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‘वैदिक धर्म और आंग्ल नववर्ष २०१६’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वर्तमान समय में हमने व हमारे देश ने आंग्ल संवत्सर व वर्ष को अपनाया हुआ है। इस आंग्ल वर्ष का आरम्भ 2015 वर्ष पूर्व ईसा मसीह के जन्म वर्ष व उसके एक वर्ष बाद हुआ था। अनेक लोगों को कई बार इस विषय में भ्रान्ति हो जाती है कि यह आंग्ल संवत्सर ही सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति व उनके आरम्भ का काल है। अतः इस लेख द्वारा हम निराकरण करना चाहते हैं कि अंग्रेजी काल गणना दिन, महीने व वर्ष की गणना के आरम्भ होने से पूर्व भी यह संसार चला आ रहा था और उन दिनों भारत में धर्म, संस्कृति व सभ्यता सारे संसार में सर्वाधिक उन्नत थी और इसी देश से ऋषि व विद्वान विदेशों में जाकर वेद और वैदिक संस्कृति का प्रचार करते थे। अब से 5,200 वर्ष हुए महाभारत युद्ध के कारण संसार के अन्य देशों में वेदों के प्रचार व प्रसार का कार्य बन्द हो जाने और साथ ही भारत में भी अध्ययन व अध्यापन का संगठित समुचित प्रबन्ध न होने के कारण भारत व अन्य देशों में विद्या व ज्ञान की दृष्टि से अन्धकार छा गया। इस अविद्यान्धकार के कारण ही भारत में बौद्ध व जैन मतों के आविर्भाव सहित विश्व के अन्य देशों में पारसी, ईसाई व मुस्लिम मतों का आविर्भाव हुआ।

 

1 जनवरी सन् 0001 का आरम्भ वर्ष ईसा मसीह के अनुयायियों द्वारा प्रचलित ईसा संवत है। इससे पूर्व वहां कोई संवत् प्रचलित था या नही, ज्ञात नही है। हमें लगता है कि इससे पहले वहां संवत् काल गणना किसी अन्य प्रकार से की जाती रही होगी। उसी से उन्होंने सप्ताह के 7 दिनों के नाम, महीनों के नाम आदि लिये और उन्हें प्रचलित किया। अंग्रेजी संवत् अस्तित्व में आने से पूर्व भारत में संवत्सर की गणना लगभग 1.960853 अरब वर्षों से होती आ रही थी। भारत में सप्ताह के 7 दिन, बारह महीने, कृष्ण व शुक्ल पक्ष, अमावस्या व पूर्णिमा आदि प्रचलित थे। नये वर्ष का आरम्भ यहां चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता था अब भी यह परम्परा अबाध रूप से जारी है जिसे भारत के ब्राह्मण कुलों में जन्में विद्वान आर्य लोग मानते चले रहे हैं। ऐसा लगता भी है और यह प्रायः निश्चित है कि भारत से से ही 7 दिनों का सप्ताह, इनके नाम, लगभग 30 दिन का महीना, वर्ष में बारह व उनके नाम आदि कुछ उच्चारण भेद सहित देश देशान्तर में प्रचलित थे। उन्हीं को अपना कर वर्तमान में प्रचलित आंग्ल वर्ष व काल गणना को अपनाया गया है। हमारे सोमवार को उन्होंने मूनडे (चन्द्र-सोम वार) व रविवार को सनडे (सूर्य वार) बना दिया। यह हिन्दी शब्दों का एक प्रकार से अंग्रेजी रूपान्तर ही है।

 

अंग्रेजी संवत्सर की यह कमी है कि इससे सृष्टि काल का ज्ञान नहीं होता जबकि भारत का सृष्टि संवत् सृष्टि के आरम्भ से आज तक सुरक्षित चला आ रहा है। विज्ञान के आधार पर भी सृष्टि की आयु 1.96 अरब लगभग सही सिद्ध होती है। क्या हमारे यूरोप के विदेशी बन्धुओं को आर्यों व वैदिकों के इस पुष्ट सृष्टि सम्वत् को नहीं अपनाना चाहिये था? इसे उन्होंने पक्षपात व कुण्ठा के कारण नहीं अपनाया। उनमें यह भी भावना थी कि उन्हें अपने मत ईसाई मत का प्रचार व लोगों का धर्मान्तरण करना था, इसलिए उन्होंने भारतीय ज्ञान व विज्ञान की जानबूझकर उपेक्षा की और इसके साथ ही अपने मिथ्या विश्वासों को दूसरों पर थोपने का प्रयास भी किया। यदि महर्षि दयानन्द जी का प्रादुर्भाव हुआ होता तो उनके द्वारा फैलाये गये सभी भ्रम विश्व में प्रचलित हो जाते परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से वैदिक काल के अनेक सत्य रहस्यों को खोज लिया और उनका डिण्डिम घोष कर भारत यूरोप के विद्वानों को हतप्रभ कर दिया।

 

भारतीय नव वर्ष चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है। यही दिवस नव वर्ष के लिए सर्वथा उपयुक्त व सर्वस्वीकार्य है।  यह ऐसा समय होता है जब शीत का प्रभाव समाप्त हो गया होता है। ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं का आरम्भ इसके कुछ समय बाद होता है। इस नव वर्ष के अवसर पर पतझड़ व शीत ऋतु समाप्त होकर ऋतु अत्यन्त सुहावनी होती है। वृक्ष नये पत्तों को धारण किये हरे-भरे होते हैं तथा प्रायः सभी प्रकार के फूल व फल वृक्षों में लगे होते हैं, सर्वत्र फूलों की सुगन्ध से वातावरण सुगन्धित व लुभावना होता है जिसे प्रकृति का श्रृंगार कहा जा सकता है। ऐसी अनेक विशेषताओं से युक्त यह समय ही नव वर्ष के उपयुक्त होता है। हमें लगता है कि विदेशी विद्वानों के पक्षपात के कारण हम अनेक सत्य मान्यतओं को विश्वस्तर पर मनवा व अपना नहीं सकें। आज तो सर्वत्र पूर्वाग्रह व पक्षपात दृष्टिगोचर हो रहे हैं।  सर्वत्र सभी क्षेत्रों में प्रायः रूढि़वादित छाई हुई है। अब किसी पुरानी कम महत्व की परम्परा को छोड़ कर उसमें सुधार व परिवर्तन कर उसे विश्व स्तर पर आरम्भ करना कठिन व असम्भव ही है।

 

वैदिक सन्ध्या व यज्ञ दो ऐसे महत्ता से युक्त मनुष्यों के दैनिक आवश्यक कर्तव्य हैं जिनका आचरण व व्यवहार करने से मनुष्यों को अनेकानेक लाभ होते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि सन्ध्या में ईश्वर का ध्यान सहित उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जाती है। शुद्ध शाकाहारी भोजन और विचारों की शुद्धता-पवित्रता पर ध्यान दिया जाता है। सुखासन में लगभग 1 घंटा बैठकर ईश्वर की ध्यान पद्धति द्वारा स्तुति की जाती है। स्तुति का अर्थ है ईश्वर के गुणों का ध्यान व उल्लेख करना। इससे ईश्वर से प्रेम व प्रीति होती है। प्रेम व प्रीति से मित्रता होती है और इससे वरिष्ठ मित्र से कनिष्ठ मित्र को स्तुति के अनुसार लाभ प्राप्त होता है। स्तुति से अहंकार का नाश भी होता है। स्तुति करने से मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव सुधरते हैं और वह ईश्वर के कुछ-कुछ व अधिंकाश समान हो जाते हैं। हमारे सभी ऋषि व मुनि ईश्वर के गुण-कर्म व स्वभाव के अनुरूप गुणों वाले ही होते थे। स्तुति को जानने समझने व करने के लिए वेदों व वैदिक साहित्य का ज्ञान व अध्ययन भी आवश्यक है। बिना इसके ईश्वर की भलीप्रकार सारगर्भित व पूर्णता से युक्त स्तुति नहीं हो सकती। इसी प्रकार से ईश्वर से प्रार्थना का भी महत्व है। इससे भी स्तुति के समान सभी लाभ प्राप्त होते हैं और इच्छित वस्तु की ईश्वर से प्राप्ति होती है। प्रार्थना अहंकार नाश में सर्वाधिक लाभप्रद होती है। अहंकारशून्य मनुष्य ही समाज, देश व विश्व का कल्याण कर सकता है। अहंकारयुक्त मनुष्य तो अपनी ही हानि करता है, उससे दूसरों को किसी प्रकार के लाभ का तो प्रश्न ही नहीं होता। उपासना भी स्तुति व प्रार्थना को सफल करने में सहायक व अनिवार्य है। महर्षि दयानन्द इसका यह फल बताते हैं कि ईश्वर की स्तुति करने से उससे प्रीति, उस के गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना उद्देश्य पूरे होते हैं। स्तुति, प्रार्थना, उपासना वा समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट होते हैं। जिस मनुष्य ने आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त को लगाया है उसको जो परमात्मा के योग अर्थात् सान्निध्य वा समीपता का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने अर्थात् उपासना करने से सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो-जो काम करना होता है वह वह सब को करना चाहिये। महर्षि दयानन्द एक सिद्ध सफल योगी थे। इनके ये शब्द स्वानुभूत हैं। इसके शंका संदेह का कोई कारण नहीं। यदि मनुष्य जन्म में ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप को जानकर उसकी योग विधि से उपासना नहीं की और ईश्वर का साक्षात्कर करने का प्रयत्न नहीं किया, तो मनुष्य कितनी ही भौतिक उन्नति कर लें, उपासना व समाधि सुख की तुलना में वह अपार भौतिक सुख हेय व निम्नतर हैं। अतः हमें विदेशी मान्यताओं को गुण-दोष के आधार पर मानने के साथ अपने पूर्वजों, ऋषि-महर्षियों की विरासत को भी, सम्भालना है वह उसे भावी पीढि़यों को सौंपना है। इस कार्य के लिए हमारे आदर्श राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य आदि हैं। उनका अध्ययन व अनुकरण कर हमें अपने जीवन को सफल करना चाहिये। यही महापुरूष विश्व-वरणीय भी हैं। यज्ञ के बारे में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इससे वायुमण्डल व पर्यावरण शुद्ध बनता है। जीवन में सुख व आरोग्य की वृद्धि व प्राप्ति होती है। यज्ञ से हम ही नहीं अपितु यज्ञ स्थान से दूर-दूर तक के सभी प्राणी लाभान्वित व सुखी होते हैं। यज्ञ-अग्निहोत्र-हवन एक शुभ कर्म है और इसे ऋषियों द्वारा श्रेष्ठतम कर्म कहा गया है। यज्ञ न केवल हमारे वर्तमान जीवन में अपितु भावी जन्मों में भी जीवात्माओं को लाभ पहुंचाता है और इसके कर्त्ता को अगले जन्म में उन्नत मनुष्य योनि मिलने की गारण्टी देता है।

 

महात्मा ईसा मसीह बीसी 1 में पैदा हुए। उन्हीं के नाम से ईसा सम्वत् आरम्भ हुआ। 27 से 33 वर्ष का उनका जीवन होने का अनुमान है। उन्होंने जो धार्मिक विचार दिये उससे उनके देश व निकटवर्ती स्थानों पर सामाजिक परिवर्तन एवं सुधार हुए। इन सुधारों से ही उन्नति करते हुए वह आज की स्थिति में पहुंचे हैं। उनके अनुयायियों ने धर्म के अतिरिक्त अन्य जिन मान्यताओं को तर्क व युक्ति के आधार पर स्वीकार किया, वही उनकी प्रगति का आधार बना। उनकी उन्नति के प्रभाव ने ही उनके काल सम्वत् को विश्व स्तर पर स्वीकार कराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में भी सम्प्रति यही संवत् प्रचलित हो गया है। यत्र-तत्र कुछ प्राचीन वैदिक व सनातन धर्म के विचारों के लोग सृष्टि संवत् व विक्रमी संवत् का प्रयोग भी करते हैं जो जारी रहना चाहिये जिससे आने वाली पीढि़यां उसे जानकर उससे लाभ ले सकें। नये आंग्ल वर्ष के दिन सभी मनुष्य एक दूसरे को नये वर्ष की शुभकामनायें देते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। शुभकामनायें तो हमें सभी को पूरे वर्ष देनी चाहिये। हमारे यहां संस्कृत का एक श्लोक खूब गाया व बोला जाता है। यह श्लोक सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।। हमें लगता है कि सबके प्रति शुभकामना करने का यह श्लोक सर्वाधिक भाव व अर्थ प्रधान वाक्य, कथन व पद्य है। पाठकों के लिए इसका पद्यानुवाद भी प्रस्तुत है। पहला पद्यानुवाद हैः सबका भला करो भगवान्, सब पर दया करो भगवान्। सब पर कृपा करो भगवान्, सबका सब विधि हो कल्याण।। दूसरा पद्यानुवादः हे ईश ! सब सुखी हों, कोई हो दुखारी, सब हों नीरोग भगवन् ! धनधान्य के भण्डारी। सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों, दुखिया कोई होवे सृष्टि में प्राणधारी।। एक अन्य तीसरा पद्यानुवाद है सुखी बसे संसार सब, दुखिया रहे कोय, यह अभिलाषा हम सबकी भगवन् पूरी होय।। इस श्लोक के प्रतिदिन उच्चारण सहित गायत्री मन्त्र ईश्वर की स्तुतिप्रार्थनाउपासना के 8 मन्त्रों का अर्थ सहित पाठ करने से भी अनेक लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं।

 

निष्कर्ष में हम यह कहना चाहते हैं कि हमें समाज में रहना है अतः जो हमारे निकट हो रहा है हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हमें जो भी नये वर्ष की शुभकामना देता है, उसे स्वीकार करें और उसे भी अपनी शुभकामनायें दें। उनसे यह अनुरोध करें  कि वह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के भारतीय नव वर्ष को भी इसी प्रकार से सोत्साह मनायें और अपने सभी मित्रों को इसी प्रकार से शुभकामनायें दें। आज आंग्ल वर्ष 2015 के अंतिम दिन ३१ दिसम्बर को हमने कुछ समय चिन्तन किया, उसे लेखबद्ध कर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस अवसर पर हम सभी बन्धुओं को नये आंग्ल वर्ष 2016 की शुभकामनायें देते हैं।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

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‘व्रत, तप, तीर्थ व दान का वैदिक सत्य स्वरूप’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

भारत में सबसे अधिक पुरानी, आज भी प्रासंगिक, सर्वाधिक लाभप्रद व सत्य मूल्यों पर आधारित धर्म व संस्कृति ‘‘वैदिक धर्म संस्कृति ही है। महाभारत काल के बाद अज्ञान व अंधविश्वास उत्पन्न हुए और इसका नाम वैदिक धर्म से बदल कर हिन्दू धर्म हो गया। हम सभी हिन्दू परिवारों में उत्पन्न हुए और हमने महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज द्वारा प्रदर्शित वेदोक्त मार्ग का अनुसरण कर वेदाध्ययन किया और वेदों से पुष्ट मान्यताओं को ही अपनाया है। व्रत-उपवास, तप, तीर्थ व दान आदि का वैदिक स्वरुप आज भी काफी विकृत है। इनका सत्यस्वरुप बताना ही इस लेख की विषय वस्तु है जिसका उल्लेख कर रहे हैं। पहले व्रत व उपवास क्या हैं, इसको जानने का प्रयत्न करते हैं। व्रत के विषय में यजुर्वेद में एक मन्त्र आता है-ओ३म् अग्ने व्रतपते चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि। मन्त्र का अर्थ है कि हे सत्य धर्म के उपदेशक, व्रतो के पालक प्रभु मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हूं। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा यह असत्य को छोड़ने और सत्य को ग्रहण जीवन में धारण करने का व्रत सिद्ध सफल हो अर्थात् मैं अपने इस व्रत को पूरा कर सकूं सत्य के पालन में खरा उतरूं। यही व्रत करने वा रखने का वैदिक स्वरूप है। किसी सांसारिक मनोकामना की पूर्ति के लिए किसी विशेष दिन अन्न, जल आदि के त्याग का नाम व्रत नहीं है। पति या पत्नी की प्रसन्नता के लिए उससे सद्व्यवहार करने का संकल्प लेना तथा उसे निभाना भी व्रत है। रोगग्रस्त का उचित उपचार करवाना भी व्रत है। इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि के त्याग का संकल्प लेकर उनका पालन करना ही व्रत कहलाता है। व्रत एक प्रकार का संकल्प होता है। इसे सत्य गुणों की धारणा करना भी कह सकते हैं। यदि व्रत, संकल्प या धारणा कर ली है तो फिर उसे मन, वचन व कर्म से पूरा करने का यथाशक्ति प्रयास करना ही व्रत है।

