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वाह! जूता सिर पर उठा लिया

वाह! जूता सिर पर उठा लिया

हिमाचलप्रदेश के सुजानपुर ग्राम में आर्यसमाज के तपस्वी महात्मा रुलियारामजी बजवाड़िया धर्म-प्रचार कर रहे थे। तब हिमाचल में प्रचार करना कोई सरल काम न था। आर्यों को कड़े विरोध का सामना करना पड़ता था। किसी ने पण्डितजी पर जूता दे मारा। जूता जब उनके पास आकर गिरा तो आपने उसे उठाकर सिर पर रख लिया। विरोधी को यह कहकर धन्यवाद दिया कि चलो,

कुछ तो मिला। ऋषि दयानन्दजी की भी यही भावना होती थी कि आज पत्थर वर्षाते हो, कभी फूल भी वर्षेंगे। ऐसे पूज्य पुरुषों के तप-त्याग से ही समाज आगे बढ़ा है।

विधिहीन यज्ञ और उनका फल: – स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ

स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान् रहे हैं। आपके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विधिहीन यज्ञ और उनका फल’ यज्ञ सबन्धी कुरीतियों पर एक सशक्त प्रहार है। इसी पुस्तक का कुछ अंश यहाँ पाठकों के अवलोकनार्थ प्रकाशित है।           -सपादक

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज की मान्यता है कि श्री कृष्ण जी एक आप्त पुरुष थे। यज्ञ के विषय में इस आप्त पुरुष का कहना है कि-

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्,

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।

-गीता 17/13

  1. विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  2. असृष्टान्नं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  3. मन्त्रहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  4. अदक्षिणं यज्ञं तामसं परिचक्षते।
  5. श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

इन पाँच प्रकार के दोषों में से किसी एक, दो, तीन, चार या पाँचों दोषों से युक्त यज्ञ तामसी कहा जाता है। तामसी कर्म अज्ञानमूलक होने से परिणाम में बुद्धिभेदजनक तथा पारस्परिक राग, द्वेष, कलह, क्लेशादि अनेक बुराइयों का कारण होता है।

प्रस्तुत लेख में हम ‘विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।’ इस एक विषय पर स्वसामर्थ्यानुसार कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।

  1. श्री कृष्ण जी का कहना है कि विधिहीन यज्ञ तामसी होता है। विधि के अनुसार सबसे प्रथम स्थान यजमान का है। जो ‘यष्टुमिच्छति’ यज्ञ करना चाहता है। यज्ञ का सपूर्ण संभार तथा व्यय यजमानकर्तृक होता है। अग्नि यजमान की, अग्निशाला (यज्ञशाला) यजमान की, हविर्द्रव्य यजमान का। ऋत्विज् यजमान के। उनका मधुपर्कादि से सत्कार करना तथा उनकी उत्तम भोजन व्यवस्था यजमान कर्त्तृक। उनका शास्त्रानुसार दक्षिणा द्रव्य यजमान का। इतनी व्यवस्था के साथ अग्न्याधान से पूर्णाहुति तक का पूरा अनुष्ठान ऋत्विजों की देखरेख में यजमान करता है। यजमान इस सामर्थ्य से युक्त होना चाहिये। अपरं च पूर्णाहुति के बाद उपस्थित जनता से पूर्णाहुति के नाम से तीन-तीन आहुतियाँ डलवाना पूर्णरूपेण नादानी और अज्ञानता है। इसका विधि से कोई सबन्ध न होने से यह भी एक विधिविरुद्ध कर्म है, जिसे साहसपूर्वक बन्द कर देना चाहिए। इस आडबर से युक्त यज्ञ भी तामसी होता है। क्या आर्यसमाज संगठन के यजमान तथा ऋत्विक् कर्म कराने वाले विद्वान् इस व्यवस्था तथा यजमान सबन्धी इस विधि-विधान के अनुसार यज्ञ करते-कराते हैं। जब पकड़कर लाया हुआ यजमान तथा विधिज्ञान शून्य ऋत्विक् इन बातों को छूते तक नहीं तो केवल विधिविरुद्ध आहुति के प्रकार ‘ओम् स्वाहा’ के लिए ही मात्र आग्रह करना कौनसी बुद्धिमत्ता है। इस उपेक्षित वृत्त को देखकर यही कहा जायेगा कि ऋत्विक् कर्मकर्त्ता सभी विद्वान् इन विधिहीन यज्ञों के माध्यम से केवल दक्षिणा द्रव्य प्राप्त कर अपने आप को धन्य मानते हैं तथा यजमान अपने आप को पूर्णकाम समझता है, विधिपूर्वक अनुष्ठान की दृष्टि से नहीं।

ऐसे यजमान और ऋत्विक् सबन्धी-ब्राह्मण में महाराज जनमेजय के नाम से एक उपायान में कहा गया है कि-

‘अथ ह तं व्येव कर्षन्ते यथा ह वा इदं निषादा वा सेलगा वा पापकृतो वा वित्तवन्तं पुरुषमरण्ये गृहीत्वा कर्त (गर्त) मन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति, एवमेव त ऋत्विजो यजमानं कर्त्तमन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति यमनेवं विदोयाजयन्ति। अनेवं विदो अभिषेक प्रकारं (अनुष्ठान प्रकारं वा) अजानन्त ऋत्विजोयं क्षत्रियं (यजमान वा) याजयन्ति। तं क्षत्रियं (यजमानं वा) विकर्षन्त्येव विकृष्टमपकृष्टं कुर्वन्त्येव। तत्रेदं निदर्शनमुच्यते।’ – ए.ब्रा. 37/7

सायण भाष्यः निषादा नीचजातयो मनुष्याः। सेलगाश्चौराः। इडाऽन्नं तया सह वर्त्तन्त इति सेडा।

शेषााग पृष्ठ संया 39 पर…..

पृष्ठ संया 6 का शेष भाग…..

