Category Archives: हिन्दी

हदीस : व्यापारिक सौदे, विरासत, भेंट-उपहार, वसीयतें, प्रतिज्ञाएं और क़समें

व्यापारिक सौदे, विरासत, भेंट-उपहार, वसीयतें, प्रतिज्ञाएं और क़समें

नौंवी किताब ”व्यापारिक सौदों की किताब“ (अल-घुयु) हैं। स्मरणीय है कि पैग़म्बर बनने से पहले मुहम्मद एक सौदागर थे। इसलिए इस विषय पर उनके विचार दिलचस्प होने चाहिए।

author : ram swarup

लाला लाजपतरायजी भी फँसाये गये

लाला लाजपतरायजी भी फँसाये गये

उन्नीसवीं शताज़्दी के अन्त में बीकानेर में अकाल पड़ा था। आर्यसमाज ने वहाँ प्रशंसनीय सेवाकार्य किया। लाला लाजपतरायजी ने आर्यवीरों को मरुभूमि राजस्थान में अनाथों की रक्षा व पीड़ितों की सेवा के लिए भेजा। विदेशी ईसाई पादरी आर्यों के उत्साह और सेवाकार्य को देखकर जल-भुन गये। अब तक वे भारत में बार-बार पड़नेवाले दुष्काल के परिणामस्वरूप अनाथ होनेवाले बच्चों को ईसाई बना लिया करते थे।

विदेशी ईसाई पादरियों ने लाला लाजपतराय सरीखे मूर्धन्य देश-सेवक व आर्यनेता पर भी अपहरण का दोष लगाया और अभियोग चलाया। सोना अग्नि में पड़कर कुन्दन बनता है। यह

विपदा लालाजी तथा आर्यसमाज के लिए एक ऐसी ही अग्निपरीक्षा थी।

हदीस : मुहम्मद के वंशजों के लिए सम्यक् पाठ्यसामग्री

मुहम्मद के वंशजों के लिए सम्यक् पाठ्यसामग्री

हम विवाह और तलाक की किताब को उसकी एक आखिरी हदीस का उद्धरण देकर समाप्त करते हैं। हदीस का विषय भिन्न है, पर दिलचस्प है। पैग़म्बर के दामाद अली कहते हैं-”वह जो मानता है कि (पैग़म्बर के परिवार के लोग) अल्लाह की किताब और सहीफा (एक छोटी पुस्तिका अथवा परचा जो उनकी तलवार की म्यान के साथ बंधा रहता था) के सिवाय कुछ और भी पढ़ते हैं, वह झूठ बोलता है। सहीफा में ऊंटों के युगों से संबंधित कुछ मसलों पर और नुक्सानों की क्षतिपूर्ति पर समाधान है और साथ ही इसमें पैग़म्बर के शब्द भी दर्ज हैं …… वह जो किसी नए आचार का प्रवर्तन करता है अथवा किसी प्रवर्तन करने वाले को सहायता देता है उस पर अल्लाह की ओर से और उनके फ़रिश्तों की ओर से और सारी मानवजाति की ओर से लानत है“ (3601)।

author : ram swarup

सारा कुल आर्यसमाज के लिए समर्पित था

सारा कुल आर्यसमाज के लिए समर्पित था

लाहौर में एक सज़्पन्न परिवार ने आर्यसमाज की तन-मन-धन से सेवा करने का बड़ा गौरवपूर्ण इतिहास बनाया। इस कुल ने आर्यसमाज को कई रत्न दिये। पण्डित लेखरामजी के युग में यह

कुल बहुत प्रसिद्ध आर्यसमाजी था, इससे मेरा अनुमान है कि ऋषिजी के उपदेशों से ही यह परिवार आर्य बना होगा।

इस कुल ने आर्यसमाज को डॉज़्टर देवकीनन्द-जैसा सपूत दिया। डॉज़्टर देवकीनन्दन ऐसे दीवाने हैं जिन्होंने सत्यार्थप्रकाश के प्रथम उर्दू अनुवाद की विस्तृत विषयसूची तैयार की। स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ तथा पण्डित युधिष्ठिरजी मीमांसक द्वारा सज़्पादित सत्यार्थप्रकाश के संस्करणों में तो कई प्रकार के परिशिष्ट तथा विषयसूचीयाँ दे रखी हैं। इन दो प्रकाशनों से पूर्व सत्यार्थप्रकाश की इतनी उपयोगी तथा ठोस विषय-सूची किसी ने तैयार न की। डॉज़्टर देवकीनन्दजी की बनाई सूची 18-19 पृष्ठ की है। हिन्दी में तो 30 पृष्ठ भी बन सकते हैं। इससे पाठक अनुमान लगा लें कि वह कितने लगनशील कार्यकर्ज़ा थे। एक डॉज़्टर इतना स्वाध्याय-प्रेमी हो यह अनुकरणीय बात है।

