देश के भौगोलिक अध्ययन के लिए, इसे सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जाता है- पहला उत्तर और दूसरा दक्षिणी भाग। यद्यपि यह विभाजन वैज्ञानिक नहीं है, तथापि सामान्य रूप से उत्तरी भाग को ‘उत्तर भारत’ और दक्षिणी भाग को ‘दक्षिण भारत’ के नाम से अभिहित किया जाता है। उपर्युक्त विभाजन के अतिरिक्त पाश्चात्य विद्वानों ने एक अलग प्रकार की भ्रामक संकल्पना की है कि आर्य बाहर से इस देश में आए और वे उत्तरी भाग में निवास करने लगे तथा यहाँ के पूर्व निवासियों को उन्होंने दक्षिण में भगाया, अतः उत्तर के निवासी ‘आर्य’ कहलाए और दक्षिण के निवासी ‘द्रविड’ कहलाए। पाठ्यक्रमों में इसी अवधारणा को पढ़ाया जाने के कारण सुशिक्षित एवं बुद्धिजीवी वर्ग में यही भ्रामक अवधारणा प्रबल है। किन्तु यह अवधारणा तर्क व प्रमाण सम्मत नहीं है, क्योंकि संस्कृति, भाषा और दर्शन इन तीनों का उद्गम स्थान एक ही भारत है। दक्षिण की सभी भाषाओं में संस्कृत का शब्द -भण्डार प्रचुर मात्रा में तत्सम रूप में पाया जाता है तथा वेद का पठन-पाठन दक्षिण भारत में ही पारम्परिक रूप से विद्यमान हैं। पूरे भारत में जीवन-पद्धति वेद सम्मत थी, किन्तु धर्माचार्यों ने स्वार्थ, अज्ञान, अन्धविश्वास, सदोष मतमतान्तर के कारण जो वेद विरुद्ध परम्परा प्रारम्भ की उससे हमारी सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय स्थिति अत्यन्त खोखली हो गई। ऐसी आन्तरिक कलह की स्थिति को देखकर उत्तर से अनेक विदेशी आक्रान्ताओं ने समृद्ध भारत पर आक्रमण किए तथा यहाँ की सम्पत्ति , संस्कृति, शिक्षा-पद्धति और जीवन-पद्धति पर तीव्र कुठाराघात किया।
आभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों दृष्टियों से कालबाह्य रुढ़ियों तथा सिद्धान्तों से घुन लगा हुआ समाज पूरी तरह खोखला हो गया था। ऐसी दुरावस्था में गुजरात प्रान्त के टंकारा में सन् १८२४ में महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ। उनके गुरु विरजानन्द जी ने मानव मात्र में व्याप्त दुःख, अशान्ति तथा रोग के मूलभूत कारण- अज्ञान, अविवेक तथा अन्धविश्वास को बताकर सबके कल्याणार्थ वेद के शाश्वत ज्ञान को मानव-मात्र के कल्याण का मार्ग बताया तथा महर्षि दयानन्द ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन न्यौछावर किया। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने वेदों की अपौरुषेयता तथा आर्ष ग्रन्थों की प्रामाणिकता बताकर तथा अनेक ग्रन्थों का प्रणयन कर मानव-मात्र को जीवन के श्रेयमार्ग का पथिक बनाने के लिए सन् १८७५ में मुम्बई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की।
यद्यपि आर्यसमाज की स्थापना मुम्बई में हुई तथापि उसका प्रचार-प्रसार उत्तर भारत में- विशेष रूप से पंजाब में हुआ। लाहौर में उपदेशक महाविद्यालय की स्थापना की गई। दक्षिण भारत के अनेक विद्यार्थी वहाँ पढ़कर उपदेशक बनकर आए और दक्षिण भारत में आर्य समाज के वैचारिक सिद्धान्तों से उपदेशों के द्वारा जनजागृति का कार्य किया।
