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परोपकारी क्या है?

परोपकारी क्या है?

(आचार्य श्री पं. पद्मसिंह जी शर्मा के सपादकत्व में ‘परोपकारी’ मासिक का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ था। उसमें प्रकाशित महाकवि नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ की यह कविता प्रस्तुत है-)

– सतीश शुक्ल

–   निश्शंक सत्यवादी सेवक महेश का है,

प्रखयात पक्षपाती ब्रह्मोपदेश का है।

संसार का सँगाती साथी स्वदेश का है,

प्यारा प्रतापशाली प्यारे प्रजेश का है।

आदर्श है दया का आनन्द-वन-बिहारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।1।।

 

–   विज्ञान बुद्धबाधक अज्ञान-मार का है,

देखो असीम सागर गहरे विचार का है।

अवतार तर्कमूलक सद्धर्म सार का है,

सीधा विशुद्ध साधन सबके सुधार का है।

वैदिक समाज का है सन्मित्र धीर-धारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।2।।

 

–   बाहुल्य सद्गुणों का दुर्भिक्ष दोष का है,

अधिकार है कृपा का प्रतिकार रोष का है।

मुख मंजु घोष का है यश आशुतोष का है,

प्रियपद्मराग-रूपी रस पद्म-कोष का है।

लो साधु-चंचरी को यह भेंट है तुहारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।3।।

 

–   जो शक्ति-शर्वरी से मन को मिला रहा है,

चिन्ता-चकोरनी के कुल को जिला रहा है।

कविता-कुमुदिनी की कलियाँ खिला रहा है,

पीयूष नवरसों का हमको पिला रहा है,

वह चन्द्रमा यही है, साहित्य-व्योमचारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।4।।

 

–   शृंगार का विषैला शोणित निचोड़ देगी,

कौटिल्य बाँकपन के उर पेट फोड़ देगी।

कामादि के कंटीले सब जोड़ तोड़ देगी,

आलस्य को अछूता जीता न छोड़ देगी।

पाखण्डखण्डिनी है, इसकी कला-करारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।5।।

 

–   प्राचीन पुस्तकों से भण्डार भर चुका है,

अनुभूत आगमों का ध्रुव ध्यान धर चुका है।

भाषा सुधारने का संकल्प कर चुका है,

कुत्सित कथानकों के परिकर कतर चुका है।

इसने महज्जनों की महिमा मुँदी उधारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।6।।

 

–   जिसके लिए अयोगी अटकल लगा रहे हैं,

जिसके लिए प्रमादी धन को ठगा रहे हैं।

भ्रम-भ्रान्ति से सुलाकर जिसको जगा रहे हैं,

अवतार दूत जिसकेाय को भगा रहे हैं।

उस देव की दिखादि इसने विभूति सारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।7।।

 

–   जो मूढ़-मण्डली के आगे अड़े हुए हैं,

जो ठोकरें ठगों की खाते खड़े हुए हैं।

जो जन्म-कुण्डली में डूबे पड़े हुए हैं,

जो कुल कुलक्षणों में लक्षण झड़े हुए हैं।

उनकी अटक उलूकी इसने मसोस मारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।8।।

 

–   जो लोग झंझटों के झण्डे उड़ा रहे हैं,

झगड़े बढ़ा-बढ़ा कर छक्के छुड़ा रहे हैं।

बिन बात जूझने को रस्से तुड़ा रहे हैं,

हा, एकता-तरी को जिसमें बुड़ा रहे हैं।

वह नाश-नद न इसको दे वैर-वारि-खारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।9।।

–   जो सर्वनाश-नद में जीवन डुबो चुका है,

दुर्दैव का सताया, दिन-रात रो चुका है।

कगांल मन्दभागी कुल को भिगो चुका है,

खोकर स्वतन्त्रता को परतन्त्र हो चुका है।

उस देश की भलाई इसने नहीं बिसारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।10।।

 

–   निर्दोष वेद-विद्या सबको सिखा रहा है,

विद्वान्-दीपकों में बनकर शिखा रहा है।

जिसके सुलेखकों से लक्षण लिखा रहा है,

उस देवनागरी के रूपक दिखा रहा है।

इसके महाशयों की टकसाल है करारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।11।।

 

–   ऊँचा चढ़ा रहा है गुण-गेह ज्ञानियों को,

नीचा गिरा रहा है मिथ्याभिमानियों को।

आदर दिला रहा है निष्काम दानियों को,

झूठी बता रहा है, कोरी कहानियों को।

इसका विवेक-बल है पूरा प्रमाद-हारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।12।।

 

–   अविकल्प योग-बल को जिनमें प्रधानता है,

उन सिद्ध योगियों को निर्बन्ध जानता है।

विद्या-विशारदों के सद्गुण बखानता है,

व्रतशील सज्जनों को सन्मित्र मानता है।

इसको नहीं सुहाते ठग, आलसी, अनारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।13।।

 

–   जिसकी दयालुता ने आनन्द-फल दिया है,

जिसकी प्रवीणता ने विज्ञानपथ दिया है।

जिसकी महानता ने भरपूर यश लिया है,

जिसकी उदारता ने सबका भला किया है।

है इष्टदेव इसका, वह बाल ब्रह्मचारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।14।।

 

–   विधवा बड़े घरों की महिमा घटा रही है,

गायें गले कटातीं चर्बी चटा रही हैं।

बातें विदेशियों की सौदा पटा रही हैं,

देशी सुधारकों से हमको हटा रही हैं।

ऐसी कड़ी कुचालें इसको लगें न प्यारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।15।।

 

–   रस भंग तुक्कड़ों के आसन उखाड़ देगा,

कविता कलंङ्किनी को लबी लताड़ देगा।

उदण्ड गायकों के मुखड़े बिगाड़ देगा,

करताल तोड़ देगा फिर ढोल फाड़ देगा।

कविराज की करेगा गुणगान से सुखारी,

शंकर सरस्वती का वर है परोपकारी।।16।।

 

महिला ने कहा मैं देना चाहती हूं अपने शौहर को तीन तलाक, जो हक मर्द को है वो मुझे भी मिले

महिला ने कहा मैं देना चाहती हूं अपने शौहर को तीन तलाक, जो हक मर्द को है वो मुझे भी मिले

देशभर में गर्माया हुआ मुद्दा एक बार फिर से सुर्खियों में आ गया है।

पति को तीन तलाक देना चाहती है अमरीन (Source: ANI)

देशभर में तीन तलाक के मुद्दे को लेकर लंबे समय से काफी गर्म बहस चल रही है। वहीं यह मुद्दा एक बार फिर से सुर्खियों में आ गया है। ताजा मामला मेरठ का है। हालांकि यहां पर महिला को तलाक नहीं दिया गया है बल्कि वह अपने पति को तलाक देना चाहती है। समाचार एजंसी एएनआई के मुताबिक यह जानकारी सामने आ रही है। मेरठ की अमरीन ने बातचीत में यह दावा किया है। एएनआई के मुताबिक अमरीन ने कहा कि वह अपने पति को तीन तलाक देना चाहती है, क्योंकि पति ने अमरीन और उसकी बच्चे को अपने साथ रखने से मना कर दिया है। इसके अलावा अमरीन ने यह दावा भी किया है कि उसके पति के भाई ने अमरीन और उसकी बहन के साथ पैसों के लिए मारपीट की थी।

