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दान का स्वरूप : शिवदेव आर्य

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हमारी वैदिक संस्कृति में त्याग, सेवा, सहायता, दान तथा परोपकार को सर्वोपरि धर्म के रूप में निरुपित किया गया है, क्योकि वेद में कहा गया है – ‘शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त सं किर अर्थात् सैकड़ों हाथों से धन अर्जित करो और हजारों हाथों से दान करो। गृहस्थों, शासकों तथा सम्पूर्ण प्राणी मात्र को वैदिक वाङ्मय में दान करने का विधान किया गया है।  ‘दक्षिणावन्तो अमृतं भजन्ते , ‘न स सखा यो न ददाति सख्ये , पुनर्ददताघ्नता जानता सं गमेमहि, शुद्धाः पूता भवत यज्ञियासः  इत्यादि अनेक मन्त्रों में दान की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है। दान लेना ब्राह्मणों का शास्त्रसम्मत   अधिकार है परन्तु वहीं यह भी निरुपित किया गया है कि दान सुपात्र को दिया जाए, जिससे कोई दुरुपयोग न हो सके।

प्रतिग्रहीता की पात्रता पर विशेष बल देते हुए याज्ञवल्क्य जी कहते है कि-सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणों में भी वेद का अध्ययन करने वाले श्रेष्ठ हैं, उनमें भी श्रेष्ठ क्रियानिष्ठ है और उनसे भी श्रेष्ठ आध्यात्मवेत्ता ब्राह्मण है। न केवल विद्या से और न केवल तप से पात्रता आती है अपितु जिसमें अनुष्ठान, विद्या और तप हो वही दान ग्रहण करने का सत्पात्र होती है।

न विद्यया केवला तपसा वापि पात्रता।

यत्र वृत्तमिमे चोभे तद्धि पात्रं प्रकीर्तितम्।।

दान के सम्पूर्ण फल की प्रप्ति सत्पात्र को दान देने से ही प्राप्त होती है। अतः आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले को चाहिए कि वह अपात्र को दान कदापि न दे, क्योंकि

गोभूतिहिरण्यादि पात्रे दातव्यमर्चितम्।

नापात्रे विदुषा किंचिदात्मनः श्रेय इच्छता।।

जिस समय जिस व्यक्ति को जिस वस्तु की आवश्यकता है, उस समय उसे वही वस्तु देनी चाहिए। यदि जो मनुष्य इस प्रकार दान देते है तो उनको वेद कहता है कि – ‘एतस्य वाऽक्षरस्य शासने ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति ऐसे दान देने वाले मनुष्य इस परमपिता परमेश्वर के शासन में सदैव प्रशंसा को प्राप्त होते है। गीता में श्रीकृष्ण जी महाराज कहते है कि –

यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणम्।।

यज्ञ, दान तथा तप इन तीन सत्कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। यज्ञ, दान, तप मनुष्यों को पवित्र व पावन बनाने वाले हैं। श्रद्धा  एवं सामथ्र्य से दान के सत्य स्वरूप को जानकर किया गया दान लोक-परलोक दोनों में ही कल्याण करने वाला होता है।

जब यदि मन में धन संग्रह की प्रवृत्ति जागृत हो गई तो समझो वो अपने मुख्य उद्देश्य को छोड़कर अन्यत्र किसी अन्य लक्ष्य की ओर आकृष्ट हो गया है।

इसीलिए कहा गया है कि-

वृत्तिसप्रोचमन्विच्छेन्नेहेत धनविस्तरम्।

धनलोभे प्रसक्तस्तु ब्राह्मण्यादेव हीयते।।१॰

ब्राह्मण को भी अपनी आवश्यकता पूर्ति लायक धन ही दान स्वरूप लेना चाहिए। धन-संग्रह का लोभ नहीं करना चाहिए। अब यह जानने की आवश्यकता है कि दान में कौन-सी वस्तु देनी चाहिए। जब हम वैदिक वाङ्मय में निहारते है तो हमें ज्ञात होता है कि – जिस व्यक्ति को जिस समय, जिस वस्तु की आवश्कता हो, उसे उस समय उसी वस्तु का दान देना चाहिए। दान की यदि कोई सच्ची पात्रता है तो वो है जिसे यथोचित समय पर यथोचित पदार्थ मिले, जैसे कोई भूखा हो तो उसे भोजनादि से तृप्त करना चाहिए, प्यासे को पानी पिलाना चाहिए, वस्त्रहीन को वस्त्र देने चाहिए, रोगी को ओषधी देनी चाहिए, विद्याभ्यासी को विद्या का दान कराना चाहिए इत्यादि परन्तु लिप्सता नहीं होनी चाहिए। इसी प्रसंग में एक दृष्टांट उद्धृत कर रहा हूं- एक दिन एक व्यक्ति महात्मा गाॅंधी के पास अपना दुखडा लेकर पहुंचा। उसने गांधी जी से कहा-बापू! यह दुनिया बड़ी बेईमान है।  आप तो यह अच्छी तरह जानते हैं कि मैंने पचास हजार रूपये दान देकर धर्मशाला बनवायी थी पर अब उन लोगों ने मुझे ही उसकी प्रबन्धसमिति से हटा दिया है।    धर्मशाला नहीं थी तो कोई नहीं था, पर अब उस पर    अधिकार जताने वाले पचासों लोग खड़े हो गये हैं। उस व्यक्ति की बात सुनकर बापू थोड़ा मुस्कराये और बोले-भाई, तुम्हें यह निराशा इसलिये हुई  कि तुम दान का सही अर्थ नहीं समझ सके। वास्तव में किसी चीज को देकर कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा दान नहीं है। यह तो व्यापार है। तुमने धर्मशाला के लिये दान तो दिया, लेकिन फिर तुम व्यापारी की तरह उससे प्रतिदिन लाभ की उम्मीद करने लगे। वह व्यक्ति चुपचाप बिना कुछ बोले वहां से चलता बना। उसे दान और व्यापार का अन्तर समझ में आ गया।

अब हमें यह जानना चाहिए कि दान कैसे करना चाहिए इसके लिए तैत्तिरीयोपनिषद् में अवलोकन करते हैं कि ‘श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्।११ जो कुछ भी दान में दिया जाये श्रद्धापूर्वक दिया जाना चाहिए । क्योंकि बिना श्रद्धा के किये हुए दान असत् माना गया है-

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।१२

श्रद्धा पूर्वक देना चाहिये क्योंकि सारा धन तो उस परमपिता परमेश्वर का ही है। इसलिए उनकी सेवा में धन लगाना मेरा कर्तव्य है। जो कुछ मैं दान कर रहा हूं वह थोड़ा है, इस संकोच से दान देना चाहिये। अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार देना चाहिये। भय के कारण भी दान देना चाहिए परन्तु जो कुछ भी दिया जाय विवेकपूर्वक निष्काम भाव से कर्तव्य समझ कर देना चाहिए। ‘दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे’१३  इस प्रकार दिया गया दान परमपिता परमेश्वर को प्राप्त करने में अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने में सहायक बन जाता है।

कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि यज्ञ, दान आदि पुण्ययुक्त कर्मों को करने से हम दरिद्र हो जाते है, हमारा धन, वैभव समाप्त हो जाता है तो मैं उन लोगों से कहना चाहॅंुगा कि दान करने से धन एवं विद्या की निरन्तर वृिद्ध होती है, क्योकि शास्त्रों में कहा गया है कि-

मूर्खो हि न ददात्यर्थानिह दारिद्रî शंकया।

प्राज्ञस्तु विसृजत्यर्थानमुत्र तस्य ननु शंकया।।१४

अर्थात् दान देने से धन समाप्त हो जाऐगा या दरिद्रता आयेगी यह तो मूर्खों की सोच होती है। मूर्ख लोग दरिद्रता की आशंका में वशीभूत होकर दान न देकर पुण्य से वंचित रहते है और सदैव दुखों को भोगते रहते हैं।

अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।

अनुग्रहश्च दानं च शीलमेतत् प्रशस्यते।।

दरिद्रता को दूर करने का अमोघ शस्त्र है दान। दरिद्रता आदि दुःखों से दूर रहने का यहीं एकमात्र साधन है। दानशील पुरुष या स्त्री किसी भूखे, प्यासे, तिरस्कृतों का पालन-पोषण करके उन्हे तृप्त करते है तो वो सदा प्रसन्नता को प्राप्त करते है। वे सदा ही अपने जीवन में आनन्दित रहते है।

दानं भोगो नाशस्तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।

यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।१५

धन की तीन गतियां होती है – दान, भोग और नाश। जो व्यक्ति धन का दान व भोग नहीं करता उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होती है।

हमारे शास्त्रों में धन की सबसे अच्छी गति दान है। दान देने से हमारा धन पात्र के पास पहुंच गया और उसकी जरुरी आवश्यकता पूर्ण हो गई। इसीलिए यह श्रेष्ठ गति है। अगर हम दान न देकर उसका भोग करेंगे तो आवश्यक-अनावश्यक कर्मों में व्यय होगा। यदि खर्च ही नहीं करेंगे तो तीसरी गति अर्थात् नाश को प्राप्त होगा। जैसे-जूए में हार जाना, चोरी हो जाना आदि। अतः सर्वोत्तम गति दान ही सिद्ध होती है। क्योंकि दान के   माध्यम से अत्यन्त आवश्यकता वाले के उद्देश्य की पूर्ति होती है।

इसप्रकार दान देना हमारा कर्तव्य कर्म है-यह समझकर देना चाहिए। जहां जब एवं जिस वस्तु की आवश्यकता हो तब दिया जाय एवं देश, काल तथा परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए सुपात्र को ही दिया जाये।

सन्दर्भ सूची:-

१. ऋग्वेद-३.२४.५।

२. ऋग्वेद-१.१२५.६।

३. ऋग्वेद-१॰.११७.४।

४. ऋग्वेद-५.५१.१५।

५. ऋग्वेद-१॰.१८.२।

६. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰॰।

७. याज्ञ.स्मृ.आ.२॰१।

८. वेद।

९. गीता-१८.५।

१॰. कूर्मपुराण।

११. तैत्तिरीयोपनिषद्-१.११।

१२. गीता-१७.२८।

१३. गीता-१७.२॰।

१४. स्कन्दपुराण-२.६३।

१५. पंचतन्त्र।

क्या यही हुतात्माओं का भारतवर्ष है? शिवदेव आर्य

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आज हमारे भारतवर्ष को गणतन्त्र के सूत्र में बन्धे हुए 66 वर्ष हो चुकें हैं। इन वर्षों में हमने बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ खोया है। गणतन्त्रता का अर्थ है – हमारा संविधान, हमारी सरकार, हमारे कर्तव्य और हमारा अधिकार।

                भारत का प्रत्येक नागरिक जब गणतन्त्र दिवस का नाम सुनता है तो हर्ष से आप्लावित हो उठता है परन्तु जब वही नागरिक इस बात पर विचार करता है कि यह गणतन्त्रता तथा स्वतन्ता हमें कैसे मिली? तो उसकी आंखों से अश्रुधारा वह उठती है और कहने  लग जाता है कि –

दासता गुलामी की बयां जो करेंगे,

मुर्दे भी जीवित से होने लगेंग।

सही है असह्य यातनायें वो हमने,

जो सुनकर कानों के पर्दे हिलेंगे।।

26 जनवरी जिसे गणतन्त्र दिवस के नाम से जाना जाता है। इस दिवस को साकार करने के लिए अनेक वीर शहीदों ने अपने प्राणों की बलि दी थी। गणतन्त्र के स्वप्न को साकार रूप में परिणित करने के लिए अनेकों सहस्त्रों युवा देशभक्तवीरों ने अपनी सब सुख-सुविधाएं छोड़कर स्वतन्त्रता के संग्राम में अपने आप को स्वाहा किया। बहुत से विद्यार्थियों ने अपनी शिक्षा-दीक्षा व विद्यालयों को छोड़ क्रान्ति के पथ का अनुसरण किया। बहनों ने अपने भाई खोये, पत्नियों को अपने सुहाग से हाथ धोने पड़े, माताओं से बेटे इतनी दूर चले गये कि मानो मां रोते-रोते पत्थर दिल बन गयी। पिता की आशाओं के तारे आसमान में समा गये। जिसे किसी कवि ने अपनी इन पंक्तियों में इस प्रकार व्यक्त किया है-

गीली मेंहदी उतरी होगी सिर को पकड़ के रोने में,

ताजा काजल उतरा होगा चुपके-चुपके रोने में।

जब बेटे की अर्थी होगी घर के सूने आंगन में,

शायद दूध उतर आयेगा बूढ़ी मां के दामन में।।

सम्पूर्ण भारतवर्ष में हा-हाकार मचा हुआ था। अंग्रेज भारतीयों को खुले आम सर कलम कर रहे थे। चारों ओर खुन-ही-खुन नजर आ रहा था। पर ऐसे विकराल काल में हमारे देशभक्तों ने जो कर दिखाया उसे देख अंग्रेजों की बोलती बन्द हो गयी।

जब देश में जलियावाला हत्या काण्ड हुआ तो उधम सिंह ने अपने आक्रोश से लन्दन में जाकर बदला लिया। साईमन के विरोध में लाला लाजपत राय ने अपने को आहूत करते हुए कहा था कि- ‘मेरे खून की एक-एक बूंद इस देश के लिए एक-एक कील काम करेगी’। एक वीर योध्दा ऐसा भी था जो देश से कोसों दूर अपनी मातृभूमि की चिन्ता में निमग्न था और होता भी क्यों न? क्योंकि

-‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिया गरीयसी।’

अर्थात् जननी और जन्मभूमि दोनों ही स्वर्ग से भी महान होती हैं। इसीलिए वेद भी आदेश देता है कि- ‘वयं तुभ्यं बलिहृतः स्यामः’ अर्थात् हे मातृ भूमि! हम तेरी रक्षा के लिए सदैव बलिवेदी पर समर्पित होने वाले हों। शायद इन्हीं भावों से विभोर होकर सुभाष चन्द्र बोस जी ने आजाद हिन्द फौज सेना का गठन किया और ‘तुम मुझे खुन दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा लगाकर अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया।

वह दिन भला कोई कैसे भूला सकेगा? जिस दिन राजगुरु, सुखदेव व भगतसिंह को ब्रिटिश सरकार ने समय से पहले ही  फांसी लगा दी।

अत्याचारियों के कोड़ों की असह्य पीडा को सहन करते हुए भी चन्द्रशेखर आजाद ने इंकलाब जिन्दाबाद का नारा लगाया। अरे! कौन भूला सकता है ऋषिवर देव दयानन्द को जिनकी प्रेरणा से स्वामी श्रद्धानन्द ने चांदनी चैक पर सीने को तानते हुए अंग्रेजों को कड़े शब्दों में कहा कि – दम है तो चलाओ गोली।

देशभक्तों को देशप्रेम से देदीप्यमान करने का काम देशभक्त साहित्यकारों तथा लेखकों ने किया। बंकिमचन्द्र चटर्जी ने ‘वन्दे मातरम्’ लिखकर तो आग में घी का काम किया। जो गीत देश पर आहुत होने वाले हर देशभक्त का ध्येय वाक्य बन गया। इस गीत को हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख सभी ने अपनाया । उन शहीदों के दिल के अरमान वस यही थे, जिनको कवि अपने शब्दों में गुन गुनाता है-

