार में तीनों अर्थात् प्रकृति , जीव और परमात्मा का स्तवन हो, यह तीनों ही प्राणशक्ति का आधार हैं । इसलिए इन तीनों का ठीक से विचार करना आवश्यक हो जाता है ।
३. जनहित के लिए पदार्थों का सेवन करें :-
मानव का कल्याण तब ही होता है , मानव का हित तब ही होता है , जब इस जगती का हित हो । इसलिए हमें वह ही कार्य करना चाहिये तथा वह ही पदार्थ प्रयोग करने चाहियें , जिनसे जगती का हित हो । अत; हम जो भी पदार्थ ग्रहण करें , वह जगती के हितकामना से , हित की इच्छा से ही ग्रहण करें । हमारे अन्दर सदा लौकिक व जनहित की भावना का होना आवश्यक है । अत; हम जो भी पदार्थ ग्रहण करें । उसे लोकहित के लिए समर्थ होने के लिए ही पाना होगा । स्वयं को लोकहित के लिए अधिक समर्थ होने का हम सदा यत्न करें ।
भोजन भी हम स्वस्थ रहने के लिए करते हैं । इसलिए हम सदा इस प्रकार का भोजन करें , जो सुपाच्य हो , पौष्टिक हो तथा जो भोजन हमें स्वस्थ भी रखे । हम सदा एसा भोजन करें कि जिससे हम दीर्घजीवी बन सकें तथा सदा लोक – संग्रहक , लोक – कल्याण के कार्यों में लगे रहें ।
४. गायत्र, त्रैष्टुप व जागत श्रेणी का घर बनावें :-
जब हमारा दृष्टिकोण इस मन्त्र के उपदेशों के अनुरुप बन जावेगा तो यह “गायत्र,त्रैष्टुप व जागत” की श्रेणी में ही होगा । हमारा घर सब प्रकार की प्राणशक्ति को प्राप्त करने वाला होकर हम अपने घर के बारे में इस प्रकार कह सकेंगे कि :-
क).
हे भवन ! तूं उत्तम निवास के योग्य बन गया है ।
ख).
हे भवन ! तूं कल्याण रूप भी है ।
ग).
हे भवन ! तूूं यह सब सुख देने वाला भी है ।
घ).
इतना ही नहीं हे भवन ! तूं सब लोगों की उतमता के लिए ठीक से बैठने के लिए भी अच्छा व उत्तम है ।
ड).
इस प्रकार हे भवन ! तूं प्राण – शक्ति से सम्पन्न है और हमें भी उत्तम प्राण – शक्ति देने वाला है ।
च).
हे भवन ! तेरे अन्दर खुली हवा , खुली सूर्य की किरणें आ सकती हैं । इस कारण तेरे में प्राणशक्ति को बढाने की खूब क्षमता होने से , इस के सब निवासियों को उन्नत करने वाला है ।
इस प्रकार इस मन्त्र में प्राण – शक्ति को बढाने के लिए उन्नत करने के लिए सुपाच्य भोजन व सत्संग के साथ ही साथ उत्तम भवन जिसमें खुली वायु व सूर्य की किरणें आती हों तथा जो प्राणशक्ति को बढाकर उन्नत करने वाले हो तथा त्रिविध सुखों को देने वाला हों , एसा होना चाहिये ।

डा. अशोक आर्य

कुरान समीक्षा : सूरज और चाँद जमा किये जायेंगे

सूरज और चाँद जमा किये जायेंगे

बतावें सूरज और चाँद को किसी मौलवी की छत पर जमा किया जावेगा या अरब में किसी मकान या मस्जिद में उनको लाकर रखा जावेगा? कुरानी खुदा का इल्म काबिले तारीफ था।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व जुमिअश्शम्सु वन्क-मरू…………।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा कियामः रूकू १ आयत ९)

……….और सूरज और चाँद जमा कर दिये जायें।

समीक्षा

इनको कहाँ पर जमा किया जावेगा, अरब में या किसी मस्जिद की छत पर या किसी मौलवी के घर में?