जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव जी

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जिज्ञासाअथर्ववेद में निनलिखित दो मन्त्र इस

प्रकार से हैं-

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।

तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।

तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः।।

– अथर्ववेद 10/2/31-32

पहले मन्त्र में मनुष्य के शरीर की संरचना का वर्णन किया गया है। संक्षेप में, यह स्पष्ट रूप में कहा गया है कि हमारे शरीर में आठ चक्र हैं। मैं अपने अल्प ज्ञान के आधार पर यही समझता हूँ कि वेद-मन्त्र का संकेत मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र नामक आठ चक्रों पर है। इस शरीर में एक आनन्दमय कोश है जो कि आत्मा का निवास-स्थान है। इस आत्मा में जो परमात्मा विद्यमान है, ब्रह्म-ज्ञानी उसे ही जानने का प्रयास करते हैं। जहाँ तक मैंने वैदिक विद्वानों के मुखारविन्द से सुना है, ब्रह्म-रन्ध्र आनन्दमय कोश में ही विद्यमान है। उनका यह भी कथन है कि मस्तिष्क को भी हृदय कहा जाता है। मस्तिष्क की स्थिति आनन्दमय कोश में है।

जब स्तभवृत्ति द्वारा, श्वासों की गति को कुछ क्षणों के लिए रोक दिया जाता है तो मन के द्वारा ध्यान लगाने में सुविधा होती है। जब श्वासों को ब्रह्म-रन्ध्र की स्थिति में रोका जाए तो मन शीघ्र ही एकाग्र हो जाता है क्योंकि दोनों ही एक कोश में विद्यमान है। स्वभाविक रूप से ब्रह्मरन्ध्र (सहस्रार) में धारणा करते हुए आत्मा का अन्तःकरण के द्वारा चिन्तन करना अधिक सरल हो जाता है। वक्षस्थल के समीप जिसे व्यवहारिक भाषा में हृदय कहा जाता है, ध्यान बिखरने लगता है क्योंकि ध्यान लगाने वाला तो इस कोश में है नहीं।

ऊपर लिखित तथ्यों को ध्यान रखते हुए मेरी निनलिखित जिज्ञासायें हैं और प्रार्थना है कि उनका अपनी पत्रिका में यथोचित समाधान करते हुए कृतार्थ करें।

(क) अथर्ववेद में किन आठ चक्रों का वर्णन किया गया है।

(ख) इन आठ चक्रों का क्या महत्त्व है, विशेषतया ध्यान की पद्धति में?,

(ग) क्या ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान करना युक्ति-युक्त नहीं? क्या यह वर्जित है?

समाधान की प्रतीक्षा में,

– रमेश चन्द्र पहूजा, प्रधान, आर्यसमाज मॉडल टाऊन, यमुनानगर

समाधान आज अध्यात्म के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ चल रही हैं। यथार्थ में अध्यात्म क्या है? इसको प्रायः लोग समझते ही नहीं। बिना समझे अध्यात्म के नाम पर भ्रान्ति में जीवन जी रहे होते हैं। आत्मा-परमात्मा के विषय को अधिकृत करके विचार करना उसके अनुसार जीना अध्यात्म है। ठीक-ठीक वैदिक सिद्धान्तों को समझना उनको आत्मसात करना उनके अनुसार अपने को चलाना अध्यात्म है। यह अध्यात्म तनिक कठिन है। इस कठिनता भरे अध्यात्म को अपनाने के लिए साहस और पुरुषार्थ की आवश्यकता है। प्रायः आज का व्यक्ति पुरुषार्थ से बचना चाहता है इसलिए उसको सरल मार्ग चाहिए। यम-नियम आदि के बिना ही कुण्डलिनी जाग्रत कर मोक्ष चाहता है। इन कुण्डलिनी आदि के साथ चक्रों के चक्र में भी घुमने लगता है।

महर्षि दयानन्द ने हमें विशुद्ध अध्यात्म का परिचय ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासना विषय, मुक्ति विषय में व सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 7 व 9 में तथा अध्यात्म से ओतप्रोत ग्रन्थ आर्याभिविनय में करवा दिया है। महर्षि के इस अध्यात्म में कुण्डलिनी और चक्रों की कोई चर्चा नहीं है। महर्षि दयानन्द ने हठयोग प्रदीपिका पुस्तक को अनार्ष ग्रन्थ माना है और ये कुण्डलिनी आदि उसी अनार्ष ग्रन्थ की देन है। न ही सांय आदि शास्त्र में इनका वर्णन है। ऋषियों के ग्रन्थों में तो यमनियामादि के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान से मुक्ति कही है न कि कुण्डलिनी जागरण से। अस्तु।

अथर्ववेद के जो मन्त्र आपने उद्धृत किये हैं उन मन्त्रों के आर्ष भाष्य उपलध नहीं हैं, अन्य विद्वानों के भाष्य उपलध हैं। जो भाष्य उपलध हैं उन विद्वानों का मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् प्रचलित चक्रों की बात करते हैं कुछ नहीं। जो प्रचलित चक्रों को मानते हैं वे इन्हीं चक्रों परक अर्थ करते हैं और जो नहीं मानते वे चक्र का अर्थ आवर्तन घेरा आदि लेते हुए शरीर में स्थित ओज सहित अष्ट धातुओं का जो वर्णन है उसको लेते हैं अथवा अष्टाङ्ग योग को लेते हैं। ये विद्वानों की अपनी मान्यता है। यथार्थ में मन्त्र में आये अष्ट चक्र में कौनसे आठ चक्र कहे हैं, यह निश्चित नहीं हैं। हमें अधिक संगत अष्ट धातु परक अर्थ लगता है, फिर भी यह अन्तिम नहीं है।

