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आदर्श संन्यासी – स्वामी विवेकानन्द भाग -२ : धर्मवीर जी

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दिनांक २३ अक्टूबर २०१४ को रामलीला मैदान, नई दिल्ली में प्रतिवर्ष की भांति आर्यसमाज की ओर से महर्षि दयानन्द बलिदान समारोह मनाया गया। इस अवसर पर भूतपूर्व सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित थे। उन्होंने श्रद्धाञ्जलि देते हुए जिन वाक्यों का प्रयोग किया वे श्रद्धाञ्जलि कम उनकी अज्ञानता के प्रतीक अधिक थे। वी.के. सिंह ने अपने भाषण में कहा- ‘इस देश के महापुरुषों में पहला स्थान स्वामी विवेकानन्द का है तथा दूसरा स्थान स्वामी दयानन्द का है।’ यह वाक्य वक्ता की अज्ञानता के साथ अशिष्टता का भी द्योतक है। सामान्य रूप से महापुरुषों की तुलना नहीं की जाती। विशेष रूप से जिस मञ्च पर आपको बुलाया गया है, उस मञ्च पर तुलना करने की आवश्यकता पड़े भी तो अच्छाई के पक्ष की तुलना की जाती है। छोटे-बड़े के रूप में नहीं की जाती। यदि तुलना करनी है तो फिर यथार्थ व तथ्यों की दृष्टि में तुलना करना न्याय संगत होगा।

श्री वी.के. सिंह ने जो कुछ कहा उसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जाता, आने वाला व्यक्ति जो जानता है, वही कहता है। यह आयोजकों का दायित्व है कि वे देखें कि बुलाये गये व्यक्ति के विचार क्या है। यदि भिन्न भी है तो उनके भाषण के बाद उनकी उपस्थिति में शिष्ट श     दों में उनकी बातों का उ ार दिया जाना चाहिए, ऐसा न कर पाना संगठन के लिए लज्जाजनक है। इसी प्रसंग में स्वामी विवेकानन्द के जीवन के कुछ तथ्य वी.के. सिंह की जानकारी के लिए प्रस्तुत है।

‘मेरठ में वे २५९ नंबर, रामबाग में, लाल नन्दराम गुप्त की बागान कोठी में ठहरे। अफगानिस्तान के आमीर अ  दुर रहमान के किसी रिश्तेदार ने उस बार साधुओं को पुलाव खिलाने के लिए कुछ रुपये दिए थे। स्वामी जी ने उत्साहित होकर रसोई का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। और दिनों में भी स्वामी जी बीच-बीच में रसोई में मदद किया करते थे। स्वामी तुरीयानन्द को खिलाने के लिए वे एक दिन खुद ही बाजार गये, गोश्त खरीदा, अंडे जुगाड़ किये और कई लजीज पकवान पेश किए।’ (वही पृ. ९२)

‘मेरठ में स्वामी जी अपने गुरुभाइयों को जूते-सिलाई से लेकर चण्डीपाठ और साथ ही पुलाव कलिया पकाना सिखाते रहे। एक दिन उन्होंने खुद ही पुलाव पकाया। मांस का कीमा बनवाया। कुछेक सींक-कबाब भी बनाने का मन हो आया। लेकिन सींक कहीं नहीं मिली। तब स्वामी जी ने बुद्धि लगाई और सामने के पीच के पेड़ से चंद नर्म-नर्म डालियाँ तोड़ लाए और उसी में कीमा लपेट कर कबाब तैयार कर लिया। यह सब उन्होंने खुद पकाया, सबको खिलाया, मगर खुद नहीं खाया। उन्होंने कहा ‘तुम सबको खिलाकर मुझे बेहद सुख मिल रहा है।’  (वही पृ. ९२)

‘स्वामी जी ने अमेरिका से एक होटल का विवरण भेजा ‘‘यहाँ के होटलों के बारे में क्या कहूँ? न्यूयार्क में मैं एक ऐसे होटल में हूँ, जिसका प्रतिदिन का किराया ५००० तक है। वह भी खाना-पीना छोड़कर। ये लोग दुनिया के धनी देशों में से हैं। यहाँ रुपये ठीकरों की तरह खर्च होते हैं। होटल में मैं शायद ही कभी रुकता हूँ, ज्यादातर यहाँ के बड़े-बड़े लोगों का मेहमान होता हूँ।’’विदेश में ग्रेंड-डिनर कैसा होता है, इसका विवरण विवेकानन्द ने खुद दिया है ‘‘डिनर ही मुख्य भोजन होता है। अमीर हैं तो उनका रसोइया फ्रेंच होता है और चावल भी फ्रांस का। सबसे पहले थोड़ी सी नमकीन मछली या मछली के अण्डे या कोई चटनी या स      जी। यह भूख बढ़ाने के लिए होता है। उसके बाद सूप। उसके बाद आजकल के फैशन के मुताबिक एक फल। उसके बाद मछली। उसके बाद मांस की तरी! उसके बाद थान-गोश्त का सींक कबाब! साथ कच्ची स  जी! उसके बाद आरण्य मांस-हिरण वगैरह का मांस और बाद में मिठाई। अन्त में कुल्फी। मधुरेण समापयेत्।’’ प्लेट बदलते समय कांटा चम्मच भी बदल दिये जाते हैं। खाने के बाद बिना दूध की काफी।’ (वही पृ. ९५)

‘एक दिन भाई महेन्द्र से विवेकानन्द ने पूछा ‘क्या रे, खाया क्या?’ अगले पल उन्होंने सलाह दे डाली ‘रोज एक जैसा खाते-खाते मन ऊब जाता है। घर की सेविका से कहना, बीच-बीच में अण्डे का पोच या ऑमलेट बना दिया करे, तब मुंह का स्वाद बदल जाएगा।’ (वही पृ. ९७)

‘एक और दिन करीब डेढ़ बजे स्वामी जी ने अपने भक्त मिस्टर फॉक्स से कहा ‘ध     ा तेरे की’! रोज-रोज एक जैसा उबाऊ खाना नहीं खाया जाता! चलो अपन दोनों चलकर किसी होटल में खा आते हैं।’ (वही पृ. ९७)

‘एक दिन शाम के खाने के लिए गोभी में मछली डालकर तरकारी पकाई गई थी। उनके साथ उनके भक्त और तेज गति के भाषण लेखक गुडविन भी थे। गुडविन ने वह स   जी नहीं खाई। उसने स्वामी जी से पूछा ‘आपने मछली क्यों खाई?’ स्वामी जी ने हंसते-हंसते जवाब दिया ‘अरे वह बुढ़िया सेविका मछली ले आई। अगर नहीं खाता तो इसे नाली में फेंक दिया जाता। अच्छा हुआ न मैंने उसे पेट में फेंक दिया।’  (वही पृ. ९८)

‘मेज पर स्वामी जी की पसन्द की सारी चीजें नजर आ रही हैं- फल, डबल अण्डों की पोच, दो टुकड़े टोस्ट, चीनी और क्रीम समेत दो कप काफी।’ (वही पृ. १०३)

‘पारिवारिक भ्रमण पर निकलते हुए स्वामी जी का आदिम तरीके से क्लेम या सीपी खाना। गर्म-गर्म सीपी में उंगली डालकर मांस निकालने के लिए एक खास प्रशिक्षण की जरूरत होती है। लेकिन कीड़े-मकोड़े-केंचुओं के देश से सीधे अमेरिका पहुँचकर, यह सब सीखने में स्वामी जी को जरा भी वक्त नहीं लगा।’ (वही पृ. १०३)

‘उसी परिवार में स्वामी जी के दोपहर-भोजन का एक संक्षिप्त विवरण- मटन (बीफ या गाय का गोश्त हरगिज नहीं) और तरह-तरह की साग-स िजयाँ, उनके परमप्रिय हरे मटर, उस वक्त डेजर्ट के तौर पर मिठाई के बजाय फल-खासकर अंगूर।’ (वही पृ. १०३)

‘विवेकानन्द ही एकमात्र ऐसे भारतीय थे, जिन्होंने पाश्चात्य देशों में वेदान्त और बिरयानी को एक साथ प्रचारित करने की दूरदर्शिता और दुस्साहस दिखाया।’ (वही पृ. ११०)

‘इससे पहले लन्दन में भी स्वामी जी ने पुलाव-प्रसंग पर भी अपनी राय जाहिर की है। प्याज को पलाशु कहते हैं- पॅल का मतलब है मांस। प्याज को भूनकर खाया जाए, तो वह अच्छी तरह हजम नहीं होता। पेट के रोग हो जाते हैं। सिझाकर खाने से फायदेमंद होता है और मांस में जो ‘कस्टिवनेस’ होता है वह नष्ट हो जाते हैं।’ (वही पृ. ११२)

‘पुलाव पर्व का मानो कहीं कोई अन्त नहीं। पहली बार अमेरिका जाने से पहले, स्वामी जी बम्बई में थे। अचानक उनके मन में इच्छा जागी कि अपने हाथ से पुलाव पकाकर सबको खिलाया जाय। मांस, चावल, खोया खीर वगैरह, सभी प्रकार के उपादान जुटाये गये। इसके अलावा यख्नी का पानी तैयार किया जाने लगा। स्वामी जी ने यख्नी के पानी से थोड़ा-सा मांस निकाल कर चखा। पुलाव तैयार कर लिया गया। इस बीच स्वामी जी दूसरे कमरे में जाकर ध्यान में बैठ गये। आहार के समय सभी लोगों ने बार-बार उनसे खाने का अनुरोध किया। लेकिन उन्होंने कहा ‘मेरा खाने का बिल्कुल मन नहीं है। मैं तो पकाकर तुम लोगों को खिलाना चाहता था। इसलिए १४ रुपये खर्च करके हंडिया भर पुलाव बनाया है। जाओ तुम लोग खा लो और स्वामी जी दुबारा ध्यानमग्न हो गये।’ (वही पृ. ११२)

‘मिर्च देखते ही स्वामी का ब्रेक फेल हो जाता।’  (वही पृ. ११४)

‘अमेरिका में एक बार स्वामी जी फ्रेंच रेस्तराँ में पहुँच गये। वहाँ की चिंगड़ी मछली खाने के बाद घर आकर उन्होंने खूब-खूब उल्टियाँ की। बाद में ठाकुर रामकृष्ण को याद करते हुए, उन्होंने कहा ‘मेरे रंग-ढंग भी अब उस बूढ़े जैसे होते जा रहे हैं। किसी भी अपवित्र व्यक्ति का छुआ हुआ खाद्य या पानी उनका भी तन-मन ग्रहण नहीं कर पाता था।’ (वही पृ. ११६)

‘विद्रोही विवेकानन्द की उपस्थिति हम उनके खाद्य-अभ्यास में खोज सकते हैं और पा सकते हैं। शास्त्र में कहा गया है कि दूध और मांस का एक साथ सेवन नहीं करना चाहिए। लेकिन स्वामी जी इन सबसे लापरवाह दूध और मांस दोनों ही विपरीत आहारों के खासे अभ्यस्त हो गये थे।’ (वही पृ. ११८)

‘इसी तरह एक बार आईसक्रीम का मजा लेते हुए उच्छवासित होकर कहा- ‘मैडम, यह तो फूड फॉर गॉड्स है। अहा सचमुच स्वर्गोयम्’ (वही पृ. १२०)

‘शिष्य शरच्चन्द्र की ही मिसाल लें। पूर्वी बंगाल का लड़का। स्वामी जी का आदेश था। ‘गुरु को अपने हाथों से पकाकर खिलाना होगा।’ मछली, स       जी और पकाने की अन्यान्य उपयोगी सामग्रियाँ लेकर शिष्य शरच्चन्द्र करीब आठ बजे बलराम बाबू के घर में हाजिर हो गया। उसे देखते ही स्वामी जी ने निर्देश दिया, तुझे अपने देश जैसा खाना पकाना होगा। अब शिष्य ने घर के अन्दर रसोई में जाकर खाना पकाना आरम्भ किया। बीच-बीच में स्वामी जी अन्दर आकर उसका उत्साह बढ़ाने लगे। कभी उसे मजाक-मजाक में छेड़ते भी रहते- ‘देखना मछली का ‘जूस’ (रंग) बिल्कुल बांग्लादेशी जैसा ही हो।’

‘अब इसके बाद की घटना शिष्य की जुबानी ही सुनी जाए- ‘भात, मूंग की दाल, कोई मछली का शोरबा, खट्टी मछली, मछली की ‘सुक्तिनी’ तो लगभग तैयार हो गया। इस बीच स्वामी जी नहा-धोकर आ पहुँचे और खुद ही प  ो में ले-ले कर खाने लगे। उनसे कई बार कहा भी गया कि अभी और भी कुछ-कुछ पकाना बाकी है, मगर उन्होंने एक न सुनी। दुलरुवा बच्चे की तरह कह उठे ‘जो भी बना है फटाफट ले आ, मुझसे अब इन्तजार नहीं किया जा रहा। मारे भूख के पेट जला जा रहा है।’ शिष्य कभी भी पकाने-रांधने में पटु नहीं था, लेकिन आज स्वामी जी उसके पकाने की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। कलक    ाा के लोग मछली की सुक्तिनी के नाम पर ही हंसी-मजाक करने लगते हैं। लेकिन स्वामी जी ने वही सुक्तिनी खाकर कहा ‘यह व्यञ्जन मैंने कभी नहीं खाया।’ वैसे मछली का जूस जितना मिर्चदार है, इतनी मिर्चदार बाकी सब नहीं हुई। ‘खट्टी’ मछली खाकर स्वामी जी ने कहा ‘यह बिल्कुल वर्धमानी किस्म की हुई है।’ अब स्वामी जी ने अपने शिष्य से बेहद मह      वपूर्ण बात कही, ‘जो अच्छा पका नहीं सकता, वह अच्छा साधु हरगिज नहीं हो सकता।’  (वही पृ. १२२)

‘अपनी महासमाधि के कुछ दिनों पहले स्वामी जी ने इसी शिष्य को कैसे खुद पकाकर खिलाया था, यह जान लेना भी बेहतर होगा।’ (वही पृ. १२२)

‘उन दिनों स्वामी जी का कविराजी इलाज जारी था। पाँच-सात दिनों से पानी-पीना बिल्कुल बन्द था, वे सिर्फ दूध पर चल रहे थे। ये वही शख्स थे जो घण्टे-घण्टे में पाँच-सात बार पानी पीते थे। शिष्य मठ में ठाकुर को भोग लगाने के लिए एक रूई मछली ले आया। मछली काट-कूट ली जाए, तो उसका अगला हिस्सा ठाकुर के भोग के लिए निकाल कर थोड़ा-सा हिस्सा अंग्रेजी पद्धति से पकाने के लिए स्वामी जी ने खुद ही मांग लिया। आग की आँच में उनकी प्यास बढ़ जाएगी, इसलिए मठ के लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि वे पकाने का इरादा छोड़ दें। लेकिन स्वामी जी ने उन लोगों की एक न सुनी। दूध, बर्मिसेली, दही वगैरह डालकर उन्होंने चार-पाँच तरह से मछली पका डाली। थोड़ी देर बाद स्वामी जी ने पूछा, क्यों कैसी लगी? शिष्य ने जवाब दिया ‘ऐसा कभी नहीं खाया।’ शिष्य ने बर्मिसेली कभी नहीं खाई थी। उसने जानना चाहा कि यह कौन सी चीज है? स्वामी जी को मजाक सूझा। उन्होंने हंसकर कहा- यह विलायती केंचुआ है। इन्हें मैं लन्दन से सुखाकर लाया हूँ।’ (वही पृ. १२२-१२३)

‘समयः- मार्च १८९९ स्थान बेलुड़ मठ। इस लञ्च के कुछेक दिन पहले ही बिना किसी नोटिस के सिस्टर निवेदिता को उन्होंने वेलुड़ में ही सपर खिलाया था। उस दिन का मेन्यू था- कॉफी, कोल्ड मटन, ब्रेड एण्ड बटर। स्वयं स्वामी जी ने सामने बैठकर परम स्नेह से निवेदिता को खिलाया और नाव से कलक ाा वापस भेज दिया।’

‘अगले इतवार के उस अविस्मरणीय लञ्च का धारा-विवरण वे मिस मैक्लाइड को लिखे गए एक पत्र में रख गए हैं। ‘वह एक असाधारण सफलता थी। काश तुम भी वहाँ होतीं, स्वामी जी ने उस दिन अपने हाथ से खाना पकाया था, खुद ही परोसा भी था। हम दूसरी मंजिल पर एक मेज के सामने बैठे थे। सरला पूर्व की तरफ मुंह किए बैठी थी, ताकि उसे गंगा नजर आती रहे। निवेदिता ने इस लञ्च को नाम दिया था ‘भौगोलिक लञ्च’ क्योंकि एक ही मेज पर समूचे विश्व के पकवान जुटाये गये थे। सारे व्यञ्जन स्वामी जी ने खुद पकाये थे। खाना पकाते-पकाते ही, उन्होंने निवेदिता को एक बार तम्बाकू सजा लाने को कहा, आइए, इस अतिस्मरणीय मेन्यू का विवरण सुनाएँ-

१. अमेरिकी या यांकी-फिश चाउडर।

२. नार्वेजियन- फिश-बॉल या मछली के बड़े- ‘यह व्यञ्जन मुझे मैडम अगनेशन ने सिखाया था’ स्वामी जी ने मजाक-मजाक में बताया। यह मैडम कौन हैं, स्वामी जी वे क्या करती हैं? मुझे भी उनका नाम सुना-सुना लग रहा है। उ  ार मिला, ‘और भी बहुत कुछ करती हैं, साथ में फिश-बॉल भी पकाती हैं।’

३. इंग्लिश या यांकी- बोर्डिंग हाउस हैश। स्वामी जी ने आश्वस्त किया कि यह ठीक तरह से पकाया गया है और इसमें प्रेक मिलाया गया है। लेकिन प्रेक? इसके बजाय हमें उसमें लौंग मिली, अहा रे! प्रेक न होने की वजह से हमें अफसोस होता।’

