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‘वैदिक धर्म और आंग्ल नववर्ष २०१६’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वर्तमान समय में हमने व हमारे देश ने आंग्ल संवत्सर व वर्ष को अपनाया हुआ है। इस आंग्ल वर्ष का आरम्भ 2015 वर्ष पूर्व ईसा मसीह के जन्म वर्ष व उसके एक वर्ष बाद हुआ था। अनेक लोगों को कई बार इस विषय में भ्रान्ति हो जाती है कि यह आंग्ल संवत्सर ही सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति व उनके आरम्भ का काल है। अतः इस लेख द्वारा हम निराकरण करना चाहते हैं कि अंग्रेजी काल गणना दिन, महीने व वर्ष की गणना के आरम्भ होने से पूर्व भी यह संसार चला आ रहा था और उन दिनों भारत में धर्म, संस्कृति व सभ्यता सारे संसार में सर्वाधिक उन्नत थी और इसी देश से ऋषि व विद्वान विदेशों में जाकर वेद और वैदिक संस्कृति का प्रचार करते थे। अब से 5,200 वर्ष हुए महाभारत युद्ध के कारण संसार के अन्य देशों में वेदों के प्रचार व प्रसार का कार्य बन्द हो जाने और साथ ही भारत में भी अध्ययन व अध्यापन का संगठित समुचित प्रबन्ध न होने के कारण भारत व अन्य देशों में विद्या व ज्ञान की दृष्टि से अन्धकार छा गया। इस अविद्यान्धकार के कारण ही भारत में बौद्ध व जैन मतों के आविर्भाव सहित विश्व के अन्य देशों में पारसी, ईसाई व मुस्लिम मतों का आविर्भाव हुआ।

 

1 जनवरी सन् 0001 का आरम्भ वर्ष ईसा मसीह के अनुयायियों द्वारा प्रचलित ईसा संवत है। इससे पूर्व वहां कोई संवत् प्रचलित था या नही, ज्ञात नही है। हमें लगता है कि इससे पहले वहां संवत् काल गणना किसी अन्य प्रकार से की जाती रही होगी। उसी से उन्होंने सप्ताह के 7 दिनों के नाम, महीनों के नाम आदि लिये और उन्हें प्रचलित किया। अंग्रेजी संवत् अस्तित्व में आने से पूर्व भारत में संवत्सर की गणना लगभग 1.960853 अरब वर्षों से होती आ रही थी। भारत में सप्ताह के 7 दिन, बारह महीने, कृष्ण व शुक्ल पक्ष, अमावस्या व पूर्णिमा आदि प्रचलित थे। नये वर्ष का आरम्भ यहां चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता था अब भी यह परम्परा अबाध रूप से जारी है जिसे भारत के ब्राह्मण कुलों में जन्में विद्वान आर्य लोग मानते चले रहे हैं। ऐसा लगता भी है और यह प्रायः निश्चित है कि भारत से से ही 7 दिनों का सप्ताह, इनके नाम, लगभग 30 दिन का महीना, वर्ष में बारह व उनके नाम आदि कुछ उच्चारण भेद सहित देश देशान्तर में प्रचलित थे। उन्हीं को अपना कर वर्तमान में प्रचलित आंग्ल वर्ष व काल गणना को अपनाया गया है। हमारे सोमवार को उन्होंने मूनडे (चन्द्र-सोम वार) व रविवार को सनडे (सूर्य वार) बना दिया। यह हिन्दी शब्दों का एक प्रकार से अंग्रेजी रूपान्तर ही है।

 

अंग्रेजी संवत्सर की यह कमी है कि इससे सृष्टि काल का ज्ञान नहीं होता जबकि भारत का सृष्टि संवत् सृष्टि के आरम्भ से आज तक सुरक्षित चला आ रहा है। विज्ञान के आधार पर भी सृष्टि की आयु 1.96 अरब लगभग सही सिद्ध होती है। क्या हमारे यूरोप के विदेशी बन्धुओं को आर्यों व वैदिकों के इस पुष्ट सृष्टि सम्वत् को नहीं अपनाना चाहिये था? इसे उन्होंने पक्षपात व कुण्ठा के कारण नहीं अपनाया। उनमें यह भी भावना थी कि उन्हें अपने मत ईसाई मत का प्रचार व लोगों का धर्मान्तरण करना था, इसलिए उन्होंने भारतीय ज्ञान व विज्ञान की जानबूझकर उपेक्षा की और इसके साथ ही अपने मिथ्या विश्वासों को दूसरों पर थोपने का प्रयास भी किया। यदि महर्षि दयानन्द जी का प्रादुर्भाव हुआ होता तो उनके द्वारा फैलाये गये सभी भ्रम विश्व में प्रचलित हो जाते परन्तु महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से वैदिक काल के अनेक सत्य रहस्यों को खोज लिया और उनका डिण्डिम घोष कर भारत यूरोप के विद्वानों को हतप्रभ कर दिया।

 

भारतीय नव वर्ष चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है। यही दिवस नव वर्ष के लिए सर्वथा उपयुक्त व सर्वस्वीकार्य है।  यह ऐसा समय होता है जब शीत का प्रभाव समाप्त हो गया होता है। ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओं का आरम्भ इसके कुछ समय बाद होता है। इस नव वर्ष के अवसर पर पतझड़ व शीत ऋतु समाप्त होकर ऋतु अत्यन्त सुहावनी होती है। वृक्ष नये पत्तों को धारण किये हरे-भरे होते हैं तथा प्रायः सभी प्रकार के फूल व फल वृक्षों में लगे होते हैं, सर्वत्र फूलों की सुगन्ध से वातावरण सुगन्धित व लुभावना होता है जिसे प्रकृति का श्रृंगार कहा जा सकता है। ऐसी अनेक विशेषताओं से युक्त यह समय ही नव वर्ष के उपयुक्त होता है। हमें लगता है कि विदेशी विद्वानों के पक्षपात के कारण हम अनेक सत्य मान्यतओं को विश्वस्तर पर मनवा व अपना नहीं सकें। आज तो सर्वत्र पूर्वाग्रह व पक्षपात दृष्टिगोचर हो रहे हैं।  सर्वत्र सभी क्षेत्रों में प्रायः रूढि़वादित छाई हुई है। अब किसी पुरानी कम महत्व की परम्परा को छोड़ कर उसमें सुधार व परिवर्तन कर उसे विश्व स्तर पर आरम्भ करना कठिन व असम्भव ही है।

 

वैदिक सन्ध्या व यज्ञ दो ऐसे महत्ता से युक्त मनुष्यों के दैनिक आवश्यक कर्तव्य हैं जिनका आचरण व व्यवहार करने से मनुष्यों को अनेकानेक लाभ होते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि सन्ध्या में ईश्वर का ध्यान सहित उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जाती है। शुद्ध शाकाहारी भोजन और विचारों की शुद्धता-पवित्रता पर ध्यान दिया जाता है। सुखासन में लगभग 1 घंटा बैठकर ईश्वर की ध्यान पद्धति द्वारा स्तुति की जाती है। स्तुति का अर्थ है ईश्वर के गुणों का ध्यान व उल्लेख करना। इससे ईश्वर से प्रेम व प्रीति होती है। प्रेम व प्रीति से मित्रता होती है और इससे वरिष्ठ मित्र से कनिष्ठ मित्र को स्तुति के अनुसार लाभ प्राप्त होता है। स्तुति से अहंकार का नाश भी होता है। स्तुति करने से मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव सुधरते हैं और वह ईश्वर के कुछ-कुछ व अधिंकाश समान हो जाते हैं। हमारे सभी ऋषि व मुनि ईश्वर के गुण-कर्म व स्वभाव के अनुरूप गुणों वाले ही होते थे। स्तुति को जानने समझने व करने के लिए वेदों व वैदिक साहित्य का ज्ञान व अध्ययन भी आवश्यक है। बिना इसके ईश्वर की भलीप्रकार सारगर्भित व पूर्णता से युक्त स्तुति नहीं हो सकती। इसी प्रकार से ईश्वर से प्रार्थना का भी महत्व है। इससे भी स्तुति के समान सभी लाभ प्राप्त होते हैं और इच्छित वस्तु की ईश्वर से प्राप्ति होती है। प्रार्थना अहंकार नाश में सर्वाधिक लाभप्रद होती है। अहंकारशून्य मनुष्य ही समाज, देश व विश्व का कल्याण कर सकता है। अहंकारयुक्त मनुष्य तो अपनी ही हानि करता है, उससे दूसरों को किसी प्रकार के लाभ का तो प्रश्न ही नहीं होता। उपासना भी स्तुति व प्रार्थना को सफल करने में सहायक व अनिवार्य है। महर्षि दयानन्द इसका यह फल बताते हैं कि ईश्वर की स्तुति करने से उससे प्रीति, उस के गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना उद्देश्य पूरे होते हैं। स्तुति, प्रार्थना, उपासना वा समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट होते हैं। जिस मनुष्य ने आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त को लगाया है उसको जो परमात्मा के योग अर्थात् सान्निध्य वा समीपता का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने अर्थात् उपासना करने से सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो-जो काम करना होता है वह वह सब को करना चाहिये। महर्षि दयानन्द एक सिद्ध सफल योगी थे। इनके ये शब्द स्वानुभूत हैं। इसके शंका संदेह का कोई कारण नहीं। यदि मनुष्य जन्म में ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप को जानकर उसकी योग विधि से उपासना नहीं की और ईश्वर का साक्षात्कर करने का प्रयत्न नहीं किया, तो मनुष्य कितनी ही भौतिक उन्नति कर लें, उपासना व समाधि सुख की तुलना में वह अपार भौतिक सुख हेय व निम्नतर हैं। अतः हमें विदेशी मान्यताओं को गुण-दोष के आधार पर मानने के साथ अपने पूर्वजों, ऋषि-महर्षियों की विरासत को भी, सम्भालना है वह उसे भावी पीढि़यों को सौंपना है। इस कार्य के लिए हमारे आदर्श राम, कृष्ण, दयानन्द, चाणक्य आदि हैं। उनका अध्ययन व अनुकरण कर हमें अपने जीवन को सफल करना चाहिये। यही महापुरूष विश्व-वरणीय भी हैं। यज्ञ के बारे में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इससे वायुमण्डल व पर्यावरण शुद्ध बनता है। जीवन में सुख व आरोग्य की वृद्धि व प्राप्ति होती है। यज्ञ से हम ही नहीं अपितु यज्ञ स्थान से दूर-दूर तक के सभी प्राणी लाभान्वित व सुखी होते हैं। यज्ञ-अग्निहोत्र-हवन एक शुभ कर्म है और इसे ऋषियों द्वारा श्रेष्ठतम कर्म कहा गया है। यज्ञ न केवल हमारे वर्तमान जीवन में अपितु भावी जन्मों में भी जीवात्माओं को लाभ पहुंचाता है और इसके कर्त्ता को अगले जन्म में उन्नत मनुष्य योनि मिलने की गारण्टी देता है।

 

महात्मा ईसा मसीह बीसी 1 में पैदा हुए। उन्हीं के नाम से ईसा सम्वत् आरम्भ हुआ। 27 से 33 वर्ष का उनका जीवन होने का अनुमान है। उन्होंने जो धार्मिक विचार दिये उससे उनके देश व निकटवर्ती स्थानों पर सामाजिक परिवर्तन एवं सुधार हुए। इन सुधारों से ही उन्नति करते हुए वह आज की स्थिति में पहुंचे हैं। उनके अनुयायियों ने धर्म के अतिरिक्त अन्य जिन मान्यताओं को तर्क व युक्ति के आधार पर स्वीकार किया, वही उनकी प्रगति का आधार बना। उनकी उन्नति के प्रभाव ने ही उनके काल सम्वत् को विश्व स्तर पर स्वीकार कराने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में भी सम्प्रति यही संवत् प्रचलित हो गया है। यत्र-तत्र कुछ प्राचीन वैदिक व सनातन धर्म के विचारों के लोग सृष्टि संवत् व विक्रमी संवत् का प्रयोग भी करते हैं जो जारी रहना चाहिये जिससे आने वाली पीढि़यां उसे जानकर उससे लाभ ले सकें। नये आंग्ल वर्ष के दिन सभी मनुष्य एक दूसरे को नये वर्ष की शुभकामनायें देते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। शुभकामनायें तो हमें सभी को पूरे वर्ष देनी चाहिये। हमारे यहां संस्कृत का एक श्लोक खूब गाया व बोला जाता है। यह श्लोक सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।। हमें लगता है कि सबके प्रति शुभकामना करने का यह श्लोक सर्वाधिक भाव व अर्थ प्रधान वाक्य, कथन व पद्य है। पाठकों के लिए इसका पद्यानुवाद भी प्रस्तुत है। पहला पद्यानुवाद हैः सबका भला करो भगवान्, सब पर दया करो भगवान्। सब पर कृपा करो भगवान्, सबका सब विधि हो कल्याण।। दूसरा पद्यानुवादः हे ईश ! सब सुखी हों, कोई हो दुखारी, सब हों नीरोग भगवन् ! धनधान्य के भण्डारी। सब भद्रभाव देखें, सन्मार्ग के पथिक हों, दुखिया कोई होवे सृष्टि में प्राणधारी।। एक अन्य तीसरा पद्यानुवाद है सुखी बसे संसार सब, दुखिया रहे कोय, यह अभिलाषा हम सबकी भगवन् पूरी होय।। इस श्लोक के प्रतिदिन उच्चारण सहित गायत्री मन्त्र ईश्वर की स्तुतिप्रार्थनाउपासना के 8 मन्त्रों का अर्थ सहित पाठ करने से भी अनेक लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं।

 

निष्कर्ष में हम यह कहना चाहते हैं कि हमें समाज में रहना है अतः जो हमारे निकट हो रहा है हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। हमें जो भी नये वर्ष की शुभकामना देता है, उसे स्वीकार करें और उसे भी अपनी शुभकामनायें दें। उनसे यह अनुरोध करें  कि वह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के भारतीय नव वर्ष को भी इसी प्रकार से सोत्साह मनायें और अपने सभी मित्रों को इसी प्रकार से शुभकामनायें दें। आज आंग्ल वर्ष 2015 के अंतिम दिन ३१ दिसम्बर को हमने कुछ समय चिन्तन किया, उसे लेखबद्ध कर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस अवसर पर हम सभी बन्धुओं को नये आंग्ल वर्ष 2016 की शुभकामनायें देते हैं।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास पर आपत्तियाँ और  उनका उत्तर – राजेन्द्र जिज्ञासु

 

सत्यार्थ प्रकाश प्रकरण पर अदुल गनी व खलील खान ने जो आक्षेप किया है, उसका विवरण निम्न प्रकार है। पहली बात तो यह आक्षेप ही गलत है, क्योंकि ऋषि दयानन्द कुरान पढ़ना या अरबी भाषा जानते ही नहीं थे।

शाह रफी अहमद देहलवी के उर्दू अनुवाद का जो अन्य मौलवियों ने देवनागरी या हिन्दी में अनुवाद किया है, स्वामी जी ने उसी को ही ज्यों का त्यों लिया है। अनुभूमिका में साफ लिखा है, यदि कोई कहे कि यह अर्थ ठीक नहीं है, तो उसको उचित है कि मौलवी साहिबों के तर्जुमों का पहले खण्डन करे, पश्चात् इस विषय पर लिखे, क्योंकि यह लेख केवल मनुष्यों की उन्नति और सत्यासत्य के निर्णय के लिए है। दो लोगों ने सत्यार्थ प्रकाश के चौदह समुल्लास का सुरा तहरीम 66 आयत 1 से 5 पर ऋषि ने दो किस्सा या कहानी है लिखा।

आक्षेपकर्ता ने यह कहानी कुरान में नहीं है, ऐसा लिखा तथा कहा- जब यह कहानी नहीं है कुरान में फिर दयानन्द ने क्यों लिखा? अतः दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये। विरोध यही है।

इसका उत्तर है कि कुरान की आयतों के उतरने का कारण है जिसे शानेनुजूल कहा जाता है, अर्थात् किस बिना पर यह आयत उतरी? या किस आधार पर यह आयत उतरी ? वजह क्या थी? इसे शानेनुजूल कहा जाता है।

तो सुरा तहरीम का शाने नुजूल के सभी अनुवाद कर्त्ताओं ने कुरान के फुटनोट में लिखा है, वह अनुवाद उर्दू, हिन्दी व अंग्रेजी सब में है, और विस्तार में बुखारी शरीफ हदीस, व शाही मुस्लिम हदीस में प्रत्येक सुरा का शानेनुजूल लिखा है।

अतः इन आयतों में स्वामी जी ने दो कहानी है लिखा है, परन्तु कहानी को स्वामी जी ने उद्धृत नहीं किया, मैं उन दोनों क हानी को लिखता हूँ उमूल मोमेनीन (मुसलमानों की मातायें) अर्थात् हजरत मुहमद सःआःवःसः की सभी बीबीयाँ, सभी मुसलमानों की मातायें हैं, विधवा होने पर भी वह किसी से निकाह नहीं कर सकतीं, और न कोई मुसलमान उनसे निकाह कर सकता, क्योंकि माँ जो ठहरीं। हजरत जैनब नामी बीवी के पास हजरत साहब शहद पीने को जाया करते थे। हुजूर की सबसे कमसिन पत्नी हजरत आयशा ने एक और पत्नी हजरत हफसा दोनों ने परामर्श कर पति हजरत मुहमद साहब से कहा कि दहन मुबारक से मगाफीर की बू आती है, चुनान्चे आपने क्या खाया?