धनिकास्तान् धनापहारार्थं गच्छन्तीति सेलगाश्चौराः। पाप कृतो हिंसा कारिणः। त्रिविधाः दुष्टाः पुरुषा वित्तवन्तं बहुधनोपेतं पुरुषमरण्यमध्ये गृहीत्वा कर्त्तमन्वस्य कश्मिेश्चिदन्ध कूपादि रूपे गर्त्तेतं प्रक्षिप्य तदीयं धनमपहृत्य द्रवन्ति पलायन्ते। एवमेवानभिज्ञा ऋत्विजो यजमानं नरक रूपं कर्त्तमन्वस्य नरकहेतो दुरनुष्ठानेऽवस्थाप्य दक्षिणारूपेण तदीयं द्रव्यमपहृत्य स्वगृहेषु गच्छन्ति। अनेन निदर्शनेन ऋत्विजामनुष्ठान परिज्ञानाभावं निन्दति।

डॉ. सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी अनुवादः- इस प्रकार (अभिषेक प्रकार को या अनुष्ठान प्रकार को न जानने वाले ऋत्विज् जिस क्षत्रिय के लिए या जिस यजमान के लिए यजन करते हैं, तो वे उस क्षत्रिय वा यजमान का अपकर्ष भी करते हैं, जिस प्रकार नीच जाति के ये निषाद, चोर और (हिंसा करने वाले शिकारी आदि) पापी पुरुष बहुधन से युक्त पुरुष को अरण्य के मध्य पकड़कर (किसी अन्ध कूपादि) गड्ढे में फेंककर उसके धन का अपहरण करके पलायित हो जाते हैं, उसी प्रकार ये अनुष्ठान प्रकार से अनभिज्ञ ऋत्विज् लोग यजमान को नरकरूप (विधिहीन) अनुष्ठान में स्थापित करके दक्षिणारूपी उसके धन का अपहरण करके अपने घर चले जाते हैं।

आर्यसमाज के क्षेत्र में अनुष्ठीयमान यज्ञों में यह पहले प्रकार का विधिहीनता-रूपी दोष सर्वत्र रहता है। इस प्रकार हमारे ये यज्ञ तामसी कोटि के हो जाते हैं। हमारे ये पारायण-यज्ञ जहाँ से चलकर आर्यसमाज में आए हैं, वहाँ पूर्ण रीति से इनका विधि-विधान लिखा हुआ है। हमारे विद्वान् उसे देखना या उधर के तज्ज्ञ विद्वानों से सपर्क करना भी उचित नहीं समझते। हमारी स्थिति तो सन्त सुन्दरदास के कथनानुसार-

पढ़े के न बैठ्यो पास अक्षर बताय देतो,

बिनहु पढ़े ते कहो कैसे आवे पारसी।

इस पद्यांश जैसी है। संस्कार विधि यद्यपि हिन्दी भाषा में है, पर फिर भी इसे समझना आसान काम नहीं है। गुरुचरणों में बैठ, पढ़कर ही समझा जा सकता है। हमारा पुरोहित समुदाय ऐसा करना आवश्यक नहीं समझता तो फिर विधिपूर्वक अनुष्ठान कैसे हो सकते हैं और कैसे कर्मकाण्ड में एकरूपता आ सकती है।

ये वेद पारायण-यज्ञ (संहिता स्वाहाकार होम) जहाँ से हमने लिए हैं, वहाँ इनके अनुष्ठान के लिए विधिविधान का उल्लेख करते हुए अपने समय के ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौत और गृह्य सूत्रों के उद्भट विद्वान् स्वर्गीय श्री पं. अण्णा शास्त्री वारे (नासिक) अपने ग्रन्थ ‘संहिता स्वाहाकार प्रयोग प्रदीप’ में लिखते हैं कि-

‘तत्र कात्यायनप्रणीतशुक्लयजुर्विधान सूत्रं, सर्वानुक्रमणिकां च अनुसृत्य संहितास्वाहाकार होमे प्रतिऋग्यजुर्मन्त्रे आदौ प्रणवः अन्ते स्वाहाकारश्च। मध्ये यथानायं मन्त्रः। प्रणवस्य स्वाहाकारस्य च पृथक् विधानात् मन्त्रेण सह सन्ध्याभावः। मन्त्र मध्ये स्वाहाकारे सति तत्रैवाहुतिः पश्चान्मन्त्र समाप्तिः। न पुनर्मन्त्रान्ते स्वाहोच्चारणमाहुतिश्च।। – पृ. 240

अर्थः संहिता स्वाहाकार होम विषय में कात्यायन प्रणीत शुक्ल यजुर्विधान सूत्र और सर्वानुक्रमणिका का अनुसरण करते हुए संहिता स्वाहाकार होम में प्रत्येक ऋग्यजुर्मन्त्र के आदि में प्रणव (ओम्) तथा अन्त में स्वाहाकार, मध्य में संहिता में पढ़े अनुसार मन्त्र। मन्त्र और स्वाहाकार के पृथक् विधान होने से इनकी मन्त्र के साथ सन्धि नहीं होती। मन्त्र के बीच में स्वाहाकार आने पर वहीं आहुति देकर पश्चात् मन्त्र समाप्त करना चाहिए। फिर से मन्त्र के अन्त में स्वाहाकार का उच्चारण कर आहुति नहीं देनी चाहिये।

प्रणव और स्वाहाकार का मन्त्र से पृथक् विधान होने से मन्त्रान्त में ओम् स्वाहा उच्चारण कर आहुति देना नहीं बनता। कात्यायन भिन्न अन्य सभी ऋषि-महर्षियों का भी ऐसा ही मत है। उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत प्रमाण का अवलोकन कीजिए-

सर्व प्रायश्चित्तानि जुहुयात्

स्वाहाकारान्तैर्मन्त्रैर्न चेत् मन्त्रे पठितः।

– आश्वलायन श्रौतसूत्र 1/11/10

आत्मनिवेदन: दिनेश शर्मा

आचार्य धर्मवीर जी नहीं रहे। यह सुनना और देखना अत्यंत हृदय विदारक रहा है। आचार्य धर्मवीर जी देशकाल के विराट मंच पर महर्षि दयानन्द के विचारों के अद्वितीय कर्मवीर थे। महर्षि दयानन्द के विचारों के विरुद्ध प्रतिरोध की उनकी क्षमता जबर्दस्त थी। वैचारिक दृष्टि से तात्विक चिन्तन का सप्रेषण सहज और सरल था, यही उनका वैशिष्ट्य था, जो उन्हें अन्य विद्वानों से अलगाड़ा कर देता है। वे जीवनपर्यन्त संघर्ष-धर्मिता के प्रतीक रहे। ‘परोपकारी’ के यशस्वी सपादक के रूप में उन्होंने वैदिक सिद्धान्त ही नहीं, अपितु समसामयिक विषयों पर अपने विचारों को खुले मन से प्रकट किया। वे सत्य के ऐसे योद्धा थे जो महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित पथ के सशक्त प्रहरी रहे और ऐसा मानदण्ड स्थापित कर गये, जो अन्यों के लिये आधारपथ सिद्ध होगा। मानवीय व्यवहारों के प्रति वे सिद्धहस्त थे। भले ही अपने परिवार पर केन्द्रीभूत न हुये हों, परन्तु समस्त आर्यजगत् की आदर्श परोपकारिणी सभा के विभिन्न प्रकल्पों के प्रति वे सर्वात्मना समर्पित रहे।

