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भारतीय जी की शोध व्यथा-कथा – ओममुनि वानप्रस्थी

दिल्ली से स्वामी अग्निवेश के साप्ताहिक समाचार-पत्र वैदिक सार्वदेशिक में भवानीलाल जी का एक लेख ‘आर्यसमाज में उच्चतर शोध की स्थिति सन्तोषप्रद नहीं’ शीर्षक से अंक २९ जनवरी से ४ फरवरी, पृष्ठ संख्या ०६ पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख के शीर्षक से लेखक के पीड़ित होने का तो पता लग रहा है, परन्तु पीड़ा आर्यसमाज के शोध को लेकर है या परोपकारिणी सभा को लेकर है, क्योंकि भारतीय जी सभा के सम्मानित सदस्य और अधिकारी भी रहे हैं, इस प्रकार यह बात पाठक को पूरा लेख पढ़ने के बाद ही स्पष्ट हो पाती है।

लेख में जिन-जिन शोध संस्थाओं की तथा शोध विद्वानों की चर्चा की है, उन संस्थाओं के विद्वान् दिवंगत हो चुके हैं या फिर उन संस्थाओं का वर्तमान में शोध कार्यों से कोई विशेष सम्बन्ध देखने में नहीं आता। डॉ. भारतीय जी की पीड़ा को समझने के लिए उन्हीं की शब्दावली  को पहले देख लेने से पीड़ा का कारण समझने में सहायता मिलेगी, वे व्यथापूर्ण श द इस प्रकार हैं- ‘‘इधर अजमेर में परोपकारिणी सभा ने कुछ वर्ष पूर्व करोड़ों रुपये व्यय कर ऋषि उद्यान में विशाल बहुमंजिला भवन तो खड़ा कर लिया, परन्तु रिसर्च के नाम पर शून्य है। केवल ऋषि मेले के समय चार दिनों के लिये यह भवन काम में आ जाता है, अन्यथा शोध के नाम पर यह सब आडम्बर ही है। यह अवश्य हुआ है कि सत्यार्थप्रकाश के संशोधित ३७वें संस्करण ने एक नया विवाद अवश्य खड़ा कर दिया है। पं. मीमांसक तथा पं. रामनाथ वेदालंकार की उपेक्षा की गई और विसंवाही स्थिति बनी। तो संस्थाओं द्वारा प्रारम्भ किये गये शोध प्रकल्पों का अन्ततः यह हश्र देखा गया।’’

इन पंक्तियों के उत्तर  में सभा ने क्या शोध कार्य किये, कराये हैं और करा रही है? यह सब परोपकारी पत्रिका के माध्यम से सर्वविदित है। फिर उस विवरण से भारतीय जी की पीड़ा तो शान्त होने से रही, क्योंकि पीड़ा के कारण दूसरे हैं जिनका इस प्रसंग में उल्लेख करना उचित होगा।

भारतीय जी को करोड़ों रुपये व्यय करके विशाल बहुमंजिला भवन रिसर्च के नाम पर शून्य लगता है और शोध के नाम पर आडम्बर। भारतीय जी को पता नहीं कि भवन में क्या होता है, कोई बात नहीं, किन्तु जिस जनता ने करोड़ों रुपये सभा को दान दिये, डॉ. जी की दृष्टि में तो उन बेचारों ने गलती ही की होगी। भवन की भव्यता पर एक आर्यसमाज प्रेमी ने वास्तुकार माणकचन्द राका जी से कहा- आपने ऋषि उद्यान में इतना विशाल भवन बनाकर पैसों का अपव्यय ही किया है, तब राका जी ने उस प्रेमी से पूछा- क्या सैंकड़ों और हजारों करोड़ों रुपये लगाकर जब एक भव्य होटल बनाया जाता है और जिसमें शराब की बोतल आधी नंगी लड़कियाँ पीती हैं, क्या वहाँ कभी इस अपव्यय का विचार आपके मन में आया है? फिर यहाँ कुछ साधु, संन्यासी, ब्रह्मचारी, विद्वान् लोग शास्त्रों को पढ़े-पढ़ायेंगे तो आपके मन में अपव्यय जैसी बात कैसे आई? वह बेचारा तो चुप रह गया, परन्तु भारतीय जी की पीड़ा उस भवन को लेकर अभी तक शान्त नहीं हुई। भारतीय जी की दानशीलता के सभा पर कितने उपकार हैं, उनको स्मरण किया जाना अनुचित नहीं होगा। जब महर्षि की बलिदान शताब्दी  मनाई गई तो आर्यजनों ने सभा व समारोह के लिए लाखों रुपये का दान एकत्रित करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण  लोगों को रसीद बुक दी हैं। समारोह सम्पन्न हुआ। समारोह की दक्षिणा लेने के पश्चात् भारतीय जी ने एक भी रसीद बिना काटे कोरी रसीद बुक सभा को लौटाने का कार्य किया, फिर भी करोड़ों रुपये का भवन बन गया, इस शोध का बोध है या नहीं, पता नहीं।

अजमेर, चण्डीगढ़, जोधपुर रहते हुए अपनी प्रतिदिन भेजी जाने वाली व्यक्तिगत डाक के पैसे वे अजमेर निवास के समय से सभा से निरन्तर माँगते और लेते रहे हैं, जिनके बन्द कर दिये जाने से ‘सभा का शोध कार्य रुक गया’, यह अनुभूति होना बहुत स्वाभाविक है। भारतीय जी को सभा द्वारा अपनी तथाकथित उपेक्षा का दुःख बहुत दिनों से व्यथा दे रहा है, सभा की निन्दा करने जैसा शुभ कार्य आपने अपनी आत्मकथा में भी किया है।

नवजागरण के पुरोधा पुस्तक लिखकर सार्वदेशिक सभा में रखी गई, वहाँ नहीं छप सकी तो सभा मन्त्री श्रीकरण शारदा जी को शताब्दी  के अवसर पर छपवाने के लिये प्रार्थना की और उन्होंने वह छाप दी तथा छपने के बाद स्वामी सत्यप्रकाश जी के माध्यम से रॉयल्टी की माँग की और कुछ सौ पुस्तकें लेकर माने। ऊपर से कलम में यह भी कहने का दम रखते हैं कि जिस सभा के संस्थापक का मैंने शोध पूर्ण जीवन लिखा है, उस सभा को मेरा कृतज्ञ होना चाहिए, इसके विपरीत यह सभा मेरी उपेक्षा करती है। यह शोध सभा में आजकल सच में नहीं हो रहा।

परोपकारी के सम्पादन का भार तो डॉ. जी ने उठाया और उसमें शोधपूर्ण लेख तो कभी भी देखे जा सकते हैं। इस प्रसंग में शोध की बात यह है कि समीक्षा के नाम पर आई पुस्तकों की समीक्षा करके पुस्तक बेचकर पैसे जेब में रखने से अच्छा शोध और क्या हो सकता है? इस क्रम में एक प्रसंग याद आ रहा है। भारतीय जी की चण्डीगढ़ से भेजी समीक्षा नहीं छपी। भारतीय जी द्वारा कारण पूछने पर उन्हें बताया गया कि समीक्षा के लिए पुस्तक की दो प्रतियाँ आती हैं- एक समीक्षक को मिलनी चाहिए, एक सभा को, तो मान्य भारतीय जी ने अपना शोध कौशल दिखा दिया। एक फर्जी बिल भारतीय साहित्य सदन के नाम से बनाया और समीक्षा के लिए आई पुस्तकों के सभा से ही पैसे वसूल कर लिए, इसे कहते हैं शोध। वह बिल बुक भारतीय जी के काम आज भी आ रही होगी। बिल सभा के संग्रह में शोभायमान है।

भारतीय जी जानते हैं, संस्था समाजों से अभिनन्दन कराने से प्रतिष्ठा भी मिलती है और इस बहाने धन भी मिल जाता है। भारतीय जी ने अपने शिष्यों, मित्रों के माध्यम से अभिनन्दन समारोह का उपक्रम किया। प्रश्न था अभिनन्दन ग्रन्थ छपवाने का। वे सभा के सम्मान्य सदस्य भी थे, उन्होंने सभा से कहा- ग्रन्थ प्रकाशित कर दें। मेरे शिष्य लोग इसका व्यय दे देंगे। सभा ने अभिनन्दन ग्रन्थ तो छाप दिया, ग्रन्थ भी छप गया, भेंट का पैसा भारतीय जी को मिल गया, है न कमाल का शोध। सम्भवतः आजकल सभा ऐसा शोध न कर पा रही हो।

आर्यसमाज के एक प्रतिष्ठित विद्वान् थे, वे अपने बड़े पुस्तकालय की सदा चर्चा करते थे। पं. जी के अन्तरंग मित्र जो उनसे परिहास में पूछ लिया करते थे कि पं. जी इनमें से खरीदी हुई कितनी हैं और कबाड़ी हुई कितनी? लगभग वही कहानी भारतीय जी के शोध पुस्तकालय की है। सभा में शोधार्थी आते रहते हैं, एक बार एक छात्रा दयानन्द विश्वविद्यालय अजमेर से ऋषि दयानन्द विषयक शोध कार्य कर रही थी, उसे सभा के कार्यकर्ताओं  ने परामर्श दिया, जोधपुर जाकर भारतीय जी के पुस्तकालय की भी सहायता तुम्हें लेनी चाहिए, वहाँ आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द विषयक प्रचुर सामग्री है। उस छात्रा ने जोधपुर जाकर पुस्तकें देखीं, उसे सामग्री भी मिली परन्तु शोध की बात यह है कि छात्रा ने कहा– परोपकारिणी सभा के पुस्तकालय की दुर्लभ पुस्तकें तो भारतीय जी के संग्रहालय में हैं, तब सभा के कार्यकर्ता को कहना पड़ा कि वहाँ भी सभा का ही पुस्तकालय है। इस बहुचर्चित पुस्तकालय के नाम पर एक और संस्था भी भारतीय जी के शोध का शिकार हो गई। उस संस्था के संचालक ने भारतीय जी से कहा- आपके बाद तो कोई इनका उपयोग करने वाला नहीं हैं, आप अपना पुस्तकालय हमारी संस्था को बेच दें जैसा सुना जाता है भारतीय जी डेढ़ लाख रुपये माँग रहे थे और संस्था वालों ने उन्हें ढाई लाख रुपये दिये। इसमें शोध की बात यह है कि इस सौदे में महत्वपूर्ण  पुस्तकें फिर बचाली गईं। हो सकता है फिर कोई शोध करने का अवसर मिल जाये। आज वहाँ के पुस्तकालय में जाकर सभा की मोहर लगी पुस्तकें देखी जा सकती हैं।

यदि कोई व्यक्ति सभा का अधिकारी होकर दुर्लभ पुस्तकें निकाल कर ले जाये तो यह शोध प्रेम ही कहा जायेगा। दुनिया में पैसे से तो सभी प्रेम करते हैं। उलटे-सीधे बिल बनाते हैं, यह तो समाज की मान्य परम्परा है, इसप्रकार शोध प्रेमियों को किसी भी प्रकार खरीदकर, उधार लेकर (बाई, बोरो एण्ड स्टील) पुस्तक प्राप्त करने का अधिकार पुराने ज्ञान मार्गियों ने दिया है। यह शोध कार्य का ही प्रमाण है।

स्वामी सर्वानन्द जी महाराज ने दयानन्द आश्रम के भवन में भारतीय जी को जिन शब्दों  से सम्बोधित किया था वे शायद  आज भी उन्हें स्मरण होंगे। भारतीय जी ने रामनाथ जी वेदालंकार और युधिष्ठिर मीमांसक जी की उपेक्षा करने का आरोप लगाया है, सत्यार्थप्रकाश में जो भी कार्य किया गया है, वह सब विद्वानों के सामने है, और इनको जाँचने का सबको अधिकार है। इसमें आप भी शोध कार्य कर सकते हैं। सभा की दृष्टि में जो सर्वोत्तम  हो सकता है उसे ही प्रस्तुत करने का प्रयास रहा है। पुस्तक आपके सामने है, आप जो भी त्रुटि बतायेंगे उसपर सभा अवश्य विचार करेगी। सभा ने सदा ही सुझावों को आमन्त्रित किये हैं, प्राप्त सुझाओं का स्वागत भी किया है। यदि विवाद हुआ है तो उस मण्डली के सदस्य भी डॉ. साहब थे।

इसके आगे  भी यदि सभा के शोध कार्य के विषय में कोई प्रश्न भारतीय जी उठायेंगे तो उनका सप्रमाण उत्तर  दिया जा सकेगा। अब तक सभी प्रश्नों और आरोपों का उत्तर दिया जा चुका है।

–      ब्यावर  अजमेर

 

दक्षिण भारत में आर्यसमाज का योगदान – डॉ. ब्रह्ममुनि

 

