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अवतारवाद पर उपाध्यायजी का मौलिक तर्कः

अवतारवाद पर उपाध्यायजी का मौलिक तर्कः

परोपकारी में मान्य सत्यजित् जी तथा श्रीमान् सोमदेव जी समय-समय पर शंका समाधान करते हुए बहुत पठनीय प्रमाण व ठोस युक्तियाँ देते रहे हैं। मान्य श्री सोमदेव जी तथा अन्य वैदिक विद्वानों से निवेदन किया था कि भविष्य में अपने पुराने पूजनीय विचारकों, दार्शनिकों का नाम ले लेकर उनके मौलिक चिन्तन व अनूठे तर्कों का आर्य जनता को लाभ पहुँचायें। इससे अपने पूर्वजों से नई पीढ़ियों को प्रबल प्रेरणा प्राप्त होगी। आज अवतारवाद विषयक पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय का एक सरल परन्तु अनूठा तर्क दिया जाता है।

किसी वस्तु में जब परिवर्तन होता है, तो वह पहले से या तो उन्नत होती है, बढ़िया बन जाती है और या फिर उसमें ह्रास होता है। वह पहले से घटिया हो जाती है। इसके नित्य प्रति हमें नये-नये उदाहरण मिलते हैं। शिशु से बालक, बालक से जवान और जवानी से बुढ़ापा-सब इस नियम के उदाहरण हैं। घर का सामान टूटता-फूटता है, मरमत होती है, तो दोनों प्रकार के उदाहरण मिल जाते हैं।

परमात्मा जब अवतार लेता है, तो अवतार धारण करके वह प्रभु पहले से बढ़िया बन जाता है, अथवा कुछ बिगड़ जाता है। दोनों स्थितियाँ तो हो नहीं सकतीं। पहले की स्थिति रह नहीं सकती। कुछ भी हो, प्रत्येक स्थिति में वह प्रभु पूर्ण परमानन्द तो नहीं कहा जा सकता। प्रभु अखण्ड एक रस तो न रहा। यह तर्क इस लेखक ने आज से 61 वर्ष पूर्व पढ़ा था। कभी कोई अवतारवादी इसके सामने नहीं टिक पाया।

कोई 45 वर्ष पूर्व केरल के कोचीन नगर में इस सेवक को व्यायान देना था। केरल के स्वामी दर्शनानन्द जी तब युवा अवस्था में थे। वह श्रोता के रूप में व्यायान सुन रहे थे। अवतारवाद को लेकर तब एक तर्क यह दिया कि राम, कृष्ण आदि सभी अवतार भारत में ही आये हैं। जर्मनी, इरान, जापान, मिस्र, सीरिया व अरब आदि देशों में आज तक कोई अवतार नहीं आया। जब-जब धर्म की हानि होती है और पाप बढ़ता है, भगवान् अवतार लेते हैं। अवतारवाद के इतिहास से तो यह प्रमाणित होता है कि भारत ऋषि भूमि-पुण्य भूमि न होकर पाप भूमि है। क्या यह कोई गौरव की बात है? जापान पर दो परमाणु बम गिराये गये। लाखों जन क्षण भर में मर गये। भगवान् ने वहाँ अवतार लिया क्या? भारत का विभाजन हुआ। लाखों जन मारे गये। कोई अवतार प्रकट हुआ? यह तर्क  सुनकर पीछे बैठे स्वामी श्री दर्शनानन्द जी फड़क उठे। वह दृश्य आज भी आँखों के सामने आ जाता है।

माई भगवती जीः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माई भगवती जीः ऋषि के पत्र-व्यवहार में माई भगवती जी का भी उल्लेख है। ऋषि मिशन के प्रति उनकी सेवाओं व उनके जीवन के बारे में अब पंजाब में ही कोई कुछ नहीं जानता, शेष देश का क्या कहें? पूज्य मीमांसक जी की पादटिप्पणी की चर्चा तक ही हम सीमित रह गये हैं। पंजाब में विवाह के अवसर पर वर को कन्या पक्ष की कन्यायें स्वागत के समय सिठनियाँ (गन्दी-गन्दी गालियाँ) दिया करती थीं। वर भी आगे तुकबन्दी में वैसा ही उत्तर दिया करता था। आर्य समाज ने यह कुरीति दूर कर दी। इसका श्रेय माता भगवती जी की रचनाओं को भी प्राप्त है। मैंने माताजी के ऐसे गीतों का दुर्लभ संग्रह श्री प्रभाकर जी को सुरक्षित करने के लिये भेंट किया था।

मैं नये सिरे से महर्षि से भेंट की घटना से लेकर माताजी के निधन तक के अंकों को देखकर फिर विस्तार से लिखूँगा। जिन्होंने माई जी को ‘लड़की’ समझ रखा है, वे मीमांसक जी की एक टिप्पणी पढ़कर मेरे लेख पर कुछ लिखने से बचें तो ठीक है। कुछ जानते हैं तो प्रश्न पूछ लें। पहली बात यह जानिये कि माई भगवती लड़की नहीं थी। ‘प्रकाश’ में प्रकाशित उनके साक्षात्कार की दूसरी पंक्ति में साक्षात्कार लेने वालों ने उन्हें ‘माता’ लिखा है। आवश्यकता पड़ी तो नई सामग्री के साथ साक्षात्कार फिर से स्कैन करवाकर दे दूँगा। श्रीमती व माता शदों के प्रयोग से सिद्ध है कि उनका कभी विवाह अवश्य हुआ था।

महात्मा मुंशीराम जी ने उनके नाम के साथ ‘श्रीमती’ शद का प्रयोग किया है। इस समय मेरे सामने माई जी विषयक एक लोकप्रिय पत्र के दस अंकों में छपे समाचार हैं। इनमें किसी में उन्हें ‘लड़की’ नहीं लिखा। क्या जानकारी मिली है- यह क्रमशः बतायेंगे। ऋषि के बलिदान पर लाहौर की ऐतिहासिक सभा में (जिसमें ला. हंसराज ने डी.ए.वी.स्कूल के लिए सेवायें अर्पित कीं) माई जी का भी भाषण हुआ था। बाद में माई जी लाहौर, अमृतसर की समाजों से उदास निराश हो गईं। उनका रोष यह था कि डी.ए.वी. के लिए दान माँगने की लहर चली तो इन नगरों के आर्यों ने स्त्री शिक्षा से हाथाींच लिया। माता भगवती 15 विधवा देवियों को पढ़ा लिखाकर उपदेशिका बनाना चाहती थी, परन्तु पूरा सहयोग न मिलने से कुछ न हो सका।

माई जी ने जालंधर, लाहौर, गुजराँवाला, गुजरात, रावलपिण्डी से लेकर पेशावर तक अपने प्रचार की धूम मचा दी थी। आर्य जन उनको श्रद्धा से सुनते थे। उनके भाई श्री राय चूनीलाल का उन्हें सदा सहयोग रहा। ‘राय चूनीलाल’ लिखने पर किसी को चौंकना नहीं चाहिये। जो कुछ लिखा गया है, सब प्रामाणिक है। माई जी संन्यासिन नहीं थीं। उनके चित्र को देखकर यहा्रम दूर हो सकता है। वह हरियाना ग्राम की थीं, न कि होशियारपुर की। पंजाबी हिन्दी में उनके गीत तब सारे पंजाब में गाये जाते थे। सामाजिक कुरीतियों के निवारण में माई जी के गीतों का बड़ा योगदान माना जायेगा। मैंने ऋषि पर पत्थर मारने वाले पं. हीरानन्द जी के  मुख से भी माई जी के गीत सुने थे। उनके जन्म ग्राम, उनकी माता, उनके भाई की चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती है, परन्तु पति व पतिकुल के बारे में कुछ नहीं मिलता। हमने उन्हीं के क्षेत्र के स्त्री शिक्षा के एक जनक दीवान बद्रीदास जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी आदि से यही सुना था कि वे बाल विधवा थीं।

पाखण्ड खण्डिनी पताका, सद्धर्म प्रचार और महर्षि दयानन्द

ओ३म्

पाखण्ड खण्डिनी पताका, सद्धर्म प्रचार और महर्षि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