अमरीन ने कहा कि अपने पति से छुटकारा पाना चाहती है। उसने कहा- “मैं तीन तलाक का इस्तेमाल कर अपने पति से ठीक वैसे ही छुटकारा पाना चाहती हूं जैसे मर्द हमेशा औरतों से छुटकारा पाते हैं। मैं उसे तीन तलाक देना चाहती हूं।” खबर के मुताबिक अमरीन ने अपने शौहर को तीन तलाक देने की बात कर जो हक किसी मर्द को मिलते हैं उनकी मांग की है।

Meerut:Want to give to my husband since he has denied to keep me&my child,after his brother beat me&my sister for money-Amreen

Meerut:Want to give to my husband since he has denied to keep me&my child,after his brother beat me&my sister for money-Amreen pic.twitter.com/obSmwI98iC

I want to give to my husband and get rid of him the same way as men do away with women using triple talaq: Amreen

बता दें तीन तलाक के मुद्दे को लेकर हाल ही में काफी सारी खबरें सामने आई हैं जिससे यह मुद्दा गरमा गया है। खुद पीएम मोदी ने भी बीते महीने कहा था कि तीन तलाक के मुद्दे का राजनैतिकरण नहीं होना चाहिए। उन्होंने मुस्लिम समाज से लोगों से आगे आकर महिलाओं के हक के लिए लड़ने की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि हर महिला को अपनी बात कहने का हक है। इसके अलावा पीएम ने कहा था- “मुस्लिम समाज से प्रबुद्ध लोग आगे आएंगे। मुस्लिम बेटियों पर जो के साथ जो गुजर रहा है उसके खिलाफ लड़ाई लड़ेंगे। रास्ता निकालेंगे।”।

source :http://www.jansatta.com/rajya/meerut-women-wants-to-give-triple-talaq-to-her-husband-demands-same-rights-as-of-a-men/315085/

हदीस : दुष्ट विचार एवं दुष्कर्म

दुष्ट विचार एवं दुष्कर्म

मुसलमान अपने अल्लाह का लाडला बेटा है, साथ ही बिगड़ैल बच्चा भी। उसका अतीत यदि अच्छा नहीं है तो भुला दिया जाता है और भविष्य के बारे में उसे निश्चित आश्वासन दिया जाता है। उसके लिए ऐसी अनेक बातों की इजाजत होती है, जिनकी इजाजत किसी बहुदेववादी को नहीं होती-यहां तक कि आसमानी किताब वाले यहूदी या ईसाई को भी नहीं होती। यीशु ने ”आंखों द्वारा व्यभिचार“ के बारे में कहा और उसे कामुकता के अधिक दृष्टिगोचर रूपों की ही भांति बुरा माना। लेकिन मुहम्मद ने अपने अनुयायियों के लिए बहुत ज्यादा गुंजाइश रखी है-”वास्तव में अल्लाह मेरे अनुयायियों के हृदय में उठने वाले बुरे भावों को तब तक माफ करता रहता है, जब तक कि वे वाणी या आचरण में प्रकट न हो“ (230)। भारत की आध्यात्मिक परम्परा में यही विचार अधिक सार्वभौम तथा कम पक्षपात वाली भाषा में अभिव्यक्त हुआ है। मानवीय दुर्बलताएं जानने के कारण ईश्वर मनुष्यों की चूकें तथा विफलताएं क्षमा कर देता है और उनकी शक्ति तथा सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाता है। ईश्वरवाद के प्रति रोजे ज्यादा नहीं रख पाती कि पैगम्बर के हुक्म के अनुसार उनके लिए रोजे से ज्यादा सवाब का काम है अपने पतियों के प्रति अपना फर्ज अदा करना पैगम्बर की बीवी आयशा ने ”अल्लाह के रसूल का लिहाज रखते हुए“ कई बार रोजे नहीं रखे (2550)। पर ऐसा लगता है कि औरतों की खूबी ही उनकी खामी बन जाती है, उनके लिए लानत पूर्वनियत है।1

 

स्वामी श्रद्धानन्द : जिन्होंने ‘मिस्टर गाँधी’ को ‘महात्मा गांधी’ बनाया

स्वामी श्रद्धानन्द :

जिन्होंने ‘मिस्टर गाँधी’ को ‘महात्मा गांधी’ बनाया

-डॉ. सुरेन्द्र कुमार

जिस समय श्री मोहनदास कर्मचन्द गाँधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद, नस्लभेद और उपनिवेशवादी शोषण के विरुद्ध सामाजिक आन्दोलन कर रहे थे, उसी समयावधि में भारत में एक महात्मा अपना सर्वस्व त्यागकर विदेशी शिक्षा, अस्पृश्यता, असमानता, जातिवाद, अशिक्षा, राजनीतिक पराधीनता, अन्धविश्वास, पाखण्ड आदि के विरुद्ध सामाजिक क्रान्ति  कर रहे थे। उनका नाम था- महात्मा मुंशीराम (संन्यास नाम-स्वामी श्रद्धानन्द) जो हरिद्वार के निकट कांगड़ी नामक गांव में गंगा तट पर स्वस्थापित ‘गुरुकुल कांगड़ी’ नामक शिक्षा-संस्था के माध्यम से अपने उद्देश्यों की पूर्ति में संलग्न थे। दक्षिण अफ्रीका में श्री गाँधी का नाम और काम सुर्खियों में था तो भारत में महात्मा मुंशीराम का। दोनों अपने-अपने देश में सामाजिक सुधार में संलग्न थे, किन्तु एक का दूसरे से साक्षात् परिचय नहीं था और न मेल-मिलाप हुआ था। दोनों महापुरुषों का परस्पर साक्षात् परिचय और मेल-मिलाप कराने में सेतु का कार्य किया श्री गाँधी के मित्र प्रो. सी.एफ. एंड्रूज ने। प्रो. एंड्रूज सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली में शिक्षक थे और दोनों के सुधार-कार्य से प्रभावित थे। उन्होंने श्री गाँधी को लिखे एक पत्र में परामर्श दिया कि ‘आप जब भी दक्षिण अफ्रीका से भारत आयें तो भारत के तीन सपूतों से अवश्य मिलें।’ वे तीन व्यक्ति थे-महात्मा मुंशीराम, कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली के पि्रंसिपल श्री सुशील रुद्र (यंग इण्डिया 06.01.1927)। श्री गाँधी महात्मा मुंशीराम के कार्यों को पढ़कर अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने  दक्षिण अफ्रीका के फीनिक्स आश्रम नेटाल से दिनांक 21 अक्टूबर 1914 को एक पत्र लिखा, जिसमें महात्मा मुंशीराम जी के कार्यों की प्रशंसा की और उनके प्रति श्रद्धाभाव से आत्मीयता व्यक्त करते हुए उनको ‘महात्मा’ एवं ‘भारत का सपूत’ लिखा तथा उनके चरणों में नमन करने हेतु मिलने के लिए अपनी अधीरता व्यक्त की। श्री गाँधी द्वारा अंग्रेजी में लिखे उक्त पत्र की कुछ पंक्तियों का हिन्दी अनुवाद है- ‘‘प्रिय महात्मा जी,…….मैं यह पत्र लिखते हुए अपने को गुरुकुल में बैठा हुआ समझता हूँ। निस्सन्देह उन्होंने मुझे इन संस्थाओं (गुरुकुल काँगड़ी, शान्ति निकेतन, सेंट स्टीफेंस कॉलेज) को देखने के लिए अधीर बना दिया है और मैं उनके संचालक भारत के तीनों सपूतों के प्रति अपना आदर व्यक्त करना चाहता हूँ। आपका-मोहनदास गाँधी’’। उसके पश्चात् दिनांक 8 फरवरी 1915 को पूना से हिन्दी भाषा में लिखे एक पत्र में श्री गाँधी ने फिर लिखा- ‘‘महात्मा जी…..आपके चरणों में सिर झुकाने की मेरी उमेद है। इसलिए बिना आमन्त्रण आने की भी मेरी फरज समझता हूँ। मैं बोलपुर से पीछे फिरूँ, उस बाबत आपकी सेवा में हाजिर होने की मुराद रखता हूँ। आपका सेवक-मोहनदास गाँधी’’।

