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सद्धर्मप्रचारक उर्दू हिन्दी का जन्म-भ्रान्ति निवारण- राजेन्द्र जिज्ञासु

किसी के लेख में यह छपा बताते हैं कि महात्मा मुंशीराम जी ने रात-रात में ‘सद्धर्मप्रचारक’ उर्दू साप्ताहिक को हिन्दी में कर दिया। एक प्रबुद्ध आर्य भाई ने चलभाष पर प्रश्न किया कि ‘सद्धर्मप्रचारक’ को हिन्दी में निकालने के महात्मा जी के साहसिक क्रान्तिकारी पग पर आप प्रामाणिक तथ्यपरक प्रकाश डालें। यह प्रश्न तो उन्हीं लेखक जी से पूछा जाता तो अच्छा होता तथापि मैं किसी आर्य भाई को निराश नहीं करता। कोई चार दिन पूर्व तड़प-झड़प लिखकर भेजी तो कुछ समाधान करते हुए लिखा कि स्मृति के आधार पर बहुत कुछ लिखा है। सद्धर्मप्रचारक की अन्तिम फाईल खोज कर कोई भूल मेरे लेख में होगी तो उसे फिर सुधार कर दूँगा।

अब चैन कहाँ? वह फाईल खोज निकाली। लीजिये! ‘सद्धर्मप्रचारक’ के जन्म-पुनर्जन्म का प्रामाणिक इतिहास। सुन-सुनाकर और कुछ कहानी को चटपटा बनाने वाले इतिहास को प्रदूषित करने का अवसर हाथ से जाने नहीं देते। अनजाने में भी इस पत्रिका के बारे में कई एक ने कई भ्रान्तियाँ फैला रखी हैं। आज यथासम्भव सब भ्रामक लेखों का निराकरण हो जायेगा।

महात्मा मुंशीराम जी ने रात-रात में अथवा एकदम ‘सद्धर्मप्रचारक’ उर्दू को हिन्दी में नहीं निकाला था। हाँ! जब निश्चय कर लिया तो फिर टले नहीं। घाटा, हानि का भय दिखाया गया परन्तु उन्होंने हानि लाभ की चिन्ता नहीं की, पग दृढ़ता से आगे धरते गये। ‘प्रचारक की काया पलट का दृढ़ निश्चय’ एक लम्बा लेख पाँच अक्टूबर सन् १९०६ के अंक में दिया था। यह मेरे सामने है। इसके बाद निरन्तर पाँच मास तक प्रायः प्रत्येक अंक में प्रचारक के हिन्दी संस्करण के बारे में विज्ञापन तथा लेख छपते रहे जो सब मेरे पास हैं। सद्धर्मप्रचारक के सम्पादकीय लेख एक ग्रन्थ के रूप में भी बाद में छपे थे जो इतिहास की धरोहर है और बहुत से तथ्यों पर जिससे प्रकाश पड़ता है। वह ग्रन्थ मेरे पास भी है और बन्धुवर सत्येन्द्रसिंह आर्य के पास भी है। विस्तारपूर्वक एतद्विषयक जानकारी इतिहास प्रेमी चाहेंगे तो फिर कभी यह सेवा भी की जा सकती है।

. डॉ. जे. जार्डन्स जी ने लिखा है कि उर्दू सद्धर्म-प्रचारक सन् १८८८-१९०७ तक निकलता रहा। यह सत्य नहीं है। लेखक से भूल हुई है। किसी ने कभी इस चूक पर दो शब्द  नहीं लिखे।

. स्वामी श्रद्धानन्द जी पर हिण्डौन से छपे ग्रन्थ में लिखा है कि उर्दू सद्धर्मप्रचारक का जन्म १९ फरवरी १८८९ में हुआ, यह भी सत्य नहीं। भ्रामक कथन है।

प्रबुद्ध पाठक नोट करें कि इस समय मेरे सामने सद्धर्म-प्रचारक का प्रथम अंक है। यह १३ अप्रैल सन् १८८९ को निकला था। तब इसके आठ ही पृष्ठ होते थे। एक ही वर्ष में पृष्ठ संख्या १६ और सन् १९०७ में १८ और कभी-कभी २२ पृष्ठ भी होते थे। मैंने सब अंक देखे हैं। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने भी सद्धर्मप्रचारक का जन्म वैशाखी (१३ अप्रैल) लिखा है।

. हिण्डौन वाले ग्रन्थ में इसके जन्म की एक और स्थान पर भी जन्म तिथि १९ फरवरी १८८९ छपी है जो ठीक नहीं है।

सेवा का एक अवसर मिला। भ्रम भञ्जन कर दिया। पूरी खोज करने में लगा तो पता चला कि अपने समय के प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् और पं. बाल शास्त्री काशी के शिष्य गोस्वामी घनश्याम मुलतान निवासी सद्धर्मप्रचारक उर्दू के नियमित लेखक थे। उनके कई लेख मिले हैं। इनको हिन्दी में अनूदित करके ‘परोपकारी’ में प्रकाशित करवा दिया जायेगा। वे ‘परोपकारी’ के भी तो लेखक रहे।

भारतीय जी की शोध व्यथा-कथा – ओममुनि वानप्रस्थी

दिल्ली से स्वामी अग्निवेश के साप्ताहिक समाचार-पत्र वैदिक सार्वदेशिक में भवानीलाल जी का एक लेख ‘आर्यसमाज में उच्चतर शोध की स्थिति सन्तोषप्रद नहीं’ शीर्षक से अंक २९ जनवरी से ४ फरवरी, पृष्ठ संख्या ०६ पर प्रकाशित हुआ है। इस लेख के शीर्षक से लेखक के पीड़ित होने का तो पता लग रहा है, परन्तु पीड़ा आर्यसमाज के शोध को लेकर है या परोपकारिणी सभा को लेकर है, क्योंकि भारतीय जी सभा के सम्मानित सदस्य और अधिकारी भी रहे हैं, इस प्रकार यह बात पाठक को पूरा लेख पढ़ने के बाद ही स्पष्ट हो पाती है।

लेख में जिन-जिन शोध संस्थाओं की तथा शोध विद्वानों की चर्चा की है, उन संस्थाओं के विद्वान् दिवंगत हो चुके हैं या फिर उन संस्थाओं का वर्तमान में शोध कार्यों से कोई विशेष सम्बन्ध देखने में नहीं आता। डॉ. भारतीय जी की पीड़ा को समझने के लिए उन्हीं की शब्दावली  को पहले देख लेने से पीड़ा का कारण समझने में सहायता मिलेगी, वे व्यथापूर्ण श द इस प्रकार हैं- ‘‘इधर अजमेर में परोपकारिणी सभा ने कुछ वर्ष पूर्व करोड़ों रुपये व्यय कर ऋषि उद्यान में विशाल बहुमंजिला भवन तो खड़ा कर लिया, परन्तु रिसर्च के नाम पर शून्य है। केवल ऋषि मेले के समय चार दिनों के लिये यह भवन काम में आ जाता है, अन्यथा शोध के नाम पर यह सब आडम्बर ही है। यह अवश्य हुआ है कि सत्यार्थप्रकाश के संशोधित ३७वें संस्करण ने एक नया विवाद अवश्य खड़ा कर दिया है। पं. मीमांसक तथा पं. रामनाथ वेदालंकार की उपेक्षा की गई और विसंवाही स्थिति बनी। तो संस्थाओं द्वारा प्रारम्भ किये गये शोध प्रकल्पों का अन्ततः यह हश्र देखा गया।’’

इन पंक्तियों के उत्तर  में सभा ने क्या शोध कार्य किये, कराये हैं और करा रही है? यह सब परोपकारी पत्रिका के माध्यम से सर्वविदित है। फिर उस विवरण से भारतीय जी की पीड़ा तो शान्त होने से रही, क्योंकि पीड़ा के कारण दूसरे हैं जिनका इस प्रसंग में उल्लेख करना उचित होगा।

भारतीय जी को करोड़ों रुपये व्यय करके विशाल बहुमंजिला भवन रिसर्च के नाम पर शून्य लगता है और शोध के नाम पर आडम्बर। भारतीय जी को पता नहीं कि भवन में क्या होता है, कोई बात नहीं, किन्तु जिस जनता ने करोड़ों रुपये सभा को दान दिये, डॉ. जी की दृष्टि में तो उन बेचारों ने गलती ही की होगी। भवन की भव्यता पर एक आर्यसमाज प्रेमी ने वास्तुकार माणकचन्द राका जी से कहा- आपने ऋषि उद्यान में इतना विशाल भवन बनाकर पैसों का अपव्यय ही किया है, तब राका जी ने उस प्रेमी से पूछा- क्या सैंकड़ों और हजारों करोड़ों रुपये लगाकर जब एक भव्य होटल बनाया जाता है और जिसमें शराब की बोतल आधी नंगी लड़कियाँ पीती हैं, क्या वहाँ कभी इस अपव्यय का विचार आपके मन में आया है? फिर यहाँ कुछ साधु, संन्यासी, ब्रह्मचारी, विद्वान् लोग शास्त्रों को पढ़े-पढ़ायेंगे तो आपके मन में अपव्यय जैसी बात कैसे आई? वह बेचारा तो चुप रह गया, परन्तु भारतीय जी की पीड़ा उस भवन को लेकर अभी तक शान्त नहीं हुई। भारतीय जी की दानशीलता के सभा पर कितने उपकार हैं, उनको स्मरण किया जाना अनुचित नहीं होगा। जब महर्षि की बलिदान शताब्दी  मनाई गई तो आर्यजनों ने सभा व समारोह के लिए लाखों रुपये का दान एकत्रित करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण  लोगों को रसीद बुक दी हैं। समारोह सम्पन्न हुआ। समारोह की दक्षिणा लेने के पश्चात् भारतीय जी ने एक भी रसीद बिना काटे कोरी रसीद बुक सभा को लौटाने का कार्य किया, फिर भी करोड़ों रुपये का भवन बन गया, इस शोध का बोध है या नहीं, पता नहीं।

अजमेर, चण्डीगढ़, जोधपुर रहते हुए अपनी प्रतिदिन भेजी जाने वाली व्यक्तिगत डाक के पैसे वे अजमेर निवास के समय से सभा से निरन्तर माँगते और लेते रहे हैं, जिनके बन्द कर दिये जाने से ‘सभा का शोध कार्य रुक गया’, यह अनुभूति होना बहुत स्वाभाविक है। भारतीय जी को सभा द्वारा अपनी तथाकथित उपेक्षा का दुःख बहुत दिनों से व्यथा दे रहा है, सभा की निन्दा करने जैसा शुभ कार्य आपने अपनी आत्मकथा में भी किया है।

नवजागरण के पुरोधा पुस्तक लिखकर सार्वदेशिक सभा में रखी गई, वहाँ नहीं छप सकी तो सभा मन्त्री श्रीकरण शारदा जी को शताब्दी  के अवसर पर छपवाने के लिये प्रार्थना की और उन्होंने वह छाप दी तथा छपने के बाद स्वामी सत्यप्रकाश जी के माध्यम से रॉयल्टी की माँग की और कुछ सौ पुस्तकें लेकर माने। ऊपर से कलम में यह भी कहने का दम रखते हैं कि जिस सभा के संस्थापक का मैंने शोध पूर्ण जीवन लिखा है, उस सभा को मेरा कृतज्ञ होना चाहिए, इसके विपरीत यह सभा मेरी उपेक्षा करती है। यह शोध सभा में आजकल सच में नहीं हो रहा।

परोपकारी के सम्पादन का भार तो डॉ. जी ने उठाया और उसमें शोधपूर्ण लेख तो कभी भी देखे जा सकते हैं। इस प्रसंग में शोध की बात यह है कि समीक्षा के नाम पर आई पुस्तकों की समीक्षा करके पुस्तक बेचकर पैसे जेब में रखने से अच्छा शोध और क्या हो सकता है? इस क्रम में एक प्रसंग याद आ रहा है। भारतीय जी की चण्डीगढ़ से भेजी समीक्षा नहीं छपी। भारतीय जी द्वारा कारण पूछने पर उन्हें बताया गया कि समीक्षा के लिए पुस्तक की दो प्रतियाँ आती हैं- एक समीक्षक को मिलनी चाहिए, एक सभा को, तो मान्य भारतीय जी ने अपना शोध कौशल दिखा दिया। एक फर्जी बिल भारतीय साहित्य सदन के नाम से बनाया और समीक्षा के लिए आई पुस्तकों के सभा से ही पैसे वसूल कर लिए, इसे कहते हैं शोध। वह बिल बुक भारतीय जी के काम आज भी आ रही होगी। बिल सभा के संग्रह में शोभायमान है।

भारतीय जी जानते हैं, संस्था समाजों से अभिनन्दन कराने से प्रतिष्ठा भी मिलती है और इस बहाने धन भी मिल जाता है। भारतीय जी ने अपने शिष्यों, मित्रों के माध्यम से अभिनन्दन समारोह का उपक्रम किया। प्रश्न था अभिनन्दन ग्रन्थ छपवाने का। वे सभा के सम्मान्य सदस्य भी थे, उन्होंने सभा से कहा- ग्रन्थ प्रकाशित कर दें। मेरे शिष्य लोग इसका व्यय दे देंगे। सभा ने अभिनन्दन ग्रन्थ तो छाप दिया, ग्रन्थ भी छप गया, भेंट का पैसा भारतीय जी को मिल गया, है न कमाल का शोध। सम्भवतः आजकल सभा ऐसा शोध न कर पा रही हो।

आर्यसमाज के एक प्रतिष्ठित विद्वान् थे, वे अपने बड़े पुस्तकालय की सदा चर्चा करते थे। पं. जी के अन्तरंग मित्र जो उनसे परिहास में पूछ लिया करते थे कि पं. जी इनमें से खरीदी हुई कितनी हैं और कबाड़ी हुई कितनी? लगभग वही कहानी भारतीय जी के शोध पुस्तकालय की है। सभा में शोधार्थी आते रहते हैं, एक बार एक छात्रा दयानन्द विश्वविद्यालय अजमेर से ऋषि दयानन्द विषयक शोध कार्य कर रही थी, उसे सभा के कार्यकर्ताओं  ने परामर्श दिया, जोधपुर जाकर भारतीय जी के पुस्तकालय की भी सहायता तुम्हें लेनी चाहिए, वहाँ आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द विषयक प्रचुर सामग्री है। उस छात्रा ने जोधपुर जाकर पुस्तकें देखीं, उसे सामग्री भी मिली परन्तु शोध की बात यह है कि छात्रा ने कहा– परोपकारिणी सभा के पुस्तकालय की दुर्लभ पुस्तकें तो भारतीय जी के संग्रहालय में हैं, तब सभा के कार्यकर्ता को कहना पड़ा कि वहाँ भी सभा का ही पुस्तकालय है। इस बहुचर्चित पुस्तकालय के नाम पर एक और संस्था भी भारतीय जी के शोध का शिकार हो गई। उस संस्था के संचालक ने भारतीय जी से कहा- आपके बाद तो कोई इनका उपयोग करने वाला नहीं हैं, आप अपना पुस्तकालय हमारी संस्था को बेच दें जैसा सुना जाता है भारतीय जी डेढ़ लाख रुपये माँग रहे थे और संस्था वालों ने उन्हें ढाई लाख रुपये दिये। इसमें शोध की बात यह है कि इस सौदे में महत्वपूर्ण  पुस्तकें फिर बचाली गईं। हो सकता है फिर कोई शोध करने का अवसर मिल जाये। आज वहाँ के पुस्तकालय में जाकर सभा की मोहर लगी पुस्तकें देखी जा सकती हैं।

