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स्वामी भास्करानंद सरस्वती

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स्वामी भास्करानन्द सरस्वती

डा. अशोक आर्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना के लगभग दो वर्ष पश्चात जन्म लेने वाले स्वामी भगवानानन्द सरस्वती के जीवन पर महर्षि के विचारो तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रभाव आवश्यक था । आप संस्कृत के उद्भट विद्वान थे । संस्कृत  का विद्वान होने के साथ ही साथ आप में उच्च कोटि की काव्य प्रतिभा भी थी ।
आप का जन्म जयपुर राज्यांतर्गत गांव भगवाना में सन १८७७ इस्वी को हुआ । आप का नाम भीमसेन रखा गया । अल्पायु में ही अर्थात जब आप मात्र आठ वर्ष के ही थे , आप के पिता जी का देहान्त हो गया । उन दिनों अल्पायु बालक को भारी कटिनाईयों का सामना करना पडा । किसी प्रकार प्राथमिक शिक्षा पाने में सफ़ल हुए तथा फ़िर जब आप सोलह वर्ष की आयु में पहुंचे तो पारिवारिक परम्परा के अनुसार संस्क्रत का ज्ञान  आवश्यक था , जिसे ग्रहण करने के लिए काशी चले गये ।
काशी उन दिनों धर्मं  का ज्ञान  प्राप्त करने का सर्वोत्तम स्थान था । उन दिनों यहां पर पं कृपा राम जी , जो बाद में स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती के नाम से विख्यात आर्य समाज के उच्चकोटि के विद्वान हुए , ने एक संस्कृत  पाठशाला  स्थापित कर रखी थी । आपने इस पाठ्शाला में ही प्रवेश लेकर संस्कृत  का ज्ञान  अर्जित करना आरम्भ किया ।

इस विद्यालय में उन दिनों एक अन्य संस्कृत  के ख्याति प्राप्त विद्वान पण्डित काशी नाथ शास्त्री जी भी शिक्षा  देने के उद्देश्य से अध्यापन कार्य कर रहे थे । एसे महान विद्वानों का सानिध्य व मार्ग दर्शन भी आप को मिला तथा इन के श्री चरणों में बैट कर आपने सिद्धान्त कोमदी तथा अष्टाध्यायी जैसे संस्कृत  के आधार ग्रन्थों का अध्ययन किया । तत्पश्चात आपने बनारस संस्क्रत कालेज में प्रवेश लिया तथा महामहोपाध्याय पं भगवानाचार्य जी से आप ने संस्कृत  का अच्छा ज्ञान  अर्जित किया । इस कालेज में आप ने लगभग सात वर्ष तक निरन्तर शिक्षा  प्राप्त की तथा खूब मेहनत से आपने संस्कृत  व्याकरण , संस्क्रत साहित्य तथा दर्शन का अच्छा ज्ञान  अर्जित कर लिया ।

स्वामी दर्शनानन्द जैसे गुरु हों और आर्य समाज का प्रभाव न हो , एसा तो सम्भव ही न था । अत: आप पर प्रतिदिन आर्य समाज की छाप गहरी ही होती चली गई । काशी में इन दिनों एक संस्कृत  विद्यालय था , जिसे आर्य संस्कृत  विद्यालय भी कहा जा सकता है । इस की स्थापना आर्य समाज दिल्ली ने की थी । यहां आप की नियुक्ति संस्कृत  अध्यापक के रूप में हुई । आप ने यहां रहते हुए अत्यधिक लगन व मेहनत से कार्य करते हुए लगभग देड वर्ष तक बच्चों को संस्कृत  का शिक्षण  दिया तथा इस के पश्चात आपने अजमेर में आकर वैदिक यन्त्रालय को अपनी सेवाएं दीं । इस यन्त्रालय की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने की थी तथा यहां से आर्य समाज का साहित्य प्रकाशित होता था तथा आज भी हो रह है । आपने यहां संशोधक के पद पर रहते हुए प्रकाशित हो रही सामग्री का संशोधन आरम्भ किया , जिसे आज की भाषा में प्रूफ़ रीडिंग भी कहते हैं ।
जिन दिनों आप की नियुक्ति अजमेर के वैदिक यन्त्रालय में हुई , उन दिनों यहां चारों वेद की संहिताओं का मूल रूप में प्रकाशन का कार्य चल रहा था । वेद प्रकाशन का यह कार्य आप ही की देख रेख में हुआ तथा इन का संशोधन का सब कार्य आप ही ने किया । अब आप ने सिकन्दराबाद की और प्रस्थान किया । यहां के गुरुकुल में आपकी नियुक्ति हुई तथा यहां पर रहते हुए अनेक वर्ष तक आपने अध्यापन का कार्य किया । यहां से आपने जिला शाहजहां पुर के तिलहर में आये तथा कुछ समय यहां कार्य करने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद  सरस्वती ने आप को आग्रह किया कि आप अपनी सेवाएं गुरुकुल कांगडी को दें । इसे आपने शिरोधार्य किया तथा हरिद्वार आकर गुरुकुल कांगडी के कार्यों में हाथ बंटाने लगे । इन दिनों गुरुकुल कांगडी में अनेक उच्चकोटि के विद्वान कार्यरत थे , जिनमें पमुख रुप से पं. नरदेव शास्त्री , पं गंगादत जी शास्त्री , पं पदमसिंह शर्मा के अतिरिक्त उस समय के गुरुकुल के आचार्य व मुख्याधिष्टता प्रो. रामदेव थे । इन से उत्पन्न विवाद के कारण आप के ह्रदय को भारी टेस पहुंची तथा आपने इसे त्याग कर गुरुकुल ज्वालापुर का दामन थाम लिया ।

पण्डित जी ने इस महाविद्यालय में रहते हुए सन १९०८ से लेकर सन १९२५ तक मुख्याध्यापक स्वरुप कार्य किया तथा इस महाविद्यालय की उन्नति में अपना योग देते रहे । यह अध्यापन व्यवसाय के रुप में आप का अन्तिम कार्य रहा तथा १९२५ में आपने इस व्यवसाय को त्याग दिया । आप के सुपुत्र पं. हरिदत शास्त्री भी आप ही की भान्ति संस्कृत  के अच्छे विद्वान थे ।
महाविद्यालय को छोड आपने संन्यास की दीक्षा  ली तथा स्वामी भास्करानन्द सरस्वती आगरा वाले के नाम से समाज सेवा के कार्यों में जुट गए । आपने आर्य समाज तहा संस्कृत  कोश को अपने लेखन कार्य से भारी बल व साहित्य दिया । आप की पुस्तकों में कुछ इस प्रकार रहीं : पण्डित आत्माराम अम्रतसरी के साथ मिल कर संस्कार चन्द्रिका , आर्य सूक्ति सुधा , काव्य लतिका , संस्क्रतांकुर, योग दर्शन, व्यास भाष्य, भोजव्रति का भाषानुवद, सर्व दर्शन संग्रह टीका आदि ।
आपने आर्य समाज के लिए खूब कार्य किया , व्याख्यान दिये तथा काव्य की भी रचना की । इस प्रकार आर्य समाज की विभिन्न प्रकार से सेवा करते हुए ९ जुलई १९२८ इस्वी को सोमवार के दिन आप ने इस नश्वर चोले को छोड दिया ।

डा. अशोक आर्य

 

मुंशी केवल कृष्ण

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मुन्शी केवल  कृष्ण 

डा अशोक आर्य

आर्य समज के आरम्भिक विद्वनों को आर्य समज के सिधान्तों तथा ऋषि  दयानन्द  जी के विचारों पर पूरी आस्था थी । इस का यह तात्पर्य नहीं  कि आज एसे विद्वान नहीं मिलते किन्तु यह सत्य है कि उस समय के विद्वान बिना किसी किन्तु परन्तु के आर्य समाज के लिए कार्य करते थे तथा सिधान्त से किंचित भी न हटते थे । एसे ही विद्वानों , एसे ही दीवानों में मुन्शी केवल कृष्ण जी भी एक थे । मुन्शी जी का जन्म मुन्शी राधाकिशन जी के यहां अश्विन पूर्णिमा १८८५ विक्रमी तद्नुसार सन १८२८ इस्वी को हुआ । इन की विरासत पटियाला राज्य के गांव छत बनूड से थी । भाव  यह है कि इन के पूर्वज बनूड के निवसी थे । परिस्थितिवश मुसलमनी शासन कल में  यह रोहतक आ कर रहने लगे ।

उस काल में मुसलमानी प्रभाव से हमारे हिन्दु लोगो में भी अनेक बुराइयां आ गई थीं । एसी ही बुराईयों के मुन्शी जी भी गुलाम हो गये थे । यह बुराईयां जो मुन्शी जी ने अपना रखी थीं , उनमें मांसाहार करना, मदिरा पान करना । इस सब के साथ ह साथ यह वैश्गयामन तक भी करने लगे थे ।