इसी कुल में डॉज़्टर परमानन्द हुए हैं। आप विदेश से dental surgeon बनकर आये। पैतृक सज़्पज़ि बहुत थी, किसी और काम की काई आवश्यकता ही न थी। दिन-रात आर्यसमाज की सेवा ही उनका एकमात्र काम था। आप आर्यप्रतिनिधि सभा के उपप्रधान भी रहे।

आपने लाहौर में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के लिए बहुत सज़्पज़ि बना दी। इससे सभा का गौरव बढ़ा और साधन भी बढ़े।

आर्यजगत् में आप बहुत पूज्य दृष्टि से देखे जाते थे। वे न लेखक थे और न वक्ता, परन्तु बड़े कुशल प्रबन्धक थे। उन्हें प्रायः आर्यसमाज के उत्सवों पर प्रधान बनाया जाता था। प्रधान के रूप में सभा का संचालन बड़ी उज़मता से किया करते थे। आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाब के प्रथम वेदप्रचार अधिष्ठाता वही थे। वेदप्रचार निधि उन्हीं की चलाई हुई है। जब समाजें सभा से उपदेशक माँगती तो डॉज़्टर परमानन्द उनसे कुछ राशि माँगते थे। धीरे-धीरे समाजें अपने-आप सभा को वेदप्रचार निधि के लिए राशि देने लग पड़ीं।

अन्तिम दिनों में उन्हें शरीर में पीड़ा रहने लगी। वे चारपाई पर लेटे-लेटे भी आर्यसमाज की सेवा करते रहते। दूरस्थ स्थानों से आर्यभाई उनके पास प्रचार की समस्याएँ लेकर आते और वे सबके

लिए प्रचार की व्यवस्था करवाते थे। बड़े-छोटे आर्यों का आतिथ्य करने में उन्हें आनन्द आता था।

इस कुल में श्री धर्मचन्दजी प्रथम श्रेणी के चीफ कोर्ट के वकील हुए हैं। आप डॉज़्टर परमानन्दजी के भतीजे और श्री मुकन्दलालजी इंजीनियर के सुपुत्र थे। आप वर्षों पंजाब प्रतिनिधि सभा के कोषाध्यक्ष रहे। आपने सभा की सज़्पज़ि की बहुत सँभाल की। पंजाब भर से किसी भी आर्यभाई को लाहौर में वकील की आवश्यकता पड़ती तो श्री धर्मचन्द सेवा के लिए सहर्ष आगे आ

जाते। वे सबकी खुलकर सहायता करते।

वे चरित्र के धनी थे। निर्भीक, निष्कपट, सिद्धान्तवादी पुरुष थे। अज़्दुलगफूर जब धर्मपाल बनकर आर्यसमाज में आया तो वह डॉज़्टर चिरञ्जीवजी की कोठी में रहने लगा। उसे आर्यसमाज में जो अत्यधिक मान मिला, वह इसे पचा न सका। उसका व्यवहार सबको अखरने लगा। उसे कहा गया कि वह कोठी से निकल जाए। उसने डॉज़्टर चिरञ्जीवजी भारद्वाज के बारे में अपमानजनक लेख दिये।

कुछ मित्रों का विचार था कि उसे न्यायालय में बुलाया जाए। कुछ कहते थे कि इससे वह पुनः मुसलमान हो जाएगा। इससे आर्यसमाज का अपयश होगा। श्रीधर्मचन्दजी का मत था चाहे कुछ

भी हो पापी धर्मपाल को उसके किये का दण्ड मिलना ही चाहिए। मानहानि का अज़ियोग लज़्बे समय तक चला। पाजी धर्मपाल अभियोग में हार गया। सत्य की विजय हुई। धर्मपाल को लज्जित होना पड़ा। उसे मुँह छिपाना पड़ा।

श्री धर्मचन्दजी वकील युवा अवस्था में ही चल बसे। वे आर्यसमाज के कीर्ति-भवन की नींव का एक पत्थर थे।

हदीस : गुलामी के अपने फायदे भी हैं

गुलामी के अपने फायदे भी हैं

कहने और करने की बातें अलग रहीं, गुलामी को कोई बड़ा अभिशाप नहीं माना गया। उस स्थिति के अपने फायदे हैं। ”जब एक गुलाम अपने मालिक का कल्याण चाहता है और अल्लाह की इबादत करता है तब उसके लिए दो इनाम तय हो जाते हैं“ (4097)।

author : ram swarup

वेदों में मांसाहार: गौरव आर्य

ved me mansahar

 

