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प्रभु का इकलौता पुत्र न रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

प्रभु का इकलौता पुत्र न रहा

 

पूज्यपाद श्री स्वामी सत्यप्रकाशजी पूर्वी अफ्रीका की वेद-प्रचार

यात्रा पर गये। एक दिन एक पादरी ने आकर कुछ धर्मवार्ता आरज़्भ

की। स्वामीजी ने कहा कि जो बातें आपमें और हममें एक हैं उनका

निर्णय करके उनको अपनाएँ और जो आपको अथवा हमें मान्य न हों,

उनको छोड़ दें। इसी में मानवजाति का हित है। पादरी ने कहा ठीक

है।

स्वामी जी ने कहा-‘‘हमारा सिद्धान्त यह है कि ईश्वर एक

है।’’

पादरी महोदय ने कहा-‘‘हम भी इससे सहमत हैं।’’ तब

स्वामीजी ने कहा-‘‘इसे कागज़ पर लिख लो।’’

फिर स्वामीजी ने कहा-‘‘मैं, आप व हम सब लोग उसी

एक ईश्वर की सन्तान हैं। वह हमारा पिता है।’’

श्री पादरीजी बोले, ‘‘ठीक है।’’

श्री स्वामीजी ने कहा-‘‘इसे भी कागज़ पर लिख दो।’’

श्री पादरीजी ने लिख दिया। फिर स्वामीजी ने कहा-जब हम

एक प्रभु की सन्तानें हैं तो नोट करो, उसका कोई इकलौता पुत्र नहीं

है, यह एक मिथ्या कल्पना है। पादरी महाशय चुप हो गये।

 

मानवीय भोजन तथा उसका परिचरण – आचार्य शिवकुमार

प्रस्तुत लेख का विषय है, मनुष्य का भोजन तथा उसका प्रकार। भोजन शद की सिद्धि केलिए पाणिनी ने एक धातु सूत्र लिखा है- ‘‘भुज पालन अयवहारयो’’ इस धातु के दो अर्थ हैं- एक पालन करना, दूसरा भोजन करना। इसी धातु से अन्योन्य अनेक शद बनते हैं, जैसे-भोग, भोज्य, भोक्ता, भोक्तव्य आदि (भोग तथा भोक्ता का) भोज्य और भोक्ता का निकट (नित्य) सबन्ध है। प्राकृतिक जड़ पदार्थ परार्थ हैं, अर्थात् चेतन आत्मा के लिए है। आत्मा जब स्व कर्मानुसार मानव व अन्य प्राणी के शरीर में आता है तो कर्मफल के तद्रूप शरीर की रचना होती है। शरीर पंच भौतिक होने से तत् तत्त्व की आवश्यकता होती है। वह जरूरत भूख के रूप में अभिव्यक्त होती है। उसकी कमी व आवश्यकता की पूर्ति विभिन्न भक्ष्यों से की जाती है। यहीं से भोक्ता भूख तथा भोजन के इस त्रिक का सूत्रपात होता है। ये स्वखाद्यत्रिगुणात्मक होते हैं, क्योंकि जो गुण कारण में होता है, वह कार्य में भी देखा जाता है। ‘‘कारणगुणपूर्वकः कार्य गुणोदृष्टः’’ (वै. अ. 2 आ. 1 सू. 24) अर्थात् ‘‘जैसे कारण में गुण होते हैं वैसे ही कार्य में होते है’’। इन सत्त्वादि के तीनों गुणों के पृथक-पृथक गुण-धर्म है। मूल प्रकृति के पंचभूत विकार हैं। इन्हीं से समग्र स्थूल शरीरों की रचना होती है।       ऊपर से लेकर शरीर तक का सबन्ध नितान्त रूप से कारण-कार्य के अनुरूप चलता रहता है। इसी प्रकार सभी प्राणियों के इन्हीं प्राकृतिक तत्त्वों से शरीरों का निर्माण होता है तथा स्व-स्व गुण-धर्म निमित्त शरीर में रहते हैं। सभी प्राणियों की नेक प्रकृति स्वभाव तथा जीने का कारण बड़ा विलक्षण प्रकार रहता है। अपनी-अपनी स्वाभाविक प्रकृति व शरीर आकृति के आधार पर उनका अपना-अपना भोजन भी निश्चित है। क्षुद्रजीव से लेकर विशालकाय पर्यन्त साी प्राणियों में एक निर्धारित जीवन-शैली है। इसमें तनिक भी विपर्यय नहीं होता है। भोजन भक्षी प्राणियों को स्थूल रूप से दोाागों में विभक्त कर सकते हैं- शाकाहारी और मांसाहारी। अब देखना यह कि मनुष्य कौन से आहार पर विश्वास रखता है? सभी प्राणी अपने-अपने भोजन पर पूर्ण विश्वस्त हैं। किन्तु मानव अपने भोजन पर अभी तक निर्णय नहीं कर पाया है कि मनुष्य का भोजन कौन-सा है? पशु-पक्षी, जन्तु, जानवर बुद्धिविहीन होने पर भी अपने खाद्य पर अटल है, किन्तु आश्चर्य है कि सभी प्राणियों में बुद्धिमान, मनुष्य अपने खाद्यों में चंचल व दुर्बल है। अतः कहा है  ‘‘लोल्यं दुःखस्य कारणम्’’- जीभ का लालच सभी दुःखों का कारण है। पर प्राणी के शरीर को विनष्ट करके अपने जीभ के स्वाद को पूरा करना कहाँ तक सही है? मांस भक्षण से मनुष्य का स्वभाव हिंसक व तामसिक हो जाता है। आयुर्वेद के चरकादि ग्रन्थों में जो मांस भक्षण का विधान किया है, वह किसी परिस्थिति विशेष के लिए हो सकता है अथवा किसी रोग विशेष के लिए हो सकता है। सर्व साधारण एवं निर्विकल्प नियम नहीं है। मांस के अन्य अनेकों विकल्प हैं, उसके स्थान पर अनेक वन्य औषधियों से रोग का निवारण किया जा सकता है। अतएव मांस मनुष्य का भोजन नहीं, क्योंकि यह मानवीय प्रकृति के सानुकूल नहीं है। सचमुच मनुष्य का भोजन तो फल, दूध, अन्नादि सर्वोत्तम पदार्थ हैं। फलाहार जो प्राकृतिक रूप से स्वयं वृक्ष पर परिपक्व होता है। जिसे किसी भी प्रकार के ‘‘केमिकल’’ से नहीं पकाया हो, वहीं सर्वोत्तम है। दूसरा- उत्तम गवादि पशुओं का दूध, जो किसी भी मिलावट रहित होना चाहिये। तृतीय है- अन्नाहार, जो धरती के र्गा से उत्पन्न होकर सभी का पालन करता है। किन्तु अत्याधुनिक स्वादों से अनाज को पूर्ण दूषित करके खाना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। ध्यातव्य है कि आहार की शुद्धि होने पर ही सत्त्व बुद्धितत्त्व की शुद्धि होती है और सत्त्व शुद्ध होने पर ही निश्चल स्मृति होती है। हमारे शरीर में पंचकोष होते हैं। अन्न का सबन्ध शरीर के पाँच कोषों से है। इन पंच कोषों में सबसे पहला अन्नमय कोष है। अन्नमय कोष की शुद्धि होने पर अन्य कोषों की उत्तरोत्तर शुद्धि व परिमार्जन होता जाता है। यह सर्वविदित है कि रोगोत्पत्ति प्रायः अनियमित आहार-विहार के कारण होती है। स्वास्थ्य के मूल रूप उपस्तभ तीन हैं- आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य। ये आयु के प्रमुख बिन्दु हैं और परमाचरणीय हैं क्योंकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए आरोग्य ही मूल साधन है, अतः देश, काल, अवस्था, गुण, परिपाक, हेतु, लक्षण, स्वभाव आदि का परिज्ञान करके ही सत्त्व, बल, आरोग्यदायक ओषध सम भोजन की योजना करें। ध्यान रहे कि भोजन अथवा भोज्य पदार्थ भोग न बन जाय, जिससे रोग के वशीभूत होकर दुःख भोगना पड़े, क्योंकि रोग सबसे भयंकर दुःख होता है। यहाँ वैदिक सूक्ति है- तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। भोज्य  पदार्थों का भोग भी करना है, किन्तु त्यागपूर्वक करना है। ये सभी विधि विधान शरीर के परिपेक्ष में किये गये हैं। शरीरस्थ आत्मा के विषय में कोई विचार नहीं किया गया है, अतः समूचे क्रम में आत्मा ही सर्व उपादेय है। यह सब कुछ आत्मा के लिए है, शरीरेन्द्रियों के द्वारा भौतिक पदार्थों से जो सबन्ध होता है, वह अन्ततः आत्मा तक पहुँचाता है, क्योंकि आत्मा ही कर्त्ता और भोक्ता है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता है और पवित्र मन से आत्मा की पवित्रता बढ़ती है, अतः आत्मिक सुख परमेश्वर की भक्ति अर्थात् यथोचित् ईश्वर की प्रार्थना करने से प्राप्त होती है। ईश्वर प्रदत्त पदार्थों के उपयोग करने से पहले उसका धन्यवाद करना एक परम कर्त्तव्य है। इसके बिना मनुष्य कृतघ्न एवं दण्डनीय है। परमेश्वर के धन्यवाद के रूप में एक वेद मन्त्र का पाठ किया जाता है-

3म् अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।

प्र प्र दातारं तारिषऽऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।।

हे अन्न के स्वामी प्रभो! हमारे लिए बल, बुद्धि, तेज, ओज प्रदान करने वाले रोग रहित अन्न प्रदान करो, हे स्वामिन्! हमें आत्मिक शक्तिदायक अन्न दो, जिससे जीवन आरोग्यवान् होकर सुखपूर्वक जी सकें। इस वेद मन्त्र का उच्चारण भोजन से पूर्व करना चाहिये, क्योंकि यह ईश्वर की आज्ञा है। इससे भिन्न मन्त्रों का उच्चारण भोजन से पहले करना अप्रासंगिक है। जैसा मनुष्य समुदाय में एक प्रचलन है-

3म् सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु माविद्विषावहै।।

-ब्रह्मानन्द वल्ली प्रथमोऽनुवाकः

अर्थ- हे परमात्मन्! एक साथ ही हम दोनों की रक्षा करो। साथ-साथ ही हम दोनों की रक्षा करो। साथ ही बल को बढ़ावे तेजयुक्त प्रभावजनक हम दोनों का पढ़ना, स्वाध्याय, एक साथ ही हो। हम द्वेष न करें, कभी भी एक-दूसरे का अहित न सोचें।

यहाँ विचारणीय यह कि इस औपनिषदिक मन्त्र का उच्चारण भोजन काल में किया जाता है, क्या यह उचित है? इसी मन्त्र की एक क्रिया पद पर विचार करने से अच्छी प्रकार समाधान हो जाता है। इस परिप्रेक्ष में पाणिनी मुनि का एक सूत्र है- ‘‘भजोऽनवने’’ (पाणिनि अष्टाध्यायी तृतीय अ. सू. सं. 66) अर्थ- भुजधातोरनवनेऽर्थे वर्तमानादात्मने पदं भवति। भुनक्तु अर्थात् भुज धातु खाने के अर्थ में हो तो आत्मनेपद होती है। इस मन्त्र में जो क्रियापद है वह परस्मैपद है, अतः भुनक्तु का अर्थ होगा- रक्षा करना, न कि भोजन करना ‘‘भुक्ते’’ का अर्थ भोजन करना होता है। वैदिक परपरा अनुगत भोजन से पूर्व उच्चारणीय मन्त्र तो (अन्नपते….) वही मन्त्र प्रासांगिक और सार्थक है। अन्य मन्त्र अथवा कोई श्लोक आदि कदापि संगत नहीं हो सकता। इसी प्रकार से कुछ लोग गीता के एक श्लोक का भी उच्चारण करते हैंः-

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम्।

ब्रह्मैवतेन गतव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना।।

– गीता-4-24

अर्थ- जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्त्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्म रूप कर्त्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म ही है। अतएव गीता के इस श्लोक को प्रसंग से रहित ही बोला जाता है। इस श्लोक में ऐसा कोई भी शद नहीं है, जो भोजन से सबन्धित किसी बात को प्रकट करता हो, परन्तु न जाने लोग इस श्लोक को भोजन से पूर्व क्यों उच्चारण करते हैं? सचमुच यह विचारणीय बिन्दु है। सभी सज्जन मनुष्यों का कर्त्तव्य है कि असत्य को छोड़कर सत्य का ग्रहण करें। यही धर्म तथा यही सत्कर्म है।

– म.क. आर्ष गुरुकुल, (वैदिक आश्रम), कोलायत, जन. बीकानेर, राज.