(दोनों पत्रों की मूल प्रतियाँ गाँधी संग्रहालय, दिल्ली में उपलबध हैं।)

कुमभ पर्व के अवसर पर अपनी पत्नी कस्तूरबा के साथ यात्रा-कार्यक्रम बनाकर श्री गाँधी एक सामान्य कार्यकर्त्ता की तरह 5 अप्रैल 1915 को हरिद्वार पहुँचे। 6 अप्रैल को उन्होंने गुरुकुल काँगड़ी में पहुँचकर उसके संस्थापक महात्मा मुंशीराम से भेंट कर उनके चरणों में झुककर प्रणाम किया। आठ अप्रैल को गुरुकुल की कनखल स्थित-मायापुर वाटिका में गाँधी जी का समान किया और एक अभिनन्दन पत्र भेंट किया, जिसमें उनको ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया। वक्ताओं ने भी स्वागत करते हुए कहा कि ‘‘आज दो महात्मा हमारे मध्य विराजमान हैं।’’ महात्मा मुंशीराम ने अपने सबोधन में आशा व्यक्त की कि अब महात्मा गाँधी भारत में रहेंगे और ‘‘भारत के लिए ज्योति स्तमभ बन जायेंगे।’’ महात्मा गाँधी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि मैं महात्मा मुंशीराम से मिलने के उद्देश्य से ही हरिद्वार आया हूँ। उन्होंने पत्रों में मुझे ‘भाई’ कहा है, इसका मुझे गर्व है। कृपया आप लोग यही प्रार्थना करें कि मैं उनका भाई बनने के योग्य हो सकूं। अब मैं विदेश नहीं जाऊँगा। मेरे एक भाई (लक्ष्मीदास गाँधी) चल बसे हैं। मैं चाहता हूँ कोई मेरा मार्गदर्शन करे। ‘‘मुझे आशा है कि महात्मा मुंशीराम जी उनका स्थान ले लेंगे और मुझे ‘भाई’ मानेंगे।’’ (सपूर्ण गाँधी वाङ्मय एवं हिन्दू 12.04.1915 अंक)

इस भेंट ने दो समाज-सुधारकों को ‘घनिष्ट मित्र’ और ‘एक-दूसरे का भाई’ बना दिया। गुरुकुल काँगड़ी हरिद्वार में इस अवसर पर दोनों महात्माओं के मेल से भारत में सामाजिक सुधार और राजनीतिक स्वाधीनता का एक नया अध्याय आरमभ हुआ, जिसका सुखद परिणाम भारत की स्वतन्त्रता और शैक्षिक जागरूकता के रूप में सामने आया। गुरुकुल काँगड़ी के उक्त सार्वजनिक अभिनन्दन में श्री गाँधी को ‘महात्मा’ की उपाधि प्रदान करने के पश्चात् महात्मा मुंशीराम ने अपने पत्रों और लेखों में सर्वत्र उनको ‘महात्मा गाँधी’ के नाम से समबोधित किया। परिणामस्वरूप जन समुदाय में उनके लिए ‘महात्मा’ प्रयोग प्रचलित हो गया, जो सदा-सर्वदा के लिए गाँधी जी की विश्ववियात पहचान बन गया। उससे पूर्व दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजी सभयता के अनुसार उनको ‘मिस्टर गाँधी’ कहा जाता था। इस प्रकार ‘मिस्टर गाँधी’ गुरुकुल काँगड़ी आकर ‘महात्मा गाँधी’ बनकर निकले।

इस भेंट के बाद श्री गाँधी और महात्मा मुंशीराम के समबन्धों में निकटता बढ़ती गई। उक्त प्रथम आगमन के अतिरिक्त गाँधी जी फिर तीन बार गुरुकुल काँगड़ी में पधारे। दूसरी बार 18-20 मार्च 1916 को आये और गुरुकुल के अछूतोद्धार सममेलन तथा वार्षिक उत्सव में भाषण किया था। तीसरी बार 18-20 मार्च 1927 को गुरुकुल के दीक्षान्त समारोह में उपस्थित होकर वक्तव्य दिया। चौथी बार 21 जून 1947 को गुरुकुल में पधारकर गुरुकुलवासियों को आशीर्वाद देकर गये। गुरुकुल काँगड़ी में चार बार आने का महात्मा गाँधी का यह एक रिकॉर्ड है, क्योंकि इतनी बार वे भारत की किसी अन्य शिक्षा-संस्था में नहीं गये। उनका मानना था कि ‘‘गुरुकुल काँगड़ी तो गुरुकुलों का पिता है। मैं वहाँ कई बार गया हूँ। स्वामी जी के साथ मेरा समबन्ध बहुत पुराना है।’’(महादेव भाई की डायरी,खण्ड 7)

ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी के अभाव में या अन्य कारणों से कुछ लेखकों ने यह धारणा फैला दी है कि ‘श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने प्रथम बार श्री गाँधी को पहले से ही ‘महात्मा’ कहकर पुकारा था।’ यह विचार बाद में प्रचलित किया गया है, जो अनुमान पर आधारित कल्पना मात्र है। इसका कोई लिखीत ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। इस समबन्ध में कुछ तथ्यों पर चिन्तन किया जाना आवश्यक है-