यदि कोई व्यक्ति सभा का अधिकारी होकर दुर्लभ पुस्तकें निकाल कर ले जाये तो यह शोध प्रेम ही कहा जायेगा। दुनिया में पैसे से तो सभी प्रेम करते हैं। उलटे-सीधे बिल बनाते हैं, यह तो समाज की मान्य परम्परा है, इसप्रकार शोध प्रेमियों को किसी भी प्रकार खरीदकर, उधार लेकर (बाई, बोरो एण्ड स्टील) पुस्तक प्राप्त करने का अधिकार पुराने ज्ञान मार्गियों ने दिया है। यह शोध कार्य का ही प्रमाण है।

स्वामी सर्वानन्द जी महाराज ने दयानन्द आश्रम के भवन में भारतीय जी को जिन शब्दों  से सम्बोधित किया था वे शायद  आज भी उन्हें स्मरण होंगे। भारतीय जी ने रामनाथ जी वेदालंकार और युधिष्ठिर मीमांसक जी की उपेक्षा करने का आरोप लगाया है, सत्यार्थप्रकाश में जो भी कार्य किया गया है, वह सब विद्वानों के सामने है, और इनको जाँचने का सबको अधिकार है। इसमें आप भी शोध कार्य कर सकते हैं। सभा की दृष्टि में जो सर्वोत्तम  हो सकता है उसे ही प्रस्तुत करने का प्रयास रहा है। पुस्तक आपके सामने है, आप जो भी त्रुटि बतायेंगे उसपर सभा अवश्य विचार करेगी। सभा ने सदा ही सुझावों को आमन्त्रित किये हैं, प्राप्त सुझाओं का स्वागत भी किया है। यदि विवाद हुआ है तो उस मण्डली के सदस्य भी डॉ. साहब थे।

इसके आगे  भी यदि सभा के शोध कार्य के विषय में कोई प्रश्न भारतीय जी उठायेंगे तो उनका सप्रमाण उत्तर  दिया जा सकेगा। अब तक सभी प्रश्नों और आरोपों का उत्तर दिया जा चुका है।

–      ब्यावर  अजमेर

 

दक्षिण भारत में आर्यसमाज का योगदान – डॉ. ब्रह्ममुनि

 

देश के भौगोलिक अध्ययन के लिए, इसे सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया जाता है- पहला उत्तर  और दूसरा दक्षिणी भाग। यद्यपि यह विभाजन वैज्ञानिक नहीं है, तथापि सामान्य रूप से उत्तरी  भाग को ‘उत्तर  भारत’ और दक्षिणी भाग को ‘दक्षिण भारत’ के नाम से अभिहित किया जाता है। उपर्युक्त विभाजन के अतिरिक्त पाश्चात्य विद्वानों ने एक अलग प्रकार की भ्रामक संकल्पना की है कि आर्य बाहर से इस देश में आए और वे उत्तरी भाग में निवास करने लगे तथा यहाँ के पूर्व निवासियों को उन्होंने दक्षिण में भगाया, अतः उत्तर के निवासी ‘आर्य’ कहलाए और दक्षिण के निवासी ‘द्रविड’ कहलाए। पाठ्यक्रमों में इसी अवधारणा को पढ़ाया जाने के कारण सुशिक्षित एवं बुद्धिजीवी वर्ग में यही भ्रामक अवधारणा प्रबल है। किन्तु यह अवधारणा तर्क व प्रमाण सम्मत नहीं है, क्योंकि संस्कृति, भाषा और दर्शन इन तीनों का उद्गम स्थान एक ही भारत है। दक्षिण की सभी भाषाओं में संस्कृत का शब्द -भण्डार प्रचुर मात्रा में तत्सम रूप में पाया जाता है तथा वेद का पठन-पाठन दक्षिण भारत में ही पारम्परिक रूप से विद्यमान हैं। पूरे भारत में जीवन-पद्धति वेद सम्मत थी, किन्तु धर्माचार्यों ने स्वार्थ, अज्ञान, अन्धविश्वास, सदोष मतमतान्तर के कारण जो वेद विरुद्ध परम्परा प्रारम्भ की उससे हमारी सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय स्थिति अत्यन्त खोखली हो गई। ऐसी आन्तरिक कलह की स्थिति को देखकर उत्तर से अनेक विदेशी आक्रान्ताओं ने समृद्ध भारत पर आक्रमण किए तथा यहाँ की सम्पत्ति , संस्कृति, शिक्षा-पद्धति और जीवन-पद्धति पर तीव्र कुठाराघात किया।

आभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों दृष्टियों से कालबाह्य रुढ़ियों तथा सिद्धान्तों से घुन लगा हुआ समाज पूरी तरह खोखला हो गया था। ऐसी दुरावस्था में गुजरात प्रान्त के टंकारा में सन् १८२४ में महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ। उनके गुरु विरजानन्द जी ने मानव मात्र में व्याप्त दुःख, अशान्ति तथा रोग के मूलभूत कारण- अज्ञान, अविवेक तथा अन्धविश्वास को बताकर सबके कल्याणार्थ वेद के शाश्वत ज्ञान को मानव-मात्र के कल्याण का मार्ग बताया तथा महर्षि दयानन्द ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन न्यौछावर किया। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने वेदों की अपौरुषेयता तथा आर्ष ग्रन्थों की प्रामाणिकता बताकर तथा अनेक ग्रन्थों का प्रणयन कर मानव-मात्र को जीवन के श्रेयमार्ग का पथिक बनाने के लिए सन् १८७५ में मुम्बई में ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की।

यद्यपि आर्यसमाज की स्थापना मुम्बई में हुई तथापि उसका प्रचार-प्रसार उत्तर  भारत में- विशेष रूप से पंजाब में हुआ। लाहौर में उपदेशक महाविद्यालय की स्थापना की गई। दक्षिण भारत के अनेक विद्यार्थी वहाँ पढ़कर उपदेशक बनकर आए और दक्षिण भारत में आर्य समाज के वैचारिक सिद्धान्तों से उपदेशों के द्वारा जनजागृति का कार्य किया।

दक्षिण भारत का योगदानः दक्षिण भारत में उस समय निजामशाही का राज्य था। मराठवाड़ा के वर्तमान आठ जिले, कर्नाटक के ५ जिले तथा आन्ध्र के जिलों को जोड़कर हैदराबाद राज्य की सीमा थी। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत में अन्य शासकों के अपने-अपने राज्य थे। उस समय दक्षिण भारत में अनेक मत-मतान्तर थे तथा जैन, बौद्ध, पारसी, इस्लाम, ईसाई, विविध पन्थ, सम्प्रदाय और धर्म प्रचलित थे। ऐसी विषम परिस्थिति में आर्यसमाज को अपना कार्य दक्षिण भारत में करना पड़ा।

व्यक्ति निर्माणः दक्षिण भारत के बहुत लोगों ने आर्यसमाज के विचारों से प्रभावित होकर विद्वान् बनने के लिए उत्तर  भारत की वैदिक संस्थाओं में अध्ययन किया, आर्यसमाज का आजीवन प्रचार किया और साथ ही नए व्यक्तियों को आर्यसमाजी बनने की प्रेरणा दी। इनमें कुछ प्रमुख नाम निम्नलिखित हैं- पं. नरेन्द्र, पं. श्यामलाल, बंसीलाल, शेषराव वाघमारे, उत्त्ममुनी , विनायकराव विद्यालंकार, न्यायमूर्ति कोरटकर, चन्द्रशेखर वाजपेयी। इन लोगों ने अनेक क्षेत्रों में आर्यसमाज के अनेक पहलुओं को लेकर काम किया, जिसके परिणामस्वरूप आज दक्षिण भारत में हजारों आर्यसमाजी अपने विभिन्न क्षेत्रों में रहते हुए आर्यसमाज का प्रचार कर रहे हैं।

संस्थाएँः आर्यसमाज के सैद्धान्तिक विचारों के प्रचार-प्रसार, सेवा, सुरक्षा एवं व्यक्ति निर्माण के लिए आर्यसमाज और संगठन की स्थापना की गई। मुम्बई के बाद बीड़ (महाराष्ट्र) जिले के निवासी तिवारी नामक व्यक्ति ने महर्षि दयानन्द के भाषण सुनकर दूसरा आर्यसमाज सन् १८८० में धारूर नामक ग्राम में स्थापित किया। इसके बाद सुल्तान बाजार (हैदराबाद) में आर्यसमाज की स्थापना की गई जो दक्षिण भारत के आर्यसमाज का बहुत बड़ा केन्द्र था। जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक प्रदेश ने अपनी-अपनी प्रादेशिक सभाओं की स्थापना की जैसे- मुम्बई आर्य प्रतिनिधि सभा, मध्य दक्षिण आर्य प्रतिनिधि सभा तथा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा से संलग्न।

दक्षिण भारत के आर्यसमाजी विद्वान्ः दक्षिण भारत में आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के कारण तथा उ    उत्तर  भारत की संस्थाओं में पढ़कर अनेक विद्वान् तैयार हुए और उन्होंने अपने-अपने प्रान्तों में जाकर वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। इनमें कुछ नाम निम्न प्रकार हैं- पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ (उस्मानाबाद), बंशीलाल व्यास (हैदराबाद), शामलाल (उदगीर), डी.आर. दास (लातूर), गोपालदेव शास्त्री (बसदकल्याण) प्रेमचन्द्र प्रेम (भदनुर), पं. मदनमोहन विद्यासागर, गोपदेव शास्त्री, पं. वामनराय येवणूरधर इत्यादि।  यह सूची प्रदीर्घ है, स्थानाभाव के कारण कुछ ही विद्वानों के नाम गिनाए हैं।

साहित्य-निर्माणः- जनमानस तक वैदिक सिद्धान्तों को पहुँचाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति के लिए साहित्य और आर्यसमाज के सिद्धान्तों को प्रादेशिक भाषाओं में भी निर्माण किया। इन विचारों से समाज में जागृति हुई। प्रमुख लेखकों में पं. नरेन्द्र, विनायकराव विद्यालंकार, खंडेराव कुलकर्णी, उत्त्ममुनी इत्यादि उल्लेखनीय हैं। इसके साथ दक्षिण भारत की सभी भाषाओं में महर्षि दयानन्द की पुस्तकों का अनुवाद भी किया गया।

पत्रिकाएँः हैदराबाद में आर्यसमाज की स्थापना के बाद ‘मुंशी रे दकन’ साप्ताहिक निकाला गया जो वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करता था। उर्दू साप्ताहिक ‘नई जिन्दगी’ जे.एन. शर्मन के सम्पादकत्व में निकलने लगा। शोलापुर से ‘वैदिक सन्देश’ तथा ‘सुदर्शन’ भी साप्ताहिक प्रकाशित होने लगे। चन्दूलाल, पं. नरेन्द्र तथा सोहनलाल ठाकुर के सम्पादकत्व में ‘वैदिक आदर्श’ साप्ताहिक प्रारम्भ हुआ, जो उर्दू में प्रकाशित होकर मुसलमानों के अत्याचारों का जवाब प्रखरता से देता था। बाद में यही साप्ताहिक ‘सोलापुर’ से ‘वैदिक सन्देश’ के नाम से निकलने लगा जो पुनः ‘आर्यभानु’ के नाम से हैदराबाद से शुरू हुआ। लक्ष्मणराव पाठक ने ‘निजाम विजय’ पत्रिका शुरू की। अनेक पत्रिकाएँ नाम बदलकर निकलने लगीं।

व्याख्यान मालाः ग्रामीण भाग के जन साधारण लोगों के लिए जो अनपढ़, अशिक्षित और अज्ञानी थे उनकी वैचारिक जागृति के लिए उनके गाँवों में जाकर उनके समय के अनुसार, उन्हीं की भाषा में विद्वान् पण्डित तथा भजनोपदेशकों ने व्याख्यानों से जनजागरण का कार्य किया। प्रतिवर्ष श्रावणी सप्ताह तथा भारतीय काल गणनानुसार नववर्ष के प्रारम्भ में वार्षिकोत्सव का आयोजन किया जाता था जिसमें विविध सम्मेलन आयोजित किये जाते थे जैसे- धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा, महिला सम्मेलन, वेद-सम्मेलन, संस्कृत सम्मेलन, संस्कार शिविर आदि। इसके साथ ही सामयिक विषयों पर भी व्याख्यान आयोजित किए जाते थे। जिसमें अन्धश्रद्धा निर्मूलन, व्यसनमुक्ति, स्वास्थ्य रक्षा इत्यादि द्वारा जन-जागरण का मह  वपूर्ण कार्य आर्यसमाज के इन उपक्रमों द्वारा किया जाता था।

षोडश संस्कारः महर्षि दयानन्द ने वेदाधारित १६ संस्कार का महत्व  बताकर मनुष्य निर्माण कार्य के लिए प्रतिपादन किया। साथ ही इसकी वैज्ञानिकता भी प्रतिपादन की। सोलह संस्कारों की प्रासंगिकता प्रतिपादित की तथा समाज के जिस वर्ग का उपनयन संस्कार नहीं होता था उन सबका आर्यसमाज ने उपनयन संस्कार कराया तथा समाज के वातावरण का निर्माण किया। इसके साथ-साथ कन्याओं तथ महिलाओं का भी उपनयन संस्कार करा कर नारी को म्हात्व्यपूर्ण  स्थान दिलाया। जिसके फलस्वरूप आज महिलाएँ पौरोहित्य का कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न करा रही हैं। अन्त्येष्टि संस्कार का भी वैदिक पद्धति से प्रचलन किया।

शिविरों का आयोजनः ग्रामीण तथा शहरी भागों में वैचारिक क्रान्ति, सिद्धान्तों की वैज्ञानिकता, मानव को संस्कारित करने के लिए विद्वान् और सेवाभावी लोगों ने शिविरों का आयोजन किया। संस्कार शिविरों द्वारा स्वामी श्रद्धानन्द जी (पूर्वाश्रमी हरिश्चन्द्र गुरु जी) ने अनेक तरुण विद्यार्थी तथा विद्यार्थिनियों को सन्मार्ग बताकर सुसंस्कारित, जागरूक तथा कर्तव्य  परायण नागरिक बनाया। इसी प्रकार आर्यवीर दल तथा स्वास्थ्य रक्षा शिविरों द्वारा नवयुवकों में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता उत्पन्न की तथा व्यसनाधीनता से परामुख किया। इसके साथ-साथ कन्याओं की उन्नति के लिए कन्या संस्कार शिविर, समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को पौरोहित्य कार्य की वैदिक निधि का ज्ञान कराने के लिए पुरोहित प्रशिक्षण शिविर, बाल्यावस्था के कोमल मन पर राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए तथा संस्कारों के बीजवपन के लिए बाल संस्कार शिविर, मन की स्थिरता के लिए ध्यान योग शिविर, आसन प्राणायाम शिविर तथा योग शिविर, रोग चिकित्सा के लिए प्राचीन काल की ऋषियों द्वारा अनुमोदित आयुर्वेद चिकित्सा शिविर तथा गोमाता की रक्षा के लिए गो कृषि शिविर आयोजित किए जाते हैं, जिससे समाज के उपर्युक्त सभी क्षेत्रों तथा अंगों में जागृति आने से व्यक्ति, परिवार, समाज सभी सुखी और स्वस्थ बन सके।

