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ईश्वरीय ज्ञान: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

 

अपनी मृत्यु से पूर्व स्वामी रुद्रानन्द जी ने ‘आर्यवीर’ साप्ताहिक

में एक लेख दिया। उर्दू के उस लेख में कई मधुर संस्मरण थे।

स्वामीजी ने उसमें एक बड़ी रोचक घटना इस प्रकार से दी।

 

आर्यसमाज का मुसलमानों से एक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था ईश्वरीय

ज्ञान। आर्यसमाज की ओर से तार्किक शिरोमणि पण्डित श्री रामचन्द्रजी

देहलवी बोले। मुसलमान मौलवी ने बार-बार यह युक्ति दी कि

सैकड़ों लोगों को क़ुरआन कण्ठस्थ है, अतः यही ईश्वरीय ज्ञान है।

पण्डितजी ने कहा कि कोई पुस्तक कण्ठस्थ हो जाने से ही ईश्वरीय

ज्ञान नहीं हो जाती। पंजाबी का काव्य हीर-वारसशाह व सिनेमा के

गीत भी तो कई लोग कण्ठाग्र कर लेते हैं। मौलवीजी फिर ज़ी यही

रट लगाते रहे कि क़ुरआन के सैकड़ों हाफ़िज़ हैं, यह क़ुरआन के

ईश्वरीय ज्ञान होने का प्रमाण है।

 

श्री स्वामी रुद्रानन्दजी से रहा न गया। आप बीच में ही बोल

पड़े किसी को क़ुरआन कण्ठस्थ नहीं है। लाओ मेरे सामने, किस

को सारा क़ुरआन कण्ठस्थ है।

 

इस पर सभा में से एक मुसलमान उठा और ऊँचे स्वर में

कहा-‘‘मैं क़ुरआन का हाफ़िज़ हूँ।’’

स्वामी रुद्रानन्दजी ने गर्जकर कहा-‘‘सुनाओ अमुक आयत।’’

वह बेचारा भूल गया। इस पर एक और उठा और कहा-‘‘मैं

यह आयत सुनाता हूँ।’’ स्वामीजी ने उसे कुछ और प्रकरण सुनाने

को कहा वह भी भूल गया। सब हाफ़िज़ स्वामी रुद्रानन्दजी के

सज़्मुख अपना कमाल दिखाने में विफल हुए। क़ुरआन के ईश्वरीय

ज्ञान होने की यह युक्ति सर्वथा बेकार गई।

 

प्रभु का इकलौता पुत्र न रहा: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

प्रभु का इकलौता पुत्र न रहा

 

पूज्यपाद श्री स्वामी सत्यप्रकाशजी पूर्वी अफ्रीका की वेद-प्रचार

यात्रा पर गये। एक दिन एक पादरी ने आकर कुछ धर्मवार्ता आरज़्भ

की। स्वामीजी ने कहा कि जो बातें आपमें और हममें एक हैं उनका

निर्णय करके उनको अपनाएँ और जो आपको अथवा हमें मान्य न हों,

उनको छोड़ दें। इसी में मानवजाति का हित है। पादरी ने कहा ठीक

है।

स्वामी जी ने कहा-‘‘हमारा सिद्धान्त यह है कि ईश्वर एक

है।’’

पादरी महोदय ने कहा-‘‘हम भी इससे सहमत हैं।’’ तब

स्वामीजी ने कहा-‘‘इसे कागज़ पर लिख लो।’’

फिर स्वामीजी ने कहा-‘‘मैं, आप व हम सब लोग उसी

एक ईश्वर की सन्तान हैं। वह हमारा पिता है।’’

श्री पादरीजी बोले, ‘‘ठीक है।’’

श्री स्वामीजी ने कहा-‘‘इसे भी कागज़ पर लिख दो।’’

श्री पादरीजी ने लिख दिया। फिर स्वामीजी ने कहा-जब हम

एक प्रभु की सन्तानें हैं तो नोट करो, उसका कोई इकलौता पुत्र नहीं

है, यह एक मिथ्या कल्पना है। पादरी महाशय चुप हो गये।

 

इतिहास प्रदूषण – प्राक्कथन : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु  

आर्य समाज के इतिहास में मिलावट की दुखद कहानी 

इस विनीत ने इस पुस्तक को कालक्रम से नहीं लिखा। न ही

निरन्तर बैठ कर लिखा। जब-जब समय मिला जो बात लेखक के

ध्यान में आई अथवा लाई गई, उसे स्मृति के आधार पर लिखता

चला गया। इन पंक्तियों के लेखक ने आर्यसमाज से ऐसे संस्कार

विचार पाये कि अप्रामाणिक कथन व लेखन इसे बहुत अखरता है।

बहुत छोटी आयु में पं0 लेखराम जी, आचार्य रामदेव जी, पं0

रामचन्द्र जी देहलवी, पं0 शान्तिप्रकाश जी, पं0 लोकनाथ जी

आदि द्वारा दिये जाने वाले प्रमाणों व उद्धरणों की सत्यता की चर्चा

अपने ग्राम के आर्यों से सुन-सुन कर लेखक ने इस गुण को अपने

में पैदा करने की ठान ली।

भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी

और स्वामी वेदानन्द जी महाराज को जब पहले पहल सुना तो उन्हें

बहुत सहज भाव से विभिन्न ग्रन्थों को उद्धृत करते सुना। उनकी

स्मरण शज़्ति की सब प्रशंसा किया करते थे। उनको बहुत कुछ

कण्ठाग्र था। उनके द्वारा दिये गये प्रमाणों, तथ्यों तथा अवतरणों

(Quotations) में आश्चर्यजनक शुद्धता ने इन पंक्तियों के लेखक

पर गहरी व अमिट छाप छोड़ी। पुराने आर्य विद्वानों की यह विशेषता

आर्यसमाज की पहचान बन गई। अप्रमाणिक कथन को आर्य नेता,

विद्वान् व संन्यासी तत्काल चुनौती दे देते थे।

इतिहास केसरी पं0 निरञ्जजनदेव जी अपने आरंभिक  काल

का एक संस्मरण सुनाया करते थे। देश-विभाजन के कुछ समय

पश्चात् आर्यसमाज रोपड़ (पंजाब) के उत्सव पर पं0 निरञ्जनदेव

जी ने व्याज़्यान देते हुए दृष्टान्त रूप में एक रोचक घटना सुनाई।

दृष्टान्त तो अच्छा था, परन्तु यह घटना घटी ही नहीं थी। यह तो एक

गढ़ी गई कहानी थी। पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने अपने

शिष्य का व्याख्यान  बड़े ध्यान से सुना।

बाद में पण्डित जी से पूछा-‘‘यह घटना कहाँ से सुनी? क्या

कहीं से पढ़ी है?’’

पं0 निरञ्जनदेव ने झट से किसी मासिक के अंक का पूरा अता

पता तथा पृष्ठ संख्या  बताकर गुरु जी से कहा-‘‘मैंने उस पत्रिका

में छपे लेख में इसे पढ़ा था।’’

शिष्य से प्रमाण का पूरा अता-पता सुनकर महाराज बड़े प्रसन्न

हुए और कहा-‘‘प्रेरणा देने के लिए यह दृष्टान्त है तो अच्छा,

परन्तु यह घटना सत्य नहीं है। ऐसी घटना घटी ही नहीं।’’

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, स्वामी आत्मानन्द जी, श्री महाशय

कृष्ण जी नये-नये युवकों से भूल हो जाने पर उन्हें ऐसे ही सजग

किया करते थे।

अंजाने में भूल हो जाना और बात है, परन्तु जानबूझ कर और

स्वप्रयोजन से इतिहास प्रदूषित करने के लिए चतुराई से मनगढ़न्त

कहानियाँ, बढ़ा-चढ़ाकर, घटाकर हदीसें गढ़ना यह देश, धर्म व

समाज के लिए घातक नीति है।

आर्यसमाज के आरम्भिक  काल में ऋषि दयानन्द जी के सुधार

के कार्यों से प्रभावित होकर कई बड़े-बड़े व्यक्ति  आर्यसमाज में

आए। वे ऋषि के धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों में आस्था विश्वास

नहीं रखते थे। इन्होंने अपने परिवारों में, अपने व्यवहार, आचार में

वैदिक धर्म का प्रवेश ही न होने दिया। इन बड़े लोगों को न समझने

से आर्यसमाज की बहुत क्षति हुई। इनमें से कई प्रसिद्धि पाकर

समाज को छोड़ भी गये। इतिहास-प्रदूषण का यह भी एक कारण

बना।

मेहता राधाकिशन द्वारा लिखित आर्यसमाज का इतिहास (उर्दू)

में क्या  इतिहास था? लाला लाजपतराय जी ने अपनी अंग्रेज़ी

पुस्तक में कुछ संस्थाओं व पीड़ितों की सहायता पर तो लिखा है,

परन्तु पं0 लेखराम जी, वीर तुलसीराम, महात्मा नारायण स्वामी

आदि हुतात्माओं, महात्माओं का नाम तक नहीं दिया। इसे आप

क्या  कहेंगे?

कुछ वर्षों से पुराने विद्वानों और महारथियों के उठ जाने से

वक्ता  लेखक जो जी में आता है लिख देते हैं और जो मन में आता

है बोल देते हैं। कोई रोकने-टोकने वाला रहा नहीं। इस आपाधापी

व मनमानी को देखकर मन दुखी होता है। सम्पूर्ण आर्य जगत् से

आर्यजन मनगढ़न्त हदीसों को पढ़कर लेखक को प्रश्न पूछते रहते हैं।

इतिहास की यह तोड़-मरोड़ एक सांस्कृतिक आक्रमण

है। बहुत ध्यान से इस पर विचारा तो पता चला कि सन् 1978 से

ऋषि दयानन्द जी की जीवनी की आड़ लेकर डॉ0 भवानीलाल जी

ने आर्यसमाज के इतिहास को प्रदूषित करने का अभियान छेड़ रखा

है। ‘आर्यसन्देश’ साप्ताहिक दिल्ली में एक लेख देकर स्वयं को

धरती तल पर आर्यसमाज का सबसे बड़ा इतिहासकार घोषित

करके जो जी में आता है लिखते चले जा रहे हैं।

आस्ट्रेलिया के डॉ0 जे0 जार्डन्स ने अंग्रेज़ी में लिखी अपनी

पुस्तक में कोलकाता की आर्य सन्मार्ग संदर्शिनी सभा की चर्चा

करते हुए महर्षि के बारे दो भ्रामक, निराधार व आपत्तिजनक  बातें

लिखी हैं। श्रीमान् जी ने आज तक इन पर दो पंक्तियाँ  नहीं लिखीं।

डॉ0 जार्डन्स ने ऋषि को उद्देश्य से भटका हुआ भी लिखा है।

डॉ0 महावीर जी मीमांसक ने इस आक्षेप का अवश्य उत्तर  दिया है।

स्वामी श्रद्धानन्द जी पर एक मौलाना ने एक लाञ्छन लगाया

था। वह तो स्वामी जी पर अपनी पुस्तक में डॉ0 जार्डन्स महोदय ने

दिया, परन्तु उसका उत्तर नहीं दिया। न हम जैसों से पूछा। डॉ0

भारतीय जी स्वप्रयोजन से, डॉ0 जार्डन्स का अपने ‘नवजागरण के

पुरोधा’ में चित्र देते हैं। उत्तर  ऐसे आक्षेपों का आज तक नहीं दिया।

किसी वार प्रहार का कभी सामना किया? विरोधियों के

आपज़िजनक लेखों पर मौन साधने की आपकी नीति रही है।

आर्यसमाज में भी ‘योगी का आत्म चरित’ के प्रतिवाद के लिए

दीनबन्धु, आदित्यपाल सिंह जी व सच्चिदानन्द जी पर तो लेख पर

लेख दिये, परन्तु इन सबको आशीर्वाद देने वाले महात्मा आनन्द

स्वामी जी से उनकी इस महाभयंकर भूल पर कुछ कहने व लिखने

का साहस ही न बटोर सके। अपना हानि लाभ देखकर ही आप

लिखते चले आये हैं।

आर्यसमाज के बलिदानी संन्यासियों, विद्वानों, लेखकों

तथा शास्त्रार्थ महारथियों ने ऋषि को समझा, उनके सिद्धान्तों

को समझा, उनके जीवन से प्रेरणा पाकर ऋषि के मिशन की

रक्षा, वैदिक धर्म के प्रचार के लिए अपने शीश कटवाये,

प्राण दिये और लहू की धार देकर एक स्वर्णिम इतिहास बनाया।

मत-पन्थों से ऋषि की विचारधारा का लोहा मनवाया। ऐसे

गुणियों, मुनियों, प्राणवीरों को नीचा दिखाते हुए भारतीय जी

ने लिखा है-‘‘मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि उस महामानव

के जीवन एवं कृतित्व तथा उसके वैचारिक अवदान का

वस्तुनिष्ठ, तलस्पर्शी तथा मार्मिक, साथ ही भावना प्रवण

विश्लेषण जैसा आर्यसमाजेतर अध्येताओं ने किया है, वैसा

वे लोग नहीं कर सके हैं, जो दयानन्द के दृढ़ अनुयायी होने

का दावा करते हैं, अथवा जो उनकी विचारधारा से अपनी

प्रतिबद्धता की कसमें खाते नहीं थकते।’’1

श्रीमान् जी रौमाँ रौलाँ, दीनबन्धु सी0एफ़0 एण्ड्रयूज़ को ऋषि

की विचारधारा का मार्मिक विश्लेषण करने के लिए अपूर्व बताते

हैं। इसी प्रकार भारतीय लेखकों में देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, श्री

अरविन्द घोष तथा साधु टी0एल0 वास्वानी जैसी योग्यता व क्षमता

इस प्रमाणपत्र प्रदाता को किसी भी आर्यसमाजी लेखक में दिखाई

नहीं दी।1 जिनके नाम श्रीमान् ने लिये हैं उन्होंने आर्यसमाज को

कौनसा ज्ञानी, बलिदानी और समर्पित सेवक दिया? कोई गुरुदत्त ,

कोई लेखराम या कोई गंगाप्रसाद, अरविन्द जी आदि ने दिया क्या ?

इन्हें क्या  पता कि श्री वास्वानी तो पं0 चमूपति जी की लेखन

शैली, विद्वज़ा व ऋषि-भज़्ति पर मुग्ध थे।

कुँवर सुखलाल जी ने कभी लिखा था-

सब मज़ाहब में ऐसी मची खलबली,

गोया महशर का आलम बपा कर गया।

तर्क के तीर बर्साय इस ज़ोर से,

होश पाखण्डियों के हवा कर गया॥

फिर लिखा-

नमस्ते लब पै आते ही मुख़ालिफ़ चौंक पड़ते थे।

समाजी नाम से पाखण्डियों के होश उड़ते थे॥

विरोधियों, विधर्मियों पर ऋषि की विचारधारा की धाक किन्होंने

बिठाई? मत पन्थों में खलबली मचाने वाले कौन थे? ऋषि की

सजीली ओ3म् पताका पहराने वाले कौन थे? ऋषि के सिद्धान्तों व

मन्तव्यों को समझकर ऋषि मिशन पर जानें वारने वाले, सर्वस्व

लुटाने वाले तथा दुःख-कष्ट झेलने वाले कौन थे?