मुझे तोड़ लेना बन माली, उस पथ पर देना फेंक।

मातृभमि पर शशि चढ़ाने, जिस पथ पर जाएॅं वीर अनेक।।

मातृभूमि की रक्षार्थ शहीद होने वाले शहीदों की दासता कैसे भूलाई जा सकती है? हुतात्माओं ने स्वतन्त्रता के लिए अहर्निश प्रयत्न किया। भूख-प्यास-सर्दी-गर्मी जैसी कठिन से कठिन यातनाओं को सहन किया। धन्य हैं वो वीरवर जिन्होंने हिन्दुस्तान का मस्तक कभी भी नीचे न झुकने दिया। स्वतन्त्रता के खातिर हॅंसते-हॅंसते फांसी के फन्दे को चुम लेते थे, आंखों को बन्द कर कोड़ों की मार को सह लेते थे, अपना सब कुछ भूलाकर बन्दूकों व तोपों के सामने आ जाते थे। मां की लोरी, पिता का स्नेह, बहन की राखी, पत्नी के आंसू और बच्चों की किल्कारियां जिनको अपने पथ से विचलित नही कर पाती। उनका तो बस एक ही ध्येय हो ता था-‘कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्’। देशभक्त जवान अंग्रेजों को ललकारते हुए कहा करते थे-

शहीदों के खून का असर देख लेना,

मिटा देगा जालिम का घर लेना।

झुका देगें गर्दन को खंजर के आगे,

खुशी से कटा देगें सर देख लेना।।

वीर हुतात्माओं के अमूल्य रक्त से सिंचित होकर आजादी हमें प्राप्त हुई है। जिस स्वतन्त्रत वातावरण में हम श्वास ले रहें हैं वह हमारे वीर हुतात्माओं की देन है। स्वतन्त्रता रूपी जिस वृक्ष के फलों का हम आस्वदन कर रहे हैं उसे उन वीर हुतात्माओं ने अपने लहु से सींचा है । आजादी के बाद स्वतन्त्रता का जश्न मनाते हुए नेताओं ने वादा किया था कि-

‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले।

वतन पर मिटने वालों का यही निशां होगा।।’

परन्तु बहुत दुःख है कि शायद वर्तमान में हमारे नेता इस आजादी के मूल्य को भूल बैठे हैं। उनके विचार में आजादी शायद खिलौना मात्र है, जिसे जहां चाहा फेंक दिया। जब चाहा अपने पास रख लिया किन्तु ऐसा नहीं है। हमारे नेताओं ने देश को जिस स्थिति पर लाकर खडा कर दिया है, क्या यही है वीर हुतात्माओं के स्वप्नों का भारत? क्या यही है मेरा भारत महान्? क्या यही दिन देखने के लिए वीरों ने अपनी बलि दी? आखिर क्यों हो रहा है।? इस परिदृश्य को देखते हुए कि कवि ने ठीक ही कहा है –

शहीदों की चिताओं पर न मेले हैं न झमेले हैं।

हमारे नेताओं की कोठियों पर लगे नित्य नये मेले हैं।।

धन्य है इस देश के नेता, जो गरीब जनता की खून-पसीने की कमाई को निज स्वार्थता में अदा कर देते हैं। घोटाले कर अपने घर को भर लेते हैं। वन्दे मातरम् गीत को न गाने वाले उन नेताओं व मुस्लिम भाईयों से मैं पूछता हूं कि जो विचार आज ये नेता या मुस्लिम भाई रखते हैं। यह विचार बिस्मिल्ला खां ने भी तो सोचा होगा। उस समय की मुस्लिम लीग ने तो कोई चिन्ता नहीं की थी। वे तो देश की स्वतन्त्रता में संलग्न थे, पर शायद इन्हें देश की एकता सहन नहीं हो रही है। देशभक्त ऐसे विचार नहीं रखा करते हैं।

क्यों हम इतने दीन-हीन हो गए है कि किसी शत्रु के छद्म यु द्ध का प्रत्युत्तर नहीं दे पा रहे है? क्यों 26 नवम्बर के मुम्बई हमले को हम इतनी आसानी से भूल जाते हैं? क्यों हम व्यर्थ में मन्दिर-मस्जिद के विवाद में फस रहें हैं? क्यों हमारी न्यायिक प्रक्रिया में इतनी शिथिलता व अन्याय है कि आतंकवादी लोग आज भी मौज मस्ती से घूम रहे हैं? यहाॅं धन से न्याय खरीदा जाने लगा है।

हे ईश्वर! यह कैसी राजनीति है? जिससे चक्कर में पड़कर हम अपनी भाषा, संस्कृति व देश की उन्नति को भूल बैठे है। क्यों  हम इतने कठोर हृदयी हो गए कि गरीब जनता का हाल देख हमारा हृदय नहीं पिघंलता है? क्यों हम पाप करने से नहीं रुक रहे? क्यों हम अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं?

हमारे गणतन्त्र को खतरा है उन आतंकवादी गतिविधियों से, देशद्रोहियों से, सम्प्रदायवादियों से, धर्मिक संकीर्णता से, भ्रष्टाचार से एवं शान्त रहने वाली इस जनता से। हम भारतवासियों का यह कर्तव्य है कि देश की रक्षा एवं संविधान को मानने के लिए हम अपने आपको बलिदान कर देवें। हमें प्रत्येक परिस्थितयों में अपने देश की रक्षा करनी है। यह सत्य है कि विभिन्नता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। खासकर मैं युवाओं से कहना चाहता हूं-

हे नवयुवाओ? देशभर की दृष्टि तुम पर ही लगी,

है मनुज जीवन की ज्योति तुम्ही से  जगमगी।

दोगे न तुम तो कौन देगा योग देशोद्धार में?

देखो कहा क्या हो रहा है आज कल संसार में।।

आओ! हम सब मिलकर गणतन्त्र के यथार्थ स्वरूप को जानकर संविधान के ध्वजवाहक बनें और तभी जाकर हम सर उठाकर स्वयं को गणतन्त्र घोषित कर सकेंगे और कह सकेंगे कि – जय जनता जनार्दन।

और अन्त में मैं वाणी को विराम देता हुआ यही कहना चाहूंगा-

ये किसका फसना है ये किसकी कहानी है,

सुनकर जिसे दुनिया की हर आंख में पानी है।

दे मुझको मिटा जालिम मत मेरी आजादी को मिटा,

ये आजादी उन अमर हुतात्माओं की अन्तिम निशानी है।।

 

 

‘पुनर्जन्म व त्रैतवाद के सिद्धांत पर एक आर्य विद्वान के नए तर्क व युक्तियाँ ‘

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ओ३म्

पुनर्जन्म त्रैतवाद के सिद्धांत पर एक आर्य विद्वान के नए तर्क युक्तियाँ

वैदिक सनातन धर्म पुनर्जन्म के सिद्धान्त को सृष्टि के आरम्भ से ही मानता चला आ रहा है। इसका प्रमाण है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने प्रथम चार ऋषियों और स्त्री-पुरूषों को उत्पन्न किया। अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम के चार ऋषियों को परमात्मा ने चार वेदों का ज्ञान दिया। वेदों में पुनर्जन्म का सिद्धान्त ईश्वर द्वारा बताया गया है। इसलिए इस सिद्धान्त पर शंका करने का कोई कारण नहीं है। तथापि अनेक तर्कों से इस सिद्धान्त को सिद्ध भी किया जा सकता है। वैसे सिद्धान्त कहते ही उसे हैं जो स्वयं सिद्ध हो व जिसे तर्क व युक्तियों से सिद्ध किया जा सके। असिद्ध बातों को सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता। एक प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि अभाव से भाव उत्पन्न नहीं हो सकता और भाव का अभाव नहीं हो सकता। गीता में भी इस आशय का श्लोक है कि जिस वस्तु का अस्तित्व होता है उसका अभाव अर्थात् उसका विनाश कभी नहीं होता। जो सत्ता है ही नहीं वह कभी अस्तित्व में नहीं आ सकती। ईश्वर भी अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं कर सकता। वह भाव से भाव को उत्पन्न करता है अर्थात् कारण प्रकृति से संसार बनाता है और जीवात्माओं को मनुष्यादि जन्म देता  है। सृष्टि में कारण प्रकृति व जीव का अस्तित्व नित्य व शाश्वत् है और नित्य पदार्थ सदा अविनाशी होता है।

 

आर्य जगत के प्रसिद्ध विद्वान प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु एक बार नागपुर के हंसापुरी आर्य समाज के कार्यक्रम में भाग लेने पहुंचे। वहां उनकी प्रेरणा से हुतात्मा पं. लेखराम जी की स्मृति में कुछ समय पूर्व वैदिक साहित्य की बिक्री का केन्द्र आरम्भ किया गया था। इस पुस्तक बिक्री केन्द्र में प्रा. जिज्ञासु जी की स्वसम्पादित पुस्तक कुरान वेद की ठण्डी छाओं में उपलब्ध थी। संयोगवश एक मुस्लिम युवक अपने एक हिन्दू मित्र के साथ घूमता हुआ आर्य समाज मन्दिर आ गया। इस समाज के अधिकारी श्री उमेश राठी इन युवकों को वहां मिल गये। उन्होंने इन दोनों युवकों को पुस्तक बिक्री केन्द्र कक्ष में ही बैठाया। यह मुस्लिम युतक जमायते इस्लामी की तबलीग के लिए एक वर्ष में एक मास का समय दिया करता था।

 

युवक ने वहां विद्यमान पुस्तक कुरान वेद की ठण्डी छाओं में को देखा तो उसे लेकर उसके पन्ने पलटने कर देखने लगा। उसने पुस्तक को लेने के लिए राठी जी से पुस्तक का मूल्य पूछा तो उन्होंने कहा कि यह हमारी ओर से आपको भेंट है। राठी जी ने उसे बताया कि हमारे यहां इस समय इस्लाम के एक अधिकारी विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी विद्यमान हैं। क्या वह उनसे चर्चा करना पसन्द करेगा। वह युवक इसके लिए एकदम तैयार हो गया। जिज्ञासुजी सन्ध्या कर रहे थे। उससे निवृत होकर उस मुस्लिम युवक से वार्तालाप आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा कि आप तबलीग़ करते हुए मुख्य विचार क्या देते हैं? उस युवक ने कहा-जो हज करे, नमाज़ पढ़े, रोज़ा रखे, वह सच्चा मुसलमान है। जो आवागमन को माने वह काफिर है। उसने ऐसी कुछ और बातें भी कहीं यथा मुहम्मद अल्लाह का अन्तिम नबी और कुरान उसका अन्तिम इल्हाम है, इस बात को विशेष बल देकर कहा। यह सब सुनकर प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु उस युवक से बोले – क्या आपने बर्फ देखी है? उसने कहा, क्यों नहीं?, देखी है। उन्होंने पूछा बर्फ पर घूप पड़े तो क्या होगा? युवक ने उत्तर दिया कि बर्फ पिघल कर जल बन जायेगा। जिज्ञासु जी ने फिर पूछा कि उस जल पर सूर्य की किरणे पड़ने पर जल का क्या होगा? उत्तर मिला कि भाप बन जायेगी। युवक से फिर पूछा कि भाप का क्या होगा तो युवक बोला कि मेघ बनेंगे। ऐसे ही मेघ वर्षा बनकर वर्षेंगे। यह उस युवक का कथन था। अब जिज्ञासु जी ने समीक्षा करते हुए कहा कि ‘‘जड़, निर्जीव अचेतन ज्ञान शून्य ब़र्फ का तो आप आवागमन मानते हैं और ज्ञानवान चेतन जीव के पुनर्जन्म को कु़फ्र्र बता रहे हैं। यह कैसी फि़लास्फी है?’’

 

जिज्ञासु जी ने आगे कहा कि आप आवागमन को मानने वालों को काफिर बता रहे हैं और आपका सबसे बड़ा दार्शनिक डा. इकबाल सुबह से रात व रात से सुबह, सूर्य तारों का उदय व अस्त होना, दिन व रात का एक दूसरे के बाद आना मानता है। वह जीवन का अन्त नहीं मानता। हज़रत मुहम्मद की कामना, “‘मैं अल्लाह की राह में शहीद हो जाऊं, फिर जन्मूँफिर शहीद हो जाऊं …… को क्या कुफ्र ही मानेंगे? क्या यह आवागमन नहीं है?

 

जिज्ञासु जी युवक को बता रहे हैं – एक मियां मर गया। उसे कबर में दबाया गया। इसके शरीर की खाद बन गई। कबर पर उगे पौधे को अच्छी खाद मिली। कब्रस्तान के मजावर की बकरी उस पौधे के पत्ते खाखा कर पल गई। उसे कसाई ने क्रय कर लिया। उसका मांस खाखा कर एक मियां का शरीर बन गया। वह मरा तो कबर में दबाया गया। उसका शव भी खाद बन गया फिर कब्रस्तान की बकरी ने खाया और वही चक्र चल पड़ा। क्या यह आवागमन है या नहीं?’’ वह लिखते हैं कि उस युवक के पास अब कहने के लिए कुछ था ही नहीं। उसे जो रटाया गया था वही उसने प्रकट किया। अब वह आगे क्या कहें?

 

जिज्ञासुजी ने उस युवक से एक अन्य विषय पर चर्चा आरम्भ कर कहा कि सृष्टि रचना से पूर्व क्या था? उसने कहा कि केवल अल्लाह था। उससे जिज्ञासु जी ने पूछा कि क्या आप अल्लाह को न्यायकारी, दयालु, दाता, पालक, स्रष्टा, स्वामी मानते हैं? उस युवक ने कहा – क्यों नहीं? वह अल्लाह आदिल (न्यायकारी), दयालु है और यह उसका स्वभाव है। उससे पूछा कि क्या अल्लाह के यह गुण सदा से, हमेशा से हैं? उस युवक ने कहा कि हां, अनादि काल से वह दयालु, न्यायकारी आदि है। इस पर जिज्ञासुजी ने उससे पूछा कि जब अल्लाह के अतिरिक्त कोई था ही नही तो वह दया किस पर करता था? न्याय किसे देता था? जब प्रकृति थी ही नहीं, वह देता क्या था? सृजन क्या करता था? जीव तो थे नहीं, वह पालक स्वामी किसका था? उस युवक से वार्ता के समय वहां आर्य समाज के विद्वान व अन्य लोग भी उपस्थित थे। उन्होंने जिज्ञासुजी से कहा कि आवागमन व त्रैतवाद के बारे में आपकी युक्तियां हमने प्रथम बार ही सुनी हैं। यह वर्णन आर्य समाज या किसी वैदिक ग्रन्थ में भी नहीं है।

 

इस युवक से संयोग का परिणाम यह हुआ कि प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आवागमन सहित कुछ अन्य विषयों पर नये अन्दाज से विचार प्रस्तुत किये जिनसे वैदिक मत के सिद्धान्तों की पुष्टि हुई। वैदिक मत और आर्य समाज में पुनर्जन्म अर्थात् आवागमन पर इतनी सामग्री है कि जिसे पढ़कर पुनर्जन्म संबंधी सभी शंकाओं का निराकरण हो जाता है। इस विषय पर एक शताब्दी से कुछ अधिक पहले रक्तसाक्षी, हुतात्मा शहीद पं. लेखराम जी ने एक महत्वपूर्ण तर्क प्रमाण पुरस्सर पुस्तक लिखी थी। पुस्तक लिखने से पूर्व उन्होंने विज्ञप्तियां देकर सभी मत-मतान्तर के लोगों को पुनर्जन्म विषयक अपनी शंकायें भेजने के लिए प्रेरित किया था। उन्होने सभी प्रकार की सभी शंकाओं का निराकरण व समाधान अपनी पुस्तक में किया है। वेद और गीता पुनर्जन्म को स्वीकार करती हैं। वर्तमान में समय में कोई कुछ भी कहे व माने, परन्तु आवागमन और ईश्वर-जीव-प्रकृति के नित्य, अजन्मा व अविनाशी होने का त्रैतवाद का सिद्धान्त सर्वत्र व्यवहार में है। विज्ञान भी जड़ प्रकृति के अस्तित्व को स्वीकार करता है जो कि निभ्र्रान्त सत्य है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121 