 

तप का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ा हुआ है। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि धर्म के आचरण करने में जो कठिनाईयां आती हैं उसे सहन करना, पीडि़त न होना और सत्य पालन में स्थिर रहना ही तप है। तप विद्या का पढ़ना व पढ़ाना, सज्जनों का संग करना, ईश्वर की उपासना, ब्रह्मचर्य का पालन तथा दीन दुःखियों की सेवा आदि परोपकार कर्म करते हुए जो-जो कष्ट आएं उन्हें सहते जाना परन्तु सत्कर्म से पीछे न हटना ही तप है। कुछ लोग तप के नाम पर अकारण ही अपने शरीर को अनेक कष्ट देते हैं। गर्म चिमटे से अपने शरीर को दागते हैं, महीनों खड़े रहते हैं जिससे टांगों में खून उतर आता है और वे सूजकर बहुत कष्ट देती हैं, शीतकाल में सिर पर सैकड़ों घड़े ठण्डे पानी के डलवाते हैं, सिर के बालों को कैंची से काटने की बजाए हाथ से नोचते हैं, इत्यादि। ये सब क्रियाएं न तप हैं, न धर्म।  अपितु यह पाप और हिंसा हैं। बहकावा और धोखाधड़ी हैं।

 

तीर्थ के बारे में भी हमारे लोगों में भ्रम हैं। सच्चा तीर्थ क्या होता है इसका सामान्य लोगों को तो क्या हमारे धर्म पुरोहितों तक को ज्ञान नहीं है। जो उपाय व कार्य मनुष्यों को दुःखसागर से पार उतारते हैं उन्हें तीर्थ करते हैं। विद्या-ग्रहण, सत्संग, सत्य भाषण, पुरुषार्थ, विद्यादान, जितेन्द्रियता, परोपकार, योगाभ्यास, शालीनता आदि शुभ गुण तीर्थ हैं क्योंकि इनको करके जीव दुःख के सागर से पार हो सकता है। ऐसा करके मनुष्य दुःखों से बचता भी है और इन गुणों के धारण करने से जीवन यशस्वी व सुखी बनता है। हर की पैड़ी आदि किसी जल या किसी प्रसिद्ध मन्दिर व स्थल आदि का नाम तीर्थ नहीं है। किसी समय हरिद्वार, काशी, प्रयाग, मथुरा, द्वारका आदि स्थानों पर अथवा गंगा के किनारे ऋषियों, मुनियों, योगियों और तपस्तियों के आश्रम रहे होंगे। गृहस्थी लोग उनके पास सत्संग के लिए जाया करते होंगे तथा उनके सद् उपदेशों व मार्गदर्शन के अनुसार आचरण करके अपने जीवनों को सुधारते व संवारते होगें। मांस, शराब, व्यभिचार, बेईमानी आदि बुराइयों का त्याग करते होंगे। इस कारण से इन स्थानों का नाम तीर्थ स्थान पड़ गया होगा। आजकल ऐसे स्थानों पर जाकर कोई लाभ नहीं होता अपितु समय व धन की बर्बादी के साथ कई प्रकार की हानियां ही होती है। अतः विवेकपूर्वक जल व स्थल को तीर्थ न मानकर वेदों के स्वाध्याय, सत्पुरूषों को दान, उनकी संगति, विद्या अध्ययन व प्रचार, असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन करना चाहिये। ऐसे कार्यों को करके ही मनुष्य जीवन उन्नत होता है। इसके विपरीत कर्म व कार्य करने से कोई लाभ नहीं होता। अतः मिथ्या कार्यों से बचना चाहिये।

 

दान का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ गया है। दान अपने स्वामित्व की वस्तु व धन को दूसरे सुपात्रों को बिना अपनी किसी स्वार्थ भावना के दूसरों के हित के लिए देने को कहते हैं। कुपात्रों को धन व अन्य सामग्री का देना दान नहीं कहलाता। वेदों के अनुसार विद्या दान को सभी दानों में श्रेष्ठ माना गया है। गरीब, रोगी, अंगहीन (अपाहिज), अनाथ, कोढ़ी, विधवा या कोई भी जरूरतमन्द, विद्या और कला कौशल की वृद्धि, गोशाला, अनाथालय, हस्पताल आदि दान के लिए सुपात्र हैं। अथर्ववेद में कहा है पापत्वाय रासीय अर्थात् मैं पाप कर्म के लिए कभी दान दूं। महाभारत में युधिष्ठिर जी कहते हैं कि धनिने धनं मा प्रयच्छ। दरिद्रान्भर कौन्तेय अर्थात् हे युधिष्ठिर धनवानों को धन मत दो, दरिद्रों की पालना करो। वैदिक विद्वान श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी ने लिखा है कि भरे पेट को रोटी देना उतना ही गलत है जितना स्वस्थ को औषधि रोटी भूखे के लिए है और औषधि रोगी के लिए। समुद्र में हुई वर्षा व्यर्थ है। सृष्टि में ईश्वर का ऐसा नियम है कि जो कोई किसी को जितना सुख पहुंचाता है ईश्वर के न्याय से उतना ही सुख उसे भी मिलता है। इसलिए दान का उद्देश्य प्राणियों को अधिक से अधिक सुख पहुंचाना होता है। कठोपनिषद् में लिखा है कि ऐसा दान जिसके लेने से लेने वाले को सुख मिले, उस दान के देने से देने वाले को भी आनन्द नहीं मिलता। तैत्तिरीय उपनिषद में एक उपदेश में कहा गया है कि श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। सविदा देयम्। अर्थात् यदि दान देने में श्रद्धा है तो दान देना, यदि श्रद्धा नहीं भी है तो भी दान देते रहना। संसार में यश पाने के ख्याल से दान देना। दूसरे लोग दान दे रहे हैं उन्हें देखकर लज्जावश भी दान देना। इस भय से भी दान देना कि यदि नहीं दूंगा तो परलोक सुधरेगा, कमाया हुआ धन भी सार्थक होगा। इस विचार से भी दान देते रहना कि गुरु के सामने प्रतिज्ञा की थी कि दान दूंगा। दान विषयक मनुस्मृति का प्रसिद्ध श्लोक है – सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते। वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकांचनसर्पिणाम्। यह श्लोक बताता है कि संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण, धृत आदि, इन सब दानों से वेद विद्या का दान अति श्रेष्ठ है। महर्षि दयानन्द के अनुसार बिना कुछ किए अपने निर्वाह अर्थ दूसरों से धन या पदार्थ लेना दान नहीं कहलाता, यह नीच कर्म है।

 

हमने इस लेख में श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी की आर्यमान्यतायें पुस्तक से सहायता ली है। इसके लिए उनका धन्यवाद करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक व्रत, तप, तीर्थ व दान के सत्यस्वरूप को जानकर लाभान्वित होंगे और इससे लाभ उठायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग की भावना से सर्व मत-पन्थों का समन्वय ही मनुष्यों के सुखी जीवन एवं विश्व-शान्ति का आधार’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य के व्यवहार पर ध्यान दिया जाये तो यह सत्य व असत्य का मिश्रण हुआ करता है। जो मनुष्य सत्य व असत्य को जानता भी नहीं, वह भी सत्य व असत्य दोनों का मिला जुला व्यवहार ही करता है। शिक्षित मनुष्य कुछ-कुछ सत्य से परिचित होता है अतः जहां उसे सत्य से लाभ होता है वह सत्य का प्रयोग करता है और जहां उसे असत्य से लाभ होता है तो वह, अपनी कमजोरी के कारण, असत्य का व्यवहार भी कर लेता है। मनुष्य सत्य का ही व्यवहार करे, असत्य का व्यवहार जीवन में किंचित न हो, इसके लिए मनुष्य का ज्ञानी होना आवश्यक है। ज्ञान मनुष्य को कहां से प्राप्त होता है। इसके कई साधन व उपाय हैं जिनसे इसे प्राप्त किया जा सकता है। पहला उपाय तो सत्पुरुषों व अनुभवी विद्वानों की संगति कर सत्य ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता। संगति करने पर ज्ञानी, सत्पुरुष व अनुभवी मनुष्य अपने स्वभावानुसार अज्ञानी मनुष्यों को शिक्षा व उपदेश करते हैं जिसको स्मरण कर अभ्यास करने से मनुष्य को सत्य का ज्ञान हो जाता है। इसके साथ ही सत्य ग्रन्थों का पढ़ना भी इसमें सहायक होता है। वर्तमान आधुनिक युग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश व दुनियां के लोग यह निर्धारित नहीं कर पाये हैं कि सत्य विद्याओं का ग्रहण जिसमें मनुष्यों के आचरण को भी सम्मिलित किया गया है, वह कौन कौन से ग्रन्थ हैं जो पूर्णतया सत्य हैं और कौन-कौन से ग्रन्थ हैं जिन को मनुष्य मानते हैं परन्तु उनमें सत्य व असत्य दोनों ही प्रकार के विचार, मान्यतायें, सिद्धान्त व कथन आदि विद्यमान हैं। यदि मनुष्य सत्य व असत्य का स्वरुप निर्धारण कर लेने में सफल होते और सत्य को अपने लिए पूर्ण सुरक्षित तथा असत्य को वर्तमान व भविष्य के लिए हानिकारक जान लेते और सत्य का ही आचरण करते, तो आज विश्व में सर्वत्र शान्ति व सुख का वातावरण होता। परस्पर पे्रम और सौहार्द होता, सभी दुःखियों व पीडि़तों की सेवा में अग्रसर होते और कहीं कोई विपदाग्रस्त होने के बाद शेष जीवन अज्ञान, अभाव, अन्याय व अत्याचारों से पीडि़त न होता।

 

आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता यही है कि संसार के सभी मत-पन्थों-सम्प्रदायों आदि के विद्वान सभी मनुष्यों के लिए एक समान आचरण करने योग्य सत्य कर्मों व कर्तव्यों का निर्धारण करें। मत-मतान्तरों की जो शिक्षायें वर्तमान में एक दूसरे के विपरीत वा विरुद्ध हैं, उन पर गहन विचार होना चाहिये और ऐसे विचारों व मान्यताओं को त्याग देना चाहिये जिससे मनुष्यों वा स्त्री-पुरुषों में किसी प्रकार की असमानता, ऊंच-नीच, भेद-भाव, रंग-वर्ण-भेद आदि उत्पन्न होता हो। मनुष्य जीवन को स्वस्थ, सुखी तथा दीर्घायु बनाने में तथा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कराने में ब्रह्मचर्य का पालन किया जाना आवश्यक है। पांच ज्ञान व पांच कर्म इन्द्रियों पर सभी मनुष्यों का पूर्ण संयम वा नियन्त्रण होना चाहिये, इसे ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्मचर्य में ईश्वर को जानना और उसकी प्रेरणा को ग्रहण कर उसके अनुसार ही सत्य का आचरण करना भी ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला मनुष्य रोगी नहीं होता, स्वस्थ व सुखी होता है व उसकी आयु लम्बी होती है। अतः मत-मतान्तरों के विचारों व मान्यताओं से उपर ऊठकर सभी मत व पन्थों के मनुष्यों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। विद्यार्थियों को ब्रह्मचर्य की अनिवार्य शिक्षा सहित हनुमान, भीष्म पितामह, भीम, महर्षि दयानन्द आदि के जीवन व आदर्शों की अनिवार्य शिक्षा भी दी जानी चाहिये और साथ हि साथ ब्रह्मचर्य का अभ्यास भी कराया जाना चाहिये। इस कारण से कि इसका पालन मनुष्य जीवन के लिए श्वांस लेने व छोड़ने के समान ही महत्वपूर्ण व उपयोगी है।

 

संसार को उत्पन्न हुए लम्बा समय हो चुका है। वेद और वैदिक धर्म संसार में सबसे अधिक प्राचीन हैं। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में ही परमात्मा ने संसार के सभी मनुष्यों के पूर्वजों, आदि मनुष्यों वा ऋषियों को वेदों का ज्ञान देकर वैदिक धर्म को प्रवृत्त किया था। वेदों की उत्पत्ति और वैदिक धर्म की अवधि सम्प्रति 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हाजर 115 वर्ष हो चुकी है।  इस लम्बी अवधि में भारत में सहस्रों उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे गये जिनमें से अधिकांश ग्रन्थ नालन्दा व तक्षशिला आदि वृहद् पुस्तकालयों में सत्य व धर्म के विद्वेषी विधर्मी लोगों द्वारा अग्नि से जला दिये जाने के कारण नष्ट हो गये। इसके बावजूद आज भी देश-विदेश के अनेक पुस्तकालयों में सह्राधिक पाण्डुलियां हैं जिनका अध्ययन, अनुवाद व प्रकाशन किया जाना चाहिये। इससे अनेक नये तथ्य समाज के सम्मुख आ सकते हैं जिससे समाज व देश-विदेश के लोगों को लाभ हो सकता है। सौभाग्य से कुछ प्राचीन प्रमुख संस्कृत ग्रन्थ उनके हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद सहित सम्प्रति उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थों में वेदों व उनके भाष्यों के अतिरिक्त 4 ब्राह्मण ग्रन्थ, 11 प्रमुख उपनिषदें, 6 दर्शन ग्रन्थ, मनुस्मृति, आयुर्वेद के ग्रन्थ, ज्योतिष के ग्रन्थ सूर्य सिद्धान्त आदि, श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र, वाल्मीकि रामायण, महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत, महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों व अन्य सभी धार्मिक व मत-मतान्तरों के ग्रन्थों का अध्ययन कर सत्य का निर्धारण किया जा सकता है जिससे संसार के सभी मनुष्यों को सही दिशा मिल सकती है और असत्य मान्यताओं पर आधारित परस्पर के विरोध व झगड़े दूर होकर संसार के सभी लोग सुखी हो सकते हैं। ऐसा ही एक प्रयास महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में किया था और उनका ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश ऐसे ही प्रयत्नों का परिणाम है। यदि संसार के लोग सभी मतों के ग्रन्थों व वैदिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे तो उनको मनुष्य जीवन एवं व्यवहार-कर्तव्य-कर्म विषयक सत्य-ज्ञान अवश्य विदित हो जायेगा और ऐसा करके ही संसार के सभी मनुष्यों के जीवनों को उसके यथार्थ उद्देश्य व लक्ष्य की प्राप्ति में समर्थ बनाकर उसे क्रियात्मक रूप देने में समर्थ बनाया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो संसार में समस्यायें बढ़ती रहेंगीं, परस्पर वैमनस्य रहेगा, युद्ध आदि होते रहेंगे, निर्दोष लोग काल के गाल में समाते रहेंगे और इसके साथ वह मनुष्य जीवन के मुख्य उद्देश्य व लक्ष्य मोक्ष से दूर ही रहेंगे।

 

वेद, वैदिक साहित्य और संसार के सभी मत-मतान्तरों का निष्पक्ष अध्ययन करने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य सच्ची शिक्षा को ग्रहण कर ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व मनुष्य जीवन आदि को ठीक ठीक जानना व समझना है तथा ब्रह्मचर्य से संबंधित नियमों को जानकर उनका पालन करते हुए गृहस्थ आदि आश्रमों में रहकर सद्कर्मों को करके ईश्वर के साक्षात्कार के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करना है। हम नहीं समझते कि संसार में कोई भी मनुष्य सत्य के आचरण का विरोधी है तथापि सत्य को यथार्थ रूप से न जानने के कारण उनका व्यवहार व आचरण प्रायः सत्य के विपरीत हो जाता है। अतः विश्वस्तर पर सभी मत-मतान्तरों के ग्रन्थों के अध्ययन के साथ वेद और वैदिक साहित्य का निष्पक्ष और विवेकपूर्णक अध्ययन होना चाहिये। इस अध्ययन के परिणामस्वरुप जो उपयोगी ज्ञान व निष्कर्ष प्राप्त होते हैं, उनका प्रचार, प्रसार होने के साथ मनुष्य जीवन में उनका आचरण भी होना चाहिये। यह भी हमें जानना है कि जीवन में हमारी जितनी भी उन्नति होती है वह सत्य व्यवहार व आचरण के कारण से ही होती है। असत्य व्यवहार से भी कुछ लोग कुछ भौतिक उन्नति कर सकते हैं परन्तु वह उन्नति अस्थाई व परिणाम में अत्यन्त दुःखदायी होती है। यदि कोई व्यक्ति असत्य का आचरण कर सरकारी कानूनों से बच भी जायेगा तो जन्म-जन्मान्तर में ईश्वर के न्याय से तो उन्हें अपने कर्मों का फल भोगना ही होगा। ईश्वर के न्याय, शुभाशुभ कर्मों के सुख-दुःख रूपी फलों से बचना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। कर्म फल का यह आदर्श सिद्धान्त है ‘‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य के महत्व पर सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में कुछ महत्वपूर्ण और उपयोगी बातें लिखी हैं। सबके लाभार्थ उन्हें प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं कि मेरा इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है, उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाये। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान आप्तों (पूर्ण ज्ञानी प्राणीमात्र के हितैषी) का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयं अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। हमें लगता है कि संसार में सभी मनुष्यों को इस पर विचार ही नहीं करना चाहिये अपितु इसमें जो निर्विवाद बातें हैं उनको उसकी भावना के अनुरूप अपनाना भी चाहिये। महर्षि दयानन्द ने आगे भी लिखा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य असत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य (इच्छा वा भावना) है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्य असत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें (इसी से संसार के लोगों की समग्र उन्नति सम्भव है), क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। आशा है कि पाठक इस लेख में व्यक्त विचारों से लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘गोमाता, गोदुग्ध एवं गोरक्षा का महत्त्व’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