  1. ‘महात्मा’ शबद का प्रयोग श्री गाँधी और महात्मा मुंशीराम के पारस्परिक लेखन और व्यवहार में प्रचलित था, श्री टैगोर के साथ नहीं। गाँधी जी मुंशीराम जी को महातमा लिखते और कहते थे, प्रत्युत्तर में गाँधी जी से प्रभावित महात्मा मुंशीराम ने भी समान देने के लिए गाँधी जी को ‘महात्मा’ कहा। यह स्वाभाविक ही है।
  2. यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाये कि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सर्वप्रथम श्री गाँधी के लिए ‘महात्मा’ शबद का प्रयोग किया। यदि ऐसा हुआ भी होगा तो वह व्यक्तिगत और एकान्तिक रहा होगा, सार्वजनिक रूप में प्रयोग और लेखन कविवर टैगोर की ओर से नहीं हुआ तथा न वह सार्वजनिक रूप में हुआ और न उनकी भेंट के बाद वह जनसामान्य में प्रचलित हुआ। यह प्रयोग सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप में महात्मा मुंशीराम की ओर से गुरुकुल काँगड़ी से आरमभ हुआ। उसके पश्चात् ही जन-सामान्य में गाँधी जी के लिए ‘महात्मा’ प्रयोग प्रचलित हुआ।
  3. केन्द्रीय सरकार के अभिलेखों में इसी तथ्य को स्वीकार किया गया है कि श्री गाँधी को सर्वप्रथम गुरुकुल काँगड़ी में ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया गया। 30 मार्च 1970 को स्वामी श्रद्धानन्द (पूर्वनाम महात्मा मुंशीराम) की स्मृति में भारतीय डाक तार विभाग द्वारा डाक टिकट जारी किया गया था। विभाग द्वारा प्रकाशित डाक टिकट के परिचय-विवरण में निम्नलिखित उल्लेख मिलता है-‘‘उन्होंने (स्वामी श्रद्धानन्द ने) काँगड़ी हरिद्वार में वैदिक ऋषियों के आदर्शों के अनुरूप एक बेजोड़ विद्या-केन्द्र गुरुकुल की स्थापना की।……महात्मा गाँधी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तो सर्वप्रथम इसी संस्थान ने उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किया और भारत लौटने पर वे सबसे पहले वहीं जाकर रहे। यहीं गाँधी जी को ‘महात्मा’ की पदवी से विभूषित किया गया।’’
  4. उत्तरप्रदेश सरकार के सूचना विभाग द्वारा 1985 में प्रकाशित गाँधीवादी लेखक श्री रामनाथ सुमन द्वारा लिखित ‘उत्तरप्रदेश’ नामक पुस्तक के ‘सहारनपुर सन्दर्भ’ शीर्षक में उल्लेख है कि ‘हरिद्वार आगमन के समय गाँधीजी को गुरुकुल काँगड़ी में महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने ‘महात्मा’ विशेषण से सबोधित किया था, तब से गाँधी जी ‘महात्मा गाँधी’ कहलाने लगे।’
  5. गाँधीजी के गुरुकुल काँगड़ी आगमन के समय वहाँ पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने अपने संस्मरणों में, गुरुकुल के स्नातक इतिहासकारों ने अपने लेखों और पुस्तकों में श्री गाँधी के सममान-समारोह का और उस अवसर पर उन्हें ‘महात्मा’ पदवी दिये जाने का वृत्तान्त दिया है। प्रसिद्ध पत्रकार श्री सत्यदेव विद्यालंकार ने लिखा है-‘‘आज गाँधी जी जिस महात्मा शबद से जगद्विखयात हैं, उसका सर्वप्रथम प्रयोग आपके लिए गुरुकुल की ओर से दिए गए इस मानपत्र में ही किया गया था।’’ (‘महात्मा गाँधी और गुरुकुल’ पृष्ठ 481) इस वृत्तान्त को लिखने वाले अन्य स्नातक लेखक हैं-डॉ. विनोदचन्द्र विद्यालंकार, इतिहासकार डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार, श्री दीनानाथ विद्यालंकार, श्री जयदेव शर्मा विद्यालंकार और डॉ. विष्णुदत्त राकेश आदि। कोई कारण नहीं कि विद्यार्थी अपने संस्मरणों को तथ्यहीन रूप में प्रस्तुत करें। अतः ये विश्वसनीय हैं।
  6. श्री गाँधी और महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) दोनों एक-दूसरे के महात्मापन के कार्यों से पहले से ही सुपरिचित थे, इसलिए दोनों के व्यवहार में आत्मीयता और सहयोगिता का खुलापन था। कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ श्री गाँधी का ऐसा समबन्ध नहीं था। दोनों के निकट समबन्धों की पुष्टि तीन विशेष घटनाओं से होती है। पहली घटना वह है, जब दक्षिण अफ्रीका में चल रहे श्री गाँधी के सामाजिक आन्दोलन के लिए रु. 1500/- की आर्थिक सहयोग राशि राष्ट्रनेता श्री गोपालकृष्ण गोखले के माध्यम से गुरुकुल काँगड़ी के द्वारा भेजी गई थी। यह राशि गुरुकुल के विद्यार्थियों ने सरकार द्वारा सन् 1914 में गंगा पर बनाये जा रहे ‘दूधिया बाँध’ पर दैनिक मजदूरी करके और एक मास तक अपना दूध-घी त्यागकर उसके मूल्य से एकत्रित करके भेजी थी। इस मार्मिक घटना को सुनकर गाँधी जी का हृदय द्रवित हो गया था। उन्होंने अनेक लेखों में इसकी चर्चा की है।

दूसरी घटना यह थी कि सन् 1915 में जब श्री गाँधी दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर भारत आ रहे थे तो उन्होंने स्वस्थापित फीनिक्स आश्रम के विद्यार्थियों को भी भारत भेज दिया। श्री टैगोर के आश्रम शान्ति निकेतन (तत्कालीन नाम ब्रह्मचर्याश्रम) में उनके निवास एवं खान-पान का प्रबन्ध सुचारु रूप से नहीं हो सका। तब गाँधी जी ने उन विद्यार्थियों को महात्मा मुंशीराम के पास गुरुकुल काँगड़ी में भेज दिया। वहाँ वे अच्छे प्रबन्ध के साथ दो महीनों तक रहे। जब गाँधी जी गुरुकुल में प्रथम बार पधारे थे तो उन्होंने अपने वक्तव्य में दोनों सहयोगों के लिए महात्मा मुंशीराम और विद्यार्थियों के प्रति आभार व्यक्त किया था।

तीसरी घटना यह है कि स्वामी श्रद्धानन्द की एक मुस्लिम हत्यारे के द्वारा हत्या होने के पश्चात् 9 जनवरी 1927 को गाँधी जी बनारस गये। वहाँ गाँधी जी और श्री मदनमोहन मालवीय जी ने स्वामी श्रद्धानन्द के सिद्धान्तों के स्वानुकूल न होते हुए भी अपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि व्यक्त करने के लिए उनके लिए गंगा में जलांजलि प्रदान की और गंगा-स्नान किया।

पाठक इन घटनाओं से अनुमान लगा सकते हैं कि उस समय के राष्ट्रनेताओं का स्वामी श्रद्धानन्द के प्रति कितना श्रद्धाभाव था और उनके कितने गहरे समबन्ध थे।

 