जी हाँ बिलकुल सही शीर्षक है मुसलमानों को अत्यंत लुभावना लगता होगा यह शीर्षक पढ़कर मुझे भी लगता है में जब भी ऐसे शीर्षक पढ़ता हूँ मुझे प्रसन्नता होती है और विश्वास बिना पढ़े पहले ही हो जाता है की अब मुझे मुसलमानों और वामियों की मुर्खता पढने को मिलेगी और यही होता है, चलिए आप भी पढ़िए और आनन्द उठाइये और सोशल मिडिया पर हर तरफ भेजिए जिससे इन मूर्खों का पर्दाफास हो सके

मांसाहार के समर्थक मुसलमान, वामपंथी और जिह्वा स्वाद के आगे बेबस हिन्दू सनातन धर्म पर मांस भक्षण का आरोप लगाते है और ऐसे ऐसे प्रमाण देते है जिनमें सच्चाई १% भी नहीं होती वेसे तो इन आरोपों में इनकी बुद्धि बिलकुल नहीं होती है क्यूंकि जो कौम भेड़चाल की आदि हो जो परजीवियों सा व्यवहार करें वह कौम दूसरों के लगाये आरोपों का ही उपयोग कर अपनी वाहवाही करवाने में लगी रहती है

 

ऐसे ही कुछ मूर्खों का पाला हमसे पड़ा जिनके आरोप पढ़कर हंसी आती है

चलिए आपको कुछ आरोप और उनके प्रति हमारे (पण्डित लेखराम वैदिक मिशन द्वारा) दिए जवाबों से आपको भी अवगत करवाते है

 

मुस्लिम:- जो लोग इस्लाम मे जानवरोँ की कुर्बानी की आलोचना करते हैं उन्हें अपने वेदों को भी पढ लेना चाहिए :-

वेदों मे मनुष्य बलि का जिक्र :-

देवा यदयज्ञ————पुरूषं पशुम।।
यजुर्वेद ( 31 / 15)
अर्थात : = देवताओं ने पुरूषमेध किया और पुरूष नामक पशु वध का किया ।

 

सनातनी:- पहले तो सच सच बताना ये अर्थ करने वाला गधा कौन था यदि भाष्य करना इतना सरल होता तो आज गल्ली गल्ली जेसे पंक्चर वाले बैठे है वेसे ही भाष्यकार बैठे होते

मुसलमानों की यही कमी है की इनका दिमाग घुटनों में होता है

देवा यद्यज्ञं आया तो मतलब देवताओं ने यज्ञ किया पुरुषं आया तो ! ओह हा पुरुषमेध यज्ञ किया, पशुम आया तो अच्छा पुरुष नाम का पशु था |

सच में तुम लोगों की मुर्खता का कोई सानी नहीं है

http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=31&mantra=15

इस लिंक पर जाकर सही अर्थ पढो मूर्खों कही भी मनुष्य हत्या जैसी बात नहीं है

मुस्लिम:- कोई इस वेद भाष्य को गलत साबित करके दिखाए ।

सनातनी:- लो कर दिया गलत साबित जाओ कुछ नया लाओ मूर्खों

मुस्लिम:- हिंदू धर्म ग्रंथो मे एक भी धर्म ग्रंथ ऐसा नही है जहां जीव हत्या और कुर्बानी का जिक्र मौजूद ना हो पढो :-

वेद , महाभारत , मनुस्मृति, रामायण मे मांस भक्षण और जीव हत्या :-

1 जो मांस नहीं खाएगा वह 21 बार पशु योनी में पैदा होगा-मनुस्मृति (5/35)

सनातनी:- यह श्लोक प्रक्षिप्त है यानी बाद में मिलाया हुआ है मनु प्राणी मात्र की हत्या के विरोधी थे, यह मिलावट सनातन धर्म को और महाराज मनु के लिखे संविधान को समाप्त करने के उद्देश्य से किया गया वामपंथियों का काम है

 

मुस्लिम:- 2 यजुर्वेद (30/15) मे घोडे की बलि कुर्बानी की जाती थी ।

सनातनी:- पुरे मन्त्र में घोडा गधा नहीं दिखा
लगता है जाकिर नाइक के गुण आ गये है जिसे वेदों में हर जगह मोहम्मद दिखता है लिंक देखो पूरा भाष्य पदार्थ के अर्थ सहित

http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=30&mantra=15

मुस्लिम:- रामायण मे राम और दशरथ द्वारा हिरण का शिकार और मांस भक्षण देखे 🙁 वाल्मिकी रामायण अयोध्या कांड (52/89) गीता प्रेस गोरखपुर प्रकाशन )

सनातनी:- अयोध्याकाण्ड में किसी हिरण को मारने और मांस भक्षण का प्रमाण नहीं

हाँ एक बार जंगली हाथी को मारने के प्रयास में गलती से बाण एक मनुष्य को अवश्य लगा जिसका राजा दशरथ को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने उस कर्म को अपना पाप माना और उसी पाप के फलस्वरूप उन्होंने अपना देह त्याग दिया