‘एक ऐतिहासिक स्थल की खोज जहां रोचक शास्त्रार्थ हुआ था’

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ओ३म्

एक ऐतिहासिक स्थल की खोज जहां रोचक शास्त्रार्थ हुआ था

 समय समय पर अनेक ऐतिहासिक घटनायें घटित होती रहती हैं परन्तु कई बार उनमें से कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं का महत्व न जानकर उस काल के लोग उसकी सुरक्षा का ध्यान नहीं करते। बाद के लोगों को उसके लिए काफी पुरूषार्थ करना पड़ता है। कई बार सफलता मिल जाती है और कई बार नहीं मिलती। डा. कुशल देव शास्त्री आर्य जगत के प्रतिष्ठित विद्वान, अथक गवेषक, तपस्वी सेवक, खोजी लेखक व पत्रकार थे। जून सन् 1997 में कादियां में आयोजित पं. लेखराम बलिदान शताब्दी समारोह में वह पधारे थे। हम भी इस कार्यक्रम में अपने मित्रों के साथ पहुचें थे। कादियां में ही आर्य समाज के इतिहास प्रसिद्ध विद्वान और प्रचारक हुतात्मा प. लेखराम जी के उनके 6 मार्च, 1897 को बलिदान से पूर्व अनेक व्याख्यान हुए थे। आर्य जगत के उच्च कोटि के लेखक व विद्वान प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु ने कादियां में अपने विद्यार्थी जीवन में लगभग 10 वर्षों तक निवास किया था। वह इस स्थान के चप्पे-चप्पे से परिचित रहे हैं। बलिदान समारोह में भेंट के अवसर पर डा. कुशल देव ने प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु से प्रश्न किया कि पं. लेखराम जी ने लाहौर से कादियां आकर व्याख्यान किस स्थान पर दिये थे? जिज्ञासु जी का इससे पहले इस प्रश्न पर ध्यान नहीं गया था और न ही उन्हें उस स्थान का पता था जहां कादियां में पं. लेखराम जी के व्याख्यान हुआ करते थे। उन्होंने कुशलदेव जी को वास्तविकता बताई और कहा कि मैं अब इसकी गहन खोज करूंगा।

 

जिज्ञासु जी ने खोज आरम्भ की और कादियां के एक मुस्लिम सज्जन के एक लेख से उन्हें पता चला कि वहां स्कूल के मैदान में पं. लेखराम ने सद्धर्म का प्रचार करते हुए पाखण्डों का खण्डन किया था। स्कूल कादियां में किस स्थान पर था, वह उस लेख में नहीं था। घटना को 100 वर्ष से कुछ अधिक समय व्यतीत हो जाने के कारण वहां किसी पुराने स्कूल के भग्नावशेष भी विद्यमान नहीं थे। अतः जिज्ञासु जी उस स्कूल की खोज करने में लग गये जिस स्थान पर कादियां का वह स्कूल स्थित था? चिन्तन-मनन करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि कादियां में सबसे पुराने आर्य समाजी उस समय बाबू सोहनलाल जी ही जीवित हैं जो उन दिनों मुम्बई में रहते थे। उन्होंने मुम्बई के अपने परिचित लोगों को बाबू सोहनलाल का पता करने का आग्रह किया। इन बाबू सोहनलाल जी से जिज्ञासु जी अपनी युवावस्था के दिनों में परिचित थे। जिज्ञासु जी आर्यसमाज के लिए इसके सदस्यों से मासिक सदस्यता शुल्क एकत्र किया करते थे। बाबू सोहनलाल जी आर्यसमाज के सत्संग में तो आते नहीं थे परन्तु लगभग सन् 1950 के वर्ष में प्रत्येक माह 1 रूपया मासिक चन्दा देते थे। इस कारण जिज्ञासुजी का उनसे प्रत्येक माह मिलना होता था तथा दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह से पहचानते थे। मुम्बई के आर्य समाज के सक्रिय अनुयायी एवं नेता श्री अरूण अबरोल से सम्पर्क करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि श्री अबरोल, बाबू सोहनलाल जी को जानते हैं और वह उन्हें मुम्बई आने पर उनसे मिलवा देंगे। जिज्ञासु जी मुम्बई पहुंच गये और श्री अबरोल के साथ उनसे मिले। श्री सोहनलाल और जिज्ञासुजी दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया। जिज्ञासुजी ने प्रश्न किया कि मैं वैदिक धर्म की वेदी पर बलिदान हुए हुतात्मा पं. लेखराम के बारे में जानने आया हूं कि वह जब कादियां वैदिक धर्म के प्रचार के लिए आते थे तो उनके व्याख्यान वहां किस स्थान पर होते थेदोनों विद्वत्जनों के वार्तालाप में बाबूजी ने बताया कि कादियां में आपके घर के आगे गन्दे नाले के पास एक छोटा सा स्कूल होता था, उसी के मैदान में लोग उन्हें सुनने आते थे। इस प्रकार से जिज्ञासु जी डा. कुशल देव शास्त्री की खोज पूरी हो गई परन्तु इस वार्तालाप में बाबू सोहनलाल जी ने जिज्ञासु जी को यह भी बताया कि वह आर्यसमाजी क्यों कैसे बनें? सोहनलाल जी ने कहा कि इसी स्कूल में पुजर्नन्म विषय पर आर्यसमाज के शास्त्रार्थ महारथी और मुस्लिम मत के तलस्पर्शी विद्वान पण्डित धर्मभिक्षु जी का एक मिर्जाई मौलवी से शास्त्रार्थ हुआ था। बाबू सोहनलाल जी के अनुसार शास्त्रार्थ स्थल पर दर्शकों की भारी भीड़ थी। श्रोताओं में हिन्दू व सिख एक ओर थे और बहुसंख्यक मिर्जाई अपने मौलाना का उत्साह बढ़ाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में आये थे। शास्त्रार्थ में मौलाना ने अपनी सारी शक्ति इस बात पर लगाई कि यदि पूर्वजन्म होता है तो फिर हमें इसकी स्मृति क्यों नहीं रहती? श्री पण्डित जी ने उनके प्रश्न का कई प्रकार से उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि इस जन्म की बड़ी-बड़ी सब घटनायें क्या हमें याद रहा करती हैं? इसका मौलाना जी के पास कोई उत्तर नहीं था। मौलाना के पास पुनर्जन्म पर कहने लिए कोई सशक्त प्रमाण या दलील नहीं थी। अपनी पुरानी बात को ही नये तरीके से पेश करते हुए उन्होंने कहा कि आप बताएं, ‘‘आप पूर्वजन्म में क्या थे? गधे थे, कुत्ते थे, सूअर थे, गाय थेक्या थे?”  पण्डित जी ने कहा, सब जन्मों की तो मुझे अब याद नहीं परन्तु इससे पहले के जन्म में मैं तुम्हारा बाप था। इतना कहना था कि मौलाना बोल पड़ा, ‘‘नहीं ! आप मेरे बाप नहीं बल्कि मेरी बीवी थे अर्थात्  मैं तुम्हारा पति था और तुम मेरी पत्नी थे। इस पर पण्डित जी ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं तुम्हारा बाप नहीं बीवी था, परन्तु पुनर्जन्म तो सिद्ध हो गया। आपने हमारा सिद्धान्त तो मान ही लिया।

 

पण्डित घर्मभिक्षु जी के यह शब्द सुनकर मौलाना मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ और बाबू सोहनलाल इस घटना से प्रभावित होकर आर्यसमाजी बन गये।  बाबूजी ने श्री राजेन्द्र जिज्ञासु को बताया कि जब यह शास्त्रार्थ हुआ था तब वह विद्यार्थी थे और इस शास्त्रार्थ को सुनकर और मिर्जाई मौलवी के भागने का दृश्य देखकर वह आर्यसमाजी बने थेे। इस घटना से बाबूजी के जीवन में एक नया मोड़ आया था अतः यह घटना ज्यों की त्यों उन्हें पूर्णतः स्मरण थी। इस प्रकार एक ऐतिहासिक स्थान, जहां रक्तसांक्षी हुतात्मा पं. लेखराम जी ने कादियां में व्याख्यान दिए थे, की खोज हुई और वहां पुनर्जन्म विषय पर एक शास्त्रार्थ का एक प्रत्यक्षदर्शी से वर्णन सुनने के साथ उस शास्त्रार्थ के प्रभाव से उनके आर्य समाजी बनने की घटना का ज्ञान हुआ। इसी प्रकार की इतिहास में अनेक घटनायें हुआ करती है परन्तु उनकी सुरक्षा न होने के कारण वह विस्मृत हो जाती हैं। आर्य समाज के यशस्वी भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनी भी लाहौर में वैदिक रिसर्च स्कालर पं. गुरूदत्त विद्यार्थी के शास्त्रार्थ को सुनकर आर्यसमाजी बने थे जिसके बाद उन्होंने सारा जीवन देश विदेश में आर्य समाज के प्रचार कर कीर्तिमान बनाया है। मेहता जैमिनी का खोजपूर्ण विस्तृत जीवन चरित्र भी पं. राजेन्द्र जिज्ञासु ने लिखा है जो कि पठनीय है।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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‘क्या हमारा अब तक का जीवन व्यर्थ चला गया है?’

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प्रेरकप्रसंग

क्या हमारा अब तक का जीवन व्यर्थ चला गया है?’


हम अपने सारे जीवन भर यह भूले रहते हैं कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है। हम संसार में क्यों आये हैं? न हमें इसके बारे में माता-पिता से कोई विशेष ज्ञान मिलता है और न हि हमारे आचार्य व अध्यापक ही विद्यालयों में इस विषय के बारे में पढ़ाते या बताते हैं। माता, पिता व आचार्य का उद्देश्य यही होता है कि हम खा-पी कर स्वस्थ बने और शिक्षा पाकर अच्छा रोजगार प्राप्त कर लें और विवाह, सन्तान, धन, सम्पत्ति, सुविधापूर्ण आवास, कार आदि खरीद कर सुखी जीवन व्यतीत करें। यही आम मनुष्य के जीवन का उद्देश्य उसकी जीवन शैली को देखकर विदित होता है। कभी कोई विचार ही नहीं करता कि क्या यही वास्तविक जीवन का उद्देश्य है? महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में इस प्रश्न पर विचार किया था। उन्हें ज्ञात हुआ था कि नहीं, जीवन का उद्देश्य यह नहीं है अपितु ज्ञान की प्राप्ति से ईश्वर का साक्षात्कार और सद्कर्मों से जन्म मरण से मुक्ति प्राप्त करना ही जीवन का उद्देश्य है।

 

प्रिंसीपल श्री ज्ञानचन्द्र जी हिसार आर्य समाज के प्रसिद्ध व प्रतिष्ठित विद्वान थे। आप अत्यन्त अध्ययनशील व्यक्ति थे। उनके जीवन में अनेक विशेषतायें थीं। आपने सन् 1939 के हैदराबाद की मुस्लिम रियासत मे बहुसंख्य हिन्दु प्रजा पर वहां के निजाम और उनके अधिकारियों के धार्मिक भेदभाव एवं अत्याचारों के विरूद्ध “‘राष्ट्रीय आर्य सत्याग्रह में भाग लिया था और जेल भी गये थे। भारत के प्रथम उपप्रधान मंत्री एवं गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस सत्याग्रह की प्रशंसा की थी। आर्य जगत् के विद्वान और आर्य गजट पत्र के पूर्व सम्पादक चौधरी वेदव्रत, स्वामी ओमानन्द जी तथा प्रो. उत्तम चन्द शरर जेल में आपके साथ थे।

 

प्रिंसीपल ज्ञान चन्द्र जी ने संन्यास लेने का निर्णय किया। विचार करने के बाद उन्होंने आर्य जगत् के प्रसिद्ध विद्वान एवं 300 से अधिक ग्रन्थों के लेखक श्री राजेन्द्र जिज्ञासु, अबोहर से कहा कि वह कुछ दिन उनके पास अज्ञातवास के लिए आना चाहता हैं। प्रवास में वह कुछ चिन्तन, मनन व स्वाध्याय करना चाहते हैं, परन्तु वहां व्याख्यान नहीं देंगे। जिज्ञासु जी ने उन्हें आमंत्रित किया और उनके निर्णय की प्रशंसा की। अबोहर में उनके निवास व अन्य सभी प्रकार के प्रबन्ध कर दिये गये। प्रिंसीपल महोदय अबोहर आये और निवास किया। यहां उनके दर्शन करने सायंकाल के समय अनेक श्रद्धालुजन आते रहे, अतः प्रिंसीपल महोदय द्वारा उन्हें उपदेश किया जाता रहा। यहां प्रिंसीपल महोदय ने जिज्ञसु जी को आर्य जगत् के नाम अपनी ओर से एक सन्देश लिपिबद्ध कराया जिसका प्रकाशन कर स्थानीय जनता में वितरित कर दिया गया। एकदिन जिज्ञासुजी से आपने कहा कि आप मुझे स्वाध्याय के लिए उपयोगी कोई आध्यात्मिक ग्रन्थ दीजिये। इसका पालन कर जिज्ञासु जी ने उन्हें वेदभाष्यकार पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार का सामवेद भाष्य ले जाकर उन्हें दिया। आपने भक्तिभाव से सामवेद का अध्ययन किया। इसके कुछ दिन बाद जब जिज्ञासु जी प्रिंसीपल ज्ञान चन्द्र जी से मिले तो आपने उनसे कहा कि जिज्ञासु जी ! मेरा तो अब तक का सारा जीवन ही बेकार ही गया।  इसके आगे वह बोले कि मैंने आज तक प्रभु की अमरवाणी वेद का स्वाध्याय कभी नहीं किया। बस अपवाद रूप में ही कुछ वेद मन्त्र कभी देखे पढ़े। वेदों की महत्ता को सुनता तो अवश्य रहा हूं। पहली बार ही आपने यह भाष्य लाकर मुझे अमृतपान करवा दिया। जिज्ञासुजी यह शब्द सुनकर हैरान हो गय। वह जानना चाह रहे थे कि इसके पीछे उनकी भावना क्या है। जिज्ञासु जी बताते हैं कि वह प्रिंसीपल ज्ञान चन्द्र जी के छोटे भाई मास्टर रत्नचन्द जी के शिष्य रहे हैं। बाद में वह श्री ज्ञानचन्द्र जी के भी शिष्य बने। उनका जिज्ञास जी से बहुत स्नेह था और अपने इस शिष्य का नाम न लेकर उन्हें हमेशा जिज्ञासु जी कहकर पुकारते थे। यह उनका बड़पन्न था। प्रिसीपल साहिब के देश भर मे बड़ी संख्या में समर्पित भक्त व प्रेमी थे, उन्हें व सेठ एवं लीडरों को छोड़कर वह उन एक साधारण विप्र के यहां अज्ञातवास हेतु आये थे। अपने जीवन के बेकार होने की बात कहने के बाद उन्होंने सामवेद भाष्य को खोलकर एक मन्त्र और उसका अर्थ पढ़कर सुनाया। मन्त्र में कहा गया है कि इस जन्म में जहां हम छोड़ते हैं आगे की यात्रा वहीं से आरम्भ होती है जैसे कि मां जब बच्चे को दूध पिलाती है तो दाएं स्तन का पान करके वह बच्चा बाएं स्तन का पान करने लगता है। बाएं का पान करते समय वह नये सिरे से यह क्रिया नहीं करता। जितना दूध पी चुका है अब उससे आगे पीता है। जितना पेट पहले भर चुका था, वह तो भर चुका, अब तो वह और पी कर बची भूख को शान्त करता है। उन्होंने आगे कहा कि अब वह शेष जीवन वेद का ही स्वाध्याय करेगें और इस जीवन में जो न्यूनता रहेगी वह अगले जन्म में पूरी करेंगे। उन्होंने तब एक पंक्ति बोली थी जिसका आशय था कि ईश्वर तेरी वेदवाणी है अनमोल, इसमें अमृत भरा हुआ है विभोर।