हदीस : इस्लाम से पूर्व के अरब लोग

इस्लाम से पूर्व के अरब लोग

मुस्लिम मीमांसक और लेखक इस्लाम-पूर्व अरब-देश का एक गहन अंधकार मय चित्र प्रस्तुत करने के आदी हैं। वे उसे नैतिक दृष्टि से भ्रष्ट तथा उदारता एवं विशाल-हृदयता से सर्वथा वंचित बतलाते हैं तथा इतिहास के उस कालखंड को ”जाहिलीय्या“ अर्थात ”अज्ञान एवं बर्बरता की दशा“ कहते रहते हैं। उनके अनुसार, प्रत्येक अच्छी बात मुहम्मद के साथ शुरू हुई। परन्तु ऐसी कई हदीस हैं, जो इसके विपरीत स्थिति ही सिद्ध करती हैं। हमें बतलाया जाता है कि हकीम बिन हिज़ाम ने ”अज्ञान की दशा में ही …………….. धार्मिक शुद्धता वाले अनेक कार्य किये“ (222)। एक अन्य हदीस से हमें विदित होता है कि उन्होंने इसी दशा में एक-सौ गुलामों को ”मुक्त किया तथा एक सौ ऊँट दान में दिए“ (225)।

 

सामान्यतः ऐसे सत्कार्यों का पुण्य किसी बहुदेववादी व्यक्ति को नहीं मिलता। पर अगर वह इस्लम अपना लेता है, तब बात ही और हो जाती है। तब उसके कार्यों का सम्पूर्ण स्वरूप बदल जाता है। तब वे व्यर्थ नहीं जाते। वे सुफलदायक हो उठते हैं। उस व्यक्ति को उनका श्रेय मिलता है। मुहम्मद हकीम को भरोसा दिलाते हैं-”तुमने इस्लाम को अपनाया है। पहले के किये गये सभी सत्कार्य तुम्हारे साथ रहेंगे” (223)।

लेखक :  रामस्वरुप

पति के मुंह से तलाक सुन टूटा मुस्लिम महिला का सब्र, सड़क पर दौड़ाकर की जूती से पिटाई

पति के मुंह से तलाक सुन टूटा मुस्लिम महिला का सब्र, सड़क पर दौड़ाकर की जूती से पिटाई

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पुलिस ने दोनों पक्षों के बीच मामले पर सहमति बनाने की कोशिश की, लेकिन पुलिस के प्रयासों के बाद भी वर पक्ष इस पर राजी नहीं हुआ। पति और उसके घरवाले तलाक की बात पर अड़े रहे।

मुस्लिम महिला ने पति की पिटाई। (Representative Image)

तीन तलाक का मुद्दा पूरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। तीन तलाक से परेशान मुस्लिम महिलाएं इस प्रथा को खत्म कराने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष भी कई बार अपनी आवाज उठा चुकी हैं। इस बीच एक मुस्लिम महिला ने पति के मुंह से तीन तलाक सुनकर उसे सबक सीखाया और जमकर सड़क पर पिटाई की। इस दौरान पति बचने के लिए भागने की कोशिश करता हुआ नजर आया, लेकिन पत्नी उसे छोड़ने के पक्ष में नहीं थी। यह मामला बिहार के दरभंगा जिले के बिरौल थाना क्षेत्र के एक गांव का है। यहां रहने वाले एक शख्स ने दहेज नहीं मिलने के कारण अपने पत्नी को तलाक दे दिया। तलाक देने के बाद यह पीड़िता मामले को लेकर थाने पहुंची। मामला थाने पहुंचने के बाद पुलिस ने पति और उसके घरवालों को थाने बुलाया ताकि मामले में सुलाह की कोशिश की जा सके।

स्थानीय मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पुलिस ने दोनों पक्षों के बीच मामले पर सहमति बनाने की कोशिश की, लेकिन पुलिस के प्रयासों के बाद भी वर पक्ष इस पर राजी नहीं हुआ। पति और उसके घरवाले तलाक की बात पर अड़े रहे। थाने में बैठी महिला सारी बातें सुन रही थी, इसी दौरान पति के मुंह से ऊंची आवाज में तलाक की बात सुनकर उसका सब्र का बांध टूट गया। इससे गुस्साई महिला ने पति को थाने में पुलिस वालों के सामने ही जूते से पीटना शुरू कर दिया। महिला द्वारा इस तरह की प्रतिक्रिया सामने आने के बाद पुलिसकर्मी भी हैरान रह गए। महिला की किसी तरह से थाने से बाहर आया तो पत्नी भी उसके पीछे सड़क पर आ गई। उसने सड़क पर भी पति की पिटाई की।

गौरतलब है कि तीन तलाक, निकाह हलाला जैसे मुद्दों को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह जैसी प्रथाओं को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 11 मई से सुनवाई शुरू करेगी। इन मामलों की सुनवाई को लेकर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) ने आपत्ति जताई थी। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने 27 मार्च को सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि इन प्रथाओं को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई नहीं होनी चाहिए क्योंकि ये मसले न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर के हैं।

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http://www.jansatta.com/rajya/bihar-muslim-woman-beats-husband-after-hear-tripple-talaq/314499/

ऋषि दयानन्द की दृष्टि में मुक्ति

ऋषि दयानन्द की दृष्टि में मुक्ति

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा था। इसे यथावत् प्रकाशित किया जा रहा है।

-समपादक

मुक्ति एक सापेक्ष शबद है। मुक्ति, जिसका अर्थ है-छूटना। छूटना बन्धन के बिना समभव नहीं। जो बन्धन में है, वही छूटना चाहता है, छूटता है। बन्धन और मुक्ति दोनों शबद अनुभव से समबन्ध रखते हैं। इसलिए मुक्ति की चर्चा चेतन से ही समबद्ध हो सकती है, अचेतन से नहीं। संसार में दुःख और बन्धन अनुभव करने वाले को जीव कहते हैं। दुःख का अनुभव जीवात्मा शरीर से ही कर सकता है। शरीर का प्रारमभ जन्म से होता है, इसलिए शास्त्र में जन्म को ही दुःख का कारण माना गया है-

दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः।।    – सांखय

शरीर का जन्म न होना अर्थात् आत्मा का बन्धन से मुक्त होना।

शरीर के बिना आनन्द का अनुभव कैसे हो सकता है? इस विषय में ऋषि दयानन्द शास्त्र के विचार से सहमत हैं कि जीवात्मा अपने स्वाभाविक गुण और सामर्थ्य से मुक्ति के आनन्द का उपभोग करता है।

‘‘शृण्वन् श्रोत्रम्…….।       -छा. 8/12/4-5

मुक्ति में जीव के साथ अन्तःकरण, आनन्द, प्राण, इन्द्रियों का शुद्ध भाव बना रहता है।’’ -सत्यार्थप्रकाश नवम समुल्लास

ऋषि दयानन्द सूक्ष्म-शरीर के दो भेद स्वीकार करते हैं। एक सूक्ष्म-शरीर भौतिक है, जिससे जीव संसार के अन्दर जन्म-जन्मान्तर की यात्रा करता है। दूसरा सूक्ष्म-शरीर अभौतिक है, जो मुक्ति में आनन्द का अनुभव कराता है-