४. कश्मीरी- मिन्सड पाई आ ला कश्मीरा। बादाम और किशमिश समेत मांस का कीमा।

५. बंगाली- रसगुल्ला और फल। पकवान का विवरण सुनकर विस्मित होना ही चाहिए।’ (वही पृ. १२६)

४ जुलाई १९०२ शुक्रवार को स्वामी जी ने क्या दोपहर का, आखरी भोजन ग्रहण किया था? अलबत खाया था। इलिश मछली,  जुलाई का महीना, सामने ही गंगा नदी। इलिश मछली के अलावा अगर और कुछ पकाया गया तो दुनिया के लोग कहते- यह शख्स निहायत बेरसिक है। नितान्त रसहीन। आसन्न वियोगान्त नाटक की परिणति का आभास किसी को भी नहीं था। ४ जुलाई की सुबह। स्वामी प्रेमानन्द का विवरण पढ़ने लायक है। ‘इस वर्ष पहली बार गंगा की एक इलिश मछली खरीदी गई। उसकी कीमत को लेकर कितने ही हंसी-मजाक हुए। कमरे में एक बंगाली लड़का भी मौजूद था। स्वामी जी ने उससे कहा- ‘सुना है नई-नई मछली पाकर तुम लोग उसकी पूजा करते हो, कैसे पूजा की जाती है, तू भी कर डाल।’ आहार के समय बेहद तृप्ति के साथ रसदार इलिश मछली और अम्बल की भुजिया खाई। आहार के बाद उन्होंने कहा ‘एकादशी व्रत करने के बाद भूख काफी बढ़ गई है। लोटा-कटोरी भी चाट-चूटकर मैंने बड़ी मुश्किल से छोड़ी।’

‘उन्हें एक और चीज भी पसन्द थी- कोई मछली। शिमला स्ट्रीट की द  ा-कोठी में यह मजाक मशहूर था- कोई मच्छी दो तरह की होती है, सिख कोई और  गोरखा कोई। सिख कोई लम्बी-लम्बी होती है और गोरखा कोई बौनी, लेकिन काफी दमदार।’ (वही पृ. १२८)

पहली बार अमेरिका जाने के लिए बम्बई में जहाज पर सवार होने से पहले स्वामी जी का अचानक कोई मछली खाने का मन हो आया। उस समय बम्बई में कोई मछली मिलना मुश्किल था। भक्त कालीपद ने ट्रेन से आदमी भेजकर काफी मुश्किलें झेलकर विवेकानन्द को कोई मछली खिलाने का दुर्लभ सौभाग्य अर्जित किया।’ (वही पृ. १२८)

‘किसी-किसी भक्त के यहाँ जाकर वे खुद ही मेन्यू तय कर देते थे। कुसुम कुमारी देवी बता गई हैं, ‘मेरे घर आकर उन्होंने उड़द की दाल और कोई मछली का शोरबा काफी पसन्द किया था।’ (वही पृ. १२८)

स्वामी जी की पसन्द-नापसन्द के मामले में मटर की दाल और कोई मछली का दुर्दान्त प्रतियोगी है- इलिश और पोई साग। स्वामी जी की महासमाधि के काफी दिनों बाद भी एक  स्नेहमयी ने अफसोस जाहिर किया ‘पोई साग के साथ चिंगड़ी मछली बनती है, तो नरेन की याद आ जाती है।’ (वही पृ. १२९)

‘जैसे चाबी और ताला, हांडी और आहार, शिव और पार्वती की जोड़ी बनी है, उसी तरह स्वामी जी के जीवन में इलिश मछली और पोई साग की जोड़ी घर कर गई थी। कान खींचते ही जैसे सिर आगे आ जाता है। उसी तरह घर इलिश आते ही स्वामी जी पोई साग की खोज करते थे। अब सुनें, इलाहबाद के सरकारी कर्मचारी, मन्मथनाथ गंगोपाध्याय का संस्मरण।

एक बार स्वामी जी स्टीमर से गोयपालन्द जा रहे थे। एक नौका पर सवार मछेरे अपने जाल में इलिश मछली बटोर रहे थे। स्वामी जी ने अचानक कहा ‘तली हुई इलिश खाने का मन हो रहा है।’ स्टीमर चालक समझ गया कि स्वामी जी सभी खलासियों को इलिश मछली खिलाना चाहते हैं। नाविकों से मोलभाव करके उसने बताया, ‘एक आने में एक मछली, तीन-चार मछलियां काफी होंगी।’ स्वामी जी ने छूटते ही निर्देश दिया ‘तब एक रुपइया की मछली खरीद ले। बड़ी-बड़ी सोलह इलिश ले ले और साथ में दो-चार फाव में।’ स्टीमर एक जगह रोक दिया गया।’

स्वामी जी ने कहा ‘पोई साग भी होता, तो मजा आ जाता। पोई साग और गर्म-गर्म भात। गांव करीब ही था। एक दुकान में चावल तो मिल गया। मगर वहाँ बाजार नहीं लगता था। पोई साग कहाँ से मिले? ऐसे में एक सज्जन ने बताया, ‘चलिए, मेरे घर की बगिया में पोई साग लहलहा रहा है। लेकिन मेरी एक शर्त है, एक बार मुझे स्वामी जी के दर्शन कराने होंगे।’ (वही पृ. १२९)

रोग सूची-  (वही पृ. १५८, १८९)

‘दूसरी बार विदेश-यात्रा के समय उन्होंने मानसकन्या निवेदिता से जहाज में कहा था- ‘हम जैसे लोग चरम की समष्टि हैं। मैं ढेर-ढेर खा सकता हूँ और बिल्कुल खाये बिना भी रह सकता हूँ। अविराम धूम्रपान भी करता हूँ और उससे पूरी तरह विमुख भी रह सकता हूँ। इन्द्रियदमन की मुझमें इतनी क्षमता है, फिर भी इन्द्रियानुभूति में भी रहता हूँ। नचेत दमन का मूल्य कहाँ है।’ (वही पृ. १६०)

‘उनके शिष्य शरच्चन्द्र चक्रवर्ती पूर्वी बंगाल के प्राणी थे। स्वामी जी ने उनसे कहा था- ‘सुना है पूर्वी बंगाल के गांव-देहात में बदहजमी भी एक रोग है, लोगों को इस बात का पता ही नहीं है। शिष्य ने जवाब दिया- ‘जी हाँ, हमारे गाँव में बदहजमी नामक कोई रोग नहीं है। मैंने तो इस देश में आकर इस रोग का नाम सुना। देश में तो हम दोनों जून मच्छी-भात खाते हैं।’

‘हाँ, हाँ, खूब खा। घास-प   ो खा-खाकर पेट पिचके बाबा जी लोग समूचे देश में छा गये हैं। वे सब महातमोगुण सम्पन्न हैं? तमोगुण के लक्षण हैं- आलस्य, जड़ता, मोह, निद्रा, यही सब।’ (वही पृ. १६४)

‘हमने यह भी देखा कि उनका धूम्रपान बढ़ गया था। उसमें नया आकर्षण भी जुड़ गया, नई-नई आविष्कृत अमेरिका की आइसक्रीम…..।’ (वही पृ. १८८)

‘किसी भक्त ने सवाल किया ‘स्वामी जी, आपकी सेहत इतनी जल्दी टूट गई, आपने पहले से कोई जतन क्यों नहीं किया।’ स्वामी जी ने जवाब दिया- ‘अमेरिका में मुझे अपने शरीर का कोई होश ही नहीं था।’ (वही पृ. १८८)

‘दोपहर ११.३० अपने कमरे में अकेले खाने के बजाय, सबके साथ इकट्ठे दोपहर का खाना खाया- रसदार इलिश मछली, भजिया, चटनी वगैरह से भात खाया।’ (वही पृ. २०५)

‘शाम ५ बजे- स्वामी जी मठ में लौटे। आम के पेड़ तले, बैंच पर बैठकर उन्होंने कहा- ‘आज जितना स्वस्थ मैंने काफी अर्से से महसूस नहीं किया।’ तम्बाकू पीकर पाखाने गऐ। वहाँ से लौटकर उन्होंने कहा- ‘आज मेरी तबियत काफी ठीक है।’ उन्होंने स्वामी रामकृष्णानन्द के पिता श्री ईश्वरचन्द्र चक्रवर्ती से थोड़ी बातचीत की।’

रात ९ बजे-इतनी देर तक स्वामी जी लेटे हुए थे, अब उन्होंने बाईं करवट ली। कुछ सैकेण्ड के लिए उनका दाहिना हाथ जरा कांप गया। स्वामी जी के माथे पर पसीने की बूंदें। अब बच्चों की तरह रो पड़े।

रात ९.०२ से ९.१० बजे तक गहरी लम्बी उसांस, दो मिनट के लिए स्थिर, फिर गहरी सांस, उनका सिर हिला और माथा तकिये से नीचे लुढ़क गया। आंखें स्थिर, चेहरे पर अपूर्व ज्योति और हँसी।’ (वही पृ. २०६)

इस सारे विवरण को पढ़ने के बाद यदि कोई कहता है कि स्वामी विवेकानन्द इस देश के सर्वोच्च महापुरुष थे और ऋषि दयानन्द सरस्वती दूसरे पायदान पर आते हैं तो मेरा उनसे आग्रह होगा कि वे अपने वक्तव्य में संशोधन कर लें और कहें – स्वामी विवेकानन्द इस देश के महापुरुषों में पहले पायदान पर हँ और ऋषि दयानन्द सीढ़ी के अन्तिम पायदान पर हैं तो हम बधाई देंगे। हमारे वन्दनीय तो फिर भी ऋषि दयानन्द ही होंगे क्योंकि इस इस देश के ऋषियों ने महानता का आदर्श धन, बल, सौन्दर्य, विद्व       ाा, वक्तित्व आदि को नहीं माना, उन्होंने बड़प्पन का आधार सदाचार को माना है। इसलिए मनु महाराज कहते हैं-

यह देश सच्चरित्र लोगों के कारण सारे संसार को शिक्षा देता रहा है। जैसा कि

ऐतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

टिप्पणी

पुस्तक का नामविवेकानन्द- जीवन के अनजाने सच

प्रकाशकपेंग्विन प्रकाशन, नई दिल्ली

– धर्मवीर

 

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आदर्श सन्यासी -स्वामी विवेकानन्द : प्रो धर्मवीर

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दिनाक 23  अक्टूबर 2014   को रामलीला मैदान,न्यू दिल्ली में प्रतिवर्ष की भांति आर्यसमाज की और से महर्षि दयानन्द बलिदान समारोह मनाया गया.  इस अवसर पर भूतपूर्व सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थें1 उन्होंने श्रद्धांजलि  देते हुए जिन वाक्यों का प्रयोग किया वे श्रद्धांजलि कम उनकी अज्ञानता के प्रतिक अधिक थें.  वी.के. सिंह ने अपने भाषण में कहा-‘इस देश के महापुरषो में पहला स्थान स्वामी विवेकानंद का हैं1 तथा दूसरा स्थान स्वामी दयानन्द का हैं’ यह वाक्य वक्ता की अज्ञानता के साथ अशिष्टता का भी घोतक हैं.  सामान्य रूप से महापुरषो की तुलना नहीं की जाती.  विशेष रूप से जिस मंच पर आपको बुलाया गया हैं . उस मंच पर तुलना करने की आवश्यता पड़े भी तो अच्छाई के पक्ष की तुलना के जाती हैं. छोटे-बड़े के रूप में नहीं की जाती. यदि तुलना करनी हैं तो फिर यथार्थ व तथ्यों की दृष्टि मेंत तुलना करना न्याय संगत होगा.

श्री वी.के. सिंह ने जो कहाँ उसके लिए उनको दोषी नहीं ठहराया जाता, आने वाला व्यक्ति जो जानता हैं, वही कहता हैं.  यह आयोजको का दायितव हैं की वे देखे बुलाये गए व्यक्ति के विचार क्या हैं. यदि भिन्न भी हैं तो उनके भाषण के बाद उनकी उपस्थिति में शिष्ट शब्दों में उनकी बातो का उतर दिया जाना चाहिए, ऐसा न कर पाना सगंठन के लिए लज्जाजनक हैं. इसी प्रसंग में स्वामी विवेकानंद के जीवन के कुछ तथ्य वी.के. सिंह की जानकारी के लिए प्रस्तुत हैं:

भारतवर्ष में सन्यास संसार को छोड़ने और मोह से छुटने का नाम हैं. स्वामी विवेकानंद न संसार

छोड़ पाए न मोह से छुट पाए  इसलिय वे सारे जीवन घर और घाट की अजीब खीचतान में पड़े रहे . (वही पृष्ठ – २)

अपने किसी प्रियजन का मुत्यु सवांद पाकर सन्यासी विवेकानंद को रोता देखकर किसी ने मंतव्य दिया- ‘सन्यासी के लिए किसी की मुत्यु पर शोक प्रकाशित करना अनुचित हैं.

विवेकानंद ने उतर दिया  ‘यह आप कैसे बाते करते हैं? सन्यासी हूँ इसलिए क्या में अपने ह़दय का विसर्जन दे दूँ .सच्चे सन्यासी का ह़दय तो आप लोगो के मुकाबले और अधिक कोमल होना चाहिए .हजार हो, हम सब आखिर इंसान ही तो हैं.’ अगले ही पल, उनकी अचिंतनिये अग्निवर्षा हुई, ‘ जो सन्यास दिल को पत्थर कर लेने का उपदेश देता हैं, में उस सन्यास को नहीं मानता. (वही पृष्ठ – २)

‘ जो व्यक्ति बिल्कुल सच्चे-सच्चे मन से अपनी माँ की पूजा नहीं कर पाता,वह कभी महान नहीं हो सकता.

इसके लिए स्वामी विवेकानंद ने शंकराचार्य  और चैतन्य का उदाहरण दिया. (वही पृष्ठ – ३)

में अति नाकारा संतान हूँ .अपनी माँ के लिए कुछ भी नहीं कर पाया .उन लोगो ने जाने को कहाँ तो बहा कर चला आया. (वही पृष्ठ – ७ )

‘सोने जैसे परिवार का सोना बेटा नरेंदर नाथ लगभग एक ही समय दो-दो प्रबल भंवर में फँस गया था- आध्यात्मिक जगत में विपुल आलोडन दक्षिणेश्वर के श्री रामकृष्ण से साक्षात्कार .दूसरा भंवर था- पिता विश्वनाथ की आकस्मिक मौत से पारिवारिक विपर्यय .यह एक ऐसी परिस्थिती थी, जब इक्कीस वर्षीय वकालत दा, बड़े बेटे के अलावा कमाने लायक और कोई नहीं था 1’(वही पृष्ठ – २०)

;पिता की मत्यु के साल भार बाद सन १८८५ में मार्च महीने में नरेंदरनाथ ने घर छोड़ देने का फैसला ले लिया था ऐसा हम अंदाजालगा सकते हैं .यह सब व्रतांत पढ़कर आलोचकों ने मोके का फायदा उठाते हुय कहाँ एक टेढ़ा सा सवाल जड़ दिया-स्वामी जी अभाव सन्यासी थें या स्वभाव सन्यासी थें (वही पृष्ठ – २६)

अब घर से उनका कोई खास  सरोकार नहीं रहा .हाँ जब वे कोलकत्ता में होते थें तो कभी-कभार माँ से मिलने चले आते थें .सन १८९७  में यूरोप से लोटने के पहले तक घर में किसी ने उन्हें गेरुआ वस्त्र में नही देखा1 (वही पृष्ठ – ४१)

‘ इस प्रसंग में वेणीशंकर शर्मा ने कहाँ हैं- जो कुछ परिवार से जुड़ा हैं, वह निंदनीय या वर्जनीय हैं,ऐसा उनका  मनोभाव  नही था.मात्रीभक्ति को उन्होंने  सन्यास की वेदी पर बलि नहीं दी, बल्कि हम तो यह देखते हैं की वे माँ के लिय उच्च्कान्क्षा , नेतृत्व ,यश सब कुछ का विसर्जन देने को तेयार थें. (वही पृष्ठ –४५ )

‘वेणीशंकर शर्मा की राय हैं- ऐसा लगता हैं स्वामी जी को अमेरिका भेजने को जो खर्चीला संकल्प महाराज ने ग्रहण किया था, उसमे स्वामी जी की माँ और भाइयो के लिए सों रुपये महीने का खर्च भी शामिल था .महाराज ने सोचा कि स्वामी जी को अपनी माँऔर भाइयो की दुषिन्नता से मुक्त करके  भेजना ही , उनका कर्तव्य हैं (वही पृष्ठ –४६ )

‘खेतड़ी महाराज को पत्र (१७ सितम्बर १८९८) भेजा मुझे रुपयों की जरूरत हैं, मेरे अमेरिकी दोस्तों ने यथासाध्य मेरी मदद की हैं,लेकिन हर वक्तगत फेलाने में लाज आती हैं, खासतोर पर

इस वजह से बीमार होने का मतलब ही हैं-एक मुश्त खर्च . दुनिया में सिर्फ एक ही इंसान हैं, जिससे मुझे भीख मागंते ममुझे संकोच नहीं होता .और वह इंसान हैं आप .आप दे या न दे, मेरे लिए दोनों बराबर हैं .अगर संभव हो तो मेहरबानी करके , मुझे कुछ रूपये भेज दे (वही पृष्ठ – ५५ )

‘ में क्या चाहता हूँ, उसका विशद विवरण में लिख चुका हूँ .कलकत्ता  में एक छोटा सा घर बनाने पर खर्च आएगा दास हजार रुपये .इतने रुपये से चार-पांच जन के रहने लायक छोटा सा घर किसी तरह ख़रीदा या बनवाया जा सकता हैं .घर खर्च के लिए आपर मेरी माँ को हर महीने जो सों रूपये भेजते हैं, वह उनके लिए पर्याप्त हैं .जब तक में जिन्दा हूँ, अगर आप मेरे चर्च के लिए और सों रुपये भेज सकें, तो मुझेबेहद ख़ुशी होगी .बिमारी की वजह से मेरा खर्च भयंकर बढ़ गया हैं .वैसे यह अतिरिक्त बोझ आपको  जयादा दिनों तक वहन करना होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता, क्योकिं में हद से हद और दो-एक वर्ष जिन्दा रहूँगा .में एक और भीख भी मांगता