ज्ञान व विज्ञान की चरम उन्नति होने पर भी मनुष्य आज भी आधा व अधूरा है। आज भी उसे बहुत सी बातों का ज्ञान नहीं है और आधुनिक विज्ञान की उन्नति ने उसे इतना अधिक अभिमानी बना दिया है कि वह किसी सत्य बात को भी मानना तो दूर, उसे सुनना भी नहीं चाहता है। यह स्थिति अनेक विषयों में है परन्तु इस लेख में हम गाय और उसके दूध की महत्ता व उपयोगिता पर कुछ चर्चा कर रहे हैं। आज भी यूरोप व मुस्लिम देशों में गोहत्या होती है और इन देशों में गाय के मांस का भक्षण भी बड़ी मात्रा में होता है। दुर्भाग्य से ऋषियों व देवों की भारत भूमि में गोहत्या का होना और यहां यूरोप व अरब आदि अनेक देशों को गोमांस का निर्यात होना दुःखद व आर्य हिन्दुओं के लिए घोर अपमानजनक कृत्य है। देश में बेरोजगारी की समस्या का एक एक मुख्य कारण गोहत्या होने के साथ गोसंरक्षण व गोसवंर्धन का न होना भी है। गोहत्या एवं गोमांस भक्षण का एक कारण, विज्ञान की उन्नति से हमारे व विदेशी बन्धुओं में अभिमान का उत्पन्न होना है जिसने उन लोगों में मानवीय संवेदनाओं, प्रेम, दया, करूणा व अंहिसा आदि को दबा वा ढक दिया है। वेदों में गाय के लिए ‘‘अघ्न्या शब्द संज्ञा व विशेषण के रूप में प्रयोग में आया है। इसका अर्थ है कि गाय अवध्य है, इसकी हत्या नहीं की जा सकती तथा गोहत्या महापाप व बुरा एवं निषिद्ध कर्म है, जैसी भावनाओं के द्योतक मन्त्र व शब्दों का प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति में यदि गो की हत्या की अनुमति देने वाले व गोहत्या करने वाले व गोमांस के भक्षक देश व मानवता के विरोधी इस कार्य को नहीं छोड़ते तो गाय को माता मानने वाले और गोहत्या को देश के लिए अहितकर मानने वाले भी अपनी तर्कसंगत बात को क्यों न बुद्धिजीवियों के समाने रखें, अर्थात् अवश्य रखना चाहिये। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह लेख प्रस्तुत हैं।

 

गोमाता के महत्व के कारण ही ईश्वर ने अपने ज्ञान वेद में गो को अघ्न्या अर्थात् अवध्य, हनन न करने योग्य कह कर सभी मनुष्यों को चेतावनी व सावधान किया था। हमारे सभी ऋषि, मुनि एवं वैदिक विद्वान सृष्टि के आरम्भ से ही गोरक्षा करते आये हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के पूर्वज गोरक्षक थे ऐसा प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों से विदित होता है। योगेश्वर श्री कृष्ण का तो गोरक्षा व गोपालक होने के कारण एक नाम ही गोपाल पड़ गया है। उनके प्रायः सभी चित्रों में उन्हें गोमाता सहित ही दिखाया जाता है। महाभारत काल के बाद मुस्लिम व उसके बाद अंग्रेजों की गुलामी का काल रहा है। ईसा की उन्न्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ। उन्होंने भी गोरक्षा, गोपालन व गोसंवर्धन के महत्व को जानकर गोहत्या बन्द करने के लिए विशेष प्रयत्न व आन्दोलन किया था। गोहत्या रोकने और गोरक्षा के महत्व पर एक बहुत ही महत्वूपर्ण पुस्तक आर्यजगत के भूमण्डल प्रचारक प्रसिद्ध वैदिक विद्वान मेहता जैमिनी जी ने उर्दू में अनेक वर्षों पूर्व लिखी थी। पुस्तक महत्वपूर्ण थी परन्तु इसका हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ था। हमें इसके महत्व के विषय में ज्ञात हुआ तो हमने इसके लिए प्रयत्न किये। अब इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण प्रसिद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा अनुदित होकर आर्यसमाज के यशस्वी प्रकाशक श्री अजय कुमार द्वारा विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली उपलब्ध करा दिया गया है। यह पुस्तक गोमाता की रक्षा के महत्व पर गागर में सागर के समान है। प्रत्येक भारतीय, गोरक्षा के समर्थक व विरोधी, सभी को ज्ञानवृद्धि की दृष्टि से इसे पढ़ना चाहिये। इसी पुस्तक के दूसरे अध्याय गऊ की महिमा पर विदेशी तथा मुस्लिम विद्वानों की पूर्वाग्रह मुक्त सम्मतियां से हम कुछ प्रमुख यूरोपीय विद्वानों की सम्मितियां प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे गो की महत्ता के अनेक पक्षों पर प्रकाश पड़ता है।

 

गऊ माता विश्व की प्राणदाता पुस्तक में पहली सम्मति इसके लेखक मेहता जैमिनी ने जर्मनी के संस्कृत के एक विद्वान प्रोफेसर गेटी की दी है। प्रोफेसर गेटी ने अपनी पुस्तक प्राचीन काल के ब्राह्मणों की बुद्धिमत्ता में लिखा है कि क्या कारण है कि हम लोग तीनतीन वर्ष तक सस्कृत का अध्ययन करके प्राचीन काल के ब्राह्मणों जैसे ग्रन्थ लिखना तो दूर की बात रही उनके ग्रन्थों को समझने की भी हममें योग्यता नहीं होती? वेदान्त, योग तथा सांख्य दर्शन के समझने के लिए हमें काशी, नदिया तथा नवद्वीप के पण्डितों की शरण में जाना पड़ता है। प्रो. गेटी स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि इन विद्वानों ने वनों, गुफाओं तथा कंदराओं में एकान्त सेवन करके गऊ के दुग्ध तथा शाक फल पर निर्वाह करके ऐसे सूक्ष्म दार्शनिक आध्यात्मिक विषयों पर चिन्तनमनन किया। इससे ज्ञात होता है कि उनके मस्तिष्क स्वच्छ पवित्र थे। परन्तु हम मांस भक्षी होकर तामसिक वृत्ति वाले बन गये हैं। अतः वे अध्यात्म में, चिन्तन तथा कल्पना शक्ति में शिखर पर थे। हम तामसिक भोजन मदिरा का सेवन करने वाले आध्यात्मिकता में उनके सामने नहीं टिक सकते। श्री गेटी आगे लिखते हैं कि जब मैंने यह पढ़ा तो विचार आया कि यही कारण है कि हिन्दू लोग आज भी मृतक भोज और मृतक श्राद्धों में बाह्मणों को खीर खिलाते हैं तथा सुख में, शोक में भी ब्राह्मणों को गोदान करते हैं। अतः भारत ने गऊ को इस कारण महत्व दिया कि इस की देन दूध तथा उससे प्राप्त होने वाले मक्खन, घृत, मलाई, दही, छाछ, पनीर, खोया, रबड़ी मानव के जीवन, मस्तिष्क, स्वास्थ्य, अध्यात्म, आचार तथा सम्पन्नता के लिए अत्यधिक आवश्यक एवं उपयोगी हैं। इसलिए आज भी बोलचाल की भाषा में भारत में धनवानों को मालदार कहा जाता है। माल का एक मुख्य अर्थ गाय, बैल, घोड़ा, भैंस, बकरी, भेड़ के हैं अर्थात् ये पशु धन प्राचीन काल में मनुष्य की सम्पन्नता की कसौटी थे।

 

भारत सरकार के कृषि विभाग के परामर्शदाता यूरोपीय विद्वान डा. हैरिसन ने शिकागो अमरीका के कृषि विज्ञान विशेषज्ञ हीन महोदय का उल्लेख कर उन्हें उद्धृत कर लिखा है कि गाय मनुष्य के लिए एक बहुमूल्य ईश्वरीय देन है। कोई भी जाति गऊ के बिना सभ्य नहीं बन सकती। गाय धरती पर सर्वोत्तम तथा लाभप्रद भोजन उपलब्ध कराती है। वह घास तथा सूखे खुरदरे पत्तों से अत्यन्त बलवर्द्धक स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन (दूध) तैयार करती है। वह (गाय) दूध केवल अपने बच्चों तथा पालकों के लिए प्रत्युत अवशिष्ट दूध बिक्री के लिए प्रदान करती है। जहां गऊ की रक्षा तथा पालन भली प्रकार किया जाता है वहां संस्कृति विकसित होती है, भूमि उपजाऊ होती है। घरों में समृद्धि होती है तथा सिर पर ऋण नहीं चढ़ता।

 

अमरीका के सुविख्यात डाक्टर वेकफील्ड ने लिखा है कि सच पूछो तो गऊ समृद्धि और सम्पन्नता की जननी वा माता है। प्राचीन काल के हिन्दू दूध मक्खन का प्रचुर प्रयोग किया करते थे। इसलिए वे शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ थे। उनके मस्तिष्क बहुत उर्वरा थे। सहनशक्ति आश्चर्यजनक थी। उन्होंने संस्कृत सरीखी पूर्ण, उत्कृष्ट तथा व्यापक समृद्ध भाषा को जन्म दिया। पीढ़ी दर पीढ़ी (गुरु शिष्य परम्परा से) वेदों को कण्ठाग्र करना तथा इतने विस्तृत ज्ञान, साहित्य तथा अध्यात्मवाद का प्रसार केवल गऊदुग्ध के भोजन से ही सम्भव हो पाया। वे ज्ञान के प्रत्येक विभाग (शाखा) के मर्मज्ञ अधिकारी विद्वान् थे। विद्या ज्ञान, दर्शन, तथा अध्यात्म में, सैन्य कला तथा व्यापार में सुदक्ष थे। इन सब गुणों विशेषताओं का कारण गाय का दूध तथा फलों का प्रयोग था।

 

श्री डब्ल्यू स्मिथ सहायक निर्देशक, कृषि विभाग का कथन है कि पुराणों में जो वर्णन आलंकारिक रूप में आता है कि भूमि बैल के सींग पर खड़ी है, उसका अभिप्राय यही है कि क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यह गाय बैल पर ही निर्भर है। यदि बैल न हों तो भारत की लहलहाती खेतियां उजड़ जायें क्योंकि हल जोतने के लिए बैल का होना आवश्यक है। इसके बिना भूमि वा खेतों की जोताई होना कठिन है। अतः गऊ को महत्व दिया गया है तथा इसके प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए एक दिन नियत किया गया है जिसे गोपाष्टमी कहते हैं। उस दिन इसके गले में पुष्प माला पहनाई जाती है। इसके सींग सजाये जाते हैं। चावल व आटे के पेड़़ो से इसकी सेवा की जाती है। अतः परमात्मा ने भारत को गाय के रूप में सर्वोत्तम देन दी है इसलिए यहां के राजे-महाराजे, ऋषि-मुनि, जनसाधारण सब गऊ का सम्मान व पालन करते चले आये हैं तथा घर में गाय का रखना अपना धर्म समझते थे। इसके साथ वह अपने घरों को समृद्ध, स्वस्थ तथा सम्पदा से भरपूर रखते थे।

 

गऊ माता विश्व की प्राणदाता पुस्तक के लेखक ने इसके दूसरे अध्याय में 5 यूरोपीय विद्वानों, इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से एक उद्धृण तथा 6 मुस्लिम विद्वानों के गोरक्षा के समर्थन में सबल युक्तियों से प्रस्तुत कथनों को उद्धृत किया है। लेख को अधिक विस्तार न देकर अब हम इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का उद्धृण प्रस्तुत करते हैं। इस ग्रन्थ में लिखा है कि यदि संसार की सभ्य जातियां पशुओं की पूजा की ओर प्रवृत हो जायें तो गऊ सर्वाधिक पूजा के योग्य होगी। ओहो ! गऊ कैसा सौभाग्य का, कल्याण का स्रोत है। वह मक्खन, पनीर, दूध, दही ही नहीं देती प्रत्युत सींग, चमड़ा, मूत्र इत्यादि जैसे उत्तम, गुणकारी और उपयोगी पदार्थ देती है। हम उसके बच्चे को लूट लेते हैं जबकि उसके लिए बहुत स्वल्प दूध छोड़ते हैं। शोक ! महाशोक !! मनुष्य कितना स्वार्थी है। इसी का परिणाम है कि बैल निर्बल शरीर वाले उत्पन्न होते हैं तथा इनका वंश बलशाली नहीं होता।

 

मेहता जैमिनी जी लिखित गऊ माता पुस्तक सभी भारतीयों मुख्यतः सभी गोभक्त, गो प्रेमियों व ऐसे सभी लोगों को जो गाय का दूध पीते हैं व प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में गाय के किसी भी उत्पाद व उत्पादों से लाभान्वित होते हैं, उन्हें इस पुस्तक को कर्तव्य रूप जानकर पढ़ना चाहिये। कृतघ्नता महापाप है। कृतघ्न मनुष्य, मनुष्यता का सबसे बड़ा शत्रु, दूषण और कलंक होता है। गाय अघ्न्या व अवध्य है और गोमांस अभक्ष्य पदार्थ है। हमारी जन्मदात्री माता और गो माता दोनों ही हमारा पालन व पोषण करती हैं। दोनों ही हमारे लिए पूज्य व सत्करणीय देवता हैं। हमें कर्तव्य को जानकर गोमाता का भी अपनी जननी माता के समान पालन व रक्षण करना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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उपासना क्या, क्यों व किसकी करें तथा इसकी विधि?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

उपासना का उल्लेख आने पर पहले उपासना को जानना आवश्यक है। उपासना का शब्दार्थ है समीप बैठना। हिन्दी में हम अपने परिवार, मित्रों व विद्वानों आदि के पास बैठते हैं परन्तु इसे कोई उपासना करना नहीं कहता, यद्यपि यह उपासना ही है। उपासना शब्द सम्प्रति रूढ़ हो गया है और इसका अर्थ जन साधारण द्वारा ईश्वर की पूजा वा उपासना के अर्थ में लिया जाता है। ईश्वर की पूजा व उपासना भी वस्तुतः उपसना है परन्तु अपने परिवार, मित्रों व विद्वानों आदि के समीप उपस्थित होना व उनसे संगति करना भी उपासना ही है। अब यदि सब प्रकार की उपासनाओं पर विचार कर यह जानें कि सर्वश्रेष्ठ उपासना कौन सी होती है तो इसका उत्तर इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाले सर्वगुण, ऐश्वर्य व शक्ति सम्पन्न ईश्वर की उपासना करना ही ज्ञात होता है। यदि मनुष्य ईश्वर की यथार्थ उपासना करना सीख जाये व करने लगे तो मनुष्य का अज्ञान, दुर्बलता व दरिद्रता दूर होकर वह भी ईश्वर की ही तरह गुणवान, बलवान व ऐश्वर्य से सम्पन्न हो सकता है। यह भी जान लें कि उपासना एक साधना है जिसके लिए तप वा पुरुषार्थ करना होता है जिसका विस्तृत निर्देश योगदर्शन व महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों में मिलता है।

 