सब जानकार पाठक कहेंगे कि यह पं0 लेखराम का वंश था।

जो स्वामी दर्शनानन्द जी से लेकर पं0 नरेन्द्र और पं0 शान्तिप्रकाश

जी तक इस मिशन के लिए तिल-तिल जले व जिये। क्या  ऋषि को

समझे बिना उसकी राह पर शीश चढ़ाने वाले, यातनाएँ सहने वाले

स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द,

स्वामी वेदानन्द, पं0 रामचन्द्र देहलवी, पं0 गंगाप्रसाद सब मूर्ख थे

जो बिना सोचे समझे ऋषि मिशन पर जवानियाँ वार गये?

अरविन्द घोष महान् थे, परन्तु अन्त तक काली माता के ही

पूजक रहे। वास्वानी जी बहुत अच्छे अंग्रेज़ी लेखक थे, परन्तु

अपने मीरा स्कूल के बच्चों को उनकी परीक्षा के समय उनका पैन

छू कर आशीर्वाद देते थे। बच्चों में पैन स्पर्श करवाने के लिए होड़

लग जाती थी। क्या  वास्वानी जी ने किसी को वैदिक धर्मी बनाया?

जब जब विरोधियों ने महर्षि दयानन्द जी के निर्मल-जीवन पर

कोई आक्षेप किया, कोई आपज़िजनक पुस्तक लिखी तो उज़र

किसने दिया? ऋषि के नाम लेवा उत्तर  देने के लिए आगे आये

अथवा रोमा रोलाँ, श्री अरविन्द व वास्वानी महात्मा ने जान

जोख़िम में डालकर उत्तर  दिया? अन्धविश्वासों का, पाखण्ड-

खण्डन का और वैदिक धर्म के मण्डन का कठिन कार्य शीश तली

पर धर कर स्वामी दर्शनानन्द, पं0 गणपति शर्मा, स्वामी नित्यानन्द,

पं0 धर्मभिक्षु, पं0 चमूपति, लक्ष्मण जी, पं0 लोकनाथ, पं0 नरेन्द्र,

पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय करते रहे अथवा उन लोगों ने किया

जिनका नाम लेकर डॉ0 भारतीय ‘कसमें खाने’ की ऊटपटांग

बात बनाकर आर्य महापुरुषों को लताड़ लगा रहे हैं।

हम श्रीमान् की करनी कथनी को देखते रहे। ऋषि जीवनी का

सर्वज्ञ बनकर प्राणवीर पं0 लेखराम तथा सब आर्यों को नीचा

दिखाने का कुकर्म करने वाले इस देवता ने महाराणा सज्जनसिंह

जी, केवल कृष्ण जी आदि पर तो दो-दो पृष्ठ लिख कर अपनी

नीतिमज़ा दिखा दी और अंग्रेज़ भज़्त प्रतापसिंह पर 47 पृष्ठ लिखकर

अपने को धन्य-धन्य माना। ‘अवध रीवियु’ में प्रतापसिंह ने अपनी

जीवनी छपवाई उसमें ऋषि का नाम तक नहीं। राधाकिशन

लिखित प्रतापसिंह की जीवनी जोधपुर राजपरिवार ने छापी

है। इस पुस्तक में भी ऋषि के जोधपुर आगमन पर कुछ नहीं।

फिर भी उसके शिकार के, गोरा भज़्ति के चित्र व प्रसंग न देकर

प्रतापसिंह का गुणगान करके राजपरिवार को तो रिझा ही लिया।

नन्ही वेश्या को चरित्र की पावनता का प्रमाण पत्र देकर इतिहास

को प्रदूषित करने की रही सही कमी पूरी कर दी।

सत्य का गला घोंटना इनका स्वभाव है। हम सर्वज्ञ नहीं हैं।

अल्पज्ञ जीव से भूल तो हो ही जाती है, परन्तु हम जानबूझ कर भूल

करना पाप मानते हैं। देश व जाति को भ्रमित करना तो और भी पाप

है। हम अपनी प्रत्येक भूल से जो भी अनजाने से हो जाये, सुधार के

लिए व खेद प्रकट करने के लिए हर घड़ी तत्पर हैं।

इतिहास प्रदूषण अभियान के हीरो श्री भवानीलाल जी को

पता चला कि यति मण्डल इस लेखक से आर्य संन्यासियों पर एक

ग्रन्थ लिखवा रहा है। तब आप बिन बुलाये पहली व अन्तिम बार

यति मण्डल की बैठक में पहुँच गये और कहा, मैंने आर्यसमाज के

साधुओं पर एक पुस्तक लिखी है, यति मण्डल इसे छपवा दे। इस

पर स्वामी सर्वानन्द जी बोले, ‘‘यह कार्य तो जिज्ञासु जी को सौंपा

जा चुका है, वे लिखेंगे। इस पर भवानीलाल जी बोले, ‘‘जिज्ञासु

जी तो लिखेंगे, मैंने तो पुस्तक लिख रखी है।’’ स्वामी सर्वानन्द जी

यह दुस्साहस देखकर दंग रह गये। स्वामी जी ने आचार्य नन्दकिशोर

जी से इनके बारे जो बात की, वह यहाँ क्या  लिखें। तब स्वामी

ओमानन्द जी ने भी इन्हें कुछ सुनाईं। प्रश्न यह है कि इनका वह

महज़्वपूर्ण इतिहास ग्रन्थ फिर कहाँ छिप गया? वह अब तक छपा

क्यों  नहीं? जिज्ञासु ने तो एक के बाद दूसरे और दूसरे के पश्चात्

तीसरे चौथे संन्यासी पर नये-नये ग्रन्थ दे दिये।

गंगानगर आर्यसमाज ने इस लेखक का सज़्मान रखा। हमने

स्वीकृति देकर भी सम्मान  लेना अस्वीकार कर दिया। समाज वालों

ने यहां आकर सस्नेह दबाव डाला।

‘‘यह प्रेम बड़ा दृढ़ घाती है’ ’

हमें स्वीकृति देनी पड़ी। सम्मान  वाले दिन श्रीमान् ने श्री

अशोक सहगल जी प्रधान को घर से सन्देश भेजा, ‘‘मैं जिज्ञासु जी

के साहित्य पर बोलूँगा, मुझे बुलवाओ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘आ जाओ।

रिक्शा  का किराया दे दिया जायेगा।’’ समाज ने मेरे विषय में (मेरे

रोकने पर भी) एक स्मारिका निकाली। उसमें भारतीय जी ने लेख

दिया कि ‘गंगा ज्ञान सागर’ जो चार भागों में छपा है निरुद्देश्य (At Random)  है। इनकी  उत्तम पवित्र सोच पर कवि की ये पंज़्तियाँ

याद आ गईं-

ख़ुदा मुझको ऐसी ख़ुदाई न दे।

कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे॥

देश की आध दर्जन प्रादेशिक भाषाओं में इस ग्रन्थमाला का

अनुवाद मेरी अनुमति से किसी न किसी रूप में छपता चला आ

रहा है। आर्य विद्वानों ने, समाजों ने इनके उपर्युज़्त फ़तवे की

धज्जियाँ उड़ा कर रख दी हैं। मैंने अनुवाद छपवाने वालों से किसी

पारिश्रमिक की कोई माँग ही नहीं की।

हिण्डौन में पुरोधा के विमोचन के लिए यह ट0न0चतुर्वेदी जी

को लेकर गये। या तो चतुर्वेदी जी बोले या यह स्वयं अपने ग्रन्थ पर

बोले। डॉ0 श्री कुशलदेव जी तथा यह लेखक भी वहीं उपस्थित

थे। ऋषि जीवन पर कुछ जानने वालों में हमारी भी गिनती है।

भारतीय जी को अपनी रिसर्च की पोल खुलने का भय था। अपराध

बोध इन्हें कंपा  रहा था। इन्हें हम दोनों को बोलने के लिए कहने

की हिज़्मत ही न पड़ी। इनको डर था कि इनके इतिहास प्रदूषण का

कच्चा चिट्ठा न खुल जाये। उस कार्यक्रम का संयोजन अपने आप

हाथ में ले लिया। हृदय की संकीर्णता व सोच की तुच्छता को सबने

देख लिया। हम आने लगे तो कुशलदेव जी ने अपने ग्रन्थ के

विमोचन के लिए हमें रोक लिया। यह अपना कार्यक्रम करके फिर

नहीं रुके। गंगानगर व हिण्डौन की घटना दिये बिना इतिहास

प्रदूषण अभियान का इतिहास अधूरा ही रहता।

सत्य की रक्षा के लिए, इतिहास-प्रदूषण को रोकने के लिए,

पं0 लेखराम वैदिक मिशन के लिए यह पुस्तक लिखी है। मिशन

के कर्मठ युवा कर्णधारों के स्नेह सौजन्य के लिए हम हृदय से

आभार मानते हैं। हम जानते हैं कि जहाँ कुछ महानुभाव आर्यसमाज

के इतिहास को विकृत व प्रदूषित करने वालों के अपकार की पोल

खुलने पर हमें जी भर कर कोसेंगे, वहाँ पर सत्यनिष्ठ, इतिहास प्रेमी

और ऋषि भज़्त आर्यजन हमारे साहस व प्रयास के लिए हमारी

सेवाओं व तथ्यों की ठीक-ठीक जानकारी देने के लिए धन्यवाद भी

अवश्य देंगे। कुछ शुभचिन्तक यह भी कहेंगे कि आपको इतिहास

प्रदूषित करने वालों के विकृत इतिहास का खण्डन करने से ज़्या

मिला? इससे क्या  लाभ? देखो तो! युग कैसा है-

सच्च कहना हमाकत है और झूठ ख़िुरदमन्दी

इक बाग़ में इक कुमरी गाती यह तराना थी

वोह और ज़माना था, यह और ज़माना है

ऐसा कहने वालों की बात भी अपने स्थान पर ठीक है। सत्य

लिखना बोलना आज मूर्खता है और असत्य लिखना ख़िरदरमंदी

(बुद्धिमज़ा) है। एक वाटिका में एक कोकिला ठीक ही तो गा रही

थी कि यह और युग है। पहले और युग था। हमारा किसी से

व्यज़्तिगत झगड़ा नहीं। हमने जो कुछ लिखा है ऋषि मिशन की

रक्षा के लिए लिखा है।

आर्यजाति का एक सेवक

राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान पर्व वेद सदन, गली नं0 6

संवत् 2071 वि0 नई सूरज नगरी, अबोहर-152116

 

 

देश को गुमराह करने की कोशिश न करें! -शिवदेव आर्य

 

आज समाज में सर्वत्र नये-नये विवादों को जन्म मिलता जा रहा है। देखा जाये तो जो-जो वाद आज प्रचारित व प्रसारित हो रहे हैं, वह सत्यता में वाद नहीं है, वह तो सामान्य ही रूप हैं किन्तु कुछ तथाकथित राजनीतिज्ञों ने अपने स्वार्थी भावों को जागृत कर समस्त भारतवर्ष को घिनौनी चादर से व्याप्त करने का अकरणीय कदम आगे बढ़ाया है।

संसार में प्रायः हम सत्यता को देख नहीं पाते  जिसको हम सत्य स्वीकार करते हैं, उसके पीछे का दृश्य कुछ भिन्न ही होता है। हमारे नेत्रों पर अज्ञानता का ऐसा उपनेत्र लगा हुआ होता है कि हम जिस भी सत्य वस्तु को देखना चाहे वह असत्यमय ही दिखायी देती है।

अभी हाल में ही असहिष्णुता नये अवतार में अवतरित हो रही है। इसके सम्पूर्ण परिदृश्य को देखने से पहले जान लें कि असहिष्णुता क्या है? उसको सही स्वीकार करें अथवा गलत? क्या एक देश को अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित रखना चाहिए अथवा नहीं? क्या एक देश को अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए सहिष्णु नहीं होना चाहिए? यदि हम सहिष्णु हो सकते हैं तो देश के सीमाबल की क्या आवश्यकता है? सब कुछ समाप्त कर देना चाहिए, सभी सैनिकों को आदेश दे देना चाहिए कि वे अपने-अपने घरों में जाकर आराम करें, क्योंकि हम सहिष्णु हैं।

सहिष्णुता का सीधा-सा अर्थ है कि सहनं शीलं यस्य सः सहिष्णुः, तस्य भावः सहिष्णुता’ अर्थात् सहन करने का शील जिसका हो उसे सहिष्णुता कहते हैं।

आज जो हम लोगों को असहिष्णु होने का पाठ पढ़ाया जा रहा है वह कुछ यूं है कि जबसे मोदी सरकार देश को उन्नति की राह पर ले जा रही है, वहाॅं विपक्षीदलों के पास विरोध करने का अथवा गलतियाॅं निकालने का कोई और रास्ता ही नहीं है। जब रास्ता न दिखा तब यूॅं कहना उचित समझा – वर्तमान सरकार हिन्दू समाज की पक्षधर है, और हिन्दूओं के कारण मुस्लिम व अल्पसंख्यकों का देश में रहना मुश्किल हो रहा है। इस मुश्किल को असहिष्णुता का नाम दे रहें हैं। वर्तमान सरकार का प्रत्येक कदम प्रत्येक भारतवासी के लिए समर्पित है न कि किसी हिन्दू-मुस्लिम के लिए ।

बस इसको राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है। इसके सिवाय और कुछ नहीं है। इसमें दोष मीडिया का भी है कि वह इस दृश्य को बार-बार दिखा कर जनता को भ्रमित कर रही है।

भारतवर्ष की आर्य संस्कृति विशाल उदार हृदयता वाली है,  जिसने सभी धर्मों-वर्णों-सम्प्रदायों अथवा समुदायों के साथ ही विभिन्न मतों के लोगों को स्वयं में समाहित किया। किन्तु बहुत आश्चर्य की बात है इस महान् संस्कृति को समस्त देशवासियों के प्रति सहिष्णु होने का पाठ पढ़ाया जा रहा है।

