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बहुकुण्डी यज्ञ – एक विवेचना आचार्य सुनील शास्त्री

Bahu Kundeey Yagay

 

‘‘ओ३म्’’

आज आर्य समाजों व सम्पन्न श्रद्धालु आर्यों में बहुकुण्डी यज्ञ व वेद – परायण यज्ञों का प्रचलन तीव्रता से हो रहा है । प्रायः समाजों व परिवारों में उत्सवादि विशेष अवसरों पर इनका आयोजन होना अब सामान्य बात है । सामान्यतः यह सब देख – सुनकर आर्यजनों के सुखद अनुभूति व उत्साह मिलता है । आर्य उपदेशकों द्वारा भी इनके आयोजन हेतु उत्साह व प्रेरणा मिलती है । आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने वेद और वेदानुकूल शास्त्रोक्त उपदेशों को मनसा – वाचा – कर्मणा पालन करना ही (आर्योचित) धर्म माना है । अतः अब इनकी कसौटी पर बहुकुण्डी यज्ञ की प्रामाणिकता को हम कसते हैं । हम देखेंगे कि वेद व वेदानुकूल शास्त्र तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज कहाँ तक इसका अनुमोदन करते हैं ? साथ ही साथ यह भी विचारणीय है कि इस नव – प्रतिष्ठित याज्ञिक – परम्परा से क्या – क्या लाभ व हानियाँ हो रही हैं ।

वेदों में द्रव्य – यज्ञों का कहीं भी स्पष्ट वर्णन नहीं है । ऋषियों ने बाद में वेद – मन्त्रों के आधार पर इन यज्ञों का आविष्कार किया । अतः वेदों में बहुकुण्डी ही नहीं किसी भी प्रकार के शास्त्रीय यज्ञों सोमयाग , अश्वमेधादि का प्रत्यक्ष वर्णन नहीं है ।

(विशेष – विस्तृत अध्ययन के लिए महामहोपाध्याय पं० युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा विरचित ‘‘श्रौत यज्ञों का संक्षिप्त परिचय’’ नामक पुस्तक पढ़ें प्रकाशक – रामलाल कपूर ट्रस्ट)

कल्प साहित्य मूलतः कर्मकाण्डीय है । इन ग्रन्थों में भी कहीं भी बहुकुण्डी यज्ञ का वर्णन अथवा संकेत भी नहीं है । इनमें वैदिक याज्ञिक कर्मकाण्ड का सविस्तार व विधिवत् सर्वांगरूपेण वर्णन है । किन्तु बहुकुण्डी व वेद – परायण का कहीं संकेत भी नहीं है ।

गुरूवर महर्षि देव दयानन्द जी ने भी अपने कर्मकाण्डीय ग्रन्थ संस्कार – विधि अथवा पञ्च महायज्ञ – विधि अथवा अपने अन्य किसी भी ग्रन्थ में इस बहुकुण्डी यज्ञ का वर्णन व संकेत नहीं किया है । महर्षि ने सर्वत्र ही अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों की चर्चा की है ।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बहुकुण्डी यज्ञ का वर्णन वेद अथवा प्राचीन प्रामाणिक याज्ञिक ग्रन्थों में कहीं भी नहीं मिलता है । साथ ही साथ यह महर्षि की इच्छाओं व मन्तव्यों के भी सर्वथा विरूद्ध है ।

श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी, पूर्व उपकुलपति गुरूकुल काँगडी विश्वविद्यालय , ने अपने ग्रन्थ यज्ञ – मीमांसा में इस विषय में स्पष्ट लिखते हैं – ‘‘वेदों में या किसी अन्य प्रामाणिक प्राचीन आर्ष ग्रन्थ में बहुकुण्डी यज्ञ का विधान भी हमें अद्यावधि प्राप्त नहीं हो सका है ।’’ – (यज्ञ मीमांसा, भूमिका , प्रकाशित – विजय कुमार गोविन्द राम हासानन्द)

