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चार्वाक दर्शन एवं वेद: – डॉ. वेद प्रकाश

(सत्यार्थप्रकाश के द्वादश समुल्लास के आलोक में)

– डॉ. वेद प्रकाश

[वर्ष 2013 में ऋषि – मेले के अवसर पर आयोजित वेद-गोष्ठी में प्रस्तुत एवं पुरस्कृत यह शोध लेख पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।]                                           -सपादक

सृष्टि के प्रारभ से ही आर्यावर्त में वेद की प्रतिष्ठा रही है। ईश्वर द्वारा प्रदत्त तथा वैदिक ऋषियों द्वारा अनुभूत वेद ज्ञान सत्यासत्य के निर्णय का एक मात्र आधार रहा है। भारतीय चिन्तन में वैदिक ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता इस बात से भी परिलक्षित होती है कि आस्तिकता और नास्तिकता का नियामक भले ही लोक में ईश्वर है, परन्तु शास्त्र की दृष्टि से वेद है। अर्थात् जो वेद को मानता है वह आस्तिक है तथा जो वेद को नहीं मानता , वह नास्तिक है। मनु के शदों में ‘नास्तिको वेदनिन्दकः’(मनुस्मृति 2.11)। परन्तु धीरे-धीरे भारत में वेद मन्त्रों के मनमाने अर्थ किये जाने लगे तथा वैदिक यज्ञों एवं कर्मकाण्ड में आडबर, हिंसा आदि अमानवीय भावनाओं का प्रभुत्व बढता गया। परिणामस्वरूप वेद विद्या के स्थान पर अविद्या का प्रसार होने लगा। इसी के परिणामस्वरूप भारत में चार्वाक, जैन एवं बौद्ध दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ। ये दर्शन वेद को प्रमाण नहीं मानते हैं, अतः इन्हें भारतीय दार्शनिक परपरा में नास्तिक दर्शन कहा जाता है।

चार्वाक दर्शन के सिद्धान्त अन्य दार्शनिक ग्रन्थों यथा ब्रह्मसूत्र शाङ्करभाष्य, कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, विवरणप्रणेयसंग्रह, न्यायमञ्जरी, सर्वसिद्धान्तसंग्रह, षड्दर्शनसमुच्चय, तर्करहस्यदीपिका, सर्वदर्शनसंग्रह आदि ग्रन्थों में पूर्वपक्ष के रूप में हुआ है। चार्वाक दर्शन का आधार मुय रूप से वेद-विरोध है, जैसा कि इनके वेदविषयक सिद्धान्तों से विदित होता है-

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भाण्डधूर्तनिशाचराः।

प्रस्तुत शोधपत्र में महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास में प्रस्तुत चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों को प्रस्तुत कर उनकी दार्शनिक ग्रन्थों के आधार पर प्रामाणिकता सिद्ध की गयी है। इसके पश्चात् महर्षि दयानन्द द्वारा चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों का खण्डन तथा उनकी वेदानुकूलता प्रस्तुत कर चार्वाक दर्शन के जो सिद्धान्त वेदानुकूल है, उनकी समीक्षा महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास के सन्दर्भ में की गयी है।

महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास में चार्वाक दर्शन के निम्नलिाित सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया गया है-

पुनर्जन्म का सिद्धान्त चार्वाक दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता है। महर्षि दयानन्द ने इस कथन की पुष्टि के लिए 12 वें समुल्लास के प्रारभ में बृहस्पति नामक आचार्य का एक प्रसिद्ध पद्य प्रस्तुत किया है –

यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

अर्थात् जब तक जीवन है, सुखपूर्वक जीयें। क्येांकि मृत्यु से कुछ भी अगोचर नहीं है। भस्मीभूत होने वाले इस शरीर का पुनः आगमन कहां होगा? अर्थात् मृत्यु के पश्चात् जीव पुनः संसार में नहीं आता है। अतः-

यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।3

अर्थात् सुखपूर्वक जीने के लिए ऋण लेकर भी घी पीना चाहिए।

महर्षि दयानन्द जीव को अनादि मानते हैं। परलोक के सबन्ध में उनका विचार है कि जैसे इस समय सुख दुःख का भोक्ता जीव है, वैसे ही परजन्म में भी होता है।4 वेद में पुनर्जन्म के समर्थन में अनेक मन्त्र प्राप्त होते हैं, जिनका सारांश निम्न प्रकार से है- सत्य के ज्ञाता और अहिंसक उन जीवों ने फिर प्राणधारण किया।5 किसने मुझे पुनः विशाल पृथिवी पर जन्म दिया।6 मैं पुनः जन्म लेकर माता-पिता के दर्शन करुँ।7 कठोपनिषद् का यह प्रसिद्ध वाक्य –

सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।8 तथा-

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः।

स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।।9

अर्थात् जिसका जैसा कर्म होता है और शास्त्रादि के श्रवण के द्वारा जिसको जैसा भाव प्राप्त हुआ है, उन्हीं के अनुसार शरीर धारण करने के लिए कितने ही जीव अनेक प्रकार की योनियों को प्राप्त हो जाते हैं और अन्य कितने ही स्थावर भाव का अनुसरण करते हैं।

शरीर में चार महाभूतों के योग से चैतन्य-उत्पत्ति – चार्वाक की यह मान्यता है कि हमारा शरीर पृथिवी, जल, अग्नि तथा वायु इन चार महाभूतों के संयोग से बना है। चार्वाक चार ही महाभूत स्वीकार करता है।10 वह आकाश को स्वीकार नहीं करता। इस शरीर में इन चार महाभूतों के योग से चैतन्य उत्पन्न होता है। जैसे मादक द्रव्य खाने पीने से मद उत्पन्न होता है, इसी प्रकार जीव शरीर के साथ उत्पन्न होकर शरीर के नाश के साथ ही नष्ट हो जाता है।11 फिर किसको पाप-पुण्य का फल होगा? अर्थात् शरीर के नष्ट होने के साथ ही जीवन भी नष्ट हो जाता है। अतः पाप-पुण्य का भोक्ता कौन होगा अर्थात् कोई नहीं।

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि पृथिव्यादि भूत जड़ हैं तथा जड़ पदार्थों से चेतन की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। मद के समान चेतन की उत्पत्ति और विनाश नहीं होता, क्योंकि मद चेतन को होता है, जड़ को नहीं। पदार्थ नष्ट अर्थात् अदृष्ट होते हैं परन्तु अभाव किसी का नहीं होता। इसी प्रकार अदृश्य होने पर जीव का भी अभाव नहीं मानना चाहिए। जब जीवात्मा सदेह होता है तभी उसकी प्रकटता होती है। जब वह शरीर को छोड़ देता है, तब यह शरीर जो मृत्यु को प्राप्त हुआ है वह जैसा चेतनयुक्त पूर्व में था वैसा नहीं हो सकता।

महर्षि दयानन्द के उपरोक्त विचारों का वेद में समर्थन प्राप्त होता है। जैसा कि चार्वाक मानते हैं कि शरीर के नष्ट होने के साथ ही जीव भी नष्ट हो जाता है। परन्तु वेद कहता है कि – मर्तेष्वग्निरमृतो नि धायि।12 अर्थात् मनुष्यों में अमर जीवात्मा विद्यमान है। जहाँ तक जीवात्मा के पाप-पुण्य भोगने की बात है, वहाँ भी चार्वाक का मत वेद विरुद्ध है। वेद के अनुसार – जीवात्मा भोक्ता रूप में सांसारिक विषयों का भोग करता है।13 चार्वाक चार महाभूतों को ही स्वीकार करता है। वह प्रत्यक्ष न होने से आकाश को स्वीकार नहीं करता है। उपनिषद् का वचन है-

सर्वेषां वा एष भूतानामाकाशः परायणम् सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशाादेव जायन्ते।14

चैतन्यविशिष्टदेह ही आत्मा चार्वाकों का सिद्धान्त है कि –

तच्चैतन्यविशिष्टदेह एव आत्मा देहातिरिक्त आत्मनि प्रमाणाभावात्।15

अर्थात् चैतन्यविशिष्टदेह ही आत्मा है, देह से अतिरिक्त आत्मा के विषय में प्रमाण का अभाव होने से। इस शरीर में चारों भूतों के संयोग से जीवात्मा उत्पन्न होकर उन्हीं के वियोग के साथ ही नष्ट हो जाता है। क्योंकि मरने के बाद कोई जीव प्रत्यक्ष नहीं होता।

