क्या यही हुतात्माओं का भारतवर्ष है? शिवदेव आर्य

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आज हमारे भारतवर्ष को गणतन्त्र के सूत्र में बन्धे हुए 66 वर्ष हो चुकें हैं। इन वर्षों में हमने बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ खोया है। गणतन्त्रता का अर्थ है – हमारा संविधान, हमारी सरकार, हमारे कर्तव्य और हमारा अधिकार।

                भारत का प्रत्येक नागरिक जब गणतन्त्र दिवस का नाम सुनता है तो हर्ष से आप्लावित हो उठता है परन्तु जब वही नागरिक इस बात पर विचार करता है कि यह गणतन्त्रता तथा स्वतन्ता हमें कैसे मिली? तो उसकी आंखों से अश्रुधारा वह उठती है और कहने  लग जाता है कि –

दासता गुलामी की बयां जो करेंगे,

मुर्दे भी जीवित से होने लगेंग।

सही है असह्य यातनायें वो हमने,

जो सुनकर कानों के पर्दे हिलेंगे।।

26 जनवरी जिसे गणतन्त्र दिवस के नाम से जाना जाता है। इस दिवस को साकार करने के लिए अनेक वीर शहीदों ने अपने प्राणों की बलि दी थी। गणतन्त्र के स्वप्न को साकार रूप में परिणित करने के लिए अनेकों सहस्त्रों युवा देशभक्तवीरों ने अपनी सब सुख-सुविधाएं छोड़कर स्वतन्त्रता के संग्राम में अपने आप को स्वाहा किया। बहुत से विद्यार्थियों ने अपनी शिक्षा-दीक्षा व विद्यालयों को छोड़ क्रान्ति के पथ का अनुसरण किया। बहनों ने अपने भाई खोये, पत्नियों को अपने सुहाग से हाथ धोने पड़े, माताओं से बेटे इतनी दूर चले गये कि मानो मां रोते-रोते पत्थर दिल बन गयी। पिता की आशाओं के तारे आसमान में समा गये। जिसे किसी कवि ने अपनी इन पंक्तियों में इस प्रकार व्यक्त किया है-

गीली मेंहदी उतरी होगी सिर को पकड़ के रोने में,

ताजा काजल उतरा होगा चुपके-चुपके रोने में।

जब बेटे की अर्थी होगी घर के सूने आंगन में,

शायद दूध उतर आयेगा बूढ़ी मां के दामन में।।

सम्पूर्ण भारतवर्ष में हा-हाकार मचा हुआ था। अंग्रेज भारतीयों को खुले आम सर कलम कर रहे थे। चारों ओर खुन-ही-खुन नजर आ रहा था। पर ऐसे विकराल काल में हमारे देशभक्तों ने जो कर दिखाया उसे देख अंग्रेजों की बोलती बन्द हो गयी।

जब देश में जलियावाला हत्या काण्ड हुआ तो उधम सिंह ने अपने आक्रोश से लन्दन में जाकर बदला लिया। साईमन के विरोध में लाला लाजपत राय ने अपने को आहूत करते हुए कहा था कि- ‘मेरे खून की एक-एक बूंद इस देश के लिए एक-एक कील काम करेगी’। एक वीर योध्दा ऐसा भी था जो देश से कोसों दूर अपनी मातृभूमि की चिन्ता में निमग्न था और होता भी क्यों न? क्योंकि

-‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिया गरीयसी।’

अर्थात् जननी और जन्मभूमि दोनों ही स्वर्ग से भी महान होती हैं। इसीलिए वेद भी आदेश देता है कि- ‘वयं तुभ्यं बलिहृतः स्यामः’ अर्थात् हे मातृ भूमि! हम तेरी रक्षा के लिए सदैव बलिवेदी पर समर्पित होने वाले हों। शायद इन्हीं भावों से विभोर होकर सुभाष चन्द्र बोस जी ने आजाद हिन्द फौज सेना का गठन किया और ‘तुम मुझे खुन दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा लगाकर अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया।

वह दिन भला कोई कैसे भूला सकेगा? जिस दिन राजगुरु, सुखदेव व भगतसिंह को ब्रिटिश सरकार ने समय से पहले ही  फांसी लगा दी।