हूँ-माँ के लिए आप जो हर महीने सों रूपये भेजते हैं, अगर हो सके तो उसे स्थायी रखे.मेरी मौत के बाद यह भी मदद उनके पास पहुचती रहे .अगर किसी कारणवश मेरे प्रति अपने प्यार या दान में विलाप लगाना पड़ें तो एक अकिचन साधु के प्रति कभी प्रेम प्रीति रही हैं,यह बात यद् रखते हुए, महाराज इस साधु की दुखियारी माँ पर करुणा बरसाते रहे 1’ (वही पृष्ठ – ५६ )

‘उन्होंने अपनीयह इच्छा भी बताई कि अब वे अपनी जिन्दगी के बचे-खुचे दिन अपनी माँ के साथ बिताएंगे .उन्होंने कहा- देखा नहीं, इस बार बीच में आपदा हैं- प्रकत वैराग्य ! अगर संभव होता तो में अपने अतीत का खंडन करता, अगर मेरी उम्र दस वर्ष काम होती, तो में विवाह करता .वह भी अपनी माँ को खुश करने के लिए, किसी अन्य कारण से नहीं .उफ़ ! किस बेसुधि में मेने यह कुछ साल गुजार दिये, उचाशा के पागलपन में था’…अगले ही पल वह अपने समर्थन में कह उठे, में कभी उचाभिलाषी नहीं था .खयाति का बोध मुझे पर लाद दिया गया था 1’ ‘निवेदिता ने कहा, खयाति की शुदरता आप में कभी नहीं थी .लेकिन में बेहद खुश हूँ कि आपकी उम्र दस वर्ष कम नहीं हैं ’ (वही पृष्ठ – ५७ )

‘विश्वविजय कर कलकत्ता लोट आने के बाद ( १८९७ )  स्वामी जी का माँ से मिलने जाने का हर द्रश्य भी अंकित हैं 1- पेट्रियट, औरेटर,सेंट कहाँ गुम हो गया वे दोबारा अपनी माँ के गोद के नन्हे से लला बन गए .माँ की गौद में सिर रखकर,असहाय शरारती शिशु की तरह वे रोने लगे-माँ-माँ अपने हाथो से खिलाकर,मुझे इंसान बनाओ.  (वही पृष्ठ – ६१)

‘ अगले सप्ताह  में अपनी माँ को लेकर तीर्थ में जा रहा हूँ .तीर्थ-यात्रा पूरी करने में कई महीने लग जायेंगे .तीर्थ-दर्शन हिन्दू-विधवायो की  अन्तरग साध होती हैं .जीवन भरमेने अपने आत्मीय स्वाजनो  को केवल दुख ही दिया .में उन लोगो की कम से कम एक इच्छा पूरी करने की कोशिश कर रहा हूँ . (वही पृष्ठ – ६४ )

स्वामी त्रिगुणातितानंद ने यह भी जानकारी दी हैं- ‘उनकी दोनों बाहे और हाथ किसी औरत की  बाहों की तुलना में जयादा खुबसूरत थें. (वही पृष्ठ – १४९ )

‘स्वामी जी के घने काले बालो के एइश्वर्य के बारे में उनकी कई- कई तस्वीरों से हमारी धारणा बनती हैं-घुघराले नहीं, लहर-लहर घने बालो का अरन्य .उनके घने काले बालो का एक छोटा-

गुच्छा अचानक ही मिस जोसेफिन मेक्लाइड ने काट लिया था और वे परेशान हो उठे थें .बालो का वह गुच्छा मिस मेक्लाइड अपने जेवर के डब्बे में संजोकर हमेशा अपने पास रखती थी .स्वदेश लौटकर बेलुड मठ में अपना सिर मुंडाते हुए भी स्वामी जी अपने बालो को लेकर खूब-खूब हंसी-ठटा किया था .ऐसे खुबसूरत बालो जो विदेश में भाषण देते हुए माथे पर झूलकर आँखों को ढँक लेते थें, स्वदेश लौटकर उन्होंने काट फेंका .

‘ हम जानते हैं कि बेलुड मठ में वे हर महीने बाल मुंडवा लेते थें .बेलुड मठ में उनके बाल मूडकर नाइ उन्हें समेट  कर फेकने ही जा रहा था की स्वामी जी ने हंसकर मंतव्य किया .अरे देख  क्या रहा हैं ! इसके बाद तो विवेकानंद के गुच्छे भार बालो के लिए, दुनिया में ‘क्लैमर ’ मच जायेगा

नरेंदर के अंग-प्रत्यंग के बारे में  जब ढेंरो तथेय जमा कर रहा  हूँ, तब  यह भी बता दूँ कि उनकी ‘टेम्परिंग फिंगर’ थी, बंगला में महेन्दरनाथ दत ने जिन उंगलियों को ‘चम्पे की कली’ कहाँ हैं, इस किस्म की उंगलिया दुविधाशुन्य निश्येयात्म्क मनसिकता का  संकेत देती हैं .उनके नाख़ून

ईशत रक्ताभ थें औरे नाख़ून का उपरी हिस्सा ईशत  अर्धचंद्राकर संस्कृत में किस्म के दुर्लभ न नाखुनो  को ‘नखमणि’ कहते हैं .

महेन्द्रनाथ अपने बड़े भाई के पदचाप के बारे में भी संकेत दे गये हैं- उनके न कदमो की गति जयादा तेज थी, न जयादा धीमी, मानो गम्भीर चिंतन में निमग्न रहकर विजयाकंषा में अतिद्रंड, ससुनिषित ढंग से, धरती पर कदम रखकर चलते थें 1’

, भाषण देते समय विवेकानंद अपने हाथ की उंगलिया पहले कसकर अचानक फेला देते थें उनके मन  में जैसे-जैसे भाव संचरित होते थें, उंगलियों का संचरण भी तदनुसार होता रहता था . उनके अवयव  के जिस हिस्से कोलेकर देश-विदेश के भक्तो में मतभेद नहीं हैं, वह हैं स्वामी जी की आँखें .जो लोग भी उनके करीब आये,सभी उनकी मोहक राजीवलोचन आँखों के जयगान में मुखर हो उठे. (वही पृष्ठ –१५०)

वेरी लार्ज एण्ड ब्रिलियंट-तमाम अखबारों और विभिन्न संस्मरणों में बार-बार यह घूम-फिरकर आई हैं उनकी आँखों के बारे में अंग्रेजी के और भी दुर्लभ शब्दों का प्रयोग किया हुआ हैं-फ्लोइंग,ग्रेसफुल,ब्राइट, रेडीएंट,फाइन, फुल ऑफ़ फ्लेशिंग लाइट .आलोचकों ने प्रकारांतर से उनकी आँखें पर कीचड उछालने की व्यर्थ कोशिश में अमेरिका में अफवाहे फेलाई अमेरिकी महिलाये उनके आदर्श की और आकृष्टहोकर पतंग की तरह दोडी हुई नहीं आती, वे लोग उनके नयन-कमल की चुम्ब्कीय शक्ति की और खिची चली आती हैं(वही पृष्ठ – १५१ )

इंदौर की घटना हैं .पत्रकार वेदप्रताप वैदिक के पिता श्री जगदीश प्रसाद वैदिक इंदौर के एक विधायक की चर्चा कर रहे थें .वैदिक जी ने विधायक से कहा शंकरसिंह ! तू किसी सिद्धान्त का पालन नहीं करता, अपने को आर्यसमाजी कहता हैं . यह अनुचित हैं .विधायक बोला पंडित जी में पाडे आर्यसमाजी हूँ में निराकार ईश्वर को मानता हूँ आर्य समाज के सिद्धान्तो को मानता हूँ, ऋषि दयानन्द में मेरी निष्ट हैं, में उनको अपना गुरु मानता हूँ वैदिक जी विधायक से बोले- शंकर तुम मांस खाते हो, शराब पीते हो, अन्य क्य्सन करते हो, फिर आर्यसमाजी कैसे हो! शंकर बोला मेरी सिद्धान्तो में निष्ठां हैं इसलिए आर्यसमाजी हूँ .खाता- पीता हूँ कह सकते हो, में बिगड़ा हुआ आर्यसमाजी हूँ .स्वामी विवेकानंद  के संस्यास के विषय में कहा जा सकता हैं .तो वे संस्यासी उनकी संस्यास में आस्था हैं, परन्तु व्यव्हार में संस्यास दूर तक भी दिखाई नहीं देता 1

स्वामी विवेकानंद के संस्यासी जीवन को व्यव्हार के धरातल पर देखा जाए तो एक वाक्य में कहा जा सकता हैं- उनका जीवन मछली से प्रारम्भ होता हैं और मछली पर आकर समाप्त हो जाता हैं1

किसी भी व्यक्ति के सन्यासी होने की सर्वमान्य कसोटी हैं .यम-नियमो में आस्था रखना , उनका पालन करना, उनके पलना का उपदेश करना, क्योकि इनके पालन करने से व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक जीवन की उन्नति होती हैं और यदि कोई कहता हैं की यम-नियमो का पालन न करके,उनके विपरीत आचरण करके कोई संस्यासी महान बनता हैं तो इस से बड़ी मूर्खता और नहीं हो सकती .यम-नियामी में पांच यम-अहिंसा, सत्य, असत्य, ब्र्हम्चर्ये और अपरिग्रह तथा पांच नियम- शोच, संतोष, तप, स्वाधायक और ईश्वर प्रणिधान हैं .यह दस संस्यास की आवशयक बाते हैं .यदि कोई इनका निषेध करके  अपने आपको संस्यासी मानता है, तो वह मर्यादा से पतित ही कहा जा सकता हैं संस्यास,योग, समाधी जैसे बातो  में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान हैं,परन्तु विवेकानंद के जीवन में अहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हैं .जो मनुष्य अपने भोजन और जिहा के स्वाद के लिए  प्राणी- हिंसा का समर्थन करता हो, वह व्यक्ति योग और सन्यास के पथ का पथिक नहीं बन सकता .स्वामी विवेकानंद को मासांहार कितना प्रिय था और वे इसके लिए कितने आग्रही थें .इस बात कोउनके जीवन में आई निम्न घटनाओं को देखकर परिणाम निकाला जा सकता हैं-

“ खाने-पीने के बारे में, बड़े होकर मंझले भाई के नाश्ते की ही बात ले .उन दिनों कलकत्ता की दुकानों में पाडे के मुंड बिका करते थें दोनों भाई नरेंदर और महेंदर ने पाडे वाले से मिलकर पक्का इंतजामकर लिया था .दो चार आने में ही पाडे के दस बारह मुंड जुटा लिए जाते थें दस-बारह सिर और करीब दो-ढाई सेर हरे मटर एक संग उबल कर सालन पकाया जाता था .महेंदर ने लिखा हैं –शाम को में और स्वामी जी ने स्कूल से लोटकर वो सालन और करीब सोलह रोटिया नाश्ते में हजम कर जाते थें1( विवेकानन्द, जीवन के अनजाने सच पृष्ठ १३)

‘ दादा नरेन काफी काम उम्र  में सुघनी लेने लगे थें और उसकी गन्ध मसहरी के अन्दर से आती रहती थी,यह बात उनके मंझले भाई महेंदरनाथ  हमें बता चुके कबूतर उड़ाने का उन्हें खानदानी शोक था. (वही पृष्ठ – १७ )

‘ एक बार वे भाई, दादा और माँ-पिता के साथ रायपुर जा रहे थें .महेंदरनाथ ने जानकारी दी हैं की घोडाताला में मांस पकाया गया .में खाने को राजी नहीं था बड़े भाई ने मेरे मुहमांस का टुकड़ा टूस दिया और मेरी पीठ पर धोल ज़माने लगे- खा, उसके बाद और क्या! शेर के मुह को खून का स्वाद लग गया (वही पृष्ठ –१८ )

“ मास्टर साहेब ने पूछा ‘ तुम्हारी माँ ने कुछ कहाँ ? नरेंदर ने उतर दिया- नहीं .वे खाना खिलाने के लिए उतावली हो उठी .हिरण का मांस था , खा लिया .लेकिन खाने का मन नहीं था. (वही पृष्ठ – २८ )

‘ दत्त लोगो की मेधा के प्रसंग में और एक सरल कथा भी हैं मंझले भाई नरेंदनाथ से निरन्जन महाराज ने एक बार कहा था .नरेन में इतनी बुद्धि क्यों भरी हैं, जानता हैं ? नरेन् बहुत जयादा हुक्का गुडगुडा सकता हैं अरे हुक्का न गुडगुडाया जाए तो क्या बुद्धि अन्दर से बाहर निकल सकती हैं….तुम भी तमाखू पीना सीखो .नरेन  की तरह तुम्हारी बुद्धि भी खुल जाएँगी. (वही पृष्ठ – ४२)

‘ यानि माँ की साडी समस्याओं के समाधान के लिए भरसक कोशिश करते रहे, उनके संसार-वीतरागी जयेष्ट पुत्र ! जाने से पहले माँ की इच्छा और अपना वचन करने के लिए, उन्होंने सिर्फ तीर्थ-यात्रा ही नहीं की बल्कि कालीघाट  में बलि तक दे डाली .उनके निधन के बढ़ भी माँ को कोई तकलीफ ना हो, इसके लिए वे अपने गुरु भाइयो से सदर अनुरोध कर गए थें. (वही पृष्ठ – ७१ )

‘ रसगुल्ला प्रसंग में हेडमास्टर सुधांशु शेखर भट्टाचार्य जी ने एक सीधे-सीधे बल्लेबाजी की थी 1’ सुन, विवेकानंद मिठाई  खाने वाले जीव थें ही नहीं, वे जो तुम सब की आँखों में आंसू आने के अलावा और कुछ नहीं बचेगा .उस चीज का नाम था – मिर्च (वही पृष्ठ –७६ )

‘ उन्हें खबर मिल चुकी थी की कामिनी-कंचन का परित्याग जरूरी होते हुए भी रामकिशन मठ-मिशन में भोजन  के बारे मों कोई बाधा निषेध नहीं हैं. (वही पृष्ठ –७७)

‘ दुनिया भर में एकमात्र वही ऐसे भारतीय थें, जो सप्त सागर पार करके अमेरिका पहुंच और वहाँ वेदान्त और बिरयानी दोनों का एक साथ प्रचार करने का दुसाहस दिखाया. (वही पृष्ठ –७७ )

‘इसी दोर में नरेंदनाथ का सफलतम अविष्कार था- बतख के अंडे को खूब फेटकर, हरी मटर और आलू डालकर भुनी हुई खिचड़ी .गीली-गीली खिचड़ी के  बजाय यह व्यंजन-विधि कहीं जयादा उपयोगी हैं, यह बात कई सालो बाद जाकर विशेषज्ञो ने स्वीकार की हैं.उनके पिता गीली खिचड़ी और कालिया पकाते थें और उनके सुयोग्य बेटे ने एक कदम और आगे  बढकर और एक  नई डिश के जरिये पूर्व-पश्चिम को एकाएक कर दिया (वही पृष्ठ – ८३)

‘बाद में महेंदरनाथ ने लिखा-में वे सब खाने को कतई तेयार नहीं था .मुझे उबकाई आने लगी .बड़े भैया ने मेरे मुहं में मांस ठूसकर, मुक्के-मुक्के सेमेरी धुनाई की और कहता रहा-खा ! खा ! उसके बाद फिर क्या था ? बाघ को जैसे खून का नया नया स्वाद मिल गया और क्या. (वही पृष्ठ – ८३)

पटला दादा ने कहाँ- ले, तू नोट कर .इंसानों के प्रति प्यार, गर्म चाय, खुशबूदार तम्बाकू और दिमाग ख़राब कर देने वाली मिर्च-इन चार मामलो में विवेकानंद सीमाहीन थें. (वही पृष्ठ – ८६)

‘ एक बार होटल में खाकर जब वे ठाकुर के वहाँ आय तो उन्होंने उनसे कहा, ‘ श्रीमान, आज होटल में, जिसे आम लोग अखाघ कहते हैं,खाकर आया हूँ 1’ठाकुर ने उतर दिया- तुझे कोई दोष-पाप नहीं लगेगा’ (वही पृष्ठ –८७)

अब श्री श्री माँ की जुबानी, नरेन के खाना पकाने का किस्सा सुनें .ठाकुर के लिए कोई रसोई बनाने का जिक्र छिडा था .जब में काशीपुर में ठाकुर के लिए खाना पकाती थी तब ठन्डे पानी में ही मांस चढा देती थी .थोडा सा तेजपत्ता और मसाले डाल देती थी .मांस जब  रुई की तरह सीझ जाता था,तो उतार लेती थी मेरे नरेन् को तरह तरह से मांस पकाना आता था .वह मांस को खूब भुनता था, आलू मसलकर कैसे-कैसे तो पकता था, क्या तो कहते हैं उसे ? शायद किसी तरह का चाप-कटलट होगा . (वही पृष्ठ –८८ )

 

सदाचरण को ही परम धर्म कहाँ हैं

आचार: परमो धर्म: 11

शेष भाग अगले भाग में …..परोपकारी नवम्बर (द्वितीय ) २०१४

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सर्व मनोकामना पूर्ण यज्ञ : एक अवैदिक कृत्य : प्रो राजेन्द्र जिज्ञासु

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आज देश में मन्नत माँगने व मन्नतों को पूरा करवाने का बहुत अच्छा धन्धा चल रहा है I पढ़े लिखे लोग भी अंधविश्वासों की दलदल में फंसकर नदी सरोवर के स्नान पेड़ पूजा कबर पूजा कुत्ते बिल्ली के आगे पीछे घूमकर अपनी मनोकामनाएँ पूरी करवाने के लिए धक्के खा रहे हैं I जो सैकड़ों वर्ष पूर्व कबरों में दबाये गए उनको अल्लाह मियाँ ने मनुष्यों के दुःख निवारण करने का मुख्तार बना दिया है I मनुष्यों की इस दुर्बलता का शिकार आर्य समाजी भी हो रहे हैं I  ऐसे अटार्नी जनरल आर्यसमाज में मनोकामनायें  पूरी करवाने के नए नए जाल फैला रहे हैं I  कुछ सज्जनों का प्रश्न है की किसी से कोई यज्ञ अनुष्ठान करवाने से मन्नत पूरी हो जाती हैं ? कामनाएं पूरी करने के लिए वेदानुसार क्या कर्म करने चाहिए ?