उन्होंने ‘परोपकारी’ का सपादन करते हुए जिन मूल्यों, सिद्धान्तों का निर्भय होकर पालन किया, जिस शैली और भाषा का प्रयोग किया, जिन तथ्यों के साथ सिद्धान्तों को पुष्ट किया, वे प्रभु की कृपा से ही संभव होते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि कीर्तिशेष आचार्य धर्मवीर जी ने सपादन का जो शिखर निर्धारित किया है वहाँ तक पहुँचना यद्यपि असंभव है तथापि केवल भक्ति-भावना से मैं चलने का प्रयास भी कर लूँ तो भी मेरे लिए परमशुभ हो सकेगा। प्रभु मुझे इसकी शक्ति दे।

‘परोपकारी’ के पाठक विगत लगभग 33 वर्षों से अमूल्य विरासत से परिपूर्ण तार्किक विश्लेषण से सप्रक्त सपादकीय पढ़ने के आदी हुए हैं, उस स्तर को बनाये रखना यद्यपि मेरे लिये दुष्कर है, लेकिन पाठक हमारे मार्गदर्शक हैं, मैं आचार्य धर्मवीर जी के द्वारा निर्धारित पथ का पथिक मात्र हो सकूं, यही मेरे लिये परम सौभाग्य की बात होगी।

आज चुनौतियाँ हैं, दबाव हैं, सिद्धान्तों के प्रति मतवाद है, फिर भी हमें इन सभी से सामना करना है।

आचार्य धर्मवीर जी ने महर्षि दयानन्द के चिन्तन को सपूर्ण रूप में स्वीकार कर उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा की जीवन्तता में अद्वितीय साहस का परिचय दिया। राष्ट्र की आकांक्षा को दृष्टिगोचर रखते हुए वे अघोषित आर्यनेता के रूप में आर्यजगत् के सर्वमान्य नेतृत्वकर्ता बने। वैदिक संस्कृति और सयता के माध्यम से उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक मूल्यों को समृद्ध ही नहीं किया अपितु अपने व्यक्तित्व से, लेखनी से, वक्तृत्वकला से राष्ट्रीय तत्वों की अग्नि को उद्बुध किया।

आचार्य डॉ. धर्मवीर कुशल संगठनकर्त्ता थे, उन्होंने दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पण से जहाँ परोपकारिणी सभा को आर्थिक स्वावलंबन दिया, वहीं सृजनात्मक अभिव्यक्ति से वैदिक सिद्धान्तों के विरोधियों को भी वैदिक-दर्शन से आप्लावित किया। आचार्य धर्मवीर ने जीवनपर्यंत उत्सर्ग करने का ही कार्य किया, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने स्वयं को परिपूर्ण किया है। वैदिक पुस्तकालय में नित्य नूतन ग्रन्थों का प्रकाशन, वितरण, नवलेखन को प्रोत्साहन, वैदिक साहित्य के अध्येताओं को वैदिक साहित्य पहुँचाना जैसे पुनीत कार्य उनके कर्त्तृत्व के साक्ष्य परिणाम हैं। उन्होंने सारस्वत साधना से विभिन्न विद्वानों, संन्यासियों के व्यक्तिगत पुस्तकालयों को मँगवाकर वैदिक पुस्तकालय को समृद्ध किया है।

आचार्य डॉ. धर्मवीर ने महर्षि दयानन्द के हस्तलेखों, उनके द्वारा अवलोकित ग्रन्थों एवं उनके पत्रों इत्यादि का डिजिटलाईजेशन करने का अभूतपूर्व कार्य किया ताकि आगामी पीढ़ी को उस अमूल्य धरोहर को संरक्षित कर सौंपा जा सके। आर्यसमाज के प्रसिद्ध चिन्तकों को निरन्तर प्रोत्साहन कर लेखन के लिए सहयोग प्रदान करने का उन्होंने जो महनीय कार्य किया है, वह स्तुत्य है।

वैदिक चिन्तन के अध्येता आचार्य धर्मवीर जी ने परोपकारी पत्रिका को पाक्षिक बनाकर उसकी संया को 15 हजार तक प्रकाशित कर, देश-विदेश में पहुँचाकर एक अभिनव कार्य संपादित किया। उनकी भाषा में सहज प्रवाह और ओज था। वैदिक विचारों के प्रति वे निर्भीक और ओजस्वी वक्ता के रूप में हमेशा याद किये जाएंगे। उनकी मान्याता थी कि असत्य के प्रतिकार में निर्भय होकर अपने विचारों को व्यक्त करने का अधिकार जन्मजात है। लेकिन संवादहीनता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यही कारण था कि वे अजातशत्रु कहलाते थे। परोपकारी के लेखों और संपादकीय के द्वारा आर्यजगत् में उनकी प्रासंगिकता निरन्तर प्रेरणादायी बनी रही। सहज और सरल शदों में वैदिक सिद्धान्तों के प्रति कितने ही बड़े व्यक्ति की आलोचना करने में वे कभी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने भारत के समस्त विश्वविद्यालयों के कुलपतियों व कुलसचिवों को परोपकारी पत्रिका निःशुल्क पहुँचाने का अभिनव कार्य किया।

उन्होंने देवभाषा संस्कृत को जिया और अपने परिवार से लेकर समस्त आर्यजनों को भी आप्लावित किया। यह कहना और अधिक प्रासंगिक होगा कि अष्टाध्यायी-पद्धति के अध्ययन और अध्यापन को महाविद्यालय में ही नहीं अपितु ऋषिउद्यान में संचालित गुरुकुल में पाणिनी-परपरा का निर्वहन करने का उन्होंने अप्रतिम कार्य किया।

