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आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प

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आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प

 यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि इस संसार में मानव ऐसा प्राणी है जिसकी सर्वविध उन्नति कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं। शैशवकाल में बोलने, चलने आदि की क्रियाओं से लेकर बड़े होने तक सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसे पराश्रित ही रहना होता है, दूसरे ही उसके मार्गदर्शक होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि समय-समय पर विविध माध्यमों अथवा व्यवहारों से मानव में अन्यों के द्वारा गुणों का आधान किया जाता है। यदि ऐसा न किया जाये, तो, मानव ने आज के युग में कितनी ही भौतिक उन्नति क्यों न कर ली हो, वह निपट मूर्ख और एक पशु से अधिक कुछ नहीं हो सकता -यह नितान्त सत्य है। अतः सृष्टि के आदि, वेदों के आविर्भाव से लेकर आज तक मानव को जैसा वातावरण, समाज व शिक्षा मिलती रही वह वैसा ही बनता चला गया, क्योंकि ये ही वे माध्यम हैं, जिनसे एक बच्चा कृत्रिम उन्नति करता है और बाद में अपने ज्ञान तथा तपोबल के आधार पर विशेष विचारमन्थन और अनुसन्धान द्वारा उत्तरोत्तर ऊँचाइयों को छूता चला जाता है। इस जगतीतल में आज जितना बुद्धिवैभव और भौतिक उन्नति दृष्टिपथ में आती है, वह पूर्वजों की शिक्षाओं का प्रतिफल है। उसके लिए हम उन के ऋणी हैं। वे ही हमारे परोक्ष शिक्षक हैं। यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। अतः सामान्यतः कहा जा सकता है कि मानव की उन्नति की साधिका शिक्षा है। जिसका वैदिक स्वरूप इसप्रकार है- जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यादि दोष छूटें उस को शिक्षा कहते हैं।(सत्यार्थप्रकाश के अन्त में दत्त स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में शिक्षा की परिभाषा।) ऐसे उत्कृष्ट स्वरूप वाली शिक्षा से एक व्यक्ति मानव बनता है और मानवों का समुदाय समाज कहलाता है। यदि शिक्षा समाज में रहकर दी जा रही है तो उसका प्रभाव शिक्षार्थी पर पड़ना अवश्यम्भावी है। वह वैसा ही बनता है जैसा समाज है। प्राचीन काल में शिक्षारूप यह उच्च कोटि का कार्य नगरों और गाँवों से दूर रहकर शान्त, स्वच्छ और सुरम्य प्रकृति की गोद में किया जाता था। दोनों में क्या भेद है, इसको समाजों के तुलनात्मक अध्ययन से समझा जा सकता है। अतः प्राचीन और आधुनिक समाज की संक्षेप में समीक्षा करते हैं, जिससे शिक्षा कहाँ और कैसे वातावरण में दी जानी चाहिए यह भी स्वतः स्पष्ट हो जायेगा। ततः आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य आदि पर विचार कर उसका विकल्प सूच्य रहेगा।

प्राचीन समाज-

प्राचीन भारत की सामाजिक स्थिति को जानने के लिए तात्कालिक साहित्य ही एक मात्र शरण है। उस काल में संस्कृत ही बोलचाल और लेखन की भाषा थी, अतः उसमें उपलब्ध वेदेतर ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् आदि वैदिकवाङ्मय और वाल्मीकिरामायण, माहाभारत आदि लौकिक साहित्य का विशाल भण्डार सहायक बनेगा। उन सभी से प्रमाणों की झड़ी लगाई जा सकती है, लेकिन दो तीन बहुश्रुत ग्रन्थों का ही उल्लेख हमारे अभीष्ट को सिद्ध करने में पर्याप्त होगा। उस समय शिक्षा के केन्द्र ऋषि, मुनियों के आश्रमस्थल होते थे, जो यजुर्वेदीय मंत्र उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्। धिया विप्रो ऽ अजायत।। (यजुर्वेद २6.१५) के प्रतिबिम्बरूप थे, जिसके अनुसार पर्वतों के पार्श्ववर्तीभाग और नदियों के संगम स्थान पर प्राकृतिक स्वच्छ वातावरण में श्रेष्ठबुद्धि का विकास उत्तमोत्तम हुआ करता है। इसीलिए वहाँ के समाज की सर्वविध समृद्धि आज से भी उन्नत दिखाई देती है। राजा अश्वघोष की विचारोत्तेजक ये पंक्तियाँ- न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः। नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।। (छान्दोग्योपनिषद् 5.11.5) प्राचीन भारत के गौरव को डिण्डिमघोष के साथ कहती हुई समाज की उन्नत स्थिति को ही स्पष्टतः वर्णित करती है। जिसमें अश्वघोष की गर्वोक्ति है कि मेरे किसी जनपद में कोई चोर, कृपण और शराबी नहीं है। न कोई अग्निहोत्र न करने वाला और अविद्वान् है। कोई स्वेच्छाचारी मनुष्य नहीं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री कहाँ से होगी? इसी प्रकार का समाज वाल्मीकिरामायण में भी उपलब्ध है। उदाहरणार्थ- तस्मिन् पुरवरे हृष्टा धर्मात्मानो बहुश्रुताः। नरास्तुष्टा धनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः।। कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित्। द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान् न च नास्तिकः।। नानाहिताग्निर्नायज्वा न क्षुद्रो वा न तस्करः। कश्चिदासीदयोध्यायां न चावृत्तो न संकरः।। (वाल्मीकिरामायणम् 1.6.6, 8, 12) अर्थात् उस श्रेष्ठ अयोध्यानगरी का असाधारण समाज था, जिसमें सभी प्रजाजन प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत विद्वान् थे। निर्लोभी, अपने-अपने धन से सन्तुष्ट रहने वाले और सत्यवादी थे। वहाँ कहीं कोई कामी, कंजूस, क्रूर व्यक्ति न था। न कोई मूर्ख और नास्तिक था। न ही अग्निहोत्र और पंच यज्ञ न करने वाला, न निम्न सोच वाला और चोर था। न ऐसा था जो सदाचारी न हो या वर्णसंकर हो।

आज के परिप्रेक्ष्य में कोई स्वप्न में भी शायद ऐसे समाज की परिकल्पना नहीं कर सकता! विचारने पर एतादृश समाज की उन्नति के मूल में उत्तम शिक्षाव्यवस्था और राजव्यवस्था ही दिखाई देती है।

ऐसा ही भारत का चित्र लॉर्ड मैकाले ने भी खींचा है, साथ ही लम्बे समय तक अपने अधीन करने के लिए यहाँ की शिक्षाव्यवस्था और संस्कृति को बदलने का सुझाव दिया, जिसमें वह कामयाब हुआ“I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a thief. Such wealth I have seen in the country, such high moral values, people of such caliber; that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and therefore I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native self-culture and they will become what we want them, a truly dominated nation.”- Lord Macaulay in his speech on Feb 2, 1835, British Parliament (पप्पू कैसे पास हुआ नामक डॉ0 धर्मवीर का सम्पादकीय, परोपकारी पाक्षिक पत्रिका, सितम्बर (प्रथम) 2010, पृ0 514, पर उद्धृत)। परिणामतः आधुनिक हमारा समाज वैसा ही बन गया जैसा अंग्रेज चाहते थे।

आधुनिक समाज-

आज के समाज की दशा कुकृत्यों से शोचनीय है। न जाने कितने नरपिशाच अपने स्वार्थों के कारण सामाजिक व्यवस्था को तार-तार कर रहे हैं। प्रायः सर्वत्र अकर्मण्यता, स्वार्थपरायणता, निर्धनता, कामुकता, विषयासक्ति, दुराचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, परधनहरण, आतंकवाद, जातिवाद, अशिक्षा, नैतिकपतन, कुटिलराजनीति इत्यादि दोष पद-पद पर देखे जा रहे हैं। अद्यतनीय शिक्षासंस्थानों से प्रतिवर्ष लाखों, करोड़ों छात्र स्वकीय शिक्षा पूर्ण कर सामाजिकक्षेत्र में आते हैं, किन्तु क्या वहाँ किंचित् मात्र भी माता पिता में भक्ति, गुरुजनों में आदरभाव, स्वदेश में अनुरक्ति, कर्त्तव्य कार्य के प्रति अनुराग है? नहीं। परन्तु केवल अर्थासक्ति है और तद्द्वारा कामनापूर्ति तथा व्यसनों में अत्यादर। यही नहीं जिस शहरी समाज में नित्य बच्चों तक के साथ बलात्कार कर गन्दे नाले में फेंक देने की वहसी निठारी, नोयडा की और किडनी बेचने की गुड़गाँव जैसी घृणित अनैतिक आचरणों की घटनाएँ हैं। लूटपाट और डकैतियाँ हैं। बच्चों के अपहरण और फिरौतियाँ हैं। दूसरों की सम्पत्तियों पर अधिकार जमाने की कोशिशे हैं। असहिष्णुता है। आत्महत्याएँ हैं। असमानता ऐसी कि एक तरफ कठोर परिश्रम है, परन्तु भर पेट पूरे परिवार के लिए रोटी नहीं, दूसरी और गगनचुम्बी कोठियाँ हैं, जिनमें भोग और विलासिता है। शराब और जूए का दुश्चक्र है। आलस्य, प्रमाद है। स्वार्थी राक्षसी वृत्ति है। अर्थासक्ति ऐसी कि उसके सामने कोई पिता, भाई, बहन आदि का सम्बन्ध कुछ नहीं। प्राणीमात्र के लिए दया का अभाव है। प्रकृति का दोहन इतना कि पर्यावरण कितना ही अशुद्ध हो उससे कुछ लेना देना नहीं। न देशप्रेम है। न दयाधर्म है। सत्यवादिता, परोपकार आदि गुण कोसों दूर हैं। राष्ट्र की सम्पत्ति को अपनी माँगो को लेकर कूड़े के ढ़ेर के समान अग्निसात् कर दिया जाता है। केवल अधिकारों की बात होती है, कर्त्तव्यभावना की नहीं। परिवार और समाज टूट रहे हैं। समाज में पनप रहे ऐसे अनेक दोष नित्य समाचार पत्रों की मुख्य पंक्तियाँ बनते हैं। आज के समाज को देखते हुए यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है कि जितना अधिक आज की शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है, घर-घर विद्यालय खुल रहे हैं, उतना ही मानव का मानसिक प्रदूषण बढ़ रहा है। आज के शिक्षित व्यक्तियों की गाँव के बीस वर्ष पूर्व के अनपढ़ व्यक्तियों से तुलना करें तो वे एक दूसरे से प्यार करने वाले, सुख दुःख को बाँटने वाले, परोपकारी आदि गुणों वाले थे और ये शिक्षित होकर अधिक बेईमान, छलकपटी, चोर, स्वार्थी, ईर्ष्यालु हो गये हैं। अब वहाँ भी भौतिकता के प्रभाव में नित्य नवीन अपराधों का उदय हो रहा है। इसीलिए आज की गर्हित सामाजिक स्थिति और शिक्षाव्यवस्था अन्योन्याश्रित हुई प्रमुखतः वर्तमान विसंगतियों का परिणाम कही जा सकती हैं- जिसे अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहाँ हृदयविहीन भावशून्य मशीनी मानव बनाने की शक्ति तो है, परन्तु मानवनिर्मात्री शक्ति नहीं।

आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य

उक्त सामाजिक स्थिति के विवेचन से यह स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति में वह शक्ति वा उद्देश्यों की पूर्ति की योग्यता प्रतीत नहीं होती जिससे मानव में मनुष्यता के बीज अर्थात् श्रेष्ठता के विचार आरोपित किये जा सकें। साथ ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल भी बढ़ाया जा सके। वर्तमानयुगीन शिक्षा के उद्देश्य तो केवल ऐसी शिक्षा को देना है जिससे अधिक से अधिक अर्थ का आगम हो और उसी के लिए बौद्धिक विकास की परिकल्पना है। उस विकास के साधन उचित हैं अथवा अनुचित यह सोचना आज की शिक्षापद्धति के एजेण्डे में नहीं है। एक छात्र प्रशासक, डॉक्टर या इंजीनियर आदि आदि कुछ भी किन्हीं भी तरीकों से बने, परन्तु बने अवश्य यह आज के शिक्षाविद् और राजनेता चाहते हैं, उसमें नैतिकता प्रभृति श्रेष्ठ मानवोचित गुणों का समावेश हुआ वा नहीं -यह उनकी परिकल्पना से दूर है। आचरणहीन, स्वार्थ की पराकाष्ठा के मूर्त रूपधारी, पैसा कमाने की मशीन बने डॉक्टर, इंजीनियर आदि से कितना ही व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, भौतिक पर्यावरण दूषण हो -इसकी चिन्ता उन्हें नहीं। इसीप्रकार के अन्य उद्देश्यों में मल्टीनेशनल कम्पनियों में नौकरी और तद्द्वारा आजीविका को प्राप्त करना या कहिए भौतिकसंसाधनों को जुटाना मुख्य है और उसी से समस्त लोगों को सुख शान्ति प्राप्त करवाने के उपाय किये जाते हैं। भौतिक संसाधनों को जुटाने के लिए नित नये कारखाने खोले जा रहे हैं। नई-नई तकनीकों को खोजा जा रहा है। अर्थ का अधिक से अधिक आगम कैसे हो उसी की चिन्तनायें देश और विश्वस्तर पर की जा रही हैं। आज शिक्षा का उद्देश्य केवल मानव को साक्षर करना और तद्द्वारा भोजन, वस्त्र तथा मकान किंचित् सुविधा से प्राप्त हो जायें -यह चिन्तन हर आधुनिक शिक्षाशास्त्री को उद्वेलित करता है। वह उसी चिन्तनधारा पर कार्य करता हुआ उसे और अधिक श्रेष्ठ और रुचिकर बनाने के उपायों पर मनःस्थिति को केन्द्रित किये है और सुधार के उपाय सुझाता है। इसी मानसिकता के अनुरूप प्रत्येक गाँव तक में विद्यालय की सुविधा सरकारी व निजी स्तर पर है अथवा की जा रही है। निजी विद्यालयों, महाविद्यालयों और बहुत से विश्वविद्यालयों ने इसे एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार किया है और भारीभरकम शुल्क (Fee) के द्वारा उससे खूब कमाई भी कर रहे हैं। किसी समय में महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), महामना मदनमोहन मालवीय, सर सैयद अहमद खाँ जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षणसंस्थानों को विशेष उद्देश्यों से खोला था। आज शिक्षणसंस्थान कुकुरमुत्तों की तरह हर स्थान पर उग आयें हैं, जिनके कर्ताधर्ता ईंटभट्टे के व्यापारी या व्यवसायी हैं। उनके उद्देश्य मोटी फीस से धन कमाना है। समाज का भला करने के ऊँचे लक्ष्य नहीं? उन्हें शिक्षा से लेना देना भी क्या है, अपना व्यवसाय करना है, जिसमें वे कुशल हैं। अब सर्वशिक्षा अभियान के रूप में हमारी सरकार ने ही स्वयं शिक्षा क्षेत्र को एक व्यापारिक क्षेत्र के रूप में घोषित कर वैदेशिकों के लिए भी दरवाजे खोल दिये हैं। अतः शिक्षा के उद्देश्य अर्थप्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं, यही बतलाने की कोशिश परोक्ष और साक्षात् रूप में देखी जा सकती है। सत्यं वद, धर्मं चर, स्वाध्यायप्रवनाभ्यां न प्रमदितव्यम् जैसे वाक्यों से शिक्षा देकर मानव बनाने की परिकल्पना आज की शिक्षा में नहीं है।

आधुनिक शिक्षा की पद्धति

भारतीय साम्प्रतिक शिक्षाप्रणाली में पूर्णतः पाश्चात्त्य शिक्षाव्यवस्था का अन्धा अनुकरण है। जहाँ बच्चा नित्य विद्यालय जाता है और कुछ अक्षर ज्ञान कर लौट आता है। आकर्षित करने के लिए बाह्य चमक दमक को विशेष महत्त्व प्राप्त है। विशेषकर निजी विद्यालयों (Public Schools) में अभिभावकों और बच्चों को आकृष्ट करने के लिए साजसज्जा पर विशिष्ट ध्यान दिया जाता है। बच्चों के स्वास्थ्य, भोजन, वस्त्र और पाठशाला की सफाई सुचारु हो इसकी चिन्ता की जाती है। बच्चों पर कितना भी बोझा विद्यालय और ट्यूशन आदि के द्वारा अक्षर ज्ञान के लिए लादना पड़े, लेकिन वे मुख्य प्रश्नों के माध्यम से या अन्य प्रकार से अधिक से अधिक अंक परीक्षा में कैसे अर्जित करें, वे उपाय अभिभावकों और अध्यापकों या स्वयं बच्चों द्वारा किये जाते हैं तथा उसी के माध्यम से आजीविका प्राप्ति के उपायों की खोज भी होती है। विद्यार्थी ने अपने अध्ययन काल में विद्यालय और ट्यूशन में धन के महत्त्व को देखा है। अतः अधिक धनलाभ कैसे, किससे और आसानी से होगा। अच्छी से अच्छी सर्विस कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसके लिए मन मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाये जाते हैं। इस स्थिति में बालक का बौद्धिक विकास किस दिशा में होगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वह अपना हित छोड़कर सार्वजनिक हित नहीं करेगा, यह सिद्ध है और यदि करेगा तो आधुनिको के द्वारा मूर्ख कहा जायेगा। यही विचार कर आजकल पढ़ने हेतु मुख्य विषय विज्ञान और गणित को ही सीखने के लिए बल दिया जाता है। अन्य विषयों को भी स्पर्श किया जाता है लेकिन सब को एक साथ। भाषाओं को महत्त्व किंचित् ही दिया जाता है। ऐसे में बच्चों के कोमल मनों पर शिक्षा को लेकर कैसा प्रभाव होगा यह विचारा जा सकता है।

आधुनिक शिक्षागत समस्याएँ –

अद्यतनीया शिक्षाप्रणाली और समाज का एक ही दिशा- अर्थासक्ति में अहर्निश चिन्तन है। विशाल उदारवृत्ति यहाँ नहीं है, अतः स्वार्थीवृत्ति कार्य करती है। ऐसी स्वार्थीवृत्ति, जो खूब कमाओ और मौज उड़ाओ की संस्कृति की पोषिका है। सात पीढ़ियों तक के लिए भण्डार भरने की प्रवृत्ति यहाँ है। ऐसे में जहाँ स्वार्थ होगा वहाँ समाज, राष्ट्र वा पर्यावरण गौण हो जाते हैं। जिसके प्रभाव से सामाजिक ताना बाना विखण्डित हो रहा है। समाज में रहकर दी जा रही इस शिक्षा से जन्मा यह वैचारिक प्रदूषण भौतिक, सामाजिक, वैयक्तिक और सांस्कृतिक रूप से अनेकविधदूषणों का कारक है। जिससे किसी भी रूप में इस व्यवस्था के रहते बचा नहीं जा सकता, क्योंकि विकृत समाज के साथ ही शिक्षार्थी को भी रहना पड़ता है। ऐसे में यह शिक्षा अनेकविध समस्याओं का कारण बनती है, जिन्हें निम्नप्रकार समझा जा सकता है।

भौतिक समस्या – वातावरण में विष घोलने का कार्य यह शैक्षिक व्यवस्था कैसे करती है, इसे देखिए-

  • आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रतिदिन विद्यालय जाना आना होता है, अतः आवागमन के लिए एक हजार की संख्या वाले विद्यालय में अनुमानतः चार बसों, चालीस से पचास ऑटो या अनेकों निजी वाहन विशेषों से उगले जाने वाले धुँए से वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण कितना अधिक होता है, यह वर्णनातीत है। दो से तीन, चार हजार बच्चे जिस विद्यालय में पढ़ते हैं वहाँ की स्थिति गुणित होकर कैसी होगी, उसकी कल्पना की जा सकती है! मध्य में कहीं वाहनों का जाम लगा तो और भी समस्या। अबोध बच्चों के द्वारा न चाहते हुए भी प्रतिदिन कितना धुँआ पिया जाता है, और राष्ट्र को उसके बदले में रोगादि को दूर करने में कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, वह अनुमानगम्य नहीं! यह स्थिति बाहरवीं तक के छात्रों की है। बच्चे बड़े हुए तो स्वयं अपने वाहनों से या सार्वजनिक वाहनों से ऐसी ही यात्रायें शहरों में विद्यमान महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में जाने आने के लिए बसों में लटककर या छतों के ऊपर करते हैं। इसप्रकार की व्यवस्था में प्रत्येक दिन भारत में ही नहीं, विश्व में बच्चों को विद्यालय तक पहुँचाने और लाने में अनगणित वाहन प्रयुक्त होकर वायुमण्डल को कितनी हानि देते हैं, वह विचारणीय है।

सामाजिक समस्या – समाज में अनेक विसंगतियों की जनक भी यह प्रणाली है, वे इसप्रकार हैं-

  • विद्यालय में आवागमन को सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें राष्ट्र के अर्थ और समय के अपव्यय का कोई मूल्य नहीं। अर्थहानि और समयहानि इस दृष्टि से कि प्रत्येक प्रातः शहरों में बच्चों को माता पिता विद्यालय में भेजने के लिए तैयार करते हैं, उसमें समय लगाते हैं, फिर विद्यालय में जाने के लिए बस स्थानकों पर वाहनों की प्रतीक्षा में न्यून से न्यून पन्द्रह मिनट से आधा घण्टा या अधिक, बच्चे के विद्यालय जाने और आने के समय अभिभावक ही प्रतिदिन नष्ट करते हैं। बच्चों के समय की हानि भी आवागमन में कई घण्टों में प्रत्येक दिन होती है। कई माता पिता स्वयं बालक को विद्यालय में छोड़ने और लाने का कार्य करते हैं। इसप्रकार प्रतिदिन के समय की हानि एक राष्ट्र के लिए कितनी महंगी पड़ती है! इसके अतिरिक्त विद्यालय की फीस का खर्च, वाहनों का खर्च और उनसे होने वाला वायु और ध्वनि प्रदूषण प्रतिदिन की दृष्टि से एक ही छोटे से शहर में ही लाखों का पड़ता है, मास और वर्षों की गणना अरबों, खरबों में होगी जिसका सही अनुमान लगाना भी कष्टसाध्य है।
  • अपने वाहनों तथा सार्वजनिक वाहनों से विद्यालय में आने जाने वाले छात्रों की अनेक बार दुर्घटनाएँ भी होती हैं, जिसमें हर वर्ष न जाने कितनी जानें जाती हैं और कितने अपंग होते हैं। समाज को यह असह्य क्षति प्रायः उठानी पड़ती है।
  • विद्यालयों की मोटी फीस, जिसे सभी नहीं दे सकते उससे समाज में समरसता नहीं होती। कोई बड़ी गाड़ी में आ रहा है तो कोई साइकिल द्वारा ऐसे में ऊँच नीच का भाव समाज में पनपता है। उच्च शिक्षा भी मोटी फीस के द्वारा खरीदी गई होती है, अतः पैसे का ही मूल्य है यह कोमल मनों पर आज की शिक्षा पद्धति के कारण छाया रहता है और वे बड़े होकर स्वयं वैसा ही व्यवहार करते हैं।
  • आज की शिक्षाव्यवस्था में समानता और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न होने से सैंकड़ों वर्षों से दबे कुचले सामाजिकजन वहीं के वहीं उसी दुरवस्था में जी रहे हैं। क्योंकि वे अच्छे कहे जाने वाले पब्लिक विद्यालयों में धनाभाव के कारण अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेज नहीं सकते या शिक्षा के महत्त्व को वे जानते नहीं। आजीविका के लिए नित्य बाहर निकल जाने के बाद उनके बच्चों का भगवान् ही मालिक होता है, अतः उनके बालक गलियों में खेलते रहते हैं। पढ़ाई में मन नहीं लगा तो शीघ्र ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और बालमजदूरी (Child Labour) के चंगुल में फँस जाते हैं। सरकार की ओर से उन्हें पढ़ने के लिए शक्ति से आदेश नहीं दिया जाता। इस व्यवस्था में सम्पत्तिशाली तो आगे निकल जाते हैं और निर्धन साधनों के अभाव में वहीं के वहीं, गली सड़ी जिन्दगी गुजारने को मजबूर रह जाते हैं। परम्परया उनके बच्चों को भी उन्हीं के साथ रहने से वैसा ही वातावरण मिला होता है, अतः पूर्ववत् निम्नसमाज में बने रहने के अतिरिक्त कुछ परिवर्तन उनमें नहीं आ पाता। साथ ही बच्चों के घर में रहने से बालस्वभाव के कारण नित्य कोई माँग बच्चों की होती है। माँ बाप भी अपने कार्यों को निश्चिन्त हो ठीक से नहीं कर पाते जिससे घर की आय पर भी गलत प्रभाव पड़ता है।
  • इस शिक्षापद्धति के अनुसार आज का विद्यार्थी पाँच, छः घण्टे विद्यालय में रहकर शेष पूरा दिन अपने घर में रहता है। गृहस्थ अपने कार्यों में व्यापृत रहते हैं। ऐसे में बच्चों का संरक्षण करने वाला कोई नहीं। घर में अब वे स्वतत्र है, चाहे तो कुछ भी करें। मन का स्वभाव चंचल है। एक स्थान पर बंध कर कदाचित् पढ़ा नहीं जा सकता। पढ़ना भी चाहेगा तो महापुरुषों की जीवनी या सही दिशा देने वाली अच्छी पुस्तकें नहीं, अपितु मन को अच्छी लगने वाली किस्से कहानियों की पुस्तकें। ऐसे में समाज को अच्छे नागरिक मिलेंगे यह परिकल्पना नहीं करनी चाहिए।
  • इस व्यवस्था में पढ़ने वाले बच्चों का गृहस्थियों के साथ घर में अधिक समय व्यतीत होता है। घर में जो कुछ भी अच्छा या बुरा हो रहा है उसका प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो प्रायः चाय, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, शराब आदि मादक पदार्थों का सेवन प्रत्येक घर में होता है। केवल शराब की ही बात करें तो दैनिक जागरण समाचार पत्र में प्रकाशित एक सरकारी आँकड़े के अनुसार अल्कोहल उत्पादों पर कर से साल 2007-08 के दौरान राज्य सरकारों को करीब 26 हजार करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी।….बेंगलूर स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेज (नीमहंस) के एक अध्ययन में पता चला है कि देश में अल्कोहल की बिक्री से हर साल 216 अरब रुपये के राजस्व की उगाही होती है। जबकि इसके ठीक विपरीत अल्कोहल के घातक दुष्परिणामों से हर साल करीब 244 अरब रुपये की क्षति उठानी पड़ती है। (दैनिक जागरण समाचार पत्र (हरिद्वार संस्करण), दिनांक 15 फरवरी, 2010, पृ0 2) ये आँकड़े समाज के शराबी होने की सत्यता को प्रमाणित कर रहे हैं। सरकार को राजस्व की चिन्ता है। समाज गर्त में गिर रहा है तो उसकी चिन्ता नहीं। ऐसे में शराब पीने से हानियाँ भी पाठ्य पुस्तकों में पढाई जाती हैं तो उसका प्रभाव होने वाला नहीं, क्योंकि बच्चे उसी समाज के साथ अधिक समय व्यतीत करते हैं। अतः बड़ों को देखते हुए वे गलत आदतें शनैः शनैः उनमें भी घर कर जाती हैं और वह भी वैसा ही बन जाता है। बाद में स्वभाव में आने से रोकने से नहीं रुकतीं। ऐसे ही अन्य बुराइयों के नित्य प्रत्यक्ष होने से मन की अनुकूलता के आते ही बच्चा बड़ा होते-होते उसे स्वीकार कर लेता है। अतः निरन्तर पीढ़ी दर पीढ़ी ये बुराइयाँ समाज में आती रहती हैं।
  • जातिवाद समाज के लिए एक अभिशाप है, भयंकर रोग है, मानव-मानव के बीच विद्वेष और ऊँच नीच का विष घोलने का कार्य करता है, जिसे इस शिक्षाव्यवस्था के रहते समाज से दूर नहीं किया जा सकता, क्योंकि आरक्षण और वोटबैंक की राजनीति का कुचक्र भी इसी जातिप्रथा की धुरि पर चक्कर लगा रहा है। नित्य बच्चे उसी समाज में रहते हैं जहाँ प्रतिदिन उन शब्दों का प्रयोग होता है और अब विद्यालयों में जाति का लिखना अनिवार्य हो गया है। इस व्यवस्था में जाति विशेष के लिए आगे बढ़ने के लिए तो आरक्षण है, लेकिन अन्य जातियों में भी गरीबों की कोई कमी नहीं। आरक्षित जातियों में भी उसका लाभ वे ही लोग उठा रहे हैं, जो पहले से लाभ ले कर स्वयं में राजनीति, प्रशासन, शिक्षाक्षेत्र या विविधप्रकार के उच्च पदों पर पहले से होने से सामर्थ्यशाली हैं, जिन्हें आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं। साठ वर्षों से ग्रामीणों अथवा शहरों की झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वालों की सुध लेने वाला कौन है? प्रथम तो वे बेचारे आरक्षण के महत्त्व को ही नहीं समझते होंगे। यदि जानते होंगे तो बच्चों को पढ़ाने के लिए वह योग्यता और धन कहाँ से लायें? क्योंकि घरों में पढ़ाने के बिना आजकल की पढ़ाई में आगे निकलना सम्भव नहीं, जिसे वे कर नहीं सकते!