सम्मेलनों का आयोजनः समाज के अन्तिम छोर के व्यक्ति के निर्माण के साथ-साथ, पूरे समाज को जगाने के लिए, वैचारिक क्रान्ति, सामुदायिक परिवर्तन, आत्मविश्वास, सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा बल, बाह्य परम्पराओं से विद्रोह के लिए अनेक शीर्षस्थ विद्वानों के भाषणों से समाज परिवर्तन के लिए विविध स्तरों पर अनेक सम्मेलन आयोजत किए गए। जिनके परिणामस्वरूप जनसामान्य में सामाजिक जागृति हुई। इन सम्मेलनों से विविध प्रदेशों के आर्यसमाजी व्यक्तियों का जहाँ पारस्परिक परिचय हुआ वहीं भाषाई आदान-प्रदान भी हुआ जिसने आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वानों और लेखकों के साहित्य के अनुवाद कार्य के लिए सेतु का कार्य किया। ये सम्मेलन प्रान्तीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित किए जाते हैं। जैसे मॉरीशस के अन्तर्राष्ट्रीय आर्य सम्मेलन में श्री हरिश्चन्द्र जी धर्माधिकारी इत्यादि ने सम्मिलित होकर वहाँ की सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक स्थितियों का अध्ययन किय। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अर्ध शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९३३) तथा महर्षि दयानन्द जी के शताब्दी निर्वाण सम्मेलन (सन् १९८३-८४) में दक्षिण भारत  के हजारों कार्यकर्ता  सम्मिलित हुए और वहाँ से ऊर्जा प्राप्त कर अपने-अपने शहरों, गाँवों तथा महानगरों में अधिकसक्रियता से भाग लिया। इसी प्रकार सामाजिक सुधारों के लिए महिला सम्मेलन, वानप्रस्थियों के आत्म कल्याण के लिए वानप्रस्थी सम्मेलन, सैद्धान्तिक विषयों के विचार-मन्थन के लिए विद्वत्-सम्मेलन, आयोजित किए जिसमें डॉ. ब्रह्ममुनि,डॉ. कुशलदेव शास्त्री, डॉ. देवदत्त  तुंगर आदि ने सक्रिय भाग लिया। बसैये बन्धु ने औरंगाबाद में मराठवाड़ा स्तर का सम्मेलन आयोजित किया जिसमें विद्वानों तथा स्वन्त्रता-सैनानियों को सम्मानित किया गया।

निजाम के विरोध में सत्याग्रहः अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, संस्कृति एवं मानव-धर्म को मिटाने के विरुद्ध, असुरक्षा के विरुद्ध तथा राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करने के लिए, व्यक्ति, परिवार, समाज में  जागृति लाकर शासन के विरुद्ध निजाम के विरोध में न्याय, धर्म, संस्कृति और नागरिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह प्रारम्भ किया। निजाम ने आर्यसमाज के विद्वानों के प्रवेश बन्दी, यज्ञ बन्दी, समाचार-पत्रों पर बन्धन तथा धार्मिक उत्सवों तथा विद्वानों के भाषणों पर बन्दी लागू कर दी, जिससे सार्वदेशिक सभा दिल्ली के नेतृत्व में उत्तर  भारत से विभिन्न नेताओं के नेतृत्व में सत्याग्रही लोगों के जत्थे पर जत्थे आए। उदगीर के दंगे से मराठवाड़ा का वातावरण भी पूरी तरह अशान्त हो गया। श्यामलाल, रामचन्द्रराव कामठे, गंगाराम डोंगरे तथा अमृराव जी को पकड़ा गया और जिन्हें कड़ी से कड़ी धाराओं में सजा दी गई उसमें श्यामलाल जी का बलिदान हुआ। गुलबर्गा में सत्याग्रहियों को जेल में डाला गया जिसमें दक्षिण केसरी पं. नरेन्द्र पर अमानवीय अत्याचार किए गए, जिसमें उनकी एक टांग टूट गई। उन्हें कारावास में अनेक यातनाएँ दी गईं और खाने के लिए सीमेंट की रोटी दी गई। कठोर से कठोर यातनाओं को देने के बाद भी इन देशप्रेमी आर्य सत्याग्रहियों ने माफी नहीं माँगी, जिससे अन्य लोगों में भी देश-प्रेम की भावना जगी और जगह-जगह पर क्रूर निजाम के विरोध में आन्दोलन होने लगे जिसमें हजारों सत्याग्रहियों को कठोर कारावास हुआ तथा अनेक सत्याग्रही हुतात्मा हुए। प्रथम जत्थे के नेता महात्मा नारायण स्वामी थे जो गुरुकुल काँगड़ी के ४० विद्यार्थियों को लेकर शोलापुर से हैदराबाद गए। इसके बाद आठ आर्य नेताओं के नेतृत्व में जिनमें अन्तिम- विनायकराव विद्यालंकार थे, सत्याग्रह किया गया। जिसके सामने निजाम को झुकना पड़ा और उनकी माँगें मान ली गईं। इस सत्याग्रह में मित्रप्रिय मिसाल (नसगीर), खण्डेराव द     दत्तात्रय (शोलापुर) गोविन्दराव (नसंगा), पाण्डुरंग (उस्मानाबाद), सदाशिवराव पाठक (शोलापुर) माधवराव पाठक (लातूर) आदि का जेल में बलिदान हुआ तथा महाराष्ट्र के लगभग ४०० सत्याग्रही लोगों को कठोर कारावास की यातनाएँ भोगनी पड़ी। जिनमें शेषराव वाघमारे, गुरु लिंबाड़ी चव्हाण, दिगम्बरराव धर्माधिकारी, आराम परांडेकर, भीमराव कुलकर्णी (डॉ. धर्मवीर, कार्यकारी प्रधान, परोकारिणी सभा के पिता) रघुनाथ टेके, दिगम्बर शिव नगीटकर, तुलसीराम कांबले, दिगम्बर पटवारी, शंकरराव कापसे इत्यादि सत्याग्रहियों के नाम प्रमुख हैं। यह सूची अत्यन्त प्रदीर्घ है लेकिन स्थानाभाव के कारण कुछ व्यक्तियों के ही नाम दिए गए हैं। इन सभी स्वतन्त्रता सेनानियों के त्याग, बलिदान, राष्ट्रप्रेम, सिद्धान्तप्रियता इत्यादि मूल्यों के कारण ही भारतवर्ष की आजादी के बाद लगभग १३ महीने बाद हैदराबाद राज्य स्वतन्त्र हुआ।

शेष भाग अगले अंक में……

आर्यसमाज से सीखोः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

आर्यसमाज से सीखोः हिन्दू समाज वेद विमुख होने से अनेक कुरीतियों का शिकार है। एक बुराई दूर करो तो चार नई बुराइयाँ इनमें घुस जाती हैं। सत्यासत्य की कसौटी न होने से हिन्दू समाज में वैचारिक अराजकता है। धर्म क्या है और अधर्म क्या है? इसका निर्णय क्या स्वामी विवेकानन्द के अंग्रेजी भाषण से होगा? गीता की दुहाई देने लगे तो गीता-गीता की रट आरम्भ हो गई। गीता में श्री कृष्ण के मुख से कहलवाया गया है कि मैं वेदों में सामवेद हूँ। क्या यह नये हिन्दू धर्म रक्षक वेद के दस बीस मन्त्र सुना सकते हैं?

एक शंकराचार्य बोले साईं बाबा हमारे भगवानों की लिस्ट में नहीं तो दूसरा साईं बाबा भड़क उठा कि साईं भगवान है। इस पर श्री भागवत जी भी चुप हैं और तोगड़िया जी भी कुछ कहने से बचते हैं। प्राचीन संस्कृति की दुहाई देने वाले प्राचीनतम सनातन धर्म वेद से दूर रहना चाहते हैं। धर्म रक्षा शोर मचाने से नहीं, धर्म प्रचार से ही होगी। दूसरों को ही दोष देने से बात नहीं बनेगी। अपने समाज के रोगों का इलाज करो। सनातन धर्म के विद्वान् नेता पं. गंगाप्रसाद शास्त्री ने लिखा है कि पादरी नीलकण्ठ शास्त्री काशी प्रयाग आदि तीर्थों पर प्रचार करता रहा कोई हिन्दू उसका सामना न कर पाया। ऋषि दयानन्द मैदान में उतरे तो उसकी बोलती बन्द हो गयी।

कल्याण में एक शंकराचार्य का लेख छपा कि ओ३म् केवल है केवल ही कर देगा। ब्राह्मणेतर सबको ओ३म् के जप करने से डरा दिया। संघ परिवार ने क्या उसका उत्तर  दिया? उत्तर देना आर्यसमाज ही जानता है। ये लोग सीखेंगे नहीं । ये अमरनाथ यात्रा के लंगर लगाकर धर्म रक्षा नहीं कर सकते। टी.वी. पर एक मौलवी ने इन्हें कहा, इस्लाम मुहम्मद से नहीं  रत आदम व हौवा से आरम्भ होता है। यह आदि सृष्टि से है। विश्व हिन्दू परिषद् का नेता, प्रवक्ता उसका प्रतिवाद न कर सका। कोई आर्यसमाजी वहाँ होता तो दस प्रश्न करके उसे निरुत्तर  करा देता। आदम व माई हौवा के पुत्र पुत्रियों की शादी किस से हुई? उनके सास ससुर कौन थे? एक जोड़े से कुछ सहस्र वर्ष में इतनी जनसंख्या कैसे हो गई?

एक मियाँ ने कहा जन्म से हर कोई मुसलमान ही पैदा होता है। किसने उसका उत्तर  दिया?

शंकराचार्य की गद्दी पर आज भी ब्राह्मण ही बैठ सकता है। काशी, नासिक, बैंगलूर आदि नगरों में विश्व हिन्दू परिषद् एक तो वेदपाठशाला दिखा दे जहाँ सबको वेद के पठन पाठन का अधिकार हो। काशी में कल्याणी देवी नाम के एक आर्य कन्या को मालवीय जी के जीवन काल में धर्म विज्ञान की एम.ए. कक्षा में वेद पढ़ने से जब रोका गया तो आर्य समाज को आन्दोलन करना पड़ा । यह कलङ्क का टीका कब तक रहेगा?

पं. गणपति शर्मा जी का वह शास्त्रार्थः- एक स्वाध्यायशील प्रतिष्ठित भाई ने पं. गणपति शर्मा जी के पादरी जानसन से शास्त्रार्थ के बारे में कई प्रश्न पूछ लिये। संक्षेप से सब पाठक नोट कर लें । यह शास्त्रार्थ १२ सितम्बर सन् १९०६ में हजूरी बाग श्रीनगर में महाराजा प्रतापसिंह के सामने हुआ। यह गप्प है, गढ़न्त है कि तब राज्य में आर्यसमाज पर प्रतिबन्ध था। पोपमण्डल अवश्य वेद प्रचार में बाधक था। तब श्रीनगर आर्यसमाज के मन्त्री महाशय गुरबख्श राय थे। हदीसें गढ़नेवालों ने सारा इतिहास प्रदूषित करने की ठान रखी है। मन्त्री गुरबख्श राय जी का छपवाया समाचार इस समय मेरे सामने है। और क्या प्रमाण दूँ?

ये चार राम थेः पं. लेखराम, पं. मणिराम (पं. आर्यमुनि), लाला मुंशीराम तथा पं. कृपाराम (स्वामी श्री दर्शनानन्द)। हम पहले बता चुके हैं कि पं. आर्यमुनि जी उदासी सम्प्रदाय से आर्यसमाज में आये थे अतः आपको सिख साहित्य का अथाह ज्ञान था। वेद शास्त्र मर्मज्ञ तो थे ही। पुराने पत्रों में यह समाचार मिलता है कि इस काल में सिख ज्ञानियों के मन में यह विचार आया कि जीव ब्रह्म के भेद और सम्बन्ध विषय में किसी दार्शनिक विद्वान् की स्वर्ण मन्दिर में व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाये। तब एक मत से सबने पं. आर्यमुनि जी को इसके लिये चुना।

पण्डित जी ने लगातार सात दिन तक जीव व ब्रह्म के स्वरूप, सम्बन्ध व भेद पर स्वर्ण मन्दिर में व्याख्यान दिये। सब आनन्दित हुए। इसके पश्चात् स्वर्ण मन्दिर में किसी संस्कृतज्ञ, वेद शास्त्र मर्मज्ञ की व्याख्यानमाला की कहीं चर्चा नहीं मिलती।

डॉ. रामप्रकाश जी का सुझावः- डॅा. रामप्रकाश जी से चलभाष पर यह पूछा कि आपके चिन्तन व खोज के अनुसार महर्षि दयानन्द जी के पश्चात् आर्य समाज के प्रथम वैदिक विद्वान् कौन थे? आपने सप्रमाण अपनी खोज का निचोड़ बताया, ‘‘पं. गुरुदत्त  विद्यार्थी।’’

मैंने कहा कि मेरा भी यह मत है कि सागर पार पश्चिमी देशों में जिसके पाण्डित्य की धूम मच गई निश्चय ही वे पं. गुरुदत्त थे। सन् १८९३ में अमेरिका में वितरण के लिए उनके उपनिषदों का एक ‘शिकागो संस्करण’ पंजाब सभा ने छपवाया था। इसकी एक दुर्लभ प्रति सेवक ने सभा को भेंट कर दी है। इसका इतना प्रभाव पड़ा कि अमेरिका के एक प्रकाशक ने इसे वहाँ से छपवा दिया। इस दृष्टि से पं. गुरुदत्त निर्विवाद रूप से ऋषि के पश्चात् प्रथम वेदज्ञ हुए हैं। परन्तु वैसे देखा जाये तो ऋषि जी के पश्चात् पं. आर्यमुनि आर्यसमाज के प्रथम वेदज्ञ हैं । मेरा विचार सुनकर डॉ. रामप्रकाश जी ने तड़प-झड़प में उन पर कुछ लिखने को कहा।

पण्डित जी ने राजस्थान में गंगानगर (तब छोटा ग्राम था) में संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए काशी चले गये। वे उदासी सम्प्रदाय से थे। वहीं ऋषि के दर्शन किये। एक शास्त्रार्थ भी सुना। ऋषि के संस्कृत पर असाधारण अधिकार तथा धाराप्रवाह सरल, सुललित संस्कृत बोलने की बहुत प्रशंसा किया करते थे। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी को अजमेर में बताया था कि ऋषि जी को काशी में सुनकर आप आर्य बन गये। आप ऐसे कहिये कि एक ब्रह्म जीव बन गया।

पण्डित जी का पूर्व नाम मणिराम था। आर्य समाज के इतिहास में प्रथम प्रान्तीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब थी। इसके प्रथम दो उपदेशक थे पं. लेखराम जी तथा पं. आर्यमुनि जी महाराज। दोनों अद्वितीय विद्वान्, दोनों ही शास्त्रार्थ महारथी और दोनों चरित्र के धनी, तपस्वी, त्यागी और परम पुरुषार्थी थे। पण्डित जी जब सभा में आये थे तो आपका नाम मणिराम ही था। राय ठाकुरदत्त  (प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन के दादा) जी ने इन दोनों विभूतियों के तप,त्याग व लगन की एक ग्रन्थ में भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सभा के आरम्भिक काल में पेशावर से लेकर दिल्ली तक और सिंध प्रान्त व बलोचिस्तान में चार रामों ने वैदिक धर्मप्रचार की धूम मचा रखी थी।

