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शबरी

Shabri

शबरी

लेखक- स्वामी विद्यानंद सरस्वती

लोकोक्ति है कि शबरी नामक भीलनी ने राम को अपने जूठे बेर खिलाये थे । इस विषय में अनेक कवियों ने बड़ी सरस और भावपूर्ण कवितायेँ भी लिख डालीं । परन्तु वाल्मीकि रामायण में न कोई भीलनी है और न बेर फिर बेरों के झूठे होने का तो प्रसंग ही नहीं उठता ।

सीता की खोज करते हुए जिस शबरी से रामचन्द्र जी की भेंट हुयी थी वह शबर जाति की न होकर शबरी नामक श्रमणी थी ७३/२६ ।  उसे ‘धर्म संस्थिता’ कहा गया है ७४/७ । राम ने भी उसे सिद्धासिद्ध और तपोधन कहते हुए सम्मानित किया  था  ७४/१० । सनातन धर्मी नेता स्वामी करपात्री के अनुसार शबरी का शबर जाती का होना और झूठे फल देना आदि प्रमाणिक न होकर प्रेम स्तुत्यर्थ है – मया तू संचितम्वन्यम (७४/१७) मैने आपके लिए विविध वन्य फल संचित किये हैं । यही वस्तु स्तिथि है । रामयण में इस प्रसंग में लिखा है – हे नर केसरी ! पम्पासर के तट पर पैदा होने वाले ये फल मेने आपके लिए संचित कर रक्खे हैं । अरण्य ७४/१७

पदम् पुराण में “स्वयमासाद्य” का अर्थ सभी ने यह किया है कि वह जिस पेड़ के फल तोड़ती थी उस पर के दो एक को चख कर देखती थीं कि वे ठीक हैं या नहीं । इस प्रकार खट्टे मीठे का परीक्षण करके वह मीठों  को अपनी टोकरी में डालती जाती थी और खट्टो को छोड़ती जाती थी । हमें बचपन में अनेक बार आम के बागों में जाकर इसी प्रकार परीक्षण कर करके आम खाने का अवसर मिला है । इस और ऐसे ही किसी अन्य अवतरण का यह अर्थ करना कि शबरी प्रत्येक फल को चख चख कर राम को खिलाती थी सर्वथा असंगत है ।

मनुस्मृति में स्पष्ट  लिखा है ” नोच्छिष्टंकस्यचिददद्यात” २/५६ ।  मनुस्मृति के टीकाकारो में सर्वाधिक प्रमाणिक कुल्लूक भट्ट ने इस पर अपनी टिप्प्णी में लिखा है – अनैन सामान्य निषेधेन ——————-. जब शास्त्र शुद्र को भी जूठा देने का निषेध करता है तो राम और लक्ष्मण जैसे प्रतिष्ठित अतिथियों को झूठाः खिलाने की कल्पना कैसे की जा सकती है ? जैसे किसी को अपना झूठा खिलाने का निषेध है वैसे  ही किसी का झूठाः खाना भी निषिद्ध है ।

विधि निषेध या धर्माधर्म के विषय में राम मनु स्मृति को ही प्रमाण मानते थे । बालि वध के प्रसंग में जब बाली की आपत्तियों का राम से अन्यथा उत्तर न बन पड़ा तो मनु की शरण ली और  कहा -सदाचार के प्रसंग में मनु ने दो श्लोक लिखे हैं ।  धर्मात्मा लोग उनके अनुसार आचरण करते हैं | मैंने  वही किया है | १८/३०-३१

इसलिए यदि शबरी ऐसी भूल कर बैठती तो निश्चय ही राम खाने से इंकार कर देते । अतः शबरी से सम्बंधित यह किवदंती प्रमाण एवं तर्क विरूध्द होने से मिथ्या है ।

अहल्योद्धार

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अहल्योद्धार

लेखक – स्वामी विद्यानंद सरस्वती

 

धुरिधरत निज सीस पैकहु रहीम केहि काज |

जेहिरज  मुनि पत्नी तरी तेहिढूँढत गजराज ||

कहते हें कि हाथी चलते चलते अपनी सूंड से मिट्टी उठाकर अपने शरीर पर डालता रहता है ।  वह ऐसा क्यों करता है ? रहीम के विचार में वह उस मिट्टी को खोज रहा है जिसका स्पर्श पाकर मुनि पत्नी का उद्धार हो गया था ।  इस दोहे में जिस घटना का संकेत है उसके अनुसार गौतम मुनि की पत्नी अहल्या अपने पति के शाप से पत्थर हो गयी थी और रामचंद्र जी के चरणों की घुलि का स्पर्श पाकर पुनः मानवी रूप में आ गयी थी ।

पौराणिक कथा के अनुसार – एक समय ब्रह्मा जी ने अपनी इच्छा से एक अत्यंत रूपवती  कन्या की सृष्टी की और उसका विवाह गौतम ऋषी से कर दिया ।  एक बार इंद्र गौतम मुनि का रूप धारण करके उनकी स्त्री अहल्या के पास गया और उससे सम्भोग करने लगा ।  उसी समय गौतम वहाँ आ गए इस पर अहल्या ने उस छदमवेषधारी इंद्रा को कुटिया में छिपा दिया ।  तब वह द्वार खोलने गई ।  मुनि ने द्वार खोलने में देरी का कारन पूछा तो अहल्या ने वास्तविकता को छिपा कर बात बना दी ।  परन्तु ऋषी ने अपने तपोबल से सब कुछ जानकर अहल्या को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया और यह भी कह दिया कि त्रेता में जब भगवान् राम अवतार लेंगे तो उनके चरणों की धूलि से तेरा उद्धार होगा ।

मनुष्य से पत्थर और लाखों वर्ष बाद पत्थर से मनुष्य बन जाने की गोस्वामी तुलसीदास द्वारा प्रचारित इस कथा का आदि कवी की रचना में कोई उल्लेख नहीं है ।  वाल्मीकि रचित रामायण में अहल्या के प्रसंग में बालकाण्डसर्ग ४८ में इस प्रकार लिखा है ।

इंद्र ने गौतम का वेश  धारण कर और वैसा ही स्वर बनाकर  अहल्या से कहा – अर्थी ” रति की कामना करने वाले ” ऋतू काल की प्रतीक्षा नहीं करते।  इसलिए में तुम्हारा समागम चाहता हूँ ।  दुष्ट बुद्धी अहल्या ने मुनि वेशधारी इंद्र को पहचान कर भी कुतूहलवश उससे समागम किया ।  तत्पश्चात अहल्या ने संतुष्ट मन से इंद्र से कहा – हे इंद्र में संतुष्ट हूँ अब तुम यहाँ से शीघ्र चले जाओ ।  इस पर इंद्र हंसते हुए बोला – में भी संतुष्ट हूँ ।  यह कह कर कुटिया से बहार निकल गया ।  गौतम मुनि ने इंद्र को कुटिया से निकलते हुए देख लिया और अहल्या को श्राप देते हुए कहा ‘ तू यहाँ सहस्त्रों वर्ष तक निवास करेगी आहार रहित केवल वायु का भक्षण करने वाली भस्म में सोने वाली संतप्त और सबसे अदृश्य रहकर इस आश्रम में वास करेगी ।  इससे यह प्रतीत होता है यद्यपि इंद्र ने गौतम का रूप धारण करके छल किया अहल्या के साथ समागम उसने उसके (अहल्या के ) स्वेच्छापूर्वक समर्पण के बाद ही किया ।  अर्थात अहल्या ने यह कुकृत्य जानबूझकर किया ।  हो सकता है कि बाद में अहल्या को अपने इस कुकृत्य पर पश्चाताप हुआ हो और लज्जा के कारन समाज से दूर रह कर अपना जीवन व्यतीत करने लगी हो – न किसी से बोल चाल न ढंग से खाना पीना इत्यादि ।  यही उसका पत्थर हो जाना कहा गया हो ।