वैयक्तिक समस्या – व्यक्तिगत दोष को देने वाली भी यह प्रणाली है। यथा-

  • इस प्रणाली में यह व्यक्तिगत दोष है कि घर में रहने वाले छात्र की किसी प्रकार की कोई दिनचर्या बहुत से कारणों से नहीं बन पाती। कभी वह प्रातः पाँच बजे बिस्तर छोड़ता है तो कभी सात और आठ बजे। रविवार को तो वह उठना ही नहीं चाहता और जहाँ शरीर को बलिष्ठ होना चाहिए था, वह रोगग्रस्त होता चला जाता है। न शारीरिक व्यायाम, प्राणायाम या आत्मचिन्तन में कोई रुचि हो पाती। परिणामस्वरूप मानसिक, शारीरिक बीमारियों को नित्य निमंत्रण। दिनचर्या न होने की यह बीमारी बड़े छात्रों के छात्रावासों में और भी अधिक है।
  • प्रतिस्पर्धा के इस दौर में ट्यूशन की बीमारी भी इस शिक्षापद्धति की एक बहुत भयंकर देन है। ऐसे में बच्चे विद्यालय और ट्यूशन के बीच में कितना समय, शक्ति और धन बर्बाद करते हैं, वह किसी से छुपा नहीं। ऐसे बच्चों का बचपन भी नष्टप्रायः हो जाता है, उनका ठीक से शारीरिक और मानसिक विकास भी नहीं हो पाता, युवा होते-होते बूढ़े हो जाते हैं।
  • अधिकांश में देखा जाता है कि गलत संगत के कारण बच्चे विद्यालयों में न जाकर आवारागर्दी करते रहते हैं और माता पिता सोचते हैं, वह विद्यालय या ट्यूशन में पढ़ने गया है। पॉकेट मनी भी गलत आदतों को पालने में एक कारण बनती है। उसी से बच्चे चाऊमीन, बर्गर, चॉकलेट आदि खाकर अपनी आदतों को बिगाड़ते हैं और टॉफी या मीठी वस्तुएँ खाकर अपने दान्तों तथा पेट को।
  • स्वावलम्बन का अभाव इस शिक्षाप्रणाली में बच्चों में इतना अधिक देखने को मिलता है कि वे स्वयं कुछ कार्य करना नहीं चाहते। यहाँ तक कि बनियान आदि छोटे वस्त्र भी स्नानागार में दूसरों के लिए प्रक्षालित करने हेतु छोड़ देते हैं। कालान्तर में पूर्णतः पराश्रित हो जाते हैं।
  • यह सब जानते हैं कि सभी के घर विलासिता के  आगार भी होते हैं। घरों में कुछ झगड़ा भी होता है। इन सब का साथ में रहने वाले बच्चों के कोमल मन पर गलत गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। वे विलासिता के रंग में भी रंगते हैं, जिसकी अभी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं, जिससे कुण्ठाग्रस्त होते जाते हैं।
  • जो माता पिता अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते उनके बच्चे घर पर टी0 वी0, वीडियो आदि के रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। जो नहीं देखा सुना जाना चाहिए वह सब उसके माध्यम से अबोध बालक जानने लगते हैं। जिससे पढ़ाई में विशेष ध्यान नहीं दे पाते और उसी में सुख की अनुभूति करने लगते हैं।
  • प्रकृति के प्रति किसी प्रकार का कोई प्रेम आज की इस पद्धति के कारण नहीं बन पाता, क्योंकि वैसे वातावरण में वे रहते ही नहीं। ईंट, पत्थरों के जंगलों में रहते-रहते उनमें प्रकृति के प्रति सम्वेदनशीलता नहीं आ पाती।

सांस्कृतिक समस्या – भारतीयसंस्कृति से सम्बन्धित जीवन आधायक गुणों का नितान्त अभाव का दोष इस व्यवस्था में है। यथा-

  • इस शिक्षा पद्धति में भारतीय जीवन मूल्यों से द्वेष सा है, अतः वहाँ त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य, अध्यात्म का स्पर्श भी जीवन में नहीं करवाया होता, अतः सामान्य से कष्टों के आने मात्र से ही आत्महत्या की भावना आती है। सहिष्णुता का अभाव वहाँ मुख्य होता है। इसीलिए आर्थिक दृष्टि से सुखद भविष्य की सम्भावना होते हुए भी आई0 आई0 टी0, आई0 आई0 एम0 जैसे संस्थानों के छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। कहीं परस्पर ईर्ष्या, द्वेष के कारण अपने साथियों का संहार करने तक का जघन्य कार्य भी कर डालते हैं। ऐसे कृत्य पूर्ण विकसित कहे जाने वाले समृद्धिशाली जर्मनी, अमेरिका जैसे देशों में भी देखे जाते हैं। 11 मार्च, 2009 को दक्षिण जर्मनी के विन्नण्डन (Winnenden) नगर के अल्बर्टविले (Albertville) स्कूल में ही एक 17 वर्ष के बच्चे ने विद्यालय के तीन अध्यापकों, नौ लड़कियों सहित 15 जनों को गोलियों से भून डाला था। बचपन में ही ऐसी उग्रता समाज के लिए घातक है जो नैतिक मूल्यों से ही दूर की जा सकती है और उसके लिए इस पद्धति में अवकाश नहीं।
  • हजारों की संख्या में शिक्षार्थी विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों से निकलते हैं, परन्तु सभी अपने तक ही सीमित होते जा रहे हैं। किसी में माता, पिता, परिवार, समाज, देश, राष्ट्र के प्रति कोई भक्तिभाव नहीं, उदारता नहीं। कारण आदर, सम्मान, सौहार्द, सहानुभूति, सम्वेदना आदि का अभाव। विद्यालयों में केवल गणित, विज्ञान, इतिहास अथवा कला-सम्बन्धी विचारों को बच्चे में सम्प्रेषित करने का अधिकतम कार्य किया जाता है, जबकि बच्चों का अधिक समय तो पाठशालाओं से बाहर आराम की जिन्दगी के सान्निध्य, गलियों में खेलने या टी0 वी0, वीडियोगेम, अथवा नेट पर चैट आदि में व्यतीत होता है। जीवन जीने की कला की शिक्षा इस मध्य में लुप्त हो जाती है। इन नकारात्मक भावों से विपरीत श्रेष्ठ भावों का बीजारोपण करने के लिए आन्तरिकभावों को जागृत करना होता है, जो आध्यात्मिकता में निहित हैं, वे आचार व्यवहार से सिखाए जा सकते हैं और उनके लिए आज की शिक्षाव्यवस्था में किसी के पास समय नहीं।
  • भाषा का अध्ययन अध्यापन मानसिक भावों को जागृत करता है, विचारों की नई स्फूर्ति जीवन में लाता है, लेकिन आज कल की शिक्षा प्रणाली में भाषा की मुख्यता न होने से इसका भी अभाव देखा जा रहा है, अतः नई पीढ़ी भावशून्य हो रही है। दया, परोपकार, सत्यवादिता जैसे भाव गुजरे जमाने की बात होती जा रही है। अपनी राष्ट्र भाषा या संस्कृति पर किसी को गौरव नहीं। यही कारण है कि एक पब्लिक स्कूल का बच्चा शुद्ध हिन्दी भी नहीं लिख पाता। संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा को तो आज का छात्र विषधर की भांति हेय मानता है।
  • कामवासना ऐसा रोग है, जो प्रत्येक को पीड़ित करता है, लेकिन आजकल की शिक्षाव्यवस्था में उस पर काबू पाने का कोई उपाय ब्रह्मचर्य आदि के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया जाता। अतः युवावस्था आने पर सहशिक्षा के कारण थोड़े से भी अनुकूल वातावरण के मिलते ही बच्चों को बहकने का खुला आमंत्रण मिलता है। भारतीय समाज में संस्कारों के कारण कुछ उस से बच जाते हैं तो कुछ नीचे ही नीचे संलिप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर विकसित राष्ट्रों के विकास की गति देखिए, जहाँ सोलह वर्ष की शायद ही कोई लड़की गर्भपात करवाने से बचती हो। अब ऐसा ही प्रभाव भारतीय समाज के बड़े-बड़े शहरों में भी देखने को मिल रहा है। यह भारतीय संस्कृति को शिक्षाप्रणाली में महत्त्व न देने का ही परिणाम है।
  • आज की परिस्थितियों में ऐसा कौन सा घर है जहाँ भारतीय संस्कृति में मानव के आन्तरिक षड्रिपु कहे जाने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष जैसे कीटाणुओं का प्रवेश न हो। जन्म जन्मान्तर की वासनाओं से ये दोष बच्चों में भी अनुकूल अवसर पाकर घरों और समाज के सान्निध्य में रहने के कारण प्रविष्ट होते हुए देर नहीं लगाते। जिससे अध्ययन में बाधा आती है और जो उपलब्धि होनी चाहिए वह नहीं हो पाती।
  • अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच यम और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान रूप पाँच नियम- ये दोनों मनुष्य के इन्द्रियघोड़ों में लगाम का कार्य करते हैं। आधुनिक शिक्षा पद्धति में इनका कोई नाम लेने वाला भी नहीं। अतः मानव बेलगाम घोड़े के समान अर्थ के पीछे दौड़ लगा रहा है। ये जानते हुए भी कि यह सब यहीं रह जाना है और अनैतिक कार्यों में मानो प्रतिस्पर्धा करके जुटा है।

अन्य अनेक दोष भी विचार करने पर इस शिक्षा पद्धति में संकेतित किये जा सकते हैं, जिनके चलते आज स्थिति यह हो गई है कि साधन साध्य हो गया है। विश्व के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में आज प्रायः इसी की अन्धी दौड़ है और उसी का परिणाम है कि मानव अर्थलिप्सु हुआ येन केन प्रकारेण शिक्षित कहलाता हुआ भी भ्रष्टाचार, अनैतिक आचरणों के दलदल में आकण्ठ डूबा जा रहा है। सुख शान्ति यदि धन ऐश्वर्य में होती तो विश्व के चोटी के धनाढ्यों में अशान्ति देखने को न मिलती। लेकिन, आज की शिक्षा व्यवस्था इसी धुरी पर चक्कर लगा रही है, जो मानव की ऐकान्तिक और आत्यन्तिक सुख की अवाप्ति का साधन नहीं। ऐसी स्थिति में आज की सामाजिक विसंगतियों, स्थितियों को देखते हुए प्रश्न खड़ा होता है कि क्या आज की शिक्षाव्यवस्था उचित है? कोई भी विचारक उत्तर में नहीं ही कहेगा और उसको सुधारने की बात करेगा। 20 फरवरी 2010 के दैनिक जागरण समाचारपत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर श्री राजीव शुक्ला (राज्यसभा सदस्य) के लेख में भी मैकाले की दी हुई शिक्षा पद्धति को बहुत पुराना कहा है और उसमें बदलाव पर बल दिया है। जिसकी आज नितान्त आवश्यकता है।

समस्याओं के जाल से निकलने का विकल्प आश्रमव्यवस्था

          उक्त विकट समस्यारूप तमःपुंज को ध्वस्त करने की एकमात्र प्रकाशज्योति भारतीय आश्रमव्यवस्था में निहित है, जो वेदादिशास्त्रों के आविर्भाव से लेकर रामायणकाल तक समृद्धि को प्राप्त हुई दिखाई देती है तथा महाभारत काल के आते-आते क्षीण हो गई और आज प्रायः लुप्त है। जिसे आधुनिक काल में पूरे विश्व के कल्याण की इच्छा रखने वाले महान् शिक्षाशास्त्री दयानन्द ने अपने उपदेशों और ग्रन्थों से पुनः स्थापित करने की कोशिश की। उन्हीं से प्रेरणा लेकर अनेक गुरुकुलों ने आश्रमव्यवस्था को अपनाया और आज भी समाज के द्वारा प्राप्त करवाये गये स्वल्प संसाधनों के बीच कार्य कर ख्याति अर्जित कर रहे हैं। प्रमुखतः प्राच्य संस्कृत ग्रन्थों के ही अध्ययन अध्यापन में पूर्ण निष्ठा से ये संस्थान कार्य कर रहे हैं, यदि उन पाठ्यक्रमों के साथ अर्वाचीन ज्ञान विज्ञान को भी पठन पाठन का अंग बना दिया जाये तो संसार में इनसे उत्तमकोटि का कोई शिक्षण संस्थान सम्भवतः न होगा। ग्रामों और नगरों से दूर होने के कारण समाज में पनप रहा दूषण भी वहाँ नहीं है और यही दूषण मानव मस्तिष्क से हटाने का उद्देश्य लिए वे कार्य कर रहे हैं, उसमें सफलता भी किसी हद तक प्राप्त हो रही है, क्योंकि यहाँ जीवन के अन्तरंग स्वरूप शारीरिक, मानसिक और आत्मिक को प्रबलता प्रदान करवाते हुए जीने की कला भी है और अध्ययन अध्यापन के द्वारा बौद्धिक विकास का भी पूर्ण प्रबन्ध। इन्हीं गुणों के कारण स्वामी श्रद्धानन्द की तपःस्थली गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय ने अपने शैशव काल में ही विश्व में कीर्ति अर्जित की थी। अब भी यदि इस आश्रमव्यवस्था को निकट से देखना चाहें तो तीरन्दाजी में ओलम्पिक तक भारत की ध्वजा को उत्तोलित करने वाले, लड़कों के गुरुकुल प्रभात आश्रम, मेरठ और लड़कियों के गुरुकुल चोटीपुरा, अमरोहा को देख लीजिए, जो विना किसी सरकारी सहायता के देश की सेवा कर रहे हैं और अपनी संस्कृति के आराधक हैं। गत दो तीन वर्षों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित संस्कृत में NET/JRF परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने वाले यहीं के सर्वाधिक विद्यार्थी रहे हैं। शायद किसी एक संस्था के इतने बच्चों की इस परीक्षा में सफलता आश्रमव्यवस्था की ही उत्कृष्टता को स्पष्टतः कह रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष में ऐसे अनेकों लड़के, लड़कियों के अलग- अलग गुरुकुलस्थल हैं, जिनमें समर्पणभाव और अच्छी मानसिकता से बच्चों का निर्माण प्राच्यपद्धति से किया जा रहा है। यदि यहाँ अच्छे साधन उपलब्ध करवाये जायें, सरकारी सहयोग भी हो तो आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों को भी नई दिशाएँ दी जा सकती हैं। थोड़े प्रयास से भी बच्चों को बहुत उन्नत अवस्था तक पहुँचाया जा सकता है।

इस आश्रमव्यवस्था में मुख्यता आचार्य की होती है। आचार्य एक समर्पित व्यक्तित्व का नाम है, जो सत्यनिष्ठ, त्यागी, तपस्वी, अपरिग्रही हो और जिसमें उत्कृष्टता का बीजारोपण करने वाले ज्ञान, कर्म, श्रेष्ठ विद्वानों और ईश्वर की उपासना, शम, दम, दया आदि गुण हों- ज्ञानकर्मोपासनाभिर्देवताराधने रतः। शान्तो दान्तो दयालुश्च ब्राह्मणश्च गुणैः कृतः।। (शुक्रनीतिसार 1.40) आचार्य संज्ञा से भी स्पष्ट है आचार्य अपने आचरण व्यवहार से बच्चों को अधिक शिक्षित करता है, जिसका मूल संकेत अथर्ववदीय मंत्र- आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः।। (अथर्ववेद 11.5.3) देता है, जिसका ऐसा उत्कृष्ट तात्पर्य है, जिसकी संसार में तुलना नहीं की जा सकती । जिसके अनुसार ब्रह्मचारी को उपनीत कर आचार्य अपने गर्भ में धारण करता है। गर्भ में धारण करने का निर्देश दे वेदभगवान् यह संकेत देना चाहते हैं कि आचार्य के कुल में उपनीत ब्रह्मचारी किसी भी और कैसे भी उच्च राजा, महाराजा अथवा निम्न निर्धन कुल से आया हो उसके साथ आचार्य वैसा ही व्यवहार करे जैसा माता गर्भस्थ शिशु का लालन, पालन करते हुए करती है अर्थात् माता उदरस्थ शिशु कैसा और क्या है? ऐसा भेद न रखते हुए समान दृष्टि से स्नेह की वर्षा करते हुए परिपालना करती है और सम्पूर्ण निर्मिति होने पर वह शिशु बाह्य जगत् का दर्शन करने के लिए बाहर आता है। ऐसे ही आचार्य कुल में विद्यार्थी समानरूप से गुरु के स्नेहिल छत्र के नीचे विद्यार्जन से हर प्रकार के तमस् को दूर करता हुआ आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, भौतिक विभिन्न प्रकार की उन्नतियाँ कर सम्पूर्णता को प्राप्त हो समाज में पदार्पण करे। ऐसे में देवजन उसका स्वागत करते हैं। वेद के इन निर्देशों की परिपालना कठिन नहीं है। सभी स्वीकार भी करेंगे कि इससे उत्कृष्ट, मानव के निर्माण के लिए शायद कुछ नहीं हो सकता। अतः केन्द्र और राज्य सरकारों को आगे आकर इसकी पहल करनी चाहिए।

सरकारों और सामाजिक संगठनों के लिए करणीय

भारत को स्वतत्र हुए छः दशक से अधिक का काल हो गया। कितनी बड़ी विडम्बना है कि इतने लम्बे समय के बाद भी हमारा कहने को कुछ नहीं। न अपनी राष्ट्रभाषा, न संस्कृति, न संविधान, न शिक्षाव्यवस्था, जिसे भारतीय कहा जा सके। सब उधार का माल है। मैं समझता हूँ कि इन मामलों में वे हमारे से श्रेष्ठ भी नहीं हैं। हाँ, यदि हों तो स्वीकार करने में भी किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हमारी अपनी मान्यता है विषादपि अमृतं ग्राह्यम् अर्थात् विष से भी अमृत मिले तो ले लेना चाहिए। वेद भी कहता है- नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः (यजुर्वेद 25.14) सभी और से कल्याणकारक बुद्धिबल अर्थात् जो भी बुद्धिग्राह्य हो वह हमें प्राप्त हो। योग्य नहीं, फिर भी यदि हम उसे ढ़ोये चले जा रहे हैं तो उसके दो कारण हो सकते हैं। प्रथम ये कि हमें अपनी श्रेष्ठता की जानकारी नहीं और द्वितीय ये कि हम जानबूझ कर ऐसा कर रहे हैं। द्वितीय सम्भवतः होना नहीं चाहिए, क्योंकि हम ऐसे कृतघ्न नहीं। प्रथम के अनुसार जानकारी नहीं, तो हमारा दायित्व बनता है कि हम अपने को पहचानें। भारतवर्ष का अपना गौरवपूर्ण इतिहास और संस्कृति है। साथ ही संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा हमारी अपनी कही जाती है और उसमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति करने के लिए अथाह ज्ञानसम्पत्ति है, जिसका दोहन होना चाहिए। प्राकृतिक सम्पदा भी ऐसी कि विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं, लेकिन दुःखद है उसको समझा नहीं गया और समुचित उपयोग नहीं किया। प्रत्येक क्षेत्र में परमुखापेक्षी रहे। समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए यहाँ की आश्रम व्यवस्था और वर्णव्यवस्था की विश्व में कोई तुलना नहीं। संक्षेप में कह सकते हैं कि किस आयुवर्ग के व्यक्ति को कहाँ पर रहकर अपने जीवन का योगदान समाज के लिए देना है यह बतलाना आश्रमव्यवस्था का कार्य है और सब आलस्य प्रमादों को छोड़कर कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः (यजुर्वेद 40.2) मंत्र के अनुरूप श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कर्म करने की सदिच्छा के साथ समाज में एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा का नाम वर्णव्यवस्था है। उस प्रतिस्पर्धा में समान अवसर होते हुए जो व्यक्ति अपने बुद्धिकौशल के अनुसार जिस कर्म पर आकर ठहर जाता है, उस कर्म के अनुसार उसका वर्ण निर्धारण हो जाता है। इसप्रकार वर्णव्यवस्था में कर्म की ही तो प्रधानता है किसी को समाज में हीन दिखाने का कार्य नहीं। जो कर्म नहीं करता वह दस्यु है और दस्यु को सत्प्रेरणाओं से समाज की निर्मल धारा में लाना उपदेशकों का या दण्ड के द्वारा रास्ते पर लाना राजा का दायित्व है। बचपन से कोई दस्यु बने ही नहीं कर्मकौशल से, पुरुषार्थ से सब प्राप्य प्राप्त करे, यह बतलाना शिक्षा का कार्य है। ऐसी उत्कृष्ट शिक्षा के बीजारोपण समाज की भागदौड़ से दूर आश्रमव्यवस्था में निहित हैं, जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। ब्रह्मचारी आचार्यकुल में प्राप्त अबोध बच्चे की वैदिकी संज्ञा है। यही उसमें मुख्य केन्द्रबिन्दु होता है, जिसका सदुपदेशों से कच्चे घड़े के समान निर्माण करना होता है। उसे आचार्य अपने सान्निध्य में रखते हुए अपनी ज्ञानाग्नि से जैसा स्वरूप देता है वैसा ही मजबूत बनकर गुरुकुलरूपी तप की भट्टी से वह बाहर आता है। निषेधात्मक सोच लिए हुए जैसे आजकल उग्रवादी जेहादी तैयार करते हैं वैसे ही सकारात्मक सोच के साथ समाज के लिए अपना सब कुछ आहुत कर देने वाले सदाचरणशील, कर्त्तव्यनिष्ठ, समर्पितव्यक्तित्व के धनी आचार्य या गुरु यदि समाज को बदलना चाहें तो वास्तव में बदल सकते हैं। बस, आवश्यकता है उत्तम वातावरण बनाने की। फिर वे भी जेहादी मानव का निर्माण कर फौज खड़ी कर सकते है, लेकिन यह जेहाद समाज को दिशा देने वाले सत्कर्मों के लिए होगा विध्वंस के लिए नहीं। ऐसे व्यक्तित्व की धनी यह फौज अनेक कष्टों के आने पर भी कदाचित् उचित सत्यनिष्ठ मार्ग से विचलित न होगी। यही ध्येय प्राचीन काल में आश्रमों का होता था। जैसे चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का निर्माण किया। अधुनातन उदाहरण देश के  पिछड़े प्रदेश बिहार की राजधानी पटना का है, जहाँ एक Super 30 के नाम से ऐसा संस्थान चल रहा है जिसकी गत तीन वर्षों की उपलब्धि है कि वह निर्धन तीस बच्चों को, जो IIT-JEE की कोचिंग को पैसा देकर नहीं खरीद सकते, उन्हें निःशुल्क समर्पणभाव से शिक्षण देता है। बच्चों की श्रद्धा और गुरुओं के समर्पण व विश्वास से लगातार तीसरी बार तीस के तीस बच्चों ने IIT की कठिनतम परीक्षा को उत्तीर्ण करने का अनुकरणीय कार्य किया है, द्र0 (The Times Of India, New Delhi, Page 01, May 27, 2010)। बस, यह समर्पण का नमूना है, यही शिक्षा के क्षेत्र में होना चाहिए। तुच्छ धन के बदले अमूल्य शिक्षा के विक्रय से बचना चाहिए। यही सन्देश Super 30 ने शिक्षा का बाजारीकरण करने वालों को जोर का झटका देकर दिया है। अब ऐसी व्यवस्थाओं को मूर्तरूप देने के लिए शासन को आगे आना चाहिए और निम्नलिखित योजनाओं को कार्यान्वित करवाकर समाज को सुसमृद्ध और सुसंगठित करने में योगदान देना चाहिए।