देश के भौगोलिक अध्ययन के लिए, इसे सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जाता है- पहला उत्तर  और दूसरा दक्षिणी भाग। यद्यपि यह विभाजन वैज्ञानिक नहीं है, तथापि सामान्य रूप से उत्तरी  भाग को ‘उत्तर  भारत’ और दक्षिणी भाग को ‘दक्षिण भारत’ के नाम से अभिहित किया जाता है। उपर्युक्त विभाजन के अतिरिक्त पाश्चात्य विद्वानों ने एक अलग प्रकार की भ्रामक संकल्पना की है कि आर्य बाहर से इस देश में आए और वे उत्तरी भाग में निवास करने लगे तथा यहाँ के पूर्व निवासियों को उन्होंने दक्षिण में भगाया, अतः उत्तर के निवासी ‘आर्य’ कहलाए और दक्षिण के निवासी ‘द्रविड’ कहलाए। पाठ्यक्रमों में इसी अवधारणा को पढ़ाया जाने के कारण सुशिक्षित एवं बुद्धिजीवी वर्ग में यही भ्रामक अवधारणा प्रबल है। किन्तु यह अवधारणा तर्क व प्रमाण सम्मत नहीं है, क्योंकि संस्कृति, भाषा और दर्शन इन तीनों का उद्गम स्थान एक ही भारत है। दक्षिण की सभी भाषाओं में संस्कृत का शब्द -भण्डार प्रचुर मात्रा में तत्सम रूप में पाया जाता है तथा वेद का पठन-पाठन दक्षिण भारत में ही पारम्परिक रूप से विद्यमान हैं। पूरे भारत में जीवन-पद्धति वेद सम्मत थी, किन्तु धर्माचार्यों ने स्वार्थ, अज्ञान, अन्धविश्वास, सदोष मतमतान्तर के कारण जो वेद विरुद्ध परम्परा प्रारम्भ की उससे हमारी सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय स्थिति अत्यन्त खोखली हो गई। ऐसी आन्तरिक कलह की स्थिति को देखकर उत्तर से अनेक विदेशी आक्रान्ताओं ने समृद्ध भारत पर आक्रमण किए तथा यहाँ की सम्पत्ति , संस्कृति, शिक्षा-पद्धति और जीवन-पद्धति पर तीव्र कुठाराघात किया।

आभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों दृष्टियों से कालबाह्य रुढ़ियों तथा सिद्धान्तों से घुन लगा हुआ समाज पूरी तरह खोखला हो गया था। ऐसी दुरावस्था में गुजरात प्रान्त के टंकारा में सन् १८२४ में महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ। उनके गुरु विरजानन्द जी ने मानव मात्र में व्याप्त दुःख, अशान्ति तथा रोग के मूलभूत कारण- अज्ञान, अविवेक तथा अन्धविश्वास को बताकर सबके कल्याणार्थ वेद के शाश्वत ज्ञान को मानव-मात्र के कल्याण का मार्ग बताया तथा महर्षि दयानन्द ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन न्यौछावर किया। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने वेदों की अपौरुषेयता तथा आर्ष ग्रन्थों की प्रामाणिकता बताकर तथा अनेक ग्रन्थों का प्रणयन कर मानव-मात्र को जीवन के श्रेयमार्ग का पथिक बनाने के लिए सन् १८७५ में मुम्बई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की।

यद्यपि आर्यसमाज की स्थापना मुम्बई में हुई तथापि उसका प्रचार-प्रसार उत्तर  भारत में- विशेष रूप से पंजाब में हुआ। लाहौर में उपदेशक महाविद्यालय की स्थापना की गई। दक्षिण भारत के अनेक विद्यार्थी वहाँ पढ़कर उपदेशक बनकर आए और दक्षिण भारत में आर्य समाज के वैचारिक सिद्धान्तों से उपदेशों के द्वारा जनजागृति का कार्य किया।

दक्षिण भारत का योगदानः दक्षिण भारत में उस समय निजामशाही का राज्य था। मराठवाड़ा के वर्तमान आठ जिले, कर्नाटक के ५ जिले तथा आन्ध्र के जिलों को जोड़कर हैदराबाद राज्य की सीमा थी। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत में अन्य शासकों के अपने-अपने राज्य थे। उस समय दक्षिण भारत में अनेक मत-मतान्तर थे तथा जैन, बौद्ध, पारसी, इस्लाम, ईसाई, विविध पन्थ, सम्प्रदाय और धर्म प्रचलित थे। ऐसी विषम परिस्थिति में आर्यसमाज को अपना कार्य दक्षिण भारत में करना पड़ा।

व्यक्ति निर्माणः दक्षिण भारत के बहुत लोगों ने आर्यसमाज के विचारों से प्रभावित होकर विद्वान् बनने के लिए उत्तर  भारत की वैदिक संस्थाओं में अध्ययन किया, आर्यसमाज का आजीवन प्रचार किया और साथ ही नए व्यक्तियों को आर्यसमाजी बनने की प्रेरणा दी। इनमें कुछ प्रमुख नाम निम्नलिखित हैं- पं. नरेन्द्र, पं. श्यामलाल, बंसीलाल, शेषराव वाघमारे, उत्त्ममुनी , विनायकराव विद्यालंकार, न्यायमूर्ति कोरटकर, चन्द्रशेखर वाजपेयी। इन लोगों ने अनेक क्षेत्रों में आर्यसमाज के अनेक पहलुओं को लेकर काम किया, जिसके परिणामस्वरूप आज दक्षिण भारत में हजारों आर्यसमाजी अपने विभिन्न क्षेत्रों में रहते हुए आर्यसमाज का प्रचार कर रहे हैं।

संस्थाएँः आर्यसमाज के सैद्धान्तिक विचारों के प्रचार-प्रसार, सेवा, सुरक्षा एवं व्यक्ति निर्माण के लिए आर्यसमाज और संगठन की स्थापना की गई। मुम्बई के बाद बीड़ (महाराष्ट्र) जिले के निवासी तिवारी नामक व्यक्ति ने महर्षि दयानन्द के भाषण सुनकर दूसरा आर्यसमाज सन् १८८० में धारूर नामक ग्राम में स्थापित किया। इसके बाद सुल्तान बाजार (हैदराबाद) में आर्यसमाज की स्थापना की गई जो दक्षिण भारत के आर्यसमाज का बहुत बड़ा केन्द्र था। जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक प्रदेश ने अपनी-अपनी प्रादेशिक सभाओं की स्थापना की जैसे- मुम्बई आर्य प्रतिनिधि सभा, मध्य दक्षिण आर्य प्रतिनिधि सभा तथा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा से संलग्न।

दक्षिण भारत के आर्यसमाजी विद्वान्ः दक्षिण भारत में आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के कारण तथा उ    उत्तर  भारत की संस्थाओं में पढ़कर अनेक विद्वान् तैयार हुए और उन्होंने अपने-अपने प्रान्तों में जाकर वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। इनमें कुछ नाम निम्न प्रकार हैं- पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ (उस्मानाबाद), बंशीलाल व्यास (हैदराबाद), शामलाल (उदगीर), डी.आर. दास (लातूर), गोपालदेव शास्त्री (बसदकल्याण) प्रेमचन्द्र प्रेम (भदनुर), पं. मदनमोहन विद्यासागर, गोपदेव शास्त्री, पं. वामनराय येवणूरधर इत्यादि।  यह सूची प्रदीर्घ है, स्थानाभाव के कारण कुछ ही विद्वानों के नाम गिनाए हैं।

साहित्य-निर्माणः- जनमानस तक वैदिक सिद्धान्तों को पहुँचाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति के लिए साहित्य और आर्यसमाज के सिद्धान्तों को प्रादेशिक भाषाओं में भी निर्माण किया। इन विचारों से समाज में जागृति हुई। प्रमुख लेखकों में पं. नरेन्द्र, विनायकराव विद्यालंकार, खंडेराव कुलकर्णी, उत्त्ममुनी इत्यादि उल्लेखनीय हैं। इसके साथ दक्षिण भारत की सभी भाषाओं में महर्षि दयानन्द की पुस्तकों का अनुवाद भी किया गया।

पत्रिकाएँः हैदराबाद में आर्यसमाज की स्थापना के बाद ‘मुंशी रे दकन’ साप्ताहिक निकाला गया जो वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करता था। उर्दू साप्ताहिक ‘नई जिन्दगी’ जे.एन. शर्मन के सम्पादकत्व में निकलने लगा। शोलापुर से ‘वैदिक सन्देश’ तथा ‘सुदर्शन’ भी साप्ताहिक प्रकाशित होने लगे। चन्दूलाल, पं. नरेन्द्र तथा सोहनलाल ठाकुर के सम्पादकत्व में ‘वैदिक आदर्श’ साप्ताहिक प्रारम्भ हुआ, जो उर्दू में प्रकाशित होकर मुसलमानों के अत्याचारों का जवाब प्रखरता से देता था। बाद में यही साप्ताहिक ‘सोलापुर’ से ‘वैदिक सन्देश’ के नाम से निकलने लगा जो पुनः ‘आर्यभानु’ के नाम से हैदराबाद से शुरू हुआ। लक्ष्मणराव पाठक ने ‘निजाम विजय’ पत्रिका शुरू की। अनेक पत्रिकाएँ नाम बदलकर निकलने लगीं।

व्याख्यान मालाः ग्रामीण भाग के जन साधारण लोगों के लिए जो अनपढ़, अशिक्षित और अज्ञानी थे उनकी वैचारिक जागृति के लिए उनके गाँवों में जाकर उनके समय के अनुसार, उन्हीं की भाषा में विद्वान् पण्डित तथा भजनोपदेशकों ने व्याख्यानों से जनजागरण का कार्य किया। प्रतिवर्ष श्रावणी सप्ताह तथा भारतीय काल गणनानुसार नववर्ष के प्रारम्भ में वार्षिकोत्सव का आयोजन किया जाता था जिसमें विविध सम्मेलन आयोजित किये जाते थे जैसे- धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा, महिला सम्मेलन, वेद-सम्मेलन, संस्कृत सम्मेलन, संस्कार शिविर आदि। इसके साथ ही सामयिक विषयों पर भी व्याख्यान आयोजित किए जाते थे। जिसमें अन्धश्रद्धा निर्मूलन, व्यसनमुक्ति, स्वास्थ्य रक्षा इत्यादि द्वारा जन-जागरण का मह  वपूर्ण कार्य आर्यसमाज के इन उपक्रमों द्वारा किया जाता था।

षोडश संस्कारः महर्षि दयानन्द ने वेदाधारित १६ संस्कार का महत्व  बताकर मनुष्य निर्माण कार्य के लिए प्रतिपादन किया। साथ ही इसकी वैज्ञानिकता भी प्रतिपादन की। सोलह संस्कारों की प्रासंगिकता प्रतिपादित की तथा समाज के जिस वर्ग का उपनयन संस्कार नहीं होता था उन सबका आर्यसमाज ने उपनयन संस्कार कराया तथा समाज के वातावरण का निर्माण किया। इसके साथ-साथ कन्याओं तथ महिलाओं का भी उपनयन संस्कार करा कर नारी को म्हात्व्यपूर्ण  स्थान दिलाया। जिसके फलस्वरूप आज महिलाएँ पौरोहित्य का कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न करा रही हैं। अन्त्येष्टि संस्कार का भी वैदिक पद्धति से प्रचलन किया।

शिविरों का आयोजनः ग्रामीण तथा शहरी भागों में वैचारिक क्रान्ति, सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता, मानव को संस्कारित करने के लिए विद्वान् और सेवाभावी लोगों ने शिविरों का आयोजन किया। संस्कार शिविरों द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्वाश्रमी हरिश्चन्द्र गुरु जी) ने अनेक तरुण विद्यार्थी तथा विद्यार्थिनियों को सन्मार्ग बताकर सुसंस्कारित, जागरूक तथा कर्तव्य  परायण नागरिक बनाया। इसी प्रकार आर्यवीर दल तथा स्वास्थ्य रक्षा शिविरों द्वारा नवयुवकों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता उत्पन्न की तथा व्यसनाधीनता से परामुख किया। इसके साथ-साथ कन्याओं की उन्नति के लिए कन्या संस्कार शिविर, समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को पौरोहित्य कार्य की वैदिक निधि का ज्ञान कराने के लिए पुरोहित प्रशिक्षण शिविर, बाल्यावस्था के कोमल मन पर राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए तथा संस्कारों के बीजवपन के लिए बाल संस्कार शिविर, मन की स्थिरता के लिए ध्यान योग शिविर, आसन प्राणायाम शिविर तथा योग शिविर, रोग चिकित्सा के लिए प्राचीन काल की ऋषियों द्वारा अनुमोदित आयुर्वेद चिकित्सा शिविर तथा गोमाता की रक्षा के लिए गो कृषि शिविर आयोजित किए जाते हैं, जिससे समाज के उपर्युक्त सभी क्षेत्रों तथा अंगों में जागृति आने से व्यक्ति, परिवार, समाज सभी सुखी और स्वस्थ बन सके।

सम्मेलनों का आयोजनः समाज के अन्तिम छोर के व्यक्ति के निर्माण के साथ-साथ, पूरे समाज को जगाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति, सामुदायिक परिवर्तन, आत्मविश्वास, सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा बल, बाह्य परम्पराओं से विद्रोह के लिए अनेक शीर्षस्थ विद्वानों के भाषणों से समाज परिवर्तन के लिए विविध स्तरों पर अनेक सम्मेलन आयोजत किए गए। जिनके परिणामस्वरूप जनसामान्य में सामाजिक जागृति हुई। इन सम्मेलनों से विविध प्रदेशों के आर्यसमाजी व्यक्तियों का जहाँ पारस्परिक परिचय हुआ वहीं भाषाई आदान-प्रदान भी हुआ जिसने आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वानों और लेखकों के साहित्य के अनुवाद कार्य के लिए सेतु का कार्य किया। ये सम्मेलन प्रान्तीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किए जाते हैं। जैसे मॉरीशस के अन्तर्राष्ट्रीय आर्य सम्मेलन में श्री हरिश्चन्द्र जी धर्माधिकारी इत्यादि ने सम्मिलित होकर वहाँ की सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक स्थितियों का अध्ययन किय। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अर्ध शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९३३) तथा महर्षि दयानन्द जी के शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९८३-८४) में दक्षिण भारत  के हजारों कार्यकर्ता  सम्मिलित हुए और वहाँ से ऊर्जा प्राप्त कर अपने-अपने शहरों, गाँवों तथा महानगरों में अधिकसक्रियता से भाग लिया। इसी प्रकार सामाजिक सुधारों के लिए महिला सम्मेलन, वानप्रस्थियों के आत्म कल्याण के लिए वानप्रस्थी सम्मेलन, सैद्धान्तिक विषयों के विचार-मन्थन के लिए विद्वत्-सम्मेलन, आयोजित किए जिसमें डॉ. ब्रह्ममुनि,डॉ. कुशलदेव शास्त्री, डॉ. देवदत्त  तुंगर आदि ने सक्रिय भाग लिया। बसैये बन्धु ने औरंगाबाद में मराठवाड़ा स्तर का सम्मेलन आयोजित किया जिसमें विद्वानों तथा स्वन्त्रता-सैनानियों को सम्मानित किया गया।

