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वेद और ग्रहण:पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

चन्द्रमा का घटना – बढ़ना

सूर्य की किरण चन्द्रमा पर सर्वदा पड़ती रहती है। पृथिवी घूमती है अतः पृथिवीस्थ पुरुष चन्द्रमा को सदा प्रकाशित नहीं देखता, क्योंकि पृथिवी की छाया चन्द्र में पड़ जाने से हम लोगों को प्रकाश प्रतीत नहीं होता ।

वेद और ग्रहण

वेदों में कुछ संदिग्ध सा वर्णन आया है जिससे राहु-केतु की कथा चली है और इसको न समझ कर राहुकृत ग्रहण लोग मानने लगे, मैं उन मन्त्रों को यहाँ उद्धृत करता हूँ ।

यत्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः । अक्षेत्रविद् यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥

– ऋ०५/४० 1५

(सूर्य) हे सूर्य ! (यद्) जब (त्वा) तुमको (आसुरः ) असुरपुत्र ( स्वर्भानुः ) स्वर्भानु (तमसा ) अन्धकार से (अविध्यत् ) विद्ध अर्थात् आच्छादित कर लेता है तो उस समय (भुवनानि) सम्पूर्ण भुवन पागल से (अदीधयुः) दीख पड़ने लगते (यथा) जैसे (अक्षेत्रवित्) मार्ग को न जानने हारा पथिक (मुग्धः ) मुग्ध अर्थात् घबरा जाता है तद्वत् सम्पूर्ण जगत घबरा जाता है ।

यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः । अत्रय स्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्नुवन् ॥

ऋ०५/४०/९

(आसुरः + स्वर्भानुः ) आसुर स्वर्भानु (यम्+ वै+सूर्यम्) जिस सूर्य को (तमसा + अविध्यत् ) अन्धकार से घेर लेता है (अत्रय: ) अत्रिगण (तम्+अनु+अविन्दन् ) उसको पालते हैं । तम को नष्ट कर अत्रि सूर्य की रक्षा कर प्राप्त करते हैं यहाँ अन्यान्य ऋचाओं में भी इस प्रकार का वर्णन आया है, ब्राह्मण ग्रन्थों में भी इसकी बहुधा चर्चा आती है । केवल एक उदाहरण शतपथ ब्राह्मण से देकर इसका तात्पर्य लिखूँगा-

स्वर्भानुर्ह वा आसुरः सूर्यं तमसा विव्याध स तमसा विद्धो न व्यरोचत तस्य सोमारुद्रावेवैतत्तमोऽपाहतां स एषोऽपहतपाप्मा तपति । -शत० ५। १ । २।१।

तात्पर्य – असुर शब्द

ऋग्वेद में असुर शब्द दुष्ट अर्थ में बहुत ही विरल प्रयुक्त हुआ है । सूर्य, मेघ, वायु, वीर, परमात्मा आदि अनेक अर्थों में यह असुर शब्द विद्यमान है।

वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यरव्यद् गभीरवेपा असुरः सुनीथः । क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मि रस्याततान ॥

ऋ० १ । ३५ ।७

यहाँ पर सूर्य के विशेषण में असुर शब्द आया है । जिस कारण सूर्य के प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता रहता है, अतः (असुरस्य सूर्यस्य अयमासुरः ) असुर जो सूर्य उसका सम्बन्धी होने से चन्द्र आसुर कहाता है ।

स्वर्भानु – स्व-स्वर्ग आकाश, अन्तरिक्ष । भानु-प्रकाश । स्वर्ग का प्रकाश करने हारा चन्द्र है, अतः इसको स्वर्भानु कहते हैं ।

अत्रि – सूर्य किरणों का नाम अत्रि है । ” अदन्ति जलानि ये तेऽत्रयः किरणा:

अब वैदिकार्थ पर ध्यान दीजिए । वेद में कहा गया है कि “आसुर स्वर्भानु सूर्य को अन्धकार से ढाँक लेता है।” ठीक है। आसुर स्वर्भानु जो चन्द्र वह अपनी छायारूप अन्धकार से सूर्य को ढाँक लेता है तब पुनः अत्रि अर्थात् सूर्य किरण ही इसको हटाकर सूर्य की, मानो, रक्षा करता है । शतपथ ब्राह्मण कहता है कि सोम और रुद्र इस तम को विनष्ट करता है । यह भी ठीक है, क्योंकि चन्द्र ही अपनी छाया सूर्य पर डालता है और कुछ देर के पश्चात् वहाँ से दूर हट जाता है । रुद्रनाम विद्युत् का है अर्थात् प्रकाश पुनः आ जाता है । यही, मानो, सूर्य का तम से छूटना है, वेद की यह एक बहुत साधारण बात थी । इसे न समझ कैसी-कैसी कल्पनानाएँ होती गईं।