किसी भी विषय में सत्य का निर्धारण करने पर सत्य वह होता है जो तर्क व युक्ति के आधार पर सिद्ध हो। दो संख्याओं 2  व 3 का योग 5 होता है। तर्क व युक्ति से यही उत्तर सत्य सिद्ध होता है। अतः 2 व 3 का योग 4 या 6 अथवा अन्य कुछ कहा जाये तो वह असत्य की कोटि में आता है। धार्मिक मान्यताओं व सिद्धान्तों की दृष्टि से भी एक विषय में सत्य मान्यता व सिद्धान्त केवल एक ही होता है। इसका प्रथम ज्ञान परमात्मा ने स्वयं ही सृष्टि के आरम्भ में वेदों के द्वारा आदि ऋषियों को कराया था। आज भी सम्पूर्ण वेद अपने मूल स्वरूप सहित संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में भाष्यों के रूप में उपलब्ध है। इनके द्वारा सत्य धर्म, मत, मान्यताओं व सिद्धान्तों का निर्धारण किया जा सकता है। धर्म का सम्बन्ध ईश्वर व आत्मा के ज्ञान व मनुष्य द्वारा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से भी जुड़ा हुआ है। अतः ईश्वर, जीव व उपासना से जुड़ी सभी मान्यतायें व सिद्धान्त जो परस्पर विरोधी व युक्ति प्रमाणों के विरुद्ध हैं, सत्य नहीं कहे जा सकते। सत्य की विस्मृति से ही अज्ञान उत्पन्न होता है जो समय के साथ बढ़ता रहता है। महाभारत युद्ध के बाद वेदों के विलुप्त हो जाने व अल्प ज्ञानी लोगों द्वारा वेदों के अर्थ न समझने के कारण भारत व विश्व के सभी देशों में अज्ञान व पाखण्ड में वृद्धि होती रही।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य ज्ञान की खोज की। उन्होंने भारत के सभी ज्ञानी गुरूओं से धर्म, योग व उपासना आदि का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने संस्कृत का व्याकरण व अन्य सभी आर्ष व अनार्ष ग्रन्थों को पढ़ कर उनका मन्थन कर अपने विद्यागुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की कृपा से सत्य व असत्य के भेद व अन्तर को जाना था। इसके साथ उन्होंने गुरू की प्रेरणा व आज्ञा तथा स्वयं के विवेक से समस्त मानवता के हित व कल्याण के लिए पाखण्ड व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का खण्डन कर सत्य वैदिक मान्यताओं की स्थापना का संकल्प किया था जिसका उन्होंने अपनी अन्तिम श्वांस तक पालन किया। स्वामी जी ने सन् 1863 तक गुरु विरजानन्द की मथुरा स्थित कुटिया वा गुरुकुल में अध्ययन कर इसके बाद सत्य धर्म वैदिक मत का प्रचार आरम्भ किया था। आगरा व ग्वालियर आदि अनेक स्थानों पर प्रचार करते हुए वह सन् 1867 के हरिद्वार के कुम्भ मेले में धर्म प्रचार करने के उद्देश्य से आये थे। इसका कारण था कि कुम्भ के मेले में हिन्दू स्त्री-पुरुष और साधु लाखों की संख्या में इकट्ठे होते हैं। यह लेाग समझते हैं कि कुम्भ के मेले पर गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं और मनुष्य को दुःखों व जन्म-मरण से मुक्ति मिल जाती है। हरिद्वार में उन्होंने देखा कि साधु और पण्डे धर्म का उपदेश देकर लोगों को सीधे रास्ते पर लाने के स्थान पर उन्हें पाखण्ड की शिक्षा देकर लूट रह हैं। उन्होंने पाया कि संसार सत्य धर्म पर चलने के स्थान पर अज्ञान के गहरे गड्ढ़े में गिर रहा है। जिसे हर की पैड़ी कहा जाता है, वह हर की पैड़ी न होकर हाड़ की पैड़ी बन रही है। गंगा में डुबकी लगाने से सब पाप दूर हो जाते है, इस मिथ्या विश्वास से लोग बिना सोचे विचारे अन्धाधुन्ध गंगा नदी में डुबकियां लगा रहे थे।

 

हरिद्वार में इन दृश्यों को देखकर स्वामी दयानन्द जी को गहरी चोट लगी। उन्होंने पाया कि इन कृत्यों से लोग दुःखों से छूटने के स्थान पर दुःखों के सागर में डूब रहे हैं। अतः उन्होंने साधुओं और पण्डों के इस पाखण्ड की पोल खोलने का निर्णय लिया। इसके बाद एक दिन यात्रियों ने देखा कि हरिद्वार से ऋषिकेश को जाने वाली सड़क पर वहां एक स्थान पर स्वामी दयानन्द ने पाखण्ड-खण्डिनी पताका गाड़ दी है। वह वहां गरज-गरज कर उपदेश दे रहे हैं। वह अपने उपदेशों में साधुओं और पण्डों की करतूतें दिखला कर झूठे गंगा-महात्म्य की धज्जियां उड़ा रह हैं। स्वामी दयानन्द की इस गरजना से मेले में भारी हलचल मच गई। आज तक लोगों ने किसी संन्यासी को श्राद्ध, मूर्ति-पूजा, अवतार और गंगा-स्नान से मुक्ति मिलने का खण्डन करते हुए तथा पुराणों को झूठा कहते नहीं सुना था। सहस्त्र्रों की संख्या में लोग उनका क्रान्तिकारी उपदेश सुनने आने लगे। स्वामीजी सबसे यही कहते थे कि हर की पैड़ी पर नहाने से पाप नहीं धुलते। वेद की शिक्षा पर चलो। अच्छे काम करो। इसी से सुख और मोक्ष मिलेगा। धर्म ग्रन्थों का पढ़ना-सुनना और सच्चे धर्मात्माओं की संगति ही सच्चा तीर्थ होती है।

 

आने को तो स्वामी दयानन्द जी के सत्संग व प्रवचन में सहस्त्रों लोग उपदेश सुनने आते थे परन्तु वे केवल सुनकर चले जाते, उन पर उनके उपदेशों का प्रभाव दिखाई नहीं देता था। यह देख कर स्वामीजी को गहरी निराशा हुई। उन्होंने विचार किया कि मेरे तप व त्याग में कहीं कुछ कमी है जिस कारण से उनकी बात का लोगों पर असर नहीं हो रहा है। बस उन्होंने निर्णय किया कि वह अब आगे प्रचार न कर मौन रहकर तपस्या करेंगे। उन्होंने अपने सब वस्त्र उतार कर फेंक दिये। महाभाष्य की एक कापी, सोने की एक मुहर और मलमल का एक थान अपने गुरूदेव स्वामी विरजानन्द जी के लिए मथुरा भिजवा दिया। श्री कैलासपर्वत नाम के एक साधु ने स्वामी से पूछा कि महाराज आप यह क्या कर रहे हैं? स्वामी जी ने उन्हें उत्तर दिया कि जब तक अपनी आवश्यकताओं को कम से कम न किया जाये, पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होती और कार्य में सफलता भी नहीं हो सकती। कैलास पर्वत को उन्होंने कहा कि वह सत्य वैदिक धर्म के विरोधी सभी असत्य मत, पन्थों व सम्प्रदायों का खण्डन कर सत्य को स्थापित करना चाहते हैं। इसके लिए वह सांसारिक आवश्यकताओं और सुख-दुःख से ऊपर उठना चाहते हैं। इसके बाद स्वामीजी ने पुस्तकें आदि छोड़कर अपने सारे शरीर पर राख रमा ली। अपने तन पर केवल एक कौपीन रख कर मौन रहने का व्रत ले लिया। जो वेदों का विद्वान शेर की तरह किसी समय लाखों के समूह में गरजता था, जिसकी गरज को सुनकर झूठे मतों और पंथों के दिल दहल जाते थे, वह अब मौन रहकर अपनी कुटी में बैठ गया। बातचीत करना पूरी तरह से बन्द हो गया। इस स्थिति में उनके मन में जो तूफान उठ रहा होगा, उसका अनुमान किया जा सकता है। अतः यह स्थिति अधिक दिन नहीं चली। उन्होंने तो यह पाठ पढ़ा हुआ था कि मौन रहने से अच्छा सत्य बोलना होता है। ऐसा व्यक्ति कब तक चुप रह सकता था? कुछ दिन बाद एक घटना घटी। एक व्यक्ति उनके तम्बू के बाहर खड़ा होकर पुराणों की प्रशंसा करने लगा। उसने वेदों को पुराणों से हेय बताया। इस असत्य वचन को सुनकर स्वामी जी से रहा न गया और वह अपना मौन व्रत तोड़कर बाहर निकले और उस व्यक्ति के असत्य वाक्यों का खण्डन आरम्भ कर दिया। हो सकता है कि उस व्यक्ति ने यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा से स्वामी जी का मौन व्रत भंग करने के लिए किया हो? जो भी रहा हो, यह अच्छा ही हुआ और अब स्वामीजी पूरे बल से वेद प्रचार करने लगे।

 

अब स्वामी दयानन्द नगर-नगर और स्थान-स्थान में घूम कर वैदिक धर्म का प्रचार करने लगे। चारों वेदों का अध्ययन कर उन्होंने जाना था कि वेदों में कहीं मूर्तिपूजा का विधान व समर्थन नहीं है। उन्होंने मूर्तिपूजा और अन्य अवैदिक अन्धविश्वासों व पाखण्डों का खण्डन करना आरम्भ कर दिया। बहुत से लोग उनके साथ शास्त्रार्थ करने आते परन्तु हार खाकर चले जाते। कर्णवास में पं. हीरावल्लभ नाम के एक बहुत बड़े विद्वान पण्डित थे। वह नौ और पण्डितों को अपने साथ लेकर स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने आये। आते हुए साथ में एक पाषाण मूर्ति भी उठा लाये और प्रतिज्ञा की कि जब तक दयानन्द से इसकी पूजा न करा लूंगा, वापस न जाऊंगा। कोई एक सप्ताह तक प्रतिदिन ना-नौ घंटे तक शास्त्रार्थ हुआ करता था। दोनों ओर से संस्कृत बोली जाती थी और वाद प्रतिवाद होता था। अन्तिम दिन पण्डित जी उठे और ऊंचे स्वर से बोले–स्वामी दयानन्द जी महाराज जो कुछ कहते हैं, वह सब सत्य है। इतना कहकर उन्होंने अपनी मूर्तियां उठाई और गंगा में फेंक दीं। उनको देखकर बाकी पण्डितों और नगर-निवासियों ने भी अपनी-अपनी मूर्तियां घर से लाकर गंगा की भेंट कर दीं। हीरावल्लभजी ने मूर्तियों की जगह सिंहासन पर वेदों को प्रतिष्ठत कर दिया। इस कर्णवास के शास्त्रार्थ की सर्वत्र बड़ी धूम मची। बहुत से ठाकुर लोग स्वामी जी महाराज के पास आकर उपदेश लेने लगे। स्वामी जी ने उन्हें यज्ञोपवीत-जनेऊ देकर गायत्री मन्त्र को गुरु-मन्त्र के रूप में दिया। गंगा के किनारे भ्रमण करते हुए स्वामी दयानन्द ने इस प्रकार गायत्री के उपदेश से सहस्त्रों स्त्री-पुरुषों को धर्म का अमृत पिलाकर उनका कल्याण किया।