निजाम के विरोध में सत्याग्रहः अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, संस्कृति एवं मानव-धर्म को मिटाने के विरुद्ध, असुरक्षा के विरुद्ध तथा राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने के लिए, व्यक्ति, परिवार, समाज में  जागृति लाकर शासन के विरुद्ध निजाम के विरोध में न्याय, धर्म, संस्कृति और नागरिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह प्रारम्भ किया। निजाम ने आर्यसमाज के विद्वानों के प्रवेश बन्दी, यज्ञ बन्दी, समाचार-पत्रों पर बन्धन तथा धार्मिक उत्सवों तथा विद्वानों के भाषणों पर बन्दी लागू कर दी, जिससे सार्वदेशिक सभा दिल्ली के नेतृत्व में उत्तर  भारत से विभिन्न नेताओं के नेतृत्व में सत्याग्रही लोगों के जत्थे पर जत्थे आए। उदगीर के दंगे से मराठवाड़ा का वातावरण भी पूरी तरह अशान्त हो गया। श्यामलाल, रामचन्द्रराव कामठे, गंगाराम डोंगरे तथा अमृराव जी को पकड़ा गया और जिन्हें कड़ी से कड़ी धाराओं में सजा दी गई उसमें श्यामलाल जी का बलिदान हुआ। गुलबर्गा में सत्याग्रहियों को जेल में डाला गया जिसमें दक्षिण केसरी पं. नरेन्द्र पर अमानवीय अत्याचार किए गए, जिसमें उनकी एक टांग टूट गई। उन्हें कारावास में अनेक यातनाएँ दी गईं और खाने के लिए सीमेंट की रोटी दी गई। कठोर से कठोर यातनाओं को देने के बाद भी इन देशप्रेमी आर्य सत्याग्रहियों ने माफी नहीं माँगी, जिससे अन्य लोगों में भी देश-प्रेम की भावना जगी और जगह-जगह पर क्रूर निजाम के विरोध में आन्दोलन होने लगे जिसमें हजारों सत्याग्रहियों को कठोर कारावास हुआ तथा अनेक सत्याग्रही हुतात्मा हुए। प्रथम जत्थे के नेता महात्मा नारायण स्वामी थे जो गुरुकुल काँगड़ी के ४० विद्यार्थियों को लेकर शोलापुर से हैदराबाद गए। इसके बाद आठ आर्य नेताओं के नेतृत्व में जिनमें अन्तिम- विनायकराव विद्यालंकार थे, सत्याग्रह किया गया। जिसके सामने निजाम को झुकना पड़ा और उनकी माँगें मान ली गईं। इस सत्याग्रह में मित्रप्रिय मिसाल (नसगीर), खण्डेराव द     दत्तात्रय (शोलापुर) गोविन्दराव (नसंगा), पाण्डुरंग (उस्मानाबाद), सदाशिवराव पाठक (शोलापुर) माधवराव पाठक (लातूर) आदि का जेल में बलिदान हुआ तथा महाराष्ट्र के लगभग ४०० सत्याग्रही लोगों को कठोर कारावास की यातनाएँ भोगनी पड़ी। जिनमें शेषराव वाघमारे, गुरु लिंबाड़ी चव्हाण, दिगम्बरराव धर्माधिकारी, आराम परांडेकर, भीमराव कुलकर्णी (डॉ. धर्मवीर, कार्यकारी प्रधान, परोकारिणी सभा के पिता) रघुनाथ टेके, दिगम्बर शिव नगीटकर, तुलसीराम कांबले, दिगम्बर पटवारी, शंकरराव कापसे इत्यादि सत्याग्रहियों के नाम प्रमुख हैं। यह सूची अत्यन्त प्रदीर्घ है लेकिन स्थानाभाव के कारण कुछ व्यक्तियों के ही नाम दिए गए हैं। इन सभी स्वतन्त्रता सेनानियों के त्याग, बलिदान, राष्ट्रप्रेम, सिद्धान्तप्रियता इत्यादि मूल्यों के कारण ही भारतवर्ष की आजादी के बाद लगभग १३ महीने बाद हैदराबाद राज्य स्वतन्त्र हुआ।

शेष भाग अगले अंक में……

आर्यसमाज से सीखोः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आर्यसमाज से सीखोः हिन्दू समाज वेद विमुख होने से अनेक कुरीतियों का शिकार है। एक बुराई दूर करो तो चार नई बुराइयाँ इनमें घुस जाती हैं। सत्यासत्य की कसौटी न होने से हिन्दू समाज में वैचारिक अराजकता है। धर्म क्या है और अधर्म क्या है? इसका निर्णय क्या स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी भाषण से होगा? गीता की दुहाई देने लगे तो गीता-गीता की रट आरम्भ हो गई। गीता में श्री कृष्ण के मुख से कहलवाया गया है कि मैं वेदों में सामवेद हूँ। क्या यह नये हिन्दू धर्म रक्षक वेद के दस बीस मन्त्र सुना सकते हैं?

एक शंकराचार्य बोले साईं बाबा हमारे भगवानों की लिस्ट में नहीं तो दूसरा साईं बाबा भड़क उठा कि साईं भगवान है। इस पर श्री भागवत जी भी चुप हैं और तोगड़िया जी भी कुछ कहने से बचते हैं। प्राचीन संस्कृति की दुहाई देने वाले प्राचीनतम सनातन धर्म वेद से दूर रहना चाहते हैं। धर्म रक्षा शोर मचाने से नहीं, धर्म प्रचार से ही होगी। दूसरों को ही दोष देने से बात नहीं बनेगी। अपने समाज के रोगों का इलाज करो। सनातन धर्म के विद्वान् नेता पं. गंगाप्रसाद शास्त्री ने लिखा है कि पादरी नीलकण्ठ शास्त्री काशी प्रयाग आदि तीर्थों पर प्रचार करता रहा कोई हिन्दू उसका सामना न कर पाया। ऋषि दयानन्द मैदान में उतरे तो उसकी बोलती बन्द हो गयी।

कल्याण में एक शंकराचार्य का लेख छपा कि ओ३म् केवल है केवल ही कर देगा। ब्राह्मणेतर सबको ओ३म् के जप करने से डरा दिया। संघ परिवार ने क्या उसका उत्तर  दिया? उत्तर देना आर्यसमाज ही जानता है। ये लोग सीखेंगे नहीं । ये अमरनाथ यात्रा के लंगर लगाकर धर्म रक्षा नहीं कर सकते। टी.वी. पर एक मौलवी ने इन्हें कहा, इस्लाम मुहम्मद से नहीं  रत आदम व हौवा से आरम्भ होता है। यह आदि सृष्टि से है। विश्व हिन्दू परिषद् का नेता, प्रवक्ता उसका प्रतिवाद न कर सका। कोई आर्यसमाजी वहाँ होता तो दस प्रश्न करके उसे निरुत्तर  करा देता। आदम व माई हौवा के पुत्र पुत्रियों की शादी किस से हुई? उनके सास ससुर कौन थे? एक जोड़े से कुछ सहस्र वर्ष में इतनी जनसंख्या कैसे हो गई?

एक मियाँ ने कहा जन्म से हर कोई मुसलमान ही पैदा होता है। किसने उसका उत्तर  दिया?

शंकराचार्य की गद्दी पर आज भी ब्राह्मण ही बैठ सकता है। काशी, नासिक, बैंगलूर आदि नगरों में विश्व हिन्दू परिषद् एक तो वेदपाठशाला दिखा दे जहाँ सबको वेद के पठन पाठन का अधिकार हो। काशी में कल्याणी देवी नाम के एक आर्य कन्या को मालवीय जी के जीवन काल में धर्म विज्ञान की एम.ए. कक्षा में वेद पढ़ने से जब रोका गया तो आर्य समाज को आन्दोलन करना पड़ा । यह कलङ्क का टीका कब तक रहेगा?

पं. गणपति शर्मा जी का वह शास्त्रार्थः- एक स्वाध्यायशील प्रतिष्ठित भाई ने पं. गणपति शर्मा जी के पादरी जानसन से शास्त्रार्थ के बारे में कई प्रश्न पूछ लिये। संक्षेप से सब पाठक नोट कर लें । यह शास्त्रार्थ १२ सितम्बर सन् १९०६ में हजूरी बाग श्रीनगर में महाराजा प्रतापसिंह के सामने हुआ। यह गप्प है, गढ़न्त है कि तब राज्य में आर्यसमाज पर प्रतिबन्ध था। पोपमण्डल अवश्य वेद प्रचार में बाधक था। तब श्रीनगर आर्यसमाज के मन्त्री महाशय गुरबख्श राय थे। हदीसें गढ़नेवालों ने सारा इतिहास प्रदूषित करने की ठान रखी है। मन्त्री गुरबख्श राय जी का छपवाया समाचार इस समय मेरे सामने है। और क्या प्रमाण दूँ?

ये चार राम थेः पं. लेखराम, पं. मणिराम (पं. आर्यमुनि), लाला मुंशीराम तथा पं. कृपाराम (स्वामी श्री दर्शनानन्द)। हम पहले बता चुके हैं कि पं. आर्यमुनि जी उदासी सम्प्रदाय से आर्यसमाज में आये थे अतः आपको सिख साहित्य का अथाह ज्ञान था। वेद शास्त्र मर्मज्ञ तो थे ही। पुराने पत्रों में यह समाचार मिलता है कि इस काल में सिख ज्ञानियों के मन में यह विचार आया कि जीव ब्रह्म के भेद और सम्बन्ध विषय में किसी दार्शनिक विद्वान् की स्वर्ण मन्दिर में व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाये। तब एक मत से सबने पं. आर्यमुनि जी को इसके लिये चुना।

पण्डित जी ने लगातार सात दिन तक जीव व ब्रह्म के स्वरूप, सम्बन्ध व भेद पर स्वर्ण मन्दिर में व्याख्यान दिये। सब आनन्दित हुए। इसके पश्चात् स्वर्ण मन्दिर में किसी संस्कृतज्ञ, वेद शास्त्र मर्मज्ञ की व्याख्यानमाला की कहीं चर्चा नहीं मिलती।

डॉ. रामप्रकाश जी का सुझावः- डॅा. रामप्रकाश जी से चलभाष पर यह पूछा कि आपके चिन्तन व खोज के अनुसार महर्षि दयानन्द जी के पश्चात् आर्य समाज के प्रथम वैदिक विद्वान् कौन थे? आपने सप्रमाण अपनी खोज का निचोड़ बताया, ‘‘पं. गुरुदत्त  विद्यार्थी।’’

मैंने कहा कि मेरा भी यह मत है कि सागर पार पश्चिमी देशों में जिसके पाण्डित्य की धूम मच गई निश्चय ही वे पं. गुरुदत्त थे। सन् १८९३ में अमेरिका में वितरण के लिए उनके उपनिषदों का एक ‘शिकागो संस्करण’ पंजाब सभा ने छपवाया था। इसकी एक दुर्लभ प्रति सेवक ने सभा को भेंट कर दी है। इसका इतना प्रभाव पड़ा कि अमेरिका के एक प्रकाशक ने इसे वहाँ से छपवा दिया। इस दृष्टि से पं. गुरुदत्त निर्विवाद रूप से ऋषि के पश्चात् प्रथम वेदज्ञ हुए हैं। परन्तु वैसे देखा जाये तो ऋषि जी के पश्चात् पं. आर्यमुनि आर्यसमाज के प्रथम वेदज्ञ हैं । मेरा विचार सुनकर डॉ. रामप्रकाश जी ने तड़प-झड़प में उन पर कुछ लिखने को कहा।

पण्डित जी ने राजस्थान में गंगानगर (तब छोटा ग्राम था) में संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए काशी चले गये। वे उदासी सम्प्रदाय से थे। वहीं ऋषि के दर्शन किये। एक शास्त्रार्थ भी सुना। ऋषि के संस्कृत पर असाधारण अधिकार तथा धाराप्रवाह सरल, सुललित संस्कृत बोलने की बहुत प्रशंसा किया करते थे। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी को अजमेर में बताया था कि ऋषि जी को काशी में सुनकर आप आर्य बन गये। आप ऐसे कहिये कि एक ब्रह्म जीव बन गया।

पण्डित जी का पूर्व नाम मणिराम था। आर्य समाज के इतिहास में प्रथम प्रान्तीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब थी। इसके प्रथम दो उपदेशक थे पं. लेखराम जी तथा पं. आर्यमुनि जी महाराज। दोनों अद्वितीय विद्वान्, दोनों ही शास्त्रार्थ महारथी और दोनों चरित्र के धनी, तपस्वी, त्यागी और परम पुरुषार्थी थे। पण्डित जी जब सभा में आये थे तो आपका नाम मणिराम ही था। राय ठाकुरदत्त  (प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन के दादा) जी ने इन दोनों विभूतियों के तप,त्याग व लगन की एक ग्रन्थ में भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सभा के आरम्भिक काल में पेशावर से लेकर दिल्ली तक और सिंध प्रान्त व बलोचिस्तान में चार रामों ने वैदिक धर्मप्रचार की धूम मचा रखी थी।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज सुनाया करते थे कि पं. आर्यमुनि जी अपने व्याख्यानों में पहलवानों के और मल्लयुद्धों के बड़े दृष्टान्त सुनाया करते थे परन्तु थे दुबले पतले। एक बार एक सभा में एक श्रोता पहलवान ने पण्डित जी से कहा, ‘‘आप विद्या की बातें और विद्वानों के दृष्ठान्त दिया करें। कुश्तियों की बातें सुनाना आपको शोभा नहीं देता। इसके लिये बल चाहिये।’’ इस पर पण्डित जी ने कहा मल्लयुद्ध भी विद्या से ही जीता जा सकता है। इस पर पहलवान ने उन्हें ललकारा अच्छा फिर आओ कुश्ती कर लो। पण्डित जी ने चुनौती स्वीकार कर ली। सबने रोका पर पण्डित जी कपड़े उतारकर कुश्ती करने पर अड़ गये। पहलवान तो नहीं थे। अखाड़ों में कुश्तियाँ बहुत देखा करते थे। सो स्वल्प समय में ही न जाने क्या दांव लगाया कि उस हट्टे-कट्टे पहलवान को चित करके उसकी छाती पर चढ़कर बैठ गये। श्रोताओं ने बज्म (सभा) को रज्म (युद्धस्थल) बनते देखा। लोग यह देखकर दंग रहे गये कि वेद शास्त्र का यह दुबला पतला पण्डित मल्ल विद्या का भी मर्मज्ञ है।