इन बुराईयों में फ़ंसे मुन्शी जी पर एक चमत्कार हुआ । हुआ यह कि इन दिनों ही स्वामी द्यानन्द सरस्वती का पंजाब में आगमन हुआ । । इन दिनों मुन्शी जी शाहपुर मे मुन्सिफ़ स्वरुप कार्य कर रहे थे । मुन्शी जी ने स्वामी जी के उपदेश सुने । इन उपदेशों पर मनन चिन्तन करने पर इन का मुन्शी जी पर अत्यधिक प्रभाव हुआ । वह स्वामी जी के उपदेशों से धुलकर शुद्ध हो गये । स्वामी  जी के प्रभाव से उन्होंने मांसाहार का सदा के लिए त्याग कर दिया , मदिरा के बर्तन उटा कर फ़ैंक दिये तथा भविष्य मे इस बुराई को भी अपने पास न आने देने का संकल्प लिया तथा वैश्यागमन , जो कि से  बडी बुराई मानी जती है , उसे भी परित्याग कर दिया । इस प्रकार स्वांमी जी के प्रभाव से मुन्शी जी शुद्ध व पवित्र हो गये ओर आर्य समाजी बन गये ।

जब कोई व्यक्ति भयानक बुराईयों को छोड कर सुपथ गामी बन जता है तो लोगो मे उस का आदर स्त्कार बट जाता है, उस की ख्यति दूर दूर तक जती है तथा जिस सधन से उसने यह दोष त्यागे होते हैं , अन्य लोग भी उसका अनुगमन करते हुए उस  पथ के पथिक बन जाते हैं । हुआ भी कुछ एसा ही ।

मुन्शी जी  ने अपने आप को आर्य समाज के सिद्धान्तों के साथ खूब टाला तथा इन्हे अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया । आप ने यत्न पूर्वक उर्दू में परंगकता प्राप्त की तथा अपने समय के उर्दू के उ च्च कोटि के कवि बन गये । आप ने आर्य समाज के सिद्धान्तो व मन्तव्यों के प्रचार के लिए अनेक कवितायें लिखीं ।

मुन्शी जी अनेक वर्ष आर्य समाज गुजरांवाला के प्रधान भी रहे । आप के ही प्रभाव  से आप के भाई नारायण  कृष्ण भी  आर्य समाज को समर्पित हो गए तथा आप के सुपुत्र  कर्ता  कृष्ण भी अपने पिता  के अनुगामी बन कर आर्य समाज के सदस्य बन गए । जिस परिवार में कभी बुराईयों के कारण सदा कलह क्लेश रहता था , वह परिवार आज उत्तमता का ,स्वर्गिक आनंद का एक उदाहरण था  ।

जब लाहोर में डी.ए.वी कालेज की स्थापना हुई , उस समय इस संस्था को चलाने के लिए धन का आभाव सा ही रहता था । इस कमीं के दिनों में आपने कालेज के सहयोगी स्वरूप एक भारी धनराशी इसे सहयोग के लिए अपनी और से दी ।

आप उर्दु के सिद्ध हस्त कवि थे किन्तु आर्य समाज मे प्रवेश से पूर्व आप ने प्रचलित परम्परा को अपनाते हुए श्रंगारिक रचनायें ही लिखीं किन्तु आर्य समाज में प्रवेश के साथ ही जहां आप ने अपने जीवन की अनेक बुराईयों का त्याग किया  , वहां अपने काव्य को भी नया रूप दिया आप ने अब शृंगार रस को सदा के लिये त्याग दिया तथा इस के स्थान पर शान्त रस को अपना लिया । अब शान्त रस के माध्यम से आप उर्दू मे काव्य की रचना करने लगे । आप ने अपने काव्य में जो विशेष शब्द , जिन्हें तखलुस कहते हैं , वह उर्दू में ” उर्फ़” होता था जब कि हिन्दी मे ” केवल ” होता था ।

मुन्शी जी ने आर्य समाज के प्रचार प्रसार में अपनी लेखनी का भी खूबह सहारा लिया तथा अनेक पुस्तकें भी लिखी तथा  दिसम्बर १९०९ को इस जीवन लीला को समप्त कर चल बसे ।ध्यान मंजूम,आर्यभिविनय मंजूम, आर्य विनय पत्रिका ,संगीत सुधाकर, भजनमुक्तवली,इन पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ एसी पुस्तकें भी लिखीं जो मांसहर आदि दुर्व्यस्नों तथा इन के परिणम स्वरुप होने वले झगडों आदि पर भी प्रकाश दलती हैं । एसी पुस्तकों में विचर पत्र, राजेसरबस्ता,हारेसदाकत या जबाबुलजुबाब आदि ।

इस प्रकर जीवन प्रयन्त  आर्य समाज की सेवा करने वाला यह दीवाना आर्य समज की सेवा करते हुए अन्त में १५ दिसम्बर १९०९ इस्वी को इस चलायमान जगत से चल बसा ।

 

पंडित काशीनाथ शास्त्री

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ओ३म

पण्डित काशीनाथ शास्त्री
डा. आशोक आर्य
पण्डित काशीनाथ शास्त्री आर्य समाज के उच्चकोटि के लेखकों व प्रचारकों में से एक थे । आप अपने जीवन का एक एक पल आर्य समाज के प्रचार व प्रसार के लिए ही लगाया करते थे । आप का जन्म गांव कोडा जहानाबाद जिला फ़तेहपुर में दिनांक १ मई १९११ इस्वी को हुआ था । आपके पिता श्री रघुनाथ जी थे ।
पण्डित जी के पिता जी अनुरूप ही द्रट सिधान्तवादी द्रट समाजी थे । पिता के विचारों का ही आप पर प्रभाव था , जिसके कारण आप न केवल आर्य हुए बल्कि सिद्धान्त वादी आर्य समाजी हुए तथा आर्य समाज के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार रहते थे ।
अपने व्यवसाय के निमित आप फ़तेह्पुर छोड कर गोंदिया ( महाराष्ट्र के विदर्भ क्शेत्र) में चले गये । गोंदिया में आप आर्य समाज के स्तम्भ थे तथा यहां रहते हुए आप ने चिकित्सा का कार्य आरम्भ किया तथा इस व्यवसाय में ही आजीवन निर्वहन करते रहे ।
आपके नाम के साथ जो शास्त्री शब्द जुडा है , उससे स्पष्ट है कि शास्त्री तो आप ने उतीर्ण की ही थी किन्तु गोंदिया आने के पश्चात आप ने नागपुर विश्व विद्यालय से एम. ए. की परीक्शा भी उत्तीर्ण की । इससे पता चला है कि उच्च शिक्शा प्राप्ती के लिए आप निरन्तर प्रयत्नशील रहे ।
आर्य समाज मध्य प्रदेश व विदर्भ का कार्यालय नागपुर में है तथा इस का मुख पत्र आर्य सेवक भी यहां से निकलता है । इस पत्र के सम्पादक का कार्य आर्य समाज के उच्च कोटि के आर्य रहे हैं । हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभुद्रा कुमारी चौहान के पति भी इस पत्रिका के सम्पादक रहे हैं । हमारे पण्डित काशी नाथ शास्त्री भी अपनी उच्च हिन्दी व आर्य समाज समबन्धी योग्यता के कारण इस पत्र के सम्पादक रहे तथा इस पत्र को बहुत आगे ले गये ।
आप को आर्य समाज से इतनी लगन थी कि आर्य समाज के प्रचार व प्रसार के कार्य के लिए सभा की योजना के अनुरूप तो प्रचार करने जाते ही थे , इसके अतिरिक्त भी आप संलग्न क्शेत्रों में प्रचार के ;लिए घूमते ही रहते थे तथा युवकों को उत्साहित करते ही रहते थे । इस सम्बन्ध में जब मेरे श्वसुर लाला कर्मचन्द आर्य जी ने महाराष्ट्र के विदर्भ क्शेत्र के नगर भण्डारा में आर्य समाज की स्थापना की तो आप का इस समाज मं आना जाना आरम्भ हो गया तथा कर्मचन्द जी से पारिवारिक मित्रता का सम्बन्ध जुड गया । आप ही के प्रयत्न का परिणाम था कि मेरा सम्बन्ध इस परिवार से जुड गया । यह आप ही थे जिन्होंने मेरा विवाह संस्कार करवाया । इस अवसर पर पण्डित प्रकाश चन्द कविरत्न जी का रचा गया वैवाहिक सेहरा उन्हीं के शिष्य पं. पन्ना लाल पीयूष आर्योपदेशक जी ने पटा था ।
१२ जनवरी १९७५ से १४ जनवरी १९७५ तक नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ । आप इस सम्मेलन में प्रतिनिधि स्वरुप सम्मिलित होने वाले थे । आप की प्रेरणा व प्रयत्न के परिणाम स्वरूप मुझे भी पंजाब के प्रतिनिधि स्वरूप इस सम्मेलन में सम्मिलित होने का अवसर व सौभाग्य प्राप्त हुआ । मैं जब भी भण्डारा जाता आप मुझे मिलने के लिए अवश्य ही भण्डारा आया करते थे ।
आप शुद्ध हिन्दी लेखव प्रयोग के पक्श में थे । उन्होंने मुझे बताया कि आज हम किस प्रकार से गलत टंग से हिन्दी श्ब्दों का प्रयोग कर रहे हैं कि हमें पता ही नहीं चलता । उन्होंने बताया कि आज स्कूलों में महिला अध्यापक के लिए अध्यापिका शब्द प्रयोग करते हैं किन्तु यह गल्त है । जिस प्रकार वकील की पत्नि को हम वकीलनी कहने लगते है ,जिसका भाव होता है वकील की पत्नी । इस प्रकार ही अध्यापिका का अर्थ हुआ अध्यापक की पत्नी । पटाने वालों के लिए केवल एक ही शब्द है और वह है अध्यापक , चाहे वह पुरूष हो या महिला ।
आपने आर्य समाज का प्रवचनों व लेखनी द्वारा खूब प्रचार किया तथा अनेक पुस्तकें भी लिखीं । आप की पुस्तकों में वैदिक संध्या, रामायण प्रदिप मीमांसा , जल्पवाद खण्डन ,आर्यों का आदि देश , सत्य की खोज, इसाइ मत की छानबीन , वैदिक कालीन भारत , अनुपम मणिमाला आदि थीं । वैदिक कालीन भारत पुस्तक में उन्हों ने भारतीय संस्क्रति का समग्र इतिहास दिया था , यह पुस्तक मुझे भी भेंट स्वरूप दी थी ।
आप का मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में यदा कदा जाना होता ही था । एक बार जब आप होशंगाबाद गए हुए थे कि आक्स्मात दिनांक ४ आक्टूबर १९८८ इस्वी को देहान्त हो गया ।

