आर्यसमाज से सीखोः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आर्यसमाज से सीखोः हिन्दू समाज वेद विमुख होने से अनेक कुरीतियों का शिकार है। एक बुराई दूर करो तो चार नई बुराइयाँ इनमें घुस जाती हैं। सत्यासत्य की कसौटी न होने से हिन्दू समाज में वैचारिक अराजकता है। धर्म क्या है और अधर्म क्या है? इसका निर्णय क्या स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी भाषण से होगा? गीता की दुहाई देने लगे तो गीता-गीता की रट आरम्भ हो गई। गीता में श्री कृष्ण के मुख से कहलवाया गया है कि मैं वेदों में सामवेद हूँ। क्या यह नये हिन्दू धर्म रक्षक वेद के दस बीस मन्त्र सुना सकते हैं?

एक शंकराचार्य बोले साईं बाबा हमारे भगवानों की लिस्ट में नहीं तो दूसरा साईं बाबा भड़क उठा कि साईं भगवान है। इस पर श्री भागवत जी भी चुप हैं और तोगड़िया जी भी कुछ कहने से बचते हैं। प्राचीन संस्कृति की दुहाई देने वाले प्राचीनतम सनातन धर्म वेद से दूर रहना चाहते हैं। धर्म रक्षा शोर मचाने से नहीं, धर्म प्रचार से ही होगी। दूसरों को ही दोष देने से बात नहीं बनेगी। अपने समाज के रोगों का इलाज करो। सनातन धर्म के विद्वान् नेता पं. गंगाप्रसाद शास्त्री ने लिखा है कि पादरी नीलकण्ठ शास्त्री काशी प्रयाग आदि तीर्थों पर प्रचार करता रहा कोई हिन्दू उसका सामना न कर पाया। ऋषि दयानन्द मैदान में उतरे तो उसकी बोलती बन्द हो गयी।

कल्याण में एक शंकराचार्य का लेख छपा कि ओ३म् केवल है केवल ही कर देगा। ब्राह्मणेतर सबको ओ३म् के जप करने से डरा दिया। संघ परिवार ने क्या उसका उत्तर  दिया? उत्तर देना आर्यसमाज ही जानता है। ये लोग सीखेंगे नहीं । ये अमरनाथ यात्रा के लंगर लगाकर धर्म रक्षा नहीं कर सकते। टी.वी. पर एक मौलवी ने इन्हें कहा, इस्लाम मुहम्मद से नहीं  रत आदम व हौवा से आरम्भ होता है। यह आदि सृष्टि से है। विश्व हिन्दू परिषद् का नेता, प्रवक्ता उसका प्रतिवाद न कर सका। कोई आर्यसमाजी वहाँ होता तो दस प्रश्न करके उसे निरुत्तर  करा देता। आदम व माई हौवा के पुत्र पुत्रियों की शादी किस से हुई? उनके सास ससुर कौन थे? एक जोड़े से कुछ सहस्र वर्ष में इतनी जनसंख्या कैसे हो गई?

एक मियाँ ने कहा जन्म से हर कोई मुसलमान ही पैदा होता है। किसने उसका उत्तर  दिया?

शंकराचार्य की गद्दी पर आज भी ब्राह्मण ही बैठ सकता है। काशी, नासिक, बैंगलूर आदि नगरों में विश्व हिन्दू परिषद् एक तो वेदपाठशाला दिखा दे जहाँ सबको वेद के पठन पाठन का अधिकार हो। काशी में कल्याणी देवी नाम के एक आर्य कन्या को मालवीय जी के जीवन काल में धर्म विज्ञान की एम.ए. कक्षा में वेद पढ़ने से जब रोका गया तो आर्य समाज को आन्दोलन करना पड़ा । यह कलङ्क का टीका कब तक रहेगा?