  • सर्वप्रथम यदि सरकार वा अन्य सामाजिक संस्थाएँ मानव मात्र का कल्याण चाहती हैं। गरीब से गरीब के बच्चे को पढ़ाई कर सम्मानित जीवन जीने के लिए प्रेरित करना चाहती है। जातिप्रथा के अभिशाप को निर्मूल कर समाज के लिए कैन्सर बने आरक्षण को समाप्त करने का ध्येय रखती है। मानसिक और भौतिक प्रदूषण से समाज को छुटकारा दिलाना चाहती है, तो उन्हें तुरन्त आश्रमव्यवस्था के द्वारा विद्या अध्ययन को लागू करवाना चाहिए। ऐसा होते ही आधुनिक शिक्षाव्यवस्था में दिखाए उपर्युक्त दोष पलायन करने में देर नहीं लगायेंगे।
  • यह प्रकृति सिद्ध है कि उत्कृष्ट वस्तु का निर्माण श्रेष्ठ शिल्पी के ही हाथों द्वारा होता है। आप श्रेष्ठ मानव बनाना चाहें तो उसके लिए सिद्धहस्त को ढ़ूँढना होगा। शिक्षा के लिए सामान्य या आरक्षण से कार्य नहीं चलेगा। आज की व्यवस्था में प्रायः समस्त बुद्धि का वैभव अन्य क्षेत्रों में जा रहा है और यहाँ शिक्षा का कार्य विशेषकर प्राथमिकस्तर पर कामचलाऊ शिक्षकों से चलाया जाता है। जब कि होना विपरीत चाहिए। शिक्षकों से ही उनकी योग्यता से विपरीत चुनाव कार्य, जनगणना, पशुगणना इत्यादि सामाजिक कार्य करवाये जाते हैं। अतः प्रथम त्यागी, तपस्वी समर्पणभाव वाले योग्यतम शिक्षकों का चयन अपेक्षित होगा। शिक्षा के क्षेत्र में भी शिक्षकों का चयन आज कल की जल, थल और वायु सेना के अधिकारियों की चयन प्रक्रिया के अनुरूप अनेकों परीक्षणों और बाधाओं को पार करने वाले सबसे अधिक बुद्धिमान् का किया जाना चाहिए, जिससे वे अपना श्रेष्ठतम योगदान मनुष्यता के निर्माण में दे सकें। ये शिक्षक मातृवत् वात्सल्यभाव, सदाचारी, आध्यात्मिक, विभिन्न विद्याओं में निष्णात, कर्त्तव्यनिष्ठ, बहुभाषाविद् आदि गुणों से युक्त हों तथा इन्हें देश या समाज के अन्य दायित्वों से पूर्णतः मुक्त कर चौबीस घण्टे बच्चों के निर्माण में ही समर्पित करना चाहिए। इन्हें सब अभीष्ट सुविधाएँ भी प्राप्त करवाई जानी चाहिए। समाज उन पर पूर्ण विश्वास और श्रद्धा रखे। प्राचीन समय में शिक्षा देने का कार्य गृहस्थधर्म के समस्त दायित्वों से निर्मुक्त हुए वानप्रस्थी निर्वहन करते थे, अतः शिक्षा विना किसी शुल्क के दी जाती थी। अब भी ये व्यवस्था बनाई जा सकती है, इससे बच्चों को वृद्धजनों के जीवन का पूर्ण अनुभव और प्यार शिक्षा के साथ प्राप्त हो सकेगा। बच्चे भी उनकी सेवा शुश्रूषा कर सकेंगे। एक दूसरे को परस्पर सम्बल प्राप्त हो सकेगा। वृद्धजन अपनी योग्यता के अनुसार इन आश्रमों में कुछ भी सेवायें दे सकते हैं।
  • साम्प्रतिक काल में भी उक्त निर्देशों के अनुसार ग्राम और शहरों से दूर प्रकृति की गोद में छात्रावास, क्रीडास्थल आदि सब सुविधाओं से सुसज्जित आश्रम/विद्यालय/गुरुकुल जो भी नाम दें, स्थापित किये जाने चाहिए। इन का निर्माण जनसहयोग और सरकार द्वारा हो सकता है। इन आश्रमों में बच्चे के खान, पान और पढ़ने की हर प्रकार की चिन्ता श्रेष्ठ, निःस्पृह, समर्पित शिक्षकों के द्वारा की जायेगी, अतः माता पिता निर्द्वन्द्व हो अपने गृहस्थ जीवन को सुन्दरतम बना सकते हैं। आश्रम में रहने वाले बच्चों आदि के भोजन आदि की व्यवस्था भी जरा सी उदारता पर साल भर के लिए फसल के समय दिए गए एक-एक बोरी अन्न से ही सम्भव हो सकती है। जनसंख्या के अनुसार वह अनेक ग्रामों या एक ग्राम वा नगर का हो सकता है।
  • आश्रम में गरीब और धनवान् का अन्तर किये बगैर समानरूप से बच्चे का प्रवेश पाँच से आठ वर्ष की आयु में अनिवार्यरूप से हो जाये यह राजनियम होना चाहिए। जो माता पिता ऐसा न करें वे समाज या शासन के द्वारा दण्डनीय हों। गाँवों में यह दायित्व पंचायत को सौंपा जा सकता है और नगरों में नगरपालिका को, जिससे किसी का बच्चा घर में न रहने पाये। बच्चे माता, पिता और समाज में साक्षात् मोह न रखें जब तक पूर्ण शिक्षा न हो, इससे विना किसी घर आदि की चिन्ता के निरन्तर अध्ययन करना और करवाने का उद्देश्य पूर्ण होगा, विद्यार्जन में किसी प्रकार की बाधा न आने पायेगी। यह सबको शिक्षित करने का सीधा और सरल उपाय है। सभी को पढ़ाई करने और आगे निकलने के समान अवसर उपलब्ध करवा देने से समाज में किसी को आरक्षण देने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। न समाज में विद्वेष फैलेगा। समाज से दूर आश्रमों में बच्चों के होने से बालश्रम (Child Labour) जैसे कलंक का प्रश्न ही नहीं उठेगा। बच्चे भी समाज में पनपने वाले अनेक प्रकार के रोगों से बचे रह सकेंगे।
  • इस आश्रम व्यवस्था में राजा या रंक, सम्प्रदाय आदि के भेद के विना सब बच्चों के साथ समान व्यवहार, खान-पान, वस्त्र आदि से पोषण होने से वास्तविक साम्यवाद अनायास ही आयेगा। जातिवाद का दुश्चक्र भी समाज से शनैः शनैः समाप्त हो जायेगा।
  • समयानुसार नियमित दिनचर्या की परिपालना करवाना भी बच्चों के भविष्य और स्वास्थ्य आदि के लिए उत्तम होगा। ऐसे स्थल पर स्वयं कार्य करने की प्रवृत्ति का भी उदय होगा और बच्चा स्वावलम्बी बनेगा।
  • शारीरिक बल की उन्नति और विभिन्न खेलों में विश्व स्तर पर ख्याति अर्जित करवाने के भी आश्रम स्थल साधन बन सकते हैं। क्योंकि क्रीड़ायें सामूहिक रूप में प्रातः सायम् ही की जाया करती हैं।
  • नित्य प्रातः सायं आसन प्राणायाम, खेलकूद के द्वारा शारीरिक पोषण और मन, आत्मा की प्रबलता के लिए सन्ध्योपासना द्वारा अध्यात्म का पाठ पढ़ाना तथा वातावरण की शुद्धि के लिए अग्निहोत्र करना करवाना अपेक्षित होगा। अग्निहोत्र इसलिए कि अग्नि में पड़ी हुई आहुतियाँ इदन्न मम के द्वारा त्यागभावना को सिखाती हुईं सूक्ष्म हो सम्पूर्ण प्रकृति को सुवासित कर नई ऊर्जा का संचार वातावरण को शुद्ध और पवित्र करने में करती हैं। वस्तुतः गोघृत और प्रकृतिप्रदत्त वनस्पतियों में वह शक्ति मालूम होती है जो यज्ञीय अग्नि के माध्यम से प्रदूषण को समूल नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। वेद आदि सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय, वाल्मीकिरामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ इसकी पुरजोर वकालत करते हैं। आधुनिक विचारक दयानन्द भी पर्यावरण की शुद्धता के लिए यज्ञ को ही उत्तम मानते हैं, वे सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में क्या होम न करने से पाप होता है? के उत्तर में लिखते हैं- हाँ, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर में जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध वा उससे अधिक, वायु और जल में फैलाना चाहिये। प्रत्येक को अग्निहोत्र करने के लिए प्रेरित करते हुए पुनः वहीं अन्य प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिये और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा, तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। इन विचारों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञ के धूम से वातावरण सुगन्धित होता है और यह अनुभव सिद्ध भी है। यदि यह आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी निरीक्षित हो योग के समान प्रचार प्रसार पा जाए तो सम्भव है, भौतिक प्रदूषणों से और विभिन्न प्रकार के रोगों से मानव समाज मुक्त हो जाए। अतः इस दिशा में अनुसन्धान करने के लिए आधुनिक वैज्ञानिकों और याज्ञिकों के सम्मिलित प्रयास होने चाहिए, जिसकी आज के युग में नितान्त आवश्यकता है।
  • साथ ही प्रातः सायं के समय सदुपदेशों के द्वारा विभन्न विषयों जैसे धर्म वास्तव में किसे कहते हैं? ईश्वर, जीव, प्रकृति क्या हैं? इत्यादि पर चर्चाएँ श्रेष्ठ मानव का निर्माण करने में सहयोगी होंगी। ब्रह्मचर्य आदि का पाठ पढ़ा कर विषय वासना और विलासिता के रोगों से समाज को दूर किया जा सकता है। इसप्रकार एक स्थान पर रहने वाले बच्चों का एक साथ चहुँमुखी विकास होना सम्भव है। जिसे परिवारों में प्राप्त करना कथमपि सम्भव नहीं।
  • एक स्थान पर रहने और नियम बना देने से विभिन्नभाषाओं को भी थोड़े ही परिश्रम से बच्चे जान सकते हैं, क्योंकि भाषा बोलने और व्यवहार से आती है। ऐसे में बच्चे का विकास भी सही तरीके से होगा और श्रवण परम्परा से कथाओं के साथ श्रेष्ठ सूक्तियों आदि का स्मरण करवाना भावी जीवन के लिए फलदायक।
  • पाठ्यविषयों में भी शैशव काल के प्रथम तीन चार वर्ष में भाषाओं का पूर्ण ज्ञान करवाना ही उपयोगी हुआ करता है। जिससे समझ विकसित होने पर विषयों को बाद में ठीक से जाना जा सकता है। अन्य विषयों को आनुपूर्वीक्रम से एक-एक विषय को पढ़ाना उत्तम रहेगा। जिससे समय की उपलब्धि होने से अन्य मानसिक और आत्मिक उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त होंगे।
  • आश्रमों में श्रेष्ठ, आचारवान्, अध्यात्मनिष्ठ गुरुओं के सान्निध्य में रहकर उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने का यथासमय अवसर मिलता है और शिक्षा कkeo परम उद्देश्य श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना सम्भव होता है। फिर कार्य कुशलता और योग्यता के अनुरूप बच्चे स्वयं या आचार्य के निर्देशानुसार अपनी आजीविका ग्रहण कर सकते हैं।
  • यहाँ यह भी अवधेय है कि कन्याओं के लिए आश्रम अलग और लड़कों के लिए अलग होना वैयक्तिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से शीघ्र उन्नति करने में लाभदायक सिद्ध होगा। परस्पर आसक्ति में नहीं पड़ेंगे। दिखावा करने का भूत सवार नहीं होगा। जिससे अनेक प्रकार की असहज प्रवृत्तियों से बचा जा सकता है।
  • पहाड़ों पर तो आश्रम व्यवस्था में पढ़ाना आर्थिक आदि सभी पहलुओं में और भी उपयोगी है। सुना जाता है उत्तराखण्ड जैसे प्रान्त में सोलह ऐसे महाविद्यालय हैं, जहाँ प्रत्येक में सौ सौ की भी छात्र संख्या नहीं है। ऐसे में आश्रम व्यवस्था बहुत उपयोगी होगी।

आधुनिक शिक्षा में इसप्रकार के परिवर्तन कर समाज को वर्तमानकालिक नीतिनिर्धारक बहुत सारी विसंगतियों से बचा सकते हैं। आशा है इस दारुण स्थिति में उक्त महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार और अन्य ऐसे ही समर्थ तथा सशक्त एन॰ जी॰ ओ॰, डी॰ ए॰ वी॰ संस्थान आदि सामाजिक संगठन आगे आयेंगे। भारत के सोये स्वाभिमान को जगायेंगे और भारतीय उच्च आदर्शों और परम्पराओं की पुनः स्थापना शिक्षाव्यवस्था के माध्यम से करवा कर भारतवर्ष के खोए हुए गौरव को प्राप्त करवाने में यथाशक्ति योगदान देंगे। क्योंकि शिक्षा ऐसा माध्यम है, जिससे शीघ्र और उचित दिशा में उन्नति होने में विलम्ब नहीं हुआ करता।

निष्कर्ष-

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति अनेक समस्याओं की जड़ है। जिसका मूलोच्छेद जब तक नहीं किया जायेगा तब तक समस्त समाज को शिक्षित और मानवोचित गुणों का उसमें आधान करवाना कथमपि सम्भव नहीं होगा। मनुष्य के केवल बाह्य स्वरूप को सुधारने का कार्य आज की शिक्षा का है। जबकि बाह्य से आन्तरिक स्वरूप अधिक महत्त्व रखता है परन्तु बाह्य और आन्तरिक समुदित हुए चार चाँद लगाने में समर्थ हैं। प्राचीन आश्रम व्यवस्था विचार शक्ति को शुद्ध कर उभयविध उन्नतियों को सिद्ध करती है। इसलिए यदि समाज में मानवता लानी है, प्रकृति के प्रदूषण को बचाना है, बच्चों के विद्यालय में आवागमन हेतु लगने वाले समय को बचाना है तो प्राच्य और अर्वाच्य दोनों के मेल से एक नई शिक्षापद्धति लागू करनी होगी जो सम्पूर्ण समाज को चाहे वह निर्धन से निर्धन हो या मध्यम या बहुत धनाढ्य सब को अध्ययन का समान अवसर देवे। जिससे समाज में स्वाभाविक साम्यवाद आयेगा, जातिवाद निर्मूल होगा, कर्त्तव्यकर्म को महत्त्व दिया जायेगा, आरक्षण की आवश्यकता न होगी। गुरुकुलीय शिक्षापद्धति में प्रकृति की गोद में पढ़ने से भौतिक संसाधनों के प्रति अधिक अनुराग न होगा, आसक्ति न होगी, दिखावा न होगा। विनयभाव आयेगा और व्यक्ति वित्त, बन्धु, वय, कर्म और विद्या को क्रमशः महत्त्वशाली समझेगा, जबकि अब केवल वित्त को ही महत्त्व दिया जा रहा है। आश्रमव्यवस्था में किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बद्ध न होने से केवल मनुर्भव (ऋग्वेद 10.53.6) अर्थात् मानव बन का पाठ पढ़ाया जायेगा। प्रातः सायं सन्ध्याकाल में शरीर को पूर्ण मानसिक और शारीरिकरूप से स्वस्थ रखने के लिए अग्निहोत्र और कुछ प्राणायामों के साथ अन्तर्ध्यान करवाना अपेक्षित होगा जिससे स्वदुर्गुण यदि हैं तो उन्हें दूर करने के लिए दृढ़संकल्प शक्ति तैयार की जा सकती है। इसप्रकार जीवन स्वयमेव धार्मिक बन जायेगा, क्योंकि धर्म पूजा पाठ का नाम नहीं है। न वह मन्दिरों में है, न गुरुद्वारों में, न मस्जिदों वा चर्चों में। वस्तुतः सही से कर्त्तव्य कर्मों को करना ही धर्म है। या जिससे समाज, प्रकृति की सम्यक् संस्थिति और मोक्षरूप परम आनन्द की प्राप्ति हो, वह धर्म है।

अन्त में संक्षेप में यदि यह कहा जाये कि सम्पूर्ण देश में नवोदय विद्यालयों की तरह छात्रावासों में रहकर ही पढ़ाई करवाना सुनिश्चित कर दिया जाये तो भी प्रतिदिन करोड़ों रूपये के पर्यावरण प्रदूषण, समयहानि, जनहानि, धनहानि से बचा जा सकता है और उक्तव्यवस्था मूर्तरूप धारण कर लेवे तो देश पुनः प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में देर नहीं लगायेगा और कालिदास के रघुवंश के शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्। वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।जैसे वाक्य पुनः भारत के भाल का शृंगार बन जायेंगे।

(डॉ0 ब्रह्मदेवसंस्कृत-विभागगुरुकुलकांगड़ीविश्वविद्यालयहरिद्वार)

सम्पर्क सूत्र- 09412307123,               E-mail : brahma63@gmail.com

 

ब्रह्मकुमारी का सच : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा मैं परोपकारी का लगभग ३० वर्षों से नियमित पाठक हूँ। आपसे मैं आशा करता हूँ कि तथाकथित असामाजिक तत्वों  व संगठनों द्वारा आर्यसमाज व महर्षि दयानन्द की विचारधारा पर किए जा रहे हमलों व षड्यन्त्रों का आप जवाब ही नहीं देते, उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देने में भी सक्षम हैं। ऐसी मेरी मान्यता है। ऐसे ही एक पत्र मेरे (आर्यसमाज सोजत) पते पर दुबारा डाक से प्राप्त हुआ है। इस पत्र की फोटो प्रति मैं आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पत्र ब्रह्माकुमारी संस्था से जुड़ा किसी व्यक्ति का है, मैंने उससे फोन पर बात भी की है तथा उसे कठोर शब्दों  में आमने-सामने बैठकर चर्चा के लिए चुनौती दी है। परन्तु फोन पर उसने कोई जवाब नहीं दिया।

आपकी जानकारी हेतु पत्र की फोटो प्रति पत्र के साथ संलग्न है। पत्र लिखने वाले ने नीचे अपना नाम के साथ चलभाष संख्या भी लिखी है। कृपया आपकी सेवा में प्रस्तुत है –

धर्माचार्य जानते हैं कि वे भगवान् से कभी नहीं मिले, वे यह भी जानते हैं कि वेदों शास्त्रों द्वारा भगवान् को नहीं जाना जा सकता, फिर यह किस आधार से भगवान् को सर्वव्यापी कहते हैं? कुत्ते  बिल्ली में भी भगवान् हैं, ऐसा कहकर, भगवान् की ग्लानि क्यों करते हैं? यदि इन्हें कोई कुत्ता कहे तो कैसा लगेगा? धर्माचार्य यह भी कहते हैं कि सब ईश्वर इच्छा से होता है। जरा सोचे! कि क्या छः माह की बच्ची से बलात्कार, ईश्वर इच्छा से होता है? क्या यही है ईश्वर इच्छा? अरे मूर्खों, निर्लज्जों, राम का काम, रामलीला करना है या रावण लीला? राम की आड़ में रावण लीला करने वाले राक्षसों, सम्भल जाओ, क्योंकि राक्षसों से धरती को मुक्त कराने राम आए हैं।

-अर्जुन, दिल्ली, मो.-०९२१३३२४१३४

– हीरालाल आर्य, मन्त्री आर्यसमाज सोजत नगर, जि. पाली, राज.-३०६१०४

समाधान वर्तमान में भारत देश के अन्दर हजारों गुरुओं ने मत-सम्प्रदाय चला रखे हैं, जो कि प्रायः वेद विरुद्ध हैं। ईसाई, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, राधास्वामी, निरंकारी, धन-धन सतगुरु (सच्चा सौदा), हंसा मत, जय गुरुदेव, सत्य साईं बाबा, आनन्द मार्ग, ब्रह्माकुमारी आदि मत ये सब वेद विरोधी हैं। सबके अपने-अपने गुरु हैं, ये सम्प्रदायवादी ईश्वर से अधिक मह    व अपने सम्प्रदाय के प्रवर्तक को देते हैं, वेद से अधिक मह व अपने सम्प्रदाय की पुस्तक को देते हैं।

आपने ब्रह्माकुमारी के विषय में जानना चाहा है। ब्रह्माकुमारी मत वाले हमारे प्राचीन इतिहास व शास्त्र के घोर शत्रु हैं। इस मत के मानने वाले १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख, ५३ हजार ११५ वर्ष से चली आ रही सृष्टि को मात्र ५ हजार वर्ष में समेट देते हैं। ये लाखों वर्ष पूर्व हुए राम आदि के इतिहास को नहीं मानते हैं। वेद आदि किसी शास्त्र को नहीं मानते, इसके प्रमाण की तो बात ही दूर रह जाती है। वेद में प्रतिपादित सर्वव्यापक परमेश्वर को न मान एक स्थान विशेष पर ईश्वर को मानते हैं। अपने मत के प्रवर्तक लेखराम को ही ब्रह्मा वा परमात्मा कहते हैं।

इनके विषय में स्वामी विद्यानन्द जी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ भास्कर में विस्तार से लिखा है, उसको हम यहाँ दे रहे हैं।

‘‘ब्रह्माकुमारी मत- दादा लेखराज के नाम से कुख्यात खूबचन्द कृपलानी नामक एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति ने अपनी कामवासनाओं की तृप्ति के लिए सिन्ध में ओम् मण्डली नाम से एक संस्था की स्थापना की थी। सबसे पहले उसने कोलकाता से मायादेवी नामक एक विधवा का अपहरण किया। उसी के माध्यम से उसने अन्य अनेक लड़कियों को अपने जाल में फंसाया। इलाहाबाद के एक साप्ताहिक के द्वारा पोल खुलने पर सन् १९३७ में लाहौर में रफीखां पी.सी.एस. की अदालत में मुकदमा चला। मायादेवी ने अपने बयान में बताया कि ‘‘गुरु जी ने हमसे कहा कि तुम जनता में जाकर कहो कि मैं गोपी हूँ और ये भगवान् कृष्ण हैं। मैं बड़ी पापिनी हूँ। मैंने कितनी कुँवारी लड़कियों को गुमराह किया है। कितनी ही बहनों को उनके पतियों से दूर किया है……’’ (आर्य जगत् जालन्धर २३ जुलाई १९६१)। कलियुगी कृष्ण ने अदालत में क्षमा मांगी और भाग निकला। १३ अगस्त, १९४० में उसने बिहार में डेरा डाल दिया। चेले-चेलियाँ आने लगे। एक दिन एक बूढ़े हरिजन की युवा पत्नी धनिया को लेकर भाग खड़े हुए। फिर मुकदमा चला। धनिया ने अपने बयान में कहा- ‘‘इस गुरु महाराज ने हमें कहा था कि मैं आपका पति हूँ। ब्रह्माजी ने मुझे आपके लिए भेजा है।’’ इसी प्रकार नाना प्रकार के अनैतिक कर्म करते हुए दादा लेखराम हैदराबाद (सिन्ध) में जम गये और देवियों को गोपियाँ बनाकर रासलीलाएँ रचाने लगे। रासलीला की ओर से होने वाले व्यभिचार का पता जब प्रसिद्ध विद्वान्, ओजस्वी वक्ता और समाजसेवी साधु टी.एल. वास्वानी को चला तो वे उसके विरुद्ध मैदान में कूद पड़े। इससे सामान्यतः देशभर में और विशेषतः सिन्ध में तहलका मच गया। ओम् मण्डली के काले कारनामे खुलकर सामने आने लगे। यहाँ पर भी मुकदमा चला। पटना के ‘योगी’ पत्र से ‘सरस्वती’ (भाग ३९, संख्या खण्ड ६१, मई १९३८) का यह विवरण द्रष्टव्य है- ‘‘ओम् मण्डली पर पिकेटिंग शुरू हो गई है। सी.पी.सी. की धारा १०७ के अनुसार सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पिकेटिंग करवाने वालों के साथ ओम् मण्डली के संस्थापक और चार अन्य सदस्यों पर मुकदमा चल रहा है।’’ दादा लेखराज को कारावास का दण्ड मिला।

भारत विभाजन के बाद से ब्रह्माकुमारी मत का मुख्यालय आबू पर्वत पर है। जनवरी १९६९ में दादा लेखराज की मृत्यु के बाद से दादी के नाम से चर्चित प्रकाशमणि इस सम्प्रदाय की प्रमुख रही हैं। वर्तमान में इस संस्था या सम्प्रदाय की लगभग दो हजार से अधिक शाखाएँ संसार के अनेक देशों में स्थापित हैं। मैट्रिक तक पढ़ी प्रकाशमणि आबू से विश्वभर में फैले अपने धर्म साम्राज्य का संचालन करती रही। समस्त साधक या साधिकाएँ, प्रचारक या प्रचारिकाएँ ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी कहाती हैं। प्रचारिकाएँ प्रायः कुमारी होती हैं। विवाहित स्त्रियाँ अपने पतियों को छोड़कर या छोड़ी जाकर इस सम्प्रदाय में साधिकाएँ बन सकती हैं। ये भी ब्रह्माकुमारी ही कहाती हैं। पुरुष, चाहे विवाहित अथवा अविवाहित, ब्रह्मकुमार ही कहाते हैं। ब्रह्माकुमारियों के वस्त्र श्वेत रेशम के होते हैं। …..प्रचारिकाएँ विशेष प्रकार का सुर्मा लगाती हैं, जो इनकी सम्मोहन शक्ति को बढ़ाने में सहायक होता है। सात दिन की साधना में ही वे साधकों को ब्रह्म का साक्षात्कार कराने का दावा करती हैं।

अनुभवी लोगों के अनुसार –

‘तप्तांगारसमा नारी घृतकुम्भसमः पुमान्’

अर्थात् स्त्री जलते हुए अंगारे के समान और पुरुष घी के घड़े के समान है। दोनों को पास-पास रखना खतरे से खाली नहीं है। गीता में लिखा है-

यततो ह्यापि कौन्तये पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।

अर्थात् यत्न करते हुए विद्वान् पुरुष के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक मनमानी की ओर खींच ले जाती हैं। भर्तृहरि ने कहा है-

विश्वामित्र पाराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि

स्त्रीमुखपङ्कजे सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगता।

अन्नं घृतदधिपयोयुतं भुञ्जति ये मानवाः,

तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरम्।।

अर्थात्- विश्वामित्र, पाराशर आदि महर्षि जो प ाों, वायु और जल का ही सेवन करते थे, वे भी स्त्री के सुन्दर मुखकमल को देखते ही मुग्ध हो गये थे। फिर घी, दुग्ध, दही आदि से युक्त अन्न खाने वाले मनुष्य यदि इन्द्रियों को वश में कर लें तो विन्ध्यपर्वत समुद्र में तैरने लगे।

इसलिए भगवान् मनु ने एकान्त कमरे में भाई-बहन के भी सोने का निषेध किया है।

वस्तुतः ब्रह्माकुमारों और कुमारियों का समागम मध्यकालीन वाममार्गियों के भैरवी चक्र जैसा ही प्रतीत होता है। दादा लेखराज तो ब्रह्माकुमारियों के साथ आलिंगन करते, मुख चूमते तथा…..। भक्तों का कहना है कि ब्रह्माकुमारियाँ तो उनकी पुत्रियों के समान हैं और दादा उनके पिता के समान। जैसे बच्चे उचक कर पिता की गोद में जा बैठते हैं, वैसे ही ब्रह्माकुमारियाँ दादा लेखराज की गोद में जा बैठती थीं और वे उन्हें पिता के  समान प्यार  करते थे।

