लोक हित के कामों से उन्नति सम्भव

लोक हित के कामों से उन्नति सम्भव
डा. अशोक आर्य
संसार में हमारी जितनी भी कृयाएं हैं , उन सब में हमारा दृष्टीकोण ” प्राण शक्ति की रक्षा, तीनों प्रकार के तापों से निवृति तथा लोक हित होना चाहिये । यदि हम एसा कर पाये तो निश्चय ही हमारे घर उच्चकोटि के निवास के योग्य , मंगल से भरपूर, सुखकारी , लोगों के विश्राम के योग्य , सब प्रकार के बलों व प्राण – शक्ति से सम्पन्न तथा सब प्रकार की वृद्धि , उन्नति का कारण बनेंगे ।” यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का यह २७ वां मन्त्र इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि :-
गायत्रेण त्वा छन्दसा परिगृह्णामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि जागतेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि। सुक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्यूर्जस्वती चासि पयस्वती च॥27॥
मानव के लिए उसकी तीन क्रियाओं का विशेष महत्व होता है । इनमें एक प्राण शक्ति की रक्षा करना, दूसरे त्रिविध अर्थात् तीनों प्रकार के तापों से निवृति तथा जनकल्याण या लोकहित के कार्य करना । जब इस प्रकार के कार्य होंगे तो हमारे घर , जिन्हें निवास भी कहते हैं , यह उत्तम प्रकार के निवास के योग्य होंगे , सुखकारक होंगे, लोगों के विश्राम के योग्य होंगे, यह बल तथा प्राण शक्ति से सम्पन्न होंगे । इस प्रकार यह सब प्रकार की वृद्धि , उन्नति का कारण होंगे ।
आओ अब हम इस मन्त्र के विस्तृत भाव को समझने का प्रयास करें ।
प्रभु की सम्पतियों को किस स्वीकारें :-
इस मन्त्र में प्रथम बात की चर्चा करते हुए कहा गया है कि हम इस संसार में आये हैं । हमारे लिए इस संसार में परम पिता परमात्मा ने अनेक वस्तुएं भी बना रखी हैं । यह हमारे ऊपर है कि हम इन वस्तुओं को किस रुप में लें अथवा किस प्रकार स्वीकार करें ?, या यूं कहें कि हम इन वस्तुओं को किस दृष्टिकोण से लें अथवा प्रयोग करें ? इस विषय का उतर देते हुए प्रभु ने चार बिन्दुओं को सामने रखा है :-
१. हम प्राणशक्ति के लिए ग्रहण करें :-
मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि मानव जब इन पदार्थों की आवश्यकता अनुभव करता है तो यह विचार कर इन्हें प्राप्त करता है कि वह जो भी वस्तु ईश की दी हुई प्राप्त कर रहा है , वह केवल प्राणॊं की रक्षा के लिए प्राप्त कर रहा है । मानव के लिए प्राण ही इस शरीर में सब से महत्व पूर्ण होते हैं । जब तक इस शरीर में प्राण गति कर रहे हैं , तब तक ही शरीर गति करता है । ज्यों ही इस से प्राण निकल जाते हैं , त्यों ही शरीर उपयोग के लिए नहीं रहता । अब तो परिजन भी इस शरीर से मोह नहीं करते तथा अब वह इसे शीघ्र ही परिवार से दूर एकान्त में जा कर सब के सामने इस का अन्तिम संस्कार कर देते हैं , दूसरे शब्दों में इसे अग्नि की भेंट कर देते हैं ।
इस लिए मन्त्र में कहा गया है कि हम इस पदार्थ को प्राणशक्ति की रक्षा के लिए प्रयोग कर रहे हैं , ग्रहण कर रहे हैं । अत: हम इस वस्तु को अपने प्राणों की रक्षा की भावना से , रक्षा की इच्छा से प्राप्त कर रहे हैं । इस के लिए कुछ अन्य धारणाएं इस प्रकार दी हैं :-
क). खुला व हवादार घर बनावें :-