अब इस प्रश्न का क्या उत्तर दें ? परन्तु जब उच्च शिक्षित व्यक्ति व परिवार ऐसा प्रश्न उठायें तो कुछ समाधान करना प्रत्येक आर्य का कर्त्तव्य है I हम महर्षि दयानन्द जी द्वारा इस प्रश्न का उत्तर पाठकों की सेवा में रखते हैं I सर्वकामनाएं ऐसे पूर्ण होती हैं I

१.       “जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं इसी से प्रारब्ध की उपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है I”

२.       फिर लिखा है “ क्योंकि जो परमेश्वर की पुरषार्थ करने की आज्ञा है  उसको जो कोई तोड़ेगा वह सुख कभी न पावेगा”

३.       “जो कोई ‘गुड मीठा है ‘ ऐसा कहता है उसको गुड प्राप्त वा उसको स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता I और जो यत्न करता है उसको शीघ्र वा विलम्ब से गुड मिल ही जाता है “

४.       “जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है वैसा ही वर्तमान करना चाहिए “

५.       “अपने  पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है “

वेदोपदेश आर्ष वचनों के प्रमाण तो हमने दे दिए पोंगापंथी टोटके और अनार्ष वचनों को हम जानते हैं परन्तु उनकी शव परीक्षा यहाँ नहीं करेंगे I धर्म कर्म मर्म हमने ऋषी के शब्दों में दे दिया है .

परोपकारी अक्टूबर (द्वितीय) २०१४

अम्बेडकर द्वारा मनु स्मृति के श्लोको के अर्थ का अनर्थ कर गलत या विरोधी निष्कर्ष निकालना (अम्बेडकर का छल )

डा. अम्बेडकर ने अपने ब्राह्मण वाद से घ्रणा के चलते मनुस्मृति को निशाना बनाया और इतना ही नही अपनी कटुता के कारण मनुस्मृति के श्लोको का गलत अर्थ भी किया …अब चाहे अंग्रेजी भाष्य के कारण ऐसा हुआ हो या अनजाने में लेकिन अम्बेडकर जी का वैदिक धर्म के प्रति नफरत का भाव अवश्य नज़र आता है कि उन्होंने अपने ही दिए तथ्यों की जांच करने की जिम्मेदारी न समझी |
यहाँ आप स्वयम देखे अम्बेडकर ने किस तरह गलत अर्थ प्रस्तुत कर गलत निष्कर्ष निकाले –
(१) अशुद्ध अर्थ करके मनु के काल में भ्रान्ति पैदा करना और मनु को बोद्ध विरोधी सिद्ध करना –
(क) पाखण्डिनो विकर्मस्थान वैडालव्रतिकान् शठान् |
हैतुकान् वकवृत्तीश्र्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ||(४.३०)
डा . अम्बेडकर का अर्थ – ” वह (गृहस्थ) वचन से भी विधर्मी, तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे ) को सम्मान न दे|”
” मनुस्मृति में बोधो और बुद्ध धम्म के विरुद्ध में स्पष्ट व्यवस्था दी गयी है |”
(अम्बेडकर वा. ,ब्राह्मणवाद की विजय पृष्ठ. १५३)
शुद्ध अर्थ – पाखंडियो, विरुद्ध कर्म करने वालो अर्थात अपराधियों ,बिल्ली के सामान छली कपटी जानो ,धूर्ति ,कुतर्कियो,बगुलाभक्तो को अपने घर आने पर वाणी से भी सत्कार न करे |
समीक्षा- इस श्लोक में आचारहीन लोगो की गणना है उनका वाणी से भी अतिथि सत्कार न करने का निर्देश है |
यहा विकर्मी अर्थात विरुद्ध कर्म करने वालो का बलात विधर्मी अर्थ कल्पित करके फिर उसका अर्थ बोद्ध कर लिया |विकर्मी का विधर्मी अर्थ किसी भी प्रकार नही बनता है | ऐसा करके डा . अम्बेडकर मनु को बुद्ध विरोधी कल्पना खडी करना चाहते है जो की बिलकुल ही गलत है |
(ख) या वेदबाह्या: स्मृतय: याश्च काश्च कुदृष्टय: |
सर्वास्ता निष्फला: प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ता: स्मृता:|| (१२.९५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जो वेद पर आधारित नही है, मृत्यु के बाद कोई फल नही देती, क्यूंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अन्धकार पर आधारित है| ” मनु के शब्द में विधर्मी बोद्ध धर्मावलम्बी है| ” (वही ,पृष्ठ१५८)
शुद्ध अर्थ – ‘ वेदोक्त’ सिद्धांत के विरुद्ध जो ग्रन्थ है ,और जो कुसिधान्त है, वे सब श्रेष्ट फल से रहित है| वे परलोक और इस लोक में अज्ञानान्ध्कार एवं दुःख में फसाने वाले है |
समीक्षा- इस श्लोक में किसी भी शब्द से यह भासित नही होता है कि ये बुद्ध के विरोध में है| मनु के समय अनार्य ,वेद विरोधी असुर आदि लोग थे ,जिनकी विचारधारा वेदों से विपरीत थी| उनको छोड़ इसे बुद्ध से जोड़ना लेखक की मुर्खता ओर पूर्वाग्रह दर्शाता है |
(ग) कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाखण्डस्थांश्च मानवान|
विकर्मस्थान् शौण्डिकाँश्च क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् || (९.२२५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जो मनुष्य विधर्म का पालन करते है …….राजा को चाहिय कि वह उन्हें अपने साम्राज्य से निष्कासित कर दे | “(वही ,खंड ७, ब्राह्मणवाद की विजय, पृष्ठ. १५२ )
शुद्ध अर्थ – ‘ जुआरियो, अश्लील नाच गाने करने वालो, अत्याचारियों, पाखंडियो, विरुद्ध या बुरे कर्म करने वालो ,शराब बेचने वालो को राजा तुरंत राज्य से निकाल दे |
समीक्षा – संस्कृत पढने वाला छोटा बच्चा भी जानता है कि कर्म, सुकर्म ,विकर्म ,दुष्कर्म इन शब्दों में कर्म ‘क्रिया ‘ या आचरण का अर्थ देते है | यहा विकर्म का अर्थ ऊपर बताया गया है | लेकिन बलात विधर्मी और बुद्ध विरोधी अर्थ करना केवल मुर्खता प्राय है |
(२) अशुद्ध अर्थ कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करना –
(क) सेनापत्यम् च राज्यं च दंडेंनतृत्वमेव च|
सर्वलोकाघिपत्यम च वेदशास्त्रविदर्हति||(१२.१००)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – राज्य में सेना पति का पद, शासन के अध्यक्ष का पद, प्रत्येक के ऊपर शासन करने का अधिकार ब्राह्मण के योग्य है|’ (वही पृष्ठ १४८)
शुद्ध अर्थ- ‘ सेनापति का कार्य , राज्यप्रशासन का कार्य, दंड और न्याय करने का कार्य ,चक्रवती सम्राट होने, इन कार्यो को करने की योग्यता वेदों का विद्वान् रखता है अर्थात वाही इसके योग्य है |’
समीक्षा – पाठक यहाँ देखे कि मनु ने कही भी ब्राह्मण पद का प्रयोग नही किया है| वेद शास्त्र के विद्वान क्षत्रिय ओर वेश्य भी होते है| मनु स्वयम राज्य ऋषि थे और वेद ज्ञानी भी (मनु.१.४ ) यहा ब्राह्मण शब्द जबरदस्ती प्रयोग कर मनु को ब्राह्मणवादी कह कर बदनाम करने का प्रयास किया है |
(ख) कार्षापण भवेद्दण्ड्यो यत्रान्य: प्राकृतो जन:|
तत्र राजा भवेद्दण्ड्य: सहस्त्रमिति धारणा || (८.३३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” जहा निम्न जाति का कोई व्यक्ति एक पण से दंडनीय है , उसी अपराध के लिए राजा एक सहस्त्र पण से दंडनीय है और वह यह जुर्माना ब्राह्मणों को दे या नदी में फैक दे ,यह शास्त्र का नियम है |(वही, हिन्दू समाज के आचार विचार पृष्ठ२५० )
शुद्ध अर्थ – जिस अपराध में साधारण मनुष्य को एक कार्षापण का दंड है उसी अपराध में राजा के लिए हज़ार गुना अधिक दंड है | यह दंड का मान्य सिद्धांत है |
समीक्षा :- इस श्लोक में अम्बेडकर द्वारा किये अर्थ में ब्राह्मण को दे या नदी में फेक दे यह लाइन मूल श्लोक में कही भी नही है ऐसा कल्पित अर्थ मनु को ब्राह्मणवादी और अंधविश्वासी सिद्ध करने के लिए किया है |
(ग) शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते |
द्विजातिनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते|| (८.३४८)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – जब ब्राह्मणों के धर्माचरण में बलात विघ्न होता हो, तब तब द्विज शस्त्र अस्त्र ग्रहण कर सकते है , तब भी जब द्विज वर्ग पर भयंकर विपति आ जाए |” (वही, हिन्दू समाज के आचार विचार, पृष्ठ २५० )
शुद्ध अर्थ:- ‘ जब द्विजातियो (ब्राह्मण,क्षत्रिय ,वैश्य ) धर्म पालन में बाँधा उत्पन्न की जा रही हो और किसी समय या परिस्थति के कारण उनमे विद्रोह उत्पन्न हो गया हो, तो उस समय द्विजो को शस्त्र धारण कर लेना चाहिए|’
समीक्षा – यहाँ भी पूर्वाग्रह से ब्राह्मण शब्द जोड़ दिया है जो श्लोक में कही भी नही है |
(३) अशुद्ध अर्थ द्वारा शुद्र के वर्ण परिवर्तन सिद्धांत को झूटलाना |
(क) शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः मृदुवागानहंकृत: |
ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्रुते|| (९.३३५)
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” प्रत्येक शुद्र जो शुचि पूर्ण है, जो अपनों से उत्कृष्ट का सेवक है, मृदु भाषी है, अंहकार रहित हैसदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है (अगले जन्म में )  उच्चतर जाति प्राप्त करता है |”(वही ,खंड ९, अराजकता कैसे जायज है ,पृष्ठ ११७)
शुद्ध अर्थ – ‘ जो शुद्र तन ,मन से शुद्ध पवित्र है ,अपने से उत्क्रष्ट की संगती में रहता है, मधुरभाषी है , अहंकार रहित है , और जो ब्राह्मणाआदि तीनो वर्णों की सेवा कार्य में लगा रहता है ,वह उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है|
समीक्षा – इसमें मनु का अभिप्राय कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था का है ,जिसमे शुद्र उच्च वर्ण प्राप्त करने का उलेख है , लेकिन अम्बेडकर ने यहाँ दो अनर्थ किये – ” श्लोक में इसी जन्म में उच्च वर्ण प्राप्ति का उलेख है अगले जन्म का उलेख नही है| दूसरा श्लोक में ब्राह्मण के साथ अन्य तीन वर्ण भी लिखे है लेकिन उन्होंने केवल ब्राह्मण लेकर इसे भी ब्राह्मणवाद में घसीटने का गलत प्रयास किया है |इतना उत्तम सिधांत उन्हें सुहाया नही ये महान आश्चर्य है |
(४) अशुद्ध अर्थ करके जातिव्यवस्था का भ्रम पैदा करना 
(क) ब्राह्मण: क्षत्रीयो वैश्य: त्रयो वर्णों द्विजातय:|
चतुर्थ एक जातिस्तु शुद्र: नास्ति तु पंचम:||
डा. अम्बेडकर का अर्थ- ” इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि मनु चातुर्यवर्ण का विस्तार नही चाहता था और इन समुदाय को मिला कर पंचम वर्ण व्यवस्था के पक्ष में नही था| जो चारो वर्णों से बाहर थे|” (वही खंड ९, ‘ हिन्दू और जातिप्रथा में उसका अटूट विश्वास,’ पृष्ठ१५७-१५८)
शुद्ध अर्थ – विद्या रूपी दूसरा जन्म होने से ब्राह्मण ,वैश्य ,क्षत्रिय ये तीनो द्विज है, विद्यारुपी दूसरा जन्म ना होने के कारण एक मात्र जन्म वाला चौथा वर्ण शुद्र है| पांचवा कोई वर्ण नही है|
समीक्षा – कर्म आधारित वर्ण व्यवस्था ,शुद्र को आर्य सिद्ध करने वाला यह सिद्धांत भी अम्बेडकर को पसंद नही आया | दुराग्रह और कुतर्क द्वारा उन्होंने इसके अर्थ के अनर्थ का पूरा प्रयास किया |
(५) अशुद्ध अर्थ करके मनु को स्त्री विरोधी कहना |
(क) न वै कन्या न युवतिर्नाल्पविध्यो न बालिश:|
होता स्यादग्निहोतरस्य नार्तो नासंस्कृतस्तथा||( ११.३६ )
डा. अम्बेडकर का अर्थ – ” स्त्री वेदविहित अग्निहोत्र नही करेगी|” (वही, नारी और प्रतिक्रान्ति, पृष्ठ ३३३)
शुद्ध अर्थ – ‘ कन्या ,युवती, अल्पशिक्षित, मुर्ख, रोगी, और संस्कार में हीन व्यक्ति , ये किसी अग्निहोत्र में होता नामक ऋत्विक बनने के अधिकारी नही है|
समीक्षा – डा अम्बेडकर ने इस श्लोक का इतना अनर्थ किया की उनके द्वारा किया अर्थ मूल श्लोक में कही भव ही नही है | यहा केवल होता बनाने का निषद्ध है न कि अग्निहोत्र करने का |
(ख) सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया |
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तह्स्त्या|| (५.१५०)
डा. अम्बेकर का अर्थ – ” उसे सर्वदा प्रसन्न ,गृह कार्य में चतुर , घर में बर्तनों को स्वच्छ रखने में सावधान तथा खर्च करने में मितव्ययी होना चाहिय |”(वही ,पृष्ठ २०५)
शुद्ध अर्थ -‘ पत्नी को सदा प्रसन्न रहना चाहिय ,गृहकार्यो में चतुर ,घर तथा घरेलू सामान को स्वच्छ सुंदर रखने वाली और मित्यव्यी होना चाहिय |
समीक्षा – ” सुसंस्कृत – उपस्करया ” का बर्तनों को स्वच्छ रखने वाली” अर्थ अशुद्ध है | ‘उपस्कर’ का अर्थ केवल बर्तन नही बल्कि सम्पूर्ण घर और घरेलू सामान जो पत्नीं के निरीक्षण में हुआ करता है |
(६) अशुद्ध अर्थो से विवाह -विधियों  को विकृत करना 
(क) (ख) (ग) आच्छद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्|
आहूय दान कन्यायाः ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तित:||(३.२७)
यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते|
अलकृत्य सुतादान दैव धर्म प्रचक्षते||(३.२८)
एकम गोमिथुंनं द्वे वा वराददाय धर्मत:|
कन्याप्रदानं विधिविदार्षो धर्म: स उच्यते||(३.२९)
डा अम्बेडकर का अर्थ – बाह्म  विवाह के अनुसार किसी वेदज्ञाता को वस्त्रालंकृत पुत्री उपहार में दी जाती थी| देव विवाह  था जब कोई पिता अपने घर यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणास्वरूप अपनी पुत्री दान कर देता था | आर्ष विवाह के अनुसार वर, वधु के पिता को उसका मूल्य चूका कर प्राप्त करता था|”( वही, खंड ८, उन्नीसवी पहेली पृष्ठ २३१)
शुद्ध अर्थ – ‘वेदज्ञाता और सदाचारी विद्वान् कन्या द्वारा स्वयम पसंद करने के बाद उसको घर बुलाकर वस्त्र और अलंकृत कन्या को विवाहविधिपूर्वक देना ‘ बाह्य विवाह’ कहलाता है ||’
‘ आयोजित विस्तृत यज्ञ में ऋत्विज कर्म करने वाले विद्वान को अलंकृत पुत्री का विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना’ दैव विवाह ‘ कहाता है ||”
‘ एक या दो जोड़ा गाय धर्मानुसार वर पक्ष से लेकर विवाहविधिपूर्वक कन्यादान करना ‘आर्ष विवाह ‘ है |’ आगे ३.५३ में गाय का जोड़ा लेना वर्जित है मनु के अनुसार
समीक्षा – विवाह वैदिक व्यवस्था में एक संस्कार है | मनु ने ५.१५२ में विवाह में यज्ञीयविधि का विधान किया है | संस्कार की पूर्णविधि करके कन्या को पत्नी रूप में ससम्मान प्रदान किया जाता है | इन श्लोको में इन्ही विवाह पद्धतियों का निर्देश है | अम्बेडकर ने इन सब विधियों को निकाल कर कन्या को उपहार , दक्षिणा , मूल्य में देने का अशुद्ध अर्थ करके सम्मानित नारी से एक वस्तु मात्र बना दिया | श्लोको में यह अर्थ किसी भी दृष्टिकोण से नही बनता है | वर वधु का मूल्य एक जोड़ा गाय बता कर अम्बेडकर ने दुर्भावना बताई है जबकि मूल अर्थ में गाय का जोड़ा प्रेम पूर्वक देने का उलेख है क्यूंकि वैदिक संस्कृति में गाय का जोड़ा श्रद्धा पूर्वक देने का प्रतीक है |
अम्बेडकर द्वारा अपनी लिखी पुस्तको में प्रयुक्त मनुस्मृति के श्लोको की एक सारणी जिसके अनुसार अम्बेडकर ने कितने गलत अर्थ प्रयुक्त किये और कितने प्रक्षिप्त श्लोको का उपयोग किया और कितने सही श्लोक लिए का विवरण –

 

 उपरोक्त
वर्णन के आधार पर स्पष्ट है कि अम्बेडकर ने मनु स्मृति के कई श्लोको के गलत अर्थ प्रस्तुत कर मन मानी कल्पनाय और आरोप गढ़े है | ऐसे में अम्बेडकर निष्पक्ष लेखक न हो कर कुंठित व्यक्ति ही माने जायेंगे जिन्होंने खुद भी ये माना है की उनमे कुंठित भावना थी | जो कि इसी ब्लॉग पर बाबा साहब की बेवाक काबिले तारीफ़ नाम से है | इन सब आधारों पर अम्बेडकर के लेख और समीक्षाय अप्रमाणिक ही कही जायेंगी |
संधर्भित पुस्तके – (१) मनु बनाम अम्बेडकर-डा. सुरेन्द्र कुमार
(२) मनुस्मृति और अम्बेडकर – डा.के वी पालीवाल …..