पहला प्रश्न है कि उपासना क्या है, दूसरा श्रेष्ठ उपासना किसकी की जानी चाहिये और तीसरा प्रश्न होता है कि उस श्रेष्ठ उपासना की विधि क्या है? पहले प्रश्न का उत्तर जानने के लिए, यह जानकर कि उपासना समीप बैठने व उपस्थित होने को कहते हैं, हमें यह जानना है कि पास बैठने का तात्पर्य क्या है? हम किसी के पास जाते हैं तो हमारा इसका अवश्य कोई प्रयोजन होता है। उस प्रयोजन की पूर्ति ही उपासना के द्वारा अभिप्रेत होती है। हम अपने परिवार के सदस्यों के पास बैठते हैं तो वहां भी प्रयोजन है और वह है संगतिकरण का। संगतिकरण में हम एक दूसरे के बारे में वा उनके सुख-दुःख वा उनकी शैक्षिक, सामाजिक स्थिति आदि की जानकारी प्राप्त करते हैं और वह भी हमारी जानकारी प्राप्त करने के साथ अपने बड़ों से उपदेश व अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त करते हैं। पुत्र ने पुस्तक खरीदनी है, वह अपनी माता व पिता के पास जाता है और उनसे पुस्तक खरीदने की बात बताकर धन प्राप्त करता है। यह एक सीमित उद्देश्य से की गई उपासना, प्रार्थना व उसकी सफलता का उदाहरण है। इसी प्रकार विद्यार्थी अपने विद्यालय में अपनी कक्षा में अपने गुरुओं व अन्य विद्यार्थियों की उपासना व संगति कर इच्छित विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। वेद, ऋषियों व विद्वानों के ग्रन्थों के अध्ययन से हमने जाना कि ईश्वर ज्ञानस्वरुप, प्रकाशस्वरुप, आनन्दस्वरुप, सर्व-ऐश्वर्य-सम्पन्न, सर्वशक्तिमान तथा आदि-व्याधियों से रहित है। हमें भी अपना सम्पूर्ण अज्ञान, दरिद्रता, निर्बलता, रोग, आदि-व्याधियों, भीरुता व दुःखों का निवारण करना है और इसको करके हमें ज्ञान, ऐश्वर्य, आरोग्य वा स्वास्थ्य तथा वीरता, दया, करुणा, प्रेम, सत्य, अंहिसा, स्वाभिमान, निर्बलों की रक्षा आदि गुणों को धारण करना है। इन सब अवगुणों को हटाकर गुणों को धारण करानेवाला सर्वाधिक सरलतम व मुख्य आधार सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, निराकार, सर्वऐश्वर्यसम्पन्न व स्वयंभू गुणों से युक्त परमेश्वर है। अतः इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए हमें ईश्वर के पास जाकर अर्थात् उसकी उपासना को प्राप्त होकर इन गुणों वा शक्तियों के लिए उसकी स्तुति व प्रार्थना करनी है। इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने का नाम ही ईश्वर की उपासना है और यही संसार विश्व में सर्वश्रेष्ठ उपासना है। ईश्वर की उपासना से पूर्व एक महत्वपूर्ण कार्य यह करना आवश्यक है कि हमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करना है। यह ज्ञान वेदाध्ययन, ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों 4 ब्राह्मण-ग्रन्थ, 6 दर्शन, 11 उपनिषद्, मनुस्मृति, चरक व सुश्रुत आदि आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थ, वाल्मीकि रामायण व व्यासकृत महाभारत सहित महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने से प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन के बाद ईश्वर की उपासना करना सरल हो जाता है और इच्छित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। माता-पिता, अन्य विद्वानों व महिमाशाली व्यक्तियों की उपासना करना सरल है जिसे हम अपने माता-पिता व बड़ों से जान सकते हैं व सभी जानते ही हैं।

 

मनुष्य को सभी उपासनाओं में श्रेष्ठ ईश्वर की उपासना करनी है जिससे वह मनुष्य जीवन के लक्ष्य को जानकर व उसके अनुरुप साधन व उपाय कर ईश्वर को प्राप्त होकर ज्ञान, बल व ऐश्वर्य आदि धनों को प्राप्त कर अपने जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सके। ईश्वर की उपासना के लिए ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना अनिवार्य है अन्यथा हम मत-मतान्तरों व कृत्रिम अज्ञानी गुरुओं के चक्र में फंस कर अपने इस दुर्लभ मानव जीवन को नष्ट कर सकते हैं व अधिकांश कर रहे हैं। अतः हमें मत-मतान्तरों में न फंस कर उनसे दूरी बनाकर ईश्वर प्रदत्त वेद और उस पर आधारित सत्य वैदिक साहित्य को पढ़कर ही जानने योग्य सभी प्रश्नों के उत्तर जानने चाहिये और उनको स्वयं ही तर्क व वितर्क की कसौटी पर कस कर जो अकाट्य मान्यता, युक्ति व सिद्धान्त हों, उसी को स्वीकार कर उसका आचरण, उपदेश व लेखन आदि के द्वारा प्रचार करना चाहिये।

 

हमें यह तो ज्ञात हो गया कि हमें मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ धन वा रत्न ज्ञान व कर्मों की प्राप्ति के लिए ईश्वर की उपासना करनी है, परन्तु ईश्वर उपासना की सत्य व प्रभावकारी तथा लक्ष्य को प्राप्त कराने वाली विधि क्या है, इस पर भी विचार करना है। यद्यपि यह विधि हमारे पास उपलब्ध है फिर भी हम उस तक पहुंचने के लिए भूमिका रुप में कुछ विचार करना चाहते हैं। ईश्वर की उपासना करने के लिए हमें ईश्वर के पास बैठना है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से सदा-सर्वदा सबको प्राप्त है और इस कारण से हर क्षण ईश्वर व सभी जीवात्माओं की ईश्वर के साथ उपासना सम्पन्न हो रही है। यह उपासना तो है परन्तु यह ज्ञान व विवेक रहित उपासना है अतः इसका परिणाम कुछ नहीं निकलता। हमारे शरीर ने ईश्वर ने हमें बुद्धि व मन दिया है। मन एक समय में एक ही विषय का चिन्तन कर सकता है, दो व अधिक का नहीं। हम प्रायः दिन के 24 घंटे ससार वा सांसारिक कार्यों से जुड़े रहते है, अतः संसार, समाज व परिवार की उपासना ही कर रहे होते हैं। ईश्वर की उपासना के लिए हमें इन उपासनाओं से स्वयं को पृथक कर अपने मन को सभी विषयों से हटा कर केवल और केवल ईश्वर पर ही केन्द्रित करना होता है। मन चंचल है अतः मन को साधने अर्थात् उसे ईश्वर के गुणों व कर्मों में लगाने अर्थात् उनका ध्यान करने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। नियत समय पर प्रातः सायं अभ्यास करने से मन धीरे-धीरे ईश्वर के गुणों व स्वरुप में स्थिर होने लगता है। इसके लिए शरीर का स्वस्थ होना और मनुष्य का अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, वेद व सत्य वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान से युक्त जीवन व्यतीत करना भी आवश्यक है। इसकी अनुपस्थिति में हमारा मन ईश्वर में निरन्तर स्थिर नहीं होता व रहता। अतः योगदर्शन का अध्ययन कर इस विषय में विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुरुप जीवन व्यतीत करना चाहिये। ऐसा करने पर जब हम ईश्वर की उपासना के लिए आसन में स्थित होकर ईश्वर के गुणों व कर्मों के ध्यान द्वारा उपसना करेंगे और ऐसा करते हुए उससे जीवन को श्रेष्ठ मार्ग में चलाने और गलत मार्ग से हटाने की प्रार्थना सहित सभी दुर्गुण, दुव्यस्न और दुःखों को दूर करने और जो कुछ भी हमारे लिए श्रेष्ठ और श्रेयस्कर गुण-कर्म और स्वभाव हैं, उनको प्रदान करने की प्रार्थना करेंगे तो हमारी प्रार्थना व उपासना निश्चय ही सफल होगी। ईश्वर की इसी स्तुति-प्रार्थना-उपासना को यथार्थ रुप में सम्पादित करने के लिए महर्षि दयानन्द ने ‘‘सन्ध्योपासना विधि लघु ग्रन्थ की रचना की है जो आकार में लघु होने पर भी मनुष्य के जीवन के लक्ष्य को पूरा करने में कृतकार्य है। इसका अध्ययन कर व इसके अनुसार ही सन्ध्योपासना अर्थात् ईश्वर का भली-भांति ध्यान व उपासना सभी मनुष्यों को करनी चाहिये और अपने जीवन को सफल करना चाहिये। यह सन्ध्याविधि वेद व ऋषि-मुनियों के प्राचीन ग्रन्थों पर आधारित है। महर्षि दयानन्द जी के बाद इस संध्योपासनाविधि में विद्वानों द्वारा कहीं कोई न्यूनता व त्रुटि नहीं पाई गई और न भविष्य में इसकी सम्भावना ही है। अनेक पौराणिक विद्वानों ने भी इस विधि को अपनाया है। अतः स्तुति, प्रार्थना व उपासना के ज्ञान व विज्ञान को जानकर सभी मनुष्यों को एक समान विधि, वैदिक विधि से ही ईश्वर की उपासना करने में प्रवृत्त होना चाहिये जिससे लक्ष्य व आशानुरुप परिणाम प्राप्त हो सके। अशिक्षित, अज्ञानी साधारण बुद्धि के लोग, जो उपासना को ज्ञान, चिन्तनमननध्यान पूर्वक सश्रम नहीं कर सकते, वह गायत्री मन्त्र के अर्थ की धारणा सहित एक मिनट में 15 बार मन में बोल कर उपासना कर किंचित लाभान्वित हो सकते हैं। यह कार्य दिन में अनेक अवसरों पर सम्पन्न किया जा सकता है। यह भी सरलतम अल्पकालिक उत्तम उपासना ही है जो भविष्य में दीर्घावधि की उपासना की नींव का काम कर सकती है। मनुष्य जीवन में ईश्वर को प्राप्त करने का उपासना ही एक वैदिक व सत्य मार्ग हैं जिससे सभी को लाभ उठाना चाहिये। ओ३म् शम्।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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आत्म-चिन्तन और मनन – रमेश मुनि

 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।

क्रोधाद् भवति समोहः समोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

– (गीता 2-62,63)

शराबी आदमी शराब पी कर गिरता है। वह खड़ा होना, ठीक ढंग से चलना चाहता है, किन्तु नहीं हो पाता, ठीक ढंग से नहीं चल पाता। इस अवस्था में वह आदमी नहीं रह जाता- यह उसकी करुणाजनक स्थिति होती है। वह शरीर से उत्तम है, सुन्दर कपड़े पहने हुए है, किन्तु मदिरा के मस्तिष्क में पहुँच जाने के कारण बुद्धि बिगड़ जाती है, बुद्धि में अन्तर आ जाता है। इसी से सन्तुलन बिगड़ जाता है, जिसके कारण वह चलने के लिए उठता है, किन्तु गिर पड़ता है, फिर उठता है फिर गिर पड़ता है, इसी प्रकार की स्थिति बनी रहती है। संसार में हम सब की भी ऐसी स्थिति प्रायः बनी रहती है। सांसारिक विषयों की इच्छाओं के  प्रभाव के कारण सभी का सन्तुलन बिगड़ा रहता है, उठना-गिरना, उठना-गिरना सभी में होता रहता है, सभी में ऐसी स्थिति चलती रहती है। ऐसी स्थिति के कारण ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि दोष प्रबल हो जाते हैं, जिस कारण व्यक्ति छल, कपट, ऊँच, नीच करता रहता है। सदा एक बुद्धि को बनाए नहीं रख सकता, जिससे शराबी की तरह पगलाया रहता है। ईश्वर और आत्माएँ नित्य हैं, जबकि संसार अनित्य है, सदा रहने वाला नहीं है। इस तत्त्व को वह या तो जानता ही नहीं, यदि जानता भी है तो इसे मानता नहीं है और विषयों के प्रभाव के कारण सांसारिक पदार्थों को नित्य मान कर अपना व्यवहार करता है।

ईश्वर ने मानव के लिए अत्युत्तम पदार्थ बुद्धि बनाई है, किन्तु अपने कर्मों या व्यवहार के कारण इससे वञ्चित हो जाता है। मानवपन तब सार्थक होता है, जब वास्तविकता को समझ कर आचरण ठीक कर समाधिनिष्ठ होगा, जिससे बुद्धि सात्विक होगी और शराबी के तरह का भाव समाप्त हो जाएगा। शराबी यदि अपने व्यवहार को ठीक नहीं करता तो उसका जीवन दुःखमय रहता है, इसी प्रकार सामान्य मानव भी विषयों के नशे में रहेगा तो जीवन दुःखमय बना रहेगा। जिस प्रकार शराबी की उस अवस्था को देख हम उसे दया का पात्र मानते हैं, इसी प्रकार अपने को भी दया का पात्र मानना चाहिए। मानव जीवन का लक्ष्य यह है कि विशेष उपलधि से अपने को वञ्चित देखकर हमें ग्लानि अनुभव करनी चाहिए और दोष को दूर करना चाहिए। शराबी के मन में खड़े होने, ठीक प्रकार से चलने का प्रयास करके अपने आपको अच्छा दिखाने की भावना होती है। वह प्र्रयास से अपने समान को सुरक्षित करना चाहता है, किन्तु बुद्धि बिगड़ने से नहीं कर पाता। यही स्थिति हमारी भी है। हम दिखाना चाहते हैं कि मैं जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं, लेकिन वह काम गलत होता है।

योगी विवेकी जानता है कि आम आदमी को ऐेसी हालत में देख कर ईश्वर हमें उस शराबी की तरह का समझता है। इस अवस्था को उत्पन्न करने का मूल कारण हमारी इच्छाएँ हैं (योगदर्शन के अनुसार वृत्तियाँ)। इन्हें हटाने का प्रयास करें। यदि हम अपनी इच्छा को रोक लेते हैं तो वृत्तियाँ स्वयं रुक जाएँगी, इच्छा बढ़ने से चञ्चलता के कारण वृत्तियाँ, प्रवृत्तियाँ बढ़ जाएँगी, जीवन दुःखमय हो जाएगा।

न्याय दर्शन सूत्र (4-2-2)- ‘‘दोष निमित्तं रूपादयो विषयाः संकल्पकृताः’’ अर्थात् मिथ्या इच्छाओं से उत्पन्न रूप, रस आदि पाँच विषय राग, द्वेष आदि दोषों को उत्पन्न करते हैं। मिथ्या इच्छाओं को समाप्त करके रूपादि विषयों के प्रति आसक्ति को दूर करके शराबी के व्यवहार से बच सकते हैं।

आनन्दमयोऽयासात् (वेदान्त 1-1-12)

परमात्मा आनन्द स्वरूप है। अर्न्तदृष्टि से परमात्मा का अयास करने से, यम-नियमों का अनुष्ठान, पालन करने से ईश्वर की अनुभूति होती है।

जब इच्छा के साथ भिन्न-भिन्न विषय जुड़ते जाते हैं तो कामनाएँ जोर मारने लगती हैं। जब इच्छा शरीर को प्राप्त करने की हो तो यह काम कहलाती है। इसमें यदि दूसरा व्यक्ति प्रतियोगी है और समान स्तर का है तो उससे ईर्ष्या। यदि वह बाधा करता है तो द्वेष और यदि प्रतियोगी निर्बल हो तो उसे मारने या नष्ट करने की प्रवृत्ति बन जाया करती है।

इच्छा यदि अनुकूल विषय से जुड़ गई तो राग बन जाती है, वही अनुभूति बढ़ने से प्रीति या प्रेम कहलाती है। इच्छाएँ लगातार बढ़ती जाएँगी। यदि मिल गया तो फिर मिले। यदि इच्छा की पूर्ति में समय अधिक लगेगा तो व्याकुलता होगी या निराशा, यदि उपलधि समीप आ रही हैं तो आशा। इस प्रकार अलग-अलग अवस्थाएँ भावों को बदलती रहती हैं- कभी आशा, कभी निराशा, कभी क्र ोध, काी क्षमा आदि।

इसका निदान है इच्छा को पकड़ लें, रोक दें, चाहे बलपूर्वक या बुद्धिपूर्वक। यदि मन में धारणा बना ली कि मुझे कुछ नहीं चाहिए तो संकल्प करते ही मन में स्थिरता आएगी, शान्ति मिलेगी। यदि इच्छा बढ़ाते हैं तो क्लेश होगा। जब इच्छा हमारे ऊपर है तो क्लेश और जब हम क्लेश के ऊपर हैं तो शान्ति मिलेगी, आत्मा शक्तिशाली अनुभव करेगा। इस प्रकार कोई भी इच्छा करते समय बुद्धिपूर्वक विचार करेंगे, चिन्तन करेंगे तो क्लेश-दुःख से बच कर सुख शान्ति पाएँगे।

गीता ठीक कहती है- विषयों का निरन्तर सेवन करते रहने से व्यक्ति का क्रमशः पतन होता चला जाता है और निरन्तर साधना से व्यक्ति ऊर्ध्वमुखी होता चला जाता है। यही अध्यात्म है।           – ऋषि उद्यान, अजमेर।

सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास पर आपत्तियाँ और  उनका उत्तर – राजेन्द्र जिज्ञासु

 

सत्यार्थ प्रकाश प्रकरण पर अदुल गनी व खलील खान ने जो आक्षेप किया है, उसका विवरण निम्न प्रकार है। पहली बात तो यह आक्षेप ही गलत है, क्योंकि ऋषि दयानन्द कुरान पढ़ना या अरबी भाषा जानते ही नहीं थे।

शाह रफी अहमद देहलवी के उर्दू अनुवाद का जो अन्य मौलवियों ने देवनागरी या हिन्दी में अनुवाद किया है, स्वामी जी ने उसी को ही ज्यों का त्यों लिया है। अनुभूमिका में साफ लिखा है, यदि कोई कहे कि यह अर्थ ठीक नहीं है, तो उसको उचित है कि मौलवी साहिबों के तर्जुमों का पहले खण्डन करे, पश्चात् इस विषय पर लिखे, क्योंकि यह लेख केवल मनुष्यों की उन्नति और सत्यासत्य के निर्णय के लिए है। दो लोगों ने सत्यार्थ प्रकाश के चौदह समुल्लास का सुरा तहरीम 66 आयत 1 से 5 पर ऋषि ने दो किस्सा या कहानी है लिखा।

आक्षेपकर्ता ने यह कहानी कुरान में नहीं है, ऐसा लिखा तथा कहा- जब यह कहानी नहीं है कुरान में फिर दयानन्द ने क्यों लिखा? अतः दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये। विरोध यही है।

इसका उत्तर है कि कुरान की आयतों के उतरने का कारण है जिसे शानेनुजूल कहा जाता है, अर्थात् किस बिना पर यह आयत उतरी? या किस आधार पर यह आयत उतरी ? वजह क्या थी? इसे शानेनुजूल कहा जाता है।

तो सुरा तहरीम का शाने नुजूल के सभी अनुवाद कर्त्ताओं ने कुरान के फुटनोट में लिखा है, वह अनुवाद उर्दू, हिन्दी व अंग्रेजी सब में है, और विस्तार में बुखारी शरीफ हदीस, व शाही मुस्लिम हदीस में प्रत्येक सुरा का शानेनुजूल लिखा है।

अतः इन आयतों में स्वामी जी ने दो कहानी है लिखा है, परन्तु कहानी को स्वामी जी ने उद्धृत नहीं किया, मैं उन दोनों क हानी को लिखता हूँ उमूल मोमेनीन (मुसलमानों की मातायें) अर्थात् हजरत मुहमद सःआःवःसः की सभी बीबीयाँ, सभी मुसलमानों की मातायें हैं, विधवा होने पर भी वह किसी से निकाह नहीं कर सकतीं, और न कोई मुसलमान उनसे निकाह कर सकता, क्योंकि माँ जो ठहरीं। हजरत जैनब नामी बीवी के पास हजरत साहब शहद पीने को जाया करते थे। हुजूर की सबसे कमसिन पत्नी हजरत आयशा ने एक और पत्नी हजरत हफसा दोनों ने परामर्श कर पति हजरत मुहमद साहब से कहा कि दहन मुबारक से मगाफीर की बू आती है, चुनान्चे आपने क्या खाया?

जवाब में हुजूर ने कहा- अगर शहद पीने से बू आती है, तो आइन्दा मैं शहद का इस्तेमाल नहीं करुँगा। पहली कहानी यह है, और आयत का शानेनुजूल यह है। (मैंने कसम खाली है, तुम किसी से मत कहना)

दूसरी कहानी है कि हजरत साहब ने एक काम को न करने की कसम खा लिया तो अल्लाह ने यह आयत उतारी- ऐ नबी क्यों हराम करते हो उस चीज को? जिसे अल्लाह ने हलाल किया है तुहारे लिए, अपनी बीविओं के खुशनुदियों के लिए (प्रसन्न के लिए)। हजरत हफसा के घर गए, वह मईके गई भी तो हुजूर ने मारिया, कनीज, के साथ एखतलात किया, हफसा ने दोनों को कमरे में देख लिया- हुजूर ने कसम खाली थी न करने को। तफसीर हक्कानी – पृ.125

एक बार हजरत साहब ने एक पत्नी हफसा से कहा, दूसरों से कहने को मना किया पर हजरत हफसा ने हजरत आयशा नामी पत्नी से कह दी । जिस पर अल्लाह ने पत्नियों को डाँट लगाते हुए कहा कि नबी अगर तुम लोगों को तलाक दें, तो उनकी पत्नियों की कमी नहीं, जिसे कुरान में अल्लाह ने कहा।

असा रबुहू इन तल्लाका ‘कुन्ना अई’ युब दिलाहू अजवाजन खैरम मिन कुन्ना मुसलिमातिम मुमिनातिन, कानेतातिन, तायेनातिन, सायेहातिन, सईये बातिय वा अबकरा। तहरीम – आ. 5

इन दो कहानी का ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में उल्लेख किया है, जो कुरान तथा हदीस में आयत का शानेनुजूल ही इस प्रकार है।

कुरान का अंग्रेजी अनुवादक पिक्यल व एन.जे. दाऊद, हिन्दी अनुवाद नवल किशोर ने भी लिखा है तथा उर्दू अनुवादकों ने भी लिखा है। अवश्य यह लिखना मैं युक्ति-युक्त समझता हूँ उर्दू अनुवादक ने लिखा यह किस्सा पादरियों ने अपने मन से मिला दिया है।

विचारणीय बात है कि ऋषि दयानन्द ने इसी आयत की समीक्षा में लिखा है, अल्लाह क्या ठहरा मुहमद साहब के घर व बाहर का इन्तेजाम करने वाले मुलाजिम ठहरा?

जरा सोचे तो सही कि कुरान का अल्लाह समग्र मानव मात्र का होने हेतु मानव मात्र के लिए उपदेश होना था कुरान का उपदेश।

किन्तु मानव मात्र का उपदेश तो क्या है, नबी के पति-पत्नी का घरेलू वार्तालाप ही अल्लाह का उपदेश है। समग्र कुरान में इस प्रकार अनेक घटनाएँ हैं। यहाँ तक कि नबी पत्नी बदचलन है या नहीं हैं, कुरान में अल्लाह गवाही दे रहे हैं। सुरा नूर-24 आयत 6 पर देखें।

बल्लजीना यरमूना अजवाजहुम व लम या कुल्लाहुम शुहदाऊ इल्ला अन फुसुहुम फ शहादतो अहादेहिम अरबयो शहादतिम बिल्ला हे इन्नाहू लन्स्सिादेकीन।

अब समीक्षा में ऋषि दयानन्द जी ने अपना विचार ही तो अभिव्यक्त किया है, न कि कुरान में यह क्यों लिखा है, यह पूछा?

अपने विचार अभिव्यक्त करने की छूट भारतीय संविधान में सबको है, और मानव बुद्धि परख होने हेतु किसी चीज को मानने के लिए बुद्धि का प्रयोग तो करना ही चाहिये। दयानन्द तो दोषी तब होते, जब अपनी मनमानी बातों को कुरान की आयतों के साथ मिलाते? उन्होंने तो मात्र कुरान की बातों को सामने रखा।

आक्षेप कर्ता ने सुरा कदर जो संया 97 है आयत 1 से 4 को लिखा है, तथा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप किया है, कुरान में क्या कहा वह प्रथम प्रस्तुत करता हूँ।

तहकीक नाजिल किया हमने कुरान को बीच रात कदर के, और क्या जाने तू के क्या है रात कदर की, रात कदर की बेहतर है, हजार महिने से, उतरते हैं फरिश्ते और रूह पाक अपने परवार दिगार के  हुक्म से, हजार चीजों को लेकर अपने वास्ते, सलामती है वह तुलुय हो फजर। आक्षेप कर्ता को चाहिये था, दयानन्द को गभीरता से पढ़कर कुरान में सभी प्रश्नों को जानने का प्रयत्न करना, क्योंकि दयानन्द ने जो प्रश्न किया है, कुरान से उसका जवाब कुरानविदों के पास नहीं है।

कुरान में कई जगह कहा गया कि कुरान को बरकत वाली रात में उतारा, यहाँ तक कि उल्लहा ने कसम खाकर कहा। एक रात में कुरान को उतारा, किन्तु पूरी कुरान की आयतों को दो भागों में बाँटा गया, मक्की व मदनी में, अर्थात् प्रत्येक सुरा के प्रथम में लिखा है कि यह सुरा मक्का में और यह मदीना में उतारी गई आदि। दयानन्द का कहना सही है कि समग्र कुरान एक ही बार में उतरी? या कालान्तर में? क्योंकि इसका विरोध कुरान से ही होता है।

जो पवित्र आत्मा हजरत जिब्राइल को उतरना इस आयत में माना गया जो ऋषि ने वह पवित्र आत्मा कौन है लिखा, अल्लाह तक पहुँचने में जिब्राइल को पचास हजार साल लगते हैं, तो कुरान को उतरने में कितने वर्ष लगे?

सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप कर्ताओं ने सुरा बकर-संया 2 आयत 25 से 37 तक का उल्लेख किया है।

सुरा बकर आयत 25 में लिखा- बशारत हैं उनके लिए जो नेक अमल करेंगे, अल्लाह उनको जन्नत में दाखिल करायेंगे, जिसके नीचे नहरे हैं, तरह-तरह के मेवे खाने को मिलेंगे, मेवे (फल) देखने में एक जैसा होगा पर स्वाद अलग-अलग है। खिलाने वाला कहेगा- अरे इसे खाकर देखें इसका स्वाद ही अलग है और वहाँ हुर गिलमों, पवित्र शराब तथा परिन्दों का गोश्त का कबाब भी खाने को मिलेगा, यह प्रमाण पूरी कुरान में अनेक बार आया है। यहाँ तक कि हम उमर औरतें, दिल बहलाने वाली औरतें, बड़ी-बड़ी आँख वाली जैसे मोती का अण्डा, रेशम का कपड़ा पहनकर जिससे तन दिखाई दे सोने के कंगन पहन कर सामान परिवेशन करेंगी- बहुत जगह कुरान में लिखा है।

ऋषि दयानन्द जी ने मात्र जानकारी लेनी चाही कि दुनिया में स्त्री, पुरुष जन्म लेते व मरते हैं, पर जन्नत में रहने वाली सुन्दर स्त्रियाँ अगर सदाकाल वहाँ रहती हैं? तो क्या वह एक जगह रहते -रहते ऊब नहीं जाती होंगी? जब तक कयामत की रात नहीं आवेगी, तब तक उन बिचारियों के दिन कैसे कटते होंगे?

मेरे विचारों से सत्यार्थ प्रकाश में दर्शाये गए इन्हीं प्रश्नों को तीस हजारी कोर्ट से न पूछ कर उस्मानगनी व खलील खान को चाहिये था- डॉ. मुति मुकररम से ही पूछते। अब मुति साहब ने इन लोगों को जवाब देने के बजाय सुझाव दे डाला- कोर्ट में जा कर पूछो कि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यह क्यों लिखा?

किन्तु दयानन्द ने जो कुछाी लिखा है, वह कुरान में पहले से ही मौजूद है। अगर कुरान में यह बात न होती तो ऋषि दयानन्द यह न पूछते कि उन सुन्दरी स्त्रियों का एक जगह रहने में मन में घबराहट होती या नहीं? जवाब तो कुरान विचारकों को देना चाहिये। सुरा बकर-आयत 31 से 37 में सत्यार्थ प्रकाश पर जो आरोप है, वह भी निराधार है। अल्लाह ने आदम को सभी चीजों का नाम बता दिया, और फरिश्तों से पूछा कि अगर तुम सच बोलने वाले हो, तो उन चीजों का नाम बताओ। पर वह तो सच बोलने वाले ही थे, तो कहा हम तो उतना ही जानते हैं जितना तू ने हमें सिखाया।

इतने में अल्लाह ने आदम से पूछा, तो वह सभी नाम बता दिया। फिर अल्लाह ने कहा- हम बता नहीं रहे थे तुहें? जाव इन्हें सिजदा करो।

सत्यार्थ प्रकाश में लिखा- ऐसे फरिश्तों को धोखा दे कर अपनी बड़ाई करनााुदा का काम हो सकता है?

इसमें दयानन्द की क्या गलती? अल्लाह ने कुरान में कहा, व अल्ला मा आदमल असमा आ कुल्लाहा सुमा अराजा हुम अललमल इकते।

दयानन्द का कहना है कि जिस फरिश्ते ने आसमानों, और जमीनों में अल्लाह की इतनी इबादत की, अल्लाह ने जिसे आबिद, जाबिद, शाकिर, सालेह, खाशेय आदि नामों की उपाधि दी, और चीजों का नाम नहीं बताया, अब उसी की लाई गई मिट्टी से आदम को बनाकर सभी नाम बताना? क्या यह अल्लाह का धोखा नहीं?

क्या यह अल्लाह का पक्षपात नहीं? मात्र दयानन्द ही क्यों, कोईाी बुद्धि परख मानव इसे दगा ही मानेगा। क्या यह अल्लाह का काम हो सकता है?

अवश्य कुरान में इसकी चर्चा और भी कई जगहों पर हैं, जैसा संया 7 अयराफ में 12 से 19 तक लिखा है, और यहाँ तो उस फरिश्ते ने अल्लाह के सामने अंगुली नचा कर कहा, काला फबिमा अगवई तनी ला अकयूदन्नालहुम सिरातकल मुस्ताकीम-गुमराह किया तू ने मुझको, मैं भी उसे गुमराह करूँगा जो तेरे सीधे रास्ते पर होगा उसे आगे से पीछे से, दाँई और बाँई से उसे गुमराह करूँगा।

अब देखें अल्लाह ने उस शैतान को रोक नहीं पाया, और कहा- जो मेरे रास्ते पर होगा उसे तू गुमराह नहीं कर पायगा। शैतान ने कहा- मैं उसे ही गुमराह करूँगा जो तेरे रास्ते पर होगा, और आदम को गुमराह कर दिखाया।

यह सभी बातें कुरान में ही मौजूद है कि अल्लाह अगर शैतान के पास निरुत्तर हो और कोई मानव अपनी अकल पर ताला डाल कर सत्य बचन महाराज कहे तो इसमें ऋषि दयानन्द की क्या गलती है?