अत्याचारियों के कोड़ों की असह्य पीडा को सहन करते हुए भी चन्द्रशेखर आजाद ने इंकलाब जिन्दाबाद का नारा लगाया। अरे! कौन भूला सकता है ऋषिवर देव दयानन्द को जिनकी प्रेरणा से स्वामी श्रद्धानन्द ने चांदनी चैक पर सीने को तानते हुए अंग्रेजों को कड़े शब्दों में कहा कि – दम है तो चलाओ गोली।

देशभक्तों को देशप्रेम से देदीप्यमान करने का काम देशभक्त साहित्यकारों तथा लेखकों ने किया। बंकिमचन्द्र चटर्जी ने ‘वन्दे मातरम्’ लिखकर तो आग में घी का काम किया। जो गीत देश पर आहुत होने वाले हर देशभक्त का ध्येय वाक्य बन गया। इस गीत को हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख सभी ने अपनाया । उन शहीदों के दिल के अरमान वस यही थे, जिनको कवि अपने शब्दों में गुन गुनाता है-

मुझे तोड़ लेना बन माली, उस पथ पर देना फेंक।

मातृभमि पर शशि चढ़ाने, जिस पथ पर जाएॅं वीर अनेक।।

मातृभूमि की रक्षार्थ शहीद होने वाले शहीदों की दासता कैसे भूलाई जा सकती है? हुतात्माओं ने स्वतन्त्रता के लिए अहर्निश प्रयत्न किया। भूख-प्यास-सर्दी-गर्मी जैसी कठिन से कठिन यातनाओं को सहन किया। धन्य हैं वो वीरवर जिन्होंने हिन्दुस्तान का मस्तक कभी भी नीचे न झुकने दिया। स्वतन्त्रता के खातिर हॅंसते-हॅंसते फांसी के फन्दे को चुम लेते थे, आंखों को बन्द कर कोड़ों की मार को सह लेते थे, अपना सब कुछ भूलाकर बन्दूकों व तोपों के सामने आ जाते थे। मां की लोरी, पिता का स्नेह, बहन की राखी, पत्नी के आंसू और बच्चों की किल्कारियां जिनको अपने पथ से विचलित नही कर पाती। उनका तो बस एक ही ध्येय हो ता था-‘कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्’। देशभक्त जवान अंग्रेजों को ललकारते हुए कहा करते थे-

शहीदों के खून का असर देख लेना,

मिटा देगा जालिम का घर लेना।

झुका देगें गर्दन को खंजर के आगे,

खुशी से कटा देगें सर देख लेना।।

वीर हुतात्माओं के अमूल्य रक्त से सिंचित होकर आजादी हमें प्राप्त हुई है। जिस स्वतन्त्रत वातावरण में हम श्वास ले रहें हैं वह हमारे वीर हुतात्माओं की देन है। स्वतन्त्रता रूपी जिस वृक्ष के फलों का हम आस्वदन कर रहे हैं उसे उन वीर हुतात्माओं ने अपने लहु से सींचा है । आजादी के बाद स्वतन्त्रता का जश्न मनाते हुए नेताओं ने वादा किया था कि-

‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले।

वतन पर मिटने वालों का यही निशां होगा।।’

परन्तु बहुत दुःख है कि शायद वर्तमान में हमारे नेता इस आजादी के मूल्य को भूल बैठे हैं। उनके विचार में आजादी शायद खिलौना मात्र है, जिसे जहां चाहा फेंक दिया। जब चाहा अपने पास रख लिया किन्तु ऐसा नहीं है। हमारे नेताओं ने देश को जिस स्थिति पर लाकर खडा कर दिया है, क्या यही है वीर हुतात्माओं के स्वप्नों का भारत? क्या यही है मेरा भारत महान्? क्या यही दिन देखने के लिए वीरों ने अपनी बलि दी? आखिर क्यों हो रहा है।? इस परिदृश्य को देखते हुए कि कवि ने ठीक ही कहा है –