दक्षिण भारत का योगदानः– दक्षिण भारत में उस समय निजामशाही का राज्य था। मराठवाड़ा के वर्तमान आठ जिले, कर्नाटक के ५ जिले तथा आन्ध्र के जिलों को जोड़कर हैदराबाद राज्य की सीमा थी। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत में अन्य शासकों के अपने-अपने राज्य थे। उस समय दक्षिण भारत में अनेक मत-मतान्तर थे तथा जैन, बौद्ध, पारसी, इस्लाम, ईसाई, विविध पन्थ, सम्प्रदाय और धर्म प्रचलित थे। ऐसी विषम परिस्थिति में आर्यसमाज को अपना कार्य दक्षिण भारत में करना पड़ा।
व्यक्ति निर्माणः– दक्षिण भारत के बहुत लोगों ने आर्यसमाज के विचारों से प्रभावित होकर विद्वान् बनने के लिए उत्तर भारत की वैदिक संस्थाओं में अध्ययन किया, आर्यसमाज का आजीवन प्रचार किया और साथ ही नए व्यक्तियों को आर्यसमाजी बनने की प्रेरणा दी। इनमें कुछ प्रमुख नाम निम्नलिखित हैं- पं. नरेन्द्र, पं. श्यामलाल, बंसीलाल, शेषराव वाघमारे, उत्त्ममुनी , विनायकराव विद्यालंकार, न्यायमूर्ति कोरटकर, चन्द्रशेखर वाजपेयी। इन लोगों ने अनेक क्षेत्रों में आर्यसमाज के अनेक पहलुओं को लेकर काम किया, जिसके परिणामस्वरूप आज दक्षिण भारत में हजारों आर्यसमाजी अपने विभिन्न क्षेत्रों में रहते हुए आर्यसमाज का प्रचार कर रहे हैं।
संस्थाएँः– आर्यसमाज के सैद्धान्तिक विचारों के प्रचार-प्रसार, सेवा, सुरक्षा एवं व्यक्ति निर्माण के लिए आर्यसमाज और संगठन की स्थापना की गई। मुम्बई के बाद बीड़ (महाराष्ट्र) जिले के निवासी तिवारी नामक व्यक्ति ने महर्षि दयानन्द के भाषण सुनकर दूसरा आर्यसमाज सन् १८८० में धारूर नामक ग्राम में स्थापित किया। इसके बाद सुल्तान बाजार (हैदराबाद) में आर्यसमाज की स्थापना की गई जो दक्षिण भारत के आर्यसमाज का बहुत बड़ा केन्द्र था। जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक प्रदेश ने अपनी-अपनी प्रादेशिक सभाओं की स्थापना की जैसे- मुम्बई आर्य प्रतिनिधि सभा, मध्य दक्षिण आर्य प्रतिनिधि सभा तथा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा से संलग्न।
दक्षिण भारत के आर्यसमाजी विद्वान्ः– दक्षिण भारत में आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के कारण तथा उ उत्तर भारत की संस्थाओं में पढ़कर अनेक विद्वान् तैयार हुए और उन्होंने अपने-अपने प्रान्तों में जाकर वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। इनमें कुछ नाम निम्न प्रकार हैं- पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ (उस्मानाबाद), बंशीलाल व्यास (हैदराबाद), शामलाल (उदगीर), डी.आर. दास (लातूर), गोपालदेव शास्त्री (बसदकल्याण) प्रेमचन्द्र प्रेम (भदनुर), पं. मदनमोहन विद्यासागर, गोपदेव शास्त्री, पं. वामनराय येवणूरधर इत्यादि। यह सूची प्रदीर्घ है, स्थानाभाव के कारण कुछ ही विद्वानों के नाम गिनाए हैं।