 

ताज महल ही बाक्की रह गया था !

taajmahl and azam

आज आजमखान की मांग टीवी पर देखने को मिली ये नेता जी ताजमहल को वक्फ बोर्ड को देने की मांग कर रहे थे, जिसे एक इमाम ने समर्थन देते हुए यह भी कह दिया है की ताजमहल में ५ वक्त की नमाज भी होनी चाहिए, आजमखान कह रहे है की ताजमहल को वक्फ बोर्ड को सौंप दिया जाए क्योंकि यह एक मकबरा है और मकबरा होने के नाते इस पर वक्फ बोर्ड का हक़ बनता है, वक्फ बोर्ड को सौंपने से इससे होने वाली आमदनी से मुसलमानों की तालीम में उपयोग में लिया जा सके, और इसकी आमदनी से कम से कम दो यूनिवर्सिटी बन सकती है, बड़ा अचरज हुआ इनकी बेबुनियाद मांग को देख कर, क्या इन्हें सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी कम लगती है, क्या देश की हजारों मस्जिदों से इतना धन भी प्राप्त नहीं होता की मुसलमानों की तालीम का अच्छे से बंदोबस्त किया जा सके, क्या इन मस्जिदों से प्राप्त धन का उपयोग कुरान में बताये जिहाद पर ज्यादा खर्च होता है ? इसलिए इन्हें अब ताजमहल का पैसा चाहिए |

तालीम की बात आई तो सोचा इनकी तालीम पर थोड़ी रौशनी डाल दी जाए तो आम जनता को कुछ जानकारी मिले और सेकुलरो की आँख की पट्टी खुल सके, इनकी तालीम की जानकारी मिलने के बाद हिन्दू-मुस्लिम भाई भाई शायद बोलना भी पाप लगने लगेगा, आइये आपको मदरसों की तालीम का दर्शन कराते है |

भारतीय मदरसों में भारत में स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा तो दी ही जाती है, यदि यही शिक्षा देनी है तो मदरसों की क्या जरुरत है, यह शिक्षा तो सरकारी स्कूलों में निःशुल्क दी जाती है, और उसमें ऐसा कोई कानून नहीं है की उसमें मुसलमान नहीं पढ़ सकते है हर कोई पढ़ सकता है तो अलग से मदरसा क्यों ?

मदरसों में स्कूली शिक्षा के अलावा एक शिक्षा और दी जाती है जिसे ये खुदाई पुस्तक कहते है, कुरान!! जी हाँ !! मदरसों में कुरानी की तालीम दी जाती है, इस तालीम को पाने के बाद कोई मुस्लिम हिन्दू- मुस्लिम भाई भाई का राग तो कतई नहीं अलापेगा !

ऐसा क्या है कुरान में जो मुसलमान इसकी तालीम पाने के बाद जिहादी बन जाता है, यह सोचने की जरुरत है इसी की जानकारी हम इस लेख में देना चाहते है

देखिये कुरान की तालीम

और जब इरादा करते हैं हम ये की हलाक अर्थात कत्ल करें किसी बस्ती को, और हुक्म करते है हम दौलतमंदों को उसके की, पास! नाफ़रमानी करते हैं, बीच उसके | बस! साबित हुई ऊपर उसके मात गिज़ाब की, बस! हलाक करते हैं हम उनको हलाक करना |
(कुरान मजीद, सुरा ६, रुकू २, आयत ६ )

और देखिये इससे अगली आयत में कहा गया है की-
और बहुत हलाक किये हैं हमने क्यों मबलगो? तुम्हारा खुदा तो जब उसे किसी बस्ती के हलाक करने का शौक चढ़ आये तब उसमें रहने वाले दौलतमंदों को नाफ़रमानी करने अर्थात आज्ञा न मानने वाले का हुक्म दे ! या यूँ कह सकते हैं की इसके इस हुक्म की तामिल करें नाफ़रमानी करो तो उन्हें और उनके साथ बस्ती में रहने वाले बेगुनाहों, मासूम बच्चों तक को अपना शौक पूरा करने के लिए हलाक अर्थात कत्ल करें !

और देखिये
और कत्ल कर दो, यहाँ तक की ना रहे फिसाद, यानी गलबा कफ्फार का ||
(कुरान मजीद, सुरा अन्फाल, आयत ३९)
मुशिरकों को जहाँ पाओ कत्ल कर दो और पकड़ लो और घेर लो और हर घात की जगह पर उनकी ताक में बैठे रहो …….||
(कुरान मजीद, सुरा तौबा, आयत ५)
इस आयत का नतीजा यदि देखना है तो देखो कश्मीरी पंडितों के साथ क्या हुआ था, केवल एक पत्र दिया गया की घर खाली करों एक दिन का समय है अन्यथा मार दिए जाओगे, और काफी संख्या में कश्मीरी पंडित मार दिए गए या भगा दिए गए,

और देखिये

ऐ नबी ! मुसलमानों को कत्लेआम अर्थात जिहाद क लिए उभारो ……||
(कुरान मजीद, सुरा अन्फाल, आयत ६५)

जब तुम काफिरों (गैर मुसलमान) से भीड़ जाओ तो उनकी गर्दन उड़ा दो, यहाँ तक की जब उनको खूब कत्ल कर चुको, और जो जिन्दा पकडे जाएँ, उनको मजबूती से कैद कर लो
(कुरान मजीद, सुरा मुहम्मद, आयत ४)

ऐ पैगम्बर! काफ़िरों और मुनाफिकों से लड़ो और उन पर सख्ती करो, उनका ठिकाना दोज़ख है, और वह बहुत ही बुरी जगह है |
(कुरान मजीद. सुरा तहरिम, आयत ९)

यह नजराना है कुरान से आपके लिए इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ भरा पड़ा है इस खुदाई पुस्तक में, अब कहिय जनाब ! यहाँ आपका क्या कहना है ? इन आयतों में क्या यहाँ धर्म के विरोधियों, जालिमों और बदमाशों के कत्ल करने इजाजत नहीं है | बल्कि स्पष्ट तौर पर काफ़िरों को कत्ल करने का निर्देश है, और आप ये जानते हैं की “काफिर” बद्चलनों, बदमाशों, चोरों, डाकुओं, लुटेरों और दुष्टों आदि को नहीं बल्कि उनको कहा जाता है जो की हजरत मोहम्मद साहब को खुदा का रसूल ना मानें, चाहे वो शख्स कितना भी नेक चलन, अच्छे आचरण वाला भला आदमी ही क्यों न हो ?
परन्तु चाहे जनता दुष्टाचरण करने वाली भी हो, दुनियाभर की बुराइयां उसमें मौजूद हों, परन्तु वह हजरत मोहम्मद साहब को खुदा का रसूल मान ले, बस! समझों की वह मोमिन बने बनाये हैं |

इतना कुछ जानने के बाद भी यदि आप मदरसों में दी जाने वाली तालीम के पक्षधर है, तो आपसे बड़ा धर्म का दुश्मन कौन हो सकता है, आजमखान साहब मदरसों की तालीम से इतना मोह कैसे है क्या मुज्जफरनगर दंगों से भी बड़ा काण्ड करने की इच्छा है क्या ??

अब ये सवाल तो स्वयं आजमखान चाह कर भी नहीं दे सकते है खैर मदरसों की चल चलन हम तो भलीं भांति जानते है बाकी पाठकगण समझदार है लेख पढ़े कुछ खामियां हो तो अवगत जरुर कराये

और हाँ !! अपना सेकुलरिज्म का चश्मा जरुर उतार लें !!

औ३म

नमस्ते

महिलाओ के प्रति कुरान का दृष्टिकोण

women in islam 2

मुसलमान कहते है भारत में कुरान की जरुरत इसलिए हुई की यहाँ अत्याचार, मारकाट, औरतों पर जुल्म चरम पर था, उस स्थिति को सुधारने के लिए भारत में कुरान की जरूरत हुई, कुरान को खुदाई पुस्तक बताकर उसे भारतीय जनता का उधारक बताया है, जबकि सच्चाई इससे कोसों दूर है, यदि कुरान को केवल उपरी नजर से भी पढ़ा जाए तो सच्चाई सामने आ जायेगी

सच यह है की भारतीय जनता को गुमराह करने के लिए ये उलजुलूल तर्क कुरान में दिए है, भारत देश जिसमें रहने वाले लोग वैदिक धर्मी थे, यही एक मात्र धर्म है संसार में जिसमें औरत को पूजनीय बताया गया है, वेद का एक-एक मन्त्र पढ़ लिया जाए तो भी उसमें औरत के लिए गलत कुछ नहीं लिखा है, यही एक मात्र देश है जहाँ नारी को पुरुष के समकक्ष अधिकार दिए गए है
वही दूसरी और वो मजहब जो कुरान को मानता है, वहां औरत पर जुल्म इतने है की ह्रदय काँप जाए, औरत को भोग की वस्तु बना कर उसको तरह तरह से अप्राकृतिक रूप से भोगने के आदेश दिए हुए है, १०-१० बच्चे पैदा करने तक मजबूर किया जाता है, एक पुरुष अनेकों महिलाओं से निकाह कर सकता है, वो भी केवल अपनी काम इच्छा की पूर्ति के लिए, इस्लाम का शरियत कानून देख लों जो औरतों पर ऐसे अत्याचार करता है की सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते है, संक्षिप्त में आपको इस्लाम में महिलाओं की स्थिति के दर्शन कराते है

कुरान में गैर इस्लामी लोगों को मारने, काटने की बहुत जगह आज्ञा दी गई है, और सबसे ज्यादा अत्याचार करने की आज्ञा है तो वो है औरतों पर, इस खुदाई पुस्तक में औरत को भोग का साधन मात्र बताया गया है, लुटने, भोगने की चीज बताया है, आइये देखते है खुदा के औरतों पर जुल्म:-

धर्म के अनुसार औरत पर जुल्म करने वाले को जालिम और दुष्ट कहा गया है, और जो खुदा अपनी ही प्रजा (स्त्रियों) पर जुल्म ढाने, उनसे व्यभिचार करने, बलात्कार करने का हुक्म दे तो क्या वह जालिम और दुष्ट नहीं है?

देखिये कुरान में कहा गया है की–
या अय्युह्ल्लजी-न आमनू कुति-ब……..||
(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रुकू २२ आयत १७८)

ऐ ईमान वालों ! जो लोग मारे जावें, उनमें तुमको (जान के) बदले जान का हुक्म दिया जाता है| आजाद के बदले आजाद और गुलाम के बदले गुलाम, औरत के बदले औरत|
इसमें हमारा एतराज इस अंश पर है की “औरत के बदले औरत” पर जुल्म किया जावे | यदि कोई बदमाश किसी की औरत पर जुल्म कर डाले तो उस बदमाश को दण्ड देना मुनासिब होगा किन्तु उसकी निर्दोष औरत पर जुल्म ढाना यह तो सरासर बेइन्साफी की बात होगी | ऐसी गलत आज्ञा देना अरबी खुदा को जालिम साबित करता है, न्यायी नहीं |

वल्मुहसनातु मिनन्निसा-इ इल्ला मा………||
(कुरान मजीद पारा ५ सुरा निसा रुकू ४ आयत २४)
ऐसी औरतें जिनका खाविन्द ज़िंदा है उनको लेना भी हराम है मगर जो कैद होकर तुम्हारे हाथ लगी हों उनके लिए तुमको खुदा का हुक्म है …… फिर जिन औरतों से तुमने मजा उठाया हो तो उनसे जो ठहराया उनके हवाले करो | ठहराए पीछे आपस में राजी होकर जो और ठहरा लो तो तुम पर इसमें कुछ उर्ज नहीं | अल्लाह जानकर हिकमत वाला है

समीक्षा

निर्दोष औरतों को लुट में पकड़ लाना और उनसे व्यभिचार करने की खुली छुट कुरानी खुदा ने दे दी है, क्या यह अरबी खुदा का स्त्री जाती पर घोर अत्याचार नहीं है ? क्या वह व्यभिचार का प्रचारक नहीं था, फीस तय करके औरतों से व्यभिचार करने तथा फीस जो ठहरा ली हो उसे देने की आज्ञा देना क्या खुदाई हुक्म हो सकता है ? अरबी खुदा और कुरान जो औरतों पर जुल्म करने का प्रचारक है क्या समझदार लोगों को मान्य हो सकता है ?

और देखिये इस्लामी पुस्तक कुरान बीबियों को किस तरह काम पूर्ति का साधन मानती है,
अपनी बीबियों के साथ पीछे से संभोग करना, क्या यह भी कोई शराफत की बात है जिसकी आज्ञा खुदा ने दी ?
देखिये कुरान में कहा गया है की—
निसा-उकुम हरसुल्लकुम फअतु……….||
(कुरान मजीद पारा २ सुरा बकर रुकू २८ आयत २२३)

तुम्हारी बीबियाँ तुम्हारी खेतियाँ है | अपनी खेती में जिस तरह चाहो (उस तरह) जाओ | यह अल्लाह का हुक्म है |
पीछे से सम्भोग करने का आशय दो तरीकों से है, एक तो प्राकृत सम्भोग से है दुसरा अप्राकृतिक सम्भोग अर्थात –गुदा मैथुन से है, हम मानते हैं इनमें से कोई भी हो दोनों ही गलत है |
चरक और सुश्रुतु की मान्यतानुसार अगर उलटे सीधे तरीकों से सम्भोग किया जाएगा तो उनके द्वारा पैदाशुदा संतान भी उलटी-सीधी अर्थात विकारित ही पैदा होगी |
जैसे की पीछे से प्राकृत सम्भोग करने पर वायु का दबाव अधिक रहने के कारण कष्टदायक होता है तथा संतान भी विकलांग ही पैदा होती है |
रही बात गुदा मैथुन की ? उसका समर्थन तो कुरान में साफ़ शब्दों में किया गया है
देखिये-
“कुरान मजीद सुरा बकर पारा-२, रुकू २८, आयत २२३”
जिसमें अल्लाह ताला ने कहा है की—
“औरतें तुम्हारी खेतियाँ है जिधर से चाहो उधर से जाओ“ तथा “तफसीरे कबीर जिल्द २, हुज्जतस्सलिसा, सफा २३४, मिश्र छापा”
जिसमें गुदा मैथुन अर्थात इग्लामबाजी का स्पष्ट आदेश मौजूद है |
अतः पीछे से सम्भोग करने का तात्पर्य दोनों तरह से माना जा सकता है, जो मानवता, नैतिकता व् ईश्वरीय नियम के विरुद्ध है |

ऐसी कई कुरानी खुदा की आज्ञा कुरान में दी है यह तो केवल कुरानी खुदा की फिल्म का ट्रेलर है पूरी फिल्म आपको www.aryamantavya.in पर इस्लाम से सम्बंधित पुस्तकों में मिल जायेगी

जिस कुरान की जरुरत भारत में औरतों पर अत्याचार को रोकने के लिए बताई है वही कुरान भारत जैसे धार्मिक देश में जहाँ पर नारी को पूजनीय बताया गया है वही पर यह कुरान औरत पर बलात्कार आदि जैसे अत्याचारों को बढ़ावा देने का कारक बन गई है, पाठकगण अपनी बुद्धि विवेक का उपयोग करें और हो सके तो कुरान का स्वयं भी अध्ययन करें ताकि आप स्वयं दूध का दूध पानी का पानी कर सके यदि कुरान पढने का समय नहीं दे पाते है, तो आप www.aryamantavya.in इस साईट पर आये ताकि हम आपका इस्लाम के जुल्म से भरे चेहरे का दर्शन करा सके

पाठकगण अपनी प्रतिक्रिया जरुर दें

नमस्ते
औ३म्

AryaMantavya – आर्य मंतव्य (कृण्वन्तो विश्वम आर्यम) – AryaMantavya – आर्य मंतव्य | aryamantavya
www.aryamantavya.in

बहुकुण्डी यज्ञ – एक विवेचना आचार्य सुनील शास्त्री

Bahu Kundeey Yagay

 

‘‘ओ३म्’’

आज आर्य समाजों व सम्पन्न श्रद्धालु आर्यों में बहुकुण्डी यज्ञ व वेद – परायण यज्ञों का प्रचलन तीव्रता से हो रहा है । प्रायः समाजों व परिवारों में उत्सवादि विशेष अवसरों पर इनका आयोजन होना अब सामान्य बात है । सामान्यतः यह सब देख – सुनकर आर्यजनों के सुखद अनुभूति व उत्साह मिलता है । आर्य उपदेशकों द्वारा भी इनके आयोजन हेतु उत्साह व प्रेरणा मिलती है । आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने वेद और वेदानुकूल शास्त्रोक्त उपदेशों को मनसा – वाचा – कर्मणा पालन करना ही (आर्योचित) धर्म माना है । अतः अब इनकी कसौटी पर बहुकुण्डी यज्ञ की प्रामाणिकता को हम कसते हैं । हम देखेंगे कि वेद व वेदानुकूल शास्त्र तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज कहाँ तक इसका अनुमोदन करते हैं ? साथ ही साथ यह भी विचारणीय है कि इस नव – प्रतिष्ठित याज्ञिक – परम्परा से क्या – क्या लाभ व हानियाँ हो रही हैं ।