आचार्य धर्मवीर जी ऋषिउद्यान में विभिन्न भवनों के नवनिर्माण के प्रखर निर्माता थे, जिन्होंने देश में निरन्तर भ्रमण करते हुए धन का संग्रह कर विद्यार्थियों, साधकों, वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए श्रेष्ठ आवास की सुविधा प्रदान की, ताकि ऋषिउद्यान में निरन्तर आध्यात्मिक जीवन का संचार होता रहे एवं चर्चा का कार्य संपादित होता रहे। वे स्पष्ट वक्ता थे। उन्हें कितनी ही बार विभिन्न महाविद्यालयों के प्राचार्य का पद, चुनाव लड़ने, पुरस्कार प्राप्त करने हेतु आग्रह किया गया, लेकिन उनके लिए ये पद ग्राह्य नहीं थे। उनके लिए महर्षि दयानन्द का अनुयायी होना ही सबसे बड़ा पद था।

आचार्य डॉ. धर्मवीर जी, आचार्य की प्रशस्त परपरा की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। वे अकेले ही अन्याय का प्रतिकार करने में समर्थ थे। वे उन मतवादियों के लिए कर्मठ योद्धा थे, जो भारत विरोधी मत रखते थे। उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि लोग क्या कहेंगे अपितु उन्हें यह स्वीकार्य था कि आर्ष परपरा क्या है। समकालीन प्रयात विचारकों, राजनीतिक व्यक्तियों, विद्वानों का वे व्यक्तिशः आदर करते थे, परन्तु वैदिक विचारधारा के विरुद्ध लोगों का खण्डन करने में वे कोताही नहीं बरतते थे। उन्होंने परोपकारिणी सभा के विकल्पों का संवर्धन किया और परोपकारिणी सभा की यशकीर्ति को फैलाने में विशेष योगदान किया। आलोचना और विरोधों का धैर्यपूर्वक सामना करना उनकी विशेषता थी।

वे दिखने में कठोर थे, लेकिन हृदय से अत्यन्त सरल थे। चाहे आचार्य वेदपाल सुनीथ हों या श्री नरसिंह पारीक या डॉ. देवशर्मा या सहायक कर्मचारी सुरेश शेखावत, मैंने ऐसे दृढ़निश्चयी स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की आँखों में उन सबके लिए अश्रुकणों को बहते देखा है। आर्थिक सहयोग करना, बिना किसी को बताये, यह उनकी मानवीय श्रेष्ठता का अद्वितीय उदाहरण है।

ऐसे चिन्तक, विशेषताओं के आगार, वैदिक चिन्तन के सजग प्रहरी तथा विचारों के विरल विश्लेषक आचार्य डॉ. धर्मवीर जी की संपादकीय परपरा के कार्य का प्रारभ करते हुए मैं उन्हें जिन्होंने अनादि ब्रह्म की उपासना के साथ राष्ट्रचेता महर्षि दयानन्द के विचार और आचार से कभी विमुख नहीं हुए, को शत्-शत् नमन करता हुआ उस पथ का अनुयायी बनने का प्रयास करूं, ऐसा विश्वास दिलाता हूँ।

आपका

– दिनेश

 

हदीस : विवाह और विच्छेद (अल-निकाह और अल-तलाक)

. विवाह और विच्छेद (अल-निकाह और अल-तलाक)

आठवीं किताब का शीर्षक है ”निकाह की किताब“। इसका एक हिस्सा तलाक के बारे में भी है।

 

मुहम्मद अविवाहित जीवन का निषेध करते हैं। ”तुममें से जो लोग एक बीवी रख सकते हैं, उन्हें शादी करनी चाहिए। क्योंकि वह बुरी नजर डालने से और अनैतिकता से बचाती है” (3231)। उनके साथियों में से एक जन अविवाहित जीवन बिताना चाहता था। किन्तु मुहम्मद ने ”उसे ऐसा करने से मना किया“ (3239)।1

 

वस्तुतः मुहम्मद सर्वसाधारण संयम को मना करते थे। उनके एक साथी ने कहा, ”मैं शादी नहीं करूंगा।“ दूसरे ने कहा, मैं गोश्त नहीं खाऊंगा।“ एक अन्य ने कहा, ”मैं बिस्तर पर नहीं सोऊंगा।“ मोहम्मद ने अपने आप से पूछा, ”इन लोगों को क्या हो गया है जो ये ऐसा-ऐसा बोलते हैं, जबकि मैं इबादत करता हूँ और सोता भी हूं; मैं रोज़ा रखता हूं और उसे रद्द भी कर देता हूं, मैं औरतों से शादी भी करता हूं ? और जो मेरे सुन्ना को नहीं मानता, उसका मुझसे कोई रिश्ता नहीं“ (3236)।

 

अपनी औरत एक बहुत बड़ा मुक्ति-मार्ग है। पर अगर वह भी काम न आये और कोई आदमी किसी दूसरी औरत को देखकर आतुर हो जाये, तो उसे अपने घर जाना चाहिए और अपनी बीवी के साथ मैथुन करना चाहिए। ”अल्लाह के रसूल ने एक औरत को देखा और तब वे अपनी बीवी जै़नब के पास आये जो चमड़ा सिझा रही थी। और उन्होंने उसके साथ मैथुन किया। फिर वे अपने साथियों के पास गये और उनसे बोले-औरत शैतान के रूप में आगे बढ़ती है और लौट जाती है। इसलिए जब तुममें से कोई किसी औरत को देखे तो उसे अपनी बीवी के पास जाना चाहिए। क्योंकि उससे जो वह अपने दिल में महसूस करता है, वह बाहर निकल जायेगा“ (3240)। हम सब दूसरों के भीतर शैतान देखने को हरदम तैयार रहते हैं। लेकिन अपने भीतर का शैतान नहीं देख पाते।

 

  1. इब्न अब्बास की एक हदीस को इब्न साद ने उद्धृत किया है। साद कातिब अत-वाकिदी के नाम से लोक¬िप्रय थे और पैगम्बर के जीवनीकार थे। हदीस के अनुसार मुहम्मद ने कहा-”मेरी उम्मा में सबसे अच्छा वह है, जो सबसे ज्यादा तादाद में बीवियां रखता है“ (तबक़ात, किताब 2, पृष्ठ 146)

author : ram swarup

 