 

यह रहस्य सामवेद के एक मन्त्र के भाष्य ने खोला। श्री ज्ञान चन्द्र जी ने जिज्ञासु जी को कहा कि यदि उन्हें पहले यह बात समझ में जाती तो वह बहुत कुछ पाकर आगे निकल जाते। श्री ज्ञानचन्द्र जी देश भर में उपनिषदों की कथा करने के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। उनकी उपनिषदों की कथायें बहुत रोचक, प्रेरक व चिचारोत्तेचक होती थी। उनकी भाषा पंजाबी उच्चारण बहुल थी परन्तु उनका चिन्तन गहन था व उनके विस्तृत अध्ययन का प्रभाव श्रोताओं पर जादू का सा होता था।

 

प्रिंसीपल ज्ञानचन्द्र ने जो बात कही कि मेरा तो अब तक का सारा जीवन ही बेकार गया। इसकी जानकारी देकर उन्होंने वेदाध्ययन को उन्होंने अमृत के तुल्य बताया। इस प्ररेणादायक प्रसंग से हम व सभी लोग लाभ उठा सकते हैं। हमने आरम्भ में महर्षि दयानन्द जी के जीवन के उद्देश्य विषयक अन्वेषण और परिणामों का उल्लेख किया है। हमने भी लगभग 40 वर्षों से वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन में व्यतीत किए हैं। हम इस प्रसंग में यह भी जोड़ना चाहेंगे कि महर्षि दयानन्द का विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश संसार के धार्मिक साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। प्रत्येक व्यक्ति को उसका अध्ययन और उसकी सत्य शिक्षाओं पर आचरण कर अपना जीवन सफल करना चाहिये। जिस सामवेद भाष्य की चर्चा उपर्युक्त पंक्तियों में की गई हैं, वह वैदिक साहित्य के प्रकाशक श्री घड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, ब्यानिया पाडा, हिण्डोनसिटीराजस्थान से उपलब्ध है। पत्र भेजकर डाक से मंगाया जा सकता है। हमारा अनुभव है कि प्रिंसीपल ज्ञानचन्द्र जी का अपने और हम सभी के जीवन के बारे में निष्कर्ष पूरी तरह से यथार्थ है। इसे लेख की पंक्तियों से यदि पाठको को कुछ लाभ होता है तो हमारा श्रम सफल होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘प्रेरणादायक जीवन: वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द’

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कहां गये वो लोग, कैसे होते थे हमारे पूर्वज, धर्मात्मा व महात्मा

प्रेरणादायक जीवन: वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द

संसार में सुर तथा असुर अर्थात् देवता और राक्षस सदा से होते आये हैं। असुरों के प्रति सामान्य लोगों का भाव वितृष्णा का होता है परन्तु सत्पुरूष वा सुर संज्ञी पुरूषों के प्रति हृदय में आदर व श्रद्धा का भाव देखा जाता है। शायद यही कारण है कि दुष्ट पुरूष भी अपने काले कारनामों को छुपाते हैं और बाहर से अच्छा दिखने व दिखाने का प्रयास करते हैं। आज स्वाध्याय करते हुए हमने एक घटना पढ़ी जिसका हमारे मन पर चमत्कारिक प्रभाव हुआ। मन में विचार आया कि इसे अन्यों तक भी पहुंचाना चाहिये। इसलिए हमारे ऋषियों ने वैदिक सिद्धान्त बनाया है, स्वाध्यायान्मा प्रमदः अर्थात् किसी को कभी भी स्वाध्याय से प्रमाद नहीं करना चाहिये अर्थात प्रतिदिन नियमित स्वाध्याय करना चाहिये। स्वाध्याय करने वाले लोगों के जीवनों में नाना चमत्कार देखे जाते हैं। यही उन्नति व सफलता की भी मूल मन्त्र है। हमें लगता है कि यदि आज हम स्वाध्याय न करते तो यह घटना हम न पढ़ते और न यह पंक्तिया ही लिखी जाती।

 

मानव की प्रकृति जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों से जुड़ी हुई है। इसी कारण से संसार के सभी लोग अच्छी बातों व गुणों को पसन्द करते हैं और अवगुणों के प्रति वितृष्णा रखते हैं। यह भी सत्य है कि स्वयं बुरे काम करने वाले व्यक्ति नहीं चाहते कि उनका परिवार का कोई व्यक्ति बुरा काम करे। मनुष्यों का यह स्वभाव देखा जाता है कि गुणी व सदाचारी धर्मात्माओं के प्रति वह आदर व श्रद्धा भाव रखते हैं, भले ही वह स्वयं में अच्छे हों या न हों। बुरा व्यक्ति भी अच्छे व्यक्ति का लोहा मानता है। सद्गुणों वाले व्यक्ति के प्रति लोगों में एक अलौकिक आकर्षण होता है। यही कारण हैं कि हम और हमारा समाज महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगश्वर श्री कृष्ण, आचार्य चाणक्य, महर्षि बाल्मिीकी, गुरू रविदास, आर्यराज पृथिवीराज चैहान, वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरू गोविन्द सिंह, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री आदि के प्रति आदर व श्रद्धा का भाव रखते हैं।

 

आर्य जगत के प्रसिद्ध विद्वान पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का जन्म मालोमहे जिला स्यालकोट, पंजाब सम्प्रति पाकिस्तान में हुआ था। उनके गांव में एक वैदिक विद्वान पं. हीरानन्द जी यदाकदा वेदों के प्रचार के लिए आते-जाते रहते थे और महीनों वहां निवास करते थे। गांव के लोगों को पता था कि इन पण्डित जी ने अपने विद्यार्थी जीवन में काशी में पढ़ते हुए अपने गुरूजनों के कहने पर महर्षि दयानन्द सरस्वती पर ईंटे व पत्थर फेंके थे और उन्हें अपमानित करने का प्रयास किया था। यह कार्य उन्होंने अपने बाल्य जीवन में किया था। उस समय उन्हें उचित-अनुचित का ज्ञान नहीं था। अध्ययन समाप्ति करने पर वह आर्य समाज के सम्पर्क में आये तो महर्षि के गुणों के दीवाने हो गये और उन्हीं की शिक्षाओं, वैदिक मान्याओं व सिद्धान्तों के प्रचार को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया।

 

एक बार की बात है कि पण्डित हीरानन्द जी आर्य समाज, मालोमहे में आये हुए थे। आर्य विद्वान राजेन्द्र जिज्ञासु जी मालोमहे में रहते थे और वह नियमित रूप से कई बार आर्य समाज जाया करते थे जो कि उनके निवास के समीप ही था। जिज्ञासु जी सायंकल समाज मन्दिर में खेलने के उद्देश्य से पहुंचे तो वहां चारपाई पर पंडित जी को बैठा हुआ पाया। जिज्ञासु जी मक्की के दाने चबा रहे थे। यही उन दिनों आजकल की मिठाईयों के समान लोकप्रिय पकवान हुआ करते थे। पण्डितजी को देखकर आपने उनसे पूछा कि क्या वह मक्की के दाने चबायेंगे? उन दिनों पण्डित जी की अवस्था 80 वर्ष थी और उनके मुंह में दांत नहीं थे। इसलिए पण्डित जी ने कहा कि मेरे दांत नहीं है। यदि तुम इन्हें कूट-पीस कर ले आओ तो मैं इन्हें खा सकता हूं। जिज्ञासु जी तुरन्त घर आये और मक्की के दानों का पाउडर बना कर ले गये जिन्हें पण्डित जी ने बड़े प्रेम से ग्रहण किया और अपनी किंचित क्षुधा निवृत्ति की।

 

अगले दिन आर्य समाज मन्दिर में एक सज्जन आये और पण्डित जी को उनके घर चल कर रात्रि भोजन ग्रहण करने का निवेदन किया। पण्डित जी ने अपनी सहमति दी। आतिथेय महोदय ने पूछा कि पूर्व रात्रि को उन्होंने किसके यहां भोजन किया था। पण्डित जी ने पूर्व रात्रि को किसी के यहां भोजन नहीं किया था। कोई उन्हें भोजन के लिए कहने आया ही नहीं था। इस कारण पण्डित जी को उस रात्रि भूखा ही रहना पड़ा था। सच्चे महात्मा होने का प्रमाण देते हुए उन्होंने कहा कि कल उन्होंने मंत्री जी के पुत्र के यहां भोजन किया था। पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के पिता जी को वहां लोग मंत्रीजी कह कर पुकारते थे। उस आतिथेय सज्जन ने पं. हीरानन्द जी से पूछा कि उसने आपको भोजन में क्या-क्या व्यंजन परोसे थे। अब पण्डित जी के लिए कुछ कठिनाई पैदा हो गई। महात्मा असत्य तो बोल नहीं सकते। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा कि वह मेरे लिए मक्की की दाने कूट कर ले आया था। वह आतिथेय सारी बात समझ गये। सारे समाज में इस बात की चर्चा फैल गई। पण्डित हीरानन्द जी के सरल स्वभाव से वहां के सभी लोग परिचित थे। सबको इस घटना को सुनकर पश्चाताप हुआ। पण्डित जी तो हर स्थिति में शान्त व आनन्दित रहा करते थे। इसी प्रकार की घटनायें महर्षि दयानन्द के साथ भी जीवन में कई बार हुईं। अनेक अन्य आर्य विद्वानों व महात्माओं के साथ भी प्रायः ऐसा होता आया है।

 

जब यह घटना घटी, उन दिनों श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी मात्र 12 वर्ष के किशोर थे। उनके कोमल हृदय पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा। जिज्ञासु जी लिखते हैं- तब मैं इस घटना से इतना प्रभावित हुआ कि मेरे हृदय पर यह छाप पड़ी कि हमारे पण्डित जी बड़े पुण्यात्मा, महात्मा, तपस्वी त्यागी पुरूष हैं। भूख प्यास पर इन्होंने विजय प्राप्त कर रखी है। यह सच्चे धर्मात्मा है। पूजनीय हैं। इस घटना के उल्लेख के बाद जिज्ञासु जी बड़ी मार्मिक टिप्पणी करते हैं- युग कितना बदल गया है। तब त्याग से व्यक्ति बड़ा समझा जाता था, अब साधनों से बाबा जी की प्रतिष्ठा है। (त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य रूपी) साधना से नहीं। नेता भी तभी नेता बनता है जब दो चार गाडि़यां आगे पीछे घूमती हों।

 

आज पं. हीरानन्द जी जैसे महात्माओं का समाज में अभाव हो गया है। आज हमारे महात्माओं के भी दोहरे चरित्र अनुभव में आते हैं। उनके मन में कुछ और होता है और वाणी में कुछ और। भक्तों को भी यही कृत्रिम महात्मा पसन्द आते हैं। तभी तो आज धार्मिक सत्संगों में हजारों लोगों की भीड़ दिखाई देती हैं जहां महात्मा जी अपने सेवक-सेविकाओं के साथ आते हैं और दो-तीन दिनों के सत्संगों के ही लाखों रूपये बटोरते हैं। कुछ धार्मिक टीवी चैनल भी कंचन-कांचनी वाले महात्माओं के प्रवचनों से भरे होते हैं। लाखों रूपये व्यय करके यह अपना प्रचार करते हैं। हम अपने अनुभव से कहना चाहते हैं कि जो ज्ञान सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ को पढ़कर कुछ ही दिनों में प्राप्त होता है वह पूरा जीवन लगाकर भी इन सत्संगों व इसके भक्तों को प्राप्त नहीं होता। यहां ज्ञान ग्रहण नहीं किया जाता, मात्र गुरू के प्रति अन्ध-भक्ति व आस्था उत्पन्न कराई जाती है। गुरू कैसा भी हो, हर हाल में उसकी वन्दना व गुणगान करना है। हमारे पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने सारा जीवन स्वाध्याय, लेखन व प्रवचनों में लगाया है। 300 से अधिक ग्रन्थ लिखकर उन्होंने एक इतिहास बनाया है। वह सही मायनों में एक सच्चे महात्मा है। अपने उनके दर्शन व प्रवचन सुनकर व इससे भी अधिक पत्र पत्रिकाओं में उनके लेखों व पुस्तकों को पढ़कर अपने जीवन में किंचित लाभ उठाया है और उससे धन्य हुए हैं। अपने ग्रन्थ स्मृतियों की यात्रा ग्रन्थ में पं. हीरानन्द जी का संस्मरण लिखकर जिज्ञासु जी ने पं. हीरानन्द जी को भी विख्यात व अमर कर दिया है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘एक दलित बन्धु की बारात में एक सुप्रसिद्ध आर्य संन्यासी’

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इतिहासकीएकविस्मृतमहत्वपूर्णघटना

एक दलित बन्धु की बारात में एक सुप्रसिद्ध आर्य संन्यासी

 

 

महाभारत काल तक हमारे देश में गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित वर्ण (selection) व्यवस्था थी। महाभारत काल के बाद मध्यकाल के दिनों व उससे कुछ समय पूर्व इस व्यवस्था ने जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था का रूप ले लिया। इस व्यवस्था में ही मनुष्य-मनुष्य के बीच छुआछूत आदि का प्रचलन भी हुआ। महर्षि दयानन्द ने नयी जाति या वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था नाम दिया और इसे समाप्त करने का प्रयास किया। उन्हें इसमें आंशिक सफलता भी मिली है। परन्तु आज भी यह हानिकारक जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था समाप्त नहीं हुई है। अब से 50 – 100 वर्ष पूर्व यह बहुत अधिक विकराल रूप में देश में भी। आर्य समाज ने इसके उन्मूलन में सराहनीय कार्य किया है। इस लेख में हम एक आर्य समाज के अनुयायी दलित बन्धु के विवाह की प्रेरणाप्रद घटना प्रस्तुत कर रहे हैं जिसका अपना विशेष महत्व है।

 

आर्य जगत के वयोवृद्ध व ज्ञानवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु सन् 1975 में अहमदाबाद गये। इस अवसर पर वहां उन्होंने साबरमति आश्रम देखा। इस आश्रम में गांधी जी ने अपने हाथों से सूत कात कर अपने सबसे पहले हरिजन साथी को एक कुर्ता सिलवा कर दिया था। यह कुर्ता साबरमति आश्रम में गांधी जी के प्रयोग में आई वस्तुओं के साथ में रखा हुआ है। जिज्ञासु जी ने जब इस कुर्ते को देखा तो उन्हें यह बहुत अच्छा लगा। उनके मन में विचार आया कि आर्य जगत के ज्ञानी, त्यागी, तपस्वी व देश-धर्म-संस्कृति भक्त स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने दलितोद्धार के लिए प्रशंसनीय कार्य किया था। उनके प्रथम दलित शिष्य भक्त का पता लगाना चाहिये। वह उसकी खोज में निकल पड़े। पंजाब में रामा मण्डी गये। वहां महाशय निहालचन्द जी से इस बारे में प्रश्न किया। उन्होंने बताया कि जिस श्री किशन सिंह के विवाह की घटना उन्होंने “प्रेरणा कलश” में दी थी, वही स्वामी जी का पहला दलित शिष्य था।

 