वेदों में द्रव्य – यज्ञों का कहीं भी स्पष्ट वर्णन नहीं है । ऋषियों ने बाद में वेद – मन्त्रों के आधार पर इन यज्ञों का आविष्कार किया । अतः वेदों में बहुकुण्डी ही नहीं किसी भी प्रकार के शास्त्रीय यज्ञों सोमयाग , अश्वमेधादि का प्रत्यक्ष वर्णन नहीं है ।

(विशेष – विस्तृत अध्ययन के लिए महामहोपाध्याय पं० युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा विरचित ‘‘श्रौत यज्ञों का संक्षिप्त परिचय’’ नामक पुस्तक पढ़ें प्रकाशक – रामलाल कपूर ट्रस्ट)

कल्प साहित्य मूलतः कर्मकाण्डीय है । इन ग्रन्थों में भी कहीं भी बहुकुण्डी यज्ञ का वर्णन अथवा संकेत भी नहीं है । इनमें वैदिक याज्ञिक कर्मकाण्ड का सविस्तार व विधिवत् सर्वांगरूपेण वर्णन है । किन्तु बहुकुण्डी व वेद – परायण का कहीं संकेत भी नहीं है ।

गुरूवर महर्षि देव दयानन्द जी ने भी अपने कर्मकाण्डीय ग्रन्थ संस्कार – विधि अथवा पञ्च महायज्ञ – विधि अथवा अपने अन्य किसी भी ग्रन्थ में इस बहुकुण्डी यज्ञ का वर्णन व संकेत नहीं किया है । महर्षि ने सर्वत्र ही अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों की चर्चा की है ।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बहुकुण्डी यज्ञ का वर्णन वेद अथवा प्राचीन प्रामाणिक याज्ञिक ग्रन्थों में कहीं भी नहीं मिलता है । साथ ही साथ यह महर्षि की इच्छाओं व मन्तव्यों के भी सर्वथा विरूद्ध है ।

श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी, पूर्व उपकुलपति गुरूकुल काँगडी विश्वविद्यालय , ने अपने ग्रन्थ यज्ञ – मीमांसा में इस विषय में स्पष्ट लिखते हैं – ‘‘वेदों में या किसी अन्य प्रामाणिक प्राचीन आर्ष ग्रन्थ में बहुकुण्डी यज्ञ का विधान भी हमें अद्यावधि प्राप्त नहीं हो सका है ।’’ – (यज्ञ मीमांसा, भूमिका , प्रकाशित – विजय कुमार गोविन्द राम हासानन्द)

बहुकुण्डी यज्ञ के प्रचलन के कारण – वेद , वेदानुकूल आर्ष याज्ञिक ग्रन्थों तथा महर्षि के ग्रन्थों में भी बहुकुण्डी यज्ञ का विधान का समर्थन न होने के बावजूद आर्य समाजों में बहुकुण्डी यज्ञ प्रचलित हुआ और क्रमशः बढ़ता जा रहा है । जबकि महर्षि की इच्छा अश्वमेधादि शास्त्रीय यज्ञों के प्रचार – प्रसार की भी । किन्तु आर्य समाज में कहीं भी किसी भी विद्वान द्वारा इस विषय में कोई विशेष प्रयत्न नहीं दिखता है । इसका कारण महामहोपाध्याय श्रद्धेय पं० युधिष्ठिर मीमांसक जी लिखते हैं (यद्यपि वहाँ वेद – परायण यज्ञ का प्रसंग है किन्तु बहुकुण्डी यज्ञ  भी वेद – परायण यज्ञ की भाँति अनार्ष ही है; अतः यह कथन यहाँ भी ठीक बैठता है) ‘‘आजकल आर्य समाज में जो विद्वान् हैं , उनमें एक भी व्यक्ति ऋषि दयानन्द प्रदर्शित पाठविधि के अनुसार शिक्षा से लेकर वेदपर्यन्त अध्ययन किया हुआ नहीं है ।’’—- यही कारण है कि ऋषि दयानन्द के मन्त्रव्यों को आज के आर्य समाज के विद्वान यथावत् समझने में प्रायः असमर्थ हैं ।’’ वे पुनः आगे लिखते हैं – ‘‘आर्य समाज में ऋषि दयानन्द प्रदर्शित अग्नि होत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों का प्रचलन होने का प्रधान कारण ब्राह्मणग्रन्थों तथा श्रौतसूत्रों का यथावत् अध्ययन करना है ।’’ – (श्रौत यज्ञों का संक्षिप्त परिचय , उपोद्घात , प्रकाशक – रामलाल कपूर ट्रस्ट)

विशेष – परमात्मा की असीम कृपा से मैं व्यक्तिगत रूप से एक ऐसे तपोनिष्ठ ऋषि – भक्त आचार्य को जानता हूँ जिन्होंने तपस्या पूर्वक महर्षि निर्देशित पाठ – विधि के अनुसार शिक्षा से लेकर वेद पर्यन्त अध्ययन किया है , किन्तु दुर्भाग्य से उस दिव्यात्मा को भी महर्षि की इच्छानुसार वेद के विद्वान तैयार करने के लिए महान् संघर्ष करना पड़ रहा है । न तो उनको उचित स्थान है और न ही पर्याप्त संसाधन । यदि होते तो वे निश्चिन्त होकर वेद के विद्वानों का निर्माण कर सकते थे। महान् दुर्भाग्य है कि आर्य समाज के पास भवन – निर्माण के लिए करोड़ों रूपये हैं; अन्यान्य कार्यों के लिए संसाधन है किन्तु वेद के विद्वान् के निर्माण के लिए कोई योजना नहीं है । अन्यथा कोई कारण नहीं कि ऐसे उद्भट् विद्वान् को भटकना पड़े ।

बहुकुण्डी यज्ञ के लाभ – बहुकुण्डी यज्ञ के समर्थन में अनेक तर्क दिये जाते हैं । इस विषय में हम स्वयं कुछ न कहकर श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकर जी को ही उद्घृत करते हैं –

बहुकुण्डी यज्ञ की निम्नलिखित विशेषताएँ कही जा सकती हैं –

१. एक ही काल में अधिक यजमान हो सकते हैं तथा उन सभी को एक साथ आहुति डालने का अवसर प्राप्त हो सकता है । —–

२. सब यजमानों का सब यज्ञ – कुण्डों के लिए पुरोहित तथा वेदपाठी एक ही रहते हैं । यदि अलग – अलग स्थानों पर  १-१ कुण्ड रखकर १०१ यज्ञ होते, तो पुरोहित तथा वेदपाठी भी अलग – अलग रखने पड़ते ।

३. ब्रह्मा की ओर से सबको उपदेश भी इकट्ठा मिल जाता है । अलग – अलग स्थानों पर यज्ञ की जो अलग – अलग व्यवस्था करनी पड़ती उससे भी बच जाते हैं ४. पुरोहितों को एक ही काल में अनेक यजमानों की ओर से दक्षिणा मिलने से दक्षिणा की राशि पुष्कल हो जाती है जिसे वे किसी सत्कार्य में लगा सकते हैं । ——–

वे आगे लिखते हैं – ‘‘किन्तु हमारे विचार से बहुकुण्डी यज्ञों को प्रोत्साहित किया जाना ही उचित है एक स्थान पर अनेक कुण्डों में यज्ञ करने की अपेक्षा अनेक स्थानों पर एकएक कुण्ड से यज्ञ किये जाने में अधिक लाभ है । अनेक स्थानों पर अलग – अलग यज्ञ होगा , तो उन सब स्थानों का वायुमण्डल यज्ञीय सुगन्ध से शुद्ध होगा और सब स्थानों से सुगन्ध चारों ओर फैलेगी । उस स्थिति में पुरोहित भी भिन्न व्यक्ति हो सकते हैं , जिससे पौरोहित्य कुछ ही विद्वानों में सीमित न रहकर बहुव्यापी हो सकेगा ।’’—– ‘‘श्रद्धेय आचार्य जी आगे एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात रखते हैं — कहा जाता है कि सार्वजनिक यज्ञ में यदि एक ही कुण्ड होगा , तो गिने – चुने लोग ही आहुति डाल सकेंगे , शेष लोग आहुति डालने के पुण्य से वंचित ही रह जायेंगे । किन्तु सबको आहुति डालने का पुण्य तो बहुकुण्डी यज्ञों में भी नहीं मिल पाता , यजमानों को ही मिलता है । दूसरे , आहुति डालने का पुण्यलाभ करना है , तो घर पर दैनिक अग्निहोत्र से कीजिए । सार्वजनिक यज्ञ में तो सम्मिलित होने का ही पुण्य है ।’’ – (यज्ञ मीमांसा भूमिका)

बहुकुण्डी यज्ञों से हानि – अब बहुकुण्डी यज्ञ से होने वाले हानियों पर विचार करते हैं ।

१. वेदानुकूल शास्त्रीय सोमयाग , अश्वमेधादि यज्ञों का प्रचलन न होना । फलतः इन शास्त्रीय यज्ञों में निहित सृष्टि – विज्ञान व अन्य विज्ञान का ज्ञान न होना ।

२. महर्षि दयानंद की इच्छाओं व आज्ञाओं का हनन ।

३. वेद , ब्राह्मण , कल्पादि आर्ष ग्रन्थों के पठन – पाठन में शिथिलता ।

४. यज्ञों की शास्त्रीय एकरूपता का हनन होकर मनमाने ढ़ंग के यज्ञों का प्रचलन । इससे शास्त्र व संगठन की महती हानि ।

५. यज्ञों में अनेक प्रकार के आडम्बरों का प्रवेश ।

६. शास्त्रीय यज्ञ सत्य वेदार्थ को भी समझने में सहायक हैं । अतः इनके लोप से सही वेदार्थ भी असम्भव है ।

अन्त में विनम्र निवेदन है कि प्रस्तुत लेख का एक मात्र उद्देश्य वेदानुकूल शास्त्रीय यज्ञों के प्रचार – प्रसार को प्रेरित करना है । इसमें किसी को कहीं भी कोई शंका हो अथवा कुछ भी शास्त्र – विरूद्ध लगे कृपया सप्रमाण अवश्य ही लिखें, मेरा ज्ञानवर्द्धन होगा ।

 

आचार्य सुनील शास्त्री

E-mail id – achangasumlshashln@gmail.com

चलभाष –  ९८३७५१८८७३

 

क्या वेदों में वर्णित जर्भरी तुर्फरी का कोई अर्थ नही है ?(चार्वाक मत खंडन )

मित्रो कई नास्तिक वादी और अम्बेडकर वादी वेदों पर चार्वाक दर्शन के आधार पर आरोप लगाते है कि वेदों में जर्भरी तुर्फरी का कोई अर्थ नही है ये युही लिखे गये है | कुछ दलित साहित्य कार जो आर्यों को विदेशी साबित करने पर तुले है वो कहते है कि ये ईराक आदि देशो के नदियों या किसी शहर के नाम थे जहा से आर्य भारत आये |
इस तरह की काल्पनिक बातें या कहानिया ये लोग गढ़ लेते है |
चार्वाक कहते है :-

” त्रयो वेदस्य कर्तारो भंडधूर्तनिशाचरा:|
जर्फरीतुर्फरीत्यादी पंडितानां वच: स्मृतम्||चार्वाक||”
भंड ,धूर्त ,निशाचर ये लोग वेदों के कर्ता है |इनके नाना प्रकार के बेमतलब शब्दों जर्भरी तुर्फरी से वेद भरा पड़ा है |
यहा चार्वाक और अनेक अम्बेडकर वादी ये भ्रम पैदा कर दिया कि वेदों में कई अनर्थक बिना मतलब वाले शब्द है |जिनका कोई अर्थ नही है | तो कुछ इन शब्दों को संस्कृत का न बता कर अन्य भाषा का बताते है |क्यूंकि ये लोग लोकिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत के भेद से परिचित नही है या थे इसलिए इस तरह की कल्पनाये या बातें मन में धारण कर लेते है |
वेदों में वर्णित सभी शब्द या धातु अपना अर्थ रखती है ..
इस संधर्भ में निरुक्त में कौत्स के नाम से ऐसा पूर्वपक्ष उठाकर यही बात कहलाई गयी है | और यास्क उत्तर देते हुए कहते है कि वेदों में वर्णित सभी शब्दों के अर्थ है और स्पष्ट अर्थ है |
जैमिनी मुनि ने मीमासा में पूर्वपक्ष में इस तरह के प्रश्नों का समाधान करते हुए कहा है कि वेदों में सब शब्द अर्थ पूर्ण है |
ये जर्भरि और तुर्फरी शब्द ऋग्वेद के १०/१०६/६ में आये है :-
” सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतु नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका |
उदन्यजेव जेमना म्देरु ता में जराय्वजरं मरायु ||६||”

ये दोनों शब्द दिवचन है और अश्विनो के विशेषण है यास्क मुनि निरुक्त परिशिष्ट अध्याय १३ के ६ खंड में इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते हुए ऋग्वेद के १०/१०६/६ की व्याख्या करते हुए कहते है – ” सृण्येवेति द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च तथाश्विनौ चापि भर्तारो जर्भरी भर्तारावित्यर्थस्तूर्फरीतू हन्तारो| निरुक्त १३/६/४ |
यहा इसे अश्विनो का विशेषण बताते हुए यास्कचार्य जर्भरी को भर्ता से व्यक्त करते है अर्थात पोषण करने वाला अत: जर्भरी का अर्थ हुआ पोषण करने वाला |
तुर्फरी को हन्ता से व्यक्त करते है अर्थात ताड़ने वाला या मारने वाला होता है | अत: तुर्फरी का अर्थ हुआ मारने वाला या सताने वाला |
यहा दोनों शब्दों का अर्थ स्पष्ट कर दिया है |
अश्विनी का अर्थ विद्युत भी होता है और इस मन्त्र में इसे यास्क ने इसी का विशेषण बताया है |  इस मन्त्र में जर्भरी ओर तुर्फरी को पालन करने वाला बताया है जेसा की हम देखते है कि विद्युत का कई तरह से उपयोग कर हम अपने जीवन को सरल और आरामदायक बना रहे है ,जैसे मिक्सी ,चक्की ,फ्रिज,वाशिंगमशीन ,हीटर आदि में विद्युत के उपयोग द्वारा …
तो दूसरी तरफ यही विद्युत दुर्घटना वश लोगो को करंट दे कर ताड़ती है ,कई बार आकाशी विद्युत गिर जाती है तो बहुत हानि करती है ,अत्यधिक वोल्टेज के या ३ फेस तारो को कोई छू लेता है तो वो मर जाता है या विधुयुत उसे मारती है ..इस तरह इस मन्त्र में यही रहस्य प्रकट करते हुए विद्युत को जर्भरी पालने वाली और तुर्फरी नाशक बताया गया है |
इन सब प्रमाणों से इस बात का खंडन हो जाता है कि वेदों में बिना अर्थ वाले शब्द है या विदेशी शब्द है |
ओम ……………

क्या वेदों में यज्ञो में गौ आदि पशु मॉस से आहुति या मॉस को अतिथि को खिलाने का विधान है ??(अम्बेडकर के आक्षेप का उत्तर )..

नमस्ते मित्रो |
अम्बेडकर साहब आर्ष ग्रंथो और वैदिक ग्रंथो पर आक्षेप करते हुए अपनी लिखित पुस्तक “THE UNTOUCHABLE WHO WERE THEY WHY BECOME UNTOUCHABLES” में कहते है कि प्राचीन काल (वैदिक काल ) में गौ बलि और गौ मॉस खाया जाता था | इस हेतु अम्बेडकर साहब ने वेद (ऋग्वेद ) और शतपथ आदि ग्रंथो का प्रमाण दिया है |
हम उनके वेद पर किये आक्षेपों की ही समीक्षा करेंगे | क्युकि शतपत आदि ग्रंथो को हम मनुष्यकृत मानते है जिनमे मिलावट संभव है लेकिन वेद में नही अत: वेदों पर किये गए आक्षेपों का जवाब देना हमारा कर्तव्य है क्यूंकि मनु महाराज ने कहा है :-
” अर्थधर्मोपदेशञ्च वेदशास्त्राSविरोधिना |
यस्तर्केणानुसन्धते स धर्म वेदनेतर:||”-मनु
जो ऋषियों का बताया हुआ धर्म का उपदेश हो और वेदरूपी शास्त्र के विरुद्ध न हो और जिसे तर्क से भी सिद्ध कर लिया हो वही धर्म है इसके विरुद्ध नही |
मनु महाराज ने स्पष्ट कहा है कि यदि अन्य ग्रंथो में वेद विरुद्ध बातें है तो त्याज्य है | शतपत ,ग्र्ह्सुत्रो में जो गौ वध आदि की बात दी है वो वेद विरुद्ध और वाम मर्गियो द्वारा डाली गयी है ,पहले यज्ञो में पशु बलि नही होती थी | अब हम यहा बतायेंगे कि ये वाममार्ग और मॉस भक्षण का विधान कहा से आया तो पता चलता है यज्ञ सम्बंधित कर्मकांड वेद के यजुर्वेद का विषय है और यजुर्वेद की दो शाखाये है :-
शुक्ल यजुर्वेद
कृष्ण यजुर्वेद
यहा शुक्ल का अर्थ है शुद्ध ,सात्विक जबकि कृष्ण का तमोगुणी ,अशुद्ध |
अर्थात जिस यजुर्वेद में सतोगुणी यज्ञ का विधान हो वह शुक्ल है और जिसमे तमोगुणी (मॉस आहुति आदि ) का विधान है वो कृष्ण है |
इनमे से शुक्ल यजुर्वेद ही प्राचीन और अपोरुष मानी गयी वेद संहिता है जबकि कृष्ण बाद की और मनुष्यकृत है |
इस कृष्ण यजुर्वेद के संधर्भ में महीधर भाष्य भूमिका से पता चलता है कि याज्ञवल्क्य व्यास जी के शिष्य वैश्यायन के शिष्य थे | उन्होंने वैशम्पायन से यजुर्वेद पढ़ा | एक दिन किसी कारण वंश याज्ञवल्क्य जी पर वैशम्पायन क्रुद्ध हो गये | और कहा मुझ से जो पढ़ा है उसे छोड़ दो ,याज्ञवल्क्य ने वेद का वमन कर दिया |
तब वैशम्पायन जी ने दुसरे शिष्यों से कहा कि तुम इसे खा लो ,शिष्यों ने तुरंत तीतर बन कर उसे खा लिया |
उससे कृष्ण यजुर्वेद हुआ | यद्यपि ये बात साधारण मनुष्यों की बुधि में असंगत ओर निर्थक ठहरती है लेकिन बुद्धिमान लोग तुरंत परिणाम निकाल लेंगे |इससे पता चलता है कि तमो गुणी यज्ञ का विधान याज्ञवल्क्य के समय (महाभारत के बाद ) से चला |
और तभी से आर्ष ग्रंथो में मिलावट होना शुरू हो गयी थी |शतपत में भी याज्ञवल्क्य का नाम है अत: स्पष्ट है इसमें भी मिलावट हो गयी थी |और तामसिक यज्ञो का प्रचलन शुरू होने लगा …
जबकि प्राचीन काल में ऐसा नही था इसके बारे में स्वयं बुद्ध सुतानिपात में कहते है :-
“अन्नदा बलदा नेता बण्णदा सुखदा तथा
एतमत्थवंस ञत्वानास्सु गावो
हनिसुते |
न पादा न विसाणेन नास्सु हिंसन्ति केनचि
गानों एकक समाना सोरता कुम्भ दुहना |
ता विसाणे गहेत्वान राजा सत्येन घातयि |”
अर्थ -पूर्व समय में ब्राह्मण लोग गौ को अन्न,बल ,कान्ति और सुख देने वाली मानकर उसकी कभी हिंसा नही करते थे | परन्तु आज घडो दूध देने वाली ,पैर और सींग न मारने वाली सीधी गाय को गौमेध मे मारते है |
इसी तरह सुतनिपात के ३०० में बुद्ध ने ब्राह्मणों के लालची ओर दुष्ट हो जाने का उलेख किया है |
इससे पता चलता है कि बुद्ध के समय में भी यह ज्ञात था कि प्राचीन काल में यज्ञो में गौ हत्या अथवा गौ मॉस का प्रयोग नही था |इस संधर्भ में एक अन्य प्रमाण हमे कूटदंतुक में मिलता है | जिसमे बुद्ध ब्राह्मण कुतदंतुक से कहते है कि उस यज्ञ में पशु बलि के लिए नही थे | इस बात को अम्बेडकर ने हसी मजाक बना कर टालमटोल करने की कोशिस की है ,जबकि कूटदंतुक में बुद्ध ने यज्ञ पुरोहित के गुण भी बताये है :- सुजात ,त्रिवेद (वेद ज्ञानी ) ,शीलवान और मेधावी | और यज्ञ में घी ,दूध ,दही ,अनाज ,मधु के प्रयोग को बताया है |
अत: स्पष्ट है कि बुद्ध यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ में हिंसा विरोधी थे ,सुतानिपात ५६९ में बुद्ध का निम्न कथन है :-

अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री छंद ) मुख्य है ओर यज्ञो मे अग्निहोत्र ।  अत: निम्न बातो से निष्कर्ष निकलता है कि बुध्द वास्तव मे यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ मे जीव हत्या करने वाले के विरोधी थे।

अत : स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यज्ञ हिंसा नही थी इस बात पर मह्रिषी चरक का भी प्रमाण है जो देखिये :-
अत निम्न कथन से भी स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यज्ञ हिंसा नही थी |
मीमासा दर्शन ने इस बात पर प्रकाश डाला है :-” मांसपाक प्रतिषेधश्च तद्वत |”-मीमासा १२/२/२
यज्ञ में पशु हिंसा मना है ,वैसे मॉस पाक भी मना है | इसी तरह दुसरे स्थान पर आता है १०/३/.६५ व् १०/७/१५ में लिखा है कि ” धेनुवच्चाश्वदक्षिणा ” और अपि व दानमात्र स्याह भक्षशब्दानभिसम्बन्धात |” गौ आदि की भाति अश्व भी यज्ञ में केवल दान के लिए ही है | क्यूंकि इनके साथ भक्ष शब्द नही आया है | अत: स्पष्ट है कि पशु वध के लिए नही दान आदि के लिए थे |
कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस की आहुति का निषेध हो रहा है ।
अत: स्पष्ट है कि मॉस बलि वेदों में नही है न ही प्राचीन काल यज्ञ में थी |
चुकी आंबेडकर जी ने शतपत का भी प्रमाण दिया है तो हम कुछ बात शतपत की भी रखते है :-
शतपत में मॉस भोजी को यज्ञ का अधिकार नही दिया है देखिये :-
 “न मॉसमश्रीयात् ,यन्मासमश्रीयात्,यन्मिप्रानमुपेथादिति नेत्वेवैषा दीक्षा ।”(श. ६:२ )
अर्थात मनुष्य मॉस भक्षण न करे , यदि मॉस भक्षण करता है अथवा व्यभिचार करता है तो यज्ञ दीक्षा का अधिकारी नही है ….
यहा स्पष्ट कहा है की मॉस भक्षी को यज्ञ का अधिकार नही है ,अत : यहाँ स्पष्ट हो जाता है की यज्ञ मे मॉस की आहुति नही दी जाती थी ।
शतपत में ही ये लिखा है कि मॉस भक्षक को यज्ञ का अधिकार नही है इससे स्पष्ट है कि बाद में मॉस ,गौ बलि ,मासाहार शतपत में क्षेपक जोड़ा गया है उन्ही को अम्बेडकर ने आधार बनाया ब्राह्मणवाद के विरोध में …
शतपत में मॉस शब्द का उलेख है जिसकी आहुति का विधान है लेकिन यह लोक प्रशिद्ध मॉस नही बल्कि कुछ और है
मासानि वा आ आहुतय:(श ९,२ )
अर्थात यज्ञ आहुति मॉस की होनी चाहिए ।
चुकि यहाँ मॉस के चक्कर मे भ्रम मे न पडे तो आगे मॉस के अर्थ को स्पष्ट किया है –
” मासीयन्ति ह वै जुह्वतो यजमानस्याग्नय:।
एतह ह वै परममान्नघ यन्मासं,स परमस्येवान्नघ स्याता भवति (शत .११ ,७)”।।
हवन करते हुआ यज्मान की अग्निया मॉस की आहुति की इच्छा रखती है ।
परम अन्न ही मॉस है परम अन्न से आहुति दे ,..
यहा मॉस को परम अन्न कहा है ओर यदि ये जीवो का मॉस होता तो यहाँ अन्न का प्रयोग नही होता क्यूँ की मॉस अन्न नहीं होता है ।परम अन्न के बारे मे अमरकोष के अनुसार “परमान्नं तु पायसम् ” अर्थात दूध ओर चावल से तैयार (खीर) को परम अन्न कहा है ।अतः शतपत ब्राह्मण के अनुसार मॉस का अर्थ पायसम है ।लोक प्रसिद्ध मॉस नही ।
अत: स्पष्ट है कि शतपत में मॉस आदि गूढ़ अर्थो में प्रयोग किया है तथा इस बात से भी इनकार नही की इनमे वाम्मार्गियो के क्षेपक है |
अब हम वेदों पर विचार करते है |वेदों में मॉस और यज्ञ में मासाहार जो लोग बताते है उन्हें पहले निम्न मंत्रो पर विचार करना चाहिए ..
इमं मा हिंसीर्द्विपाद पशुम् (यजु १३/४७ )
दो खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
इमं मा हिंसीरेकशफ़ पशुम (यजु १३/४८ )
एक खुर वाले पशु की हिंसा मत करो |
मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्यपद:(अर्थव ११/२/१)
हमारे दो ,चार खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
मा सेंधत (ऋग. ७/३२/९ )
हिंसा मत करो |
वेद स्पष्ट अंहिसा का उलेख करते है जबकि मॉस बिना हिंसा के नही मिलता और यज्ञ में भी बलि आदि हिंसा ही है |
अब यज्ञो में पशु वध या वैदिक यज्ञो में पशु मॉस आहुति के बारे में विचार करेंगे :-
आंबेडकर जी का कहना है कि वेदों में बाँझ जो दूध नही दे सकती उनकी बलि देने और मॉस खाने का नियम है जबकि वेद स्वयम उनकी इस बात का खंडन करते है
वेदों में मॉस निषेध :- ऋग्वेद १०/८७/१६ में ही आया है की राजा जो पशु मॉस से पेट भरते है उन्हें कठोर दंड दे …
पय: पशुनाम (अर्थव १९/३१/१५ )
है मनुष्य ! तुझे पशुओ से पैय पदार्थ (पीने योग्य पदार्थ ) ही लेने है |
यदि पशु मॉस खाने का विधान होता तो यहा मॉस का भी उलेख होता जबकि पैय पदार्थ दूध और रोग विशेष में गौ मूत्र आदि ही लेने का विधान है |
वेदों में यज्ञ में हिंसा और मॉस भक्षण के संधर्भ में आंबेडकर जी निम्न प्रमाण वेदों के देते है :-

 यज्ञ के संधर्भ में वेद में लिखा है:-  उपावसृज त्मन्या समज्ञ्चन् देवाना पाथ ऋतुथा हविषि।वनस्पति: शमिता देवो अग्नि: स्वदन्तु द्रव्य मधुना घृतेन ।।(यजु २९,३५ )
पाथ ,हविषि,मधुना,घृत ये चारो पद चारो प्रकार के द्रव्यों का ही हवं करना उपादेष्ट करते है,अत: यज्ञ मे इन्ही का ग्रहण करना योग्य है ,,
यहा स्पष्ट उलेख है की किन किन वस्तुओ का उपयोग किया जा सकता है यदि मॉस का होता तो यहा मॉस रक्त आदि का भी उलेख होता ..
कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस की आहुति का निषेध हो रहा है ।
यज्ञ में पशुओ का उलेख है तो उसका समाधान ऊपर दिया है मीमासा का प्रमाण देकर की यज्ञ में पशु हत्या के लिए नही बल्कि दान के लिए होते थे …
यजुर्वेद के एक अध्याय में यज्ञ में कई पशु लाने का उलेख है जिसका उदेश्य उनकी हत्या नही बल्कि यज्ञ में दी गयी ओषधी आदि की आहुति से लाभान्वित करना है क्यूँ की यज्ञ का उदेश्य पर्यावरण और स्रष्टि में उपस्थित प्राणियों को आरोग्य प्रदान करना पर्यावरण को स्वच्छ रखना है | क्यूंकि यज्ञ में दी गयी आहुति अग्नि के द्वारा कई भागो में टूट जाती है और श्वसन द्वारा प्राणियों के शरीर में जा कर आरोग्य प्रदान करती है

जरा यजुर्वेद का यह मंत्र देखे-
“इमा मे अग्नS इष्टका धेनव: सन्त्वेक च दश च दश च शतं च शतं च सहस्त्रं च सहस्त्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्यर्बुदं च समुद्रश्र्च मध्यं चान्तश्र्च परार्धश्र्चैता मे अग्नS इष्टका धनेव: सन्त्वमुत्रामुष्मिल्लोके”॥17:2॥
अर्थ-है अग्नीदेव!ये इष्टिकाए(हवन मे अर्पित सूक्ष्म इकाईया)हमारे लिए गौ के सदृश(अभीष्ट फलदायक) हौ जाए। ये इष्टकाए एक,एक से दसगुणित होकर दस,दस से दस गुणित हौकर सौ,सौ की दस गुणित होकर हजार,हजार की दस गुणित होकरअयुत(दस हजार),अयुत की दस गुणित होकर नियुत(लाख),नियुत की दस गुणित हो कर प्रयुत(दस लक्ष), प्रयुत की दस गुणित हो कर कोटि(करौड),कोटि की दस गुणित हो कर अर्बुद(दस करौड),अर्बुद की दस गुणित होकर न्युर्बुद इसी प्रकार दस के गुणज मे बढती है।न्युर्बुद का दस गुणित खर्व(दस अरब),खर्व का दस गुणित पद्म(खरब)पद्म का दस गुणित महापद्म(दस खरब)महापद्म का दस गुणित मध्य(शंख पद्म)मध्य का दस गुणित अन्त(दस शंख)ओर अन्त की दस गुणित होकर परार्ध्द(लक्ष लक्ष कोटि)संख्या तक बढ जाए॥
उपरोक्त मन्त्र में स्पष्ट है की यज्ञ से आहुति कई भागो नेनो में बट जाती है तथा कई दूर तक फ़ैल कर कई प्राणियों को लाभान्वित करती है |
अब अम्बेडकर जी के दिए प्रमाणों पर एक नजर डालते है :-
आंबेडकर जी ऋग्वेद १०/८६/१४ में लिखता है :- इंद्र कहता है कि वे पकाते है मेरे लिए १५ बैल ,मै खाता हु उनका वसा ….!
यहा लगता है अम्बेडकर ने किसी अंग्रेजी भाष्यकार का अनुसरण किया है या फिर जान बुझ ऐसा लिखा है इसका वास्तविक अर्थ जो निरुक्त ,छंद ,वैदिक व्याकरण द्वारा होना चाहिए इस प्रकार है :-
“परा श्रृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा  श्रृणीहि|
परार्चिर्षा मृरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपो अभि शोशुचान:(ऋग्वेद १०/८३/१४ )”
उपरोक्त मन्त्र में कही भी इंद्र ,बैल ,वसा ,खाना आदि शब्द नही है फिर अम्बेडकर जी को कहा से नजर आये ..इसका भाष्य – (अग्ने) यह अग्नि (अभि शोशुचान) तीक्ष्ण होता हुआ (तपसा) ताप से (यातुधानान) पीड़ाकारक जन्तुओ (रोगाणु आदि ) (परशृणीहि ) मारता है (मृरदेदान) रोग फ़ैलाने वाले अथवा मारक व्यापार करने वाले घातक रोगाणु को (अचिषा) अपने तेज से   (परा श्रृणीहि ) मारता और (असृतृप:) प्राणों से तृप्त होने वाले क्रिमी को मारता अथवा नष्ट करता है |
इसमें अग्नि के ताप से सूक्ष्म रोगानुओ के नष्ट होने का उलेख है | वेदों में सूर्य और उसकी किरण को भी अग्नि कहा है तो यह सूर्य किरणों द्वारा रोगाणु का नाश होना है ..इस मन्त्र में सूर्य किरण या ताप द्वारा चिकित्सा और रोगाणु नाश का रहस्य है |
एक अन्य मन्त्र १०/७२/६ का भी अम्बेडकर वेदों में हिंसा के लिए उलेख करते है |
” यद्देवा ………………….रेणुरपायत(ऋग. १०/७२/६)”
(यत) जो (देवा) प्रकाशरूप सूर्य आदि आकाशीय पिंड (अद:) दूर दूर तक फैले है (सलिले) प्रदान कारण तत्व वा महान आकाश में (सु-स-रब्धा) उत्तम रीती से बने हुए और गतिशील होकर (अतिष्ठित) विद्यमान है |
है जीवो ! (अत्र) इन लोको में ही (नृत्यतां इव वा ) नाचते हुए आनंद विनोद करते हुए आप लोगो का (तीव्र: रेणु 🙂 अति वेग युक्त अंश ,आत्मा स्वत: रेणुवत् अणु परिणामी वा गतिशील है वह (अप आयत ) शरीर से पृथक हो कर लोकान्तर में जाता है |
इस मन्त्र में  लोको में प्राणी (पृथ्वी आदि अन्य ग्रह में प्राणी ) एलियन आदि का रहस्य है और आत्मा और मृत्यु पश्चात आत्मा की स्थिति का रहस्य है | यहा कही भी मॉस या मॉस भक्षण नही है जेसा की अम्बेडकर जी ने माना …
एक अन्य उदाहरन अम्बेडकर जी ऋग्वेद १०/९१/१४ का देते है :-अग्नि में घोड़े ,गाय ,भेड़ ,बकरी की आहुति दी जाती थी |
” यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशामेषा अवसृष्टास आहूता:|
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदामर्ति जनये चारुमग्नये (ऋग्वेद १०/९१/१४)”
(यस्मिन) जिस सृष्टी में परमात्मा ने (अश्वास:) अश्व (ऋषभास) सांड (उक्ष्ण) बैल (वशा) गाय (मेषा:) भेड़ ,बकरिया (अवस्रष्टास) उत्पन्न किये और (आहूता) मनुष्यों को प्रदान कर दिए | वाही ईश्वर (अग्नेय) अग्नि के लिए (कीलालपो) वायु के लिए (वेधसे) आदित्य के लिए (सोमपृष्ठाय) अंगिरा के लिए (हृदा) उनके ह्रदय में (चारुम) सुन्दर (मतिम) ज्ञान (जनये) प्रकट करता है |
यहा भी मॉस आदि नही बल्कि सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर द्वारा वेद ज्ञान प्रदान करने का उलेख है |
लेकिन इस मन्त्र में कोई हट करे की अग्नि बैल ,अश्व ,भेड़ गौ आदि शब्दों से इनकी अग्नि में आहुति है |
तो ऐसे लोगो से मेरा कहना है की क्या ये नाम किसी ओषधी आदि के नही हो सकते है | क्यूँ कि वेदों में आहुति में ओषधि का उलेख मिलता है | जो की महामृत्युंजय मन्त्र में “त्र्यम्बकम यजामहे …..” में देख सकते है इसमें त्रि =तीन अम्ब =ओषधी का उलेख है और यजामहे =यज्ञ में देने का …अत: ये नाम ओषधियो के है |
इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण देता हु –
(१) बुद्ध ग्रन्थ में आया है :-

यहा आये सुकर मद्दव से यही लगता हैं कि बुद्ध ने सूअर का मॉस खाया इसका यही अर्थ श्रीलंकाई भिक्षु सूअर का ताजा मॉस करते है | जबकि वास्तव में  यहा सूकर मद्दव पाली शब्द है जिसे