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि जो देह से पृथक् आत्मा न हो तो जिसके संयोग से चेतनता और वियोग से जड़ता होती है, वह देह से पृथक् है। जैसे आँख सबको देाती है पर वह स्वयं को नहीं देख सकती। इसी प्रकार प्रत्यक्ष का करने वाला अपने ऐन्द्रिय का प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। जैसे आँख से सब घट-पटादि पदार्थ देखता है वेसे आँख को अपने ज्ञान से देखता है। जो दृष्टा है वह दृष्टा ही रहता है, दृश्य कभी नहीं होता। कठोपनिषद् से इस तथ्य की पुष्टि होती है –

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते।

दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।16    

पुरुषार्थ का फल चार्वाकों के अनुसार सुन्दर स्त्री से आलिङ्गन करना ही पुरुषार्थ का फल है।17

यदि इसे पुरुषार्थ का फल मानते हैं तो इससे क्षणिक सुख और दुःख भी होता है, वह भी पुरुषार्थ का ही फल होगा। जब ऐसा है तो स्वर्ग ही की हानि होने से दुःख भोगना पड़ेगा। जो कहो कि सुख के बढ़ाने और दुःख के घटाने में प्रयत्न करना चाहिए तो मुक्ति सुख की हानि हो जाती है। इसलिए वह पुरुषार्थ का फल नहीं।18

परलोक चार्वाक परलोक की धारणा को व्यर्थ मानते हैं। क्योंकि इस लोक के उपस्थित सुख को छोड़कर अनुपस्थित स्वर्ग के सुख की इच्छा कर धूर्त कथित वेदोक्त अग्निहोत्रादि कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्ड का अनुष्ठान परलोक के लिए करते हैं, वे अज्ञानी हैं। जो परलोक है ही नही, उसकी आशा करना मूर्खता का काम है । क्योंकि-

यदि गच्छेत्परं लोकं देहादेष विनिर्गतः।

कस्माद् भूयो न चायाति बन्धुस्नेहसमाकुलः।।19

यदि इस देह से निकल कर जीव किसी अन्य लोक में जाता है तो वह अपने बन्धुओं के स्नेह के कारण पुनः अपने घर में ही क्यों नहीं आ जाता।

इस सर्न्दा में चार्वाकों की वेद विरुद्धता पुनर्जन्म के निरुपण के समय ही स्पष्ट कर दी गयी है। महर्षि दयानन्द इस विषयमें कहते हैं कि देह से निकल कर जीव स्थानान्तर और शरीरान्तर को प्राप्त होता है और उसको पूर्वजन्म तथा कुटुबादि का ज्ञान कुछ भी नहीं रहता, इसलिए वह पुनः कुटुब में नहीं आ सकता।20

अग्निहोत्र, वेद, त्रिदण्ड, भस्मगुण्ठन – चार्वाकों के अनुसार-

अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।

बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः।।21

अग्निहोत्र, वेद, त्रिदण्ड, भस्मगुण्ठन ये सभी बुद्धि एवं पौरुषहीन व्यक्तियों की आजीविका के साधन हैं।

त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भाण्डधूर्तनिशाचराः।

जर्फरीतुर्फरीत्यादि पण्डितानां वचः स्मृतम्।।22

अर्थात् तीनों वेदों के कर्ता भाण्ड, धूर्त और निशाचर हैं तथा जर्फरी-तुर्फरी इत्यादि पण्डितों के धूर्ततायुक्त वचन हैं।

अश्वस्यात्र हि शिश्नन्तु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्तितम्।

भण्डैस्तद्वत्परं चैव ग्राह्यजातं प्रकीर्त्तितम्।।23

तथा अश्व के शिश्न को यजमान की पत्नी ग्रहण करे।

मांसानां खादनं तद्वन्निशाचरसमीरितम्।।24

मांसाहार प्रतिपादन करने वाला वेद राक्षसों का बनाया हुआ है।

महर्षि दयानन्द के अनुसार अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना, उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है।25 उपनिषद् का वाक्य है कि स्वर्ग की कामना के लिए अग्निहोत्र करें –

अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामः।26 तथा –

यथेह क्षुधिता बाला मातरं पर्य्युपासते।

एवँ्सर्वाणि भूतान्यग्निहोत्रमुपासते।।27  

चार्वाकों द्वारा किया गया त्रिदण्ड तथा भस्मधारण का खण्डन ठीक है। क्योंकि सपूर्ण वैदिक वाङ्मय में स्तुति, प्रार्थना अथवा उपासना की पद्धति में कहीं भी त्रिदण्ड अथवा भस्मधारण क उल्लेख नहीं है। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि जो चार्वाकादि ने वेदादि सत्यशास्त्र देखे, सुने वा पढ़़े होते तो वेदों की निन्दा कभी न करते कि वेद भांड, धूर्त और निशाचरवत्् पुरुषों ने बनाये हैं, ऐसा वचन कभी न निकालते हाँ। भांड धूर्त निशाचरवत् महीधरादि टीकाकार हुए हैं, उनकी धूर्त्तता है, वेदों की नहीं।28

जहाँ तक वेदों के निर्माण का प्रश्न है महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोत्पत्ति विषय में शतपथ ब्राह्मण के याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद को प्रस्तुत किया है –

एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः।29

अर्थात् याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे मैत्रेयी! महान् आकाश से भी वृहद् परमेश्वर से ही ऋग्वेदादि वेद्चतुष्टय निःश्वास के समान सहज रूप से निकले हैं, ऐसा मानना चाहिए। जैसे शरीर से उच्छवास निकल कर पुनः शरीर में ही प्रवेश कर जाता है, वैसे ही ईश्वर से वेद का प्रादुर्भाव और तिरोभाव होता है, ऐसा मानना चाहिए।30

भला! विचारना चाहिए कि स्त्री से अश्व के लिङ्ग का ग्रहण कराके उससे समागम कराना और यजमान की कन्या से हाँसी ठट्ठा आदि करना सिवाय वाममार्गी लोगों से अन्य मनुष्यों का काम नहीं है। बिना इन महापापी वाममार्गियों के भ्रष्ट, वेदार्थ से विपरीत, अशुद्ध व्यायान कौन करता? और जो माँस खाना है यह भी उन्हीं वाममार्गी टीकाकारों की लीला है। वेदों में कहीं माँस का खाना नहीं लिखा।31

मोक्ष – चार्वाकों के अनुसार देह का नाश होना ही मोक्ष है।32

इस पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि- तो फिर गधे, कुत्ते आदि पशुओं और मनुष्यों में क्या अन्तर रहा।33 अर्थात् वैदिक और दार्शनिक ग्रन्थों में मोक्षप्राप्ति के यम-नियमादि मार्ग बतलाये गये हैं, उनकी कोई प्रासङ्गिकता न रहेगी।

जगत् स्वाभाविक है – चार्वाकों के अनुसार अग्नि उष्ण है, जल शीत है, तथा वायु स्पर्श में सम है। ऐसा इनको किसने बनाया है? अर्थात् किसी ने भी नहीं। इसलिए जगत् के समस्त पदार्थ स्वाभाविक हैं।

अग्निरुष्णो जलं शीतं समस्पर्शस्तथाऽनिलः।

केनेदं चित्रितं तस्मात्स्वभावात्तदव्यवस्थितिः।।34

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि बिना चेतन परमेश्वर के निर्माण किये जड़ पदार्थ स्वयं आपस में स्वभाव से नियमपूर्वक मिलकर उत्पन्न नहीं हो सकते। इस वास्ते सृष्टि का कर्ता अवश्य होना चाहिए। यदि स्वभाव से ही होते तो द्वितीय सूर्य, चन्द्र, पृथिवी और नक्षत्रादि लोक आपसे आप क्यों नहीं बन जाते हैं।35 इस सन्दर्भ में वेद का कथन है कि वह ईश्वर सत् वस्तुओं का कारण तथा अमूर्त वायु आदि का प्रकाशक है।36

वर्ण एवं आश्रम चार्वाकों के अनुसार न कुछ स्वर्ग है, न अपवर्ग है तथा न ही यह आत्मा दूसरे लोक में जाता है तथा न ही वर्णाश्रम आदि की क्रियाएँ फल देने वाली हैं।