 

स्वामी दयानन्द एक महान व्यकितत्व…………..

 

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स्वामी दयानन्द एक महान व्यकितत्व………….. -शिवदेव आर्य

इतिहास साक्षी है कि जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से संवेदनशील व्यकितयों के जीवन की दिशा बदल जाती है। हम प्रतिदिन रोगी, वृध्द और मृत व्यकितयों को देखते हैं। हमारे ह्र्दय पर इसका कुछ ही प्रभाव होता है, परन्तु ऐसी घटनाओं को देखकर महात्मा बुध्द को वैराग्य हुआ। पेड़ों से फलों को धरती पर गिरते हुए किसने नहीं देखा, परन्तु न्यूटन ही ऐसा व्यकित था जिसने इसके पीछे छिपे कारण को समझा और ‘गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार किया और प्रतिदिन कितने शिव भक्तों ने शिव मनिदर में शिव की पिंडी पर मिष्ठान्न का भोग लगाते मूषकों को देखा होगा, परन्तु केवल )षिवर दयानन्द के ही मन में यह जिज्ञासाजागृत हुर्इ कि क्या यही वह सर्वशकितमान, सच्चे महादेव हैं। जो अपने भोजन की रक्षा भी नहीं कर सकते हैं। इस घटना से प्रेरणा लेकर किशेार मूलशंकर सच्चे शिव की खोज के लिए अपनी प्यारी माँ और पिता को छोड़कर घर से निकल पड़े। मूलशंकर सच्चे शिव की खोज में नर्मदा के घने वनों, योगियों-मुनियों के आश्रमों, पर्वत, निर्झर, गिरिकन्दराओं में भटकता रहा। अलखनन्दा के हिमखण्डों से क्षतविक्षत होकर वह मरणासन्न तक हो गया परन्तु उसने अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं छोड़ा। चौबीस वर्ष की आयु में पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर दयानन्द बन गए। अन्तत: इन्ही प्रेरणा से वे प्रज्ञाचक्षु दण्डी विरजानन्द के पास पहुँचे और तीन वर्ष तक श्री चरणों में ज्ञानागिन में तपकर गुरु की प्रेरणा से मानवमात्र के कल्याण एवं वेदों के उ(ार के लिए तथा अज्ञान-अन्धकार और समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए कार्यक्षेत्र में उतर पड़े। उस समय भारत में मुगल साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया था। और अंग्रेजों का आधिपत्य सम्पूर्ण भारत पर हो चला था। स्वामी दयानन्द इस विदेशी प्रभुत्व से अत्यधिक क्षुब्ध थे। जिसकी अभिव्यकित सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुल्लास में हुर्इ। उन्होंने लिखा कि देश के लोग निषिक्रयता और प्रमाद से ग्रस्त हैं। लोगों में परस्पर विरेाध व्याप्त है और विदेशियों ने हमारे देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है इसलिए देशवासियों को अनेक प्रकार के दु:ख भोगने पड़ रहे हैं। यह ऐसा समय था जब देश मे ंसर्वत्र अज्ञान का अन्èाकार व्याप्त था। जनमानस अन्धविश्वासों और कुरीतियों से ग्रस्त था। अंग्रेजी शासकों ने भारतीय सभ्यता और संस्Ïति को समाप्त करने के लिए मैकाले की शिक्षानीति को लागू कर भारतवासियों में हीन भावना का संचार कर दिया था। निराश देशवासी पशिचमी राष्ट्रों की भौतिक समृध्दि की चकाचौंध से प्रभावित होकर अपने गौरवशाली, अतीत, धर्म, और जीवन के नैतिक मूल्यों से विमुख हो रहे थे। इसलिए उन्हें पाश्चात्य जीवन प्रणाली के अनुकरण में ही अपना हित मालूम होता था। ऐसी विकट परिसिथतियों में महर्षि ने आर्य समाज की स्थापना करके जर्जर निष्प्राण हिन्दू समाज में प्राण फूंकने का उसकी धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय एवं सांस्Ïतिक चेतना को उदबु( करने का प्रयास किया। नारी जाति की दुर्दशा को देखकर उनमें शिक्षा का प्रसार करने तथा अछूतों को हिन्दू समाज की मुख्यधारा में लाने और इस्लाम एवं र्इसाइयत में हिन्दुओं के धर्मान्तरण को रोकने का महत्वपूर्ण कार्य किया। )षि के जीवन का मुख्य उददेश्य वेदों का उत्तर और उसका प्रचार-प्रसार करना था उनका कहना था कि वेद ज्ञान भारत तक ही सीमित न रहे अपितु सम्पूर्ण विश्व में उसका प्रचार हो। उनका कहना था कि वेदों का ज्ञान किसी एक धर्म, जाति, सम्प्रदाय या देश के लिए नहीं है अपितु सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए है। इसीलिए उन्होंने ”Ïण्वन्तो विश्वमार्यम अर्थात सम्पूर्ण विश्व को श्रेष्ठ बनाने का सन्देश दिया है हमें उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। आओं! हम सब मिलकर उनके द्वारा दर्शाये मार्ग का अनुगमन कर स्वामी जी की कमी को पूर्ण करने का प्रयास करें।

ईसा के सम्बन्ध में अनेक विचार –

jesus u really know him

ईसा के सम्बन्ध में अनेक विचार –

लेखक – महात्मा नारयण प्रसाद

पहला विचार जो ईसा की सत्ता के सम्बन्ध में है वह यह है की ईसा वास्तव में कोई हुआ ही नहीं, इस सम्बन्ध में जो बातें कही और प्रमाण रूप में उपस्तिथ की जाती है, ये है :-

१.       समकालीन लेखकों के लिखे लेखो अथवा इतिहासों में ईसा के जीवन का संकेत भी नहीं पाया जाता –“ हिस्टोरियन हिस्ट्री ऑफ दी वल्ड “ vol 2, col 3 में लिखा है “यह निश्चित नियम है की महान पुरषों की महता उनके जीवन काल ही में उनके नामो से प्रगट होने लगती है- परन्तु ईसा के नाम अथवा जीवन  घटनाओ का उस समय के इतिहासों में सर्वथा अभाव है | न केवल इतना ही है की तत्कालीन लेखो में ईसा का नाम का और जीवन घटनाओ का अभाव है किन्तु पीछे हुई कतिपय नसलो तह के लेखो में उस की सत्ता का कोई चिन्ह नहीं पाया जाता |