यह कैसा विरोधाभास है कि पिछले कुछ काल से यहाँ के युवाओं की पहली पसन्द ऐसे तीनों फिल्मीकलाकार हैं, जो अल्पसंख्यक है और अल्पसंख्यक होने के साथ-साथ मुसलमान भी हैं। सलमान खान, आमिर खान और शाहरुख खान ये तीनों ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने अपने अभिनय से सम्पूर्ण भारतवर्ष के युवाओं को आकर्षित किया है। १२५ करोड़ की आबादी से व्याप्त देश के लोगों ने देवानन्द, राजकपूर, राजकुमार आदि अभिनेताओं का स्थान पर इन त्रिखानों को सहृदयता पूर्वक स्वीकार किया। यह ध्यातव्य है कि १२५ करोड़ की आबादी में हिन्दू बहुसंख्यक हैं। हम केवल मात्र वाचिकरूपेण समानता को स्वीकार नहीं करते अपितु मनसा-वाचा-कर्मणा होकर व्यवहार में व्यवहृत होते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या आज की ये त्रिमूर्तियां विश्वपटल पर अपने आप को स्थापित कर पातीं? क्या आमिर खान ये बता सकते हैं कि उनके चाहने वाले कितने हिन्दू तथा कितने मुसलमान हैं?  किन्तु बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज कुछ अभिनेताओं, लेखकों, साहित्यकारों आदि को पिछले कुछ महीनों से देश में असहिष्णुता नजर आ रही है। दुःखों की अपार सीमा तो तब जा कर और बढ़ गयी जब ‘सत्यमेव जयते’ जैसे कार्यक्रम को चलाने वाले अभिनेता ने देश में असहिष्णुता का दृश्य है, ऐसा कहा। भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता की परिचायिका है। आज आमिर खान ने जो ख्याति पायी है उसमें भारतवर्ष की सहिष्णुता का ही योगदान है।  भारत की जनसंख्या में ७९.८ प्रतिशत ;१॰१ करोड़द्ध हिन्दू निवास करते हैं, शायद आमिर को ज्ञात होना चाहिए कि इतना बड़ा अभिनेता बनाने में इनका भी कोई न कोई हाथ रहा होगा और आज वही अभिनेता देश के खुले मंच से देश की निन्दा कर रहा है। आमिर ने दो शादियाॅं की, वो भी दोनों हिन्दू स्त्रियों से पर फिर भी किसी ने कुछ नहीं कहा किन्तु आज उन्हें डर लग रहा है।

मुझे वो शब्द याद आ रहे हैं जब आमिर ने ‘सत्यमेव जयते’ में कहा था कि ‘ये बदमाश लोग देश को अपमानित कर रहे हैं। देश बड़ी-बड़ी इमारतों से नहीं बनता बल्कि इसमें रहने वाले सभ्य नागरिकों से बनता है’ पर आज देश उसी आवाज को अपनी आवाज बनाकर पूछना चाहता हूॅं कि-क्या यही सब कहकर देश का नाम रोशन करना चाहते हो? क्या स्वयं देश के जिम्मेदार नागरिक नहीं बनना चाहते? देश का अन्न खाकर देश को गलत बताते हुए शर्म नहीं आती? कल तक जो देश आमिर खान के लिए अतुल्य भारत हुआ करता था वह आज असहनशील कैसे लग रहा है?

शायद मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अभिनय में कुछ कलाकार अपना सब कुछ भूलकर कलाकृति में ही डूब जाते हैं, जो वर्तमान दशा के स्वर्णिम कदमों को देखना ही भूल जाते हैं। उन्हें वर्तमान तथा बीते हुये पलों में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता।

भारतवर्ष की सैकड़ों साल पुरानी सहिष्णुता की परम्परा को निशाना बनाया जा रहा है। असहिष्णुतावादियों ने ध्यान दिया होगा कि हमारे बुध्दिजीवियों का एक समुह दादरी हिंसा पर तो घडि़याली आंसू बहाता है, लेकिन देश के अन्य राज्यों में हो रही साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर वे चुप्पी साध लेते हैं। पश्चिम बंगाल, केरल और असम जैसे राज्यों में नित्य हिन्दुओं पर अत्याचार किए जाते हैं लेकिन इन पर समाज के तथाकथित बुध्दिजीवी कुछ भी बोलना पसन्द नहीं करते। क्या असहिष्णुतावादियों को कश्मीर घाटी से विस्थापित हो गए पण्डितों के दर्द की चीख नहीं सुनायी देती? क्या कभी उनके दर्द को जानने की कोशिश की? लगभग साढ़े तीन लाख कश्मीरी पण्डितों को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए कश्मीर को छोड़ना पडा। वहाँ पर इस्लामिक चरमपंथी  कत्लेआम कर रहे हैं, पर तब भी असहिष्णुतावादी अभिनेताओं, साहित्यकारों ने कुछ भी नहीं बोला? जब १९८४ में सिक्ख दंगे हुए तब किसी ने क्यों पुरस्कार नहीं लौटाये? जब २००३ में कश्मीर के नादीमार्ग जिले के पुलवामा गाँव में ११ पुरुषों, ११ स्त्रियों तथा २ बच्चों को सामने खड़ाकरके गोली से उडा दिया गया, तब किसी को क्यों असहिष्णुता नजर नहीं आयी? देश का आवाम जानना चाहता है जब २००८ में २६/११ का दर्दनाक दृश्य सबके सामने नजर आया तब क्यों किसी ने सरकार पर अंगुली नहीं उठायी? कहाँ सो रहे थे? तब क्यों अपने पुरस्कार नहीं लौटाये?

आज जब भारत को दिशा देने वाला सही शासक मिला है, जो देश को प्रत्येक क्षेत्र में आगे ले जाना चाहता है तब ये लेखक, साहित्यकार, अभिनेता आदि असहिष्णुतावादी सरकारी सम्मान वापस करने का नाटक कर रहे हैं। ये लोग सम्मान को वापस करने और देश को छोड़ने की बातें करते हैं वे सब छद्म हैं। ये कहीं देश को छोड़कर जाने वाले नहीं, लेकिन राजनीतिक स्वार्थ से चलाये जा रहे अभियान को दृढ़ कर रहे हैं। इस अभियान के द्वारा सरकार को उसके सही पथ से पथभ्रष्ट किया जा रहा है।

कलम बेंचू साहित्यचोरों के साहित्य से यदि उनका स्वयं का हित सिध्द हो जाता है तो देश सहिष्णु है अन्यथा असहिष्णु। यह कैसा न्याय है? कैसा सत्य है?

देश में असहिष्णुता-असहिष्णुता कह कर लोगों को डराने की कोशिश की जा रही है। इस डर के कारण  बहुत-सी घटनाएॅं सामने आ रहीं हैं। २८ नवम्बर के दैनिक जागरण के तथ्यों से पुष्ट एक घटना में आमिर खान के बयान से पीडित होकर एक पति-पत्नि ने आपस में झगड़ा किया गया और पत्नी ने आत्महत्या भी कर ली।

प्रबुध्द पाठकगणों!

देश में असुरक्षा का माहौल है या इसे बनाया जा रहा है, ये तो आप देख ही रहे हैं। बार-बार लोगों को असुरक्षित होने का एहसास कराया जा रहा है, किन्तु सत्य यह है कि देश में शान्ति और सुरक्षा स्थापित है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने कहा था कि ‘चित्र की नहीं चरित्र की पूजा करो।’ हे युवाओं! फिल्मों को देखकर इन देशद्रोही नपुंसक अभिनेताओं को चरित्रवान् समझने की भूल न करो। भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरदार बल्लभ भाई पटेल आदि चरित्रनायकों को अपना अभिनेता स्वीकार करो अन्यथा असहिष्णुता के भवर में फस कर हम अपने पूर्वजों के रक्त को लजित कर बैठेंगे। सावधान रहें, सतर्क रहें। भारत की आन-बान-शान को ठेस न पहूॅंचे।             

‘इतिहास प्रदूषण’ पर आक्षेप: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ः- एक लबे समय से आर्य समाज में इतिहास प्रदूषण के महारोग और आन्दोलन को गभीरता से जाना, समझा फिर इस नाम से एक पुस्तक लिखी। एक-एक बात का प्रमाण दिया। अपनी प्रत्येक पुस्तक के प्राक्कथन में यह लिखना इस लेखक का स्वभाव बन गया है कि यदि जाने, अनजाने से, अल्पज्ञता से, स्मृति दोष से पुस्तक में कोई भूल रह गई हो तो गुणियों के सुझाने पर अगले संस्करण में दूर कर दी जावेगी। परोपकारी में कई बार स्मृति दोष से किसी लेख में पाई गई भूल पर निसंकोच खेद प्रकट किया। यह पता ही था कि इस पुस्तक पर खरी-खरी लिखने पर भी कुछ कृपालु कोसेंगे, खीजेंगे। उनका तिलमिलाना स्वभाविक ही है। कुछ लोगों ने नर्िाय होकर स्वप्रयोजन से आर्य समाज के इतिहास को प्रदूषित किया है।

दर्शाई गई किसी भूल, गड़बड़, मिलावट, बनावट व गड़बड़ को तो कोई झुठला नहीं सका। लेखक की दो भूलों को खूब उछाला जा रहा है। सेाच-सोच कर हमारे परम कृपालु भावेश मेरजा जी ने एक प्रश्न भी पूछा है सेवा का एक अवसर देने पर अपने बहुत प्यारे भावेश जी का हृदय से आभार मानना हमारा कर्त्तव्य बनता है।

यह चूक आपने पकड़ी है कि देवेन्द्र बाबू के ग्रन्थ में भी एक स्थान पर प्रतापसिंह ने ऋषि से पूछा कि यदि आपको अली मरदान ने विष दिया हो तो…………………

दूसरी चूक यह बताई गई कि भारतीय जी ने अपने ग्रन्थ में एक स्थान पर नन्हीं को वेश्या लिखा है। मेरा यह लिखना कि उन्होंने कहीं भी उसे वेश्या नहीं लिखा ठीक नहीं।

मेरा निवेदन है कि ये दोनों भूलें असावधानी से हो गई। इसका खेद है। दुःख है। भूल स्वीकार है। प्राक्कथन में दिये आश्वासन को पूरा किया जाता है। क्या भावेश जीाी नैतिक साहस का परिचय दे कर पुस्तक में दर्शाई गई आपके महानायक की एक-एक भूल को स्वीकार कर इस पाप पर कुछ रक्तरोदन करेंगे? इतिहास प्रदूषण का दूसराााग भी अब छपेगा। उसमें महानायक जी के कुछ पत्र पढ़कर हमें कोसने वाले चौंक जायेंगे। बस प्रतीक्षा तो करनी पड़ेगी ।

प्रतापसिंह ने ऋषि से विष दिये जाने की बात कब की? यह तो बता देते। वह जोधपुर की राज परपरा के अनुसार विष दिये जाने के 27 दिन के पश्चात् ऋषि से मिलने आया। तब ऋषि क्या होश में थे? मूर्छा का उल्लेख बार-बार मिलता है। प्रतापसिंह ने केवल ऋषि का हालचाल ही पूछा था। विष की कतई कोई चर्चा नहीं हुई। वह बस पूछताछ करके चला गया। ऋषि का पता पूछने जोधपुर तो राजपरिवार आया नहीं। ये सारी जानकारी देवेन्द्र बाबू व भारतीय जी ने पं. लेखराम जी के ग्रन्थ से ली है। वही सबका स्रोत है। विष की बात तो जोड़ी गई है। यह गढ़न्त है। पं. लेखराम जी ने एक – एक दिन की घटना तत्कालीन ‘आर्य समाचार’ मासिक मेरठ का नाम लेकर अपने ग्रन्थ में दी है। ‘आर्य समाचार’ का वह ऐतिहासिक अंक आज धरती तल पर केवल जिज्ञासु के पास है। उसके पृष्ठ 213 पर प्रतापसिंह के दर्शनार्थ जाने का उल्लेख है। कोई बात हुई ही नहीं। हदीस गढ़ने वाला कोई भी हो, है यह हदीस। तब ठा. भोपाल सिंह व जेठमल तो वहीं थे। किसी ने कभी यह गढ़न्त न सुनाई । शेष चर्चा फिर करेंगे। जिसमें हिमत हो इसका प्रतिवाद करे।

एक नया प्रश्नः- भावेश जी इस समय अकारण आवेश में हैं। वह पूछते हैं यह कहाँ लिखा है कि माई भगवती लड़की नहीं बाल विधवा थी? श्रीमान् जी उत्तर दक्षिण के आर्य व अन-आर्य समाजी तो छोटी-छोटी घटनायें इस सेवक से पूछते रहते हैं और आप पंजाब में कभी घर-घर में चर्चित माई जी के बारे में इस साहित्यिक कुली से ‘‘कहाँ लिखा है?’’ यह पूछते हैं।

महोदय हमने माई जी के साथ वर्षों कार्य करने वाले मेहता जैमिनि जी (आर्य समाज के त्र.ह्र.रू.), दीवान श्री बद्रीदास, ला. सलामतराय जी, महामुनि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, महाशय कृष्ण जी, पूज्य ‘प्रेम’ जी के मुख से सुना। महोदय माई जी का एक साक्षात्कार लिया गया था। उसकी स्कैनिंग करके छपवा दी। ‘प्रकाश’ में छपे उस साक्षात्कार में माई जी को साक्षात्कार लेने वाला ‘माता भगवती’ लिखता है। उनका कभी फोटो छपा देखा उस पर भी ‘माई भगवती’ शीर्षक था। पंजाब में माई लड़की को कोई नहीं कहता। माई का अर्थ माता या बूढ़ी ही लिया जाता है फिर भी कहाँ लिखा का हठ है तो थोड़ा आप ही हाथ पैर मारकर देखें। स्वामी श्रद्धानन्द जी के आरभिक काल का साहित्य देखें। ‘बाल विधवा’ शब्द न मिले तो फिर लेखक की गर्दन धर दबोच लेना। जैसे भारतीय जी ने ‘कहाँ लिखा है’ की रट लगाकर जब हड़क प मचाया था तो हमने ‘लिखा हुआ’ सब कुछ दिखा दिया था- आपकोाी रुष्ट नहीं करेंगे। आप हमारे हैं, हम आपके हैं। आपको भी प्रसन्न कर देंगे।

विचित्र शंका समाधानः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री स्वामी विवेकानन्द जी रोजड़ का शंका समाधान पढ़ सुनकर कुछ स्वाध्याय प्रेमी उनके समाधान पराी प्रश्न उठाते हैं। उन पर कुछ टिप्पणी करने को कई कारणों से टाल देना उचित जाना। वह दर्शनों के पण्डित हैं अतः उन्हीं से उनके समाधान पर प्रश्न पूछने का परामर्श देना ठीक लगा। अब बहुत कहा गया तो उनके दो विचारों पर कुछ निवेदन किया जाता है। पाठक तथा विद्वान् इस पर गभीरता से विचारें।

एक प्रश्न के उत्तर में गऊ को कसाई से बचाने के लिए असत्य कतई न बोलने और ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र को आपने न्यारा-न्यारा उपाय करने का उपदेश दिया है। किसी भी अवस्था में असत्य न बोलने का आपका उपदेश है। गुप्तचर विभाग में कार्यरत व्यक्ति देश की रक्षा करने में लगे रहते हैं। वे झूठ बोलकर क्या पाप करते हैं? पं. रुचिराम जी ने श्याम भाई का शव क्या सत्य बोल कर प्राप्त किया। वीर भगतसिंह ने साण्डर्स को मारा तो पुलिस ने पं. भगवद्दत्त जी, पं. रामगोपाल जी वैद्य तथा ठाकुर अमरसिंह से पूछा, वे गोली चलाकर किधर को भागे? तीनों ने कहा, हमने तो किसी को इधर से भागते देखा ही नहीं। क्रान्तिकारी पुलिस के हाथ नहीं आए। क्या ये तीन असत्य बोलने के कारण पापी माने जायें?