श्री निहाल सिंह और प्रा. जिज्ञासु जी की बातचीत में यह तथ्य सम्मुख आये कि श्री निहाल सिंह, श्री अजीत सिंह ‘किरती’ तथा श्री किशन सिंह सहोदर भाई न होकर एक गुरू के शिष्य होने के कारण परस्पर भाई थे। श्री किरती एक जाट परिवार में जन्में थे और श्री किशन सिंह एक दलित परिवार में। किशन सिंह जी का विवाह निश्चित हो गया था। सब आर्य युवकों की एक बैठक हुई। बैठक में विचार हुआ कि विवाह संस्कार व बरात आदि की ऐसी व्यवस्था हो कि कन्या पक्ष के गांव में आर्य समाज की अच्छी धाक व छाप पड़े। इसके लिए एकमत से निर्णय हुआ कि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को बरात में ले जाया जाये। स्वामी जी के बरात में जाने से वैदिक धर्म के विचार व सिद्धान्त वघू पक्ष के गांव में पहुंच जायेंगे। बैठक के लोगों ने अजीत किरती जी को स्वामीजी को बरात में चलने के लिए राजी करने का काम सौंपा।

 

किरती जी ने स्वामीजी को जब बरात में चलने के लिए कहा तो स्वामीजी ने समझाया कि साधू संन्यासियों को बरात में ले जाना अच्छा नहीं लगता। मैं बरात में नहीं चलूंगा। जिन दिनों की यह घटना है, उन दिनों इस प्रकार की बैठक का होना तथा इस प्रकार का कार्यक्रम बनाना एक बहुत बड़ी क्रान्ति थी। एक दलित भाई के विवाह में जाट, बनिये, ब्राह्मण, खत्री आदि मिलकर बरात की रूप रेखा तय कर रहे थे। यह भी अनोखा ही कार्य था कि एक दलित बन्धु के विवाह में सभी बिरादरियों के युवक प्रसन्नता व उत्साह पूर्वक भाग लें। ऐसा इससे पूर्व कभी देखा नहीं गया था। किरती जी ने जब बैठक को सूचित किया कि स्वामी जी बरात में जाने के लिए सहमत नहीं हैं तो सबने एकस्वर से उन्हें कहा कि स्वामीजी को बता दें कि यदि वह बरात में नहीं जायेंगे तो श्री किशन सिंह का विवाह नहीं होगा। किरती जी ने जब स्वामी जी को यह सूचना दी तो स्वामी जी विचार करने लगे कि यदि शादी न हुई तो कन्या को सारे जीवन में घर में बैठना होगा। कौन उससे विवाह करेगा? कन्या के भावी जीवन की कल्पना कर स्वामीजी चिन्तित हो गये। उन्होंने किरतीजी को कहा कि अच्छा! मैं बरात में तो चलूँगा परन्तु वहां केवल पांच मिण्ट ही रहूंगा, इससे अधिक देर नहीं रूकूंगा। रामा मण्डी के युवक मण्डल ने स्वामीजी की बात मान ली। उन दिनों में रामामण्डी में ऊंट ही यातायात का साधन था। बरात का दिन आ गया। स्वामी जी के लिए बारात के दिन एक ऊंट को सजाया गया। कन्या पक्ष को स्वामी जी के बरात में आने की सूचना दी जा चुकी थी जिसे सुन कर वहां के लोग अत्यन्त खुश थेे। देश-विदेश में विख्यात वेदों के एक विद्वान संन्यासी का बरात में जाना कोई साधारण बात नहीं थी। बरात के दिन स्वामीजी ने ऊंट पर बैठना तो स्वीकार नही किया। वह पैदल ही कन्या पक्ष के गृह स्थान की ओर चल पड़े। उनके सम्मान मे अन्य सभी बराती भी ऊंटों को साथ लेकर पैदल ही कन्या पक्ष के घर पर जा पहुंचंे।

 

इतिहास की अपने प्रकार की यह एक निराली घटना थी जिसमें एक प्रसिद्ध, तेजस्वी, प्रतापी, बाल ब्रह्मचारी संन्यासी सम्मिलित हुआ। शिष्यों ने गुरू को मनाया और गुरू ने शिष्यों का पे्रम व श्रद्धा से सिक्त आग्रह स्वीकार किया। इस बारात के स्वागत के लिए कन्या पक्ष का सारा ग्राम उमड़ पड़ा था। वहां स्वामी जी को एक बड़े पंलग पर बैठाया गया। स्वामीजी पैर नीचे लटकाकर पलंग पर बैठ गये। आपने दोनों पक्षों के लोगों को 5 मिन्ट तक गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों पर सारगर्भित उपदेश दिया और इसके बाद वापिस अपने स्थान पर लौट आये। स्वामीजी ने उपदेश के अन्त में जो शब्द कहे वह थे – यही धर्म है। यही मर्यादा है। यही सनातन वैदिक रीति है। अब तुम्हारी बिरादरी के मनोरंजन की वेला है। आर्य जगत के शीर्ष विद्वान प्रा. जिज्ञासु जी ने अपनी स्मृतियों की यात्रा पुस्तक में इस घटना को देकर लिखा है कि इस घटना की खोज पर उन्हें बड़ा गौरव है। श्री महाशय निहालचन्द जी व अन्य कर्मवारों से जुड़ा यह संस्मरण उनके लिए अविस्मरणीय है। वे लोग क्रान्ति करते हुए प्रेम माला में सबको पिरोते गये।आगे उन्होंने लिखा है कि आरक्षण के बीच में आरक्षण देश को डुबो के न रख दे। युवको! चेतों! यह घटना आज भी प्रासंगिक है। इतने वर्षों बाद भी समाज में उन्नति की जगह अवनति ही देखने को मिल रही है। इसके अनेक कारण हैं जिन पर विचार कर उनका निराकरण करना है अन्यथा यह देश के लिए घातक हो सकता है। हम इस घटना को प्रकाश में लाने के लिए प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का आभार व्यक्त करते हैं। आर्य समाज ने दलितोद्वार का कार्य सन् 1875 में सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन से ही आरम्भ कर दिया था।

 

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के दलितोद्धार पर प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु रचित कुछ पंक्तियों को प्रस्तुत कर लेख को विराम देंगे। जिज्ञासु जी ने लिखा है-“करूणासिन्धु दयानन्द के शिष्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज को भी छूतछात, जातिभेद ऊंचनीच के भद्दे भाव बहुत अखरते थे। इन बुराइयों के विरूद्ध वे जीजान से लड़े। वैदिक धर्म किसी वर्गविशेष के लिए नहीं है। प्रभु की पवित्र वेदवाणी मानवमात्र के लिए है। अस्पृश्यतानिवारण के लिए आपने पंजाब, हरियाणा, हिमाचल जम्मूकश्मीर में बड़ा संघर्ष किया। जम्मू में जान जोखिम में डालकर दलित भाइयों की सेवा की। किसी भी राजनैतिक दल ने दलितों के लिए कभी भी कोई बलिदान नहीं दिया। आर्यवीर रामचन्द्र जी ने जम्मू में दलितोद्धार के लिए महाबलिदान दिया। उस वीर के बलिदान के समय आर्यों पर बड़े अत्याचार किए गए। तब जान जोखिम में डालकर आजन्म ब्रह्मचारी स्वामी स्वतन्त्रानन्द सीना तानकर जम्मू राज्य में कए। महात्मा हरिराम जी श्री अनन्तराम सरीखे आर्यों को साथ लेकर पूज्य स्वामी जी ने पोंगापंथियों पर विजय पाई। दलितों की रक्षा उत्थान के लिए जो कार्य स्वामी जी ने किया, उसको शब्दों में बता पाना कठिन है। दलितोद्धार के लिए श्री महाराज एक बात कहा करते थे कि यदि इनको आर्थिक उद्धार हो जाए तो अन्य बुराइयां दूर करना इतना कठिन नहीं। जब दीनबंधु महात्मा फूलसिंह ने नारनौंद में दलितों के लिए कुएं खुलवाने के लिए ऐतिहासिक मरणव्रत रखा, तो सारे देश का ध्यान आर्य नेता महात्मा फूलसिंह की सतत ससाधना पर केन्द्रित हो गया। गांधी जी भी भक्त फूलसिंह जी के महाव्रत से बड़े प्रभावित हुए थे। तब हमारे पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने हरियाणा के गांवगांव में घूमकर वातावरण को अनुकूल बनाया, जनजागृति पैदा की और चैयधरी छोटूराम का भी सहयोग प्राप्त किया। वोटनोट की राजनीति करने वाले भला वीर रामचन्द्र  भक्त फूल सिंह के बलिदान की चर्चा क्यों करें? स्वामी स्वतन्त्रता ने दलितोद्धार के जो कार्य किए यह तो उनका संकेत मात्र है।

 

हमारे इन स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का जन्म लुधियाना जिले के मोही ग्राम के एक प्रतिष्ठित सिख जाट परिवार में जनवरी, 1877 में हुआ था। आप कुछ समय तक अद्वैतवाद की विचारधारा से प्रभावित रहे और बाद में आर्य समाज के अनुयायी बने। आप सन् 1939 में हैदराबाद में चलाये गये आर्य सत्याग्रह के फील्ड मार्शल बनाये गये थे। आपका शौर्य और सूझबूझ ने हैदराबाद के निजाम को झुका कर उससे हिनदुओं के धार्मिक कृत्यों पर प्रतिबन्ध को समाप्त करने की अपनी मांगे मनवाई थी। 29 मार्च सन् 1941 को मुस्लिम रियासत लोहारू में आर्य समाज के उत्सव की शोभा यात्रा में विधर्मियों ने 65 वर्षीय इस संन्यासी के शिर पर कुल्हाड़े व लाठियों आदि का प्रहार कर घायल कर दिया था। शिर से रक्त बह रहा था। इसी अवस्था में आप लोहारू से रेल द्वारा दिल्ली पहुंचे जहां इरविन अस्पताल में आपने उपचार कराया। आपके शिर में अनेक टांके लगे। आपने बिना क्लोरोफार्म सूँधे ही टांके लगवाकर अपने ब्रह्मचर्य एवं योग बल का परिचय देकर सभी डाक्टरों को आश्चर्य में डाल दिया था। महर्षि दयानन्द से प्रेरणा आपने और महर्षि दयानन्द के सभी सैनिक अनुयायियों ने दलितोद्धार का अविस्मरणीय ऐतिहासिक कार्य किया है। इन्हीं शब्दों के साथ हम लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ-अब्दुल अज़ीज़ की शुद्धिः : राजेंद्र जिज्ञासु परोपकारी पत्रिका Dec II, 14

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इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ-अब्दुल अज़ीज़ की शुद्धिः- गत दो-तीन वर्षों में कुछ सज्जनों ने News Valueसमाचार या मीडिया प्रचार शैली से शुद्ध किये गये मुसलमानों में से दो-चार को चुनकर कुछ लेख लिखे फिर एक सज्जन ने मुझ से कुछ ऐसे और नाम सुझाने को कहा। कोई विशेष जानकारी तो कोई दे न सका। शुद्धि आन्दोलन को बढ़ाने के लिए स्वामी चिदानन्द जी, अनुभवानन्द जी, ठाकुर इन्द्र वर्मा जी, पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. गोपालदेव कल्याणी जी, श्याम भाई जी, पं. नरेन्द्र जी की तपस्या पर तो कोई लिखता नहीं। मैंने तब हैदराबाद के ऋषि भक्त मौलाना हैदर शरीफ जी के सबन्ध में कुछ  खोजकर लिखने का सुझाव दिया परन्तु कोई आगे न आया। ऋषि ने देहरादून के महाशय मुहमद उमर को स्वयं शुद्धकर उन्हें आर्य धर्म में दीक्षित कर अलखधारी नाम दिया। यह थी किसी मुसलमान की पहली शुद्धि। इसके पश्चात् दूसरी ऐतिहासिक शुद्धि मौलाना अदुल अज़ीज़ की थी। वह अरबी भाषा व इस्लाम के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उन दिनों ऐक्स्ट्रा असिस्टैण्ट कमिश्नर सबसे बड़ा पद था जो किसी भारतीय को मिल सकता था। आप इस उच्च पद पर गुरदासपुर आदि कई नगरों में कार्यरत रहे। इस शुद्धि का श्रेय पं. लेखराम जी तथा परोपकारिणी सभा को प्राप्त है।

महर्षि दयानन्द जी के बलिदान के पश्चात् यह सब से महत्त्वपूर्ण शुद्धि थी। महात्मा हंसराज इस घटना को बड़ा महत्त्व दिया करते थे। वास्तव में यह घटना हमारे लिए ऊर्जा का स्रोत है। मौलाना अदुल अज़ीज़ कभी कुसंग में पड़कर धर्मच्युत हो गये। वह उत्तर पश्चिमी पंजाब के एक प्रतिष्ठित कुल में जन्मे थे। उनकी पुत्रियाँ ही थीं। जयपुर के प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध आर्यसमाजी बलभद्र जी ने मेरे एक ग्रन्थ में इनकी शुद्धि की चर्चा पढ़कर मुझसे पत्र व्यवहार करके पूछा था कि हमारे एक कुटुबी युवक को पं. लेखराम जी ने शुद्ध किया था। क्या यह वही तो नहीं? मैंने उन्हें सारी जानकारी देते हुए कहा कि जी हाँ, यह मेधावी आर्य पुरुष आप ही के कुल का था। इस शुद्धि पर कड़ा और बड़ा संघर्ष हुआ था। इस कारण शुद्धि का संस्कार लाहौर में करना पड़ा। विचित्र बात तो यह रही कि पौराणिकों ने विरोध तो डटकर किया परन्तु पौराणिकों का एक वर्ग आर्यसमाज के पक्ष में भी खड़ा हो गया। ऐसा आर्य इतिहासकार पं. विष्णुदत्त जी ने लिखा है। तब एक और विचित्र दृश्य देखने को मिला। स्वामी दर्शनानन्द जी के पिता पं. रामप्रताप आर्यसमाज के विरोधी शिविर में थे और स्वामी जी पं. लेखराम की सेना में थे।

परोपकारिणी सभा का योगदानः इस शुद्धि का श्रेय परोपकारिणी सभा को पं. लेखराम जी ने तो दिया परन्तु इसका प्रमाण कोई नहीं मिल रहा  था। पं. लेखराम जी का लेख मिथ्या नहीं हो सकता सो पूर्ण श्रद्धा से मैंने 35 वर्ष इसके प्रमाण की खोज में लगा दिये। यह घटना ऋषिवर के बलिदान के कुछ ही मास के भीतर घटी। पं. लेखराम जी ने इस उच्च शिक्षित युवक के मन में वैदिक धर्म तथा ऋषि के प्रति ऐसी श्रद्धा उत्पन्न कर दी कि अदुल अज़ीज़ जी बहुत धन व्यय करके लबी यात्रा करके परोपकारिणी सभा के प्रथम अधिवेशन में अजमेर पहुँचे। पं. गुरुदत्त, राव बहादुरसिंह मसूदा, कविराजा श्यामलदास तथा मेरठ आदि दूरस्थ नगरों के नेता उस अधिवेशन में उपस्थित थे। उन्होंने महर्षि की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा से आर्य धर्म की दीक्षा लेने की प्रार्थना की। पाठक इसका प्रमाण मांगेंगे। इसके प्रमाण के लिए ‘देशहितैषी’ मासिक अजमेर की फाईल सभा को भेंट की जा रही है।1 अमृतसर के पौराणिकों ने ऋषि पर पत्थर वर्षा की। इस शुद्धि में अमृतसर से ही विशेष समर्थन मिला। पं. विष्णुदत्त जी ने लिखा है कि उनकी पुत्रियाँ अमृतसर के प्रतिष्ठत परिवारों में याही गईं। अदुल अज़ीज़ जी को अब लाला हरजसराय के नाम से जाना जाने लगा। वह जहाँ-जहाँ रहे आर्यसमाज की शोभा बढ़ाई।

