पद का अर्थ है स्थिति अर्थात् स्टेटस एवं अर्थ का प्रयोजन है तात्पर्य एवं मूल। पृथ्वी क्योंकि सभी प्राणियों की स्थिति का कारण है तथा पृथ्वी ही सबका मूल है अतः पृथ्वी के द्रव्य का नाम हुआ पदार्थ। साथ ही पृथ्वी पंच सृजनकारी तत्वों का अन्तिम परिवर्तन है तथा आकाश, वायु, अग्नि व जल का सघन तत्व है अतः उसका नाम हुआ पदार्थ अर्थात् स्थिति और मूल। इसी नाते पदार्थ भौतिक तत्वों भी कहते हैं।
पदार्थ के विज्ञान से यदि आधुनिक दृष्टि सम्मत मूल तत्व को जड़ पदार्थ मानकर और उनसे विकसित साधनों का, उसकी व्यवस्था से होने वाले किकासों और जीवनोपयोगी विधानों से है, तो उसका उतना महत्व नहीं है। क्योंकि भारत ने अन्न अर्थात् पदार्थ को भी ब्रह्म माना है। भारतीय मनीषा की यह घोषणा है कि अस्तित्व मात्र ब्रह्म ही सत् है, सत्य है और अस्तित्व है। प्रकृति जड़ है तथा ब्रह्म से विशेष है- पर यह सत्य नहीं प्रतिभास है। ‘‘परब्रह्म के अतिरिक्त कुछ तत्व सत्ता में हो नहीं सकता’’ क्योंकि ‘‘है’’ का अर्थ ही ब्रह्म है। ब्रह्म जो ‘‘है’’ और सतत प्रवर्धमान है, उद्घाटनशील है। पर ब्रह्म की प्रवर्धमानता
व उद्घाटनशीलता
मौलिक नहीं है मात्र अभिव्यक्ति में है। क्योंकि ब्रह्म सदा सम्पूर्ण है अतः उसमें मौलिक नूतन कुछ नहीं हो सकता परन्तु अभिव्यक्ति में नूतन सदा ही हो सकता है।
स्थिति या पद मात्र ब्रह्म है तथा अर्थ या तात्पर्य भी एकमात्र ब्रह्म है। जगत् की अभिव्यक्ति ब्रह्म के ही दो आयामों का परस्पर संबंध और और अभिव्यंजना है।
जड़ पदार्थ ब्रह्म का आत्मलीन योग निद्रात्मक स्वरूप है। चेतन ब्रह्म परंतत्व का आत्मज्ञानात्मक, अनिद्रात्मक सबोध स्वरूप है। ‘जीव’ के विकास मुक्ति लाभार्थ ब्रह्म और प्रकृति का सृजन विलास होता है।
चेतना के द्वारा जड़ ब्रह्म के अनेकों उपयोग व विधान बनाए जा सकते हैं।
चेतना में संश्लेषण, स्तर, आयाम, संघटन व सम्मिश्रण बदल कर चमत्कारिक साधनों का निर्माण किया जा सकता है।
जड़ पदार्थ के बने शरों और नाराचों के भीतन विशिष्ट चेतना प्रवाहित करके राम-रावण युद्ध एवं महाभारत युद्ध में अत्यन्त आश्चर्यपूर्ण
अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया गया था। उन पाशुपतास्त्र, नारायणास्त्र, ऐन्द्रास्त्र
व सर्वविनाशक ब्रह्मास्त्र
को विशिष्ट ध्यान व एकाग्रता की विधियों से स्मृतिगत करके प्रयुक्त किया जाता था।
ब्रह्मास्त्र
के विषय में महाभारत में एक विशिष्ट उल्लेख है जिससे उसकी सचेतन विधि प्रक्रिया का ज्ञान होता है। अश्वत्थामा ने पांडवों के समूल विनाश के लिए जब ब्रह्मास्त्र
छोड़ा, तो शास्त्र व विज्ञान के महान् पंडित कृष्ण ने सबसे शस्त्र छोड़ कर रथों से नीचे उतरने को कहा। सबने तत्काल कृष्ण वचन का पालन किया परन्तु आग्रह और मूढ़ता से भीम रथ पर ही डटा रहा तथा अपनी गदा घुमाता रहा। श्रीकृष्ण ने बलपूर्वक उसे नीचे खींचा और उसकी गदा हाथ से छीनी। तत्काल ब्रह्मस्त्र पीछे हटा और आकाश में विलीन हो गया। यह घटना उस काल के अस्त्रों के सचेतन क्रियाकारी स्वरूप को बताती है।
उसी प्रकार पुष्पक विमान भी वैदिक पदार्थ विज्ञान का परिपुष्ट प्रमाण था। वह मंत्रचर था। उसकी बनावट व प्रक्रिया इस प्रकार की थी कि वह मंत्रोच्चारण
से परिचालित हो कर गतिमान होता था तथा इच्छित ऊंचाई तक आकाश में उठ कर अत्यन्त तीव्र गति से आगे बढ़ता था। वाल्मीकीय रामायण के सुन्दर काण्ड में पुष्पक विमान का अत्यन्त सजीव वर्णन है। एक जर्मन विज्ञान एरिक वान डैनिकन ने पुष्पक विमान का वर्णन व प्रक्रिया पढ़ कर आश्चर्य से यह लिखा कि ‘‘बिना विमान को देखे और उसकी प्रक्रिया को बिना जाने ऐसा सजीव वर्णन व ऐसी सटीक अभिव्यक्ति प्रस्तुत नहीं की जा सकती। ‘‘भारतीय पदार्थ विज्ञान के विषय में एरिक वान डैनिकन की ‘‘चैरियट आफ द गाड्स’’ एक अत्यन्त उपयोगी व पठनीय पुस्तक है।