उधर इंद्र ने अपने कुकृत्य को “सुरकर्म” बताया है (४९/२)  | परन्तु वहीं श्लोक ६ से स्पष्ट होता है कि इंद्र ने यह कृत्य बिना सोचे समझे काम के वशीभूत होकर किया  था ।  जहाँ इन श्लोकों में इंद्र के अहल्या की इच्छा से समागम करने की बात कही गई है । वहाँ निम्न श्लोक में उसे बलात्कारी बताया गया है ।-

पहले विचार न करके मोह से मुनि पत्नी से बलात्कार करके  मुनि के शाप से उसी स्थान पर वृषण हीन  किया गया ।  इंद्र अब देवों पर क्रोध कर रहा है ।  ४९/६-७

पुनः सर्ग ५१ में गौतम के पुत्र शानंद का वक्तव्य भी दृष्टव्य है ।  उसने अपनी माता को ‘यशस्विनी  (श्लोक ५-६ ) बताया है ।  स्पष्ट है कि अहल्या ने इंद्र के साथ समागम अपनी इच्छा से नहीं किया था ।  इंद्र के छल से ही वह चाल चली  थी ।  आगे कहा है राम और लक्ष्मण ने उसके पैर छुए (४९/१९) यही नहीं अहल्या ने भी दोनों को अतिथि रूप में स्वीकार  किया और उनका स्वागत किया यदि अहल्या का चरित्र संदिग्ध होता तो क्या यह सब कुछ होता ?

इस समस्त वर्णन में अहल्या के शीला रूप होने और राम की चरण रज के स्पर्श से पुनः मानवी रूप में आने का कहीं संकेत तक नहीं है।  रामायण का प्रसिद्ध  टीकाकार गोविंदराज भी इस बात को नहीं मनाता ।  उन्होंने स्पष्ट लिखा है  वाल्मीकि को अहल्या का पाषाण रूप होना अभिमत नहीं है ।

अहल्या सम्बन्धी उस कथा को विश्वामित्र से सुनकर जब राम लक्ष्मण ने गौतम मुनि के आश्रम में प्रवेश किया तो उन्होंने अहल्या को जिस रूप में देखा उसका वर्णन वाल्मीकि ने इस प्रकार किया है – तप से दीप्तमान रूप वाली बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्निशिखा और सूर्य के तेज के समान – क्या यह शिला  रूप अहल्या का वर्णन हो सकता है ? इतना ही नहीं शाप का अंत हुआ जानकर वह राम के दर्शनाथ आई।  शिलाभूत अहल्या के गमनार्थक “आई ” क्रिया पद का प्रयोग कैसे हो सकता था ? वस्तुतस्तु अहल्या अपने पति गौतम मुनि की भांति तपोनिष्ठ देवी थी |

ब्राह्मण ग्रंथों में इंद्र को ‘अहल्यायैजार’ कहा है ।  इसके रहस्य को न समझने के कारण लोगों ने मनमाने ढंग से कथा गढ़कर  अहल्या पर चरित्र दोष लगाया है ।  इस रहस्य को तंत्र वार्तिक के शिष्टाचार प्रकरण में शंका को पूर्ववर्ती भट्टाचार्य ने इस प्रकार स्पष्ट किया है – इंद्र का अर्थ है परम ऐश्वर्यवान वह कौन अहि ? सूर्य ।  अहल्या दो शब्दों से मिलकर बना है – अह और ल्या।  अह का अर्थ अहि दिन और ल्या  का अर्थ है छिपने वाली।  इस प्रकार दिन में छिपाने वाली या न रहने वाली को अहल्या कहते हैं ।  वह कौन है ? “रात्रि ” जार का अर्थ है जीर्ण करने वाला ।  रात्रि को जीर्ण  क्षीण करने वाला होने से सूर्य ही रात्रि अर्थात अहल्या का जार कहलाता है ।  इस प्रकार यह परस्त्री से व्यभिचार करने वाले किसी पुरुषविशेष (इंद्र ) का कोई प्रसंग नहीं है ।

स्वामी श्रद्धानन्द समय की चुनौती का जवाब थे

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स्वामी श्रद्धानन्द समय की चुनौती का  जवाब थे

लेखक – सत्यव्रत सिद्धांतालंकार

आरनॉल्ड तोयनबी एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हुए हैं।  उन्होंने समाज में होने वाले परिवर्तनों के सम्बन्ध में एक नियम का प्रतिपादन किया है।  उनका कथन है कि समाज में जब कोई असाधारण स्तिथी उत्पन्न हो जाती है , तब वह व्यक्ति तथा समाज के लिए चुनौती या चैलेंज का रूप धारण कर लेती है ।  वह परिस्तिथी व्यक्ति या समाज को मानो ललकारती है , उसके सामने एक आवाहन पटकती है और पूछती है कि है कोई माई का लाल जो इस असाधारण परिस्तिथी का इस ललकार का , इस चैलेंज का , इस आवाहन का , मर्द होकर सामना कर सके ।  इस ललकार का जवाब दे सके ?

तोयनबी का कथन है कि जब हम वैयक्तिक या सामाजिक रूप से किसी भौतिक या सामाजिक विकट परिस्तिथी से घिर जाते हैं , तब हममें या समाज में उस कठिन परिस्तिथी, कठिन समस्या को हल करने के लिए एक असाधारण क्रीयाशक्ति, असाधारण स्फ्रुरन उत्पन्न हो जाती है ।  भौतक अथवा सामाजिक कठिन , विषम परिस्तिथी हमें मलियामेट न कर दे , इसलिए परिस्तिथी के आवाहन उसकी ललकार , उसके चैलेंज के प्रतीक जो व्यक्ति प्रतिकिया करने के लिए उठ खड़े होते हैं , चैलेंज का उत्तर देते हैं , वे अपने को और समाज को बचा लेते हैं ।  जो समाज को नया मोड़ देते हैं वे ही समाज के नेता कहलाते हैं ।  जब समाज किसी उलझन में पड  जाता है तब उसमें से निकलना तो हर एक चाहता है हर व्यक्ति कि यही इच्छा होती है कि यह संकट दूर हो , परन्तु हर को उस चैलेंज का सामना करने के लिए अखाड़े में उतरने को तैयार नहीं होता ।  विक्षुप्त समाज का असंतोष , उसकी बैचेनी जिस व्यक्ति में प्रतिविम्बित हो जाती है , और प्रतिविम्बित होने पर जो व्यक्ति उस संतोष का सामना करने के लिए खम्बे ठोककर खड़ा होता है , वही जनता की आशाओं का सरताज होता है ।