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में तन्त्रादि ग्रन्थों को भी पढ़ा था। उन तन्त्र ग्रन्थों में शरीर रचना विशेष की बातें लिखी थी। उन पुस्तकों में कई पुस्तकों का विषय नाड़ीचक्र था। महर्षि ने शव परीक्षण भी किया था जो उन नाड़ीचक्र आदि विषय वाली पुस्तकों के अनुसार खरा नहीं उतरा अर्थात् नाड़ीचक्र आदि वहाँ कुछ नहीं मिला। उससे ऋषि का और अधिक दृढ़ निश्चय आर्ष ग्रन्थों पर हुआ। वर्तमान के चिकित्सकों को भी ये चक्र कुण्डलिनी नहीं मिले हैं। जब ये चक्र हैं ही नहीं तो इनकी ध्यान में उपयोगिता भी कैसी? ध्यान में उपयोगी अपना शुद्ध व्यवहार, सिद्धान्त की निश्चितता, वैराग्य, यम-नियमादि योग के अंग हैं। इनको कर व्यक्ति अच्छी प्रकार ध्यान कर सकता है अन्यथा तो शरीर के चक्रों में ही लगा रहेगा।

हाँ मन्त्र में आये अष्टचक्र से यदि अष्टधातु शरीर में स्थित रसादि सात और आठवाँ ओज लिया जाता है तो निश्चित रूप से इनका महत्त्व है।

आपने पूछा क्या ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान करना युक्ति युक्त नहीं? क्या यह  वर्जित है? इस पर हमारा कथन कि महर्षि पतञ्जली जी ने योगदर्शन में ‘धारणा’ के लिए कहा है, धारणा की परिभाषा करते हुए महर्षि ने सूत्र बनाया ‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’ अर्थात् चित्त का शरीर के एक देश (स्थान) विशेष पर बान्धना (स्थिर) करना धारणा है। इस सूत्र का भाष्य करते हुए महर्षि व्यास ने कुछ स्थानों के नाम गिनाये हैं

नाभिचक्रे, हृदयपुण्डरीके, मूर्ध्नि, ज्योतिषि, नासिकाग्रे, जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु….धारणा।

अर्थात् नाभी, हृदय, मस्तक, नासिका और जिह्वा के अग्रभाग आदि देश में मन को स्थिर करना। यहाँ मुयरूप से मन को एक स्थान पर रोकने की बात कही है वह स्थान कोई भी हो सकता है, ब्रह्मरन्ध्र भी ऋषि के कथन से तो हमें यह प्रतीत नहीं हो रहा कि ध्यान करने के लिए ब्रह्मरन्ध्र विशेष स्थान है और अन्य स्थान सामान्य है। हाँ यह अवश्य प्रतीत हो रहा है कि सभी स्थान अपना महत्त्व रखते हैं। उनमें चाहे नासिकाग्र, जिह्वाग्र हो अथवा ब्रह्मरन्ध्र। यह वर्जित भी नहीं है कि ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान नहीं करना चाहिए, ब्रह्मरन्ध्र में मन टिका कर ध्यान किया जा सकता है।

आपने विद्वानों से सुना है कि ब्रह्मरन्ध्र आनन्दमय कोश में रहता है। मस्तिष्क को हृदय कहा जाता है। मस्तिष्क की स्थिति आनन्दमय कोश में है। आपने जो विद्वानों से सुना है कि हृदय मस्तिष्क है अथवा मस्तिष्क में है यह ऋषि के प्रतिकूल कथन है। हमने कई बार जिज्ञासा समाधान में ऋषि कथनानुसार हृदय स्थान का वर्णन किया है। अब फिर कर रहे हैं ‘जिस समय….. परमेश्वर करके उसमें प्रवेश किया चाहें, उस समय इस रीति से करें कि कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदय देश है। जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप स्थान है…….।’ ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी मस्तिष्क को हृदय कहना, ऋषि मान्यता को न मानना है। इसी हृदय प्रदेश में ध्यान करने वाला आत्मा रहता है। यहाँ पर ठीक-ठीक किया गया ध्यान बिखरेगा नहीं अपितु अधिक-अधिक ध्यान लगेगा।

इसलिए ध्यान उपासना को अधिक बढ़ाने के लिए महर्षि दयानन्द ने जो उपासना पद्धति विशेष बताई है उसके अनुसार चले चलावें इसी से अधिक लाभ होगा। और जो ऋषि मान्यता से विपरीत अन्य विद्वानों के विचार हैं उसको छोड़ने में ही लाभ है। ऋषि मान्यता के विपरीत चाहे कितने ही बड़े विद्वान् की बात क्यों न हो वह हमारे लिए मान्य नहीं है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

4 thoughts on “जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव जी”

  1. बहुत उत्तम ओर सरल भाषा में ईश्वर को प्राप्त करने की क्रिया समझाने के लिए आपका बहुत धन्यवाद ।।

  2. बहुत सरल शब्दों में आध्यात्म को समझा दिया है। हृदय देश के बारे में मुझे भी शंका थी ।समाधान मिल गया ।धन्या वादC

  3. I have a question ……what kind of punishment has been given to prophet Muhhomud for writting such a violent verse in quran due to which countless people has been killed and is being killing now.all that is happning due to his quran and indeed by him indirectly.so is he facing punishment till now …….(may be funny)

    1. Ishwar karm ke anupat men hee dand deta hai .
      jitana kisee karma ka dand hota hai usee aadhar par utanaa hee dand deta hai kam ya jyada naheen

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