मोहन जोदड़ों हड़प्पा तथा गुजरात में लोथल आदि नगरों के उत्खनन में निकले नगरावशेष भारत के उच्च वास्तु विज्ञान के प्रमाण हैं।
आयुर्वेद भी स्वयं में एक पदार्थ विज्ञान है जो भौतिक देह के स्वास्थ्य और उपचार का श्रेष्ठ विज्ञान विधान है।
यातायात, व्यापार व अर्थ विधान, भांति-भांति के यंत्र भारतीय ग्रंन्थों में संदर्भित हैं। इस पार्थिव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को सुविधा और व्यवस्था से परिपूर्ण करने के लिए उस काल की श्रेष्ठतम वैज्ञानिक प्रगति आज भी लोगों को चकित कर देती है।
परन्तु सबसे मुख्य बात तो वैदिक सभ्यता में ध्यान देने की है वह यह की पाश्चात्य प्रभावित मनोवृत्ति से उस पुरातन मनोवृत्ति का कोई मेल नहीं है। अतः पदार्थ विज्ञान की पुरातन व्यवस्था भी आज के काल के गणित से नहीं देखनी चाहिए। भारतीय उच्चादर्श को जो पूर्ण विश्व में अपूर्व व अद्वितीय है जीवन के चार पुरूषार्थों की दृष्टि से जांचना पड़ेगा। धर्म का अध्ययन-अभ्यास अर्थ, काम व मोक्ष की दृष्टि से। काम का परिसेवन धर्म, अर्थ व मोक्ष के आधार पर, अर्थ का उपार्जन व व्यय धर्म, काम व मोक्ष के लक्ष्य से तथा धर्म, अर्थ, काम इन तीनों का अभ्यास मोक्ष की चरम दृष्टि के साथ करना अभीष्ट था। इस चतुर्मुखी दृष्टि से पदार्थ और पदार्थ विज्ञान के ध्येय व प्राप्तव्य बदल जाने से यहां पदार्थ विज्ञान का विकास पाश्चात्य विस्तार के समान नहीं किया गया। असुर लोग क्योंकि भोगवादी थे अतः उन्होंने अत्यन्त श्रेष्ठ यंत्रों, साधनों और भौतिक व्यवस्थाओं का निर्माण किया। यही श्रेष्ठ भौतिक पदार्थ उन्हें तृप्तवादी, भोगोन्मुख अतः अनैतिक बना देते थे अतः बाद में वे नष्ट कर दिए जाते थे। रावण जैसा असुर कला कौशल व ज्ञान-विज्ञान में दशरथ और राम आदि से श्रेष्ठ व ऊंचा था। पुष्पक विमान के अतिरिक्त भी उसके पास और आकाशचारी यान थे। शस्त्र-अस्त्र भी उसके पास श्रीरामचन्द्र
से श्रेष्ठ थे। परन्तु उसकी अनैतिकता व स्वैर उसे ले डूबे। वह एक अलग विषय है व्याख्या व विस्तार के लिए।
वेदों का पदार्थ विज्ञान आज के योरोपीय विज्ञान से श्रेष्ठतर होते हुए भी जनसाधारण तक नहीं पहुंच सका था। उस काल के यन्त्र और यान आदि अत्यन्त सीमित रूप में राजाओं आदि के पास ही होते थे। वे भी दुःसाध्य, दुष्प्राप्य एवं अत्यधिक मूल्य पर ही प्राप्य थे।
वैदिक पदार्थ की भाषा आज समझाने के प्रयास बहुत कठिन व दुरूह हो जाते हैं। पूरी भाषा, व्यंजना अभिव्यक्ति के साथ मान्यताएं व वरीयताएं भिन्न होने से भिन्न मनोवृत्ति चाहिए उन्हें समझने के लिए अतः हमने संक्षेप में भूमिका मात्र प्रस्तुत की है।
श्री अरविन्द चेतना समाज,
६५६/९, चमेलियान रोड़, दिल्ली-११०००६
पञ्चमहाभूत्
गोविन्द घनश्याम मैंदरकर
(वैदिक, अवैदिक एवम् पाश्चात्य विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन)
संदर्भः- १.
भारतीय-दर्शन-संग्रह (मराठी) ले.पं.द.वा. जोग
प्रथमावृत्ति
१९५८ चित्रशाला प्रकाशन, पुणे-२
२. उपनिषद्-तैत्तिरीय, केन, प्रश्न, मुण्डक, श्वेताश्वतर
३. सत्यार्थ प्रकाश-महर्षि दयानन्द सरस्वती
४. अद्वैतमत-खण्डन-स्वामी विद्यानंद सरस्वती
५. मराठी विश्वकोश-खण्ड ९
६. भारतीय संस्कृति कोशः पञ्चमखण्ड
पं. महादेव शास्त्री जोशी
पंचमहाभूतों की उत्पत्तिः- सृष्टि के आंरम्भ से ही मनुष्य तत्वदर्शी रहा है।
ओं केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।
– केनोपनिषद् प्रथम खण्ड-मंत्र १
जड़रूप अंतः कारण, प्राण, वाणी आदि कर्मेन्द्रियों और चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को अपना-अपना कार्य करने की योग्यता प्रदान करने वाला और उन्हें अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त करने वाला जो कोई एक सर्वशक्तिमान्
चेतन है, वह कौन है? और कैसा है?