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने शाही किला में जाँच करने वालो को कहा, ‘‘मैं भापडोद की पंचायत में आने वाले किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं जानता।’’ वे जिसका भी नाम बताते सरकार उसे यातनायें देती। स्वामी जी ने झूठ बोलकर इतिहास बनाया। इसे आप पाप मानेंगे क्या?

रोजड़ में छपे एक बड़े ग्रन्थ में व उत्कृष्ट समाधान में मोक्ष प्राप्ति को ही सर्वोत्तम कर्म बताया गया है। जन्म लेने से दुःख भी भोगना पड़ता है सो जन्म लेना कोई बुद्धिमत्ता का कर्म नहीं। इस आाशय के वाक्य इस लेखक ने कई बार पढ़ें हैं। मोक्ष का महत्त्व सब जानते हैं परन्तु यह मत भूलिए कि ऋषि के पत्र-व्यवहार में ही समाधि का आनन्द छोड़कर लोकोपकार, वेद-प्रचार के लिए समर्पित होने की चर्चा पढ़ लीजिये। ऋषि दूसरों के बन्धन काटने के लिए बार-बार नरजन्म पाने की घोषणा या कामना करते हैं। ध्यान से ऋषि जीवन का पाठ कीजिये, मनन कीजिये। रोजड़ के कई महात्मा मोक्ष विषयक एकाङ्गी विचार देते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने प्राणोत्सर्ग से पूर्व धर्म प्रचार जाति रक्षा के लिए फिर से नर-जन्म पाने की कामना व्यक्त की थी। क्या यह वेद-विरुद्ध माना जावे?

शंका समाधान करते समय ऋषि के पत्र-व्यवहार तथा जीवन-चरित्र का भी गाीर ज्ञान होना चाहिये। वेद के सिद्धान्तों को, वैदिक दर्शन को समझने के लिए इनका भी उतना ही महत्त्व है जितना अन्य आर्ष ग्रन्थों का है। बुद्धि-भेद पैदा करने से हानि ही होगी। संगति का लगाना बहुत आवश्यक है।

चार्वाक दर्शन एवं वेद: – डॉ. वेद प्रकाश

(सत्यार्थप्रकाश के द्वादश समुल्लास के आलोक में)

– डॉ. वेद प्रकाश

[वर्ष 2013 में ऋषि – मेले के अवसर पर आयोजित वेद-गोष्ठी में प्रस्तुत एवं पुरस्कृत यह शोध लेख पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।]                                           -सपादक

सृष्टि के प्रारभ से ही आर्यावर्त में वेद की प्रतिष्ठा रही है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त तथा वैदिक ऋषियों द्वारा अनुभूत वेद ज्ञान सत्यासत्य के निर्णय का एक मात्र आधार रहा है। भारतीय चिन्तन में वैदिक ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता इस बात से भी परिलक्षित होती है कि आस्तिकता और नास्तिकता का नियामक भले ही लोक में ईश्वर है, परन्तु शास्त्र की दृष्टि से वेद है। अर्थात् जो वेद को मानता है वह आस्तिक है तथा जो वेद को नहीं मानता , वह नास्तिक है। मनु के शदों में ‘नास्तिको वेदनिन्दकः’(मनुस्मृति 2.11)। परन्तु धीरे-धीरे भारत में वेद मन्त्रों के मनमाने अर्थ किये जाने लगे तथा वैदिक यज्ञों एवं कर्मकाण्ड में आडबर, हिंसा आदि अमानवीय भावनाओं का प्रभुत्व बढता गया। परिणामस्वरूप वेद विद्या के स्थान पर अविद्या का प्रसार होने लगा। इसी के परिणामस्वरूप भारत में चार्वाक, जैन एवं बौद्ध दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ। ये दर्शन वेद को प्रमाण नहीं मानते हैं, अतः इन्हें भारतीय दार्शनिक परपरा में नास्तिक दर्शन कहा जाता है।

चार्वाक दर्शन के सिद्धान्त अन्य दार्शनिक ग्रन्थों यथा ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य, कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, विवरणप्रणेयसंग्रह, न्यायमञ्जरी, सर्वसिद्धान्तसंग्रह, षड्दर्शनसमुच्चय, तर्करहस्यदीपिका, सर्वदर्शनसंग्रह आदि ग्रन्थों में पूर्वपक्ष के रूप में हुआ है। चार्वाक दर्शन का आधार मुय रूप से वेद-विरोध है, जैसा कि इनके वेदविषयक सिद्धान्तों से विदित होता है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भाण्डधूर्तनिशाचराः।

प्रस्तुत शोधपत्र में महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास में प्रस्तुत चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों को प्रस्तुत कर उनकी दार्शनिक ग्रन्थों के आधार पर प्रामाणिकता सिद्ध की गयी है। इसके पश्चात् महर्षि दयानन्द द्वारा चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों का खण्डन तथा उनकी वेदानुकूलता प्रस्तुत कर चार्वाक दर्शन के जो सिद्धान्त वेदानुकूल है, उनकी समीक्षा महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास के सन्दर्भ में की गयी है।

महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास में चार्वाक दर्शन के निम्नलिाित सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है-

पुनर्जन्म का सिद्धान्त चार्वाक दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता है। महर्षि दयानन्द ने इस कथन की पुष्टि के लिए 12 वें समुल्लास के प्रारभ में बृहस्पति नामक आचार्य का एक प्रसिद्ध पद्य प्रस्तुत किया है –

यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

अर्थात् जब तक जीवन है, सुखपूर्वक जीयें। क्येांकि मृत्यु से कुछ भी अगोचर नहीं है। भस्मीभूत होने वाले इस शरीर का पुनः आगमन कहां होगा? अर्थात् मृत्यु के पश्चात् जीव पुनः संसार में नहीं आता है। अतः-

यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।3

अर्थात् सुखपूर्वक जीने के लिए ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए।

महर्षि दयानन्द जीव को अनादि मानते हैं। परलोक के सबन्ध में उनका विचार है कि जैसे इस समय सुख दुःख का भोक्ता जीव है, वैसे ही परजन्म में भी होता है।4 वेद में पुनर्जन्म के समर्थन में अनेक मन्त्र प्राप्त होते हैं, जिनका सारांश निम्न प्रकार से है- सत्य के ज्ञाता और अहिंसक उन जीवों ने फिर प्राणधारण किया।5 किसने मुझे पुनः विशाल पृथिवी पर जन्म दिया।6 मैं पुनः जन्म लेकर माता-पिता के दर्शन करुँ।7 कठोपनिषद् का यह प्रसिद्ध वाक्य –

सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।8 तथा-

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।

स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।।9

अर्थात् जिसका जैसा कर्म होता है और शास्त्रादि के श्रवण के द्वारा जिसको जैसा भाव प्राप्त हुआ है, उन्हीं के अनुसार शरीर धारण करने के लिए कितने ही जीव अनेक प्रकार की योनियों को प्राप्त हो जाते हैं और अन्य कितने ही स्थावर भाव का अनुसरण करते हैं।

शरीर में चार महाभूतों के योग से चैतन्य-उत्पत्ति – चार्वाक की यह मान्यता है कि हमारा शरीर पृथिवी, जल, अग्नि तथा वायु इन चार महाभूतों के संयोग से बना है। चार्वाक चार ही महाभूत स्वीकार करता है।10 वह आकाश को स्वीकार नहीं करता। इस शरीर में इन चार महाभूतों के योग से चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे मादक द्रव्य खाने पीने से मद उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जीव शरीर के साथ उत्पन्न होकर शरीर के नाश के साथ ही नष्ट हो जाता है।11 फिर किसको पाप-पुण्य का फल होगा? अर्थात् शरीर के नष्ट होने के साथ ही जीवन भी नष्ट हो जाता है। अतः पाप-पुण्य का भोक्ता कौन होगा अर्थात् कोई नहीं।

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि पृथिव्यादि भूत जड़ हैं तथा जड़ पदार्थों से चेतन की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। मद के समान चेतन की उत्पत्ति और विनाश नहीं होता, क्योंकि मद चेतन को होता है, जड़ को नहीं। पदार्थ नष्ट अर्थात् अदृष्ट होते हैं परन्तु अभाव किसी का नहीं होता। इसी प्रकार अदृश्य होने पर जीव का भी अभाव नहीं मानना चाहिए। जब जीवात्मा सदेह होता है तभी उसकी प्रकटता होती है। जब वह शरीर को छोड़ देता है, तब यह शरीर जो मृत्यु को प्राप्त हुआ है वह जैसा चेतनयुक्त पूर्व में था वैसा नहीं हो सकता।

महर्षि दयानन्द के उपरोक्त विचारों का वेद में समर्थन प्राप्त होता है। जैसा कि चार्वाक मानते हैं कि शरीर के नष्ट होने के साथ ही जीव भी नष्ट हो जाता है। परन्तु वेद कहता है कि – मर्तेष्वग्निरमृतो नि धायि।12 अर्थात् मनुष्यों में अमर जीवात्मा विद्यमान है। जहाँ तक जीवात्मा के पाप-पुण्य भोगने की बात है, वहाँ भी चार्वाक का मत वेद विरुद्ध है। वेद के अनुसार – जीवात्मा भोक्ता रूप में सांसारिक विषयों का भोग करता है।13 चार्वाक चार महाभूतों को ही स्वीकार करता है। वह प्रत्यक्ष न होने से आकाश को स्वीकार नहीं करता है। उपनिषद् का वचन है-

सर्वेषां वा एष भूतानामाकाशः परायणम् सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशाादेव जायन्ते।14

चैतन्यविशिष्टदेह ही आत्मा चार्वाकों का सिद्धान्त है कि –

तच्चैतन्यविशिष्टदेह एव आत्मा देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात्।15

अर्थात् चैतन्यविशिष्टदेह ही आत्मा है, देह से अतिरिक्त आत्मा के विषय में प्रमाण का अभाव होने से। इस शरीर में चारों भूतों के संयोग से जीवात्मा उत्पन्न होकर उन्हीं के वियोग के साथ ही नष्ट हो जाता है। क्योंकि मरने के बाद कोई जीव प्रत्यक्ष नहीं होता।

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि जो देह से पृथक् आत्मा न हो तो जिसके संयोग से चेतनता और वियोग से जड़ता होती है, वह देह से पृथक् है। जैसे आँख सबको देाती है पर वह स्वयं को नहीं देख सकती। इसी प्रकार प्रत्यक्ष का करने वाला अपने ऐन्द्रिय का प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। जैसे आँख से सब घट-पटादि पदार्थ देखता है वेसे आँख को अपने ज्ञान से देखता है। जो दृष्टा है वह दृष्टा ही रहता है, दृश्य कभी नहीं होता। कठोपनिषद् से इस तथ्य की पुष्टि होती है –

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते।

दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।16    

पुरुषार्थ का फल चार्वाकों के अनुसार सुन्दर स्त्री से आलिङ्गन करना ही पुरुषार्थ का फल है।17

यदि इसे पुरुषार्थ का फल मानते हैं तो इससे क्षणिक सुख और दुःख भी होता है, वह भी पुरुषार्थ का ही फल होगा। जब ऐसा है तो स्वर्ग ही की हानि होने से दुःख भोगना पड़ेगा। जो कहो कि सुख के बढ़ाने और दुःख के घटाने में प्रयत्न करना चाहिए तो मुक्ति सुख की हानि हो जाती है। इसलिए वह पुरुषार्थ का फल नहीं।18

परलोक चार्वाक परलोक की धारणा को व्यर्थ मानते हैं। क्योंकि इस लोक के उपस्थित सुख को छोड़कर अनुपस्थित स्वर्ग के सुख की इच्छा कर धूर्त कथित वेदोक्त अग्निहोत्रादि कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्ड का अनुष्ठान परलोक के लिए करते हैं, वे अज्ञानी हैं। जो परलोक है ही नही, उसकी आशा करना मूर्खता का काम है । क्योंकि-

यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः।

कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः।।19

यदि इस देह से निकल कर जीव किसी अन्य लोक में जाता है तो वह अपने बन्धुओं के स्नेह के कारण पुनः अपने घर में ही क्यों नहीं आ जाता।

इस सर्न्दा में चार्वाकों की वेद विरुद्धता पुनर्जन्म के निरुपण के समय ही स्पष्ट कर दी गयी है। महर्षि दयानन्द इस विषयमें कहते हैं कि देह से निकल कर जीव स्थानान्तर और शरीरान्तर को प्राप्त होता है और उसको पूर्वजन्म तथा कुटुबादि का ज्ञान कुछ भी नहीं रहता, इसलिए वह पुनः कुटुब में नहीं आ सकता।20

अग्निहोत्र, वेद, त्रिदण्ड, भस्मगुण्ठन – चार्वाकों के अनुसार-

अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।

बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः।।21

अग्निहोत्र, वेद, त्रिदण्ड, भस्मगुण्ठन ये सभी बुद्धि एवं पौरुषहीन व्यक्तियों की आजीविका के साधन हैं।

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भाण्डधूर्तनिशाचराः।

जर्फरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।22

अर्थात् तीनों वेदों के कर्ता भाण्ड, धूर्त और निशाचर हैं तथा जर्फरी-तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्ततायुक्त वचन हैं।

अश्वस्यात्र हि शिश्नन्तु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्तितम्।

भण्डैस्तद्वत्परं चैव ग्राह्यजातं प्रकीर्त्तितम्।।23

तथा अश्व के शिश्न को यजमान की पत्नी ग्रहण करे।

मांसानां खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम्।।24

मांसाहार प्रतिपादन करने वाला वेद राक्षसों का बनाया हुआ है।

महर्षि दयानन्द के अनुसार अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना, उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है।25 उपनिषद् का वाक्य है कि स्वर्ग की कामना के लिए अग्निहोत्र करें –

अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः।26 तथा –

यथेह क्षुधिता बाला मातरं पर्य्युपासते।

एवँ्सर्वाणि भूतान्यग्निहोत्रमुपासते।।27  

चार्वाकों द्वारा किया गया त्रिदण्ड तथा भस्मधारण का खण्डन ठीक है। क्योंकि सपूर्ण वैदिक वाङ्मय में स्तुति, प्रार्थना अथवा उपासना की पद्धति में कहीं भी त्रिदण्ड अथवा भस्मधारण क उल्लेख नहीं है। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि जो चार्वाकादि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे, सुने वा पढ़़े होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि वेद भांड, धूर्त और निशाचरवत्् पुरुषों ने बनाये हैं, ऐसा वचन कभी न निकालते हाँ। भांड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्त्तता है, वेदों की नहीं।28