हिन्दी करे तो होगा सूकर कन्द ओर संस्कृत मे बराह
कन्द यदि आम भाषा मे देखे तो सकरकन्द चुकि ये दो प्रकार
का होता है १ घरेलु मीठा२ जंगली कडवा इस
पर छोटे सूकर जैसे बाल आते है इस लिए इसे बराह कन्द
या शकरकन्द कहते है|ये एक कन्द होता है जिसका साग
बनाया जाता है |इसके गुण यह है कि यह चेपदार मधुर और गरिष्ठ
होता है तथा अतिसार उत्पादक  है जिसके कारण इसे खाने से बुद्ध को अतिसार हो गया था |
एक अन्य उदाहरण भी देखे :-
हठयोग प्रदीप में आया है :-
” गौमांसभक्षयेन्नित्यं पिबेदमरवारुणीम् |
कुलीन तमहं मन्ये इतर कुलघातक:||”
अर्थात जो मनुष्य नित्य गौ मॉस खाता है और मदिरा पीता है,वही  कुलीन है ,अन्य मनुष्य कुल घाती है |
यहा गौ मॉस का उलेख लग रहा है लेकिन अगले श्लोक में लिखा है :-
” गौशब्देनोदिता जिव्हा तत्प्रवेशो हि तालुनि गौमासभक्षण तत्तु महापातकनाशम्”
अर्थात योगी पुरुष जिव्हा को लोटाकर तालू में प्रवेश करता है उसे गौ मॉस भक्षण कहा है |
यहा योग मुद्रा की खेचरी मुद्रा का वर्णन है ..गौ का अर्थ जीव्हा होती है और ये मॉस की बनी है इस्लिते इसे गौ मॉस कहा है और इसे तालू से लगाना इसका भक्षण करना तथा ऐसा माना जाता है की ये मुद्रा सिद्ध होने पर एक रस का स्वाद आता है इसी रस को मदिरा पान कहा है |
यदि यहा श्लोक्कार स्वयम अगले श्लोक में अर्थ स्पष्ट नही करता तो यहा मॉस भक्षण ही समझा जाता …
इसी तरह वेदों में आय गौ ,अश्व ,आदि नाम अन्य वस्तुओ ओषधि आदि के भी हो सकते है ..यज्ञ के आहुति सम्बन्ध में ओषधि और अनाज के ,,जिसके बारे में वेदों में ही लिखा है :-
धाना धेनुरभवद् वत्सो अस्यास्तिलोsभवत (अर्थव १८/४/३२)
धान ही धेनु है औरतिल ही बछड़े है |
अश्वा: कणा गावस्तण्डूला मशकास्तुषा |
श्याममयोsस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम||(अर्थव ११/३ (१)/५७ )
चावल के कण अश्व है ,चावल ही गौ है ,भूसी ही मशक है ,चावल का जो श्याम भाग है वाही मॉस है और लाल अंश रुधिर है |
यहा वेदों ने इन शब्दों के अन्य अर्थ प्रकट कर दिए जिससे सिद्ध होता है की मॉस पशु हत्या का कोई उलेख वेदों में नही है |
अनेक पशुओ के नाम से मिलते जुलते ओषध के नाम है ये नाम गुणवाची संज्ञा के कारण समान है ,श्रीवेंकटेश्वर प्रेस,मुम्बई से छपे ओषधिकोष में निम्न वनस्पतियों के नाम पशु संज्ञक है जिनके कुछ उधाहरण नीचे प्रस्तुत है :-
वृषभ =ऋषभकंद       मेष=जीवशाक
श्वान=कुत्ताघास ,ग्र्न्थिपर्ण   कुकुक्ट = शाल्मलीवृक्ष
मार्जार= चित्ता       मयूर= मयुरशिखा
बीछु=बिछुबूटी        मृग= जटामासी
अश्व= अश्वग्न्दा       गौ =गौलोमी
वाराह =वराह कंद     रुधिर=केसर
इस तरह ये वनस्पति भी सिद्ध होती है अत: यहा यज्ञो में प्राणी जन्य मॉस अर्थ लेना गलत है |
अम्बेडकर कहते है कि प्राचीन काल में अतिथि का स्वागत मॉस खिला कर किया जाता था| ये शायद ही इन्होने नेहरु या विवेकानद जेसो की पुस्तक से पढ़ा होगा विवेकानद की जीवनी द कोम्पिलीत वर्क में कुछ ऐसा ही वर्णन है जिसके बारे में यहा विचार नही किया जाएगा ..जिसे आप आर्यमंत्वय साईट के एक लेख में सप्रमाण देख सकते है |
इस संधर्भ में मै कुछ बातें रखता हु :-
ऋग्वेद १०/८७/१६ में स्पष्ट मॉस भक्षी को कठोर दंड देना लिखा है तो अतिथि को मॉस खिलाना ऐसी बात संभव ही नही वेदानुसार …
मनुस्मृति में आया है ” यक्षरक्ष: पिशाचान्न मघ मॉस सुराssसवम (मनु ११/९५ )”
मॉस और मध राक्षसो और पिशाचो का आहार है |
यहा मॉस को पिशाचो का आहार कहा है जबकि भारतीय संस्कृति का प्राचीन काल से अतिथि के लिए निम्न वाक्य प्रयुक्त होता आया है ” अतिथि देवोभव:” अर्थात अतिथि को देव माना है अब भला कोई देवो को पिशाचो का आहार खिलायेगा …
” अघतेsत्ति च भुतानि तस्मादन्न तदुच्यते (तैत॰ २/२/९)”
प्राणी मात्र का जो कुछ आहार है वो अन्न ही है |
जब प्राणी मात्र का आहार अन्न होने की घोषणा है तो मॉस भक्षण का सवाल ही नही उठता |
कुछ अम्बेडकर के अनुयायी या वेद विरोधी लोग अर्थव॰ के ९/६पर्याय ३/४ का प्रमाण देते हुए कहते है की इसमें लिखा है की अथिति को मॉस परोसा जाय|
जबकि मन्त्र का वास्तविक अर्थ निम्न प्रकार है :-” प्रजा च वा ………………पूर्वोष्शातिश्शनाति |”
जो ग्रहस्थ निश्चय करके अपनी प्रजा और पशुओ का नाश करता है जो अतिथि से पहले खाता है |
इस मन्त्र में अतिथि से छुप कर खाने या पहले खाने वाले की निंदा की है …उसका बेटे बेटी माँ ,पिता ,पत्नी आदि प्रजा दुःख भोगते है ..और पशु (पशु को समृधि और धनवान होने का प्रतीक माना गया है ) की हानि अथवा कमी होती है …अर्थात ऐसे व्यक्ति के सुख वैभव नष्ट हो जाए | यहा अतिथि को मॉस खिलाने का कोई उलेख नही है |
अत: निम्न प्रमाणों से स्पष्ट है की प्राचीन काल में न यज्ञ में बलि होती थी न मॉस भक्षण होता था ..न ही वेद यज्ञ में पशु हत्या का उलेख करते है न ही किसी के मॉस भक्षण का …..
यदि कोई कहे की ब्राह्मण मॉस खाते थे तो सम्भवत कई जगह खाते होंगे, और यज्ञ में भी हत्या होती थी लेकिन कहे की वेदों में हत्या और मॉस भक्षण है तो ये बिलकुल गलत और प्रमाणों द्वारा गलत सिद्ध होता है | और कहे प्राचीन काल यज्ञो में मॉस भक्षण और मॉस आहुति होती थी तो ये भी उपरोक्त प्रमाणों से गलत सिद्ध होता है यज्ञ का बिगड़ा स्वरूप और ब्राह्मण ,ग्रहसूत्रों में मॉस के प्रयोग वाममर्गियो द्वारा महाभारत के बाद जोड़ा गया जो की उपरोक्त प्रमाणों में सिद्ध क्या गया है |
अत: अम्बेडकर का कथन प्राचीन आर्य (ब्राह्मण आदि ) यज्ञ में पशु हत्या और मॉस भक्षण करते थे ,वैदिक काल में अतिथि को मॉस खिलाया जाता था आदि बिलकुल गलत और गलत भाष्य पढने का परिणाम है |
समभवतय उन्होंने ये ब्राह्मण विरोधी मानसिकता अथवा बुद्ध मत को सर्व श्रेष्ट सिद्ध करने के कारण लिखा हो |
ओम
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके :- (१) वेद सौरभ – जगदीश्वरानन्द जी 
(२) वैदिक सम्पति -रघुनंदन शर्मा जी 
(३) यज्ञ में पशुवध वेद विरोध – नरेंद्र देव शास्त्री जी 
(४) वैदिक पशु यज्ञ मिमास -प्रो. विश्वनाथ जी 
(५) सत्यार्थ प्रकाश उभरते प्रश्न गरजते उत्तर -अग्निव्रत नैष्ठिक जी 
(६) the untouchable who were they and why become untouchables-अम्बेडकर जी 
(७) महात्माबुद्ध और सूअर का मॉस -अज्ञात 
(८) भारत का वृहत इतिहास -आचार्य रामदेव जी 
(९) mahatma budha an arya reformer-धर्मदेवा जी 
(१०) ऋग्वेदभाष्य -आर्यसमाज जाम नगर ,हरिशरणजी ,जयदेव शर्मा जी 
(११) स्वामी दर्शनानंद ग्रन्थ संग्रह (क्या शतपत आदि में मिलावट नही )-स्वामी दर्शनानद जी   

भगवान मनु ओर दलित समाज

मित्रो ओम |
मै जो लेख लिख रहा हु उससे सम्बंधित अनेक लेख आर्य विद्वान अपने ब्लोगों पर डाल चुके है| कई तरह की पुस्तके भी लिखी जा सकती है | जिसमे सबसे महत्वपूर्ण योगदान सुरेन्द्र कुमार जी का है| जिन्होंने मह्रिषी मनु के कथन को स्पष्ट करने का ओर मनु स्म्रति को शुद्ध करने का प्रसंसिय कार्य किया है| इस सम्बन्ध में आपने जितने भी लेख जैसे मनु और शुद्र,मनु और महिलायें आदि विभिन्न blogger द्वारा लिखे पढ़े होंगे |वे सब इन्ही की किताबो ओर शोधो से लिए गये है |हमारा भी ये लेख इन्ही की किताब से प्रेरित है|
मह्रिषी मनु को कई प्राचीन विद्वान ओर ब्राह्मणकार कहते है की मनु के उपदेश औषधि के सामान है लेकिन आज का दलित समाज ही मनु का कट्टरता से विरोध करता है | ओर बुद्ध मत को श्रेष्ट बताते हुए मनु को गालिया देता है ओर उनकी मनुस्म्र्ती को भी जलाते है | इसके निम्न कारण है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था को बताना ..
(२) मनु पर जाति व्यवस्था को बनाने का आरोप
(३) मनु द्वारा स्त्री के शोषण का आरोप .
उपरोक्त आरोपों पर विचार करने से पहले हम बतायेंगे की मनु को हिन्दू विद्वानों ने ही नही बल्कि बुद्ध विद्वानों ने भी माना है | बौद्ध महाकवि अश्वघोस जो की कनिष्क के काल में था अपने ग्रन्थ वज्रकोपनिषद में मनु के कथन ही उद्दृत करता है| इसी तरह बुद्ध ने भी धम्म पद में मनु के कथन ज्यो के त्यों लिखे है..इनमे बस भाषा का भेद है मनुस्म्र्ती संस्कृत में है ओर धम्मपद पाली में ..देखिये मनुस्म्रती के श्लोक्स धम्मपद में :

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृध्दोपसेविन:|

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्||मनुस्मृति अध्याय२ श्लोक १२१||
अभिवादन सीलस्य निञ्च वुड्दा पचभिनम्|
खतारी धम्मावड््गत्ति आनुपवणपीसुलम्||धम्मपद अध्याय ८:१०९||
न तेन वृध्दो भवति,येनास्य पलितं शिर: |
यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा स्थविंर विदु:||मनुस्मृति अध्याय२:१५६||
न तेन चेरो सीहोती चेत्तस्य पालितं सिरो|
परिपक्को वचो तस्यं पम्मिजितीति बुध्दवति||धम्मपद ९:१२०||

iइन निम्न श्लोको को आप देख सकते है ,और धम्मपद के भी निम्न वाक्य देख सकते है जो काफी समानता दर्शाते है ..इससे पता चलता है की बुद्ध ओर अन्य बौद्ध विद्वान मनुस्म्रती से प्रभावित थे|
मनु द्वारा धर्म के १० लक्षणों में से एक अंहिसा को जैन ओर बुद्धो ने अपने मत का आधार बनाया था ..
अब मनु पर लगाये आरोपों की  संछेप में यहाँ विवेचना करते है :-
(१) मनु द्वारा वर्णव्यवस्था चलाना :
मह्रिषी मनु वर्णव्यवस्था के समर्थक थे लेकिन वे जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के नहीं बल्कि कर्म आधरित वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे जो की मनुस्म्र्ती के निम्न श्लोक्स से पता चलता है :-
शूद्रो ब्राह्मणात् एति,ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्|

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च||
(मनुस्मृति १०:६५)
गुण,कर्म योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र,बन जाता है| ओर शूद्र ब्राह्मण|
इसी प्रकार क्षत्रिए ओर वैश्यो मे भी वर्ण परिवरितन समझने चाहिअ|

ओर महात्मा बुद्ध भी कर्माधारित वर्ण व्यवस्था को समर्थन करते थे ..वर्ण व्यवस्था का विरोध उन्होंने भी नही किया था|इस बारे में अलग से ब्लॉग पर एक नया लेख आगे लिखा जायेगा |
(२) मनु पर जातिवाद लाने का आरोप :-
ये सत्य है की मनु ने जाति शब्द का प्रयोग किया लेकिन ये इन लोगो का गलत आरोप है की मनु ने जाति व्यवस्था की नीव डाली ..मनु ने जाति शब्द का अर्थ जन्म के लिए किया है न की ठाकुर ,ब्राह्मण ,भंगी आदि जाति के लिए ..देखिये मनुस्म्रती से :-
 जाति अन्धवधिरौ(१:२०१)=जन्म से अंधे बहरे|

जाति स्मरति पौर्विकीम्(४:१४८)=पूर्व जन्म को स्मरण करता है|
द्विजाति:(१०.४)=द्विज ,क्युकि उसका दूसरा जन्म होता है|
एक जाति:(१०.४) शुद्र क्युकि विद्याधरित दूसरा जन्म नही होता है|

अत स्पष्ट है मनु जातिवाद के जनक नही थे …
(३) मनु पर नारी विरोधी का आरोप :-
मनुस्मृति में निम्न श्लोक आता है :-
पुत्रेण दुहिता समा(मनु•९.१३०)
पुत्र पुत्री समान है|वह आत्मारूप है,अत: पैतृक संपति की अधिकारणी है|
इससे पता चलता है कि मह्रिषी मनु पुत्र ओर पुत्री को समान मानते है |
मनु के कथन को निरुक्त कार यास्क मुनि उदृत कर कहते है :-
अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मत:|
मिथुनानां विसर्गादौ मनु: स्वायम्भुवोsब्रवीत्(निरूक्त३:१.४)
सृष्टि के आरंभ मे स्वायम्भुव मनु का यह विधान है कि दायभाग = पैतृक भाग मे पुत्र पुत्री का समान अधिकार है|
अत स्पष्ट है कि मनु पुत्री को पेतर्क सम्पति में पुत्र के सामान अधिकार देने का समर्थन करते थे ..
मनु से भारत ही नही विदेश में भी कई प्रभावित थे चम्पा दीप (दक्षिण वियतनाम ) के एक शीला लेख में निम्न मनु स्मरति का श्लोक मिला है :-
वित्तं बन्धुर्वय: कर्म विद्या भवति पञ्चमी|
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यत्तरम्||[२/१३६|
इसी तरह वर्मा,कम्बोडिया ,फिलिपीन दीप आदि जगह मनु और उनकी स्मृति की प्रतिष्टा देखी जा सकती है|
लेकिन भारत में ही एक वर्ग विशेष उनका विरोधी है जिसका कारण है मनुस्म्रती में प्रक्षेप अर्थात कुछ लोभी लोगो द्वारा अपने स्वार्थ वश जोड़े गये श्लोक जिनके आधार पर अपने वर्ग को लाभ पंहुचाया जा सके ओर दुसरे वर्ग का शोषण कर सके ..
मनुस्मर्ती में कैसे और कोन कोनसे प्रक्षेप है इसे जानने के लिए निम्न लिंक पर जा कर विशुद्ध मनुस्मर्ती डाउनलोड कर पढ़े :
वही इस चीज़ को अपने वोट बैंक के लिए कुछ दलित नेता भी बढ़ावा देते है ताकि ब्राह्मण विरोध को आधार बना कर अपना वोट पक्का कर सके इसके लिए वै आर्ष ग्रंथो को भी निशाना बनाते है | एक दलित साहित्यकार स्वप्निल कुमार जी अपनी एक पुस्तक में लिखते है की मनु शोषितों ओर किसानो का नेता था|(भारत के मूल निवाशी और आर्य आक्रमण पेज न ६१) इनके इस कथन पर हसी आती है कि कभी मनु को मुल्निवाशी नेता तो कभी विदेशी आर्य ये लोग अपनी सुविधा अनुसार बनाते रहते है |
मनुस्म्रति से सम्बंदित इसी तरह के आरोपों के निराकरण के लिए निम्न पुस्तक मनु का विरोध क्यूँ अवश्य पढ़े जो की इसी ब्लॉग के ऊपर होम के पास दिए गये लिंक में है …
अंत में यही कहना चाहूँगा की प्रक्षेपो के आधार पर मनु को गाली न देवे इसमें महाराज मनु का कोई दोष नही है ..सबसे अच्छा होगा की मनुस्मर्ती से प्रक्षेप को हटा मूल मनु स्मृति का अनुशरण किया जाये जैसे की सुरेन्द्र कुमार जी की विशुद्ध मनुस्मृति ….
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-(१) मनु का विरोध क्यूँ ?- सुरेन्द्र कुमार 
(२) विशुद्ध मनुस्मृति -डा सुरेन्द्र कुमार 
(३) निरुक्त -यास्क मुनि 
(४) वृहत भारत का इतिहास भाग ३-आचार्य रामदेव 
                                              (५) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नेष्ठिक जी