बिठाकर गोद में हमको बनाकर वत्स सेते हैं, जरा सी बात है।

बनाने को हमें सच्चा समर्पण माँग लेते हैं।

हमें स्वीकार कर वस्तुतः सम्मान देते हैं।

लोकलाज कुल मर्यादा का, डुबा चलें हम कूल किनारा।

हमको क्या फिर और चाहिए, अगर पा सकें प्यार तुम्हारा।।

– भगवान् आया है, पृ. ५०, ५१, ६९

इनके धर्मग्रन्थ ‘सच्ची गीता’ पृष्ठ ९६ पर लिखा है-

‘‘बड़ों में भी सबसे बड़ा कौन है, जो सर्वोत्तम ज्ञान का सागर और त्रिकालदर्शी कहा जाता है। मेरे गुण सर्वोत्तम माने जाते हैं। इसलिए मुझे पुरुषो      ाम कहते हैं।’’

पुरुषो      ाम श द की दो निरुक्तियाँ होती हैं- एक है-

‘पुरुषेषु उ       ामः इति पुरुषो ामः।’

जो व्यक्ति परस्त्रियों के साथ रमण करता है, उन्हें अपनी गोद में बैठाता है और उनके….. उसे इन अर्थों में तो पुरुषो    ाम नहीं कहा जा सकता।

दूसरी निरुक्ति-

‘पुरुषेषु ऊतस्तेषु उ  ाम इति पुरुषो ामः’

के अनुसार दादा लेखराज को पुरुषो  ाम मानने में किसी को कोई आप      िा नहीं होनी चाहिए।

आश्चर्य की बात है कि अपनी सभाओं और सम्मेलनों में देश-परदेश के राजनेताओं, शासकों, न्यायाधीशों, पत्रकारों, शिक्षा शास्त्रियों तक को आमन्त्रित करने वाली ब्रह्माकुमारी संस्था मूल सिद्धान्तों, दार्शनिक मान्यताओं तथा कार्यकलापों को ये अभ्यागत लोग नहीं जानते। हो सकता है, वे ब्रह्माकुमारियों के….. खिंचे चले आते हों। आज तक निश्चित रूप से यह पता नहीं चल सका कि इस संस्था के करोड़ों रुपये के बजट को पूरा करने के लिए यह अपार राशि कहाँ से आती है। कहा जाता है कि ब्रह्माकुमारियाँ ही अपने घरों को लूट कर लाती हैं। पर उतने से काम बनता समझ में नहीं आता। कुछ स्वकल्पित चित्रों और चार्टों तथा रटी-रटाई श     दावली में अपने मन्तव्यों का परिचय देने वाली ब्रह्माकुमारियाँ और ब्रह्मकुमार राजयोग, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण, गीता आदि की बातें तो करते हैं, परन्तु सुपठित व्यक्ति जल्दी ही भाँप जाता है कि महर्षि पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित राजयोग तथा व्यासरचित गीता का तो ये क, ख, ग भी नहीं जानते। ये विश्वशान्ति और चरित्र निर्माण के लिए आडम्बरपूर्ण आयोजन करते हैं, शिविर लगाते हैं, कार्यशालाएँ संचालित करते हैं, किन्तु उनमें से किसी का भी कोई प्रतिफल दिखाई नहीं देता।’’

पाठक, ब्रह्माकुमारी के मूल संस्थापक के चरित्र को इस लेख से जान गये होंगे, आज के रामपाल और उस समय के लेखराज में क्या अन्तर है? आर्यसमाज सदा से ही गलत का विरोधी रहा है, आज भी है। ब्रह्माकुमारी वाले अपने मूल सिद्धान्तों के लिए आर्यसमाज से चर्चा वा शास्त्रार्थ करना चाहे, तो आर्यसमाज सदा इसके लिए तैयार है।

आपने जो इनका पत्र संकलित कर भेजा है उसी से ज्ञात हो रहा है कि ये वेद-शास्त्र के निन्दक व वेदानुकूल ईश्वर को न मानने वाले हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

आखिर क्या है वैलेंटाइन डे? शिवदेव आर्य

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भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को समाज में इस प्रकार तोड़ा जा रहा है जिसका कोई बखान नहीं कर सकता और यदि लेखनी भारतीयता की व्यथा को व्यक्त करने की कोशिश भी करे तो उसे चारों ओर से कुचलने का प्रयास किया जाता है। पुनरपि ये लेखनी अपने कतव्र्य को कैसे भूल सकती है। ये तो अपने कर्म के प्रति सदैव कटिबद्ध रहती है। इसी लिए इसे ब्राह्मण की गौ कहा गया है अर्थात् ब्राह्मण की वाणी। ब्राह्मण को वेद सदैव आदेश देता है कि तू अपने कर्तव्य (जागृति) का विस्तार सदा करता रहे। जब-जब भी समाज में अन्धकार का वर्चस्व फैला है तब-तब लेखनी ने सूर्य के अद्वितीय प्रकाश के समान अन्धकार का दमन किया है।

आज भी कुछ इसी प्रकार हो रहा है। सभी को घोर अन्धकार ने इसप्रकार घेर लिया है जैसे किसी व्यक्ति के पास अपनी श्रेष्ठ वस्तु है किन्तु वह दूसरे की तुच्छ वस्तु से इतना आकृष्ट हो जाता है कि अपनी श्रेष्ठ वस्तु को भूला देता है।

हमारे देश में ऋतुओं के अनुसार पर्व तथा उत्सव मनाने की अद्वितीय परम्परा है । वसन्त पंचमी, मकर संक्रान्ति, माघ पूर्णिमा, श्रावणी उपाक्रम, होलिकोत्सव, दीपोत्सव आदि अनेक पर्व इस देश में एक नवीन ऊर्जा का संचार करते है किन्तु दुर्भाग्य है इस भारतवर्ष की युवा पीढ़ी का, जिसने अपने ऊर्जावान् पर्वों को भूला दिया और पाश्चात्य पर्वों को मनाने की प्रथा शुरू कर दी। पाश्चात्य देशों में उन पर्वों को मनाने के पीछे कोई न कोई कारण जरुर रहा होगा, जिसकी वहां आवश्यकता होगी। किन्तु बिना किसी कारण को जाने हमारे भारतवासी भाई लोग इन पर्वों को अपनी मन-मर्जी से मनाते हैं। मनाने के साथ-साथ कभी यह भी विचार नहीं करते कि हम जो ये पर्व मना रहे है, इसका उद्देश्य क्या है? क्या लाभ होगें? इत्यादि।

वैलेंटाइन डे, फ्रैंडशिप डे आदि अनेक पाश्चात्य पर्वों को मनाने के लिए हम सदैव उद्यत रहते हैं किन्तु अपने पर्वों को मनाने के लिए जगाना पड़ता है, शोभायात्राएं निकालनी पड़ती हैं, लोगों को भारतीय पर्वों की ओर आकृष्ट करने के लिए प्रलोभन दिये जाते हैं। फिर भी भारतीय पर्वों के प्रति निराशा भरा वातावरण चहु ओर दृष्टिगोचर होता है।

अभी हाल में ही फरवरी मास में युवाओं को अपनी ओर सर्वाधिक आकृष्ट करने वाला पाश्चात्य सभ्यता का पर्व वैलेंटाइन डे आ रहा है। जिस पर्व के सत्यार्थ को न समझ लोग मौज-मस्ती में निमग्न हो सब कुछ गलत कर बैठते है। बिना शादी-सुदा हुए ही भोग-विलासता की सभी हदें पार कर देते हैं। आखिर क्या कारण है, जो इस पर्व को मनाया जाता है? इसके पीछे क्या रहस्य छिपा हुआ है? क्योंकि पर्व मनाने के पीछे कोई न कोई उद्देश्य एवं रहस्य अवश्य छिपा होता है। इस वैलेंटाइन डे की भी बहुत लम्बी कहानी है।

सुहृद पाठकों!

आज से कई वर्षों पूर्व यूरोप की दशा वर्तमान यूरोप से बहुत निम्नस्तर की थी। यूरोप में पहले शादियां नहीं होती थी। लोग रखैलों में विश्वास रखते थे। पूरे यूरोप भर मे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिल सकता, जिसकी एक शादी हुई हो अथवा जिसका एक स्त्री के साथ सम्बन्ध रहा हो। ये परम्परा उनके यहां आज से ही प्रचलित नहीं है अपितु कई हजार वर्षों से  यही होता चला आ रहा है। यूरोप के बड़े-बडे़ लेखक, विचारक तथा दार्शनिक भी इन्हीं परम्पराओं में संलिप्त थे। वे भी  ऐसे ही मौज-मस्ती भरे जीवन को जीना पसन्द करते थे। प्लूटो जैसा दार्शनिक भी एक स्त्री से सम्बन्ध नहीं रखता प्रत्युत अनेक स्त्रीयों से  रखता था। प्लूटो खुद इस बात को इस प्रकार लिखता है कि  ‘ मेरा 20-22 स्त्रीयों से सम्बन्ध रहा है।’ अरस्तु, रुसो आदि पाश्चात्य विचारक इसी प्रकार के थे। इन सभी पाश्चात्य दार्शनिकों ने हैवानियत की सभी हदें पार करते हुए मातृतुल्य पूजनीय स्त्रीयों के सन्दर्भ में एकमत होकर कहते हैं कि- ‘ स्त्री में तो आत्मा होती ही नहीं है। स्त्री तो मेज और कुर्सी के समान है, जब पुरानी से मन भर जाये तो नयी का प्रयोग करो’।

ऐसी घृणित मान्यता को देख कई बार लोगों का पत्थर दिल भी पिघल कर विद्रोह की भावना को जन्म देता है। ऐसे अनेक यूरोपियन हुए जिन्होंने बीच-बीच में इस प्रचलन का विरोध किया। ऐसे ही विरोधियों में एक वैलेंटाइन नामक  व्यक्ति भी था। जिसने इस कुप्रथा के प्रति आवाज उठायी। उसका कहना था कि हम लेग जो शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं, वह  कुत्तों की तरह, जानवरों की तरह का है, ये अच्छा व्यवहार नहीं है। इससे शारीरिक रोग होते हैं। इसका सुधार करो, एक पति एक पत्नी के साथ विवाह करके ही रहे, विवाह के बाद ही शारीरिक सम्बन्धों को स्थापित करें। ऐसी बातों को वैलेंटाइन ने घूम-घूम कर लोगों को बताया और लोग भी जागृत हुए।संयोगवश वह एक चर्च के पादरी बन गये। चर्च में आने वाले प्रत्येक नागरिक को ऐसी ही सलाह देने लगे तो लोग प्रायः पूछ लेते कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो? अपनी परम्पराओं को क्यों तोड़ना चाहते हो? दोष युक्त होने पर भी अपनी संस्कृति तो अच्छी होती है, पुनरपि आप ये सब क्यों कर रहे हो? इसके उत्तर में वह कहते कि आज-कल मैं भारतीय सभ्यता और दर्शन का अध्ययन कर रहा हूं और मुझे लगता है कि भारतीय सभ्यता तथा भारतीय जीवन श्रेष्ठ हैं और इसे स्वीकार करने में कोई हनि भी नहीं है। इसीलिए आप लोग मेरी बात को स्वीकार करो, कुछ लोग उनकी उस बात को स्वीकार करते और कुछ लोग अस्वीकार कर देते। धीरे-धीरे चर्च में ही शादीयां कराने लगे। सैकड़ों की संख्या में शादी होने लग गई तथा अनेक लोग इस घृणित कार्य से रुक गये। वैलेंटाइन के इस कार्य की सूचना पूरे रोम में जगह-जगह होने लगी। धीरे-धीरे ये बात रोम के राजा क्लौड़ीयस तक भी पहुंच गयी। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने तुरन्त वैलेंटाइन को बुलाकर कहा कि – तुम ये क्या गलत काम कर रहे हो? तुम अधर्म क्यों फैला रहे हो? अपसंस्कृति को अपना रहे हो? हम बिना शादी के रहने वाले लोग हैं, मौज-मस्ती में डूबे रहने वाले लोगों को तू बन्धन में बांधना चाहते हो, ये सब गलत है। वैलेंटाइन ने कहा – महाराज! मुझे लगता है कि ये ठीक नहीं है। ये बोलते ही राजा ने एक न सुनी और तुरन्त ही उसे फांसी की सजा सुना दी। क्लौड़ीयस ने उन सब को बुलाया, जिनकी वैलेंटाइन ने शादी करायी थी।

14 फरवरी 498 ई.वी को खुले मैदान में, सार्वजनिक रूप से वैलेंटाइन को सजा दे दी गई। जिन लोगों की वैलेंटाइन ने शादी करायी थी, वो लोग बहुत दुःखी हुए, इसी दुःख की याद में वैलेंटाइन डे मनाना शुरु हुआ।

आज ये वैलेंटाइन डे भारत में भी आ गया है पर ये बिल्कुल विपरीत है। जिस भारतवर्ष को वैलेंटाइन ने एक आदर्शवादी देश के रूप में स्वीकार कर अपने देश को भी उसी प्रकार बनाने का विचार किया था। जिस देश में शादी होना एक मान्य बात है, आज वहीं बिना शादी के घुमना तो एक आमबात (सामान्य) है। कहां हम किसी के आदर्शवादी थे और आज हम अपने देश को उसी गर्त में ले जाना चाह रहे हैं, जिस  गर्त से वैलेंटाइन अपने देश को बचाना चाहता है।

भारतीय लोग पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण मात्र ही नहीं कर रहे अपितु उसका अन्धानुकरण कर रहे हैं। वैलेंटाइन डे का यह दिवस बड़ा विचित्र है। जो दिवस उस पाश्चात्य महापुरुष के दुःख के रूप में स्वकीर किया जाता है। आज वही दिवस उसके सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीति होता जा रहा है। भारतवर्ष में शादी के पवित्र बन्ध को तोड़ने के लिए इस दिवस को मनाया जाता है।

अब ये वैलेंटाइन हमारे स्कूलों, काॅलेजों व विश्वविद्यालयों में आ गया है, बड़ी धूम-धाम के साथ इसे मनाया जा रहा है। लड़के-लड़कियां बिना कुछ सोचे-विचारे एक दूसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं। और जो कार्ड होता है उसमें लिखा होता है कि- “Would You Be My Valentine” । इसका मतलब  किसी को मालूम नहीं होता है और अन्धी दौड़ में बस भागते ही रहते हैं। वो समझते हैं कि हम जिस किसी से प्यार करते हैं उसको ये कार्ड दिया जाता है, इसलिए इस कार्ड को वो सभी को दे देते हैं। ये कार्ड एक या दो लोगों को नहीं देते अपितु दस-बीस लोगों को दे देते हैं। कोई उनको इस कार्ड में लिखे वाक्य का तात्पर्य भी नहीं समझाता।

इस कार्य को बढ़ावा देने के लिए टेलीविजन चैनल इसका बहुत प्रचार तथा प्रसार करते हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियां अपने काम-धंधे को विस्तृत करने के लिए कार्ड, गिफ्ट, चाॅकलेट आदि को दुगुनी अथवा तीगुनी रकम में बेचते हैं।

यदि किसी लड़की को गुलाब दिया जाये और वह लड़की उस गुलाब को स्वीकार कर ले तो वैलेंटाइन और न स्वीकार करे तो उसी क्षण उसके चहरे पर तेजाब डाल दिया जाता है। ये कैसी परम्परा है? जिस कन्या को देवी के तुल्य समझा जाता है, उसी देवी के साथ खिलवाड़  हो रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि नारी ने बहुत तरक्की की है, लेकिन यह भी सच है कि हमारे पुरुष प्रधान देश में आज भी नारी को दबाया जाता है। समय आ गया है कि हम नारी का सम्मान करें। क्योंकि कहा भी गया है- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्त रमन्ते तत्र देवता’। आओ! हम सब मिलकर नारी का सम्मान करें। देश को पुनः विश्वगुरु बनाने का यत्न करें।

 

Author can be reached at:

शिवदेव आर्य

गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून-248007

shivdevaryagurukul@gmail.com

 

अम्बेडकर वादी का गलत गायत्री मन्त्र का अर्थ और उसका प्रत्युत्तर

कुछ दिन पहले एक अंबेडकरवादी नवबौद्ध मूलनिवासी  ने एक पोस्ट मे गायत्री मन्त्र का अत्यन्त गंदा और असभ्य अर्थ किया था और कुछ दुष्ट मुल्लों ने उस पोस्ट को बहुत अधिक शेयर किया था।
उस पोस्ट मे उस अम्बेडकरवादी   ने प्रचोदयात् शब्द को प्र+चोदयात को अलग कर के अत्यन्त असभ्य अर्थ किया है। इस मन्त्र पर विचार करने से पहले संस्कृत के कुछ शब्दो पर विचार करे जो हिन्दी मे बिलकुल अलग अर्थों मे प्रयोग करते हैं।संस्कृत के अनेक शब्द हिन्दी में अपना अर्थ आंशिक या पूर्ण रूप से बदल चुकें हैं।
पूरण रूप से अर्थ परिवर्तन- उदाहरण-
1-अनुवाद- (हिन्दी)-भाषान्तर, Translation
(संस्कृत)- विधि और विहित का पुनःकथन (विधिविहितस्यानुवचनमम्नुवादः -न्यायसूत्र 4।2।66),
प्रमाण से जानी हुई बात का शब्द द्वारा कथन( प्रमाणान्तरावगतस्यार्थस्य शब्देन सङ्कीर्तनमात्रमनुवादः -काशिका)
2-जयन्ती- (हिन्दी)- जन्म तिथि (संस्कृत)—पताका,आयुर्वेद में औषधि
3- प्रकाशन- (हिन्दी)किसी पुस्तक को छपना या छपवाना, Publication (संस्कृत) – उजाला, प्रकट करना
4-सौगन्ध-(हिन्दी)- कसम (संस्कृत)- सुगन्धि, सुगन्धि युक्त
5-कक्षा- (हिन्दी)- विद्यालय की श्रेणि (संस्कृत)- रस्सी, हाथी को बान्धने की जंजीर, परिधि
6-निर्भर-(हिन्दी)- आश्रित (संस्कृत)-अत्याधिक, जैसे निर्भरनिद्रा= गहरी नींद (हितोपदेश)
7- विश्रान्त- (हिन्दी) थका हुआ (संस्कृत) – विश्राम किया हुआ
आंशिक रूप से अर्थ परिवर्तन – उदाहरण-
1- धूप- (हिन्दी)- सूर्य का ताप, सुगंधित धुंआ (संस्कृत)-सुगन्धित धुंआ, सूर्य ताप संस्कृत में नहीं है
2- वह्नि- (हिन्दी)- आग (संस्कृत)- आग, ले जानेवाला
3- साहस- (हिन्दी) – हिम्मत, कठिन कार्य में दृढता, उत्साह,वीरता, हौसला आदि।
(सस्कृत) संस्कृत में साहस के ये अर्थ भी हैं परन्तु संस्कृत में साहस शब्द लूट, डाका, हत्या आदि के अर्थों में प्रयोग होता है।4 प्रजा- (हिन्दी)- राजा के अधीन जनसमूह (संस्कृत)- राजा के अधीन जनसमूह, सन्तान

पुरानी हिन्दी पुस्तकों मे भी ऐसे शब्दों का प्रयोग मिलता है जो आधुनिक हिन्दी के अर्थों के प्रतिकूल और संस्कृत के शब्दों के अनुकूल है —-उदाहरण –
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस –

1- मुदित महीपति मंदिर आए । सेवक सचिव सुमंत बुलाए ॥ यहाँ मंदिर का अर्थ देवालय न होकर राजमहल है।
2- करहूँ कृपा प्रभु आस सुनी काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥ – यहाँ पर निर्भर का अर्थ आश्रित न हो कर भरपूर है ।
3- खैर खून खांसी खुशी क्रोध प्रीति मद पान। रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान॥
यहाँ पर पान का अर्थ हिन्दी मे पान का पत्ता (ताम्बूल) न होकर पीना है। आधुनिक हिन्दी मे पान का प्रयोग पौधे के पत्ते के लिए होता है ।
हिन्दी मे बहुत से शब्द ऐसे हैं जो देशज शब्द कहलाते हैं जो संस्कृत से कोई सम्बंध नहीं रखते जैसे लड़का, छोरा, लुगाई, चारपाई, कुर्सी आदि।
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यदि मैं इंगलिश के CAT का अर्थ कुत्ता , RAT का अर्थ हाथी करूँ और यह जिद्द करूँ कि सभी इंगलिश जानने वाले गधे हैं। केवल मेरा अर्थ ही सही माना जाए तो क्या यह कोई स्वीकार करेगा। इसलिए गायत्री मंत्र का अर्थ भी वेद व संस्कृत के विशेषज्ञों द्वारा किया गया ही स्वीकार किया जाएगा।

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नीचे वेद के विद्वान महर्षि दयानन्द जी द्वारा सत्यार्थ प्रकाश मे गायत्री मंत्र का जो अर्थ किया है वह दिया जा रहा है।

ओ३म् भूर्भुवः स्व: । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
इस मन्त्र में जो प्रथम (ओ३म्) है उस का अर्थ प्रथमसमुल्लास में कर दिया है, वहीं से जान लेना। अब तीन महाव्याहृतियों के अर्थ संक्षेप से लिखते हैं-‘भूरिति वै प्राणः’ ‘यः प्राणयति चराऽचरं जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः’ जो सब जगत् के जीवन का आवमार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है। ‘भुवरित्यपानः’ ‘यः सर्वं दुःखमपानयति सोऽपानः’ जो सब दुःखों से रहित, जिस के संग से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। ‘स्वरिति व्यानः’ ‘यो विविधं जगद् व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः’ । जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सब का धारण करता है इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं। (सवितुः) ‘यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य’। जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्य का दाता है । (देवस्य) ‘यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः’ । जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिस की प्राप्ति की कामना सब करते हैं। उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) ‘वर्त्तुमर्हम्’ स्वीकार करने योग्य अतिश्रेष्ठ (भर्गः) ‘शुद्धस्वरूपम्’ शुद्धस्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्म स्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) ‘धरेमहि’ धारण करें। किस प्रयोजन के लिये कि (यः) ‘जगदीश्वरः’ जो सविता देव परमात्मा (नः) ‘अस्माकम्’ हमारी (धियः) ‘बुद्धीः’ बुद्धियों को (प्रचोदयात्) ‘प्रेरयेत्’ प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।
यहाँ ओ३म का अर्थ – सर्वव्यापक रक्षक आदि है
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जो चित्र मैंने पोस्ट के साथ लगाया है उसमे सायण (SY) महीधर (Mah) उदगीथ (U ) व आचार्य सायण की भाष्य भूमिका (BB) का उदाहरण दिया है।
प्रचोदयात् के अर्थ को रेखांकित किया है

(नोट – आंबेडकर वादी के वेदों के अश्लील अर्थ के  किया है ये सिर्फ उसी व्यक्ति के लिए है )
जिसे यहाँ देखे –

चलें यज्ञ की ओर…. शिवदेव आर्य, गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून

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वेद व यज्ञ हमारी संस्कृति के आधार स्थम्भ हैं। इसके बिना भारतीय संस्कृति निश्चित ही पंगु है। यज्ञ का विधिविधान आदि काल से अद्यावधि पर्यन्त अक्षुण्ण बना हुआ है। इसकी पुष्टि हमें हड़प्पा आदि संस्कृतियों में बंगादि स्थलों पर यज्ञकुण्डों के मिलने से होती है।

वैदिक काल में ऋषियों ने यज्ञों पर अनेक अनुसन्धान किये। अनुसन्धान की प्रथा वहीं तक समाप्त नहीं हो गई अपितु इसका निर्वाहन निरन्तर होता चला आ रहा  है।  यज्ञ से प्राप्त अनेक लाभों को दृष्टि में रखते हुए शतपथ ब्राह्मणकार ने लिखा है कि ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतं कर्म’ अर्थात् यज्ञ संसार का सबसे श्रेष्ठ कर्म है और इसी श्रेष्ठ कर्म को करने  से मनुष्य सर्वदा सुखी रहता है। इसी बात को ऋग्वेद में निरुपित करते हुए लिखते हैं कि-

‘ईजानाः स्वर्गं यन्ति लोकम्’

यज्ञ शब्द के  विवेचन से हमें ज्ञात होता कि ‘यज्ञदेवपूजासंगतिकरणदानेषु’ इस धातु से यज्ञ शब्द सि द्ध होगा, जिसका अर्थ होगा – देवताओं की पूजा, संगतिकरण तथा दान।

देवपूजा से तात्पर्य है कि देवों की पूजा अर्थात् परमपिता परमेश्वर, अग्नि,  वायु, इन्द्र, जल, विद्युत्, सूर्य, चन्द्र आदि देवताओं एवं वेदविज्ञ विद्वान् मनीषियों का यथावत् आदर सत्कार करना। संगतिकरण का अर्थ होगा कि पदार्थों की परस्पर संगति करना। संगतिकरण शब्द ही यज्ञ में विज्ञान का द्योतक है। यही शब्द यज्ञ में विज्ञान को सिद्ध करता है। क्योंकि सम्पूर्ण विज्ञान में पदार्थों का संयोग ही तो है। इस यज्ञ में अनेकशः पदार्थों का हवि के रूप में संयोग होता है। दान अर्थात् परोपकार के कार्यों को करना। यज्ञ में वेदमन्त्रों के द्वारा पदार्थों को अग्नि में आहुत किया जाता है। अग्नि उस पदार्थ को सूक्ष्म करके अन्तरिक्ष में जाकर सभी प्राणियों को लाभ प्रदान करता है। यह परोपकार करने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। यज्ञ हमारे जीवन का अमूल्य अंग है। इस बात को प्रकाश जी की ये पंक्ति सिद्ध करती  हैं कि-

यज्ञ जीवन का हमारे श्रेष्ठ सुन्दर कर्म है।

यज्ञ करना-कराना आर्यों का धर्म है।।

                महर्षि देव दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में उद्धृत किया  है कि ‘जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त देश रोगों  से रहित और सुखों से पूरित था। अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये।’