‘‘दूसरा- पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच सूक्ष्मभूत और मन तथा बुद्धि, इन सतरह तत्त्वों का समुदाय सूक्ष्म-शरीर कहाता है। यह सूक्ष्म शरीर जन्म-मरणादि में भी जीव के साथ रहता है। इसके दो भेद हैं- एक भौतिक अर्थात् जो सूक्ष्म-भूतों के अंश से बना है। दूसरा स्वाभाविक, जो जीव के स्वाभाविक गुण रूप हैं। यह दूसरा अभौतिक शरीर मुक्ति में भी रहता है। इसी से जीव मुक्ति में सुख को भोगता है।’’ – सत्यार्थप्रकाश नवम समुल्लास

एक तीसरी समस्या है- मुक्ति से लौटना। सामान्य जो लोग जीव को परमेश्वर का अंश मानते हैं, वे जीव का मुक्ति में परमेश्वर में ही लय हो जाना स्वीकार करते हैं। जो लोग जीव को परमेश्वर से भिन्न स्वीकार करते हैं, वे भी जीव का मुक्ति से लौटना स्वीकार नहीं करते। ‘‘मुक्ति में ईश्वर के साथ- सालोक्य- ईश्वर के लोक में निवास, सानुज्य- छोटे भाई के सदृश ईश्वर के साथ रहना, सारूप्य- जैसे उपासनीय देव की आकृति है, वैसा बन जाना, सामीप्य- सेवक के समान ईश्वर के समीप रहना, सायुज्य- ईश्वर के साथ संयुक्त हो जाना- ये चार प्रकार की मुक्ति मानते हैं।’’

ऋषि दयानन्द कहते हैं कि ये मुक्ति तो कीट-पतंग, गधे-घोड़े आदि सबको प्राप्त है-

‘‘ये जितने लोक हैं, वे सब ईश्वर के हैं, इन्हीं में सब जीव रहते हैं, इसलिए सालोक्य मुक्ति अनायास प्राप्त है। सामीप्यईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने से सब उसके समीप है, इसलिए सामीप्य मुक्ति स्वतः सिद्ध है। जीव ईश्वर से सब प्रकार छोटा और चेतन होने से स्वतः बन्धुवत् है। इससे सानुज्य मुक्ति भी बिना प्रयत्न के सिद्ध है और सब जीव सर्वव्यापक परमात्मा में व्याप्य होने से संयुक्त हैं। इससे सायुज्य मुक्ति भी स्वतः सिद्ध है और जो अन्य साधारण नास्तिक लोग करने से तत्त्वों में तत्व मिलकर मुक्ति मानते हैं, वह तो कुत्ते, गधे आदि को भी प्राप्त है।’’

– सत्यार्थप्रकाश 290

‘‘बन्ध– सनिमित्तक अर्थात्- अविद्यादि निमित्त से है। जो-जो पापकर्म ईश्वरभिन्नोपासना, अज्ञानादि, ये सब दुःख फल करने वाले हैं। इसीलिए यह बन्ध है कि जिसकी इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।

मुक्ति अर्थात् सब दुःखों से छूटकर बन्धरहित सर्वव्यापक ईश्वर और उसकी सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोग के पुनः संसार में आना।’’

– स्वमन्तव्या.

‘‘मुक्ति- अर्थात् जिससे सब बुरे कामों और जन्ममरणादि दुःखसागर से छूटकर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होके सुख ही में रहना मुक्ति कहाती है।’’

– आर्य्योद्देश्यरत्नमाला

जो लोग ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं, उन्हें मुक्ति को भी स्वीकार करना पड़ता है। ईश्वर और मुक्ति का समबन्ध कैसा है, इसी में सिद्धान्त का भेद हो जाता है।

प्रथम, जो जीवात्मा को ईश्वर का अंश मानते हैं, उनकी दृष्टि में ईश्वर में जीव का लय हो जाना मुक्ति है। इस मत में ईश्वर से जीवात्मा का होना और जीवात्मा का ईश्वर में लय हो जाना, इसकी तार्किकता शास्त्रों में बहुत है, परन्तु उसकी स्वीकार्यता कठिन है। ब्रह्म में माया, अविद्या या अज्ञान की उपस्थिति जीवात्मा के बनने का कारण है, किन्तु कितने ब्रह्म का भाग जीवात्मा बन जाता है, जीवात्मा अपने अन्दर व्याप्त माया का अनुभव करके उससे मुक्त होकर पुनः ब्रह्मरूप हो जाता है, यह मुक्ति है, परन्तु यह मुक्ति कितने समय के लिये है, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि माया का पुनः ब्रह्म से मेल कब और कहाँ होगा, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।

जो लोग ब्रह्म से भिन्न जीवात्मा की सत्ता स्वीकार करते हैं, उनमें भी दो सिद्धान्त प्रचलित हैं। प्रथम वे लोग जो मुक्ति के बाद जीव का भी ब्रह्म में ही लय स्वीकार करते हैं। ऋषि दयानन्द उनमें से हैं, जो जीवात्मा की मुक्ति तो मानते हैं, परन्तु उसमें लय न मानकर ब्रह्म के साथ-साथ पृथक् सत्ता के साथ विचरना स्वीकार करते हैं। इस परिस्थिति में दो समस्याएँ, विचारक के सममुख आती हैं- एक जीवात्मा मुक्त दशा में शरीर के बिना रहता हुआ मुक्ति या ब्रह्मानन्द के सुख का अनुभव कैसे करता है? तथा दूसरी समस्या है- यदि जीवात्मा पृथक् सत्ता है तो उसकी मुक्ति की दशा कब तक रहती है एवं उसका आधार क्या है?

ऋषि दयानन्द मुक्ति से लौटने के जो तार्किक आधार देते हैं, वे निन हैं-

  1. यदि मुक्ति में गये जीव लौटकर न आयें तो संसार का उच्छेद हो जाये, क्योंकि कभी न कभी तो संसार के जीव समाप्त हो जायेंगे। कितना भी बड़ा कोष क्यों न हो, जिसमें आगम न हो और निर्गम सतत् बना रहे तो वह कोष अवश्य समाप्त हो जायेगा।
  2. मुक्ति के सुख का महत्त्व तभी है, जब संसार के दुःख का अनुभव हो। दुःख के बिना मुक्ति के सुख का कोई मूल्य नहीं। धर्म-अधर्म, हानि-लाभ, निन्दा-स्तुति, सत्य-असत्य में एक के बिना दूसरे का कोई अर्थ नहीं होता, वैसे ही दुःख के बिना सुख का कोई महत्त्व नहीं होता। इस प्रकार दुःख-सुख के बारी-बारी से अनुभव में ही सुख का उत्कर्ष और मुक्ति का महत्त्व है।
  3. सान्त कर्मों का फल अनन्त नहीं हो सकता। मनुष्य कितने भी कर्म करे, सभी की सीमा है। ऐसे सीमित कर्मों का फल अधिक तो हो सकता है, परन्तु असीम या अनन्त नहीं हो सकता।
  4. केवल मुक्ति में पहुँचकर न लौट पाना, यह भी एक प्रकार का बन्ध ही है। जहाँ एकरसता या एक ही प्रकार का जीवन है, वहाँ नीरसता का अनुभव होगा। इस प्रकार मुक्ति का प्रयोजन ही समाप्त हो जाता है।

