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प्रारम्भ ही मिथ्या से – पंडित चमूपति जी

  प्रारम्भ ही मिथ्या से
वर्तमान कुरआन का प्रारम्भ बिस्मिल्लाह से होता है I सूरते  तौबा  के अतिरिक्त और सभी  सूरतों का प्रारम्भ में यह मंगलाचरण  के रूप में पाया जाता है ई यही नहीं इस पवित्र वाक्य का पाठ मुसलामानों के अन्य कार्यों के प्रारम्भ करना अनिवार्य माना गया है ई
ऋषि दयानंद  को इस कलमे ( वाक्य ) पर दो आपत्तियां है I प्रथम यह कुरआन के प्रारम्भ में यह कलमा परमात्मा की ओर से प्रेषित ( इल्हाम ) नहीं हुआ है I दूसरा यह की मुसलमान लोग कुछ ऐसे कार्यों में भी इसका पाठ करते है जो इस पवित्र वाक्य के गौरव के अधिकार क्षेत्र नहीं I
पहेली शंका कुरआन की वररण शैली के ओर ईश्वरी सन्देश के उतरने से सम्बन्ध रखती है I हदीसों ( इस्लाम की प्रामाणिक शुर्ति ग्रन्थ  ) में वरनन है कि सर्वप्रथम सूरत ” अलक” कि प्रथम पांच आयतें परमात्मा कि ओर से उतरी है I हज़रात जिब्रील ( ईश्वरीय दूत ) ने हज़रात मुहम्मद से कहा
” इकरअ बिइसमे रब्बिका अल्लज़ी खलका “
 पद ! अपने परमात्मा के नाम सहित जिसने उत्पन्न किया I इन आयतो के पश्चात सूरते मुजम्मिल के उतरने की साक्षी है I  इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ
                       ” या अय्युहल मुजम्मिलो ‘
                          ये वस्त्रों में लिपटे हुए !
 ये दोनों आयतें हज़रात मुहम्मद को सम्बोधित की गयी है I  मुसलमान ऐसे सम्बोधन को या हज़रात मुहम्मद के लिए विशेष भक्तो के लिए सामान्यतया नियत करते हैं I  जब किसी आयत का मुसलामानों से पाठ ( किरयात ) करना हो तो वह इकरअ ( पद / रीड ) या कुन ( कह ) भूमिका इस आयत के प्रारम्भ में ईश्वरीय सन्देश के इक भाग के रूप में वररन किया जाता है I यह है इल्हाम ईश्वरीय
सन्देश कुरआन की वररणशैली जिस से इल्हाम प्रारम्भ हुआ था I
अब यदि अल्लाह
को कुरआन के इल्हाम का प्रारम्भ बिस्मिल्लह से करना होता तो सूरते अलक के प्रारम्भ में हज़रात जिब्रील ने बिस्मिल्लाह पढ़ीं होती या इकरअ के पश्चात बीस्मेरब्बिका
के स्थान पर बिस्मिल्लाहिर्रहमनिर्हिम  कहा होता I
मुजिहुल कुरआन में सूरत फातिहा की टिप्पणी पर जो वर्तमान कुरआन की पहली सूरत है लिखा है –
 यह सूरत अल्लाह साहब ने भक्तो की वाणी से कहलवाई है की इस प्रकार कहा करें I
यदि यह सूरत होती तो इसके पूर्व कुल ( कह ) या इकरअ ( पढ़ ) जरूर पड़ा जाता I
 कुरआन की कई सूरतों का प्रारम्भ स्वयं कुरआन की विशेषता से हुआ है I  अतएव सूरते बकर के प्रारम्भ में जो कुरआन की दूसरी सूरत प्रारम्भ में ही कहा –
 ‘ जालिकल किटबोला रेबाफ़ीहे , हुडान लिलमुक्तकिन “
 यह पुस्तक है इसमें कुछ संदेह ( की सम्भावना ) नहीं ! आदेश करती परेहजगारों ( बुरियो से बचने वालों ) को I  तफ़सीरे इक्तकिन ( कुरआन भाष्य ) में वर्णन है की इब्ने मसूद अपने कुरआन में सूरते फातिहा को सम्मिलित नहीं करते थे I  उनकी कुरआन के प्रति का प्रारम्भ सूरते बकर से होता था I वे हज़रात मुहम्मद के विश्वस्त मित्रोँ ( सहाबा  ) में से थे I कुरआन की भूमिका के रूप में यह आयत आयत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है ! समुचित है l  ऋषि दयानंद ने कुरआन के प्रारम्भ के लिए यदि इसे इल्हामी ( ईश्वरीय रचना ) माना जाए यह वाक्य प्रस्तावित किये है l यह प्रस्ताव कुरआन की अपनी वर्णन शैली  के सर्वथा अनुकूल है ओर अब्ने मसूद इस शैली को स्वीकार करते थे l मौलाना मुहम्मद अली अपने अंग्रेजी कुरआन अनुवाद में पृष्ठ ८२ पर लिखते हैं –