आधुनिक संस्कृत में ” तमस्तु राहुः स्वर्भानुः सैंहिकेयो विधुन्तुदः ” अमर । स्वर्भानु राहु को कहते हैं कि असुर एक भिन्न जाति मानी जाती है, अतः इस प्रकार का महाभ्रम उत्पन्न हुआ है । मैं बारम्बार कह चुका हूँ कि वेदों की एक छोटी सी बात लेकर बड़ी-बड़ी गाथाएँ बनाते गये। इसलिए उचित है कि लोग वेदों को पढ़ें- पढ़ावें अन्यथा वे कुसंस्कारों से कदापि न छूट सकेंगे ।

ग्रहण क्या है ?

चन्द्र ग्रहण में सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल दीख पड़ता है किन्तु मण्डल के ऊपर काली और लाल छाया रहती है । कभी सम्पूर्ण मण्डल के ऊपर और कभी उसके कुछ भाग के ऊपर वह छाया रहती है । सूर्यग्रहण इससे विलक्षण होता है । सूर्यमण्डल अधिक वा स्वल्प भाग उस समय छिपा हुआ रहता

है ग्रहण दो प्रकार के होते हैं । १ – जिनमें सूर्य और चन्द्र के मण्डल का कुछ भाग ही छाया आच्छादित होता है, वह भाग ग्रास वा असम्पूर्ण ग्रास कहाता है। लोग उसको उतना ही अनुभव करते हैं। जितना मेघ से वे दोनों सूर्य और चन्द्र छिप जाएँ । २ – सम्पूर्ण ग्रास में सम्पूर्ण सूर्य और आच्छादित हो जाता है । सूर्य के सम्पूर्ण ग्रास के समय पृथिवी के ऊपर आश्चर्यजनक लीला होती है । पृथिवी के ऊपर उस समय एक विचित्र अन्धकार हो जाता है। न तो रात्रि के समान ही वह अन्धकार है और न ऊषाकाल के समान प्रकाश एवं अन्धकार युक्त ही है । आकाश में ताराएँ दीख पड़ने लगती हैं । पक्षिगण अपने घोसले की ओर दौड़ते हैं। रात्रिञ्चर पशु-पक्षी रात्रि समझ कर बाहर निकलने लगते हैं । अज्ञानी जन डर जाते हैं। बहुत दिनों की बात है कि दो देशों के मध्य घोर संग्राम हो रहा था, उसी समय सूर्यग्रहण लगा। दोनों दलों के सिपाही इतने डर गये कि युद्ध बन्द कर दिया गया और दोनों दलों में सन्धि हो गई। सूर्य के समग्र ग्रास से आजकल भी अज्ञानी जनों में अधिक भय उत्पन्न होता है । वे समझते हैं कि इससे किसी महान् राजा की मृत्यु होगी। महा दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी, भयंकर युद्ध, भूकम्प आदि उपद्रव इस वर्ष होंगे, किन्तु ये सब मिथ्या बातें हैं । ग्रहण से मृत्यु और दुर्भिक्षादि का कोई भी सम्बन्ध नहीं है ।

नाना कल्पनाएँ

जिन देशों में ग्रहण के तत्व नहीं जानते थे वहाँ इसके सम्बन्ध में विविध कल्पनाएँ लोग किया करते थे १ – प्राचीन काल के रोम निवासी चन्द्रमा को एक देवी समझते थे । जब चन्द्र ग्रहण होता था तब वे मानते थे कि इस समय चन्द्र देवी अपने बच्चे के साथ परिश्रम कर रही है । इसकी सहायता के लिए वे चन्द्र देवी के नाम पर बलि दिया करते थे, उनमें से कोई मानते थे कि कोई जादूगर चन्द्र देवी को क्लेश पहुँचा रहा है । इस हेतु यह काली हो गई है इत्यादि ।

२ – अमेरिका के कुछ मनुष्य मानते थे कि जब-जब चन्द्रमा बीमार हो जाता है तब-तब ग्रहण लगता है । उनको इससे अधिक भय होता था कि ऐसा न हो कि वह हम लोगों के ऊपर गिर कर नष्ट कर दे । इस आपत्ति से बचने के लिए और चन्द्रमा को जगाने के लिए बड़े-बड़े ढोल पीटा करते थे । कुत्तों को मार-मार कर भौंकाते थे, स्वयं अपने बड़े जोर से चिल्लाया करते थे । उसके नैरोग्य के लिए देवताओं से प्रार्थनाएँ करते थे ।