हीरालाल गाँधी विषयक प्रश्नः हीरालाल गाँधी विषयक एक लेख पढ़कर कुछ उत्साही युवकों ने मुझसे कई प्रश्न पूछे हैं। प्रश्न लेखक से पूछे जायें तो यही अच्छा होगा। मैं कल्पित बातों का क्या उत्तर दूँ। हाँ! कुछ नई बातें जो सुनाता तो रहा परन्तु लिखी कभी नहीं वे आज लिखने लगा हूँ। पहले यह नोट कर लें कि मैंने भाई परमानन्द जी की जीवनी में प्रत्यक्षदर्शी आर्य पुरुष श्री ओमप्रकाश जी कपड़े वाले दिल्ली की साक्षी से लिखा है कि हिन्दुओं का मनोबल बढ़ाने के लिए आर्यसमाज नया बांस में भी सोत्साह हीरालाल की शुद्धि का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कथन की प्रामाणिकता को कोई नहीं झुठला सकता। श्रीयुत् धर्मपाल आर्य दिल्ली इस तथ्य के साक्षी हैं कि आर्य नेता श्री ओमप्रकाश आर्यसमाज के इतिहास का ज्ञानकोश थे। उनकी स्मृति असाधारण थी। वह उस समारोह के आयोजकों में से एक थे।

हीरालाल ने श्री रघुनाथ प्रसाद पाठक आदि को सार्वदेशिक सभा में बताया था गाँधी जी के व्यवहार से चिढ़कर बाप को अपयश देने के लिए हीरालाल मुसलमान बना था। वह इस्लाम की शिक्षा से प्रभावित होकर मुसलमान नहीं बना था। वह लबे समय तक बलिदान भवन में ठहरा था। यहीं उसका भाई देवदास उसे मिलने आता रहा। ये बातें मुझे पाठक जी ने सुनाईं। लाला रामगोपाल शालवाले ने भी उसके मुख से सुनी कई बातें सुनाई थीं। जिन्हें आज नहीं लिखूँगा। एक बार हजूरी बाग श्रीनगर  में हीरालाल ने चौ. वेदव्रत जी को वही कुछ बताया जो बलिदान भवन में पाठक जी को कहा था। हैदराबाद सत्याग्रह के समय जवाहरलाल नेहरू के एक हानिकारक व्यक्तव्य का हीरालाल ने कड़ा उत्तर लिखा। आर्य नेता समझते थे कि इसे पढ़कर नेहरू आर्यसमाज को और हानि पहुँचा सकता है। हीरालाल को बहुत कहा गया कि वह अपनी प्रतिक्रिया न छपवाये परन्तु वह नहीं मान रहा था, तब आर्य नेता देवदास गाँधी को बुलाकर लाये। देवदास की बात हीरालाल मान जाता था। देवदास आर्य सत्याग्रह का समर्थन करता ही था। उसके कहने पर हीरालाल ने अपना वह व्यक्तव्य रोका। हीरालाल  की शुद्धि के समय गाँधी परिवार में से कौन-कौन मुबई में था? इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दूँगा। पाठक स्वयं जानने का प्रयत्न करे।

जवाहिरे जावेद का नया हिन्दी अनुवादः पंजाब के एक उदीयमान सुशिक्षित युवक से कुछ वर्ष पूर्व मेरा सपर्क हुआ। वह आर्यसमाज से जुड़ गया। स्वाध्याय में बहुत रुचि है। वह कुछ सप्ताह अजमेर रहकर न्यायदर्शन पढ़ा रहा था। निरन्तर स्वाध्याय, निरन्तर सेवा और निरन्तर सपर्क से ही संगठन सुदृढ़ होता है। इस युवक ने सभा को पं. चमूपति जी की बेजोड़ दार्शनिक कृति ‘जवाहिरे जावेद’ का नया हिन्दी अनुवाद छपवाने का प्रस्ताव दिया है। अर्थ की व्यवस्था यही युवक करेगा। श्री धर्मवीर जी ने इस विषय में मुझसे विचार किया। यह कार्य अत्यावश्यक व करणीय है। मैंने दिन रैन व्यस्त होते हुए भी सभा के लिये इस कार्य को सिरे चढ़ाने का आश्वासन दे दिया है। श्री सत्येन्द्रसिंह जी ने मुझे इसके लिए प्रेरित किया है। पं. चमूपति जी के साहित्य ने इस्लाम का रंग रूप ही बदल डाला है। एक ओर इस्लामी आतंकवाद कट्टरवाद है तो साथ के साथ ‘वैदिक इस्लाम’ का उदय हो रहा है। सूचियाँ बनाने वाले एक भाई ने पण्डित जी के योगेश्वर कृष्ण को उनका कालजयी ग्रन्थ बताया है। यह सस्ता मत है। मेरे कहने पर ही स्वामी दीक्षानन्द जी ने शरर जी से इसका अनुवाद करवाया और मुझसे दो बार इस पुस्तक की गौरव गरिमा पर विस्तार से लिखवाया गया। किसी कारण से मेरा निबन्ध साथ न छप सका। शरर जी ने जवाहिर जावेद के एक-एक बिन्दू पर अपनी मार्मिक टिप्पणी कहीं भी नहीं दी। वह बहुत कुछ जानते थे। यह उनकी भूल थीं।

मैं इसका मुद्रण भी ऐसा चाहता हूँ कि पुस्तक के शीर्षक, उपशीर्षक व टिप्पणियाँ देखकर अपने-पराये मुग्ध हो जायें। पण्डित चमूपति अपने समकालीन विद्वानों के मन मस्तिष्क पर तो छाये ही थे उनकी छाप नये इस्लामी साहित्य पर कितनी गहरी है, यह इस नये संस्करण में बताया जायेगा। पाकिस्तान के एक दैनिक ‘कोहिस्तान’ का एक लेख मेरे पास सुरक्षित है, वह लेख इस बात का प्रमाण है कि अनेक मौलवियों पर पण्डित जी का रोब व दबदबा है। श्वह्लद्गह्म्ठ्ठद्बह्लब् (नित्यता) पर एक मुसलमान विद्वान् ने परपरा से हटकर पहली बार एक पुस्तक लिखने का साहस किया है। मृत्यु को ‘ह्रश्चद्गठ्ठद्बठ्ठद्द शद्घ ड्ड स्रशशह्म् ह्लश ठ्ठद्गख् द्यद्बद्घद्ग’ नये जन्म का द्वार बताने का यह साहस वन्दनीय है। ‘कुरान में पैगबर के एक भी चमत्कार का वर्णन नहीं’ यह कई एक ने खुलकर लिखा है।

पैगबर को मुक्ति का तवस्सुल (मध्यस्थ) मानने वाले मदरसों में पढ़ाई जाने वाली एक पुस्तक में हमारे भक्तराज अमींचन्द जी का एक गीत पढ़ाया जा रहा है। अजमेर, दिल्ली, हैदराबाद, मालाबार के मदरसों में जाकर देख लो। यह पं. लेखराम, पं. चमूपति की कृपा का प्रसाद है। यह पढ़कर आर्यजन को कैसा लगेगा कि श्वह्लद्गह्म्ठ्ठद्बह्लब् (नित्यता) नाम का ग्रन्थ स्वयं लेखक ने मुझे सप्रेम भेंट किया। आर्यो! सर्व सामर्थ्य से पं. लेखराम की परपरा के विद्वानों के साहित्य का प्रसार प्रकाशन करो। वह दिन दूर नहीं अलीगढ़, देवबन्द और अजमेर के मुसलमान यह पुकारेंगे- ‘पं. शान्तिप्रकाश हमारा है, वह तुहारा नहीं।’ मैं अभी से कहता हूँ कि आपने भक्तराज अमींचन्द के गीत को लिया, कुल्लियाते आर्य मुसाफिर ले ली, जवाहिर जावेद और चौदहवीं का चाँद अपनाया, आप पं. शान्तिप्रकाश, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय भी लेते हो तो ले लो। हम तो सच्चे हृदय से कह रहे हैंः-

कौन कहता है कि हम तुम में जुदाई होगी।

यह हवाई किसी दुश्मन ने उड़ाई होगी।।

ऋषि जीवन पर नई खोजः मेरे बहुत से पत्र-पत्रिकायें दबी पड़ी रह गईं। उनके प्रमाण तो कण्ठाग्र थे परन्तु सामने पुस्तक व पत्रिका रखकर ऋषि जीवन में उनको उद्धृत करना चाहता था। ऐसा हो न सका। अतः श्री रमेशकुमार जी मल्होत्रा ने परोपकारिणी सभा के लिए एक नया, छोटा परन्तु अनूठा ऋषि जीवन लिखने की प्रेरणा दी है। ‘जीवन पल पल क्षण क्षण बीता जाये’ तो भी जी जान से जो कुछ भी मेरे सीने में, मेरे मन व मस्तिष्क में सुरक्षित है सब कुछ आर्यसमाज की नई पीढ़ी को सौंप रहा हूँ। लीजिये! कुछ नई जानकारी। जोधपुर के राजघराने के, सर प्रतापसिंह के आपने बड़े किस्से पढ़ लिये। नन्हीं भगतन को चरित्र का प्रमाण पत्र देने वाले भी देखे। अब सुनिये! ‘देशहितैषी’ में ऋषि के शाहपुरा में कार्यरत होने का समाचार तो मिलता है परन्तु उसके आगे जोधपुर का एक भी समाचार नहीं मिलता। ये सब अंक परोपकारिणी सभा को सौंप दूँगा। नये युवा विद्वान् इस विषय पर विचार करके कारण तो बतावें कि जोधपुर से कोई समाचार क्यों न निकलने दिया गया। मेवाड़ के तो सब समाचार मिल गये।

घोर विरोधी ने स्वीकार कियाः महर्षि के बलिदान पर ‘क्षत्री हितकारी’ पत्र के संया चार पृष्ठ पाँच पर ‘शोक! शोक!! शोक’ शीर्षक देकर ये पंक्तियाँ पढ़ने को मिलती हैं, ‘‘हम को शोक है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ऐसा पण्डित इस काल में होना कठिन है, यह एक पुरुष बड़ा विलक्षण बुद्धि और परमोत्साही उद्योगी था। यह सामर्थ्य इसी महाशय में था कि श्रुति, स्मृति के अर्थ को यथार्थ जाने, यह पुरुष पूर्ण आयु को पहुँचने के योग्य था परन्तु काल यह कब सोचता है।’’ इस पत्र के सपादक वीरसिंह वर्मा ऋषि के घोर विरोधी को उनकी विद्वत्ता व व्यक्तित्त्व पर ये शद लिखने पड़े परन्तु इसी लेख में वह ऋषि पर वार भी करता है। न जाने उसकी क्या विवशता थी। चलो! यह तो मानना पड़ा कि श्रुति, स्मृति के यथार्थ अर्थ को जानने का सामर्थ्य इसी महात्मा में है। ‘देशहितैषी’ पत्र से यह अवतरण यहाँ उद्धृत किया है।

भूल सुधारःअल्पज्ञ जीव से भूल का होना सभव है। जब कभी लिखने-बोलने में जाने-अनजाने या मुद्रण दोष से हमसेाूल हो गई, हम ने पता लगने पर झट से क्षमा माँगते हुए भूल का सुधार करना अपना कर्त्तव्य जाना। अभी ‘तड़प झड़प’ में इन दिनों लातूर (महाराष्ट्र) के ठाकुर शिवरत्न जी का नाम देना था परन्तु भूलवश हरगोविन्द सिंह लिखा गया। उनके भाई का नाम गोविन्दसिंह था। वह कलम (मराठवाड़ा) के जाने माने आर्य पुरुष थे। इन दोनों की चर्चा मेरे ग्रन्थों में है। ‘तड़प झड़प’ डाक में भेजते ही चूक का पता चल गया। मैंने तत्काल चलभाष करके धर्मवीर जी को इसे ठीक करने को कहा। व्यस्ततायें उनकी भी इतनी हैं कि वह ऐसा न कर सके। फिर बता दें कि ठाकुर शिवरत्नसिंह जी ने पंजाब के पं. विष्णुदत्त से अपनी पुत्री का विवाह किया तो पौराणिकों के प्रचण्ड बहिष्कार के कारण उन्हें विदर्भ से पंजाब पलायन करना पड़ा।

एक दुःखद लेखः‘आर्यजगत्’ के 25 मई अंक में माननीय कृष्णचन्द्र जी गर्ग पंचकूला का ‘जगन्नाथ’ विषयक एक लेख छपने की जानकारी मिली। यह लेख किस प्रयोजन से लिखकर छपवाया? यह मैं समझ न पाया। ऋषि के हत्यारे का नाम जगन्नाथ नहीं, यह कहानी झूठी है इत्यादि बातें लिखने की क्या आवश्यकता पड़ गई? श्रीराम शर्मा, लक्ष्मीदत्त दीक्षित आदि बहुत निब घीसा चुके। महत्त्व हत्यारे के नाम का नहीं, मुय बात ऋषि के विषपान की, ऋषि को मरवाने के षड्यन्त्र की है। इस विषय पर प्रमाणों के ढेर लगा कर लक्ष्मण जी के ग्रन्थ में जितनी जानकारी दी गई है, किसी भी ग्रन्थ में इतनी खोज नहीं मिलेगी।

ऋषि की जोधपुर यात्रा के समाचार क्यों बाहर न निकलने दिये गये? यह ऊपर हम बता चुके। श्री कृष्णसिंह बारहट का ग्रन्थ छप चुका है। क्या देखा है? आपके घर के पास से दित्तसिंह ज्ञानी के कथित शास्त्रार्थों की कल्पित कहानी छपी, नन्हीं वेश्या को चरित्र की पावनता का प्रमाण पत्र देते हुए लिखा गया। श्री गर्ग जैसे सब सयाने यह चुपचाप पढ़ते-सुनते रहे। स्वामी आत्मानन्द जी को ऋषि ने चित्तौड़ में गुरुकुल खोलने के लिए कहा, अन्त समय में नाई को पाँच रुपये दिये गये। इन दो प्रेरक प्रसंगों को झुठलाया गया। तैलंग स्वामी की आड़ में ऋषि पर वार प्रहार किया गया। अब शाहपुरा के रसोइये की दुहाई देकर आर्यजन को क्या सन्देश देना चाहते हैं? आपकी भावना शुद्ध है, यह मैं जानता हूँ।

श्री पं. लेखराम जी ने सर्वप्रथम सर नाहरसिंह के नाम ऋषि का एक पत्र छापा कि शाहपुरा के दिये सब नौकर बड़े निकमे थे। इस पत्र का प्रमाण देकर हमने श्रीराम और प्रिं. लक्ष्मीदत्त को चुप करवाया। स्वामी सत्यानन्द जी के ग्रन्थ की विशेषतायें भी हैं, कुछ कमियाँ भी हैं। जगन्नाथ की कहानी झूठी का शोर मचाकर इस ग्रन्थ का अवमूल्यन न करें। मूलराज के गीत गा-गाकर उसे ऋषि का कर्मठ साथी बता कर आर्य इतिहास प्रदूषित किया गया। आप चुप बैठे रहे, यह चिन्ता का विषय है। परोपकारी के धर्म रक्षा महाभियान में जुड़िये।