पं. गणपति शर्मा जी का वह शास्त्रार्थः- एक स्वाध्यायशील प्रतिष्ठित भाई ने पं. गणपति शर्मा जी के पादरी जानसन से शास्त्रार्थ के बारे में कई प्रश्न पूछ लिये। संक्षेप से सब पाठक नोट कर लें । यह शास्त्रार्थ १२ सितम्बर सन् १९०६ में हजूरी बाग श्रीनगर में महाराजा प्रतापसिंह के सामने हुआ। यह गप्प है, गढ़न्त है कि तब राज्य में आर्यसमाज पर प्रतिबन्ध था। पोपमण्डल अवश्य वेद प्रचार में बाधक था। तब श्रीनगर आर्यसमाज के मन्त्री महाशय गुरबख्श राय थे। हदीसें गढ़नेवालों ने सारा इतिहास प्रदूषित करने की ठान रखी है। मन्त्री गुरबख्श राय जी का छपवाया समाचार इस समय मेरे सामने है। और क्या प्रमाण दूँ?

ये चार राम थेः पं. लेखराम, पं. मणिराम (पं. आर्यमुनि), लाला मुंशीराम तथा पं. कृपाराम (स्वामी श्री दर्शनानन्द)। हम पहले बता चुके हैं कि पं. आर्यमुनि जी उदासी सम्प्रदाय से आर्यसमाज में आये थे अतः आपको सिख साहित्य का अथाह ज्ञान था। वेद शास्त्र मर्मज्ञ तो थे ही। पुराने पत्रों में यह समाचार मिलता है कि इस काल में सिख ज्ञानियों के मन में यह विचार आया कि जीव ब्रह्म के भेद और सम्बन्ध विषय में किसी दार्शनिक विद्वान् की स्वर्ण मन्दिर में व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाये। तब एक मत से सबने पं. आर्यमुनि जी को इसके लिये चुना।

पण्डित जी ने लगातार सात दिन तक जीव व ब्रह्म के स्वरूप, सम्बन्ध व भेद पर स्वर्ण मन्दिर में व्याख्यान दिये। सब आनन्दित हुए। इसके पश्चात् स्वर्ण मन्दिर में किसी संस्कृतज्ञ, वेद शास्त्र मर्मज्ञ की व्याख्यानमाला की कहीं चर्चा नहीं मिलती।

डॉ. रामप्रकाश जी का सुझावः- डॅा. रामप्रकाश जी से चलभाष पर यह पूछा कि आपके चिन्तन व खोज के अनुसार महर्षि दयानन्द जी के पश्चात् आर्य समाज के प्रथम वैदिक विद्वान् कौन थे? आपने सप्रमाण अपनी खोज का निचोड़ बताया, ‘‘पं. गुरुदत्त  विद्यार्थी।’’

मैंने कहा कि मेरा भी यह मत है कि सागर पार पश्चिमी देशों में जिसके पाण्डित्य की धूम मच गई निश्चय ही वे पं. गुरुदत्त थे। सन् १८९३ में अमेरिका में वितरण के लिए उनके उपनिषदों का एक ‘शिकागो संस्करण’ पंजाब सभा ने छपवाया था। इसकी एक दुर्लभ प्रति सेवक ने सभा को भेंट कर दी है। इसका इतना प्रभाव पड़ा कि अमेरिका के एक प्रकाशक ने इसे वहाँ से छपवा दिया। इस दृष्टि से पं. गुरुदत्त निर्विवाद रूप से ऋषि के पश्चात् प्रथम वेदज्ञ हुए हैं। परन्तु वैसे देखा जाये तो ऋषि जी के पश्चात् पं. आर्यमुनि आर्यसमाज के प्रथम वेदज्ञ हैं । मेरा विचार सुनकर डॉ. रामप्रकाश जी ने तड़प-झड़प में उन पर कुछ लिखने को कहा।