३ – अमेरिका के मैक्सिको देश निवासी समझते थे कि चन्द्रमा और सूर्य में कभी-कभी तुमुल संग्राम हो जाता है । चन्द्रमा हार जाता है उसको बड़ी चोट लग जाती है, इसीलिये इसकी ऐसी दशा होती है । वहाँ के लोग ग्रहण के समय उपवास किया करते थे । स्त्रियाँ डर कर अपनी देह को ही पीटने लगती थीं । कुमारिकाएँ अपनी बाहु में से रक्त निकालने लगती थीं। छोटे-छोटे बच्चे रोने लगते थे ।

अफ्रीका देश अभी तक महान्धकार में है। यहाँ के लोग निग्रो ( हबसी ) कहलाते हैं। वे जंगली अतिमूर्ख पशुवत् हैं। बहुत सी जातियाँ अभी तक कपड़ा पहनना भी नहीं जानती हैं । वहाँ कोई एक यांत्रिक चन्द्र ग्रहण के समय उपस्थित था, वह इसका प्रभाव इस प्रकार वर्णन करता है । एक दिन सन्ध्या समय शीतल वायु चल रही थी । लोग बड़े आनन्द से इधर-उधर मैदान में हवा खा रहे थे । चन्द्रमा के पूर्ण एवं स्वच्छ प्रकाश से और भी लोग बहुत प्रमुदित हो रहे थे ।

इतने में ही चन्द्र कुछ-कुछ काला होना शुरू हुआ। धीरे-धीरे सर्वग्रास हो गया । ज्यों-ज्यों चन्द्र काला पड़ता जाता था त्यों-त्यों आनन्द घटता जाता था, भय और घबराहट बढ़ती जाती थी । सर्वग्रास के समय लोग बहुत घबरा कर इतस्ततः दौड़ने लगे । सैकड़ों पुरुष वहाँ के राजा के निकट दौड़ गये और कहने लगे कि यह आकाश में क्या हो रहा है। इस समय मेघ भी नहीं जिससे चन्द्रमा छिप जाए। वे एक-दूसरे के मुख अचम्भा से देखने लगे कि इस समय क्या आफत हम लोगों के ऊपर आवेंगी। वे ग्रहण के तत्त्व नहीं जानते थे, इसलिये इस प्रकार आकुल-व्याकुल हो रहे थे। बहुत आदमी बहुत जोर से चिल्लाने लगे। कोई डंकाओं को पीटने लगे, कोई तुरही फूंकने लगे। वे मानते थे कि कोई महान् साँप आ के चन्द्रमा को पकड़ लेता है, इसलिये यहाँ से इस असुर को डरा देना चाहिए ताकि वह चन्द्र को छोड़ कर भाग जाए। इसी अभिप्राय से वे डंका बजाना, सब कोई मिलकर हल्ला मचाना, तुरही फूंकना आदि काम जरूरी समझते थे । जब धीरे-धीरे पुनः चन्द्रमा स्वच्छ होने लगा तब वे निग्रो ( हबसी ) बड़ी खुशी मना-मना कर अपने पुरुषार्थ की प्रशंसा करने लगे ।

५ – शोक की बात है कि जिनके पूर्वज अच्छी प्रकार ग्रहण तत्त्व जानते थे वे भी भारतवासी इन्हीं जंगलियों के समान ग्रहण मानने लगे। आश्चर्य यह है कि यहाँ एक ओर ज्योतिषशास्त्र चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि पृथिवी की छाया से चन्द्र ग्रहण और चन्द्र की छाया से सूर्य ग्रहण होता है । न कोई असुर, न कोई साँप और न कोई अन्य पदार्थ ही चन्द्र-सूर्य को क्लेश पहुँचा सकता है । चन्द्र-सूर्य एक जड़ पदार्थ है । प्रतिदिन छायाकृत ग्रहण रहता ही है इसी कारण चन्द्रमा बढ़ता और घटता है । मेघ के आने से जैसे चन्द्रमा और सूर्य छिपा सा प्रतीत होता है । वैसा ही ग्रहण भी समझो। ग्रहण के कारण कदापि भी महामारी आदि उपद्रव नहीं होते इत्यादि विस्पष्ट और सत्य बात ज्योतिष शास्त्र बतला रहा है । वह शास्त्र पढ़ाया भी जा रहा हैं किन्तु दूसरी ओर मूर्खता की ऐसी धारा चल रही है कि जिसका वर्णन महाकवि भी नहीं कर सकते । ग्रहण के समय हजारों-लाखों आदमी काशी, प्रयाग और कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों की ओर दौड़ते हैं। राहु नाम के असुर से चन्द्र सूर्य को बचाने हेतु कोई जप, कोई दान, कोई पूजा करता। इस समय