कुछ लोगो का विचार था की बिस्मिल्लाह जिससे कुरआन की प्रत्येक सूरत प्रारम्भ हुई हैं , प्रारम्भिक वाक्य ( कलमा ) के रूप में बढ़ाया गया हैं यह इस सूरत का भाग नहीं l
इक ओर बात जो बिस्मिल्ला के कुरआन शरीफ में बहार से बढ़ाने का समर्थन करती हैं वह हैं , प्रारंभिक वाक्य ( कलमा ) के रूप में बढ़ाया गया यह इस सूरत का भाग नहीं l
 इक ओर बात जो बिस्मिल्ला के कुरआन शरीफ में बहार से बढ़ाने का समर्थन करती हैं वह हैं सूरते तौबा  के प्रारम्भ में कालमाए तसीमआ ( बिस्मिल्ला ) का वर्णन
 ना करना I  वहां लिखने से छूट गया हैं I यह ना लिखा जाना पढ्ने वालों  ( कारियों ) में इस विवाद का भी विषय बना हैं की सूरते इंफाल ओर सूरते तौबा जिनके मध्य बिस्मिल्ला  निरस्त हैं दो पृथक सूरते हैं या इक ही सूरत के दो भाग – अनुमान यह होता हैं की बिस्मिल्ला कुरआन का भाग नहीं हैं I लेखको की ओर से पुण्य के रूप ( शुभ वचन ) भूमिका के रूप जोड़ दिया गया हैं और बाद में उसे भी ईश्वरीय सन्देश ( इल्हाम ) का ही भाग ही समझ लिया गया हैं I
यही दशा सूरते फातिहा की हैं यह हैं तो मुसलमानों के पाठ के लिए , परन्तु इसके प्रारम्भ में कुन  ( कह ) इकरअ ( पड़ ) अंकित नहीं हैं I और इसे भी इब्ने मसूद ने अपनी पाण्डुलिपि में निरस्त कर दिया था I
महर्षि दयानंद की शंका इक ऐतिहासिक शंका हैं यदि बिस्मिल्ला और सूरते फातिहा पीछे से जोड़े गए हैं तो शेष पुस्तक की शुद्धता का क्या विश्वास ? यदि बिस्मिल्ला ही अशुद्ध तो इंशा व इम्ला ( अन्य लिखने पढ़ने ) का तो फिर विश्वास ही कैसे किया जाए ?
कुछ उत्तर देने वालों ने इस शंका का इल्जामी ( प्रतिपक्षी ) उत्तर वेद की शैली से दिया हैं की वहां भी मंत्रो के मंत्र और सूक्तों के सूक्त परमात्मा की स्तुति में आये हैं ,और उनके प्रारम्भ में कोई भूमिका रूप में ईश्वरीय सन्देश नहीं आया I
वेद ज्ञान मौखिक नहीं – वेद का ईश्वरीय सन्देश आध्यत्मिक , मानसिक हैं मौखिक नही I ऋषियों के ह्रदय की दशा उस ईश्वरीय ज्ञान के समय प्रार्थी की दशा थी I उन्हें कुल ( कह ) कहने की क्या आवश्यकता थी I वेद में तो सर्वत्र यही शैली बरती गयी हैं I बाद के वेदपाठी वर्णनशैली से भूमिकागत भाव ग्रहण करते हैं | यही नहीं इस शैली के परिपालन में संस्कृत साहित्य में अब तक यह नियम बरता जाता हैं की बोलने वाले व सुननेवाले का नाम लिखते नहीं | पाठक भाषा के अर्थों से अनुमान लगता हैं | कुरआन में भूमिका रूप में ऐसे शब्द स्पष्टतया लिखे गए हैं क्योंकी कुरआन कुरआन का ईश्वरीय सन्देश मौखिक हैं जिबरालपाठ करतै हैं और हज़रात मुहम्मद करते हैं इसमें ” कह ” कहना होता हैं | संभव हैं कोई मौलाना ( इस्लामी विद्वान ) इस बाहा प्रवेश को उदाहरण निश्चिय करके यह कहे की अन्य स्थानों पर इस उदाहरण   की भांति ऐसी ही भूमिका स्वयं कल्पित करनी चाहिए | निवेदन यह हैं की उदहारण पुस्तक के प्रारम्भ में देना चाहिए था ना की आगे चलकर उदाहरण और वह बाद में लिखा जाए यह पुस्तक लेखन के नियमों के विपरीत हैं | महर्षि दयानंद  की दूसरी शंका बिस्मिल्ला
के सामान्य प्रयोग पर हैं | महर्षि ने ऐसे तीन कामों का नाम लिया हैं जो प्रत्येक जाती व प्रत्येकमत में निंदनीय हैं | कुरआन में मांसादि का विधान हैं और बलि का आदेश हैं |  इस पर हम अपनी सम्मति