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज सुनाया करते थे कि पं. आर्यमुनि जी अपने व्याख्यानों में पहलवानों के और मल्लयुद्धों के बड़े दृष्टान्त सुनाया करते थे परन्तु थे दुबले पतले। एक बार एक सभा में एक श्रोता पहलवान ने पण्डित जी से कहा, ‘‘आप विद्या की बातें और विद्वानों के दृष्ठान्त दिया करें। कुश्तियों की बातें सुनाना आपको शोभा नहीं देता। इसके लिये बल चाहिये।’’ इस पर पण्डित जी ने कहा मल्लयुद्ध भी विद्या से ही जीता जा सकता है। इस पर पहलवान ने उन्हें ललकारा अच्छा फिर आओ कुश्ती कर लो। पण्डित जी ने चुनौती स्वीकार कर ली। सबने रोका पर पण्डित जी कपड़े उतारकर कुश्ती करने पर अड़ गये। पहलवान तो नहीं थे। अखाड़ों में कुश्तियाँ बहुत देखा करते थे। सो स्वल्प समय में ही न जाने क्या दांव लगाया कि उस हट्टे-कट्टे पहलवान को चित करके उसकी छाती पर चढ़कर बैठ गये। श्रोताओं ने बज्म (सभा) को रज्म (युद्धस्थल) बनते देखा। लोग यह देखकर दंग रहे गये कि वेद शास्त्र का यह दुबला पतला पण्डित मल्ल विद्या का भी मर्मज्ञ है।

पण्डित जी का जन्म बठिण्डा के समीप रोमाना ग्राम का है। वे एक विश्वकर्मा परिवार में जन्मे थे। गुण सम्पन्न थे। कवि भी थे। हिन्दी व पंजाबी दोनों भाषाओं के ऊँचे कवि थे।

बड़ों ने सिखायाःप्रा राजेंद्र जिज्ञासु

बड़ों ने सिखायाः मेरे प्रेमी पाठक जानते हैं कि मैं यदा-कदा अपने लेखों व पुस्तकों में उन अनेक आर्य महापुरुषों व विद्वानों के प्रति कृतज्ञता व आभार प्रकट करता रहता हूँ जिन्होंने मुझे कुछ सिखाया, बनाया अथवा जिनसे मैंने कुछ सीखा। मैंने प्रामाणिक लेखन के लिये नई पीढ़ी के मार्गदर्शन के लिए ‘दयानन्द संदेश’ में पं. लेखराम जी तथा पूजनीय स्वामी वेदानन्द जी की एक-एक घटना दी थी। कुछ युवकों को ये दोनों प्रसंग अत्यन्त प्रेरक लगे। तब कुछ ऐसे और प्रसंग देने की मांग आई।

आज लिखने के लिये कई विषय व कई प्रश्न दिये गये हैं परन्तु दो मित्रों के चलभाष पाकर प्रामाणिक लेखन के लिए  अपने दो संस्मरण देना उपयुक्त व आवश्यक जाना। श्री वीरेन्द्र ने सन् १९५७ में अपनी जेल यात्रा पर एक लेखमाला में लिखा था कि उनके साथ वहीं उनके पिता श्री महाशय कृष्ण जी व आनन्द स्वामी जी को बन्दी बनाया गया। महाशय जी की आयु अधिक थी, शरीर निर्बल व कुछ रोगी भी था। उन्हें रात्रि समय शरीर में बहुत दर्द होने से नींद नहीं आती थी । एक रात्रि शरीर दुखने से वे हाय-हाय कर रहे थे। वीरेन्द्र जी को गहरी नींद में पिता के कष्ट का पता ही न चला। आनन्द स्वामी जी वैसे ही दो-तीन बजे के बीच उठने के अभ्यासी थे। आप उठे और महाशय जी के शरीर को दबाने लगे।

महाशय जी समझे के वीरेन्द्र मेरा शरीर दबा रहा है फिर पता चला कि श्री आनन्द स्वामी जी उनकी टांगें बाहें दबा रहे हैं। आपने महात्मा जी को रोका। आप संन्यासी हैं, ऐसा मत करें। श्री स्वामी ने कहा, आप मुझ से बड़े हैं। हमारे नेता हैं। सेवा करने का मेरा अधिकार मत छीनिये।

इस घटना की जाँच व पुष्टि के लिए मैं आनन्द स्वामी जी के पास गया। आपने भी वही कुछ बताया और कहा कि महाशय जी का ध्यान बदलने के लिये मैं उन्हें हँसाता रहता, चुटकले सुनाता इत्यादि। मेरे ऐसा करने से इतिहास की पुष्टि हो गई। प्रामाणिकता को बल मिला। प्रसंग से पाठकों को अधिक ऊर्जा मिली।

स्वामी सत्यप्रकाश जी के संन्यास के पश्चात् श्री आनन्द स्वामी पहली बार तब प्रयाग गये तो आर्यों से कहा, ‘‘मैं स्वामी सत्यप्रकाश जी के दर्शन करना चाहता हूँ। उनसे मिलवा दें।’’

उन्होंने कहा, ‘‘वे आपसे मिलने आयेंगे ही।’’

श्री आनन्द स्वामी जी ने कहा, ‘‘नहीं मैं वहीं जाऊँगा।’’ उनका आग्रह देखकर समाज वाले उन्हें कटरा समाज में ले गये। महात्मा जी को देखते ही स्वामी सत्यप्रकाश उनके चरण स्पर्श करने उठे। उधर से आनन्द स्वामी उनके चरण स्पर्श करने को बढ़े। देखने वालों को इस चरण स्पर्श प्रतियोगिता का बड़ा आनन्द आया। वे दंग भी हुये।

इस घटना की जानकारी पाकर मैं महात्मा जी से मिला और कहा, ‘‘प्रयाग में स्वामी सत्यप्रकाश जी के चरण स्पर्श की अपनी घटना, आप सुनायें।’’ आपने कहा, ‘‘हमारे महान् नेता और विद्वान् पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी के सपूत ने धर्मप्रचार के लिए संन्यास लिया है। मैं उनके दर्शन करने को उत्सुक था। सारी घटना सुना दी। फिर स्वामी सत्यप्रकाश जी के पास गया उनसे भी वही निवेदन किया। आपने भी घटना सुनाते हुए कहा, आनन्द स्वामी  बड़े हैं, उनके शरीर में फुर्ति है। वे जीत गये।  मैं हार गया।’’

पता चला कि उस समय श्री गौरी शंकर जी श्रीवास्तव वहीं थे। मैं उनके पास गया। दर्शक की प्रतिक्रिया जानी। इसी प्रकार इतिहास की सामग्री की खोज में मैंने सदा इसी ढंग से जाँच पड़ताल के लिए भाग दौड़ की। समय दिया। धन फूँका।

उतावलापना इतिहास रौंद देता हैः किसी योग्य युवक ने अब्दुलगफूर  पाजी जो धर्मपाल बनकर छलिया निकला उसके बारे में चलभाष पर कई प्रश्न पूछे। मैंने उन्हें कुछ बताया और कहा, उस पर कुछ मत लिखें। मेरे से मिलकर बात करें। आपकी जानकारी भ्रामक है। अधकचरे लेखकों ने इतिहास को पहले ही प्रदूषित कर रखा है। एक ने उसे महाशय धर्मपाल लिखा है। वह कभी महाशय धर्मपाल के रूप में नहीं जाना गया। सत्यार्थप्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाने का उसने भी छेड़ा था। इतिहास रौंदने वालों ने यह तो कभी नहीं बताया।

लोखण्डे जी का चलभाषः माननीय लोखण्डे जी ने इस्लाम छोड़कर आर्य समाज में प्रविष्ट होने वालों पर ग्रन्थ लिखने का मन बनाया। मैंने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा, ‘‘आप मौलाना हैदर शरीफ पर कुछ खोज करें।’’

उन्होंने पुनः सूफी ज्ञानेन्द्र व पं. देवप्रकाश जी पर कुछ जानकारी चाही। तब मुझे विवश होकर यह बताना पड़ा कि श्री लाजपतराय अग्रवाल से मिलें। वह बतायेंगे कि सन् १९७७ में इसी व्यक्ति ने हनुमानगढ़ समाज के उत्सव में घुसकर समय लेकर आर्यसमाज की भरपेट निन्दा की। किसी अन्य संगठन का गुणगान कर वातावरण बिगाड़ा । श्री लाजपतराय ने मुझे उसका उत्तर  देने के लिए अनुरोध किया । मैंने अपने व्याख्यान में सूफी के  विषैले कथन का निराकरण कर दिया। तब उसके प्रेमी संगठन के लोग मुझे पीटने को…….. मुझे कहा गया , आप भीतर कमरे मे चलिये। ये लोग आपको मारेंगे।

मैंने कहा, ‘‘जो कैरों के मारे न मरा वह इनके मारने से भी नहीं मरेगा। आये जिसका जी चाहे।’’

इसी व्यक्ति ने गंगानगर समाज में आर्यसमाज की निन्दा में कमी न छोड़ी। तब ला. खरायतीराम जी ने व मैंने उत्तर  दिया।

कोटा से भी किसी ने परोपकारी में इसकी प्रशंसा में ………मैं चुप रहा। इसी सूफी ने कभी एक अत्यन्त निराधार चटपटी कहानी स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज के बारे गढ़कर भ्रामक प्रचार किया। स्वामी जी महाराज का तो यह कुछ न बिगाड़ सका, यह आप ही आर्यसमाज में किनारे लग गया। व्यसनी भी था। इस पर लिखने के लिए उत्सुक जन वैदिक धर्म पर इसके दस बीस लेख तो कहीं खोजकर लायें।

मैं किसी को निरुत्साहित करने का पाप तो नहीं कर सकता, परन्तु दृढ़ता पूर्वक कहूँगा कि जो लिखो वह प्रामाणिक, प्रेरणाप्रद, खोजपूर्ण व मौलिक हो। विरोधियों के उत्तर  तो देते नहीं। जिससे न्यूज बने, कुछ भाई ऐेसे विषय ही चुनते हैं। पूज्य पं. देवप्रकाश जी के शिष्यों की खोज करके कुछ लिखो।

वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६

बोधत्व राष्ट्र के लिए शिवदेव आर्य

संसार में जितने भी पर्व तथा उत्सव आते हैं, उन सबका एक ही माध्यम (उद्देश्य) होता है – हम कैसे एक नए उत्साह के साथ अपने कार्य में लगें? हमें अब क्या-क्या नई-नई योजनाएं बनाने की आवश्यकता है, जो हमें उन्नति के मार्ग का अनुसरण करा सकें। समाज में दृष्टिगोचर होता है कि उस उत्सव से अमुक नामधारी मनुष्य ने अपने जीवन को उच्च बनाने का संकल्प लिया और पूर्ण भी किया।
यह सत्य सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति सफल होते हैं, वह कुछ विशेष प्रकार से कार्य को करते हैं। शिवरात्री का प्रसिद्ध पर्व प्रायः सम्पूर्ण भारतवर्ष में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। उपासक सम्पूर्ण दिन उपवास रखते हैं तथा रात्री को शिव की आराधना करते हुए शिव के दिव्य दर्शन प्राप्त करने का अतुलनीय प्रयास करते हैं। ऐसा ही प्रयास करने का इच्छुक अबोध बालक मूलशंकर भी आज से लगभग १७२ वर्ष पूर्व ‘शिवरात्री’ का पर्व परम्परागत रूप से मनाता है।
घोर अन्धकार को धारण की हुई कालसर्पिणी रूपी रात्री में एक अबोध बालक बोध की पिपासा लिये शिव के दर्शन करने का यत्न करता है। शिव की मूर्ति उसके नेत्रों के सामने थी। जैसे-जैसे रात्री का अन्धकार बढ़ता जा रहा था वैसे-वैसे ही बालक मूलशंकर का मन एकाग्र होता जा रहा था।
अचानक एक महत् आश्चर्यजन्य आश्चर्य का उदय होता है। शिव की प्रतिमा पर चूहे चढ़ गये। चूहें शनै-शनै (धीरे-धीरे) मिष्ठान्नों को खाने लगे और मूर्ति के ऊपर मल-मूत्र का विसर्जन कर रहे थे। इस कृत्य को देख बालक के होश उड़ गये। आखिर ये हो क्या रहा है? कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। अचानक याद आया कि पिता जी ने बताया था कि शिव इस संसार की रचना करते हैं तथा पालन करते हुए इस सृष्टि का संहार करते है। अरे, ये तो बडी विचित्र बात हुई भला जिसके दो हाथ हो, दो पैर हो, दो ही नेत्र आदि-आदि सब कुछ हमारे ही समान हो वह इतना विचित्र कैसे हो सकता है? वह इस सम्पूर्ण संसार का निर्माण कैसे कर सकता है? इतने बडे़-बडे़ पर्वतों तथा नदी-नालों का निर्माण कैसे कर सकता है? और यदि कर भी सकता है तो यह मूर्ति रूप में क्यों है? प्रत्यक्ष सामने क्यों नहीं आता? बहुत विचार-विमर्श करने के पश्चात् बालक ने पिता जी से पूछ ही लिया कि पिता जी! आप ने कहा था कि आज रात्री को शिव के दर्शन होंगे परन्तु अभी तक तो कोई शिव आया ही नहीं है। और ये चूहें कौन हैं, जो शिव के ऊपर चढ़े चढ़ावे को खाकर यहीं मल-मूत्र का विसर्जन कर रहे हैं? जब शिव सम्पूर्ण संसार का निर्माण करके उसका पालन करता है, तो ये अपनी स्वयं की रक्षा करने में क्यों असमर्थ हो रहा है? आखिर असली शिव कौन-सा है? कब दर्शन होंगे? आदि-आदि प्रश्नों से पिता श्री कर्षन जी बहुत परेशान हो गये तथा अपने सेवकों को आदेश दिया कि इसे घर ले जाओ। घर जाकर मां से भी यही प्रश्न, पर समाधान कहीं नहीं मिला। शिव की खोज में घर को छोड़ दिया। जो जहां बताता वहीं शिव को पाने की इच्छा से इधर-उधर भटकने लगा पर अन्त में अबोध को बोधत्व (ज्ञान) प्राप्त हो ही गया।
और उसी स्वरूप का वर्णन करते हुए आर्य समाज के द्वितीय नियम में लिखते हैं कि – जो सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हो, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्म, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र हो और जो इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना, पालन तथा संहार करता हो, वही परमेश्वर है। इससे भिन्न को परमेश्वर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी परमेश्वर की सभी जनों को स्तुति, प्रार्थना उसी उपासना करनी चाहिए।
आज भी आवश्यकता है अपने अन्तःकरण की आवाज सुनने की । जब स्वयं के भीतर सोये हुऐ शिव को जागृत करेंगे तभी जाकर शिव के सत्य स्वरूप को जानने का मार्ग प्रशस्त हो पायेगा।
सच्चे शिव का जो संकल्प बालक मूलशंकर ने लिया था, उस संकल्प की परिणति शिव के दर्शन के रूप में हुई । वह कोई पाषाण नहीं और न ही कपोलकल्पित कैलाश पर्वतवासी था। उसी सत्य शिव के ज्ञान ने अबोध बालक मूलशंकर को महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के नाम से विश्वभर में प्रसिद्ध करा दिया।
भारतवर्ष में देशहित अपने जीवन का सर्वस्व त्याग करने वाले अनेकशः महापुरुष हुए किन्तु महर्षि दयानन्द सरस्वती उन सभी महापुरुषों में सर्वश्रेष्ठ थे। सर्वश्रेष्ठ से यहां यह तात्पर्य बिल्कुल भी नहीं है कि किसी का अपमान अथवा निम्नस्तर को प्रस्तुत किया जाये। जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन सबकी अपनी एक अविस्मरणीय विशेषता रही है कि वह अपने सम्पूर्ण जीवन में एक अथवा कुछ कार्यों में ही जुटे रहे। जैसे किसी ने स्वराज्य स्थापना पर, किसी ने धर्म पर, किसी ने विधवा विवाह पर, किसी ने स्वभाषा पर, किसी ने भ्रष्टाचार पर, किसी ने बाल-विवाह पर, किसी ने कन्या शिक्षा पर, किसी ने स्वसंस्कृति-सभ्यता पर ध्यान दिया है किन्तु ऋषिवर देव दयानन्द जी का जीवन एकांगी न होकर सभी दिशाओं में प्रवृत्त हुआ है। सभी विषय से सम्बन्धित कुकर्मों को समाप्त करने का प्रयास किया।
शिवरात्री के इस पर्व को बोधोत्सव के रूप में मनाने का उद्देश्य यह नहीं है कि बोधरात्री को जो हुआ उसे स्मरण ही किया जाये। अगर बोध रात्री का यही तात्पर्य होता तो स्वामी दयानन्द जी भी शिव को खोजने के लिए एकान्त शान्त पर्वत की किसी कंदरा में जाकर बैठ सकते थे। और उस परमपिता परमेश्वर का ध्यान कर सकते थे, मोक्ष को शीघ्र प्राप्त कर सकते थे किन्तु ऋषि ने वही शिव का स्वरूप स्वयं में अंगीकृत करके अर्थात् कल्याण की भावना को स्वयं के अन्दर संजोकर भारत माता की सेवा में जुट गये। ‘इदं राष्ट्राय इदन्नमम’ की भावना से अपने जीवन पथ पर निरन्तर अबाध गति से चलते रहे। और अपने जीवन से अनेक अबोधियों को बोधत्व प्राप्त कराकर देशहित समर्पित कराया।
आज हम जब भारत माता की जय बोलते हैं तो वो किसी देवी अथवा किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष की जय नहीं है प्रत्युत प्रत्येक भारतवासी की जय बोलते हैं। हम सब इस बोधोत्सव पर बोधत्व को प्राप्त हो राष्ट्र हित में समर्पित होने वाले हो। ऋषिवर का प्रत्येक कर्म देश के हित में लगा और उनका भी यही स्वप्न था कि हमारा प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक हो एवं सत्य मार्ग का अनुसरण करे।