 

महर्षि दयानन्द ने देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, परतन्त्रता, गोहत्या दूर करने, गोरक्षा का महत्व स्थापित करने, हिन्दी को अपनाने, विदेशी भाषाओं के अंधाधुन प्रयोग न करने सहित सामाजिक विषमा दूर करने, समाज सुधार व मानव जाति के हित के अनेकानेक कार्य किये और इनके लिए अपना एक-एक पल व एक-एक श्वांस व्यतीत किया। उनके जैसा महापुरूष इतिहास के पृष्ठों पर दूसरा देखने को नहीं मिलता जिसने देश व मानवता के हित के लिए अपना सर्वस्व त्याग किया हो। उनका बलिदान तो महत्व पूर्ण है ही परन्तु हमें लगता है कि उनका कार्य उनके बलिदान से भी अधिक महत्वूपर्ण है। उनके कार्य का किंचित परिचय देना ही आज के इस लेख का उद्देश्य है। आज के इस लेख में हमने महर्षि दयानन्द भक्त श्री सन्तराम जी के ऋषि जीवन से सहायता ली है। उनका आभार व्यक्त करते हैं। आशा है कि पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

क्या यम-नियम का पालन करने वाले व धार्मिक सेवा कार्य में लगे हुए व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी?: आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा- 

क्या यम-नियम का पालन करने वाले व धार्मिक सेवा कार्य में लगे हुए व्यक्ति को मुक्ति मिलेगी?

समाधान:-

मुक्ति के लिए मनुष्य यम-नियम का पालन करते हुए धार्मिक कार्य करे, इससे उसके अच्छे संस्कार बनेंगे। मुक्ति के लिए रास्ता तो खुलेगा, किन्तु केवल इतने मात्र से मुक्ति नहीं होगी। मुक्ति के लिए महर्षि ने कहा है, ‘‘पवित्र कर्म, पवित्रोपासना और पवित्र ज्ञान ही से मुक्ति…….’’। स.प्र. 9

यहाँ प्रमाण देने का तात्पर्य यह है कि केवल यम-नियम अनुष्ठान और धार्मिक सेवाकार्य से मुक्ति नहीं होगी। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि धार्मिक सेवा कार्य आदि मुक्ति में बाधक हैं।

यम-नियम के अनुष्ठान और धार्मिक सेवा कार्य से व्यक्ति के अन्तःकरण में श्रेष्ठ संस्कार पड़ते हैं, जिससे व्यक्ति का उपासना में मन लगता है और उससे ज्ञान ग्रहण करने की योग्यता बढ़ती है। जैसा जिसका जितना शुद्ध ज्ञान होगा, वह वैसा  उतना अपने अविद्या के संस्कारों को नष्ट करेगा। जब पूर्ण रूप से अविद्या के संस्कार नष्ट हो जाते हैं, तब मुक्ति की अवस्था आती है। मुक्ति न तो कर्म से होती और न ही उपासना से, मुक्ति तो ज्ञान से ही सभव है। महर्षि कपिल ने अपने शास्त्र में लिखा- ‘‘ज्ञानात् मुक्तिः।।’’ जीवात्मा की मुक्ति ज्ञान से होती है। ‘‘बन्धो विपर्ययात्।।’’ अज्ञान से बन्धन होता है। ‘‘नियतकारणत्वान्न समुच्चयविकल्पौ ’’ मुक्ति प्राप्ति में ज्ञान की नियतकारणता है, अनिवार्य कारणता है, अर्र्थात् मुक्ति प्राप्ति में ज्ञान ही निश्चित कारण है। इसलिए न तो ज्ञानके साथ अन्य साधन मिलकर मुक्ति देते हैं और न ही ऐसा है कि ज्ञान से भी मुक्ति हो सकती है अथवा शुद्ध कर्म व उपासना से भी। मुक्ति के लिए तो केवल ज्ञान ही साधन बनता है, अन्य नहीं।

इसका कोई यह अर्थ न निकाले कि कर्म और उपासना की कोई महत्ता ही नहीं है, क्योंकि मुक्ति के लिए तो ज्ञान की ही आवश्यकता है। कर्म और उपासना का अपना महत्त्व है। शुद्ध कर्म और शुद्ध उपासना के करने से व्यक्ति के अन्दर सात्विक भाव उत्पन्न होते हैं। इस सात्विक स्थिति में ही व्यक्ति शुद्ध ज्ञान को ग्रहण करता चला जाता है। शुद्ध ज्ञान के होने पर अविद्या के संस्कार ढीले होने लगते हैं। धीरे-धीरे शुद्ध ज्ञान से साधक अपने अविद्यादि क्लेशों को पूर्ण रूप से नष्ट कर देता है। जब अविद्यादि क्लेश पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं, तब साधककी मुक्ति सभव हो जाती है।

इसलिए केवल यम-नियम का पालन करने अथवा धार्मिक सेवा कार्य करने से मुक्ति मिल जायेगी-ऐसा नहीं है। यम-नियम का पालन और धार्मिक सेवा कार्य का अपना एक फल है और वह अच्छा ही फल होगा, किन्तु इनका फल मुक्ति नहीं है। ये सब करते हुए योगायास करें और ज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो जायें।

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आवागमन पर पं. लेखराम जी के अनूठे तर्कः: राजेन्द्र जिज्ञासु

आवागमन पर पं. लेखराम जी के अनूठे तर्कः- अमरोहा से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक आर्य सामाजिक -पत्र का एक अंक नजीबाबाद गुरुकुल में एक आर्य बन्धु ने दिखाया। उसमें पुनर्जन्म पर एक लेख का शीर्षक पढ़कर ऐसा लगा कि मेरे किसी प्रेमी ने मेरे पुनर्जन्म विषयक (परोपकारी में छपे) तर्कों पर कुछ प्रश्न उठाये होंगे, परन्तु बात इससे उलटी ही निकली। विचारशील लेखक ने परोपकारी में दिये गये मेरे विचारों व तर्कों को उजागर  करते हुए जोरदार लेख दिया। उस आर्य भाई को व सपादक जी को धन्यवाद!

उस लेख को पढ़ने से पूर्व ही मेरे मन में ‘तड़प-झड़प’ में पं. लेखराम जी का पुनर्जन्म विषयक मौलिक चिन्तन व प्रबल युक्तियाँ देने का निश्चय था। हमारे मान्य आचार्य सत्यजित् जी तथा आदरणीय आचार्य सोमदेव जी पाठकों का शंका-समाधान  करते हुए बड़े सुन्दर प्रमाण व तर्क देते रहते हैं। उनका परिश्रम वन्दनीय है। उनसे भी विनती की है कि हमें अपने पुराने दार्शनिक विद्वानों यथा- पं. लेखराम जी, पं. गुरुदत्त जी, पूज्य दर्शनानन्द जी, श्रद्धेय देहलवी जी के तर्क उनका नामोल्लेख करके देने चाहिये।

पं. लेखराम जी का पुनर्जन्म विषयक ग्रन्थ पढ़कर अनेक सुपठित हिन्दू युवक, जो ईसाइयों, मुसलमानों व ब्राह्म समाजियों के घातक प्रचार से भ्रमित तथा धर्मच्युत हो रहे थे, निष्ठावान् आर्य बन गये। किस-किसका नाम यहाँ दूँ? डी.ए.वी. के पूर्व प्राचार्य बशी रामरत्न, महात्मा विष्णुदास जी लताला वाले (स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी को आर्य बनाने वाले) ला. देवीचन्द जी एम. ए. इत्यादि सब पं. लेखराम जी को पढ़-सुनकर आर्य समाज से जुड़े।