नाना कल्पनाएँ

को अशुभ समझ कोई स्नान करता, कोई समझता है कि यदि ग्रहण के समय काशी, गंगा वा कुरुक्षेत्र में स्नान हो गया तो मुक्ति साक्षात् हाथ में ही रखी हुई है । डोम और भंगी जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि ग्रहण लग गया, दान पुण्य करो इत्यादि विचित्र लीला आज भी भारत में देखते हैं। पुराणों ने यहाँ की सारी विद्याएँ नष्ट-भ्रष्ट कर दीं। वे कैसी मूर्खता की कथा गढ़ते हैं – एक समय देव और असुर मिल के समुद्र मंथन कर अमृत ले आए। असुरगण अमृत को ले भागने लगे । देवगण वहाँ ही मुँह देखते रह गये । तब विष्णु भगवान् मोहिनी स्त्री रूप धर असुरों के निकट जा उन्हें मोहित कर उनसे अमृत के घड़े को अपने हाथ में लेके दोनों दलों को बराबर बाँट देने की सन्धि कर उन्हें बिठला मन में छल रख अमृत बाँटने लगे । प्रथम देव लोगों को अमृत देना आरम्भ किया । असुरों में एक राहु विष्णु के कपट – व्यवहार से परिचित था, अतः वह सूर्य और चन्द्र के बीच में आके बैठ गया था । ज्योंही विष्णु उस राहु को अमृत देने लगे त्योंही सूर्य और चन्द्र ने इशारा किया किन्तु कुछ अमृत इसके हाथ पर गिर चुका था और उसको उसने पी भी लिया । विष्णु ने उसे असुर जान चक्र से इसका शिर काट लिया। वह राहु और केतु दो हो गया । तब से ही वे दोनों अपने बैरी सूर्य-चन्द्र को समय-समय पर पीड़ा दिया करते हैं, इसीलिये ग्रहण होता है । यह पौराणिक गप्प है ।

६ – बौद्ध सम्प्रदायी भी पौराणिक ही एक प्रकार से हैं, अतः वे भी राहुकृत ही ग्रहण मानते हैं । इनमें चन्द्रप्रीति और सूर्यप्रीति नाम के दो स्तोत्र ग्रहण के समय में पड़ते हैं । चन्द्रप्रीति में इस प्रकार वर्णन आता है कि एक समय किसी एक स्थान में बुद्धदेव जी समाधिस्थ थे। उसी समय राहु नाम का असुर चन्द्रमा को अपने पेट में निगलने लगा । चन्द्र बहुत ही दुःखित हुए । बुद्ध को समाधि में देख जोर से पुकार चन्द्र भगवान् कहने लगे कि मैं आपकी शरण में हूँ । आप सबकी रक्षा करते हैं मेरी भी आप रक्षा कीजिए। इस कातर शब्द को सुन दयालु बुद्ध जी ने राहु से कहा कि तू यहाँ से चन्द्र को छोड़ भाग जा, क्योंकि चन्द्र ने मेरी शरण ली है । बुद्ध की इतनी बातें सुन चन्द्र को छोड़ डरता – काँपता साँस लेता हुआ वह राहु असुराधिपति विप्रचिति के निकट भाग कर जा पहुँचा और कहने लगा कि यदि मैं चन्द्रमा को न छोड़ता तो न जाने मेरी क्या दशा होती । बुद्ध ने मेरा अत्याचार देख लिया । सूर्यप्रीति में भी इसी प्रकार की गप्प है।

७- चीन देश निवासी भी निग्रो ( हबसी ) हिन्दू और बौद्ध के समान ही समझते थे कि कोई लाल और कृष्ण साँप ही चन्द्र एवं सूर्य को तंग किया करता है । वे हिन्दू के समान न तो स्नान करते और न बौद्ध के समान चन्द्रप्रीति आदि स्तोत्र ही पढ़ते, किन्तु अफ्रीका के हबसी के समान सब कोई मिलकर बड़े जोर से चिल्लाने, ढोल बजाने, डंका पीटने लगते हैं ताकि इस शोर से डर कर वह सर्प भाग जाए । इत्यादि भिन्न देशवासी, अपनी-अपनी कल्पनाएँ किया करते हैं।