२.       दूसरा विचार यह है- कुछ बातें कृष्ण और बुद्ध से लेकर इंजील के लेखकों ने ईसा की कल्पना कर ली है वास्तव में ईसा कोई नहीं था | इस बात की स्थापना के लिये “ कृष्ण के क्राइस्ट “ नामक पुस्तक देखने के योग्य है | पुस्तक के रचियता ने, बड़े परिश्रम के साथ, पुराण और इंजील की तुलना करते हुए इंजील का उनके आधार पर रचा जाना प्रमाणित करने का उद्योग किया है |

ईसा की जन्मतिथि भी निश्चित नहीं है | ईसवी सन जो प्रचलित है | ईसा के जन्म काल से बताया जाता है—परन्तु बात यह है की ईसा का जन्म काल अनिश्चित और विरोध पूर्ण है | इसलिए नहीं कहा जासकता कि यह सन ईसा के जन्म काल से है |

(क)  चेंबर का encyclopedia ( chamber’s Encyclopedia ) में सन ईसवी से कुछेक वर्ष और कम से कम चार वर्ष पहले ईसा का जन्म काल बतलाया गया है |

(ख)  Appleton’s New Cyclopedia ) में ६ वर्ष पहिले का जन्म बतलाया गया है |

(ग)   (The Treasury of Bible Knowledge new Edition page 191 ) “ परट महोदय ने “ जन्म तिथि ७ वर्ष पाहिले अक्टुम्बर मांस में निश्चित की है |

(घ)   इसी प्रकार जन्म वर्ष की तरह जन्मतिथि और मास भी विवाद पूर्ण और अनिश्चित है |

दूसरा विचार ईसा के सम्बन्ध में यह है की ईसा हुआ तो परन्तु वह १२ वर्ष की आयु तक जेरोसलिम आदि में रहा उस के बाद शिक्षा पाने के लिए भारत वर्ष चला आया और ३० वर्ष की आयुतक यहाँ शिक्षा पाता रहा | उस के बाद लोटकर जेरोसलिम गया | और वहाँ जाकर उसने ईसाई धर्म की स्थापना की | इस विचार के समर्थक रूस के यात्री “ निकोलस नोटोविच “ है |

नोटोविच महोदय ने एक पुस्तक प्रकाशित की थी जिसका नाम है | ( ईसा का अज्ञात जीवन चरित्र ) ( Unknown Life of Christ by Nicolas Notovitch ) पुस्तक में उन्होंने “ हिमिज “ ( Himij ) के पुस्तकालय से ईसा का एक जीवन चरित्र प्राप्त कर के छापा था |

यह जीवन चरित्र, नोटोविच का कथन है कि पाली भाषा में था और हिन्दुस्थान में लिखा गया था | उस की पाली भाषा की लिपि ( तिबत ) के पुस्तकालय में है | उसी कॉपी से यह अनुवाद तिब्बती भाषा में किया गया था | जो उन्हें हिमिज के पुस्तकालय में मिला | जीवन चरित्र पद्यमय है | जो नोटोविच ने पुस्तक का प्रथम संस्करण प्रकाशित किया था | तो उस पर स्वाभाविक रीती से पादरियों और कुछेक अन्य पुरषों में जिन में मोक्षमुलर साहिब भी सम्मिलित थे, आक्षेप किये और पुस्तक का प्रभाव दूर करने का यत्न किया गया | यह भी कहा गया की नोटोविच न तिब्बत गये, न वहा कोई पुस्तकालय “ हिमिज ” नाम का स्थान है इत्यादि ……….परन्तु पुस्तक के अंग्रेजी भाषा के संस्करण में (जो फ्रेंच भाषा में था ) नोटोविच ने समस्त आक्षेपो का सफलता के साथ परिहार किया है | उन्होंने अंग्रेज कर्मचारियों के नाम भी दिये है जिनसे वे इस यात्रा में मिले थे उन में अंग्रेजी सेना के एक मुख्य कर्मचारी “ यंगहस्वेंड “ भी सम्मिलित है जिन के नेतृत्व में अंग्रेजो की और से तिब्बत पर चढाई हुई थी – “ हिमिज “ स्थान का भी उन्होंने सविवरण पता दिया है और उस का मार्ग भी बतलाया है |

जीवन चरित्र, जो उपयुक्त भांति नोटोविच महोदय को प्राप्त हुआ है | उस की मुख्य मुख्य बातें यह है | जीवन चरित्र में प्रथम बतलाया गया है | कि ये चरित्र विवरण लेखक को इसराइली व्यापारियों के द्वारा प्राप्त हुये थे :-

तत्पश्चायत चरित्र विवरण इस प्रकार वर्णित है :-

१.       “ ईसा जब १३ वर्ष का हुआ तो उस के विवाह कि छेड़ छाद शरू हुई, इस से अप्रसन्न होकर व्यापारियों के साथ वह सिंध चला आया- कि यहाँ आकर बुद्धमत की शिक्षा प्राप्त करे-

सिंध से काशी आया और यहाँ ६ वर्ष तक रहकर उसने धार्मिक शिक्षा पाई – उसे वैश्यों और शुद्र से अनुराग था उन्ही में वह प्राय: रहा करता था | यंहा से शाक्य मुनि बुद्ध की जन्म भूमि में गया, पाली भाषा सीखी और ६ वर्ष में बौद्ध मत की शिक्षाओ से पूर्णतया अभिज्ञ हुआ |

तत्पश्च्यात पश्चिम की और पारसियो के देश में पंहुचा और धर्मं प्रचार करता हुआ जेरुसलिम, ३० वर्ष की आयु में पहुँच गया “ |

उस का जन्म किस प्रकार हुआ, और मृत्यु किस प्रकार उसने मार्ग में क्या क्या उपदेश किये थे, इयादी बातें भी प्राप्त जीवन चरित्र में अंकित है | परन्तु विस्तार भय से यंहा छोड़ दी गई |

ईसा का १३-३० वर्ष तक का जीवन किस प्रकार व्यतीत हुआ, उसने इस आयु में क्या क्या सिखा अथवा क्या क्या काम किये ? इन प्रश्नों का उत्तर देने में समस्त इंजील असमर्थ है | ईसा के तो जीवन चरित्र, इस नवीन “ प्राप्त जीवन चरित्र को छोड़कर, अब तक प्रकाशित हुये है, उनमे भी उपयुक्त आयु की मध्य की किसी एक घटना का भी उल्लेख नहीं किया गया है |

 

तीसरा विचार वह है कि ईसा जेरोसलिम की फीमैनरी सोसाइटी का सदस्य था | वही उसने शिक्षा प्राप्त की और जान द्वारा ( John, the Baptist ) जो उसके साथ ही उपयुक्त सोसाइटी का सदस्य बना था, सोसाइटी के नियमानुसार, बिपतस्मा लिया | और सोसाइटी की अनूमति ही से उसने प्रचार कार्य आरम्भ किया- उसके प्रचार से यहूदी पुजारी अप्रसन्न हुए फल स्वरुप उसे सूली मिली परन्तु सुलि से वह मरा नहीं था | राज कर्मचारियों ने उसे भ्रम से मरा समझ लिया था | क्यों की क्लेश यातना से यशु मूर्छित हो गया था |

सोसाइटी के सदस्य जोसेफ से उसका शव जो वास्तव मे जीवित शरीर था प्राप्त किया तिकोडेमस एक चिकत्सक ने उसकी चिकित्सा की वह अच्छा हो गया और कुछ दिनों तक वह फिर सोसाइटी की देख भाल में कार्य करता रहा अंत में उसकी मृत्यु हुई और समुद्र के एक स्थान में दफ़न किया गया-इस विचार का सम्रथन उस पत्र से होता है जो इंजिलो के लिखेजाने से वर्षों पहले का है और इस पुस्तक में प्रकाशित किया गया है | इस विचार का परिणाम यह है की ईसा के समस्त चमत्कार, और विशेष कर मृत्यु सम्बन्धी सब से बड़ा चमत्कार जिन के कथनों अकथानो से इंजील भरी पड़ी है, निर्मूल और बनावटी, केवल उस समय के अंध विश्वासी लोगो के फुसलाने के लिए उसके शिष्यों द्वारा गढे सिद्ध होते है | और इस परिणाम का फल यह होता है कि इंजीलओ का इंजीलत्व रुखसत हो जाता है | इन इंजीलओ का मुख्य और बड़ा भाग ईसा के उपयुक्त भांति कल्पित चमत्कार ही है |

वेदों में प्रातः भ्रमण

morning walk

Morning Walk  in Veda 

14.2

स्योनाद्‌ योनेरधि बुध्यमानौ हसामुदौ महसा मोदमानौ ।

सुगू सुपुत्रौ सुगृहौ तराथो जीवावुषसो विभाती: ॥ AV 14.2.43

सुखप्रद शय्या से उठते हुए, आनंद चित्त से प्रेम मय हर्ष  मनाते हुए, सुंदर आचरण से युक्त, श्रेष्ठ पुत्रादि संतान,  उत्तम गौ,  सुख सामग्री से युक्त घर में निवास करते हुए सुंदर प्रकाश युक्त प्रभात वेला का दीर्घायु के लिए सेवन करो.