भगवन् कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति।।
-प्रश्नोपनिषद्, प्रथम प्रश्न, मंत्र ३
किस प्रसिद्ध और सुनिश्चित कारण विशेष से, यह सम्पूर्ण प्रजा नाना रूपों में उत्पन्न होती है? वह कौन है?
भगतन्कत्येव देवाः प्रजां विधारयन्ते कतर
एतत्प्रकाशयन्ते कः पुनरेषां वरिष्ठ इति।।
– प्रश्नोपनिषद्
द्वितीय प्रश्न, मं. १
भगवन्। प्राणियों के शरीर को धारण करने वाले कुल कितने देवता हैं?
उनमें कौन-कौन इसको प्रकाशित करने वाले हैं? इन सबमें अत्यंत श्रेष्ठ कौन है ?
वह म नही मन स्वयं को उपरिनिर्दिष्ट
प्रश्नों जैसे अनेक प्रश्न पूछते रहता है। उत्तर तथा समाधान खोजने के प्रयास करते रहता है। इन्हीं प्रयासों के फल हैं दर्शन एवं उपनिषद्। भावात्मक तथा अभावात्मक, सभी प्रकार के अस्तित्वों के ज्ञान के ये ही मूल स्त्रोत हैं। खोज की यात्रा आगे बढ़ती है, तभी से आरंभ होता है मत-मतान्तरों का। इन विभिन्न विचारधाराओं का अध्ययन पंचमहाभूतों के संदर्भ में इसीलिये करना आवश्यक है।
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुज्र्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोञन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च।। -प्रश्नोपनिषद्, षष्ठ प्रश्न, मंत्र ४
(सबसे पहले) उसने प्राण की रचना की, प्राण के बाद श्रद्धा को (उत्पन्न किया) उसके बाद क्रमशः आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी (ये पांच महाभूत प्रकट हुए, फिर) मन (अन्तः करण) और इन्द्रिय समुदाय (की उत्पत्ति हुई) अन्न हुआ, अन्न से वीर्य (की रचना हुई, फिर) तप, नाना प्रकार के मन्त्र, नाना प्रकार के कर्म उनके फलस्वरूप भिन्न-भिन्न लोकों (का निर्माण हुआ) और उन लोकों में नाम (की रचना हुई)।
इन पांच महाभूतों का कार्य ही यह संपूर्ण दृश्यमान ब्रह्मांड है।
अब संक्षेप में जगत् की उत्पत्ति का क्रम बनाते हैं-
तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते।
अन्नात्प्राणो
मनः सत्यं लोकाः कर्मसुचामृतम्।।
-मुण्डकोपनिषद्, खण्ड १, मंत्र ८
परब्रह्म में विविध रूपोंवाली सृष्टि के निर्माण का संकल्प उठता है। उससे अन्न उत्पन्न होता है, अन्न से (क्रमशः) प्राण, मन सत्य (पांच महाभूत), समस्त लोक (और कर्म) तथा कर्मों से अवश्यम्भावी सुख-दुःखरूप फल उत्पन्न होता है।
तस्माद्वा एतस्मादात्मन
आकाशः सम्भूतः।
आकाशा द्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः।
ओषधिभ्योऽन्नम्। अन्नात्पुरूषः। स वा एष पुरूषोऽन्नरसमयः।
-तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मनन्दवली, प्रथम अनुवाक।
निश्चय ही उस परमात्मा ने (पहले-पहल) आकाश तत्व उत्पन्न किया। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल तत्व से पृथ्वी तत्व उत्पन्न हुआ। पृथ्वी से समस्त औषधियाँ उत्पन्न हुईं, ओषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ। अन्न से ही (यह) मनुष्य शरीर उत्पन्न हुआ। वह यह मनुष्य शरीर निश्चय ही अन्न रसमय है।
इस प्रकार उपनिषद् पंचमहाभूतों की उत्पत्ति बताते हैं।
(१) पुरूष (२) (प्रकृति) (३) महत (४) अहंकार (५) मनस् (६ता १०) ज्ञानेन्द्रियाँ (११ ता १५) कर्मेन्द्रियाँ (१६ ता २०) पंचतन्मात्रा
सांख्य पच्चीस तत्व अथवा मुख्य पदार्थ हैं ऐसा मानते हैं, वे निम्र वृक्ष से बताए जाते हैं- (२१ ता २५) पंचमहाभूत भारतीय दर्शन संग्रह प्रथमावृत्ति, पृष्ठांक २७७
इस वृक्ष में पंचमहाभूतों की उत्पत्ति तथा उनका अन्य तत्वों से या पदार्थों से संबंध बताया गया है। इन तत्वों के कार्यकारण भाव के अनुसार चार भाग होते हैं, उन्हें ही चार (अर्थ) कहा जाता है। वे चार अर्थ इस प्रकार हैं-
(१) मूल प्रकृति (प्रधान) (२) प्रकृति विकृति (३) केवल विकृति (४) अनुभय- अर्थात् प्रकृति भी नहीं और विकृति भी नहीं। जो विशेष प्रकार से सृष्टि करती है वह प्रकृति कहलाती है। सत्व, रज व तम ये इसके माध्यम हैं। पंचमहाभूत और ग्यारह इंद्रिया मिलकर साहल विकार है।
सत्वरजस्तमसां
साम्यावस्थ प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहड्.कारोऽहड्.कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरूष इति पञ्चविंशतिर्गणः।। -सांख्य. सू. अ. १ सूक्त ६१ -स. प्र., अष्टम् समु.