चलभाष– 09166323384

स्वतन्त्रता दिवस का महत्त्व – वेदप्रकाश आर्य

मनुष्य के लिए स्वतन्त्रता का बड़ा महत्त्व है। मनुष्य को मन, वचन, कर्म की स्वतन्त्रता स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। मनुष्य को मनन-चिन्तन-सोच-विचार, बोलने-कहने-अभिव्यक्ति तथा कर्म करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। यह मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक है। ईश्वर भी मनुष्य की इस स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप नहीं करता।

संसार में कुछ मनुष्य, समूह, राष्ट्र अपने स्वार्थवश अपने छल व बल के द्वारा अन्य मनुष्यों, समूहों व राष्ट्रों की स्वतन्त्रता का अधिग्रहण करते हैं। यह कार्य प्रतिदिन किसी-न-किसी रूप में चलता रहता है। परन्तु जहाँ कहीं पर स्वतन्त्रता का हनन होता है तो उस स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति के लिए प्रयास, संघर्ष भी शुरू हो जाता है, जो स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति तक निरन्तर चलता रहता है। स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति कितने समय में होगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि स्वतन्त्रता का हरण करने वालों और स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रयास-संघर्ष करने वालों का साहस, सामर्थ्य कितना है।

हमारे देश में विदेशी लोगों द्वारा हमारी स्वतन्त्रता के हनन का कार्य ग्यारहवीं सदी में ही शुरू हो गया था, जो बीसवीं सदी के सन् 1947 तक चला। पहले यह कार्य मुगलों द्वारा और बाद में अंग्रेजों द्वारा किया गया। भारतीय अपनी स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति के लिए इस लबे काल में निरन्तर संघर्ष करते रहे। ऐसे लोगों में महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविन्दसिंह आदि मुगलकाल में प्रमुख थे। बाद में अंग्रेजों के काल में सन् 1857 से 1947 तक महारानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब, मंगल पाण्डे, महात्मा गांधी, सुभाषचन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह आदि अनेक लोगों ने स्वतन्त्रता की पुनः प्राप्ति के लिए संघर्ष किया व बलिदान दिया। इस कार्य में महर्षि दयानन्द द्वारा मार्गदर्शन का भी विशेष महत्त्व है। नौ सदियों के लबे संघर्ष व बलिदानों के बाद अन्त में 15 अगस्त सन् 1947 को इस देश के लोगों ने अपनी अपहृत स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त किया। इसीलिए 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस बड़े उत्साह से समारोहपूर्वक पूरे राष्ट्र द्वारा मनाया जाता है। इस प्रकार स्वतन्त्रता दिवस का बहुत ज्यादा महत्त्व है। स्वतन्त्रता छिन जाने के बाद ही स्वतन्त्रता के महत्त्व का अहसास होता है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि हम स्वतन्त्रता के महत्त्व को समझें और स्वतन्त्रता दिवस पर सभी लोग मिलकर विशेष आयोजन करें। फिर से हमारी स्वतन्त्रता का कोई अपहरण न कर सके, इसके लिए निरन्तर उपाय व प्रयास करते रहें, यह अतिआवश्यक है।

एम.एल.-35, एलडिको मैनसन, सैक्टर-48, गुड़गाँव-122018 (हरियाणा)

पंडित विश्वनाथ विद्यालंकार का संछिप्त परिचय  : मनमोहन कुमार आर्य

 

अथर्ववेद और सामवेद भाष्यकार तथा अनेक प्रसिद्ध वैदिक ग्रंथों के रचयिता पण्डितप्रवर श्रद्धेय श्री विश्वनाथ विद्यालंकार विद्यामार्तण्ड वैदिक साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उनका विद्याध्ययन गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार की गंगापार की तपःस्थली में हुआ था, जहाँ उन्होंने महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द संन्यासी) के सांनिध्य में व्रत साधना करते हुए विविध विद्याओं का उपार्जन किया था। गुरुकुल कांगड़ी के सर्वप्रथम स्नातक थे पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति तथा पं. हरिश्चन्द्र विद्यालंकार, जो दोनों ही गुरुकुल के संस्थापक महात्मा मुंशीराम जी के सुपुत्र थे तथा संवत् 1968 (सन् 1912) में स्नातक बने। आगामी वर्ष कोई स्नातक नहीं बना। उसके बाद संवत् 1970 (सन् 1914) में पांच स्नातक बने, उन्हीं में पं. विश्वनाथ विद्यालंकार भी थे। इस प्रकार वे गुरुकुल के प्रथम परिपक्व फलों में से थे। वेदों का पाण्डित्य प्राप्त करने में स्वामी दयानन्द सरस्वती को गुरु मानकर उनके ग्रन्थों से तथा उनके वेदभाष्य से सहायता लेकर किये गये उनके अपने परिश्रम का ही अधिक योगदान था, क्योंकि उस समय स्वामी दयानन्द की पद्धति से वेद पढा़नेवाले विद्वान् उपलब्ध नहीं थे। वेदों के अतिरिक्त श्री पण्डित जी भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनशास्त्र, रसायनशास्त्र, खगोल ज्योतिष, आंग्लभाषा आदि के भी अच्छे विद्वान् थे। पूज्य पण्डित जी का एक संक्षिप्त परिचय उन्हीं के शब्दों में, जो उन्होंने स्वयं कुछ पंक्तियों में लिखा था, नीचे दिया जा रहा है।

 

‘‘मेरे पिता वजीराबाद, जिला गुजरांवाला (जो सम्प्रति पाकिस्तान में है) के निवासी थे। उनका नाम था लाला प्रीतमदास। इन दिनों देश भर में आर्यसमाज द्वारा गुरुकुल सम्बन्धी प्रचार से तथा गुरुकुल शिक्षा पद्धति के पक्ष में पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी जी आदि के विचारों से प्रेरणा पाकर मेरे पिताजी ने श्री मुंशीराम जी को मुझे गुरुकुल भेजने का वचन दे दिया। मैं उस समय लगभग 9 वर्ष का था। प्रारम्भ में वैदिक पाठशाला गुजरांवाला में मुझे प्रविष्ट कराया गया। यह वैदिक पाठशाला गुरुकुल का प्रारंभिक बीज था और इसके संचालक श्री मुंशीराम जी थे। स्व. श्री पं. गंगदत्त जी व्याकरणाचार्य वैदिक पाठशाला के आचार्य थे। इस पाठशाला में भावी गुरुकुल के ब्रह्मचारी भी रहते थे तथा अन्य उच्च आयुओं के विद्यार्थी भी। कुछ काल के पश्चात् ब्रह्मचारियों को शेष विद्यार्थियों से पृथक् गुजरांवाला की एक कोठी में ले आया गया। इस काल में स्व. पं. विष्णुमित्र जी ब्रह्मचारियों के आचार्य रहे। यहीं से ब्रह्मचारी श्री आचार्य पं. गंगादत्त जी तथा पं. विष्णुमित्र जी समेत श्री मुंशीराम जी की अध्यक्षता में गुरुकुल कांगड़ी

पहुंचे।’’

 

‘‘सन् 1914 में मैं स्नातक हुआ और लगभग दो-तीन मास बाद मुझे गुरुकुल में प्रोफेसर रूप में नियुक्त कर दिया गया। प्रारम्भ में मैं दर्शनशास्त्र तथा रसायनशास्त्र के पढ़ाने में नियुक्त हुआ। उस समय गुरुकुल में वेद पढ़ाने का कोई विशेष प्रबन्ध न था। दर्शन पढ़ाते हुए तर्कशास्त्र में मेरी रुचि न रही, इसलिये महात्मा मुंशीराम जी तथा प्रो. रामदेव जी की प्रेरणा से मैंने वेद पढ़ाने का कार्य स्वगत कर लिया। आचार्य रामदेव जी के आचार्यत्व-काल में लगभग 15 वर्ष उपाचार्यरूप में रहा, परन्तु कतिपय विषयों में मतभेद हो जाने पर त्यागपत्र दे दिया।”

 

‘‘वैदिक साहित्य के लेखनकार्य में मेरी रुचि सन् 1942 के पश्चात् हुई जबकि मैं गुरुकुल की सेवा से मुक्त हुआ। सर्वप्रथम मैंने ‘वैदिक गृहस्थाश्रम’ पुस्तक लिखी। राजाधिराज उमेदसिंह जी के राज्यारोहणकाल में मुझे राजाधिराज जी ने आमन्त्रित किया और राजसूय पद्धति के अनुसार राजसूय यज्ञ कराया और ‘वैदिक गृहस्थाश्रम’ के प्रकाशनार्थ उन्होंने मुझे तीन हजार रुपये देने का वचन दिया। उस राशि द्वारा पुस्तक देहरादून में सन् 1947 में प्रकाशित की गई।’’

 

‘‘पंजाब-विभाजन के पश्चात् लाहौर में सर्वस्व का नुकसान हो जाने पर देहरादून में आ बसा। सन् 1973 तक मैंने और कोई साहित्य-ग्रन्थ न लिखा, क्योंकि उसके प्रकाशनार्थ धन मेरे पास न था। सन् 1923-24 के लगभग अजमेर में रहकर परोपकारिणी सभा के तत्वावधान में ऋग्वेद के संशोधित मूलपाठ को तैयार किया और मथुरा-शताब्दी के निमित्त महर्षि दयानन्द की पुस्तकों के दो संस्कृत संस्करण तैयार कर परोपकारिणी सभा को दे दिये, जिन्हें मथुरा–शताब्दी के लिए प्रकाशित कर दिया गया।’’

 

‘‘सन् 1956-57 में लगभग दो वर्ष मैं आर्य सार्वदेशिक वाटिका में अनुसंधान का कार्य करता रहा। ‘वैदिक अनुसन्धान’ त्रैमासिक का प्रकाशन तथा महर्षि के ऋग्वेदभाष्य के सुगम संस्करण के रूप में लगभग एक हजार मन्त्रों का भाष्य परोपकारिणी सभा को दिया।’’

 

‘‘सन् 1973 के लगभग रायसाहिब श्री प्रतापसिंह जी चौधरी करनाल द्वारा दी गई आर्थिक सहायता से सामवेद का आध्यात्मिक भाष्य, अथर्ववेद-परिचय, यजुर्वेद-स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ-समीक्षा ग्रन्थ छपे। अथर्ववेद भाष्य के चार खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं, 5वाँ खण्ड लिख रहा हूँ। ‘शतपथब्राह्मण और अग्निचयन-समीक्षा’ ग्रन्थ छप रहा है और प्रत्येक वर्ष एक नया ग्रन्थ लिखकर प्रकाशनार्थ भेज देता हूँ। इस सब पर व्यय रायसाहिब श्री प्रतापसिंह जी कर रहे हैं। अथर्ववेद के बाकी काण्डों पर भाष्य चल रहा है। लिखना अब शनैःशनैः ही होता है। स्वास्थ्य प्रायः सहायक नहीं रहा।’’

 

जब पूज्य पण्डित जी ने आत्मपरिचय की उपर्युक्त पंक्तियाँ लिखी थीं, तब तक अथर्ववेदभाष्य के अन्तिम चार खण्ड (अर्थात् काण्ड 11 से 20 तक) ही प्रकाशित हुए थे, तथा पाँचवाँ खण्ड (अर्थात् काण्ड 9 और 10 का भाष्य) चल रहा था। परन्तु मृत्यु से कुछ समय पूर्व पूज्य पण्डित जी के दृढ़ संकल्प तथा अध्यवसाय से अंतिम खंड (काण्ड १-३) के साथ सम्पूर्ण अथर्ववेद का भाष्य पाठकों के हाथों में पहुँच रहा है। प्रबल अस्वास्थ्य तथा लिखते हुए हाथ काँपने की दशा में भी मान्य पण्डित जी भाष्य पूर्ण कर सके, यह पाठकों के लिये वरदान ही है। समझा यह जा रहा था                                                                                                                                                                 कि प्रथम खण्ड का भाष्य नहीं हो पाया है, क्योंकि आदरणीय पण्डितजी के देहावसान के पश्चात् द्वितीय-तृतीय काण्ड का भाष्य तो मिल गया था, किन्तु प्रथम काण्ड का भाष्य उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। परन्तु पण्डित जी की सुपुत्री श्रीमती इन्दिरा जी से हमारा संपर्क निरन्तर बना रहा तथा पण्डित जी के कागजों की छानबीन भी होती रही। परिणामतः प्रथम काण्ड का भाष्य भी उपलब्ध हो गया तथा हमने (श्री मनमोहन कुमार आर्य ने) प्रकाशनार्थ रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ को उसकी पाण्डुलिपि पहुँचा दी। काण्ड द्वितीय-तृतीय के भाष्य की पाण्डुलिपि उससे पूर्व ही स्वयं बहालगढ़ जाकर दे आये थे।