मैं  स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन को इसी दृष्टि से देखता हूँ ।  वे समय की चुनौती का, समय की ललकार का जीता जागता जवाब थे ।  क्या हमारे सामने चुनौतियाँ और ललकारें  नहीं आती ? हम हर दिन चुनौतियों से घिरे हुए हैं ।  परन्तु हममें उन चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत नहीं ।  व्यक्ति जीवित रहता है तब वह चुनौतियों का सामना करता रहता है, समाज भी तभी तक जीवित रहता है जब तक वह चुनौतियों का सामना करता रहता है ।  चुनौतियों का काम ही व्यक्ति अथवा समाज में हिम्मत जगा देना है , परन्तु ऐसी अवस्था भी आ सकती है जब व्यक्ति अथवा समाज इतनी हिम्मत हार बैठे कि उसमें ललकार का सामना करने की ताकत ही न रहे।  ऐसी हालत में वह व्यक्ति बेकार हो जाता है समाज बेकार हो जाता है ।  स्वामी श्रद्धानन्द उन व्यक्तियों में से थे जो सामने चैलेंज को देखकर उसका सामना करने के लिए शक्ति के उफान से भर जाते थे ।  उनका  जीवन हर चुनौती का जवाब था | तभी ५० वर्ष बीत जाने पर हम उन्हें नहीं भुला सके ।

उनके जीवन के पन्नों को पलटकर देखिये कि वे क्या थे ? वे अपनी जीवनी में लिखते हैं जब उनके बच्चे स्कूल से पड़कर आते थे- “ईसा ईसा बोल तेरा क्या लगेगा मोल”।  आज भी हमारे बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पड़कर बहुतेरी इस प्रकार की हरकतें करते हैं परन्तु हमारे सामने ऐसी कोई बात चुनौती का रूप नहीं धारण करती ।  उस समय में महात्मा मुंशीराम थे उनके सामने बच्चों का इस प्रकार गाना एक चुनौती के रूप में उठ खड़ा हुआ जिसकी प्रतिक्रिया के रूप में नवीन शिक्षा प्रणाली की नीवं रखी गयी ।  आज को सब लोग गुरुकुल शिक्षाप्रणाली के सिध्दांतों को शिक्षा के आदर्श तथा मुलभुत सिद्धान्त मानने लगे हैं उसका मूल एक चुनौती का सामना करना था ।  जो एक साधारण घटना के रूप में महात्मा मुंशीराम के सामने उठ खड़ी हुयी थी।

सत्यार्थ प्रकाश पड़ते हुए उन्होंने पड़ा कि गृह्स्थ आश्रम के बाद वानप्रस्थ में प्रवेश करना चाहिए ।  यह कोई नया आविष्कार नहीं था जो भी वैदिक संस्कृति से परिचित है वह जानता है कि इस संस्कृति में चार आश्रम हैं ।  परन्तु नहीं उन महान आत्मा के सामने यह एक चैलेंज था ।  पड़ते सब हैं, परन्तु उसके लिए तो पढ़ना पढ़ने  के लिए नहीं, करने के लिए था ।  गुरकुल विश्वविद्यालय की एक जंगल में स्थापना कर वे वहीं रहने लगे | मृतमान वानप्रस्थ आश्रम को उन्होंने अपने जीवन में क्रियात्मक रूप देकर जीवित कर दिया।  यह क्या था अगर वैदिक संकृति की चुनौती का जवाब नहीं था ।  फिर , वानप्रस्थ पर ही टिक नहीं गए ।  वानप्रस्थ के बाद सन्यास भी लिया ।  और देश में जितना महात्मा मुंशीराम यह नाम विख्यात था उतना ही स्वामी श्रद्धानन्द यह नाम भी विख्यात हो गया ।  ऐसे भी लोग मुझे मिले हैं जो महात्मा मुंशीराम और स्वामी श्रद्धानन्द की दोनों अलग अलग व्यक्ति समझते हैं ।  इसका कारण यही है कि महात्मा मुंशीराम ने जिस प्रकार  लगातार चुनौती पर चुनौती का सामना किया, उसी प्रकार स्वामी श्रद्धानन्द  ने भी चुनौती पर चुनौती का सामना किया इसीलिये कुछ व्यक्तियों के लिए जो यह नहीं जानते थे कि महात्मा मुंशीराम ही सन्यास ले कर स्वामी श्रद्धानन्द बन गए ये तो नाम तो महापुरुषों के नाम हो गए जो अपने अपने जीवन काल में असाधारण सामजिक परिस्तिथियों, सामाजिक ललकारों और चुनौतियों के साथ जूझकर अपने जीवन की अमर कहानी लिख गए।

गुरुकुल में रहकर वो एक पत्र निकला करते थे जिसका नाम था “सद्धर्म प्रचारक” ।  यह पत्र उर्दू में प्रकाशित हुआ करता था ।  इसके ग्राहक उर्दू जाने वाले थे हिंदी जानने वाले नहीं थे ।  लेकिन अचानक वह पत्र सब ग्राहकों के पास उर्दू के स्थान में हिंदी में पहुंचा ।  यह क्या चुनौती का जवाब नहीं था ।  जिस व्यक्ति ने घोषणा की हो कि वह गुरकुल में ऊंची से ऊंची शिक्षा मातृ भाषा हिंदी में देने का प्रबंध करेगा, उसका पत्र उर्दू में प्रकाशित हो यह विडम्बना थी ।  उन्हें मालूम था कि एकदम उर्दू से हिंदी में पत्र प्रकाशित करने से ग्राहक छंट जायेंगे परन्तु इस चैलेंज का उन्हे सामना करना था ।  परिणाम यह हुआ कि उनकी आवाज को सुनने के लिए ग्राहकों ने हिंदी सीखना शुरू किया पर पत्र के ग्राहक पहले से कई गुना बढ़  गए । लोग हिंदी की दुहाई देते और उर्दू या अंगरेजी में लिखते या बोलते थे परन्तु उस महान आत्मा के लिए यही बात एक चुनौती का काम कर गयी ।

वे किस प्रकार चुनौती का सामना करते थे इसके एक नहीं अनेक उदाहरण  हें ।  सत्यग्रह के दिनों में जब जनता का जुलुस दिल्ली के घण्टाघर की तरफ बढ़ता  जा रहा था तब गोर सिपाहियों ने इसे रोकने के लिए गोली चलने की धमकी दी थी ।  यह धमकी उस महान आत्मा के लिए भारत माता की बलिवेदी पर अपने को कुरबान कर देने की ललकार थी ।  साधारण प्रकृति के लोग उस धमकी को सुनकर ही तितर बितर हो जाते, परन्तु श्रद्धानन्द ही था जिसने छाती तानकर गोरों को गोली चलाने के लिए ललकारा ।  समाज शाश्त्र का यह नियम है कि असाधारण परिस्तिथी उत्पन्न होने पर महान  आत्मा के ह्रदय में असाधारण स्फुरण हो जाता है ।  असाधारण क्रिया शक्ति को उसे समकालीन मानव समाज से बहुत ऊपर लेजाकर शिखर पर खड़ा कर देती है ।

मुझे इस अवसर पर मथुरा शताब्दी की घटना स्मरण हो जाती है ।  उत्सव हो रहा था।  स्वामी जी उत्सव का सञ्चालन कर रहे थे ।  मुझे उन्होंने अपने पास कार्यवाही के संचालन के लिए बैठाया हुआ था ।  अचानक खबर आयी कि शहर में दंगा हो गया पण्डों ने आर्य समाजियों को पीटा उनपर लट्ठ चलाये ।  स्वामी जी इस समाचार को सुनकर ही मुझसे कहने लगे देखो कार्यवाही बदस्तूर चलाती रहो तुम यहाँ से मत हिलना मैं  मथुरा शहर जा रहा हूँ ।  स्वामी जी उसी समय घटना स्थल पर पहुंचे व स्तिथी को संभाल कर लौटे ।  इनके जीवन की एक एक घटना तोयानबी  के इस समाज शास्त्रीय नियम की विषद व्याख्या है कि विकट परिस्तिथी आने पर प्रत्येक व्यक्ति उस परिस्तिथी से निकलने के लिए उससे जूझना चाहता है परन्तु भीरुता के कारण जूझ नहीं पाता । उस समय के महापुरुष होता है जो सबकी पीड़ा को अपने ह्रदय में खींचकर परिस्तिथी की विषमता से लड़ने के लिए उठ खड़ा होता है और जब ऐसा कोई महापुरुष सामने आता है तब सबके सिर उसके पैरों में नत जाते हैं ।

समय की चुनौती का जवाब देने वाले जो महापुरुष भारत में हुए हैं उनके श्रेणी में स्वामी श्रद्धानन्द  का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जा चुका है । ऐसी महान आत्मा को मेरा बार बार नमस्कार है ।

लव कुश के जन्म की यथार्थ कहानी….