प्रात: भ्रमण के लाभ

नवं वसान: सुरभि: सुवासा उदागां जीव उषसो विभाती:  ।

आण्डात्‌ पतत्रीवामुक्षि विश्वस्मादेनसस्परि ॥ AV14.2.44

स्वच्छ नये जैसे आवास और परिधान कपड़े आदि के साथ स्वच्छ वायु में सांस लेने वाला मैं आलस्य जैसी बुरी आदतों से छुट कर, विशेष रूप से सुंदर लगने वाली  प्रात: उषा काल में उठ कर  अपने घर से निकल कर घूमने चल पड़ता हूं जैसे एक पक्षी अपने अण्डे में से निकल कर चल पड़ता है.

प्रात: भ्रमण के लाभ

शुम्भनी द्यावा पृथिवी अ न्तिसुम्ने महिव्रते ।

आप: सप्त सुस्रुवुदेवीस्ता नो मुञ्चन्त्वंहस: ॥  AV14.2.45

सुंदर प्रकृति ने मनुष्य को सुख देने का एक महाव्रत ले रखा है. उन जनों को जो जीवन में  प्राकृतिक वातावरण के समीप रहते हैं सुख देने के लिए मानव शरीर में  प्रवाहित  होने वाले सात दैवीय जल तत्व हमारे दु:ख रूपि रोगों से छुड़ाते हैं .

Elements of Nature have avowed to make life comfortable and healthy for the species. Particularly the seven fluids that move around the human anatomy are specifically helped by Nature. Modern science confirms that presence of naturally created ‘Schumann’ electromagnetic field and  negative ions  generated by Nature play very significant roles in maintaining  good physical and mental health of human beings.

(प्रात: कालीन उषा प्रकृति के सेवन द्वारा सुख देने वाले वे मानव शरीर के सात जल तत्व अथर्व वेद के निम्न मंत्र में बताए गए हैं .

( को आस्मिन्नापो व्यदधाद्‌ विषूवृत: सिन्धुसृत्याय जाता:।

तीव्रा अरुणा लोहिनीस्ताम्रधूम्रा ऊर्ध्वा  अवांची: पुरुषे तिरश्ची: ॥ AV 10.2.11

(भावार्थ)  परमेश्वर ने मनुष्य में रस रक्तादि के रूप में (सप्तसिंधुओं) सात भिन्न  भिन्न जलों को मानवशरीर में  स्थापित किया है. वे अलग अलग प्रवाहित होते हैं . अतिशय रूप से – अलग अलग नदियों की तरह बहने के लिए उन का निर्माण  गहरे  लाल रंग के, ताम्बे के रंग के, धुएं  के रंग इत्यादि के ये जल (रक्तादि) शरीर में ऊपर नीचे और तिरछे सब ओर आते जाते हैं.

ये सात जल तत्व आधुनिक शरीर शास्त्र के अनुसार निम्न बताए जाते हैं.

1.  मस्तिष्क सुषुम्णा में प्रवाहित होने वाला रस (Cerebra –Spinal Fluid)

2.  मुख लाला (Saliva)

3.  पेट के पाचन रस (Digestive juices)

4.  क्लोम ग्रन्थि रस जो पाचन में सहायक होते हैं (Pancreatic juices)

5.  पित्त रस ( liver Bile)

6.  रक्त (Blood)

7.  (Lymph )

ये सात रस मिल कर सप्त आप:= सप्त प्राण: – 5 ज्ञानेन्द्रियों, 1 मन और 1 बुद्धि का संचालन करते हैं.)

भ्रमण में पारस्परिक नमस्कार

सूर्यायै देवेभ्यो मित्राय वरुणाय च ।

ये भूतस्य प्रचेतसस्तेभ्य इदमकरं नम: ॥ AV14.2.46

सूर्य इत्यादि प्राकृतिक देवताओं को,  सब मिलने वाले मित्रों जनों को  जो सम्पूर्ण भौतिक जगत को प्रस्तुत करते हैं हमारा नमन है. ( भारतीय संस्कृति में प्रात: काल भ्रमण में जितने लोग मिलते हैं उन सब को यथायोग्य नमन करने की परम्परा इसी वेद मंत्र पर आधारित है)

लिव इन रिलेशनशिप

live in relationship

लिव इन रिलेशनशिप

लेखक – इंद्रजीत ‘देव’

मार्च २०१० में भारतीय उच्चतम न्यायलय ने एक महत्व पूर्ण निर्णय  दिया है । बिना विवाह किये भी कोई भी युवक व युवती अथवा पुरुष व स्त्री इकट्ठे रह  सकते हैं । यदि कृष्ण व राधा बिना परस्पर  विवाह किये एकत्र रह सकते थे तो आज के युवक युवती / पुरुष स्त्री ऐसा क्यूँ नहीं कर सकते ? . “यह निर्णय महत्वपूर्ण ही नहीं , भयंकर हानिकारक भी है । इसका परिणाम यह निकलेगा कि आपकी गली में कोई पुरुष व स्त्री बिना विवाह किये आकर रहने लगेंगे, तो आप व आपकी गली में रहने वाले अन्य लोगों को उनका वहाँ रहना अत्यंत बुरा, समाज व परिवार को दूषित करने वाला प्रतीत होगा, परन्तु आप  उनका  कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे । यदि आप कुछ पड़ौसियों को साथ लेकर उनके  पास जाकर गली छोड़कर चले जाने  को कहेंगे, तो  वे उपरोक्त निर्णय दिखाएंगे । व आप असफल होकर घर वापस लौट आयेंगे । यदी आपके द्वारा पुलिस में उनकी शिकायत की जायेगी तो पुलिस स्वयं आकर समाज, धर्म व कानून के विरुद्ध ऐसा कार्य करने के अपराध में उनसे पूछताछ करेगी, तो उसे भी वे उच्चतम न्यायालय का पूर्वोक्त निर्णय दिखाएंगे तथा पुलिस भी उनके विरुद्ध केस बनाये बिना वापस लौटने के सिवाय अन्य कुछ नहीं कर पायेगी ।

में भी यह घटना पूर्वोक्त रूप में कुछ स्थानों पर कुछ लोगों को सुनायी है तो लगभग सभी श्रोताओं ने यही  कहा है कि न्यायालय को भ्रष्ट करने व परिवारों की एकता को भंग करने के द्वार खोल दिए हैं, परन्तु मेरे विचार में न्यायालय का इस निर्णय में कोई दोष नहीं है क्यूंकि न्यायपालिका का काम निर्णय देना है तथा वह निर्णय देती है | विधायिका  द्वारा बनाये हुए अधिनियमों के आधार पर । विधायिका द्वारा बनाये गए अधिनियमों में लिखे एक एक शब्द के गहन , पूर्ण व सत्य अर्थों पर विचार करके ही न्यायादिश निर्णय दे सकते हैं ।

उनके निजी विचार कुछ भी क्यूँ न हो, वे अधिनियम के बंधन में अक्षरसः बंधे होते हैं | इस सम्बन्ध में मैं प्रमाण प्रस्तुत करता हूँ । इंग्लैण्ड में एक समय में ऐसा कानून बनाया गया था | कि लण्डन की सडकों पर कोई घोडा-गाड़ी नहीं लायी जायेगी और यदी कोई ऐसा करेगा तो उसे दण्डित किया जायेगा ।  कुछ दिनों तक इस अधिनियम का पालन होता रहा परन्तु एक दिन लोगों ने देखा कि एक गाड़ी लंदन में चल रही थी । चालक को वहाँ की पुलिस ने न्यायायलय में प्रस्तुत किया, परन्तु न्यायाधीश उसे कुछ भी दंड न दे पाये,  क्यूंकि चालक ने यह सिद्ध कर दिया कि वह जो गाड़ी लेकर लन्दन में घूम रहा था, वह घोडा-गाड़ी थी ही नहीं। अपितु घोड़ी-गाड़ी थी | इसी प्रकार एक दूसरे घटना भी लिखता हूँ तब एक न्यायालय  में चल रहे मुकदमे में फांसी पर लटका देने का दण्ड एक अपराधी को न्यायाधीश ने लिखा- “He should be hanged” | उस अपराधी को उसके वकील ने  कहा कि तुम चिंतामत करो | में  तुम्हे मरने नहीं दूंगा । कुछ लोगों का विचार है कि वह वकील जवाहर लाल नेहरु के पिता मोती लाल नेहरु थे ।  वस्तुत: वही वकील थे या कोई अन्य मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं है अस्तु । जब अपराधी को फांसी का फंदा डालकर लटकाया गया तो, अपराधी को तुरंत छुड़वा लिया क्यूंकि न्यायाधीश ने अपने आदेश में यह नहीं लिखा कि इसको तब तक लटकाये ही रखना है जब तक इसके प्राण न निकल जाएँ । पास खड़े उच्च अधिकारी व कर्मचारियों को उस वकील ने फांसी पर लटकाने से पूर्व ही उक्त आदेश का अर्थ समझा व मनवा लिया था कि इसमें तो इतना ही लिखा है कि इस अपराधी को लटकाया जाये । इसमें यह कहाँ लिखा है कि इसको मरने तक लटकाये रखना है । अधिवक्ता ने अपराधी को छुड़ा लिया, बचा लिया ।  यह उसके द्वारा शब्दार्थ की  गहराई तक जाने का परिणाम था । कुछ लोग कहते हैं कि इस घटना के पश्चात् ही तत्कालीन शासन ने ऐसी  व्यवस्था की न्यायाधीष ऐसे अपराधियों के मामले में निर्णय देते हुए लिखने लगे “He should be hanged till death”  अर्थात इसे तब तक लटकाये रखा जाये तब तक इसकी मृत्यु न हो जाये ।