 

पू. पण्डित जी के अपने सम्बन्ध में लिखे गये एक त्रुटित हस्तलेख से ज्ञात होता है कि उनका जन्म सन् 1889 में हुआ था। आपके पिता श्री प्रीतमदास आर्य गुजरांवाला में आर्यसमाज के प्रधान थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के दर्शन किये थे। आर्यसमाज के सिद्धान्तों में दृढ़ता के कारण ही उन्होंने अपने पुत्र को गुरुकुल में प्रविष्ट कराया था। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय से विद्यालंकार परीक्षा सन् 1914 में पं. विश्वनाथ जी ने प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम रहकर उत्तीर्ण की थी। वैदिक साहित्य, संस्कृत साहित्य, दर्शनशास्त्र और रसायनशास्त्र में पृथक्-पृथक् तथा सर्वयोग में भी प्रथम रहने के कारण आपको चार सुवर्णपदक एवं कई रजतपदक प्राप्त हुए थे। सन् 1914 में ही गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में उपाध्याय पद पर नियुक्त होकर निरन्तर 28 वर्षों तक सफल अध्यापन करते हुए मार्च सन् 1942 में वहाँ से सेवानिवृत हुए। सेवाकाल में आपका कार्य केवल पढ़ाना ही नहीं था, अपितु उपाचार्य होने के नाते छात्रों के व्रतपालन एवं चहुँमुखी विकास का भी आप उत्तरदायित्व सँभालते थे। समय-समय पर आप छात्रों की साहित्य संजीवनी आदि सभाओं में विविध विषयों पर भाषण देकर भी उनका ज्ञानवर्द्धन करते थे। विदेशों से जो छात्र या विद्वान् अपने ज्ञानवर्धनार्थ गुरुकुल आते थे, उनका भी वैदिक संस्कृति के विषय में मार्गदर्शन आप करते थे तथा वे गुरुकुल से पर्याप्त प्रभावित होकर स्वदेश लौटते थे।

 

वैदिक विषयों पर ग्रन्थलेखन प्रोफेसर विश्वनाथ जी ने गुरुकुल में रहते हुए ही आरम्भ कर दिया था, यद्यपि इनके अधिकतर ग्रन्थ सेवानिवृत्ति के पश्चात् लिखे गये। गुरुकुल में शिक्षक रहते हुए आपने वैदिक पशुयज्ञमीमांसा, वैदिक जीवन तथा सन्ध्या-रहस्य नामक पुस्तकें लिखी थीं। इनमें से प्रथम पुस्तक में आपने अनेक वैदिक एवं महाभारत, रामायण आदि के प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि यज्ञों में पशुहिंसा वेदानुमोदित नहीं है। द्वितीय पुस्तक में वेदमन्त्रों द्वारा वैदिक जीवन की झांकी प्रस्तुत की गयी है। यह मथुरा-शताब्दी पर प्रकाशित हुई थी। तृतीय पुस्तक में भूमिका सहित सन्ध्या के मन्त्रों की व्याख्या है, जिसकी एक विशेषता यह है कि व्याख्या में खगोल ज्योतिष का पर्याप्त उपयोग किया गया है। सेवानिवृत्ति के उपरान्त आपने जो ग्रन्थ लिखे, उनमें सामवेद और अथर्ववेद इन दो वेदों का भाष्य उल्लेखनीय है। इनका सामवेदभाष्य अध्यात्मपरक है तथा अब तक विद्वानों द्वारा हिन्दी में जो भी अनुवाद या भाष्य लिखे गये हैं, उनमें महत्वपूर्ण है। अथर्ववेदभाष्य इन्होंने उल्टे क्रम से आरम्भ किया था। सर्वप्रथम 20वें काण्ड का भाष्य किया, तदनन्तर 19, 18, 17 आदि के क्रम से इतर काण्डों का। उल्टे क्रम से भाष्य करने में यह हेतु रहा प्रतीत होता है कि अन्त के काण्डों में रहस्यमय स्थल अधिक हैं, यथा 20वें काण्ड में कुन्ताप सूक्त, 19वें काण्ड में मणिबन्धन सूक्त, 18वें काण्ड में पितृमेध-सूक्त एवं 15वें काण्ड में व्रात्य-सूक्त। 14वें काण्ड में दोनों सूक्त विवाह-सूक्त हैं, जिन पर आपने विशेष मनन-मन्थन किया हुआ था एवं रहस्यमय, उलझन-भरे तथा विवादास्पद सूक्तों का भाष्य पहले पाठकों के सम्मुख रख देने का प्रलोभन उल्टे क्रम से भाष्य करने का विशेष प्रेरक रहा है। पण्डित जी ने इस अथर्ववेदभाष्य में अपने खगोल ज्योतिष, निरुक्त, गणित, भौतिक विज्ञान, दर्शनशास्त्र आदि के ज्ञान का पर्याप्त प्रयोग किया है, जिससे कई सूक्तों का रहस्य नवीनरूप में प्रस्फुटित करने में आप समर्थ हुए। भाष्यशैली अत्यन्त सुबोध है। पण्डित जी का एक प्रौढ़ ग्रन्थ ‘शतपथब्राह्मणस्थ अग्निचयनसमीक्षा’ है, जिसमें शतपथ के जटिल अग्निचयन-प्रकरण की मीमांसा की गयी है। इस कोटि का एक ग्रन्थ ‘यजुर्वेद स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ-समीक्षा’ है। इससे आपके यजुर्वेद के सूक्ष्म तथा गहन अध्ययन का परिचय

मिलता है। आपकी कतिपय अन्य पुस्तकें वैदिक गृहस्थाश्रम, बाल सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभूमिका का सरल अध्ययन, ऋग्वेद-परिचय, अथर्ववेद-परिचय तथा वीर माता का उपदेश हैं।

 

अपने प्रगाढ़ वैदिक वैदुष्य तथा अमर साहित्य साधना के कारण पूज्य पण्डित जी को कई संस्थाओं ने सम्मानित तथा पुरस्कृत करके स्वयं को सौभाग्यशाली माना है। पण्डित जी की मातृ-संस्था गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय ने अपनी सर्वोच्च पूजोपाधि ‘विद्यामार्तण्ड’ से आपको सत्कृत किया। आर्यसमाज सान्ताक्रुज मुंबई ने सन् 1987 में आपको 21 सहस्र रुपयों की राशि, रजत-ट्राफी, उत्तरीय एवं प्रशस्तिपत्र अर्पित कर अपने वेदवेदांग-पुरस्कार से सम्मानित किया। इनके अतिरिक्त आप सन् 1979 में गंगाप्रसाद उपाध्याय पुरस्कार तथा सन् 1983 में पण्डित गोवर्धनशास्त्री पुरस्कार से भी आदृत हो चुके हैं। उत्तरप्रदेश संस्कृत अकादमी भी आपको अथर्ववेदभाष्य आदि पर पुरस्कृत कर चुकी हैं। पण्डित जी की आयु के शत वर्ष पूर्ण होने पर आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से उसके प्रधान श्री वीरेन्द्र जी ने कन्या गुरुकुल देहरादून में एक आयोजन करके आपको सम्मानित किया था। इसी प्रकार आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तरप्रदेश के मन्त्री श्री धर्मेन्द्रसिंह आर्य द्वारा गठित समिति की ओर से भी आप समादृत हो चुके हैं।

 

आदरणीय पण्डित जी के अनेक ग्रन्थों के प्रकाशन का श्रेय रायसाहिब स्व. चौधरी प्रतापसिंह जी,  रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ तथा महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक को है। रायसाहिब द्वारा आर्थिक सहायता की निश्चिन्तता यदि पण्डित जी को न होती तो प्रकाशन के संदिग्ध होने के कारण वे ग्रन्थलेखन में भी प्रवृत्त न होते। रामलाल कपूर ट्रस्ट तथा पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने पण्डित जी के ग्रन्थों के प्रकाशन में पूर्ण रुचि ली। रायसाहिब के दिवंगत हो जाने के पश्चात् यह समस्या थी कि अथर्ववेद के शेष छः काण्ड कैसे प्रकाशित होंगे। किन्तु अर्थाभाव से ग्रस्त होने पर भी श्री मीमांसक जी की प्रेरणा से उक्त ट्रस्ट ने शेष काण्डों के प्रकाशन का भार वहन किया।

 

पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकार जी का जीवन अत्यन्त, सादगी तथा तपस्या से व्यतीत हुआ। उनका स्वभाव अति सरल था। आगंतुकों के सत्कार में उन्हें आनन्द आता था। गिरे हुए स्वास्थ्य में भी पत्रों का उत्तर अवश्य देते थे। सम्मत्यर्थ कोई लेखक उनके पास पुस्तकें भेजते थे तो उन पर सम्मति लिखना भी नहीं भूलते थे। गुरुकुल कांगड़ी के प्रायः सभी पुराने स्नातक उनके शिष्य हैं। अपने शिष्यों के प्रति उनके मन में वात्सल्य रहा। शिष्यों की उन्नति देख वे सदा प्रसन्न होते थे तथा उन्हें उत्साहित किया करते थे।

 

श्रीयुत पण्डित जी ने 103 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त की। अन्तिम समय तक वह लेखन-कार्य करते रहे। 11 मार्च 1991 को उन्होंने इहलोक-लीला संवरण की। उनकी शवयात्रा में देहरादून तथा गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के अनेक गणमान्य व्यक्ति सम्मिलित थे।

 

पण्डित जी की धर्मपत्नी श्रीमती कुन्ती देवी का जन्म सन् 1898 में क्वेटा में एक आर्यसमाजी परिवार में हुआ था। वे कन्या महाविद्यालय जालन्धर की प्रथम छात्राओं में थीं। पण्डित जी को सब कार्यों में सदा उनका सहयोग प्राप्त होता रहा। पण्डित जी के देहावसान के समय से ही वे अस्वस्थ चल रही थीं। 15 अप्रैल 1992 को 94 वर्ष की आयु में वे दिवंगत हो गयीं। उन्होंने चार पुत्रों एवं तीन पुत्रियों को जन्म दिया था। चार पुत्रों में क्रमशः डॉ. प्रेमनाथ, श्री राजेन्द्रनाथ, श्री सोमनाथ तथा श्री रवीन्द्रनाथ हैं, तीन पुत्रियाँ हैं श्रीमती कमला डबराल, श्रीमती विमला बहल, और श्रीमती इन्दिरा खन्ना। डॉ. प्रेमनाथ पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में दर्शन विभाग के अध्यक्ष थे, वे सन् 1975 में दिवंगत हो गये। श्री रवीन्द्रनाथ खन्ना बी.एस.एफ. में डिप्टी कमांडेंट थे। वे भी सम्प्रति इस लोक में नहीं हैं। इस समय शेष दोनों पुत्र एवं तीनों पुत्रियाँ विद्यमान हैं। पण्डित विश्वनाथ जी अपनी धर्मपत्नी सहित सबसे छोटी पुत्री श्रीमती इन्दिरा खन्ना के पास 61, कांवली रोड, देहरादून में रहते रहे, जो पूर्ण मनोयोग से उनकी सेवा करती रहीं। अधिकांश लेखन-कार्य पण्डित जी ने वहीं किया। इस प्रकार पण्डित जी के लेखन-कार्य का श्रेय उनकी पुत्री श्रीमती इन्दिरा जी एवं उनके परिवार को भी जाता है।

 

पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी ने जिस अमूल्य वैदिक साहित्य की रचना की है, उसके कारण उनका नाम सदा अमर रहेगा। उस साहित्य को पढ़कर उनके अनेक मानस पुत्र जन्म लेते रहेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य                                                                                                                         रामनाथ वेदालंकार