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लव कुश के जन्म की यथार्थ कहानी….

 लेखक – स्वामी विद्यानंद जी सरस्वती

राम द्वारा अयोध्या यज्ञ में महर्षि वाल्मीकि  आये  उन्होंने अपने दो हष्ट पुष्ट शिष्यों से कहा – तुम दोनों भाई सब ओर  घूम फिर कर बड़े आनंदपूर्वक सम्पूर्ण रामायण का गान करो। यदि  श्री रघुनाथ  पूछें – बच्चो ! तुम दोनों किसके पुत्र हो तो महाराज से कह देना कि हम  दोनों भाई महर्षि वाल्मीकि के शिष्य हैं । ९३ /५

उन दोनों को देख सुन कर  लोग परस्पर कहने लगे – इन दोनों कुमारों की आकृति बिल्कुल रामचंद्र जी से मिलती है ये बिम्ब से प्रगट हुए प्रतिबिम्ब के सामान प्रतीत होते हैं ।  ९४/१४

यदि इनके सर पर जटाएं न होतीं और ये वल्कल वस्त्र न पहने होते तो हमें रामचन्द्र  जी में और गायन करने वाले इन कुमारों में कोई अंतर दिखाई नहीं देता।  ९४/१४

बीस सर्गों तक गायन सुनाने के बाद श्री राम ने अपने छोटे भाई भरत से दोनों भाइयों को १८ -१८ हजार मुद्राएं पुरस्कार रूप में देने को कह दिया। यह भी कह दिया कि और जो कुछ वे चाहें वह भी दे देना ।  पर दिए जाने पर भी दोनों भाइयों ने लेना स्वीकार नहीं किया । वे बोले – इस धन की क्या आवश्यकता है ? हम वनवासी हैं । जंगली फूल से निर्वाह करते हैं सोना चांदी लेकर क्या करेंगे । उनके ऐसा कहने पर श्रोताओं के मन में बड़ा कुतूहल हुआ । रामचंद्र जी सहित सभी श्रोता आश्चर्य चकित रह गए । रचयिता का नाम पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि हमारे गुरु वाल्मीकि जी ने सब रचना की है । उन्होंने आपके चरित्र को महाकाव्य रूप दिया है इसमें आपके जीवन की सब बातें आ गयी हैं ९४/१८ – २८

उस कथा से रामचंद्र जी को मालूम हुआ कि कुश और लव दोनों सीता के पुत्र हैं ।  कालिदास के दुष्यंत के मन में शकुंतला के पुत्र नन्हे भरत को देखते ही जिन भावों का उद्रेक हुआ था , क्या राम के मन में लव और कुश को देख – सुनकर कुछ वैसी ही प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए थी ? आदि कवि ऐसे मार्मिक प्रसंग को अछूता कैसे छोड़ देते । निश्चय ही यह समूचा प्रसंग सर्वथा कल्पित एवं प्रक्षिप्त है । यह जानकारी सभा के बीच बैठे हुए रामचन्द्र जी ने तो शुद्ध आचार विचार वाले दूतों को बुलाकर इतना ही कहा – तुम लोग भगवन वाल्मीकि के पास जाकर कहो कि यदि सीता का चरित्र शुध्द है और उनमें कोई पाप नहीं है तो वह महामुनि से अनुमति ले यहाँ जन समुदाय के सामने अपनी पवित्रता प्रमाणित करें।

इस प्रकरण के अनुसार रामचन्द्र  जी को यज्ञ में आये कुमारों के रामायण पाठ  से ही लव कुश के उनके अपने पुत्र होने का पता चला था । परन्तु इसी उत्तर काण्ड  के सर्ग ६५-६६ के अनुसार शत्रुघ्न को लव कुश के जन्म लेने का बहुत पहले पता था | सीता के प्रसव काल में शत्रुघ्न वाल्मीकि के आश्रय में उपस्थित थे । जिस रात को शत्रुघ्न ने महर्षि की पर्णशाला में प्रवेश किया था।  उसी रात सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया था । आधी रात के समय कुछ मुनि कुमारों ने वाल्मीकि जी के पास आकर बताया – “भगवन ! रामचन्द्र जी की पत्नी ने दो पुत्रों को जन्म दिया है । ” उन कुमारों की बात सुनकर महर्षि उस स्थान पर गए।  सीता जी के वे दोनों पुत्र बाल चन्द्रमा के सामान सुन्दर तथा देवकुमारों के सामान तेजस्वी थे।

आधी रात को शत्रुघ्न को सीता के दो पुत्रों के होने का संवाद मिला।  तब वे सीता की पर्णशाला में गए और बोले – माता जी यह बड़े सौभाग्य की बात है ” महात्मा शत्रुघ्न उस समय इतने प्रसन्न थे कि उनकी वह वर्षाकालीन सावन की रात बात की बात में बीत गई । सवेरा होने पर महापराक्रमी शत्रुघ्न हाथ जोड़ मुनि की आज्ञा लेकर पश्चिम दिशा की और चल दिए | 66/12-14

यह कैसे हो सकता है कि शत्रुघ्न ने वर्षों तक रामचंद्र जी को ही नहीं । सारे परिवार को सीता के पुत्रों के होने का शुभ समाचार न दिया हो । महर्षि वाल्मीकि का आश्रय भी अयोद्ध्या से कौन दूर था – उनका अयोध्या में आना जाना भी लगा रहता था । इसलिए यज्ञ के अवसर पर लव कुश के सार्वजानिक रूप से रामायण के गाये जाने के समय तक राम को अपने पुत्रों के पैदा होने का पता न चला हो, यह कैसे हो सकता है ? इससे उत्तरकाण्ड के प्रक्षिप्त होने के साथ साथ यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह किसी एक व्यक्ति की रचना भी नहीं है अन्यथा उसमें पूर्वापर विरोध न होता ।

प्रक्षिप्त उत्तरकाण्ड के अंतर्गत होने से लव कुश का राम की संतान होना भी संदिग्ध है । नारद द्वारा प्रस्तुत कथावस्तु के अनुसार ही वाल्मीकि कृत रामायण में उसका कोई उल्लेख नहीं है ।

स्वामी ध्रुवानन्द

Swami Dhruvanand Sarasvati

स्वामी ध्रुवानन्द

डा. अशोक आर्य

गांव पानी जिला मथुरा उतर प्रदेश में आप का जन्म हुआ । आप का नाम धुरेन्द्र था तथा शास्त्री होने पर नाम के साथ शास्त्री लग गया ओर सन १९३९ में राजा उम्मेद सिंह , नरेश शाहपुर ने आप को राजगुरु की उपाधि दी तो आप के नाम के साथ राजगुरु भी जुड गया । इस प्रकार आप का पूरा नाम धुरेन्द्र शास्त्री , राजगुरु बना ।