सत्व, रज, तम तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात होता है, उसका नाम ‘‘प्रकृति’’ है। उससे ‘‘महत्-तत्व’’ बुद्धि, उससे ‘‘अहंकार’’, उससे ‘‘पांच तन्मात्रा’’ सूक्ष्मभूत और दश इंद्रियां तथा ग्यारहवां ‘‘मन’’ , पांच तन्मात्राओं से
‘‘पृथिव्यादि पांच भूत’’ ये चैबीस और पच्चीसवां पुरूष अर्थात् जीव-परमेश्वर है।
(स. प्र., अष्टम समु.)
इस प्रकार पंचमहाभूतों की उत्पत्ति का ज्ञान सांख्य देता है। इसे ही सृष्टि की या विश्व की उत्पत्ति का साधन बताता है।
त्रैतमतवाद के उद्गाता, महान् दार्शनिक, महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुलास में श्वेताश्वतरोपनिषद् का (अ. ४ मं. ५) मं. उद्धृत करके कहते हैं-
अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां
बहवीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते
हात्येनां भुक्तभोगामजोन्यः।।
-श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय ४ मं. ५
प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों ‘अज’अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते, अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इनका कारण कोई नहीं। यहां प्रकृति अज, अनादि है। पंचमहाभूत इसके अंग हैं इसलिये वे भी अज-अनादि हैं।
द्वैतमत के समर्थक प्रकृति को पुरूष के समान ही महत्व देते हैं। प्रकृति को पुरूष की अभिव्यक्ति का साधन या माध्यम मानते हैं। वे पृकृति को मिथ्या नहीं मानते। सब उपनिषदों में शीर्ष स्थान पर बैठा एक संदर्भ मिलता है जो इस प्रकार है-
ओं पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
(यह मंत्र बृहदारण्यकोपनिषद् के पांचवे अध्याय के प्रथम ब्राह्मण की प्रथम कंडिका पूर्वार्धरूप
है।)
‘‘अदस्’’ और ‘‘इदम्’’ दो पद महत्व रखते हैं। ‘‘अदस्’’ चेतन है, ‘‘इदम्’’ अचेतम है, जड़ है। ‘‘अदस्’’ परोक्ष चेतन परब्रह्म, परमात्मा है, ‘‘इदम्’’ प्रत्यक्ष अचेतन (जड़) है। अपने-अपने रूप में अवस्थित दोनों पूर्ण हैं, किसी में कोई न्यूवता नहीं। इसलिए ‘‘आदस्’’ पूर्ण के अंतर्गत भी ‘‘इदम्’’ पूर्ण रूपेण उससे पृथक् है। दोनों के पूर्ण और स्वतंत्र होने से दोनों सत्य हैं, मिथ्या कोई नहीं।
अर्थात् प्रकृति के सत्य होने से पंचमहाभूत भी सत्य हैं।
अद्वैतमत के उद्गाता आचार्य शंकर प्रकृति को ‘‘मिथ्या’’ मानते हैं। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।।
वे ब्रह्ममात्र का महत्व देते हैं, तथा प्रकृति को गौणत्व। प्रकृति के गौणत्व का पर्यायी अर्थ होता है पंचमहाभूत गौण हैं, मिथ्या हैं।
सारांश रूप में यह स्पष्ट होता है कि सभी वैदिक दार्शनिक मुण्डकोपनिषद्
के दिये हुए सृष्टि के उत्पत्ति के क्रम से सहमत हैं जिसमें कहा गया है-
परब्रह्म सब प्राणियों की उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाला अन्न उत्पन्न करते हैं। फिर अन्न से क्रमशः प्राण, मन, कार्यरूप आकाशादि पंचमहाभूत, समस्त प्राणि आदि उत्पन्न होते हैं।
अब अवैदिक दर्शनों की प्रकृति तथा पंचमहाभूतों के बारे में क्या विचारधाराएं हैं यह देखते हैं।
अवैदिक दर्शनों में चार्वाक के विचार संदर्भ में उपलब्ध नहीं है। जहां ईश्वर का अस्तित्व ही उन्हें मान्य नहीं, जहां प्रलय पर भी विचार नहीं किया गया, वहां इस सृष्टि का विचार उनकी दृष्टि में गौणसा लगता होगा। इस विषय पर उपलब्ध बृहस्पति के विचार कुछ इस प्रकार है-
न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।
नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्व फलदायिकाः।।
-भारतीय-दर्शन-संग्रह (मराठी) प्रथमावृत्ति
पृष्ठांक ९५
स्वर्ग नहीं, मोक्ष नहीं, परलोक में जाकर कर्मानुसार सुख या दुःख भोगनेवाला आत्मा अलग नहीं।……………