पण्डित जी का जन्म बठिण्डा के समीप रोमाना ग्राम का है। वे एक विश्वकर्मा परिवार में जन्मे थे। गुण सम्पन्न थे। कवि भी थे। हिन्दी व पंजाबी दोनों भाषाओं के ऊँचे कवि थे।

बड़ों ने सिखायाःप्रा राजेंद्र जिज्ञासु

बड़ों ने सिखायाः मेरे प्रेमी पाठक जानते हैं कि मैं यदा-कदा अपने लेखों व पुस्तकों में उन अनेक आर्य महापुरुषों व विद्वानों के प्रति कृतज्ञता व आभार प्रकट करता रहता हूँ जिन्होंने मुझे कुछ सिखाया, बनाया अथवा जिनसे मैंने कुछ सीखा। मैंने प्रामाणिक लेखन के लिये नई पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिए ‘दयानन्द संदेश’ में पं. लेखराम जी तथा पूजनीय स्वामी वेदानन्द जी की एक-एक घटना दी थी। कुछ युवकों को ये दोनों प्रसंग अत्यन्त प्रेरक लगे। तब कुछ ऐसे और प्रसंग देने की मांग आई।

आज लिखने के लिये कई विषय व कई प्रश्न दिये गये हैं परन्तु दो मित्रों के चलभाष पाकर प्रामाणिक लेखन के लिए  अपने दो संस्मरण देना उपयुक्त व आवश्यक जाना। श्री वीरेन्द्र ने सन् १९५७ में अपनी जेल यात्रा पर एक लेखमाला में लिखा था कि उनके साथ वहीं उनके पिता श्री महाशय कृष्ण जी व आनन्द स्वामी जी को बन्दी बनाया गया। महाशय जी की आयु अधिक थी, शरीर निर्बल व कुछ रोगी भी था। उन्हें रात्रि समय शरीर में बहुत दर्द होने से नींद नहीं आती थी । एक रात्रि शरीर दुखने से वे हाय-हाय कर रहे थे। वीरेन्द्र जी को गहरी नींद में पिता के कष्ट का पता ही न चला। आनन्द स्वामी जी वैसे ही दो-तीन बजे के बीच उठने के अभ्यासी थे। आप उठे और महाशय जी के शरीर को दबाने लगे।

महाशय जी समझे के वीरेन्द्र मेरा शरीर दबा रहा है फिर पता चला कि श्री आनन्द स्वामी जी उनकी टांगें बाहें दबा रहे हैं। आपने महात्मा जी को रोका। आप संन्यासी हैं, ऐसा मत करें। श्री स्वामी ने कहा, आप मुझ से बड़े हैं। हमारे नेता हैं। सेवा करने का मेरा अधिकार मत छीनिये।

इस घटना की जाँच व पुष्टि के लिए मैं आनन्द स्वामी जी के पास गया। आपने भी वही कुछ बताया और कहा कि महाशय जी का ध्यान बदलने के लिये मैं उन्हें हँसाता रहता, चुटकले सुनाता इत्यादि। मेरे ऐसा करने से इतिहास की पुष्टि हो गई। प्रामाणिकता को बल मिला। प्रसंग से पाठकों को अधिक ऊर्जा मिली।

स्वामी सत्यप्रकाश जी के संन्यास के पश्चात् श्री आनन्द स्वामी पहली बार तब प्रयाग गये तो आर्यों से कहा, ‘‘मैं स्वामी सत्यप्रकाश जी के दर्शन करना चाहता हूँ। उनसे मिलवा दें।’’

उन्होंने कहा, ‘‘वे आपसे मिलने आयेंगे ही।’’

श्री आनन्द स्वामी जी ने कहा, ‘‘नहीं मैं वहीं जाऊँगा।’’ उनका आग्रह देखकर समाज वाले उन्हें कटरा समाज में ले गये। महात्मा जी को देखते ही स्वामी सत्यप्रकाश उनके चरण स्पर्श करने उठे। उधर से आनन्द स्वामी उनके चरण स्पर्श करने को बढ़े। देखने वालों को इस चरण स्पर्श प्रतियोगिता का बड़ा आनन्द आया। वे दंग भी हुये।

इस घटना की जानकारी पाकर मैं महात्मा जी से मिला और कहा, ‘‘प्रयाग में स्वामी सत्यप्रकाश जी के चरण स्पर्श की अपनी घटना, आप सुनायें।’’ आपने कहा, ‘‘हमारे महान् नेता और विद्वान् पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के सपूत ने धर्मप्रचार के लिए संन्यास लिया है। मैं उनके दर्शन करने को उत्सुक था। सारी घटना सुना दी। फिर स्वामी सत्यप्रकाश जी के पास गया उनसे भी वही निवेदन किया। आपने भी घटना सुनाते हुए कहा, आनन्द स्वामी  बड़े हैं, उनके शरीर में फुर्ति है। वे जीत गये।  मैं हार गया।’’

पता चला कि उस समय श्री गौरी शंकर जी श्रीवास्तव वहीं थे। मैं उनके पास गया। दर्शक की प्रतिक्रिया जानी। इसी प्रकार इतिहास की सामग्री की खोज में मैंने सदा इसी ढंग से जाँच पड़ताल के लिए भाग दौड़ की। समय दिया। धन फूँका।

उतावलापना इतिहास रौंद देता हैः किसी योग्य युवक ने अब्दुलगफूर  पाजी जो धर्मपाल बनकर छलिया निकला उसके बारे में चलभाष पर कई प्रश्न पूछे। मैंने उन्हें कुछ बताया और कहा, उस पर कुछ मत लिखें। मेरे से मिलकर बात करें। आपकी जानकारी भ्रामक है। अधकचरे लेखकों ने इतिहास को पहले ही प्रदूषित कर रखा है। एक ने उसे महाशय धर्मपाल लिखा है। वह कभी महाशय धर्मपाल के रूप में नहीं जाना गया। सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाने का उसने भी छेड़ा था। इतिहास रौंदने वालों ने यह तो कभी नहीं बताया।

लोखण्डे जी का चलभाषः माननीय लोखण्डे जी ने इस्लाम छोड़कर आर्य समाज में प्रविष्ट होने वालों पर ग्रन्थ लिखने का मन बनाया। मैंने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा, ‘‘आप मौलाना हैदर शरीफ पर कुछ खोज करें।’’

उन्होंने पुनः सूफी ज्ञानेन्द्र व पं. देवप्रकाश जी पर कुछ जानकारी चाही। तब मुझे विवश होकर यह बताना पड़ा कि श्री लाजपतराय अग्रवाल से मिलें। वह बतायेंगे कि सन् १९७७ में इसी व्यक्ति ने हनुमानगढ़ समाज के उत्सव में घुसकर समय लेकर आर्यसमाज की भरपेट निन्दा की। किसी अन्य संगठन का गुणगान कर वातावरण बिगाड़ा । श्री लाजपतराय ने मुझे उसका उत्तर  देने के लिए अनुरोध किया । मैंने अपने व्याख्यान में सूफी के  विषैले कथन का निराकरण कर दिया। तब उसके प्रेमी संगठन के लोग मुझे पीटने को…….. मुझे कहा गया , आप भीतर कमरे मे चलिये। ये लोग आपको मारेंगे।

मैंने कहा, ‘‘जो कैरों के मारे न मरा वह इनके मारने से भी नहीं मरेगा। आये जिसका जी चाहे।’’

इसी व्यक्ति ने गंगानगर समाज में आर्यसमाज की निन्दा में कमी न छोड़ी। तब ला. खरायतीराम जी ने व मैंने उत्तर  दिया।

कोटा से भी किसी ने परोपकारी में इसकी प्रशंसा में ………मैं चुप रहा। इसी सूफी ने कभी एक अत्यन्त निराधार चटपटी कहानी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज के बारे गढ़कर भ्रामक प्रचार किया। स्वामी जी महाराज का तो यह कुछ न बिगाड़ सका, यह आप ही आर्यसमाज में किनारे लग गया। व्यसनी भी था। इस पर लिखने के लिए उत्सुक जन वैदिक धर्म पर इसके दस बीस लेख तो कहीं खोजकर लायें।

मैं किसी को निरुत्साहित करने का पाप तो नहीं कर सकता, परन्तु दृढ़ता पूर्वक कहूँगा कि जो लिखो वह प्रामाणिक, प्रेरणाप्रद, खोजपूर्ण व मौलिक हो। विरोधियों के उत्तर  तो देते नहीं। जिससे न्यूज बने, कुछ भाई ऐेसे विषय ही चुनते हैं। पूज्य पं. देवप्रकाश जी के शिष्यों की खोज करके कुछ लिखो।

वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६

क्या भारत में गोहत्या कभी पुण्यदा थी यश आर्य

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/04/150331_beef_history_dnjha_sra_vr

वैदिक साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर में भी गोमांस का सेवन किया जाता था. जब यज्ञ होता था तब भी गोवंश की बली दी जाती थी.

उत्तर: प्रमाण कहां  है ?

धर्मशास्त्रों में यह कोई बड़ा अपराध नहीं है इसलिए प्राचीनकाल में इसपर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया.

उत्तर :ये  झूठ है।वेद में गो वध निषेध है ।
सारा विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा के लिये अभियान चलाया. और इसके बाद ही ऐसा चिह्नित कर दिया गया कि जो ‘बीफ़’ बेचता और खाता है वो मुसलमान है. इसी के बाद साम्प्रदायिक तनाव भी होने शुरू हो गए. उससे पहले साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते थे.

उत्तर: ऋषि द्यानंद ने कहां कहा है  कि गो  मांस भक्षक केवल मुसल्मान होता है , और   ईसाइ आदि  नहीं ? क्या  साम्प्रदायिक दंगे अंग्रेज़ सरकार आदि ने नहीं भडकाए ? बंगाल विभाजन क्यों हुआ ?

सारांश :  द्विजेंद्र नारायण झा  एक मांसाहारी  समाज का सदस्य है । उसका समाज तंत्र [शक्ति ] को मानता है । तंत्र अवैदिक मत है,मांसाहार करने देता है । वह स्वयम कार्ल मार्क्स का पुजारी है ।  यदि वह वेद मंत्र लिखता  तो मैं  खंडित करता ।  सारा लेख झा जी की कल्पना पर आधारित है । अत: लेख निराधार है । क्या यह व्यक्ति यह सिद्ध  कर सकता है, कि वेदिक संहिताओं में गोहत्या  करने पर अमुक पुण्य प्राप्त होगा ,  ऐसा लिखा है  ?  देखो वेद क्या कह्ता है :
http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=14&mantra=8

बैल से बिजली

मार्क्स वाद के  कारनामे:

author may be reached at https://yasharya.wordpress.com/

you may read another article related to ban on  beef on the below links

http://www.aryamantavya.in/beef-ban-strengthens-secularism-by-yash-arya/

http://www.aryamantavya.in/beef-eating-in-ancient-time/

http://www.aryamantavya.in/whether-beef-was-allowed-in-vedic-time/

you may visit out different websites for more information

http://satyarthprakash.in/

Beef ban strengthens secularism by Yash Arya

http://www.bbc.com/news/world-asia-india-32172768

Mr Justin Rowlatt argues that beef ban endangers secularism. He cites the following reasons:

1. The Hindu majority – 80% of the country’s 1.2 billion people – regard cows as divine; the 180 million-strong Muslim minority see them as a tasty meal.

2. Secularism in India means something a little different from elsewhere. It doesn’t mean the state stays out of religion, here it means the state is committed to supporting different religions equally.

3. India’s secularism was a response to horrors of the partition when millions of people were murdered as Hindus and Muslims fled their homes. The country’s first prime minister, Jawaharlal Nehru, argued equal treatment was a reasonable concession to the millions of Muslims who’d decided to risk all by staying in India.

4. India’s triumph has been forging a nation in which Hindus and Muslims can live happily together. The fear is that the beef ban is part of a process that is gradually undermining the compromises that made that possible.

My anwer is as follows.

a1. U have not cited any evidence from the quran along with the authentic tafseer as to how beef ban is anti-islam.

a2. The state is right in supporting the beef ban till u answer a1 above.

a3. The horrors of partition were engineered by the British Imperialists and their Jesuit teachers. They experimented with it during the bengal partition and perfected it in 1947. Just look at Korea, Ottoman empire, etc for the records of european catholic brand imperialism.

a4. The mughal king Babar does not agree with your insinuation that ‘The fear is that the beef ban is part of a process that is gradually undermining the compromises that made that possible.’ Read what ur own website says:
“His [Mughal King Babar] first act after conquering Delhi was to forbid the killing of cows because that was offensive to Hindus.” [http://www.bbc.co.uk/religion/religions/islam/history/mughalempire_1.shtml]

Mr Rowlatt further says that :

Unfortunately for India’s buffaloes, they aren’t regarded as close enough to God to deserve protection. Buffalo is banned in just one of the country’s 29 states. [ I am for banning the slaughter of buffaloes too. Why dont u join PETA and espouse their cause].

There is an economic issue here.