196, दो, चुक्खूवाला, देहरादून                                                                                         वेदमन्दिर, ज्वालापुर, हरिद्वार

 

-प्राचीन भारत का स्वर्णिम आदर्श इतिहास- ‘कैकेय नरेश महाराज अश्वपति की सार्वजनिक घोषणा’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

भारत विगत लगभग पौने दो अरब वर्षों से अधिक तक वैदिक धर्म व वैदिक संस्कृति का अनुयायी रहा है। भारत वा आर्यावर्त्त का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि यह ब्रह्माण्ड। सृष्टि की आदि, लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख, 53 हजार वर्ष, से वेदों को मानने व उसके अनुसार शासन करने वाले लाखों राजा हुए हैं जिन्होंने वेदों की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के अनुसार राज्य व शासन किया है। भारत का इतिहास अत्यन्त प्राचीन होने व इसके लिखित रूप में सुरक्षित न होने के कारण उसके विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि अनेक विधर्मियों ने वैदिक साहित्य का नाश किया जिसके कारण अनेक प्रमुख इतिहास आदि के ग्रन्थ नष्ट हो गये। इतिहास में यहां तक विवरण हैं कि विधर्मियों ने जब तक्षशिला व नालन्दा के पुस्तकालयों को अग्नि को समर्पित किया तो वहां महीनों तक अग्नि जलती रही व उन ग्रन्थों का धुआं आकाश में उठता रहा। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारा कितना साहित्य नष्ट किया गया। इसका कारण हमारे कुछ व अनेक पूर्वजों की अकर्मण्यता को ही माना जा सकता है।

 

हमारा सौभाग्य है कि हमारे पास वर्तमान में भी अनेक प्राचीन ग्रन्थ बचे हुए हैं। इनमें से एक शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ है। यह यद्यपि अति प्राचीन ग्रन्थ है परन्तु काल प्रवाह में इसमें भी अनेक प्रक्षेप भी हुए हैं। प्रक्षेप करने वालों ने अपने-अपने मतानुसार उस-उस शास्त्र के सिद्धान्तों के विपरीत विचारों को उसमें मिलाया अवश्य परन्तु यह अच्छी बात हुई कि उसमें से कुछ निकाला नहीं। इन प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह परिणाम निकलता है। यदि प्रक्षेपकत्र्ता प्राचीन ग्रन्थों में से अच्छी बातों को निकालते तो फिर मनुस्मृत्यादि ग्रन्थों में श्रेष्ठ व उत्तम विचार व बातें न होती? शतपथ ब्राह्मण वा छान्दोग्य उपनिषद में एक प्रसिद्ध प्रकरण आता है जिसमें कैकेय राज्य के राजा अश्वपति अपने राज्य की आदर्श स्थिति का वर्णन वा घोषणा करते हैं। वैदिक साहित्य के प्रवर विद्वान पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी ने इसका उल्लेख अपने ग्रन्थ शतपथब्राह्मणस्थ अग्निचयनसमीक्षा के बारहवें परिशिष्ट में किया है। वहीं से यह प्रकरण उद्धृत कर रहे हैं।

 

“शतपथ ब्राह्मण काण्ड 10 अध्याय 6 ब्राह्मण 1 कण्डिका 1-11 में अश्वपति तथा अरुण-आपवेशि आदि 6 विद्वानों में वैश्वानर के स्वरूप विषयक जो संवाद हुआ, उसी संवाद का वर्णन, कतिपय परिवर्तनों सहित, छान्दोग्य उपनिषद, अध्याय 5, खण्ड 11 से 18 तक में भी हुआ है। प्राचीनशाल औपमन्यव, सत्ययज्ञ पौलुषि, इन्द्र-द्युम्न भाल्लवेय, जन शाकराक्ष्य, बुडिल आश्वतराश्वि तथा उद्दालक आरुणि, ये 6 विद्वान, ‘‘आत्मा और ब्रह्म का क्या स्वरुप है” इसे जानने के लिये केकय के राजा अश्वपति के पास आए। प्रातःकाल जाग कर अश्वपति ने उनके प्रति कहा किः-

 

मे स्तेनो जनपदे कदर्यो मद्यपो।

नानाहिताग्निर्नाविद्वान् स्वैरी स्वैरिणी कुतः।।      (खण्ड 11 कण्डिका 5)

 

तथा साथ यह भी कहा कि हे भाग्यशालियों ! मैं यज्ञ करूंगा, जितनाजितना धन मैं प्रत्येक ऋत्विज् को दूंगा उतनाउतना आप सबको भी दूंगा, तब तक आप प्रतीक्षा कीजिये और यहां निवास कीजिये।

 

उपर्युक्त श्लोक का अर्थ निम्नलिखित हैः-

 

मेरे जनपद अर्थात् राज्य में कोई चोर है, कंजूस स्वामी और वैश्य है कोई शराब पीने वाला है कोई यज्ञकर्मों से रहित है, कोई अविद्वान् है। कोई मर्यादा का उल्लंघन करके स्वेच्छाचारी है, स्वेच्छाचारिणी तो हो ही कैसे सकती है।

 

इस श्लोक में कही गई बातों का अभिप्राय यह है कि आत्मज्ञ और ब्रह्मज्ञ शासक ही, प्रजाजनों को उत्तम शिक्षा देकर, उन्हें सामाजिक तथा धार्मिक भावनाओं से सम्पन्न कर सदाचारी बना सकते हैं।” हमारा अनुमान है कि आज पूरे विश्व में एक भी आत्मज्ञ एवं ब्रह्मज्ञ शासक नहीं है। यह उन्नति नहीं अपितु अवनति का प्रतीक है।

 

राजा अश्वपति ने जो घोषणा की, उसके अनुसार उनके देश केकय में तब तक कोई नागरिक चोर नहीं था अर्थात् उनके राज्य में चोरी नहीं होती थी। दूसरी विशेषता थी कि कोई नागरिक कंजूस नहीं था। तीसरी विशेषता थी कि कोई नागरिक शराब नहीं पीता था। चैथी विशेषता उन्होंने यह बतायी कि कोई नागरिक यज्ञ कर्म न करने वाला नहीं है अर्थात् प्रत्येक नागरिक प्रतिदिन प्रातः सायं वेदाज्ञानुसार यज्ञ करता है। कोई प्रजाजन अविद्वान नहीं है अर्थात् सभी वेदों के ज्ञान से सम्पन्न हैं। ऐसा भी कोई नागरिक नहीं था जो मर्यादा का उल्लंघन करे अर्थात् स्वेच्छाचारी हो। जब स्वेच्छाचारी व चारित्रिक पतन वाला एक भी पुरुष ही नहीं था तो स्वेच्छाचारिणी स्त्रियां तो होने का प्रश्न ही नहीं था। हम जब इस श्लोक को पढ़ते हैं और संसार की वर्तमान स्थिति को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि संसार का पतन किस सीमा तक हुआ है। यह भारत के मूल निवासी आर्य राजा की घोषणा है जब इस देश में सभी निवासी आर्य थे, कोई आदिवासी या आर्येत्तर वनवासी जैसा भेद नहीं था। आर्य बाहर से आये, यह महाझूठ अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिए प्रचारित किया था जिसे आज के अज्ञानी व विदेशियों के उच्छिष्ठ भोजी भी अपने स्वार्थ के लिए यदा कदा प्रयोग करते रहते हैं। हमें ऐसे लोगों के बुद्धिमान व मनुष्य होने भी सन्देह होता है। आज हम भारत को आदर्श, स्वावलम्बी व समृद्ध राष्ट्र बनाने की बातें तो करते हैं परन्तु महाराजा अश्वपति के राज्यकाल के एक भी गुण को वर्तमान के नागरिकों में शत प्रतिशत स्थापित करने का हमारा किंचित संकल्प नहीं है। यह बात अलग है कि वैदिक धर्मी आर्यसमाजी अनेक मनुष्य ऐसे मिलेंगे जो आज भी शत-प्रतिशत इन नियमों व आदर्शों का पालन करते हैं। हमें लगता है कि यह श्लोक आदर्श राज्य का नमूना प्रदर्शित करता है जो प्राचीन काल में न केवल कैकय में अपितु सर्वत्र भारत में लाखों व करोड़ो वर्ष तक रहा है। आज का भारत कैसा है, इसे आज के समाचार पत्रों व टीवी समाचारों सहित हमारी लोकसभा में होने वाली घटनाओं को देखकर जाना जा सकता है।

 

महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना न केवल इस श्लोक में वर्णित प्राचीन भारत के आदर्श के अनुरुप देश को बनाने की थी अपितु वह पूरे विश्व को ही इसके अनुरुप बनाना चाहते थे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं वेदभाष्य आदि ग्रन्थों की रचना भी इसी अभिप्राय से की थी। ऐसा भारत व विश्व ही आदर्श रामराज्य कहा जा सकता है। महर्षि दयानन्द का स्वप्न भविष्य में कभी साकार होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता परन्तु हम महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के अनुयायियों का आदर्श ऐसा ही राज्य हो सकता है। हम शतपथब्राह्मण और छान्दोग्य उपनिषदकारों को इस श्लोक को प्रस्तुत करने के लिए उनका अभिनन्दन करते हैं। यदि एक वाक्य में कहा जाये तो इस श्लोक के बारे में यह कहा जा सकता है कि कैकय राज्य के समान भारत को बनाने के लिए सभी मनुष्यों को सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा, प्रत्येक पल-क्षण, उद्यत रहना चाहिये। वेदमन्त्र ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्नासुव।। अर्थात् ईश्वर हमारी समस्त बुराईयों, दुःखों व दुव्र्यस्नों को हमसे दूर करे और हमारे लिए जो भद्र वा कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव व पदार्थ हैं वह सब हमें प्राप्त कराये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

जिसने महर्षिकृत ग्रन्थ कई बार फाड़ डाले: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

आर्यसमाज के आरम्भिक  काल के निष्काम सेवकों में श्री

सरदार गुरबक्श सिंहजी का नाम उल्लेखनीय है। आप मुलतान,

लाहौर तथा अमृतसर में बहुत समय तक रहे। आप नहर विभाग में

कार्य करते थे। बड़े सिद्धान्तनिष्ठ, परम स्वाध्यायशील थे। वेद,

शास्त्र और व्याकरण के स्वाध्यय की विशेष रुचि के कारण उनके

प्रेमी उन्हें ‘‘पण्डित गुरुदत्त  द्वितीय’’ कहा करते थे।

आपने जब आर्यसमाज में प्रवेश किया तो आपकी धर्मपत्नी

श्रीमति ठाकुर देवीजी ने आपका कड़ा विरोध किया। जब कभी

ठाकुर देवीजी घर में सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका को

देख लेतीं तो अत्यन्त क्रुद्ध होतीं। आपने कई बार इन ग्रन्थों को

फाड़ा, परन्तु सरदार गुरबक्श सिंह भी अपने पथ से पीछे न हटे।

पति के धैर्य तथा नम्रता का देवी पर प्रभाव पड़े बिना न रहा। आप

भी आर्यसमाज के सत्संगों में पति के संग जाने लगीं।

पति ने पत्नी को आर्यभाषा का ज्ञान करवाया। ठाकुर देवी ने

सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन किया। अब तो उन्हें वेद-प्रचार

की ऐसी धुन लग गई कि सब देखकर दंग रह जाते। पहले भजनों

के द्वारा प्रचार किया करती थीं, फिर व्याख्यान  देने लगी। व्याख्याता

के रूप में ऐसी प्रसिद्धि पाई कि बड़े-बड़े नगरों के उत्सवों में उनके

व्याख्यान होते थे। गुरुकुल काङ्गड़ी का उत्सव तब आर्यसमाज का

सबसे बड़ा महोत्सव माना जाता था। उस महोत्सव पर भी आपके

व्याख्यान हुआ करते थे। पति के निधन के पश्चात् आपने धर्मप्रचार

में और अधिक उत्साह दिखाया फिर विरक्त होकर देहरादून के

समीप आश्रम बनाकर एक कुटिया में रहने लगीं। वह एक अथक

आर्य मिशनरी थीं।

 