सुरा-2 आयत 37 पर जो आक्षेप है वह देखें, अल्लाह ने कहा- आदम तुम अपने जोरू के साथ वाहिश्त में रहो जहाँ मर्जी, जो मर्जी खाब पर नाजिदीक न जाव उस दरत के गुनहगार हो जावगे, और निकाल दिये जावगे यहाँ से- व कुलना या आदमुस्कुन अनता व जाब जुकल जन्नाता आदि

अब ऋषि दयानन्द ने जो लिखा- देखिये, खुदा की अल्पज्ञता! अभी तो स्वर्ग में रहने को दिया और फिर उसे कहा निकलो, क्या खुदा नहीं जानता था कि आदम मेरा आदेश का उल्लंघन कर उसी फल को खायेगा, जिसे मैंने मना किया? स्वामी जी ने आगे लिखा कि जिस वृक्ष के फल को आदम को खाने से मना किया, आखिर अल्लाह ने उसे बनाया किसके लिए था? यह सभी प्रश्न तो दयानन्द का है, पर उल्टा दयानन्द के अनुयाइयों से पूछा जा रहा है कि दयानन्द ने अपने सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा? यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है।

जहाँ तक अल्लाह की अल्पज्ञता की बात है, वह तो कुरान से ही सिद्ध हो रही है, अल्लाह को पता नहीं था कि शैतान आदम को बहका देगा तथा शैतान हमारे हुकम का ताबेदार नहीं रहेगा आदि। दूसरी बात है कि अल्लाह ने आदम को बताया कि शैतान तुहारा खुला दुश्मन है, उसके बहकावे में मत आना।

और इधर शैतान को वर दे दिया कयामत के दिन तक जिन्दा रहने का, हर मानव के नस, नाड़ी तक पहुँचने का, व सीधे रास्ते पर चलने वालों को गुमराह (पथभ्रष्ट) करने का, अल्लाह ने ही मुहल्लत दी। ऋषि दयानन्द को इसीलिए लिखना पड़ा- यह काम अल्लाह का नहीं, और न ही यह उसकी ग्रन्थ की हो सकती है।

यहाँ अल्लाह ने चोर को चोरी करने व गृहस्थ को सतर्क रहने वाली बात की है। इसका प्रमाण भी कुरान के दो स्थानों पर मौजूद है, जैसा-सुरा इमरान आयत 54 तथा अनफाल-आ030- व मकारू व मकाराल्लाहू बल्लाहू खैरुल मारेकीन।

अर्थ- मकर करते हैं वह, और मकर करता हूँ मैं, और मैं अच्छा मकर करने वाला हूँ। ध्यान देने योग्य बात है कि मकर का अर्थ है धोखा और अल्लाह से अच्छा धोखा करने वाला कोई नहीं, जो अल्लाह खुद कर रहे हैं अपनी कलाम में, अब अल्लाह व अल्लाह की कलाम की दशा क्या होगी? ऋषि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में यही तो जानकारी इस्लाम के शिक्षाविदों से लेना चाह रहे हैं। अब प्रश्नों का जवाब देने के बजाय कोई कहे कि सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा,उसका तो ईश्वर ही मालिक है। एक बात और भी जानने की है, ऊपर लिख आया हूँ शानेनुजूल को, कि आयत उतारने का कारण क्या है। इसका मतलब भी यह निकला- अल्लाह सर्वज्ञ नहीं है, जो ऋषि ने अनभिज्ञ लिखा है। अगर कारण नहीं होता, तो अल्लाह आयत नहीं उतरते। कारण हो सकता है, यह ज्ञान कारण से पहले अल्लाह को नहीं था।

कुरान में ही अल्लाह ने कहा- ला तकर बुस्सलाता व अनतुम सुकाराआ। अर्थ- न पढ़ो नमाज जब कि तुम शराब की नशे में हो।

अर्थात् शराब पीकर नमाज नही पढ़नी चाहिये।

अब इसका शाने नुजूल देखें, एक सहाबी (मुहमद साहब का साथी) शराब पीकर नमाज पढ़ा रहे थे, नशे की दशा में कुरान की आयतों को पढ़ने का क्रम भंग किया, तो दूसरे ने हजरत से शिकायत की, तो अल्लाह ने यह आयात जिब्राइल के माध्यम से उतारी।

यह आयत उतरते ही सभी अरबवासी जो घर-घर शराब बनाते थे, सब ने शराब बहादी नालाओं में शराब बहने लगा, आदि।

इससे यह पता चला कि शराब पीने से नशा होता है, यह ज्ञान अल्लाह को नहीं था वरना शराब तो प्रथम से ही हराम होना था? अगर वह सहाबी कुरान पढ़ने का क्रम नशा में भंग न करते, तो अल्लाह को यह आयत उतारना ही नहीं पड़ता।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यही तर्क पूर्ण बातें की हैं, अगर कोई अक्ल में दखल न दे, या अक्ल में ताला डालना चाहे तो ऋषि दयानन्द की क्या गलती है? दयानन्द ने साफ कहा है कि हठ और दुराग्रह को छोड़ मानव मात्र का भलाई जिससे हो, सत्य के खातिर काम करना चाहिये, मानव बुद्धि परख होने हेतु प्रत्येक कार्य को बुद्धि से करना चाहिये, क्योंकि इसी का ही नाम मानवता है। सुरा 2 आयत 87 को अगर ध्यान से पढ़ते तो शायद आक्षेप न कर पाते, क्योंकि सत्यार्थ प्रकाश में ऋषि दयानन्द ने कुरान में कही गई बातों को ज्ञान विरुद्ध तथा सृष्टि नियम विरुद्ध सिद्ध किया है। हजरत मूसा को अल्लाह ने अगर किताब दी, उसमें क्या कमी थी जो पुनः ईसा को अलग किताब देनी पड़ी? उससे पहले दाऊद को भी किताब दी थी, उसमें कौन-सी बातों को अल्लाह कहना भूल गये थे, जो अन्तिम में कुरान के रूप में हजरत मुहमद को अल्लाह ने दिया?

अल्लाह का ज्ञान पूर्ण है अथवा अधूरा? क्योंकि परमात्मा का ज्ञान पूर्ण होना आवश्यक है और सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वभौमिक होना चाहिये। कुरान इसमें खरा नहीं उतरता। हजरत मूसा ने मौजिजा दिखाया और नबिओं ने भी मौजिजा दिखाया, मौजिजा का अर्थ है चमत्कार। अगर चमत्कार तब होते थे, तो अब क्यों नहीं?

अगर चमत्कार से हजरत मरियम कुँवारी अवस्था में हजरत ईसा को जन्म देना मान लिया जाय, तो क्या सृष्टि नियम विरुद्ध नहीं होगा? कोई मेडिकल साइंस का जानने वाला इसे सही ठहरा सकता है? इसे अल्लाह ने सुरा अबिया-आयत-88 में क्या कहा, देखें- वल्लाति अहसनत फरजहा फनाफखना फीहा मिर रूहिना वज अलनाहा वबनहा

– कि अल्लाह ने मरियम के शर्मगाह (गुप्तइन्द्रियों) में फूँक मार दिया और मरियम गर्भवती हो गई।

कोई भी बुद्धिमान इस बात को ईश्वरीय ज्ञान तथा ईश्वरीय कार्य कैसे मान सकते हैं? ऋषि दयानन्द ने लिखा है, भोले-भाले लोगों को बहकाया गया है।

अगर ऋषि दयानन्द अपने कार्यकाल में इस पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश को न लिखते, तो आर्य जाति को बचने का रास्ता बन्द था। सारा भारत कुरान का मानने वाला बन जाता, या बलात् बना दिया जाता। दयानन्द का बहुत बड़ा उपकार है इस पुस्तक को लिखने का।

गुरुदत्त विद्यार्थी ने कहा- अगर सारी सपत्ति बेचकर भी सत्यार्थ प्रकाश खरीदना पढ़े तो भी इसका मूल्य कम है। मैं इसे अवश्य खरीदता।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

‘‘आर्य भारत में बाहर से आये’’ : यह मान्यता देशद्रोह है : डॉ धर्मवीर

 

लोकसभा में संविधान दिवस के प्रसंग में बहस करते हुए मल्लिकार्जुन खडगे ने कहा- आर्यों ने भारत पर आक्रमण करके हम लोगों को दलित और शोषित बनाया। हम आपके अत्याचारों को पिछले पाँच हजार वर्षों से सह रहे हैं। हम आपका मुकाबला करते रहेंगे। खडगे ने भाजपा को बाहर से आकर इस देश पर राज्य करने वाली पार्टी बताया। इस बात की गभीरता को आर्यसमाज के अतिरिक्त कोई नहीं समझ सकता। संसद सदस्य स्वामी सुमेधानन्द बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने खडगे के वक्तव्य का लिखित में विरोध किया और कार्यवाही से निकलवा दिया। हमें खडगे को भी धन्यवाद देना चाहिए, जिन्होंने इस देशद्रोही विचार की गभीरता को संसद में अपने वक्तव्य के माध्यम से प्रकाशित किया।

बहुत वर्ष पूर्व भी एंग्लो इण्डियन राज्यसभा सदस्य ने इस प्रकार का प्रश्न उठाया था, परन्तु उस समय किसी ने इस विचार की घातकता को समझा नहीं था। उस समय मान्य सदस्य ने सदन में कहा था- भारतीयों को अंग्रेजी भाषा से द्वेष नहीं करना चाहिए, क्योंकि संस्कृत भी भारतीयों के लिये विदेशी भाषा है। यह भारत में बाहर से आये आर्यों की भाषा है। जब इस देश के लोग संस्कृत से प्रेम करते हैं, तो फिर विदेशी भाषा के नाम पर अंग्रेजी से द्वेष क्यों करते हैं? आर्यों का भारत में बाहर से आकर बसने का विचार अंग्रेजों के मस्तिष्क की उपज है। भारत पर आक्रमण मुसलमानों ने भी किया और देश को पराधीनाी किया था। उन्होंने यहाँ की सयता, संस्कृति को बलपूर्वक नष्ट करने का प्रयत्न किया। अंग्रेजों ने इस देश को दास बनाया और यहाँ की सयता, संस्कृति को बुद्धिपूर्वक नष्ट करने की योजना बनाकर कार्य किया। मल्लिकार्जुन खडगे इस षड्यन्त्र के शिकार बने हैं।

अंग्रेज आज भी इस देश को खण्डित करने के प्रयासों में लगे हैं। प्रमुख रूप से इस्लाम और ईसाइयों के माध्यम से धर्म परिवर्तन द्वारा तथा दूसरे रूप से माओवादी हिंसा फैलाकर देश में अराजकता उत्पन्न करने के प्रयासों द्वारा व्यापार व आधुनिकता के नाम पर समाज में नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के नाश करने के उपायों द्वारा तथा भारत में आर्य- द्रविड़ संघर्ष के काल्पनिक सिद्धान्त का उपयोग कर पाश्चात्य योरोप अमेरिका की शक्तियाँ चर्च एवं व्यापार द्वारा हिंसा, असन्तोष फैलाकर फिर से ईसाइस्तान, इस्लामिस्तान, द्रविड़स्तान तथा माओवाद के नाम से नक्सलियों के राज्य के रूप में इस देश के विभाजन का प्रयास अपनी पूरी शक्ति से करने में लगे हुए हैं। अन्य प्रयासों की चर्चा का प्रसंग यहाँ नहीं है। जहाँ तक खडगे का प्रश्न है, इसे तो स्वतन्त्रता के साथ ही समाप्त किया जाना चाहिए था, परन्तु गत साठ वर्ष के शासन ने खडगे की पार्टी का ही समर्थन किया, जो भारतीय परपराओं का, संस्कृति का और भाषा का नाश करने को ही देश की प्रगति का मूल मन्त्र समझती थी। इनकी दृष्टि में अंग्रेज और अंग्रेजी ही प्रगति के पर्याय हैं। परिणामस्वरूप हमारे शासन में आदिवासी जैसे शदों का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी शद का प्रयोग करना अपने आपको बाहर से आया स्वीकार करना। इन शदों के अर्थों को हमने आज तक समझा नहीं, इसी कारण अपनी रक्षा में इस मिथ्या मान्यता को स्थान दिया हुआ है। हमारे बच्चे आज भी यही पढ़ते हैं कि इस देश में आर्य बाहर से आये और यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ लोगों को पराजित कर दक्षिण में भगा दिया और अपना शासन स्थापित किया। इस मिथ्या मान्यता को इतना प्रचारित किया गया कि भारतीय संसद में कांग्रेस के नेता खडगे इस मान्यता के प्रवक्ता बन खड़े होने में अपना गौरव समझने लगे, अपने आपको द्रविड़ मूल और आर्य से भिन्न अनार्य मनाने लगे।

आज हमारे लिये एक अवसर आया है, जिसका लाभ उठाकर हमें अपनी शिक्षा से इस मान्यता को बहिष्कृत कर देना चाहिए तथा प्रशासन शदावली से आदिवासी जैसे शदों का प्रयोग निषिद्ध कर देना चाहिए। खडगे यदि आर्यों से भिन्न होते तो उनका नाम मल्लिकार्जुन नहीं होता। यदि खडगे भाजपा को विदेशी मानते हैं, तो वे श्रीमती सोनिया गाँधी को क्या कहेंगे, जिसके वे सेनापति बने हुए हैं? खडगे जी इस देश के नागरिक हैं, अपने देश से निश्चय ही प्रेम होगा, तो उन्हें इस आर्य-अनार्य सिद्धान्त और षड्यन्त्र को समझना चाहिए।

प्रथम बात किसी के लिये भी जानने की यह है कि आर्य-अनार्य शद जातिवाचक नहीं, गुणवाचक हैं, क्योंकि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् कहते हुए वेद कहता है- सपूर्ण रूप से आर्य बनो और सब को आर्य बनाओ। जब सबको आर्य बनाया जायेगा, तब खडगे जी अनार्य कैसे रह पायेंगे? आर्य-अनार्य शद अच्छे और बुरे के अर्थ में हैं। मनु कहते हैं- इस देश में आर्य और दस्यु अर्थात् अनार्य रहते हैं, क्या खडगे जी अपने को चोर, डाकू कहलाना पसन्द करेंगे? क्या चोर, डाकू, लूटेरों की कोई जाति होती है? क्या इनके लिये संविधान, कानून, पुलिस, होती है? फिर ऐसी निरर्थक विचारधारा के लिये खडगे जी अपने को उनका प्रतिनिधि कैसे कह सकते हैं? भारतीय संस्कृति, साहित्य, परपरा से आर्य वे हैं, जो लोग श्रेष्ठ परपरा के धनी हैं। वेद और वैदिक धर्म स्वीकार करते हैं, वे सभी आर्य है। कोई भी आर्य बन सकता है, किसी को आर्य कह सकते हैं। हमारी आर्य परपरा में एक पत्नी अपने पति को आर्य-पुत्र कहकर पुकारती है। पाश्चात्य लोगों ने आर्य-अनार्य सिद्धान्त की कपोल कल्पना की, जिसका उद्देश्य भारतीय समाज में विभाजन उत्पन्न करना था। आर्य-अनार्य का विचार, आर्य भारत में बाहर से आये हैं- यह सिद्धान्त विद्वानों, वैज्ञानिकों की दृष्टि में खण्डित हो चुका है, परन्तु योरोप-अमेरिकी पक्ष इसका पूरा उपयोग इस देश को बांट ने में करने में लगा हुआ है। इस षड्यन्त्र को सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने समझा था और उन्होंने अपने ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से खण्डन किया था। ऋषि दयानन्द ने लिखा- आर्यों का बाहर से भारत में आने का, भारतीय साहित्य के किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं मिलता। यदि आर्य बाहर से आकर भारत में बसे होते तो इतने बड़े ऐतिहासिक सन्दर्भ का उल्लेख उनके साहित्य में न हो, यह असभव है। किसी देश से आकर बसने की घटना उस समाज में निरन्तर स्मरण की जाती है। आज कोई पाकिस्तान से उजड़कर आया, कोई आक्रमणकारी के रूप में आया, दोनों का इतिहास मिलता है। समाज में कथायें मिलती हैं, परपरायें मिलती हैं, पुराने रीति-रिवाज, जीवन शैली के अंश मिलते हैं, क्या आर्यों की कोई परपरा किसी तथाकथित मध्य एशिया या किसी अन्य देश में मिलती है? क्या आर्यों की भाषा मौलिक रूप से किसी दूसरे देश में बोली जाती है या इतिहास में पाई जाती है? इतना ही नहीं, इतनी बड़ी जाति का संक्रमण एक दिन में तो नहीं हो सकता, उसके उस स्थान से चलकर यहाँ तक पहुँचने के मार्ग में उनके चिह्न, अवशेष तो मिलने चाहिए। यदि बाहर से चलकर भारत को आर्यों ने जीता था, तो क्या बीच के देश उन्होंने बिना जीते ही छोड़ दिये थे? यदि जीते थे तो आज वहाँ उनका अस्तित्व क्यों नहीं है, वहाँ उनका राज्य क्यों नहीं है? आर्यों के इतिहास, संस्कृति के अवशेष वहाँ क्यों नहीं पाये जाते?