क्या यही हुतात्माओं का भारतवर्ष है? शिवदेव आर्य

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आज हमारे भारतवर्ष को गणतन्त्र के सूत्र में बन्धे हुए 66 वर्ष हो चुकें हैं। इन वर्षों में हमने बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ खोया है। गणतन्त्रता का अर्थ है – हमारा संविधान, हमारी सरकार, हमारे कर्तव्य और हमारा अधिकार।

                भारत का प्रत्येक नागरिक जब गणतन्त्र दिवस का नाम सुनता है तो हर्ष से आप्लावित हो उठता है परन्तु जब वही नागरिक इस बात पर विचार करता है कि यह गणतन्त्रता तथा स्वतन्ता हमें कैसे मिली? तो उसकी आंखों से अश्रुधारा वह उठती है और कहने  लग जाता है कि –

दासता गुलामी की बयां जो करेंगे,

मुर्दे भी जीवित से होने लगेंग।

सही है असह्य यातनायें वो हमने,

जो सुनकर कानों के पर्दे हिलेंगे।।

26 जनवरी जिसे गणतन्त्र दिवस के नाम से जाना जाता है। इस दिवस को साकार करने के लिए अनेक वीर शहीदों ने अपने प्राणों की बलि दी थी। गणतन्त्र के स्वप्न को साकार रूप में परिणित करने के लिए अनेकों सहस्त्रों युवा देशभक्तवीरों ने अपनी सब सुख-सुविधाएं छोड़कर स्वतन्त्रता के संग्राम में अपने आप को स्वाहा किया। बहुत से विद्यार्थियों ने अपनी शिक्षा-दीक्षा व विद्यालयों को छोड़ क्रान्ति के पथ का अनुसरण किया। बहनों ने अपने भाई खोये, पत्नियों को अपने सुहाग से हाथ धोने पड़े, माताओं से बेटे इतनी दूर चले गये कि मानो मां रोते-रोते पत्थर दिल बन गयी। पिता की आशाओं के तारे आसमान में समा गये। जिसे किसी कवि ने अपनी इन पंक्तियों में इस प्रकार व्यक्त किया है-

गीली मेंहदी उतरी होगी सिर को पकड़ के रोने में,

ताजा काजल उतरा होगा चुपके-चुपके रोने में।

जब बेटे की अर्थी होगी घर के सूने आंगन में,

शायद दूध उतर आयेगा बूढ़ी मां के दामन में।।

सम्पूर्ण भारतवर्ष में हा-हाकार मचा हुआ था। अंग्रेज भारतीयों को खुले आम सर कलम कर रहे थे। चारों ओर खुन-ही-खुन नजर आ रहा था। पर ऐसे विकराल काल में हमारे देशभक्तों ने जो कर दिखाया उसे देख अंग्रेजों की बोलती बन्द हो गयी।

जब देश में जलियावाला हत्या काण्ड हुआ तो उधम सिंह ने अपने आक्रोश से लन्दन में जाकर बदला लिया। साईमन के विरोध में लाला लाजपत राय ने अपने को आहूत करते हुए कहा था कि- ‘मेरे खून की एक-एक बूंद इस देश के लिए एक-एक कील काम करेगी’। एक वीर योध्दा ऐसा भी था जो देश से कोसों दूर अपनी मातृभूमि की चिन्ता में निमग्न था और होता भी क्यों न? क्योंकि

-‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिया गरीयसी।’

अर्थात् जननी और जन्मभूमि दोनों ही स्वर्ग से भी महान होती हैं। इसीलिए वेद भी आदेश देता है कि- ‘वयं तुभ्यं बलिहृतः स्यामः’ अर्थात् हे मातृ भूमि! हम तेरी रक्षा के लिए सदैव बलिवेदी पर समर्पित होने वाले हों। शायद इन्हीं भावों से विभोर होकर सुभाष चन्द्र बोस जी ने आजाद हिन्द फौज सेना का गठन किया और ‘तुम मुझे खुन दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा लगाकर अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया।

वह दिन भला कोई कैसे भूला सकेगा? जिस दिन राजगुरु, सुखदेव व भगतसिंह को ब्रिटिश सरकार ने समय से पहले ही  फांसी लगा दी।

अत्याचारियों के कोड़ों की असह्य पीडा को सहन करते हुए भी चन्द्रशेखर आजाद ने इंकलाब जिन्दाबाद का नारा लगाया। अरे! कौन भूला सकता है ऋषिवर देव दयानन्द को जिनकी प्रेरणा से स्वामी श्रद्धानन्द ने चांदनी चैक पर सीने को तानते हुए अंग्रेजों को कड़े शब्दों में कहा कि – दम है तो चलाओ गोली।

देशभक्तों को देशप्रेम से देदीप्यमान करने का काम देशभक्त साहित्यकारों तथा लेखकों ने किया। बंकिमचन्द्र चटर्जी ने ‘वन्दे मातरम्’ लिखकर तो आग में घी का काम किया। जो गीत देश पर आहुत होने वाले हर देशभक्त का ध्येय वाक्य बन गया। इस गीत को हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख सभी ने अपनाया । उन शहीदों के दिल के अरमान वस यही थे, जिनको कवि अपने शब्दों में गुन गुनाता है-

मुझे तोड़ लेना बन माली, उस पथ पर देना फेंक।

मातृभमि पर शशि चढ़ाने, जिस पथ पर जाएॅं वीर अनेक।।

मातृभूमि की रक्षार्थ शहीद होने वाले शहीदों की दासता कैसे भूलाई जा सकती है? हुतात्माओं ने स्वतन्त्रता के लिए अहर्निश प्रयत्न किया। भूख-प्यास-सर्दी-गर्मी जैसी कठिन से कठिन यातनाओं को सहन किया। धन्य हैं वो वीरवर जिन्होंने हिन्दुस्तान का मस्तक कभी भी नीचे न झुकने दिया। स्वतन्त्रता के खातिर हॅंसते-हॅंसते फांसी के फन्दे को चुम लेते थे, आंखों को बन्द कर कोड़ों की मार को सह लेते थे, अपना सब कुछ भूलाकर बन्दूकों व तोपों के सामने आ जाते थे। मां की लोरी, पिता का स्नेह, बहन की राखी, पत्नी के आंसू और बच्चों की किल्कारियां जिनको अपने पथ से विचलित नही कर पाती। उनका तो बस एक ही ध्येय हो ता था-‘कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्’। देशभक्त जवान अंग्रेजों को ललकारते हुए कहा करते थे-

शहीदों के खून का असर देख लेना,

मिटा देगा जालिम का घर लेना।

झुका देगें गर्दन को खंजर के आगे,

खुशी से कटा देगें सर देख लेना।।

वीर हुतात्माओं के अमूल्य रक्त से सिंचित होकर आजादी हमें प्राप्त हुई है। जिस स्वतन्त्रत वातावरण में हम श्वास ले रहें हैं वह हमारे वीर हुतात्माओं की देन है। स्वतन्त्रता रूपी जिस वृक्ष के फलों का हम आस्वदन कर रहे हैं उसे उन वीर हुतात्माओं ने अपने लहु से सींचा है । आजादी के बाद स्वतन्त्रता का जश्न मनाते हुए नेताओं ने वादा किया था कि-

‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले।

वतन पर मिटने वालों का यही निशां होगा।।’

परन्तु बहुत दुःख है कि शायद वर्तमान में हमारे नेता इस आजादी के मूल्य को भूल बैठे हैं। उनके विचार में आजादी शायद खिलौना मात्र है, जिसे जहां चाहा फेंक दिया। जब चाहा अपने पास रख लिया किन्तु ऐसा नहीं है। हमारे नेताओं ने देश को जिस स्थिति पर लाकर खडा कर दिया है, क्या यही है वीर हुतात्माओं के स्वप्नों का भारत? क्या यही है मेरा भारत महान्? क्या यही दिन देखने के लिए वीरों ने अपनी बलि दी? आखिर क्यों हो रहा है।? इस परिदृश्य को देखते हुए कि कवि ने ठीक ही कहा है –

शहीदों की चिताओं पर न मेले हैं न झमेले हैं।

हमारे नेताओं की कोठियों पर लगे नित्य नये मेले हैं।।

धन्य है इस देश के नेता, जो गरीब जनता की खून-पसीने की कमाई को निज स्वार्थता में अदा कर देते हैं। घोटाले कर अपने घर को भर लेते हैं। वन्दे मातरम् गीत को न गाने वाले उन नेताओं व मुस्लिम भाईयों से मैं पूछता हूं कि जो विचार आज ये नेता या मुस्लिम भाई रखते हैं। यह विचार बिस्मिल्ला खां ने भी तो सोचा होगा। उस समय की मुस्लिम लीग ने तो कोई चिन्ता नहीं की थी। वे तो देश की स्वतन्त्रता में संलग्न थे, पर शायद इन्हें देश की एकता सहन नहीं हो रही है। देशभक्त ऐसे विचार नहीं रखा करते हैं।

क्यों हम इतने दीन-हीन हो गए है कि किसी शत्रु के छद्म यु द्ध का प्रत्युत्तर नहीं दे पा रहे है? क्यों 26 नवम्बर के मुम्बई हमले को हम इतनी आसानी से भूल जाते हैं? क्यों हम व्यर्थ में मन्दिर-मस्जिद के विवाद में फस रहें हैं? क्यों हमारी न्यायिक प्रक्रिया में इतनी शिथिलता व अन्याय है कि आतंकवादी लोग आज भी मौज मस्ती से घूम रहे हैं? यहाॅं धन से न्याय खरीदा जाने लगा है।

हे ईश्वर! यह कैसी राजनीति है? जिससे चक्कर में पड़कर हम अपनी भाषा, संस्कृति व देश की उन्नति को भूल बैठे है। क्यों  हम इतने कठोर हृदयी हो गए कि गरीब जनता का हाल देख हमारा हृदय नहीं पिघंलता है? क्यों हम पाप करने से नहीं रुक रहे? क्यों हम अपने देश की सीमाओं को सुरक्षित नहीं कर पा रहे हैं?

हमारे गणतन्त्र को खतरा है उन आतंकवादी गतिविधियों से, देशद्रोहियों से, सम्प्रदायवादियों से, धर्मिक संकीर्णता से, भ्रष्टाचार से एवं शान्त रहने वाली इस जनता से। हम भारतवासियों का यह कर्तव्य है कि देश की रक्षा एवं संविधान को मानने के लिए हम अपने आपको बलिदान कर देवें। हमें प्रत्येक परिस्थितयों में अपने देश की रक्षा करनी है। यह सत्य है कि विभिन्नता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। खासकर मैं युवाओं से कहना चाहता हूं-

हे नवयुवाओ? देशभर की दृष्टि तुम पर ही लगी,

है मनुज जीवन की ज्योति तुम्ही से  जगमगी।

दोगे न तुम तो कौन देगा योग देशोद्धार में?