न स्वर्गो नाऽपवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।37

महर्षि दयानन्द कहते हैं कि स्वर्ग सुख भोग और नरक दुःख भोग का नाम है। जो जीवात्मा न होता तो सुख दुःख का भोक्ता कौन हो सके? जैसे इस समय सुख दुःख का भोक्ता जीव है वैसे परजन्म में भी होता है। क्या सत्यभाषण और परोपकारादि क्रिया भी वर्णाश्रमियों की निष्फल होगी? काी नहीं।38

सुख दुःख का भोक्ता जीव है, इस तथ्य की पुष्टि उपनिषद् इस प्रसिद्ध मन्त्र से हो जाती है –

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।39   

यज्ञ में पशुबलि चार्वाक कहते हैं कि ज्योतिष्टोम यज्ञ में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग में जायेगा, ऐसा मानकर यजमान यज्ञ में पशु की हिंसा करता है तो वह अपने पिता को मारकर स्वर्ग में क्यों नहीं भेज देता।

पशुश्चेन्निहतः स्वर्ग ज्योतिष्टोमे गमिष्यति।

स्वपिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते।।40

महर्षि दयानन्द इसके समाधान में कहते हैं कि पशु मार के होम करना वेदादि सत्यशास्त्रों में कहीं नहीं लिखा है।41

श्राद्ध एवं तर्पण चार्वाक कहते हैं कि यदि मृतक प्राणियों का श्राद्ध उन मरे हुए प्राणियों की तृप्ति का कारण है तो कहीं अन्य स्थान पर जाते हुए व्यक्तियों के लिए पाथेय अर्थात् मार्ग के लिए भोज्यादि सामग्री आदि की कल्पना व्यर्थ है। स्वर्ग में स्थित व्यक्ति जब दान से तृप्त हो जाते हैं तब प्रासाद के ऊपरि भाग में स्थित व्यक्ति को नीचे से भोजन क्यों नहीं पहुँचाया जा सकता है। अतः ब्राह्मणों के द्वारा अपनी जीविकोपार्जन के लिए ही मृतकों के लिए ये प्रेतक्रियाएँ बनायी गयी हैं।42

इस पर महर्षि दयानन्द का मन्तव्य है कि मृतकों का श्राद्ध, तर्पण करना कपोलकल्पित है क्योंकि यह वेदादि सत्यशास्त्रों के विरुद्ध होने से भागवतादि पुराणवालों का मत है। इसलिए इस बात का खण्डन अखण्डनीय है।43

नरक चार्वाकों के अनुसार काँटे आदि के लगने से होने वाले दुःख का नाम नरक है।44 इस पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि तो महारोगादि नरक क्यों नहीं।45 अर्थात् लोक में और भी बड़े-बड़े दुःख दिखायी देते हैं। उन सबको नरक मानना चाहिए।

परमेश्वर चार्वाकों की मान्यता है कि लोकसिद्ध राजा ही परमेश्वर है।46

इस पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि राजा को ऐश्वर्यवान् और प्रजापालन में समर्थ होने से श्रेष्ठ माने तो ठीक है, परन्तु जो अन्यायकारी और पापी राजा हो तो उसको भी परमेश्वर के समान मानते हो तो तुहारे जैसा कोईाी मूर्ख नहीं।47