ऋषि दयानन्द कहते हैं- भारतवर्ष में सबसे पहले आकर निवास करने वाले आर्य ही हैं। शास्त्रों की, ऋषि दयानन्द की मान्यता है कि जब इस पृथ्वी का निर्माण हुआ, सपूर्ण जलमय संसार में से पृथ्वी का जो भाग सबसे पहले जल से बाहर निकला, वह तिबत था तथा सबसे ऊँचा होने के कारण उसी भाग पर मनुष्यों की सृष्टि सबसे पहले हुई। जो मनुष्य वहाँ से उतरकर सबसे पहले भारत आये और जिन्होंने इस देश को बसाया, वे ही लोग आर्य कहलाये। शेष संसार में यहीं से लोगों का जाना हुआ है। बाहर से इस देश में आने की बात मनगढ़न्त, मिथ्या और षड्यन्त्रपूर्ण है। विश्व साहित्य में आर्यों का बाहर भारत में आना लिखा नहीं मिलता, हाँ विश्व के अनेक ग्रन्थों में जिनका पुराना इतिहास मिलता है, उनमें उनके पूर्वजों का भारत से आकर वहाँ निवास करना लिखा मिलता है। ईरान के इतिहास और धर्म ग्रन्थ जिन्द अवेस्ता में उनके पूर्वजों का भारत से जाकर ईरान में वास करने का उल्लेख मिलता है। जब कोई देश जाति किसी पर विजय प्राप्त करती है तो वह अपने उल्लास और हर्ष को प्रकाशित करने के लिये अनेक प्रकार के आयोजन करती है, उसे स्थायी बनाने के लिये इतिहास लिखती है। शिलालेख, ताम्र लेख, स्तूप, स्तभ, भवन, स्मारक बनाये जाते हैं, परन्तु पूरे भारत में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं मिलता, कोई चिह्न भी नहीं मिलता। इससे पता लगता है कि यह एक कपोल-कल्पना है, जो एक षड्यन्त्र के माध्यम से की गई है। इसके विपरीत ब्राह्मण ग्रन्थ, मनुस्मृति आदि प्राचीन ग्रन्थों में आर्यों के तिबत से भारत में आने, अनेक युद्ध जीतने आदि का विवरण मिलता है, परन्तु मध्य एशिया या किसी अन्य देश से भारत में आकर बसने का, यहाँ के मूल निवासियों को निकाल कर  उनका राज्य छीनने का कोई उल्लेख प्राचीन भारतीय शास्त्रों, साहित्य या इतिहास के ग्रन्थों में नहीं मिलता, अतः आर्यों द्वारा द्रविड़ों पर आक्रमण की कल्पना मिथ्या षड्यन्त्र मात्र है।

जिन्हें हम द्रविड़, दलित, शूद्र मान रहे हैं, वे किस अर्थ में आर्यों से भिन्न हैं? भारतीय हिन्दू समाज के सवर्ण-असवर्ण दोनों ही अंग हैं। दोनों के गोत्र एक से हैं, परपरायें, खान-पान, वस्त्र, आभूषण, पहनावा- सभी कुछ एक जैसा है। सभी के देवी-देवता, धर्मग्रन्थ, उपास्य, उपासना पद्धति- सब एक जैसे हैं। सभी राम, हनुमान, शिव, गणेश आदि की पूजा-उपासना करते हैं। व्रत, उपवास, संस्कार साी कुछ पूरे समाज का एक दूसरे से मिलता है। सपन्नता-निर्धनता के आधार पर सभी में परस्पर स्वामी-सेवक सबन्ध पाया जाता है, अतः समग्र रूप में समाज एक है। यदि कोई अन्तर है तो विद्या या अविद्या का, सपन्नता या निर्धनता का, अन्याय या न्याय का अन्तर और परिणाम देखने में आता है। यह सभी समाजों में स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है। इसका मूल कारण भारतीय समाज का जन्मना जाति स्वीकार करने का दुष्परिणाम है। यह अज्ञान, अविद्या, पाखण्ड, शोषण, सवर्ण-असवर्ण, जन्मना जाति, ऊँच-नीच, छुआछूत के परिणामस्वरूप, जिसका पाश्चात्य लोग लाभ उठाकर समाज में विरोध और द्वेष उत्पन्न करने का प्रयास कर रहे हैं। अंग्रेजों ने पं. भगवद्दत्त के पास भी अपना सन्देश वाहक भेजा था- वे अपनी पुस्तकों में लिख दें कि जाट लोग इस देश में बाहर से आर्य के रूप में आये हैं, परन्तु पण्डित जी ने दृढ़ता से इसका निषेध कर दिया। जहाँ आर्य विद्वानों ने निषेध किया, वहीं पर धन व प्रतिष्ठा के लोभी लोगों ने अंग्रेजों की इच्छानुसार लेखन भी किया।

इस षड्यन्त्र को ऋषि दयानन्द ने समझा था और इसका सप्रमाण प्रतिकार भी किया था। सामान्य रूप से आर्यावर्त्त की सीमा मनु के श्लोक ‘आसमुद्रात्’ से निष्पादित करते हैं, विन्ध्याचल से सतपुडा की ओर हिमालय के मध्य आर्यावर्त की सीमा पढ़ते हैं, परन्तु इसी श्लोक के अर्थ ऋषि दयानन्द पूर्व-पश्चिम पर्वत शृंखला के मध्य रामेश्वरम् पर्यन्त स्वामी जी आर्यावर्त की सीमा का उल्लेख करते हैं। यहाँ एक घटना का उल्लेख प्रमाण रूप में ठीक होगा। स्वामी श्रद्धानन्द ने पं. लेखराम की जीवनी लिखते हुए एक घटना लिखी है कि सरस्वती हषद्वती नदियाँ आर्यावर्त की सीमा बनाती है और पं. लेखराम का ग्राम सरस्वती के दूसरी ओर पड़ता था, तो पण्डित लेखराम कहा करते थे- मेरे गाँव की इस ओर की नदी सरस्वती नहीं है, मेरे गाँव के बाद बहने वाली नदी सरस्वती है, जिससे उनका गाँव भी आर्यावर्त में आ जाता था। सचमुच में भारत में रहने वाले आर्य का गाँव आर्यावर्त से बाहर हो तो अच्छा तो नहीं लगेगा। इसी तर्क को लेकर मैंने एक बार अपने पिता जी से कह दिया- आपका गाँव आर्यावर्त में नहीं आता, एक क्षण वे स्तध हुए और अगले ही क्षण बोले- तू नहीं जानता, मेरा गाँव आर्यावर्त में है क्योंकि जो संकल्प पाठ उत्तर भारत के गाँव-नगर में किया जाता है, वही मेरे गाँव मेंाी आदि काली से हो रहा है- आर्यावर्ते जबू द्वीपे भरत खण्डे- सचमुच में उनका प्रमाण अकाट्य था।

ऋषि दयानन्द ने वे दोत्पत्ति प्रकरण, वे दोत्पत्ति काल के निर्धारण में भारतीय समाज में श्रेष्ठकर्म करने के समय पढ़े जाने वाले संकल्प का उल्लेख किया है, उसमें जब –आर्यावर्ते जबू द्वीपे भरत खण्डे- शदों का पाठ करते हैं, तो सिद्ध है इस देश में आने वाले पहले लोग आर्य ही हैं और उन्होंने ही इस देश का नाम आर्यावर्त रखा। इस देश के बदले गये बाद के नामों की चर्चा तो मिलती है, परन्तु आर्यावर्त या ब्रह्मवर्त से पहले के किसी भी नाम की चर्चा विश्व इतिहास में नहीं मिलती, अतः यह कहना कि भारत में आर्य बाहर से आये- यह पाखण्डपूर्ण कथन है। भारत में आर्य बाहर से आये- यह कहना वदतो व्याघात अर्थात् परस्पर विरोधी है, क्योंकि इस देश का भारत नामकरण भी आर्यों का है, फिर भारत में आर्यों का बाहर से आना कैसे बनेगा।

खडगे ने लोकसभा में आर्यों के बाहर से आने की जो बात कही, उसका कारण है, आजकल किया जाने वाला दुष्प्रचार। भारत जातिगत आधार पर जो आरक्षण किया गया है, इसको आधार बनाकर इस आन्दोलन को इस देश में चलाया जा रहा है। इसके लिये अमेरिका, योरोप का ईसाई समुदाय बड़ी मात्रा में धन उपलध कराता है। इस कार्य को करने वाले संगठन भारत में बामसेफ और मूल निवासी परिषद् है। पाश्चात्य लोगों ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, योरोप के अनेक विश्वविद्यालयों में इस मूलनिवासी लोगों के इतिहास के अनुसन्धान के लिए अनेक शोधपीठ भी स्थापित किये हैं, जिनमें डी.एन.ए तक मूल निवासियों का आर्यों से पृथक् होने की बात कही गई है। ये संगठन ज्योतिबा फूले और डॉ. अबेड़कर के नाम से लोगों को हिन्दू समाज से अलग करने का प्रयास करते हैं। दलित प्रकाशन के नाम से प्रकाशित दो सौ से भी अधिक पुस्तकों में यही समझाने का प्रयास किया है कि स्वतन्त्रता संग्राम का दलितों से कुछ लेना-देना नहीं है, दलितों का उद्धार अंग्रेजों ने किया है। डॉ. अबेडकर ने ही उनके लिये कार्य किया है, समाज में सवर्ण कहलाने वाले लोगों ने उनका शोषण किया है। अंग्रेज शासन उनके लिये अच्छा था, स्वतन्त्रता संग्राम तो सवर्णों की अपने अधिकारों की लड़ाई थी, चाहे रानी झाँसी की लड़ाई हो या महाराणा प्रताप व शिवाजी की। इनके साहित्य में ऋषि दयानन्द या स्वामी श्रद्धानन्द और आर्यसमाज या किसी अन्य संस्था द्वारा किये समाज सुधार की चर्चा नहीं मिलती। इनके साहित्य में ऋषि दयानन्द को ब्राह्मण और सवर्णों का पक्षधर कहकर निन्दा की गई।

वर्तमान में इस कार्य को करने वाले दो संगठन हैं- एक बामसेफ और दूसरा है- मूल निवासी परिषद्। ये निरन्तर दलित जातियों में भारत विरोधी, सवर्ण और असवर्ण के मध्य पृथकतावादी प्रवृत्ति बढ़ाने का कार्य करते हैं। इसके लिये इनका सैंकड़ों की संया में साहित्य प्रकाशित कर वितरित किया जाता है। इसी प्रकार की फिल्में बनाकर दिखाई जाती हैं। प्रतिवर्ष देश के विभिन्न भागों में इनके अधिवेशन होते हैं, जिनमें दलित समाज के लोगों को भाग लेने के लिये प्रेरित किया जाता है। सवर्ण या भिन्न विचार के लोगों को ये लोग अपने कार्यक्रम में भाग लेने की अनुमति नहीं देते। पुस्तक मेलों में दलित प्रकाशनों की दुकानों पर बिकने वाले साहित्य से इस बात को समझा जा सकता है।

इस कार्य को करने वाली संस्था बामसेफ, जिसका पूरा नाम ऑल इण्डियन बैकवर्ड एंड माइनॉरिटीज एप्लाइज फैडरेशन है, जिसका निर्माण बहुजन समाजवादी पार्टी के संस्थापक कांशीराम और डी.के. खापडे ने अमरीकी सहायता से 1973 में किया था। इसका उद्देश्य आरक्षण का लाभ उठाकर भारतीय समाज में सवर्ण-असवर्ण की खाई को गहरी करना और समाज में विघटन के बीज बोना था। सामाजिक लोगों को अभी तक इसका विशेष परिचय नहीं है। जो परिचित भी हैं, वे इनके कार्य को विशेष महत्त्व नहीं देते, परन्तु खडगे ने संसद में बता दिया, यह विचार समाज में तेजी से घर कर रहा है। समाज और सरकार को इसका निराकरण करने के लिये सक्रिय होना होगा।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक आर्य के अतिरिक्त अपने देश के लिये इतने सुन्दर शदों का प्रयोग कोई कर सकता है, जैसा राम ने किया था। राम ने कहा- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। इतना ही नहीं, आर्यों ने अपने भारतवर्ष को देवताओं के लिये भी ईर्ष्या का कारण बताया-

गायन्ति देवाः किल गितकानि

धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे

स्वर्गापवर्गास्पद मार्गभूते

भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।

– धर्मवीर

गृहस्थ-सन्त – पं. भगवान सहाय : डॉ. धर्मवीर

गृहस्थ-सन्त – पं. भगवान सहाय

पं. भगवान सहाय, जिनको देश-विदेश में कोई नहीं जानता, समाचार पत्रों में जिनका नाम नहीं मिलता, स्थानीय स्तर पर भी किसी संगठन, संस्था के प्रधान या मन्त्री के रूप में जिनकी कोई पहचान नहीं, फिर भी उनके बड़प्पन में कोई कमी नहीं थी। जो कोई उनके सपर्क में आया, उनकी दयानन्द, वेद, ईश्वर के प्रति अनन्य निष्ठा, स्वभाव की सरलता, व्यवहार की सहजता, हृदय की उदारता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था।

पं. भगवान सहाय आर्यसमाज, अजमेर के मन्त्री ताराचन्द के सपर्क से आर्यसमाजी बने। स्वाध्याय से उन्होंने अपने विचारों को दृढ़ बनाया, उसे जीवन में उतार कर एक आदर्श जीवन के धनी बने। दुकान पर ग्राहक उनकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर आता था। सामान लेने से पहले उसे वेद, ईश्वर का स्वरूप, आर्यसमाज के सिद्धान्तों का परिचय लेना पड़ता था, तब उसे उसका सामान मिलता था।

यज्ञ के प्रति उनकी आस्था से वे लोग परिचित हैं, जिन्होंने कभी उनकी दुकान से हवन सामग्री खरीदी है। ऋषि उद्यान के सभी समारोहों के लिये उनका सामग्री दान उदारता से होता था। दैनिक यज्ञ भी उनकी सामग्री के बिना सभव नहीं थे। ऋषि उद्यान उनके लिये प्रिय और आदर्श स्थान था, जिसको वे मृत्युक्षण तक भी नहीं भूले। वे स्वयं ऋषि मेले के ऋग्वेद पारायण यज्ञ में उपस्थित नहीं हो सकते थे, अपने दोहित्र विवेक को भेजकर अपनी अन्तिम आहुति यज्ञ में डलवाई।

गुरुकुल के ब्रह्मचारियों और आर्य विद्वानों तथा साधु-सन्तों को भोजन कराने, स्वागत-सत्कार करने में उन्हें अपार सुख मिलता था। मृत्यु के समय भी आश्रमवासियों और समारोह के अतिथियों के लिए भोजन कराने का कार्य नहीं भूले। अन्तिम इच्छा के रूप में उन्होंने अपनी अन्त्येष्टि वैदिक रीति से करने और अपनी शरीर कीास्म को ऋषि उद्यान की मिट्टी में डालने का निर्देश अपने परिवार के लोगों को दे दिया था, साथ ही आदेश देनााी नहीं भूले कि अन्तिम संस्कार के बाद कोई पाखण्ड मेरे नाम पर मत करना। शान्ति यज्ञ के साथ सब क्रियायें समाप्त समझना।

पं. भगवान सहाय विद्वानों की श्रेणी में नहीं आते थे, परन्तु उनका सैद्धान्तिक ज्ञान इतना दृढ़ और स्पष्ट था कि अच्छे विद्वानों की बुद्धि भी काम नहीं करती। लगभग चालीस वर्ष पूर्व जूलाई का मास था, मैं अध्यापन के लिये अपने महाविद्यालय के लिये जा रहा था, मेरा मार्ग उनकी दुकान के सामने से होकर जाता था, जैसे ही में उनकी दुकान के सामने से निकला, उन्होंने मेरा नाम लेकर पुकारा, मैं रुका, वे दुकान से नीचे उतरकर आये, कहने लगे- पण्डित जी! वर्षा का समय है, वर्षा नहीं हो रही है, किसान व्याकुल हैं, वृष्टि-यज्ञ कराओ, जिससे वर्षा हो। मैंने उत्तर दिया- पण्डित जी! वृष्टि-यज्ञ वैज्ञानिक प्रक्रिया है, मैंने यज्ञ कराया भी और वर्षा नहीं हुई तो आप कहेंगे कि पण्डित ने झूठ बोला- यज्ञ से वर्षा होती है। इस पर भगवान सहाय जी का उत्तर में कभी नहीं भूला। उस उत्तर ने मेरे पूरे जीवन की समस्या का समाधान कर दिया, वे कहने लगे- पण्डित जी! कभी प्रार्थना करने वाला स्वयं प्रार्थना स्वीकार करता है क्या? अर्जी लगाना हमारा काम है, मंजूर करना, न करना ईश्वर का काम है। यज्ञ तो हमारी प्रार्थना है। पण्डित जी का उत्तर इतना सटीक था कि मैं उन्हें जीवन में कभी मना ही नहीं कर सका।

यज्ञ से उनका इतना प्रेम था कि जब कोई उनसे यज्ञ के विषय में पूछता तो वे कहते थे कि यज्ञ जड़-चेतन दोनों का भोजन है। हम मनुष्यों को भोजन कराते हैं तो केवल मनुष्यों की तृप्ति होती है, परन्तु यज्ञ से जड़-चेतन दोनों की तृप्ति होती है, इससे दोनों में पवित्रता आती है। आज उनसे सामग्री लेकर यज्ञ करने वालों की यही चिन्ता सता रही है- क्या यज्ञ की शुद्ध सामग्री हमको मिलती रहेगी? जिसकी आशा हम उनके उत्तराधिकारियों से कर रहे हैं।

पं. भगवान सहाय जी की सहनशीलता अद्भुत थी। उनके साथी, परिवारजन, ग्राहक, सेवक कोई भी किसी कारण से कष्ट हो जाय, क्रोध करे, कठोर शद कहे, वे कभी किसी से प्रभावित नहीं होते थे। उसे बड़े शान्त और सहज भाव से सुन लेते थे, मुस्करा देते थे। ऐसे समाज सेवक का अपने मध्य से जाना, किसको दुःखद नहीं लगेगा। परन्तु परमेश्वर की व्यवस्था और प्रकृति के नियम तथा मनुष्य की नियति कौन बदल सका है। हम दिवंगत आत्मा की शान्ति, सद्गति की प्रार्थना और परिवारजनों को इस दुःखद परिस्थिति को सहन करने की, सामर्थ्य की कामना परमेश्वर से करते हैं। वेद कहता है-