Beef is significantly cheaper than chicken and fish and is part of the staple diet for many Muslims, tribal people and dalits – the low caste Indians who used to be called untouchables. It is also the basis of a vast industry which employs or contributes to the employment of millions of people.

A: People can be employed in areas where they dont have to murder animals. Whenn u murder animals, the habit carries on with u and u find it easy to murder humn beings too.

http://en.wikipedia.org/wiki/St._Bartholomew%27s_Day_massacre

http://www.gutenberg.org/ebooks/20321

–And yes we had untouchability. U have slaveryhttp://www.religioustolerance.org/sla_bibl3.htm

— The fact is that the european settlers are committing genocide on the native american people. And one of the methods employed to decimate the population of the red indians was destruction of cattle [http://indiancountrytodaymedianetwork.com/2011/05/09/genocide-other-means-us-army-slaughtered-buffalo-plains-indian-wars-30798%5D . In India the british imperialists used muslims to do this job.

In this video one can see how a living non-milk producing cow is more beneficial to the Indians than a dead cow’s meat. And how the mouthpiece of the urea/pesticide corporates r trying to mislead the populations. This misinformation and the urea/pesticide/bank-credit causes the farmer suicides.

Again, we can produce electricity using animal power and stop paying the germans for solar cells.

onclusion:

Why should we killl our animals so that the west is able to eat cheap meat ?

Secularism will be strengthened by the beef ban since murders will be reduced on our land. Ahimsa paramo dharma….

We will work towards import substitution to reduce our dependence on the west. That will give more jobs to the indians.

 

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http://www.aryamantavya.in/whether-beef-was-allowed-in-vedic-time/

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http://satyarthprakash.in/

http://onlineved.com/

क्या हिन्दू गौ मांस खाते थे ?

हाल ही में बीबीसी वालों ने डॉ भीमराव आंबेडकर के अवैदिक लेख को प्रस्तुत कर बड़ा मूर्खतापूर्ण कार्य किया है 

भारतीय संस्कृति और वैदिक धर्म को चोट पहुंचाने में बीबीसी आजकल बड़ी भूमिका निभा रहा है,

               चाहे वह दिल्ली गेंग रेप के अपराधियों के इंटरव्यू से यहाँ के लोगों की मानसिकता को घटिया बताना हो या वेदों में गाय के मांस खाने को सही बताना हो,

इन धूर्त विदेशियों ने आज तक केवल यही काम किया है, फुट डालो और राज करो और भारतीय इतिहास को नष्ट करके देश का भविष्य बर्बाद करो ,

भारतीय संविधान के निर्माता (जो वास्तविक रूप से लगते नहीं है क्यूंकि यह संविधान “कही की इंट कही का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा” को ज्यादा चरितार्थ करता है) Dr. B.R.A. ने वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन किराए की आँखों से किया है अर्थात उनकी बातों से उनकी पुस्तकों से और उक्त गौ मॉस वाले लेख से स्पष्ट है कि  उन्होंने स्वयं कभी वैदिक ग्रन्थों को पढ़ा नहीं है, अपितु दुसरे लेखकों की पुस्तक पढ़ कर उन पर विशवास कर अपने द्वेष भाव से पीड़ित होकर लेख लिखा है,

 

Dr. B.R.A. ने वैदिक धर्म को शायद ही कभी दुराग्रह छोड़ कर समझा होगा यदि समझते तो आज अपने अनुयायियों के साथ मिलकर वैदिक धर्म से दुश्मनी न करते, वे स्वयं तो चले गए परन्तु अपने कर्मों का फल आज सभी को भुगतता हुआ छोड़कर चले गए

खैर Dr. B.R.A. के बारे में ज्यादा लिखने की जरुरत नहीं है फिर भी हमें आज उनकी बुद्धि पर तरस आता है, की इतना पढने लिखने के बाद भी ये बुद्धि से उपयोग ना कर पाए हमेशा किताबी कीड़े ही रहे जो किसी ने लिखा उसकी प्रमाणिकता जाने बिना उस पर विशवास कर लिया, मनु के प्रति इनका द्वेष देखते ही बनता है, यही द्वेष आज सारा भारत आरक्षण के रूप में झेल रहा है, इन्होने मनु को समझने का जतन कभी नहीं किया बस जो किसी लेखक ने लिख दिया

                उसे रटकर उसकी प्रमाणिकता जाने बिना मनु को दुश्मन समझ बैठे, परन्तु उनके अनुयायियों पर तरस आता है, जो आज भी अंधभक्ति की बिमारी से ग्रस्त होकर उनका समर्थन किये जा रहे है, हमारा उन सभी अनुयायियों से निवेदन है की अपनी बुद्धि का प्रयोग करके सत्य असत्य का निर्णय करे

अब आते है Dr. B.R.A. के बुद्धिहीन लेख पर

 

 

प्राचीन काल में हिन्दू गोमांस खाते थे’

भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक डॉक्टर बीआर अंबेडकर अच्छे शोधकर्ता भी थे. उन्होंने गोमांस खाने के संबंध में एक निबंध लिखा था, ‘क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया?’

यह निबंध उनकी किताब, ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने?’ में है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम ने इस निबंध को संपादित कर इसके कुछ हिस्से बीबीसी हिंदी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाए हैं.

पवित्र है इसलिए खाओ

अपने इस लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है.

अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया.

उनके मुताबिक, “गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था. उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.” (मराठी में धर्म शास्त्र विचार, पृष्ठ-180).

डॉ. पांडुरंग वमन काणे भी एक शौधकर्ता ही है, इन्होने वही लिखा जो इन्होने पढ़ा या सुना परन्तु वेदों में ऐसी कोई बात का उल्लेख नहीं है जैसा इन्होने प्रमाण दिया है, महाभारत, रामायण में भी कही भी मांस भक्षण का विवरण नहीं है, तो गौमास खाना तो बहुदूर की बात है, और जिस वैदिक काल की ये बात कर रहे है वह शायद वामपंथियों के समय के लिए वैदिक काल शब्द उपयोग में ले रहे है, गौ मॉस का भक्षण वामपंथियों द्वारा किया जाता था, ना वैदिक धर्मियों द्वारा !!

अंबेडकर ने लिखा है, “ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है.”

ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, “उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.”

Dr. B.R.A. जी ने वेदों से गौ मांस खाने का प्रमाण दिया है इतना पढने मात्र से ही इस लेख पर संदेह उत्पन्न हो जाता है

           पता नहीं इंसान उस जगह हाथ पैर क्यों मारता है जिसका उसे रति भर ज्ञान नहीं होता है, वेदों को पढने से पहले कई ग्रन्थ व्याकरण, निरुक्त आदि पढने पड़ते है, उसके बाद ही वेदों को समझा जा सकता है अन्यथा उसे भाष्यकारों के भाष्य पर ही निर्भर रहना पड़ता है, कुछ इस निर्भरता के चलते Dr. B.R.A. जी ने यह अनर्गल आरोप वैदिक धर्म पर मंड दिया की वे गौ मांस खाते थे

इन्होने ऋग्वेद के १० मंडल से कुछ प्रमाण प्रस्तूत किये है, जिसमें इंद्र के एक बार मांस पकाने के बारे में बताया है, यदि आज Dr. B.R.A. जी जीवित होते तो शायद आज इस आर्य से लज्जित होकर जाते परन्तु ईश्वर इच्छा से वे इस पुण्य कार्य से बच गए

Dr. B.R.A. जी आपके ज्ञान का क्या कहे, क्या आपको इतना ज्ञान भी नहीं था की वेदों में कही भी इतिहास या भविष्य नहीं है ??

पता भी होता तो आप अपने द्वेष के चलते इस बात को स्वीकार नहीं करते क्यूंकि आप पर नास्तिकता हावी थी और इसी नास्तिकता के चलते आप वेदों को ईश्वरीय ज्ञान ना मान कर मनुष्यकृत मानते थे, यही आपकी सबसे बड़ी गलती थी

चलिए आपको आपके प्रमाणों का आपके मृत्यु पश्चात सही अर्थ आपके अनुयायियों को बता देते है, ताकि आपके किये गए कार्यों पर उन्हें थोड़ी बहुत तो लज्जा आये

 

ऋग्वेद १०:८६:१४ में क्या लिखा है :-
भावार्थ :- विषय व्यावृत इन्द्रियों व प्राणसाधना से वीर्य का परिपाक होकर आत्मिक शक्ति का विकास होता है, प्रसंगवश यह वीर्य का परिपाक गुर्दे आदि के कष्टों से भी हमें बचाता है

इस मन्त्र से हमें यही शिक्षा मिलती है की हमें वीर्य क्षति से बचना चाहिए क्यूंकि इससे शरीर में अनेक प्रकार की दुर्बलता आती है और गुर्दे आदि की बिमारी होने की संभावना बढती है, इसमें कही भी इंद्र द्वारा मांस भक्षण नहीं बताया है

दूसरा प्रमाण ऋग्वेद १०:९१:१४ :–
भावार्थ:– हम ‘अश्व, ऋषभ, उक्षा, वश व मेष’ बनकर प्रभु के प्रति चलें, उसके प्रति अपना अर्पण करें | वे प्रभु हमारी शक्ति का रक्षण करने वाले, हमें सौम्यता को प्राप्त कराने वाले व हमारी सब शक्तियों का निर्माण कराने वाले है | उस प्रभु की प्राप्ति के लिए हम श्रद्धा से ज्ञानोत्पादिनी बुद्धि को अपने में उत्पन्न करते हैं |

इस मन्त्र में भी कही भी Dr. B.R.A. के बताये अनुसार घोड़े सांड आदि के मारकर भक्षण के बारे में नहीं बताया है अपितु उनके समांनातर बनकर प्रभु क्र प्रति समर्पण के लिए कहा है, जैसे इस मन्त्र में अश्व शब्द से तात्पर्य सदा कर्म में व्याप्त रहने वाले से है, जैसे घोडा सदैव कर्म करने में व्याप्त रहता है जैसा उसका मालिक उससे कार्य करवाता है वैसे ही वह करता है ठीक उसी प्रकार मनुष्यों को प्रभु की शरण में रहकर कर्म करने की बात कही है ना की अश्व आदि के भक्षण की !!

अब तीसरा प्रमाण ऋग्वेद १०:७२:६ को देखते है
भावार्थ:– आकाश में वर्तमान ये सब पिण्ड अलग-अलग होते हुए भी परस्पर व्यवस्था में सम्बद्ध है | कभी-कभी इनका कोई शिथिल भाग तीव्र –गति होकर दुसरे पिण्ड की ओर चला जाता है

इस मन्त्र में कहीं भी तलवार कुल्हाड़ी नहीं दिखती यह मन्त्र उल्कापात की जानकारी देता है

उपरोक्त तीनों प्रमाण Dr. B.R.A. जी द्वारा उनके अनुयायियों को उन्होंने गलत बताये, तीनों प्रमाणों को पढ़कर आज एक बात तो समझ आई की यह पंक्तियाँ क्यों कही गई थी
“सावन के गधे को हर जगह हरा ही हरा दीखता है”
सुधि पाठकगण इतना कहने मात्र से मेरी भावनाए समझ जाए

उपरोक्त सभी मन्त्र के भावार्थ और मेरे द्वारा काट की गई बातों की प्रमाणिकता अर्थात इन मन्त्रों के सही अर्थ जानने के लिए आप www.aryamantavya.in पर जाए और वहां वैदिक कोष में वेद डाउनलोड करें और स्वयं जांचे मेरे द्वारा कही बात का विशवास करने से उत्तम है आँखों देखि पर विशवास किया जाए

अतिथि यानि गाय का हत्यारा

अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है.

अंबेडकर ने लिखा “तैत्रीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.”

वो लिखते हैं, “विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.”

“तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान.”

अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए- (1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण (2) आचार्य-शिक्षक (3) दूल्हे (4) राजा (5) स्नातक और (6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति.

कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं.

मधुपर्क में “मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.”

उपरोक्त प्रमाणों को पढ़कर इतना मात्र कहना चाहूँगा की तेत्रिय ब्राह्मण आदि वेद नहीं है, कुछ लोग इसे वेद मानते है, परन्तु यह वेद ना होकर उसकी शाखा है जो ईश्वरीय ज्ञान नहीं है, यह मनुष्यकृत होने से इसमें वे वे बाते ही मान्य है जो वेदोक्त है, तेत्रिय ब्राह्मण में काफी भाग अवैदिक है जो मान्य नहीं है

सब खाते थे गोमांस

इस शोध के आधार पर अंबेडकर ने लिखा कि एक समय हिंदू गायों को मारा करते थे और गोमांस खाया करते थे जो बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञ के ब्यौरों से साफ़ है.

अंबेडकर ने लिखा है, “कुतादंत सुत्त से एक रेखाचित्र तैयार किया जा सकता है जिसमें गौतम बुद्ध एक ब्राह्मण कुतादंत से जानवरों की बलि न देने की प्रार्थना करते हैं.”

अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय(111. .1-9) के उस अंश का हवाला भी दिया है जिसमें कौशल के राजा पसेंडी के यज्ञ का ब्यौरा मिलता है.

संयुक्त निकाय में लिखा है, “पांच सौ सांड, पांच सौ बछड़े और कई बछियों, बकरियों और भेड़ों को बलि के लिए खंभे की ओर ले जाया गया.”

अंत में अंबेडकर लिखते हैं, “इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.”