मानव को अन्य पशु व पक्षियों की भान्ति नहीं रहना होता । इसलिए कहा जाता है कि प्रत्येक मानव के लिए सर छुपाने के लिए छत की आवश्यकता होती है । अपने साधनों को ध्यान में रखते हुए घर का निर्माण किया जाता है , इस कारण किसी का घर बडा होता है और किसी का छोटा । यह मन्त्र हमारे निवास के लिए बनाए जाने वाले घर के लिए उपदेश कर रहा है कि हमारा घर एसा हो , जिसमें हमारे प्राण शक्ति की बडी सरलता से वृद्धि हो सके । सूर्य सब रोगों का विनाश करने वाला होता है , इसलिए घर एसा हो कि जिसमें सूर्य की किरणें सरलता से प्रवेश कर सकें । इस के साथ ही साथ इस घर की छत ऊंची हो, खूब खिडकियां व खुले दरवाजे बनाये जावें ताकि खुली वायु का प्रवेश इस घर में सरलता से हो सके । यह वायु और सूर्य का प्रकाश व किरणें यदि घर में सरलता से प्रवेश करेंगे तो हमारे प्राणशक्ति बढने से हमारी आयु भी लम्बी होगी ।
ख). पौषक भोजन :-
प्रत्येक प्राणी के लिए क्षुद्धा शान्ति के लिए भोजन की आवश्यकता होती है । भोजन तो कोई भी किया जा सकता है किन्तु यदि भोजन की व्यवस्था सोच समझ कर न की जावेगी तो यह रोग का कारण भी बन सकता है तथा प्राण – शक्ति के नाश का भी , जब कि भोजन प्राण – शक्ति की रक्षा के लिए किया जाता है । इसलिए हम सदा खाद्य पदार्थ लाते समय यह ध्यान रखें कि हम अपने घर वह ही खाद्य सामग्री लावें , जिसमें पौष्टिकता की प्रचुर मात्रा हो, ताकि प्राण – शक्ति की वृद्धि हो सके ।
ग). प्राणशक्ति बढाने वाले कार्य करें :-
मनुष्य कुछ न कुछ कार्य करता ही रहता है , वह खाली , निठल्ला बैठ ही नहीं सकता । यदि वह निठल्ला बैठता है तो वह बेकार हो जाता है , शारीरिक श्रम करने की शक्ति क्षीण हो जाती है तथा प्राणशक्ति कम हो कर उसकी आयु भी कम हो जाती है । जो मनुष्य श्रम करते हैं , कोई न कोई काम करते रहते हैं , उनके लिए मन्त्र आदेश देता है कि वह सदा एसा कार्य करें , एसा श्रम करें , एसी सीद्धियां पाने का यत्न करें , जो प्राण शक्ति को बढाने वाली हों ।
घ). सत्संग में रहें :-
मानव का रहन – सहन दो प्रकार का होता है । एक सत्संग के साथ तथा दूसरा बिना सत्संग अर्थात् कुसंग के साथ । कुसंग नाश का कारण होता है तो सत्संग निर्माण का कारण होता है । कुसंग में रहने वाला व्यक्ति बुरे कार्य करता है , मद्य , मांस व नशा आदि का सेवन करता है । इन वस्तुओं के सेवन से उसकी प्राणशक्ति का नाश होता है तथा वह जल्दी ही भायानक रोगों का शिकार हो कर मत्यु को छोटी आयु में ही प्राप्त हो जाता है ।
इस सब के उलट जब वह सत्संग में रहता है , उत्तम आचरण में रहता है तो कुसंग में व्यर्थ होने वाला धन बच जाता है । यह धन प्रयोग करके वह अति पौष्टिक पदार्थ अपने परिवार व स्वयं के लिए लेने में सक्षम हो जावेगा , जिससे उसके प्राणशक्ति विस्तृत होंगे । इस के अतिरिक्त उसके पास दान देने की शक्ति भी बढ जावेगी । इस धन से दूसरों को भी ऊपर उठाने में भी सहायक हो सकता है । इससे उसकी ख्याति भी बटती है , जो खुशी लाने का कारण बनती है । इस खुशी से भी प्राणशक्ति बढ जाती है । जब सत्संग में रहते हुए सत्य पर आचरण करेंगे तो उसकी मनोवृतियां भी उत्तम बन जावेंगी । यह वृतियां भी उसकी प्राणशक्ति बढाने का कारण बनेगी ।
२.त्रिविध दु:खों की निवृति के लिए ग्रह्ण कर :-