सन २०१० में पूर्वोक्त मामले में न्यायाधीशों का कोई दोष नहीं है । इस कथन को पाठकों में से वे पाठक मेरी बात अच्छी पाठक समझेंगे जिनको न्यायालयों की न्यायविधि का ज्ञान है । दोष वस्तुतः उनका है जिन्होंने पुराणों में कृष्ण जी व राधा के सम्बन्धों को अश्लील चित्रित किया था । इसके अतिरिक्त उनका भी दोष है, जिन्होंने इनके सम्बन्धों को अश्लील रूप में प्रस्तुत करने वालों के हाथ न कटवाए, न पुराण जलवाये । पुराणों की हिन्दू समाज में मान्यता व प्रतिष्ठा है । न्यायालय ने सामाजिक व धार्मिक दृष्टि से पापी व दोषी युवक व उस युवती के वकील ने वे प्रसंग प्रस्तुत किये जिनसे कृष्ण जी व राधा के शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने का वर्णन है । ( “ब्रह्मवैवर्त पुराण , श्री कृष्ण जन्म खंड अध्याय ४६ व १५ ) इसमें न्यायाधीशों का द्वेष क्या है ?

सरकार की और से प्रस्तुत हुए अधिवक्ता में पूर्वोक्त प्रमाणों को झुठला नहीं सके । पूरा हिन्दू समाज पुराणों को सत्य व ऐतिहासिक ग्रन्थ मनाता है | आर्य समाज बहुत ही पहले ही पुराणों को झुठला चुका  है व “ महर्षि दयानंद सरस्वती ने श्री कृष्ण जी के सम्बन्ध् में स्पष्ट लिखा है ” देखो श्री कृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अति उत्तम है। उनका गुण कर्म स्वाभाव व चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश्य है जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरण पर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो ऐसा नहीं लिखा।“ ( सत्यार्थ प्रकाश एकादशसमुल्लास )

महाखेद  की बात है कि इस अनिष्टकारी निर्णय के आने के बाद तीन वर्षों में भी पुरे देश में कोई हलचल नहीं हुयी । जगद्गुरु बने बैठे शंकराचार्यों में से एक ने भी इस निर्णय व इसमें राधा व कृष्ण जी के चरित्र को गलत रूप में न्यायालय द्वारा प्रमाण मानने से भविष्य में क्या दुष्परिणाम होंगे इसकी कोई कल्पना व इसे रोकने हेतु कोई कार्यक्रम व इच्छा नहीं है | इसके अतिरिक्त कोई संत, कोई महंत, कोई ठगंत कोई बापू कोई गुरु कोई बाबा कोई सन्यासी कोई मौलवी किसी धार्मिक सामाजिक व राजनैतिक संस्था का कोई पदाधिकारी आज तक इस विषय में कुछ नहीं बोला । इससे सिद्ध है कि उनकी दृष्टी में यह निर्णय एक युवक व एक युवती तक ही सीमित रहेगा । मेरे विचार में यह एक दूरगामी अनिष्टकारी निर्णय है तथा इसके विरोध में केवल हिंदुओं को ही नहीं सिखो मुसलमानो जैनियों व बौद्धों वनवासियों नास्तिकों व कम्युनिष्टों को भी एकत्र होकर आवाज उठानी चाहिए थी व सभी राजनैतिक, सामाजिक , धार्मिक व सांप्रदायिक मतभेद भुलाकर इस विषय पर एकजुट होना चाहिए था । खेद है  हमारे देश में राजनैतिक सुख व भोग हेतु परस्पर विरोधी या भिन्न भिन्न विचारों वाली २५ -२६ पार्टियाँ एकत्रित होकर कथित न्यूनतम कार्यक्रम बना लेती हैं | परन्तु सामाजिक धार्मिक संस्थाएं राजनैतिक दल व समाज हित को लेकर एक मुद्दे पर भी एकत्रित नहीं होते । मुझे इस विषय में यह निवेदन करना है :

बागवानों ने अगर अगर अपनी रविश नहीं बदली,

तो पत्ता पत्ता इस चमन का बागी हो जायेगा |

१६ दिसम्बर को बलात्कार की दिल्ली में हुयी घटना के बाद में देश में प्रजा ने जो चेतना व विरोध भाव प्रगट किया उससे सरकार हिल गयी । इससे सिध्द है कि राजनेता केवल जनता के दवाब के आगे ही झुकते हैं । पूर्वोक्त विषय में निष्क्रिय समाज व राष्ट्र की  चिन्ता कौन करेगा । आज हर कोई परेशान है | रही सही कमी प्रस्तुत निर्णय के बाद होगी ।  न धर्म गुरुओं को न समाज शास्त्रियों को न धार्मिक संस्थाओं को परेशान हो रहे इस समाज व राष्ट्र की कोई चिता है | अब ऐसा कानून कोई है ही नहीं जिसके अधीन ऐसे चलने वाले स्त्री पुरुष को अपराधी मानकर दण्ड दिया जा सके | तो न्यायालय उन्हें दण्ड दे ही क्यूँ सकता है ? उच्चतम नयायालय का निर्णय आने के बाद किसी राजनैतिक दल की नींद नहीं खुली व इस निर्णय के पश्चात live in relationship के नाम पर बिना विवाह किये रहने वालों की  संख्या बड़ने लगी है अब उनको उच्चतम न्यायालय का निर्णय विशेष उत्साह प्रदान कर रहा है | व उनका मनोबल बड़ रहा है इस स्तिथी में एक स्पष्ट कानून बनाने की स्पष्ट आवश्यकता है | जिसके अधीन ऐसे सम्बंधों को अवैध व कठोर दंडनीय माना  जाये । राधा और कृष्ण जी का कथित प्रश्न इसमें बाधा  नहीं बनता ।

सामजिक धार्मिक राजनैतिक संस्थाओं समाज शास्त्रियों  जागो तथा इस सरकार पर तुरंत दवाब डालो कि वह वांछनीय कानून बनाये।  सुख सुविधा व धन ऐश्वर्य में डूबे राजनैतिक नेताओं निद्रा से जागो तथा देश के परम्परागत वैवाहिक आदर्श की रक्षार्थ तुरुन्त वांछनीय कानून बनाओ अन्यथा आने वाला इतिहास तुम्हें क्षमा नहीं करेगा ।

दे रही हों आंधियाँ जब द्वार पर दस्तक तुम्हारे,

तुम नहीं जगे तो ये सारा जमाना क्या कहेगा ?

बहारों को खड़ा नीलाम देखा पतझड़ कर रहा है

तुम नहीं उठे तो ये आशियाना क्या कहेगा ?