चार्वाक की मान्यता के अनुसार मात्र चार ही मूलभूत तत्व हैं- पृथिवी, आप्त, तेज और वायु। चार्वाक आकाश को भूत मानते ही नहीं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानते हैं जबकि आकाश, प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय हो नहीं सकता। क्योंकि उसका अस्तित्व अभावात्मक होता है, अवस्तु होता है।
-भारतीय-दर्शन-संग्रह प्रथमावृत्ति
पृष्ठांक ११०
बौद्धमत के अनुसार पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार भावभूत भूत और यही भूत कोटि है। इसमें पृथिवी के परमाणु खरस्वभाव अर्थात् कठिन, कठोर, परमाणु स्नेहस्वभाव, तेज के परमाणु उष्णस्वभाव तथा वायु के परमाणु ईरण अर्थात् चलस्वभाव के होते हैं। (यहां तेज के परमाणु का अस्तित्व माना गया है, यह विशेष)। इन सबका कर्त्ता -अधिष्ठाता कोई प्रतीत नहीं होता। जब पृथिव्यादि ये धातु (भूत) समर्थ तथा क्रियाशील होते हैं, तब सबके समवाय ये कर्मोत्पत्ति
होती है।
जैन मत भी प्रकारान्तर से इसी प्रकार की पृष्टि करता दिखाई देता है।
आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक, विशेषतः रसायनशास्त्रीयों की मान्यता इससे कुछ अलग ही है। विश्व के निर्माण में वे मूलतः ९२ मूलतत्वों (Elements) का अस्तित्व मानते हैं। उनमें से कुछ किरणोत्सर्जक (Radeoactive) होने से कुछ नये मूलतत्व (Elements) का निर्माण होता है। इसलिए मूलतत्वों की संख्या ९२ से बढ़कर १०५ के लगभग होती है। जहां पौर्वात्य दार्शनिक पृथ्वी, आप और वायु भिन्न-भिन्न मूलतत्व मानते हैं, वहां पाश्चात्य वैज्ञानिक इन्हें पदार्थों की अवस्था (States of matter)
मानते हैं, यथा-पानी एक पदार्थ-बर्फ उसकी एक अवस्था (Stage) जो (Solid) स्थायु, ठोस, घन शब्द से जानी जाती है। भाप (Steem) उसकी वायु अवस्था (Gas Stage) से जानी जाती है। इन तीनों अवस्थाओं में पदार्थ की रचना, अणु, परमाणु में कोई परिवर्तन नहीं होता। सभी तीनों अवस्थाओं में रचना अणु-परमाणु से ही होती है। अतः पृथ्वी, भाप और वायु में ‘‘भूत” नहीं है, अपितु अवस्थाएं हैं ऐसा पाश्चात्य रसायन शास्त्रीयों का मानना है। वे तेज को पदार्थ नहीं मानते किंतु ऊर्जा (Energy) मानते हैं। तेज की रचना में अणु-परमाणु का विचार नहीं होता, क्योंकि वह पदार्थ नहीं हैं डॉ. अल्बर्ट आइन्सटाइन ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह स्थापित किया की ऊर्जा तथा पदार्थ परस्पर में परिवर्तनीय होते हैं। उसका सूत्र E=M c२ है, जहां E= ऊर्जा, M=Mass वस्तुमान, पदार्थ का भार, तथा C= प्रकाश की गति, ३ लाख किमी./सेकंण्ड है। यहां आश्चर्य इस बात का है कि वैदिक दार्शनिकों ने प्रयोग के साधनों के अभाव होते हुये भी वही निष्कर्ष निकाला है जो आइन्स्टाइन ने निकाला है। वे ऊर्जा = तेज को भी भूत = पदार्थ की श्रेणी मे रखते हैं, एवं ऊर्जा को अचेतन = जड़ मानते हैं। यह केवल चिंतन, तथा तर्क के आधार पर ही इस निष्कर्ष तक पहंचे यह आश्चर्य है।
वैदिक दार्शनिक आकाश को एक भूत मानते हैं। चार्वाक, बौद्ध आकाश तत्व मानते नहीं। पर, शास्त्रार्थ में परास्त होने पर चार्वाकानुयायी आकाश को भी ‘‘तत्व’’ मानने पर विवश हुए।
वस्तुतः आकाश का स्वरूप अभावात्मक है। न्याय वैशेषिक दर्शन यों बताता है-
अभावश्वतुर्विधः। प्रागभाव, प्रध्वंसाभावोऽत्यवत्तभावोऽन्योनाभावश्वेति।।
आकाश अज्ञेय परंतु अभिधेय अर्थात् शब्द का विषय तथा प्रमेय अर्थात् प्रमाण का विषय होने वाला है। अभावात्मक होते हुए भी वह नापा जा सकता है। दिशा, काल आदि भी अभावात्मक होते हुए भी अभिधेय तथा प्रमेय होते हैं।
यहां वैदिक विद्वान् तथा आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक, दोनों भी काल एवं आकाश (Time & Space)
इनके विषय में समान विचार रखते हैं। डॉ. आइन्सटाइन ने समय (काल) को चतुर्थमिति (Fourth dimention)