वास्तव में मूर्खों का सानी कोई नहीं अरे मूर्खों प्रमाण तो सही दिया करो
यह अरण्यकाण्ड के सताईसवे सर्ग में आया हुआ है और इसमें कही मांस भक्षण जैसी बात ही नहीं है वह हिरण भी मारीच राक्षष था जिसने हिरण का रूप धारण कर रखा था जैसे आजकल बहरूपिये रूप धारण करते है वेसे ही

मुस्लिम:- 3 ऋषि वामदेव ने कुत्ते का मांस खाया (मनुस्मृति 10/106)

सनातनी:- यह श्लोक भी प्रक्षिप्त है

मुस्लिम:- ऋग्वेद मे (1/162/10)

सनातनी:- http://www.onlineved.com/rig-ved/?language=2&mandal=1&sukt=162&mantra=10

मुस्लिम:- ऋग्वेद (1/162 /11) मे घोडे की कुर्बानी का जिक्र है ।

सनातनी:- http://www.onlineved.com/rig-ved/?language=2&mandal=1&sukt=162&mantra=11

 

इन दोनों मन्त्रों में कही घोडा नहीं है समझ नहीं आता है ये औरत के मुह वाले घोड़े खच्चर (मेराज) का असर तो नहीं रह गया अभी तक दिमाग में

ये लो मुसलमानों तुम्हारे बेसर पैर के घटिया आरोपों का जवाब

अब जाओं और कुछ नया लाओं जो तुम्हारे जीव हत्यारे मत की इज्जत बचा सके

आर्यमाज के शहीद महाशय जयचन्द्र जी

आर्यमाज के शहीद महाशय जयचन्द्र जी

मुलतान की भूमि ने आर्यसमाज को बड़े-बड़े रत्न दिये हैं। श्री पण्डित गुरुदज़जी विद्यार्थी, पण्डित लोकनाथ तर्कवाचस्पति, डॉज़्टर बालकृष्णजी, स्वामी धर्मानन्द (पण्डित धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड), पण्डित त्रिलोकचन्द्रजी शास्त्री-ये सब मुलतान क्षेत्र के ही थे। आरज़्भिक युग के आर्यनेताओं में महाशय जयचन्द्रजी भी बड़े नामी तथा पूज्य पुरुष थे। वे भी इसी धरती पर जन्मे थे। वे तार-विभाग में चालीस रुपये मासिक लेते थे। सज़्भव है वेतन वृद्धि से कुछ

अधिक मिलने लगा हो। उन्हें दिन-रात आर्यसमाज का ही ध्यान रहता था। वे आर्य

प्रतिनिधि सभा के मन्त्री चुने गये। सभा के साधन इतने ही थे कि श्री मास्टर आत्मारामजी अमृतसरी के घर पर एक चार आने की कापी में सभा का सारा कार्यालय होता था। एक बार

मास्टरजी ने मित्रों को दिखाया कि सभा के पास केवल बारह आने हैं। श्री जयचन्द्रजी ने चौधरी रामभजदज़, मास्टर आत्मारामजी आदि के साथ मिलकर समाजों में प्रचार के लिए शिष्टमण्डल भेजे। सभा की वेद प्रचार निधि के लिए धन इकट्ठा किया। सभा को सुदृढ़ किया। जयचन्द्रजी सभा कार्यालय में पत्र लिखने में लगे रहते।

रजिस्टरों का सारा कार्य स्वयं करते। इस कार्य में उनका कोई सहायक नहीं होता था।

पण्डित लेखरामजी के बलिदान के पश्चात् प्रचार की माँग और बढ़ी तो जयचन्द्रजी ने स्वयं स्वाध्याय तथा लेखनी का कार्य आरज़्भ किया। वक्ता भी बन गये। आर्यसमाज की सेवा करनेवाले इस अथक धर्मवीर को निमोनिया हो गया। इस रोग में अचेत अवस्था में लोगों ने उन्हें ऐसे बोलते देखा जैसे वे आर्यसमाज मन्दिर में प्रार्थना करवा रहे हों अथवा उपदेश दे रहे हों। श्री पण्डित विष्णुदज़जी ने उन्हें आर्यसमाज के ‘शहीद’ की संज्ञा दी।

सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१९

सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१९*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! सच्ची रामायण की समीक्षा में १९वीं कड़ी में आपका स्वागत है।पिछली कड़ियों में हमने महाराज दशरथ पर लगे आरोपों का खंडन किया था ।अब अगले अध्याय में पेरियार साहब आराम शीर्षक से भगवान श्रीराम पर 50 से अधिक अधिक बिंदुओं द्वारा आक्षेप किए हैं। अधिकांश बिंदुओं का शब्द प्रमाण ललई सिंह ने “सच्ची रामायण की चाभी” में दिया है परंतु प्रारंभिक छः बिंदुओं का कोई स्पष्टीकरण उन्होंने नहीं दिया अब भगवान श्री राम पर लगे आक्षेपों का खंडन प्रारंभ करते हैं पाठक हमारे उत्तरों को पढ़ कर आनंद लें:-
            *भगवान श्रीराम पर किये आक्षेपों का खंडन*
पेरियार साहब कहते हैं,”अब हमें राम और उसके चरित्र के विषय में विचार करना चाहिए।”
हम भी देखते हैं कि आप क्या खुराफात करते हैं भगवान श्रीराम के चरित्र संबंधी बिंदुओं का उल्लेख हम पीछे कर चुके हैं अब आपकी आक्षेपों को भी देख लेते हैं और उनकी परीक्षा भी कर लेते हैं।
*आक्षेप-१-* राम इस बात को भली भांति जानता था कि, कैकई के विवाह के पूर्व ही अयोध्या का राज्य के कई को सौंप दिया गया था यह बात स्वयं राम ने भरत को बताई थी।(अयोध्याकांड १०७)
*समीक्षा-* हम दशरथ के प्रकरण के प्रथम बिंदु के उत्तर में ही सिद्ध कर चुके हैं कि आप का यह दिया हुआ श्लोक प्रक्षिप्त है अतः इसका प्रमाण नहीं माना जा सकता। श्रीराम जेष्ठ पुत्र होने के कारण ही राजगद्दी के अधिकारी थे।
इस रिश्ते में हम पहले ही स्पष्टीकरण दे चुके हैं।
*आक्षेप-२-* राम को अपने पिता ,कैकई व प्रजा के प्रति सर्वप्रिय व्यवहार अच्छा स्वभाव एवं शील केवल राजगद्दी की अन्याय से छीन लेने के लिए दिखावटी था ।इस प्रकार राम सब की आस्तीन का सांप बना हुआ था।
*समीक्षा-* जरा अपनी बात का प्रमाण तो दिया होता वाह महाराज! यदि श्रीराम का शील स्वभाव सद्व्यवहार बनावटी था तो ,महर्षि वाल्मीकि ने उनका जीवन चरित्र रामायण के रूप में क्यों लिखा? हम पहले भरपूर प्रमाण दे चुके हैं कि श्री राम के मर्यादा युक्त चरित्र को आदर्श मानकर उसका अनुसरण करने के लिए ही रामायण की रचना की गई है। आता आपका उन्मत्त प्रलाप बिना प्रमाण की खारिज करने योग्य है। श्रीराम को अन्याय से राजगद्दी छीनने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी; ज्येष्ठ पुत्र होनअस्तु।
ारण, प्रजा राजा ,मंत्रिमंडल एवं जनपद राजाओं की सम्मति से ही वे राजगद्दी के सच्चे अधिकारी थे। कहिए महाशय यदि उनका शील स्वभाव केवल राजगद्दी के लिए ही था तो वह 14 वर्ष के वनवास में क्यों गए? यदि उनका स्वभाव झूठा था तो अयोध्या के वासी उनके पीछे-पीछे उन्हें वन जाने से रोकने के लिए क्यों गए? यदि उन्हें राज्य प्राप्त करने की ही लिप्सा थी, महाराज दशरथ के कहने पर कि “तुम मुझे बंदी बनाकर राजगद्दी पर अपना अधिकार जमा लो” रामजी ने ऐसा क्यों नहीं किया? आस्तीन  का सांप! मिथ्या आरोप लगाते हुए शर्म तो नहीं आती !ज़रा प्रमाण तो दिया होता जिससे रामजी आस्तीन के सांप सिद्ध होते! आस्तीन का सांप भला प्रजा,मंत्रिमंडल तथा माताओं,जनपद सामंतों का प्यारा कैसे हो सकता है? आपका आंख से बिना प्रमाण के व्यर्थ है।
*आक्षेप-३-* भरत की अनुपस्थिति में अपने पिता द्वारा राजगद्दी के मिलने के प्रपंचों से राम स्वयं संतुष्ट था।