इस प्रमाण में Dr. B.R.A. जी ने जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया है वह वामपंथियों के लिए है ना की वैदिक धर्मियों के लिए, गौ मास का भक्षण केवल विधर्मी और मलेछ किया करते थे और करते है उन्हें कभी हिन्दू नहीं माना गया है, परन्तु Dr. B.R.A. जी ने अपनी उदारता दिखाते हुए इन्हें भी हिन्दू मानकर यह सोच बना ली की हिन्दू अर्थात सनातन वैदिक धर्मी भी गौ मास खाते थे, जबकि वेदों में इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है, Dr. B.R.A. जी ने अपने द्वेष और वैदिक ग्रन्थों के अनर्गल अर्थ निकाल कर गलतफहमी बना ली थी, की ये ग्रन्थ ऊँच नीच जैसी बातों को जन्म देते है, और यह गलतफहमी केवल उनके गलत अर्थ निकालने के कारण बनी जिसका परिणाम यह हुआ की उन्होंने अपने अनुयायियों को वैदिक धर्म से अलग कर दिया, आरक्षण की जड़ उनकी यह गलतफहमी ही बनीं की पिछड़ी जातियों के विकास के लिए आरक्षण जरुरी है और यह आरक्षण आज एक बहुत बड़े झगड़े का मूल बन चूका है

वेदों में कही भी मांसाहार को उचित नहीं बताया है अपितु गौ हत्यारों को कई प्रकार के दंड देने का विधान है और गौमास भक्षण का विरोध भी है

ऋग्वेद 8:101:१५

ऋग्वेद 8:101:२७

अथर्ववेद १०:१:२७

अथर्ववेद 12:४:३८

ऋग्वेद ६:२८:४

अथर्ववेद 8:3:२४

यजुर्वेद १३:४३

अथर्ववेद ७:5:5

यजुर्वेद ३०:१८

 

इन प्रमाणों को जांचने के लिए आप www.onlineved.in पर जाए और स्वयं पढ़े

प्रारम्भ ही मिथ्या से – पंडित चमूपति जी

  प्रारम्भ ही मिथ्या से
वर्तमान कुरआन का प्रारम्भ बिस्मिल्लाह से होता है I सूरते  तौबा  के अतिरिक्त और सभी  सूरतों का प्रारम्भ में यह मंगलाचरण  के रूप में पाया जाता है ई यही नहीं इस पवित्र वाक्य का पाठ मुसलामानों के अन्य कार्यों के प्रारम्भ करना अनिवार्य माना गया है ई
ऋषि दयानंद  को इस कलमे ( वाक्य ) पर दो आपत्तियां है I प्रथम यह कुरआन के प्रारम्भ में यह कलमा परमात्मा की ओर से प्रेषित ( इल्हाम ) नहीं हुआ है I दूसरा यह की मुसलमान लोग कुछ ऐसे कार्यों में भी इसका पाठ करते है जो इस पवित्र वाक्य के गौरव के अधिकार क्षेत्र नहीं I
पहेली शंका कुरआन की वररण शैली के ओर ईश्वरी सन्देश के उतरने से सम्बन्ध रखती है I हदीसों ( इस्लाम की प्रामाणिक शुर्ति ग्रन्थ  ) में वरनन है कि सर्वप्रथम सूरत ” अलक” कि प्रथम पांच आयतें परमात्मा कि ओर से उतरी है I हज़रात जिब्रील ( ईश्वरीय दूत ) ने हज़रात मुहम्मद से कहा
” इकरअ बिइसमे रब्बिका अल्लज़ी खलका “
 पद ! अपने परमात्मा के नाम सहित जिसने उत्पन्न किया I इन आयतो के पश्चात सूरते मुजम्मिल के उतरने की साक्षी है I  इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ
                       ” या अय्युहल मुजम्मिलो ‘
                          ये वस्त्रों में लिपटे हुए !
 ये दोनों आयतें हज़रात मुहम्मद को सम्बोधित की गयी है I  मुसलमान ऐसे सम्बोधन को या हज़रात मुहम्मद के लिए विशेष भक्तो के लिए सामान्यतया नियत करते हैं I  जब किसी आयत का मुसलामानों से पाठ ( किरयात ) करना हो तो वह इकरअ ( पद / रीड ) या कुन ( कह ) भूमिका इस आयत के प्रारम्भ में ईश्वरीय सन्देश के इक भाग के रूप में वररन किया जाता है I यह है इल्हाम ईश्वरीय
सन्देश कुरआन की वररणशैली जिस से इल्हाम प्रारम्भ हुआ था I
अब यदि अल्लाह
को कुरआन के इल्हाम का प्रारम्भ बिस्मिल्लह से करना होता तो सूरते अलक के प्रारम्भ में हज़रात जिब्रील ने बिस्मिल्लाह पढ़ीं होती या इकरअ के पश्चात बीस्मेरब्बिका
के स्थान पर बिस्मिल्लाहिर्रहमनिर्हिम  कहा होता I
मुजिहुल कुरआन में सूरत फातिहा की टिप्पणी पर जो वर्तमान कुरआन की पहली सूरत है लिखा है –
 यह सूरत अल्लाह साहब ने भक्तो की वाणी से कहलवाई है की इस प्रकार कहा करें I
यदि यह सूरत होती तो इसके पूर्व कुल ( कह ) या इकरअ ( पढ़ ) जरूर पड़ा जाता I
 कुरआन की कई सूरतों का प्रारम्भ स्वयं कुरआन की विशेषता से हुआ है I  अतएव सूरते बकर के प्रारम्भ में जो कुरआन की दूसरी सूरत प्रारम्भ में ही कहा –
 ‘ जालिकल किटबोला रेबाफ़ीहे , हुडान लिलमुक्तकिन “
 यह पुस्तक है इसमें कुछ संदेह ( की सम्भावना ) नहीं ! आदेश करती परेहजगारों ( बुरियो से बचने वालों ) को I  तफ़सीरे इक्तकिन ( कुरआन भाष्य ) में वर्णन है की इब्ने मसूद अपने कुरआन में सूरते फातिहा को सम्मिलित नहीं करते थे I  उनकी कुरआन के प्रति का प्रारम्भ सूरते बकर से होता था I वे हज़रात मुहम्मद के विश्वस्त मित्रोँ ( सहाबा  ) में से थे I कुरआन की भूमिका के रूप में यह आयत आयत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है ! समुचित है l  ऋषि दयानंद ने कुरआन के प्रारम्भ के लिए यदि इसे इल्हामी ( ईश्वरीय रचना ) माना जाए यह वाक्य प्रस्तावित किये है l यह प्रस्ताव कुरआन की अपनी वर्णन शैली  के सर्वथा अनुकूल है ओर अब्ने मसूद इस शैली को स्वीकार करते थे l मौलाना मुहम्मद अली अपने अंग्रेजी कुरआन अनुवाद में पृष्ठ ८२ पर लिखते हैं –
कुछ लोगो का विचार था की बिस्मिल्लाह जिससे कुरआन की प्रत्येक सूरत प्रारम्भ हुई हैं , प्रारम्भिक वाक्य ( कलमा ) के रूप में बढ़ाया गया हैं यह इस सूरत का भाग नहीं l
इक ओर बात जो बिस्मिल्ला के कुरआन शरीफ में बहार से बढ़ाने का समर्थन करती हैं वह हैं , प्रारंभिक वाक्य ( कलमा ) के रूप में बढ़ाया गया यह इस सूरत का भाग नहीं l
 इक ओर बात जो बिस्मिल्ला के कुरआन शरीफ में बहार से बढ़ाने का समर्थन करती हैं वह हैं सूरते तौबा  के प्रारम्भ में कालमाए तसीमआ ( बिस्मिल्ला ) का वर्णन
 ना करना I  वहां लिखने से छूट गया हैं I यह ना लिखा जाना पढ्ने वालों  ( कारियों ) में इस विवाद का भी विषय बना हैं की सूरते इंफाल ओर सूरते तौबा जिनके मध्य बिस्मिल्ला  निरस्त हैं दो पृथक सूरते हैं या इक ही सूरत के दो भाग – अनुमान यह होता हैं की बिस्मिल्ला कुरआन का भाग नहीं हैं I लेखको की ओर से पुण्य के रूप ( शुभ वचन ) भूमिका के रूप जोड़ दिया गया हैं और बाद में उसे भी ईश्वरीय सन्देश ( इल्हाम ) का ही भाग ही समझ लिया गया हैं I
यही दशा सूरते फातिहा की हैं यह हैं तो मुसलमानों के पाठ के लिए , परन्तु इसके प्रारम्भ में कुन  ( कह ) इकरअ ( पड़ ) अंकित नहीं हैं I और इसे भी इब्ने मसूद ने अपनी पाण्डुलिपि में निरस्त कर दिया था I
महर्षि दयानंद की शंका इक ऐतिहासिक शंका हैं यदि बिस्मिल्ला और सूरते फातिहा पीछे से जोड़े गए हैं तो शेष पुस्तक की शुद्धता का क्या विश्वास ? यदि बिस्मिल्ला ही अशुद्ध तो इंशा व इम्ला ( अन्य लिखने पढ़ने ) का तो फिर विश्वास ही कैसे किया जाए ?
कुछ उत्तर देने वालों ने इस शंका का इल्जामी ( प्रतिपक्षी ) उत्तर वेद की शैली से दिया हैं की वहां भी मंत्रो के मंत्र और सूक्तों के सूक्त परमात्मा की स्तुति में आये हैं ,और उनके प्रारम्भ में कोई भूमिका रूप में ईश्वरीय सन्देश नहीं आया I
वेद ज्ञान मौखिक नहीं – वेद का ईश्वरीय सन्देश आध्यत्मिक , मानसिक हैं मौखिक नही I ऋषियों के ह्रदय की दशा उस ईश्वरीय ज्ञान के समय प्रार्थी की दशा थी I उन्हें कुल ( कह ) कहने की क्या आवश्यकता थी I वेद में तो सर्वत्र यही शैली बरती गयी हैं I बाद के वेदपाठी वर्णनशैली से भूमिकागत भाव ग्रहण करते हैं | यही नहीं इस शैली के परिपालन में संस्कृत साहित्य में अब तक यह नियम बरता जाता हैं की बोलने वाले व सुननेवाले का नाम लिखते नहीं | पाठक भाषा के अर्थों से अनुमान लगता हैं | कुरआन में भूमिका रूप में ऐसे शब्द स्पष्टतया लिखे गए हैं क्योंकी कुरआन कुरआन का ईश्वरीय सन्देश मौखिक हैं जिबरालपाठ करतै हैं और हज़रात मुहम्मद करते हैं इसमें ” कह ” कहना होता हैं | संभव हैं कोई मौलाना ( इस्लामी विद्वान ) इस बाहा प्रवेश को उदाहरण निश्चिय करके यह कहे की अन्य स्थानों पर इस उदाहरण   की भांति ऐसी ही भूमिका स्वयं कल्पित करनी चाहिए | निवेदन यह हैं की उदहारण पुस्तक के प्रारम्भ में देना चाहिए था ना की आगे चलकर उदाहरण और वह बाद में लिखा जाए यह पुस्तक लेखन के नियमों के विपरीत हैं | महर्षि दयानंद  की दूसरी शंका बिस्मिल्ला
के सामान्य प्रयोग पर हैं | महर्षि ने ऐसे तीन कामों का नाम लिया हैं जो प्रत्येक जाती व प्रत्येकमत में निंदनीय हैं | कुरआन में मांसादि का विधान हैं और बलि का आदेश हैं |  इस पर हम अपनी सम्मति
ना देकर शेख खुदा बक्श M . A . प्रोफ़ेसर कलकत्ता विश्वविद्यालय के इक लेख से जो उन्होंने इद्ज्जुहा के अवसर पर कलकत्ता स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित करायी थी | निनलिखित हैं उदाहरण प्रस्तुत किये हैं देते हैं –
खुदा बक्श जी का मत – ” सचमुच – सचमुच बड़ा खुदा व दयालु व दया करने वाला हैं वह खुदा आज खून की नदियों का चीखते हुए जानवरों की असहा व अवर्णनीय पीड़ा का इच्छुक नहीं प्रायश्चित ….? वास्तविक प्रायश्चित वह हैं जो मनुष्य के अपने ह्रदय में होता हैं | सभी प्राणियों की और अपनी भावना परवर्तित कर दी जाए | भविष्य के काल का धर्म प्रायश्चित के इस कठोर व निर्दयी प्रकार को त्याग देगा | ताकि वह इन तीनों पर भी भी दयापूर्ण घृणा से दृष्टिपात करें | जब बलि का अर्थ अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु अन्य सत्ता  का बलिदान हैं  ”  माडर्न रिव्यु  से अनुवादित ,
दयालु व दया करने वाले परमात्मा का नाम लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए था की हम वाणी हैं जीवों पर दया का व्यवहार करते परन्तु किया हमने इसके सर्वथा विरोधी कार्य…..  |
मुजिहूल कुरआन में लिखा हैं –
जब किसी जानवर का वध करें उस पर बिस्मिल्ला व अल्लाहो अकबर पढ़ लिया करें कुरआन में जहाँ कहीं हलाल ( वैध )  व हराम ( अवैध ) का वर्णन आया हैं वहां हलाल ( वैध )  उस वध को निश्चित किया हैं जिस पर अल्लाह का नाम पढ़ा गया हो  |कलमा पवित्र हैं दयापूर्ण हैं परन्तु उसका प्रयोग उसके आशय के सर्वथा विपरीत हैं |
( २ ) इस्लाम में बहु विवाह की आज्ञा तो हैं ही पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की भी परम्परा हैं लिखा हैं – वल्लज़ीन लिफारुजिहिम हफीजुन इल्ला अललजुहुम औ मामलकात ईमानु हुम | सूरतुल
मोमिनन आयत ऐन और जो  रक्षा करते हैं अपने गुप्त अंगों की , परन्तु नहीं अपनी पत्नियों व रखैलों से | तफ़सीरे जलालेन सूरते बकर आयत २२३ निसाउक्कम हर सुल्ल्कुम फयातु हरसकम
अन्ना शीअतुम तुम्हारी पत्नियां तुम्हारी खेतिया हैं जाओ जिस प्रकार अपनी खेती की और जिस प्रकार चाहो | तफ़सीरे जलालेन  में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा हैं – जिस बिस्मिल्ला कहकर – सम्भोग करो जिस प्रकार चाहो उठकर बैठकर लेटकर उलटे सीधे जिस प्रकार चाहो सम्भोग के समय बिस्मिल्ला कहलिया करो |                                                                                          बिस्मिल्ला का सम्बन्ध बहु विवाह से हो रखैलों की वैधता से हो | इस प्रकार के सम्भोग से यह स्वामी दयानंद को बुरा लगता हैं
( ३ ) सूरते आल इमरान आयत २७ ल यक्तखिजुमोमिंउनकफ़ीरिणा ओलियाया मिन्दुनिल मोमिना इल्ला अं तख़्तकु मीनहुम तुकतुन
ना बनायें मुसलमान काफिरों को अपना मित्र केवल मुसलमानोंको ही अपना मित्र बनाये |
 इसकी व्याख्या किसी भय के कारण सहूलियत के रूप में ( काफिरों के साथ ) वाणी से मित्रता का वचन कर लिया जाए और ह्रदय में उनसे ईर्ष्या
व वैरभाव रहे तो इसमें कोई हानि नहीं ….. जिस स्थान पर इस्लाम पूरा शक्तिशाली नहीं बना हैं वह अब भी यही आदेश प्रचिलत हैं | स्वामी दयानंद इस मिथ्यावाद की आज्ञा भी ईश्वरीय पुस्तक में नहीं दे सकते ऐसे आदेश या कामों का प्रारम्भ दयालु व दायकर्ता पवित्र और सच्चे परमात्मा के नाम से हो यह स्वामी दयानंद को स्वीकार नहीं |

 

प्राचीन काल में हिन्दू गौ मांस खाते थे – BBC का खंडन यश आर्य

भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक डॉक्टर बीआर अंबेडकर अच्छे शोधकर्ता भी थे. उन्होंने गोमांस खाने के संबंध में एक निबंध लिखा था, ‘क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया?’