बहुकुण्डी यज्ञ के प्रचलन के कारण – वेद , वेदानुकूल आर्ष याज्ञिक ग्रन्थों तथा महर्षि के ग्रन्थों में भी बहुकुण्डी यज्ञ का विधान का समर्थन न होने के बावजूद आर्य समाजों में बहुकुण्डी यज्ञ प्रचलित हुआ और क्रमशः बढ़ता जा रहा है । जबकि महर्षि की इच्छा अश्वमेधादि शास्त्रीय यज्ञों के प्रचार – प्रसार की भी । किन्तु आर्य समाज में कहीं भी किसी भी विद्वान द्वारा इस विषय में कोई विशेष प्रयत्न नहीं दिखता है । इसका कारण महामहोपाध्याय श्रद्धेय पं० युधिष्ठिर मीमांसक जी लिखते हैं (यद्यपि वहाँ वेद – परायण यज्ञ का प्रसंग है किन्तु बहुकुण्डी यज्ञ  भी वेद – परायण यज्ञ की भाँति अनार्ष ही है; अतः यह कथन यहाँ भी ठीक बैठता है) ‘‘आजकल आर्य समाज में जो विद्वान् हैं , उनमें एक भी व्यक्ति ऋषि दयानन्द प्रदर्शित पाठविधि के अनुसार शिक्षा से लेकर वेदपर्यन्त अध्ययन किया हुआ नहीं है ।’’—- यही कारण है कि ऋषि दयानन्द के मन्त्रव्यों को आज के आर्य समाज के विद्वान यथावत् समझने में प्रायः असमर्थ हैं ।’’ वे पुनः आगे लिखते हैं – ‘‘आर्य समाज में ऋषि दयानन्द प्रदर्शित अग्नि होत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों का प्रचलन होने का प्रधान कारण ब्राह्मणग्रन्थों तथा श्रौतसूत्रों का यथावत् अध्ययन करना है ।’’ – (श्रौत यज्ञों का संक्षिप्त परिचय , उपोद्घात , प्रकाशक – रामलाल कपूर ट्रस्ट)

विशेष – परमात्मा की असीम कृपा से मैं व्यक्तिगत रूप से एक ऐसे तपोनिष्ठ ऋषि – भक्त आचार्य को जानता हूँ जिन्होंने तपस्या पूर्वक महर्षि निर्देशित पाठ – विधि के अनुसार शिक्षा से लेकर वेद पर्यन्त अध्ययन किया है , किन्तु दुर्भाग्य से उस दिव्यात्मा को भी महर्षि की इच्छानुसार वेद के विद्वान तैयार करने के लिए महान् संघर्ष करना पड़ रहा है । न तो उनको उचित स्थान है और न ही पर्याप्त संसाधन । यदि होते तो वे निश्चिन्त होकर वेद के विद्वानों का निर्माण कर सकते थे। महान् दुर्भाग्य है कि आर्य समाज के पास भवन – निर्माण के लिए करोड़ों रूपये हैं; अन्यान्य कार्यों के लिए संसाधन है किन्तु वेद के विद्वान् के निर्माण के लिए कोई योजना नहीं है । अन्यथा कोई कारण नहीं कि ऐसे उद्भट् विद्वान् को भटकना पड़े ।

बहुकुण्डी यज्ञ के लाभ – बहुकुण्डी यज्ञ के समर्थन में अनेक तर्क दिये जाते हैं । इस विषय में हम स्वयं कुछ न कहकर श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकर जी को ही उद्घृत करते हैं –

बहुकुण्डी यज्ञ की निम्नलिखित विशेषताएँ कही जा सकती हैं –

१. एक ही काल में अधिक यजमान हो सकते हैं तथा उन सभी को एक साथ आहुति डालने का अवसर प्राप्त हो सकता है । —–