बताया है। इससे अभिप्राय यह कि हर जड़ अस्तित्व भौमितीय सिद्धान्त से भिमित होता ही है, पर उसके अस्तित्व के काल का निर्धारण भी आवश्यक होता है।
पंचमहाभूतों के लक्षण
(मुख्य संदर्भ -भारतीय-दर्शन-संग्रह, प्रथमावृत्ति
लक्षण पृष्ठांक २२७ से २३७)
अब इन पंचमहाभूतों के लक्षणों का विस्तार करते हैं। न्यायशास्त्र
लक्षण ग्रंथ पंचमहाभूतों के संबंध में अपने विवेचन निम्न प्रकार करते हैं। न्याय वैशेषिक दर्शन में नित्य हैं और कार्यरूप से अनित्य। इन पांचों तत्वों का परस्पर संसर्ग होने से उनमें कार्यकारण भाव नहीं है। पर वेदांत शास्त्रों ने इनमें कार्यकारण भाव माना है। संसार की सृष्टि साक्षात् इन भूतों के परस्पर संसर्ग से ही होती है। इस मिश्रण को पंचीकरण कहते हैं। प्रत्येक महाभूत में स्वतः १/२ तथ्य, अन्य चारों में प्रत्येक का १/८ भाग होता है। कुछ उपनिषद् मात्र तीन तत्व मानते हैं, इसीलिए उनके संसर्ग को ‘त्रिवृत्तकरण’ कहा जाता है। हर महाभूत में सब तन्मात्र के गुण होते हैं।
पंचीकरण दर्शाने हेतु निम्न तालिका दी गयी है-
क्रम तत्व (महाभूत) आकाश वायु तेज (अग्नि) आप पृथिवी
१. आकाश १/२ १/८ १/८ १/८ १/८
२. वायु १/८ १/२० १/८ १/८ १/८
३. तेज (अग्नि) १/८ १/८ १/२ १/८ १/८
४. आप १/८ १/८ १/८ १/२ १/८
५. पृथिवी १/८ १/८ १/८ १/८ १/२
ये महाभूत संसार की सृष्टि के कारण होते हैं। उनसे बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा (Energy) का निर्माण होने के कारण कभी-कभी वह ऊर्जा संहार-प्रलय का भी कारण होती है। इन महाभूतों को अपने वश में लाकर उनकी ऊर्जा का प्रयोग मानव-कल्याण में करने के प्रयास करना यह आधुनिक विज्ञान का लक्ष्य होता है। इन्हें संतुष्ट कर, और उससे मानवमात्र का कल्याण करने हेतु प्राचीन काल में इनकी स्तुति में अनेक मानवमात्र का कल्याण करने हेतु प्राचीन काल में इनकी स्तुति में अनेक प्रार्थनाएं रची गयी हैं।
अब एक-एक ‘‘भूत” पर विचार करते हैं-
तत्र गन्धवती पृथ्वी। सा द्विविधा। नित्यानित्या
च। नित्या परमाणुरूपा।
अनित्य कार्यरूपा। पुनस्त्रिविधा। शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरमस्मदादीनाम्।
इन्द्रियं गन्धग्राहकं घ्राणं नासाप्रवृत्ति। विषयों मृत्पाषाणादिः।।९
-भारतीय-दर्शन-संग्रहः प्रथमावृत्ति
पृष्ठांक २२७
पृथ्वीद्रव्य
का लक्षण गंधत्व है। इसका अभिप्राय यह है कि गंध का नित्य संबंध पृथिवी से रहना। यहां गंध आधेय व पृथ्वी आधार है। इससे आधेयता का धर्म गंधनिष्ठ है और आधारता या अधिकरणता पृथ्विनिष्ठ है। फलस्वरूप ‘‘गन्धनिष्ठाधेयतानिरूपिताधिकरणताश्रयत्वं पृथिव्याः लक्षणं’’, अर्थात् गंधनिष्ठ जो आधेयता, उस आधेयता से निरूपित, अर्थात् ज्ञान अथवा सूचित होने वाली जो अधिक लाता है उसका आश्रयत्व ही पृथ्वी का लक्षण है। आधेय शब्द के उच्चारण के साथ ही अधिकरण की कल्पना आती है। इसलिए अधिकरण आधेयनिरूपित होता है, ऐसा माना जाता है। गंध आधेय है यह समझ में आते ही उसका अधिकरण क्या है, यह सवाल उठता है, जिसका उत्तर है अधिकरणत्व का आश्रय पृथिवी है। यहां पृथ्वी लक्ष्य तथा गंध लक्षण है। लक्ष्यत्व का धर्म पृथ्वी में है, जिससे पृथ्वित्व लक्ष्यतावच्छेद है। पृथ्वी लक्ष्यतानच्छेदकावच्छिन्न है और पृथ्वी में गंधत्वलक्षण का समन्वय होता है।
यह पृथिवी दो प्रकार की होती है-नित्य और अनित्य। नित्य पृथ्वी परमाणुरूप है तो अनित्य पृथ्वी कार्यरूप होती है। अनित्य पृथ्वी पुनः तीन प्रकार की होती है। शरीर, इंद्रियां व विषय यही वे तीन प्रकार हैं। मनुष्यादि प्राणियों के शरीर स्वतः सिद्ध हैं। गंध का ग्रहण करने वाला घ्राण पार्थिव इंद्रिय नासिका के अग्रभाग में स्थित होता है। आत्मा मन से संयुक्त होता है, मन इन्द्रियों से संयुक्त होता है, इन्द्रियां विषय से संयुक्त होती हैं, तभी प्रत्यक्ष ज्ञान का उद्भव होता है।