देखो कहा क्या हो रहा है आज कल संसार में।।

आओ! हम सब मिलकर गणतन्त्र के यथार्थ स्वरूप को जानकर संविधान के ध्वजवाहक बनें और तभी जाकर हम सर उठाकर स्वयं को गणतन्त्र घोषित कर सकेंगे और कह सकेंगे कि – जय जनता जनार्दन।

और अन्त में मैं वाणी को विराम देता हुआ यही कहना चाहूंगा-

ये किसका फसना है ये किसकी कहानी है,

सुनकर जिसे दुनिया की हर आंख में पानी है।

दे मुझको मिटा जालिम मत मेरी आजादी को मिटा,

ये आजादी उन अमर हुतात्माओं की अन्तिम निशानी है।।

 

 

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव जी

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जिज्ञासाअथर्ववेद में निनलिखित दो मन्त्र इस

प्रकार से हैं-

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।

तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।

तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः।।

– अथर्ववेद 10/2/31-32

पहले मन्त्र में मनुष्य के शरीर की संरचना का वर्णन किया गया है। संक्षेप में, यह स्पष्ट रूप में कहा गया है कि हमारे शरीर में आठ चक्र हैं। मैं अपने अल्प ज्ञान के आधार पर यही समझता हूँ कि वेद-मन्त्र का संकेत मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र नामक आठ चक्रों पर है। इस शरीर में एक आनन्दमय कोश है जो कि आत्मा का निवास-स्थान है। इस आत्मा में जो परमात्मा विद्यमान है, ब्रह्म-ज्ञानी उसे ही जानने का प्रयास करते हैं। जहाँ तक मैंने वैदिक विद्वानों के मुखारविन्द से सुना है, ब्रह्म-रन्ध्र आनन्दमय कोश में ही विद्यमान है। उनका यह भी कथन है कि मस्तिष्क को भी हृदय कहा जाता है। मस्तिष्क की स्थिति आनन्दमय कोश में है।

जब स्तभवृत्ति द्वारा, श्वासों की गति को कुछ क्षणों के लिए रोक दिया जाता है तो मन के द्वारा ध्यान लगाने में सुविधा होती है। जब श्वासों को ब्रह्म-रन्ध्र की स्थिति में रोका जाए तो मन शीघ्र ही एकाग्र हो जाता है क्योंकि दोनों ही एक कोश में विद्यमान है। स्वभाविक रूप से ब्रह्मरन्ध्र (सहस्रार) में धारणा करते हुए आत्मा का अन्तःकरण के द्वारा चिन्तन करना अधिक सरल हो जाता है। वक्षस्थल के समीप जिसे व्यवहारिक भाषा में हृदय कहा जाता है, ध्यान बिखरने लगता है क्योंकि ध्यान लगाने वाला तो इस कोश में है नहीं।

ऊपर लिखित तथ्यों को ध्यान रखते हुए मेरी निनलिखित जिज्ञासायें हैं और प्रार्थना है कि उनका अपनी पत्रिका में यथोचित समाधान करते हुए कृतार्थ करें।

(क) अथर्ववेद में किन आठ चक्रों का वर्णन किया गया है।

(ख) इन आठ चक्रों का क्या महत्त्व है, विशेषतया ध्यान की पद्धति में?,

(ग) क्या ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान करना युक्ति-युक्त नहीं? क्या यह वर्जित है?

समाधान की प्रतीक्षा में,

– रमेश चन्द्र पहूजा, प्रधान, आर्यसमाज मॉडल टाऊन, यमुनानगर

समाधान आज अध्यात्म के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ चल रही हैं। यथार्थ में अध्यात्म क्या है? इसको प्रायः लोग समझते ही नहीं। बिना समझे अध्यात्म के नाम पर भ्रान्ति में जीवन जी रहे होते हैं। आत्मा-परमात्मा के विषय को अधिकृत करके विचार करना उसके अनुसार जीना अध्यात्म है। ठीक-ठीक वैदिक सिद्धान्तों को समझना उनको आत्मसात करना उनके अनुसार अपने को चलाना अध्यात्म है। यह अध्यात्म तनिक कठिन है। इस कठिनता भरे अध्यात्म को अपनाने के लिए साहस और पुरुषार्थ की आवश्यकता है। प्रायः आज का व्यक्ति पुरुषार्थ से बचना चाहता है इसलिए उसको सरल मार्ग चाहिए। यम-नियम आदि के बिना ही कुण्डलिनी जाग्रत कर मोक्ष चाहता है। इन कुण्डलिनी आदि के साथ चक्रों के चक्र में भी घुमने लगता है।

महर्षि दयानन्द ने हमें विशुद्ध अध्यात्म का परिचय ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासना विषय, मुक्ति विषय में व सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 7 व 9 में तथा अध्यात्म से ओतप्रोत ग्रन्थ आर्याभिविनय में करवा दिया है। महर्षि के इस अध्यात्म में कुण्डलिनी और चक्रों की कोई चर्चा नहीं है। महर्षि दयानन्द ने हठयोग प्रदीपिका पुस्तक को अनार्ष ग्रन्थ माना है और ये कुण्डलिनी आदि उसी अनार्ष ग्रन्थ की देन है। न ही सांय आदि शास्त्र में इनका वर्णन है। ऋषियों के ग्रन्थों में तो यमनियामादि के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान से मुक्ति कही है न कि कुण्डलिनी जागरण से। अस्तु।

अथर्ववेद के जो मन्त्र आपने उद्धृत किये हैं उन मन्त्रों के आर्ष भाष्य उपलध नहीं हैं, अन्य विद्वानों के भाष्य उपलध हैं। जो भाष्य उपलध हैं उन विद्वानों का मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् प्रचलित चक्रों की बात करते हैं कुछ नहीं। जो प्रचलित चक्रों को मानते हैं वे इन्हीं चक्रों परक अर्थ करते हैं और जो नहीं मानते वे चक्र का अर्थ आवर्तन घेरा आदि लेते हुए शरीर में स्थित ओज सहित अष्ट धातुओं का जो वर्णन है उसको लेते हैं अथवा अष्टाङ्ग योग को लेते हैं। ये विद्वानों की अपनी मान्यता है। यथार्थ में मन्त्र में आये अष्ट चक्र में कौनसे आठ चक्र कहे हैं, यह निश्चित नहीं हैं। हमें अधिक संगत अष्ट धातु परक अर्थ लगता है, फिर भी यह अन्तिम नहीं है।

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में तन्त्रादि ग्रन्थों को भी पढ़ा था। उन तन्त्र ग्रन्थों में शरीर रचना विशेष की बातें लिखी थी। उन पुस्तकों में कई पुस्तकों का विषय नाड़ीचक्र था। महर्षि ने शव परीक्षण भी किया था जो उन नाड़ीचक्र आदि विषय वाली पुस्तकों के अनुसार खरा नहीं उतरा अर्थात् नाड़ीचक्र आदि वहाँ कुछ नहीं मिला। उससे ऋषि का और अधिक दृढ़ निश्चय आर्ष ग्रन्थों पर हुआ। वर्तमान के चिकित्सकों को भी ये चक्र कुण्डलिनी नहीं मिले हैं। जब ये चक्र हैं ही नहीं तो इनकी ध्यान में उपयोगिता भी कैसी? ध्यान में उपयोगी अपना शुद्ध व्यवहार, सिद्धान्त की निश्चितता, वैराग्य, यम-नियमादि योग के अंग हैं। इनको कर व्यक्ति अच्छी प्रकार ध्यान कर सकता है अन्यथा तो शरीर के चक्रों में ही लगा रहेगा।

हाँ मन्त्र में आये अष्टचक्र से यदि अष्टधातु शरीर में स्थित रसादि सात और आठवाँ ओज लिया जाता है तो निश्चित रूप से इनका महत्त्व है।

आपने पूछा क्या ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान करना युक्ति युक्त नहीं? क्या यह  वर्जित है? इस पर हमारा कथन कि महर्षि पतञ्जली जी ने योगदर्शन में ‘धारणा’ के लिए कहा है, धारणा की परिभाषा करते हुए महर्षि ने सूत्र बनाया ‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’ अर्थात् चित्त का शरीर के एक देश (स्थान) विशेष पर बान्धना (स्थिर) करना धारणा है। इस सूत्र का भाष्य करते हुए महर्षि व्यास ने कुछ स्थानों के नाम गिनाये हैं

नाभिचक्रे, हृदयपुण्डरीके, मूर्ध्नि, ज्योतिषि, नासिकाग्रे, जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु….धारणा।

अर्थात् नाभी, हृदय, मस्तक, नासिका और जिह्वा के अग्रभाग आदि देश में मन को स्थिर करना। यहाँ मुयरूप से मन को एक स्थान पर रोकने की बात कही है वह स्थान कोई भी हो सकता है, ब्रह्मरन्ध्र भी ऋषि के कथन से तो हमें यह प्रतीत नहीं हो रहा कि ध्यान करने के लिए ब्रह्मरन्ध्र विशेष स्थान है और अन्य स्थान सामान्य है। हाँ यह अवश्य प्रतीत हो रहा है कि सभी स्थान अपना महत्त्व रखते हैं। उनमें चाहे नासिकाग्र, जिह्वाग्र हो अथवा ब्रह्मरन्ध्र। यह वर्जित भी नहीं है कि ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान नहीं करना चाहिए, ब्रह्मरन्ध्र में मन टिका कर ध्यान किया जा सकता है।

आपने विद्वानों से सुना है कि ब्रह्मरन्ध्र आनन्दमय कोश में रहता है। मस्तिष्क को हृदय कहा जाता है। मस्तिष्क की स्थिति आनन्दमय कोश में है। आपने जो विद्वानों से सुना है कि हृदय मस्तिष्क है अथवा मस्तिष्क में है यह ऋषि के प्रतिकूल कथन है। हमने कई बार जिज्ञासा समाधान में ऋषि कथनानुसार हृदय स्थान का वर्णन किया है। अब फिर कर रहे हैं ‘जिस समय….. परमेश्वर करके उसमें प्रवेश किया चाहें, उस समय इस रीति से करें कि कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदय देश है। जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप स्थान है…….।’ ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी मस्तिष्क को हृदय कहना, ऋषि मान्यता को न मानना है। इसी हृदय प्रदेश में ध्यान करने वाला आत्मा रहता है। यहाँ पर ठीक-ठीक किया गया ध्यान बिखरेगा नहीं अपितु अधिक-अधिक ध्यान लगेगा।

इसलिए ध्यान उपासना को अधिक बढ़ाने के लिए महर्षि दयानन्द ने जो उपासना पद्धति विशेष बताई है उसके अनुसार चले चलावें इसी से अधिक लाभ होगा। और जो ऋषि मान्यता से विपरीत अन्य विद्वानों के विचार हैं उसको छोड़ने में ही लाभ है। ऋषि मान्यता के विपरीत चाहे कितने ही बड़े विद्वान् की बात क्यों न हो वह हमारे लिए मान्य नहीं है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

सर्व मनोकामना पूर्ण यज्ञ : एक अवैदिक कृत्य : प्रो राजेन्द्र जिज्ञासु

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आज देश में मन्नत माँगने व मन्नतों को पूरा करवाने का बहुत अच्छा धन्धा चल रहा है I पढ़े लिखे लोग भी अंधविश्वासों की दलदल में फंसकर नदी सरोवर के स्नान पेड़ पूजा कबर पूजा कुत्ते बिल्ली के आगे पीछे घूमकर अपनी मनोकामनाएँ पूरी करवाने के लिए धक्के खा रहे हैं I जो सैकड़ों वर्ष पूर्व कबरों में दबाये गए उनको अल्लाह मियाँ ने मनुष्यों के दुःख निवारण करने का मुख्तार बना दिया है I मनुष्यों की इस दुर्बलता का शिकार आर्य समाजी भी हो रहे हैं I  ऐसे अटार्नी जनरल आर्यसमाज में मनोकामनायें  पूरी करवाने के नए नए जाल फैला रहे हैं I  कुछ सज्जनों का प्रश्न है की किसी से कोई यज्ञ अनुष्ठान करवाने से मन्नत पूरी हो जाती हैं ? कामनाएं पूरी करने के लिए वेदानुसार क्या कर्म करने चाहिए ?

अब इस प्रश्न का क्या उत्तर दें ? परन्तु जब उच्च शिक्षित व्यक्ति व परिवार ऐसा प्रश्न उठायें तो कुछ समाधान करना प्रत्येक आर्य का कर्त्तव्य है I हम महर्षि दयानन्द जी द्वारा इस प्रश्न का उत्तर पाठकों की सेवा में रखते हैं I सर्वकामनाएं ऐसे पूर्ण होती हैं I

१.       “जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं इसी से प्रारब्ध की उपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है I”

२.       फिर लिखा है “ क्योंकि जो परमेश्वर की पुरषार्थ करने की आज्ञा है  उसको जो कोई तोड़ेगा वह सुख कभी न पावेगा”

३.       “जो कोई ‘गुड मीठा है ‘ ऐसा कहता है उसको गुड प्राप्त वा उसको स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता I और जो यत्न करता है उसको शीघ्र वा विलम्ब से गुड मिल ही जाता है “

४.       “जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है वैसा ही वर्तमान करना चाहिए “

५.       “अपने  पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है “

वेदोपदेश आर्ष वचनों के प्रमाण तो हमने दे दिए पोंगापंथी टोटके और अनार्ष वचनों को हम जानते हैं परन्तु उनकी शव परीक्षा यहाँ नहीं करेंगे I धर्म कर्म मर्म हमने ऋषी के शब्दों में दे दिया है .