ईश्वर है या नहीं एक विश्लेषण – ब्र. कश्यप कुमार

संसार में ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने वालों की संख्या  बहुत अधिक है, यद्यपि ईश्वर के स्वरूप एवं गुण-कर्म-स्वभाव के सबन्ध में उनमें मतैक्य नहीं है। परन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनका मत यह है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता या शक्ति नहीं है और न उसकी कोई आवश्यकता है। सब नास्तिक मत इसी विचार के मानने वाले हैं। इस सोच का आधार है कि ईश्वर किसी को दिखाई नहीं पड़ता है। किसी की पाँचों  ज्ञानेन्द्रियाँ आज तक ईश्वर को न देख पाई है, न छू सकी है, न श्रवण, घ्राण आदि के द्वारा अनुभव कर सकी हैं। ईश्वर को न मानने वालों को पूर्व पक्ष और उस परमशक्ति के होने में विश्वास करने वालों को उत्तर-पक्ष मानते हुए चर्चा को इस प्रकार आगे बढ़ा सकते हैं-

पू.- वह इन पाँचों इन्द्रियों से भी नहीं दिखाई देता। अतः वह ईश्वर जो आप कहते हैं। वह नहीं हो सकता।

.- इसका स्पष्ट तात्पर्य इतना है कि आप पाँचों इन्द्रियों तक सिमट गये हो, इसके आगे भी विचार करें। अभी तो मन तथा बुद्धि भी अवशिष्ट है।

पू.- अरे भाई! आज तक आपने कभी सुना है कि यह व्यक्ति देखो मन से अथवा बुद्धि से देाता है।

.- आप जिसे ‘‘देखना मात्र’’ मानते हो, वही ‘‘मात्र देखना’’ नहीं होता, देखना अर्थात् जानना भी होता है। ज्ञान प्राप्त करने के अर्थ में भी ‘‘देखना’’ शद का प्रयोग होता है। अब इसे भी उदाहरण से देखते हैं। यदा-कदा हम कुछ बातों को भूल जाते हैं, तब आँखें बन्द कर विचार करते हैं और झट से याद आने पर कहते हैं- मैंने विचार कर देखा। वास्तव में वही सही है।

इस वाक्य में भी ‘‘देखा’’ शद का प्रयोग हुआ, पर वह जानने अर्थ में, न कि ‘‘नेत्र से देखने अर्थ में या अन्य इन्द्रियों से देखने अर्थ में। एक प्रयोग और देखिये- अरे भाई! आप एक बार अनुमान करके तो देखो, आपको पता लगेगा। यहाँ भी ‘‘देखो’’ शद का प्रयोग ‘‘जानो’’ अर्थ में ही हुआ है। इससे पता चलता है कि बहुत वस्तुएँ ‘‘मन एवं बुद्धि’’ से भी जानी जाती है। वह देखना, यह देखना, वह देखा, यह देखा, वह दिखेगा, वहाँ दिखेगा इत्यादि प्रयोग जानने अर्थ में होते हैं न कि मात्र चाक्षुष प्रत्यक्ष में।

पू.- तो मन से या बुद्धि से तो जाना जाना चाहिये परन्तु ऐसा भी तो नहीं।

.- अविद्यारूपी घोर अन्धकार को दूर करो और ईश्वर का आनन्द उठाओ अर्थात् अविद्यारूपी आवरण की परत बहुत मोटी है। जो हमें प्रत्यक्ष होने में बाधा पहुँचाती है, उसे दूर करना चाहिये। इसमें शास्त्रों के अनेक प्रमाण है।

न्यायदर्शन. प्रमाणप्रमेय……तत्त्वज्ञानान्निः श्रेयसाधिगमः।

वैशेषिक. धर्मविशेषप्रसूताद्………तत्त्वज्ञानान्नि श्रेयसम्।

योग दर्शन. तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्।

स्वयं वेद भी प्रमाण है।

परीत्यभूतानि परित्य लोकान्…….

आत्म नात्मानमपि सं विवेश।

-यजु. 32/11

तो जब अविद्या का अवसरण हो जावेगा तब मन के माध्यम से आत्मा तक और आत्मा से ईश्वर तक पहुँच सकेंगे।

और बुद्धि से तो अनुमान कर ही सकते हैं। बिना अनुमान किये ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे भोजन सामने रखा है, पर उसे ग्रहण करने का प्रयत्न यदि न किया जावे, तो भूख नहीं हट सकती। उसी प्रकार ईश्वर को जानने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है।

पू.- वह प्रयास किस प्रकार से करें?

.- जैसे आप धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान अथवा पुत्र को देखकर जन्मदाता का अनुमान या आधेय को देखकर आधार का अनुमान करते हैं। तब आप मन-ही-मन एक व्याप्ति बनाते हैं और जान लेते हैं कि यह ज्ञान सही होता है।

व्याप्ति का स्वरूपजहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है या जहाँ-जहाँ आधेय होता है, वहाँ-वहाँ आधार होना आवश्यक है।

इसी प्रकार- जो-जो कार्य होता है, उसका कारण अवश्य होता है। आपने किसी घर को बना देखा, तो आपने अनुमान किया कि इसका बनाने वाला कोई अवश्य ही है, घर एक कार्य रूप में देख कर, आपने उसके बनाने वाले का अनुमान किया और निश्चय किया कारण गुणपूर्वक ही कार्य होता। अब यह भी विचार किया कि मैं इसको कार्य, क्यूँ कह रहा हूँ? क्योंकि वह क्षीण होता है। तो एक व्याप्ति आपने और तैयार की कि जो-जो कार्य होता है, वह क्षीण होता है। तो क्षीण होने वााला कार्य होता है और कार्य का कारण भी अवश्य होता है अर्थात् कार्य को कार्य रूप देने वाला कर्त्ता भी जरुरी है। अब इस सृष्टि को ही ले लेते हैं। सृष्टि एक कार्य है यह पता चलता है क्षीण होना प्रत्यक्ष देखें जाने से और उस कार्य का कर्त्ता भी आवश्यक है, अब वही कौन है, यह भी अनुमान से सिद्ध होता है कि इस संसार को निर्माण करने वाला एक देशी अथवा अल्पज्ञ नहीं हो सकता, अतः ईश्वर का अनुमान होता है।

पू.- यह संसार तो अपने आप ही बना है।

.- अब आप उक्त सिद्धान्त के विरुद्ध जा रहे हैं। प्रथम आपने स्वीकार किया था कि जो बना होता है, उसे बनाने वाला होता है। अब सिद्धान्त से सर्वथा भिन्न कह रहे, वह ठीक नहीं।

पू.- क्योंकि यदि ईश्वर ने भी यदि इस संसार को बनाया है, यह कहे तो प्रश्न होगा कि ईश्वर को किसने बनाया?

.- हमारा सिद्धान्त जो स्थापित किया था उस तरफ ध्यान दें। जो कार्य होता है, वह क्षीण होता रहता है और जो क्षीण होता हुआ, कोई भी कार्य दिखाई पड़ता है, उसको बनाने वाला कोई अवश्य ही होता है और ईश्वर क्षीण नहीं होता। अतः उसे बनाने वाला कोई भी नहीं हुआ, न है और न होगा। अपितु उसने ही इस संसार को बनाया।

पू.- तो वह ईश्वर कहाँ है?

.- वह सर्वत्र कण-कण में है, वह सर्वव्यापक है। तभी तो उसने इतनी बड़ी रचना की है अन्यथा एकदेशी होकर, इसे करना सभव नहीं, यह पीछे बता ही आये। और वह सर्वव्यापक है, अतः सर्वज्ञ भी है।

पू.- तब तो प्राकृतिक आपदाएँ नहीं आनी चाहिये। क्योंकि सर्वव्यापक है, अतः उसे ध्यान देना चाहिये कि ये आपदाएँ जीवात्माओं को कष्ट पहुँचायेगी तथा मेरा कार्य करना भी व्यर्थ होगा, क्योंकि मैंने तो आत्माओें को सुख देने के लिए संसार बनाया है और यह बाधाएँ इनको कष्ट दे रही है। इतना ही नहीं अपितु सर्वज्ञ होने से, उसे उस प्रकार का निर्माण करना चाहिये कि कोई भी आपदाएँ आने ही न पावें।

.- यह सब ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार होता है वा नियमानुसार कहो। क्योंकि ईश्वर को कर्मफल भी तो देने हैं। अतः इसमें हमारे कर्म ही कारण होते हैं। इससे अतिरिक्त, यह प्रदूषण करने का प्रभाव या परिणाम भी हो सकता है। जैसे कोई मनुष्य एक यन्त्र बनाता है और उसमें विद्युत् को सहन करने की क्षमता एक क्षमता तक ही होती है। यदि उसमें कोई अधिक विद्युत् दे देवें, तो वह जलकर नष्ट ही होगा। इसी प्रकार यह पृथ्वी भी एक सीमा तक ही सहन कर सकती है या सह सकती है। उसके पश्श्चात् जो होता है, वह हम देखते ही हैं। यदि व्यवस्था को कोई अव्यवस्था रूप देना चाहे, तो उसमें ईश्वर को क्या दोष?

पू.- यदि ईश्वर है और आप उसे मानते हैं, तो बताइये कि आज पूरे विश्व में इतने दुष्टकर्म हो रहे हैं परन्तु ईश्वर तो कुछ भी नहीं करता?

.- ईश्वर को क्या करना चाहिये, आप ही बताइये?

पू.- उसे शरीर धारण करना चाहिये और दुष्टों की समाप्ति कर देनी चाहिये।

.- यदि वह शरीर धारण करे तो स्थान-स्थानान्तर, देश-देशान्त, विश्व-विश्वान्तर या लोक-लोकान्तर में तथा मोक्ष में प्रत्येक जीवात्मा का ध्यान कौन देगा? उनके कर्मों का ज्ञान कैसे होगा और ज्ञान नहीं होगा तो उनका फल भी नहीं दे सकेगा।

पू.- तो सर्वव्यापक होते हुए, कुछ भी तो नहीं करता?

.- आपको कैसे पता कि वो कुछ भी नहीं करता?

पू.- क्या करता है, बताईये?

.- वही तो सभी के कर्मों का यथावत् फल देता है। ये भिन्न-भिन्न योनियाँ जो दिखाई पड़ती है, वह सब इसी के व्यवस्था के अन्तर्गत है और आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है और ईश्वर उसे हाथ पकड़कर रोक दे, तो वह तो परतन्त्र होवेगा। अतः ईश्वर को उसी रूप में जानना चाहिये, जिस रूप में वह है।

पू.- वह कैसे मिलेगा?

.- यह जो हम लोग पाप कर्म करते हैं, उसके कारण को (मिथ्या ज्ञान) को हटा दें तो वह आनन्दस्वरूप परमात्मा प्राप्त होता है, यह शास्त्र कहता है, वेद भी कहता है।

‘‘अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते’’

अर्थात् तत्त्वज्ञानपूर्वक ही आप ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं। उसके लिए आप शास्त्रों का अध्ययन कर श्ीाघ्रता से प्राप्त कर सकते हैं।

विशेष सार यदि हम परमात्मा पर विश्वास नहीं करते तो दोष-पर-दोष ही करते चले चलते हैं।

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चिदहावेदीन्महती विनिष्टः।

भूतेषू-भूतेषू विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।

– उप.।।

भावार्थः इस जन्म में उसे जान लिया तो अच्छा होगा, नहीं तो महाविनाश होगा। धीर लोग प्रत्येक जड़-चेतन का भेद जानकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

‘पं. गणपति शर्मा का वैदिक धर्म व महर्षि दयानन्द के प्रति श्रद्धा से पूर्ण प्रेरणादायक जीवन’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

प्राचीनकाल में धर्म विषयक सत्य-असत्य के निणर्यार्थ शास्त्रार्थ किया जाता था। अद्वैतमत के प्रचारक स्वामी शंकराचार्य के बाद विलुप्त हुई इस प्रथा का उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानन्द ने पुनः प्रचलित किया। इसी शास्त्रार्थ परम्परा को पं. गणपति शर्मा ने अपने जीवन में अपनाया और यह सिद्ध किया कि किसी विषय में एक या अधिक मत होने पर उसका निर्णय शास्त्रार्थ द्वारा सरलता से किया जा सकता है।

 