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शौर्य का हिमालय – स्वामी श्रद्धानन्द

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शौर्य का हिमालय – स्वामी श्रद्धानन्द

लेखक – प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

आधुनिक युग में विश्व के स्वाधीनता सेनानियों में स्वामी श्रद्धानन्द  का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है । वह राजनीतिज्ञ नहीं थे राजनीति को मोड़ देने वाले विचारक थे । महर्षि दयानन्द जी महाराज ने ऋग्वेद भाष्य में लिखा है – कि ब्रहम्चारी, यति, वनस्थ, सन्यासी के लिए राज व्यवहार की प्रवृति  होनी योग्य नहीं । इस आर्ष नीति और मर्यादा का पालन करते हुए स्वामी श्रद्धानन्द राजनीति के दलदल में फंसना अनुचित मानते थे । जब जब देश को उनके मार्गदर्शन की आश्यकता हुयी, वह संकट सागर की अजगर सम लहरों को चीरते हुए आ गए ।

वह अतुल्य पराक्रमी थे । शौर्य के हिमालय थे । बलिदान की मूर्ती थे । विदेशी सत्ता को समाप्त करने के लिए भारत संघर्ष कर रहा था ।  स्वाधीनता संग्राम का अभी शैशव काल था।  इस शैशव काल में बड़े बड़े नेता भी खुलकर स्वराज्य की चर्चा करने से सकुचाते थे । अंग्रेजी शाषन के अत्याचारों का,  दमन चक्र का स्पष्ट शब्दों में विरोध करना किसी विरले प्रतापी का ही काम था । कांग्रेस के मंच से अभी अंग्रेज जाती की न्यायप्रियता में विश्वास प्रगट किया जाता था । राजनीति का स्वर बड़ा धीमा था ।

२० वी शताब्दी की  प्रथम दशाब्दी में हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का स्वर ऊंचा करने वाले राष्ट्र पुरुषों में श्रद्धानन्द जी का नाम बड़े सम्मान से लिया जावेगा । १९०७ ईस्वी में लाला लाजपत राय को निष्कासित कर दिया गया देश निकाला पाने वाले इस प्रथम भारतीय का खुल्लम खुल्ला पक्ष लेने वाले और उन्हें निर्दोष सिद्ध करने वाले श्रध्दानन्द के साहस की किस शब्दों में चर्चा की जावे ! तब स्तिथी यह थी कि लाल लाजपतराय के निकटतम आर्य समाजी मित्र मौन साध गए। लाला जी के पक्ष में दो शब्द लिखकर व बोलकर अंग्रेजों को दुत्कारने का साहस न बटोर सके । जिस आर्य गज़ट के लाल लाजपतराय संपादक रहे उस आर्य गज़ट में उनके लिए एक लेख न लिखा गया । तब श्रद्धानन्द का सिंहनाद आर्यों के हृदयों को गर्मा रहा था | आर्य गज़ट के एक भूतपूर्व संपादक महाशय शिवव्रतलाल वर्मन M.A. ( राधास्वामी सम्प्रदाय के गुरुदाता दयाल जी ) ने तब लाला जी के पक्ष में ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक में एक लेख दिया था । यह पत्रिका स्वामी श्रद्धानन्द जी के संरक्षण मार्गदर्शन में प्रकशित होती थी । इसमें  श्री शिवव्रतलाल जी ने झंजोड़ कर लाल जी के साथियों से पूछा था कि वो चुप्पी क्यूँ साधे हुए हैं ?

लाल लाजपत राय स्वदेश लौटे । सूरत कांग्रेस हुयी । कांग्रेस में भयंकर फूट पड़ गयी तब श्रीयुत गोखले बोले १० जन १९०८ ईस्वी में स्वामी जी को पत्र लिखकर सूरत न पहुँचने पर उपालम्भ दिया और राष्ट्रीय आंदोलन पर बुरी फुट की बिजली से देश को बचाने के लिए उनका मार्गदर्शन माँगा।

स्वामी जी से मिलने की इच्छा प्रगट की । १९०७ ईस्वी में अमरावती से निकलने वाले उग्रवादी पत्र “कर्त्तव्य” पर राजद्रोह का अभियोग चला तब उसने क्षमा मांग ली | स्वामी जी ने इस पर लिखा “ऐसे गिरे हुए लफंगे यदी स्वराज्य प्राप्त कर भी लें तो विचारणीय यह है कि वह स्वराज्य कहीं रसातल में ले जाने वाला तो सिद्ध न होगा ।

 

मि नॉर्टन एक बार मद्रास में कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन के स्वागत अध्यक्ष बने थे आपने बंगाल में क्रांतिकारियों के विरुद्ध सरकारी वकील बनना स्वीकार कर लिया । श्रद्धानन्द का मन्यु तब देखने योग्य था । आपने मि. नॉर्टन के इस कुकृत्य की कड़ी निंदा की | गोस्वामी नरेन्द्रनाथ क्रांतिकारियों से द्रोह करके सरकारी साक्षी बन गया । तब तेजस्वी श्रद्धानन्द ने उसे महाअधम विश्वासघाती लिखा इस साहस को किस तुला पर तौले । अभी अभियोग न्यायलय में चल रहा है वीर योद्धा फांसियों पर चढ़ाये जा रहे हैं | और मुंशीराम वकील होते हुए भी न्यायलय का अपमान कर रहा है । क्रांतिकारियों का पक्ष लेकर विपदाओं को आमंत्रित कर रहा है ।

श्रद्धानन्द तो बलाओं को बुला बुला कर उनसे जूझने में आनंद लेता था । गुरु के बाद का मोर्चा लगा | गुरुद्वारों की पवित्रता के लिए, रक्षा के लिए सिख भाई विदेशी शासन से बढ़ बढ़ कर भिड़ रहे थे ।  स्वामी जी की सिंह गर्जना अकाल तख़्त अमृतसर से अंग्रेजों ने सुनी तो घबराया हड़बड़ाया सिखों के सर्वोच्च धर्मस्थान से बोलने वाले वो ही एक मेव राष्ट्रीय नेता थे । इस भाषण करने के अपराध में स्वामी जी सिखों के जत्थेदार बनकर जेल गए |

सहस्त्र मील दूर केरल में छूत छात के विरुद्ध मोर्चा लगाने के लिए वृद्धावस्था में जा पहुंचे केरल में लोकमान्य नेता श्री मन्नम ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि “स्वामी श्रद्धानन्द का साहस, जन सेवा के अरमान देखने योग्य थे” | इस सत्याग्रह ने राष्ट्र को एक नवीन चेतना दी |

१९२० ईस्वी में बर्मा में स्वराज्य के प्रचार के लिए गये । वहाँ स्वामी ने स्वत्रन्त्रतानन्द जी के साथ भी काम किया । मांडले की ईदगाह से २५००० की उपस्तिथि में स्वराज्य का सन्देश दिया ।  ईदगाह से विराट सभा को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाने वाले येही २ नेता हुए हैं।

३० मार्च १९१९ ईस्वी को देहली के चांदनी चौक में आपने संगीनों के सम्मुख छाती तानकर भारतीय शूरता की धाक जमा दी । यह आपका ही साहस व अद्भुत आत्मोसर्ग था कि आपने ललकार कर कहा था कि निर्दोष जनता पर गोली चलने से पूर्व मेरी छाती को संगीनों से छेदो ।

तब एक कवी ने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा था :

“नंगी संगीने मदान्ध सिपाही मेरी यह प्रजा अब कैसे निभेगी।

आत्मा कौन की मोह विच्छोह ताज सहनागत यूँ शरण कहेंगी ।”

जाना तह कौन की भारत के हित आपकी छाती यूँ ढाल बनेगी।

श्रद्धानन्द सरीके सपूत बता जननी फिर कब जानेगी ||

कोई कितना भी पक्षपात क्यूँ न करें इस तथ्य को कोई इतिहासकार नहीं झुठला सकता कि स्वामी श्रद्धानंद  का स्थान हमारे राष्ट्र निर्माताओं की अग्रिम पंक्ति में है । बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस महापुरुष ने विविध क्षेत्रों में बुराइयों से लड़ाई लड़ते हुए दुःख कष्ट झेले और अपना सर्वस्य समर्पण करके राष्ट्र को नव जीवन दिया। ऐसे बलिदानी महापुरुष को, मानवता के मान को हमारा शत शत प्रणाम |

शम्बूक वध का सत्य

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शम्बूक वध का सत्य 

लेखक – स्वामी विद्यानंद सरस्वती

एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता लड़का मर गया । उस ब्राह्मण के लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा । उसका आरोप था कि अकाल मृत्यु का कारण राजा का कोई दुष्कृत्य है । ऋषी मुनियों की परिषद् ने इस पर विचार करके निर्णय किया कि राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा है क्योंकि :-

राजा के दोष से जब प्रजा का विधिवत पालन नहीं होता तभी प्रजावर्ग को विपत्तियों का सामना करना पड़ता है ।  राजा के दुराचारी होने पर ही प्रजा में अकाल मृत्यु होती है ।  रामचन्द्र  जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलवाया ।  उनके अतिरिक्त वसिष्ठ नामदेव मार्कण्डेय गौतम नारद और उनके तीनों भाइयों को भी बुलाया । ७३/१

तब नारद ने कहा :

राजन ! द्वापर में शुद्र का तप में प्रवृत्त होना महान अधर्म है ( फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवृत्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता ) निश्चय ही आपके राज्य की सीमा पर कोई खोटी बुध्दी वाला शुद्र तपस्या कर रहा  है।  उसी के कारन बालक की मृत्यु हुयी है।  अतः आप अपने राज्य में खोज करिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यत्न कीजिये ।  ७४/८ -२८,२९ , ३२

यह सुनते ही रामचन्द्र पुष्पक विमान पर सवार होकर ( वह तो अयोध्या लौटते ही उसके असली स्वामी कुबेर को लौटा दिया था  – युद्ध -१२७/६२ )  शम्बूक की खोज  में निकल पड़े (७५/५ ) और दक्षिण दिशा में शैवल  पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया देखकर राजा श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले – “उत्तम तप का पालन करने वाले तापस ! तुम धन्य हो ।  तपस्या में बड़े चढ़े  सुदृढ़ पराक्रमी परुष तुम किस जाती में उत्पन्न हुए हो ? में दशरथ कुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के लिए ये बातें पूछ रहा हूँ ।  तुम्हें किस वस्तु के पाने की इच्छा है ? तपस्या  द्वारा संतुष्ट हुए इष्टदेव से तुम कौनसा वर पाना चाहते हो – स्वर्ग या कोई दूसरी वस्तु ? कौनसा ऐसा पदार्थ है जिसे पाने के लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो  जो दूसरों के लिए दुर्लभ है।  ७५-१४-१८

तापस ! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो उसे में सुनना चाहता हूँ ।  इसके सिवा यह भी बताओ  कि तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय ? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो ?