साहित्य-निर्माणः- जनमानस तक वैदिक सिद्धान्तों को पहुँचाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति के लिए साहित्य और आर्यसमाज के सिद्धान्तों को प्रादेशिक भाषाओं में भी निर्माण किया। इन विचारों से समाज में जागृति हुई। प्रमुख लेखकों में पं. नरेन्द्र, विनायकराव विद्यालंकार, खंडेराव कुलकर्णी, उत्त्ममुनी इत्यादि उल्लेखनीय हैं। इसके साथ दक्षिण भारत की सभी भाषाओं में महर्षि दयानन्द की पुस्तकों का अनुवाद भी किया गया।
पत्रिकाएँः– हैदराबाद में आर्यसमाज की स्थापना के बाद ‘मुंशी रे दकन’ साप्ताहिक निकाला गया जो वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करता था। उर्दू साप्ताहिक ‘नई जिन्दगी’ जे.एन. शर्मन के सम्पादकत्व में निकलने लगा। शोलापुर से ‘वैदिक सन्देश’ तथा ‘सुदर्शन’ भी साप्ताहिक प्रकाशित होने लगे। चन्दूलाल, पं. नरेन्द्र तथा सोहनलाल ठाकुर के सम्पादकत्व में ‘वैदिक आदर्श’ साप्ताहिक प्रारम्भ हुआ, जो उर्दू में प्रकाशित होकर मुसलमानों के अत्याचारों का जवाब प्रखरता से देता था। बाद में यही साप्ताहिक ‘सोलापुर’ से ‘वैदिक सन्देश’ के नाम से निकलने लगा जो पुनः ‘आर्यभानु’ के नाम से हैदराबाद से शुरू हुआ। लक्ष्मणराव पाठक ने ‘निजाम विजय’ पत्रिका शुरू की। अनेक पत्रिकाएँ नाम बदलकर निकलने लगीं।
व्याख्यान मालाः– ग्रामीण भाग के जन साधारण लोगों के लिए जो अनपढ़, अशिक्षित और अज्ञानी थे उनकी वैचारिक जागृति के लिए उनके गाँवों में जाकर उनके समय के अनुसार, उन्हीं की भाषा में विद्वान् पण्डित तथा भजनोपदेशकों ने व्याख्यानों से जनजागरण का कार्य किया। प्रतिवर्ष श्रावणी सप्ताह तथा भारतीय काल गणनानुसार नववर्ष के प्रारम्भ में वार्षिकोत्सव का आयोजन किया जाता था जिसमें विविध सम्मेलन आयोजित किये जाते थे जैसे- धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा, महिला सम्मेलन, वेद-सम्मेलन, संस्कृत सम्मेलन, संस्कार शिविर आदि। इसके साथ ही सामयिक विषयों पर भी व्याख्यान आयोजित किए जाते थे। जिसमें अन्धश्रद्धा निर्मूलन, व्यसनमुक्ति, स्वास्थ्य रक्षा इत्यादि द्वारा जन-जागरण का मह वपूर्ण कार्य आर्यसमाज के इन उपक्रमों द्वारा किया जाता था।
षोडश संस्कारः– महर्षि दयानन्द ने वेदाधारित १६ संस्कार का महत्व बताकर मनुष्य निर्माण कार्य के लिए प्रतिपादन किया। साथ ही इसकी वैज्ञानिकता भी प्रतिपादन की। सोलह संस्कारों की प्रासंगिकता प्रतिपादित की तथा समाज के जिस वर्ग का उपनयन संस्कार नहीं होता था उन सबका आर्यसमाज ने उपनयन संस्कार कराया तथा समाज के वातावरण का निर्माण किया। इसके साथ-साथ कन्याओं तथ महिलाओं का भी उपनयन संस्कार करा कर नारी को म्हात्व्यपूर्ण स्थान दिलाया। जिसके फलस्वरूप आज महिलाएँ पौरोहित्य का कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न करा रही हैं। अन्त्येष्टि संस्कार का भी वैदिक पद्धति से प्रचलन किया।