जवाब में हुजूर ने कहा- अगर शहद पीने से बू आती है, तो आइन्दा मैं शहद का इस्तेमाल नहीं करुँगा। पहली कहानी यह है, और आयत का शानेनुजूल यह है। (मैंने कसम खाली है, तुम किसी से मत कहना)

दूसरी कहानी है कि हजरत साहब ने एक काम को न करने की कसम खा लिया तो अल्लाह ने यह आयत उतारी- ऐ नबी क्यों हराम करते हो उस चीज को? जिसे अल्लाह ने हलाल किया है तुहारे लिए, अपनी बीविओं के खुशनुदियों के लिए (प्रसन्न के लिए)। हजरत हफसा के घर गए, वह मईके गई भी तो हुजूर ने मारिया, कनीज, के साथ एखतलात किया, हफसा ने दोनों को कमरे में देख लिया- हुजूर ने कसम खाली थी न करने को। तफसीर हक्कानी – पृ.125

एक बार हजरत साहब ने एक पत्नी हफसा से कहा, दूसरों से कहने को मना किया पर हजरत हफसा ने हजरत आयशा नामी पत्नी से कह दी । जिस पर अल्लाह ने पत्नियों को डाँट लगाते हुए कहा कि नबी अगर तुम लोगों को तलाक दें, तो उनकी पत्नियों की कमी नहीं, जिसे कुरान में अल्लाह ने कहा।

असा रबुहू इन तल्लाका ‘कुन्ना अई’ युब दिलाहू अजवाजन खैरम मिन कुन्ना मुसलिमातिम मुमिनातिन, कानेतातिन, तायेनातिन, सायेहातिन, सईये बातिय वा अबकरा। तहरीम – आ. 5

इन दो कहानी का ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में उल्लेख किया है, जो कुरान तथा हदीस में आयत का शानेनुजूल ही इस प्रकार है।

कुरान का अंग्रेजी अनुवादक पिक्यल व एन.जे. दाऊद, हिन्दी अनुवाद नवल किशोर ने भी लिखा है तथा उर्दू अनुवादकों ने भी लिखा है। अवश्य यह लिखना मैं युक्ति-युक्त समझता हूँ उर्दू अनुवादक ने लिखा यह किस्सा पादरियों ने अपने मन से मिला दिया है।

विचारणीय बात है कि ऋषि दयानन्द ने इसी आयत की समीक्षा में लिखा है, अल्लाह क्या ठहरा मुहमद साहब के घर व बाहर का इन्तेजाम करने वाले मुलाजिम ठहरा?

जरा सोचे तो सही कि कुरान का अल्लाह समग्र मानव मात्र का होने हेतु मानव मात्र के लिए उपदेश होना था कुरान का उपदेश।

किन्तु मानव मात्र का उपदेश तो क्या है, नबी के पति-पत्नी का घरेलू वार्तालाप ही अल्लाह का उपदेश है। समग्र कुरान में इस प्रकार अनेक घटनाएँ हैं। यहाँ तक कि नबी पत्नी बदचलन है या नहीं हैं, कुरान में अल्लाह गवाही दे रहे हैं। सुरा नूर-24 आयत 6 पर देखें।

बल्लजीना यरमूना अजवाजहुम व लम या कुल्लाहुम शुहदाऊ इल्ला अन फुसुहुम फ शहादतो अहादेहिम अरबयो शहादतिम बिल्ला हे इन्नाहू लन्स्सिादेकीन।

अब समीक्षा में ऋषि दयानन्द जी ने अपना विचार ही तो अभिव्यक्त किया है, न कि कुरान में यह क्यों लिखा है, यह पूछा?

अपने विचार अभिव्यक्त करने की छूट भारतीय संविधान में सबको है, और मानव बुद्धि परख होने हेतु किसी चीज को मानने के लिए बुद्धि का प्रयोग तो करना ही चाहिये। दयानन्द तो दोषी तब होते, जब अपनी मनमानी बातों को कुरान की आयतों के साथ मिलाते? उन्होंने तो मात्र कुरान की बातों को सामने रखा।

आक्षेप कर्ता ने सुरा कदर जो संया 97 है आयत 1 से 4 को लिखा है, तथा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप किया है, कुरान में क्या कहा वह प्रथम प्रस्तुत करता हूँ।

तहकीक नाजिल किया हमने कुरान को बीच रात कदर के, और क्या जाने तू के क्या है रात कदर की, रात कदर की बेहतर है, हजार महिने से, उतरते हैं फरिश्ते और रूह पाक अपने परवार दिगार के  हुक्म से, हजार चीजों को लेकर अपने वास्ते, सलामती है वह तुलुय हो फजर। आक्षेप कर्ता को चाहिये था, दयानन्द को गभीरता से पढ़कर कुरान में सभी प्रश्नों को जानने का प्रयत्न करना, क्योंकि दयानन्द ने जो प्रश्न किया है, कुरान से उसका जवाब कुरानविदों के पास नहीं है।

कुरान में कई जगह कहा गया कि कुरान को बरकत वाली रात में उतारा, यहाँ तक कि उल्लहा ने कसम खाकर कहा। एक रात में कुरान को उतारा, किन्तु पूरी कुरान की आयतों को दो भागों में बाँटा गया, मक्की व मदनी में, अर्थात् प्रत्येक सुरा के प्रथम में लिखा है कि यह सुरा मक्का में और यह मदीना में उतारी गई आदि। दयानन्द का कहना सही है कि समग्र कुरान एक ही बार में उतरी? या कालान्तर में? क्योंकि इसका विरोध कुरान से ही होता है।

जो पवित्र आत्मा हजरत जिब्राइल को उतरना इस आयत में माना गया जो ऋषि ने वह पवित्र आत्मा कौन है लिखा, अल्लाह तक पहुँचने में जिब्राइल को पचास हजार साल लगते हैं, तो कुरान को उतरने में कितने वर्ष लगे?

सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप कर्ताओं ने सुरा बकर-संया 2 आयत 25 से 37 तक का उल्लेख किया है।

सुरा बकर आयत 25 में लिखा- बशारत हैं उनके लिए जो नेक अमल करेंगे, अल्लाह उनको जन्नत में दाखिल करायेंगे, जिसके नीचे नहरे हैं, तरह-तरह के मेवे खाने को मिलेंगे, मेवे (फल) देखने में एक जैसा होगा पर स्वाद अलग-अलग है। खिलाने वाला कहेगा- अरे इसे खाकर देखें इसका स्वाद ही अलग है और वहाँ हुर गिलमों, पवित्र शराब तथा परिन्दों का गोश्त का कबाब भी खाने को मिलेगा, यह प्रमाण पूरी कुरान में अनेक बार आया है। यहाँ तक कि हम उमर औरतें, दिल बहलाने वाली औरतें, बड़ी-बड़ी आँख वाली जैसे मोती का अण्डा, रेशम का कपड़ा पहनकर जिससे तन दिखाई दे सोने के कंगन पहन कर सामान परिवेशन करेंगी- बहुत जगह कुरान में लिखा है।

ऋषि दयानन्द जी ने मात्र जानकारी लेनी चाही कि दुनिया में स्त्री, पुरुष जन्म लेते व मरते हैं, पर जन्नत में रहने वाली सुन्दर स्त्रियाँ अगर सदाकाल वहाँ रहती हैं? तो क्या वह एक जगह रहते -रहते ऊब नहीं जाती होंगी? जब तक कयामत की रात नहीं आवेगी, तब तक उन बिचारियों के दिन कैसे कटते होंगे?

मेरे विचारों से सत्यार्थ प्रकाश में दर्शाये गए इन्हीं प्रश्नों को तीस हजारी कोर्ट से न पूछ कर उस्मानगनी व खलील खान को चाहिये था- डॉ. मुति मुकररम से ही पूछते। अब मुति साहब ने इन लोगों को जवाब देने के बजाय सुझाव दे डाला- कोर्ट में जा कर पूछो कि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यह क्यों लिखा?

किन्तु दयानन्द ने जो कुछाी लिखा है, वह कुरान में पहले से ही मौजूद है। अगर कुरान में यह बात न होती तो ऋषि दयानन्द यह न पूछते कि उन सुन्दरी स्त्रियों का एक जगह रहने में मन में घबराहट होती या नहीं? जवाब तो कुरान विचारकों को देना चाहिये। सुरा बकर-आयत 31 से 37 में सत्यार्थ प्रकाश पर जो आरोप है, वह भी निराधार है। अल्लाह ने आदम को सभी चीजों का नाम बता दिया, और फरिश्तों से पूछा कि अगर तुम सच बोलने वाले हो, तो उन चीजों का नाम बताओ। पर वह तो सच बोलने वाले ही थे, तो कहा हम तो उतना ही जानते हैं जितना तू ने हमें सिखाया।

इतने में अल्लाह ने आदम से पूछा, तो वह सभी नाम बता दिया। फिर अल्लाह ने कहा- हम बता नहीं रहे थे तुहें? जाव इन्हें सिजदा करो।

सत्यार्थ प्रकाश में लिखा- ऐसे फरिश्तों को धोखा दे कर अपनी बड़ाई करनााुदा का काम हो सकता है?

इसमें दयानन्द की क्या गलती? अल्लाह ने कुरान में कहा, व अल्ला मा आदमल असमा आ कुल्लाहा सुमा अराजा हुम अललमल इकते।

दयानन्द का कहना है कि जिस फरिश्ते ने आसमानों, और जमीनों में अल्लाह की इतनी इबादत की, अल्लाह ने जिसे आबिद, जाबिद, शाकिर, सालेह, खाशेय आदि नामों की उपाधि दी, और चीजों का नाम नहीं बताया, अब उसी की लाई गई मिट्टी से आदम को बनाकर सभी नाम बताना? क्या यह अल्लाह का धोखा नहीं?

क्या यह अल्लाह का पक्षपात नहीं? मात्र दयानन्द ही क्यों, कोईाी बुद्धि परख मानव इसे दगा ही मानेगा। क्या यह अल्लाह का काम हो सकता है?

अवश्य कुरान में इसकी चर्चा और भी कई जगहों पर हैं, जैसा संया 7 अयराफ में 12 से 19 तक लिखा है, और यहाँ तो उस फरिश्ते ने अल्लाह के सामने अंगुली नचा कर कहा, काला फबिमा अगवई तनी ला अकयूदन्नालहुम सिरातकल मुस्ताकीम-गुमराह किया तू ने मुझको, मैं भी उसे गुमराह करूँगा जो तेरे सीधे रास्ते पर होगा उसे आगे से पीछे से, दाँई और बाँई से उसे गुमराह करूँगा।

अब देखें अल्लाह ने उस शैतान को रोक नहीं पाया, और कहा- जो मेरे रास्ते पर होगा उसे तू गुमराह नहीं कर पायगा। शैतान ने कहा- मैं उसे ही गुमराह करूँगा जो तेरे रास्ते पर होगा, और आदम को गुमराह कर दिखाया।

यह सभी बातें कुरान में ही मौजूद है कि अल्लाह अगर शैतान के पास निरुत्तर हो और कोई मानव अपनी अकल पर ताला डाल कर सत्य बचन महाराज कहे तो इसमें ऋषि दयानन्द की क्या गलती है?