  1. 1. पं. लेखराम जी का तर्क है कि पुराने भवन ढहते जाते हैं, नये-नये भवनों का निर्माण होता रहता है। सब नये-नये भवन इसी धरती पर विद्यमान पहले के ईंट, पत्थर, मिट्टी व गारे से ही बनाये जाते हैं। नई सामग्री कहीं से नहीं आती।
  2. 2. सब नदियाँ जो बह रही हैं, उनका जल कहाँ से आता है? सब जानते हैं, यह वही जल है, जो पहले सागर में गया था। वर्षा का जल, नदियों का जल कहीं परलोक से, अभाव से तो आता नहीं।
  3. 3. जितने पेड़, पौधे, वृक्ष उग रहे हैं, फल-फूल रहे हैं, ये सब धरती पर विद्यमान पहले की सामग्री से ही उपजते व फूलते-फलते हैं। अभाव से भाव यहाँ भी नहीं होता और न ही परलोक से इनके बीज आदि आते हैं।
  4. 4. सब प्राणियों के शरीर धरती पर विद्यमान सामग्री से (अन्न, जल आदि) से निर्मित व विकसित होते हैं। कहीं से नई-नई सामग्री नहीं आती। जब लाखों-करोड़ों शरीर उसी सामग्री से बनते हैं, जिससे पहले के शरीर बनते रहे हैं, इससे स्पष्ट है कि इस धरा पर नये-नये जीव भी उत्पन्न नहीं होते। जीवात्मायें भी वही हैं, जो इससे पूर्व किसी शरीर का परित्याग कर चुकी हैं। जैसे प्रकृति अनादि है, नई पैदा नहीं होती है, इसी प्रकार परमात्मा नये-नये जीव गढ़-गढ़ कर इस धरती पर नहीं भेजता। जैसे प्रकृति नई-नई नहीं पैदा होती, वैसे ही जीवात्मा भी वही-वही आते-जाते रहते हैं।

    Logic’s on rebirth by Pandit lekrham Ji

वेद में पशु हत्या निषेध, पशु रक्षा का विधान और मांसाहार

ओ३म्

वेद में पशु हत्या निषेध, पशु रक्षा का विधान और मांसाहार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अनेक अज्ञानी व स्वार्थी लोग बिना प्रमाणों के प्राचीन आर्यों पर मांसाहार का मिथ्या आरोप लगाते हैं। वह स्वयं मांसाहार करते हैं अतः समझते हैं कि इस आरोप को लगाकार उनका मांसाहार करना उचित ठहरा दिया जायेगा और कम से कम वेदों के मानने वाले आर्य तो उनका विरोध नहीं कर सकेंगे। ईश्वर ने ही मनुष्यों सहित सभी प्राणियों व वनस्पति जगत को भी बनाया है। यदि ईश्वर के लिए मनुष्यों को पशुओं के मांस का आहार कराना ही अभिप्रेत होता तो फिर वह नाना प्रकार की खाद्यान्न की श्रेणी में परिगणित वनस्पतियां, अन्न, साग व सब्जिययों को शायद उत्पन्न ही न करता और पशुओं की संख्या को इतना बढ़ा देता कि मनुष्य केवल मांसाहार कर ही अपना जीवन व्यतीत करते। ईश्वर को ऐसा अभीष्ट नहीं था अतः उन्होंने किसी विशेष प्रयोजन के लिए पशुओं को बनाया और मनुयों के आहार के लिए पृथक से नाना प्रकार की वनस्पतियों एवं शाकाहार के अन्तर्गत आने वाले अनेकानेक अन्न, फल, साग-सब्जियां और गोदुग्ध आदि पदार्थों को बनाया है। हमें नहीं लगता कि संसार में कोई मांसाहारी ऐसा हो सकता है जो केवल मांस ही खाता हो तथा अन्न, फल, गोदुग्ध आदि पदार्थों का सेवन न करता हो। इस उदाहरण से अन्न, फल व गोदुग्धादि पदार्थ तो मनुष्यों का भोजन सिद्ध होते हैं परन्तु मांस मनुष्य का भोजन सिद्ध नहीं होता।

 

पशुओं व मनुष्यों मांस क्यों नहीं खाना चाहिये? इसलिए नहीं खाना चाहिये क्योंकि मांस हिंसा से प्राप्त होता है और निर्दोष प्राणियों की हिंसा करना मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध है। मनुष्य के स्वभाव में ईश्वर ने दया, करूणा, प्रेम, स्नेह, ममता, संवेदना, सहिष्णुता आदि अनेक गुणों को उत्पन्न किया है व स्वभाव इसमें सनातन से हैं। मांसाहार करने से इन मानवीय गुणों का न्यूनाधिक हनन होता है, अतः मांसाहार वर्जित व त्याज्य है। मांसाहार का आरम्भ किसी पशु को प्राप्त करना, किसी छुरे व तलवार आदि से उसका वध करना, उसके शरीर के एक-एक अंग प्रत्यंग को काटना, उसे रसोईघर में तेल, घृत, मसालों आदि में भूनना व उसका गेहूं आदि की रोटी, चावल व दही आदि मिलाकर सेवन करना होता है। स्वाभाविक है कि इतने पदार्थों के संयोग से जो पदार्थ बनेगा उसका अपना स्वाद होगा। कईयों को वह प्रिय हो सकता है और बहुतों को अप्रिय। हमने देखा है कि पहली बार जो व्यक्ति जाने व अनजाने मांसाहार करता है उसका शरीर उसको स्वीकार नहीं करता और वह उसे उगल देता है या उल्टी कर देता है। यह प्रकृति का वा ईश्वर का सन्देश होता है कि यह पदार्थ खाने योग्य नहीं है। बहुत से लोग मांसाहारियों की संगति में रहते हैं जिससे उन्हें यह दोष लग जाता है। ईश्वर एक, दो, तीन बार तो उसको उलटी आदि कराकर रोकता है परन्तु जब वह नहीं मानता तो ईश्वर भी उसे अपराधी मानकर उसका जीवन पूरा होने की प्रतीक्षा करता है जिससे उसे मृत्यु होने के बाद उसके अगले पुनर्जन्म में इन अमानवीय कार्यों के अनुरूप दण्ड दे सके। हमें लगता है कि बहुत से मनुष्य पुनर्जन्म पाकर पशु बनते होंगे जिनका मांस दूसरे मनुष्य व पशु आदि खाते होंगे। अतः मांसाहार का सर्वथा त्याग ही मनुष्य को सुखी, स्वस्थ, दीर्घायु बनाता है। शाकाहारी मनुष्यों में मांसाहारी मनुष्यों की तुलना में बल, शारीरिक सामथ्र्य, बौद्धिक व आत्मिक क्षमता, साहस, निर्भयता, सेवा, परोपकार व धर्म-कर्म की भावना अधिक होती है जिसे प्रमाणों व उदाहरणों से सिद्ध किया जा सकता है।

 

वेद संसार के सभी मनुष्यों का आदि ग्रन्थ है जिसमें धर्म व कर्म अर्थात् कर्तव्य, अकर्तव्य का विधि व निषेधात्मक ज्ञान है। विदेशियों ने अपने मांसाहार का दोष छिपाने वा अपनी बौद्धिक अक्षमता के कारण यह आरोप लगाया कि सृष्टि की आदि में हमारे पूर्वज आर्य व ऋषिगण पत्थरों के हथियार बनाकर पशुवध कर मांसाहार किया करते हैं। यह बात सर्वथा अनुचित व मिथ्या है। सृष्टि के आदि काल में हमारे व समस्त मानवजाति के पूर्वज फल, कन्द, मूल व गोदुग्धादि का आहार व भोजन किया करते थे। चारों वेदों के एक मन्त्र में भी मांसाहार करने का संकेत नहीं है अपितु पशुओं की रक्षा करने का विधान है जो स्पष्ट रूप से घोषणा करता है कि यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भेड़ आदि अवध्य=हत्या न करने व न मारने योग्य है जिनकी आर्यों व सभी मनुष्यों को अपने सुख व कल्याण के लिए रक्षा करनी है। इसका एक ठोस प्रमाण यह है कि हिरण सहित जितने भी शाकाहारी पशु हैं यह जंगल में शेर आदि हिंसक पशुओं को देख कर भाग जाते हैं। इन्हें ईश्वर ने गन्ध के आधार पर यह समझ प्रदान की हुई है कि कौन सा प्राणी हिंसक है और कौन अहिंसक, कौन इनका घातक है और कौन इनका रक्षक। इन शाकाहारी पशुओं के सम्मुख जब भी कोई हिंसक पशु, शेर, चीता आदि आते हैं तो यह दूर से ही उनके आने व होने की  गन्ध को भांप कर भाग खड़े होते हैं परन्तु मनुष्य को देखकर यह दूर भागने के स्थान पर उसके पास आकर उससे अपना प्रेम प्रदर्शित करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य शाकाहारी प्राणी है, मांसाहारी नहीं है तथा इसी कारण पशु मनुष्यों से डरते नहीं, दूर भागते नहीं व उसके समीप प्रसन्नता से आते हैं। अतः मनुष्यों द्वारा भोजन के लिए पशुओं की हत्या करना उसके ईश्वर व प्रकृति प्रदत्त स्वभाव व गुण के विरुद्ध होने से सर्वथा निन्दनीय है।

 