जहाँ तक वेदों के निर्माण का प्रश्न है महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोत्पत्ति विषय में शतपथ ब्राह्मण के याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद को प्रस्तुत किया है –

एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः।29

अर्थात् याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे मैत्रेयी! महान् आकाश से भी वृहद् परमेश्वर से ही ऋग्वेदादि वेद्चतुष्टय निःश्वास के समान सहज रूप से निकले हैं, ऐसा मानना चाहिए। जैसे शरीर से उच्छवास निकल कर पुनः शरीर में ही प्रवेश कर जाता है, वैसे ही ईश्वर से वेद का प्रादुर्भाव और तिरोभाव होता है, ऐसा मानना चाहिए।30

भला! विचारना चाहिए कि स्त्री से अश्व के लिङ्ग का ग्रहण कराके उससे समागम कराना और यजमान की कन्या से हाँसी ठट्ठा आदि करना सिवाय वाममार्गी लोगों से अन्य मनुष्यों का काम नहीं है। बिना इन महापापी वाममार्गियों के भ्रष्ट, वेदार्थ से विपरीत, अशुद्ध व्यायान कौन करता? और जो माँस खाना है यह भी उन्हीं वाममार्गी टीकाकारों की लीला है। वेदों में कहीं माँस का खाना नहीं लिखा।31

मोक्ष – चार्वाकों के अनुसार देह का नाश होना ही मोक्ष है।32

इस पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि- तो फिर गधे, कुत्ते आदि पशुओं और मनुष्यों में क्या अन्तर रहा।33 अर्थात् वैदिक और दार्शनिक ग्रन्थों में मोक्षप्राप्ति के यम-नियमादि मार्ग बतलाये गये हैं, उनकी कोई प्रासङ्गिकता न रहेगी।

जगत् स्वाभाविक है – चार्वाकों के अनुसार अग्नि उष्ण है, जल शीत है, तथा वायु स्पर्श में सम है। ऐसा इनको किसने बनाया है? अर्थात् किसी ने भी नहीं। इसलिए जगत् के समस्त पदार्थ स्वाभाविक हैं।

अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथाऽनिलः।

केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तदव्यवस्थितिः।।34

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि बिना चेतन परमेश्वर के निर्माण किये जड़ पदार्थ स्वयं आपस में स्वभाव से नियमपूर्वक मिलकर उत्पन्न नहीं हो सकते। इस वास्ते सृष्टि का कर्ता अवश्य होना चाहिए। यदि स्वभाव से ही होते तो द्वितीय सूर्य, चन्द्र, पृथिवी और नक्षत्रादि लोक आपसे आप क्यों नहीं बन जाते हैं।35 इस सन्दर्भ में वेद का कथन है कि वह ईश्वर सत् वस्तुओं का कारण तथा अमूर्त वायु आदि का प्रकाशक है।36

वर्ण एवं आश्रम चार्वाकों के अनुसार न कुछ स्वर्ग है, न अपवर्ग है तथा न ही यह आत्मा दूसरे लोक में जाता है तथा न ही वर्णाश्रम आदि की क्रियाएँ फल देने वाली हैं।

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।37

महर्षि दयानन्द कहते हैं कि स्वर्ग सुख भोग और नरक दुःख भोग का नाम है। जो जीवात्मा न होता तो सुख दुःख का भोक्ता कौन हो सके? जैसे इस समय सुख दुःख का भोक्ता जीव है वैसे परजन्म में भी होता है। क्या सत्यभाषण और परोपकारादि क्रिया भी वर्णाश्रमियों की निष्फल होगी? काी नहीं।38

सुख दुःख का भोक्ता जीव है, इस तथ्य की पुष्टि उपनिषद् इस प्रसिद्ध मन्त्र से हो जाती है –

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।39   

यज्ञ में पशुबलि चार्वाक कहते हैं कि ज्योतिष्टोम यज्ञ में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग में जायेगा, ऐसा मानकर यजमान यज्ञ में पशु की हिंसा करता है तो वह अपने पिता को मारकर स्वर्ग में क्यों नहीं भेज देता।

पशुश्चेन्निहतः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।

स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते।।40

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि पशु मार के होम करना वेदादि सत्यशास्त्रों में कहीं नहीं लिखा है।41

श्राद्ध एवं तर्पण चार्वाक कहते हैं कि यदि मृतक प्राणियों का श्राद्ध उन मरे हुए प्राणियों की तृप्ति का कारण है तो कहीं अन्य स्थान पर जाते हुए व्यक्तियों के लिए पाथेय अर्थात् मार्ग के लिए भोज्यादि सामग्री आदि की कल्पना व्यर्थ है। स्वर्ग में स्थित व्यक्ति जब दान से तृप्त हो जाते हैं तब प्रासाद के ऊपरि भाग में स्थित व्यक्ति को नीचे से भोजन क्यों नहीं पहुँचाया जा सकता है। अतः ब्राह्मणों के द्वारा अपनी जीविकोपार्जन के लिए ही मृतकों के लिए ये प्रेतक्रियाएँ बनायी गयी हैं।42

इस पर महर्षि दयानन्द का मन्तव्य है कि मृतकों का श्राद्ध, तर्पण करना कपोलकल्पित है क्योंकि यह वेदादि सत्यशास्त्रों के विरुद्ध होने से भागवतादि पुराणवालों का मत है। इसलिए इस बात का खण्डन अखण्डनीय है।43

नरक चार्वाकों के अनुसार काँटे आदि के लगने से होने वाले दुःख का नाम नरक है।44 इस पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि तो महारोगादि नरक क्यों नहीं।45 अर्थात् लोक में और भी बड़े-बड़े दुःख दिखायी देते हैं। उन सबको नरक मानना चाहिए।

परमेश्वर चार्वाकों की मान्यता है कि लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है।46

इस पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि राजा को ऐश्वर्यवान् और प्रजापालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ माने तो ठीक है, परन्तु जो अन्यायकारी और पापी राजा हो तो उसको भी परमेश्वर के समान मानते हो तो तुहारे जैसा कोईाी मूर्ख नहीं।47

अतः स्पष्ट है कि महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास में चार्वाक दर्शन के सपूर्ण सिद्धान्तों को स्पष्ट किया गया है तथा साथ ही प्रसिद्ध दार्शनिक गन्थ सर्वदर्शन संग्रह के उद्धरणों को प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया गया है। महर्षि दयानन्द द्वारा चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों के सबन्ध में दोनों ही प्रकार के विचार प्राप्त होते हैं। वे चार्वाक दर्शन के कुछ मतों का समर्थन करते हैं तथा कुछ मतों का विरोध भी। परन्तु यहाँ समर्थन अथवा विरोध का एकमात्र कारण चार्वाकों के सिद्धान्तों की वेदानुकूलता है। चार्वाकों के जो मत वेदानुकूल हैं, महर्षि दयानन्द उनका समर्थन करते हैं तथा जो वेदानुकूल नहीं हैं, उनका विरोध। चार्वाकों के त्रिदण्ड, भस्मगुण्ठन, यज्ञ में पशुबलि तथा श्राद्ध एवं तर्पण विषयक विचारों का महर्षि दयानन्द समर्थन नहीं करते हैं। वस्तुतः ये सभी मत वेदविरुद्ध हैं। त्रिदण्ड एवं भस्मगुण्ठन का विधान किसी भी वैदिक यज्ञ अथवा विधान में नहीं है तथा न ही इनकी दैनिक जीवन में कोई उपयोगिता दिखायी देती है। जहाँ तक यज्ञ में पशुबलि का प्रश्न है, इसका भी कहीं वेद में समर्थन नहीं मिलता। परन्तु कुछ वेद के भाष्यकार ऐसे भी हुए जिन्होंने वेदमन्त्रों से यज्ञ में पशुबलि को सिद्ध किया। अतः यह दोष उन तथाकथित वेदभाष्यकारों का है, न कि वेद का। यहीं स्थिति श्राद्ध एवं तर्पण के विषय में है। ये दोनों ही जीवित व्यक्तियों के सन्दर्भ में हैं। परन्तु कालान्तर में जनमानस पर पोराणिक प्रभाव के कारण कुछ कर्मकाण्डियों ने इन्हें अपनी जीविका का साधन बना लिया। चार्वाकों ने वेदों का अध्ययन तो किया नहीं, अपितु उन्होंने महीधरादि वेदभाष्यकारों तथा पौराणिकों द्वारा यज्ञादि के नाम से समाज में प्रचलित किये गये पाखण्ड को वेद से जोड़ दिया तथा वेद की निन्दा करने लगे।

इसके अतिरिक्त महर्षिदयानन्द ने चार्वाक दर्शन के पुनर्जन्म का सिद्धान्त, शरीर में चार महाभूतों के योग से चैतन्य-उत्पत्ति, चैतन्यविशिष्टदेह ही आत्मा, पुरुषार्थ का फल, परलोक, अग्निहोत्र, वेद, मोक्ष, जगत् स्वाभाविक है, वर्ण एवं आश्रम, नरक तथा परमेश्वर विषयक सिद्धान्तों का खण्डन किया है। खण्डन का सपूर्ण आधार वेद है, जैसा कि प्रस्तुत शोध-पत्र में प्रत्येक स्थल पर प्रदर्शित किया गया है। अन्त में महर्षि दयानन्द के ही शदों में- जो वाममार्गियों ने मिथ्या कपोलकल्पना करके वेदों के नाम से अपना प्रयोजन सिद्ध करना अर्थात् यथेष्ट मद्यपान, माँस खाने और परस्त्री गमन  करने आदि दुष्ट कामों की प्रवृत्ति होने के अर्थ वेदों को कलङ्क लगाया, इन्हीं बातों को देखकर चार्वाक, बौद्ध तथा जैन लोग वेदों की निन्दा करने लगे और पृथक् एक वेदविरुद्ध अनीश्वरवादी अर्थात् नास्तिक मत चला लिया। जो चार्वाकादि वेदों का मूलार्थ विचारते तो झूठी टीकाओं को देखकर सत्य वेदोक्त मत से क्यों हाथ धो बैठते? क्या करे बिचारे ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धिः’। जब नष्ट भ्रष्ट होने का समय आता है तब मनुष्य की उल्टी बुद्धि हो जाती है।48

सर्न्दा

  1. चार्वाकसमीक्षा, पृ. 6
  2. सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 2, पंक्ति 17-18
  3. वही पृ. 14, पं. 122-123
  4. सत्यार्थ प्रकाश पृ. 291 आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली -6,65 वॉँसंस्करण, नवबर 2007
  5. असुं स ईयुरवृका ऋतज्ञाः। ऋग्वेद 10.15.1

6 को नो मह्या अदितये पुनर्दात्। वही 1.24.1

7 पितरं च दृशेयं मातरं च। वही 1.24.1

8 कठोपनिषद् 1.1.6

9 वही 2.4.7

10 अत्र चत्वारि भूतानि भूमिवार्यनलानिलाः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 7, पंक्ति 60

11 तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्त्वानि। तेय एव देहाकारपरिणतेयः किण्वादियो मदशक्तिवच्चैतन्य-मुपजायते। तेषु विनष्टेषु सत्सु स्वयं विनश्यति।

वही पृ. 2-3, पंक्ति 23-25

12 ऋग्वेद 10.45.7

13 अथर्ववेद 10.8.21

14 नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद् 3.5

15 सर्वदर्शनसंग्रह पृ.3, पं. 27-28

16 कठोपनिषद् 3.12

17 अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 3, पं. 29-30

18 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

19 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 14, पं. 124-125

20 सत्यार्थप्रकाश, पृ.291

21 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 5, पं. 50-51

22 वही पृ. 14, पं. 128-129

23 वही पृ. 15, पं. 130-131

24 वही पृ. 15, पं. 132

25 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

26 मैत्रायण्युपनिषद् 6.36

27 छान्दोग्योपनिषद् 5.24.5

28 सत्यार्थप्रकाश पृ. 289

29 श. का. 14, अ. 5 (ब्रा. 4, क. 10)

30 याज्ञवल्क्योऽभिवदति – हे मैत्रेयी! महत आकाशादपि बृहतः परमेश्वरस्यैव          सकाशादृग्वेदादिवेदचतुष्टयं (निःश्वसित) निःश्वासवत्सहजतया                   निःसृतमस्तीति वेद्यम्। यथा शरीराच्छ्वासो निःसृत्य पुनस्तदेव प्रविशति         तथैवेश्वराद्वेदानां प्रादुर्भावतिरो-भावौ भवतः इति निश्चयः। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदोत्पत्तिविषय 3

31 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291-292

32 देहोच्छेदो मोक्षः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ.6,पं. 53

33 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

34 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13,पं. 110-111

35 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291

36 सतश्च योनिमसतश्च वि वः। यजुर्वेद 13.3

37 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13, पं. 114-115

38 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291

39 श्वेताश्वतरोपनिषद् 4.6

40 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13, पं. 114-115

41 सत्यार्थप्रकाश पृ. 291

42 मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्।

गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थ पाथेयकल्पनम्।।

स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः।

प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते।।

ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह।

मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित्।। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13-14,                पं. 116, 118, 120, 121, 126, 127

43 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291

44 कण्टकादिजन्यं दुःामेव नरकः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 6, पं. 52

45 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

46 लोकसिद्धो राजा परमेश्वरः। वही पृ. 6, पं. 52-53

47 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

48 वही, पृ. 292

 

सन्दर्भ ग्रन्थ

1 अथर्ववेद, भाष्यकार – क्षेमकरणदास त्रिवेदी, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, 2007

2 उपनिषद् संग्रह – सं. – पं. जगदीश शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1980

3 ऋग्वेद, भाष्यकार – महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, 2005

4 त्रग्वेदादिभाष्यभूमिका – महर्षि दयानन्द सरस्वती, दिल्ली

5 चार्वाकसमीक्षा – स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती, विश्वेश्श्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, 1964

6 सत्यार्थप्रकाश – महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, 65 वाँ संस्करण, नवबर 2007

7 सर्वदर्शनसंग्रह – सायण-माधव, प्राच्य विद्या संशोधन मन्दिर, पुना, 1924

8 यजुर्वेद, भाष्यकार – महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, 2006

– सहायक आचार्य, पंजाब विश्वविद्यालय, विश्वेश्वरानन्द विश्वबन्धु संस्कृत एवं भारत-भारती अनुशीलन संस्थान, होशियारपुर

 

श्री डॉ. हेडगेवार की चेतावनीः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ-तत्त्व और चिन्तन’ पुस्तक मेरे सामने है। इसके पृष्ठ 19 पर सिद्धान्त और व्यवहार के टकराव या दूरी पर डॉ. हेडगेवार जी की चेतावनी संघ को ही रास नहीं आ रही। ‘‘संसार असार है, यह जीवन मायामय है, आदि तात्त्विक बातें केवल पुस्तकों में ही शोभा देती है।’’ इस सोच को आप पतन का कारण मानते हैं। जगत् मायामय है, मिथ्या है। विवेकानन्द भी तो यही मानते थे। जगत् मिथ्या है तो फिर जगत्गुरु किसके गुरु हैं?