गंधयुक्त शरीर को पार्थिव शरीर कहते हैं। इसमें पृथिवी तत्व जलादि अन्य तत्वों से अधिक मात्रा में होता है, इसलिए इसे पार्थिव कहते हैं। वास्तव में पार्थिव शरीर भी पंचभौतिक होता है। पर पार्थिव इंद्रिय का नाम घ्राण होता है जो पृथ्वी के गंध गुण का ग्रहण करता है। गंध के अभाव का ज्ञान भी उसी से होता है।
शीतस्पर्शवत्य
आपः। ता द्विविधाः। नित्या अनित्याश्व। नित्याः परमाणुरूपाः।
अनित्याः कार्यरूपाः। पुनस्त्रिविधाः। शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरं वरूण लोके।
इन्द्रियं रसग्राहकं रसनं जिव्हाप्रवृत्ति। विषयः सरित्समुद्रादिः।।
-भारतीय-दर्शन-संग्रह, प्रथम संस्करण पृष्ठांक २३१
आप शीतस्पर्शयुक्त होता है। उसके भी नित्य तथा अनित्य ऐसे दो प्रकार हैं। नित्य आप परमाणुरूप होता है और अनित्य आप कार्यरूप होता है। अनित्य आपों के शरीर, इंद्रियां व विशय ऐसे और तीन भेद होते हैं। आप्य शरीर वरूणालोक में होता है। इंद्रिय अपनी जिव्हा के (जिह्वा) अग्र पर रहता है। वह रसों का ग्रहण करता है, इसलिए उसे ‘‘रसन” कहा जाता है।
परमाणुरूप जल नित्य और व्घेणुकादि सर्व कार्यरूपजल अनित्य होता है। जिस प्रकार पार्थिव शरीर पृथिवी पर दिखने की संभावना होती है वैसे जलीय शरीर पृथिवी पर दिखने की संभावना नहीं होती। वह वरूण के जलप्रधान लोक में ही दिखने की संभावना होती है। हाँ! जलीय इंद्रिय मानवी शरीर में जिह्वा में अग्र पर स्थित होता है। वह गंधादि पांच विषयों में से केवल रस का ही ग्रहण कर सकता है।
उष्णस्पर्शवत्तेजः। तद्द्विविधं। नित्यमनित्यं च। नित्यं परमाणुरूपम्।
अनित्यं कार्यरूपम्। पुनस्त्रिविधम्। शरीरेंद्रियविषयभेदात्। शरीरमादित्यलोके। इन्द्रियं रूपग्राहकं चक्षुः कृष्णताराग्रवृत्ति। विषयश्वतुर्विधः। भौमदिव्यौदर्याकरजभेदात्। भौमं वन्हयादिकं। अबिन्धनं दिव्यं, विधुदादि। भुक्तस्य परिणामहेतुरौदर्यम्। आकरजं सुवर्णादि।।
-भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति
पृष्ठांक २३२
तेज उष्णस्पर्शवत्
है। उष्णस्पर्श यह तेज का असाधारण धर्म अर्थात् लक्षण है। वह तेज नित्य और अनित्य, ऐसे दो प्रकार का होता है। नित्य तेज परमाणुरूप तथा अनित्य तेज कार्यरूप होता है। इसके भी और तीन प्रकार होते हैं। तेजस् शरीर आदित्य लोक में होता है। चक्षु नाम का रूप का ग्रहण करने वाला तैजस् इंद्रिय आंखों की कनीनिका के अग्र भाग में होता है।
तैजस विषय चार प्रकार का है। १. भौम, २. दिव्य, ३. औदर्य व ४. आकरज। इनका विस्तार यहां करना लेख की मर्यादा से बाहर है।
रूपरहितस्पर्शवान् वायुः। सद्विविधं। नित्योऽनित्य्श्व। नित्यः परमाणुरूपः।
अनित्यः कार्यरूपः। पुनास्त्रिविधः। शरीरेन्द्रिय विषय भेदात्। शरीरं वायुलोके।
इन्द्रियं स्पर्शग्राहकं
त्वक् सर्वशरीर वृत्ति। विषयोवृक्षादिकम्पन हेतुः। शरीरान्तः
संचारी वायुः प्राणः। स चैकोप्युपाधिभेदात् प्राणापानादिसंज्ञा लभते।।
-भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति
पृष्ठांक २३४
वायु रूपरहित स्पर्शवान् होता है। वह भी नित्य और अनित्य इन दो प्रकार का होता है। नित्यवायु परमाणुरूप और अनित्यवायु कार्यरूप होता है। अनित्य वायु के शरीर, इंद्रिय और विषय ऐसे तीन प्रकार होते हैं। इनमें शरीर वायुलोक में होता है। त्वक् नामक वायवीय इंद्रिय सारे शरीर में व्याप्त होता है। वह स्पर्श गुण का ग्राहक होता है। शरीर में संचार करने वाला वायु ही प्राण है। वस्तुतः वह यदि एक ही है, फिर भी भिन्न-भिन्न उपाधियों के कारण प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन नामों से जाना जाता है।
शब्दगुणकमाकाशं। तच्चैकं विभु नित्यं च।।
-भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति
पृष्ठांक २३९
शब्द जिसका गुण है, वह आकाश है। वह एक विभु व नित्य है। मीमांसक आकाश, शब्दवान् होता है, ऐसा आकाश का लक्षण बताते हैं, परन्तु वह उचित नहीं। शब्द आकाश का गुण है ऐसा बताने के लिए नैयायिक ‘शब्द गुणकं’ ऐसा लक्षण करते हैं। पृथिव्यादि की भांति आकाश के अनेक प्रकार का अनुभव नहीं होता, इसलिए वह एक ही है। आकाश का शब्द यह गुण सर्वत्र उपलब्ध होता है। इसीलिए उसे विभु मानना अपरिहार्य होता है। तथा विभु होने से ही वह नित्य है। ‘‘आत्मन आकाशः सम्भतः’’ (तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मनंदवली प्रथम अनुवाक्)
परमात्मा ने पहले आकाश उत्पन्न किया। यदि आकाश ‘‘जन्य’’ है तो वह नित्य हो नहीं सकता, ऐसी शंका होती है। उसका समाधान यह कि श्रुति के ‘‘सम्भतः’’ शब्द का अर्थ ब्रह्मांडरूप
उपाधि के कारण अभिव्यक्त हुआ, ऐसा होता है, क्योंकि ऐसा न होने पर परमाणु भी अनित्य मानना पडे़गा। किंतु आत्मा जनक व आकाश (उससे) जन्य-उत्पन्न होने वाला यह अनुमान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसकी उत्पत्ति के लिए आवश्यक कारण सामग्री का अभाव है, इसलिए उपरिनिर्दिष्ट
वेदवाक्य अर्थवादरूप है ऐसा मानना पडे़गा। आकाश के परमाणु नहीं हैं, इसलिए उसका अनित्य कार्य असंभव, अर्थात् उसका शरीर, इंद्रिय व विषय ये तीन भेद नहीं हैं। श्रोत यह इंद्रिय मात्र आकाश का होता है, जो शब्द का ग्रहण करता है।
पृथ्वी, आप, तेज, वायु व आकाश, जो प्रकृति के मुख्य अंग हैं, उनके संबंध में वैदिक एवम, अवैदिक विचार, आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों के विचारों से मेल नहीं खाते, यह आरम्भ में देखा गया है। पुनरूक्तिदोष
टालने हेतु उन्हें यहीं विराम देते हैं। हां! आकाश को विशेष गुण, जिसे आकाश का लक्षण मानते हैं, वह है शब्द। इस विषय में भी पाश्चात्य भौतिक शास्त्री वैदिक विद्वानों से सहमत नहीं हैं। उनकी दृष्टि से शब्द-अर्थात् ध्वनि के वहन का माध्यम आकाश नहीं है। या आकाश का लक्षण ध्वनि नहीं है। एक प्रयोग (Experiment) से इसे समझ लेंगे। एक निर्वात पंप (Vacum Pump) होता है। किसी बर्तन को उसकी सहायता से निर्वात किया जा सकता है। उस पर कांच की एक हंडी रखते हैं, जिसमें एक विद्युत घंटी (Electeic Bell) लगी रहती है। घंटी बजाना आरंभ करते हैं। वह घंटी बजती हुई सुनाई भी देती है और दिखाई भी। अब निर्वात पंप की सहायता से वह हंडी शनै-वैसे घंटी की ध्वनि क्षीण होती जाएगी। जब हंडी निर्वात होगी, तब घंटी बजती हुई दिखाई तो देती है पर सुनाई नहीं देती। निष्कर्ष यह कि ध्वनि (शब्द) के वहन के लिए वायु या अन्य माध्यम आवश्यक होता है-
आकाश या निर्वातता नहीं। अर्थात् आकाश का लक्षण ‘शब्द’ यहां खरा नहीं उतरा, ऐसा भौतिक शास्त्री मानते हैं।
परंतु, आकाश केवल अभावात्मक नहीं, अपितु उसमें पूर्ण रूप से ईथर नामक काल्पनिक पदार्थ का अस्तित्व भौतिक शास्त्री मानते हैं। यही ईथर प्रकाशादि विद्युत्-चंुबकीय लहरों के वहन का माध्यम वे मानते हैं।
यदि काल्पनिक ईथर का अस्तित्व न माना जाय तो विद्युत्- चुंबकीय लहरों का वहन विशद् करना असंभव हो जाता है।
इस दृष्टि से भी आकाश का जो लक्षण ‘‘शब्द” वैदिक शास्त्रीयों ने माना है वह ठीक ही लगता है।
इस प्रकार हमने आकाशादि पंचमहाभूत जो सृष्टि के कारण होते हैं, उनके निर्माण, स्थिति तथा लक्षणों के संदर्भ में वैदिक, अवैदिक एवम् आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों की विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है।
पंचमहाभूत इस प्रदीर्घ विषय पर उतने ही विस्तार से एवम् गंभीरता से चिंतन करने वाले उन महान दार्शनिक ऋषियों की दिव्य स्मृति को शतशः अभिवादन।
नेहरू चैक, धाराशीव (उस्मानाबाद)-४१३५०१ दूरभाष – (०२४७२) २२२१९, २४५७१