स्वामी सर्वदानन्द जी ने अलीगट से पच्चीस किलोमीटर दूर काली नदी के तट पर एक सुरम्य स्थान पर गुरुकुल की स्थापना की । इस स्थन का नाम हर्दुआगंज है । वास्तव में यह हरदुआगंज नामक गांव इस गुरुकुल से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर है । इस गांव में ही स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनन्य सेवक मुकन्द सिंह जी निवास करते थे । उनकी सन्तानें अब भी यहीं रहती हैं । स्वामी जी जब भी इधर आते थे तो काली नदी के पुल के पास स्थापित चौकी पर बैटा करते थे । यह चौकी गुरुकुल के मुख्य द्वार के टीक सामने है । आप की शिक्शा मुख्य रुप से इस गुरुकुल मेम, ही हुई ।

आर्य समाज की सेवा का ही परिणाम था कि आप आर्य प्रतिनिधि सभा संयुक्त प्रान्त के प्रधान बने तथा बाद में सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के भी अनेक वर्ष्ज तक प्रधान रहे ।  आर्य समाज के आन्दोलनों में आप स्स्दा ही बट चट कर बाग लेते थे । इस कारण ही आप हैदराबाद सत्याग्रह में भी आगे आए तथा इस आन्दो;लन का नेत्रत्व किया ।

आप ने जब संन्यस लिया तो आप को स्वामी ध्रुवानन्द का नाम दिया गया । आप की सम्पादित  एक पुस्तक सन १९३८ इस्वी में शाहपुर से ही प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में विवाह संस्कार के अन्तर्गत ” वरवधू के बोलने योग्य मंत्र ” शीर्षक दिया गया । दिनांक २९ जून १९६५ इस्वी को आप का देहान्त हो गया ।

स्वामी ओमानन्द सरस्वती

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स्वामी ओमानन्द सरस्वती

– डा. अशोक आर्य

स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी का जन्म गांव नरेला ( दिल्ली ) में दिनाक चैत्र शुक्ला ८ सम्वत १९६७ विक्रमी तदनुसार ९ जून १९११ इस्वी को हुआ । आप के पिता गांव के धनाट्य थे जिनका नाम कनक सिंह था । माता का नाम नान्ही देवी था । आप का नाम भगवान सिंह रखा गया ।

आप ने गांव के ही हाई स्कूल में अपनी शिक्शा आरम्भ की । आरम्भिक शिक्शा पूर्ण कर आप दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेंस कालेज में उच्च शिक्शा के लिए प्रवेश लिया । यहां से आप ने एफ़ ए की उपाधि की परीक्शा उतीर्ण कर देश के स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पडे तथा देश को स्वाधीन कराने के प्रयास में समय लगाने के लिए आप ने आगे की शिक्शा को छोडने का निर्णय लिया ।

अब आप ने नियमित रुप से आर्य समाज के साथ ही साथ कांग्रेस की कार्य योजनाओं का भाग बनकर इन के लिए कार्य आरम्भ कर दिया । आप की पटने की इच्छा अभी पूरी प्रकार से समाप्त न हुई थी , इस कारण आप ने दयानन्द वेद विद्यालय निगम बोध घाट में प्रवेश लिया तथा यहां रहते हुए आप ने संस्क्रत व्याकरण का खूब अध्ययन किया । इतना ही नहीं आप ने गुरुकुल चितौड में प्रवेश ले कर कुछ समय यहां से शास्त्रों का भी अध्ययन किया ।

अब तक आप एक अच्छे शिक्शक के योग्य बन चुके थे । अत: सन १९४२ में आपने गुरुकुल झज्जर में आचार्य पद की नियुक्ति प्राप्त की तथा आप इस संस्था की निरन्तर उन्नति के लिए जुट गये । आप के नेत्रत्व ने इस गुरुकुल ने भरपूर उन्नति की । आप के प्रयत्नों से गुरुकुल झज्जर ने एक महाविद्यालय का रुप लिया तथा देश के उतम गुरुकुलों में स्थान बनाने में सफ़ल हुआ । इतना ही नहीं यह आर्ष शिक्शा का भी उत्तम केन्द्र बन गया । इस मध्य ही आप न जाने कब भगवान सिंह से भगवान देव बन गए किसी को पता हि न चला ।

आप देश के पूर्व वैभव के प्रमाण चुन चुनकर एकत्र करते रह्ते थे । प्राचीन इतिहास तथा पुरातत्व के कार्यों में आप की अत्य दिक रुचि थी । इस कारण ही जब आप इन सिक्कों व कंक्ड – पत्थरों को साफ़ कर रहे होते थे तो लोग आप का मजाक उडाया करते थे किन्तु इस सब के परिणाम स्वरुप गुरुकुल में एक उच्चकोटि का संग्रहालय बन गया है , जिसे देखने के लिए विदेश के लोग भी आते हैं । इस संग्रहालय में कुछ एसी सामग्री भी है , जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं । १९६५ में व १९७१ में जो भारत का पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ , उस सम्बन्ध में जब आप अबोहर आये तथा फ़ाजिलका सैनिकों से मिलने गये तो मैं भी आप के साथ गया । यहां तोपों के अनेक खाली गोले तो आप को भेंट किये ही गये , एक एसा टोप भी भेंट किया गया , जिसके एक ओर से गोली अन्दर जाकर दूसरी ओर से निकल गयी थी किन्तु जिस सैनिक के सिर पर यह टोप था वह पूरी प्रकार से बच गया था । यह सामग्री भी आज इस संग्रहालय की शोभा बना हुआ है । आप का सैनिकों में प्रचार करना एक उपलब्धि थी ।

आप ने १९७० इस्वी में स्वामी सर्वानन्द सरस्वती जी से संन्यास की दीक्शा ली तथा स्वामी ओमानन्द सरस्वती बन गये । आप परोपकारिणी सभा अजमेर के प्रधान रहे तथा सार्वदेशिक सभा के भी । आप ने अनेक देशों में भी आर्य समाज का सन्देश दिया । एसे देशों में यूरोप , अमेरिका , अफ़्रीका , पूर्वी एशिया के अनेक देश सम्मिलित हैं ।

आप एक अच्छे लेखक व सम्पादक भी थे । आप ने आर्य समाज को धरोहर रुप में अनेक पुस्तकें भी दीं । इन में आर्य समाज के बलिदान , स्वप्न्दोष ओर उसकी चिकित्सा, व्यायाम का महत्व,नेत्र रक्शा, भोजन आदि पुस्तकों के अतिरिक्त अपनी विदेश यात्राओं इंग्लैण्ड, नैरौबी , जापान तथा काला पानी का भी उल्लेख किया तथा गुरुकुल पत्रिका सुधारक के सम्पादक भी रहे ।

आप का पुरातत्व के लिए जो प्रेम था उसके कारण आप ने इतिहास, प्राचीन मुद्राओं . प्राचीन सिक्कों , वीर योधेय आदि पर अपने खोज पूर्ण व एक उतम गवेषक के रुप में कई ग्रन्थ दिये । सत्यार्थ प्रकाश को ताम्बे की प्लेटों पर उत्कीर्ण करवा कर यह प्लेटें भी गुरुकुल के संग्रहालय का अंग बना दी गई हैं । अन्त में आर्य समाज का यह योद्धा दिनांक २३ मार्च २००३ इस्वी को इस संसार से विदा हुए ।