पं. गणपति शर्मा का जन्म राजस्थान राज्य के अन्तर्गत चुरू नामक नगर में सन् 1873 में पं. भानीराम वैद्य के यहां हुआ था। आप पाराशर गोत्रीय पारीक ब्राह्मण थे। आपके पिता सच्चे ईश्वर भक्त थे और ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास पंडित गणपति शर्मा के जीवन में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। आपकी शिक्षा काशी और कानपुर आदि स्थानों पर हुई। 22 वर्ष की आयु तक आपने संस्कृत व्याकरण और दर्शनों का अध्ययन किया। जब आप अपने पैतृक स्थान चुरू आये तो वहां महर्षि दयानन्द के शिष्य व राजस्थान में वैदिक धर्म के महान प्रचारक श्री कालूराम जी जोशी के प्रभाव से आर्यसमाजी बने। आर्यसमाजी बनकर आपने वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार का कार्य आरम्भ कर दिया।

 

सन् 1905 के गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार के वार्षिक उत्सव में आप सम्मिलित हुए थे। इस उत्सव में देश भर के आर्यसमाजों से भी लोग सम्मिलित हुए थे। लगभग 15 हजार श्रोताओं की उपस्थिति में आपने व्याख्यान दिया। इस व्याख्यान से आपकी विद्वता एवं प्रभावशाली प्रवचन शैली की धाक जम गई। सारे आर्यजगत का ध्यान आपकी ओर आकर्षित हुआ और इसके बाद आप आर्यसमाज के एक प्रमुख विद्वान के रूप में प्रसिद्ध रहे। गुरुकुल के उत्सव में मिया अब्दुल गफूर से शुद्ध होकर धर्मपाल बने सज्जन भी उपस्थित थे। गुरुकुल के आयोजन पर अपने विस्तृत समाचार एवं संस्मरण विषयक लेख में उन्होंने पं. गणपति शर्मा के व्याख्यान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा था कि वह शब्दों में कुछ कहने में असमर्थ हैं। पंडित जी की ज्ञान प्रसूता वाणी का आनन्द तो सुनकर ही लिया जा सकता है।

 

पं. गणपति शर्मा की एक विशेषता यह भी थी कि वह बिना लाउडस्पीकर के 15-15 हजार की संख्या में 4-4 घटों तक धारा प्रवाह व्याख्यान करते थे। उनकी विद्वता एवं व्याख्यान में रोचकता के कारण श्रोता थकते नहीं थे। इसका एक कारण जन-जन में पंडित जी के प्रति श्रद्धा का होना भी था। अपने युग के प्रसिद्ध नेता स्वामी श्रद्धानन्द ने इस संबंध में लिखा था किलोगों में पण्डित जी के प्रति श्रद्धा का कारण उनकी विद्वता एवं व्याख्यान कला नहीं, अपितु उनका शुद्ध एवं उच्च आचरण तथा सेवाभाव है। यही कारण है कि शास्त्रार्थ में वह जिस विधर्मी विद्वान से वार्तालाप करते थे वह उनका मित्र एवं प्रशंसक हो जाता था।

 

सन् 1904 में पसरूर (पश्चिमी पंजाब) में पादरी ब्राण्डन ने एक सर्व धर्म सम्मेलन का आयोजन किया। आर्यसमाज की ओर से इस आयोजन में पं. गणपति शर्मा सम्मलित हुए। उनकी विद्वता एवं सद्व्यवहार का पादरी ब्राण्डन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह पं. जी का मित्र एवं प्रशंसक हो गया। इसके बाद उन्होंने जब भी कोई आयोजन किया वह आर्य समाज जाकर पं. गणपति को भेजने का आग्रह करते थे। ऐसे ही अनेक उदाहरण और हैं जब प्रतिपक्षी विद्वान शास्त्रार्थ में पराजित होने पर भी उनके सदैव प्रशंसक रहे।

 

जहां पण्डित जी के व्यक्तिगत आचरण में सभी के प्रति आदर था वहीं धर्म प्रचार में भी वह सदैव तत्पर रहते थे। सन् 1904 में उनके पिता एवं पत्नी का देहावसान हुआ। पिता की अन्त्येष्टि सम्पन्न कर आप धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े और चूरु से कुरुक्षेत्र गये जहां उन दिनों सूर्यग्रहण पर मेला लगा था। अन्य मतावलम्बियों ने भी यहां प्रचार शिविर लगाये थे। इस मेले पर पायनियर पत्रिका में एक योरोपियन लेखक का लेख छपा जिसमें उसने स्वीकार किया था कि मेले में आर्यसमाज का प्रभाव अन्य प्रचारकों से अधिक था। इसका श्रेय भी पं. गणपति शर्मा को है जो इस प्रचार के प्राण थे। धर्म प्रचार की धुन के साथ पण्डित जी त्यागवृत्ति के भी धनी थे। इसका उदाहरण उनके जीवन में तब देखने को मिला जब पत्नी के देहान्त हो जाने पर उसके सारे आभूषण लाकर गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर को दान कर दिये।

 

पंडित जी ने देश भर में पौराणिक, ईसाई, मुसलमान एवं सिखों से अनेक शास्त्रार्थ किये एवं वैदिक धर्म की मान्यताओं को सत्य सिद्ध किया। 12 सितम्बर सन् 1906 को श्रीनगर (कश्मीर) में पादरी जानसन से महाराजा प्रताप सिंह जम्मू कश्मीर की अध्यक्षता में पंडित गणपति शर्मा जी ने शास्त्रार्थ किया। पादरी जानसन संस्कृत भाषा एवं दर्शनों का विद्वान था। उसने कश्मीरी पण्डितों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी परन्तु जब कोई तैयार नहीं हुआ तो पादरी महाराजा प्रताप सिंह के पास गया और उनसे कहा कि आप राज्य के पण्डितों से शास्त्रार्थ कराईयें अन्यथा उसे विजय पत्र दीजिए। महाराज के कहने पर भी राज्य का कोई पण्डित शास्त्रार्थ के लिए तैयार नहीं हुआ, कारण उनमें विद्वता शास्त्रार्थ करने की योग्यता थी। इस स्थिति से महाराजा चिन्तित व दुःखी हुए। इसी बीच महाराज को कहा गया कि एक आर्यसमाजी पण्डित श्रीनगर में विराजमान है। वह पादरी जानसन का दम्भ चूर करने में सक्षम है। राज-पण्डितों ने पंडित गणपति शर्मा का आर्य समाजी होने के कारण विरोध किया जिस पर महाराज ने पण्डितों को लताड़ा ओर शास्त्रार्थ की व्यवस्था कराई। पं. गणपति शर्मा को देख पादरी घबराया और बहाने बनाने लगा, परन्तु महाराजा की दृणता के कारण उसे शास्त्रार्थ करना पड़ा। शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने पादरी जानसन के वैदिक दर्शनों पर किये प्रहारों का उत्तर दिया और उनसे कुछ प्रश्न किये? शास्त्रार्थ संस्कृत में हुआ। सभी राज-पण्डित शास्त्रार्थ में उपस्थित थे। पं. गणपति शर्मा जी के तर्कों व युक्तियों तथा वेद आदि शास्त्रों के कभी न देखे, सुने व पढ़े प्रमाणों व उनके अर्थों को सुनकर राजपण्डित विस्मित हुए। अगले दिन 13 सितम्बर, 1906 को भी शास्त्रार्थ जारी रहना था। परन्तु पादरी जानसन जी चुपचाप सिसक गये। वह जान गये थे कि आर्यसमाज के इस पर्वत के शिखर तुल्य ज्ञानी पण्डित पर शास्त्रार्थ में विजय पाना असम्भव है। इस विजय से पं. गणपति शर्मा की कीर्ति देशभर में फैल गई। कश्मीर नरेश महाराज प्रतापसिंह जी ने पण्डित जी का उचित आदर सत्कार कर उन्हें कश्मीर आते रहने की प्रार्थना की और निमन्त्रण दिया।

 

पं. गणपति शर्मा का वृक्षों में अभिमानी जीव है या नहीं, विषय पर आर्य समाज के ही सुप्रसिद्ध विद्वान व शास्त्रार्थ महारथी स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती से 5 अप्रैल 1912 को गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में शास्त्रार्थ हुआ था। दोनों विद्वानों में परस्पर मैत्री सम्बन्ध थे। यद्यपि इसमें हार-जीत का निर्णय नहीं हुआ फिर भी दोनों ओर से जो प्रमाण, युक्तियां एवं तर्क दिये गये, वह खोजपूर्ण एवं महत्वपूर्ण थे।

 

पं. जी का कुल जीवन मात्र 39 वर्ष का ही रहा। वह चाहते थे कि वह व्याख्यान शतक नाम से पुस्तक लिखें। हमें लगता है कि पंडित जी इस व्याख्यानों की पुस्तक में एक सौ विषयों पर तर्क, युक्ति प्रमाणों से पूर्ण व्याख्यान शैली में प्रवचन वा लेख देना चाहते थे। इसी क्रम में उन्होंने मस्जिद मोठ में एक लीथो प्रेस भी स्थापित किया था परन्तु प्रचार कार्य में व्यस्त रहने व समयाभाव के कारण वह इस योजना को सफल न कर सके। उन्होंने मात्र एक पुस्तक ‘‘ईश्वर भक्ति विषयक व्याख्यान ही लिखी है। पंडित जी ने देश भर का भ्रमण कर वैदिक धर्म का प्रचार किया। 103 डिग्री ज्वर में भी आप व्याख्यान दिया करते थे। जीवन में रोगी होने पर भी आपने कभी विश्राम नहीं किया जिसका परिणाम आपकी अल्पायु में 27 जून सन् 1912 को मृत्यु के रूप में हुआ। वैदिक धर्म और आर्यसमाज की यह बहुत बड़ी क्षति थी।

 

पण्डित जी ने अपने जीवनकाल में स्वयं को वैदिक धर्म के प्रचार के लिए समर्पित किया था। वर्तमान के आर्यसमाजों में पंडितजी जैसी त्यागपूर्ण भावनाओं का सर्वथा लोप हो गया दिखाई देता है। आज हमारे विद्वान जो अध्ययन-अध्यापन कार्यों से भी खूब धन कमाते हैं, दक्षिणा व यात्रा-व्यय लेकर ही कहीं प्रचार के लिए जाते हैं और रटे-रटाये भाषण देते हैं जिनका क्षणिक प्रभव होता है। इन विद्वानों का व्यक्तिगत जीवन आर्यसमाज के सिद्धान्तों से कितना मेल खाता है, कहा नहीं जा सकता। आर्यसमाज के उन विद्वानों, जो प्रतिष्ठा व स्वार्थ से ऊपर उठे हुए हैं और सच्चे ऋषि भक्त हैं, उन्हें विचार व चिन्तन कर समाज का मार्गदर्शन करना चाहिये जिससे आर्यसमाज की पुरानी प्रतिष्ठा व गौरव पुनः स्थापित हो सके।

 

आर्यकवि नाथूराम शंकर की पंडितजी पर निम्न पंक्तियों को प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं:

 

भारत रत्न, भारती का बड़भागी भक्त, शंकर प्रसिद्ध सिद्ध सागर सुमति का।

मोहतमहारी ज्ञान पूषण प्रतापशील, दूषण विहीन शिरो भूषण विरितिका।।

लोकहितकारी पुण्य कानन विहारी वीर, वीर धर्मधारी अधिकारी शुभगति का।

देख लो विचित्र चित्र बांचलो चरित्र मित्र, नाम लो पवित्र स्वर्गगामी गणपति का।।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अध्ययन और अध्यापन की ऋषि निर्दिष्ट विधि – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

(लेखक आर्य जगत् के प्रतिष्ठित विद्वान् थे। सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास के सन्दर्भ में उनके विचार आज भी उतने ही समीचीन हैं। यह लेख लगभग 5 दशक पूर्व का है।)    – सपादक

सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में ऋषि ने इतनी बात कही है-

(1) सच्चा आभूषण विद्या है, वे ही सच्चे माता-पिता और आचार्य हैं, जो इन आाूषणों से सन्तान को सजाते हैं।

(2) आठ वर्ष के हों, तब ही लड़के-लड़कियों को पाठशाला में भेज देना चाहिए।

(3) द्विज अपने घर में लड़के-लड़कियों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का भी यथायोग्य संस्कार करके आचार्य कुल में भेज दें।

(4) लड़के-लड़कियों की पाठशाला एक दूसरे से दूर हो तथा लड़कों की पाठशाला में लड़के अध्यापक हों, लड़कियों की पाठशाला में सब स्त्री अध्यापिका हों, पाठशाला नगर से दूर हो।

(5) सबके तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन हों।

(6) सन्तान माता-पिता से तथा माता-पिता सन्तान से न मिलें, जिससे संसारी चिन्ता से रहित होकर केवल विद्या पढ़ने की चिन्ता रक्खें।