मानव सब प्रकार के दु:खों से दूर तथा सुखों के साथ रहने की सदा अभिलाषा करता है । इस के लिए उसे कई प्रकार के यत्न करने होते हैं । इसलिए मन्त्र कह रहा है कि हमारे उपभोग में आने वाले सब पदार्थ हम सब लोगों को प्राणशक्ति को सम्पन्न करने वाले हों । इन के प्रयोग से सब लोगों की प्राणशक्ति सम्पन्न हो । इसलिए ही हम पदार्थों को ग्रहण करंन । हम इस इच्छा से , इस भावना से इन पदार्थों को , इन वस्तुओं को ग्रहण करें कि जिनके सेवन से हम त्रिविध तपों को प्राप्त कर सकें । यह त्रिविध तप हैं , आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तप । इन त्रिविध तपों से हमारे सब प्रकार के दु:खों का नाश होता है ।
दूसरे शब्दों में हम यूं कह सकते हैं कि हम इस इच्छा से , इस भावना से तुझे ग्रहण करते हैं ताकि मेरे घर परिवार में तीनों अर्थात् प्रकृति , जीव और परमात्मा का स्तवन हो, यह तीनों ही प्राणशक्ति का आधार हैं । इसलिए इन तीनों का ठीक से विचार करना आवश्यक हो जाता है ।
३. जनहित के लिए पदार्थों का सेवन करें :-
मानव का कल्याण तब ही होता है , मानव का हित तब ही होता है , जब इस जगती का हित हो । इसलिए हमें वह ही कार्य करना चाहिये तथा वह ही पदार्थ प्रयोग करने चाहियें , जिनसे जगती का हित हो । अत; हम जो भी पदार्थ ग्रहण करें , वह जगती के हितकामना से , हित की इच्छा से ही ग्रहण करें । हमारे अन्दर सदा लौकिक व जनहित की भावना का होना आवश्यक है । अत; हम जो भी पदार्थ ग्रहण करें । उसे लोकहित के लिए समर्थ होने के लिए ही पाना होगा । स्वयं को लोकहित के लिए अधिक समर्थ होने का हम सदा यत्न करें ।
भोजन भी हम स्वस्थ रहने के लिए करते हैं । इसलिए हम सदा इस प्रकार का भोजन करें , जो सुपाच्य हो , पौष्टिक हो तथा जो भोजन हमें स्वस्थ भी रखे । हम सदा एसा भोजन करें कि जिससे हम दीर्घजीवी बन सकें तथा सदा लोक – संग्रहक , लोक – कल्याण के कार्यों में लगे रहें ।
४. गायत्र, त्रैष्टुप व जागत श्रेणी का घर बनावें :-
जब हमारा दृष्टिकोण इस मन्त्र के उपदेशों के अनुरुप बन जावेगा तो यह “गायत्र,त्रैष्टुप व जागत” की श्रेणी में ही होगा । हमारा घर सब प्रकार की प्राणशक्ति को प्राप्त करने वाला होकर हम अपने घर के बारे में इस प्रकार कह सकेंगे कि :-
क).
हे भवन ! तूं उत्तम निवास के योग्य बन गया है ।
ख).
हे भवन ! तूं कल्याण रूप भी है ।
ग).
हे भवन ! तूूं यह सब सुख देने वाला भी है ।
घ).
इतना ही नहीं हे भवन ! तूं सब लोगों की उतमता के लिए ठीक से बैठने के लिए भी अच्छा व उत्तम है ।
ड).
इस प्रकार हे भवन ! तूं प्राण – शक्ति से सम्पन्न है और हमें भी उत्तम प्राण – शक्ति देने वाला है ।
च).
हे भवन ! तेरे अन्दर खुली हवा , खुली सूर्य की किरणें आ सकती हैं । इस कारण तेरे में प्राणशक्ति को बढाने की खूब क्षमता होने से , इस के सब निवासियों को उन्नत करने वाला है ।
इस प्रकार इस मन्त्र में प्राण – शक्ति को बढाने के लिए उन्नत करने के लिए सुपाच्य भोजन व सत्संग के साथ ही साथ उत्तम भवन जिसमें खुली वायु व सूर्य की किरणें आती हों तथा जो प्राणशक्ति को बढाकर उन्नत करने वाले हो तथा त्रिविध सुखों को देने वाला हों , एसा होना चाहिये ।

डा. अशोक आर्य

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