सारा कुल आर्यसमाज के लिए समर्पित था

सारा कुल आर्यसमाज के लिए समर्पित था

लाहौर में एक सज़्पन्न परिवार ने आर्यसमाज की तन-मन-धन से सेवा करने का बड़ा गौरवपूर्ण इतिहास बनाया। इस कुल ने आर्यसमाज को कई रत्न दिये। पण्डित लेखरामजी के युग में यह

कुल बहुत प्रसिद्ध आर्यसमाजी था, इससे मेरा अनुमान है कि ऋषिजी के उपदेशों से ही यह परिवार आर्य बना होगा।

इस कुल ने आर्यसमाज को डॉज़्टर देवकीनन्द-जैसा सपूत दिया। डॉज़्टर देवकीनन्दन ऐसे दीवाने हैं जिन्होंने सत्यार्थप्रकाश के प्रथम उर्दू अनुवाद की विस्तृत विषयसूची तैयार की। स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ तथा पण्डित युधिष्ठिरजी मीमांसक द्वारा सज़्पादित सत्यार्थप्रकाश के संस्करणों में तो कई प्रकार के परिशिष्ट तथा विषयसूचीयाँ दे रखी हैं। इन दो प्रकाशनों से पूर्व सत्यार्थप्रकाश की इतनी उपयोगी तथा ठोस विषय-सूची किसी ने तैयार न की। डॉज़्टर देवकीनन्दजी की बनाई सूची 18-19 पृष्ठ की है। हिन्दी में तो 30 पृष्ठ भी बन सकते हैं। इससे पाठक अनुमान लगा लें कि वह कितने लगनशील कार्यकर्ज़ा थे। एक डॉज़्टर इतना स्वाध्याय-प्रेमी हो यह अनुकरणीय बात है।

इसी कुल में डॉज़्टर परमानन्द हुए हैं। आप विदेश से dental surgeon बनकर आये। पैतृक सज़्पज़ि बहुत थी, किसी और काम की काई आवश्यकता ही न थी। दिन-रात आर्यसमाज की सेवा ही उनका एकमात्र काम था। आप आर्यप्रतिनिधि सभा के उपप्रधान भी रहे।

आपने लाहौर में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के लिए बहुत सज़्पज़ि बना दी। इससे सभा का गौरव बढ़ा और साधन भी बढ़े।

आर्यजगत् में आप बहुत पूज्य दृष्टि से देखे जाते थे। वे न लेखक थे और न वक्ता, परन्तु बड़े कुशल प्रबन्धक थे। उन्हें प्रायः आर्यसमाज के उत्सवों पर प्रधान बनाया जाता था। प्रधान के रूप में सभा का संचालन बड़ी उज़मता से किया करते थे। आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाब के प्रथम वेदप्रचार अधिष्ठाता वही थे। वेदप्रचार निधि उन्हीं की चलाई हुई है। जब समाजें सभा से उपदेशक माँगती तो डॉज़्टर परमानन्द उनसे कुछ राशि माँगते थे। धीरे-धीरे समाजें अपने-आप सभा को वेदप्रचार निधि के लिए राशि देने लग पड़ीं।

अन्तिम दिनों में उन्हें शरीर में पीड़ा रहने लगी। वे चारपाई पर लेटे-लेटे भी आर्यसमाज की सेवा करते रहते। दूरस्थ स्थानों से आर्यभाई उनके पास प्रचार की समस्याएँ लेकर आते और वे सबके

लिए प्रचार की व्यवस्था करवाते थे। बड़े-छोटे आर्यों का आतिथ्य करने में उन्हें आनन्द आता था।

इस कुल में श्री धर्मचन्दजी प्रथम श्रेणी के चीफ कोर्ट के वकील हुए हैं। आप डॉज़्टर परमानन्दजी के भतीजे और श्री मुकन्दलालजी इंजीनियर के सुपुत्र थे। आप वर्षों पंजाब प्रतिनिधि सभा के कोषाध्यक्ष रहे। आपने सभा की सज़्पज़ि की बहुत सँभाल की। पंजाब भर से किसी भी आर्यभाई को लाहौर में वकील की आवश्यकता पड़ती तो श्री धर्मचन्द सेवा के लिए सहर्ष आगे आ

जाते। वे सबकी खुलकर सहायता करते।

वे चरित्र के धनी थे। निर्भीक, निष्कपट, सिद्धान्तवादी पुरुष थे। अज़्दुलगफूर जब धर्मपाल बनकर आर्यसमाज में आया तो वह डॉज़्टर चिरञ्जीवजी की कोठी में रहने लगा। उसे आर्यसमाज में जो अत्यधिक मान मिला, वह इसे पचा न सका। उसका व्यवहार सबको अखरने लगा। उसे कहा गया कि वह कोठी से निकल जाए। उसने डॉज़्टर चिरञ्जीवजी भारद्वाज के बारे में अपमानजनक लेख दिये।

कुछ मित्रों का विचार था कि उसे न्यायालय में बुलाया जाए। कुछ कहते थे कि इससे वह पुनः मुसलमान हो जाएगा। इससे आर्यसमाज का अपयश होगा। श्रीधर्मचन्दजी का मत था चाहे कुछ

भी हो पापी धर्मपाल को उसके किये का दण्ड मिलना ही चाहिए। मानहानि का अज़ियोग लज़्बे समय तक चला। पाजी धर्मपाल अभियोग में हार गया। सत्य की विजय हुई। धर्मपाल को लज्जित होना पड़ा। उसे मुँह छिपाना पड़ा।

श्री धर्मचन्दजी वकील युवा अवस्था में ही चल बसे। वे आर्यसमाज के कीर्ति-भवन की नींव का एक पत्थर थे।

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