ये सर्व कल्पनाएँ मिथ्या हैं, क्योंकि यद्यपि चन्द्रमा और सूर्य यहाँ से देखने में अतिलघु प्रतीत होता है, किन्तु चन्द्रमा भी एक पृथिवी के समान ही लोक है वहाँ भी जीव निवास करते हैं । पृथिवी से थोड़ा ही छोटा चन्द्र है। सूर्य की कथा ही क्या । १३००००० तेरह लक्ष गुणा सूर्य पृथिवी से बड़ा है । वह अग्नि का महासमुद्र है । इस सूर्य के चारों तरफ लाख कोश में कोई शरीरधारी जीव इसकी ज्वाला से नहीं बच सकता है । यह सम्पूर्ण पृथिवी भी पर्वतसमुद्रादि सहित यदि सूर्यमंडल में डाल दी जाए तो एक क्षण में जलकर भाप हो जाए। जब ऐसी विस्तृत पृथिवी की वहाँ पर यह दशा हो तो आप विचार सकते हैं कि सर्प और असुर वहाँ कैसे पहुँच सकते। अतः राहु आदि की कथा सर्वथा मिथ्या है, पुनः जब राहुकृत ग्रहण होता तो नियमपूर्वक पूर्णिमा और अमावस्या तिथि को ही चन्द्र-सूर्य ग्रहण किस प्रकार होता । वह चेतन राहु स्वतन्त्र है जब चाहता तब ही सूर्य चन्द्र को धर पकड़ता किन्तु ऐसा नहीं होता, अतः यह कल्पना मिथ्या है । पुनः विद्वान् गण सैकड़ों वर्ष पहले ही ग्रहणों के मास, तिथि, पल, क्षण बतला सकते हैं। इतना ही नहीं, वे किस क्षण में ग्रहण और किस क्षण में मोक्ष होना आरम्भ होगा, यह भी कह सकते हैं । तब आप विचार करें कि यदि कोई सर्प वा राहु का यह कार्य होता तो गणित के द्वारा पण्डितगण इस विषय को कैसे कह सकते थे । इस हेतु उपयुक्त समस्त कल्पनाएँ मिथ्या होने से त्याज्य हैं ।

पृथिवी की छाया चन्द्रमा के ऊपर पड़ती है, अतः चन्द्र ग्रहण होता है । इसी हेतु चन्द्र ग्रहण ईषदुक्त सा प्रतीत होता है । चन्द्र की छाया से सूर्य ग्रहण होता है । चन्द्रमा सर्वथा काला है । अत: सूर्य ग्रहण काला प्रतीत होता है । इसी कारण लाल और कृष्ण सर्प की भी कथा चल पड़ी है ।

वर्ष में २ से कम और ७ से अधिक ग्रहण नहीं हो सकता । साधारणतया वर्ष में ४ चार ग्रहण होते हैं । इति ।

आकर्षण : :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

वेदों में आकर्षण शक्ति की भी चर्चा है । लोग कहते हैं कि यह नूतन विज्ञान है । यूरोपवासी सरऐसेकन्यूटनजी ने प्रथम इसको जाना तब से यह विद्या पृथिवी पर फैली है, परन्तु यह बात नहीं । भारतवर्ष में इसकी चर्चा बहुत दिनों से विद्यमान है और चुम्बक – लोह को देख सर्वपदार्थगत आकर्षण का अनुमान किया गया था । इसका अभी तक एक प्रमाण यह है कि सिद्धान्त शिरोमणि नाम के ग्रन्थ में भास्कराचार्य ने एक प्राचीन श्लोक उद्धृत किया है, वह यह है-

आकृष्टशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं गुरु स्वाभिमुखी- करोति । आकृष्यते तत्पततीव भाति समे समन्तात् कुरियं प्रतीतिः ॥

सर्वपदार्थगत एक आकर्षण शक्ति विद्यमान है, जिस शक्ति से यह पृथिवी आकाशस्थ पदार्थ को अपनी ओर करती है और जो यह खींच रही है वह गिरता मालूम होता है अर्थात् पृथिवी अपनी ओर खींच कर आकाश में फेंकी हुई वस्तु को ले आती है, इसको लोक में गिरना कहते हैं । इससे विस्पष्ट है कि भास्कराचार्य्य से बहुत पूर्व यह विद्या देश में विद्यमान थी । आर्य्यभट्टीय नामक ज्योतिष शास्त्र में भी इसका वर्णन आया है । अब मैं वेदों की दो-एक ऋचाएँ यहाँ लिखता हूँ, जिससे सब संशय दूर हो जाएँगे-

आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥

ऋ० १ । ३५ /२

कृष्ण = आकर्षणशक्ति युक्त । रज-लोक ‘लोका रजांस्युच्यन्ते’ निरुक्त, पृथिवी आदि लोक का नाम रज है । हिरण्यय – हिरण्यपाणि आदि शब्द बहुत आते हैं। अपनी ओर जो हरण करे, खींच लावे, वह हिरण्य कहाता है। जिस कारण सूर्य का रथ अर्थात् सूर्य का समस्त शरीर अपने परितः पदार्थों को अपनी ओर खींचता है, अतः यह रथ हिरण्यय कहाता है । अथ मन्त्रार्थ – ( सविता + सूर्य) (कृष्णेन + रजसा) आकर्षण शक्ति युक्त पृथिवी, बुध, बृहस्पति आदि लोकों के साथ (वर्त्तमानः ) वर्त्तता हुआ । (अमृतम् + मृतम् + च ) अमृत जो पृथिवी आदि लोक । मृत जो पृथिवी आदि लोकों में रहने वाले शरीरधारी जीव इन दोनों को (आनिवेशयन्) अपने-अपने कार्य में लगाते हुए (देव: ) यह महान् देव (हिरण्ययेन + रथेन ) हिरण्मय = अपनी ओर हरण करने वाले रथ के द्वारा ( भुवनानि पश्यन्) परितः स्थित भुवनों को मानों देखता हुआ (आयात) निरन्तर आवागमन कर रहा है । २ । इस ऋचा में कृष्ण शब्द दिखलाता है कि सर्वपदार्थ गत आकर्षण शक्ति है । पृथिवी अपनी ओर तथा सूर्य अपनी ओर खींचते हुए विद्यमान हैं, अत: सूर्य के ऊपर पृथिवी गिरकर नष्ट नहीं होती। सूर्य पृथिवी की अपेक्षा करीब १३००००० लक्ष गुणा बड़ा है और इस सौर्य जगत का अधिपति भी वही है । इसलिये इसमें मध्याकर्षण शक्ति भी बहुत है, इसमें हेतु की आवश्यकता नहीं । अतएव वेद में सूर्य के नाम ही कृष्ण आया है, क्योंकि वह अपनी ओर पृथिवी आदि भुवनों को खींचे हुए यथास्थिति रखे हुए है ।

कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति । ते आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्घृतेन पृथिवी व्युद्यते ॥

– ऋ० १ । १६४ । ४७

अर्थ – (हरयः + सुपर्णाः) हरण करने वाली सूर्य की किरण ( नियानं + कृष्णम्) नियमपूर्वक चलने वाले कृष्ण अर्थात् आकर्षण शक्ति युक्त सूर्य की ओर (अप: + वसाना) साथ जल लेकर (दिवम्+ उत्पतन्ति) आकाश में ऊपर उठती हैं अर्थात् जब सूर्य से निकल कर किरण पृथिवी पर आती हैं तो मानों पृथिवी पर के जल लेकर फिर सूर्य के निकट पहुँचती हैं। यह एक आलंकारिक वर्णन है। (ते) वे सूर्य किरण ( ऋतस्य + सदनात् ) सूर्य के भवन से ( आ + अववृत्रन्) आवागमन करती ही रहती हैं। (आत् + इत्) तब ही (घृतेन + पृथिवी + विउद्यते) जल से पृथिवी सींची जाती है ॥ ४७ ॥

यहाँ यद्यपि कृष्ण शब्द के अर्थ भिन्न-भिन्न भाष्यकारों ने भिन्न प्रकार से किए हैं, परन्तु प्रकरण देखने से ही सूर्य अर्थ प्रतीत होता है । वेदों में’ ‘विचर्षणि’ शब्द भी सूर्य के लिए आया है। (वि + चर्षणि)

१. चर्षणि शब्द मनुष्य के नाम में भी आया है । कोई कहते हैं कि चर धातु से चर्षणि बनता है, कोई इसको कृष् धातु से देवराज यज्वा का निर्वचन निघण्टु पर देखिए ।

कृष् धातु से चर्षणि शब्द सिद्ध होता है । कृष् धातु का अर्थ प्रायः आकर्षण है । इसी से आकर्षण, आकृष्टि, कृष्ण आदि अनेक शब्द सिद्ध होते हैं । वेद के मन्त्र देखने से विस्पष्ट होगा ।

हिरण्यपाणिः सविता विचर्षणिरुभे द्यावा पृथिवी अन्तरीयते । अपामीवां बाधते वेति सूर्यमभि कृष्णेन रजसा द्यामृणोति ॥

– ऋ० १ । ३५ / ९

अर्थ – (हिरण्यपाणिः ) जिसका पाणि-किरण । हिरण्य = हरणशक्ति-युक्त है । (विचर्षणिः ) जो अत्यन्त आकर्षण शक्ति युक्त है । (सविता) वह सूर्य (उभे + द्यावापृथिवी ) दोनों द्युलोक और पृथिवी लोक को ( अन्तरीयते) अपने-अपने अन्तर में अर्थात् अपने-अपने अवकाश में स्थिति रखता है अर्थात् एक लोक को दूसरे लोक के साथ टक्कर खाने नहीं देता। (अमीवाम्+अपबाधते ) और वह सूर्य सकल उपद्रवों को बाध करता है। (सूर्य्यम्+ वेति) और वह सूर्य अपनी धुरी पर चल रहा है । सूर्यम् – द्वितीयार्थ में प्रथमा है । (कृष्णेन + रजसा ) आकर्षण शक्ति युक्त तेज के साथ वह सूर्य ( द्याम् + अभि + ऋणोति ) द्युलोक के चारों तरफ व्यापक हो रहा है । पुनः