(7) राजनियम तथा जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के-लड़कियों को घर में न रख सके।

(8) प्रथम लड़के का यज्ञोपवीत घर पर हो, दूसरा पाठशाला में आचार्य कुल में हो।

(9) इस प्रकार गायत्री मंत्र का उपदेश करके सन्ध्योपासन की जो स्नान, आचमन, प्राणायामादि क्रिया है, सिखावें।

(10) प्राणायाम सिखावें, जिससे बल, पराक्रम जितेन्द्रियता व सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा, स्त्री भी इसी प्रकार योगायास करें।

(11) भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने-चालने, छोटे से व्यवहार करने का उपदेश करें।

(12) गायत्री मन्त्र का उच्चारण,अर्थ-ज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल-चलन को करें, परन्तु यह जप मन से करना उचित है।

(13) सन्ध्योपासन जिसको ब्रह्मयज्ञ कहते हैं, दूसरा देवयज्ञ जो अग्निहोत्र और विद्वानों के संग, सेवादि से होता है। संध्या और अग्निहोत्र सायं-प्रातः दो ही काल में करें। ब्रह्मचर्य में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र ही करना होता है।

(14) ब्राह्मण, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य का उपनयन करे, क्षत्रिय दो का, वैश्य एक का, शूद्र पढ़े, किन्तु उसका उपनयन न करें, यह मत अनेक आचार्यों का है।

(15) पुरुष न्यून से न्यून 25 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहे, मध्यम ब्रह्मचर्य 44 वर्ष पर्यन्त तथा उत्कृष्ट 48 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य रक्खे।

जो (स्त्री-पुरुष) मरण पर्यन्त विवाह करना ही न चाहे तथा वे मरण पर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले ही रहें, परन्तु यह बड़ा कठिन काम है।

(16) ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहें तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्रों का अयास अधिक प्रयत्न से करावें।

क्योंकि –

क्षत्रियादि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रियादि होते हैं।

(17) पाठविधि व्याकरण को पढ़ के यास्कमुनिकृत निघण्टु और निरुक्त छः वा आठ महीने में सार्थक पढ़ें, इत्यादि।

(18) ब्राह्मणी और क्षत्रिया को सब विद्या, वैश्या को व्यवहार-क्रिया और शूद्रा को पाकादि सेवा की विद्या पढ़नी चाहिए। जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिये, वैसे स्त्रियों कोाी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिये।

इन 18 सूत्रों को मैं तृतीय समुल्लास के 18 अंग कहूँगा और अति संक्षेप से इसमें दिये हुए बीजों को अंकुरित करने का प्रयास ही किया जा सकता है और वही किया जायगा।

प्रथम यदि इन पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो इनका विभाग इस प्रकार है-

प्रथम दो अंग माता-पिता के प्रति उपदेश हैं। तीसरा जाति-नियम द्वारा गुरु शिष्य के सामीप्य का समर्थक है। चौथा शिक्षा-शास्त्र-सबन्धी नियम है जो ब्रह्मचर्य की रक्षार्थ है। पाँचवाँ बच्चों में समानता तथा सरल जीवन का आधार है। छठा शिक्षा-शास्त्र-सबन्धी नियम है जो निश्चितता उत्पन्न करके गुरु-शिष्य की सामीप्य की पुष्टि करता है। सातवाँ राजनियम तथा जातिनियम द्वारा मोह का निराकरण तथा गुरु-शिष्य के सामीप्य का स्तभ रूप है। आठवाँ सामाजिक नियम द्वारा गुरु-शिष्य के  सामीप्य का पोषक है। नवाँ संध्योपासन द्वारा ईश्वराधीनता का अर्थात् सच्ची स्वाधीनता का शिक्षा में प्रवेश कराना है। दसवाँ तथा 11वाँ बच्चों को सच्ची दिनचर्या द्वारा संयम सिखाना है। 12वाँ विनीत भाव सिखा कर संयम की पुष्टि करता है। 13वाँ 14वाँ भी संकल्प  अथवा व्रत द्वारा संयम का सच्चा रूप उपस्थित करता है। 15वाँाी ब्रह्मचर्य न्यून से न्यून कितना हो यह बता कर संयम को व्यावहारिक रूप देता है। 16वें सूत्र में ब्राह्मण तथा क्षत्रियादि का परस्पर नियन्त्रण है। 17वें सूत्र में व्रतचर्या के लिए समय कैसे मिले, इसलिए आनुपूर्वी नाम का शिक्षा शास्त्र का महान् रहस्य दिया गया है, यथा 18वें में चारों वेदों के अध्ययन की लबी पाठविधि को यथायोग्य रूप से हर ब्रह्मचारी के बलाबल को देखकर पाठविधि कैसे बनाई जाय- इसकी कुञ्जी दी गई है।

शिक्षा का उद्देश्य

इस प्रकार इन अठारह अङ्गों के परस्पर सबन्ध की रूपरेखा देकर हम इन पर दार्शनिक विवेचन आरभ करते हैं। सबसे प्रथम यह देखना है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है। ऋषि ने शिक्षा का उद्देश्य भर्तृहरि महाराज के ‘‘विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः’’ इस श्लोक का उद्धरण देकर किया है। श्लोक का अनुवाद ऋषि के ही शदों में इस प्रकार है-

जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में मग्न रहता, सुन्दरशील स्वभावयुक्त सत्यभाषणादि नियम पालन युक्त और जो अभिमान अपवित्रता से रहित अन्य की मलिनता के नाशक सत्योपदेश और विद्या दान से संसारी जनों के  दुःखों को दूर करने वाले वेदविहित कर्मों से पराये उपकार करने में लगे रहते हैं, वे नर और नारी धन्य हैं।

बस इस प्रकार के धन्य पुरुष उत्पन्न करना शिक्षा का  उद्देश्य है।

भर्तृहरि की खान, ऋषि दयानन्द-सा जौहरी, क्या रत्न ढूँढकर निकाला है!

पहला ही शद ले लीजिये- विद्याविलासमनसः। हमें छात्रों को ब्रह्मचारी बनाना है। ब्रह्चारी के दो ही भोजन हैं, एक विद्या, दूसरा परमात्मा। इस भोजन को कभी-कभी खा लेने से वह ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। जिस प्रकार विलासी मनुष्य यदि वह भोजन का विलासी है, तो उसमें नए से नए रुचिकर व्यञ्जनों का आविष्कार करता रहता है, यदि रूप का विलासी है तो नए से नए शृङ्गारों का आविष्कार करने में ही उसका मन लगा रहता है, उसी प्रकार जब विद्या उसके लिए एक विलास की वस्तु बन जाय, तब ही तो वह ब्रह्मचारी बन सकेगा। परन्तु यह विद्या में रति बिना शील शिक्षा के नहीं प्राप्त हो सकती। शील शिक्षा भी वह जो पूर्णतया धारण कर ली गई हो, अडिग हो, अविचल हो। इसके लिए उसका व्रत धारण करना आवश्यक है। परन्तु ब्राह्मण व क्षत्रियादि के व्रत निश्चल तब ही हो सकते हैं, जब वह सत्य व्रत हों, यह व्रतपरायणता बिना अभिमान दूर किये नहीं हो सकती और अभिमान की परम चिकित्सा है प्रभुाक्ति, वह अािमान ही नहीं और सब मलों को भी दूर करने वाली है। इस भक्ति का आरभ होता है- संसार के दुःख दूर करने में ही गौरव मानने से। दुःख दूर करने से तो भक्ति का मार्ग आरभ होता है, परन्तु उसका पूर्ण चमत्कार तो दुःख दूर करके सच्चा सुख प्राप्त कराने से होता है । यही सबसे बड़ा परोपकार है।

परन्तु दुःखों का निराकरण तथा सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय जाना जाता है वेद से। उसी ने इसका विधान किया है। वेदविहित कर्मों का ठीक  ज्ञान न होने से अज्ञानी मनुष्य परोपकार की भावना से प्रेरित होकर भी अपकार ही तो करेगा, इसलिये विहित कर्मों से ही परोपकार होता है। चलो इन विहित कर्मों के ज्ञान के लिए वेद-वेदाङ्ग का ज्ञान प्राप्त करें। यही शिक्षा का आरा है, इसीलिए कहा-

विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः,

सत्यव्रता रहितमानमलापहाराः,

संसारदुःखदलनेन सुभुषिता ये,

धन्या नरा विहितकर्मपरोपकाराः।।

इस प्रकार के धन्य मनुष्य इस प्रकार के गुरु के पास  पहुँचे बिना कैसे प्राप्त हो सकते हैं! इसलिए माता-पिता को उपदेश दिया (1) सांसारिक आभूषणों के मोह को तथा उसके मूल सन्तान के मोह को छोड़ो, सन्तान से प्रेम करना सीखो। यहाँ सबसे पहले मोह और प्रेम में भेद करना सीखना है। अनुराग के दो अङ्ग हैं- हितसन्निकर्षयो-रिच्छानुरागः। इनमें सन्निकर्ष अर्थात् प्रेमपात्र के वियोग को न सहन करना तथा समीप होने की इच्छा जितनी प्रबल होती जायगी, उतना ही अनुराग प्र्रेम की ओर उठता जायगा। यदि सन्निकर्षेच्छा न हो तो माता बच्चे के लिए रातों जाग नहीं सकती, परन्तु हितेच्छा न हो तो गुरुकुल नहीं भेज सकती। इसीलिए कहा कि पाँचवें वर्ष तक सन्निकर्षेच्छा समाप्त हो ही जानी चाहिए। यदि सन्तान की दुर्बलता आदि किसी अन्य कारण से सन्तान का माता-पिता के पास रहना आवश्यक भी हो तो 8 वें वर्ष तक तो राजनियम से बच्चे को माता-पिता से पृथक् कर ही देना चाहिए। यही नहीं, गुरु के पा जाने पर मोहवृद्धि कारक माता-पिता का मिलना तथा पत्र-व्यवहार आदि भी बन्द हों, जिससे गुरु शिष्य में वह सामीप्य उत्पन्न हो जाय, जिसका वेद ने इन शदों में वर्णन किया है-

आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणाम् कृणुते र्गामन्तः।

अथर्व. 11काण्ड

हमें विद्यार्थियों को न्याय सिखाना है, इसलिये सबसे पहले उनके साथ न्याय होना चाहिये। न्याय के दो सिरे हैं, निर्णय के पूर्व समान व्यवहार, निर्णय के पश्चात् यथायोग्य व्यवहार । शिक्षा के आरभ-काल में निर्णय नहीं हो सकता। इसलिए उस काल में सबको तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिये जावें। इस प्रकार सच्ची समानता उत्पन्न की गई है।

यह समानता दो प्रकार से उत्पन्न की जा सकती है। एक नाना प्रकार के ऐश्वर्य की सामग्री सबको देकर, दूसरे सबको तपस्वी बनाकर । राजा के पुत्र को अपरिग्रही के समान रखकर अथवा परिग्रही को राज-तुल्य वैभव देकर। परन्तु ब्रह्मचर्य जिनकी शिक्षा का आधार है, वे सरलता द्वारा ही समानता उत्पन्न करेंगे, इसलिये तप तथा अपरिग्रह की शिक्षा दी गई है।

