Tag Archives: shanka samadhan

विचित्र शंका समाधानः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

श्री स्वामी विवेकानन्द जी रोजड़ का शंका समाधान पढ़ सुनकर कुछ स्वाध्याय प्रेमी उनके समाधान पराी प्रश्न उठाते हैं। उन पर कुछ टिप्पणी करने को कई कारणों से टाल देना उचित जाना। वह दर्शनों के पण्डित हैं अतः उन्हीं से उनके समाधान पर प्रश्न पूछने का परामर्श देना ठीक लगा। अब बहुत कहा गया तो उनके दो विचारों पर कुछ निवेदन किया जाता है। पाठक तथा विद्वान् इस पर गभीरता से विचारें।

एक प्रश्न के उत्तर में गऊ को कसाई से बचाने के लिए असत्य कतई न बोलने और ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र को आपने न्यारा-न्यारा उपाय करने का उपदेश दिया है। किसी भी अवस्था में असत्य न बोलने का आपका उपदेश है। गुप्तचर विभाग में कार्यरत व्यक्ति देश की रक्षा करने में लगे रहते हैं। वे झूठ बोलकर क्या पाप करते हैं? पं. रुचिराम जी ने श्याम भाई का शव क्या सत्य बोल कर प्राप्त किया। वीर भगतसिंह ने साण्डर्स को मारा तो पुलिस ने पं. भगवद्दत्त जी, पं. रामगोपाल जी वैद्य तथा ठाकुर अमरसिंह से पूछा, वे गोली चलाकर किधर को भागे? तीनों ने कहा, हमने तो किसी को इधर से भागते देखा ही नहीं। क्रान्तिकारी पुलिस के हाथ नहीं आए। क्या ये तीन असत्य बोलने के कारण पापी माने जायें?

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने शाही किला में जाँच करने वालो को कहा, ‘‘मैं भापडोद की पंचायत में आने वाले किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं जानता।’’ वे जिसका भी नाम बताते सरकार उसे यातनायें देती। स्वामी जी ने झूठ बोलकर इतिहास बनाया। इसे आप पाप मानेंगे क्या?

रोजड़ में छपे एक बड़े ग्रन्थ में व उत्कृष्ट समाधान में मोक्ष प्राप्ति को ही सर्वोत्तम कर्म बताया गया है। जन्म लेने से दुःख भी भोगना पड़ता है सो जन्म लेना कोई बुद्धिमत्ता का कर्म नहीं। इस आाशय के वाक्य इस लेखक ने कई बार पढ़ें हैं। मोक्ष का महत्त्व सब जानते हैं परन्तु यह मत भूलिए कि ऋषि के पत्र-व्यवहार में ही समाधि का आनन्द छोड़कर लोकोपकार, वेद-प्रचार के लिए समर्पित होने की चर्चा पढ़ लीजिये। ऋषि दूसरों के बन्धन काटने के लिए बार-बार नरजन्म पाने की घोषणा या कामना करते हैं। ध्यान से ऋषि जीवन का पाठ कीजिये, मनन कीजिये। रोजड़ के कई महात्मा मोक्ष विषयक एकाङ्गी विचार देते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने प्राणोत्सर्ग से पूर्व धर्म प्रचार जाति रक्षा के लिए फिर से नर-जन्म पाने की कामना व्यक्त की थी। क्या यह वेद-विरुद्ध माना जावे?