पञ्चारे चक्रे परिवर्तमाने तस्मिन्नातस्थुर्भुवनानि विश्वा । तस्य नाक्षस्तप्यते भूरिभारः सनादेव न शीर्यते सनाभिः ॥

– ऋ० १ । १६४ । १३ (विश्वा + भुवनानि ) सूर्य के चारों तरफ स्थित पृथिव्यादि सर्वलोक ( तस्मिन् + चक्रे) उस चक्र के आधार पर ( आ + तस्थुः ) अच्छी प्रकार स्थित हैं । (पञ्चारे) जिस चक्र में ऋतुरूप पाँच अर हैं । (परिवर्तमाने) जो चक्र स्वयं ही घूम रहा है । (तस्य) उस चक्र का ( भूरिभार: ) बहुत भार वाला (अक्षः) चक्र के मध्य में वर्तमान धूर (न+तप्यते) पीड़ित नहीं होता और (सनात्+एव+ न + शीर्यते) सनातन है और कभी टूटता नहीं, (सनाभिः ) वह चक्र बन्धन शक्ति युक्त है ॥ १३ ॥

यह ऋचा अनेक वस्तु दिखलाती है । १ – भुवनानि विश्वा सम्पूर्ण विश्व सूर्य के रथ पर स्थित है । यह सिद्ध करता है कि पृथिव्यादि लोकों से यह बहुत ही बड़ा है । २ – भूरिभारः अब यह विचार उपस्थित होता है कि उस चक्र का रथ भूरिभार क्यों कहलाता है । इसका उत्तर विस्पष्ट है कि जिस चक्र के ऊपर सम्पूर्ण भुवन स्थित हों, वह अवश्य ही भूरिभार होगा । यहाँ वास्तविक भार तो नहीं, किन्तु आकर्षण रूप भार ही इसके ऊपर अधिक है, इसलिये यह आलंकारिक वर्णन है । इतने भार रहने पर भी वह अक्ष न पीड़ित होता है, न टूटता है, क्योंकि वह सनातन है । ३ – सनाभिः बन्धनार्थक णह धातु से नाभि बनता है । जैसे इस मानव शरीर का नाभि सम्पूर्ण शरीर को बाँधने वाला है वैसे ही वह सूर्य का चक्र पृथिवी आदि लोक-लोकान्तरों को बाँधने वाला है । इसलिए सनाभि पद यहाँ कहा गया है। अब यह स्वभावतः प्रश्न होता है कि क्या सूर्य कोई चेतन देव है ? क्या सूर्य को ऋषिगण चेतन देव मानते थे ? जो अपने हाथ में रस्सी लेकर सब लोक-लोकान्तरों को बाँधे हुए है । वे ऋषियों के भाव नहीं जानते अथवा ऋषियों के ऊपर कलंक लगा रहे हैं जो कहते हैं कि ऋषिगण सूर्यादि को चेतन मानते थे । वेद में पृथिवी के समान ही सूर्य एक जड़ पदार्थ माना गया है । इस अवस्था में पुनः शंका होती है कि सूर्य किस प्रकार से सर्व लोकों को बाँधे हुए है ? इसका उत्तर केवल यही हो सकता है कि अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा सूर्य अपने परितः स्थित भुवनों को यथा अवकाश में बाँधे हुए स्थित है । पुनः आगे की ऋचा से और भी विस्पष्ट हो जाएगा। यथा-

इरावती धेनुमति हि भूतं सूयवसिनी मनुषे दशस्या । व्यस्तना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः ॥

– ऋ० ७।९९ । ३

प्रथम इसमें द्यावा – पृथिवी सम्बोधित हुई हैं । द्यावापृथिवी ! आप दोनों (मनुषे) मननकर्त्ता जीव को (दशस्या) सदा दान देने हारी हैं । (इरावती) आप दोनों ही धनवान् ( धेनुमती ) गोमान् (सूयवसिनी) और शोभनधन-धान्योपत (भूतम्) होवें । इतना कहके अब आगे सूर्य और पृथिवी का सम्बन्ध दिखलाते हैं । (विष्णो ) हे सूर्य ! आप ( एते+ रोदसी) इस द्युलोक और पृथिवी लोक को (व्यस्तम्नाः) विविध प्रकार से रोके हुए हैं और (पृथिवीम् ) पृथिवी को (अभितः ) चारों तरफ से ( मयूखैः ) किरणों द्वारा (दाधर्थ) पकड़े हुए हैं ।