वेदों ने पशुओं की रक्षा व मांसाहार विषयक क्या विचार हैं, इसका संक्षेप में अवलोकन करते हैं। यजुर्वेद के 40/7 मन्त्र यस्मिनित्सर्वाणी भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।। में कहा गया है कि जो व्यक्ति सम्पूर्ण प्राणियों को केवल अपने जैसी आत्माओं के रूप में ही देखता है (स्त्री, पुरुष, बच्चे, गौ, हरिण, मोर, चीते तथा सांप आदि के रूप में नहीं) उसे उनको देखने पर मोह अथवा शोक (ग्लानि वा घृणा) नहीं होता, क्योंकि उन सब प्राणियों के साथ वह एकत्व (समानता तथा साम्यता) का अनुभव करता है। इस मन्त्र में यह सन्देह दिया गया है शोक व मोह से बचने के लिए मनुष्य को सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान व रूप में ही देखना चाहिये। इससे वह शोक व मोह से बच सकते हैं। आर्यजगत के विद्वान श्री पं. सत्यानन्द शास्त्री अपनी प्रसिद्ध पुस्तक क्या प्राचीन आर्यलोग मांसाहारी थे?’ में लिखते हैं कि जो लोग आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म तथा एकत्व (समानता=साम्यता) के सिद्धान्तों में विश्वास रखते थे (जैसा कि आर्यों को समझा जाता है), वे अपने क्षणिक स्वाद की तृप्ति अथवा भूखे पेट की पूर्ति के लिये उन पशुओं को कैसे मार सकते थे जिनमें उन्हें अपने ही पूर्वजन्मों के प्रियजनों की आत्माओं के दर्शन होते थे? वास्तव में ऐसा कभी नहीं हो सकता। यजुर्वेद मन्त्र 36/18 में कहा गया है कि मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। इस मन्त्र का अभिप्राय है कि मुझे सब प्राणी अपना मित्र समझें तथा मैं भी उनसे अपने मित्रों जैसा व्यवहार करूं। हे परमात्मा ! कुछ ऐसी विधि मिलाओं कि हम सब प्राणी एक दूसरे से सच्चे मित्रों जैसा व्यवहार करें। प्राचीन आर्य लोग प्राणीमात्र के लिये अथाह मैत्री के उपर्युक्त वैदिक सिद्धान्त में न केवल आस्था ही रखते थे, अपितु इसे ईश्वर प्रदत्त धर्म का अंग जानकर अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न भी करते थे। उन आर्येां के सम्बन्ध में यह धारणा रखना कि वे अपनी जैह्विक लालसा की क्षणिक तृप्ति के लिये उन प्राणियों का, जिन्हें वे मित्रतुल्य प्रिय जानते थे, वध करते थे, अनर्गल नहीं तो और क्या है।

 

प्राणीमात्र के लिये अथाह मैत्री के इस वैदिक सिद्धान्त का पारिणााम यह निकला कि समाज में दोपायों (मनुष्यों) और चैपायों की हिंसा पूर्ण रूपेण निषिद्ध कर दी गई। यजुर्वेद मानव के प्रति अहिंसाभाव का कठोर आदेश देते हुए कहता है कि ‘…… मा हिंसीः पुरुषम् …’ (यजुर्वेद 16/3) अर्थात् पुरुष किसी भी प्राणी की  हिंसा न करे। यजुर्वेद पशुओं के मारे जाने पर कठोर प्रतिबन्ध लगाता है। वह कहता है कि ‘मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः‘ (यजुर्वेद मन्त्र 12/32) तथा ‘इमं मा हिंसीद्विपाद पशुम् …’ (यजुर्वेद 13/47)। इसी प्रकार यजुर्वेद में गोवध का निषेध किया गया है क्योंकि मानव जाति के लिये गौ शक्तिवर्द्धक घी प्रदान करती है। ‘… गां मा हिंसीरदितिं विराजम्’ (यजुर्वेद 13/43 एवं ‘….. घृतं दुहानार्मादति जनाय …. मा हिंसीः’। (यजुर्वेद 13/49)। इसी प्रकार से अश्व, बकरी व भेड़ आदि पशुओं का वध न करने के प्रति भी वेद में अनेक आज्ञायें उपलब्ध हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि समस्त वैदिक साहित्य के प्रतिनिधि वेद पशुओं की हिंसा के सर्वथा विरोधी हैं, मांसाहार का तो प्रश्न ही नहीं होता। आर्य विद्वानों ने वेदों में पशुहत्या व मांसाहार पर अनेक ग्रन्थ लिखकर शास्त्रीय उदाहरण, युक्ति, तर्क आदि देकर वेदों में इनका विधान होने का प्रतिवाद किया है। आर्य संन्यासी स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती ने भी स्वास्थ्य के शत्रु अण्डे व मांस पुस्तक लिखकर इन पदार्थों का सेवन स्वास्थ्य के हानिकारक सिद्ध किया है। एक विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार बर्नाडशा के जीवन की एक घटना का उललेख कर हम इस लेख को विराम देंगे। बर्नाडशा को डाक्टरों ने मांस-सेवन की सम्मति दी थी जिसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था–“My situation is a solemn one. Life is offered to me on condition of eating beef steaks.  But death is better than cannibalism.  My will contains directions for my funeral, which will be followed not by mourning coaches, but by oxen, sheep, flocks of poultry and a small travelling aquarium of  live fish, all wearing white scarfs in honour of the man who perished rather than eat his fellow creatures. It will be with the exception of Noah’s ark, the most remarkable thing of the kind seen.” अर्थात् ‘‘मेरी स्थिति गम्भीर है। मुझे कहा जाता है कि गो-मांस खाओ तुम जीवित रहोगे। इस राक्षसपन की अपेक्षा मृत्यु अधिक उत्तम है। मैंने अपनी वसीयत लिख दी है। मेरी मृत्यु पर मेरी अरथी के साथ विलाप करती गाडि़यों की आवश्यकता नहीं है। मेरे साथ बैल, भेड़ें, मुर्गे और जीवित मछलियों का एक चलता-फिरता घर होगा। इन सभी पशु और पक्षियों के गले में सफेद दुपट्टे होंगे, उस मनुष्य के सम्मान में जिसने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा मरना उत्तम समझा। हजरत नूह की नौका को छोड़कर यह दृश्य सबसे अधिक उत्तम और महत्वपूर्ण होगा।”

 

लेख की समाप्ती पर निवेदन है कि वेदों व प्रमाणिक वैदिक साहित्य में मांसाहार का विधान नहीं है। यदि कहीं ऐसी प्रतीती होती है तो यह इंटरप्रीटेशन व मिलावट के कारण हो सकती है। मानवीय आधार पर भी पशु हत्या और मांसाहार दूषित व पाप कर्म है। इसका करना इस जीवन को कुछ समय के लिए स्वादयुक्त बना सकता है परन्तु मृत्यु के बाद के जन्मों में मांसाहारी मनुष्य को पशु बनाकर इस अपकार का बदला ईश्वर के द्वारा अवश्य चुकाया जायेगा। कोई इससे बच नहीं सकेगा। ईश्वर किसी की दलील भी नहीं सुनता क्योंकि वह मनुष्य के मन व आत्मा के विचारों व उसकी सभी क्रियाओं का साक्षी होने के साथ किसी बात व घटना को भूलने की प्रवृत्ति से रहित है। अतः सभी मनुष्य को मांसाहार के घृणित कार्य से स्वयं को दूर रखना चाहिये। यदि नहीं रख सकते तो ईश्वर की दण्ड व्यवस्था की प्रतीक्षा करें और जैसी करनी वैसी भरनी के सिद्धान्त के अनुसार अपने कर्मों का भोग करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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ईश्वर का अवतार होना सत्य वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

ओ३म्

ईश्वर का अवतार होना सत्य वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है।