सुरा-2 आयत 37 पर जो आक्षेप है वह देखें, अल्लाह ने कहा- आदम तुम अपने जोरू के साथ वाहिश्त में रहो जहाँ मर्जी, जो मर्जी खाब पर नाजिदीक न जाव उस दरत के गुनहगार हो जावगे, और निकाल दिये जावगे यहाँ से- व कुलना या आदमुस्कुन अनता व जाब जुकल जन्नाता आदि

अब ऋषि दयानन्द ने जो लिखा- देखिये, खुदा की अल्पज्ञता! अभी तो स्वर्ग में रहने को दिया और फिर उसे कहा निकलो, क्या खुदा नहीं जानता था कि आदम मेरा आदेश का उल्लंघन कर उसी फल को खायेगा, जिसे मैंने मना किया? स्वामी जी ने आगे लिखा कि जिस वृक्ष के फल को आदम को खाने से मना किया, आखिर अल्लाह ने उसे बनाया किसके लिए था? यह सभी प्रश्न तो दयानन्द का है, पर उल्टा दयानन्द के अनुयाइयों से पूछा जा रहा है कि दयानन्द ने अपने सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा? यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है।

जहाँ तक अल्लाह की अल्पज्ञता की बात है, वह तो कुरान से ही सिद्ध हो रही है, अल्लाह को पता नहीं था कि शैतान आदम को बहका देगा तथा शैतान हमारे हुकम का ताबेदार नहीं रहेगा आदि। दूसरी बात है कि अल्लाह ने आदम को बताया कि शैतान तुहारा खुला दुश्मन है, उसके बहकावे में मत आना।

और इधर शैतान को वर दे दिया कयामत के दिन तक जिन्दा रहने का, हर मानव के नस, नाड़ी तक पहुँचने का, व सीधे रास्ते पर चलने वालों को गुमराह (पथभ्रष्ट) करने का, अल्लाह ने ही मुहल्लत दी। ऋषि दयानन्द को इसीलिए लिखना पड़ा- यह काम अल्लाह का नहीं, और न ही यह उसकी ग्रन्थ की हो सकती है।

यहाँ अल्लाह ने चोर को चोरी करने व गृहस्थ को सतर्क रहने वाली बात की है। इसका प्रमाण भी कुरान के दो स्थानों पर मौजूद है, जैसा-सुरा इमरान आयत 54 तथा अनफाल-आ030- व मकारू व मकाराल्लाहू बल्लाहू खैरुल मारेकीन।

अर्थ- मकर करते हैं वह, और मकर करता हूँ मैं, और मैं अच्छा मकर करने वाला हूँ। ध्यान देने योग्य बात है कि मकर का अर्थ है धोखा और अल्लाह से अच्छा धोखा करने वाला कोई नहीं, जो अल्लाह खुद कर रहे हैं अपनी कलाम में, अब अल्लाह व अल्लाह की कलाम की दशा क्या होगी? ऋषि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में यही तो जानकारी इस्लाम के शिक्षाविदों से लेना चाह रहे हैं। अब प्रश्नों का जवाब देने के बजाय कोई कहे कि सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा,उसका तो ईश्वर ही मालिक है। एक बात और भी जानने की है, ऊपर लिख आया हूँ शानेनुजूल को, कि आयत उतारने का कारण क्या है। इसका मतलब भी यह निकला- अल्लाह सर्वज्ञ नहीं है, जो ऋषि ने अनभिज्ञ लिखा है। अगर कारण नहीं होता, तो अल्लाह आयत नहीं उतरते। कारण हो सकता है, यह ज्ञान कारण से पहले अल्लाह को नहीं था।

कुरान में ही अल्लाह ने कहा- ला तकर बुस्सलाता व अनतुम सुकाराआ। अर्थ- न पढ़ो नमाज जब कि तुम शराब की नशे में हो।

अर्थात् शराब पीकर नमाज नही पढ़नी चाहिये।

अब इसका शाने नुजूल देखें, एक सहाबी (मुहमद साहब का साथी) शराब पीकर नमाज पढ़ा रहे थे, नशे की दशा में कुरान की आयतों को पढ़ने का क्रम भंग किया, तो दूसरे ने हजरत से शिकायत की, तो अल्लाह ने यह आयात जिब्राइल के माध्यम से उतारी।

यह आयत उतरते ही सभी अरबवासी जो घर-घर शराब बनाते थे, सब ने शराब बहादी नालाओं में शराब बहने लगा, आदि।

इससे यह पता चला कि शराब पीने से नशा होता है, यह ज्ञान अल्लाह को नहीं था वरना शराब तो प्रथम से ही हराम होना था? अगर वह सहाबी कुरान पढ़ने का क्रम नशा में भंग न करते, तो अल्लाह को यह आयत उतारना ही नहीं पड़ता।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यही तर्क पूर्ण बातें की हैं, अगर कोई अक्ल में दखल न दे, या अक्ल में ताला डालना चाहे तो ऋषि दयानन्द की क्या गलती है? दयानन्द ने साफ कहा है कि हठ और दुराग्रह को छोड़ मानव मात्र का भलाई जिससे हो, सत्य के खातिर काम करना चाहिये, मानव बुद्धि परख होने हेतु प्रत्येक कार्य को बुद्धि से करना चाहिये, क्योंकि इसी का ही नाम मानवता है। सुरा 2 आयत 87 को अगर ध्यान से पढ़ते तो शायद आक्षेप न कर पाते, क्योंकि सत्यार्थ प्रकाश में ऋषि दयानन्द ने कुरान में कही गई बातों को ज्ञान विरुद्ध तथा सृष्टि नियम विरुद्ध सिद्ध किया है। हजरत मूसा को अल्लाह ने अगर किताब दी, उसमें क्या कमी थी जो पुनः ईसा को अलग किताब देनी पड़ी? उससे पहले दाऊद को भी किताब दी थी, उसमें कौन-सी बातों को अल्लाह कहना भूल गये थे, जो अन्तिम में कुरान के रूप में हजरत मुहमद को अल्लाह ने दिया?

अल्लाह का ज्ञान पूर्ण है अथवा अधूरा? क्योंकि परमात्मा का ज्ञान पूर्ण होना आवश्यक है और सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वभौमिक होना चाहिये। कुरान इसमें खरा नहीं उतरता। हजरत मूसा ने मौजिजा दिखाया और नबिओं ने भी मौजिजा दिखाया, मौजिजा का अर्थ है चमत्कार। अगर चमत्कार तब होते थे, तो अब क्यों नहीं?

अगर चमत्कार से हजरत मरियम कुँवारी अवस्था में हजरत ईसा को जन्म देना मान लिया जाय, तो क्या सृष्टि नियम विरुद्ध नहीं होगा? कोई मेडिकल साइंस का जानने वाला इसे सही ठहरा सकता है? इसे अल्लाह ने सुरा अबिया-आयत-88 में क्या कहा, देखें- वल्लाति अहसनत फरजहा फनाफखना फीहा मिर रूहिना वज अलनाहा वबनहा

– कि अल्लाह ने मरियम के शर्मगाह (गुप्तइन्द्रियों) में फूँक मार दिया और मरियम गर्भवती हो गई।

कोई भी बुद्धिमान इस बात को ईश्वरीय ज्ञान तथा ईश्वरीय कार्य कैसे मान सकते हैं? ऋषि दयानन्द ने लिखा है, भोले-भाले लोगों को बहकाया गया है।

अगर ऋषि दयानन्द अपने कार्यकाल में इस पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश को न लिखते, तो आर्य जाति को बचने का रास्ता बन्द था। सारा भारत कुरान का मानने वाला बन जाता, या बलात् बना दिया जाता। दयानन्द का बहुत बड़ा उपकार है इस पुस्तक को लिखने का।

गुरुदत्त विद्यार्थी ने कहा- अगर सारी सपत्ति बेचकर भी सत्यार्थ प्रकाश खरीदना पढ़े तो भी इसका मूल्य कम है। मैं इसे अवश्य खरीदता।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

‘‘आर्य भारत में बाहर से आये’’ : यह मान्यता देशद्रोह है : डॉ धर्मवीर

 

लोकसभा में संविधान दिवस के प्रसंग में बहस करते हुए मल्लिकार्जुन खडगे ने कहा- आर्यों ने भारत पर आक्रमण करके हम लोगों को दलित और शोषित बनाया। हम आपके अत्याचारों को पिछले पाँच हजार वर्षों से सह रहे हैं। हम आपका मुकाबला करते रहेंगे। खडगे ने भाजपा को बाहर से आकर इस देश पर राज्य करने वाली पार्टी बताया। इस बात की गभीरता को आर्यसमाज के अतिरिक्त कोई नहीं समझ सकता। संसद सदस्य स्वामी सुमेधानन्द बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने खडगे के वक्तव्य का लिखित में विरोध किया और कार्यवाही से निकलवा दिया। हमें खडगे को भी धन्यवाद देना चाहिए, जिन्होंने इस देशद्रोही विचार की गभीरता को संसद में अपने वक्तव्य के माध्यम से प्रकाशित किया।

बहुत वर्ष पूर्व भी एंग्लो इण्डियन राज्यसभा सदस्य ने इस प्रकार का प्रश्न उठाया था, परन्तु उस समय किसी ने इस विचार की घातकता को समझा नहीं था। उस समय मान्य सदस्य ने सदन में कहा था- भारतीयों को अंग्रेजी भाषा से द्वेष नहीं करना चाहिए, क्योंकि संस्कृत भी भारतीयों के लिये विदेशी भाषा है। यह भारत में बाहर से आये आर्यों की भाषा है। जब इस देश के लोग संस्कृत से प्रेम करते हैं, तो फिर विदेशी भाषा के नाम पर अंग्रेजी से द्वेष क्यों करते हैं? आर्यों का भारत में बाहर से आकर बसने का विचार अंग्रेजों के मस्तिष्क की उपज है। भारत पर आक्रमण मुसलमानों ने भी किया और देश को पराधीनाी किया था। उन्होंने यहाँ की सयता, संस्कृति को बलपूर्वक नष्ट करने का प्रयत्न किया। अंग्रेजों ने इस देश को दास बनाया और यहाँ की सयता, संस्कृति को बुद्धिपूर्वक नष्ट करने की योजना बनाकर कार्य किया। मल्लिकार्जुन खडगे इस षड्यन्त्र के शिकार बने हैं।

अंग्रेज आज भी इस देश को खण्डित करने के प्रयासों में लगे हैं। प्रमुख रूप से इस्लाम और ईसाइयों के माध्यम से धर्म परिवर्तन द्वारा तथा दूसरे रूप से माओवादी हिंसा फैलाकर देश में अराजकता उत्पन्न करने के प्रयासों द्वारा व्यापार व आधुनिकता के नाम पर समाज में नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के नाश करने के उपायों द्वारा तथा भारत में आर्य- द्रविड़ संघर्ष के काल्पनिक सिद्धान्त का उपयोग कर पाश्चात्य योरोप अमेरिका की शक्तियाँ चर्च एवं व्यापार द्वारा हिंसा, असन्तोष फैलाकर फिर से ईसाइस्तान, इस्लामिस्तान, द्रविड़स्तान तथा माओवाद के नाम से नक्सलियों के राज्य के रूप में इस देश के विभाजन का प्रयास अपनी पूरी शक्ति से करने में लगे हुए हैं। अन्य प्रयासों की चर्चा का प्रसंग यहाँ नहीं है। जहाँ तक खडगे का प्रश्न है, इसे तो स्वतन्त्रता के साथ ही समाप्त किया जाना चाहिए था, परन्तु गत साठ वर्ष के शासन ने खडगे की पार्टी का ही समर्थन किया, जो भारतीय परपराओं का, संस्कृति का और भाषा का नाश करने को ही देश की प्रगति का मूल मन्त्र समझती थी। इनकी दृष्टि में अंग्रेज और अंग्रेजी ही प्रगति के पर्याय हैं। परिणामस्वरूप हमारे शासन में आदिवासी जैसे शदों का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी शद का प्रयोग करना अपने आपको बाहर से आया स्वीकार करना। इन शदों के अर्थों को हमने आज तक समझा नहीं, इसी कारण अपनी रक्षा में इस मिथ्या मान्यता को स्थान दिया हुआ है। हमारे बच्चे आज भी यही पढ़ते हैं कि इस देश में आर्य बाहर से आये और यहाँ के मूल निवासी द्रविड़ लोगों को पराजित कर दक्षिण में भगा दिया और अपना शासन स्थापित किया। इस मिथ्या मान्यता को इतना प्रचारित किया गया कि भारतीय संसद में कांग्रेस के नेता खडगे इस मान्यता के प्रवक्ता बन खड़े होने में अपना गौरव समझने लगे, अपने आपको द्रविड़ मूल और आर्य से भिन्न अनार्य मनाने लगे।

आज हमारे लिये एक अवसर आया है, जिसका लाभ उठाकर हमें अपनी शिक्षा से इस मान्यता को बहिष्कृत कर देना चाहिए तथा प्रशासन शदावली से आदिवासी जैसे शदों का प्रयोग निषिद्ध कर देना चाहिए। खडगे यदि आर्यों से भिन्न होते तो उनका नाम मल्लिकार्जुन नहीं होता। यदि खडगे भाजपा को विदेशी मानते हैं, तो वे श्रीमती सोनिया गाँधी को क्या कहेंगे, जिसके वे सेनापति बने हुए हैं? खडगे जी इस देश के नागरिक हैं, अपने देश से निश्चय ही प्रेम होगा, तो उन्हें इस आर्य-अनार्य सिद्धान्त और षड्यन्त्र को समझना चाहिए।

प्रथम बात किसी के लिये भी जानने की यह है कि आर्य-अनार्य शद जातिवाचक नहीं, गुणवाचक हैं, क्योंकि कृण्वन्तो विश्वमार्यम् कहते हुए वेद कहता है- सपूर्ण रूप से आर्य बनो और सब को आर्य बनाओ। जब सबको आर्य बनाया जायेगा, तब खडगे जी अनार्य कैसे रह पायेंगे? आर्य-अनार्य शद अच्छे और बुरे के अर्थ में हैं। मनु कहते हैं- इस देश में आर्य और दस्यु अर्थात् अनार्य रहते हैं, क्या खडगे जी अपने को चोर, डाकू कहलाना पसन्द करेंगे? क्या चोर, डाकू, लूटेरों की कोई जाति होती है? क्या इनके लिये संविधान, कानून, पुलिस, होती है? फिर ऐसी निरर्थक विचारधारा के लिये खडगे जी अपने को उनका प्रतिनिधि कैसे कह सकते हैं? भारतीय संस्कृति, साहित्य, परपरा से आर्य वे हैं, जो लोग श्रेष्ठ परपरा के धनी हैं। वेद और वैदिक धर्म स्वीकार करते हैं, वे सभी आर्य है। कोई भी आर्य बन सकता है, किसी को आर्य कह सकते हैं। हमारी आर्य परपरा में एक पत्नी अपने पति को आर्य-पुत्र कहकर पुकारती है। पाश्चात्य लोगों ने आर्य-अनार्य सिद्धान्त की कपोल कल्पना की, जिसका उद्देश्य भारतीय समाज में विभाजन उत्पन्न करना था। आर्य-अनार्य का विचार, आर्य भारत में बाहर से आये हैं- यह सिद्धान्त विद्वानों, वैज्ञानिकों की दृष्टि में खण्डित हो चुका है, परन्तु योरोप-अमेरिकी पक्ष इसका पूरा उपयोग इस देश को बांट ने में करने में लगा हुआ है। इस षड्यन्त्र को सबसे पहले ऋषि दयानन्द ने समझा था और उन्होंने अपने ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से खण्डन किया था। ऋषि दयानन्द ने लिखा- आर्यों का बाहर से भारत में आने का, भारतीय साहित्य के किसी भी ग्रन्थ में उल्लेख नहीं मिलता। यदि आर्य बाहर से आकर भारत में बसे होते तो इतने बड़े ऐतिहासिक सन्दर्भ का उल्लेख उनके साहित्य में न हो, यह असभव है। किसी देश से आकर बसने की घटना उस समाज में निरन्तर स्मरण की जाती है। आज कोई पाकिस्तान से उजड़कर आया, कोई आक्रमणकारी के रूप में आया, दोनों का इतिहास मिलता है। समाज में कथायें मिलती हैं, परपरायें मिलती हैं, पुराने रीति-रिवाज, जीवन शैली के अंश मिलते हैं, क्या आर्यों की कोई परपरा किसी तथाकथित मध्य एशिया या किसी अन्य देश में मिलती है? क्या आर्यों की भाषा मौलिक रूप से किसी दूसरे देश में बोली जाती है या इतिहास में पाई जाती है? इतना ही नहीं, इतनी बड़ी जाति का संक्रमण एक दिन में तो नहीं हो सकता, उसके उस स्थान से चलकर यहाँ तक पहुँचने के मार्ग में उनके चिह्न, अवशेष तो मिलने चाहिए। यदि बाहर से चलकर भारत को आर्यों ने जीता था, तो क्या बीच के देश उन्होंने बिना जीते ही छोड़ दिये थे? यदि जीते थे तो आज वहाँ उनका अस्तित्व क्यों नहीं है, वहाँ उनका राज्य क्यों नहीं है? आर्यों के इतिहास, संस्कृति के अवशेष वहाँ क्यों नहीं पाये जाते?