*समीक्षा-* यह बात सर्वथा झूठ है। श्रीराम को राजगद्दी देने में कोई प्रपंच नहीं किया गया उल्टा मूर्खतापूर्ण वरदान मांग कर कैकेयी ने प्रपंच रचा था। ज्येष्ठ पुत्र होने से श्रीराम सर्वथा राज्य के अधिकारी थे और भारत को राजगद्दी मिले ऐसा कोई वचन दिया नहीं गया था- यह हम सिद्ध कर चुके हैं। श्रीराम संतुष्ट इसीलिए थे क्योंकि महाराज की आज्ञा से उनका राज तिलक किया जाना था। राजतिलक की घोषणा और वनवास जाते समय दोनों ही स्थितियों में श्रीराम के मुख मंडल पर कोई फर्क नहीं पड़ा। श्रीराम वीत राग मनुष्य थे। उनको राज्य मिले या ना मिले दोनों ही स्थितियों में वे समान थे। भरत की अनुपस्थिति के विषय में हम पहले स्पष्टीकरण दे चुके हैं। श्री राम बड़े भाई थे और उन के बाद भरत को राजगद्दी मिलनी थी मनुष्य परिस्थितिवश कुछ भी कर सकता है और फिर भरत की माता कैकेई के स्वभाव को जानकर दशरथ यह जानते थे कि वह श्रीराम के राज्याभिषेक मैं अवश्य कोई विघ्न खड़ा करेगी और भारत के लिए राजगद्दी की मांग करेगी, भले ही यह भारत की इच्छा के विरुद्ध ही क्यों न हो। अस्तु।
*आक्षेप-४-* कहीं ऐसा ना हो कि राजगद्दी मिलने के मेरे सौभाग्य के कारण लक्ष्मण मुझसे ईर्ष्या तथा द्वेष करने लगे इस बात से हटकर राम ने लक्ष्मण को खासकर उससे मीठी-मीठी बातें कह कर उससे कहा कि-” मैं केवल तुम्हारे लिए राजगद्दी ले रहा हूं किंतु अयोध्या का राज्य वास्तव में तुम ही करोगे ।”अतः मैं राजा बन जाने के बाद राम ने लक्ष्मण से राजगद्दी के विषय में कोई संबंध नहीं रखा। (अयोध्याकांड ४ अध्याय)
*समीक्षा-* यह बात सत्य है कि श्रीराम ने उपरोक्त बात कही थी परंतु इसका यह अर्थ नहीं की उसके बाद उनका भ्रातृ प्रेम कम हो गया था। आप ने रामायण पढ़ी ही नहीं है और ऐसे ही मन माने आक्षेप जड़ दिए। श्री राम केवल अपने लिए नहीं बल्कि अपने बंधु-बांधवों के लिए ही राजगद्दी चाहते थे। लीजिये प्रमाणों का अवलोकन कीजिए:-
लक्ष्मणेमां मया सार्द्धं प्रशाधि त्वं वसुंधराम् ।
द्वितीयं मेंऽतरात्मानं त्वामियं श्रीरुपस्थिता ॥ ४३ ॥
‘लक्ष्मण ! तुम मेरे साथ इस पृथ्वीके राज्यका शासन (पालन) करो।तुम मेरे द्वितीय अंतरात्मा हो। ये राजलक्ष्मी तुमको ही प्राप्त हो रही है ॥४३॥
सौमित्रे भुङ्‍क्ष्व भोगांस्त्वमिष्टान् राज्यफलानि च ।
जीवितं चापि राज्यं च त्वदर्थमभिकामये ॥ ४४ ॥
‘सुमित्रानंदन ! (सौमित्र !) तुम अभीष्ट भोग और राज्यका श्रेष्ठ फल का उपभोग करो। तुम्हारे लिये ही मैं जीवन कीतथा राज्यकी अभिलाषा करता हूं” ॥४४॥(अयोध्याकांड सर्ग ४)
 श्रीराम का लक्ष्मण जी के प्रति प्रेम देखिये:-
स्निग्धो धर्मरतो धीरः सततं सत्पथे स्थितः ।
प्रियः प्राणसमो वश्यो विजयेश्च सखा च मे ॥ १० ॥
‘लक्ष्मण ! तुम मेरे स्नेही, धर्म परायण, धीर-वीर तथा सदा सन्मार्गमें स्थित रहनेवाले हो। मुझे प्राणों के समान प्रिय तथा मेरे वश में रहने वाले, आज्ञापालक और मेरे सखा हो॥१०॥(अयोध्याकांड सर्ग ३१)
आपने कहा इसके बाद श्रीराम ने इस विषय का उल्लेख ही नहीं किया,जो सर्वथा अशुद्ध है,देखिये:-
धर्ममर्थं च कामं च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
इच्छामि भवतामर्थे एतत् प्रतिश्रृणोमि ते ॥ ५ ॥
’लक्ष्मण ! मैं तुमको प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि धर्म, अर्थ काम और पृथ्वीका राज्यभी मैं तुम्ही लोगों के लिये ही चाहता हूं ॥ ५ ॥
भ्रातॄणां सङ्ग्रहार्थं च सुखार्थं चापि लक्ष्मण ।