स्वामी बलेश्वरानन्द जी द्वारा समान के लिए आभारः पुण्डरी के स्वामी श्री ब्रह्मानन्द आश्रम के स्तभ प्रिय आर्यवीर राजपाल स्वामी बलेश्वरानन्द जी का सन्देश लेकर आये कि हम इस वर्ष आपका समान करना चाहते हैं। स्वीकृति दें। मैं प्रायः हर व्यक्ति व संस्था का ऐसा प्रस्ताव अब सुनकर अनसुना कर देता हूँ। माँगने की, धन संग्रह की प्रवृत्ति न बन जावे। लोकैषणा की सर्पिणी न डस जावे, सो समान से बचता हूँ परन्तु स्वामी जी का प्रस्ताव मैंने स्वीकार करके तत्काल निर्णय कर लिये कि वह जो कुछ देंगे उसमें कुछ और धन मिलाकर श्रीमती वेद जिज्ञासु के नाम की स्थिर निधि स्थापित करके अभी 50.000/- की राशि परोपकारिणी सभा को भेंट करूँगा।

स्वामी जी ने तो मेरे मनोभाव न जाने कैसे जान लिये कि समान राशि ही 51000/- की भेंट कर दी। मैंने यह राशि सभा को पहुँचा दी है और इसमें जो कुछ हो सकेगा और राशि मिला दी जावेगी। मैं स्वामी जी का, आश्रम का और स्वामी जी के भक्तों का हृदय से आभार मानता हूँ। यह आश्रम वेद प्रचार का वैदिक धर्म का और आर्यसमाज का सुदृढ़ दुर्ग बने, ऐसा हम सबका प्रयास होना चाहिये।

कहानीकार सुदर्शन जी तथा हरियाणाः स्वर्गीय चौ. मित्रसेन जी बहुत दूरदर्शी थे। आपने चौधरी छोटूराम जी की एक उर्दू पुस्तक (लेखमाला) का हिन्दी अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। मैंने उन की इच्छा शिरोधार्य कर प्राक्कथन स्वरूप चौधरी छोटूराम तथा आर्यसमाज पर कुछ खोजपूर्ण सामग्री देने का सुझाव रखा। चौधरी जी को मेरा सुझाव जँच गया। छपने पर मुझे कुछ प्रतियाँ भेजना वे भूल गये। एक ठोस काम वे कर गये। इसमें मैंने एक घटना दी कि चौधरी छोटूराम जी ने कहानीकार सुदर्शन जी को जाट गज़ट का सपादक  बनाया। केवल इसलिये कि वह पक्के आर्यसमाजी हैं। एक गोरे पादरी के साथ टक्कर लेने से गोरा शाही सुदर्शन जी से चिढ़ गई। चौ. छोटूराम, चौ. लालचन्द से आर्यसमाजी सपादक को हटाने का दबाव बनाया। चौ. छोटूराम अड़ गये। सरकार की यह बात नहीं मानी। यह घटना प्रथम विश्व युद्ध के दिनों की है। वर्ष का स्मरण मुझे नहीं था हरियाणा के किसी भी आर्य ने, जाट ने, अजाट ने इस घटना के समय का पता लगाने में कतई रुचि नहीं दिखाई। अब सुदर्शन जी की एक पुस्तक से प्रमाण मिल गया कि आप 1916-1917 में रोहतक में कार्यरत थे।

टिप्पणी

1. द्रष्टव्य देशहितैषी मासिक का मार्च 1884 का अंक।

सेक्युलरिज्म या इस्लामिक तुष्टिकरण

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भारतीय संविधान के अनुसार यह देश सनातनी नहीं सेक्युलर देश है, विश्व का एकमात्र देश, जिसमें सनातनी (हिन्दू) बहुसंख्यक है, ऐसा देश जो सनातनियों का है, वो आज उनका ना होकर हर मत-मजहब वालों का है, यह सब हमारी चुप्पी और एक गंभीर ना दिखने वाली बिमारी की वजह से है,
जी हां !!!
एक गंभीर ना दिखने वाली बिमारी जिसका नाम है सेक्युलरिज्म !

हर मत मजहब सम्प्रदाय वालों का भाईचारा, जहाँ कोई ऊँचा निचा नहीं, भेदभाव नहीं, सब भाई- भाई की सोच से रहे, पर ऐसा कुछ है नहीं, भारत में सेक्युलरिज्म की परिभाषा बड़ी अजीब और एक मत सम्प्रदाय मात्र को खुश रखने की निति के अनुसार है

भारत में हिन्दुइज्म की बात करना अर्थात सेक्युलरिज्म को खतरा, और इस्लाम हित की बात करना सेक्युलरिज्म है
धार्मिक स्थल का उद्घाटन करने जाने पर आजाद भारत (जो सही मायनों में है नहीं) के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने हमारे राष्ट्रपति को इसलिए उदघाटन में ना जाने के लिए समझाया की इससे सेक्युलरिज्म को ख़तरा है ! अजीब बात है किसी हिन्दू धार्मिक स्थल के उद्घाटन से सेक्युलरिज्म को खतरा कैसे ? इसका जवाब और कुछ नहीं मुसलमानों की ख़ुशी को बनाये रखना है, आज तक जितनी सरकारें आई है, वे मुसलमानों को खुश रखने के लिए इस सेक्युलरिज्म को सबसे बड़ा हथियार बनाती आई है, जिसकी परिभाषा बिलकुल इसके नाम से विपरीत और निराली है,

और हिन्दू भी इन शिकारियों के जाल में फसता जा रहा है, हिन्दू मुस्लिम भाई भाई का राग अलापे जा रहा है, हिन्दू और मुस्लिम दो अलग अलग, विपरीत और विरोधी विचारधारा से जुड़े हुए है, दो अलग अलग और विरोधी विचार वाले भाई कैसे हो सकते है ? ये सोचनीय है |

हिन्दू संस्कृति (वैदिक संस्कृति) उदारता से भरी है, हमें कभी जिहादी या हिंसक बनने की शिक्षा नहीं दी जाती, मनुस्मृति में मनु मजहबी नहीं, मनुष्य बनने की सलाह देते है, वेद भी कभी यह नहीं सिखाता की गैर हिन्दू का कत्ल करो या वे तुम्हारे दुश्मन है, यहाँ तक की प्राणी मात्र को ना मारने की सलाह हमें वेद देते है, जितना भाईचारा या उदारता की शिक्षा हमें वेदों से मिलती है वो अन्य किसी से नहीं मिल सकती

वही दूसरी और जिस मजहब को हमें भाई बनाने के लिए यह सरकारें और नए नए संगठन सलाह देते है, उन्होंने कभी या तो यह जानने की कोशिश नहीं की या जानते हुए भी चुप्प रहे की यह मजहब जिस किताब को खुदाई बताता है उसमें गैर इस्लाम के लिए क्या क्या आज्ञा दी गई है, इस्लामिक खुदाई पुस्तक कुरान, गैर इस्लामी को किसी भी तरह से भाई बनाने की सलाह नहीं देती अपितु उन्हें भाई ना बनाने की सलाह देती है, और यदि कोई भावावेश में आकर भाई बना भी ले तो वो मुसलमान नहीं रहता वो भी काफिर हो जाता है,

आइये पहले यह जान लें की काफिर क्या होता है?

काफिर एक अरबी शब्द है यदि google पर सर्च किया जाए तो आपको इसके कई मतलब मिलेंगे और वो मतलब भी सही है, मैंने यहाँ google पर जाने के लिए इसलिए कहाँ है की हमारी मानसिकता ही कुछ ऐसी हो चुकी है, लोगों को अपनों से ज्यादा आजकल परायों पर विशवास है, इसलिए उचित है उन्हें विशवास दिलाने के लिए वहां भेजना !

इसका साधारण सा अर्थ है गैर इस्लामी !!! जो इस्लाम को ना माने जो अल्लाह को ना माने जो इस्लाम में बताई उपासना पद्दति के अलावा किसी और पद्दति को मानता हो और जो नास्तिक हो

गैर इस्लामी को कुरान में नास्तिक ही माना जाता है क्यूंकि इस्लाम के अनुसार दुनिया में इस्लाम ही ऐसा धर्म (किसी प्रकार से इस्लाम धर्म नहीं है ये केवल एक मत का, समूह का नाम है) है जो खुदा का बनाया गया है तो इनके अनुसार गैर इस्लामिक अर्थात “काफिर” होता है |

अब आप जब कुरान पर नजर डालेंगे तो हर दूसरी आयत आपको आपकी विरोधी प्रतीत होगी जो की वाकई में विरोधी है, कुरान में किसी प्रकार के गैर इस्लामी से भाईचारे की कोई सलाह नहीं है, तो आप सोच रहे होंगे की फिर ये मुसलमान हर समय भाईचारे, अमन का राग क्यों अलापते है, तो इसके लिए आपको बड़े ध्यान से भारत के आज की और आजादी से पहले के भारत की जनसंख्या को धर्म के आधार पर बाँट कर देखना होगा

मोहम्मद का एक ही सपना था की उसका बनाया हुआ यह समूह बहुत बड़ा विस्तार करें उसी का परिणाम है की आज इस्लामिक लोग गैर इस्लामी को हर तरीका उपयोग लेकर उन्हें इस्लाम कबुलवाने में लगे है जिसके कई जरिये है, उन पर भी आगामी लेखों में नजर डालेंगे जो आपको हमारी वेबसाइट www.aryamantavya.in पर मिलेंगे

जब मुसलमान कुरान को पूरी तरह से मानते है और उसका अनुशरण भी करते है तो यह सर्वविदित होना चाहिए की मुसलमान गैर मुस्लिम को भाई मान ही नहीं सकते और यदि मानते भी है तो यह “मुहं में राम बगल में छुरी वाली बात होगी

आइये आपको कुछ आयते बताते है जो साफ़ तौर पर काफिरों को मारने का हुक्म देती है अर्थात ऐसी आयते जो मुसलमानों के अजीम दोस्त हिन्दू को मारने के लिए कहती है:-

ला यतखिजिल-मुअमिनुनल……………….|
(कुरान मजीद पारा ३ सुरा आले इमान रुकू ३ आयत २८)

मुसलमानों को चाहिए की मुसलमानों को छोड़कर काफिरों को अपना दोस्त न बनावें और जो वैसा करेगा तो उससे और अल्लाह का कोई सरोकार नहीं है |

या अय्युह्ल्ल्जी-न आमनू ला ……||
(कुरान मजीद पारा ५ सुरा निसा रुकू १८ आयत १४४)
अय ईमान वालों !! तुम ईमान वालों को छोड़कर काफिरों को दोस्त मत बनाओ | क्या तुम जाहिर खुदा का अपराध अपने ऊपर लेना चाहते हो |

कातिलुल्ल्जी-न ला यअमिनू-न………||
कुरान मजीद पारा १० सूरा तोबा रुकू ४ आयत २९)

किताब वाले जो न खुदा को मानते है और न कयामत को और न अल्लाह और उसके पैगमबर की हराम की हुई चीजों को हराम समझते है और न सच्चे दींन अर्थात इस्लाम को मानते है, इनसे लड़ों और यहाँ तक की जलील होकर (अपने) हाथों जजिया दें |

जब अल्लाह ने भाईचारा रखने पर अपना रिश्ता समाप्त करने की धमकी दे रखी है तो यह विचार करने की बात है की मुसलमान अपने परवरदिगार से आपके लिए कैसे नाता तोड़ सकते है बिलकुल नहीं तोड़ेंगे तो आपसे भाईचारा क्यों ?? यह सवाल दिमाग में आना स्वाभाविक है !!

इस भाईचारे के पीछे कई वजह है इसी भाईचारे को जानने के लिए मैंने आपसे जनसंख्या का धर्म के आधार पर बांटने के लिए कहा था

कश्मीर, जहाँ पर कश्मीरी पंडित और मुसलामानों का भाईचारा ही था, फिर अचानक क्या हुआ की सहस्त्रों कश्मीरी पंडितों को मार डाला गया या भगा दिया गया यह विचार करने से पहले ही लोग तर्क देते है की वहां के मुसलमान अच्छे नहीं है तो उनसे मेरा सवाल है की अन्य देशों में रह रहे हिन्दू भी क्या अलग अलग है क्या उनका मत भारतीय हिन्दुओं से अलग है आपका जवाब होगा नहीं !! फिर ये कश्मीर के और बाकी भारत के मुसलमान में अंतर कैसे ??

ये भाईचारे के दुश्मनी में बदलने का कारण है इस्लाम और खुदाई आज्ञा !! जिस समय हिन्दू मुसलमानों में कश्मीर में भाईचारा और अमन चरम पर था, उस समय मुस्लिम वहां अल्पसंख्यक थे और हिन्दू बहुसंख्यक चूँकि हिन्दू हमेशा से उदारता से परिपूर्ण रहा है तो इसी उदारता के कारण उसने मुसलमानों को अपना भाई ही माना जो गलत भी नहीं है क्यूंकि भारतीय मुस्लिम वास्तव में हमारे भाई ही है, जिनके पूर्वजों को ब्लात्पुर्वक हिन्दू से मुस्लिम बनाया गया था और उसी दबाव को आज भी वो सहता हुआ मुस्लिम ही बना हुआ है, और खुदा के डर में जी रहा है

जब कश्मीर में मुस्लिम अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक हुए तो इनका भाईचारा दुश्मनी में परिवर्तित होने लगा और छुट पूट लड़ाई झगड़े शुरू हुए खत्म हुए और इन्हीं झगड़ों और परस्पर विरोधी मान्यताओं के चलते और इस्लाम के विस्तार के अपने लक्ष्य को पूरा करने की चाह में मुसलमानों ने हिन्दुओ को कश्मीर से भगाया और मार भी डाला

और यही परिद्रश्य आपको आसाम, बंगाल, केरल और हैदराबाद में भी देखने को मिलेगा इन कारणों पर हमें विचार करना ही होगा, अन्यथा आने वाली पीढ़ी आपको पूरी जिन्दगी कोसती रहेगी

ये भाईचारा आपको भी कश्मीरी पंडितों के दर्द से परिचय कराएगा यह सार्वभौमिक सत्य है यह होगा यदि आपका यह भाईचारा इसी तरह रहा

इस्लाम को जानिये की यह वास्तव में क्या है, क्या यह धर्म है ?? क्या ये अमन और शान्ति का मजहब है ??

नहीं ये केवल और केवल आतंक का दुसरा नाम है, इस्लाम में भाईचारे, अमन, शान्ति और नारी की कोई जगह नहीं है

सेक्युलरिज्म का यह जहर आपको धीरे धीरे खा रहा है और आप इससे अपरिचित बने रह रहे हो आज समय की जरुरत है की हमें धर्म के प्रति निष्ठावान होना होगा

आपसे विनम्र निवेदन है की हमें झगडा कराने वाला ना समझे हम तो स्वयं चाहते है की देश में अमन और शान्ति बने पर ताली एक हाथ से नहीं बजती, वैदिक धर्म तो जन्म से उदार है और हम इस ओर पहल भी करने को तैयार है पर क्या हमारे मुस्लिम भाई इस काफिर दुश्मन कुरान को त्यागने का माद्दा रखते है ??????????