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महाभारत काल के बाद भारत में ज्ञान का लोप होने से अन्धकार फैला। ऐसे ही समय में वेद व वैदिक साहित्य से अनेक प्रसंगों में अज्ञान व कल्पनाओं का मिश्रण कर संस्कृत व काव्य रचने में प्रवीण विद्वानों ने पुराणों आदि ग्रन्थों की रचना की। ऐसे ही समय में, देश, काल व परिस्थितियों व बौद्ध-जैन मत के प्रभाव के कारण, ईश्वर के अवतार की भी कल्पना की गई जो आज भी प्रचलित है। अवतार सृष्टि की रचना व पालन करने वाले अजन्मा, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ ईश्वर के मनुष्य जन्म लेने को कहा जाता है। महाभारत काल के बाद जिन लोगों ने ईश्वर के अवतार लेने की कल्पना की है, वह ईश्वर को पूर्णतया जानते ही नहीं थे और न हि वह पूर्णतः निष्कपट व स्वार्थहीन थे, ऐसा आभास मिलता है। यदि वह वेदों को जानते होते तो उन्हें ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान अवश्य होता और वह अवतारवाद की अज्ञानपूर्ण व मिथ्या कल्पना न करते। अवतार पर चर्चा करने से पूर्व ईश्वर के वैदिक व यथार्थ स्चरूप को जानना आवश्यक है। ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप, अनादि, अजन्मा, शरीर-नस-नाड़ी-बन्धन-से-रहित, नित्य, अनन्त, अमर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय और सृष्टि का रचयिता है। हर कार्य का कारण होता है। ईश्वर का यदि अवतार मानेंगे तो उसका स्वीकार्य कारण भी बताना ही होगा। अवतारवाद मानने वालों के पास ऐसा कोई ठोस कारण नहीं है जिससे ईश्वर के अवतार लेने का प्रयोजन सिद्ध हो सके। अवतारवाद के पोषक कहते हैं कि दुष्टों का दमन व हनन करने के लिए ईश्वर मनुष्य का जन्म लेता है। यह कथन हास्यापद ही लगता है। यह इसलिए कि जो ईश्वर अपनी अनन्त सामथ्र्य से निराकार रूप से इस सृष्टि व जड़-जंगम जगत का निर्माण करता है, क्या वह अपने द्वारा उत्पन्न रावण व कंस जैसे क्षुद्र प्राणियों को अपने अनन्त बल व शक्ति से धराशायी व नष्ट नहीं कर सकता? यदि श्री रामचन्द्र जी का जन्म रावण को मारने के लिए ही हुआ था तो वह युवावस्था में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होकर सीधे रावण के पास जाकर उसका वध कर देते और वहां के सभी धार्मिक लोगों को उपदेश देते कि मैंने रावण को इसके दुष्ट स्वभाव के कारण मारा है क्योंकि मैं स्वयं भी सर्वव्यापक रूप से ऐसा नहीं कर सकता था और न हि संसार का कोई मनुष्य ऐसा कर सकता था। ईश्वर या रामचन्द्र जी ने ऐसा नहीं किया और न रामायण के रचयिता वाल्मीकि जी ने ऐसा लिखा है, अतः यह मान्यता वाल्मीकि, ईश्वर व रामचन्द्रजी की नहीं है। देश काल व परिस्थितियों के अनुसार ही यह सब कार्य हुए हैं जैसे कि आजकल विश्व धरातल पर यत्र तत्र हो रहे हैं। श्री रामचन्द्र जी एक राज परिवार में जन्में होने से एक राजा था। वैदिक राजा का दायित्व होता है कि वह वेद धर्म के अनुयायियों, ऋषि, मुनियों व विद्वानों की आतंकियों व दुष्टों से रक्षा करे। श्री रामचन्द्र जी ने वैदिक राजा होने का अपना कर्तव्य निभाया। रावण क्योंकि अपने बुरे कार्यों को करता रहा, उसने छोड़ा नहीं, अतः परिस्थितियों के अनुसार ही उसका वध हुआ। यह सारा वर्णन वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध है। वाल्मीकि जी श्री रामचन्द्र जी को अवतार नहीं मानते थे। यह मान्यता तो विगत दो से ढ़ाई सहस्र वर्ष पूर्व ही प्रचलित हुई है। यही स्थिति महाभारत में श्री कृष्ण जी की है। एक सर्वव्यापक व निराकार सत्ता जो असंख्य जीवों को मनष्यादि जन्म देती है और उनका नियमन करती है, अब भी कर रही है, वह किसी एक जीवात्माधारी मनुष्य को मारने के लिए यदि स्वयं मनुष्य का जन्म लेती है, यह विजय नहीं पराजय है व युक्ति-तर्क से सिद्ध नहीं होती। यदि श्री रामचन्द्र जी को ईश्वर मान भी लें तो सर्वशक्तिमान होने के कारण उन्हें न तो सुग्रीव, न हनुमान, न अंगद न अन्य महावीरों की आवश्यकता पड़ती। भारत व विश्व में केवल रावण और कंस दो ही कू्रर शासक नहीं हुए अपितु इन, इनके जैसे व इनसे भी अधिक क्रूर अमानुष शासक हुए हैं। परन्तु अवतार केवल दो ही महापुरूषों को माना जाता है। इससे भी अवतारवाद का सिद्धान्त अप्रमाणिक सिद्ध होता है। क्या महाभारतकाल के बाद औरंगजेब व उससे पूर्व व पश्चात के मानवीयता के शत्रुओं के हनन के लिए ईश्वर के अवतार की आवश्यकता नहीं थी? यदि थी तो ईश्वर का अवतार क्यों नहीं हुआ? ऐसे अमानुषों को ईश्वर ने अपने सर्वान्तर्यामी स्वरूप से ही उनकी जीवन ज्योति को बुझा दिया, यह सर्वज्ञात व सिद्ध है। अतः अतवारवाद प्रमाणों के अभाव में सत्य सिद्ध नहीं होता।

 

हमारे देश में और वह भी केवल हिन्दुओं में ही अवातारवाद का सिद्धान्त पाया जाता है जिसका प्राचीन साहित्य वेद व वैदिक साहित्य में कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। हमें भी अपने पौराणिक परिवारों में बाल्यकाल से ही बताया गया कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी और योगेश्वर श्री कृष्ण जी ईश्वर थे। बचपन में जो बताया जाता है उस पर स्वतः विश्वास हो जाता है। युवावस्था में हम वेद व वैदिक साहित्य के सम्पर्क में आये और हमने महर्षि दयानन्द के विचारों को पढ़ा, समझा व जाना तथा अनेक विद्वानों के उपदेश व ग्रन्थों को पढ़ा तो इस विषयक पूर्व का हमारा विश्वास अन्धविश्वास सिद्ध हुआ। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वदेशी है अतः वह सिकुड़ कर एक अत्यन्त सीमित आकर का एकदेशी पदार्थ नहीं बन सकता। यदि बनेगा तो वह ईश्वर नहीं जीवात्मा ही होगा। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में ईश्वर विषयक प्रश्न करते हुए बताया है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो क्या वह दूसरा ईश्वर बना सकता है? क्या वह स्वयं को नष्ट कर सकता? इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द जी कहते हैं कि सर्वशक्तिमान का अर्थ यह है कि वह अपने सभी कार्य अपने-आप, अकेले, बिना किसी अन्य की सहायता आदि के कर सकता है परन्तु वह सत्य व सत्य नियमों के विरुद्ध न कोई कार्य करता है और न कर सकता है। ईश्वर न तो दूसरा ईश्वर ही बना सकता है और न स्वयं को नष्ट ही कर सकता है। इसी प्रकार से वह सदैव ही अपने सत्यस्वरूप सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक, अनादि, अजन्मा, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, अजर आदि स्वरूप में विद्यमान रहता है। अवतार लेना उसके स्वरूप, स्वभाव व सामर्थ्य में नहीं है और न सम्भव है। अतः वह कभी अवतार नहीं लेता। यदि ऐसा होता तो महाभारत काल के बाद उत्पन्न अल्प व स्वार्थ बुद्धि वालों से कहीं अधिक विद्वान, ज्ञानी, ईश्वर के साक्षात्कर्ता ऋषि व योगी महाभारत व उससे पूर्व काल रचित अपने वैदिक साहित्य में अवतारवाद का वर्णन अवश्य करते। लगभग साढ़े दस हजार मन्त्रों वाले चार वेदों में भी इसका कहीं न कहीं उल्लेख अवश्य होता। और नहीं तो ईश्वर साक्षात्कार करने के ज्ञान के लिए रचे गये योगदर्शन जिसमें ईश्वर प्राप्ति विषयक सभी साधनों का युक्ति व तर्कसंगत सत्यज्ञान प्रस्तुत किया गया है, ईश्वर के अवतार का भी अवश्य उल्लेख किया जाता। क्योंकि यह मिथ्या ज्ञान है, इसी कारण न वेद, न उपनिषद और न दर्शन आदि प्राचीन वैदिक ग्रन्थों और न हि ईश्वर का साक्षात्कार कराने वाले योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने इसका उल्लेख किया। वैदिक ज्ञान, युक्ति व तर्क के आधार पर केवल यही कहा जा सकता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी व योगेश्वर श्री कृष्ण जी आदि जो ऐतिहासक युगपुरूष हुए हैं वह ईश्वर के अवतार न होकर अपने समय के महापुरूष, युगपुरूष, महामानव, महात्मा, दिव्य व श्रेष्ठ पुरूष थे। गीता में स्वयं योगेश्वर कृष्ण जी कहते हैं कि जातस्य हि धु्रवो मृत्यु धु्रवं जन्म मृत्यस्य अर्थात् जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म निश्चित होता है। इस आधार पर जन्म लेना मृत्यु को प्राप्त होना और फिर जन्म लेना यह कार्य केवल जीवात्मा का होता है परमात्मा का नहीं। श्री कृष्ण जी का माता देवकी व पिता श्री वसुदेव जी से जन्म हुआ, भगवान (ऐश्वर्यवान) श्री रामचन्द्र जी का भी माता कौशल्या और पिता दशरथ से जन्म हुआ था और इनकी मनुष्यों की ही तरह एक सौ व एक सौ पचास वर्ष की आयु में मृत्यु होने से यह सृष्टि को रचने व चलाने वाले परमात्मा न होकर एक श्रेष्ठ व परमश्रेष्ठ जीवात्मा ही सिद्ध होते हैं। ऐसे ही अन्य अवतार माने जाने वाले ऐतिहासक महापुरूषों व देवियों के बारे में कहा जा सकता है।

 

वैदिक सनातन धर्मी भाग्यशाली हैं कि इन्हें सृष्टि संवत् का ज्ञान है। इस समय यह सृष्टिसंवत एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलह वर्ष चल रहा है। लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत से पूर्व का हमारा इतिहास व इतर वैदिक साहित्य अनेक कारणों से सुरक्षित नहीं रखा जा सका। इस काल में श्री राम व श्री कृष्ण जी के समान सहस्रों महान दिव्य विभूतियों ने जन्म लिया होगा जिनके शुभ कर्मों को जानकर उनकी पूजा व अनुसरण किया जा सकता था परन्तु उन पर रामायण व महाभारत समान ग्रन्थ विलुप्त होने के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। सौभाग्य से हमें श्री राम व श्री कृष्ण जी, महर्षि दयानन्द आदि के सत्य इतिहास वाल्मीकि रामायण, महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत व इतर ग्रन्थों से उपलब्ध होते हैं। अपनी विवेक बुद्धि से इन ग्रन्थों में मिथ्या प्रक्षेपों को छोड़कर हम इन महापुरूषों के सत्य इतिहास को जानकर इनके अनुसार आचरण कर व वैदिक ग्रन्थों के प्रमाणों के अनुसार कर्मकाण्ड व योगयुक्त जीवन व्यतीत कर अपने मानव जीवन को सफल सिद्ध कर सकते हैं। ऐसा करके ही हमारा जीवन श्रेष्ठ बनेगा व सफल होगा, देश भी संगठित सशक्त हो सकता है और विश्व का कल्याण भी इससे हो सकता है।