राज्यमप्यहमिच्छामि सत्येनायुधमालभे ॥ ६ ॥
’लक्ष्मण ! मैं भाइयों के संग्रह और सुख के लिये ही राज्यकी इच्छा करता हूं और यह बात सत्य है इसके लिये मैं अपने धनुष को स्पर्श करके शपथ लेता हूं॥ ६ ॥(अयोध्याकांड सर्ग ९७)
श्रीरामचंद्र ने रावणवध के बाद अयोध्या लौटकर अपने भाइयों सहित राज्य किया,देखिये:-
सर्वे लक्षणसम्पन्नाः सर्वे धर्मपरायणाः ।
दशवर्षसहस्राणि रामो राज्यमकारयत् ॥ १०६॥
भाइयोंसहित श्रीमान्‌ रामजी ने ग्यारह सहस्र(यहां सहस्र का अर्थ एक दिन से है,यानी =लगभग तीस ) वर्षोंतक राज्य किया ॥१०६॥(युद्धकांड सर्ग ११८)
 अब हुई संतुष्टि?अब तो सिद्ध हो गया कि श्रीराम की प्रतिज्ञा कि ,”मैं अपने भाइयों के लि़े ही राज्य कर रहा हूं,दरअसल लक्ष्मण सहित वे ही राज करेंगे” सर्वथा सत्य है और आपका आक्षेप बिलकुल निराधार ।
*आक्षेप-५-* राज तिलकोत्सव सफलतापूर्वक संपन्न हो जाने में राम के हृदय में आद्योपांत संदेह भरा रहा था।
*समीक्षा-* श्रीराम के हृदय में राज तिलक उत्सव सफलतापूर्वक हो जाने में संदेश भरा था-इसका उल्लेख रामायण में कहीं नहीं है। आपको प्रमाण देकर प्रश्न करना था ।बिना प्रमाण लिए आपका आपसे निराधार है ।यदि श्रीराम के मन में संदेह था वह भी इससे उन पर क्या अक्षेप आता है?
*आक्षेप-६-* जब दशरथ ने राम से कहा कि राजतिलक तुम्हें न किया जायेगा,तुम्हें वनवास जाना पड़ेगा -तब राम ने गुप्त रुप से शोक प्रकट किया था।(अयोध्याकांड अध्याय १९)
*समीक्षा-* झूठ ,झूठ ,झूठ !!एक दम सफेद झूठ बोलते हुए आपको लज्जा नहीं आती? अध्याय यानी सर्ग(१३)का पता लिखने के बाद भी आप की कही हुई बात वहां बिल्कुल भी विद्यमान नहीं है।वनवास जाने की बात महाराज दशरथ ने श्रीराम को प्रत्यक्ष नहीं कही थी, अपितु कैकेई के मुंह से उन्हें इस बात का पता चला था और मैं तुरंत वनवास जाने के लिए तैयार हो गए थे।
उस समय श्रीराम ने कोई शोक प्रकट नहीं किया,अपितु वीतराग योगियों की भांति उनके चेहरे पर शमभाव था,देखिये प्रमाण:-
न चास्य महतीं लक्ष्मीं राज्यनाशोऽपकर्षति ।
लोककान्तस्य कान्तत्वाच्छीतरश्मेरिव क्षयः ॥ ३२ ॥
श्रीराम अविनाशी कांतिसेे युक्त थे इसलिये उस समय राज्य न मिलने के कारण उन लोककमनीय श्रीरामकी महान शोभा में कोई भी अंतर पड़ नहीं सका।जिस प्रकार चंद्रमाके क्षीण होने से उसकी सहज शोभाका अपकर्ष नहीं हो ॥३२॥
न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुंधराम् ।
सर्वलोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया ॥ ३३ ॥
वे वन में जाने के लिये उत्सुक थे और सारी पृथ्वीके राज्य त्याग रहे थे, फिर भी उनके चित्तमें सर्वलोक से जीवन्मुक्त महात्मा के समान कोई भी विकार दिखाई नहीं दिया ॥३३॥(अयोध्याकांड सर्ग १९)
देखा हर राज्य मिले या नहीं, परंतुश्री राम की शोभा में कोई फर्क नहीं था।उनको बिलकुल शोक नहीं हुआ था।सर्ग का पता लिखकर भी ऐसा सफेद झूठ लिखना भी एकदम वीरता है।पेरियार साहब ने जनता की आंख में धूल झोंकने की कोशिश की है।
…………क्रमशः ।
पाठक महाशय!पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें। अगले लेख में आगे के ७ आक्षेपों का उत्तर लिखा जायेगा।आपके समर्थन के लिये हम आपके आभारी हैं।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र कीजय।।
।।योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्रकी जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : अन्य असमर्थताएं