यदि मुस्लिम कुरान भी नहीं त्याग सकते और हमसे भाईचारे की उम्मीद भी रखते है तो यह दोगलापन लगता है इसमें बड़ी साजिश की बू आती है

इसलिए सजग रहिये सतर्क रहिये, समझदार बनिए क्यूंकि भोले दिखने वाले गजब के गोले होते है

आपके विचार रखिये, प्रश्न कीजिये, सुझाव दीजिये आपका स्वागत है और आगामी लेख की थोड़ी सी प्रतीक्षा कीजिये

तब तक के लिए आज्ञा दीजिये

नमस्ते
आर्यमंतव्य

 

 

अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द : सत्येन्द्र सिंह आर्य

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पंजाब प्रान्त के  जालन्धर जिले में तलवन ग्राम में एक प्रतिष्ठित परिवार में लाला नानकचन्द्र जी के गृह में विक्रमी सवत् 1913 में फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन जिस बालक का जन्म हुआ, उसका नाम पण्डित जी ने बृहस्पति रखकर भी प्रसिद्ध नाम मुंशीराम रख दिया। संन्यास ग्रहण करने के समय तक वे इसी नाम से वियात रहे। पिता जी पुलिस में इस्पेक्टर के पद पर राजकीय सेवा में थे। अतः जल्दी-जल्दी होने वाले स्थानान्तरण के कारण बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान पड़ना स्वाााविक था। परन्तु एक लाा भी हुआ। जिन दिनों श्री नानकचन्द्र जी बरेली में पद स्थापित थे, उन दिनों अंग्रेजी भाषा के व्यामोह में फंसे और नास्तिकता के भँवर में गोते लगाते मुंशीराम को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के दर्शन करने का, उनके वेदोपदेश सुनने का, उनसे मिलकर अपनी शंकाओं का समाधान करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रतिपादित वैदिक विचारधारा का मुंशीराम जी के जीवन पर प्रााव पड़ने में यद्यपि वर्षों का समय लगा, परन्तु अन्त में ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि वे ऋषि-मिशन के दीवाने हो गए। एक-एक करके इतने कार्य किये कि उनका सही मूल्यांकन कोई ऋषि-भक्त, तपस्वी, वैदिक विद्वान् ही कर सकता है।

जालन्धर में कन्या पाठशाला खोली जिसका स्थानीय लोगों ने घोर विरोध किया। उस युग में सब स्त्री-शिक्षा के शत्रु थे। पाठशाला चार लड़कियों से आरभ हुई, दो बेटियाँ इनकी स्वयं की थी और दो इनके साले की थीं। वही संस्था आज स्नातकोत्तर कन्या विद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित है जिसमें हजारों कन्याएँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। हरिद्वार के निकट काँगड़ी ग्राम में गुरुकुल की स्थापना की। अपने दोनों पुत्रों हरिशचन्द्र एवं इन्द्र को उसी में प्रविष्ट किया। वह संस्था भी आज एक विश्वविद्यालय के रूप में विद्यमान है। इस संस्था से आर्यसमाज को बड़ी संया में वेद के विद्वान्, उपदेशक, साहित्यकार, पत्रकार एवं समाजसेवी राजनेता प्राप्त हुए। पं. इन्द्र जी विद्यावाचस्पति एक आर्य पुरुष, साहित्यकार, पत्रकार के रूप में इसी संस्था की देन हैं।

वैदिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए मुंशीराम जी ने सद्धर्म प्रचारक पत्र निकाला। पहले उर्दु में और बाद में आर्य भाषा में। पत्र इतना लोकप्रिय था कि पाठकों को अगले अंक की सदैव प्रतीक्षा रहती थी। मुद्रण की सुविधा के लिए अपना प्रेस स्थापित किया। देश-दुनिया के समाचारों से आर्य जनता को परिचित कराये रखने का यह बड़ा सशक्त माध्यम था। अपनी पत्रकारिता में कुशलता के बल पर मुंशीराम जी ने उस युग में राष्ट्र की महती सेवा की।

अछूतोद्धार का कार्य उनकी प्राथमिकता में था। राजनैतिक रूप से उस समय कांग्रेस एक पार्टी के रूप में देश की आजादी के लिए कार्य कर रही थी। मुंशीराम जी (और अप्रैल 1917 में संन्यास ग्रहण के पश्चात् स्वामी श्रद्धानन्द जी) उस समय देश के अग्रणी नेताओं में थे उनके जीवन की एक-एक घटना उनकी महानता की साक्ष्य है। वर्ष 1917 ईसवी में अप्रैल मास में उत्सव के समाप्त होने के पश्चात् अगले दिन उन्हें संन्यास लेना था। संन्यास-ग्रहण संस्कार के समय वहाँ हजारों की भीड़ थी। आर्य समाज के बहुत से संन्यासी, पण्डित और अधिकारी साक्षीरूप से उपस्थित थे। संस्कार में सबसे विशेष बात यह हुई कि, मंशीराम जी ने किसी संन्यासी महानुााव को अपना आचार्य न बनाकर परमात्मा को ही आचार्य माना और जो प्रक्रिया आचार्य द्वारा पूरी होनी थी, वह स्वयं ही पूरी कर ली। क्षौर कराकर और भगवावस्त्र पहनकर वे यज्ञ-मण्डप में आए और खड़े होकर उन्होंने निम्नलिखित आशय की घोषणा की-

‘‘मैं सदा सब निश्चय परमात्मा की प्रेरणा से श्रद्धापूर्वक ही करता रहा हॅूँ। मैंने संन्यास भी श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर ही लिया है। इस कारण मैंने श्रद्धानन्द नाम धारण करके संन्यास में प्रवेश किया है। आप सब नर-नारी परमात्मा से प्रार्थना करें कि वे मुझे अपने इस नए व्रत को पूर्णता से निभाने की शक्ति दे।’’

सन् 1919 में बैसाखी के दिन अमृतसर में जलियाँवाला बाग में भीषण हत्याकाण्ड हुआ। उसी वर्ष कुछ माह पश्चात् अमृतसर में ही कांग्रेस का महा-अधिवेशन होना था, परन्तु बैसाखी वाली भयावह घटना लोगों के मन-मस्तिष्क पर छाई हुई थी। निर्भीकता की प्रतिमूृर्ति स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने स्वागताध्यक्ष का कार्य भार ग्रहण करके सारे आयोजन को सहज और सरल बना दिया।

अछूतोद्धार एवं शुद्धि सभा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज आर्य पुरुष थे और कांग्रेसी भी थे। उस समय कांग्रेस में आर्यों की संया काफी अधिक थी। उन्होंने समाज में अछूत कहे जाने वाले लोगों के लिए विशेष कार्य किया। संस्थागत रूप में इस कार्य को आगे बढ़ाया। जन्मना जाति-प्रथा को यथावत् बनाए रखने वाले हिन्दुओं एवं मठाधीशों का उस समय दबदबा था। अछूत कहे जाने वाले नर-नारियों की बात तो दूर रही, उस समय के हिन्दू मठाधीश, सन्त-महन्त तो मजबूरी में या प्रलोभनवश ईसाइयों -मुसलमानों द्वारा हिन्दू वर्ग से धर्मान्तरित किये गए सवर्ण हिन्दुओं को भी शुद्ध करके पुनः अपने में मिलाना शास्त्र-विरुद्ध और पूर्णतः निषिद्ध मानते थे। हिन्दू (आर्य) जाति एक प्रकार से कच्चे माल की खान बनी हुई थी। सूक्ष्म राजनीतिक सूझबूझ वाले ईसाई मिशनरी और मुल्ला मौलवी इसी खान में से विशेषकर अछूत कहे जाने वाले वर्ग में से हमारे ही भाई-बहनों को बहला-फुसलाकर, प्रलोभन देकर, धोखाधड़ी से ईसाई-मुसलमान बना रहे थे। हिन्दू जाति के विघटन की यह चरम स्थिति थी। ऐसे में दूरदर्शी आर्य नेता एवं इस हिन्दू जाति के परम शुभचिन्तक स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का कार्य एक आन्दोलन के रूप में किया। शुद्धि के काम से महात्मा गाँधी के चहेते अलीबन्धु बौखला गए और उन्होंने गाँधी जी से स्वामी श्रद्धानन्द जी के शुद्धि-कार्य के विरुद्ध शिकायत की। गाँधी जी द्वारा एतद्विषयक चर्चा किये जाने पर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कहा कि आप अली बन्धुओं को कहकर इस्लाम द्वारा जारी तबलीग (धर्मान्तरण के लिए इस्लाम मतावलबियों द्वारा निरन्तर चलाई जाने वाली प्रक्रिया) का काम रुकवा दीजिए, मैं शुद्धि का काम बन्द कर दूँगा। भला यह कार्य मुस्लिम तुष्टिकरण के जनक और मसीहा महात्मा गाँधी के बूते का कहाँ था। अतः स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज कांग्रेस से अलग हो गये। शुद्धि के कार्य को करने के मूल्य के रूप में स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को अपने प्राण आहूत करने पड़े।

विडबना देखिए कि जिस हत्यारे अदुल रसीद ने स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को गोली मारी और जिसे रंगे हाथों पकड लिया गया उसी के बचाव के लिए महात्मा गाँधी के दायाँ और बाँया हाथ (जैसा कि अली बन्धुओं-मौलाना मोहमद अली, मौलाना शौकत अली को कहा करते थे) ये अली बन्धु न्यायालय में उपस्थित रहा करते थे और गाँधी जी इस बात को जानते थे। मुस्लिम प्रेम के आगे महात्मा गाँधी को सत्य दिखाई नहीं पड़ता था जैसे रतौन्धी (आँखों की एक बीमारी) वाले व्यक्ति को रात्रि में कुछ नहीं दिखाई पड़ता। इस्लाम मतावलबियों की करतूतों का वर्णन करने लगे तो पोथे पर पोथे बनते चले जायेंगे परन्तु उन करतूतों का किनारा नहीं पा सकते। उदाहरण के लिए एक घटना देते हैं।

वाजा हसन निजामीकृत ‘दाइये इस्लाम’- वाजा हसन निजामी अपने समय के मौलवियों, पीरों, सूफियों और मुस्लिम नेताओं में सर्वोच्च स्थान रखते थे। इस्लामी साहित्य और इतिहास के वे बहुत बड़े आलिम माने जाते थे। वह अपना अखबार निकालते थे और अपना रोजनामचा (दैनन्दिनी) भी लिखते थे। देहली की निजामी दरगाह में उनका मुय निवास था। वह सदा यही सोचते रहते थे कि किस प्रकार भारत के हिन्दुओं को इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उचित-अनुचित की चिन्ता किये बिना वे किसी भी सीमा तक जाने को तैयार थे। जहाँ उन्होंने और अनेक उपाय इस बात के लिए मुसलमानों को जताये थे, वहीं हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का एक बड़ा विषैला और गुप्त उपाय भी निकाला था। सब मुसलमानों में उस उपाय का गुप्त रूप से प्रचार किया गया। जितने धन्धे-पेशे मुसलमान करते थे जैसे नाई, धोबी, लुहार आदि उन्हीं के अनुसार उनको उपाय समझाए गए थे। यहाँ तक कि बाजारू औरतों (वेश्याओं) को भी हिदायत दी गई थी कि वे अपनी सुन्दरता में फँसा कर हिन्दुओं को मुसलमान बनाएँ। इन सब उपायों को एक पुस्तक में लिखा गया था और पुस्तक का नाम था- ‘दाइये इस्लाम’। इस पुस्तक को गुप्त रूप से न केवल भारत भर के मुसलमानों में पहुँचाया गया, अपितु भारत से बाहर के इस्लामी देशों में भी भेजा गया था।

हिन्दुओं के विरुद्ध किये जा रहे इस भीषण षड्यन्त्र की पौराणिकों के किसी सन्त-महन्त, मठाधीश, शंकराचार्य अथवा नेता को भनक तक न लगी। स्वामी श्रद्धानन्द जी तब मुय रूप से दिल्ली में ही रहा करते थे। नया बाजार के एक मकान के ऊपरी भाग में निवास करते थे। स्वामी जी महाराज बड़े ही विलक्षण आर्य नेता थे। वह आर्य समाज के साथ-साथ समस्त हिन्दुओं के बारे में खबरगीरी रखते थे। वह यह पूरा ध्यान रखते थे कि बेखबर सोती हिन्दू जाति की सब तरफ से रक्षा की जाए। इस बात को जानने के लिए चाणक्य मुनि द्वारा वर्णित उपायों को काम में लाते थे। उसी आधार पर उन्हें अत्यन्त सूक्ष्म और अतीव गुप्त रूप और अज्ञात द्वार से वाजा हसन निजामी द्वारा लिखित और प्रचारित ‘दाइये-इस्लाम’ पुस्तक की सूचना मिली। पुस्तक उर्दु में लिखी गयी, प्रैस में छपी। कातिबों ने काम किया, मशीनों पर छपी, बाइण्डरों ने जिल्दें बान्धी, दुकानों में बिक्री के लिए गयी। न जाने कितने हाथों में पहुँची। प्रैस एक्ट के अनुसार छपी पुस्तकों की प्रतियाँ सरकारी कार्यालय को भेजी जानी चाहिए। इतना सब कुछ होते हुए भी कानोकान किसी गैर-मुसलमान को जरा सी भी भनक सुनाई नहीं पड़ी। सारे भारत में गुप्त खोज करने पर इस पुस्तक की एक भी प्रति न मिल सकी। परन्तु स्वामी जी के हाथ भी बहुत लबे थे। अन्त में बहुत यत्न करने पर एक प्रति ब्रिटिश ईस्ट अफ्रीका में एक सज्जन के हाथ लगी और उस पुस्तक को दिल्ली स्वामी जी के पास पहँुंचा दिया गया। उन्होंने उसको पढ़ा और देखा कि हिन्दुओं को नाश के गहरे गड्ढ़े में गिराये जाने के लिए कैसे षड्यन्त्र किये और कराये जा रहे हैं। स्वामी जी ने उस पुस्तक को फिर से छपवाया और ‘आर्य-बिगुल’, ‘अलार्म’ नाम से उसका खण्डन और आलोचनाएँ भी प्रकाशित हुई। हिन्दुओं को सावधान किया गया। आज के तथाकथित आर्य नेता? तो अपनी सर्व-स्वीकार्यता का ग्राफ ऊँचा करने के लिए मुस्लिम नेताओं और ईसाई पादरियों की चापलूसी में जीवन गुजार देते हैं परन्तु नोबेल पुरस्कार (शान्ति के लिए) प्राप्त करने की उनकी इच्छा अपूर्ण ही रह जाती है। नोबेल पुरस्कार क्या, नई दिल्ली स्थित उप वैटिकन में दशकों तक मत्था टेकने के बाद राज्यसभा की सदस्यता भी नसीब न हुई। ऐसे लोग जाति की क्या सेवा करेंगे।

स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के बलिदान की पहली कड़ी यह पुस्तक ‘दाइये इस्लाम’ कहीं जा सकती है। आज साधारण जनता और आर्यजनों की तो बात ही क्या है अपितु बड़े-बड़े नेताओं को इस पुस्तक का पता भी नहीं है, उसका पढ़ना तो दूर रहा। इन पंक्तियों के लेखक के पास उस पुस्तक के हिन्दी संस्करण की एक प्रति है जो परोपकारिणी सभा को पुस्तकालय हेतु सौंप दी जाएगी।

प्रतिवर्ष अमर हुतात्मा का बलिदान दिवस मनाया जाता है। धुआँ-धार व्यायान होते हैं। अखबारों में लेख लिखे जाते हैं। उनके अनेक उत्तम गुणों पर प्रकाश डाला जात है परन्तु उस जहरीली पुस्तक दाइये-इस्लाम का मानो किसी को पता ही नहीं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का जो कार्य अपने जीवन में किया उनके बलिदान के बाद उसमें शिथिलता आ गई थी। आर्य समाज के लिए यह हानि की बात रही। स्वामी जी ने देश, जाति, धर्म की अहर्निश सेवा की, ऋषि मिशन के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और 23 दिसबर सन् 1926 को अपने प्राण भी दे दिये। उस नर-नाहर सर्वस्व-त्यागी आर्य पुरुष के प्रति मेरी विनम्र श्रद्धाञ्जलि।

– 751/6, जागृति विहार, मेरठ