यज्ञ शब्द के अर्थ से यज्ञ के अनेक लाभ स्वयं ही  सिद्ध हो जाते हैं। वेद-मन्त्रों में यज्ञ के बहुशः लाभों को उद्धृत किया गया है। यज्ञ हमारे परर्यावरण की हानिकारक दुर्गन्ध युक्त वायु को समाप्त कर शुद्ध वायु  को स्थान प्रदान कराता है। यह पदार्थ विद्या  का ही परिणाम है। अग्नि का ही यह सामथ्र्य है कि वह हानिकारक वायु को वहां से हटा कर शुद्ध वायु का प्रवेश कराती है। इससे पर्यावरण की शुद्धि तथा रोगों का विनाश अपने आप ही हो जाता है क्योंकि प्रायः करके सभी रोग पर्यावरण के प्रदुषण होने के कारण ही होते हैं।

जिन रोगों का शमन करने के लिए मेडिकल साइंस आज तक मौन है वहां यही यज्ञ चिकित्सों रोगों का शमन करती है। अथर्ववेद में यज्ञ चिकित्सा का बहुत विस्तृत पूर्वक वर्णन किया गया है।

यज्ञ के गुणों का वखान करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज अपने अमर-ग्रन्थ सत्यार्थ-प्रकाश के द्वादश (12) समुल्लास में लिखते हैं कि ‘अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना, उससे धर्म, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है।’

वेद हमें स्पष्ट रूप से यज्ञ करने का आदेश देता है कि -मनुष्यैरेवं भूतो यज्ञः सदैव कार्यः…..(यजुर्वेद-१.२२), कस्त्वा विमुंचति स त्वा विमुंचति कस्मै त्वा विमुंचति…(यजुर्वेद-२.२३)  इत्यादि मन्त्रों के माध्यम से ऋषि हमें नित्य-प्रति यज्ञ कर अपने चरमपद (मोक्ष) को पाने के लिए सदैव उद्यत रहना चाहिए, ऐसा  उपदेश देते हैं।

‘वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार’

veda adhyan

ओ३म्

वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार

                सृष्टिकाल के आरम्भ से देश में अनेक ऋषि व महर्षि उत्पन्न हुए हैं। इन सबकी श्रद्धा व पूरी निष्ठा ईश्वरीय ज्ञान वेदों में रही है। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा हमारे अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उनकी आत्मा में अपने आत्मस्थ स्वरूप से प्रेरणा द्वारा प्रदान किये थे। आप्त प्रमाणों के अनुसार इन ऋषियों ने यह ज्ञान ब्रह्माजी को दिया और ब्रह्माजी से इन चारों वेदों को सृष्टि के आरम्भ में अन्य स्त्री व पुरूषों को पढ़ाये जाने की परम्परा का आरम्भ हुआ। इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि ब्रह्मा जी को ईश्वर से सीधा ज्ञान नहीं मिला। ब्रह्मा जी को वैदिक संस्कृत भाषा और वेदों का ज्ञान अग्नि आदि चार ऋषियों से मिला। इसी प्रकार से ब्रह्माजी सहित इन 5 ऋषियों के अतिरिक्त अमैथुनी सृष्टि में जितने भी स्त्री-पुरूष उत्पन्न हुए थे वह सभी ज्ञान रहित थे। उनके पास न तो वेदों का ज्ञान था और न किसी भाषा का ही। भाषा के ज्ञान के लिए भी माता-पिता अथवा आचार्य की आवश्यकता होती है। उपलब्ध विवरण से यही ज्ञात होता है कि इन सबको भाषा व वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी से प्राप्त हुआ। यदि यह बात सत्य है, जो कि प्रमाणानुसार है, तो ब्रह्मा जी को इन सभी स्त्री व पुरूषों को पढ़ाने में बहुत लम्बा समय लगा होगा। इन मनुष्यों की कुल संख्या का विवरण भी प्रमाणिक साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। हो सकता है कि इनकी संख्या एक सौ से 1000 के बीच या इससे भी अधिक हो सकती है। पूर्णतः ज्ञान शून्य युवा स्त्री पुरूषों को पढ़ाना ब्रह्मा जी के लिए काफी कठिन रहा होगा। पहले तो उन्हें स्वयं ही चार ऋषियों से अध्ययन करने में लंबा समय लगा होगा और फिर अन्य सभी स्त्री व पुरूषों को चारों वेदों का भाषा सहित ज्ञान देना अत्यन्त ही कठिन अनुभव होता है। परन्तु यह अवश्य हुआ और आज तक यह परम्परा चली आयी है। अतः इस पर सन्देह करने का कोई औचीत्य नहीं है।

 

यहां एक प्रश्न विचारार्थ और लेना चाहते हैं। शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध विवरण के अनुसार ईश्वर द्वारा अन्तर्यामीस्वरूप से अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान ईश्वर द्वारा इनकी जीवात्माओं में प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुआ था। इन ऋषियों ने इन वेदों का ज्ञान ब्रह्माजी को कराया। यहां एक प्रश्न और उसका उत्तर उपस्थित हो रहा है कि ब्रह्माजी सहित यह पांचों ऋषि किसी एक स्थान पर एकत्र हुए होंगे। यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा से ही हुआ होगा। इसके बाद सबसे पहले अग्नि ऋषि ने ब्रह्माजी को ऋग्वेद के मन्त्र सुनाएं होंगे और ब्रह्माजी एक-एक मन्त्र करके उनको स्मरण कर रहे होंगे। कहीं शंका होने पर अग्नि ऋषि से पूछते भी होंगे? मन्त्र रटाने के बाद फिर वह उनका अर्थ भी ब्रह्माजी को बताते होंगे और ब्रह्माजी उनसे अपनी शंकाओं का निवारण करते होंगे। जब अग्नि ऋषि द्वारा ब्रह्माजी को ऋग्वेद का पाठ व अध्ययन कराया जा रहा होगा तो वहां वायु, आदित्य और अंगिरा बैठे हुए यह सब कुछ देख व सुन रहे होंगे। यह स्वाभाविक है कि इससे इन तीन ऋषियों को भी ब्रह्माजी सहित ऋग्वेद का ज्ञान हो गया होगा। इसके बाद वायु ने ब्रह्माजी को यजुर्वेद का अध्ययन व पाठ कराया होगा और अब अग्नि, आदित्य व अंगिरा ऋषियों ने इस वार्तालाप को देख व सुन कर यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया होगा। और इसी प्रकार से क्रमशः सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान भी ब्रह्माजी सहित सभी ऋषियों को हो गया होगा। कुछ विद्वान हमारे इस अनुमान पर आपत्ति कर सकते हैं कि इसका उल्लेख तो शास्त्रों में है नहीं। हमारा उत्तर है कि यह सामान्य बात है कि जब दो व्यक्ति बातें कर रहें हों तो वहां उपस्थित अन्य व्यक्ति भी उनकी बातों को सुनते हैं। बैठकों में एक व्यक्ति बोलता है तो सभी उपस्थित जन उसकी बातों को सुनते हैं और प्रश्नोत्तर करते हैं। ऐसा ही आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संगों व वार्षिकोत्सव की बैठकों में भी होता है। अतः इस प्रकार की आपत्ति का कोई आधार नहीं बनता। इस प्रकार से अध्ययन समाप्त होने पर पांचों ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मा वेदों के ज्ञानी बन गये होंगे और इसके बाद इन्होंने अलग-अलग वा मिलकर शेष शताधिक या सहस्राधिक स्त्री-पुरूषों को ज्ञान कराया होगा। इस अमैथुनी सृष्टि के बाद मैथुनी सृष्टि भी आरम्भ होनी थी जो कि निश्चित रूप से हुई और इन उत्पन्न नई पीढ़ी के बालक व बालिकाओं को इन ऋषियों व शेष स्त्री पुरूषों में से योग्य विदुषी और विद्वान पण्डितों द्वारा सभी बच्चों को अध्ययन कराया गया होगा। इस प्रकार से सृष्टि के आरम्भ में अध्ययन अध्यापन की परम्परा प्रचलित होने का अनुमान है।

 

हमने एक अन्य प्रश्न पर भी विचार किया है। वह यह कि सृष्टि के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए उन्हें वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में भारी कठिनाई होती होगी। मनुष्यों का आत्मा जो आज है वही सृष्टि के आरम्भ में भी था। हमारा शरीर पंच भूतों से मिलकर बना था। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में भी सभी ऋषियों व साधारण जनों का शरीर भी इन्हीं पंचभूतों से बना था। भिन्नता केवल यही हो सकती है कि उनकी आत्माओं के संस्कार हमारी आत्माओं से उत्कृष्ट रहे हो सकते हैं। यदि ऐसा न होता तो अध्ययन अध्यापन व वेदों के ज्ञान के पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, अनुत्पन्न, अजर अमर भी है। अतः सृष्टिकर्ता ईश्वर ने हर समस्या का निदान अपने विवेक से पहले ही किया हुआ रहा होगा। इस आधार पर जब हम देखते हैं तो हमें आदि अमैथुनी सृष्टि व उसके बाद की अनेकानेक पीढि़यों में उच्च कोटि के योगियों व मुनियों की सृष्टि अनुभव होती है। यह ऋषियों से पढ़ व सुन कर तत्काल उसे जान लेते होंगे। जिन वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में कठिनता होती होगी उसे यह समाधि लगाकर ईश्वर से पूछ लेते होंगे या क्रमशः मन्त्रों पर विचार व चिन्तन कर अर्थ जान लेते होंगे जैसा कि महर्षि दयानन्द किया करते थे। और जब यह परम्परा सुस्थापित हो गई तो फिर धीरे-धीरे बुद्धि व स्मरण शक्ति का ह्रास होने लगा। ऐसा होने पर भी देश व समाज में अनेक ऋषि-मुनियों के होने पर हर समस्या का हल विवेक पूर्वक ढूंढा जाता रहा होगा। ऐसा होते-होते महाभारत काल का समय आ गया। रामायण-कालीन और महाभारत-कालीन वर्णन इन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं ही। इस क्रम को यहां रोक कर हम पहले आदिकालीन मनुष्यों द्वारा भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तथा इस क्रम को इसके बाद जारी रखेगें।

 

क्या मनुष्य स्वयं भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति कर सकता है? इसका उत्तर हमें नहीं में मिलता है। इसका कारण यह है कि सर्वप्रथम भाषा जो भी हो या होती है, उसके निर्माण के लिए ज्ञान का होना आवश्यक है। ज्ञानहीन व्यक्ति बुद्धिपूर्वक ज्ञान का कोई काम नहीं कर सकता। भाषा क्या है? यह वाक्यों का समूह होती है। वाक्य शब्दों से मिलकर बनते हैं। शब्द संज्ञायें, सर्वनाम व क्रियाओं आदि के रूप में होते हैं। इसके आतरिक्त का, को, कि, से, पर, में आदि जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग भी होता है। यह सभी शब्द कुछ मिश्रित ध्वनियों के उच्चारण से बनते हैं। इन ध्वनियों को पृथक-पृथक किए बिना, जैसा कि हिन्दी की वर्णमाला देवनागरी लिपि में है, भाषा बन नहीं सकती। इसको बनाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता अपरिहार्य है। ज्ञान है ही नहीं तो भाषा कदापि नहीं बन सकती। भाषा से पूर्व विचार करना होगा, विचार भाषा में ही हो सकता है, भाषा ज्ञान की वाहिका है व ज्ञान का आधार व मूल भाषा है। अतः ज्ञान बिना भाषा के रहता ही नहीं और जब भाषा ही नहीं है तो भाषा बनाने के लिए अपेक्षित ज्ञान न होने के कारण भाषा नहीं बन सकती है। इससे सिद्ध होता है कि आदि भाषा वैदिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत में निहित ज्ञान “चार वेद” सर्वप्रथम सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्राप्त हुए थे। इस ईश्वर कृत वैदिक संस्कृत भाषा के प्राप्त होने पर अध्ययन का क्रम चल पड़ता है और देश, काल व परिस्थिति के अनुसार उच्चारण दोषों आदि से नई-नई भाषायें बना करती हैं। हमारा यह भी निवेदन है कि इस विषय पर मौलिक विचारों को जानने के लिए महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित उनके सभी ग्रन्थ उपयोगी हैं।

 

पुनः रामायण व महाभारत से आगे चर्चा करते हैं। महाभारत काल के बाद का इतिहास पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा है। इसका एक कारण विधर्मियों द्वारा तक्षशिला और नालन्दा के पुस्तकालयों को आग के समर्पित कर देना रहा। दूसरा कारण महाभारत काल के बाद आलस्य प्रमाद भी बढ़ता रहा और देश में अध्ययन व अध्यापन की सक्षम वा कारगर व्यवस्था व प्रणाली न रही जिससे महर्षि दयानन्द तक घोर अज्ञान व अन्धविश्वासों का समय हमारे देश में आया। विदेशों का कुछ-कुछ हाल भी अनुमान व उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर जाना जा सकता है। इतना और कहना समीचीन होगा कि महाभारत काल तक के लम्बे समय में देश में अनेकानेक ऋषि-मुनि हुए जिन्होंने ब्राह्मण, दर्शन, उपनिषद, ज्योतिष, आयुर्वेद, संस्कारों आदि के अनेकानेक ग्रन्थों का प्रणयन किया था। सौभाग्य की बात है कि इन विपरीत परिस्थितियों में हमारे अनेक ग्रन्थ सुरक्षित रह सके, यह ईश्वर की हम पर बहुत महती कृपा है। दूसरी कृपा हम पश्चिम के वैज्ञानिकों की भी मानते हैं जिन्होंने कागज, मुद्रण प्रेस, कमप्यूटर आदि नाना प्रकार के यन्त्र व संयत्रों का आविष्कार किया जिससे आज हमारे पास न केवल चार वेद, दर्शन व उपनिषदें ही विद्यमान हैं अपितु चारों वेदों के अनेक विद्वानों के भाष्य एवं इतर विपुल वैदिक साहित्य भी सुलभ है। हमारा अनुमान है महाभारत काल उससे पूर्व भी आजकल की तरह एक व्यक्ति के पास सहस्रों ग्रन्थ नहीं रहा करते होंगे जैसे कि आजकल हैं। यह आधुनिक युग की देन जिसका अधिकांश श्रेय पश्चिमी जगत के वैज्ञानिकों को है। इस कार्य में सबसे अधिक यदि किसी अन्य का महनीय योगदान है तो वह महर्षि दयानन्द सरस्वती व उनके अनुयायियों का है। हम उनके चरणों का वन्दन करते हैं। यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे देश के लोगों सहित विदेश के लोगों ने भी उनका उचित मूल्याकंन नहीं किया और न ही उनके द्वारा की गई आध्यात्मिक खोजों से लाभ उठाया है। राजनैतिक व अनेक सामाजिक दलों ने तो उनकी जानबूझकर उपेक्षा की है और उनसे न्यून व विपरीत ज्ञान तथा आचरण में भी कमजोर लोगों को उनसे अधिक योग्य सिद्ध करने का प्रयास किया है व किए जा रहे हैं। हम महर्षि दयानन्द की जय बोलकर इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘धर्म प्रवतर्कों व प्रचारकों के लिए वेद-ज्ञानी होना अपरिहार्य’

veda knower

ओ३म्

धर्म प्रवतर्कों प्रचारकों के लिए वेदज्ञानी होना अपरिहार्य


देश व विदेशों में नाना मत मतान्तर, जो स्वयं को धर्म कहते हैं, सम्प्रति प्रचलित हैं। इनमें से कोई भी वेदों को या तो जानता ही नहीं है और यदि वेदों का नाम आदि जानता भी है तो वेदों के यथार्थ महत्व से वह सर्वथा अपरिचित होने के कारण वेदों का उपयोग नहीं कर सकता। क्या बिना वेदों का ज्ञान प्राप्त किए किसी सत्य मत की स्थापना की जा सकती है? हमारा अध्ययन कहता है कि बिना वेदों के यथार्थ ज्ञान के धर्म की स्थापना नहीं की जा सकती। यदि की गई है व की जायेगी तो वह धर्म न होकर मत व मजहब होगा और वह पूर्ण सत्य मान्यताओं पर आधारित नहीं हो सकता है। यह बात सभी मतों व सम्प्रदायों पर पर समान रूप से लागू होती है। वेद के ज्ञान से विहीन मत पूर्ण सत्य क्यों नहीं होंगे, इसका कारण यह है कि ईश्वर ने इस ब्रह्माण्ड तथा मनुष्यों को बनाया है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वज्ञ है और मनुष्य एकदेशी, ससीम व अल्पज्ञ है। ईश्वर के सर्वव्यापक और सर्वज्ञ होने तथा मनुष्यों व अन्य सभी प्राणियों को उत्पन्न करने से केवल वह ही जानता है कि जीवात्मा को क्या करना चाहिये और क्या नहीं? कोई भी मनुष्य, विद्वान या महापुरूष जो भी पूर्ण सत्य धर्म को जानने का प्रयास करेगा उसमें वह पूर्णतः सफल नहीं हो सकता। अल्पज्ञ होने के कारण वह ईश्वर की सहायता के बिना सत्य ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। अतः उसे ईश्वर की शरण में जाना ही होगा और उससे पूछना पड़ेगा कि मनुष्यों के कर्तव्य और अकर्तव्य क्या हैं? ईश्वर से पूछने पर उसे पहले ईश्वर में एकाकार अर्थात् समाधिस्थ होना पड़ेगा। सभी के लिए यह सम्भव नहीं होता। अतः वह स्वयं, अपने आचार्यों व विद्वानों से ईश्वर के प्रति मनुष्यों के कर्तव्यों के विषय में ज्ञान प्राप्त करेंगे जो कि कुछ व अधिकांश सत्य हो सकता है परन्तु उसका कुछ या बड़ा भाग असत्य या अर्धसत्य भी हो सकता है।

 

इस कारण मनुष्य सत्य धर्म का निर्धारण नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में मनुष्य के सामने क्या विकल्प बचता है? इसका एक ही विकल्प है कि संसार में सबसे प्राचीनतम ज्ञान क्या है, इसे जानने का प्रयास करे। ऐसा करने पर उसे वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, बाल्मिकी रामायण, महाभारत, जेन्दावस्था, बाइबिल, कुरआन, बौद्धों और जैनियों के मत वा धर्म की पुस्तकें व 18 पुराण आदि प्राप्त होती है। अब उसका कर्तव्य है कि वह एक-एक करके सभी ग्रन्थों का पूर्ण निष्पक्षता, सूक्ष्मता व गम्भीरता से  अध्ययन करे। इसमें वह अनेक विद्वानों की सहायता भी ले सकता है। इस अध्ययन के बाद जो बातें सब पुस्तकों में निर्विवाद हैं उन्हें धर्म माना जा सकता है या कहें कि वह मान्यतायें व सिद्धान्त निर्विवाद रूप से संसार के प्रत्येक व्यक्ति का धर्म हैं। अब जिन विषयों में एक से अधिक मत या विचार सामने आते हैं, उन्हें लेकर गोष्ठी व चर्चा की जानी चाहिये। पहली कसौटी तो यह हो सकती हैं कि क्या वह मान्यतायें तर्क व युक्ति से सिद्ध होती हैं। यदि वह तर्क संगत हैं तो तर्क संगत को स्वीकार कर उनका संग्रह करना चाहिये और तर्कहीन, युक्ति विरूद्ध एवं सृष्टि कर्म के विरूद्ध मान्यताओं को त्याग देना चाहिये। इस प्रकार तर्क व युक्ति आदि की कसौटी पर जो बाते सिद्ध हैं, वह स्वीकार्य और उसके विपरीत बातें अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड व अकर्तव्य होती हैं। उन बातों को जो तर्क संगत व युक्ति संगत हैं, उन्हें वेद के साथ तुलना कर देखना होगा कि क्या इनमें कोई मान्यता या सिद्धान्त वा बात वेद विरूद्ध तो नहीं है? वेद विरूद्ध मान्यताओं और वेद की मान्यताओं को तर्क, युक्ति व सृष्टि कर्म के अनुकूल होने पर अथवा निभ्र्रान्त होने पर ही स्वीकार किया जा सकता है। यह कार्य महर्षि दयानन्द ने सन् 1836 से आरम्भ कर सन् 1860 तक किया और उसके बाद 30 अक्तूबर, 1883 को अपने देहावसान तक जारी रखा। उन्होंने पाया कि वेदों की कोई भी बात तर्क विरूद्ध या युक्ति विरूद्ध नहीं है। वेदों की सभी बातें सृष्टिक्रम के अनुकुल हैं व सिद्ध योगी उनके निभ्र्रान्त होने का अनुभव अपनी समाधि अवस्था में करता है। यह भी रोचक तथ्य है कि असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था केवल वैदिक व सनातन मत के कुछ थोड़े से ही लोगों को प्राप्त होती है, अन्य मत वालों को इसका लाभ नहीं मिलता। इस कारण उन्होंने वेदों में विहित मान्यताओं को धर्म स्वीकार किया है। अन्य सभी मत-मतान्तरों की बातें जो वेदों के सिद्धान्तों के विपरीत या विरूद्ध न हों उन्हें भी उन्होंने ग्राह्य व धर्म स्वीकार किया जाना चाहिये या वह धर्म के अन्तर्गत आयेंगी। इस प्रकार से जो मनुष्यों के कर्तव्य व मान्यतायें सत्य सिद्ध होती हैं वही सारे संसार का धर्म कहलाती हैं व हो सकती हैं। इस प्रकार से यह धर्म सारे संसार के लोगों के लिए एक ही सिद्ध होता है।

 

यदि हम ऐसा नहीं करते तो फिर हमें अन्य-अन्य मत का अनुयायी बनना पड़ेगा जैसे कि हम वर्तमान में हैं। इससे हम मनुष्य जन्म के उद्देश्य, जो इस संसार को बनाने वाला ईश्वर हमसे अपेक्षा करता है और जिससे जीवन की इस जन्म व परजन्म में उन्नति व मोक्ष आदि की प्राप्ति होती है, उस करूणासिन्धु व दयानिधान ईश्वर के निकट जाने के स्थान पर हम उससे दूर होते जायेंगे। इससे हानि हमारी ही होनी है, इसे सभी मनुष्यों को समझना है। ईश्वर क्योंकि अनादि, अजंन्मा, नित्य और सर्वज्ञ है और इस सृष्टि का रचयिता, पालक और इसका नियंत्रक है, समस्त प्राणी जगत का वह आधार व रचयिता एवं पालक है, अतः उसके द्वारा प्रवर्तित धर्म ही मनुष्य धर्म हो सकता है।

 

अब हम इस प्रश्न पर विचार कर लेते है कि क्या ईश्वर धर्म प्रचार के लिाए सृष्टि के आदि काल के बाद शेष अवधि में किसी मनुष्य को अपने पुत्र, मत-धर्म-प्रवर्तक, प्रचारक आदि के रूप में भेजता है? इसका उत्तर यह मिलता है कि ईश्वर ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा के द्वारा चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया जो यथार्थ मनुष्य धर्म है। यह धर्म किसी एक जाति या समूह, सम्प्रदाय आदि के लिए नहीं अपितु संसार के सभी लोगों के लिए है। वेदों पर किसी एक जाति, मत या सम्प्रदाय के मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है अपितु यह ज्ञान प्रत्येक मनुष्य के लिए है और वह इसको जानने, समझने व आचरण करने के पूर्ण अधिकारी हैं। यदि कोई यह समझता या मानता है कि वेदों पर किसी एक जाति, धर्म या सम्प्रदाय के लोगों का ही अधिकार है, इतर मतों के अनुयायियों व अन्यों को अधिकार नहीं है तो ऐसे लोग पहले भी अज्ञान ग्रस्त थे और आज भी अज्ञान ग्रस्त हैं। वेदों पर मानवमात्र व सभी जातियों, मतवादियों वा धर्मानुयायियों का समान अधिकार है। हां कोई वेद का दुरूप्योग न करे, इसका पूरा पूरा प्रबन्ध होना चाहिये। इस चर्चा से यह सिद्ध होता है कि वेद मानव धर्म है और इसके सत्य स्वरूप को जानकर इसका प्रचार करना ही उचित है। इससे इतर अन्य किसी धर्म की मनुष्यों को किंचित आवश्यकता नहीं है। जो वेद ज्ञान के पूर्ण अधिकारी या ज्ञानी नहीं है, उन्हें धर्म का प्रचार करने का अधिकार नहीं है जबकि आजकल इसके विपरीत हो रहा है। यदि वह ऐसा करेंगे या कर रहे हैं तो उनके अज्ञान व स्वार्थ के कारण देश व समाज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ना अनिवार्य है। चूंकि वेद स्वयं में सर्वांगीण व पूर्ण मानव धर्म है, वेद सब सत्य विद्याओं वा धर्म की प्रथम व अन्तिम पुस्तकें है, इसमें कोई कमी या त्रुटि नहीं है, अतः ईश्वर सृष्टि उत्पत्ति के बाद वेदों का ही ज्ञान देता है और उसके बाद वह किसी को मत-धर्म स्थापना के लिए नहीं भेजता है।

 

आज कल हम देश भर में अनेक धर्म गुरुओं को प्रवचन आदि के द्वारा प्रचार करते हुए देख रहे हैं। यद्यपि वह प्रचार तो कर रहे हैं परन्तु उसे धर्म प्रचार की संज्ञा नहीं दी सकती। यह भी कहा जा सकता है कि गुरूडमों को बढ़वा दे रहे हैं। अभी पिछले दिनों हमने कई धर्म गुरूओं व गुरूडमों का कच्चा चिट्ठा जाना है। उनके व अन्य धर्म गुरुओं के प्रवचनों व उपदेशों में बहुत सा भाग वेदों के विरूद्ध होता है। बहुत कुछ उनकी अपनी मान्यतायें होती हैं जिसके पीछे उनके अज्ञान व स्वार्थ भी होते हैं। हमारे भोले व धर्म-अज्ञानी बन्धु अल्पज्ञ होने के कारण उनके निहित स्वार्थों को जान नहीं पाते और उनका अन्धानुकरण करते वह कर रहे हैं। उनका यह कार्य देश में एक सामाजिक समस्या को भी उत्पन्न कर रहा है। सबसे श्रेष्ठ समाज वही हो सकता है कि जहां सभी लोग एक मत व एक विचारधारा के मानने वाले हों। परमात्मा एक है, सत्य एक है अतः धर्म भी एक ही होना चाहिये जो कि ईश्वर की आज्ञा के पालन को कहते हैं। क्या ईश्वर की आज्ञायें अनेक मत संस्थापकों या प्रचारकों के अनुयायियों के लिए अलग-अलग हो सकती हैं? कदापि नहीं। वेद समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्। समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि।। तथा समानी आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति।।कहकर संसार के सभी मनुष्यों के लिए एक धर्म, एक मत का उदघोष करते हैं। अतः सभी को अज्ञानी व स्वार्थी गुरूओं के अन्धभक्त बनने से बचना चाहिये और स्वयं स्वाध्याय वा अध्ययन कर तथा सत्पुरूषों की शरण में जाकर ईश्वर के द्वारा सृष्टि के आरम्भ में दिये गये वेद ज्ञान को अपनाना, मानना व पालन करना चाहिये। इसी से उनके इस जीवन का और परजन्म का कल्याण होगा, यह सुनिश्चित है। धर्म जिज्ञासुओं को हम सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने का भी सुझाव देंगे। वेदों का यह भी शाश्वत व विशिष्ट सन्देश है कि संसार के सभी लोग एवं प्राणी परस्पर भाई-बहिन हैं और ईश्वर हमारा माता-पिता, आचार्य, राजा व न्यायाधीश है।

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

क्या आर्य विदेशी थे ?