शिक्षा का तीसरा आधार स्वाधीनता है, परन्तु स्वाधीनता वस्तुतः ईश्वराधीनता से प्राप्त होती है। जो अपने-आपको ईश्वर के अधीन कर देता है, वह फिर न प्रकृति के अधीन होता है न विषयों के। जिस प्रकार स्वेच्छापूर्वक स्वयं चुने हुए विमान पर चढ़ने से मनुष्य की गति में तीव्रता तो अवश्य आ जाती है। इसी प्रकार स्वेच्छापूर्वक प्रभु समर्पण द्वारा मनुष्य अनन्त शक्ति का स्वामी तो हो जाता है, परन्तु पराधीन नहीं होता, इसीलिये ऋषि दयानन्द ने इस समुल्लास में शिक्षा का आरभ सन्ध्योपासन से किया है। इसी प्रकार देवयज्ञ की व्याया में उन्होंने देवयज्ञ के दो रूप दिये हैं- एक अग्निहोत्र, दूसरा विद्वानों का संगसेवादि। गुरु के तथा विद्वानों के संग-सेवादि से मनुष्य स्व को पहिचानता है। जिसने स्व को ही नहीं पहिचाना, वह स्वाधीन क्या होगा? स्वाधीन शद का दूसरा अर्थ आत्मीयों की अधीनता है। जीव का सबसे बड़ा आत्मीय उस वात्सल्य सागर प्रभु से बढ़ कर कौन हो सकता है, सो सन्ध्योपासन तथा अग्निहोत्र दोनों ही मनुष्य को सच्चे अर्थों में स्वाधीनता दिलाने वाले हैं। अब हम संयम की ओर आते हैं, यह ब्रह्मचर्याश्रम है, हमें शक्ति के महास्रोत तक पहुँचना है, वहीं सुख है, वहीं शान्ति है, वहीं नित्यानन्द है। नित्य कैसे? मनुष्य का सुख दो प्रकार समाप्त हो जाता है। भोग्य पदार्थ की समाप्ति से या भोक्ता की रसास्वादन शक्ति की समाप्ति से, परन्तु जब जीव प्रकृति के माध्यम बिना सीधा प्रभु से रस लेने लगता है तो न भोग्य सामग्री समाप्त होती है, न भोक्ता की रसास्वादन शक्ति, बस इस अवस्था तक प्राणिमात्र को पहुँचाने के लिए मनुष्य मात्र को जीव और ईश्वर के बीच जाने वाले व्यवधानों से पूर्णतयामुक्त करके कैवल्य (ह्रठ्ठद्यब्ठ्ठद्गह्यह्य)तक पहुँचाना ही शिक्षा का उद्देश्य है। यह उद्देश्य इस समुल्लास में किस प्रकार पूरा किया गया है, अब हमें यह देखना है।

शिक्षा का केन्द्रः आचार

सबसे प्रथम जो बात समझने की है वह यह है कि वैदिक शिक्षा-पद्धति में शिक्षा का केन्द्र आचार शक्ति है, विचार शक्ति नहीं, इसीलिये वैदिक भाषा में गुरु को आचार्य कहते हैं , विचार्य नहीं। विचार साधन हैं, आचार साध्य है, क्योंकि इसके द्वारा ही मनुष्य ब्रह्म में विचरता-विचरता पूर्णतया ब्रह्मचारी हो जाता है और जब तक वह इस ध्येय तक नहीं पहुँच जाता है, तब तक के लिए उसे एक ही आज्ञा है ‘‘चरैवेति चरैवेति’’।

परन्तु विचार का क्षेत्र उसका चरने का क्षेत्र है। वह नाना प्रकार के विषयों में इन्द्रियों द्वारा विचरता हुआ विषयरूपी घास से ज्ञानरूपी दूध बनाता रहता है, परन्तु व्रत के खूँटे से बँधा होने के कारण कभी गोष्ठ-भ्रष्ट अथवा देवयूथ-भ्रष्ट नहीं होने पाता। इन्द्रियों का क्षेत्र उसके चरने का क्षेत्र है, परन्तु व्रत उसके बँधने का स्थान है। वह व्रत का खूँटा भगवान में गड़ा रहता है, इसलिए वह कभी भ्रष्ट नहीं होने पाता। इस शिक्षा-पद्धति में उसका दो बार यज्ञोपवीत किया जाता है, एक माता-पिता के घर में, दूसरा आचार्य कुल में। ब्राह्मण को संसार में अविद्या के नाश तथा सत्य के प्रकाश का व्रत धारण करना है।

क्षत्रिय को अन्याय के नाश तथा न्याय की रक्षा का व्रत धारण करना है। वैश्य को दारिद्र्य के नाश तथा प्रजा की समृद्धि की रक्षा का व्रत धारण करना है। इस यज्ञ अर्थात् लोकहित के व्रत के खूँटे के साथ बँधना है, इसीलिए इस बंधन का नाम यज्ञोपवीत है, अर्थात् वह रस्सा जो मनुष्य को लोकहित के व्रत के खूँटे के साथ बाँधने के लिए बनाया गया हो, प्रथम यज्ञोपवीत में माता-पिता उसे किस खूँटे के साथ बाँधना चाहते हैं, उनकी इस इच्छा का प्रकाश है।

परन्तु यह व्रत है, स्वेच्छापूर्वक चुना जाने वाला व्रत है, इसलिए आचार्य की अनुमति से ब्रह्मचारी इसे बदल भी सकता है, इसलिए आचार्य कुल में दूसरी बार यज्ञोपवीत किया जाता है। इस व्रत का मूल्य चुकाने मनुष्य को समाज में, सेना में तथा गृहस्थाश्रम में तो जाना है। संसार का हर सैनिक किसी न किसी रूप में झण्डे के सामने शपथ लेता है और हर दपती किसी न किसी रूप में एक दूसरे के साथ बँधे रहने की शपथ लेते हैं, परन्तु इस शपथ का लाभ शिक्षा -शास्त्र में लेना यह केवल वैदिक लोगों को ही सूझा। इसके बिना शिक्षा लक्ष्यहीन तीर चलाने के समान है। कोई तीर अचानक लक्ष्य पर भी जा लगता है।

विद्यायास कै से ?

अब आइये विद्यायास की ओर। इस क्षेत्र में सबसे प्रथम तो मनुष्य को प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा परीक्षा करने का ज्ञान होना चाहिए, फिर भाषा का, फिर अन्य शास्त्रों का; यही क्रम यहाँ रक्खा गया है। परन्तु सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस क्रम में आनुपूर्वी है। पहले व्याकरण पढ़े, फिर निरुक्त छन्द आदि-यह आनुपूर्वी क्यों रक्खी गई है? आजकल की शिक्षा पद्धति में एक विद्यार्थी प्रतिदिन 8 या 10 विषय तक पढ़ता है। इस प्रणाली में उसे गुरु-सेवा, आश्रम-सेवा, चरित्र-निर्माण आदि के लिये कोई समय ही नहीं मिलता, इसलिये प्रतिदिन मुय रूप से लगातार कुछ समय तक-एक समय तक एक विषय को पढ़ कर समाप्त करे, फिर दूसरा विषय आरभ करे। इस क्रम से पढ़ने से उसे गुरु-सेवा, पशु-पालन, चरित्र-निर्माण इन सबके लिए पूरा समय मिलता है और इस प्रकार शिक्षा के मुय अंग आचार-निर्माण की पूर्णता होती है; जिससे आचार्य (आचारं ग्राहयति) को आचार्यत्व प्राप्त होता है।

यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है। ऋषि ने लिखा है कि पुरुषों को व्याकरण, धर्म और एक व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य सीखनी चाहिये।

इस अत्यन्त मूल्यवान पंक्ति की ओर ध्यान न देने से आज आर्ष पद्धति के नाम पर सहस्रों विद्यार्थियों के  जीवन नष्ट हो रहे हैं।

ऋषि ने चारों वेदों की पाठविधि तो दी है, परन्तु चारों वेदों का पण्डित होना हर एक विद्यार्थी के लिये आवश्यक नहीं ठहराया, उलटा मनु का प्रमाण देकर लिखा है-

षट्त्रिंशदादिके चर्यं गुरौ त्रैवेदिक व्रतम्।

तदर्धम् पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव  वा।।

ब्रह्मचर्य 36 वर्ष, 18वर्ष अथवा 9 वर्ष का अथवा जितने में विद्या ग्रहण हो जाये, उतना रक्खे।

इसको पुरुषों को व्याकरण, धर्म तथा एक व्यवहार की विद्या के  साथ मिला कर पढ़िये। इसका भाव यह है कि व्याकरण तथा धर्म-शास्त्र पढ़ना सब के लिए आवश्यक है। धर्म-ज्ञान के लिए जितना व्याकरण पढ़ना आवश्यक है, सो तो सब पढ़ें; इससे विशेष व्याकरण उस विद्या को दृष्टि में रख कर पढ़ें जो उनकी व्यवहार की विद्या है। इसलिए जिसे विद्युत शास्त्र अथवा भौतिक विज्ञान अथवा इतिहास पढ़ना है, उसे महाभाष्य पर्यन्त व्याकरण पढ़ना क्यों आवश्यक है- यह बिल्कुल समझ में नहीं आता, परन्तु आजकल आर्ष पद्धति के नाम पर जो सब बालकों को जबरदस्ती महाभाष्य पढ़ाया जाता है, इससे उन विद्यार्थियों में से बहुतों का जीवन नष्ट होता है और आर्ष पद्धति व्यर्थ बदनाम होती है। ऋषि ने अधिकतम और न्यूनतम दोनों पाठविधि दे दी है, विद्यार्थी की उचित शक्ति के अनुसार हर विद्यार्थी का पृथक् -पृथक् पाठ्यक्रम होना चाहिये । इसीलिए गुरु-शिष्य का सदा एक साथ रहना आवश्यक समझा गया है, जिससे गुरु-शिष्य की रुचि तथा शक्ति दोनों की ठीक परीक्षा करके यथायोग्य पाठविधि बना सके। यहाँ यथायोग्यवाद के स्थान में सायवाद का प्रयोग अत्यन्त हानिकारक सिद्ध हो रहा है।

अन्त में हम इस बात की ओर फिर ध्यान दिलाना चाहते हैं कि वैदिक शिक्षा-पद्धति में संयम अर्थात् ब्रह्मचर्य का स्थान विद्या से ऊँचा माना गया है। संयमहीन शिक्षा कुशिक्षा है, इसलिए संध्योपासन, आनुपूर्वी का पाठ्य-क्रम तथा यज्ञोपवीत संस्कार तीनों ही विद्यार्थी को परमात्मा का भक्ति-दान करके ब्रह्मचारी बना देते हैं। इस संयम की जितनी महिमा गाई जाय, सो थोड़ी है। इस प्रकार यह 18 के 18 अंग जो इस समुल्लास में पाँच सकारों में परिणत हो जाते हैं, उन पाँच सकारों के नामोल्लेख के साथ ही इस लेख को समाप्त करते हैं-

समानता सरलता सामीप्यम् गुरुशिष्ययोः।

स्वाधीन्यं संयमञ्चैव सकाराः पञ्च सिद्धिदाः।।

 

ऋषि की राह में जवानी वार दी: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आर्यसामाज के आरम्भिक  युग में आर्यसमाज के युवक दिनरात

वेद-प्रचार की ही सोचते थे। समाज के सब कार्य अपने हाथों

से करते थे। आर्य मन्दिर में झाड़ू लगाना और दरियाँ बिछाना बड़ा

श्रेष्ठ कार्य माना जाता था। तब खिंच-खिंचकर युवक समाज में आते

थे। रायकोट जिला लुधियाना (पंजाब) में एक अध्यापक मथुरादास

था। उसने अध्यापन कार्य छोड़ दिया। आर्यसमाज के प्रचार में

दिन-रैन लगा रहता था। बहुत अच्छा वक्ता था। जो उसे एक बार

सुन लेता बार-बार मथुरादास को सुनने के लिए उत्सुक रहता।

मित्र उसे आराम करने को कहते, परन्तु वह किसी की भी न

सुनता था। ग्रामों में प्रचार की उसे विशेष लगन थी। सारी-सारी

रात बातचीत करते-करते आर्यसमाज का सन्देश सुनाने में

जुटा रहता। अपने प्रचार की सूचना आप ही दे देता था। खाने-पीने

का लोभ उसे छू न सका। रूखा-सूखा जो मिल गया सो खा लिया।

प्रान्त की सभा अवकाश पर भेजे तो अवकाश लेता ही न था।

रुग्ण होते हुए भी प्रचार अवश्य करता। ज्वर हो गया। उसने

चिन्ता न की। ज्वर क्षयरोग बन गया। उसे रायकोट जाना पड़ा। वहाँ

इस अवस्था में भी कुछ समय निकालकर प्रचार कर आता। नगर

के लोग उसे एक नर-रत्न मानते थे। लम्बी – लम्बी यात्राएँ करके,

भूखे-ह्रश्वयासे रहकर, दुःख-कष्ट झेलते हुए उसने हँस-हँसकर अपनी

जवानी ऋषि की राह में वार दी। तब क्षय रोग जानलेवा था। इस

असाध्य रोग की कोई अचूक ओषधि नहीं थी।

ऐसे कितने नींव के पत्थर हैं जिन्हें हम आज कतई भूल चुके

हैं। अन्तिम वेला में भी मथुरादासजी के पास जो कोई जाता, वह

उनसे आर्यसमाज के कार्य के बारे में ही पूछते। अपनी तो चिन्ता थी

ही नहीं।