परोपकारी अक्टूबर (द्वितीय) २०१४

आर्यसमाज क्या है ? पण्डित मनसाराम वैदिक तोप

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वेद ने तमाम लोगो को आज्ञा दी हैकी तुम सारे संसार को आर्य बनाओ ,आर्य का अर्थ है नेक,पवित्र व् धर्मात्मा | नेक ,पवित्र धर्मात्मा वह है जो ईश्वरीय ज्ञान वेद के अनुकूल अपना चाल चलन बनावे , चूँकि सृष्टि के आरम्भ से हि हमारे पूर्वजो ने अपना जीवन वेद के अनुकूल व्यतीत करते थे | इसलिए उनका नाम आर्य हुआ और… चूँकि हमारे पूर्वजो ने हि सबसे पहले देश को बसाया था | इस लिए इस देश का नाम आर्यवर्त हुआ | इसलिए वेदों ,स्मृतियों ,शास्त्रों ,रामायण ,माहाभारत और संस्कृत की सारी पुराणी पुस्तकों में हमारा नाम आर्य है हमारे देश का नाम आर्यवर्त आता है | आज से लगभग पांच हजार साल पहले सारी दुनिया में एक हि धर्म था और वह वैदिक धर्म था | और सारी दुनिया में एक हि जाती थी और वह आर्य जाती थी |इस आर्यजाति के दुर्भाग्य से माहाभारत का युद्ध हुआ, जिसमे अच्छे अच्छे वेदों के ज्ञाता और वेद प्रचार का प्रबंध करने वाले राजा और माहाराजा मारे गए|
तत्पश्चात स्वार्थी और पाखंडी लोगो की बन आई इन लोगो ने मधपान , मांसभक्षण और परस्त्रीभोग को हि धर्म बतलाया और संस्कृत में इस प्रकार की पुस्तके बनाई | जिनमे मधपान , मांसभक्षण और परस्त्रीभोग को धर्म कहा गया और कोई ऋषि, कोई मुनि या माहात्मा ऐसा नहीं छोड़ा की जिस पर मधपान ,मांसभक्षण और  परस्त्रीगमन का आरोप न लगाया हो , इन लोगो ने वेद के विरुद्ध बनाई किताबो के नाम पुराण और इनका लेखक महर्षि व्यास जी को बताया , इन लोगो ने यज्ञो के बहाने से पशुओ को मार कर इनके मांस का हवं करना ,खाना तथा शराब पीना आरम्भ कर दिया | और वेदों की बजाए आर्यजाति में इन्ही पुराणों को धर्मग्रंथकहा गया |
लोग वेदों को भूल गए और इन्ही वेद के विरुद्ध अष्टादश पुराणों को अपना धर्मग्रन्थ मानकर धर्म से भटक गए | समय समय पर माहात्मा बुद्ध, स्वामी शंकराचार्य , गुरु नानक देव और गुरु गोबिंद सिंह आदि महात्माओ ने इस जाती को कुमार्ग से हटा कर सुमार्ग पर लाने का प्रयास किया और वे किसी हद तक इस जाति को सुमार्ग पर लाने में सफल भी हुए , परन्तु यौगिक अवस्था में इस जाति की शारीरिक आत्मिक और आर्थिक अवस्था गिरती चली गयी |
आखिरकार विदेशी ईसाई तथा मुसलमानों ने इस देश में प्रविष्ट होकर पुराणों की बुरी शिक्षाओ का खंडन आरम्भ किया जिससे आर्यजाति के युवक इस पौराणिक हिंदू धर्म से घृणित होकर धड़ा धड ईसाई और मुसलमान बनने लगे | निकट था की यह पौराणिक धर्म को मानने वाली हिन्दूजाति संसार से मटियामेट हो जाती किन्तु – काठियावाड गुजरात के मौरवी राज्य के टंकारा शहर के एक औदीच्य ब्राहमण पण्डित कर्षण लाल जी तिवारी सर्राफ जमींदार के घर माता अमृतबाई के पेट से विक्रमी संवत् १८८१ में एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम मूलशंकर दयाल रखा | एक बार जब उनकी आयु केवल १४ वर्ष की थी , शिवरात्रि के अवसर पर इनके पिता ने इनका शिवरात्रि का व्रत रखने पर आग्रह किया , व्रत रखा गया |
रात को जब उनके पिता दूसरे पुजारियों के साथ शिव  की पूजा करके चडावा चड़ा चुके तो वह शिव का गुणगान करने के लिए दूसरे साथियों के साथ मूर्ति के सामने बैठ गए तो वे निंद्रा से उंघने लगे ,लेकिन बालक मूलशंकर जी जागते रहे | इसी बीच में एक चूहा आया और शिव की मूर्ति पर चड मजे से च्डावित चीजों को खाने लगा |बालक मूलशंकर इस दृश्य को देख कर हैरान रह गए की कैसा शिव है जो चूहे से भी अपनी रक्षा नहीं कर सकता |पिता को जगाकर अपनी शंका प्रकट की परन्तु उत्तर में डांट डपट के सिवाय कुछ नहीं मिला | इस दृश्य ने मूलशंकर की आँखे खोल दी | उनको वर्तमान मूर्तिपूजा के गलत होने का ज्ञान हो गया | इस चूहे वाले दृश्य के कुछ दिन पश्चात मूलशंकर की बहिन और इसके पश्चात इनके चाचा की भी मृत्यु हो गयी | ये दोनों हि मूलशंकर
को प्यारे थे , इन दोनों दृश्यों ने मौत का प्रश्न लाकर इनके सम्मुख खड़ा कर दिया और वे सोचने लगे की मृत्यु क्या वस्तु है और किस तरह मनुष्य मृत्यु पर विजय पा सकता है |
इन प्रश्नों को हल करने की इतनी तीव्र इच्छा हुयी की उन्होंने बाप की जायदाद को ठोकर मारकर जंगल की राह ली | सन्यास धारण किया और मूलशंकर जी से स्वामी दयानंद जी बन गए और योगाभ्यास करते हुए ताप का जीवन बिताना आरम्भ किया |
विद्या की खोज में पर्वतों ,जंगलो ,नदियों के तटो पर चक्कर लगाना आरम्भ कर किया | इस तरह तप की आयु व्यतीत करते हुए और योगाभ्यास करते हुए समाधि तक योग की विद्या प्राप्त की | अंत में अपने आखिरी गुरु स्वामी विरजानंद जी के पास मथुरा में पहुंचे और तीन वर्ष में वेदों और शास्त्रों की पूर्ण विद्या प्राप्त करके वेद के अर्थ करने की कुंजी गुरु से प्राप्त की | पुनः गुरु से विदा होने का समय आया | गुरु विरजानंद ने अपने शिष्य दयानंद से माँग की कि बेटा इस समय मत मतान्तरो का अन्धकार छाया हुआ है लोग वेद कि शिक्षा के विरुद्ध चल रहे है तुम्हारे से यह गुरुदक्षिणा मांगता हूँ कि मत मतान्तरो का खंडन करके वैदिक धर्म का प्रचार करो |
महर्षि स्वामी दयानंद जी ने अपने गुरु कि इस आगया में अपना पूरा जीवन बलिदान कर दिया |
स्वामी दयानंद ने अपने जीवन कि दो विचारधाराएं ठहराई वैदिक धर्म का प्रचार और ईसाई,मुसलमानों के हाथो से पौराणिक हिंदू जाती की रक्षा की | महर्षि दयानंद जी ने अपने दोनों विचारधाराओं को पूरा करने के लिए सहस्त्र मीलो की यात्रा की | हजारों भाषण दिए |सैकड़ो शाश्त्रार्थ किये और दर्जनों पुस्तके लिखी और वेद का सरल हिंदी में अनुवाद किया और अपने अनथक प्रयास से सोये हुए आर्यवर्त देश को जगा दिया और वेद की पुस्तक हाथ में लेकर ईसाई और मुसलमानों आदि एनी मतवालो को शाश्त्रार्थ के लिए ललकारा और सेकडो स्थानों पर उनको पराजय दी और पौराणिक हिन्दुजाती को मृत्यु के मुख से बचा लिया | भविष्य में वैदिक धर्म का प्रचार और पौराणिक हिन्दुजाति की रक्षा के लिए एक संस्था की स्थापना की जिसका नाम “आर्यसमाज“रखा |
आखिरकार वेद के शत्रुओ ने षड्यंत्र रच कर स्वामी जी के रसोइये द्वारा दुष् में पिसा हुआ कांच और विष मिलाकर महर्षि स्वामी दयानंद जी को पिला दिया जिससे इनका शरीर फुट पड़ा और वे अजमेर में दीपावली की शाम को संवत १९४० में परलोक सिधार गए |स्वामी जी की मृत्यु के पश्चात आर्यसमाज ने अपने पुरे प्रयत्नों द्वारा वैदिक धर्म का प्रचार और पौराणिक हिन्दुजाति की रक्षा की , करता है और करता रहेगा

| इस कार्य को करते हुए कुछ स्वार्थी लोगो ने आर्य समाज का विरोध शुरू कर दिया और भिन्न भिन्न प्रकार के दोष लगाकर आर्य समाज को बदनाम करने के प्रयत्न किये |

किसी ने कहा कि – १.) आर्य समाज एक अवैध समाज है जो वर्तमान सरकार के तख्ताये हुकूमत को उलटना चाहता है |
२.) किसी ने कहा कि आर्य समाज एक दिल को ठेस पहुँचाने वाली संस्था है जो भिन्न भिन्न मतो का खंडन करके
उनके दिलो को ठेस लगाती है |
३.) किसी ने कहा कि आर्य समाज एक फसादी टोला है | जब तक भारत वर्ष में समाज का नाम था , लोग प्रीति और प्रेम के साथ रहते थे | जब से आर्यसमाज का जन्म हुआ तब से लोगो में लड़ाई और झगडे फ़ैल गए,इसलिए आर्य समाज एक फसादी टोला है |अतः प्रत्येक मनुष्य ने आर्यसमाज के बारे में अपने अपने दृष्टिकोण से अनुमान लगाया उदाहरणार्थ कहते है कि एक जंगल में पाँच मनुष्य इकट्ठे बैठे थे | जंगल में तीतर कि बोली के बारे में सोचने लगे कि बताओ भाई यह तीतर क्या कहता है | उन पांचो ने अपने विचारानुसार तीतर कि बोली का अनुमान लगाया |
१.) मियाँ साहिब ने कहा कि तीतर कहता है – “ सुबहान तेरी कुदरत “
२.) पंडित जी ने कहा कि तीतर कहता है – “सीता राम दशरथ “
३.) दूकानदार ने कहा – “ नून तेल अदरक “
४.) पहलवान ने कहा –“ खाओ पियो करो कसरत “
५.) जेंटलमैन ने खा – “ पीओ बीड़ी सिगरट “
अब आपने देखा कि तीतर ने अपनी बोली में बोला और पाँच मनुष्यों ने अपने अपने विचारानुसार तीतर कि बोली का अनुमान लगाया लेकिन तीतर क्या कहता है इसको या टो तीतर जानता है या तीतर कि बोली समझने
वाला | इसी प्रकार लोग आर्य समाज के बारे में अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार अनुमान लगाते है |
१.) कोई कहता है कि आर्य समाज एक अवैध समाज है |
२.) कई कहता है कि आर्य समाज एक दिल को ठेस पहुचानें वाली संस्था है |
३.) कोई कहता है कि आर्य समाज एक फसादी टोला है |
लेकिन आर्य समाज क्या है ? इसको या आर्य समाज जानता है या आर्य समाज के सिद्धांतों को समझने वाला | हाँ इससे पहले आपको यह बताए कि आर्य समाज क्या है तीन प्रकार के लोगो के भ्रम को दूर करना आवश्यक समझते है |
१.) पहले प्रकार के वे लोग है जो कहते है कि आर्य समाज एक अवैध समाज है | मै यह बताना चाहता हूँ कि जो लोग आर्य समाज को ऐसा समझते है वे भ्रम में है | वे नहीं जानते कि आर्यसमाज क्या चीज है ? आर्य समाज वेद का प्रचारक है और वेद ईश्वरीय गया है और ईश्वर एक देश का नहीं बल्कि संसार का है | इसलिए आर्य समाज भी किसी एक देश के लिए नहीं ,बल्कि सारे विश्व के लिए है | आर्य समाज जो कुछ भी बताता है वह सारे संसार के लिए नियम कि बाते बताता है | इस से जो देश भी चाहे लाभ उठा सकता है |
उदाहरणार्थ आर्य समाज राज्य प्रबंध के बारे में यह नियम बताता है कि प्रत्येक देश में राज करने का अधिकार उस देश के वासियों का है , दूसरे देश के लोगो का यह अधिकार नहीं है कि वे किसी देश पर राज्य करे | जैसे चीन पर राज्य करने का अधिकार चीनियों को है जापानियों का यह अधिकार नहीं कि वे चीन पर राज्य करे | बस इसी तरह आर्य समाज कहता है कि भारत पर राज्य करने का अधिकार केवल भारतीयों का है इटली वालो का यह अधिकार नहीं |
यह एक नियम कि बात है जिसे आर्य समाज डंके कि चोट पर कहता है और इस प्रकार कहने में आर्य समाज को किसी का भय नहीं | अब रहा आर्य समाज के सभासद बनने का प्रश्न सो आर्य समाज के दस नियम है
जो मनुष्य इन नियमों को समझ कर इन पर चले कि प्रतिज्ञा करता है वह आर्य समाज का सभासद बन सकता है | एक क्रन्तिकारी मनुष्य जो रिवाल्वर और बम चलाना अपना धर्म समझता है यदि वो आर्य समाज के दस नियम का विचार कर उनके अनुसार चलने कि प्रतिज्ञा करता है वह आर्यसमाज का सभासद बन सकता है | आर्य समाज का सभासद बनने में उसे किसी प्रकार कि बाधा नहीं है और एक सरकारी कर्मचारी भी जो सर्कार कि आज्ञा को निभाना अपना धर्म समझता है वह भी आर्य समाज के नियमों का पालन करके आर्यसमाज का अभासाद बन सकता है | आर्य समाज कि स्टेज आर्य समाज के नियमों के प्रचार के लिए है इसलिए जो लोग यह कहते है कि आर्य समाज एक अवैध समाज है वे भ्रम में है | वे नहीं जानते कि आर्य समाज क्या है |
२.) दूसरी प्रकार के लोग है जो कहते है कि आर्य समाज एक दिल को ठेस पहुचने वाली संस्था है | हम यह बतलाना चाहते हाउ ये लोग पहले कि अपेक्षा अधिक भ्रम में है | ये नहीं जानते कि आर्य समाज क्या चीज है ? दिल को ठेस लगाना दो प्रकार का होता है एक नेकनीयती से बदनीयती से | जो दिल को ठेस नेकनीयती से लगाई जाती है वह उस मनुष्य कि हानि के लिए नहीं,  बल्कि लाभ के लिए होती है | उदाहरणार्थ एक आदमी कि टांग पर फोड़ा निकल आया | फोड़े में पीप पड़ गयी , पीप में कीड़े पड़ गएग | वह आदमी औषधालय में गया | औषद्यालय के डाक्टर ने उसकी टांग का निरीक्षण किया और निरिक्षण करने के पश्चात डाक्टर नेकनीयती से इस परिणाम पर पहुंचा कि अगर इसकी टांग का ओप्रेसन करके इसके अंदर से पीप न निकाल दी गयी टो संभवतः इसकी टांग काटनी पड़े और काटने के साथ साथ इसका जीवन भी समाप्त हो सकता है | अब डाक्टर नेकनीयती से इसका जीवन बचाने के लिए ओप्रेसन करना शुरू कर देता है | जहां डाक्टर ने ओप्रेसन करना आरम्भ किया उधर रोगी ने चीखना शुरू कर दिया कि यह डाक्टर टो बड़ा डीठ है निर्दयी है बेरहम है और दिल दुखाने वाला है |और लगे हाथो दस बीस गालिय भी डाक्टर को दे डाली |