क्लेशरहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ तपस्वी बोला – हे श्रीराम ! में झूठ नहीं बोलूंगा देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ ! मुझे शुद्र ही जानिए मेरा  नाम शम्बूक  है ७६,१-२

वह इस प्रकार कह ही रहा था कि रामचंद्र जी ने तलवार निकली और उसका सर काटकर फेंक दिया ७६/४ |

शाश्त्रीय व्यवस्था है – न ही सत्यातपरो धर्म : नानृतातपातकम् परम ” एतदनुसार मौत के साये में भी असत्य भाषण न करने वाला शम्बूक धार्मिक पुरुष था।  सत्य वाक्  होने के महत्व  को दर्शाने वाली एक कथा छान्दोग्य उपनिषद में इस प्रकार लिखी है – सत्यकाम जाबाल जब गौतम गोत्री हारिद्र मुनिके पास शिक्षार्थी होकर पहुंचा तो मुनि ने उसका गोत्र पूछा । उसने कहा कि में नहीं जनता मेरा गोत्र क्या है मेने अपनी माता से पूछा था ।  उन्होंने  उत्तर दिया था कि युवावस्था में अनेक व्यक्तियों की सेवा करती रही ।  उसी समय तेरा जन्म हुआ इसलिए में नहीं जानती कि तेरा गोत्र क्या है ।  मेरा नाम सतीकाम है।  इस पर मुनि ने कहा – जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कह सकता।  वह शुद्र और इस कारण मृत्युदंड का अपराधी कैसे हो सकता था ?

शम्बूक में आचरण सम्बन्धी कोई दोष नहीं बताया गया इसलिए वह द्विज ही था।  काठक संहिता में लिखा है – ब्राह्मण के विषय में यह क्यों पूछते हो कि उसके माता पिता कौन हैं यदि उसमें ज्ञान और तदनुसार आचरण है तो वे ही उसके बाप दादा हैं। करण ने सूतपुत्र होने के कारन स्वयंवर में अयोग्य ठहराए जाने पर कहा था कि जन्म देना तो ईश्वराधीन है परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ बन जाना मनुष्य के अपने वश में है।

आयस्तम्ब सूत्र में कहा है –

धर्माचरण से न्रिकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है जिसके वह योग्य हो।  इसी प्रकार अधर्माचरण से पूर्व अर्थात उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे नीचे वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है।  मनुस्मृति में कहा है –

जो शूद्रकुल में उप्तन्न होक ब्राह्मण के गुण कर्म स्वभाववाला हो वह ब्राह्मण बन जाता है।  इसी प्रकार ब्राह्मण कुलोत्पन्न होकर भी जिसके गुण कर्म स्वभाव शुद्र के सदृश्य हों वह शुद्र हो जाता है  मनु १०/६५

चारों वेदों का विद्वान किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से न्रिकृष्ट होता है , अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता है ।  महाभारत – अनुगीता पर्व ९१/३७ )

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शुद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं ब्राह्मण और शुद्र का लक्षण करते हुए वन पर्व में कहा है – सत्य दान क्षमा शील अनुशंसता तप और दया जिसमे हों ब्राह्मण होता है और जिसमें ये न हों शुद्र कहलाता है।  १८०/२१-२६

इन प्रमाणो से स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था का आधार गुण कर्म स्वाभाव है जन्म नहीं और तपस्या करने  का अधिकार सबको प्राप्त है।

गीता में कहते हैं – ज्ञानी जन विद्या और विनय से भरपूर ब्राह्मण गौ हाथी कुत्ते और चंडाल सबको समान भाव से देखते अर्थात सबके प्रति एक जैसा व्यवहार करते हैं ।  गीता ५/१८

महर्षि वाल्मीकि को रामचन्द्र  जी का परिचय देते हुए नारद जी ने बताया – राम श्रेष्ठ सबके साथ सामान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय  दृष्टिवाले थे । तब वह तपस्या जैसे शुभकार्य में प्रवृत्त शम्बूक की शुद्र कुल में जन्म लेने के कारन हत्या कैसे कर सकते थे ? (बाल कांड १/१६ ) इतना ही नहीं श्री कृष्ण ने कहा ९/१२- ,मेरी शरण में आकर स्त्रियाँ  वैश्य शुद्र अन्यतः अन्त्यज आदि पापयोनि तक सभी परम गति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करत हें ।

इस श्लोक पर टिप्पणी करते हुये लोकमान्य तिलक स्वरचित गीता रहस्य में लिखत हैं “पाप योनि ” शब्द से वह जाती विवक्षित जिसे आजकल जरायस पेशा कहते हैं । इसका अर्थ यह है कि इस जाती के लोग भी भगवद भक्ति से सिध्दि प्राप्त करते हैं ।

पौराणिक लोग शबरी को निम्न जाती की स्त्री मानते हैं ।  तुलसी दास जी ने तो अपनी रामायण में यहाँ तक लिख दिया – श्वपच शबर खल यवन जड़ पामरकोलकिरात “. उसी शबरी के प्रसंग में वाल्मीकि जी ने लिखा है  – वह शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्विनी थी | अरण्य ७४/१०

तब राम तपस्या करने के कारण शम्बूक को पापी तथा इस कारण प्राणदण्ड का अपराधी कैसे मान सकते थे ?

राम पर यह मिथ्या आऱोप महर्षि वाल्मीकि ने नहीं उत्तरकाण्ड की रचना करके वाल्मीकि रामायण में उसका प्रक्षेप करने वाले ने लगाया है ।

शायद मर्यादा पुरुषोत्तम के तथोक्त कुकृत्य से भ्रमित होकर ही आदि शंकराचार्य ने शूद्रों के लिए वेद के अध्यन श्रवणादि का निषेध करते हुए वेद मन्त्रों को श्रवण करने वाले शूद्रों के कानो में सीसा भरने पाठ करने वालों की जिव्हा काट डालने और स्मरण करने वालों के शरीर के टुकड़े कर देने का विधान किया ।  कालांतर में शंकर का अनुकरण करने वाले रामानुचार्य निम्बाकाचार्य आदि ने इस व्यवस्था का अनुमोदन किया ।  इन्ही से प्रेरणा पाकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में आदेश दिया –

पुजिये विप्र शीलगुणहीना, शुद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीना।  अरण्य ४०/१

ढोर गंवार शुद्र पशु नारी , ये सब ताडन के अधिकारी।  लंका ६१/३

परन्तु यह इन आचार्यों की निकृष्ट अवैदिक विचारधारा का परिचायक है ।  आर्ष साहित्य में कहीं भी इस प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता ।  परन्तु इन अज्ञानियों के इन दुष्कृत्यों का ही यह परिणाम है कि करोड़ों आर्य स्वधर्म का परित्याग करके विधर्मियों की गोद में चले गए ।  स्वयं शंकर की जन्मभूमि कालड़ी में ही नहीं सम्पूर्ण केरल में बड़ी संख्या में हिन्दू लोग ईसाई और मुसलमान हो गये और अखिल भारतीय स्थर पर देश के विभाजन का कारन बन गए और यदि शम्बूक का तपस्या करना  पापकर्म था तो उसका फल = दण्ड  उसी को मिलना  चाहिए था ।  परन्तु यहाँ अपराध तो किया शम्बूक ने और उसके फल स्वरुप मृत्यु दण्ड  मिला ब्राह्मण पुत्र को और इकलौते बेटे की मृत्यु से उत्पन्न शोक में ग्रस्त हुआ उसका पिता।  वर्तमान में इस घटना के कारण राम पर शूद्रों पर अत्याचार करने और सीता वनवास के कारण स्त्री जाति पर ही नहीं, निर्दोषों के प्रति अन्याय करने के लांछन लगाये जा रहे हैं ।  कौन रहना चाहेगा ऐसे रामराज्य में ?