स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती

Swami Rameshwaranand Saraswati

स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती 

-डा. अशोक आर्य

स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्ती जी आर्य समाज के तेजस्वी संन्यसी थे । आप उच्चकोटि के वक्ता थे तथा उतम विद्वान व विचारक थे । सन १८९० मे आप का जन्म एक क्रष्क परिवार में हुआ । आप आरम्भ से ही मेधावी होने के साथ ही साथ विरक्त व्रति के थे । आप उच्च शिक्शा न पा सके गांव में ही पाट्शाला की साधारण सी शिक्शा प्राप्त की ।

आरम्भ से ही विरक्ति की धुन के कारण आप शीघ्र ही घर छोड कर चल दिए तथा काशी जा पहुंचे । यहां पर आप ने स्वामी क्रष्णानन्द जी से संन्यास की दीक्शा  ली  । संन्यासी होने पर भी आप कुछ समय पौराणिक विचारों में रहते हुए इस का ही अनुगमन करते रहे किन्तु कुछ समय पश्चात ही आपका झुकाव आर्य समाज की ओर हुआ । आर्य समाज में प्रवेश के साथ ही आप को विद्या उपार्जन की धुन सवार हुई तथा आप गुरुकुल ज्वाला पुर जा पहुंचे तथा आचार्य स्वामी शुद्ध बोध तीर्थ जी से संस्क्रत व्याकरण पटा ।

यहां से आप खुर्जा आए तथा यहां के निवास काल में दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया । इसके पस्चात आप काशी चले गए । काशी में रहते हुए आप ने की शास्त्रों का गहन व विस्त्रत अध्ययन किया । इस प्रकार आपका अधययन का कार्य २१ वर्ष का रहा , जो सन १९३५ इस्वी में पूर्ण किया ।

स्वामी जी ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भी खूब भाग लिया । सन १९३९ मे जब हैदराबाद सत्याग्रह का शंखनाद हुआ तो आप इस में भी कूद पडे । इस मध्य आप को ओरंगाबाद की जेल को अपना निवास बनाना पडा । १७ अप्रैल १९३९ को आपने जिला करनाल , हरियाणा के गांव घरौण्डा में गुरुकुल की स्थापना की । आप ने आर्य समाज के अन्य आन्दोलनों में भी बट चट कर भाग लिया । जब पंजाब की कांग्रेस की सर्कार के मुखिया सरदार प्रताप सिंह कैरो ने पंजाब से हिन्दी को समाप्त करने के लिए कार्य आरम्भ कर दिया तो आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को हिन्दी रक्शा के लिए एक बहुत विशाल आन्दोलन करना पडा । आप ने इस आन्दोलन में भी खूब भाग लिया तथा पंजाबी सूबा विरूध आन्दोलन में भी आपने बलिदानी कार्य किया ।

आप की देश व धर्म की सेवाओं को देखते हुए लोगों ने आप को सांसद चुन लिया तथा आप लोक सभा के सदस्य भी बने । आप ने अनेक पुस्तकें भी लिखीं , यथा महर्षि दयनन्द ओर राजनीति , महर्षि दयानन्द का योग , संध्या भाष्यम , नमस्ते प्रदीप , महर्षि दयानन्द ओर आर्य समाजी पण्डित , विवाह पद्ध्ति , भ्रमोच्छेदन आदि । देश के इस नि:स्वार्थी तथा निर्भीक वक्ता का ८ मई १९९० इस्वी को निधन हो गया ।

पण्डित प्रकाश वीर शास्त्री

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-डा. अशोक आर्य

आर्य समाज के जो प्रमुख वक्ता हुए, कुशल राजनेता हुए उनमें पं. प्रकाश वीर शास्त्री जी का नाम प्रमुख रुप से लिया जाता है । आप का नाम प्रकाशचन्द्र रखा गया । आप का जन्म गांव रहरा जिला मुरादाबाद , उतर प्रदेश मे हुआ । आप के पिता का नाम श्री दिलीपसिंह त्यागी था , जो आर्य विचारों के थे ।

उस काल का प्रत्येक आर्य परिवार अपनी सन्तान को गुरुकुल की शिक्शा देना चाहता था । इस कारण आप का प्रवेश भी पिता जी ने गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में किया ।  इस गुरुकुल में एक अन्य विद्यार्थी भी आप ही के नाम का होने से आप का नाम बदल कर प्रकाशवीर कर दिया गया । इस गुरुकुल में अपने पुरुषार्थ से आपने विद्याभास्कर तथा शास्त्री की प्रीक्शाएं उतीर्ण कीं । तत्पश्चात आप ने संस्क्रत विषय में आगरा विश्व विद्यालय से एम ए की परीक्शा प्रथम श्रेणी से पास की ।

पण्डित जी स्वामी दयानन्द जी तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों में पूरी आस्था रखते थे । इस कारण ही आर्य समाज की अस्मिता को बनाए रखने के लिए आपने १९३९ में मात्र १६ वर्ष की आयु में ही हैदराबद के धर्म युद्ध में भाग लेते हुए सत्याग्रह किया तथा जेल गये ।

आप की आर्य समाज के प्रति अगाध आस्था थी , इस कारण आप अपनी शिक्शा पूर्ण करने पर आर्य प्रतिनिधि सभा उतर प्रदेश के माध्यम से उपदेशक स्वरुप कार्य करने लगे । आप इतना ओजस्वी व्याख्यान देते थे कि कुछ ही समय में आप का नाम देश के दूरस्थ भागों में चला गया तथा सब स्थानोण से आपके व्याख्य्तान के लिए आप की मांग देश के विभिन्न भागों से होने लगी ।

पंजाब में सरदार प्रताप सिंह कैरो के नेत्रत्व में कार्य कर रही कांग्रेस सरकार ने हिन्दी का विनाश करने की योजना बनाई । आर्य समाज ने पूरा यत्न हिन्दी को बचाने का किया किन्तु जब कुछ बात न बनी तो यहां हिन्दी रक्शा समिति ने सत्याग्रह आन्दोलन करने का निर्णय लिया तथा शीघ्र ही सत्याग्रह का शंखनाद १९५८ इस्वी में हो गया । आप ने भी इस समय अपनी आर्य समाज के प्रति निष्टा व कर्तव्य दिखाते हुए सत्याग्रह में भाग लिया । इस आन्दोलन ने आप को आर्य समाज का सर्व मान्य नेता बना दिया ।

इस समय आर्य समाज के उपदेशकों की स्थिति कुछ अच्छी न थी । इन की स्थिति को सुधारने के लिए आप ने अखिल भारतीय आर्य उपदेशक सम्मेलन स्थापित किया तथा लखनउ तथा हैदराबद में इस के दो सम्मेलन भी आयोजित किये । इससे स्पष्ट होता है कि आप अर्योपदेशकों कितने हितैषी थे ।

आप की कीर्ति ने इतना परिवर्तन लिया कि १९५८ इस्वी को आप को लोक सभा का गुड्गम्व्से सदस्य चुन लिया गया । इस प्रकार अब आप न केवल आर्य नेता ही बल्कि देश के नेता बन कर रजनीति में उभरे । १९६२ तथा फ़िर १९६७ में फ़िर दो बार आप स्वतन्त्र प्रत्याशी स्वरूप लोक सभा के लिए चुने गए । एक सांसद के रूप में आप ने आर्य समाज के बहुत से कार्य निकलवाये ।