अतः स्पष्ट है कि महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश के बारहवें समुल्लास में चार्वाक दर्शन के सपूर्ण सिद्धान्तों को स्पष्ट किया गया है तथा साथ ही प्रसिद्ध दार्शनिक गन्थ सर्वदर्शन संग्रह के उद्धरणों को प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया गया है। महर्षि दयानन्द द्वारा चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों के सबन्ध में दोनों ही प्रकार के विचार प्राप्त होते हैं। वे चार्वाक दर्शन के कुछ मतों का समर्थन करते हैं तथा कुछ मतों का विरोध भी। परन्तु यहाँ समर्थन अथवा विरोध का एकमात्र कारण चार्वाकों के सिद्धान्तों की वेदानुकूलता है। चार्वाकों के जो मत वेदानुकूल हैं, महर्षि दयानन्द उनका समर्थन करते हैं तथा जो वेदानुकूल नहीं हैं, उनका विरोध। चार्वाकों के त्रिदण्ड, भस्मगुण्ठन, यज्ञ में पशुबलि तथा श्राद्ध एवं तर्पण विषयक विचारों का महर्षि दयानन्द समर्थन नहीं करते हैं। वस्तुतः ये सभी मत वेदविरुद्ध हैं। त्रिदण्ड एवं भस्मगुण्ठन का विधान किसी भी वैदिक यज्ञ अथवा विधान में नहीं है तथा न ही इनकी दैनिक जीवन में कोई उपयोगिता दिखायी देती है। जहाँ तक यज्ञ में पशुबलि का प्रश्न है, इसका भी कहीं वेद में समर्थन नहीं मिलता। परन्तु कुछ वेद के भाष्यकार ऐसे भी हुए जिन्होंने वेदमन्त्रों से यज्ञ में पशुबलि को सिद्ध किया। अतः यह दोष उन तथाकथित वेदभाष्यकारों का है, न कि वेद का। यहीं स्थिति श्राद्ध एवं तर्पण के विषय में है। ये दोनों ही जीवित व्यक्तियों के सन्दर्भ में हैं। परन्तु कालान्तर में जनमानस पर पोराणिक प्रभाव के कारण कुछ कर्मकाण्डियों ने इन्हें अपनी जीविका का साधन बना लिया। चार्वाकों ने वेदों का अध्ययन तो किया नहीं, अपितु उन्होंने महीधरादि वेदभाष्यकारों तथा पौराणिकों द्वारा यज्ञादि के नाम से समाज में प्रचलित किये गये पाखण्ड को वेद से जोड़ दिया तथा वेद की निन्दा करने लगे।

इसके अतिरिक्त महर्षिदयानन्द ने चार्वाक दर्शन के पुनर्जन्म का सिद्धान्त, शरीर में चार महाभूतों के योग से चैतन्य-उत्पत्ति, चैतन्यविशिष्टदेह ही आत्मा, पुरुषार्थ का फल, परलोक, अग्निहोत्र, वेद, मोक्ष, जगत् स्वाभाविक है, वर्ण एवं आश्रम, नरक तथा परमेश्वर विषयक सिद्धान्तों का खण्डन किया है। खण्डन का सपूर्ण आधार वेद है, जैसा कि प्रस्तुत शोध-पत्र में प्रत्येक स्थल पर प्रदर्शित किया गया है। अन्त में महर्षि दयानन्द के ही शदों में- जो वाममार्गियों ने मिथ्या कपोलकल्पना करके वेदों के नाम से अपना प्रयोजन सिद्ध करना अर्थात् यथेष्ट मद्यपान, माँस खाने और परस्त्री गमन  करने आदि दुष्ट कामों की प्रवृत्ति होने के अर्थ वेदों को कलङ्क लगाया, इन्हीं बातों को देखकर चार्वाक, बौद्ध तथा जैन लोग वेदों की निन्दा करने लगे और पृथक् एक वेदविरुद्ध अनीश्वरवादी अर्थात् नास्तिक मत चला लिया। जो चार्वाकादि वेदों का मूलार्थ विचारते तो झूठी टीकाओं को देखकर सत्य वेदोक्त मत से क्यों हाथ धो बैठते? क्या करे बिचारे ‘विनाशकाले विपरीतबुद्धिः’। जब नष्ट भ्रष्ट होने का समय आता है तब मनुष्य की उल्टी बुद्धि हो जाती है।48

सर्न्दा

  1. चार्वाकसमीक्षा, पृ. 6
  2. सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 2, पंक्ति 17-18
  3. वही पृ. 14, पं. 122-123
  4. सत्यार्थ प्रकाश पृ. 291 आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली -6,65 वॉँसंस्करण, नवबर 2007
  5. असुं स ईयुरवृका ऋतज्ञाः। ऋग्वेद 10.15.1

6 को नो मह्या अदितये पुनर्दात्। वही 1.24.1

7 पितरं च दृशेयं मातरं च। वही 1.24.1

8 कठोपनिषद् 1.1.6

9 वही 2.4.7

10 अत्र चत्वारि भूतानि भूमिवार्यनलानिलाः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 7, पंक्ति 60