ऋषि दयानन्द कहते हैं- भारतवर्ष में सबसे पहले आकर निवास करने वाले आर्य ही हैं। शास्त्रों की, ऋषि दयानन्द की मान्यता है कि जब इस पृथ्वी का निर्माण हुआ, सपूर्ण जलमय संसार में से पृथ्वी का जो भाग सबसे पहले जल से बाहर निकला, वह तिबत था तथा सबसे ऊँचा होने के कारण उसी भाग पर मनुष्यों की सृष्टि सबसे पहले हुई। जो मनुष्य वहाँ से उतरकर सबसे पहले भारत आये और जिन्होंने इस देश को बसाया, वे ही लोग आर्य कहलाये। शेष संसार में यहीं से लोगों का जाना हुआ है। बाहर से इस देश में आने की बात मनगढ़न्त, मिथ्या और षड्यन्त्रपूर्ण है। विश्व साहित्य में आर्यों का बाहर भारत में आना लिखा नहीं मिलता, हाँ विश्व के अनेक ग्रन्थों में जिनका पुराना इतिहास मिलता है, उनमें उनके पूर्वजों का भारत से आकर वहाँ निवास करना लिखा मिलता है। ईरान के इतिहास और धर्म ग्रन्थ जिन्द अवेस्ता में उनके पूर्वजों का भारत से जाकर ईरान में वास करने का उल्लेख मिलता है। जब कोई देश जाति किसी पर विजय प्राप्त करती है तो वह अपने उल्लास और हर्ष को प्रकाशित करने के लिये अनेक प्रकार के आयोजन करती है, उसे स्थायी बनाने के लिये इतिहास लिखती है। शिलालेख, ताम्र लेख, स्तूप, स्तभ, भवन, स्मारक बनाये जाते हैं, परन्तु पूरे भारत में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं मिलता, कोई चिह्न भी नहीं मिलता। इससे पता लगता है कि यह एक कपोल-कल्पना है, जो एक षड्यन्त्र के माध्यम से की गई है। इसके विपरीत ब्राह्मण ग्रन्थ, मनुस्मृति आदि प्राचीन ग्रन्थों में आर्यों के तिबत से भारत में आने, अनेक युद्ध जीतने आदि का विवरण मिलता है, परन्तु मध्य एशिया या किसी अन्य देश से भारत में आकर बसने का, यहाँ के मूल निवासियों को निकाल कर  उनका राज्य छीनने का कोई उल्लेख प्राचीन भारतीय शास्त्रों, साहित्य या इतिहास के ग्रन्थों में नहीं मिलता, अतः आर्यों द्वारा द्रविड़ों पर आक्रमण की कल्पना मिथ्या षड्यन्त्र मात्र है।

जिन्हें हम द्रविड़, दलित, शूद्र मान रहे हैं, वे किस अर्थ में आर्यों से भिन्न हैं? भारतीय हिन्दू समाज के सवर्ण-असवर्ण दोनों ही अंग हैं। दोनों के गोत्र एक से हैं, परपरायें, खान-पान, वस्त्र, आभूषण, पहनावा- सभी कुछ एक जैसा है। सभी के देवी-देवता, धर्मग्रन्थ, उपास्य, उपासना पद्धति- सब एक जैसे हैं। सभी राम, हनुमान, शिव, गणेश आदि की पूजा-उपासना करते हैं। व्रत, उपवास, संस्कार साी कुछ पूरे समाज का एक दूसरे से मिलता है। सपन्नता-निर्धनता के आधार पर सभी में परस्पर स्वामी-सेवक सबन्ध पाया जाता है, अतः समग्र रूप में समाज एक है। यदि कोई अन्तर है तो विद्या या अविद्या का, सपन्नता या निर्धनता का, अन्याय या न्याय का अन्तर और परिणाम देखने में आता है। यह सभी समाजों में स्वाभाविक रूप से देखा जा सकता है। इसका मूल कारण भारतीय समाज का जन्मना जाति स्वीकार करने का दुष्परिणाम है। यह अज्ञान, अविद्या, पाखण्ड, शोषण, सवर्ण-असवर्ण, जन्मना जाति, ऊँच-नीच, छुआछूत के परिणामस्वरूप, जिसका पाश्चात्य लोग लाभ उठाकर समाज में विरोध और द्वेष उत्पन्न करने का प्रयास कर रहे हैं। अंग्रेजों ने पं. भगवद्दत्त के पास भी अपना सन्देश वाहक भेजा था- वे अपनी पुस्तकों में लिख दें कि जाट लोग इस देश में बाहर से आर्य के रूप में आये हैं, परन्तु पण्डित जी ने दृढ़ता से इसका निषेध कर दिया। जहाँ आर्य विद्वानों ने निषेध किया, वहीं पर धन व प्रतिष्ठा के लोभी लोगों ने अंग्रेजों की इच्छानुसार लेखन भी किया।

इस षड्यन्त्र को ऋषि दयानन्द ने समझा था और इसका सप्रमाण प्रतिकार भी किया था। सामान्य रूप से आर्यावर्त्त की सीमा मनु के श्लोक ‘आसमुद्रात्’ से निष्पादित करते हैं, विन्ध्याचल से सतपुडा की ओर हिमालय के मध्य आर्यावर्त की सीमा पढ़ते हैं, परन्तु इसी श्लोक के अर्थ ऋषि दयानन्द पूर्व-पश्चिम पर्वत शृंखला के मध्य रामेश्वरम् पर्यन्त स्वामी जी आर्यावर्त की सीमा का उल्लेख करते हैं। यहाँ एक घटना का उल्लेख प्रमाण रूप में ठीक होगा। स्वामी श्रद्धानन्द ने पं. लेखराम की जीवनी लिखते हुए एक घटना लिखी है कि सरस्वती हषद्वती नदियाँ आर्यावर्त की सीमा बनाती है और पं. लेखराम का ग्राम सरस्वती के दूसरी ओर पड़ता था, तो पण्डित लेखराम कहा करते थे- मेरे गाँव की इस ओर की नदी सरस्वती नहीं है, मेरे गाँव के बाद बहने वाली नदी सरस्वती है, जिससे उनका गाँव भी आर्यावर्त में आ जाता था। सचमुच में भारत में रहने वाले आर्य का गाँव आर्यावर्त से बाहर हो तो अच्छा तो नहीं लगेगा। इसी तर्क को लेकर मैंने एक बार अपने पिता जी से कह दिया- आपका गाँव आर्यावर्त में नहीं आता, एक क्षण वे स्तध हुए और अगले ही क्षण बोले- तू नहीं जानता, मेरा गाँव आर्यावर्त में है क्योंकि जो संकल्प पाठ उत्तर भारत के गाँव-नगर में किया जाता है, वही मेरे गाँव मेंाी आदि काली से हो रहा है- आर्यावर्ते जबू द्वीपे भरत खण्डे- सचमुच में उनका प्रमाण अकाट्य था।

ऋषि दयानन्द ने वे दोत्पत्ति प्रकरण, वे दोत्पत्ति काल के निर्धारण में भारतीय समाज में श्रेष्ठकर्म करने के समय पढ़े जाने वाले संकल्प का उल्लेख किया है, उसमें जब –आर्यावर्ते जबू द्वीपे भरत खण्डे- शदों का पाठ करते हैं, तो सिद्ध है इस देश में आने वाले पहले लोग आर्य ही हैं और उन्होंने ही इस देश का नाम आर्यावर्त रखा। इस देश के बदले गये बाद के नामों की चर्चा तो मिलती है, परन्तु आर्यावर्त या ब्रह्मवर्त से पहले के किसी भी नाम की चर्चा विश्व इतिहास में नहीं मिलती, अतः यह कहना कि भारत में आर्य बाहर से आये- यह पाखण्डपूर्ण कथन है। भारत में आर्य बाहर से आये- यह कहना वदतो व्याघात अर्थात् परस्पर विरोधी है, क्योंकि इस देश का भारत नामकरण भी आर्यों का है, फिर भारत में आर्यों का बाहर से आना कैसे बनेगा।

खडगे ने लोकसभा में आर्यों के बाहर से आने की जो बात कही, उसका कारण है, आजकल किया जाने वाला दुष्प्रचार। भारत जातिगत आधार पर जो आरक्षण किया गया है, इसको आधार बनाकर इस आन्दोलन को इस देश में चलाया जा रहा है। इसके लिये अमेरिका, योरोप का ईसाई समुदाय बड़ी मात्रा में धन उपलध कराता है। इस कार्य को करने वाले संगठन भारत में बामसेफ और मूल निवासी परिषद् है। पाश्चात्य लोगों ने ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, योरोप के अनेक विश्वविद्यालयों में इस मूलनिवासी लोगों के इतिहास के अनुसन्धान के लिए अनेक शोधपीठ भी स्थापित किये हैं, जिनमें डी.एन.ए तक मूल निवासियों का आर्यों से पृथक् होने की बात कही गई है। ये संगठन ज्योतिबा फूले और डॉ. अबेड़कर के नाम से लोगों को हिन्दू समाज से अलग करने का प्रयास करते हैं। दलित प्रकाशन के नाम से प्रकाशित दो सौ से भी अधिक पुस्तकों में यही समझाने का प्रयास किया है कि स्वतन्त्रता संग्राम का दलितों से कुछ लेना-देना नहीं है, दलितों का उद्धार अंग्रेजों ने किया है। डॉ. अबेडकर ने ही उनके लिये कार्य किया है, समाज में सवर्ण कहलाने वाले लोगों ने उनका शोषण किया है। अंग्रेज शासन उनके लिये अच्छा था, स्वतन्त्रता संग्राम तो सवर्णों की अपने अधिकारों की लड़ाई थी, चाहे रानी झाँसी की लड़ाई हो या महाराणा प्रताप व शिवाजी की। इनके साहित्य में ऋषि दयानन्द या स्वामी श्रद्धानन्द और आर्यसमाज या किसी अन्य संस्था द्वारा किये समाज सुधार की चर्चा नहीं मिलती। इनके साहित्य में ऋषि दयानन्द को ब्राह्मण और सवर्णों का पक्षधर कहकर निन्दा की गई।

वर्तमान में इस कार्य को करने वाले दो संगठन हैं- एक बामसेफ और दूसरा है- मूल निवासी परिषद्। ये निरन्तर दलित जातियों में भारत विरोधी, सवर्ण और असवर्ण के मध्य पृथकतावादी प्रवृत्ति बढ़ाने का कार्य करते हैं। इसके लिये इनका सैंकड़ों की संया में साहित्य प्रकाशित कर वितरित किया जाता है। इसी प्रकार की फिल्में बनाकर दिखाई जाती हैं। प्रतिवर्ष देश के विभिन्न भागों में इनके अधिवेशन होते हैं, जिनमें दलित समाज के लोगों को भाग लेने के लिये प्रेरित किया जाता है। सवर्ण या भिन्न विचार के लोगों को ये लोग अपने कार्यक्रम में भाग लेने की अनुमति नहीं देते। पुस्तक मेलों में दलित प्रकाशनों की दुकानों पर बिकने वाले साहित्य से इस बात को समझा जा सकता है।

इस कार्य को करने वाली संस्था बामसेफ, जिसका पूरा नाम ऑल इण्डियन बैकवर्ड एंड माइनॉरिटीज एप्लाइज फैडरेशन है, जिसका निर्माण बहुजन समाजवादी पार्टी के संस्थापक कांशीराम और डी.के. खापडे ने अमरीकी सहायता से 1973 में किया था। इसका उद्देश्य आरक्षण का लाभ उठाकर भारतीय समाज में सवर्ण-असवर्ण की खाई को गहरी करना और समाज में विघटन के बीज बोना था। सामाजिक लोगों को अभी तक इसका विशेष परिचय नहीं है। जो परिचित भी हैं, वे इनके कार्य को विशेष महत्त्व नहीं देते, परन्तु खडगे ने संसद में बता दिया, यह विचार समाज में तेजी से घर कर रहा है। समाज और सरकार को इसका निराकरण करने के लिये सक्रिय होना होगा।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक आर्य के अतिरिक्त अपने देश के लिये इतने सुन्दर शदों का प्रयोग कोई कर सकता है, जैसा राम ने किया था। राम ने कहा- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। इतना ही नहीं, आर्यों ने अपने भारतवर्ष को देवताओं के लिये भी ईर्ष्या का कारण बताया-

गायन्ति देवाः किल गितकानि

धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे

स्वर्गापवर्गास्पद मार्गभूते

भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।

– धर्मवीर

परमेश्वर ही सच्चा गणेश है – इन्द्रजित् देव

परमेश्वर ही सच्चा गणेश है

– इन्द्रजित् देव

‘‘आर्य वन्दना’’ के जनवरी अंक में गणेश की महिमा विषयक एक लेख प्रकाशित हुआ है जो पूरी तरह से पौराणिकता से भरपूर है। लेखक महोदय के अनुसार गणेश की पूजा के पीछे यह धारणा कार्य करती है कि इससे सभी सुख, सौभाग्य तथा समृद्धि की प्राप्ति होती है तथा जीवन में सभी बाधाओं एवं विघ्नों से मुक्ति मिलती है। लेखक ने यह भी लिखा है कि पार्वती ने अपने शरीर पर इतना उबटन लगा राा था कि जिससे एक मनुष्य का पुतला बन सके। पार्वती ने फिर उसमें प्राण फूँके और उसे अपना पुत्र बनाया। यह भी लेख में लिखा है कि शिव ने कहा जो संसार का चक्कर लगाकर प्रथम आएगा, वही प्रथम पूजनीय होगा तथा सभी देवता तेजी से दौड़े परन्तु गणेश नामक शिव का पुत्र न दौड़ सका क्योंकि उसका शरीर भारी था। गणेश ने अपने माता-पिता का ही चक्कर लगाया एवं उन्हें प्रणाम करके बैठ गये, अतः गणेश प्रथम पूज्य बन गया इत्यादि।

पूरा लेख अवैज्ञानिक, तर्कहीन व प्रमाणहीन है। लेखक महोदय इसे ‘‘कल्याण’’ या किसी अन्य पौराणिका पत्रिका में छपा लेते तो उनकी उपरोक्त बातों का कोई विरोध न करता, परन्तु एक वैदिक पत्रिका में यह प्रकाशित हुआ है, अतः इसे पढ़कर हमें आश्चर्य व दुःख हुआ है। इसके उत्तर में कुछ बातों को तर्क व विज्ञान के आधार पर लिखना वाञ्छनीय है, ताकि आर्य समाजियों को तो सत्य का ज्ञान हो सके तथा वे भ्रम में न रहें।

हमारे कुछ प्रश्न लेखक से हैंः यदि स्त्री के शरीर पर उबटन लगा लेने से पुत्र का शरीर बन सकता है तो ईश्वर ने पुरुष को क्यों उत्पन्न किया? पार्वती हो या कोई अन्य स्त्री, उसके शरीर में गर्भाशय की स्थापना ही क्यों की? वेदानुसार विवाह का मुय उद्देश्य उत्तम सन्तान उत्पन्न करना है। यदि पार्वती बिना पति के पुत्र को उत्पन्न करने की कला जानती थी तो उसने शिव से विवाह ही क्यों किया? क्या शिव में कोई कमी थी। उबटन से पुत्र-प्राप्ति की विद्या का उल्लेख किस वेद या किस आयुवैदिक अथवा एलोपैथिक ग्रन्थ में है? उबटन लगाकर सोने से व्यक्ति के शरीर से वह झड़ या उतर जाना चाहिये परन्तु पार्वती ने उतरने नहीं दिया, तभी तो उबटन से पुत्र बना लिया व फूँक मारकर उसे चेतन गणेश बना दिया। लेखक को चाहिए कि इस ईलाज का बांझ स्त्रियों में प्रचार करें ताकि वे भी अपने शरीर पर उबटन लगा लिया करें व जब चाहें, वे अपने उबटन से पुत्र का पुतला बनाकर व उस पुतले में प्राण फूँक कर सन्तानवती बन जाया करें। वे पति तथा वैद्य-डॉक्टर की सहायता लेने की आवश्यकता से मुक्त हो जाया करेंगी। प्राण फूँकने से पुत्र में आत्मा आती है तो मृत पुत्र की किसी भी माता को आज तक पुत्र-वियोग का दुःख क्यों भोगना पड़ता रहा है? पुत्र की मृत्यु होने पर पुत्र का शरीर तो घर में पड़ा होता है। पार्वती की तरह पुत्र की माता उस मृ्रत देह में फूँ क मार कर पुत्र को जीवित कर लिया करें। यह फार्मूला बताने के लिए हम लेखक के बहुत धन्यवादी रहेंगे।