१९७५ में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन, जो नागपुर में सम्पान्न हुआ , में भी आप ने खूब कार्य किया तथा आर्य प्रतिनिधि सभा मंगलवारी नागपुर के सभागार में , सम्मेलन मे पधारे आर्यों की एक सबा का आयोजन भी किया । इस सभा में( हिन्दी सम्मेलन में पंजाब के प्रतिनिधि स्वरुप भाग लेने के कारण) मैं भी उपस्थित था , आप के भाव प्रवाह व्याख्यान से जन जन भाव विभोर हो गया ।

आप ने अनेक देशों में भ्रमण किया तथा जहां भी गए, वहां आर्य समाज का सन्देश साथ लेकर गये तथा सर्वत्र आर्य समज के गौरव को बटाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहे । जिस आर्य प्रतिनिधि सभा उतर प्रदेश के उपदेशक बनकर आपने कार्य क्शेत्र में कदम बटाया था , उस आर्य प्रतिनिधि सभा उतर प्रदेश के आप अनेक वर्ष तक प्रधान रहे । आप के ही पुरुषार्थ से मेरट, कानपुर तथा वाराणसी में आर्य समाज स्थापना शताब्दी सम्बन्धी सम्मेलनों को सफ़लता मिली । इतना ही नहीं आप की योग्यता के कारण सन १९७४ इस्वी में आप को परोपकारिणी सभा का सदस्य मनोनीत किया गया ।

आप का जीवन यात्राओं में ही बीता तथा अन्त समय तक यात्राएं ही करते रहे । अन्त में जयपुर से दिल्ली की ओर आते हुए एक रेल दुघटना हुई । इस रेल गाडी में आप भी यात्रा कर रहे थे । इस दुर्घटना के कारण २३ नवम्बर १९७७ इस्वी को आप की जीवन यात्रा भी पूर्ण हो गई तथा आर्य समाज का यह महान योद्धा हमें सदा के लिए छोड कर चला गया ।

पं. राजाराम शास्त्री

Pandit Rajaram Shastri

पं. राजाराम शास्त्री       

-डा. अशोक आर्य

पंण्डित राजाराम शास्स्त्री जी अपने काल में अनेक शास्त्रों के अति मर्मग्य तथा इन के टीका कार के रुप में सुप्रसिद्ध विद्वान के रुप में जाने गये । आप का जन्म अखण्ड भारत के अविभाजित पंजाब क्शेत्र के गांव किला मिहां सिंह जिला गुजरांवाला मे हुआ , जो अब पाकिसतान में है ।  आप के पिता का नाम पं. सुबा मल था । इन्हीं सुबामल जी के सान्निध्य में ही आपने अपनी आरम्भिक शिक्शा आरम्भ की ।

आप अति मेधावी थे तथा शीघ्र ही प्राथमीक शिक्शा पूर्ण की ओर छात्रव्रति प्राप्त करने का गौरव पाया किन्तु इन दिनों एक आकस्मिक घटना ने आप के मन में अंग्रेजी शिक्शा प्रणाली के प्रति घ्रणा पैदा कर दी तथा संस्क्रत के प्रति आक्रष्ट किया । यह घटना एक शिक्शित युवक को ईसाई बनाने की थी । जब आप ने देखा कि एक अंग्रेजी पटे लिखे नौजवान को ईसाई बनाया जा रहा है तो आप के अन्दर के धर्म ने करवट ली । आप जान गये कि यह अंग्रेजी शिक्शा प्रणाली हमारे देश व धर्म का नाश करने वाली है । इस के दूरगामी विनाश को आप की द्रष्टी ने देख लिया तथा आप ने इस शिक्शा प्रणाली के विरोध में आवाज उटाते हुए इस प्रणाली में शिक्शा पाने से इन्कार कर दिया तथा संस्क्रत के विद्यार्थी बन गए ।

जब आप ने संस्क्रत पटने का संकल्प लिया उन्हीं दिनों ही आप के हाथ कहीं से स्त्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आ लगा । स्वामी दयानन्द सरस्वती क्रत यह ग्रन्थ आप के लिए क्रान्तिकारी परिवर्तन का कारण बना तथा इस ग्रन्थ के अध्ययन मात्र से आप में संस्क्रत आदि शास्त्रों के गहनता पूर्वक अध्ययन करने की रुचि आप में उदय हुई । इस ग्रन्थ के विचारणीय प्रश्नों पर चिन्तन करने के मध्य ही आप में इस का दूर्गामी प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया तथा आपने तत्काल व्याकरण , काव्य तथा न्याय दर्शन आदि का विधिवत टंग से अध्ययन करना आरम्भ कर दिया । इतना ही नहीं इस काल में आपने शंकरभाष्य तथा उपनिषदों का , पटन , स्वाध्याय तथा खूब लगन से अनुशीलन किया ओर फ़िर महाभाष्य पटने का निर्णय लिया । अपने इस निर्णय को कार्य रुप देते हुए आपने जम्मू की ओर प्रस्थान किया ।

आपने १८८९ में अपना अध्ययन का कार्य पूर्ण किया तथा अपने घर लौट आए । यहां आ कर आप ने एक हिन्दी पाट्शाला का संचालन किया । कुछ ही समय पश्चात आपने अम्रतसर आकर आर्य समाज द्वारा संचालित एक विद्यालय में नियुक्ति पा कर अध्यापन का कार्य करते हुए वेद के सिद्धान्तों का ग्यान भी विद्यार्थियों को देना आरम्भ किया । किन्तु उत्साही व लगन शील व्यक्ति को सब लोग अपनी ओर ही खैंचने का प्रयास करते हैं । इस लगन का ही परिणाम था कि डी ए वी कालेज के प्रिन्सिपल महात्मा हंसराज जी ने इन्हें १८९२ में लाहौर बुला लिया । यहां आप को डी ए वी स्कूल में संस्क्रत अध्यापक स्वरुप नियुक्त किया गया ।

विद्वान की विद्वता के लोहे को मानते हुए शास्त्री जी को १८९४ मे डी ए वी कालेज लाहौर में संस्क्रत के प्राध्यापक स्वरुप नियुक्त किया गया । कालेज ने आप की योग्यता का सदुपयोग करते हुए आप की इच्छाशक्ति का भी ध्यान रखा तथा कालेज की मात्र लगभग पांच वर्ष की सेवा के पश्चात अगस्त १८९९ में आप को साट रुपए मासिक की छात्र व्रति आरम्भ की इस छात्र व्रति से आपने काशी जा कर मीमांसा आदि दर्शनों का अध्ययन करने के लिए काशी की ओर प्रस्थान किया ।

काशी रहते हुए आपने पण्डित शिवकुमार शास्त्री जी से मीमान्सा एवं वेद का अध्ययन किया । यहां ही रहते हुए आपने पण्डित सोमनाथ सोमयाजी से यग्य प्रक्रिया का बिधिवत परिचय प्राप्त करते हुए इसका अध्ययन किया । आप का काशी में अध्ययन कार्य १९०१ में समाप्त हुआ तथा इसी वर्ष आप काशी से लौट कर लाहौर आ गये ओर काले ज मेम फ़िर से कार्य आरम्भ कर दिया किन्तु कालेज प्रबन्ध समिति ने आप का कार्य बदल कर एक अत्यन्त ही जिम्मेदारी का कार्य सौंपा । यह कार्य था विभिन्न शास्त्रीय ग्रन्थों के भाषान्तर का । इस कार्य का भी आपने व्बखूबी निर्वहन किया । इसके साथ ही आप ने रजा राम शस्त्री पर भाषय तथा टीका लिखने का कार्य भी आरम्भ कर दिया ।