‘‘मुझे एक भी उदाहरण बतावें जहाँ कहीं किसी मनुष्य के केवल पूजा-पाठ करने से सौ रुपये उसके चरणों पर आ पड़े  हों। ऐसा तो कभी नहीं होता।’’ यह चिन्तन मनन ऋषि दयानन्द का है। शब्द डॉ. हेडगेवार जी के हैं परन्तु राष्ट्रधर्म ने तो तेलंग स्वामी के चमत्कारों की झड़ी-सी लगा दी थी।

अवतारवादी सोच पतन का एक कारणः इसी पुस्तक के पृष्ठ 45 से 47 तक पढ़िये। इसका बहुत थोड़ा अंश आज देंगे। विस्तार से फिर लिखेंगे। डॉ. हेडगेवार जी के घर एक अतिथि (सभवतः उनके मामाजी थे) पधारे। उनको पूजा-पाठ करते देखकर आपने एक प्रश्न पूछ लिया। वह भड़क उठे और बोले, ‘‘आप रामचन्द्र जी और भगवान् का उपहास करते हैं? भगवान् के गुण कभी मनुष्य में आ सकते हैं? हम लोग गुण ग्रहण करने की दृष्टि से नहीं, अपितु पुण्य-संचय और मोक्ष-प्राप्ति के लिए ग्रन्थ पाठ करते हैं।’’

इस पर डॉ. हेडगेवार जी ने यह प्रतिक्रिया दी, ‘‘जहाँ कहीं भी कोई कर्त्तव्यशाली या विचारवान् व्यक्ति उत्पन्न हुआ कि बस हम उसे अवतारों की श्रेणी में ढ़केल देते हैं, उस पर देवत्व लादने में तनिक भी देर नहीं लगाते।’’

संघ को डॉ. हेडगेवार जी का यह विचार भी रास नहीं आया। गुरु गोलवलकर जी ने उनकी भव्य समाधि बनवा दी और फिर गुरु जी की भी वैसी ही बनानी पड़ गई। डॉ. हेडगेवार जी ने छत्रपति शिवाजी व गुरु रामदास से प्रेरणा लेने को कहा। घिसते-घिसते वे सब घिस गये। सबका स्थान विवेकानन्द जी ने ले लिया। गुजरात के पड़ौस में जन्मे शिवाजी व गुजरात में जन्मे ऋषि दयानन्द को गुजरात से निष्कासित कर दिया गया है। जिस महर्षि दयानन्द पर भाव-भरित हृदय से सरदार पटेल ने अन्तिम भाषण दिया, उस पर अवतारवादियों की इस कृपा पर हम बलिहारी।

कावड़िये दुर्घटना ग्रस्तः हिन्दुओं के तीर्थ यात्री वर्षभर दुर्घटना ग्रस्त होते रहते हैं। जड़ बुद्धि, पाषण हृदय तथाकथित हिन्दू नेता इनके कारण और निवारण पर सोचते ही नहीं। परोपकारी में हर बार इन दुःखद घटनाओं पर हम रक्तरोदन करते रहते हैं। अभी दूरदर्शन पर बिहार के भोलेभाले काँवड़ियों के मरने का समाचार सुनकर हृदय पर गहरी चोट लगी। रो-रो कर हमारे नयनों में भी नीर नहीं। आर्यसमाज की तो यह अंधविश्वासी हिन्दू समाज सुनता नहीं। राजनेता ही अब तो हिन्दुओं के धार्मिक व्यायाकार बने बैठे हैं। हम किसको अपना रोना सुनावें। बाबा रामदेव ने भी कभी काँवड़ियों को महिमा मण्डित किया था। काँवड़ियों के काल कराल के गाल में विलीन होने पर बाबा रामदेव भी अभी तक तो मौन हैं।

आर्यसमाज के पाखण्ड खण्डन पर अंधविश्वासी खीजते हैं। अब पता लगा कि अंधविश्वास के पोषकों की कृपा से हिन्दू मरते रहते हैं। जब प्रत्येक कुरीति हिन्दू संस्कृति के नाम पर महिमा-मण्डित की जायेगी तो विनाश व पतन ही होगा।

 

भक्ष्य व अभक्ष्य भोजन एवं गोरक्षा पर महर्षि दयानन्द के वेदसम्मत, देशहितकारी एवं मनुष्योचित विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

मनुष्य मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं, ज्ञानी व अज्ञानी। रोग के अनेक  कारणों में से मुख्य कारण भोजन भी होता है। रोगी व्यक्ति डाक्टर के पास पहुंचता है तो कुशल चिकित्सक जहां रोगी को रोग निवारण करने वाली ओषधियों के सेवन के बारे में बताता है वहीं वह उसे पथ्य अर्थात् भक्ष्य व अभक्ष्य अर्थात् खाने व न खाने योग्य भोजन के बारे में भी बताता है जिससे रोगी का रोग दूर हो जाता है। महर्षि दयानन्द वेद एवं वैदिक साहित्य सहित वैद्यक व चिकित्सा शास्त्र आयुर्वेद के भी विद्वान थे। उन्होंने धर्माधर्म व वैद्यक शास्त्रोक्त दृष्टि से भक्ष्य व अभक्ष्य पदार्थों पर अपने विचार सत्यार्थ प्रकाश में प्रस्तुत किये हैं। उनके विचार आज भी प्रासंगिक एवं अज्ञानियों के लिए मार्गदर्शक हैं। अतः उन्हें सबके लाभ हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि भक्ष्याभक्ष्य दो प्रकार का होता है। एक धर्मशास्त्रोक्त तथा दूसरा वैद्यकशास्त्रोक्त। जैसे धर्मशास्त्र में- अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च।। मनु.।। इसका अर्थ है कि द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को मलीन विष्ठा मूत्रादि के संसर्ग से उत्पन्न हुए शाक फल मूल आदि न खाना। इसका तात्पर्य है कि शाक, फल व अन्न आदि पदार्थ शुद्ध व पवित्र भूमि में ही उत्पन्न होने चाहिये तभी वह भक्ष्य होते हैं। मलीन विष्ठा मूत्रादि से दूषित भूमि में उत्पन्न खाद्य पदार्थ भक्ष्य श्रेणी में नहीं आते। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं-वर्जयेन्मधुमांसं च।। मनु.।। अर्थात् जैसे अनेक प्रकार के मद्य, गांजा, भांग, अफीम आदि। बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारी तदुच्यते।। वचन को उद्धृत कर वह कहते हैं कि जो-जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ हैं, उन का सेवन कभी न करें और जितने अन्न सड़े, बिगड़े दुर्गन्धादि से दूषित, अच्छे प्रकार न बने हुए और मद्य, मांसाहारी म्लेच्छ कि जिन का शरीर मद्य, मांस के परमाणुओं ही से पूरित है, उनके हाथ का (पकाया व बना) न खावें।

 

वह आगे लिखते हैं कि जिस में उपकारक प्राणियों की हिंसा अर्थात् जैसे एक गाय के शरीर से दूध, घी, बैल, गाय उत्पन्न होने से गाय की एक पीढ़ी में चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ मनुष्यों को सुख पहुंचता है वैसे पशुओं को न मारें, न मारने दे। जैसे किसी गाय से बीस सेर और किसी से दो सेर दूध प्रतिदिन होवे उस का मध्यभाग ग्यारह सेर प्रत्येक गाय से दूध होता है। कोई गाय अठारह और कोई छः महीने दूध देती है, उस का भी मध्य भाग बारह महीने हुए। अब प्रत्येक गाय के जन्म भर के दूध से 24960 (चैबीस सहस्र नौ सौ साठ) मनुष्य एक बार में तृप्त हो सकते हैं। उसके छः बछियां छः बछड़े होते हैं उन में से दो मर जाये तो भी दश रहें। उनमें से पांच बछडि़यों के जन्म भर के दूध को मिला कर 124800 (एक लाख चैबीस सहस्र आठ सौ) मनुष्य तृप्त हो सकते हैं। अब रहे पांच बैल वे जन्म भर में 5000 (पांच सहस्र) मन अन्न न्यून से न्यून उत्पन्न कर सकते हैं। उस अन्न में से प्रत्येक मनुष्य तीन पाव खावे तो अढ़ाई लाख मनुष्यों की तृप्ति होती है। दूध और अन्न मिला कर 374800 (तीन लाख चैहत्तर हजार आठ सौ) मनुष्य तृप्त होते हैं। दोनों संख्या मिला के एक गाय की एक पीढ़ी से 475600 (चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ) मनुष्य एक बार में पालित होते हैं और पीढ़ी परपीढ़ी बढ़़ा कर लेखा करें तो असंख्यात मनुष्यों का पालन होता है। इस से भिन्न बैलगांड़ी सवारी भार उठाने आदि कर्मों से मनुष्यों के बड़े उपकारक होते हैं तथा गाय दूध से अधिक उपकारक होती है परन्तु जैसे बैल उपकारक होते हैं वैसे भैंस भी है परन्तु गाय के दूध घी से जितने बुद्धिवृद्धि से लाभ होते हैं उतने भैंस के दूध से नहीं। इससे मुख्योपकारक आर्यों ने गाय को गिना है और जो कोई अन्य विद्वान होगा वह भी इसी प्रकार समझेगा।

 

बकरी के दूध से 25920 (पच्चीस सहस्र नौ सौ बीस) आदमियों का पालन होता है वैसे हाथी, घोड़े, ऊंट, भेड़, गदहे आदि से भी बड़े उपकार होते हैं । इन पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानियेगा।

 

देखो ! जब आर्यो (वेद के मानने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों) का राज्य था तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त वा अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्तते थे। क्योंकि दूध, घी, बैल आदि पशुओं की बहुताई होने से अन्न व रस पुष्कल प्राप्त होते थे। जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गो आदि पशुओं के मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुए हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ती होती जाती है। क्योंकि नष्टे मूले नैव फलं पुष्पम्। जब वृक्ष का मूल ही काट दिया जाय तो फल फूल कहां से हों?

 

महर्षि दयानन्द एक काल्पनिक प्रश्न कि जो सभी अंहिसक हो जाये तो व्याघ्रादि पशु इतने बढ़ जायें कि सब गाय आदि पशुओं को मार खायें तुम्हारा पुरूषार्थ ही व्यर्थ जाय? का उत्तर देते हुए कहते हैं कि यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उन्हें दण्ड देवें और प्राण भी वियुक्त कर दें। (प्रश्न) फिर क्या उन का मांस फेंक दें? (उत्तर) चाहें फेंक दें, चाहें कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें वा जला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी होकर हिंसक हो सकता है।

 

जितना हिंसा, चोरी, विश्वासघात, छल व कपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा व धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है। जिन पदार्थों से स्वास्थ्य रोगनाश बुद्धि-बल-पराक्रम-वृद्धि और आयु-वृद्धि होवे उन तण्डुलादि, गोधूम, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्टादि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना सब भक्ष्य कहाता है। जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं, जिस-जिस के लिए जो-जो पदार्थ वैद्यकशास्त्र में वर्जित किये हैं, उन-उन का सर्वथा त्याग करना और जो-जो जिस के लिए विहित है उन-उन पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है।

 

गोकरुणानिधि पुस्तक में पशु हिंसक मनुष्य का काल्पनिक पक्ष प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि देखो ! जो शाकाहारी पशु और मनुष्य हैं वे बलवान् और जो मांस नहीं खाते वह निर्बल होते हैं, इसलिए मांस खाना चाहिये। इसका प्रतिवाद करते हुए महर्षि दयानन्द पशु रक्षक की ओर से कहते हैं कि क्यों ऐसी अल्प समझ की बातें मानकर कुछ भी विचार नहीं करते। देखो, सिंह मांस खाता और सुअर वा अरणा भैंसा मांस कभी नहीं खाता, परन्तु जो सिंह बहुत मनुष्यों के समुदाय में गिरे तो एक वा दो को मारता और एक दो गोली या तलवार के प्रहार से मर भी जाता है और जब जंगली सुअर वा अरणा भैंसा जिस प्राणि समुदाय में गिरता है, तब उन अनेक सवारों और मनुष्यों को मारता और अनेक गोली, बरछी तथा तलवार आदि के प्रहार से भी शीघ्र नहीं गिरता, और सिंह उस से डर के अलग सटक जाता है और वह अरणा भैंसा सिंह से नहीं डरता।

 

जिस देश में सिवाय मांस के अन्य कुछ नहीं मिलता, वहां आपत्काल अथवा रोगनिवृति के लिये क्या मांस खाने में दोष होता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि यह कहना व्यर्थ है क्योंकि जहां मनुष्य रहते हैं, वहां पृथिवी अवश्य होती है। जहां पृथिवी है वहां खेती वा फल-फूल आदि होते हैं और जहां कुछ भी नहीं होता, वहां मनुष्य भी नहीं रह सकते। और जहां ऊसर भूमि है, वहां मिष्ट जल और फल-आहार आदि के न होने से मनुष्यों का रहना भी दुर्घट है। आपत्काल में भी मनुष्य अन्य उपायों से अपना निर्वाह कर सकते हैं जैसे मांस के न खाने वाले करते हैं। बिना मांस के रोगों का निवारण भी ओषधियों से यथावत् होता है, इसलिये मांस खाना अच्छा नहीं।

 

महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आधार पर लिखा है कि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और जो वेद से अविरुद्ध मनुस्मृति युक्त धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लेाक में कीर्ति और मर कर सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है। यहां बताया गया है कि वेद और वेदानुकूल मनुस्मृति के वचनों का पालन करने पर इस लोक में उन्नति होती है और मर कर भी जीवात्मा को सर्वोत्तम सुखों की प्राप्त होती है। हमारे मांसाहारी भाई कभी यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व रहता है वा नहीं? यदि रहता है तो उसको सुख व दुःख क्यों, कैसे व किस प्रकार से प्राप्त होते हैं व उनका आधार क्या होता है। महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं कि जो विद्या नहीं पढ़ा है वह जैसा काष्ठ का हाथी, चमड़े का मृग होता है वैसा अविद्वान मनुष्य जगत् में नाममात्र मनुष्य कहलाता है। इसलिए वेदादि विद्या को पढ़, विद्वान्, धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों के कल्याण का उपदेश करे। और उपदेश में वाणी को मधुर और कोमल बोलें। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं वे पुरुष धन्य हैं।

 