पार्वती ने अपने उबटन से उत्पन्न किए गणेश को घर के बाहर बैठा दिया, ताकि वे निश्चित होकर स्नान कर सकें व कोई भी व्यक्ति भीतर प्रवेश न कर सके, परन्तु शिवजी स्वयं को न रोक सके व पुत्र गणेश व पिता शिव के मध्य युद्ध छिड़ गया। परिणामतः पुत्र का सिर काटकर शिव जी भीतर प्रवेश कर गए। पार्वती ने हाहाकार मचाया तो शिव ने एक हथिनी का सिर जोड़कर पुत्र को पुनः जीवित कर दिया। हमारी इच्छा विद्वान लेखक से यह जानने की है जिस शिवजी को पौराणिक व लेखक स्वयं ईश्वर मानते हैं, उसके घर में इतनी अधिक गरीबी क्यों थी कि वह अपने घर में दरवाजा बन्द करके स्नान करने योग्य एक बाथरूम भी नहीं बनवा सका? जब इतनी निर्धनता थी ही तो वह ईश्वर कैसे कहला सकता है, क्योंकि ईश्वर का अर्थ ऐश्वर्यशाली होता है। लेखक को यह भी बताना होगा कि जब शिवजी की पत्नी घर के भीतर स्नान कर रही थी तथा उनके पुत्र गणेश ने उन्हें भीतर जाने से रोका तो वे रुके क्यों नहीं? भीतर जाने का उनका उतावलापन उनके संयम की पोल खोलता है। इतना उतावलापन उनमें था कि भीतर जाने से रोकने वाले अपने पुत्र का सिर भी काटना उन्हें अधर्म प्रतीत नहीं हुआ। किसी का सिर जब कटेगा तो उसके शरीर से उसके प्राण व उसकी आत्मा निकल जाएगी, यह एक दृढ़ वैज्ञानिक नियम है। तत्पश्चात् कोई भी पिता, माता, राजा, वैज्ञानिक या गुरु तो क्या, स्वयं ईश्वर भी पुनः प्राण तथा आत्मा को उसी शरीर में प्रवेश नहीं करा सकता।

लेखक के अनुसार जब पार्वती ने अपने पति के समक्ष पुत्र वियोग का दुखड़ा रोया, शिव ने एक हथिनी का सिर सिरहीन पुत्र के सिर पर फिट करके जीवित कर दिया। हमारा प्रश्न उपरोक्त लेख के लेखक से यह है किस कपनी के फैवीकोल या कीलों से गणेश का सिर पुनः फिट किया? आज परस्पर लड़ाई के अनेक मामलों में एक दूसरे के सिर काटे जा रहे हैं। लेखक की मान्यता वाले जिसाी किसी ग्रन्थ में सिरहीन धड़ से किसी अन्य प्राणी का सिर जोड़ने की सफल विधि का उल्लेख है, उस ग्रन्थ की पृष्ठ संया सहित नाम व लेखक का नाम बताने की कृपा करें ताकि आज जहाँ कहीं परस्पर लड़ाई में सिर कटते हैं, मैं वहाँ सिर जोड़ने में कुछ सहायता कर सकूँ।

हमारा अगला प्रश्न यह है कि शिव जी में हथिनी का सिर अपने मृत पुत्र के धड़ से जोड़कर पुनर्जीवित करने की योग्यता व क्षमता थी तो उन्होंने अपने पुत्र का पहला सिर ही क्यों नहीं जोड़ दिया? हथिनी की मृत्यु कर के अपने पुत्र को पुनर्जीवित करना कथित ईश्वर शिव की शोभा बढ़ाने वाला कार्य है क्या? कोई भी मनुष्य जिसका धड़ तो मनुष्य का हो परन्तु सिर हथिनी का हो, क्या सूखपूर्वक सो सकेगा?

उपरोक्त लेख के अनुसार एक बार देवों में यह विवाद हो गया कि उन सबमें किस देवता की पूजा सर्वप्रथम होनी चाहिए? शिव ने उन्हें संसार का चक्कर लगाकर आने को कहा। जो दौड़ में सबसे पहले लौटेगा, वही देवता प्रथम पूज्य होगा। गणेश का शरीर भारी था। वह न दौड़ सका। उसने माता-पिता का चक्कर लगाया और प्रणाम करके बैठ गया। अतः प्रथम पूज्य माने गए। हमारा निवेदन यह है कि प्रथम पूज्य देव का निर्णय करने का लाईसैंस (=अधिकार) शिवजी को किसने दिया? उसका निर्णय मान्य क्यों होना चाहिए? वे देव क्यों कर माने जा सकते हैं, जब परस्पर उनमें होड़ मची हुई थी कि मेरा पूजन सर्वप्रथम होना चाहिए? लोकैषणा रहित व्यक्ति देवता होता है जबकि लोकैषणायुक्त (=प्रशंसा प्राप्त करने की इच्छा करने वाला) व्यक्ति मनुष्य कहलाता है, देवता तो कदापि मान्य हो ही नहीं सकता। यहाँ हम आचार्य यास्क द्वारा निरुक्त 7/11 में वर्णित देवों का वर्णन करना उचित समझते हैं- देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थाने भवतीति वा। इसके अनुसार निम्नलिखित कुछ मूर्तिमान व कुछ अमूर्तिमान देव ये होते हैंः-

  1. दान देने वाले= मनुष्य, विद्वान् व परमेश्वर।
  2. दीपन, प्रकाश करने वाले= सूर्योदि लोक, सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने वाले।
  3. द्योतन करने वाले= सत्योपदेश करने से भी देव अर्थात् माता, पिता , आचार्य व अतिथि तथा पालन, विद्या व सत्योपदेशादि करने वाले।
  4. द्युस्थान वाले देव= सूर्य की किरण, प्राण तथा सूर्यादि लोको का भी जो प्रकाश करने हारा है, वह परमेश्वर देवों का भी देव है।
  5. अन्य देव= इन्द्रियाँ, मन। ये शदादि विषयों तथा सत्यासत्य का प्रकाश करते हैं। वेद मन्त्र भी देव हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ के सप्तम समुल्लास में इस विषय में लिखते हैं- ‘‘देवता दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहते हैं, जैसी कि पृथिवी।……….जो त्रयस्त्रिशनिशता’’ इत्यादि वेदों में प्रमाण हैं, इसकी व्याया ‘शतपथ’ में की है कि-तैंतीस देव अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु,आकाश, चन्द्रमा,सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से ये आठ वसु हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, सामान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा, ये ग्यारह रुद्र इसलिए कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं, तब रोदन कराने वाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिए कहाते हैं कि ये सब की आयु को लेते जाते हैं। बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु है कि वह परम ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिससे वायु, वृष्टि, जल, औषधी की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस पदार्थ पूर्वोक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं।

लेखक सत्यपाल भटनागर जी से अनुरोध है कि उपरोक्त विवरण व व्याया को ध्यान से पढ़ने का कष्ट करें व पाठकों को स्पष्ट करें कि कौन-से वे देव थे जिनमें अपनी पूजा प्रथमतः कराने की थी? वास्तविकता यह है कि उपरोक्त देवों से अतिरिक्त काल्पनिक देवों की धारणा लेखक के मस्तिष्क में है। उसे त्याग दें व केवल उपरोक्त वास्तविक देवों की मान्यता स्थापित करें।

लेखक जी! पुत्र को अपने माता-पिता का आदर व यथोचित सेवा करनी ही चाहिए, यह निर्विवाद है, परन्तु गणेश की तरह माता-पिता की परिक्रमा कर लेना न तो किसी प्रकार की सेवा है तथा न ही इस कार्य में तनिक भी आदर करने का भाव है। गणेश के मन मेंाी अपनी पूजा सर्वप्रथम कराने की ही इच्छा थी जिसे शास्त्रीय भाषा में लोकैषणा कहते हैं। हम लेखक महोदय को स्मरण दिलाना चाहते हैं कि इतिहास में माता-पिता का आदर व उचित सेवा करने वाले कई सुपुत्रों के प्रमाण उपलध हैं। श्रवण कुमार तथा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र इत्यादि के कार्यों को ध्यान में रखकर सोचिए व पाठकों को बताइए कि माता-पिता के शरीरों की परिक्रमा करने वाले गणेश में सुपुत्र के गुण थे अथवा श्रवण कुमार में? रामचन्द्र जी ने तो राजभवन के सुख-सुविधाओं का परित्याग करके 14 वर्षों तक वनों में रहकर अपने पिता की प्रतिष्ठा तथा सौतेली माँ की इच्छा की रक्षा की थी। गणेश के जीवन में सेवा की एकाी घटना जब उपलध नहीं होती तो उसका पूजन सर्वप्रथम करने-कराने में औचित्य क्या है? सर्वप्रथम पूजन करने-कराने की किसी व्यक्ति की यदि इच्छा है तो श्रवण कुमार अथवा रामचन्द्र जी की। वैसे आज न गणेश संसार में है,न ही श्रवण कुमार कहीं दिखते हैं तथा न ही रामचन्द्र जी कहीं मिलते हैं। उनकी पूजा कैसे करोगे- कराओगे? केवल चित्रों, मूर्तियों या थाली में जल रही धूप अगरबत्ती को मत्था टेकने का नाम पूजा करना नहीं है। पूजा का अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में इस प्रकार लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि गुण वाले को यथायोग्य सत्कार करना है, उसको ‘पूजा’ कहते हैं।’’ आज जो कुछ हो रहा है, वह पूजा न होकर अपूजा है, क्योंकि महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में यह भी लिखा है- ‘‘जो ज्ञानादि रहित जड़ पदार्थ और जो सत्कार के योग्य नहीं है। उसका जो सत्कार करना है, वह ‘‘अपूजा’’ है।’’ थोड़ी देर के लिए हम बहस के लिए मानते हैं कि गणेश ने अपने माता-पिता की परिक्रमा की थी, इसलिए सर्वप्रथम उसी की पूजा करनी चाहिए तो प्रश्न उत्पन्न होगा कि जिस गणेश ने वह कार्य किया था, वह ही आज कहाँ नहीं है। पत्थर की बनी मूर्ति या कागज में दिख रहा गणेश वास्तविक गणेश नहीं है। आप पत्थर या कागज की पूजा कराते हैं जो जड़ पदार्थ हैं, ज्ञानरहित, क्रिया रहित हैं। इनका सत्कार हो नहीं सकता, अतः इस कथित गणेश से जो कुछ करते हो, वह अपूजा है व इससे कुछ लाभ नहीं होता, हानि अवश्य होती है।

गणेश का पूजन करना है तो पहले गणेश शद का अर्थ समझना चाहिए। ‘गण संयाने’ इस धातु से गण शद सिद्ध होता है। उसके आगे ईश शद लगाने से गणेश शद सिद्ध होता है। ‘गणानां समूहानां जगतामीशः स गणेशः’ अर्थ= सब गणों नाम संघातों का अर्थात् सब जगतों का ईश स्वामी होने से परमेश्वर का नाम गणेश है।

-सत्यार्थप्रकाश, प्रथम समुल्लास

परमेश्वर के अनेक गुणवाचक, कर्मवाचक, सबन्धवाचक नाम हैं। इनमें शिव, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र तथा सरस्वती आदि नाम भी हैं। वेद क्योंकि सृष्टि के प्रथम दिन ईश्वर ने दिए थे, उस दिन इन नामों के शरीरधारी मनुष्य कोई न थे। सामाजिक व्यवहार के लिए मनुष्यों के नाम रखना आवश्यक होता है, अतः वेदों में प्रयुक्त शदों को अपने व अपनी सन्तान के नाम करण हेतु प्रयोग करना पड़ा था। आज भी ऐसा ही होता है। वेद में यदि गणेश व शिवादि की पूजा का आदेश है तो वह सदैव रहने वाले अशरीरी गणेश से ही अभिप्रेत है, न कि बाद में शरीरधारी हुए किसी गणेश नामक व्यक्ति से। परमेश्वर से बड़ा विघ्नहारी कौन होगा? विस्तार से इस विषय को समझने हेतु ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ का प्रथम समुल्लास पढ़ना चाहिए। ‘शिवपुराण’ व अन्य सभी पुराणों को महर्षि दयानन्द जी ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ के तृतीय समुल्लास ‘‘संस्कार विधिः’’ के वेदारभ संस्कार तथा ‘‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’’ के ग्रंथ प्रामान्याप्रमाण्य विषय के अन्तर्गत पठन-पाठन हेतु त्याज्य ग्रंथों में रखा है। फिर लेखक ने आर्य समाजी होते हुए ग्रहण क्यों किया?

-चूना भट्ठियाँ, सिटी सेंटर के निकट, यमुनानगर, हरि.