पं0 श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा

पं0 श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा

यह घटना भी सन् 1960 ई0 के आसपास की है। पण्डित श्री ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु को काशी के निकट बड़ागाँव में विवाह-संस्कार करवाने जाना पड़ा। उन दिनों आप कुछ अस्वस्थ रहते थे। आनेजाने में कठिनाई होती थी, अतः आप आन्ध्र प्रदेश के अपने एक ब्रह्मचारी धर्मानन्द को साथ ले-गये।

आप विवाह-संस्कार प्रातःकाल अथवा मध्याह्नोज़र ही करवाया करते थे, परन्तु उस दिन विवाह-संस्कार रात्रि एक बजे करवाना पड़ा। कुछ वर्षा भी हो गई और साथ ही बड़ी भयङ्कर आँधी भी आ गई। बारात गाँव के बाहर एक वृक्ष के नीचे ठहरी। पूज्य जिज्ञासुजी को बड़ा कष्ट हुआ। शिष्य ने लौटते हुए कहा-‘‘गुरुजी आज तो आपको बड़ा कष्ट हुआ?’’

पूज्य ब्रह्मदज़जी जिज्ञासु ने कहा-‘‘बड़े-बड़ों के यहाँ तो सब लोग संस्कार करवाने पहुँच जाते हैं, साधारण लोगों के घर संस्कार करवाने कोई नहीं पहुँचता। यदि कोई बड़ा व्यक्ति इस समय मुझे संस्कार करवाने के लिए कहता तो इस समय मैं कदापि न आता, परन्तु यह व्यक्ति कचहरी में साधारण कर्मचारी है, आर्यपुरुष है। मेरे पास श्रद्धा से आया था, इसलिए विवाह करवाने

की स्वीकृति दे दी।’’ महापुरुषों के जीवन की यही विशेषता होती है। आर्यत्व का यही लक्षण है।1

जो तड़प उठे जन पीड़ा से, वह सच्चा मुनि मनस्वी है। जो राख रमाकर आग तपे, वह भी ज़्या ख़ाक तपस्वी है!!

(राजेन्द्र जिज्ञासु)

जिन धर्मवीरों ने गाँव-गाँव में जनसाधारण तक ऋषि का सन्देश सुनाया, वे सब ऐसी ही लगन रखते थे।