वर्ष १९०४ म३ं शस्त्री जी ने पत्रकारिता में प्रवेश किया । आप ने अधिशाषी अभियन्ता अहिताग्नि राय शिवनाथ के सहयोग से आर्ष ग्रथावलीनाम से एक मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ कर दिया । यह ही वह पत्र था जिसके माध्यम से आपने जो भी शास्त्र ग्रन्थों के भाष्य किये थे , उनका प्रकाशन हुआ । इस प्रकार आपके प्रकाशित भाष्यों का अब जन जन्को लाभ मिलने लगा । आर्य सामाजिक संस्थाओं मं कार्य रत रहते हुए आपने अनेक प्रकार का साहित्य भी दिया किन्तु आप के कार्यों से एसा लगता है कि आप के विचार आर्य समाज व रिषि दयानन्द के दार्शणिक सिद्धान्तों से पूरी तरह से मेल न खा सके तथा यह अन्तर बटते बटते विकराल होता चला गया ।

इस सब का यह परिणाम हुआ कि १९३१ में  पं. विश्वबन्धु जी के सहयोग से आर्य समाज के कई विद्वानों से शास्त्रार्थ किया । शास्त्रार्थ का विषय रहा निरुक्त कार यास्क वेद में इतिहास मानते थे , या नहीं । इस विषय पर पं भगवद्दत जी, पं. ब्रह्मदत जिग्यासु, प. प्रियरत्न आर्ष , टाकुर अमर सिंह जी आदि से १८ मई से २२ मई १९३१ तक यह शास्त्रार्थ महत्मा हंसराज जी की अध्यक्शता में लाहौर में ही हुए ।

इस प्रकार समाज के इस सेवक ने समाज की सेवा करते हुए १८ अगस्त १९४८ को इस संसार से सदा सदा के लिए विदा ली । आपने अपने जीवन काल में अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें अथर्ववेद भाष्य चार भाग (सायण शैली में ),वेद व्याख्यात्मक ग्रन्थ, वेद ओर महाभारत के उपदेश, वेद ओर रामायण के उपदेश, वेद , मनु ओर गीता के उपदेश, वेदांग , दर्शन शास्त्र , उपनिषद आदि शास्त्रों तथा इतिहास व जीवन चरित हिन्दी तथा संस्कत भाषा व्याकरण आदि सहित अनेक स्फ़ुट विष्यों पर अनेक ग्रन्थ लिखे ।

पण्डित कालीचरण शर्मा

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पण्डित कालीचरण शर्मा

-डा. अशोक आर्य

वैसे तो विश्व की विभिन्न भाषाओं का प्रचलन इस देश में बहुत पहले से ही रहा है किन्तु आर्य समाज के जन्म के साथ ही इस देश में विदेशी भाषाओं को सीखने के अभिलाषी , जानने के इच्छुक लोगों की संख्या में अत्यधिक व्रद्धि देखी गई । इस का कारण था विदेशी मत पन्थों की कमियां खोजना । इस समय आर्य समाज भारत की वह मजबूत सामाजिक संस्था बन चुकी थी , जो सामाजिक बुराईयों तथा कुरीतियों और अन्ध विश्वासों  को दूर करने का बीडा उटा चुकी थी । इस का लाभ विधर्मी , विदेशी उटाने का यत्न कर रहे थे । इस कारण इन के मतों को भी जनना आवश्यक हो गया था किन्तु यह ग्रन्थ अरबी , फ़ार्सी और हिब्रू आदि विदेशी भाषाओं में होने के कारण इन भाषाओं का सीखना आर्यों के लिए अति आवश्यक हो गया था । विदेशी भाषा सीख कर उसमें पारंगत होने वाले एसे आर्य विद्वानों में पं. कालीचरण शर्मा भी एक थे ।

पं कालीचरण जी का जन्म आर्य समाज की स्थापना के मात्र तीन वर्ष पश्चात सन १८७८ इस्वी में बदायूं  जिला के अन्तर्गत एक गांव में हुआ । आप ने आगरा के सुविख्यात विद्यालय “मुसाफ़िर विद्यालय” से शिक्शा प्राप्त की । इस विद्यालय की स्थापना पं. भोजदत शर्मा ने की था । यह विद्यालय आर्य समाज के शहीद पं. लेखराम के स्मारक स्वरुप स्थापित किया गया था । इस कारण यहां से आर्य समाज सम्बन्धी शिक्शा तथा वेद सम्बन्धी ग्यान का मिलना अनिवार्य ही था । इस विद्यालय के विद्यार्थी प्रतिदिन संध्या – हवन आदि करते थे तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों का ग्यान भी इन्हें दिया जाता था । अत: इस विद्यालय से पटने वाले विद्यार्थियों पर आर्य समाज  का प्रभाव स्पष्ट रुप में देखा जा सकता था ।

पण्डित जी ने प्रयत्न पूर्वक फ़ारसी और अरबी का खूब अध्ययन किया और वह इस भाषा का अच्छा ग्यान पाने में सफ़ल हुए । इस ग्यान के कारण ही आप अपने समय के इस्लाम मत के उत्तम मर्मग्य बन गए थे । आप ने इस्लाम तथा इसाई मत का गहन अध्ययन किया । इस्लाम व ईसाई मत के इस गहन अध्ययन के परिणाम स्वरूप आप ने मुसलमानों तथा इसाईयों से सैंकडों शास्त्रार्थ किये तथा सदा विजयी रहे । परिस्थितियां एसी बन गयी कि इसाई और मुसलमान शास्त्रर्थ के लिए आप के सामने आने से डरने लगे ।

आप ने अध्यापन के लिए भी धर्म को ही चुना तथा निरन्तर अटारह वर्ष तक डी. ए. वी कालेज कानपुर में धर्म शिक्शा के अध्यापक के रुप में कार्य करते रहे । इस काल में ही आपने कानपुर में ” आर्य तर्क मण्डल” नाम से एक संस्था को स्थापित किया । इस सभा के सद्स्यों को दूसरे मतों द्वारा आर्य समाज पर किये जा रहे आक्शेपों का उत्तर देने के लिए तैयार किया गया तथा इस  के सदस्यों ने बडी सूझ से विधर्मियों के इन आक्रमणों का उत्तर दे कर उनके मुंह बन्द करने का कार्य किया ।

जब आप का कालेज सेवा से अवकाश हो गया तो आप ने राजस्थान को अपना कार्य क्शेत्र बना लिया । यहां आ कर भी आपने आर्य समाज का खूब कार्य किया तथा शास्त्रार्थ किये । आप ने “कुराने मजीद” के प्रथम भाग का हिन्दी अनुवाद कर इसे प्रकाशित करवाया, इस के अतिरिक्त आप ने विचित्र “जीवन चरित” नाम से पैगम्बर मोहम्मद की जीवनी भी प्रकाशित करवाई । इन पुस्तकों का आर्यों ने खूब लाभ उटाया । इस प्रकार जीवन भर आर्य समाज करने वाले इस शात्रार्थ महारथी का ९० वर्ष की आयु में राजस्थान के ही नगर बांदीकुईं में दिनांक १३ सितम्बर १९६८ इस्वी को देहान्त हो गया ।