आजकल एक दलित वर्ग विशेष (अम्बेडकरवादी ) अपने राजनेतिक स्वार्थ के लिए आर्यों के विदेशी होने की कल्पित मान्यता जो कि अंग्रेजी और विदेशी इसाई इतिहासकारों द्वारा दी गयी जिसका उद्देश्य भारत की अखंडता ओर एकता का नाश कर फुट डालो राज करो की नीति था उसी मान्यता को आंबेडकरवादी बढ़ावा दे रहे है | जबकि स्वयम अम्बेडकर जी ने “शुद्र कौन थे” नाम की अपनी पुस्तक में आर्यों के विदेशी होने का प्रबल खंडन किया है | आश्चर्य की बात है कि अम्बेद्कर्वादियो के आलावा तिलक महोदय जेसे अदलितवादी लेखक ने भी आर्यों को विदेशी वाली मान्यता को बढ़ावा दिया है | पहले इस मान्यता द्वारा द्रविड़ (दक्षिण भारतीय ) और उत्तर भारतीयों में फुट ढल वाई गयी जबकि जिसके अनुसार उत्तर भारतीयों को आर्य बताया और उन्हें विदेशी कह कर मुल्निवाशी दक्षिण भारतीयों का शत्रु बताया और हडप्पा और मोहनजोदड़ो को द्रविड सभ्यता बताया लेकिन फिर बाद में इन्होने द्रविड़ो को भी विदेशी बताया और भारत में मुल्निवाशी दलित और आदिवासियों को बताया .. जबकि न तो उन्होंने आर्यों को समझा और न ही दस्युओ को ,वास्तव में आर्य नाम की कोई नस्ल या जाति कभी थी ही नही आर्य शब्द एक विशेषण है जिसका अर्थ श्रेष्ट है | और कई लोगो ,महापुरुषों और भाषाओ में आर्य शब्द का प्रयोग किया गया है | आर्य शब्द की मीमासा से पहले मै कुछ अंश विदेशी इतिहास कारो और विद्वानों के उद्दृत करता हु जिससे उन लोगो के षड्यंत्र और कपट का पता आप लोगो को चलेगा … इस सन्धर्भ में मेकाले का प्रमाण देता हु मेकाले ने अपने पिता  को एक पत्र लिखा था जिसमे उसने उलेख किया है कि हिन्दुओ को अपने धर्म और धर्मग्रन्थो के खिलाफ भड़का कर कर अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार कर इसाईयत को बढ़ावा देना था ,देखे मेकाले का वह पत्र –

इसी तरह life and letter of maxmullar में भी maxmullar का एक पत्र मिलता है जिसको उसने १८६६ में अपनी पत्नि को लिखा था पत्र निम्न प्रकार है – ” *I hope I shall finish the work and I feel convinced though I shall not live to see it yet this addition of mine and the translation of the vedas will here after tell to great extent on the fate of india and on the growth of millions of souls in that country. it is the root of their religion and to show them what the root is I feel sure, is the way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.”
अर्थात मुझे आशा है कि मै यह कार्य सम्पूर्ण करूंगा और मुझे पूर्ण विश्वास है ,यद्यपि मै उसे देखने को जीवित न रहूँगा, तथापि मेरा यह संस्करण वेद का आध्न्त अनुवाद बहुत हद तक भारत के भाग्य पर और उस देश की लाखो आत्माओ के विकास पर प्रभाव डालेगा | वेद इनके धर्म का मूल है और मुझे विश्वास है कि इनको यह दिखना कि वह मूल क्या है -उस धर्म को नष्ट करने का एक मात्र उपाय है ,जो गत ३००० वर्षो से उससे (वेद ) उत्त्पन्न हुआ है |
इसी तरह एक और दितीय पत्र मेक्समुलर ने १६ दि. १८६८ को भारत के तत्कालीन मंत्री ड्यूक ऑफ़ आर्गायल को लिखा था –
” the ancient religion of india is doomed , if christianity does not step in , whose fault will it be ?
अर्थात भारत के प्राचीन धर्म का पतन हो गया है , यदि अब भी इसाई धर्म नही प्रचलित होता है तो इसमें किसका दोष है ?
इन सबसे विदेशियों का उद्देश हम समझ सकते है |
क्या आर्य इरान के निवासी थे –                                                                                                               
इस षड्यंत्र के तहत इन्होने आर्य को इरान का निवाशी बताया है और आज भी सीबीएसई आदि पुस्तको में यही पढ़ाया जाता है कि आर्य इरान से भारत आये जबकि ईरानियो के साहित्य में इसका विपरीत बात लिखी है वहा आर्यों को भारत का बताया है और आर्य भारत से ईरान आये ऐसा लिखा है जिसे हम सप्रमाण उद्द्रत करते है –
“चंद  हजार साल पेश अज  जमाना माजीरा  बुजुर्गी  अज  निजाद  आर्यों  अज  कोह  हाय  कस्मने  मास्त  कदम  निहादन्द  | ब  चू  आवो  माफ्त न्द  दरी  जा  मसकने  गुजीदन्द द  आरा  बनाम  खेश  ईरान  खिया द न्द |”( जुगराफिया  पंज  किताऊ  बनाम  तदरीस  दरसाल  पंजुम  इब्त दाई  सफा  ७५ ,कालम  १ सीन  अव्वल  व  चहारम  अज  तर्क  विजारत  मुआरिफ  व  शुरशुद 🙂
अर्थ – अर्थात कुछ हजार साल पहले आर्य लोग हिमालय पर्वत से उतर कर यहा आये और यहा का जलवायु अनुकूल पाकर ईरान में बस गये |
इस प्रमाण से आर्यों के ईरान से आने की कपोल कल्पना का पता चलता है और उसका खंडन भी हो जाता है |
क्या आर्य उतरी ध्रुव से आये थे ?                                                                                                             
इस मान्यता को बल दिया बाल गंगाधर तिलक ने उन्होंने आर्यों को उतरी ध्रुव का बताया लेकिन जब उमेश चंद विद्या रत्न ने उनसे इस बारे में पूछा तो उनका उत्तर काफी हास्य पद था | देखिये तिलक जी ने क्या बोला –“आमि  मुलवेद  अध्ययन  करि  नाई  | आमि  साहब  अनुवाद  पाठ  करिया  छे  “( मनेवर  आदि  जन्म भूमि  पृष्ठ  १२४ )
अर्थात – हमने  मुलवेद नही पढ़ा , हमने तो साहब (विदेशियों ) का किया अनुवाद पढ़ा है |
उतरी ध्रुव विषयक अपनी मान्यताओ के संधर्भ में तिलक महोदय ने लिखा है – It is clear that soma juice was extracted and purified at neight in the arctic ” 
अर्थ – ” उतरी ध्रुव में रात्रि के समय सोमरस निकला जाता था “| तिलक जी की इस मान्यता का उत्तर देते हुए नारायण भवानी पावगी ने अपने ग्रन्थ ” आर्यों वर्तालील आर्याची जन्मभूमिं ” में लिखा है –
” किन्तु  उतरी ध्रुव में सोम लता  होती ही नही ,वह तो हिमालय के एक भाग मुंजवान  पर्वत  पर  होती  है ” 
इससे स्पष्ट है कि आर्यों के उत्तरी ध्रुव के होने की लेखक की अपनी कल्पना थी | वास्तव में जब तक आर्यों को एक जाति और नस्ल की दृष्टि से देखेंगे तो इसी तरह की समस्या आती रहेंगी आर्यों से पहले हमे आर्य शब्द के बारे में जानना चाहिय |
आर्य शब्द की मीमासा –                                                                                                                              
आर्य शब्द का प्रयोग अनेक अर्थो में वेदों और वैदिक ग्रंथो में किया गया है , जिसे मुख्यत विशेषण ,विशेष्य के लिए प्रयोग किया गया है |
निरुक्त ६/२६ में यास्क ” आर्य: ईश्वरपुत्र:” लिख कर आर्य का अर्थ ईश्वर पुत्र किया है | ऋग्वेद ६/२२/१० में आर्य का प्रयोग बलवान के अर्थ में हुआ है |
ऋग्वेद ६/६०/६ में वृत्र को आर्य कहा है अम्बेद्कर्वदियो का मत है कि वृत्र अनार्य था जबकि ऋग्वेद में ” हतो वृत्राण्यार्य ” कहा है यहाँ आर्य शब्द बलवान के रूप में प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है बलवान वृत्र और वृत्र का अर्थ निघंटु में मेघ है अर्थात बलवान मेघ |

इसी तरह वेदों के एक मन्त्र में उपदेश करते हुए कहा है ” कृण्वन्तो विश्वार्यम ” अर्थात सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ यहाँ आर्य शब्द श्रेष्ट के अर्थ में लिया गया है यदि आर्य कोई जाति या नस्ल विशेष होती तो सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ ये उपदेश नही होता |

आर्य शब्द का विविध प्रयोग –                                                                                                                     
  1. ऋग्वेद १/१०३/३ ऋग. १/१३०/८ और १०/४९/३ में आर्य का प्रयोग श्रेष्ठ के अर्थ में हुआ है |
  2. ऋग्वेद ५/३४/६ ,१०/१३८/३ में ऐश्वर्यवान (इंद्र ) के रूप में प्रयुक्त हुआ है |
  3. ऋग्वेद ८/६३/५ में सोम के विशेषण में हुआ है |
  4. ऋग्वेद १०/४३/४ में ज्योति के विशेषण में हुआ है |
  5. ऋग्वेद १०/६५/११ में व्रत के विशेषण में हुआ है |
  6. ऋग्वेद ७/३३/७ में प्रजा के विशेषण में हुआ है |
  7. ऋग्वेद ३/३४/९ में वर्ण के विशेषण में हुआ है |

ऋग्वेद १०/३८/३ में ” दासा आर्यों ” शब्द आया है यहाँ दास का अर्थ शत्रु ,सेवक ,भक्त आदि ले और आर्य का महान ,श्रेष्ट और बलवान तो दासा आर्य इस पद का अर्थ होगा बलवान शत्रु ,महान भक्त .श्रेष्ठ सेवक आदि | यहाँ दास को आर्य कहा है |

अत: स्पष्ट है कि आर्य शब्द नस्ल या जातिवादी नही है बल्कि इसका अर्थ होता है महान ,श्रेष्ठ ,बलवान .ऐश्वर्यवान ,ईश्वरपुत्र , आदि जो की विश्व के किसी भी व्यक्ति ,जाति ,वंश के लिए प्रयुक्त हो सकता है |
अन्य महापुरुषों द्वारा ,सभ्यताओ ,भाषा में आर्य शब्द –                                                                          
” ईरान के राजा आर्य मेहर की उपाधि लगाते थे क्यूंकि वे अपने आप को सूर्यवंशी क्षत्रिय समझते थे |”
” अनातौलिया की हित्ती भाषा में आर्य शब्द पाया जाता है “
“न्याय दर्शन १-१० पर वात्सायन भाष्य में आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है | “
” महाभारत में अनेक स्थलों के साथ साथ उद्योग पर्व में आर्य शब्द का उलेख है “
” रामायण बालकाण्ड में आर्य शब्द आया है –     • श्री राम के उत्तम गुणों का वर्णन करते हुए वाल्मीकि रामायण में नारद मुनि ने कहा है – आर्य: सर्वसमश्चायमं, सोमवत् प्रियदर्शन: | (रामायण बालकाण्ड १/१६) अर्थात् श्री राम आर्य – धर्मात्मा, सदाचारी, सबको समान दृष्टि से देखने वाले और चंद्र की तरह प्रिय दर्शन वाले थे “
” किष्किन्धा काण्ड १९/२७ में बालि की स्त्री पति के वध हो जाने पर उसे आर्य पुत्र कह कर रुधन करती है |”
” भविष्य पुराण में अह आर्य में आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है इसी में मुहम्मद को मलेछ बताया है “
” मृच्छकटिका नाटक में ” देवार्य नंदन ” शब्द में आर्य का प्रयोग हुआ है “
आर्य से आरमीनियो शब्द बना है जिसका अर्थ है शूरवीर “
• श्री दुर्गा सप्तशती में श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् के अंतर्गत देवी के १०८ नामों में से एक नाम आर्या आता है | (गीता प्रेस गोरखपुर पृष्ठ ९
• छन्द शास्त्र में एक छन्द का नाम आर्या भी प्रसिद्ध है |
    भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने जब देखा कि वीर अर्जुन अपने क्षात्र धर्म के आदर्श से च्युत होकर मोह में फँस रहा है तो उसे सम्बोधन करते हुए उन्होंने कहा – कुतस्त्वा कश्मलमिदं, विषमे समुपस्थितम् | अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम्, अकीर्ति करमर्जुन | (गीता २/३) अर्थात् हे अर्जुन, यह अनार्यो व दुर्जनों द्वारा सेवित, नरक में ले-जानेवाला, अपयश करने वाला पाप इस कठिन समय में तुझे कैसे प्राप्त हो गया ?
यहा श्री कृष्ण ने अर्जुन को आर्य बनाने के लिए अनार्यत्व के त्याग को कहा है |
सिखों के गुरुविलास में आर्य शब्द का उलेख – ” जो तुम सुख हमारे आर्य | दियो सीस धर्म के कार्य |

बौद्धों के विवेक विलास में आर्य शब्द -” बौधानाम सुगतो देवो विश्वम च क्षणभंगुरमार्य  सत्वाख्या यावरुव  चतुष्यमिद क्रमात |”
” बुद्ध वग्ग में अपने उपदेशो को बुद्ध ने चार आर्य सत्य नाम से प्रकाशित किया है -चत्वारि आरिय सच्चानि (अ.१४ ) “
धम्मपद अध्याय ६ वाक्य ७९/६/४ में आया है जो आर्यों के कहे मार्ग पर चलता है वो पंडित है |
जैन ग्रन्थ रत्नसार भाग १ पृष्ठ १ में जैनों के गुरुमंत्र में आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है – णमो अरिहन्ताण णमो सिद्धाण णमो आयरियाण णमो उवज्झाणाम णमो लोए सब्ब साहूणम “यहा आर्यों को नमस्कार किया है अर्थात सभी श्रेष्ट को नमस्कार
• जैन धर्म को आर्य धर्म भी कहा जाता है | [पृष्ठ xvi, पुस्तक : समणसुत्तं (जैनधर्मसार)]
जैनों में साध्वियां अभी तक आर्या वा आरजा कहलाती हैं
काशी विश्वनाथ मंदिर पर आर्य शब्द लिखा हुआ है |
इस तरह अन्य कई प्रमाण है आर्य शब्द के प्रयोग के जिन्हें विस्तार भय से यहाँ नही लिखते है |

दस्यु अनार्य शब्दों की मीमासा – कुछ इतिहासकारों का मत है कि वेदों में दास ,असुर आदि शब्दों द्वारा भारत के मुल्निवाशियो (द्रविड़ो या आदिवासियों ,दलितों ) को सम्बोधित किया है जबकि वेदों में दास ,असुर शब्द किसी जाति या नस्ल के लिए प्रयुक्त नही हुआ है बल्कि इसका भी आर्य के समान विशेषण ,विशेष्य आदि पदों में प्रयोग हुआ है | यहा कुछ प्रमाण द्वरा स्पष्ट हो जाएगा – अष्टाध्यायी ३/३/१९ में दास का अर्थ लिखा है -दस्यते उपक्षीयते इति दास: जो साधारण प्रत्यन्न से क्षीण किया जा सके ऐसा साधारण व्यक्ति वा. ३/१/१३४ में आया है ” दासति दासते वा य: स:” अर्थात दान करने वाला यहा दास का प्रयोग दान करने वाले के लिए हुआ है | इसी के ३/३/११३ में लिखा है ” दासति दासते वा अस्मे” अर्थत जिसे दान दिया जाए यहा दान लेने वाले को दास कहा है अर्थात ब्रह्मण यदि दान लेता है तब उसे भी दास कहते है |” इसी में ३/१/१३४ में दास्यति य स दास: अर्थात जो प्रजा को मारे वह दास ” यहा दास प्रजा को और उसके शत्रु दोनों को कहा है | अष्टाध्यायी ५/१० में हिंसा करने वाले ,गलत भाषण करने वाले को दास दस्यु (डाकू ) कहा है | निरुक्त ७/२३ में कर्मो के नाश करने वाले को दास कहा है | दास शब्द का वेदों में विविध रूपों में प्रयोग – 

  1. मेघ के विशेषण में ऋग्वेद ५/३०/७ में हुआ है |
  2. शीघ्र बनने वाले मेघ के रूप में ऋग्वेद ६/२६/५ में हुआ है |
  3. बिना बरसने वाले मेघ के लिए ७ /१९/२ में हुआ है |
  4. बल रहित शत्रु के लिए ऋग्वेद १०/८३/१ में हुआ है |
  5. अनार्य (आर्य शब्द की मीमासा दी हुई है उसी का विलोम अनार्य है अत: ये भी विशेषण है ) के लिए ऋग्वेद १०/८३/१९ में हुआ है |
  6. अज्ञानी ,अकर्मका ,मानवीय व्यवहार से शून्य व्यक्ति के लिए ऋग्वेद १०/२२/८ में प्रयोग हुआ है |
  7. प्रजा के विशेषण में ऋग्वेद ६/२५/२,१०/१४८/२ और २/११/४  में प्रयोग हुआ है |
  8. वर्ण के विशेषण रूप में ऋग्वेद ३/३४/९ ,२/१२/४ में हुआ है |
  9. उत्तम कर्महीन व्यक्ति के लिए ऋग्वेद १०/२२/८ में दास शब्द का प्रयोग हुआ है अर्थात यदि ब्राह्मण भी कर्महीन हो जाय तो वो भी दास कहलायेगा |
  10.                                                                 गूंगे या शब्दहीन के विशेषण में ऋग्वेद ५/२९/१० में दास का प्रयोग हुआ है |

इन विवेचनो से स्पष्ट हो जाता है कि दास शब्द का प्रयोग किसी नस्ल या जाति के लिए नही हुआ ये निर्जीव बादल आदि और सजीव प्रजा आदि दोनों के लिए भी हुआ है | इसी तरह असुर शब्द भी विविध अर्थो में प्रयुक्त हुआ है – ” इसका प्रयोग भी आर्य के विलोम में अनेक जगह हुआ है | ” निघंटु में मेघ के पर्याय में असुर का प्रयोग हुआ है | ऋग्वेद ८/२५/४ में असुर का अर्थ बलवान है | ईरान में अहुरमजदा कर ईश्वर के नाम में प्रयोग किया जाता है | स्कन्द स्वामी निरुक्त की टीका करते हुए पृष्ठ १७२ पर असुर का अर्थ प्राणवानुदगाता कियाहै | दुर्गाचार्य ने पृष्ठ ३६१ पर प्रज्ञावान अर्थ किया है | उपरोक्त सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि वेदों में दास ,आर्य ,असुर कोई विशेष जाति ,नस्ल के लिए प्रयुक्त नही हुए है ..जबकि कुछ लोग कुचेष्टा द्वारा वेदों में आर्य अनार्य का अर्थ दर्शाते है | कुछ विशेष शब्दों को देख उन्हें आदिवासी या मूलनिवासी बताते है | इसमें एक उदाहरण इंद्र और वृत्र के युद्ध का दिया जाता है जबकि ये कोई युद्ध नही बल्कि आकाशीय घटना है इस बारे में शतपत ब्राह्मण में स्पष्ट लिखा है – – “    तस्मादाहुनैतदस्मि  यद  देवा सुरमिति ” (शतपत  ११/६/१/९ ) अर्थात वृत्रा सुर युद्ध हुआ नही  उपमार्थ  युद्ध  वर्णन  है | इस के बारे में हमारे निम्न लेख में विस्तार पूर्वक देख सकते है – ” वेदों में इंद्र  अब कुछ उन शब्दों पर गौर करेंगे जिन्हें मुल्निवाशी या आदिवासी बताया है | वेद और आदिवासी युद्ध – वेदों में इतिहास नही है इस बारे में पिछले कई लेखो और आगे भी कई लेखो में लिखते रहेंगे लेकिन कुछ लोग वेदों में जबरदस्ती बिना निरुक्त और वेदांगो की साहयता से किये हुए भाष्य को पढ़ या स्वयम कल्पना कर वेदों में इतिहास मान कर उसमे कई आदिवासी और मूलनिवासी सिद्ध करते है | इनमे से कुछ निम्न है – (अ) काले रंग के अनार्य या आदिवासी – ऋग्वेद में आये कृष्ण शब्द को देख कई लोगो ने काले रंग के आदिवासी की कल्पना की है ये बिलकुल वेसे ही है जेसे मुस्लिम शतमदीना देख मदीना समझते है , ईसाई ईश शब्द को ईसामसीह ,रामपालीय  कवीना शब्द से कबीर , वृषभ शब्द से जैन ऋषभदेव ऋग्वेद १/१०१/१ ,१/१३०/८ ,२/२०/७ ,४/१६/१३ और ६/४७/२१ ,७/५/३ में कृष्ण शब्द का प्रयोग हुआ है जिसे अम्बेडकरवादी असुर मूलनिवासी बताते है | जबकि १/१०१/१ में कृष्णगर्भा शब्द है जिसका अर्थ नेरुक्तिक प्रक्रिया से मेघ की काली घटा होता है | ऋग्वेद ७/१७/१४ में सायण ने भी कृष्ण का अर्थ काले बादल किया है | ऋग्वेद १/१३०/८ में त्वच कृष्णामरन्ध्यत इस मन्त्र में काले मेघ छा जाने पर अन्धकार हो जाने का वर्णन है ..इस मन्त्र की व्याख्या में एक पुराने भाष्यकार वेंकट माधव ने त्वच कृष्ण का अर्थ मेघ वशमनयत किया है |ऋग्वेद २/२०/७ में कृष्णयोनी शब्द है यहा योनी शब्द दासी के विशेषण में आया है और कृष्ण का अर्थ काला मेघ और दासी का अर्थ मेघ की घटाए अत कृष्ण योनि का अर्थ हुआ मेघ की विनाशकारी घटाए | कृष्णयोनी – कृष्णवर्णा: मेघ: योनीरासा ता: कृष्णयोन्य दास्य: (वेंकट ) ऋग्वेद ४/१६ /१३ में भी कृष्ण का अर्थ काले मेघ है | ऋग्वेद ६/४७/२१ पर महीधर ने भी कृष्ण का अर्थ कोई व्यक्ति विशेष के लिए नही कर काली रात्रि किया है | ऋग्वेद ७/५/३ में अस्किनी पद आया है जिसका अर्थ काले रंग की जाति पाश्चात्य विद्वानों ने किया है जबकि निघंटु १/७ में इसको रात्रि का पर्याय दिया है जिसका अर्थ है अँधेरी रात अत: स्पष्ट है कि वेदों में कोई काले आदिवासी ,काले मूलनिवासी नही है बल्कि ये सब मेघ ,रात्रि आदि के लिए प्रयुक्त हुए है | (ब) चपटी नाक वाले आदिवासी –  ऋग्वेद ५/२९/१० में अनास शब्द आया है जिसका अर्थ पश्चमी विद्वानों ने चपटी नाक वाले आदिवासी किया है | जबकि धातुपाठ अनुसार अनास का अर्थ होगा नासते शब्द करोति अर्थात जो शब्द नही करता है अर्थात बिना गरजने वाला मेघ (स ) लिंग पूजक आदिवासी –  ऋग्वेद ७/२१/५ और १०/९९/३ में शिश्नदेव शब्द आया है जिसे कुछ लोग लिंग पूजक आदिवासी बताते है चुकि सिन्धु सभ्यता में कई लिंग और योनि चित्र मिले है जिससे उनका अनुमान किया जाता है जबकि शिश्नदेवा का अर्थ यास्क ने निरुक्त ४/१९ में निम्न किया है – ” स उत्सहता यो  विषुणस्य जन्तो : विषमस्य मा  शिश्नदेवा अब्रह्मचर्या ” यहा शिश्नदेव  का  अर्थ  अब्रह्मचारी  किया  है  अर्थात  ऐसा  व्यक्ति  जो  व्यभिचारी  हो | आदिवासियों के विशिष्ट व्यक्ति और उनकी समीक्षा –  पाश्चात्य विद्वानों और उनके अनुयायियों ने वेदों में से निम्न शब्द शम्बर , चुमुरि ,धुनि ,प्रिप्रू ,वर्चिन, इलिविश देखे और इन्हें आदिवासियों का मुखिया बताया | (अ) शम्बर – ये ऋग्वेद के १/५९/६ में आया है यास्क ने निरुक्त ७/२३ में शम्बर का अर्थ मेघ किया है ” अभिनच्छम्बर मेघम ” (ब) चुमुरि – यह ऋग्वेद के ६/१८/८ में आया है चुमुरि शब्द चमु अदने धातु से बनता है | चुमुरि का अर्थ है वह मेघ जो जल नही बरसाता | (स) वर्चिन – यह ऋग्वेद के ७/९९/५ में है ये शब्द वर्च दीप्तो धातु से बना है जिसका अर्थ है वह मेघ जिसमे विद्युत चमकती है | (द) इलीबिश – ये ऋग्वेद १/३३/१२ में है इस शब्द से मुस्लिम कुछ विद्वान् शेतान इब्लीस की कल्पना करते है जो की कुरआन में ,बाइबिल आदि में आया है लेकिन यहा वेदों में यह कोई शेतान नही है सम्भवत वेदों के इसी शब्द से अरबी ,हिब्रू आदि भाषा में इब्लीस शब्द प्रचलित हुआ हो क्यूंकि चिराग ,अरव , अल्लाह ,नवाज आदि संस्कृत भाषा से उन भाषाओ में समानता दर्शाते शब्द है | निरुक्त ६/१९ में इलीबिश के अर्थ में यास्क लिखते है ” इलाबिल शय: ” अर्थात भूमि के बिलों में सोने वाला अर्थात वृष्टि जल जब भूमि में प्रवेश कर जाता है तो उसे इलिबिश कहते है | (य) पिप्रु – ये ऋग्वेद ६/२०/७ में आया है ये शब्द ” पृृ पालनपूरणयो: ” धातु से बनता है | जिसका अर्थ है ऐसा मेघ जो वर्षा द्वारा प्रजा का पालन करता है | (र) धुनि – ये ऋग्वेद ६/२०/१३ में है    निरुक्त १०/३२ में धुनि का अर्थ लिखा है ” धुनिमन्तरिक्षे मेघम | ” अर्थात यह एक प्रकार का मेघ है | धुनोति इति धुनि: अर्थात ऐसा मेघ जो काँपता है गर्जना करता है | अत: स्पष्ट है की वेदों में किसी आदिवासी का उलेख या युद्ध नही बल्कि सभी जड सम्बन्धी और विशेषण सम्बन्धी शब्द है | प्रश्न – हम ये मान लेते है कि आर्य शब्द विशेषण है और ये किसी के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है जो श्रेष्ठ हो लेकिन स्वर्ण इस देश के नही थे बल्कि बाहर से आये थे ? उत्तर – हमारे किसी भी ग्रन्थ में सवर्णों का बाहर से आया नही लिखा है बल्कि भारत से क्षत्रिय ,ब्राह्मण ,वेश्य आदि अन्य देशो में गये इसका वर्णन है |                                                       भारतीय वैदिक सभ्यता की अन्य सभ्यताओ से समानता को देखते हुए लोग ये कल्पना करते है की विदेशी भारत में आये और यहा की सभ्यता को नष्ट कर अपनी विदेशी सभ्यता प्रचारित की जबकि ये बात कल्पना है आर्य भारत से अन्य देश में गये थे इसके निम्न प्रमाण – मनु स्मृति में आया है कि – शनकैस्तु  क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय:। वृषलत्वं गता लोके ब्रह्माणादर्शनेन्॥10:43॥  – निश्चय करके यह क्षत्रिय जातिया अपने कर्मो के त्याग से ओर यज्ञ ,अध्यापन,तथा संस्कारादि के निमित्त ब्राह्मणो के न मिलने के कारण शुद्रत्व को प्राप्त हो गयी। ” पौण्ड्र्काश्र्चौड्रद्रविडा: काम्बोजा यवना: शका:। पारदा: पहल्वाश्र्चीना: किरात: दरदा: खशा:॥10:44॥ पौण्ड्रक,द्रविड, काम्बोज,यवन, चीनी, किरात,दरद,यह जातिया शुद्रव को प्राप्त हो गयी ओर कितने ही मलेच्छ हो गए जिनका विद्वानो से संपर्क नही रहा। इन श्लोको से स्पष्ट है कि आर्य लोग भारत से बाहर वश गये थे और विद्वानों के संग न मिलने से उनकी मलेछ आदि संज्ञा हुई | मुनि कात्यायन अपने याजुष ग्रन्थ प्रतिज्ञा परिशिष्ट में लिखता है कि ब्राह्मण का मूलस्थान भारत का मध्य देश है | महाभारत में लिखा है कि ” गणानुत्सवसंकेतान दस्यून पर्वतवासिन:| अजयन सप्त पांडव ” अर्थात पांड्वो ने सप्त गणों को जीत लिया था | इस तरह स्पष्ट है कि आर्य विदेशो से नही बल्कि भारत से अन्य देशो में गये थे | भारतीयों का विदेश गमन – भारतीयों का मिश्र गमन – भविष्य पुराण खंड ४ अध्याय २१ में कण्व ऋषि का मिश्र जाना लिखा है जहा उन्होंने १०००० लोगो का शुद्धिकरण किया था | भारतीयों का रूस और तुर्किस्थान गमन – lassen की indiscehe alterthumskunda में भारत का तुर्क और रूस में गमन के बारे में लिखते हुए लिखता है कि ” it appears very probable that at the dawn of history ,east turkistaan was inhabited by an aryan population ” भारतीयों का सिथिया देश में गमन – सिथिया देश किसी समय भारत से निकले शक नामक क्षत्रियो ने बसाया था जिसका प्रमाण विष्णुपुराण ३/१/३३-३४ में है ” वैवस्त मनु के इस्वाकु ,नाभागा ,धृष्ट ,शर्याति ,नाभा ने दिष्ट ,करुष ,प्रिश्ध्र ,वसुमान ,नरीशयत ये नव पुत्र  थे | हरिवंश अध्याय १० श्लोक २८ में लिखा है – ” नरिष्यंत के पुत्रो का ही नाम शक था “ विष्णु पुराण ४/३/२१ में आया है कि इन शको को राजा सगर ने आधा गंजा करके निकाल दिया और ये सिन्थ्निया (शकप्रदेश ) जा कर वश गये | भारतीयों का चीन गमन – मनुस्मृति के अलावा चीनियों के आदिपुरुषो के विषय में प्रसिद्ध चीनी विद्वान यांगत्साई ने सन १५५८ में एक ग्रन्थ लिखा था | इस ग्रन्थ को सन १७७३ में हुया नामी विद्वान ने सम्पादित किया उस पुस्तक का पादरी क्लार्क ने अनुवाद किया उसमे लिखा है कि ” अत्यंत प्राचीन काल में भारत के मो लो ची राज्य का आह . यू . नामक राजकुमार युनन्न प्रांत में आया | इसके पुत्र का नाम ती भोगंगे था | इसके नौ पुत्र हुए | इन्ही के सन्तति से चीनियों की वंश वृद्धि हुई | ” यहा इन राजकुमार आदि का चीनी भाषानुवादित नाम है इनका वास्तविक नाम कुछ और ही होगा जेसे की शोलिन टेम्पल के निर्माता बोधिधर्मन का नाम चीनियों ने दामो कर दिया था | इन सबके अलवा भारतीय क्षत्रिय वेश्य ब्राह्मण अन्य कारणों से भी समुन्द्र पार कर अन्य देशो में जाते थे क्यूंकि भारतीयों के पास बड़ी बड़ी यांत्रिक नौकाये थी जिनका उलेखभारतवर्ष के प्राचीन वाङ्गमय वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता है। जैसे बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे।

नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तानां शतं शतम। सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्वत्यभ्यचोदयत्‌॥
अर्थात्‌-सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं।
इसी प्रकार महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है।
सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्‌।
अर्थात्‌-यंत्र पताका युक्त नाव, जो सभी प्रकार की हवाओं को सहने वाली है।
कौटिलीय अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नावों के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है। ५वीं सदी में हुए वारहमिहिर कृत ‘बृहत्‌ संहिता‘ तथा ११वीं सदी के राजा भोज कृत ‘युक्ति कल्पतरु‘ में जहाज निर्माण पर प्रकाश डाला गया है।

नौका विशेषज्ञ भोज चेतावनी देते हैं कि नौका में लोहे का प्रयोग न किया जाए, क्योंकि संभव है समुद्री चट्टानों में कहीं चुम्बकीय शक्ति हो। तब वह उसे अपनी ओर खींचेगी, जिससे जहाज को खतरा हो सकता है। अत : स्पष्ट है कि भारतीय नावो द्वारा अन्य देशो में जाया करते थे | इसी कारण भारतीयों और अन्य देशो की सभ्यताओ में काफी समानताये है | जिनको विस्तारित रूप से p n oak जी की पुस्तको , स्वामी रामदेव जी गुरुकुल कांगड़ी की भारतवर्ष का इतिहास ,रघुनंदन शर्मा जी की पुस्तक वैदिक सम्पति ,स्टेपहेन केनप्प की पुस्तको , पंडित भगवतदत्त जी की वृहत भारत का इतिहास , वैदिक वांगमय का इतिहास में देख सकते है | सिन्धु सभ्यता और आर्य आक्रमणकारी –  कुछ लोग सिन्धु सभ्यता के बारे में यह कल्पना करते है कि सिन्धु सभ्यता को विदेशी आर्यों ने नष्ट कर दिया जबकि हमारा मत है कि सिन्धु सभ्यता आज भी विद्यमान है | केवल सिन्धु वासियों के पुराने नगर नष्ट हुए है जो की प्राक्रतिक आपदाओं के कारण हो सकते है |

एक योगी जिसके 3-4 सर है ,यह असल में भगवान शिव है |

 

सिन्धु घाटी सभ्यता और मेवाड़ के एकलिंगनाथ जी

आप देख सकते है की सिन्धु घाटी सभ्यता  के शिव और मेवाड़ के एकलिंगनाथ यानि भगवान शिव में कितनी समानता है ,एक समय मेवाड़ में भी सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग रहते थे और आज भी वह के लोग 4 सर वाले शिव की पूजा करते है

कृष्ण और वृक्ष से निकलते 2 यक्ष
आपको वह कहानी तो पता ही होगी की भागवान कृष्ण अनजाने में 2 वृक्ष उखाड़ देते है जिसमे से 2 यक्ष निकलते है ,यह सील वही कहानी बता रहा है ,आप 2 वृक्ष देख सकते है जो उखाड़ गए है (विद्वान् अनुसार ) और उनके बिच एक व्यक्ति नजर आ रहा है जो यक्ष हो सकता है ,दूसरा यक्ष शायद इस सील के दुसरे भाग में हो क्युकी यह सील टुटा हुआ है |
भारत में रथ थे और घोड़े भी ,सच तो यह है की आज जो घोड़े यूरोप और एशिया में है वे 70 साल पहले भारतीय घोड़ो से विकसित हुए है |

गणेश
नंदी से लड़ते गणेश या नंदी संग युद्ध कला सीखते कार्तिक
उपरोक्त एक चित्र में दाय तरफ एक चित्र है ये चित्र लज्जा गौरी नामक देवी से मिलता है चुकि सिन्धु वासी भी आज के तरह लिंग और योनि पूजक थे इस कारण वहा कई लिंग और योनि प्रतीक मिले है आज भी कामख्या आदि शक्तिपीठो में देवी की योनि पूजी जाती है |
नीचे लज्जा गौरी का एक चित्र जो पूर्वी और दक्षिण भारत ,नेपाल आदि में पूजी जाती है –
इसी तरह एक अन्य शील में सर्प देवी मिली है –
ये सर्प देवी का चित्र मनसा देवी से काफी मिलता है –
इतना ही नही ये सर्प देवी अन्य सभ्यताओ में भी है सम्भवत भारत से ही इनका प्रचार अन्य सभ्यताओ में हुआ होगा –
ये चित्र Minoan Goddess 1600 BC का है |
इस तरह से आधुनिक भारतीय और सिन्धु सभ्यताओ में समानता देखि जिससे स्पष्ट होता है की सिन्धु सभ्यता नष्ट नही हुई |
जेसे आज पौराणिक सभ्यता के साथ वेद और वैदिक ज्ञान है उसी तरह सिन्धु सभ्यता में भी था चुकी सिन्धु लिपि अभी तक पढ़ी नही गयी है लेकिन फिर भी कुछ शीलो पर बने चित्रों से वैदिक मन्त्रो का उस समय होना प्रसिद्ध है | सिन्धु लिपि ब्राह्मी से मिलती है इसके अलावा सिन्धु सभ्यता में कई यज्ञ वेदिया मिली है अर्थात सिन्धु वासी अग्निहोत्र करते थे |

मित्रो उपर्युक्त जो चित्र है वो हडप्पा संस्कृति से प्राप्त एक मुद्रा(सील) का फोटोस्टेट प्रतिकृति है।ये सील आज सील नं 387 ओर प्लेट नंCXII के नाम से सुरक्षित है,, इस सील मे एक वृक्ष पर दो पक्षी दिखाई दे रहे है,जिनमे एक फल खा रहा है,जबकि दूसरा केवल देख रहा है। यदि हम ऋग्वेद देखे तो उसमे एक मंत्र इस प्रकार है- द्वा सुपर्णा सुयजा सखाया समानं वृक्ष परि षस्वजाते। तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्तयनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥ -ऋग्वेद 1/164/20 इस मंत्र का भाव यह है कि एक संसाररूपी वृक्ष पर दो लगभग एक जैसे पक्षी बैठे है।उनमे एक उसका भोग कर रहा है,जबकि दूसरा बिना उसे भोगे उसका निरीक्षण कर रहा है।

इसी तरह
वेदों में ७प्राण ,ब्राह्मणों  में ७ ऋषि ७ देविया ,७ किरण ,आयुर्वेद में अन्न से वीर्य तक बनने के ७ चरण ७ नदिया आदि के रूप में ७ के अंक का महत्व है सिन्धु सभ्यता की एक शील में ७ लोगो का चित्र है |
इसी तरह सिन्धु सभ्यता में स्वस्तिक का चिन्ह मिला है जिसे यहा देखे ये अक्सर शुभ कार्यो में बनाया जाता है यज्ञ करते समय रंगोली के रूप में इसे यज्ञ वेदी को सजाने में भी बनाया जाता था |

 

ऋग्वेद में स्वस्तिवाचन से कई अर्थ है स्वस्ति का अर्थ होता है कल्याण करने वाला ,उत्तम ,शुभ आदि ये चिन्ह शुभ और कल्याण का प्रतीक है इसलिए इसका नाम स्वस्तिक हुआ है |
इस तरह अन्य कई प्रमाण मिल सकते है जिन्हें विस्तार भय से छोड़ते है इन सभी से सिद्ध है की सिन्धु सभ्यता आज भी विद्यमान है किसी ने उसे नष्ट नही किया थोडा बहुत अंतर अवश्य आया है क्यूंकि कोई भी चीज़ सदा एकसी नही होती लोगो के साथ साथ उन में भी बदलाव आता है |
जिस तरह कल्पना की गयी थी की आर्यों और विदेशियों की सभ्यता मिलती है तो आर्य विदेशी है जिसे हमने गलत साबित किया लेकिन सिन्धु वासियों और अन्य विदेशी सभ्यता भी मिलती है इस आधार पर अगर ये कहे की सिन्धुवासी भी विदेशी थे वो भी गलत ही होगा क्यूंकि हमने पहले बता दिया की भारतीय लोग दुसरे देशो में जाया करते थे |
सिन्धु सभ्यता और अन्य सभ्यता में समानता –
सिन्धु सभ्यता में मिली सर्प देवी और मिनोअनन देवी की समानता दर्शाई गयी है सिन्धु लिपि अन्य देशो की प्राचीन लिपि से काफी मिलती है जिसे चित्र में दर्शाया है –
इसमें सिन्धु लिपि और प्राचीन चीन की लिपि की समानता बताई गयी है |
    a is Upper Palaeolithic (found among the cave paintings), b is Indus Valley script, c is Greek (western branch), and d is the Scandinavian runic alphabet.
उपरोक्त चित्र में सिन्धु ,ग्रीक ,रूमानिया लिपि में समानता दिखाई गयी है |
अन्य समानताये –                                                                                                                                    
मोहनजोदड़ो में सफेद पत्थर से बनी मुर्तिया मिली है जो कि असीरिया की सभ्यता से मिलती है | चांदी के चौकौर टुकड़े प्राप्त हुए है जो कि बेबीलोन से मिलते है .खुदाई में एक मंदिर मिला है जिसमे पद्मासन लगाये एक देवता या योगी है जो भी बेबीलोन से मिलता है | ऊपर एक सर्प देवी का चित्र भी है जो मेसोन्न देवी से मिलता है | घरो पर प्लास्टर मिला है जो की मेसोपोटामिया से लाया जाता होगा ,कुछ बर्तन मिले है जो की मेसोपतामिया की सभ्यता में मिले बर्तनों से मिलते जुलते है | डाकृर साईस का कथन है कि ” बेबीलोन और भारत में ३००० इ पु से ही सम्बन्ध थे |”(his lecture on the origion and growth of religion among the babilonions)
इसी तरह बेबीलोन के एक रेशमी वस्त्र का नाम सिन्धु है |
अत: यहा स्पष्ट है कि सिन्धु वासियों के भी अन्य देशो से सम्बन्ध थे यदि समानता से आर्यों को विदेशी कहते है तो सिन्धुवासियो को क्यूँ नही |
उपरोक्त प्रमाणों से हमने बताया की आर्य भारत से बाहर के नही थे लेकिन कुछ लोग डीएनए टेस्ट का प्रमाण देते है जबकि डीएनए टेस्ट ने कई बार अलग अलग परिणाम दिए है आधुनिक डीएनए टेस्टों से भी ये साबित हुआ है की सवर्ण और दलित आदिवासी ,द्रविड़ सभी के पूर्वज एक ही थे कोई विदेशी नही थे –http://timesofindia.indiatimes.com/india/Aryan-Dravidian-divide-a-myth-Study/articleshow/5053274.cms
जिसे निम्न लिंक में देखे | अब हम विदेशियों द्वरा काफी पहले निकाला गलत डीएनए रिपोर्ट की समीक्षा करते है –
माइकल की डीएनए रिपोर्ट की समीक्षा –                                                                                          
२००१ टाइम्स ऑफ़ इंडिया में एक खबर छपी कि अमेरिका के वाशिंगटन में उत्ताह विश्वविध्यालय के बायोलोजी डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष माइकल बाम्शाद ने डीएनए टेस्ट के आधार पर बताया कि भारत की sc ,st जातियों का डीएनए एक जेसा है तथा विदेशियों और gen का एक जेसा है | जिससे उसने निष्कर्ष निकाला कि ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य आदि विदेशी थे और st sc मुल्निवाशी |
इस पर हम आपसे पूछते है कि मान लीजिये कि आपके परिवार वाले अमेरिका जा कर वश गये | तो उनका डीएनए आपसे मिलेगा अथवा नही | आप कहेंगे कि अवश्य मिलेगा | इसी प्रकार भारत से सवर्ण लोग विदेशो में गये थे | ब्राह्मण विद्या के प्रचार हेतु ,क्षत्रिय दिग्विजय हेतु ,वेश्य व्यपार हेतु , और इनमे से कई लोग विदेशो में ही बस गये | अनेक विदेशी उन्ही की संताने है | आज भी बहुत सारे भारतीय विदेशो में जाकर व्यापार ,नौकरी कर रहे है | अनेक श्रमिक भी बाहर जा कर बस गये है | तो उनका डीएनए भारत में रह रहे उनके परिजनों से क्यूँ नही मिलेगा ? तो दोनों में से किसे मूल निवासी कहेंगे |  परिवार वाले या बाहर वालो को अथवा दोनों को ?
पूर्वकाल में भारत साधन सम्पन्न देश था इसलिए शुद्रो को विदेश जाने की ज्यादा आवश्यकता नही हुई |
दूसरी बात यह कि माइकल ने केवल दक्षिण के १ या २ गाँवों का ही डीएनए टेस्ट क्यूँ करवाया क्या १०० करोड़ आबादी में १ या २ गाँव से निष्कर्ष निकालना तर्क संगत होगा ? इसके आलावा हमारे दलित भाइयो के गौत्र (चौहान ,परमार,गहलोत ,सौलंकी ,राठोड ) आदि क्षत्रियो से मिलते है जिससे भी सिद्ध होता है कि दोनों के पूर्वज एक ही थे |
उपरोक्त सभी निष्कर्षो से हमने सिद्ध किया कि सुवर्ण दलित आदि के पूर्वज एक ही थे कोई विदेशी नही थे | तथापि हमारे देश में कुछ बाहरी आक्रमण कारी आये थे जेसे अंग्रेज ,मुगल ,फ़ारसी ,तुर्की ,शक ,हुन ,यूनानी ..
इनमे से कई जातयो को हमारे क्षत्रिय राजाओ ने भगा दिया और कुछ यही बस गये ये विदेशी जातीय भी आज सभी वर्गों में कुछ विशेष पहचान के साथ पायी जाती है क्यूंकि इन्होने भारतीयों से विवाह आदि सम्बन्ध स्थापित किये थे |
विदेशियों का भारत आगमन –                                                                                                                
सरस्वती “अगस्त १९१४ ” में लिखा है कि रीवा राज्य में एक ताम्र पत्र मिला है | उसमे लिखा है कि कलचुरी राजा कर्ण ने तातारी हूणों को परास्त करके उनकी कन्या के साथ विवाह किया खत्रियो और राजपूतो में आज भी हूण संज्ञा विद्यमान है |
” पुत्रोस्य खगदलितारिकरीन्द्रकुम्भमुत्ताफ्लै: स्म ककुभोर्चति कर्णदेव :||
अजनि कलचुरीणा स्वामीना तेन हुणान्वयजलनिधिलक्ष्म्या श्रीमदावल्लदेव्याम ||”-राजपूताने के इतिहास से उद्दृत
राजा चन्द्रगुप्त ने सेलुक्स की पुत्री से विवाह किया |
कनिष्क नाम के हूण राजा ने भारत में बौद्ध धर्म ग्रहण कर यही निवास किया .इसी तरह मिलेंद्र भी भारत में बौद्ध बना उन्ही के कई वंशज भारत में ही बसे रह गये |
कुछ शक भारत में आकर बसे उन्होंने यहा बस गये जिनमे राजा कुशान प्रमुख है इन्होने यहा हिन्दू मत शेव मत स्वीकार किया आज भी ब्राह्मणों में शाकदीपी ब्राह्मण होते है |
उदयपुर राज्य के राजा गौह की शादी ईरान के प्रसिद्ध बादशाह नौशेरवा की पौत्री के साथ हुई थी | लोगो का विचार है की जिला बस्ती के रहने वाले कलहंस क्षत्रिय भी ईरान के रहने वाले है | जेसा की हमने पहले बताया की कण्व ऋषि ने मिश्र में जा कर शुद्धिकरण किया था और इनमे से कइयो को भारत भी बसाया जिनमे कई शुद्र ,क्षत्रिय ,वेश्य और ब्राह्मण थे |
इसी तरह इस्लामिक आक्र्मंकारियो से भयभीत हो कर पारसी लोग इरान से भारत वश गये |
गुजरात में एक जगह अफ़्रीकी आदिवासी भी है जो आज भी अफ़्रीकी संस्कृति और भाषा रहन सहन प्रयोग में करते है |
प्रसिद्ध अग्रेँज इतिहासकार कर्नल.टाड के अनुसार बप्पा ने कई अरबी युवतियोँ से विवाह करके 32 सन्तानेँ पैदा जो आज अरब मेँ नौशेरा पठान के नाम से जाने जाते हैँ।
उपरोक्त वर्णन से हमने भारत में कुछ विदेशी जातियों पर प्रकाश डाला जिससे हम इस निष्कर्ष पर पंहुचे है कि भारत के हर वर्ग में मध्यकाल में कुछ विदेशी जातियों का भी मिश्रण है चाहे वो शुद्र हो या ब्राह्मण |
लेकिन इससे भी यह सिद्ध नही होता कि बहुत काल पहले आर्य विदेश से आये थे उपरोक्त वर्णन से यही सिद्ध हुआ है कि भारतीय लोग विदेशो में गये और वही बस गये थे फिर बाद में कुछ आक्रमणकारी भारत में आये जिनमे मुस्लिम ,अंग्रेजो को छोड़ बाकी सभी यही आर्य (हिन्दू) ,बुद्ध ,जैन आदि संस्कृति में घुल मिल गये जो कि इस देश की मूल संस्कृति थी | चुकी हमारी आदत यह हो गयी है कि जब तक कोई विदेशी हमे न कहे तब तक हम लोग मानते नही है इसलिए आर्यों के मूलनिवासी होने और आर्यों के विदेशी न होने पर कुछ पाश्चत्य विद्वानों का भी मत से आपको अवगत कराते है –
पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में आर्य भारत के मूल निवासी –                                                               
(१) यवन राजदूत मैगस्थ नज लिखता है -भारत अनगिनत और विभिन्न जातियों में बसा हुआ है | इनमे से एक भी मूल में विदेशी नही थी , प्रत्युत स्पष्ट ही सारी इसी देश की है |
(२) नोबल पुरूस्कार विजेता विश्वविख्यात विद्वान् मैटरलिंक अपने ग्रन्थ सीक्रेट हार्ट में लिखता है ” It is now hardly to be contested that this source(of knowledge) is to be found in india.thence in all probability the sacred teaching spread into egypt,found its way to acient persia and chaldia , permeated the hebrew race and crept in greece and south of europe, finaaly reaching china and even america.” अर्थात अब यह निर्विवाद है कि विद्या का मूल स्थान भारतवर्ष में पाया जाता है और सम्भवत यह पवित्र विद्या मिश्र में फेली | मिस्र से ईरान तथा कालदिया का मार्ग पकड़ा ,यहूदी जाति को प्रभावित किया ,फिर यूनान तथा यूरोप के दक्षिण भाग में प्रविष्ट हुई ,अंत में चीन और अमेरिका पंहुची |”
(३) इतिहासविद मयूर अपनी muir : original sanskrit text vol २ में कहता है ” यह निश्चित है कि संस्कृत के ग्रन्थ चाहे कितना भी पुराना हो आर्यों के विदेशी होने का कोई उलेख नही मिलता है |”
(४)विश्वविख्यात एलफिन्सटन अपनी पुस्तक ” elphinston:history of india vol1 “में लिखते है “न मनुस्मृति में न वेदों में आर्यों के बाहर से आने का कोई वर्णन प्राप्त नही होता है |
अब हम यही कह कर लेख समाप्त करना चाहेंगे कि आर्य कोई भी विदेशी जाति नही थी न ही सवर्णों ने विदेश से आकर यहा की संस्कृति को नष्ट किया ये सब यही के मूलनिवासी थे और आर्य एक विशेषण है जो किसी के साथ भी प्रयुक्त हो सकता है वनवासी ,शुद्र ,दलित सभी के साथ बस उसके कर्म श्रेष्ट हो रामायण में जाम्बवान ,हनुमान ,बालि ,सुग्रीव आदि वनवासी जातियों के लिए आर्य शब्द प्रयुक्त हुआ है अत: स्पष्ट है कि ये भी आर्य बन सकते है |
अत: हमारा दलित भाइयो से आग्रह है कि देश की एकता के लिए इस झूट आर्यों के विदेशी होने को तियांजली दे देनी चाहिय और अपने आर्य महापुरुषों को पक्षपात रहित हो कर सम्मान देना चाहिय |
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके –
(१) क्या वेदों में आर्यों और आदिवासियों का युद्ध का वर्णन है ?-श्री वेद्य रामगोपाल जी शास्त्री 
(२) वैदिक सम्पति- रघुनन्दन शर्मा 
(३) वेदार्थ भूमिका -स्वामी विद्यानंद सरस्वती 
(४) निरुक्त-यास्क (भाषानुवाद-भगवतदत्त जी )
(५) बौद्धमत और वैदिक धर्म-स्वामी धर्मानंद जी 
(६) भारतीय संस्कृति का इतिहास -प. भगवतदत्त 
(७) कुलियात आर्य मुसाफिर -प. लेखराम जी 
(८) भारतीय संस्कृति का इतिहास-स्वामी रामदेव 
(९) बोलो किधर जाओगे – आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक जी 
(१० ) शुद्र कौन थे – डा. भीमराव अम्बेडकर 
(११) आर्यों का आदिदेश -विद्यानंद सरस्वती    