यह निबंध उनकी किताब, ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने?’ में है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम ने इस निबंध को संपादित कर इसके कुछ हिस्से बीबीसी हिंदी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाए हैं.

‘पवित्र है इसलिए खाओ’

अपने इस लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है.

अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया.

उनके मुताबिक, “गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था. उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.” (मराठी में धर्म शास्त्र विचार, पृष्ठ-180).

अंबेडकर ने लिखा है, “ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है.”

ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, “उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.”

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ये झूठ है । देखो

rigved-10-72-6-pt-harisharan-vedalankar

 

rigved-10-91-14

rigved-10-86-14-pt-harisharan-vedalankar

download the original from here

http://www.aryamantavya.in/rigveda-7-7-harisharan-siddhantalankar/
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‘अतिथि यानि गाय का हत्यारा’

अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है.

अंबेडकर ने लिखा “तैत्रीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.”
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माध्यंदिनी सन्हिता ही यजुर्वेद है । तैत्तिरीय  वेद  नहीं है ।
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वो लिखते हैं, “विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.”

“तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान.”

अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए- (1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण (2) आचार्य-शिक्षक (3) दूल्हे (4) राजा (5) स्नातक और (6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति.

कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं.

मधुपर्क में “मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.”

‘सब खाते थे गोमांस’

इस शोध के आधार पर अंबेडकर ने लिखा कि एक समय हिंदू गायों को मारा करते थे और गोमांस खाया करते थे जो बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञ के ब्यौरों से साफ़ है.

अंबेडकर ने लिखा है, “कुतादंत सुत्त से एक रेखाचित्र तैयार किया जा सकता है जिसमें गौतम बुद्ध एक ब्राह्मण कुतादंत से जानवरों की बलि न देने की प्रार्थना करते हैं.”

अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय(111. .1-9) के उस अंश का हवाला भी दिया है जिसमें कौशल के राजा पसेंडी के यज्ञ का ब्यौरा मिलता है.

संयुक्त निकाय में लिखा है, “पांच सौ सांड, पांच सौ बछड़े और कई बछियों, बकरियों और भेड़ों को बलि के लिए खंभे की ओर ले जाया गया.”

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यहाँ  बौद्ध लोगों ने वाम मार्गी लोगों की चर्चा की  है। सच्चे  ब्राह्मणों की नहीं  ।

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अंत में अंबेडकर लिखते हैं, “इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.”

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अ‍ॅम्बेद्कर और  B B C  और   दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम  और  गो मांस भक्षक हिंदुओं का मत असत्य है ।

You may reach the writer on https://yasharya.wordpress.com

आर्य समाज के मन्तव्य: त्रैतवाद शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून

आर्य समाजः- श्रेष्ठ व्यक्ति का नाम आर्य है। जिसके कर्म अच्छे हों उसे श्रेष्ठ कहते हैं। सभ्य मनुष्यों के संगठन को समाज कहते हैं। संगठन अज्ञान, अन्याय, अभाव को दूर करने के लिए बनाया जाता है। आर्य समाज एक प्रजातान्त्रिक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द जी ने मुम्बई में सन् १८५७ ई॰ में की थी।

उद्देश्यः- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

आर्य समाज के मन्तव्य:

त्रैतवाद –आर्य समाज ईश्वर, जीव, प्रकृति इन तीनों को अनादि मानता है। किसी वस्तु के निर्माण में तीन कारणों का होना आवश्यक है।

१.उपादान कारण,             २. निमित्त कारण,         ३.साधारण कारण

१.उपादान कारणः- वस्तु के निर्माण में जो मूल तत्व है उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे घड़े का निर्माण में मिट्टी और आभूषण में सोना-चान्दी आदि उपादान कारण हैं।

२.निमित्त कारणः- जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, प्रकारान्तर से दूसरे को बना दे उसे निमित्त कारण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-

क. मुख्य निमित्त कारण- परमात्मा

ख. साधारण निमित्त कारण – आत्मा

३.साधारण कारणः-निमित्त और उपादान कारण के अतिरिक्त अन्य अपेक्षित कारण साधारण कारण कहलाते हैं। जैसे घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण कुम्भकार निमित्त कारण और दण्ड, चक्रादि साधारण कारण है। वैसे ही सृष्टि निर्माण में प्रकृति साधारण कारण, ईश्वर निमित्त कारण और दिशा, आकाशादि साधारण कारण हैं।

उपादान कारण प्रकृति:- प्रकृति जगत् का उपादान कारण है जिससे कार्य जगत् उत्पन्न होता है। उपादान कारण में निम्न बातें पाई जाती हैं-

१. उपादान कारण परिणामी, नित्य और जड़ होता है। चेतन कभी भी उपादान कारण नहीं हो सकता है।

२. उपादान कारण के गुण कार्य में किसी न किसी रूप में आते हैं।

३. उपादान कारण से ही कार्य बनता है और उसी में लीन भी होता है।

४. उपादान कारण असत्य, मिथ्या और अमान रूप नहीं होता।

५. उपादान बनाने से कार्य रूप में बनता है और न बनाने से नहीं बनता।

यें सभी बातें प्रकृति में पाई जाती हैं अतः प्रकृति जगत् का उपादान कारण है। प्रकृति त्रिगुणात्मक सत्त्व रजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः सांख्य दर्शन, जड़ और अनादि है। क्योंकि कारण का कारण नहंी होता। प्रकृति के अनादि होने में हेतु

१.अभाव से भाव उत्पन्न नहंीं होता। जगत् भाव रूप है अतः उसका कारण भी भाव रूप होना चाहिये और वह प्रकृति है।

२. जगत् कार्य रूप होने से उसका कारण प्रकृति ही उपादान कारण सिध्द होती है।

३. कार्य अपने उपादान कारण में विद्यमान रहता है। जगत् कार्य है और उसकी विद्यमानता प्रकृति में है।

४. कार्य अपने कारण में लय को प्राप्त होता है अतः जगत् का उपादान कारण प्रकृति होना ही चाहिये।

५. कोई कार्य तभी सम्पन्न होता है जब उसके कारण में कार्य रूप में परिणत होने की शक्ति हो अतः प्रकृति रूपी कारण में जगत् रूप में परिणत होने की शक्ति विद्यमान रहती है।

६. किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं होता वह सूक्ष्म रूप हो अपने कारण में विलीन हो जाती है। प्रलयावस्था में जगत् अपने कारण प्रकृति में विद्यमान रहता है।

७. बीज के होने पर उससे अंकुर का प्रादुर्भाव होता है। प्रकृति ही जगत का मूल कारण होने से उसका अनादि होना सिध्द होता है।

प्रमाण-

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते।

                                                तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यवश्न्नन्यो अभि चाकशीति।।       ऋ॰ १/१६४/२॰)

(द्वा) ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से कुछ सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रता युक्त (समानम्‍) वैसा ही (वृक्षम्द्ध प्रलय में छिन्न भिन्न होने वाले संसार रूप वृक्ष का (परिषष्वजाते) आश्रय लिये हुए हैं। (तयोरन्यः) इनमें से जो जीव है वह इस वृक्ष रूपी संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) स्वाद लेकर खा रहा है, भोग रहा है ओर दूसरा परमात्मा (अनश्नन्) न भोगता हुआ (अभि चाकशीति) चारों ओर विराजमान हो उसे देख रहा है।

अजामेकां लोहित शुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।

                                                अजो हयेको जुषमाणोऽनुशेते जहाव्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः। (श्वेता॰उप॰ ४१५)

प्रकृति, जीव और परमात्मा ये तीनों अज अर्थात् इनका जन्म कभी नहीं होता। प्रकृति रजोगुणयुक्त, सत्त्वगुणात्मक और कृष्ण अर्थात् तमोगुणी होने से उससे विभिन्न पदार्थों की उत्पत्ति होती है। इसे अजन्मा जीवात्मा भोग रहा है और दूसरी अविनाशी, जन्म मरण से रहित ईश्वर जीवों द्वारा भोग्य होने के कारण इसका परित्याग अर्थात् भोग से पृथक है।

सृष्टि की उत्पत्ति में मूलतत्त्वों की गणना:-

१. एकत्ववाद एकत्ववाद का सिध्दान्त कहता है कि जड़ या चेतन तत्त्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि की उत्पत्ति चार्वाक और वर्तमान भौतिक वादियों (वैज्ञानिकों) की है।

चेतन तत्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ यह मान्यता शंकराचार्य, यहूदी, ईसाई, मुसलमानों की है। इनका कहना है कि एक ईश्वर ही अनादि तत्व है जिसने अभाव से अर्थात् अपनी माया से जीव तथा जगत् की उत्पत्ति की है।

२. द्वैतवाद द्वैतवादियों का कहना है कि मूलभूत सत्ता दो हैं चेतन जीव तथा भौतिक द्रव्य प्रकृति। यह धारणा सांख्य दर्शन की मानी जाती है।

३. त्रैतवाद इस सिध्दान्त को मानने वाले ईश्वर, जीव, प्रकृति को मूलभूत सत्ता मानते हैं रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और महर्षि दयानन्द जी इसी सिध्दान्त को मानने वाले थे।

समीक्षा:-एकत्ववादियों का मानना है कि भौतिक द्रव्य से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जैसे दही और गोबर को मिला देने से उसमें कुछ समय पश्चात् बिच्छू उत्पन्न हो जाते हैं। इसी भांति मदिरा बनाने के लिये कुछ पदार्थों को मिला देने से कालान्तर में उनमें गति उत्पन्न हो जाती है। वर्तमान समय में बैटरी का निर्माण भी तेजाब और जस्ता की प्लेट का संयोग होने पर विद्युत प्रवाहित होने लगती है। इसी भांति जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी के तत्वों का संयोग होने से सृष्टि का निर्माण स्वयमेव होता है और इन तत्वों के क्षीण हो जाने पर प्रलय भी अपने आप होती है। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है।

समाधान:-यदि गोबर या दही को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखें तो उसमें सूक्ष्म जीव पहले से विद्यमान दिखाई देंगे जो उचित वातावरण में बिच्छू के शरीर में परिणत हो गये। दही और गोबर को मिलाकर अनुकूल वातावरण में रखने वाली चेतन सत्ता का होना आवश्यक है।

यदि सृष्टि का बनना और बिगड़ना स्वभाव से माने तो स्वभाव से ही उत्पन्न पदार्थ का विनाश नहीं होगा। यदि विनाश को स्वाभाविक माने तो फिर उत्पत्ति नहीं होगी। दोनों अर्थात् उत्पत्ति और विनाश यदि स्वाभाविक माने जायें तो अनवस्था दोष आ जायेगा।

आज का विज्ञान यह मानता है कि सृष्टि की अन्तिम सत्ता आत्मा-परमात्मा न होकर ऊर्जा अर्थात् वे सूक्ष्म विद्युत तरंगे हैं जो मेंढक की गति से प्रवाहित हो रही है। ये तरंगें तीन प्रकार के विद्युत कणों से बनी हैं जिन्हें इलेक्ट्राॅन, प्रोटाॅन, न्यूट्राॅन कहा जाताहै।

समाधान- यदि विद्युत तरंगों का प्रवाह विच्छेद युक्त है अर्थात् मेंढक की भांति कुदान मार-मार कर प्रवाहित होता है और फिर बन्द हो जाता है तो उसके बन्द या विच्छेद होने पर उसे दोबारा गति किससे प्राप्त होती है। जड़ पदार्थ अपने आप गतिशील नहीं हो सकता।

जिन परमाणुओं से सृष्टि का निर्माण होता है वहां पर भी व्यवस्था है। प्रत्येक परमाणु के केन्द्र में न्यूट्राॅन होता है और उसके समीप ही प्रोटाॅन के कण रहते हैं। जितने प्रोटाॅन के कण होते हैं, उतने ही इलेक्ट्राॅनों की संख्या होती है। इलेक्ट्राॅन विपरीत दिशा में गतिशील रहते हैं। उनमें गति एवं निश्चित अनुपात में प्रोटाॅन, इलेक्ट्राॅन की विद्यमानता किसी दूसरी सत्ता द्वारा ही सम्भव है। जड़ में स्वयं यह गुण नहंी आ सकता।

‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ परमाणु सौरमण्डल की एक छोटी इकाई का ही नमूना है। सूर्य के चारों ओर हमारी पृथ्वी सहित दूसरे ग्रह-उपग्रह घूम रहे हैं। सूर्य भी अपनी कक्षा में गति कर रहा है। हमारी आकाश गंगा में सूर्य सदृश लाखों नक्षत्र एवं लोक लोकान्तर हैं जो अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कर रहे हैं। ऐसी करोड़ों आकाशगंगाओं देखी जा चुकी हैं। इनहें कौन गति दे रहा है इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है।

शंकर का अद्वैतवाद:- शंकराचार्य का मत है कि सृष्टि की मूल सत्ता केवल एक चेतन ईश्वर है। ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या। जैसे मकड़ी अपने में से ही जाला बुनने के लिए तन्तु निकालती है और फिर उसे समेट भी लेती है वैसे ही ब्रह्म अपनी माया से सृष्टि की उत्पत्ति कर अपने में ही समेट लेता है। माया ब्रह्म की शक्ति है जो न सत् न ही असत् अर्थात अनिर्वचनीय है। जैसे अज्ञान के कारण रज्जु में सर्प और सीप में रजत का भ्रम हो जाता है वैसे ही यह जगत् स्वप्न के समान मिथ्या है। जैसे एक ही मूर्ख का प्रतिबिम्ब सहस्रों दर्पणों में अवभाषित हो अनेक रूपों में दिखाई देता है वैसे ही एक ब्रह्म अनेक अन्तः करणों से युक्त हो बहुत दिखाई दे रहा है।

समाधान:-जब अकेला ब्रह्म ही था तो उससे यह जड़ संसार कैसे उत्पन्न हो गया। यदि यह ब्रह्म की माया है तो फिर ब्रह्म और माया दो हो गये। यदि माया सत् है तो एकत्व का सिध्दान्त नहीं टिकता असत् मानने पर उसकी प्रतीति कैसे होगी। यदि उसे सत् असत् दोनों ही मान लिया जाये तो परस्पर विरोध उत्पन्न हो जायेगा। उसे सत्असत से भिन्न अनिर्वचनीय मानना निरर्थक है। मकड़ी और उसका सूत्र निकालना दो हो गये। क्योंकि सूत्र तो मकड़ी के शरीर से निकलता है और शरीर का निर्माण प्रकृति के पदार्थों से होता है। सीप में रजत और रज्जु में सर्प का भ्रम होना भी द्वैत को सिध्द करता है। जिसका भ्रम हो रहा है वह वस्तु दूसरी है। ऐसे ही स्वप्न भी देखे सुनें विषयों से सम्बन्धित होता है और जागने पर उन पदार्थों की सत्ता समाप्त हो जाती है परन्तु संसार तो दिखाई दे रहा है।

यदि ब्रह्म अपने में से ही जगत् का निर्माण करता है तो विकार वाला हो गया और उससे निर्मित जगत् भी चेतन स्वरूप वाला होना चाहिये। जो यह कहते हैं कि खुदा ने कुन कहा और सृष्टि रचना हो गई सो अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कार्य से पहले उसके कारण का होना आवश्यक है।

द्वैतवाद:- यह पहले कहा जा चुका है कि अकेला जड़ या चेतन सृष्टि की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं हो सकता। जब तक चेतन उसका निमित्त कारण नहीं बने तब तक जड़ स्वयं बन या बिगड़ नहीं सकता। इसलिए सृष्टि उत्पत्ति के लिये दो सत्ताओं का मानना अनिवार्य है। सांख्य दर्शन में इसे प्रकृति पुरूष कहां है ओर गीता ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। शरीर, मन, बुध्दि, इन्द्रियाँ क्षेत्र है और पुरूष इनका स्वामी।

सांख्य दर्शन के प्रमाण:-

संहत परार्थत्वात्।।१।१४॰।।

संहत शरीरादि पृथिव्यादि विभिन्न तत्वों के योग से निर्मित हैं ओर संघात दूसरों के लिए होता है। जैसे खट्वादि पुरूष के लिए निर्मित किये जाते हैं वैसे ही जीवात्मा के लिये यह शरीर प्राप्त हुआ है ओर वह इससे भिन्न है।

अधिष्ठानात्।।१।१४२।।

रथ तभी चलता है जब इसका चलाने वाला हो। शरीर भी एक रथ है। (आत्मानं रथं विध्दि शरीरं रथमेव च) जिसका अधिष्ठाता चेतन आत्मा है।

भोक्तृभावात् ।।१।१४३।।

संसार के सब विषय भोग्य और पुरूष उनका भोक्ता है।

कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च।।१।१४४।।

सब जीवों की मोक्ष अर्थात् सांसारिक दुःखों से छूटने की प्रकृति देखी जाती है। बन्धन में कोई नहीं रहना चाहता। यदि आत्मा नहीं है तो दुःख से छूटना कौन चाहता है?

षष्ठी व्यपदेशादपि सांख्य ६/३

मेरा शरीर, मेरा मन इत्यादि व्यवहार से शरीर से भिन्न आत्मा सिध्द होता है।

अस्त्यात्मा नास्तित्व साधनाभावात् (सांख्य ६/१)

आत्मा है क्योंकि उसके न होने में कोई प्रमाण नहीं है। जो मैं कहता हुॅं वह शरीर से पृथक चैतन्य स्वरूप आत्मा ही जानना चाहिए।

अन्य प्रमाण:-

१. कोई भी मरना नहीं चाहता। यह मरने से बचने वाला चेतन आत्मा ही है जिसने अनेक जन्मों में मृत्यु दुःख का अनुभव किया है।

२. यदि जीव का पृथक अस्तित्व न माना जाये तो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का अभाव होगा। ये अवस्थायें होती है अतः जीव का अस्तित्व भी सिध्द है।

३. इच्छा, द्वेष, प्रधान, ज्ञान आदि से भी जीव प्रकृति से भिन्न सिध्द होता है।

४. जड़ का प्रकाशक, जड़ से भिन्न होता है, शरीर, इन्द्रिय, मन-बुध्दि को प्रकाश गति देने वाला जीव इससे भिन्न है।

       बालादेकर्मणायस्कमुतैकं नैव दृश्यते।

     ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया।।

(अथर्व॰ १॰/८/२५)

एक (जीवात्मा) बाल से भी अधिक सूक्ष्म है और एक (प्रकृति) मानो दीखती ही नहीं। उससे भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक जो परमात्मा है वही मेरा प्रिय है।

आत्मा का परिणामः-

बालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च।

                                                                             भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।

(श्वेता॰ ५/९)

बाल के अगले भाग के सौ टुकड़े कर दिये जायें, उसके सौवें भाग के भी सौ हिस्से कर दिये जायें, उस सूक्ष्म भाग के समान जीव का प्रमाण दें किन्तु उसमें सामथ्र्य बहुत है। जीव स्व, सूक्ष्म पदार्थ है जो एक परमाणु में भी रह सकता है। उसकी शक्तियाँ शरीर में प्राण, बिजली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त होकर रहती है, उनसे सब शरीर का वर्तमान जानता है।

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास)

प्रश्न: जीव शरीर में विभु है या परिच्छिन्न?

उत्तर: परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जागृत, स्वप्न सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है। सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास।

आत्मा के गुण, कर्म स्वभाव

प्रश्न: जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण कर्म और स्वभाव कैसा है?

उत्तर: दोनों चेतन स्वरूप है। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि हैं। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय सबको नियम में रखना, जीवों को पाप-पुण्य रूप फलों को देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे-बुरे कर्म हैं।

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगभूति      (न्याय द॰ १/१/१॰)

प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवन मनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुख दुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चात्मनो लिंगानि।।                                                 (वैशेषिक दर्शन ३/२/४)

दोनों सूत्रों में (इच्छा) पदार्थों के प्राप्ति की अभिलाषा (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर, (प्रयत्न), पुरूषार्थ, बल, (सुख) आनन्द (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता (ज्ञान) विवेक, पहिचानना। ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक में (प्राण) को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना, (निमेष) आंख मींचना (उन्मेष) आंख का खोलना (जीवन) प्राण का धारण करना (मन) निश्चय, स्मरण और अहंकार करना (गति) चलना, (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना (अन्तरविकार) भिन्न-भिन्न क्षुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि का होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।

जब तक आत्मा देह में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ कर चला जाता है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसे होने से जो हों और न होने से न हों, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप एवं सूर्यादि के होने से प्रकाशादि का होना और न होने से न होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।

पुरूष बहुत्व:-

जन्मादि व्यवस्थातः पुरूष बहुत्वम् (सांख्य १.१४९)

संसार में देखा जाता है किसी का जन्म हो रहा है और किसी की मृत्यु हो रही है। जन्म-मरणादि अवस्थायें तभी सम्भव है जब अनेक जीवात्मा होंवे। इसमें प्रश्न उठता है कि मुक्ति का साधन करके बहुत सारे लोग मुक्त हो जायेंगे। इसका उत्तर अगले सूत्र में दिया है-

  इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः (सांख्य १/१५९)

हम देख रहे हैं कि वर्तमान समय में पुरूषों का सर्वथा उच्छेद नहीं है। कोई मरता है तो दूसरा जन्म लेता है। मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर आत्मा फिर शरीर     धारण करता है। इसलिये सर्वथा उच्छेद का प्रश्न ही नहीं उठता। आवागमन का यह चक्र चलता ही रहता है।

त्रैतवाद:-

ईश्वर:  जिस प्रकार घड़े को बनाने में मिट्टी उपादान कारण और कुभ्म्भकार निमित्त कारण है वैसे ही सृष्टि की उत्पत्ति में प्रकृति उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। जीव साधारण निमित्त कारण है। जड़ पदार्थ में यह सामथ्र्य नहीं कि वह स्वयं योजनाबध्द हो जगत् रूप हो जाये। जीव का भी सामथ्र्य इतना नहीं कि इस विशाल सृष्टि की रचना कर सके। तब केवल ईश्वर ही रह जाता है जो निराकार, सर्व व्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होने के कारण परमाणु में भी व्याप्त हो उसे गति प्रदान कर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कर रहा है।

ईश्वर के कार्य:-

१. सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करना।

२. सब जीवों को कर्मानुसार यथायोग्य फल देना।

गुण:-ईश्वर सगुण और निगुण दोनों है।

स्वभाव:-ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है।

ईश्वर की सिध्दि:-उदयनाचार्य ने न्याय कुसुमा´जलि में ईश्वर की सिध्दि में आठ प्रमाण दिये हैं-

कार्ययोजन धृत्यादेः पद प्रत्ययतः श्रुतेः।

                                                     वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वकृदव्ययः।।

(न्याय कुसुमांजलि)

१. कार्य-सृष्टि की रचना कार्य है। अतः इसका कारण भी होना चाहिये। बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता।

२. आयोजन-सृष्टि रचना के समय परमाणुओं को मिलाने में क्रिया हुई होगी। उस क्रिया का कर्ता होना चाहिये।

३. धृत्यादि-सृष्टि रचना के अनन्तर भी उसका कोई धारण करने वाला होना चाहिये।

४. पद – पद गति का वाचक है। सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्यों को बुना, खेती करना और अन्य लौकिक व्यवहार पहले किसी ने सिखाये होंगे क्योंकि ये नैमित्तिक कर्म हैं।

५. प्रत्यय – वेदों में ज्ञान-प्रदान करने की शक्ति मन्त्रों के माध्यम से किसने दी?

६. श्रुतेः – वेदों का ज्ञान किसने दिया?

७. वाक्य – मनुष्यों को बोलना किसने सिखाया भाषा किसने दी?

८. संख्या- यह किसको सूझा कि दो परमाणुओं से द्वयणु और तीन द्वयणु से त्रसरेणु इत्यादि बनते हैं।

इन प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की सिध्दि होती है।

अन्य प्रमाण

१. जीवों के किये हुये कर्म न स्वयं फल दे सकते हैं और न स्वयं जीवन ही फल की व्यवस्था अपने आप कर सकते हैं। अतः ईश्वर की सिध्दि कर्मफल के दाता के रूप में भी है।

२. जगत् में सर्वत्र नियम देखा जाता है अतः उसका नियामक भी होना चाहिये।

उत्पत्ति :-

                                                इयं विसृष्टिर्यत आबभूव ॰ १॰/१२९/७

जिससे यह सृष्टि प्रकाशित हुई है।

स्थिति :-

 स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् ॰ १॰/१२१/१

जिसने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को धारण किया हुआ है।

प्रलय :-

नहि ते अग्ने तन्वः क्रूरमानंश मत्र्यः।

कपिर्बभस्ति तेजनम्।।(अथर्व॰ ६/४९/१द)

हे परमेश्वर! मनुष्य तेरे क्रूर स्वरूप को नहीं जानते प्रलय के समय कम्पाने वाले आप प्रकाशमान सूर्य मण्डल को खा जाते हैं जैसे प्रसूता गो अपनी झिल्ली को खा लेती है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश  के सप्तम समुल्लास में इस विषय पर लिखा है-

प्रश्न-आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सिध्दि किस प्रकार करते हो?

उत्तर-सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।

प्रश्न-ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण कभी नहीं घट सकता?

उत्तर-इन्द्रियों का विषयों के साथ जो सीधा सम्बन्ध होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रिय और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध का ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष होता है वैसे ही इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा किसी गलत कार्य में प्रवृत्त होता है उस समय आत्मा के भीतर बुरे काम करने में भय, शंका, लज्जा तथा अच्छे कर्मों के करने में अभय, निशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। यह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है।

और जब जीवात्मा शुध्द होके शुध्दान्तकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है। तब उसको उसी समय दोनों (गुण और गुणी) प्रत्यक्ष होते हैं।

।। इत्योम्।।