शंका समाधान करते समय ऋषि के पत्र-व्यवहार तथा जीवन-चरित्र का भी गाीर ज्ञान होना चाहिये। वेद के सिद्धान्तों को, वैदिक दर्शन को समझने के लिए इनका भी उतना ही महत्त्व है जितना अन्य आर्ष ग्रन्थों का है। बुद्धि-भेद पैदा करने से हानि ही होगी। संगति का लगाना बहुत आवश्यक है।

क्या ईश्वर सब कुछ कर सकता है? क्योंकि उसे सर्वशक्तिमान् कहा गया है- आचार्य सोमदेव जी

ईश्वर के सर्वशक्तिमान् होने का अर्थ यह नहीं कि वह कुछ भी करे वा सब कुछ करे तात्पर्य यह है कि ईश्वर सब कुछ नहीं कर सकता। वह इसलिए क्योंकि वह शुद्ध पवित्र है। सर्वज्ञ है, सदा अपने नियमों का पालन करने वाला है।

इस विषय में महर्षि दयानन्द प्रश्नोत्तर रूप से लिखते हैं-

‘‘प्रश्न- ईश्वर सर्वशक्तिमान् है वा नहीं? उत्तर– है, परन्तु जैसा तुम ‘सर्वशक्तिमान्’ शद का अर्थ जानते हो वैसा नहीं, किन्तु सर्वशक्तिमान् शद का यही अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात् उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य-पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित्ाी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही अपना सब काम पूर्ण कर लेता है।’’

प्रश्न हम तो ऐसा मानते हैं कि ईश्वर जो चाहे सो करे, क्योंकि उसके ऊपर दूसरा कोई नहीं?

उत्तर– वह क्या चाहता है? जो तुम कहो कि सब कुछ चाहता और कर सकता है, तो हम तुमसे पूछते हैं कि परमेश्वर अपने को मार, अनेक ईश्वर बना, स्वयं अविद्वान् हो चोरी, व्याभिचारादि पाप कर्म कर और दुःखी भी हो सकता है? जैसे ये काम ईश्वर के गुण कर्म-स्वभाव के विरुद्ध हैं, तो जो तुहारा कहना है कि ‘वह सब कुछ कर सकता है’ यह कभी नही घट सकता, इसलिए सर्वशक्तिमान् का अर्थ जो हमने कहा, वहीं ठीक है।

यहाँ पर महर्षि की इन बातों से स्पष्ट है कि ईश्वर अपने गुण-कर्म-स्वभाव के विरुद्ध काी कुछ नहीं करता, नहीं कर सकता।

अवैदिक मान्यता वाले पौराणिक अथवा कुरान, बाईबल वाले ईश्वर के सर्वशक्तिमान्् होने का अर्थ वह करे न करे कुछ भी करे ऐसा मानते हैं। जब ईसाई, मुसलमान ईसामसीह या मुहमद साहब पर अपना इमान लाने की बात करते हैं तो उनका तात्पर्य यह होता है कि पैगबर की सिफारिश करने पर खुदा ईमानवालों के गुनाह माफ कर देता है, क्योंकि वह जो चाहे कर कता है, वह गुनहगारों को माफ भी कर सकता है और बेगुनाहों को सजा भी दे सकता है इनकी मान्यता है कि जब हम मामूली इंसान किसी की गलती को माफ कर सकते हैं तो हम से बड़ााुदा क्यों नहीं कर सकता? वे यह नहीं समझते कि ईश्वर का बड़प्पन कानून=सृष्टि के नियमों को तोड़नें में नहीं अपितु स्वयं उनका पालन करने और अन्यों से कराने में है। यदि नियामक ही नियमों का उल्लंघन करने लगे तो वह नियामक ही कहाँ रहा?

इसलिए परमेश्वर ने जो सृष्टि के आदि में संविधान बना दिया, उसका उल्लंघन न स्वयं करता, कर सकता और न उसकी प्रजा करती, कर सकती । सृष्टि विपरीत परमात्मा कुछ भी नहीं करता, कर सकता। इसलिए यह कहना सर्वथा असंगत है कि ‘‘ईश्वर सब कुछ कर सकता है क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है।’’

क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है? – आचार्य सोमदेव जी

क्या ईश्वर संसार में किसी स्थान विशेष में, किसी काल विशेष में रहता है? क्या ईश्वर किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष के कल्याण के लिए और दुष्टों का नाश करने के लिए भेजता है?

ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष वा काल विशेष में नहीं रहता परमेश्वर संसार के प्रत्येक स्थान में विद्यमान है। जो परमात्मा को एक स्थान विशेष पर मानते हैं वे बाल बुद्धि लोग हैं। वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है। वेदानुकुल सभी शास्त्रों में परमात्मा को सर्वव्यापक कहा है। एक स्थान विश्ेाष पर परमेश्वर को कोई सिद्ध नहीं कर सकता , न ही शद प्रमाण और न ही युक्ति तर्क से। हाँ ईश्वर शद प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु= सर्वत्र व्यापक तो सिद्ध हो रहा है, हो सकता है। वेद में कहा-

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।

– प. 31.3

इस पुरुष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्रह्माण्ड परमेश्वर के एक अंश में है अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड में समाया हुआ अनन्त है, यह समस्त जगत् परमात्मा के एक भाग में है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप में प्रकाशित हैं अर्थात् परमात्मा अनन्त है अर्थात् सर्वत्र विद्यमान है उसको किसी एक स्थान पर नहीं कह सकते।

नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः।

जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मयं धूनुहि।।

– ऋ. 1.10.8

इस मन्त्र के भावार्थ में महर्षि लिाते हैं – ‘‘जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उत्तर यह है कि जिसको सब आकाश आदि बड़े-बड़े पदार्थ भी घेर में नहीं ला सकते, क्योंकि वह अनन्त है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि उसी परमात्मा को सेवन उत्तम उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहें। जब जिसके गुण और कर्मों की गणना कोई नहीं कर सकता, तो कोई अंत पाने को समर्थ कैसे हो सकता है। और भी -’’

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविंर शुद्धमपापाविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीश्यः समायः।।

– य. 40.8

इस मन्त्र में परमेश्वर को सब में व्याप्त कहा है, इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नहीं अपितु सर्वत्र है। इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्र के हजारों प्रमाण दिये जा सकते हैं। कोईाी प्रमाण ऐसा उपलध नहीं होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिद्ध करता हो।

युक्ति से भी कोई परमात्मा को किसी स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकता। आज विज्ञान का युग है, वैज्ञानिकों ने समस्त पृथिवी, समुद्र, आकाश आदि को देख डाला है। जिन किन्हीं का भगवान् समुद्र, पहाड़ आकाश आदि में होता तो अब तक वह भगवान् वैज्ञानिकों के हाथ में होता। जो लोग ईश्वर को ऊपर सातवें वा चौथे आसमान अथवा इससे कहीं और ऊपर मानते हैं वे यह सिद्ध नहीं कर सकते कि कौनसा ऊपर, कौनसा आसमान। क्योंकि प्रमाण सिद्ध यह पृथिवी गोल है। इस गोल पृथिवी के लगभग चारों और मानव आदि प्राणी रहते हैं।

जो मनुष्य भारत में रहते हैं अर्थात् पृथिवी के ऊपरी भाग पर रहते हैं उनका आसमान उनके शिर के ऊपर और जो मनुष्य अमेरिका आदि देशों में है अर्थात् पृथिवी के निचलेााग में रहते हैं उनका आकाश (आसमान) भारत आदि देश में रहने वालों की अपेक्षा विपरीत होगा अर्थात् भारत वालों को पैरों में आकाश होगा ऐसा ही पृथिवी के अन्य स्थानों पर रहने वाले मनुष्य का आकाश जाने । पृथिवी के चारों ओर आकाश है, आसमान है, पृथिवी पर रहने वाले मनुष्यों के शिर जिस ओर होंगे उनका आसमान उसी ओर होगा। ऐसा विचार करने पर जो परमात्मा को आसमान में मानते हैं वे भी एक स्थान विशेष पर सिद्ध नहीं कर सकते। इस विचार से भी परमात्मा सर्वत्र ही सिद्ध होगा। इसलिए परमात्मा सब स्थानों पर विद्यमान है  न कि किसी एक स्थान विशेष पर।