पेरियार रचित सच्ची रामायण की पोलखोल भाग-१४

पेरियार रचित सच्ची रामायण की पोलखोल भाग-१४*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! पेरियार साहब के खंडन के १४वें भाग में आपका स्वागत है।आगे दशरथ नामक लेख के ६वें बिंदु के आगे जवाब दिया जायेगा।
*आक्षेप-६* राम की मां कौसल्या भी अपने देवी-देवता को मनाया करती थी कि मेरे पुत्र राम को राजगद्दी मिले।
*समीक्षा*- हम चकित हैं कि पेरियार साहब कैसे बेहूदे आक्षेप लगा रहे हैं!श्रीराम की मां देवी कौसल्या काल्पनिक देवी देवताओं से नहीं,परमदेव परमेश्वर की पूजा करती थीं।वे परमदेव परमात्मा से प्रार्थना करती थीं कि श्रीराम राजा बने तो इसमें हर्ज क्या है?कोई भी मां अपने पुत्र का हित ही चाहेगी।केवल मां ही नहीं,अपितु महाराज दशरथ, समस्त प्रजा और राजा आदि सब चाहते थे कि श्रीराम राजा बनें।इसमें भला आक्षेप योग्य कौन सी बात है?आक्षेप तो तब होता जब देवी कौसल्या भरत के अहित के लिये परमात्मा से प्रार्थना करतीं।परंतु उनका चरित्र ऐसा न था।
*आक्षेप ७*- पुरोहितों और पंडितों को सूचना तथा उनके परामर्श के बिना और कैकेयी, भरत,शत्रुघ्न आदि को बिना आमंत्रित किये बिना दशरथ ने राजातिलक का शीघ्र प्रतिबंध कर दिया(अयोध्याकांड अध्याय १)
*समीक्षा*-हे परमेश्वर! ये झूठ-धोखा आखिर कब तक चलेगा?ये धूर्त मिथ्यीवादी कब तक तांडव करते रहेंगे!क्या इन पर तेरे न्याय का डंडा न चलेगा?अवश्य ही चलेगा और ये लोग भागते दिखेंगे।
यदि दशरथ जी ने किसी को आमंत्रित नहीं किया था तो क्या समारोह ऐसे ही आयोजित हो गया?आपने कभी वाल्मीकीय रामायण की सूरत भी देखी है? रामायण में अध्याय नहीं सर्गों का विभाग है। अयोध्या कांड के प्रथम सर्ग को ही पढ़ लेते तो ये आक्षेप न करते।
प्रथम सर्ग में पूरा वर्णन है कि किस तरह महाराज दशरथ ने समस्त मंत्रिमंडल और अनेक राजाओं को राजसभा में आमंत्रित करके श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा की।लीजिये,अवलोकन कीजिये:-
इत्येवं विविधैस्तैस्तैरन्यपार्थिवदुर्लभैः ।
शिष्टैरपरिमेयैश्च लोके लोकोत्तरैर्गुणैः ॥ ४१ ॥
तं समीक्ष्य महाराजो युक्तं समुदितैः गुणैः ।
निश्चित्य सचिवैः सार्धं यौवराज्यममन्यत ॥ ४२ ॥
इस प्रकार से विचार करके तथा अपने पुत्र श्रीराम इनके नाना प्रकारके विलक्षण, सज्जनोचित, असंख्य और लोकोत्तर गुणों से, जो अन्य राजाओं में दुर्लभ थे, विभूषित देखकर राजा दशरथा मंत्रियों के बराबर सलाह करके उनको युवराज बनाने का निश्चय किया ॥४१-४२॥
दिव्यन्तरिक्षे भूमौ च घोरमुत्पातजं भयम् ।
संचचक्षेऽथ मेधावी शरीरे चात्मनो जराम् ॥ ४३ ॥
बुद्धिमान महाराज दशरथने मंत्रियों को स्वर्ग, अंतरिक्ष तथा भूतल पर दृष्टिगोचर होनेवाले उत्पातोंके घोर भय सूचित किये और आपने शरीर में वृद्धावस्था के आगमन की बात बताई. ॥४३॥
पूर्णचन्द्राननस्याथ शोकापनुदमात्मनः ।
लोके रामस्य बुबुधे सम्प्रियत्वं महात्मनः ॥ ४४ ॥
पूर्ण चंद्रमा के समान मनोहर मुख वाले महात्मा श्रीराम समस्त प्रजा को  प्रिय थे। लोक में उनके सर्वप्रिय थे। राजाके आंतरिक शोक को दूर करनेवाले थे ये बातें राजाने अच्छे से जानी थीं॥४४॥
आत्मनश्च प्रजानां च श्रेयसे च प्रियेण च ।
प्राप्तकालेन धर्मात्मा भक्त्या त्वरितवान् नृपः ॥ ४५ ॥
तब उपयुक्त समय आनेपर धर्मात्मा राजा दशरथने अपने और प्रजाके कल्याण के लिये मंत्रियों को श्रीरामाके राज्याभिषेक के लिये शीघ्र तैयारी करने की आज्ञा दी। इस उतावलेपन के कारण उनके हृदय के प्रेम और प्रजाके अनुराग ही कारण था ॥४५॥
नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि ।
समानिनाय मेदिन्यां प्रधानान् पृथिवीपतिः ॥ ४६ ॥
उन भूपालों ने भिन्न भिन्न नगरों में निवास करनेवाले प्रधान- प्रधान पुरूषों को  तथा अन्य जनपदों के सामंत राजाओं को  मंत्रियों के  द्वारा अयोध्या में  बुला लिया॥४६॥
(अयोध्या कांड सर्ग १)
इसके आगे महाराज दशरथ सबको संबोधित करते हैं और स्वयं राज्य त्यागकर श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा की:-
अनुजातो हि मां सर्वैर्गुणैः श्रेष्ठो ममात्मजः ।
पुरन्दरसमो वीर्ये रामः परपुरञ्जयः ॥ ११ ॥
मेरे पुत्र श्रीराम मुझसे भी  सर्व गुणों में श्रेष्ठ हैं।शत्रुओं के नगरों पर विजय प्राप्त करने वाले श्रीराम बल-पराक्रम में देवराज इंद्र समान हैं ॥११॥
तं चन्द्रमिव पुष्येण युक्तं धर्मभृतां वरम् ।
यौवराज्ये नियोक्तास्मि प्रीतः पुरुषपुङ्‍गवम् ॥ १२ ॥
पुष्य- नक्षत्रसे युक्त चंद्रमाके समान समस्त कार्य साधनमें कुशल तथा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ उन पुरुषश्रेष्ठ रामको मैं कल प्रातःकाल पुष्य नक्षत्र में युवराजका पद पर नियुक्त करूंगा॥१२॥
(अयोध्या कांड सर्ग २)
*आक्षेप ८*- आगे अयोध्याकांड अध्याय १४ का संदर्भ देकर लिखा है कि दशरथ ने राम से गुप्त रुप से कहा था कि भारत के लौट आने के पहले राम का राज्याभिषेक हो जाए तो भारत शांतिपूर्वक इसे जो पहले हो चुका है स्वीकार कर लेगा इत्यादि।
*समीक्षा*- बेईमानी की हद कर दी! अयोध्या कांड सर्ग १४ में न तो श्रीराम से राजा दशरथ श्रीराम से आपके लिखी बात कहते हैं न उसमें भरत का जिक्र करते हैं।इस सर्ग में कैकेयी ,जो अपने वचन मान चुकी है,उन्हें मनवाने के लिये कटिबद्ध है।वो कई तरह के कटुवचन कहकर राजा दशरथ को संतप्त करती है।फिर सुमंत्र आकर राजा दशरथ को राम राज्याभिषेक की पूरी तैयार होने का समाचार देते हैं।यहां आपके कपोलकल्पित लेख का कोई निशान नहीं है।हां,यह ठीक है कि इसके पहले राजा दशरथ श्रीराम से कहते हैं कि “यद्यपि भरत धर्मात्मा और बड़े भाई का अनुगामी है,फिर भी मनुष्यों का चित्त प्रायः स्थिर नहीं रहता।इसलिये अपना राज्याभिषेक शीघ्रातिशीघ्र करा लो।”इसका स्पष्टीकरण पहले दे चुके हैं।
*आक्षेप ९*- कैकई ने हठ किया कि उसका पुत्र राजा बनाया जाए और इसकी सुरक्षा का विश्वास दिलाने के लिए राम को वनवास भेज दिया जाए- तो दशरथ उसे मनाने के लिए उसके पैरों पर गिर पड़ा और  उस से प्रार्थना करने लगा कि ” मैं तुम्हारी इच्छानुसार कोई भी तुच्छतम कार्य करने के लिए तैयार हूं- राम को वनवास भेजने का हठ न करो।(अयोध्याकांड सर्ग १२)
*समीक्षा*-  राजा दशरथ ने कैकेयी द्वारा देवासुर संग्राम में अपनी प्राणरक्षा के कारण उसे दो वरदान दिये थे।उसने दो वरदानों द्वारा भरत का राज्याभिषेक तथा श्रीराम का वनवास मांगा।कैकेयी ने समस्त प्रजा,मंत्रिमंडल की मंशा के विरूद्ध श्रीराम का वनवास और भरत का राज्याभिषेक मांगा,ये वरदानों का मूर्खतापूर्ण प्रयेग किया।राजा दशरथ अपने रामराज्याभिषेक की घोषणा के विरुद्ध वरदान देने को राजी नहीं हुये।राजा दशरथ ने कैकेयी को मनाने की बहुत कोशिश की,पर वो नहीं मानी।
अञ्जलिं कुर्मि कैकेयि पादौ चापि स्पृशामि ते ।
शरणं भव रामस्य माधर्मो मामिह स्पृशेत् ॥ ३६ ॥
कैकेयी ! मैं हाथ  जोड़ता हूं और तेरे पैर पड़ता हूं।तू राम को  शरण दे।जिसके कारण  मुझे पाप नहीं लगेगा॥३६॥(अयोध्या कांड सर्ग १२)
यहां राजा दशरथ ने अनुनय-विनय के लिये मुहावरे के रूप में कहा।जैसे कहा जाता है कि,”मैं तेरे हाथ जोड़ता हूं,पैर पड़ता हूं।”पर सत्य में कोई पैर नहीं पकड़ता।वैसा ही यहां समझें।और यदि राजा दशरथ ने कैकेयी के पैर सचमें पड़ भी लिये तो भी कौन सी महाप्रलय आ गई?राजा दशरथ उस समय राजा नही,एक पति थे।यदि वे अपनी पत्नी के पांव भी पड़ ले तो क्या बुरा है?भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी एक-दूसरे के आधे शरीर माने जाते हैं।यदि पति पत्नी के और पत्नी पति के पांव पड़ें तो आपके हर्ज क्या है? एक तो आप जैसे लोग महिला-उत्थान का,स्त्रियों के अधिकारों की बात करते हैं और राजा दशरथ का अपनी पत्नी के पांव पड़ना नामर्दी समझते हैं!हद है  दोगलेपन की!
पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।यहां तक हमने ९वें बिंदु तक का खंडन किया।आगे १०से १४वें आक्षेपों तक का खंडन किया जायेगा।कृपया अधिकाधिक शेयर करें।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