 

ईश्वर ईश्वर है जिसका कभी जन्म वा अवतार नहीं होता। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु और पुनर्जन्म अवश्य होता है और वह मनुष्य वा जीवात्मा ही होता है। श्री राम व श्री कृष्ण सहित महर्षि दयानन्द हमारे आदर्श महापुरूष हैं। वैदिक शिक्षाओं सहित इन महापुरूषों के जीवनों की सत्य शिक्षाओं का आचरण व अनुकरण कर ही हम अपने जीवन को सही अर्थों में उन्नत व सफल कर सकते हैं। सत्य का आचरण व मिथ्या का त्याग ही मनुष्य जीवन की उन्नति का कारण हुआ करता है, इसके विपरीत आचरण मनुष्य की इस जन्म व परजन्म में अवनति ही करता है, यह सुनश्चित वैदिक सिद्धान्त है। हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों पर ईश्वर व महापुरूषों वा महान आत्माओं का भेद स्पष्ट हो सकेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

पं. दीनदयाल जी को कहना पड़ाः-

पं. दीनदयाल उपाध्याय एक त्यागी, तपस्वी व सरल नेता थे। उन जैसा राजनेता अब किसी दल में नहीं दिखता। वह जनसंघ के मन्त्री के रूप में जगन्नाथपुरी गये। वहाँ के मन्दिर में दर्शन करने पहुँचे तो पुजारियों ने चप्पे-चप्पे पर यहाँ पैसे चढ़ाओ, यहाँ भेंट धरो, इसका यह फल और बड़ा पुण्य मिलेगा आदि कहना शुरू किया। जब दीनदयाल जी से बाहर आने पर पत्रकारों ने मन्दिर की इस यात्रा व भव्यता के बारे में प्रश्न पूछे तो आपका उत्तर था, ‘‘जब मैं मन्दिर में प्रविष्ट हुआ तब पक्का सनातन धर्मी था, अब बाहर निकलने पर मैं कट्टर आर्यसमाजी हूँ।’’ उनका यह वक्तव्य तब पत्रों में छपा था, जिसे उनके नाम लेवा अब छिपा चुके हैं, पचा चुके हैं। हिन्दू समाज के महारोगों की औषधि केवल दीनदयाल जी की यह स्वस्थ सोच है। दुर्भाग्य से हिन्दू अपने रोगों को रोग ही नहीं मानता।

अंधविश्वास पर चुप्पी क्यों?-राजेन्द्र जिज्ञासु

अंधविश्वास पर चुप्पी क्यों?ः-

 

मन्त्रिमण्डल ने 15 सितबर 1948 को हैदराबाद में पुलिस कार्यवाही का निर्णय लिया था। सरदार पटेल ने 13 को सेना को अपना कार्य करने का आदेश दिया। उस समय का अंग्रेज सेनापति 15 को ही सेना भेजने पर अड़ा रहा। जब सरदार अपने निश्चय पर अडिग रहे तो गोरे सेनापति ने हिन्दुओं के अंधविश्वास का मिजाईल चलाकर सरदार का मनोबल गिराने की चाल चली। उसने कहा, ‘‘13 का अंक अशुभ होता है।’’ लौह पुरुष पटेल बोले, ‘‘तुहारे लिए होगा। मेरे लिए नहीं। मैं गुजराती हूँ। गुजरात में 13 का अंक शुभ माना जाता है’’। सेना ने उसी दिन हैदराबाद को चारों ओर से घेरकर अपना कार्य आरभ कर दिया। यह घटना सरदार के रियासती विभाग के सचिव श्री मेनन ने अपने ग्रन्थ में दी है।

अब प्रातः से सायं तक टी.वी. पर कई बाबे, कई तिलकधारी ज्योतिषी, काले कुत्ते व शुभ अंकों वाले अंधविश्वास परोसते रहते हैं। हिन्दू-हिन्दू की रट लगाने वाले नेता, प्रवक्ता, साक्षी महाराज  की बयान मण्डली हिन्दुओं के अंधविश्वासों पर चुप्पी साधे रहते हैं। सब दलों के नेता तन्त्र-मन्त्र में विश्वास करते हैं। ये अंधविश्वास देश को डुबोने वाले हैं।

‘ईश्वर का ध्यान व उपासना तथा मूर्तिपूजा’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

ईश्वर व मनुष्य में क्या अन्तर है? यह प्रश्न आपको अनुपयुक्त सा लग सकता है परन्तु प्रश्न तो प्रश्न है। हम इसका उत्तर देने का प्रयास करते हैं। ईश्वर वह है जो जीवात्माओं के सुख व दुःखों के भोग के लिए सत्व, रज व तम गुण से युक्त सूक्ष्म जड़ प्रकृति के द्वारा इस दृश्यमान सृष्टि को बनाता है। ईश्वर ने यह सृष्टि अल्पज्ञ, एकदेशी, चेतन जीवात्माओं के लिए बनाई है। उसका अपना क्या कोई प्रयोजन इस सृष्टि को इस सृष्टि के बनाने व चलाने में दृष्टिगोचर नहीं होता। एक और प्रश्न लेते हैं कि जीवात्मा क्या है? इसका उत्तर बनाने में है? वैदिक साहित्य सहित युक्ति व तर्क द्वारा विचार करने पर ईश्वर का अपना निजी कोई प्रयोजन है जीवात्मा एक ज्ञान ग्रहण करने व कर्म करने वाली अल्पज्ञ, सूक्ष्म, एकदेशी व ससीम चेतन सत्ता का नाम है। इस जीवात्मा के सुख व मुक्ति के लिए ही ईश्वर ने अपने ज्ञान व बल की पराकाष्ठा, सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमत्ता, से इस सृष्टि को बनाया है जिससे सभी जीवात्मायें अपने अपने पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कर्मों के फलों का भोग कर सके। हमने वैदिक व अन्य मतों के सिद्धान्तों को जानने व समझने का प्रयास किया है। अनेक दशकों के अध्ययन व युक्ति व तर्क के आधार पर महर्षि दयानन्द द्वारा प्रचारित वैदिक साहित्य से पुष्ट यह उत्तर सत्य व अकाट्य सिद्धान्त है।  इन्हीं सिद्धान्तों पर वैदिक विचारधारा आधारित हैं।

 

जीवात्मा के स्वरुप का विचार करने पर यह एक सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ चेतन पदार्थ विदित होता है जो ज्ञान व कर्म की सामथ्र्य से युक्त अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अजर, अमर, मनुष्यादि योनियों में जन्म लेकर शुभाशुभ कर्म करने वाला व उनके फलों को भोगने वाला हैं। जीवात्मा में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अपनी इच्छा से किसी योनि में बिना ईश्वर की सहायता व कृपा के स्वयं जन्म ले सके। जीवात्मा के दो जीवनों के बीच एक मृत्यु अवश्य आती है। मृत्यु होने के बाद व जन्म लेने से पूर्व यह प्रायः सुषुप्ति अवस्था अर्थात् निद्रा जैसी निष्क्रिय अवस्था में रहता है। यदि ईश्वर इसको इसके कर्मानुसार जन्म न दे तो इसका अस्तित्व होकर भी यह अनुपयोगी वा निष्क्रिय ही रहेगा। ईश्वर द्वारा जन्म मिल जाने पर यह मनुष्यादि योनियों में कर्मों को करता भी है व पूर्वकृत प्रारब्ध व क्रियमाण कर्मों के फलों को भोगता हुआ सुख दुःख पाता है और इसका अस्तित्व सार्थक बन जाता है। जीव की सार्थकता ईश्वर से जन्म मिलने व इसके पाप-पुण्यरूपी फलों का भोग सुख दुःख रूप में मिलने से ही होती है।

 

ईश्वर का स्वरुप कैसा है? इसका उत्तर है कि ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्द अर्थात् सच्चिदानन्दस्वरूप है। इसके प्रमुख गुणों इसका निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता होना सम्मिलित है। ईश्वर के यह कुछ गुण भी ईश्वर का स्वरुप प्रकाशित करते है। आनन्द की पराकाष्ठा ईश्वर का निजी स्वरुप व गुण है जो उसमें सदा-सर्वदा से है और रहेगा, अतः उसे किसी भौतिक पदार्थ व जीवों से किसी वस्तु, स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि की अपेक्षा नहीं है। ईश्वर अपने बिना किसी निजी प्रयोजन के जीवों के कल्याणार्थ इस विशाल ब्रह्माण्ड वा सृष्टि को बनाता है और जीवों के पूर्व जन्मों के कर्मानुसार उन्हें भिन्न भिन्न प्राणी योनियों में जन्म देता है जिससे वह अपने अपने कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल भोग सकें।

 