महर्षि गोकरुणानिधि पुस्तक में उपदेश करते हुए कहते हैं कि ध्यान देकर सुनिये कि जैसा दुःख-सुख अपने को होता है, वैसा ही औरों को भी समझा कीजिये। और यह भी ध्यान में रखिये कि वे पशु आदि और उन के स्वामी तथा खेती आदि कर्म करने वाले प्रजा के पशु आदि और मनुष्यों के अधिक पुरुषार्थ ही से राजा का ऐश्वर्य अधिक बढ़ता और न्यून से नष्ट होता जाता है, इसीलिये राजा प्रजा से कर लेता है कि उन की रक्षा यथावत् करे न कि राजा और प्रजा के जो सुख के कारण गाय आदि पशु हैं उनका नाश किया जावे। इसलिये आज तक जो हुआ सो हुआ आगे आंखे खोल कर सब के हानिकारक कर्मों को न कीजिये और न करने दीजिये। हां हम लोगों का यही काम है कि आप लोगों को भलााई और बुराई के कामों को जता देवें, और आप लोगों का यही काम है कि पक्षपात छोड़ सब की रक्षा और उन्नति करने में तत्पर रहें। सर्वशक्तिमान जगदीश्वर हम और आप पर पूर्ण कृपा करें कि जिस से हम और आप लोग विश्व के हानिकारक कर्मों को छोड़, सर्वोपकारक कर्मों को कर के सब लोग आनन्द में रहें। इन सब बातों को सुन मत डालना, किन्तु सुन कर उसके अनुसार आचरण करना। इन अनाथ पशुओं के प्राणों को शीघ्र बचाना। हे महाराजधिराज जगदीश्वर ! जो इन (गाय आदि पशुओं) को कोई न बचावे तो आप इन की रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हुजिये।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हम यह भी उल्लेख करना चाहते हैं कि वेद और महर्षि दयानन्द संसार के सभी मनुष्यों को एक ही ईश्वर की सन्तान के रूप में मानते हैं। वेद में किसी मत विशेष के मनुष्य के प्रति कोई पूर्वाग्रह व पक्षपात करने का विधान नहीं है जैसा कि अन्य मतों में देखा जाता है कि सब अपने अपने समुदाय के प्रति ही उन्नति आदि के इच्छुक होते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने न केवल भारतीय आर्य-हिन्दू-बौद्ध-जैन आदि के हित व लाभ के लिए ही वैदिक धर्म का प्रचार किया अपितु संसार के अन्य मतों के अनुयायियों के प्रति भी अपनी शुभेच्छा का परिचय दिया। वह संसार के सभी लोगों का एक वैदिक सत्य धर्म, एक संस्कृति, एक मत, एक भाषा, एक सुख-दुख, समानता व निष्पक्षता के पक्षधर थे। उनकी यह विशिष्टता ही वैदिक विचारधारा के कारण थी। इसी विचारधारा को अपनाकर ही संसार में सभी विवादों का हल, शान्ति व सुख का वातावरण तैयार हो सकता है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

गोरक्षा   के   लिये   क्या   करना   चाहिये?

महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय, भारतरत्न।

यदि हम गौओं की रक्षा करेंगे तो गौएं भी हमारी रक्षा करेंगी। गांव की आवश्यकता के अनुसार प्रत्येक घर में तथा घरों के प्रत्येक समूह में एक गोशाला होनी चाहिये। दूध गरीबअमीर सबको मिलना चाहिये। गृहस्थों को पर्याप्त गोचरभूमि मिलनी चाहिये। गौओं को बिक्री के लिये मेलों में भेजना बिलकुद बंद कर देना चाहिये। क्योंकि इससे कसाइयों को गायें खरीदने में सुविधा होती है। किसानों की स्थिति के सुधार के लिये दिये जाने वाले इन सुझावों तथा अन्य ऐसे सुझावों को कार्यरूप में परिणत करने के लिये ग्रामपंचायतों का निर्माण होना चाहिये।

फोनः09412985121

 

गो-वध व मांसाहार का वेदों में कही भी नामोनिशान तक नहीं है: शिवदेव आर्य

 

प्रायः लोग बिना कुछ सोचे समझे बात करते हैं कि वेदों में गो-वध तथा गो-मांस खाने का विधान है। ऐसे लोगों को ध्यान में रखकर कुछ लिखने का यत्न कर रहा हूॅं, आज तक जो भी ऐसी मानसिकता से घिरे हुऐ लोग हो वे जरुर इसको पढ़ कर समझने का प्रयास करें। क्षणिक स्वार्थ व लाभ के लिए वेद व गोमाता का नाम अपवित्र करने की कोशिश न करें। यदि लेशमात्र भी संदेह है तो इन मन्त्रों को समझों-

प्रजावतीः सुयवसे रुशन्तीः शुध्द अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः।

मा वस्तेन ईशत माघशंसः परि वो रुद्रस्य हेतिर्वृणक्तु।। (अथर्व.-7.75.1)

इस मन्त्र का देवता अघ्न्या’ है। जो कि वैदिक कोश के अनुसार गाय का मुख्य नाम है। इसका निर्वचन करते हुए लिखा है – न हन्तव्या भवति अर्थात् गाय इतना अधिक उपकारी पशु है कि इस का वध करना पाप ही नहीं अपितु महापाप है।

इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार होगा कि– हे मनुष्यो! तुम्हारे घरों में प्रजावतीः उत्तम सन्तान वाली, सुयवसे (जौ) के क्षेत्रों मे चरने वाली और शुध्द जलों को पीने वाली गौ हो और इसकी सुरक्षा ऐसी हो कि कोई चोर उन्हें चुरा न सके और पापी डाकू आदि गाय को अपने वश में न कर सके । रुद्र परमात्मा की हेति=वज्रशक्ति तुम्हारे चारों तरफ सदा विद्यमान रहे।

यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।

तं त्वा सीसेन विध्यामः।। (अथर्व.-1.16.4)

अर्थात् राजन्! यदि कोई मनुष्य हमारी गाय, अश्व आदि पशुओं को मारता है, उसे हत्यारे को (सीसेन) कारागार या कठोर दण्ड देकर हमारी रक्षा करो।

पयः पशूनां रसमोषधीनाम्।

बृहस्पतिः सविता मे यच्छतात्।। (अथर्व.-19.31.5)

अर्थात् हे सवोत्पदाक परमेश्वर! हम सब को जीवन निर्वाह के लिए गाय का दूध और औषधियों का रस भोजन के लिए प्रदान करो।

 

या वो देवाः सूर्ये रुचो गोष्वश्र्वेषु या रुचः।

इन्द्राग्नी ताभि सर्वाभी रुचं नो धत्तबृहस्पते।। (यजु.-13.23)

इस मन्त्र के माध्यम से कहने का यत्न किया गया है कि गो, अश्व आदि प्राणियों से सदैव प्रीति किया करें।

घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्रमभिरक्षताद् इमान् स्वाहा।। (यजु.-35.17)

अर्थात् हे (अम्बे) राजन्! जैसे पिता अपने पुत्रों की रक्षा करता है वैसे आप गाय के मधुर और रोगनाशक दूध घृत आदि की व्यवस्था कर हमारी रक्षा करें।

दोग्ध्री धेनुर्वोढाऽन…………जायताम्।(यजु.-22.22)

इस मन्त्र में राष्ट्रिय प्रार्थना है – हमारे देश में प्रचुर दूध देने वाली गोएॅं भार ढोने में समर्थ तथा कृषि के योग्य बैल और यानों में सक्षम और शीघ्रगामी घोड़े पैदा हों।

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाॅं2ऽअस्तु सूय्र्यः।

माध्वीर्गावो भवन्तु नः।। (यजु.-13.29)

गाय से जैसी कल्याणकारी किरणें हम सब मनुष्य के लिए निकलती हैं, ठीक ऐसी ही कल्याणकारी किरणों को प्राप्त करने के लिए प्रशंसित कोमलता गुणयुक्त वनस्पतियों से होम करो।

इस मन्त्र से स्पष्ट प्रतीत होता है कि गाय के दुग्ध, मूत्र, मल आदि से उस गाय के अन्दर से कल्याणकारी किरणें निकलती हैं, जो हम सब के लिए अत्यन्त लाभप्रद हैं।

इमं मा हिंसीद्र्विपादं पशुं सहस्त्राक्षो मेधाय चीयमानः। मयुं पशुं मेधमग्ने जुषस्व तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद। मयुं ते शुगृच्छतु यं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु।। (यजु.-13.47)

इस मन्त्र के द्वारा परमपिता परमेश्वर मनुष्य को आदेश देता है कि सबके उपकार करने हारे गवादि पशुओं को कभी न मारें, किन्तु इनकी अच्छी प्रकार से रक्षा कर और इनसे उपकार लेके सब मनुष्यों को आनन्द देवे।

इमं साहस्त्रं शतधारमुत्सं व्यच्मानं सरिरस्य मध्ये।

घृतं दुहानामदिति जनायाग्ने मा हिंसी परमे व्योमन्।

गवयामारण्यमनु ते दिशामि तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद।

मवयं ते शुगृच्छतु। यं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु।। (यजु.-13.49)

इस मन्त्र में भी इसी प्रकार की चर्चा प्राप्त होती है। देव दयानन्द जी इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं कि- हे राजपुरुषों! तुम लोगों को चाहिए कि जिन बैल आदि पशुओं के प्रभाव से खेती आदि काम, जिन गौ आदि से दूध घी आदि उत्तम पदार्थ होते हैं कि जिन के दूध आदि से प्रजा की रक्षा होती है, उनको कभी मत मारो और जो जन इन उपकारक पशुओं को मारें, उनको राजादि न्यायाधीश अत्यन्त दण्ड देवें।

अक्षराजाय कितवं कृतायादिनदर्शं त्रेतायै द्वापरायाधिकल्पिनमास्कदाय सभास्थाणुं मृत्यवे गोव्यच्छमन्तकाय गोधातं  क्षुधे यो गां विकृन्तन्तं भिक्षमाणऽउप तिष्ठति दुष्कृताय चरकाचाय्र्यं पाप्मने सैलगम्।। (यजु.-30.18)

इस मन्त्र में कहा गया है कि जो समाज को चलाने वाले राजादि लोग हैं वे तभी सामथ्र्यशील हैं, जो गाय आदि पशुओं को मारने, काटने वाले मनुष्यों को कठोर से कठोर सजा देता हो किन्तु बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारे समाज के राजादिगण लोग तो गो हत्या करने वालों को प्रोत्साहित करते, ये बडी दुःखद स्थिति है।

जो समाज को दिशा व दशा प्रदान करने वाले हैं, वे स्वयं ही गो-वध को कराने वाले हैं तथा गो-मांस का भक्षण करते हैं, और इसप्रकार लोगों को भी करने के लिए सदैव प्रेरित करते हैं। इससे राजनीति भी करते हैं। अभी कुछ समय पूर्व की घटनाओं से आप सभी सम्यक्तया परिचित ही है।

अपक्रीताः सहीयसीर्वीरुधो या अभिष्टुताः।

त्रायन्तामस्मिन्ग्रामे गामश्वं पुरुषं पशुम्।। (अथर्व.-8.7.11)

इस मन्त्र में कहा गया है कि रोगों का शमन करने वाली औषधियों से गौ, घोड़े, मनुष्य व पशुओं की रोग से रक्षा करें।

मधुममूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरुधां बभूव। मधुमत्पर्णं मधुमत्पुष्पमासां मधोः संभक्ता अमृतस्य भक्षो घृतमन्नं दुह्रतां गोपुरोगवम।। (अथर्व.-8.7.12)

इस मन्त्र में ओषधियों का चित्रण करते हुए गो पुरो गवम्गाय को सर्व प्रथम स्थान पर रखा गया है। इस गाय के दूध व घी के साथ ओषधियों के सेवन से हमारा उत्तम स्वास्थ्य होवे।

गोरक्षा के लिए महार्षि दयानन्द का आन्दोलन:-

वेदों में कहा है – गोस्तु मात्रा न विद्यते।।(यजु.-23.48) अर्थात् गाय इतना अधिक महत्त्वपूर्ण पशु है जिसकी तुलना करना सम्भव ही नहीं है। गाय का दूध अमृत होता है और इसका मूत्र व गोबर भी रोग निवारक और सर्वोत्तम खाद है। कृषि प्रधान भारत के लिए तो इसका महत्त्व अत्यधिक हो जाता है। इसलिए दयार्द्र दयानन्द की दया गोकरुणा-निधिमें ही उजागर होती है। गायों की नृशंस हत्या को देखकर ऋषि दयानन्द के जीवन में कतिपय प्रसंग ही ऐसे आते हैं जिन अवसरों पर ऋषि दयानन्द के अश्रु बहते हुए देखे गये-

देश में बढ़ती हुई गोहत्या देखकर रोये थे स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

गोमाता के वध पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दो करोड़ भारतवासियों के हस्ताक्षर कराकर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को प्रतिवेदन करते हुए महर्षि ने कहा था- बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या करना महापाप है, इसको बन्द करने से भारत देश फिर समृध्दशाली हो सकता है। गाय हमारे सुखों का स्रोत है, निर्धन का जीवन और धनवान् का सौभाग्य है। भारत देश की खुशहाली के लिए यह रीढ़ की हड्डी है।

महारानी विक्टोरिया को भेजा प्रतिवेदन

‘‘ ऐसा कौन मनुष्य जगत् में है जो सुख के लाभ में प्रसन्न और दुःख की प्राप्ति में अप्रसन्न न होता हो। जैसे दूसरे के किये अपने उपकार में स्वयम् आनन्दित होता है वैसे ही परोपकार करने में सुखी अवश्य होना चाहिये। क्या ऐसा कोई भी विद्वान् भूगोल में था, है या होगा, जो परोपकार रूप धर्म और-परहानि स्वरूप अधर्म के सिवाय धर्म और अधर्म की सिध्दि कर सके। धन्य वे महाशयजन हैं जो अपने तन,मन और धन से संसार का उपकार सिध्द करते हैं। द्वितीय मनुष्य वे हैं जो अपनी अज्ञानता से स्वार्थवश होकर अपने तन,मन और धन से जगत् में परहानि करके बड़े लाभ का नाश करते हैं।

       सृष्टिक्रम में ठीक ठीक यही निश्चय होता है कि परमेश्वर ने जो जो वस्तु बनाया है वह पूर्ण उपकार के लिये है, अल्पलाभ से महाहानि करने के अर्थ नहीं। विश्व में दो ही जीवन के मूल हैं- एक अन्न और दूसरा पान। इसी अभिप्राय से आर्यवर शिरोमणि राजे महाराजे और प्रजाजन महोपकारक गाय आदि पशुओं को न आप मारते और न किसी को मारने देते थे। अब भी इस गाय,बैल,भैंस आदि को मारने और मरवाने देना नहीं चाहते हैं, क्योंकि अन्न और पान की बहुताई इन्हीं से होती है। इससे सब का जीवन सुखी हो सकता है। जितना राजा और प्रजा का बड़ा नुकसान इनके मारने और मरवाने से होता है, उतना अन्य किसी कर्म से नहीं। इस का निर्णय गोकरुणानिधिपुस्तक में अच्छे प्रकार से प्रकट कर दिया है, अर्थात् एक गााय के मारने और मरवाने से चार लाख बीस हजार मनुष्यों के सुख की हानि होती है। इसलिए हम सब लोग प्रजा की हितैषिणी श्रीमती-राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया की न्यायप्रणाली में जो यह अन्याय रूप बड़े-बड़े उपकारक गााय आदि पशुओं की हत्या होती है, इसको इनके राज्य में से छुड़वाके अति प्रसन्न होना चाहते है।