मुक्ति से लौटने में वेद का प्रमाण-

कस्य नूनं कतमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।

को नो मह्या अदितये पुनर्दात्पितरं च दृशेयं मातरं च।।

अग्नेर्वयं प्रथमस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।

स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च।।

-ऋ. 1/24/1-2

प्रश्न हम लोग किसका पवित्र नाम जानें? कौन नाश रहित पदार्थों के मध्य में वर्तमान देव सदा प्रकाशस्वरूप है, हमको मुक्ति का सुख भुगाकर पुनः इस संसार में जन्म देता और माता तथा पिता का दर्शन कराता है।।1।।

उत्तर हम इस प्रकाशस्वरूप, अनादि, सदा मुक्त परमात्मा का नाम पवित्र जानें, जो हमको मुक्ति में आनन्द भुगाकर पृथिवी में पुनः माता-पिता के समबन्ध में जन्म देकर माता-पिता का दर्शन कराता है। वही परमात्मा इस प्रकार मुक्ति की व्यवस्था करता और सबका स्वामी है।

इस लौटने की अवधि क्या होगी? इस समस्या का समाधान ऋषि दयानन्द उपनिषद् के एक वाक्य ‘परान्त काल’ से करते हैं-

प्रश्न जो मुक्ति से भी जीव फिर आता है तो वह कितने समय तक मुक्ति में रहता है?

उत्तर – ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले, परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे। – मुण्डक 3/2/6

वे मुक्त जीव मुक्ति में प्राप्त होके ब्रह्म में आनन्द को तब तक भोग के पुनः महाकल्प के पश्चात् मुक्ति-सुख को छोड़ के संसार में आते हैं। इसकी संखया यह है कि- तेंतालीस लाख, बीस सहस्र वर्षों की एक ‘चतुर्युगी’, दो सहस्र चतुर्युगियों का एक ‘अहोरात्र’, ऐसे तीस अहोरात्रों का एक ‘महीना’, ऐसे बारह महीनों का ‘एक वर्ष’, ऐसे शत वर्षों का ‘परान्त काल’ होता है। इसको गणित की रीति से यथावत् समझ लीजिये। इतना समय मुक्ति में सुख भोगने का है। -सत्यार्थ प्रकाश, नवम समु.

ऋषि दयानन्द जीव के मुक्ति में रहने के वेद से प्रमाण देते हुए लिखते हैं-

ये यज्ञेन दक्षिणया समक्ता इन्द्रस्य सयममृतत्वमानश।

तेयो भद्रमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृणीत मानवं सुमेधसः।।                   -ऋ. 8/2/1/1

(ये यज्ञेन) अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञान, रूप, यज्ञ और आत्मादि द्रव्यों की परमेश्वर को दक्षिणा देने से वे मुक्त लोग मोक्ष सुख में प्रसन्न रहते हैं। (इन्द्रस्य) जो परमेश्वर के सखय अर्थात् मित्रता से मोक्ष भाव को प्राप्त हो गये हैं, उन्हीं के लिये भद्र नाम सब सुख नियत किये गये हैं (अङ्गिरसः) अर्थात् उनके जो प्राण हैं वे (सुमेधसः) उनकी बुद्धि को अत्यन्त बढ़ाने वाले होते हैं और उस मोक्ष प्राप्त मनुष्य को पूर्व मुक्त लोग अपने समीप आनन्द में रख लेते हैं और फिर वे परस्पर अपने ज्ञान से एक दूसरे को प्रीतिपूर्वक देखते और मिलते हैं।

स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।।

– यजु. 32/10

(स नो बन्धुः) सब मनुष्यों को यह जानना चाहिए कि वही परमेश्वर हमारा बन्धु अर्थात् दुःख का नाश करने वाला, (जनिता) सब सुखों को उत्पन्न और पालन करने वाला है तथा वही सब कामों को पूर्ण करता और सब लोकों को जानने वाला है कि देव अर्थात् विद्वान् लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं और वे तीसरे धाम अर्थात् शुद्ध सत्व से सहित हो के सर्वोत्तम सुख में सदा स्वच्छन्दता से रमण करते हैं।

– धर्मवीर

 

12 साल में तीन बार तीन तलाक और चार शादी

12 साल में तीन बार तीन तलाक और चार शादी,

12 साल में तीन बार तीन तलाक और चार शादी, जानिए- महिला के दर्द

प्रतीकात्मक तस्वीर

लखनऊ: देशभर में ट्रिपल तलाक का मुद्दा गरमाया हुआ है. लगातार ऐसे मामले सामने आ रहा हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाओं की चिंताजनक हालत को सामने लाया है. इसी बीच बरेली की रहने वाली एक मुस्लिम महिला को पिछले बारह सालों में कुल तीन बार तलाक दिया जा चुका है.

हैरान करने वाली यह खबर यूपी के बरेली जिले की है, जहां तारा खान नाम की महिला की पिछले बारह सालों में चार बार शादियां हुई और उसके तीनों शौहर ने उसे तलाक दे दिया. द टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक तारा खान एक अनपढ़ महिला हैं. तारा खान की पहली शादी जाहिद खान नाम के एक शख्स के साथ हुई थी. शादी के सात साल होने के बावजूद भी दोनों को कोई संतान नहीं हुई, जिसके बाद तारा खान के पति ने दूसरी शादी कर ली और तारा खान को तलाक दे दिया.

पहली शादी के खत्म होने के बाद तारा अपने रिश्तेदारों के साथ रहने लगीं. कुछ दिनों बाद पप्पू खान नाम के शख्स के साथ तारा की दूसरी शादी हुई. तारा ने कहा, ”वह अक्सर मुझे प्रताड़ित करता था..एक दिन मैंने उसे रोकने की कोशिश की तो उसने तीन बार तलाक बोल दिया.” तारा की दूसरी शादी तीन साल तक ही चली.

तारा की यह दर्दनाक कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. पप्पू से तलाक के बाद तारा ने अपने चाचा के यहां रहना शुरू कर दिया. तारा ने कहा, ”मेरे चचेरे भाई और चाचा ने मुझसे कहा कि तुम्हें फिर से शादी कर लेनी चाहिए, क्योंकि अभी काफी जिंदगी बाकी है. उनके समझाने के बाद मैंने सोनू नाम के शख्स के साथ शादी की. लेकिन सोनू भी मुझे मारता-पीटता था..एक दिन उसने मुझे पीटा और अंकल के घर छोड़ने आया. घर के दरवाजे तक उसने मुझे छोड़ा और जाने से पहले मुड़ा और वहीं तीन बार तलाक बोल कर चला गया. तारा की तीसरी शादी महज चार महीने ही चल पाई.