जीवात्मा और ईश्वर का स्वरुप विदित हो जाने पर अब हमें अर्थात् जीवात्मा को अपनी उन्नति व सुखों की वृद्धि के लिए अपना कर्तव्य निर्धारित करना है। वह क्या-क्या कार्य करें जिससे उनके सभी दुःखों का पराभव और सद्गुणों व सुखों की अभिवृद्धि हो? इसका एक सरल उत्तर तो यह है कि उसे सदैव ईश्वर के प्रति आभारी व कृतज्ञ होना चाहिये और मनुष्य जन्म देने के लिए उसकी प्रशंसा, स्तुति, धन्यवाद, आभार व कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिये। इन कार्यों को करने का नाम ही स्तुतिप्रार्थनाउपासना वा ईश्वर की पूजा है। जो व्यक्ति भलीप्रकार से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना आदि के द्वारा उसका आभार व धन्यवाद कर कृतज्ञ होता है वह कर्तव्यापालक और जो नहीं करता वह अविवेकी, मूर्ख, भ्रष्ट, अज्ञानी, स्वार्थी, अहंकारी व कृतघ्न होता व कहलाता है। ईश्वर की स्तुति आदि को कर्तव्य समझ लेने के बाद अन्य कर्तव्यों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। दूसरा प्रमुख कर्तव्य है कि हम मनुष्यों व अन्य सभी प्राणियों को शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध अन्न व शुद्ध व स्वच्छ पृथिवी वा पर्यावरण की आवश्यकता है। यदि वायु व जल सहित हमारा पर्यावरण शुद्ध, स्वच्छ व पवित्र नहीं होगा तो हमारे सुखों में बाधा आयेगी और हमारा जीवन अनेक रोगों से ग्रस्त होकर दुःखी हो जायेगा जिससे हम ईश्वर की उपासना व यज्ञ आदि सहित जीवन के अन्य निजी कार्यों का सम्पादन भी न कर पाने के कारण अधोगति व अवनति को प्राप्त होंगे। ईश्वर ने वेदों के द्वारा अग्निहोत्र करने की आज्ञा भी प्रदान की है जिसको जानकर हमारे ऋषियों ने अग्निहोत्र से अश्वमेध यज्ञ पर्यन्त यज्ञों का विधान किया है। इसके अतिरिक्त गोपालन, अन्य उपयोगी पशुओं का पालन, कृषि जिससे शुद्ध, पवित्र व बल-शक्ति से युक्त अन्न व फल आदि प्राप्त हो सकें आदि कार्यों को करना भी हमारा कर्तव्य सिद्ध होता है। मनुष्य को अज्ञानयुक्त कर्मों का त्याग कर विद्यायुक्त कर्मों को ही करना चाहिये। उसे विद्या व विज्ञान को उन्नत कर अपने उपयोग की सभी वस्तुओं का निर्माण कर सुख को सम्पादित करना चाहिये। मध्यकाल की दृष्टि से आधुनिक समय में इस दिशा में कुछ उन्नति अवश्य हुई है परन्तु लक्ष्य प्राप्ति से संसार की समग्र मनुष्य जाति अभी कोसों दूर है।

 

हमने ईश्वरोपासना सहित मनुष्य के कुछ प्रमुख कर्तव्यों की संक्षिप्त चर्चा की है। ईश्वर की कृपाओं के प्रति उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर उसका धन्यवाद करना ही ईश्वरोपासना है। हम देख रहे हैं कि मध्यकाल में ईश्वर उपासना का रूप विकृत होकर मूर्तिपूजा का प्रचलन हो गया और निराकार ईश्वर के ध्यान, चिन्तन तथा वैदिक प्रार्थनाओं से उसकी स्तुति आदि का स्थान मूर्तिपूजा ने ले लिया। मूर्तिपूजा वस्तुतः है क्या? मूर्तिपूजा निराकार ईश्वर को साकार मानने की एक मिथ्या कल्पना है। ईश्वर का स्वरूप अर्थात् निराकार व सर्वव्यापक आदि होना तो कभी बदलता नहीं, वह अपने मूल स्वरूप में ही सदा सर्वदा विद्यमान रहता है, परन्तु मनुष्यों ने मध्यकाल में अपने अज्ञान के कारण ईश्वर की स्थानापन्न मूर्तिपूजा का प्रचलन किया। मूर्तिपूजा में हम देखते हैं कि पाषाण, धातु व काष्ठ की मूर्तियां भिन्न-भिन्न मनुष्य, महापुरुषों व पशुओं की आकृतियों की बनाई जाती हैं। उनमें से कुछ को भवन व मन्दिर बना कर उसमें रखा जाता है। कुछ वेद व अन्य ग्रन्थों के मन्त्रों का पाठ कर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा का नाम दे दिया जाता है। यह सब कर्मकाण्ड कर दिया जाता है और मूर्ति के आगे हाथ जोड़ कर खड़े होने या मनुष्य रचित कुछ पद्यों व गीतों को गाकर या फिर मूर्ति के आगे कुछ घूप व अगरबत्ती जला कर उसे घुमान व हिलाने-डुलाने को ही मूर्तिपूजा कहा जाता है। मूर्तिपूजा करने वाले कभी यह विचार नहीं करते कि उनके इस कृत्य से सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर प्रसन्न व सन्तुष्ट होता है या नहीं? कहीं असन्तुष्ट व अप्रसन्न तो नहीं होता, यह विचार ही मुर्तिपूजा करने वाले नहीं करते। हमारे प्राचीन ऋषि व विद्वान जिसमें महर्षि दयानन्द सरस्वती भी सम्मिलित हैं, इस मूर्तिपूजा से किसी प्रकार का लाभ नहीं मानते, अपितु इससे मूर्तिपूजा करने वालों को अनेक प्रकार की हानि ही होती है। ऐसा स्वामी दयानन्द का मत था जो कि अनेक प्रमाणों से पुष्ट है। मूर्तिपूजा पाषाण, धातु व काष्ठ से बनी हुई प्रतिमाओं की ही की जाती है जो कि जड़, भाव व संवेदनाशून्य हैं। जड़ पदार्थों में किसी भी प्रकार से सुख व दुःखी व प्रसन्न होना नहीं घटता। वह तो अपनी रक्षा तक भी नहीं कर सकती। जहां तक प्राण-प्रतिष्ठा की बात है, ऐसा करना व यह मानता कि मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है, मानवीय बुद्धि का एक अज्ञानमूलक हास्यापद पहलू है। यही कारण है कि यवनों ने हमारे देश में सोमनाथ मन्दिर सहित सहस्रों मन्दिरों व मूर्तियों को भ्रष्ट किया परन्तु कोई मूर्ति अपनी रक्षा नहीं कर सकी। हमारी पराधीनता का एक प्रमुख कारण भी मूर्तिपूजा व मूर्तियों से किन्हीं शुभ परिणामों की अपेक्षायें ही था जो कि कभी पूरी नहीं र्हुइं। अतः यदि ईश्वर की पूजा करनी है तो वह केवल वेदाध्ययन, वेदानुकूल शास्त्रों का अध्ययन, सत्यार्थप्रकाश व आर्याभिविनय आदि के अध्ययन सहित मुख्यतः योगदर्शन के अध्ययन व उसके अनुसार ईश्वर के ध्यान व समाधि के अभ्यास व प्रयत्नों से ही की जा सकती है।

 

महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करने के बाद एक बात स्पष्ट होती है कि मूर्तिपूजा से मनुष्य जीवन की उन्नति नहीं अपितु अवनति ही होती है। मूर्तिपूजा से हमारे धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष भी प्राप्त होने के स्थान पर हम उनसे दूर हो जाते हैं। अतः हमारे सभी मूर्तिपूजा करने वाले बन्धुओं को निष्पक्ष भाव से महर्षि पतंजलि कृत योगदर्शन का अध्ययन करना चाहिये और उनके द्वारा निर्दिष्ट यम, नियमों का पालन, आसन व प्राणायाम का सेवन तथा प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि का अभ्यास कर ईश्वर का साक्षात करने का प्रयास करना चाहिये। यही वस्तुत यथार्थतः ईश्वर की पूजा है। मूर्तिपूजा ईश्वर की पूजा नहीं है, पाठक इस पर विचार करें। कहीं ऐसा न हो कि उपासना व पूजा सम्बन्धी किसी अपने गलत निर्णय के कारण हमें इस जन्म व जन्मान्तरों में भारी हानि उठानी पड़े। मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में यह भी ध्यातव्य है कि मातापिताआचार्यविद्वान आदि हमारे मूर्तिमान देव हैं। इनका आदर, सेवा-सत्कार व सहायता सदा करनी चाहिये, यही यथार्थ मूर्तिपूजा का वैदिक स्वरूप है। फलित ज्योतिष भी मनुष्य की अवनति का कारण बनता है। अतः इससे भी सभी को बचना चाहिये। फलित ज्योतिष लेख का विषय न होने के कारण इस पर विस्तार से विचार नहीं कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि ईश्वर का ध्यान व उपासना सहित मूर्तिपूजा पर प्रस्तुत इस लेख में विचारों से पाठक लाभान्वित होंगे। यह लेख सबके कल्याण की भावना से महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर प्रस्तुत किया है। शास्त्रों में यह बताया गया है कि जो परिणाम में लाभदायक बातें होती है वह आरम्भ में विष के समान दिखाई देती हैं परन्तु विवेकशील लोग इस सत्य को जानने के कारण परिणाम में इष्ट सिद्धि दिलाने वाली बातों का ही आचरण करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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