अन्य असमर्थताएं

आजाद हो जाने पर भी गुलाम अनेक असमर्थताओं का शिकार रहता है। वह किसी नए पक्ष के साथ मैत्री नहीं कर सकता। न ही वह भूतपूर्व स्वामी की अनुमति पाए बिना किसी पक्ष को मैत्री का प्रस्ताव पठा सकता है। ”जो कोई किसी गुलाम से उसके पहले के मालिक की स्वीकृति के बिना मैत्री करता है उस पर अल्लाह की और उसके फ़रिश्तों की और पूरी मानवजाति की ओर से लानत है“ (3600)।

author : ram swarup

 

श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी

श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी

आर्यसमाज के आदि काल में आर्यों के सामने एक समस्या थी। अच्छा गानेवाले भजनीक कहाँ से लाएँ। इसी के साथ जुड़ी दूसरी समस्या सैद्धान्तिक भजनों की थी। वैदिक मन्तव्यों के अनुसार

भजनों की रचना तो भक्त अर्मीचन्दजी, चौधरी नवलसिंहजी, मुंशी केवलकृष्णजी, वीरवर चिरञ्जीलाल और महाशय लाभचन्दजी ने पूरी कर दी, परन्तु प्रत्येक समाज को साप्ताहिक सत्संग में भजन गाने के लिए अच्छे गायक की आवश्यकता होती थी। नगरकीर्तन आर्यसमाज के प्रचार का अनिवार्य अङ्ग होता था। उत्सव पर नगर कीर्तन करते हुए आर्यलोग बड़ी श्रद्धा व वीरता से धर्मप्रचार किया करते थे।

पंजाब में यह कमी और भी अधिक अखरती थी। इसका एक कारण था। सिखों के गुरुद्वारों में गुरु ग्रन्थसाहब के भजन गाये जाते हैं। ये भजन तबला बजानेवाले रबाबी गाते थे। रबाबी मुसलमान ही हुआ करते थे। मुसलमान रहते हुए ही वे परज़्परा से यही कार्य करते चले आ रहे थे। यह उनकी आजीविका का साधन था।

आर्यसमाज के लोगों को यह ढङ्ग न जंचा। कुछ समाजों ने मुसलमान रबाबी रखे भी थे फिर भी आर्यों का यह कहना था कि मिरासी लोगों या रबाबियों के निजी जीवन का पता लगने पर

श्रोताओं पर उनका कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। लोग सिखों की भाँति भजन सुनना चाहते थे।

तब आर्यों ने भजन-मण्डलियाँ तैयार करनी आरज़्भ कीं। प्रत्येक समाज की अपनी-अपनी मण्डली होती थी।उज़र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब सिन्ध में सब प्रमुख समाजों ने भजन मण्डलियाँ बना लीं।

महात्मा मुंशीराम वकील, पं0 गुरुदज़जी, न्यायाधीश केवलकृष्णजी (मुंशी), महाशय शहजादानन्दजी लाहौर, चौधरी नवलसिंहजी जैसे प्रतिष्ठित आर्यपुरुष नगरकीर्तनों में आगे-आगे गाया करते थे। टोहाना (हरियाणा) के समाज की मण्डली में हिसार जिले के ग्रामीण चौधरी जब जुड़कर दूरस्थ समाजों में जसवन्तसिंह वर्माजी के साथ गर्जना करते थे तो समाँ बँध जाता था।

लाहौर में महाशय शहजादानन्दजी (स्वामी सदानन्द) को भजन मण्डली तैयार करने का कार्य सौंपा गया। वे रेलवे में एक ऊँचे पद पर आसीन थे। उन्हें रेलवे में नौकरी का समय तो विवशता में देना ही पड़ता था, उनका शेष सारा समय आर्यसमाज में ही व्यतीत होता था। नये-नये भजन तैयार करने की धुन लगी रहती। सब छोटे-बड़े कार्य आर्यलोग आप ही करते थे। समाज के उत्सव पर पैसे देकर अन्यों से कार्य करवाने की प्रवृज़ि न थी।

इसका अनूठा परिणाम निकला। आर्यों की श्रद्धा-भक्ति से खिंच-खिंचकर लोग आर्यसमाज में आने लगे। लाला सुन्दरदास भारत की सबसे बड़ी आर्यसमाज (बच्छोवाली) के प्रधान थे। आर्यसमाज

के वार्षिकोत्सव पर जब कोई भजन गाने के लिए वेदी पर बैठता तो लाला सुन्दरसजी तबला बजाते थे। जो कार्य मिरासियों से लिया जाता था, उसी कार्य को जब ऐसे पूज्य पुरुष करने

लग गये तो यह दृश्य देखकर अपने बेगाने भाव-विभोर हो उठते थे।