ना देकर शेख खुदा बक्श M . A . प्रोफ़ेसर कलकत्ता विश्वविद्यालय के इक लेख से जो उन्होंने इद्ज्जुहा के अवसर पर कलकत्ता स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित करायी थी | निनलिखित हैं उदाहरण प्रस्तुत किये हैं देते हैं –
खुदा बक्श जी का मत – ” सचमुच – सचमुच बड़ा खुदा व दयालु व दया करने वाला हैं वह खुदा आज खून की नदियों का चीखते हुए जानवरों की असहा व अवर्णनीय पीड़ा का इच्छुक नहीं प्रायश्चित ….? वास्तविक प्रायश्चित वह हैं जो मनुष्य के अपने ह्रदय में होता हैं | सभी प्राणियों की और अपनी भावना परवर्तित कर दी जाए | भविष्य के काल का धर्म प्रायश्चित के इस कठोर व निर्दयी प्रकार को त्याग देगा | ताकि वह इन तीनों पर भी भी दयापूर्ण घृणा से दृष्टिपात करें | जब बलि का अर्थ अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु अन्य सत्ता  का बलिदान हैं  ”  माडर्न रिव्यु  से अनुवादित ,
दयालु व दया करने वाले परमात्मा का नाम लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए था की हम वाणी हैं जीवों पर दया का व्यवहार करते परन्तु किया हमने इसके सर्वथा विरोधी कार्य…..  |
मुजिहूल कुरआन में लिखा हैं –
जब किसी जानवर का वध करें उस पर बिस्मिल्ला व अल्लाहो अकबर पढ़ लिया करें कुरआन में जहाँ कहीं हलाल ( वैध )  व हराम ( अवैध ) का वर्णन आया हैं वहां हलाल ( वैध )  उस वध को निश्चित किया हैं जिस पर अल्लाह का नाम पढ़ा गया हो  |कलमा पवित्र हैं दयापूर्ण हैं परन्तु उसका प्रयोग उसके आशय के सर्वथा विपरीत हैं |
( २ ) इस्लाम में बहु विवाह की आज्ञा तो हैं ही पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की भी परम्परा हैं लिखा हैं – वल्लज़ीन लिफारुजिहिम हफीजुन इल्ला अललजुहुम औ मामलकात ईमानु हुम | सूरतुल
मोमिनन आयत ऐन और जो  रक्षा करते हैं अपने गुप्त अंगों की , परन्तु नहीं अपनी पत्नियों व रखैलों से | तफ़सीरे जलालेन सूरते बकर आयत २२३ निसाउक्कम हर सुल्ल्कुम फयातु हरसकम
अन्ना शीअतुम तुम्हारी पत्नियां तुम्हारी खेतिया हैं जाओ जिस प्रकार अपनी खेती की और जिस प्रकार चाहो | तफ़सीरे जलालेन  में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा हैं – जिस बिस्मिल्ला कहकर – सम्भोग करो जिस प्रकार चाहो उठकर बैठकर लेटकर उलटे सीधे जिस प्रकार चाहो सम्भोग के समय बिस्मिल्ला कहलिया करो |                                                                                          बिस्मिल्ला का सम्बन्ध बहु विवाह से हो रखैलों की वैधता से हो | इस प्रकार के सम्भोग से यह स्वामी दयानंद को बुरा लगता हैं
( ३ ) सूरते आल इमरान आयत २७ ल यक्तखिजुमोमिंउनकफ़ीरिणा ओलियाया मिन्दुनिल मोमिना इल्ला अं तख़्तकु मीनहुम तुकतुन
ना बनायें मुसलमान काफिरों को अपना मित्र केवल मुसलमानोंको ही अपना मित्र बनाये |
 इसकी व्याख्या किसी भय के कारण सहूलियत के रूप में ( काफिरों के साथ ) वाणी से मित्रता का वचन कर लिया जाए और ह्रदय में उनसे ईर्ष्या
व वैरभाव रहे तो इसमें कोई हानि नहीं ….. जिस स्थान पर इस्लाम पूरा शक्तिशाली नहीं बना हैं वह अब भी यही आदेश प्रचिलत हैं | स्वामी दयानंद इस मिथ्यावाद की आज्ञा भी ईश्वरीय पुस्तक में नहीं दे सकते ऐसे आदेश या कामों का प्रारम्भ दयालु व दायकर्ता पवित्र और सच्चे परमात्मा के नाम से हो यह स्वामी दयानंद को स्वीकार नहीं |