२. सब यजमानों का सब यज्ञ – कुण्डों के लिए पुरोहित तथा वेदपाठी एक ही रहते हैं । यदि अलग – अलग स्थानों पर  १-१ कुण्ड रखकर १०१ यज्ञ होते, तो पुरोहित तथा वेदपाठी भी अलग – अलग रखने पड़ते ।

३. ब्रह्मा की ओर से सबको उपदेश भी इकट्ठा मिल जाता है । अलग – अलग स्थानों पर यज्ञ की जो अलग – अलग व्यवस्था करनी पड़ती उससे भी बच जाते हैं ४. पुरोहितों को एक ही काल में अनेक यजमानों की ओर से दक्षिणा मिलने से दक्षिणा की राशि पुष्कल हो जाती है जिसे वे किसी सत्कार्य में लगा सकते हैं । ——–

वे आगे लिखते हैं – ‘‘किन्तु हमारे विचार से बहुकुण्डी यज्ञों को प्रोत्साहित किया जाना ही उचित है एक स्थान पर अनेक कुण्डों में यज्ञ करने की अपेक्षा अनेक स्थानों पर एकएक कुण्ड से यज्ञ किये जाने में अधिक लाभ है । अनेक स्थानों पर अलग – अलग यज्ञ होगा , तो उन सब स्थानों का वायुमण्डल यज्ञीय सुगन्ध से शुद्ध होगा और सब स्थानों से सुगन्ध चारों ओर फैलेगी । उस स्थिति में पुरोहित भी भिन्न व्यक्ति हो सकते हैं , जिससे पौरोहित्य कुछ ही विद्वानों में सीमित न रहकर बहुव्यापी हो सकेगा ।’’—– ‘‘श्रद्धेय आचार्य जी आगे एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात रखते हैं — कहा जाता है कि सार्वजनिक यज्ञ में यदि एक ही कुण्ड होगा , तो गिने – चुने लोग ही आहुति डाल सकेंगे , शेष लोग आहुति डालने के पुण्य से वंचित ही रह जायेंगे । किन्तु सबको आहुति डालने का पुण्य तो बहुकुण्डी यज्ञों में भी नहीं मिल पाता , यजमानों को ही मिलता है । दूसरे , आहुति डालने का पुण्यलाभ करना है , तो घर पर दैनिक अग्निहोत्र से कीजिए । सार्वजनिक यज्ञ में तो सम्मिलित होने का ही पुण्य है ।’’ – (यज्ञ मीमांसा भूमिका)

बहुकुण्डी यज्ञों से हानि – अब बहुकुण्डी यज्ञ से होने वाले हानियों पर विचार करते हैं ।

१. वेदानुकूल शास्त्रीय सोमयाग , अश्वमेधादि यज्ञों का प्रचलन न होना । फलतः इन शास्त्रीय यज्ञों में निहित सृष्टि – विज्ञान व अन्य विज्ञान का ज्ञान न होना ।

२. महर्षि दयानंद की इच्छाओं व आज्ञाओं का हनन ।

३. वेद , ब्राह्मण , कल्पादि आर्ष ग्रन्थों के पठन – पाठन में शिथिलता ।

४. यज्ञों की शास्त्रीय एकरूपता का हनन होकर मनमाने ढ़ंग के यज्ञों का प्रचलन । इससे शास्त्र व संगठन की महती हानि ।

५. यज्ञों में अनेक प्रकार के आडम्बरों का प्रवेश ।

६. शास्त्रीय यज्ञ सत्य वेदार्थ को भी समझने में सहायक हैं । अतः इनके लोप से सही वेदार्थ भी असम्भव है ।

अन्त में विनम्र निवेदन है कि प्रस्तुत लेख का एक मात्र उद्देश्य वेदानुकूल शास्त्रीय यज्ञों के प्रचार – प्रसार को प्रेरित करना है । इसमें किसी को कहीं भी कोई शंका हो अथवा कुछ भी शास्त्र – विरूद्ध लगे कृपया सप्रमाण अवश्य ही लिखें, मेरा ज्ञानवर्द्धन होगा ।

 

आचार्य सुनील शास्त्री

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