महात्मा हंसराज के तीन कथनः : राजेन्द्र जिज्ञासु

महात्मा हंसराज के तीन कथनःमहात्मा हंसराज के व्यायानों व लेखों में मुझे तीन अनमोल मोती मिले। आपने कहा कि एक बार ला. सांईदास ऋषि का ऐश्वरवाद, उसकी ही उपासना पर व्यायान सुनकर भीड़ के साथ जब बाहर निकले तो एक ब्रह्म समाजी नेता ने भाषण सुनकर कहा कि मेरा तो अब तक सारा ही जीवन निरर्थक गया। मैंने जड़पूजा-मूर्तिपूजा का ऐसा खण्डन कभी नहीं किया, जैसा आज निर्भीक स्वामी दयानन्द ने किया है। वहाँ महात्मा जी ने इस ब्रह्म समाजी नेता का नाम नहीं दिया। मेरा मत है कि यह ला. काशीराम जी प्रधान पंजाब ब्रह्मसमाज  हो सकते हैं। वह महर्षि की निडरता, विद्वत्ता व अटल ईश्वर विश्वास की बहुत प्रशंसा किया करते थे।

दूसरा कथन जो मुझे प्रेरणाप्रद लगता है, वह यह है कि महात्मा जी हजरत मुहमद की एक हदीस सुनाकर आर्यों के  खरेपन की पहचान बताया करते थे। किसी ने मुहमद जी से पूछा कि आपकी सबसे प्यारी बीवी कौन है? प्रश्नकर्त्ता समझता था कि पैगबर को हजरत आयशा (जो सबसे छोटी थी) से अत्यधिक प्रेम है सो यह उसी का नाम लेंगे, परन्तु रसूल अल्लाह ने हजरत खदीजा का नाम लिया और कहा कि वह उस समय मुझ पर ईमान लाई, जब मुझे कोई नहीं जानता मानता था।

यह हदीस सुनाकर महात्मा जी कहा करते थे- धर्मप्रचार- ऋषि के मिशन के लिए कौन कष्ट झेलता व समय देता है? जो ऋषि मिशन का दीवाना है, वही महात्मा जी की दृष्टि में बड़ा व आदरणीय है।

महात्मा जी का तीसरा प्रिय कथन मेरे लिये यह है कि हम यह चाहते हैं कि मेरा तो पाँवाी गीला न हो, परन्तु देश जाति का बेड़ा पार हो जाये।

आओ! हम सब सोचें कि हम भी क्या इसी श्रेणी में तो नहीं आते। वैदिक धर्म पर जब वार हो तो उत्तर दूसरे दें। वेद पर, ऋषि पर प्रहार हो या अंधविश्वासों से लड़ना हो- मर्तिपूजकों से, ईसाइयों से, मुसलमानों से, रजनीश आदि नास्तिकों,ाोगवादियों व गुरुडम वाले तिलक कण्ठीधारी बाबाओं से, जातिवादी तत्त्वों पर लिखने बोलने के लिए कोई और आगे आये, परन्तु मैं अपने पद से चिपका रहूँ। कितने वर्षों तक आप प्रधान व मन्त्री रहे- यह कोई इतिहास नहीं। इतिहास दुःख कष्ट झेलने को कहते हैं। कभी किसी से टक्कर ली? कभी कोई अभियोग चला? भारत सरकार ने निजाम की जीवनी दिल्ली से छापी। उसको महिमा मण्डित किया, फिर श्रद्धाराम की आड़ में ऋषि की निन्दा की। आपके मुख पर टेप लगी है। आप कुछ बोलने का साहस ही न कर पाये। उत्तर में दो पक्तियाँ तो लिख देते। भारत सरकार को एक रोष भरा पत्र तो लिख सकते थे। संघर्ष करना जिनके बस की बात नहीं, जो घर में ही कलह जगाने के लिए बेचैन रहते हैं, उनकी करनी व कथनी से इतिहास नहीं बन सकता। ऐसे लोग रिपोर्ट का पेट तो भर सकते हैं, परन्तु इतिहास ऐसे लोगों को कूड़ेदान में फेंक देता है। इतिहास पं. लेखराम, श्याम भाई, भक्त फूलसिंह, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण सिंह व पं. रुचिराम ही रच सकते हैं। इतिहास निर्माता तो स्वामी चिदानन्द अनुभवानन्द जी थे, जिन्हें पद प्रेमियों ने बिसार दिया है।

ब्रह्मकुमारियों के षड़यंत्र से सावधान – स्वामी पूर्णानन्द

ब्रह्मकुमारियों के षड़यंत्र से सावधान

– स्वामी पूर्णानन्द

लगभग 58 वर्ष पहले स्वामी पूर्णानन्दजी द्वारा लिखा गया यह आलेख आज भी हमें सावधान करता है।

-सपादक

सब हिन्दू धर्मावलबी सज्जनों की सेवा में निवेदन किया जाता है कि लगभग 2 वर्ष से मेरठ में ब्रह्माकुमारियों का एक गुप्त आंदोलन चल रहा है जो हिन्दू धर्म और हमारी संस्कृति के मौलिक सिद्धान्तों को जड़-मूल से उखाड़ कर फैंकने में प्रयत्नशील है, आर्य समाज इसको आशंका की दृष्टि से देखता है। दैवयोग से दिनांक 11.12.56 को हमें ब्रह्माकुमारियों की ओर से उनके एक उत्सव में समिलित होने का निमंत्रण मिला और साथ ही हमें यह आश्वासन भी मिला कि ब्रह्माक़ुमारियों के उपदेश के पश्चात् आप लोगों को शंका-समाधान के लिये समय दिया जायेगा।

हम सांय 6 बजे शर्मा स्मारक में पहुँच गये, जहाँ उनका उत्सव हो रहा था। हमने 2 घंटे तक उनके व्यायानों को सुना और व्यायान की समाप्ति पर शंका-समाधान के लिये समय माँगा, परन्तु उन्होंने उत्तर देना स्वीकार न किया और टाल दिया कि हमारा नियम बहस करने का नहीं। उनके इस व्यवहार से हमें निश्चय हो गया कि यह केवल एक षड़यत्र है, जिसके द्वारा हिन्दू देवियों को अपने पाखण्ड़ के जाल में फँसाना है, इसलिये हम हिन्दू भाई-बहनों को सावधान करते हैं कि वह इनके भुलावे में न आवें।

पोल खोलने हेतु उनकी पुस्तकों के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं-

20 वर्ष पूर्व सिंध के एक व्यक्ति लेखराज नेएक कीर्तन मण्डली बनाई, जिसमें केवल स्त्रियाँ ही जाती थी। वह कीर्तन मण्डली लेखराज के घर पर ही लगती थी। रात्रिभर कीर्तन और रासलीला होती थी। अपने पाखण्ड पर पर्दा डालने के लिये इस मण्डली का नाम ‘ओ3म् मण्डली’ रखा गया। जब लेखराज के पास पर्याप्त संया में कुँआरी कन्याएँ और विवाहिता स्त्रियाँ आने-जाने लगीं तो उसने कहना प्रारभ किया कि भगवान चतुर्भुज विष्णु ने मेरे अंदर प्रवेश किया है, मैं गोपीवल्लभ भगवान कृष्ण हूँ। इस महाघोर कलिकाल में पाप बहुत बढ़ रहे हैं, उनको मिटाने के लिये मेरे शरीर में भगवान का अवतरण हुआ है। अपने पास आने वाली कन्याओं और स्त्रियों को कहा कि तुम पूर्व जन्म की गोपियाँ हो, उनमें से एक को राधा बतलाया।

स्त्रियों को कहा कि तुहारे सबंधी (भाई, पति, माता, पिता इत्यादि) तुहारे विकारी सबंधी हैं, वे तुहारे वास्तविक सबंधी नहीं, वे तो तुहारे शत्रु हैं। वे कंस और जरासंध हैं जो तुहें गृहस्थ रूपी जेल में रखना चाहते हैं। तुहारा नित्य सबंध तुहें मेरे पास आने से रोकें तो मत मानों। लेखराज के इस प्रचार का यहा प्रभाव हुआ कि बहुत सारी कुँआरी कन्याओं और स्त्रियों ने अपने सबंधियों की मार्यादाओं के अंदर रहने से इंकार कर दिया। इससे सिंध की हिन्दू जनता कुलबुला उठी।

उन कन्याओं के वारिसों ने लेखराज के ऊपर मुकदमा चलाया, जिसके फलस्वरूप न्यायालय ने लेखराज को अपराधी ठहरा कर जेल भेज दिया और सरकार ने ओ3म् मण्डली पर प्रतिबंध लगा दिया। जेल से छूटने के पश्चात् लेखराज कराँची से भागकर भारत में आ गया और माउंटआबू पर अपना अड्डा बनाकर उसी मण्डली का नाम बदल कर राजस्व अश्वमेघ अविनाशी ज्ञानयज्ञ रखा।

इस मण्डली में इस समय 55 स्त्रियाँ और 68 कन्याएँ हैं जो अपने माता-पिता और भाई-बंधुओं को छोड़कर अपने घरों से भाग आई हैं। इन्होंने 14 बड़े-बड़े नगरों में अपने केन्द्र खोले हुए हैं। एक-एक केन्द्र में कई-कई स्त्रियाँ रहती हैं। हिन्दुओं को धोखें में डालने के लिये इन स्त्रियों का नाम ब्रह्माकुमारियाँ रखा हुआ है। वे लोगों के घरों में जाती हैं और नौजवान स्त्रियों को सजबाग दिखा कर अपने काबू में कर लेती हैं।

शुरू-शुरू में भगवान कृष्ण आदि हिन्दू देवताओं का नाम लेकर और श्रीमद्भगवद्गीता की बातें सुना कर उन पर यह प्रभाव डालती हैं कि हम भी हिन्दू ही हैं और हम तुम लोगों को सहज योग सिखाती हैं। परंतु आहिस्ता-आहिस्ता जब स्त्रियाँ इनके जाल में फँस जाती हैं तो हिन्दू धर्म और उसके धार्मिक ग्रंथों-यथा वेद, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, स्मृतियाँ, पुराण, इतिहास और दर्शन शास्त्रों की निंदा करने लगती हैं। वे हिन्दुओं की भक्ति, पूजा-पाठ, जप-तप, यम-नियम, संध्या और गायत्री को झूठा बतलाती हैं और कहती हैं कि लेखराज का ध्यान करने से ही इस लोक और परलोक की सिद्धि हो सकती है और यह कि लेखराज ही परम पिता परमात्मा त्रिमूर्ति भगवान शिव हैं।

उनकी पुस्तकों के कुछ उदाहरण पाठकों की जानकारी के लिये नीचे दिये जाते हैंः-

  1. 1. ‘घोरकलहयुग विनाश’ नाम की पुस्तक के पृष्ठ-12 पर लिखा है कि ‘‘बुतपरस्त हिन्दू कहलाने वाली कौम व्याभिचारी भक्तिमार्ग में फंस कर इतनी बुतपरस्त बन गई है कि अपने शास्त्रों में अपने देवताओं के अनेक मनोमय चित्र बनाकर उन्हें कलंकित किया है। वे अपने शास्त्रों में लिखते हैं कि ब्रह्मा अपनी बेटी सरस्वती पर मोहित हुआ, शिव मोहनी के ऊपर मोहित होकर उसके पीछे पड़ा।’’
  2. 2. इसी पुस्तक के पृष्ठ – 13 पर लिखा है- ‘‘वास्तव में परमात्मा का अवतार एक ही है, जो कल्प-कल्प के संगम पर एक ही बार भारतवर्ष में साधारण स्वरूप में बूढ़े तन (लेखराज के बूढ़े शरीर) में गुरु ब्रह्मा नाम से प्रत्यक्ष होता है, न कि अनेक रूपों से अनेक बार, जैसा कि मूढ़मति हिन्दू लोग शास्त्रों में दिखाते हैं।’’
  3. 3. फिर उसी पृष्ठ पर लिखा है- ‘‘हिन्दू लोगों के बड़े-बड़े गुरु, विद्वान, आचार्य, पण्डित इत्यादि इतना भी नहीं जानते कि गीता में जो महावाक्य नूधे हैं, वे किसके हैं और भागवत में किसका चरित्र गाया गया है। वे समझते हैं कि गीता श्रीकृष्ण ने उच्चरण की है और भागवत मेंाी श्री कृष्ण का जीवन चरित्र नूधा हुआ है, जिस कारण ‘कृष्णम् वंदे जगत् गुरूम्’ गाते हैं, यह इनकी बड़ीाारी भूल है।’’………श्रोमणी भगवद्गीता से हम सिद्ध कर सकते हैं कि गीता में श्रीकृष्ण के महावाक्य नहीं हैं, बल्कि परमात्मा त्रिमूर्ति गुरु ब्रह्मा (लेखराज) के महावाक्य हैं।
  4. 4. ‘‘रामायण भी श्रीरामचन्द्र का जीवन-चरित्र सिद्ध नहीं करती।…. वास्तव में रामायण तो एक नावल (उपन्यास) है, जिसमें तो एक सौ एक प्रतिशत मनोमय गपशप डाला गया है।’’-उसी पुस्तक का पृष्ठ-14
  5. 5. फिर उसी पुस्तक के पृष्ठ-16 पर लिखा है-‘‘पिता श्री परमात्मा गुरु ब्रह्मा की कल्प पहले वाली गाई गीता में महावाक्य है कि भक्तिमार्ग के अनेक प्रयत्न जैसे कि वेद अध्ययन,यज्ञ, जप, तप, तीर्थ, व्रत, नियम, दान, पुण्य,संध्या, गायत्री, मूर्तिपूजा, प्रार्थना इत्यादि करने से मैं नहीं मिलता।’’
  6. 6. ‘ब्रह्माकुमारियों की संस्था का परिचय’ नाम की पुस्तक में लिखा है- ‘‘भागवत प्रसिद्ध गोपियाँ श्री ब्रह्मा की हैं न कि श्रीकृष्ण की।’’-पृष्ठ 4
  7. 7. श्रीकृष्ण को योगीराज अथवा जगत्गुरु अथवा जगत्पिता नहीं कहा जा सकता…श्री कृष्ण सृष्टि को ज्ञान नहीं देते।’’-पृष्ठ-6
  8. 8. ‘घोर कलहयुग विनाश’ में लिखते हैं -‘‘हर एक नर-नारी अपने से पूछे कि मैं अपने परमपिता निराकार परमात्मा और साकार ईश्वर पिता गुरु ब्रह्मा और मातेश्वरी श्री सरस्वती आदम और बीवी (हव्वा) के नाम, रूप निवास-स्थान और अवतार धारण करने के समय को जानता हूँ।’’-पृष्ठ – 1
  9. 9. उसी में लिखा है -‘‘जो साकार विश्वपिता आदिदेव त्रिमूर्ति गुरु ब्रह्मा, दैवी पिता इब्राहिम, बुद्ध और क्राइस्ट हैं जो हर एक कल्प-कल्प अपने-अपने समय पर अपने-अपने वारिसों सहित अपना-अपना देवी-देवता इस्लामी, बौद्ध और क्रिश्चियन घराना स्थापन करने अर्थ निमित बने हुए हैं।’’- पृष्ठ -2

पाठक इस थोड़े से लेख से समझ सकते हैं कि हिन्दुओं को अपने स्वधर्म से भ्रष्ट करने के लिये ब्रह्माकुमारियों का यह कितना भयंकर षड़यंत्र रचा हुआ है, इसलिये हिन्दुमात्र से सानुरोध निवेदन है कि आगामी विनाश को दृष्टि में रखकर भेड़ों की खाल में ढकी हुई इन भेड़िनों को अपने घरों में आने से सर्वथा रोक दें और अपने स्त्री-बच्चों को इनकी काली करतूतों से परिचित करा देवें। इनके विशेष परिचय के लिये शीघ्र ही और साहित्य आपकी सेवा में प्रस्तुत किया जायेगा।

संकलन – डॉ. वीरोत्तम तोमर,

सौजन्य से-आर्यशिखा स्मारिका, नवबर-2014 मेरठ शहर

वैदिक पशुबन्ध इष्टि (यज्ञ) का वैज्ञानिक विवेचन (एक संक्षिप्त नोट) – डॉ. पुष्पा गुप्ता

 

श्री आर.बी.एल. गुप्ता बैंक में अधिकारी रहे हैं। आपकी धर्मपत्नी डॉ. पुष्पा गुप्ता अजमेर के राजकीय महाविद्यालय संस्कृत विभाग की अध्यक्ष रहीं हैं। उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से आपकी वैदिक साहित्य में रुचि हुई, आपने पूरा समय और परिश्रम वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगा दिया, परिणामस्वरूप आज वैदिक साहित्य के सबन्ध में आप अधिकारपूर्वक अपने विचार रखते हैं।

आपकी इच्छा रहती है कि वैज्ञानिकों और विज्ञान में रुचि रखने वालों से इस विषय में वार्तालाप हो। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर इस वर्ष वेदगोष्ठी में एक सत्र वेद और विज्ञान के सबन्ध में रखा है। इस सत्र में विज्ञान में रुचि रखने वालों के साथ गुप्त जी अपने विचारों को बाँटेंगे। आशा है परोपकारी के पाठकों के लिए यह प्रयास प्रेरणादायी होगा।

-सपादक

वैदिक पशुबन्ध इष्टि को लेकर भारतीय समाज में अनेक मिथ्या भ्रांतियां उत्पन्न हो गई है।

‘‘वैदिक यज्ञों में पशुओं की बलि दी जाती थी’’ यह सर्वथा मिथ्या भाषण प्रचारित हो रहा हैं।

सर्वप्रथम इस बात को समझना आवश्यक है- ये सृष्टि में होने वाले यज्ञ हैं जो महाप्रलय/प्रलय की अवस्था में प्रजापति द्वारा प्रारभ किये गये थे। महाप्रलय की वैज्ञानिक स्थिति क्या होगी? नासदीय सूक्त उस स्थिति को बता रहा है परन्तु हमारी वैज्ञानिक दृष्टि न होने से हम उस स्थिति की ठीक से कल्पना नहीं कर पा रहे हैं। सलिल अवस्था का अर्थ है- जिसमें सब कुछ लीन हो गया था अर्थात् भौतिक सृष्टि बिल्कुल नष्ट हो गई थी तथा सब कुछ आग्नेय स्थिति में था – करोड़ों डिग्री के तापमान पर केवल ऊर्जा ही ऊर्जा (Heat Energy)थी। सब कुछ ऊर्जा द्वारा ही व्याप्त था इससे इसे आपः अवस्था भी कहा गया। सलिल तथा आपः का अर्थ जल ले लिया जाता है जो कि पूर्णतया मिथ्या अर्थ है।

आधिभौतिक सृष्टि के प्रारंभ करने का मूल सिद्धांत है करोड़ों डिग्री के तापमान में व्याप्त ऊर्जा को संहित कर(Condensation Process) विभिन्न प्रकार की तरंगों एवं मूल भौतिक कणों में परिवर्तित करना तथा परमाणुओं का निर्माण करना। इतने अधिक तापमान पर क्या कोई पशु – अश्व, ऋषभ, गौ आदि हो सकते हैं?