फिलहाल तारा की चौथी शादी हो चुकी है. लेकिन उसे इस बात का डर है कि अगर उसका पति शमशाद उसे छोड़ देगा तो उसका क्या होगा. तारा का कहना है कि जरूरत पड़ने पर वह इस मुद्दे को पीएम मोदी और यूपी के सीएम आदित्यनाथ के सामने उठाएंगी.

source :http://abpnews.abplive.in/india-news/bareilly-in-twelve-years-muslim-woman-given-triple-talaq-thrice-609680

ग्रंथों का ग्रंथ, ‘सत्यार्थप्रकाश’

ग्रंथों का ग्रंथ, ‘सत्यार्थप्रकाश’

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

कौशिक डेका ने अंग्रेजी में बाबा रामदेव पर जो किताब लिखी है, उसे मैंने अभी देखा नहीं है लेकिन उसके बारे में छपी खबरों में पढ़ा कि रामदेव जब किशोर ही थे, उन्हें ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ने को मिला और उन पर उसका ऐसा प्रभाव हुआ कि वे अपना घर-बार और स्कूली पढ़ाई छोड़कर भाग खड़े हुए। गुरुकुल में भर्ती हो गए। संन्यास ले लिया और महर्षि दयानंद सरस्वती के सपनों की दुनिया खड़ी करने का संकल्प कर लिया। यह ‘सत्यार्थ प्रकाश’ क्या है? यह 14 अध्यायों की एक क्रांतिकारी पुस्तक है। इसके अध्यायों को दयानंद ने समुल्लास कहा है। पहले 10 अध्यायों में उन्होंने व्यक्ति, परिवार, राज्य और समाज को सुचारु रुप से संचालित करने की बहस चलाई है और शेष चार अध्यायों में उन्होंने विभिन्न देशी और विदेशी धर्मों और संप्रदायों की दो-टूक समीक्षा की है। इस ग्रंथ का बीसियों देशी और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इसके हजारों प्रतियोंवाले सैकड़ों संस्करण हो चुके हैं और अब भी होते रहते हैं। इस ग्रंथ की तुलना विश्व के किस ग्रंथ से की जाए, यह बात मैं पिछले 60-65 साल से सोचता रहा हूं। मौलिकता, तर्क, पांडित्य और साहस—— इन चार मानदंडों पर तोलें तो शंकराचार्य की ‘सौंदर्य लहरी’, प्लेटो के ‘रिपब्लिक’, अरस्तू के ‘स्टेट्समेन’, कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’, मेकियावेली के ‘प्रिंस’, हाॅब्स के ‘लेवियाथन’, हीगल का ‘फिनोमेनालाॅजी आॅफ स्पिरिट’, कार्ल मार्क्स की ‘दास केपिटल’ जैसे विश्व-प्रसिद्ध ग्रंथों के मुकाबले भी ‘सत्यार्थप्रकाश’ मुझे अलग और भारी लगता है। इस ग्रंथ ने भारत का भाग्य पलट दिया। 1875 में छपे इस ग्रंथ ने भारत में आजादी की अलख जगाई। स्वराज्य की नींव रखी। बड़े-बड़े नेताओं और क्रांतिकारियों को जन्म दिया। यदि महात्मा गांधी को आप राष्ट्रपिता कहते हैं तो महर्षि दयानंद को राष्ट्र पितामह कहे बिना आप कैसे रह सकते हैं? यदि दयानंद का ‘आर्य समाज’ नहीं होता तो कांग्रेस के पांव मजबूत कौन करता? अंग्रेज के दांत खट्टे कौन करता? भारत में जातिविहीन, समतामूलक, कर्मप्रधान समाज की कल्पना कबीर जैसे संतों ने तो की थी लेकिन दयानंद जैसे ब्राह्मणकुलोत्पन्न किसी महापंडित ने कब की थी? दयानंद ने भारत में ऐसी पाखंड खंडिनी पताका फहराई थी कि दुनिया में आज तक वह फहरा रही है। कोई पंडित, मुल्ला-मौलवी, पादरी उसकी काट नहीं कर पाया। इसीलिए योगी अरबिंदो जैसे महान विचारक ने कहा है कि भारत के महान विद्वानों के बीच दयानंद मुझे हिमालय के समान सर्वोपरि दिखाई पड़ते हैं। सुकरात, ईसा मसीह, ब्रूनो और गांधी की तरह ही दयानंद को भी अपने सिद्धांतों के कारण ही प्राण त्यागने पड़े लेकिन उनके अविर्भाव ने भारत को नया जीवन दे दिया।

हदीस : पंथमीमांसा नैतिकता को विकृत करने वाली है

पंथमीमांसा नैतिकता को विकृत करने वाली है

अपनी पंथमीमांसा के आग्रह वाली ऐसी साम्प्रदायिक दृष्टि यदि यत्र-तत्र उल्टी सीधी नैतिकताएं सिखाती दिखे, तो उसमें क्या अचरज। फलतः इस दृष्टि के अनुसार किसी समूचे जनगण को लूट लेना पुण्यकर्म है, यदि वह जनगण बहुदेववादी हो। किन्तु जब लूट का माल मुसलमानों के हाथ में आ जाए तब उसकी चोरी महापातक है। मुहम्मद का एक गुलाम जिहाद में खेत रहा। इस तरह एक शहीद के नाते जन्नत में उसकी जगह अपने-आप तय हो गई। लेकिन मुहम्मद को दिखाई दिया कि ”वह दोजख की आग में जल रहा है, क्योंकि उसने युद्ध में लूटे गये माल में से पोशाक या लबादा चुरा लिया था।“ यह सुन कर कुछ लोग परेशान हो उठे। उनमें से एक ने अनुमानतः इसी किस्म की उठाईगीरी कर रखी थी। वह ”एक या दो तसमें लेकर मुहम्मद के पास आया और बोला-अल्लाह के रसूल, ये मुझे खैबर (एक युद्ध का नाम) के रोज मिले थे। पवित्र पैगम्बर ने कहा-ये (दोजख की) आग की एक डोर है या दो डोरें हैं“ (210)। जैसा कि एक अन्य पाई में कहा गया है, इसका अर्थ यह हुआ कि उस आदमी को उसके द्वारा चुराये गये दो तसमों के बदले परलोक में आग की दो लपटों में जलना पड़ेगा।

 

एक समूचे जनगण की लूट सत्कर्म है, किन्तु लूटे गये माल में से कोई नगण्य वस्तु चुपके से उठा लेना ऐसा प्रचंड नैतिक भ्रष्टाचरण है कि उसके लिए अनन्त आग में जलना होगा। सामान्य प्रलोभनों से प्रेरित हो कर लोग छोटे-मोटे अपराध छोटी-मोटी भूलें ही कर पाते हैं। घोर दुष्कर्मों के करने के लिए एक विचारधारा, एक इलहाम, एक ईश्वर-प्रदत्त मिशन का आश्रय आवश्यक हो जाता है।

लेखक :  रामस्वरुप