अब आप बताइए कि इस अवस्था में उस डाक्टर का क्या कर्तव्य है ,क्या डाक्टर का यह कर्तव्य है कि वह रोगी कि गालियों से क्रोधित होकर नश्तर को अनुचित चला कर रोगी को हानि पहुचाएं ? कदाचित नहीं !  यदि डाक्टर रोगी कि गालियों से क्रोधित होकर नश्तर को अनुचित चलाकर रोगी को हानि पहुंचाता है तो डाक्टर अपने कर्तव्य से गिर जाता है | वह अपने कर्तव्य को पूरा नहीं करता और क्या डाक्टर का यह कर्तव्य है कि वह रोगी कि गालियों से निराश होकर इलाज करना छोड दे तो भी वह अपने कर्तव्य से गिर जाता है | डाक्टर का तो यह कर्तव्य है कि वह रोगी कि गालियों कि तरफ ध्यान न देकर नेकनीयत से इसके जीवन बचाने के लिए निरंतर ओप्रेसन करता चला जाए |एक समय ऐसा आएगा जब ओप्रेसन सफल हो जाएगा और रोगी कि टांग
कि सारी पीप निकल जायेगी और डाक्टर इस पर मरहम रखेगा और रोगी को आराम आ जावेगा तो वही रोगी जो डाक्टर को गालिय देता था वह डाक्टर को आशीर्वाद देगा कि इसने मेरा जीवन नष्ट होने से बचा दिया | बस यही हालत आर्य समाज कि है | आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद जी ने अनुभव किया कि पोरानिक हिन्दुजाति के अंदर बहुत से बुरे रीती रिवाज और बुरे नियम विद्यमान है | अगर इनको न निकल दिया गया तो संभव् है कि इस हिन्दुजाति का नामोनिशान भी इस संसार में न रहे | इस बात को विचार करते हुए महर्षि दयानंद ने अपनी आयु में और इनकी मृत्यु के बाद आर्य समाज ने नेकनीयत के साथ हिन्दुजाति के जीवन को संसार में स्थापित करने के लिए उसके बुरे नियमों और बुरे रीती रिवाज का खंडन आरम्भ किया | खंडन आरम्भ होने के बात हिन्दुजाति ने महर्षि दयानंद जी के जीवन में उनके साथ और उनकी मृत्यु के बाद आर्य समाज के साथ बुरा व्यव्हार किया | गाली गलोच दी ,ईंट और पत्थर बरसाए और अब भी कई स्थानों पर आर्य समाज के साथ ऐसा व्यवहार हिन्दुजाति कि तरफ से हो रहा है |
अब ऐसी अवस्था में आर्य समाज का क्या कर्तव्य है ? क्या आर्य समाज का यह कर्तव्य है कि वह पोरानिक हिन्दुजाति कि गाली गलोच और बुरे व्यव्हार से क्रोधित होकर अनुचित भाव से हिन्दुजाति को चिडाने के लिए या उसे हानि पंहुचाने के लिए इसका खंडन करे | कदापि नहीं अगर आर्य समाज ऐसा करता है तो वह अपने कर्तव्य से गिर जाएगा | क्या आर्य समाज का यह कर्तव्य है कि वह गाली गलोच और बुरे व्यव्हार से
निराश होकर ठीक तरह से बुरे रश्मो रिवाज और बुरे नियमों का खंडन करना छोड दे ? कदापि नहीं , अगर आर्य समाज ऐसा करता है तो वह अपने कर्तव्य से गिर जाता है | वह अपने कर्तव्य को पूरा नहीं करता | आर्य समाज का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दुजाति कि गाली गलोच और बुरे व्यवहार कि कुछ भी परवाह न करते हुए नेकनीयती से हिन्दुजाति के सुधर और उसके जीवन को स्थिर रखने के लिए निरंतर इसके बुरे नियमों और रीती रिवाज का खंडन करता हुआ चले | वह समय अति निकट होगा जब हिन्दुजाति के अंदर से बुरे रस्मो रिवाज और बुरे नियम निकल जायेंगे और यह हिंदू जाति एकता में संयुक्त हो जायेगी | तब यह हिंदू जाति आर्य समाज को आशीर्वाद देगी कि इसने मेरे जीवन को नष्ट होने से बचा लिया |
इस लिए जो लोग कहते है कि आर्य समाज एक दिल दुखाने वाली संस्था है ,वे भ्रम में है | वे नहीं जानते कि आर्य समाज क्या है ? अब मै आपकी सेवा में यह बतलाना चाहता हूँ कि आर्य समाज क्या है ? अगर कोई आदमी मेरे से पूछे तो मै उसे थोड़े शब्दों में बताना चाहूँ कि आर्यसमाज क्या चीज है तो मै कहूँगा कि –
१.) आर्य समाज पीडितों का सहायक है |
२.) आर्य समाज रोगियों का डॉक्टर है |
३.) आर्य समाज सोते हुयो का चोंकिदार है |
१.) पीडितों का सहायक आर्य समाज – आर्य समाज पीडितों का सहायक है ,आर्य समाज निर्धनों का मददगार है |
जिनके अधिकारों को दुष्ट और कुटिल लोगो ने अपने पाँव के निचे कुचल दिया था उनके अधिकारों को वापस दिलाने वाली संस्था है |आर्य समाज ने अपने जीवन में किस किस कि सहायता कि है और किस किस के दबे हुए अधिकारों को वापिस दिलाया है इसकी एक लंबी सूचि बन जायेगी जिसके इस छोटे से लेख के अंदर लिखा नहीं जा सकता , फिर भी आर्य समाज ने जिन जिनकी सहायता कि है इसमें से कुछ एक का नमूने के तोर पर वर्णन करना आवश्यक प्रतीत होता है:
क) गाय आदि पशु- आर्य समाज ने सबसे पहली वकालत गाय आदि पशुओ की की | महर्षि दयानंद जी और आर्य समाज से पूर्व लोग यह मानते थे की यज्ञ में गाय आदि पशुओ को मारकर इस्नके मांस से हवन करना और बचे हुए मांस का खाना उचित है ,इस से वह पशु और यज्ञ करने वाला दोनों हि स्वर्ग में जाते है |
स्वामी दयानंद और आर्य समाज ने इस बारे में गाय आदि पशुओ की वकालत की और बताया की यज्ञ तो कहते हि उसे है जिसमे विद्वानों की प्रतिष्ठा की जावे | अच्छी संगत और दान आदि नेक काम किये जाए , फिर वेद में यह आता है  की यज्ञ उसे कहते है जिसमे किसी भी जीव का दिल ना दुखाया जाए और फिर वेद में स्थान स्थान पर यह लिखा है की यजमान के पशुओ की रक्षा की जाए | इन सब बातो से सिद्ध होता है की यज्ञ में किसी भी पशु का मारना पाप है क्योंकि किसी भी जीव का दिल दुखाये बिना मांस प्राप्त नहीं हो सकता और धार्मिक दृष्टिकोण से भी मांस खाना पाप है | और किसी भी निर्दोष जीव की हत्या करना पाप है | आर्य समाज की यह वकालत फल लायी , और सबसे पहली गोशाला रिवाड़ी में खोली गयी जिसकी आधारशिला महर्षि दयानंद जी ने अपने कर कमलों से रखी और आर्य समाज के प्रयत्नों से लाखो आदमियों ने मांसभक्षण छोड दिया | आज गो आदि पशुओ की रक्षा का विचार और मांस भक्षण न करने के प्रति विचार जो देश में उन्नति कर रहा है यह आर्य समाज की वकालत का परिणाम है |
ख) स्त्रियों की शिक्षा – स्वामी दयानंद और आर्य समाज से पूर्व स्त्रियो को शिक्षित बनाना पाप समझा जाता था , आर्य समाज ने इस विषय में स्त्रियों की वकालत की और बताया की जैसे परमात्मा की पैदा की हुयी जमीन पानी हवा, आग सूर्य आदि के प्रयोग का अधिकार पुरुषों और स्त्रियो को एक समान है और परमात्मा की बनाई हुई चीजे दोनों को लाभ पहुंचाती है वैसे हि परमात्मा में सृष्टि के आरम्भ में जो ज्ञान दिया इसको प्राप्त करने का अधिकार भी स्त्रियों और पुरुषों को समान है | आर्य समाज की यह वकालत फल लायी और इसका परिणाम यह निकला की जो लोग स्त्रियों की शिक्षा के विरुद्ध थे सैकडो कन्या पाठशालाए इन लोगो की और से खुली हुई है | आज स्त्रियां न्यायालय विभाग, वकालत, डॉक्टरी और शिक्षा में पुरुषों के समान कार्य करती हुई दृष्टिगोचर हो रही है |
वे म्युनसिपल कमेटियो ,डिस्ट्रिक्ट बोर्डो लेजिस्लेटिव असेम्बलियो और गोलमेज कांफ्रेंसो में भी पुरुषों के समा कार्य कर रही है | बल्कि भारत की प्रधानमंत्री भी स्त्री रही है | यह किसका फल है ? यह आर्य समाज की वकालत का हि परिणाम है |

३.)अनाथो की रक्षा  स्वामी दयानंद और आर्य समाज के पूर्व पौराणिक हिन्दुजाती में अनाथ बच्चो के पाले का कोई प्रबंध नहीं था जिससे हिन्दू बच्चे इसाई और मुसलमानों के अधिकार में जाकर हिन्दुजाती के शत्रु बनते थे |आर्य समाज और मह्रिषी दयानंद जी महाराज ने इस विषय में अनाथ बच्चो की वकालत की और इनके पालन पोषण के लिए सर्वप्रथम अनाथालय अजमेर में स्थापित किया | जिसकी आधार शिला मह्रिषी स्वामी दयानंद
जी महाराज ने स्वंय अपने करकमलो से राखी | आज दर्जनों अनाथालय आर्य समाज के निचे काम कर रहे है |जिनमे हजारो संख्या में हिन्दुजाती के अनाथ बच्चे सम्मिलित होकर हिन्दुजाती का अंग बन रहे है | आज अनाथो की पालना का विचार जो देश में उन्नत है यह भी आर्य समाज की वकालत का फल है |
४.)विधवा विवाह स्वामी दयानंद और आर्य समाज से पहले पौराणिक हिन्दुजाती में यह रीती थी की यदि किसी पुरुष की स्त्री मर जाती थी तो इसको दूसरी स्त्री के साथ विवाह कराने का अधिकार प्राप्त था , परन्तु यदि किसी स्त्री का पति मृत्यु का ग्रास बन जाता था तो उस स्त्री को दुसरे पुरुष से विवाह का अधिकार प्राप्त न था | इसका परिणाम यह होता था की हजारो विधवाए व्यभिचार , गर्भपात के पापो में फंस जाती थी और बहुत सी विधवाएं ईसाई और मुसलमानों के घरो को बसाकर गोघातक संतान पैदा करती थी |इस बारे में आर्य समाज ने विधवाओ की वकालत की और बतायाकि जब पुरुषो को रंडवा होने पर दुसरे विवाह का अधिकार प्राप्त है तो कोई कारण प्रतीत नहीं होता की विधवा स्त्री को दुसरे पति से विवाह करने का अधिकार क्यों प्राप्त न हो | आर्य समाज ने बतलाया यदि कोई स्त्री पति के मरने के पश्चात् ब्रह्मचारिणी रहना चाहे और ईश्वर की अराधना में अपना जीवन बितावे तो उसके लिए पुनः विवाह करना जरुरी नहीं |हाँ यदि कोई स्त्री पति के मर जाने के बाद ब्रह्मचारिणी न रहना चाहे या न रह सकती हो तो उसको दुसरे पति के साथ पुनर्विवाह करने का अधिकार प्राप्त है | आर्य समाज की यह वकालत फल लाई | इसका परिणाम यह हुआ की आज विधवाओं के विवाह के लिए कोई बाधा नहीं है |
५.)अछूतोद्धार महर्षि स्वामी दयानंद और आर्य समाज से पहले अछूतों की क्या दशा थी ? लोग इनको मनुष्य न समझते थे | लोग इनको दारियो पर बैठ कर उपदेश सुनने , कुएं पानी भरने , पाठशालाओ में शिक्षा पाने और मदिर में अराधना करने की भी आज्ञा न देते थे | इस से लाचार होकर अछूत लोग इसाई और मुसलमानों की शरण लेते थे | आर्य समाज ने इस बारे में अछूतों की वकालत की और बतलाया की मनुष्य के रूप में सब बराबर है | जन्म से न कोई छोटा है न कोई बड़ा है | प्रत्येक आदमी अपने नेक कार्यो से बड़ा बनता है | आर्य समाज की यह वकालत रंग लाइ और इसका परिणाम यह है की आज अछूतों पर से सारी बाधाएं दूर हो गयी है |और अछूत लोग शारीरिक , आत्मिक , समाजिक और आर्थिक उन्नति में दिन दुगुनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे है | यह सब आर्य समाज की वकालत का ही फल है |
ख ) रोगियों का डॉक्टर आर्य समाज –यदि आप आर्य समाज का औषधालय देखना चाहे तो सत्यार्थ प्रकाश के अंतिम चार समुल्लासो का अध्ययन करे |इन चार समुल्लासो में आर्य समाज के प्रवर्तक ऋषि दयानंद जी ने वेद के प्रतिकूल अनेक मत मतान्तरो का ऑपरेशन किया है और वह पूर्ण रूप से सफल हुआ है |इसका प्रमाण यह है की आज भारत के सारे मत मतान्तर अपने नियमो को वेदानुकुल बनाने की चिंता में है | पौराणिक हिन्दुजाती में अनेक रोग उपस्थित थे जिनकी आर्य समाज ने चिकित्सा की | नमूने के लिए कुछ ऐसे रोगों का वर्णन करना जरुरी है |
१> अज्ञानता आर्य समाज से इस पौराणिक हिन्दुजाती में घोर अविद्या ने घर कर रखा था | लोग वेदों के नाम से भी अनभिज्ञ थे | आर्य समाज ने इन रोगों की चिकित्सा की और देश के अन्दर कन्या गुरुकुल , कन्या पाठशाला , प्राइमरी स्कूल , हाई स्कूल और विश्वविद्यालयो का जाल बिछा दिया और वेद प्रचार के लिए जगह जगह सभाए स्थापित कर दी और आर्य समाज की देखा देखि दुसरे लोगो ने जो विद्यालय खोले है वे अलग ! आज लोगो में जो संस्कृत और वेदविद्या पढने का चाव दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है यह आर्य समाज रूपी डॉक्टर की कृपा का परिणाम है |
२) बाल विवाह , वृद्ध विवाह , बेजोड़ विवाह आर्य समाज के प्रचार से पहले छोटे छोटे बच्चो का विवाह , बुढ़ापे का विवाह और बेजोड़ विवाह इस पौराणिक हिन्दुजाती को घुन की भाँती खा रहे थे लोग छोटे छोटे बच्चो का विवाह कर देते थे | साठ वर्ष के बूढ़े के साथ चौदह वर्ष की लड़की का विवाह कर देते थे और अठारह वर्ष की लड़की का विवाह आठ वर्ष के लड़के के साथ कर देते थे | इस से ब्रह्मचर्य का नाश होकर दिन प्रतिदिन हिन्दुजाती की शारीरिक अवस्था बिगडती जा रही थी | इस रोग की चिकत्सा आर्य समाज ने की और यह नियम वेद से बतलाया की नवयुवती लड़की का विवाह नवयुवक लड़के से करना चाहिए | लड़की की आयु कम से कम सोलह वर्ष और लड़के की आयु कम से कम पच्चीस वर्ष होनी चाहिए इस बारे में लोगो ने आर्य समाज का बड़ा विरोध किया , परन्तु आर्य समाज दृढ़ संकल्प से इस कार्य में लगा रहा | अंत में आर्य समाज का प्रयत्न फल लाया और इसका पता लोगो को तब लगा सब राज्य शासन में सर्वसम्मति से शारदा बिल पास हो गया | शारदा एक्ट के आधीन चौदह वर्ष से कम आयु की लड़की और अठारह वर्ष से कम आयु के लड़के का विवाह करना कानूनी अपराध था | इसमें बदलाव होते होते लड़के और लड़की की न्यूनतम आयु अठारह कर दी गयी विवाह के लिए | यह सब आर्य समाज रूपी चिकित्सक की ही कृपा का फल है | अब बाल और वृद्धोके विवाह बहुत कम हो गये है और बेजोड़ विवाह की तो रीती ही समाप्त हो गई है |

३)अन्धविश्वास आर्य समाज के प्रचार से पूर्व यह पौराणिक हिन्दू जाति भूतपुजा , प्रेतपूजा , डाकिनी शाकिनी पूजा , पीर मदार पूजा ,गण्डा ताबीज पूजा ,बुत पूजा , इन्सान पूजा , मकान पूजा ,पानी पूजा , पशु पूजा , आग पूजा , मिट्टी पूजा , वृक्ष पूजा , श्मशान पूजा , मुसलमान पूजा , मृतक पूजा , सूर्य पूजा , चाँद पूजा इत्यादि अनेक रोगों में फंसी हुई थी | और निकट था की इन रोगों के कारण यह हमेशा के लिए मिट जाती की महर्षि दयानंद और आर्य समाज रूपी चिकित्सक ने इसकी चिकित्सा की और वेद अमृत पिला कर इसके रोगों को दूर करके इसको एक परमात्मा का पुजारी बनाकर इस जाती को अमर कर दिया | यह भी आर्य समाज रूपी चिकित्सक की कृपा का फल है |
अतः आर्यसमाज पीडितो का वकील है ,रोगियों का डॉक्टर है और सोते हुओ का चौकीदार है |इस लिए आप सबका कर्तव्य बनता है की आर्य समाज केछृथृ साथ मिल कर देश और जाति का उद्धार करने में सहायक बने |
ओउम्