शहीदों की चिताओं पर न मेले हैं न झमेले हैं।

हमारे नेताओं की कोठियों पर लगे नित्य नये मेले हैं।।

धन्य है इस देश के नेता, जो गरीब जनता की खून-पसीने की कमाई को निज स्वार्थता में अदा कर देते हैं। घोटाले कर अपने घर को भर लेते हैं। वन्दे मातरम् गीत को न गाने वाले उन नेताओं व मुस्लिम भाईयों से मैं पूछता हूं कि जो विचार आज ये नेता या मुस्लिम भाई रखते हैं। यह विचार बिस्मिल्ला खां ने भी तो सोचा होगा। उस समय की मुस्लिम लीग ने तो कोई चिन्ता नहीं की थी। वे तो देश की स्वतन्त्रता में संलग्न थे, पर शायद इन्हें देश की एकता सहन नहीं हो रही है। देशभक्त ऐसे विचार नहीं रखा करते हैं।

क्यों हम इतने दीन-हीन हो गए है कि किसी शत्रु के छद्म यु द्ध का प्रत्युत्तर नहीं दे पा रहे है? क्यों 26 नवम्बर के मुम्बई हमले को हम इतनी आसानी से भूल जाते हैं? क्यों हम व्यर्थ में मन्दिर-मस्जिद के विवाद में फस रहें हैं? क्यों हमारी न्यायिक प्रक्रिया में इतनी शिथिलता व अन्याय है कि आतंकवादी लोग आज भी मौज मस्ती से घूम रहे हैं? यहाॅं धन से न्याय खरीदा जाने लगा है।

हे ईश्वर! यह कैसी राजनीति है? जिससे चक्कर में पड़कर हम अपनी भाषा, संस्कृति व देश की उन्नति को भूल बैठे है। क्यों  हम इतने कठोर हृदयी हो गए कि गरीब जनता का हाल देख हमारा हृदय नहीं पिघंलता है? क्यों हम पाप करने से नहीं रुक रहे? क्यों हम अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं?

हमारे गणतन्त्र को खतरा है उन आतंकवादी गतिविधियों से, देशद्रोहियों से, सम्प्रदायवादियों से, धर्मिक संकीर्णता से, भ्रष्टाचार से एवं शान्त रहने वाली इस जनता से। हम भारतवासियों का यह कर्तव्य है कि देश की रक्षा एवं संविधान को मानने के लिए हम अपने आपको बलिदान कर देवें। हमें प्रत्येक परिस्थितयों में अपने देश की रक्षा करनी है। यह सत्य है कि विभिन्नता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। खासकर मैं युवाओं से कहना चाहता हूं-

हे नवयुवाओ? देशभर की दृष्टि तुम पर ही लगी,

है मनुज जीवन की ज्योति तुम्ही से  जगमगी।

दोगे न तुम तो कौन देगा योग देशोद्धार में?

देखो कहा क्या हो रहा है आज कल संसार में।।

आओ! हम सब मिलकर गणतन्त्र के यथार्थ स्वरूप को जानकर संविधान के ध्वजवाहक बनें और तभी जाकर हम सर उठाकर स्वयं को गणतन्त्र घोषित कर सकेंगे और कह सकेंगे कि – जय जनता जनार्दन।

और अन्त में मैं वाणी को विराम देता हुआ यही कहना चाहूंगा-

ये किसका फसना है ये किसकी कहानी है,

सुनकर जिसे दुनिया की हर आंख में पानी है।

दे मुझको मिटा जालिम मत मेरी आजादी को मिटा,

ये आजादी उन अमर हुतात्माओं की अन्तिम निशानी है।।

 

 

3 thoughts on “क्या यही हुतात्माओं का भारतवर्ष है? शिवदेव आर्य”

  1. ek to hamare syasi leaderon ne desh ko galat raste par laga diya doosre bhasmasur bante santon ne desh ka bera garq kar diya…gurudom ka phailne se hindu arya vaidik dharm ko bahut haani huyee. Daya nand jaisa vicharak banana kaise mumkin ho….Shaheedon ko yaad karna bhi bhool gaye. desh bhagti kam ho gayee…desh bhagti ka matlab hi badal diya gaya hai

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