VIDEO : जब मुफ्ती से एंकर ने कहा, ‘मैं फख्र के साथ बोलूंगी वंदे मातरम’

VIDEO : जब मुफ्ती से एंकर ने कहा, ‘मैं फख्र के साथ बोलूंगी वंदे मातरम’

VIDEO : जब मुफ्ती से एंकर ने कहा, 'मैं फख्र के साथ बोलूंगी वंदे मातरम'
बहस के दौरान मुफ्ती एजाज अरशद कासमी ने बोले अपशब्द.

नई दिल्ली : बिहार में नई सरकार बनने के साथ ही नया विवाद जुड़ गया है. दरअसल बिहार के अल्पसंख्यक मंत्री खुर्शीद आलम उर्फ फिरोज अहमद ने ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने को लेकर रविवार को माफी मांगी. खुर्शीद आलम ने ऐसा यह नारा लगाने पर मुस्लिम समुदाय द्वारा धमकी मिलने और अपने खिलाफ एक फतवा जारी होने के बाद किया. इसी मुद्दे पर ZEE NEWS के ‘शो ताल ठोक’ के दौरान बेहद तल्ख बहस हो गई. बहस के दौरान मुफ्ती एजाज अरशद कासमी, सदस्य एआईएमपीएलबी ने मुस्लिम टीवी एंकर रुबिका लियाकत अली को अपशब्द कहे. इस पर रुबिका ने मुफ्ती को सधे हुए अंदाज में जवाब देकर उनकी बोलती बंद कर दी.

बहस में शामिल अंबर जैदी को एआईएमआईएम के तरफ से शामिल प्रवक्ता सैयद आसिम वकार ने अपशब्द कहे इसके जवाब में रुबिका ने ये कह दिया कि ये मदरसा नहीं है. इतना कहते ही मुफ्ती भड़क गए और रुबिका और अंबर पर जमकर व्यक्तिगत हमला करने लगे.  इसके बाद रुबिका ने जोर देकर कहा कि मैं फख्र के साथ वंदे मातरम कहूंगी.

ज़ी न्यूज़ डेस्क

source : http://zeenews.india.com/hindi/india/video-during-the-debate-anchor-said-to-mufti-i-will-speak-with-pride-vande-mataram/334886

तारिक फतेह ने जय श्री राम लिख कर किया ट्वीट, बोले- जाओ जो उखाड़ना है उखाड़ लो

तारिक फतेह ने जय श्री राम लिख कर किया ट्वीट, बोले- जाओ जो उखाड़ना है उखाड़ लो

तारिक फतेह ये ट्वीट सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।

तारिक फतेह। फोटो सोर्स- यूट्यूब

बिहार विधानसभा में नीतीश सरकार के अल्पसंख्यक मंत्री खुर्शीद उर्फ फिरोज अहमद द्वारा ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने पर कूब हंगामा मचा। खुर्शीद उर्फ फिरोज अहमद के खिलाफ तो फतवा तक जारी हो गया। जय श्री राम बोलने को लेकर इस्लामी संस्था इमारत-ए-शरिया ने फतवा जारी करते हुए उन्हें इस्लाम से खारिज कर दिया था। हालांकि फिर बाद में सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने के बाद उनके खिलाफ जारी किया गया फतवा वापस ले लिया गया। जय श्री राम बोलने पर मचे इस घमासान के बीच मशहूर मुस्लिम लेखक तारिक फतेह ने ट्वीट करते हुए जय श्री राम लिखा। जय श्री राम लिखने के साथ ही इस पर आपत्ति जताने वाले मुसलमानों को तारिक ने ये भी लिखा कि अब जाओ..जो उखाड़ना है उखाड़ लो। कारिक फतेह का ये ट्वीट उस वक्त आया जब मीडिया में खबर फैली कि इस्लाम से निकालने का फतवा जारी होने के बाद नीतीश सरकार के मंत्री खुर्शीद अहमद ने इसपर माफी मांगी है। तारिक फतेह का ये ट्वीट सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। ट्वीट करने के महज चंद घंटों में ही इसे दो दजार से ज्यादा बार रिट्वीट किया जा चुका  है।

Tarek Fatah 

@TarekFatah

“Jai Shree Ram”

Abb jao, Jo ukharna hai, ukhar lo.

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तारिक फतेह के ट्वीट को काफी पसंद किया जा रहा है। बहुत से मुस्लिम यूजर्स तारिक के इस ट्वीट की सराहना करते हुए लिख रहे हैं कि जिन लोगों को मजहब के नाम पर समाज में दीवार खड़ी करनी है वो करते रहें, हमें तो जय श्री राम बोलने में कोई परेशानी नहीं है। हिंदू यूजर्स भी तारिक के इस ट्वीट को सराह रहे हैं।

Tarek Fatah 

 @TarekFatah

“Jai Shree Ram”

Abb jao, Jo ukharna hai, ukhar lo.

A proud Muslim and Pakistani, Jai Shri Ram!
It has cost me nothing to set a smile over several faces!

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“Jai Shree Ram”

Abb jao, Jo ukharna hai, ukhar lo.

ईश्वर अल्लाह तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान…

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“Jai Shree Ram”

Abb jao, Jo ukharna hai, ukhar lo.

Jai Shree Ram ! Ram is embodiment of righteousness in Hindu Puran. Victory to righteousness means Jai Shree Ram !

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“Jai Shree Ram”

Abb jao, Jo ukharna hai, ukhar lo.