पण्डित जी ने राजस्थान में गंगानगर (तब छोटा ग्राम था) में संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए काशी चले गये। वे उदासी सम्प्रदाय से थे। वहीं ऋषि के दर्शन किये। एक शास्त्रार्थ भी सुना। ऋषि के संस्कृत पर असाधारण अधिकार तथा धाराप्रवाह सरल, सुललित संस्कृत बोलने की बहुत प्रशंसा किया करते थे। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी को अजमेर में बताया था कि ऋषि जी को काशी में सुनकर आप आर्य बन गये। आप ऐसे कहिये कि एक ब्रह्म जीव बन गया।

पण्डित जी का पूर्व नाम मणिराम था। आर्य समाज के इतिहास में प्रथम प्रान्तीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब थी। इसके प्रथम दो उपदेशक थे पं. लेखराम जी तथा पं. आर्यमुनि जी महाराज। दोनों अद्वितीय विद्वान्, दोनों ही शास्त्रार्थ महारथी और दोनों चरित्र के धनी, तपस्वी, त्यागी और परम पुरुषार्थी थे। पण्डित जी जब सभा में आये थे तो आपका नाम मणिराम ही था। राय ठाकुरदत्त  (प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन के दादा) जी ने इन दोनों विभूतियों के तप,त्याग व लगन की एक ग्रन्थ में भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सभा के आरम्भिक काल में पेशावर से लेकर दिल्ली तक और सिंध प्रान्त व बलोचिस्तान में चार रामों ने वैदिक धर्मप्रचार की धूम मचा रखी थी।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज सुनाया करते थे कि पं. आर्यमुनि जी अपने व्याख्यानों में पहलवानों के और मल्लयुद्धों के बड़े दृष्टान्त सुनाया करते थे परन्तु थे दुबले पतले। एक बार एक सभा में एक श्रोता पहलवान ने पण्डित जी से कहा, ‘‘आप विद्या की बातें और विद्वानों के दृष्ठान्त दिया करें। कुश्तियों की बातें सुनाना आपको शोभा नहीं देता। इसके लिये बल चाहिये।’’ इस पर पण्डित जी ने कहा मल्लयुद्ध भी विद्या से ही जीता जा सकता है। इस पर पहलवान ने उन्हें ललकारा अच्छा फिर आओ कुश्ती कर लो। पण्डित जी ने चुनौती स्वीकार कर ली। सबने रोका पर पण्डित जी कपड़े उतारकर कुश्ती करने पर अड़ गये। पहलवान तो नहीं थे। अखाड़ों में कुश्तियाँ बहुत देखा करते थे। सो स्वल्प समय में ही न जाने क्या दांव लगाया कि उस हट्टे-कट्टे पहलवान को चित करके उसकी छाती पर चढ़कर बैठ गये। श्रोताओं ने बज्म (सभा) को रज्म (युद्धस्थल) बनते देखा। लोग यह देखकर दंग रहे गये कि वेद शास्त्र का यह दुबला पतला पण्डित मल्ल विद्या का भी मर्मज्ञ है।

पण्डित जी का जन्म बठिण्डा के समीप रोमाना ग्राम का है। वे एक विश्वकर्मा परिवार में जन्मे थे। गुण सम्पन्न थे। कवि भी थे। हिन्दी व पंजाबी दोनों भाषाओं के ऊँचे कवि थे।

2 thoughts on “आर्यसमाज से सीखोः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु”

  1. jab koyee samperdaye me bigar aa jata hai to voh indu sanatan dharam ban jata hai …sochne samjhne ki shakti band ho jati hai ….koyee Daya nand jaise sanyasi aa kar jagate hain to ye log lathh le ker dushman ban jate hain ….aap ka article bahut sochne par majboor karta hai aisa kab tak….kya hindu sanatan dharm ishwar ka banaya hai……….tark mat karo…..ham par shardhha rakho

  2. Pt. Arya muniji ko shat shat Pranam.
    Article is eye opening.
    Arya samaji me bhi abhi Swadhayay karane ki ruchi aur abhyas kam hota ja raha hai.
    Yah chintajanak hai.

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