शिविरों का आयोजनः– ग्रामीण तथा शहरी भागों में वैचारिक क्रान्ति, सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता, मानव को संस्कारित करने के लिए विद्वान् और सेवाभावी लोगों ने शिविरों का आयोजन किया। संस्कार शिविरों द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्वाश्रमी हरिश्चन्द्र गुरु जी) ने अनेक तरुण विद्यार्थी तथा विद्यार्थिनियों को सन्मार्ग बताकर सुसंस्कारित, जागरूक तथा कर्तव्य परायण नागरिक बनाया। इसी प्रकार आर्यवीर दल तथा स्वास्थ्य रक्षा शिविरों द्वारा नवयुवकों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता उत्पन्न की तथा व्यसनाधीनता से परामुख किया। इसके साथ-साथ कन्याओं की उन्नति के लिए कन्या संस्कार शिविर, समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को पौरोहित्य कार्य की वैदिक निधि का ज्ञान कराने के लिए पुरोहित प्रशिक्षण शिविर, बाल्यावस्था के कोमल मन पर राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए तथा संस्कारों के बीजवपन के लिए बाल संस्कार शिविर, मन की स्थिरता के लिए ध्यान योग शिविर, आसन प्राणायाम शिविर तथा योग शिविर, रोग चिकित्सा के लिए प्राचीन काल की ऋषियों द्वारा अनुमोदित आयुर्वेद चिकित्सा शिविर तथा गोमाता की रक्षा के लिए गो कृषि शिविर आयोजित किए जाते हैं, जिससे समाज के उपर्युक्त सभी क्षेत्रों तथा अंगों में जागृति आने से व्यक्ति, परिवार, समाज सभी सुखी और स्वस्थ बन सके।
सम्मेलनों का आयोजनः– समाज के अन्तिम छोर के व्यक्ति के निर्माण के साथ-साथ, पूरे समाज को जगाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति, सामुदायिक परिवर्तन, आत्मविश्वास, सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा बल, बाह्य परम्पराओं से विद्रोह के लिए अनेक शीर्षस्थ विद्वानों के भाषणों से समाज परिवर्तन के लिए विविध स्तरों पर अनेक सम्मेलन आयोजत किए गए। जिनके परिणामस्वरूप जनसामान्य में सामाजिक जागृति हुई। इन सम्मेलनों से विविध प्रदेशों के आर्यसमाजी व्यक्तियों का जहाँ पारस्परिक परिचय हुआ वहीं भाषाई आदान-प्रदान भी हुआ जिसने आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वानों और लेखकों के साहित्य के अनुवाद कार्य के लिए सेतु का कार्य किया। ये सम्मेलन प्रान्तीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किए जाते हैं। जैसे मॉरीशस के अन्तर्राष्ट्रीय आर्य सम्मेलन में श्री हरिश्चन्द्र जी धर्माधिकारी इत्यादि ने सम्मिलित होकर वहाँ की सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक स्थितियों का अध्ययन किय। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अर्ध शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९३३) तथा महर्षि दयानन्द जी के शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९८३-८४) में दक्षिण भारत के हजारों कार्यकर्ता सम्मिलित हुए और वहाँ से ऊर्जा प्राप्त कर अपने-अपने शहरों, गाँवों तथा महानगरों में अधिकसक्रियता से भाग लिया। इसी प्रकार सामाजिक सुधारों के लिए महिला सम्मेलन, वानप्रस्थियों के आत्म कल्याण के लिए वानप्रस्थी सम्मेलन, सैद्धान्तिक विषयों के विचार-मन्थन के लिए विद्वत्-सम्मेलन, आयोजित किए जिसमें डॉ. ब्रह्ममुनि,डॉ. कुशलदेव शास्त्री, डॉ. देवदत्त तुंगर आदि ने सक्रिय भाग लिया। बसैये बन्धु ने औरंगाबाद में मराठवाड़ा स्तर का सम्मेलन आयोजित किया जिसमें विद्वानों तथा स्वन्त्रता-सैनानियों को सम्मानित किया गया।