Ram ji apko lambi zindagi de. Jay hind

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कुछ मुस्लिम यूजर्स ऐसे भी हैं जो उर्दू भाषा में नफरत भरी बातें लिख रहे हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ खुद तारिक फतेह ने मोर्चा खोल रखा है। तारिक इस तरह के ट्वीट्स को रिट्वीट कर उनको सबक सिखाने का काम कर रहे हैं।

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Hi @Dhume, here is an example. Perhaps you can tell fellow Indians what this Muslim says about Hindus in Urdu.

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आपको बता दें कि तारिक फतेह मशहूर लेखक और पत्रकार हैं। तारिक मूल रूप से पाकिस्तान के कराची के हैं। तारिक इस्लामी अतिवाद के खिलाफ बोलने और एक उदारवादी इस्लाम के पक्ष को बढ़ावा देने के लिये प्रसिद्ध है |

source :http://www.jansatta.com/trending-news/tarik-fateh-slams-hate-mongers-over-chanting-jai-shri-ram-slogan/390277/

हदीस : गैर-मुसलमानों के लिए काबा बंद

गैर-मुसलमानों के लिए काबा बंद

इस्लाम-पूर्व दिनों में काबा सबके लिए खुला रहता था, चाहे वे अल्लाह के आराधक हों या अल-लात के। पर मुहम्मद द्वारा मक्का-विजय के बाद वह मुसलमानों के सिवाय सब के लिए बंद कर दिया गया। मुहम्मद की ओर से ऐलान किया गया-”इस साल के बाद कोई बहुदेववादी तीर्थयात्रा नहीं कर सकता“ (3125)। यह खुद अल्लाह का हुक्म था। कुरान का कथन है-”ऐ मोमिनो ! वे जो अल्लाह के साथ किसी और को जोड़ते हैं, वे नापाक हैं। और इसीलिए इस साल से लेकर आगे उन्हें पवित्र पूजाघर के पास नहीं जाना चाहिए“ (9/28)1।

 

अधिकांश धर्मपंथ अपने आराध्य देवों के लिए भवन या मंदिर अपनी स्वयं की मेहनत से बनाते हैं। लेकिन इस्लाम अपने आराध्यदेव अल्लाह के लिए दूसरों के मन्दिर हथियाता है। इन दो प्रकार के पूजाघरों में प्रबल अन्तर है। किसी भी सम्यक् आराध्यदेव का सार्थक आवास वही हो सकता है, जो उसके अनुयायियों द्वारा अपने हृदय में भरी प्रीति-भावना से एवं अपने हाथों के परिश्रम से बनाया गया हो। कोई भी अन्य आवास साम्राज्यवादी लिप्सा और विस्तारवाद का ही स्मारक होता है और ऐसा आवास विशुद्ध मानस वालों के आराध्यदेवों द्वारा कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।

 

  1. मुहम्मद और बहुदेववादियों के बीच एक समझौता हुआ था कि दोनों में से किसी को भी मंदिर से दूर नहीं रखा जायेगा और पवित्र महीनों में उसमें आने-जाने के लिए एक को दूसरे के हस्तक्षेप का कोई डर नहीं होना चाहिए। पर अल्लाह के पास से ”छूट“ आई और मुहम्मद को उनके पक्ष के इकरार से मुक्त कर दिया गया, “अल्लाह बुतपरस्ती के साथ किए गए इकरार से मुक्त है और इसीलिए उसके रसूल भी मुक्त हैं।“ दूसरों को चार महीने दिये गए कि या तो अपना रास्ता बदलो या मौत का मुकाबला करो। मुसलमानों से कहा गय कि ”जब पवित्र महीने बीत जाएं, तब बुतपरस्तों को जहां पाओ, वहीं कत्ल करो और उन्हें पकड़ लो और घेर लो और उनके लिए प्रत्येक प्रकार की घात लगाओ ….. लो ! अल्लाह माफ करने वाला और दया करने वाला है“ (कुरान 9/5)। मुसलमान सोचते थे कि अगर गैर-मुसलमानों को मक्का-प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई, तो उनके व्यापार पर असर पड़ेगा। अतः मुहम्मद ने ”बाजार बंद होने से जो खोने का तुम्हें डर है, उसके मुआवजे के रूप में, यहूदियों पर एक चुंगी-कर का प्रस्ताव रखा-ऐसा इब्न इसहाक बतलाते हैं (सीरत रसूल अल्लाह, 620)। कुरान की प्रासंगिक आयते हैं-”अगर तुम्हें गरीबी का डर है, तो अल्लाह अपनी कृपा से तुम्हें समृद्ध करेगा। ….. उनके खिलाफ जिन्हें किताब दी गई है, और जो अल्लाह पर यकीन नहीं लाते ….. और जो सच्चे मजहब को स्वीकार नहीं करते, तब तक लड़ो जब कि वे अधीनता स्वीकार करके जजिया न देने लगे और तुच्छ बनकर न रहने लगे“ (9/28, 29)।

author : ram swarup

आर्यसमाजी हूँ

आर्यसमाजी हूँ

जब पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा ने कश्मीर के शास्त्रार्थ में पादरी जॉनसन को परास्त किया तो सर्वत्र उनका जयजयकार होने लगा। उस समय शास्त्रार्थ के सभापति स्वयं महाराजा प्रतापसिंह थे।

महाराजा ने प्रेम से पण्डितजी से पूछा-कहो गणपति शर्मा! तुज़्हारे जैसा विद्वान् आर्यसमाजी कैसे हो गया? ज़्या सचमुच तुम आर्यसमाजी हो? ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि सज़्भव है महाराजा ने सोचा हो कि मेरे प्रश्न के उज़र में पण्डितजी कह देंगे कि मैं आर्यसमाजी नहीं हूँ।

पूज्य पण्डितजी पेट-पन्थी पोप नहीं थे। नम्रता से, परन्तु सगर्व बोले, ‘‘हाँ, महाराज! मैं हूँ तो आर्यसमाजी।’’

उस सच्चे ब्राह्मण के यशस्वी, तपस्वी जीवन से प्रभावित होकर ही तो, महाकवि ‘शंकर’ जी ने लिखा था- पैसों के पुजापे पानेवाले को न पूजते हैं, पूज्य न हमारे लंठ लालची लुटेरे हैं।

पोंगा पण्डितों की पण्डिताई के न चाकर हैं, ज्ञानी गणपति की-सी चातुरी के चेरे हैं॥