        यह हम को पूरा विश्वास है कि विद्या, धर्म, प्रजाहित प्रिय श्रीमती राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया पार्लियामेण्ट सभा तथा सर्वोपरि प्रधान आर्यावत्र्तस्थ श्रीमान् गवर्नर जनरल साहब बहादुर सम्प्रति इस बड़ी हानिकारक गाय, बैल तथा भैंस की हत्या को उत्साह तथा प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र बन्द करके हम सब को परम आनन्दित करें। देखिए कि उक्त गााय आदि पशुओं के मारने और मरवाने से दूध, घी और किसानों  की कितनी हानि होकर राजा और प्रजा की बड़ी हानि हो गई और नित्यप्रति अधिक-अधिक होती जाती है। पक्षपात छोड़के जो कोई देखता है तो वह परोपकार ही को धर्म और पर हानि को अधर्म निश्चित जानता है। क्या विद्या का यह फल और सिध्दान्त नहीं है कि जिस जिस से अधिक उपकार हो, उस उस का पालन वर्धन करना और नाश कभी न करना। परम दयालु, न्यायकारी, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान् परमात्मा इस समस्त जगदुपकारक काम करने में हमें ऐकमत्य करें।

                                                            हस्ताक्षर. दयानन्द सरस्वती

संसार के राजा, महाराजाओं से विनति करके महर्षि दयानन्द ने संसार के अधिपति परमेश्वर से भी प्रार्थना की-हे महाराजाधिराज जगदीश्वर! जो इनको कोई न बचावे तो आप उनकी रक्षा करने और हम से करानो में शीघ्र उद्यत हूजिए।

महर्षि दयानन्द और गोरक्षा के लाभ

  • गाय आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का ही नाश हो जाता है।
  • वेदों में परमात्मा की आज्ञा है- कि अघ्न्या यजमानस्य पशून् पाहि।। यजु. हे पुरुष तू इन पशुओं को कभी मत मार और यजमान अर्थात् सब के सुख देने वाले जनों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे।
  • ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे।
  • हे मांसाहारियो! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं।
  • हे परमेश्वर! तू क्यों न इन पशुओं पर जो कि बिना अपराध मारे जोते हैं, दया नहीं करता । क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है। क्या उनके लिये तेरी न्याय सभा बन्द हो गई? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहंी देता अैर उनकी पुकार नहीं सुनता। क्यों इन मांसाहारियों की आत्माओं में दया प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषें को ूदर नहीं करता?
  • और इन की रक्षा में अन्न भी महंगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि के अधिक होने से दरिद्री को भी खान पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है। और अन्न के कम खाने से मल भी कम होता है। मल के न्यून होने दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टिजल की शुध्दि भी विशेष होती है। उससे रोगों की न्यूनता से हाने से सब को सुख बढ़ता है।
  • देखो! तुच्छ लाभ के लिये लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं।
  • जितना (लाभ) गाय के दूध और बैलों के उपयोग से मनुष्यों को सुखों का लाभ होता है उतना भैंषियों के दूध और भैसों से नहीं। क्योंकि जितने आरोग्य कारक और वृध्दिवर्धक आदि गण्ुा गाय के दूध और बैलों में होते हैं उतने भैंस के दूध और भैंसे के दूध और भैंसे आदि में नहीं हो सकते। (गोकरुणानिधि से)

गाय ही सर्वोत्तम क्यों!

गौ और कृषि अन्योन्याश्रित हैं। इसीलिए महर्षि ने गोकृष्यादिरक्षिणी सभा नाम रखा था। गाय का दूध सर्वोत्तम क्यों है? इसमें निम्नलिखित मुख्य विशेषताएॅं हैं-

  • गाय का दूध पीला और भैंस का सफेद होता है। इसीलिए इसके दूध के विशेषज्ञ कहते हैं कि गाय के दूध में सोने का अंश हेता है जो कि स्वास्थ्य के लिए उत्तम है और रोगनाशक है।
  • गाय का दूध बुध्दिवर्धक तथा आरोग्यप्रद है।
  • गाय का अपने बच्चे के साथ स्नेह होता है जबकि भैंस का बच्चे के साथ ऐसा नहीं होता है।
  • गाय के दूध में स्फर्ति होती है। इसीलिए गाय के बछडे़ व बछियाॅं खूब उछलते कूदते फिरते हैं। भैंस के दूध पीने से आलस्य व प्रमाद होता है।
  • गााय के बछड़े को 50 गायों या अधिक में छोड़ दिया जाय तो वह अपनी माता को जल्दी ही ढूॅंए लेता है। जबकि भैंस के बच्चों में यह उत्कृष्टता नहीं होती।
  • गाय का दूध तो सर्वाेत्तम होता ही है, साथ ही गाय का गोबर व मूत्र भी तुलना में श्रेष्ठ है। गाय का गोबर स्वच्छ व कीटनाशक होता है। गाय की खाद तीन वर्ष तक उपजाउळ शक्ति बढ़ाती रहती है किन्तु भैंस की खाद एक दो वर्ष के बाद ही बेकार हो जाती है। और गोमूत्र का स्प्रे करके कीड़ों के नाश में भी उपयोग लिया जाता है।
  • गोमूत्र उत्तम औषधि है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में पचास से भी अधिक रोगों में इसका उपयोग होता है।
  • कृषि के कार्यों के लिए गाय के बछड़े सर्वोत्तम हैं। भारतवर्ष में आज के मशीनीयुग में भी 5 प्रतिशत खेती बैलों से होती है।
  • गाय एक सहनशील पशु है। वह कड़ी धूप व सर्दी को भी सहन कर लेता है। इसीलिए गाय जंगल में घूमकर प्रसन्न रहती है।
  • गाय के दूध में सूरज की किरणों से भी नीरोगता बढ़ती है। इसीलिए वह अधिक स्वास्थ्यप्रद है।
  • गाय की अपेक्षा भैंस के बच्चे/भैंसा धूप में कार्य करने में सक्षम नहीं होते।
  • गाय की अपेक्षा भैंस के घी में कण अधिक होते हैं। जो कि सुपाच्य नहीं होते।
  • गाय का घी सुक्ष्मतम नाडि़यों में प्रवेश करके शक्ति देता है। मस्तिष्क व हृदय की सूक्ष्मतम नाडि़यों में पहुॅंच कर गोघृत शक्ति प्रदान करता है। आयुर्वेद में गोघृत का ही शारीरिक शोधन में प्रयोग होता है।
  • विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार भैंस के दूध में लांग चेन फैट की मात्रा अधिक होती है, जो कि नाडि़यों में जम जाती है। और हृदय के रोग पैदा हो जाते हैं। परन्तु हृदय के रोगियों के लिये भी गाय का दूध विशेष उपयोगी होता है।
  • गाय का दूध वात नाशक, पित्तशामक और कफनाशक भी है।
  • गाय का दही मधुर, रुचिकारक, अग्निप्रदीपक, हृद्य, प्रिय और पोषक होता है।
  • गाय का मक्खन हितकारक, रंग साफ करने वाला, बलवर्धक, अग्नि प्रदीपक और विभिन्न रोगों में रसायन व आयुवर्धक माना है।
  • गाय का मट्ठा ;छाछद्ध तो लाखों रोगों की एक अचूक दवा है।
  • गाय के दूध, मूत्र, गोबर, दही और घी से तैयार किया पंचगव्य तो असाध्य रोगों में अचूक दवा है। जिन रोगों में अन्य औषध्यिां काम नहीं कर पातीं उनमें पंचगव्य की मात्रा देने से आशतीत लाभ मिलता है। मानसिक उन्माद आदि रोगों में पंचगव्य रामबाण औषधि है।
  • नाडि़यों में अवरोध होने पर उत्पन्न विभिन्न रोगों में गाय का घी, गो-मूत्र और प´चगव्य रोगनाश में परम सहायक होते हैं।

महर्षि मनु महाराज भी गाय के महत्व से पूर्णरूपेण परिचित थे, जिसके कारण वे लिखते हैं कि-

नाकृत्वा प्राणिनां हिसा मांसमुत्पद्यते क्वचित्।

न प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विविर्जयेत्।।  (मनु॰ 5/48)

अर्थात् प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस की प्राप्ति नहीं होती और प्रणियों का वध करना सुखदायक नहीं, इस करण माॅंस नहीं खाना चाहिये।

समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्।

प्रसमीक्ष्य निवत्र्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।  (मनु॰ 5/49)

अर्थात् हमें मांस की उत्पत्ति में और प्राणियों की हत्या और बन्धन को देखकर सब प्रकार के मांस भक्षण का त्याग कर देना चाहिये।

अनुमन्ता विश्सिता निहन्ता क्रयविक्रयी।

संस्कर्ता चापहत्र्ता च खादकश्चेति घातकाः।।  (मनु॰ 5/59)

अर्थात् प्राणियों की हत्या में आठ व्यक्ति हत्या से होन वाले पापों के भागीदार होते हैं।1.पशुओं को मारने की आज्ञा देने वाला 2. मांस को काटने वाला। 3. पशुओं को मारने वाला। 4. पशु को खरीदने वाला। 5.पशु को बेचने वाला। 6. मांस पकाने वाला। 7. परोसने वाला और मांस को खाने वाला।

वर्जयेन्मधु मांसं च भौमानि कवलानि च।  (मनु॰ 6/94)

अर्थात् नशा करने वाले मद्य और मांस का परित्याग कर देना चाहिये।

हिंसारतश्च ये नित्यं नेहासौ सुखमेधते।।  (मनु॰ 4/170)

अर्थात् जो मनुष्य मांस प्राप्ति के लिए प्रतिदिन हिंसारत रहता है वह कभी सुख प्राप्त नहीं करता है।

गो-मांस व मांसाहार की बात करते हैं, उनके तर्कों का खण्डन

  • परमेश्वर ने मनुष्यों के दांत मासाहारी पशुओं की तरह बनाये हैं, अतः मनुष्यों को मांस खाना चाहिये। ऐसी बातों का उत्तर महर्षि ने यह दिया है-यह बात अपने पक्ष में कहते हैं किन्तु इससे उनका पक्ष सिध्द नहीं होता। क्योंकि मनुष्य पशुओं के तुल्य नहीं है। मनुष्य और पशुजाति भिन्न भिन्न हैं। मनुष्यों के दो पग और पशुओं के चार, मनुष्य विद्या पढ़कर सत्यासत्य का विवेक कर सकते हैं पशु नहीं। और बन्दर के दांत सिंह और बिल्ली आदि के समान हैं, किन्तु बन्दर मांस कभी नहीं खाते। बन्दर फलादि खाकर अपना निर्वाह करते हैं, वैसे मनुष्यों को भी करना चाहिये।
  • मांसाहारी पशु और मनुष्य बलवान् होते हैं, अतः मांस खाना चाहिये। यह बात भी सत्य नहीं। सिंह मांस खाता है और अरणा भैंसा नहीं खाता, परन्तु सिंह अरणा भैंसे से डरता है और सिंह मनुष्यो पर आक्रमण करे तो एक दो गोली या तलवार के प्रहार से मर भी जाता है। जबकि जंगली सुअर या अरणा भैंसा अनेक गोलियों अथवा तलवार आदि के प्रहार से भी शीघ्र नहीं मरता। और प्रत्यक्ष दृष्टांत देखना हो तो पूर्णरूप से शाकाहारी राममूर्ति, चन्दगी राम, गामा पहलवान, दारा सिंह, सतपाल पहलवान आदि ऐसे उदाहरण हैं, जो मांसाहार करने वाले हैं उनको नाम मात्र काल में ही परास्त कर देते थे। मांसाहार करना बलवर्धक न होकर हानिकारक, अधर्म एवं दुष्टकर्म हैं।
  • मांसाहारी व्यक्ति एक यह भी तर्क देते हैं- जो मांसाहार न किया जाये तो संसार में पशु इतने बढ़ जायें कि पृथिवी पर भी न समायें। इसीलिए पशुओं को खाना उचित है। परन्तु महर्षि ने इसका उपहास उड़ाते हुआ लिखा है- यह बुध्दि का विपर्यास मांसाहार ही से हुआ होगा? इसके विपरीत मनुष्य का मांस कोई नहीं खाता पुनः वे क्यों नहीं बढ़ गये। वास्तव में एक मनुष्य के पालन के लिए अनेक पशुओं की अपेक्षा होती है, अतः ईश्वर ने मनुष्य की अपेक्षा पशुओं को अधिक उत्पन्न किया है।
  • कुछ व्यक्ति कहते हैं कि पशुओं को मारकर अधर्म तो नहीं होता। जो अधर्म मानता है वह न खाये, हमारे मत में अधर्म नहीं होता। अतः मांसाहार करना अनुचित नहीं हैं। यह बात भी सत्य नहीं, क्योंकि धर्म-अधर्म किसी के मानने अथवा न मानने से नहीं होता। पर हानि अथवा हिसंा करना अधर्म और परोपकार करना धर्म होता है। चोरी जारी इसलिए अधर्म होता है कि इससे दूसरे की हानि होती है। अतः लाखों पशुओं के मारने में अधर्म और उन्हें सुख देने में धर्म क्यों स्वीकार नहीं करना चाहिए।
  • कुछ व्यक्ति ऐसा भी कहते हैं कि जो पशु काम में आते हैं उन्हें मारना अधर्म है परन्तु जब बूढ़े हो जायें अथवा स्वयं पर जायें तो उनका मांस खाने में तो दोष नहीं। क्या ऐसा करने से कृतघ्नता रूपी महापाप नहीं होगा। इसी प्रकार जिन गाय, बैल आदि पशुओं से जीवन भी लाभ लिया, उनसे अमृत जैसा दूध व अन्न प्राप्त किया, और इधर-उधर आने जाने में भार ढोने का काम लिया, क्या उनकी हत्या करने में पाप नहीं होगा और कृतघ्नता तो महापाप है, उससे बचा नहीं होता उनको मारकर खाने में तो कोई हानि नहीं होती। प्रथम तो ईश्वर ने किसी भी पशु को निरर्थक नहीं बनाया है, उससे लाभ होता है या नहीं, यह हम नहीं जानते हैं। किन्तु हम प्रयास कर उस वृद्ध गाय आदि पशुओं का उपयोग कर सकते हैं, गो-मूत्र, गो-गोबर आदि से। भारतवर्ष में आज भी ऐसी गोशालाएॅं हैं, जिनमें इसप्रकार के कार्य होते हैं, ऐसी गोशालाओं में जा कर हम सबको इससे सबक लेना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मरने के बाद माॅंस खाने से माॅंसाहारी हिंसक स्वभाव अवश्य हो जायेगा, अतः माॅंसाहार करना सर्वथा अनुचित ही नहीं अपितु निषेधनीय है।