स्थान विशेष की कल्पना ब्रह्माकुमारी मत वालों की भी है। उनका कहना है कि यदि ईश्वर को सर्वव्यापक मानते हैं तो ईश्वर गन्दगी में शौच आदि मेंाी होगा। यदि ऐसा होगा तो ईश्वराी गन्दा हो जायेगा। इन ब्रह्माकुमारी बाल बुद्धि वालों ने ईश्वर को कितना कमजोर बना दिया कि जो ईश्वर सदा पवित्र रहने वाला है, इन ब्रह्माकुमारी वालों का ईश्वर गन्दगी से गन्दा हो जाता है। इनको यह नहीं पता कि यह गन्दगी भौतिक है और ईश्वर अभौतिक। परमेश्वर के अभौतिक ओर सदा पवित्र होने से परमेश्वर के ऊपर इस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारे ऊपर भी जो प्रभाव पड़ता है वह इसलिये क्योंकि हमारे पास भौतिक शरीर इन्द्रियाँ आदि हैं, इनसे रहित होने पर हम जीवात्माओं पर भी उस गंदगी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ईश्वर तो सर्वथा इनसे रहित है तो ईश्वर पर इस गंदगी का प्रभाव कैसे पड़ेगा। इसलिए मलिनता से बचाने के लिए ईश्वर को एक स्थान विशेष पर मानना मूर्खता ही है।

इसी प्रकार ईश्वर किसी काल विशेष में होता हो ऐसा नहीं है, परमेश्वर तो सदा सभी कालों में वर्तमान रहता है। काल विशेष में होने की कल्पना अवतारवादी कर सकते हैं, जो कि उनकी यह मान्यता सर्वथा असंगत है। वर्तमान, भूत, भविष्यत काल की आवश्यकता हम जीवों की अपेक्षा से है। परमेश्वर के लिए तो सदा वर्तमान रहता है, भूत भविष्य परमात्मा के लिए नहीं है। परमात्मा सदा एक रस रहता है।

परमात्मा किसी जीव विशेष को किसी समुदाय विशेष की रक्षा वा दुष्टों के नाश के लिए भेजता हो ऐसा नहीं है। यह कल्पना भी अवतारवादियों की है। परमात्मा तो जीवों के कर्मानुसार उनको जन्म देता है। जो जीव विशेष संस्कार युक्त होता हैं वे जगत् के कल्याण और दुष्टों के नाश में प्रवृत्त होते हैं। ऐसा करने पर परमात्मा उनको आनन्द उत्साह आदि प्रदान करता है। किन्तु ऐसा कदापि नहीं है कि परमात्मा ने किसी जीव विशेष को इस कार्य में लगााया है यदि ऐसा मानेंगे तो जीव की स्वतन्त्रता न रहेगी। ऐसा मानने पर सिद्धान्त की हानि होगी। कर्म फल व्यवस्था की सिद्धि ठीक से न हो पायेगी। किसी समुदाय की रक्षा करे तो दोष का भागी हो जायेगा क्योंकि ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि पूरे समुदाय में सभी लोग एक जैसे धर्मात्मा हों, उस समुदाय में उलटे लोग भी हो सकते हैं। समुदाय में होने से उनकी भी रक्षा करनी पड़ेगी तो न्याय न हो सकेगा। जब कि परमेश्वर न्याय कारी है उसके द्वारा भेजी गई आत्मा को भी न्याय करना चाहिए जो कि वह कर न सकेगी।

अधिकतर लोगों की मान्यता है कि परमेश्वर किसी आत्मा को न भेजकर स्वयं अवतार लेते हैं । ऐसा करके परमात्मा सज्जनों की रक्षा और दुर्जनों का नाश करते हैं। इस प्रकार की यह मान्यता भी ईश्वर के स्वरूप से विपरीत तथा वेद-शास्त्र के प्रतिकूल है। क्योंकि ईश्वर विभु है, अनन्त है, वह अनन्त प्रभु एक छोटे से शान्त शरीर में कैसे आ सकता है? परमेश्वर जन्म मरण से परे है फिर शरीर में आकर जन्म-मृत्यु को कैसे प्राप्त कर सकता है? परमेश्वर का अवतार मानने पर इस प्रकार की अनेक दोषयुक्त बातों को मानाना पड़ेगा।