निजाम के विरोध में सत्याग्रहः– अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, संस्कृति एवं मानव-धर्म को मिटाने के विरुद्ध, असुरक्षा के विरुद्ध तथा राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने के लिए, व्यक्ति, परिवार, समाज में जागृति लाकर शासन के विरुद्ध निजाम के विरोध में न्याय, धर्म, संस्कृति और नागरिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह प्रारम्भ किया। निजाम ने आर्यसमाज के विद्वानों के प्रवेश बन्दी, यज्ञ बन्दी, समाचार-पत्रों पर बन्धन तथा धार्मिक उत्सवों तथा विद्वानों के भाषणों पर बन्दी लागू कर दी, जिससे सार्वदेशिक सभा दिल्ली के नेतृत्व में उत्तर भारत से विभिन्न नेताओं के नेतृत्व में सत्याग्रही लोगों के जत्थे पर जत्थे आए। उदगीर के दंगे से मराठवाड़ा का वातावरण भी पूरी तरह अशान्त हो गया। श्यामलाल, रामचन्द्रराव कामठे, गंगाराम डोंगरे तथा अमृराव जी को पकड़ा गया और जिन्हें कड़ी से कड़ी धाराओं में सजा दी गई उसमें श्यामलाल जी का बलिदान हुआ। गुलबर्गा में सत्याग्रहियों को जेल में डाला गया जिसमें दक्षिण केसरी पं. नरेन्द्र पर अमानवीय अत्याचार किए गए, जिसमें उनकी एक टांग टूट गई। उन्हें कारावास में अनेक यातनाएँ दी गईं और खाने के लिए सीमेंट की रोटी दी गई। कठोर से कठोर यातनाओं को देने के बाद भी इन देशप्रेमी आर्य सत्याग्रहियों ने माफी नहीं माँगी, जिससे अन्य लोगों में भी देश-प्रेम की भावना जगी और जगह-जगह पर क्रूर निजाम के विरोध में आन्दोलन होने लगे जिसमें हजारों सत्याग्रहियों को कठोर कारावास हुआ तथा अनेक सत्याग्रही हुतात्मा हुए। प्रथम जत्थे के नेता महात्मा नारायण स्वामी थे जो गुरुकुल काँगड़ी के ४० विद्यार्थियों को लेकर शोलापुर से हैदराबाद गए। इसके बाद आठ आर्य नेताओं के नेतृत्व में जिनमें अन्तिम- विनायकराव विद्यालंकार थे, सत्याग्रह किया गया। जिसके सामने निजाम को झुकना पड़ा और उनकी माँगें मान ली गईं। इस सत्याग्रह में मित्रप्रिय मिसाल (नसगीर), खण्डेराव द दत्तात्रय (शोलापुर) गोविन्दराव (नसंगा), पाण्डुरंग (उस्मानाबाद), सदाशिवराव पाठक (शोलापुर) माधवराव पाठक (लातूर) आदि का जेल में बलिदान हुआ तथा महाराष्ट्र के लगभग ४०० सत्याग्रही लोगों को कठोर कारावास की यातनाएँ भोगनी पड़ी। जिनमें शेषराव वाघमारे, गुरु लिंबाड़ी चव्हाण, दिगम्बरराव धर्माधिकारी, आराम परांडेकर, भीमराव कुलकर्णी (डॉ. धर्मवीर, कार्यकारी प्रधान, परोकारिणी सभा के पिता) रघुनाथ टेके, दिगम्बर शिव नगीटकर, तुलसीराम कांबले, दिगम्बर पटवारी, शंकरराव कापसे इत्यादि सत्याग्रहियों के नाम प्रमुख हैं। यह सूची अत्यन्त प्रदीर्घ है लेकिन स्थानाभाव के कारण कुछ व्यक्तियों के ही नाम दिए गए हैं। इन सभी स्वतन्त्रता सेनानियों के त्याग, बलिदान, राष्ट्रप्रेम, सिद्धान्तप्रियता इत्यादि मूल्यों के कारण ही भारतवर्ष की आजादी के बाद लगभग १३ महीने बाद हैदराबाद राज्य स्वतन्त्र हुआ।
शेष भाग अगले अंक में……