11 तत्र पृथिव्यादीनि भूतानि चत्वारि तत्त्वानि। तेय एव देहाकारपरिणतेयः किण्वादियो मदशक्तिवच्चैतन्य-मुपजायते। तेषु विनष्टेषु सत्सु स्वयं विनश्यति।

वही पृ. 2-3, पंक्ति 23-25

12 ऋग्वेद 10.45.7

13 अथर्ववेद 10.8.21

14 नृसिंहपूर्वतापिन्युपनिषद् 3.5

15 सर्वदर्शनसंग्रह पृ.3, पं. 27-28

16 कठोपनिषद् 3.12

17 अङ्गनाद्यालिङ्गनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 3, पं. 29-30

18 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

19 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 14, पं. 124-125

20 सत्यार्थप्रकाश, पृ.291

21 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 5, पं. 50-51

22 वही पृ. 14, पं. 128-129

23 वही पृ. 15, पं. 130-131

24 वही पृ. 15, पं. 132

25 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

26 मैत्रायण्युपनिषद् 6.36

27 छान्दोग्योपनिषद् 5.24.5

28 सत्यार्थप्रकाश पृ. 289

29 श. का. 14, अ. 5 (ब्रा. 4, क. 10)

30 याज्ञवल्क्योऽभिवदति – हे मैत्रेयी! महत आकाशादपि बृहतः परमेश्वरस्यैव          सकाशादृग्वेदादिवेदचतुष्टयं (निःश्वसित) निःश्वासवत्सहजतया                   निःसृतमस्तीति वेद्यम्। यथा शरीराच्छ्वासो निःसृत्य पुनस्तदेव प्रविशति         तथैवेश्वराद्वेदानां प्रादुर्भावतिरो-भावौ भवतः इति निश्चयः। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदोत्पत्तिविषय 3

31 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291-292

32 देहोच्छेदो मोक्षः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ.6,पं. 53

33 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

34 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13,पं. 110-111

35 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291

36 सतश्च योनिमसतश्च वि वः। यजुर्वेद 13.3

37 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13, पं. 114-115

38 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291

39 श्वेताश्वतरोपनिषद् 4.6

40 सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13, पं. 114-115

41 सत्यार्थप्रकाश पृ. 291

42 मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्।

गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थ पाथेयकल्पनम्।।

स्वर्गस्थिता यदा तृप्तिं गच्छेयुस्तत्र दानतः।

प्रासादस्योपरिस्थानामत्र कस्मान्न दीयते।।

ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विहितस्त्विह।

मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्यद्विद्यते क्वचित्।। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 13-14,                पं. 116, 118, 120, 121, 126, 127

43 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 291

44 कण्टकादिजन्यं दुःामेव नरकः। सर्वदर्शनसंग्रह पृ. 6, पं. 52

45 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

46 लोकसिद्धो राजा परमेश्वरः। वही पृ. 6, पं. 52-53

47 सत्यार्थप्रकाश, पृ. 289

48 वही, पृ. 292

 

सन्दर्भ ग्रन्थ

1 अथर्ववेद, भाष्यकार – क्षेमकरणदास त्रिवेदी, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, 2007

2 उपनिषद् संग्रह – सं. – पं. जगदीश शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1980

3 ऋग्वेद, भाष्यकार – महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, 2005

4 त्रग्वेदादिभाष्यभूमिका – महर्षि दयानन्द सरस्वती, दिल्ली

5 चार्वाकसमीक्षा – स्वामी कृष्णानन्द सरस्वती, विश्वेश्श्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, 1964

6 सत्यार्थप्रकाश – महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली, 65 वाँ संस्करण, नवबर 2007

7 सर्वदर्शनसंग्रह – सायण-माधव, प्राच्य विद्या संशोधन मन्दिर, पुना, 1924

8 यजुर्वेद, भाष्यकार – महर्षि दयानन्द सरस्वती, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, 2006

– सहायक आचार्य, पंजाब विश्वविद्यालय, विश्वेश्वरानन्द विश्वबन्धु संस्कृत एवं भारत-भारती अनुशीलन संस्थान, होशियारपुर