पशु क्या है? शतपथ ब्राह्मण 6.2.1.2-4 के अनुसार अग्नि ने 5 पशुओं – पुरुष, अश्व, गौ, अवि, अज को देखा। यत् पश्यति तस्मात् पशवः। प्रजापति ने इन 5 पशुओं को अग्नि में देखा आश्चर्य है कि ब्राह्मण वचनों पर ध्यान दिये बिना हमने पशुओं का अर्थ आज के लौकिक प्रचलित शदों के आधार पर करके कितना बड़ा अनर्थ कर दिया है?

पशुबन्ध का अर्थ होगा- पशु का बन्धन- पशु को बांधना(Bonding of Animal) – आश्चर्य है कि पशु बन्ध को – पशुवध कहके  बहुत ही सरल हास्यास्पद अर्थ कर दिया गया- पशु का वध करना (Killing of Animal)यही अर्थ वैदिक पशु बन्ध यज्ञ के यथार्थ अर्थ को न समझने के कारण भ्रांतियां पैदा कर रहा है। कुछ ब्राह्मणों / विद्वानों ने – पशुबन्ध के स्थान पर पशुवध करके वेदों के वास्तविक अर्थ का अनर्थ ही कर दिया ।

पचति क्रिया का अर्थ कर दिया पशु को पकाना परंतु यह तात्पर्य यहाँ नहीं हैं। पचति का अर्थ पचाना किसको? करोड़ों डिग्री की ऊर्जा को संहित करना। अश्व का अर्थ अश्नुते अर्थात् व्याप्त करना। पुरुष – जो पुर में शयन करता है। अर्थात् जो भी भौतिक कण या तरंग का निर्माण होगा उसका केन्द्रीय बिन्दु। गौ गति का प्रतीक है। अवि रक्षा करने के अर्थ में है। अज अजन्मा((Heat Energy)है। प्रजापति ने इन 5 पशुओं को अर्थात् 5 गुण धर्मों को अग्नि में देखा।

शमिता से अभिप्राय है शमन करने वाला। त्वष्टा रूप अग्नि ही शमिता है जो पशुओं को तराश करके एक निश्चित रूप (आकृति) में लाता है – अत्यधिक ताप की ऊर्जा का शमन करते हुए, काट-छाँट कर एक निश्चित प्रकार की प्रकाश तरंग को बनाना। ब्राह्मण वचन है- पशु अग्नि है , पशु छंद है। छंद अर्थात् तरंग(ङ्खड्डक्द्ग)। वैज्ञानिक दृष्टि से एक निश्चित प्रकाश तरंग को 5 गुणों से जाना जाता है –

(1) तरंग दैर्घ्य (Wave Length) (2) तरंग का विस्थापन (Amplitude) (3) आवृत्ति (Frequency) (4) काल (Time Period) (5) वेग (Velocity) ये 5 अवयव (गुणधर्म)ही एक तरंग का निर्धारण करते हैं। पशु बन्ध प्रक्रिया में कुल 11 पशुओं का उल्लेख पशु एकादशिनी के रूप में मिलता है। अर्थात् सृष्टि करते समय प्रजापति ने 11 प्रकार की तरंगों का निर्माण किया था।

शमिता द्वारा विशसन करने का अर्थ – पशु को मारना नहीं है अपितु अग्नि को संहित एवं शमित करते हुए – पशु रूप (छंदरूप) तरंग को  निश्चित आकृति प्रदान करना है।

पशु का संज्ञपन करना – सं ज्ञपन- सयक् रूप से पशु को पहचान लेना अर्थात् जिस प्रकार की आकृति प्रजापति पशु की चाहता था, वह आकृति बन गयी है।

पशु बन्ध प्रक्रिया में आप्री सूक्त का पाठ किया जाता है। अर्थात् प्रजापति की ‘‘रिरिचान् इव आत्मा’’ को आप्यातित करना। अन्त में स्वाहकृत आहुति दी जाती है। स्वाहकृत प्रतिष्ठा है। स्वाहकृत का तात्पर्य है कि – ‘‘सु आहुतं हविः जुहोति’’। तात्पर्य यह है कि प्रजापति जिस प्रकार की तरंग (पशु) का निर्माण करना चाहता था वह कार्य पूरा हो गया।

पशु बन्ध में चार प्रकार की आहुतियाँ दी जाती हैं – (1) वपा आहुति (2) आज्य आहुति (3) अग्नया आहुति (4) सोम आहुति। वपा रेतः रूप है। आज्य देवों का प्रिय धाम हैं। पशु आज्य हैं। रेतः आज्य है। अनेक ब्राह्मण वचन स्पष्ट बताते हैं कि आज्य का, घृत का, हवि के जो प्रचलित अर्थ है, वह वैदिक अर्थ नहीं हो सकता । आज्य, घृत, हवि, पयः, मधु आदि जितने भी शद वेदों में प्रयुक्त हैं – जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है – ये विभिन्न प्रकार के अत्यधिक लघु मात्रा में अग्नि को संहित एवं शमित कर बनाये गये भौतिक कण ((Quantas, Photones)  हैं जो दशपूर्णमास, चार्तुमास्य यज्ञ प्रक्रियाओं में निर्मित किये गये थे।

अग्नि एवं सोम – उष्णता एवं शीत के प्रतीक हैं। करोड़ों डिग्री तापमान पर जब ऊर्जा संहित हुई तो जो स्थान ऊष्मा के संहित होने से खाली हो गया वह स्थान सोमात्मक अर्थात् उस तापमान की तुलना में काफी ठण्डा हो गया। एक उदाहरण – दस करोड़ डिग्री तापमान पर, एक लाख घन मीटर ऊर्जा (Heat Energy) को यदि संहित करके – एक घन मीटर में इकट्ठा कर दिया जाये तो 99 हजार घन मीटर आकाश रिक्त हो जायेगा – सोमात्मक हो जायेगा तथा संहित ऊर्जा को और आगे संहित करेगा तथा शम् करेगा अर्थात् तापमान क ो कम करेगा।

इससे यह स्पष्ट है कि पशु बन्ध यज्ञ द्वारा प्रजापति ने 11 प्रकार के पशुओं अर्थात् तरंगों का निर्माण किया था। पशु को मारना या पशु की बलि देना यह एकदम मिथ्या है तथा वैदिक अर्थ के सर्वथा प्रतिकूल है।

– 176 आदर्श नगर, अजमेर

जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ

 

देश-विभाजन से बहुत पहले की बात है, देहली में आर्यसमाज

का पौराणिकों से एक ऐतिहासिक शास्त्रार्थ हुआ। विषय था-

‘अस्पृश्यता धर्मविरुद्ध है-अमानवीय कर्म है।’

पौराणिकों का पक्ष स्पष्ट ही है। वे छूतछात के पक्ष पोषक थे।

आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री रामचन्द्रजी देहलवी ने वैदिक

पक्ष रखा। पौराणिकों की ओर से माधवाचार्यजी ने छूआछात के

पक्ष में जो कुछ वह कह सकते थे, कहा।

माधवाचार्यजी ने शास्त्रार्थ करते हुए एक विचित्र अभिनय

करते हुए अपने लिंग पर लड्डू रखकर कहा, आर्यसमाज छूआछात

को नहीं मानता तो इस अछूत (लिंग) पर रखे  इस लड्डू

को उठाकर खाइए।

 

इस पर तार्किक शिरोमणि पण्डित रामचन्द्र जी देहलवी ने

कहा, ‘‘चाहे तुम इस अछूत पर लड्डू रखो और चाहे इस ब्राह्मण

(मुख की ओर संकेत करते हुए कहा) पर, मैं लड्डू नहीं खाऊँगा,

परन्तु एक बात बताएँ। जाकर अपनी माँ से पूछकर आओ कि तुम

इसी अछूत (लिंग) से जन्मे हो अथवा इस ब्राह्मण (मुख)

से?’’

 

पण्डित रामचन्द्रजी देहलवी की इस मौलिक युक्ति को सुनकर

श्रोता मन्त्र-मुग्ध हो गये। आर्यसमाज का जय-जयकार हुआ। पोंगा

पंथियों को लुकने-छिपने को स्थान नहीं मिल रहा था। इस शास्त्रार्थ

के प्रत्यक्षदर्शी श्री ओमप्रकाश जी कपड़ेवाले मन्त्री, आर्यसमाज नया

बाँस, दिल्ली ने यह संस्मरण हमें सुनाया। अन्धकार-निवारण के

लिए आर्यों को  क्या क्या  सुनना पड़ा।

 

पुराणों के अग्राह्य विधानों पर स्वामी दयानन्द व स्वामी वेदानन्द के उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य का जीवन सत्य व असत्य को जानकर सत्य का पालन व आचरण करने तथा असत्य का त्याग करने का नाम है। परमात्मा ने मनुष्यों को वेदों का ज्ञान व बुद्धि सत्यासत्य के निर्णयार्थ वा विवेक के लिए ही दी है जिसका सभी को सदुपयोग करना चाहिये। जो नहीं करता वह मनुष्य संज्ञक कहलाने का अधिकारी नहीं है। सच्चे साधु, महात्मा, ऋषि व महर्षि सदा से अल्प बुद्धि व अविवेकी लोगों को अपने ज्ञान व अनुभवों से लाभान्वित करते चले आ रहे हैं। महर्षि दयानन्द व उनके शिष्य स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने भी इस परम्परा का निर्वाह किया है। आज इस लेख में स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का उपदेश प्रस्तुत है। वह कहते हैं कि ‘‘शैवों को पूर्ण निष्ठावान् शैव बनने के लिए अनेक व्रतोपवास करने पड़ते हैं। शैवों को ही क्यों , वैष्णव आदि सम्प्रदायों में भी व्रतोपवास का माहात्मय बहुत अधिक है। सच पूछो तो इन मतों के आचार्यों ने ऐसी व्यवस्था बांध दी है कि वर्ष के (365) दिनों से भी अधिक उपवास के दिन हैं। एकादशी का दिन तो सभी सम्प्रदायवालों (शैव, वैष्णव व अन्य) को उपवास के लिए इष्ट है। हां, कभी-कभी स्मार्तों (शैवों) तथा वैष्णवों की एकादशी का दिन एक नहीं होता। एक की दशमी तथा दूसरे की एकादशी, अर्थात् एक की एकादशी तो दूसरे की द्वादशी तिथि होती है। भाव यह है कि किस दिन एकादशी का व्रत होना चाहिए, इस विषय में भी यह साम्प्रदायिक परस्पर झगड़ा करते हैं। उसका स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थरत्न सत्यार्थप्रकाश में इस प्रकार चित्र खींचा है-‘देखों ! शिवपुराण में त्रयोदशी, सोमवार, आदित्यपुराण में रवि, चन्द्रखण्ड में सोमग्रहवाले मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु, केतु के, वैष्णव एकादशी, वामन की द्वादशी, नृसिंह वा अनन्त की चतुर्दशी, चन्द्रमा की पूर्णमासी, दिक्पालों की दशमी, दुर्गा की नवमी, वसुओं की अष्ठमी, मुनियों की सप्तमी, कार्तिक स्वामी की षष्ठी, नाग की पंचमी, गणेश की चतुर्थी, गौरी की तृतीया, अश्विनीकुमार की द्वितीया, आद्या देवी की प्रतिपदा, और पितरों की अमावस्या, पुराणरीति से ये दिन उपवास करने के हैं। और सर्वत्र यही लिखा है कि जो मनुष्य इन वार और तिथियों में अन्नपान ग्रहण करेगा, वह नरकगामी होगा। अब पोप और पोप जी के चेलों को चाहिए कि वे किसी वार अथवा किसी तिथि में भोजन करें, क्योंकि जो भोजन पान किया तो नरकगामी होंगे। अब निर्णय-सिन्धु, धर्मसिन्धु, व्रतार्क आदि ग्रन्थ जो कि प्रमादी लोगों के बनाये हैं उन्हीं में एक व्रत की ऐसी दुर्दशा की है कि जैसे एकादशी की शैव दशमीविद्धा, कोई द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं अर्थात् क्या बड़ी विचित्र पोपलीला है कि भूखे मरने में भी वादविवाद ही करते हैं। जिसने एकादशी का व्रत चलाया है उसमें उसका स्वार्थपन ही है और दया कुछ भी नहीं। वे कहते हैं-एकादश्यामन्ने पापानि वसन्ति अर्थात् जितने पाप हैं वे सब एकादशी के दिन अन्न में बसते हैं। इन पोप जी से पूछना चाहिए कि किसके पाप बसते हैं, तेरे व तेरे पिता आदि के? जो सब के सब पाप एकादशी में जा बसें तो एकादशी के दिन किसी को दुःख न रहना चाहिए। ऐसा तो नहीं होता, किन्तु उलटा क्षुधा आदि से दुःख होता है। दुःख पाप का फल है। इससे भूखे मरना पाप है। इसका बड़ा महात्म्य बतलाया है, जिसकी कथा बांच के बहुत ठगे जाते हैं। उसमें एक गाथा है कि–

 