भस्मान्तं शरीरम्।

– डॉ. धर्मवीर

परमेश्वर ही सच्चा गणेश है – इन्द्रजित् देव

परमेश्वर ही सच्चा गणेश है

– इन्द्रजित् देव

‘‘आर्य वन्दना’’ के जनवरी अंक में गणेश की महिमा विषयक एक लेख प्रकाशित हुआ है जो पूरी तरह से पौराणिकता से भरपूर है। लेखक महोदय के अनुसार गणेश की पूजा के पीछे यह धारणा कार्य करती है कि इससे सभी सुख, सौभाग्य तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है तथा जीवन में सभी बाधाओं एवं विघ्नों से मुक्ति मिलती है। लेखक ने यह भी लिखा है कि पार्वती ने अपने शरीर पर इतना उबटन लगा राा था कि जिससे एक मनुष्य का पुतला बन सके। पार्वती ने फिर उसमें प्राण फूँके और उसे अपना पुत्र बनाया। यह भी लेख में लिखा है कि शिव ने कहा जो संसार का चक्कर लगाकर प्रथम आएगा, वही प्रथम पूजनीय होगा तथा सभी देवता तेजी से दौड़े परन्तु गणेश नामक शिव का पुत्र न दौड़ सका क्योंकि उसका शरीर भारी था। गणेश ने अपने माता-पिता का ही चक्कर लगाया एवं उन्हें प्रणाम करके बैठ गये, अतः गणेश प्रथम पूज्य बन गया इत्यादि।

पूरा लेख अवैज्ञानिक, तर्कहीन व प्रमाणहीन है। लेखक महोदय इसे ‘‘कल्याण’’ या किसी अन्य पौराणिका पत्रिका में छपा लेते तो उनकी उपरोक्त बातों का कोई विरोध न करता, परन्तु एक वैदिक पत्रिका में यह प्रकाशित हुआ है, अतः इसे पढ़कर हमें आश्चर्य व दुःख हुआ है। इसके उत्तर में कुछ बातों को तर्क व विज्ञान के आधार पर लिखना वाञ्छनीय है, ताकि आर्य समाजियों को तो सत्य का ज्ञान हो सके तथा वे भ्रम में न रहें।

हमारे कुछ प्रश्न लेखक से हैंः यदि स्त्री के शरीर पर उबटन लगा लेने से पुत्र का शरीर बन सकता है तो ईश्वर ने पुरुष को क्यों उत्पन्न किया? पार्वती हो या कोई अन्य स्त्री, उसके शरीर में गर्भाशय की स्थापना ही क्यों की? वेदानुसार विवाह का मुय उद्देश्य उत्तम सन्तान उत्पन्न करना है। यदि पार्वती बिना पति के पुत्र को उत्पन्न करने की कला जानती थी तो उसने शिव से विवाह ही क्यों किया? क्या शिव में कोई कमी थी। उबटन से पुत्र-प्राप्ति की विद्या का उल्लेख किस वेद या किस आयुवैदिक अथवा एलोपैथिक ग्रन्थ में है? उबटन लगाकर सोने से व्यक्ति के शरीर से वह झड़ या उतर जाना चाहिये परन्तु पार्वती ने उतरने नहीं दिया, तभी तो उबटन से पुत्र बना लिया व फूँक मारकर उसे चेतन गणेश बना दिया। लेखक को चाहिए कि इस ईलाज का बांझ स्त्रियों में प्रचार करें ताकि वे भी अपने शरीर पर उबटन लगा लिया करें व जब चाहें, वे अपने उबटन से पुत्र का पुतला बनाकर व उस पुतले में प्राण फूँक कर सन्तानवती बन जाया करें। वे पति तथा वैद्य-डॉक्टर की सहायता लेने की आवश्यकता से मुक्त हो जाया करेंगी। प्राण फूँकने से पुत्र में आत्मा आती है तो मृत पुत्र की किसी भी माता को आज तक पुत्र-वियोग का दुःख क्यों भोगना पड़ता रहा है? पुत्र की मृत्यु होने पर पुत्र का शरीर तो घर में पड़ा होता है। पार्वती की तरह पुत्र की माता उस मृ्रत देह में फूँ क मार कर पुत्र को जीवित कर लिया करें। यह फार्मूला बताने के लिए हम लेखक के बहुत धन्यवादी रहेंगे।

पार्वती ने अपने उबटन से उत्पन्न किए गणेश को घर के बाहर बैठा दिया, ताकि वे निश्चित होकर स्नान कर सकें व कोई भी व्यक्ति भीतर प्रवेश न कर सके, परन्तु शिवजी स्वयं को न रोक सके व पुत्र गणेश व पिता शिव के मध्य युद्ध छिड़ गया। परिणामतः पुत्र का सिर काटकर शिव जी भीतर प्रवेश कर गए। पार्वती ने हाहाकार मचाया तो शिव ने एक हथिनी का सिर जोड़कर पुत्र को पुनः जीवित कर दिया। हमारी इच्छा विद्वान लेखक से यह जानने की है जिस शिवजी को पौराणिक व लेखक स्वयं ईश्वर मानते हैं, उसके घर में इतनी अधिक गरीबी क्यों थी कि वह अपने घर में दरवाजा बन्द करके स्नान करने योग्य एक बाथरूम भी नहीं बनवा सका? जब इतनी निर्धनता थी ही तो वह ईश्वर कैसे कहला सकता है, क्योंकि ईश्वर का अर्थ ऐश्वर्यशाली होता है। लेखक को यह भी बताना होगा कि जब शिवजी की पत्नी घर के भीतर स्नान कर रही थी तथा उनके पुत्र गणेश ने उन्हें भीतर जाने से रोका तो वे रुके क्यों नहीं? भीतर जाने का उनका उतावलापन उनके संयम की पोल खोलता है। इतना उतावलापन उनमें था कि भीतर जाने से रोकने वाले अपने पुत्र का सिर भी काटना उन्हें अधर्म प्रतीत नहीं हुआ। किसी का सिर जब कटेगा तो उसके शरीर से उसके प्राण व उसकी आत्मा निकल जाएगी, यह एक दृढ़ वैज्ञानिक नियम है। तत्पश्चात् कोई भी पिता, माता, राजा, वैज्ञानिक या गुरु तो क्या, स्वयं ईश्वर भी पुनः प्राण तथा आत्मा को उसी शरीर में प्रवेश नहीं करा सकता।

लेखक के अनुसार जब पार्वती ने अपने पति के समक्ष पुत्र वियोग का दुखड़ा रोया, शिव ने एक हथिनी का सिर सिरहीन पुत्र के सिर पर फिट करके जीवित कर दिया। हमारा प्रश्न उपरोक्त लेख के लेखक से यह है किस कपनी के फैवीकोल या कीलों से गणेश का सिर पुनः फिट किया? आज परस्पर लड़ाई के अनेक मामलों में एक दूसरे के सिर काटे जा रहे हैं। लेखक की मान्यता वाले जिसाी किसी ग्रन्थ में सिरहीन धड़ से किसी अन्य प्राणी का सिर जोड़ने की सफल विधि का उल्लेख है, उस ग्रन्थ की पृष्ठ संया सहित नाम व लेखक का नाम बताने की कृपा करें ताकि आज जहाँ कहीं परस्पर लड़ाई में सिर कटते हैं, मैं वहाँ सिर जोड़ने में कुछ सहायता कर सकूँ।

हमारा अगला प्रश्न यह है कि शिव जी में हथिनी का सिर अपने मृत पुत्र के धड़ से जोड़कर पुनर्जीवित करने की योग्यता व क्षमता थी तो उन्होंने अपने पुत्र का पहला सिर ही क्यों नहीं जोड़ दिया? हथिनी की मृत्यु कर के अपने पुत्र को पुनर्जीवित करना कथित ईश्वर शिव की शोभा बढ़ाने वाला कार्य है क्या? कोई भी मनुष्य जिसका धड़ तो मनुष्य का हो परन्तु सिर हथिनी का हो, क्या सूखपूर्वक सो सकेगा?

उपरोक्त लेख के अनुसार एक बार देवों में यह विवाद हो गया कि उन सबमें किस देवता की पूजा सर्वप्रथम होनी चाहिए? शिव ने उन्हें संसार का चक्कर लगाकर आने को कहा। जो दौड़ में सबसे पहले लौटेगा, वही देवता प्रथम पूज्य होगा। गणेश का शरीर भारी था। वह न दौड़ सका। उसने माता-पिता का चक्कर लगाया और प्रणाम करके बैठ गया। अतः प्रथम पूज्य माने गए। हमारा निवेदन यह है कि प्रथम पूज्य देव का निर्णय करने का लाईसैंस (=अधिकार) शिवजी को किसने दिया? उसका निर्णय मान्य क्यों होना चाहिए? वे देव क्यों कर माने जा सकते हैं, जब परस्पर उनमें होड़ मची हुई थी कि मेरा पूजन सर्वप्रथम होना चाहिए? लोकैषणा रहित व्यक्ति देवता होता है जबकि लोकैषणायुक्त (=प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा करने वाला) व्यक्ति मनुष्य कहलाता है, देवता तो कदापि मान्य हो ही नहीं सकता। यहाँ हम आचार्य यास्क द्वारा निरुक्त 7/11 में वर्णित देवों का वर्णन करना उचित समझते हैं- देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थाने भवतीति वा। इसके अनुसार निम्नलिखित कुछ मूर्तिमान व कुछ अमूर्तिमान देव ये होते हैंः-

  1. दान देने वाले= मनुष्य, विद्वान् व परमेश्वर।
  2. दीपन, प्रकाश करने वाले= सूर्योदि लोक, सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने वाले।
  3. द्योतन करने वाले= सत्योपदेश करने से भी देव अर्थात् माता, पिता , आचार्य व अतिथि तथा पालन, विद्या व सत्योपदेशादि करने वाले।
  4. द्युस्थान वाले देव= सूर्य की किरण, प्राण तथा सूर्यादि लोको का भी जो प्रकाश करने हारा है, वह परमेश्वर देवों का भी देव है।
  5. अन्य देव= इन्द्रियाँ, मन। ये शदादि विषयों तथा सत्यासत्य का प्रकाश करते हैं। वेद मन्त्र भी देव हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ के सप्तम समुल्लास में इस विषय में लिखते हैं- ‘‘देवता दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहते हैं, जैसी कि पृथिवी।……….जो त्रयस्त्रिशनिशता’’ इत्यादि वेदों में प्रमाण हैं, इसकी व्याया ‘शतपथ’ में की है कि-तैंतीस देव अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु,आकाश, चन्द्रमा,सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से ये आठ वसु हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, सामान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा, ये ग्यारह रुद्र इसलिए कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं, तब रोदन कराने वाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिए कहाते हैं कि ये सब की आयु को लेते जाते हैं। बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु है कि वह परम ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिससे वायु, वृष्टि, जल, औषधी की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस पदार्थ पूर्वोक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं।

लेखक सत्यपाल भटनागर जी से अनुरोध है कि उपरोक्त विवरण व व्याया को ध्यान से पढ़ने का कष्ट करें व पाठकों को स्पष्ट करें कि कौन-से वे देव थे जिनमें अपनी पूजा प्रथमतः कराने की थी? वास्तविकता यह है कि उपरोक्त देवों से अतिरिक्त काल्पनिक देवों की धारणा लेखक के मस्तिष्क में है। उसे त्याग दें व केवल उपरोक्त वास्तविक देवों की मान्यता स्थापित करें।

लेखक जी! पुत्र को अपने माता-पिता का आदर व यथोचित सेवा करनी ही चाहिए, यह निर्विवाद है, परन्तु गणेश की तरह माता-पिता की परिक्रमा कर लेना न तो किसी प्रकार की सेवा है तथा न ही इस कार्य में तनिक भी आदर करने का भाव है। गणेश के मन मेंाी अपनी पूजा सर्वप्रथम कराने की ही इच्छा थी जिसे शास्त्रीय भाषा में लोकैषणा कहते हैं। हम लेखक महोदय को स्मरण दिलाना चाहते हैं कि इतिहास में माता-पिता का आदर व उचित सेवा करने वाले कई सुपुत्रों के प्रमाण उपलध हैं। श्रवण कुमार तथा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र इत्यादि के कार्यों को ध्यान में रखकर सोचिए व पाठकों को बताइए कि माता-पिता के शरीरों की परिक्रमा करने वाले गणेश में सुपुत्र के गुण थे अथवा श्रवण कुमार में? रामचन्द्र जी ने तो राजभवन के सुख-सुविधाओं का परित्याग करके 14 वर्षों तक वनों में रहकर अपने पिता की प्रतिष्ठा तथा सौतेली माँ की इच्छा की रक्षा की थी। गणेश के जीवन में सेवा की एकाी घटना जब उपलध नहीं होती तो उसका पूजन सर्वप्रथम करने-कराने में औचित्य क्या है? सर्वप्रथम पूजन करने-कराने की किसी व्यक्ति की यदि इच्छा है तो श्रवण कुमार अथवा रामचन्द्र जी की। वैसे आज न गणेश संसार में है,न ही श्रवण कुमार कहीं दिखते हैं तथा न ही रामचन्द्र जी कहीं मिलते हैं। उनकी पूजा कैसे करोगे- कराओगे? केवल चित्रों, मूर्तियों या थाली में जल रही धूप अगरबत्ती को मत्था टेकने का नाम पूजा करना नहीं है। पूजा का अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में इस प्रकार लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि गुण वाले को यथायोग्य सत्कार करना है, उसको ‘पूजा’ कहते हैं।’’ आज जो कुछ हो रहा है, वह पूजा न होकर अपूजा है, क्योंकि महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में यह भी लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि रहित जड़ पदार्थ और जो सत्कार के योग्य नहीं है। उसका जो सत्कार करना है, वह ‘‘अपूजा’’ है।’’ थोड़ी देर के लिए हम बहस के लिए मानते हैं कि गणेश ने अपने माता-पिता की परिक्रमा की थी, इसलिए सर्वप्रथम उसी की पूजा करनी चाहिए तो प्रश्न उत्पन्न होगा कि जिस गणेश ने वह कार्य किया था, वह ही आज कहाँ नहीं है। पत्थर की बनी मूर्ति या कागज में दिख रहा गणेश वास्तविक गणेश नहीं है। आप पत्थर या कागज की पूजा कराते हैं जो जड़ पदार्थ हैं, ज्ञानरहित, क्रिया रहित हैं। इनका सत्कार हो नहीं सकता, अतः इस कथित गणेश से जो कुछ करते हो, वह अपूजा है व इससे कुछ लाभ नहीं होता, हानि अवश्य होती है।

गणेश का पूजन करना है तो पहले गणेश शद का अर्थ समझना चाहिए। ‘गण संयाने’ इस धातु से गण शद सिद्ध होता है। उसके आगे ईश शद लगाने से गणेश शद सिद्ध होता है। ‘गणानां समूहानां जगतामीशः स गणेशः’ अर्थ= सब गणों नाम संघातों का अर्थात् सब जगतों का ईश स्वामी होने से परमेश्वर का नाम गणेश है।

-सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास

परमेश्वर के अनेक गुणवाचक, कर्मवाचक, सबन्धवाचक नाम हैं। इनमें शिव, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र तथा सरस्वती आदि नाम भी हैं। वेद क्योंकि सृष्टि के प्रथम दिन ईश्वर ने दिए थे, उस दिन इन नामों के शरीरधारी मनुष्य कोई न थे। सामाजिक व्यवहार के लिए मनुष्यों के नाम रखना आवश्यक होता है, अतः वेदों में प्रयुक्त शदों को अपने व अपनी सन्तान के नाम करण हेतु प्रयोग करना पड़ा था। आज भी ऐसा ही होता है। वेद में यदि गणेश व शिवादि की पूजा का आदेश है तो वह सदैव रहने वाले अशरीरी गणेश से ही अभिप्रेत है, न कि बाद में शरीरधारी हुए किसी गणेश नामक व्यक्ति से। परमेश्वर से बड़ा विघ्नहारी कौन होगा? विस्तार से इस विषय को समझने हेतु ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ का प्रथम समुल्लास पढ़ना चाहिए। ‘शिवपुराण’ व अन्य सभी पुराणों को महर्षि दयानन्द जी ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ के तृतीय समुल्लास ‘‘संस्कार विधिः’’ के वेदारभ संस्कार तथा ‘‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’’ के ग्रंथ प्रामान्याप्रमाण्य विषय के अन्तर्गत पठन-पाठन हेतु त्याज्य ग्रंथों में रखा है। फिर लेखक ने आर्य समाजी होते हुए ग्रहण क्यों किया?

-चूना भट्ठियाँ, सिटी सेंटर के निकट, यमुनानगर, हरि.