अवतारवादियों का अवतार मानने का मुय आधार ये दो श्लोक हैं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अयुत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजायहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

इन श्लोकों में अवतार लेने का कारण कि जब-जब धर्म की हानि होगी तब-तब धर्म के उत्थान और अर्धा के नाश के लिए तथा श्रेष्ठों के परित्राण =रक्षा और दुष्टों के नाश के लिए अवतार लेता है। अब यहाँ विचारणीय यह है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के इस सब ब्रह्माण्ड को रच डाला, हम सब प्राणियों के शरीरों की रचना की है, उस परमात्मा को कुछ क्षुद्र, दुष्ट व्यक्तियों को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े यह बात बुद्धिग्राह्य नहीं है। इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व न रहकर ईश्वर का बहुत लघुत्व सिद्ध हो रहा है। यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है। अस्तु

इन उपरोक्त गीता के श्लोकों में अवतार का कारण हमने देखा अब देवी भागवत पुराण में अवतार लेने का कारण देखिये कया लिखा –

शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत् प्रकरोमिते।

विध्ुारोहं कृतः पाप त्वयाऽहं शापकारणात्।।

अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसंभवाः।

प्रापो गर्भभवं दुःख भुक्ष्ंव पापाज्जनार्दन।।

इन देवी भागवत के श्लोकों में अवतार का कारण धर्म की रक्षा वा अधर्म के नाश करने के लिए नहीं कहा अपतिु भृगु का शाप कहा है। अर्थात् महर्षि भृगु ने विष्णु को उसके दुराचार कर्म के कारण शाप दिया उनके शाप के प्रााव  से विष्णु का मृत्य ुलोक में अवतार हुआ। गीता के और देवी भागवत पुराण में अवतार के कारणों में परस्पर विरोध है। और देखिये-

बौद्धरूपस्त्वयं जातः कलौ प्राप्ते भयानके।

वेदधर्मपरायन् विप्रान् मोहयामास वीर्यवान्।

निर्वेदा कर्मरहितास्त्रवर्णा तामासान्तरे ।।

यहाँ गीता से सर्वथा विपरीत अवतार का कारण कहा है। गीता धर्म की रक्षा कारण कहती है और यहाँ तो धर्म के नाश के लिए अतवार ले लिया, अर्थात् भागवत पुराण कहता है- भगवान ने बुद्ध का अवतार लेकर, सबको विरुद्ध उपदेश देकर नास्तिक बनाया तथा वेद मार्ग का नाश किया। यहाँ ये अवतारवादियों के ग्रन्थ परस्पर विरुद्ध कथन कर रहे हैं।

यथार्थ में तो ईश्वर के किसी भी रूप में जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है। क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं, चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का। परमेश्वर अपने सब कार्य करने में समर्थ है, उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है।

वेद में ईश्वर को ‘‘अकायमव्रणमस्नाविरम्’’ कहा है। वह परमात्मा सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बन्धन से रहित है अर्थात् इन बन्धन में नहीं पड़ता। श्वेताश्वतर उपनिषद् मेंऋषि ने कहा-

वेदाहमेतमजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात्।

जन्मनिरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हिप्रवदन्ति नित्यम्।।

– 4.21

अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन (सनातन) है, सर्वान्तर्यामी है, विाु और नित्य है। ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते हैं वह कभी जन्म नहीं लेता।

उपरोक्त सभी प्रमाणों से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान, समुदाय आदि देता है न कि अपनी इच्छा से किसी का नाश वा रक्षा के लिए उसको भेजता है और ऐसे ही स्वयं भी अवतार लेकर कुछ नहीं करता अर्थात् स्वयं शरीर धारण करके किसी की रक्षा वा नाश नहीं करता।