‘‘ब्रह्मलोक में एक वेश्या थी। उसने कुछ अपराध किया। उसको शाप हुआ कि वह पृथिवी पर गिरे। उसने बहुत स्तुति की कि मैं स्वर्ग में क्योंकर आ सकूंगी? उसको कहा कि जब कभी एकादशी के व्रत का फल तुझे कोई देगा तभी तू स्वर्ग में आ जाएगी। वह विमान सहित किसी नगर में गिर पड़ी। वहां के राजा ने उससे पूछा कि तू कौन है? तब उसने सब वृत्तान्त सुनाया और कहा कि जो कोई मुझको एकादशी का फल अर्पण करे तो मैं फिर भी स्वर्ग को जा सकती हूं। राजा ने नगर में खोज कराई। कोई भी एकादशी का व्रत करनेवाला न मिला। किन्तु एक दिन किसी शूद्र स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई थी। क्रोध से स्त्री दिन-रात भूखी रही थी। दैवयोग से उस दिन एकादशी थी। उस स्त्री ने कहा कि मैंने एकादशी जानकर तो नहीं की, अकस्मात् उस दिन भूखी रह गई थी ऐसा (उसने) राजा के सिपाहियों से कहा। तब तो वे उसको राजा के सामने ले आये। उससे राजा ने कहा कि तू इस विमान को छू। उस स्त्री ने विमान को छुआ, उसके छूने से उसी समय विमान ऊपर को उड़ गया। यह बिना जाने एकादशी के व्रत का फल है। जो जान (कर के एकादशी का व्रत करे तो उसके) फल का क्या पारावार है।

 

”वाह रे आंख के अन्धे लोगो ! जो यह बात सच्ची हो तो हम एक पान की बीड़ी जो स्वर्ग में नहीं होती, वहां भेजना चाहते हैं। सब एकादशीवाले अपना फल हमें दे दो। जो एक पान का बीड़ा ऊपर को चला जाएगा तो पुनः लाखोंकरोड़ों पान वहां भेजेंगे और हम भी एकादशी किया करेंगे और जो ऐसा होगा तो तुम लोगों को इस भूखे मरनेरुप आपत्काल से बचावेंगे। (पुराणों में) इन चैबीस एकादशियों का नाम पृथक्-पृथक् रखा है। किसी का धनदा, किसी का कामदा, किसी का पुत्रदा, किसी का निर्जला। बहुत-से दरिद्र, बहुत-से कामी और बहुत-से निर्वंशी (अर्थात् बिना सन्तान वाले) लोग एकादशी करके बूढ़े हो गये और मर भी गये परन्तु धन, कामना और पुत्र प्राप्त न हुआ। और ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष में जिसमें यदि एक घड़ी भर जल न पावे तो मनुष्य व्याकुल हो जाता है और व्रत करनेवालों को महादुःख प्राप्त होता है। विशेष-बंगाल में सब विधवा स्त्रियों की एकादशी के दिन बड़ी दुर्दशा होती है। इस निर्दयी कसाई (व्रतों का विधान करने वाले) को लिखते समय कुछ भी मन में दया न आई। नहीं तो निर्जला का नाम सजला और पौष महीने के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम निर्जला रख देता तो भी कुछ अच्छा होता। परन्तु इस पोप को दया से क्या काम?‘ कोई जीवे या मरे, पोपजी का पेट पूरा भरो।’ किसी गर्भवती वा नवविवाहित स्त्री, लड़के व युवा पुरुषों को तो कभी उपवास न करना चाहिए, परन्तु किसी को करना भी हो तो जिस दिन अजीर्ण हो, क्षुधा न लगे उस दिन शर्करावत् शर्बत व दूध पीकर रहना चाहिए। जो भूख में नहीं खाते और बिना भूख के भोजन करते हैं, वे तीनों रोग-सागर में गोते खा दुःख पाते हैं। इन प्रमादियों (पुराणों में व्रतों के विधायकों) के कहने-लिखने का प्रमाण कोई भी न करे।” (सत्याथप्रकाश एकादश समुल्लास)

 

व्रत की निस्सारता दिखलानेवाला यह सन्दर्भ स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी ने ऋषि बोध कथा में प्रसंगानुसार उद्धृत किया है। पुराणों में जहां व्रतों के बारे में इस प्रकार की स्वास्थ्य के लिए हानिकर का अनावश्यक कष्टदायक अनैतिहासिक मिथ्या व कल्पित कथायें वर्णित हैं वहीं उसकी अन्य सभी मान्यतायें भी विवेकशील पाठकों के लिए विचारणीय हैं। किसी बात को बिना सत्यासत्य का विचार किये स्वीकार कर लेना बुद्धि का अपमान है। पुराणों की तरह अन्य मतों में भी अव्यवहारिक व अनुपयोगी नाना प्रकार के विधान हैं। सभी मतों के विवकेशील लोगों को उनका आचरण करने के पहले अनेक बार उनके औचीत्य पर विचार करना चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक पुराणों के उपर्युक्त विधानों को सत्यासत्य व गुणावगुण की कसौटी पर कर कर सत्य को ग्रहण कर उसका अपने जीवन में व्यवहार करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘संसार के सभी मनुष्यों के पूर्वज एक थे व वैदिक धर्मानुयायी थे’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

सृष्टि का यह अनिवार्य नियम है कि इसमें मनुष्य की उत्पत्ति वा जन्म माता-पिताओं से ही होता है। माता-पिता के बिना शिशु रूप में मनुष्य का जन्म असम्भव है। अतः इससे यह सिद्ध होता है मनुष्य के माता-पिता अवश्य होते हैं। इस सिद्धान्त के आधार पर मनुष्य के पूर्वज सृष्टि के आरम्भ काल से ही होते चले आ रहे हैं। आज हमें यह ज्ञात नहीं है कि तीन चार पीढ़ी पहले हमारे पूर्वज कौन-कौन थे, परन्तु यह सुनिश्चित है कि वह अवश्य थे। इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं सृष्टि से आरम्भ पूर्वजों की श्रृंखला कभी टूटी नहीं है। भविष्य में भी जो मनुष्य होंगे उनके माता-पिता अवश्य होंगे और आजकल के कोई न कोई मनुष्य ही उनके पूर्वज होंगे। इस सिद्धान्त को सम्मुख रखकर जब हम मत-मतान्तरों के इतिहास पर विचार करते हैं तो आज संसार के प्रमुख मतों सिख, इस्लाम, ईसाई, अद्वैतमत, बौद्ध, जैन, यहूदी व पारसी मत पर विचार करते हैं तो हमें लगता है कि इन-इन मतों की स्थापना से पूर्व इन मतों के पूर्वज कदापि इन मतों की मान्यताओं व सिद्धान्तों को मानने वाले लोग नहीं थे। उनका मत इनसे कुछ भिन्न अवश्य था जिस कारण इन मतों की स्थापना होकर यह अस्तित्व में आये हैं।

 

अब हम न मतों के पूर्वजों के भी पूर्वजों पर जब विचार करते हैं तो यह क्रम सृष्टि के आरम्भ पर जाकर समाप्त होता है। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने सृष्टि की रचना पूर्ण होने व इस पृथिवी का वातावरण मनुष्यों के अनुकूल व अनुरूप स्थिति में आने पर ही ईश्वर ने मनुष्यों को उत्पन्न किया था। तर्क, युक्ति व ऊहा से ज्ञात होता है कि यह सृष्टि ईश्वर ने अमैथुनी अर्थात् बिना माता-पिता के की थी। सभी मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न किये गये थे क्योंकि यदि शिशु रूप में होते तो उनके पालन करने के लिए माता-पिता की आवश्यकता होती और यदि वृद्धावस्था में ईश्वर इन्हें उत्पन्न करता तो फिर संसार का क्रम अवरुद्ध हो जाता। अतः यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि सृष्टि की आदि में ईश्वर द्वारा की गई दैवीय सृष्टि अमैथुनी थी और उन मनुष्यों का माता-पिता व आचार्य ईश्वर ही था। इससे यह निष्कर्ष सामने आते हैं कि ईश्वर ने अत्यन्त सूक्ष्म प्रकृति के परमाणुओं से इस ब्रह्माण्ड व सृष्टि की रचना की, उसके बाद जंगम अर्थात् प्राणि-जगत पशु-पक्षी-कीट-पतंग-थलचर-जलचर सभी को उत्पन्न किया और ईश्वर की इस क्रम की अन्तिम रचना मनुष्यों की उत्पत्ति थी। सृष्टि की रचना से ईश्वर ज्ञानवान वा सर्वज्ञ सिद्ध होता है। अतः उसके द्वारा मनुष्यों को ज्ञान मिलता सम्भव कोटि में आता है। अतः सृष्टि के आदि काल में सभी मनुष्यों का माता-पिता सहित विद्या का दान देने वाला आचार्य भी ईश्वर ही होता है। इसी बात को योगदर्शन के ऋषि पतंजलि ने भी स्वीकार किया है। ईश्वर ने सृष्टि की आदि में मनुष्यों को किस प्रकार का ज्ञान दिया था? इस पर विचार करने और शास्त्रों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह ज्ञान वेद था अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार यह ज्ञान क्रमशः अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नाम के चार ऋषियों को दिया गया था जिन्होंने इसका अन्य सभी मनुष्यों, स्त्री व पुरुषों में प्रचार किया। यह परम्परा 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार एक सौ पन्द्रह वर्ष पूर्व सृष्टि के आदि काल से आरम्भ होकर लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत काल तक विद्यमान रही। इसको विस्तार से जानने के लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं इतर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया जाना अपेक्षित है।

 

हमारे बहुत से बन्धु यह भी प्रश्न कर सकते हैं कि जब संसार के सभी मनुष्यों का आदि स्थान प्राचीन आर्यावत्र्त भारत का तिब्बत स्थान था और उनकी भाषा एक संस्कृत थी तो फिर संसार की अलगअलग भाषायें क्यों हैं? इसका कारण विचार करने पर भिन्न-भिन्न देशों की भौगोलिक स्थिति, वहां के शब्दोच्चारण में भेद, काल की दूरी, परस्पर के संबंधों में देश व काल की दूरी की शिथिलता आदि अनेक कारण हैं। हम यह भी देखते हैं कि उत्तराखण्ड व निकटवर्ती राज्यों के ही गढ़वाल, कुमायु, जौनसार, सहारनपुर, पंजाब, हरियाणा व हिमाचल में भिन्न भिन्न प्रकार की बोलियां बोली जाती हैं। हमारे अपने एक देश भारत में ही एक सौ से अधिक बोलियां व भाषायें बोली जाती हैं। हमारे परिवार का ही यदि कोई व्यक्ति विदेश चला जाता है, वहां रहता है, एक दो पीढि़यां वहां उत्पन्न होती हैं, वह जब अपने परिवार सहित भारत आते हैं तो वह सहज रूप से अपने माता-पिता व भारत में अपने परिवार की भाषा बोलने में असहज होते हैं। हमने देहरादून के रैफल होम में विदेशी बन्धुओं को यहां के स्थानीय बच्चों के साथ सम्पर्क अर्थात् बातचीत करते हुए देखा है। विदेशी यद्यपि अपने देश की भाषा बोलते हैं परन्तु फिर भी बच्चे उसे ध्यान से सुनते हैं और किसी रोचक प्रसंग के आने पर दोनों ही खिलाखिला कर हंस भी पड़ते हैं। हमें लगता है कि जब आत्मा से कोई बात कही जाती है तो उस भाषा से इतर भाषी लोग जानने की इच्छा से उस बोलने वाले वक्ता के कुछ व अधिक आशय व अभिप्राय को अपनी क्षमतानुसार समझ जाते हैं। अतः मनुष्यों के दूर-दूर देशों में जाकर बसने, वहां की भौगोलिक स्थिति व नई पीढि़यों के उच्चारण आदि में कुछ भेद होने तथा संगति के कारण भाषायें बनती बिगड़ती रहती हैं। भाषा के आधार पर यह नहीं कह सकते कि हमारे आदि प्राचीन पूर्वज एक नहीं थे।

 

इस सम्बन्ध में यह विचार करना भी आवश्यक है कि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने मनुष्यों की उत्पत्ति किसी एक ही स्थान पर की व एक से अधिक स्थानों पर की? उपलब्ध प्रमाण, तर्क व युक्ति से यह एक स्थान पर हुई ही सिद्ध होती है। प्राचीन शास्त्रों के प्रमाणों से यह स्थान तिब्बत सिद्ध होता है। महर्षि दयानन्द ने भी अपने जीवनकाल (1825-1883) में देश भर में उपलब्ध प्रायः समस्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था जिसका निष्कर्ष था कि मनुष्यों की उत्पत्ति 1,96,08,53,115 (यह गणना वर्तमान समय 13 दिसम्बर, 2015 की है) हुई थी। इस प्रमाण का विरोधी कोई पुष्ट प्रमाण न होने के कारण संसार के सभी लोगों के लिए यही मान्यता स्वीकार करने योग्य है। तिब्बत में बड़ी संख्या में स्त्री व पुरुषों की उत्पत्ति होने व ऋषियों को चार वेदों का ज्ञान मिलने, उन ऋषियों द्वारा उस ज्ञान का ब्रह्मा आदि ऋषियों व सभी मनुष्यों में प्रचार करने से सृष्टि का क्रम विगत 1 अरब 96 करोड़ वर्षों में निरन्तर आगे बढ़ता रहा है। आरम्भ के कुछ काल व कुछ पीढि़यों तक लोग तिब्बत में रहे। उनमें से कुछ जिजीविषा व परस्पर के अच्छे-बुरे संबंधों के कारण समय-समय पर नये स्थानों की खोज कर वहां जाकर बसते रहे। इसी प्रकार से यह सारा संसार बसा व आबाद हुआ है। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। मनुष्यों का परस्पर स्वभाव भी भिन्न-भिन्न होता है। बहुत से यायावर प्रकृति के भी होते हैं जो नय-नये स्थानों पर आने व जाने की रूचि वाले होते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी किसी शास्त्र व ग्रन्थ के आधार पर पूना में सन् 1874 में दिये अपने प्रवचनों में यह बताया था कि अति प्राचीन काल में आदि मनुष्य आर्यों ने विमानों का निर्माण कर लिया था। वह विमान में अपने कुछ मित्रों के साथ देश-देशान्तरों में भ्रमण किया करते थे। उनकों जहां कोई स्थान पसन्द आ जाता तो अपने परिवार व इष्ट-मित्रों को वहां ले जाकर बसा देते थे। उनके अनुसार इस प्रकार से ही संसार बसा है। युक्तियों से भी यही सिद्ध होता है। यह सिद्धान्त मान्यता पूर्णतया तर्क पर आधारित है। अकाट्य तर्क ही सत्य होता है, अतः इस मान्यता के सत्य होने में किसी सन्देह का कोई कारण नहीं है।

 

इस लेख के माध्यम से हमारा यह निवेदन है कि इस तथ्य को सभी मत-मतान्तरों के वर्तमान आचार्यों व उनके अनुयायियों को जानना व समझना चाहिये। यह जानकर कि संसार के हम सभी लोगों के पूर्वज वैदिक धर्मी आर्य थे हमें परस्पर एक दूसरे से प्रे़म व मित्रता पूर्वक एक परिवार की ही तरह व्यवहार करना चाहिये। वैदिक संस्कृति के पूर्वजों ने वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात् सारा विश्व एक परिवार है, कहकर भी इसी तथ्य को प्रस्तुत किया है। क्या वर्तमान समय में प्रचलित सभी मत-मतान्तरों किंवा धर्म व धर्मों के आचार्य इस तथ्य को स्वीकार कर परस्पर भगिनी-बन्धु, मित्र व एक परिवार जैसा व्यवहार करने पर विचार करेंगे और इसकी शिक्षा अपने अपने मत के अनुयायियों को देंगे जिससे विश्व से सर्वत्र अशान्ति व दुःख दूर होकर सुख व शान्ति का वातावरण बन कर सभी के जीवन परस्पर हितकारी व कल्याणीकारी हो सकें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121