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मानवीय भोजन तथा उसका परिचरण – आचार्य शिवकुमार

प्रस्तुत लेख का विषय है, मनुष्य का भोजन तथा उसका प्रकार। भोजन शद की सिद्धि केलिए पाणिनी ने एक धातु सूत्र लिखा है- ‘‘भुज पालन अयवहारयो’’ इस धातु के दो अर्थ हैं- एक पालन करना, दूसरा भोजन करना। इसी धातु से अन्योन्य अनेक शद बनते हैं, जैसे-भोग, भोज्य, भोक्ता, भोक्तव्य आदि (भोग तथा भोक्ता का) भोज्य और भोक्ता का निकट (नित्य) सबन्ध है। प्राकृतिक जड़ पदार्थ परार्थ हैं, अर्थात् चेतन आत्मा के लिए है। आत्मा जब स्व कर्मानुसार मानव व अन्य प्राणी के शरीर में आता है तो कर्मफल के तद्रूप शरीर की रचना होती है। शरीर पंच भौतिक होने से तत् तत्त्व की आवश्यकता होती है। वह जरूरत भूख के रूप में अभिव्यक्त होती है। उसकी कमी व आवश्यकता की पूर्ति विभिन्न भक्ष्यों से की जाती है। यहीं से भोक्ता भूख तथा भोजन के इस त्रिक का सूत्रपात होता है। ये स्वखाद्यत्रिगुणात्मक होते हैं, क्योंकि जो गुण कारण में होता है, वह कार्य में भी देखा जाता है। ‘‘कारणगुणपूर्वकः कार्य गुणोदृष्टः’’ (वै. अ. 2 आ. 1 सू. 24) अर्थात् ‘‘जैसे कारण में गुण होते हैं वैसे ही कार्य में होते है’’। इन सत्त्वादि के तीनों गुणों के पृथक-पृथक गुण-धर्म है। मूल प्रकृति के पंचभूत विकार हैं। इन्हीं से समग्र स्थूल शरीरों की रचना होती है।       ऊपर से लेकर शरीर तक का सबन्ध नितान्त रूप से कारण-कार्य के अनुरूप चलता रहता है। इसी प्रकार सभी प्राणियों के इन्हीं प्राकृतिक तत्त्वों से शरीरों का निर्माण होता है तथा स्व-स्व गुण-धर्म निमित्त शरीर में रहते हैं। सभी प्राणियों की नेक प्रकृति स्वभाव तथा जीने का कारण बड़ा विलक्षण प्रकार रहता है। अपनी-अपनी स्वाभाविक प्रकृति व शरीर आकृति के आधार पर उनका अपना-अपना भोजन भी निश्चित है। क्षुद्रजीव से लेकर विशालकाय पर्यन्त साी प्राणियों में एक निर्धारित जीवन-शैली है। इसमें तनिक भी विपर्यय नहीं होता है। भोजन भक्षी प्राणियों को स्थूल रूप से दोाागों में विभक्त कर सकते हैं- शाकाहारी और मांसाहारी। अब देखना यह कि मनुष्य कौन से आहार पर विश्वास रखता है? सभी प्राणी अपने-अपने भोजन पर पूर्ण विश्वस्त हैं। किन्तु मानव अपने भोजन पर अभी तक निर्णय नहीं कर पाया है कि मनुष्य का भोजन कौन-सा है? पशु-पक्षी, जन्तु, जानवर बुद्धिविहीन होने पर भी अपने खाद्य पर अटल है, किन्तु आश्चर्य है कि सभी प्राणियों में बुद्धिमान, मनुष्य अपने खाद्यों में चंचल व दुर्बल है। अतः कहा है  ‘‘लोल्यं दुःखस्य कारणम्’’- जीभ का लालच सभी दुःखों का कारण है। पर प्राणी के शरीर को विनष्ट करके अपने जीभ के स्वाद को पूरा करना कहाँ तक सही है? मांस भक्षण से मनुष्य का स्वभाव हिंसक व तामसिक हो जाता है। आयुर्वेद के चरकादि ग्रन्थों में जो मांस भक्षण का विधान किया है, वह किसी परिस्थिति विशेष के लिए हो सकता है अथवा किसी रोग विशेष के लिए हो सकता है। सर्व साधारण एवं निर्विकल्प नियम नहीं है। मांस के अन्य अनेकों विकल्प हैं, उसके स्थान पर अनेक वन्य औषधियों से रोग का निवारण किया जा सकता है। अतएव मांस मनुष्य का भोजन नहीं, क्योंकि यह मानवीय प्रकृति के सानुकूल नहीं है। सचमुच मनुष्य का भोजन तो फल, दूध, अन्नादि सर्वोत्तम पदार्थ हैं। फलाहार जो प्राकृतिक रूप से स्वयं वृक्ष पर परिपक्व होता है। जिसे किसी भी प्रकार के ‘‘केमिकल’’ से नहीं पकाया हो, वहीं सर्वोत्तम है। दूसरा- उत्तम गवादि पशुओं का दूध, जो किसी भी मिलावट रहित होना चाहिये। तृतीय है- अन्नाहार, जो धरती के र्गा से उत्पन्न होकर सभी का पालन करता है। किन्तु अत्याधुनिक स्वादों से अनाज को पूर्ण दूषित करके खाना स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। ध्यातव्य है कि आहार की शुद्धि होने पर ही सत्त्व बुद्धितत्त्व की शुद्धि होती है और सत्त्व शुद्ध होने पर ही निश्चल स्मृति होती है। हमारे शरीर में पंचकोष होते हैं। अन्न का सबन्ध शरीर के पाँच कोषों से है। इन पंच कोषों में सबसे पहला अन्नमय कोष है। अन्नमय कोष की शुद्धि होने पर अन्य कोषों की उत्तरोत्तर शुद्धि व परिमार्जन होता जाता है। यह सर्वविदित है कि रोगोत्पत्ति प्रायः अनियमित आहार-विहार के कारण होती है। स्वास्थ्य के मूल रूप उपस्तभ तीन हैं- आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य। ये आयु के प्रमुख बिन्दु हैं और परमाचरणीय हैं क्योंकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए आरोग्य ही मूल साधन है, अतः देश, काल, अवस्था, गुण, परिपाक, हेतु, लक्षण, स्वभाव आदि का परिज्ञान करके ही सत्त्व, बल, आरोग्यदायक ओषध सम भोजन की योजना करें। ध्यान रहे कि भोजन अथवा भोज्य पदार्थ भोग न बन जाय, जिससे रोग के वशीभूत होकर दुःख भोगना पड़े, क्योंकि रोग सबसे भयंकर दुःख होता है। यहाँ वैदिक सूक्ति है- तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। भोज्य  पदार्थों का भोग भी करना है, किन्तु त्यागपूर्वक करना है। ये सभी विधि विधान शरीर के परिपेक्ष में किये गये हैं। शरीरस्थ आत्मा के विषय में कोई विचार नहीं किया गया है, अतः समूचे क्रम में आत्मा ही सर्व उपादेय है। यह सब कुछ आत्मा के लिए है, शरीरेन्द्रियों के द्वारा भौतिक पदार्थों से जो सबन्ध होता है, वह अन्ततः आत्मा तक पहुँचाता है, क्योंकि आत्मा ही कर्त्ता और भोक्ता है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन रहता है और पवित्र मन से आत्मा की पवित्रता बढ़ती है, अतः आत्मिक सुख परमेश्वर की भक्ति अर्थात् यथोचित् ईश्वर की प्रार्थना करने से प्राप्त होती है। ईश्वर प्रदत्त पदार्थों के उपयोग करने से पहले उसका धन्यवाद करना एक परम कर्त्तव्य है। इसके बिना मनुष्य कृतघ्न एवं दण्डनीय है। परमेश्वर के धन्यवाद के रूप में एक वेद मन्त्र का पाठ किया जाता है-