‘जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है’

soul and god

ओ३म्

जीवात्मा ईश्वर नहीं, ईश्वर का मित्र बन सकता है


मनुष्य जीवन का उद्देश्य है उन्नति करना। संसार में ईश्वर सबसे बड़ी सत्ता है। जीवात्माओं की ईश्वर से पृथक स्वतन्त्र सत्ता है। जीवात्मा को अपनी उन्नति के लिए सर्वोत्तम या बड़ा लक्ष्य बनाना है। सबसे बड़ा लक्ष्य तो यही हो सकता है कि वह ईश्वर व ईश्वर के समान बनने का प्रयास करे। प्रश्न यह है कि मनुष्य यदि प्रयास करे तो क्या वह ईश्वर बन सकता है? इसका उत्तर विचार पूर्वक दिया जाना समीचीन है। इसके लिए ईश्वर तथा जीवात्मा, दोनों के स्वरूप को जानना होगा। ईश्वर क्या है? ईश्वर वह है जिससे यह संसार अस्तित्व में आता है अर्थात् ईश्वर इस सृष्टि या जगत का निमित्त कारण हैं। निमित्त कारण किसी वस्तु के बनाने वाले चेतन तत्व व सत्ता को कहते हैं। इसमें ईश्वर भी आता है और मनुष्य वा जीवात्मा भी। ईश्वर ने इस सारे संसार को रचकर बनाया है। ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि में हमारे पूर्वजों अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, ब्रह्मा आदि पुरूषों सहित स्त्रियों को भी बनाया और उसके बाद से वह मैथुनी सृष्टि द्वारा मनुष्य आदि और समस्त प्राणियों की रचना कर उन्हें जन्म देता आ रहा है।

 

ईश्वर के कार्यों में सृष्टि की रचना कर उसका संचालन करना और अवधि पूरी होने पर प्रलय करना भी सम्मिलित है जिसे वह इस सृष्टि के कल्प में विगत 1.96 अरब वर्षो से करता आ रहा है। इससे पूर्व भी वह अनन्त बार अनन्त कल्पों में सृष्टि की रचना कर उसका पालन करता रहा है। वह यह कार्य इस लिए कर पाता है कि उसका स्वरूप सच्चिदानन्द (सत्य, चित्त व आनन्द) स्वरूप है। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। जीवों के पुण्य व पापों के अनुसार जीवों को भिन्न-भिन्न योनियों में भेजकर उन्हें उनके अनुसार सुख-दुःख रूपी फल देना भी ईश्वर का कार्य है और यह भी उसका स्वरूप है। दूसरी ओर जीवात्मा के कुछ गुण ईश्वर के अनुरूप हैं व कुछ भिन्न। जीवात्मा अर्थात् हम वा हमारा आत्मा अर्थात् हमारे शरीर मे विद्यमान चेतन तत्व है। यह या इसका स्वरूप कैसा है? जीवात्मा सत्य पदार्थ, चेतन तत्व, आनन्द रहित व ईश्वर से आनन्द की अपेक्षा रखने व प्राप्त करने वाला, अल्पज्ञ, निराकार, अल्प व सीमित शक्ति से युक्त, न्याय व अन्याय करने वाला, अजन्मा, अनादि, अविनाशी, अमर, जिसका आधार ईश्वर है, ईश्वर से ऐश्वर्य प्राप्त करने वाला, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, अजर, नित्य व पवित्र है। यह कर्म करने में स्वतन्त्र तथा उनका फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ईश्वर की उपासना करना इसका कर्तव्य है।

 

जीवात्मा और ईश्वर का वेद सम्मत युक्ति व तर्क सम्मत स्वरूप उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित है। जीवात्मा के स्वाभाविक गुणों में अल्पज्ञता, नित्य व इसका अनादि होना आदि गुण हैं जो सर्वज्ञता में कदापि नहीं बदल सकते। ईश्वर अपने स्वाभाविक गुण के अनुसार ही सर्वज्ञ है। जीवात्मा अल्प शक्तिशाली है तो ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सृष्टि को बनाकर इसका सफलतापूर्वक संचालन करता है। यह कार्य जीवात्मा कितनी भी उन्नति कर ले नहीं कर सकता। ईश्वर सर्वव्यापक है और जीवात्मा एकदेशी। यह जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर भी सर्वव्यापकता को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार से जीवों की अपनी सीमायें है। अतः जीवात्मा सदा जीवात्मा ही रहेगा और ईश्वर सदा ईश्वर रहेगा। यह जान लेने के बाद यह जानना शेष है कि जीवात्मा अधिकतम उन्नति कर किस स्थान को प्राप्त कर सकता है। इसका उत्तर यह मिलता है कि जीवात्मा के अन्दर मुख्य रूप से दो गुण विद्यमान हैं। एक ज्ञान व दूसरा कर्म या क्रिया। जीवात्मा अल्पज्ञ और ससीम होने से सीमित ज्ञान ही प्राप्त कर सकता है और सीमित कर्म या क्रियायें ही कर सकता है। ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने में भी इसे ईश्वर की सहायता की अपेक्षा है। ईश्वर ने जीवात्मा में ज्ञान की उत्पत्ति के लिए सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अर्थववेद का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा के माध्यम से दिया था जो विगत 1.96 अरब वर्षों से यथावत् चला आ रहा है। वेदों में एक साधारण तिनके से लेकर सभी सृष्टिगत पदार्थों व संसार की सबसे सूक्ष्म व बड़ी सत्ता ईश्वर तक का आवश्यक ज्ञान दिया गया है। ईश्वर प्रदत्त ज्ञान होने से यह पूर्णतया निभ्रान्त सत्य ज्ञान है और परम प्रमाण है। यह भी कह सकते हैं कि वेदो में सत्य ज्ञान की पराकाष्ठा है। जीवात्मा परम्परानुसार पुरूषार्थ व तप पूर्वक वेदों का ज्ञान अर्जित कर सर्वोच्च उन्नति पर पहुंच सकता है। यही उसका उद्देश्य व लक्ष्य भी है। जीवात्मा में दूसरा गुण कर्म करने का है। कर्म भी मुख्यतः शुभ व अशुभ भेद से दो प्रकार के हैं। उसे कौन से कर्म करने हैं और कौन से नहीं, इसका ज्ञान भी वेदों से मिलता है। अन्य सामान्य आवश्यक कर्मों के साथ ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, माता-पिता-आचार्य व विद्वान अतिथियों की सेवा तथा सभी प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव रखते हुए उनके जीवानयापन में सहयोगी होना ही मनुष्य के मुख्यः कर्म हैं जो उन्हें नियमित रूप से करने होते हैं। इनमें अनाध्याय नहीं होता। इस प्रकार वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य उन्नति के शिखर पर पहुंचता है। इसके अलावा जीवन की उन्नति का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं। केवल धन कमाना और सुख सुविधाओं को एकत्रित करना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। धर्म व सदाचार पूर्वक घन कमाना यद्यपि धर्म के अन्तर्गत आता है परन्तु इससे जीवन की सर्वांगीण उन्नति नहीं हो सकती। इसके लिए तो वेद विहित व निर्दिष्ट सभी करणीय कर्मों को करना होगा और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना होगा।

 

ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र आदि वेद विहित कर्मों को करके मनुष्य की ईश्वर से मित्रता हो जाती है अर्थात् जीवात्मा ईश्वर का सखा बन जाता है। महर्षि दयानन्द, मर्यादा पुरूषोत्तम राम, योगेश्वर कृष्ण, पतंजलि, गौतम, कपिल, कणाद, व्यास, जैमिनी, पाणिनी तथा यास्क आदि ऋषियों ने सम्पूर्णं वेदों का ज्ञान प्राप्त कर वेदानुसार कर्म करके ईश्वर का सान्निध्य, मित्रता व सखाभाव को प्राप्त किया था। यह ईश्वर तो नहीं बने परन्तु ईश्वर के सखा अवश्य बने। यह सभी विद्वान भी थे और धर्मात्मा भी। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ व्यवहार भानु में एक प्रश्न उठाया है कि क्या सभी मनुष्य विद्वान व धर्मात्मा हो सकते हैं? इसका युक्ति व प्रमाण सिद्ध उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है कि सभी विद्वान नहीं हो सकते परन्तु धर्मात्मा सभी हो सकते हैं। ईश्वर का मित्र बनने के लिए वेदों का विद्वान बनना व वेद की शिक्षाओं का आचरण कर धर्मात्मा बनना मनुष्य जीवन की उन्नति का शिखर स्थान है। इससे ईश्वर से सखा भाव बन जाता है। यदि कोई विद्वान न भी हो तो वह विद्वानों की संगति कर उनके मार्गदर्शन में ऋषियों मुनियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय कर धर्मात्मा बन कर ईश्वर से मित्रता व सखाभाव उत्पन्न कर सकता है और जीवन सफल बना सकता है। यह सफलता धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरूषार्थों का युग्म है। यह वेद के ज्ञान से सम्पन्न और वेदानुसार आचरण करने वाले योगियों या ईश्वर भक्तों को ही प्राप्त होती है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि आजकल प्रचलित मत-मतान्तर के अनुयायियों को ईश्वर का यह मित्रभाव पूर्णतः प्राप्त नहीं हो सकता, आंशिक व न्यून ही प्राप्त हो सकता है। यह सभी मत-मतान्तर धर्म नहीं है। यह विष मिश्रित अन्न के समान त्याज्य हैं इसलिए कि इनमें सत्य व असत्य दोनों का मिश्रण हैं। पूर्ण सत्य केवल वेदों में है जिसे स्वाध्याय द्वारा जाना जा सकता है। आईये, वेद की शरण में चले और वेदाचरण कर ईश्वर से मित्रभाव सखा प्राप्त कर अपने जीवन की उच्चतम उन्नति कर धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त करें। यह मित्रभाव ऐसा होता है कि दोनों एक तो नहीं बनते लेकिन लगभग समान कहे जा सकते हैं। ऐसी स्थिति में जीव यह धोषणा कर सकता है कि अहं ब्रह्मास्मिअर्थात् मैं ब्रह्म में हूं, ब्रह्म अर्थात् ईश्वर मुझ में है, हम दोनों परस्पर सखा व मित्र बन गये हैं। यही नहीं सर्वा आशा मम मित्रं भवंतुअर्थात् सभी दिशायें और सभी प्राणी मेरे मित्र बन गये हैं। मेरा जीवन सार्थक हो गया है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘ईश्वर को क्यों जानें, जानें या न जानें?’

truth

ओ३म्

ईश्वर को क्यों जानें, जानें या जानें?’

 हमारे एक लेख ईश्वर सर्वज्ञ है तथा जीवात्मा अल्पज्ञ है को गुरूकुल में शिक्षारत एक ओजस्वी युवक व हमारे मित्र ने पसन्द किया और अपनी प्रतिक्रया में कहा कि लोग ईश्वर को मानते नहीं है अतः एक लेख इस शीर्षक से लिखें कि हम ईश्वर को क्यों मानें? हमें यह सुझाव पसन्द आया और हमने इस विषय पर लिखने का उन्हें आश्वासन दिया। ईश्वर को हम मानें या न मानें, परन्तु पहले उसे जानना आवश्यक हैं। जानना क्यों है? इसलिये कि यदि हमें उससे कुछ लाभ होता या हो सकता है तो हम उससे वंचित न रहें। यदि उससे कुछ लाभ नहीं भी होता है तो फिर उसे जानकर उसको मानना छोड़ सकते हैं। प्रश्न का मूल यह भी है कि क्या ईश्वर है? इसका उत्तर है कि ईश्वर हो भी सकता है और नहीं भी। यदि नहीं है तो फिर एक प्रश्न जिसका उत्तर ढूंढना होगा वह यह है कि यदि नहीं है तो यह ब्रह्माण्ड कैसे बना, किसने बनाया व क्यों बनाया? प्राणी जगत को कौन बनाता है और इनका नियमन किसके द्वारा होता है? कोई भी क्रिया यदि होती है तो उसके कर्ता का होना अवश्यम्भावी है। यदि कर्ता न हो तो क्रिया होना सम्भव नहीं है। संसार में हम अपनी आंखों से जिन सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि पदार्थों और प्राणी जगत को देखते हैं उनका कर्ता अर्थात उन्हें बनाने वाला कोई न कोई तो अवश्य ही है। यदि नहीं है तो अपने-आप वा स्वतः तो कुछ बनेगा नहीं। संसार यथार्थतः अर्थात् सचमुच में है, यह इस बात का प्रमाण है कि संसार का कर्ता अर्थात् इसका बनाने वाला अवश्य है। उसका अस्तित्व सिद्ध हो जाने के बाद उसके स्वरूप का तर्क, बुद्धि वा युक्तिसंगत ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा फिर अन्ध-विश्वास अपना काम करते हैं और हमारा जीवन अज्ञान पूर्ण कृत्यों व झूठी आस्था को समर्पित हो जाता है।

                उस स्रष्टा का स्वरूप जानने के लिए उसका पहला गुण उसकी सत्ता का होना है अतः इस कारण से वह सत्य पदार्थ कहा जाता है। रचना हमेशा चेतन तत्व द्वारा होती है, जड़ या निर्जीव तत्व के द्वारा नहीं होती, अतः स्रष्टा का एक स्वरूप या गुण उसका चेतन तत्व होना है जिसे चित्त कहा जाता है। अब कोई चेतन सत्ता जिसमें दुख व क्लेश हो, वह तो संसार को बना नहीं सकती, अतः उसका समस्त दुःखों से रहित होना और आनन्द स्वरूप होना भी सिद्ध होता है। इसके बाद हम इस ब्रह्माण्ड के स्वरूप पर ध्यान देते हैं और विचार करते हैं तो हमें यह अनन्त परिमाण वाला दिखाई देता है। रचना व रचयिता का एक स्थान पर होना आवश्यक है। हम देहरादून में बैठे हुए जहां पर हैं, वही पर कोई रचना कर सकते हैं। देहरादून में या किसी स्थान पर स्थित कोई व्यक्ति वहां से 5 या 10 किलोमीटर वा कम या ज्यादा दूरी पर कोई रचना नहीं कर सकते। अतः इस संसार को अनन्त परिमाण में देखकर ईश्वर भी अनन्त व सर्वव्यापक, सर्वदेशी सिद्ध होता है और उसका सूक्ष्मतम होना भी आवश्यक है। इस ब्रह्माण्ड को बनाने के लिए अल्प शक्ति से काम नहीं चलेगा अतः उसका सर्वशक्तिमान होना भी अपरिहार्य है। कोई भी उपयोगी रचना के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। ज्ञान की कमी से रचना करने पर उसका उद्देश्य पूरा नहीं होता तथा रचना में दोष आ जाते हैं। जिस सत्ता से यह सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, मानव शरीर व अन्य प्राणी जगत बना है, वह कोई साधारण ज्ञानी नहीं है अपितु उसमें ज्ञान की पराकाष्ठा है, ऐसी सत्ता वह सिद्ध होती है। अतः उसे सर्वज्ञानमय या सर्वज्ञ कहा जाता है। इस प्रकार से अन्यान्य गुणों का समावेश उस सत्ता में सिद्ध होता व किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने इस सत्ता के स्वरूप को एक वाक्य में इस प्रकार से कहा है – ईश्वर सत्यचित्तआनन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।

 

ईश्वर के इस स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर उसके अन्य कार्यों को भी विचार कर जान लेते हैं। ईश्वर ने प्राणी जगत को बनाया है जिसमें मनुष्य, पशु, पक्षी अर्थात् समस्त थलचर, नभचर तथा जलचर आदि सम्मिलित हैं। इन सभी प्राणियों के शरीरों में हम एक-एक जीवात्मा को पाते हैं। इन सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, चेतन तत्व जीवात्माओं को ही ईश्वर ने भिन्न-भिन्न प्राणि-शरीर प्रदान किये हैं जिनसे यह सुख व दुखों का भोग करने के साथ कर्म में प्रवृत्त रहते हैं। सभी प्राणियों के सुख-दुख के जब कारणों की विवेचना करते हैं तो ज्ञात होता है कि शुभ व अशुभ, अच्छे वा बुरे तथा पुण्य वा पाप कर्मों को मनुष्य योनि में लोग करते हैं। शुभ, अच्छे व पुण्य कर्मों का फल सुख दिखाई देता है और अशुभ, बुरे वा पाप कर्मों का फल दुःख दिखाई देता है। अतः ईश्वर जीवात्माओं को कर्म के फल प्रदान करने वाला तथा सभी प्राणियों को उनके शुभाशुभ कर्मों के आधार पर मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियेां में जन्म देता है, यही तर्क व युक्तियों से सिद्ध होता है। यह भी ईश्वर के स्वरूप व कार्यों का एक मुख्य अंग है।

 

ईश्वर का स्वरूप विदित हो जाने के बाद हमें थोड़ा सा अपने स्वरूप पर भी विचार करना उचित प्रतीत होता है। हम सब चेतन तत्व है और हमारी सत्ता यथार्थ अर्थात् सत्य है। हमारी सत्ता काल्पनिक व अन्धकार में रस्सी को देख कर सांप की भ्रांति होने जैसी नहीं है अपितु यह पूर्णतः सत्य है व उसका अस्तित्व यथार्थ है। यह अस्तित्व अनुत्पन्न, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर सिद्ध होता है। कोई मनुष्य दुःख नहीं चाहता परन्तु वह इसमें विवश है। जब-जब उसे दुःख, रोगादि व दुर्घटनाओं, आर्थिक तंगी, अशिक्षा, अज्ञान आदि के कारण होता है तो उसमें वह विवश व परतन्त्र होता है। इससे यह सिद्ध होता है दुःख का कारण उसके अशुभ कर्म वा उन कर्मों के ईश्वर द्वारा दिये जाने वाले फल हैं जो वर्तमान व पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ईश्वर से उसे जीवन भर मिलते रहते हैं। इस प्रकार से जीव की सत्ता अनादि, नित्य व इसका स्वरूप सत्य व चेतन, एकदेशी, सूक्ष्म, आकार-रहित, अजर, अमर, जन्म-मरण-धर्मा सिद्ध होता है।

 

ईश्वर के बारे में संक्षेप में तो हम जान ही गये हैं। उसका अस्तित्व निभ्र्रान्त रूप से सिद्ध है। अब उसको माने या न मानें, इस प्रश्न पर विचार करते हैं। जो पदार्थ यथार्थ रूप में हैं उनको मानना ही ज्ञान व न मानना अज्ञान कहलाता है। ईश्वर है तो उसे तो मानना ही पड़ेगा। अब दूसरी प्रकार का मानना यह है कि हम उससे क्या कोई लाभ ले सकते हैं या स्वयं को होने वाली हानियों से बचा सकते हैं? इसका उत्तर है कि हम उसका चिन्तन कर उसे अधिक से अधिक जानने का प्रयास करें। इस कार्य में हम सत्यार्थ प्रकाश आदि सत्य के अर्थ का प्रकाश करने वाले ग्रन्थ की सहायता भी ले सकते हैं। मनुष्य को ज्ञान नैमित्तिक साधनों से प्राप्त होता है। यह ज्ञान माता-पिता-आचार्यों से भी प्राप्त होता है या फिर पुस्तकों का अध्ययन कर ज्ञान हो सकता है। माता-पिता-आचार्यों व पुस्तकों की बहुत सी या कुछ बातें अज्ञान व अविवेक पूर्ण भी हो सकती है जो कि उनकी ज्ञान की क्षमता पर निर्भर होती है जो कि सीमित है। कोई भी मनुष्य पूर्ण ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ कदापि नहीं हो सकता। ससीम व एकदेशी होने के कारण जीवात्मा अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान प्राप्त करने वाली है। इसे ज्ञान वृद्धि के लिए माता-पिता-आचार्यों की अपेक्षा होती है जो इससे अधिक जानते हों। अतः सत्य ज्ञान की पुस्तकों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। पुस्तकों का ज्ञान भी दो प्रकार का होता है। अधिकांश पुस्तके सत्य व असत्य का मिश्रण होती हैं। अनेक पुस्तकें, धार्मिक व सामाजिक सभी प्रकार की, क्षुद्राशय मनुष्यों ने अपनी अज्ञानता व कुछ स्वार्थों के कारण बनाई हुई होती हैं वा हैं जिसमें सत्य के साथ असत्य मिश्रित है और ऐसी पुस्तकें विष मिश्रित अन्न या भोजन के समान हैं। प्रायः अल्पज्ञानी मनुष्यों द्वारा ही निर्मित सभी पुस्तकें हैं और सभी इसी कोटि में आती है। चार वेद यद्यपि ज्ञान की पुस्तकें हैं परन्तु यह किसी मनुष्य की रचना न होकर संसार को बनाने वाले और चलाने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप ईश्वर की रचनायें हैं। इन पुस्तकों में निहित ज्ञान को ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार श्रेष्ठ बुद्धि व स्वस्थ शरीरधारी पुण्यात्माओं को प्रदान किया था। इन्हीं वेदों के आधार सतत वेदों का अघ्ययन, चिन्तन, उपासना करके हमारे प्राचीन ऋषियों ने वेदानुकूल सत्य ज्ञान की पुस्तकेों को रचा था। ऐसे ग्रन्थों में वेदों से इतर शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, निघण्टु, ज्योतिष, उपनिषद व दर्शन, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि ग्रन्थ हैं। इनमें सत्यार्थ प्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थ भी सम्मिलित होते हैं।

 

इन पुस्तकों का अध्ययन कर सत्य-सत्य ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। इनसे यह जाना जाता है कि हम ईश्वर से जीवन में जो चाहें, वह प्राप्त कर सकते हैं। उसके लिए हमें अपनी प्रार्थना के अनुरूप पात्रता को प्राप्त करना होता है। संसार में धन व सम्पत्ति आवश्यक हैं। इसकी प्राप्ति के लिए मनुष्यों का स्वस्थ शरीर होना आवश्यक है। अतः स्वास्थ्यवर्धक भोजन, व्यायाम व प्राणायाम आदि करके शरीर को स्वस्थ रखना चाहिये और रोगादि होने पर उचित उपचार करना चाहिये। इसके अतिरिक्त संसार के सबसे बहुमूल्य पदार्थ ईश्वर को जानकर उसकी प्राप्ति के लिए स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये।  इससे ईश्वर से मित्रता व पे्रम सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसकी अन्तिम परिणति ईश्वर साक्षात्कार के रूप में होती है। यह ऐसी अवस्था होती है कि इसे प्राप्त कर कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रहता। मनुष्य के आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक, इन तीन कारणों से होने वाले सभी दुःखए ईश्वरोपासना एवं सदकर्मों से  दूर हो जाते हैं। जीवन पूर्णतः सुखी हो जाता है। इस स्थिति में पहुंच कर मनुष्य दूसरों का मार्गदर्शन, उपदेश व प्रवचन द्वारा तथा सरल भाषा में अज्ञान व अन्धविश्वास रहित तथा ज्ञान से पूर्ण पुस्तकें लिखकर कर सकता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु होने पर वह जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। कारण यह है कि जन्म व मरण हमारे कर्मों के आश्रित हैं और जब हम कोई अशुभ कर्म करेंगे ही नही तो फिर जन्म होगा ही नहीं। यह मोक्ष की अवस्था कहलाती है। जिस प्रकार अच्छा व श्रेष्ठ कार्य करने पर माता-पिता-आचार्यों व शासन से पुरस्कार मिलता है, उसी प्रकार से उपासना की सफलता व अशुभ कर्मों का क्षय हो जाने पर पुरस्कार स्वरूप ईश्वर केे द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। यह मोक्ष ऐसा है कि इसमें जीवात्मा को ईश्वर के द्वारा सुखों की पराकाष्ठा आनन्द की प्राप्ति होती है। इसकी अवधि 31 नी 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। इतनी अवधि तक जीवात्मा जन्म व मृत्यु के चक्र से छूट कर ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द का उपभोग करता है। मोक्ष व उपासना के बारे में वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों को पढ़कर निर्भ्रांत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

 

हमने अपने अध्ययन में पाया कि महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि महात्माओं ने वेदों एवं इतर वैदिक साहित्य का अध्ययन कर ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के सत्य स्वरूप को जाना था। उनका जीवन ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना के साथ वैदिक कर्तव्यों का निर्वहन अर्थात् पंच महायज्ञ आदि कर्मों को करने के साथ समाज के हितकारी परोपकारी, सेवा व समाजोन्नति तथा देशोन्नति के कार्यां में व्यतीत हुआ। यह सभी लोग प्रातः व सायं नियमित रूप से ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करते थे। इससे यह बात भी ज्ञात होती है कि इन महात्माओं की गुणों व कर्मों की समानता व पवित्रता के कारण ईश्वर से पूर्ण निकटता थी। समाज के हित के सभी सेवा व परोपकार आदि कार्य भी इन्होंने किये। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती तथा महात्मा हंसराज शिक्षा जगत से जुड़े हुए थे और इस क्षेत्र में इन्होंने प्रशंसनीय कार्य किया। पं. लेखराम ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन चरित की खोज के साथ वैदिक धर्म का प्राणपन से प्रचार किया और अगणित स्वजातीय बन्धुओं को विधर्मी होने से बचाया और अन्य मतों के बन्धुओं में वैदिक मत का प्रचार कर उन्हें वैदिक धर्म का प्रेमी व प्रशंसक बनाया। इन सभी बन्धुओं ने उपासना के द्वारा ईश्वर से अत्यन्त निकटता प्राप्त की हुई थी। महर्षि दयानन्द तो असम्प्रज्ञात समाधि को भी सिद्ध किये हुए थे। अन्य महात्मा वा महापुरूष भी असम्प्रज्ञात समाधि के अत्यन्त निकट थे जो कि मोक्ष व जीवन की पूर्ण सफलता का द्वारा व आरम्भ है। इन सभी महात्माओं ने पवित्र जीवन व्यतीत किया जो हम सभी के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय है। समाज में इनका अति उच्च एवं सम्माननीय स्थान था और इनका व्यक्तिगत जीवन भी सन्तोष रूपी सुख से भरपूर था। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि इन जैसा जीवन ही सभी मनुष्य जीवनधारी प्राणियों का होना अभीष्ट है।

 

ईश्वर को क्यों जाने ? जाने या न जाने? का उत्तर हमें मिल चुका है। यदि हमने ईश्वर को जान लिया तो हम निश्चय ही उसे मानेगे भी अर्थात् अपने लाभों के लिए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना वेद के अनुसार करेंगे जिसका परिणाम होगा कि हम सभी प्रकार के दुःखों से मुक्त होकर सदा आनन्द में विचरण करने वाले होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। आईयें, ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने का प्रयास करें, सत्साहित्य का अध्ययन करें और अज्ञान, ढ़ोग, पाखण्ड, अन्धविश्वासों व कुरीतियों को तिलांजलि दे दें क्योंकि इनसे बन्धन पैदा होते हैं और जीवन सुख-दुख के चक्र में फंस कर असफल होता है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121