3म् अन्नपतेऽन्नस्य नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः।

प्र प्र दातारं तारिषऽऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।।

हे अन्न के स्वामी प्रभो! हमारे लिए बल, बुद्धि, तेज, ओज प्रदान करने वाले रोग रहित अन्न प्रदान करो, हे स्वामिन्! हमें आत्मिक शक्तिदायक अन्न दो, जिससे जीवन आरोग्यवान् होकर सुखपूर्वक जी सकें। इस वेद मन्त्र का उच्चारण भोजन से पूर्व करना चाहिये, क्योंकि यह ईश्वर की आज्ञा है। इससे भिन्न मन्त्रों का उच्चारण भोजन से पहले करना अप्रासंगिक है। जैसा मनुष्य समुदाय में एक प्रचलन है-

3म् सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु माविद्विषावहै।।

-ब्रह्मानन्द वल्ली प्रथमोऽनुवाकः

अर्थ- हे परमात्मन्! एक साथ ही हम दोनों की रक्षा करो। साथ-साथ ही हम दोनों की रक्षा करो। साथ ही बल को बढ़ावे तेजयुक्त प्रभावजनक हम दोनों का पढ़ना, स्वाध्याय, एक साथ ही हो। हम द्वेष न करें, कभी भी एक-दूसरे का अहित न सोचें।

यहाँ विचारणीय यह कि इस औपनिषदिक मन्त्र का उच्चारण भोजन काल में किया जाता है, क्या यह उचित है? इसी मन्त्र की एक क्रिया पद पर विचार करने से अच्छी प्रकार समाधान हो जाता है। इस परिप्रेक्ष में पाणिनी मुनि का एक सूत्र है- ‘‘भजोऽनवने’’ (पाणिनि अष्टाध्यायी तृतीय अ. सू. सं. 66) अर्थ- भुजधातोरनवनेऽर्थे वर्तमानादात्मने पदं भवति। भुनक्तु अर्थात् भुज धातु खाने के अर्थ में हो तो आत्मनेपद होती है। इस मन्त्र में जो क्रियापद है वह परस्मैपद है, अतः भुनक्तु का अर्थ होगा- रक्षा करना, न कि भोजन करना ‘‘भुक्ते’’ का अर्थ भोजन करना होता है। वैदिक परपरा अनुगत भोजन से पूर्व उच्चारणीय मन्त्र तो (अन्नपते….) वही मन्त्र प्रासांगिक और सार्थक है। अन्य मन्त्र अथवा कोई श्लोक आदि कदापि संगत नहीं हो सकता। इसी प्रकार से कुछ लोग गीता के एक श्लोक का भी उच्चारण करते हैंः-

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम्।

ब्रह्मैवतेन गतव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना।।

– गीता-4-24

अर्थ- जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्त्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्म रूप कर्त्ता के द्वारा ब्रह्म रूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म ही है। अतएव गीता के इस श्लोक को प्रसंग से रहित ही बोला जाता है। इस श्लोक में ऐसा कोई भी शद नहीं है, जो भोजन से सबन्धित किसी बात को प्रकट करता हो, परन्तु न जाने लोग इस श्लोक को भोजन से पूर्व क्यों उच्चारण करते हैं? सचमुच यह विचारणीय बिन्दु है। सभी सज्जन मनुष्यों का कर्त्तव्य है कि असत्य को छोड़कर सत्य का ग्रहण करें। यही धर्म तथा यही सत्कर्म है।

– म.क. आर्ष गुरुकुल, (वैदिक आश्रम), कोलायत, जन. बीकानेर, राज.

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