१ – रोदसी – द्यावा – पृथिवी का नाम है, जो रोकने हारी हों, वे रोदसी अर्थात् रोधसी । व्यस्तम्भ्राः – वि+अस्तभ्राः । इस ऋचा से अनेक वार्ताएँ निःसृत होती हैं। प्रथम रोदसी कहने से सिद्ध है कि यह पृथिवी और द्युलोक भी रोधसी है अर्थात् अपनी ओर आकर्षण करने वाली है । २ – विष्णु – यह नाम सूर्य का है । जब दोनों लोकों का सूर्य धारण करने हारा है तब इससे परिणाम यह निकलता है कि इसके परितः स्थित दोनों लोक छोटे और यह सूर्य बहुत बड़ा है । इस अवस्था में जो यह कहते हैं कि सूर्य ही पृथिवी की परिक्रमा करता है । यह कितनी बड़ी भूल है, क्या एक सरसों की परिक्रमा पर्वत करेगा । ३- मयूखैः – सूर्य अपनी किरणों से पृथिवी को धारण किए हुए है, इसका क्या भाव होगा । बहुत आदमी कहेंगे कि पृथिवी के ऊपर सूर्य किरण पड़ती रहती हैं, इसी से पृथिवी का धारण-पोषण होता है अन्यथा पृथिवी किसी काम की न होती । परन्तु यह बात नहीं, यहाँ दाधर्थ पद से धारणार्थ सिद्ध होता है जैसे कोई बैल को रस्सी से पकड़े। अब विचारना चाहिए कि पृथिवी को सूर्य किस शक्ति से पकड़े हुए है, निःसन्देह वह आकर्षण शक्ति है जिसके द्वारा अपने परितः स्थित अनेक लोकों को पकड़े हुए यह महान् सूर्य स्थित है । पुनः

अनड्वान दाधार पृथिवीमुत द्यामनड्वान् दाधारोर्वन्तरिक्षम् । अनड्वान् दाधार प्रदिशः षडुर्वी रनड्वान् विश्वं भुवनमाविवेश । – अथर्व ४ । ११ । १

(अनड्वान्) यह सूर्य ( पृथिवीम् + दाधार) पृथिवी को पकड़े हुए है। (अनड्वान्+उत+द्याम् + उरु अन्तरिक्षम् ) सूर्य द्युलोक और विस्तीर्ण अन्तरिक्ष को (दाधार) पकड़े हुए है । (अनड्वान्+ प्रदिश: + दाधार) अनड्वान् सब दिशाओं को पकड़े हुए है। (अनड्वान + षड् + उर्वी:) अनड्वान् अन्यान्य छः पृथिवीयों को पकड़े हुए है । (विश्वम्+ भुवनम् + आविवेश) यह अनड्वान् सर्वत्र आविष्ट है ।

यह अथर्ववेद की ऋचा अनेक वार्ताएँ विस्पष्ट रूप से निरूपण करती है। इसमें साफ है कि पृथिवी और द्युलोक का धारण कर्ता सूर्य है और षड्+उर्वी उर्वी नाम पृथिवी का है । बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, अन्यान्य दो लोक और पृथिवी इन सबका सूर्य ही आकर्षण से धारण करता है, यह सिद्ध हुआ ।

अनड्वान्-बहुत आदमी शङ्का करेंगे कि बैल को अनड्वान् कहते हैं । इससे तो पौराणिक सिद्धान्त ही सिद्ध होता है कि पृथिवी को कोई बैल अपनी सींग पर रखे हुए है । उत्तर – यह भ्रम वेदों के न देखने से उत्पन्न हुआ है । यहाँ ही द्वितीय ऋचा ४। ११ । में ‘अनड्वानिन्द्रः ‘ पद है, यहाँ अनड्वान् नाम इन्द्र अर्थात् सूर्य का है प्रायः ऐसे-ऐसे स्थलों में जहाँ-जहाँ वृषभ (बैल) वाचक शब्द आए हैं, वे – वे सूर्य वाचक हैं। एक ही उदाहरण से विशद होगा ।

सहस्रशृङ्गो वृषभो यः समुद्रादुदाचरत् । – अथर्व ४ । ५ । १ सहस्र सींग वाला बैल जो समुद्र से ऊपर आता है । इस ऋचा में देखते हैं कि सहस्र शृङ्ग वृषभ कहा गया है । निःसन्देह सहस्र सींग वाला बैल सूर्य ही है । किरण ही इसके हजारों सींग हैं, समुद्र शब्द आकाशवाची है । निघण्टु और निरुक्त देखिये ।

अब आकर्षण आदि विषय अधिक वर्णित हो चुके, मेरे अन्यान्य ग्रन्थ देखिये | अब कुछ चन्द्र के सम्बन्ध में वक्तव्य है । इस सम्बन्ध में भी धर्मग्रन्थ बहुत ही मिथ्या बात बतलाते हैं । १ – यह चन्द्र अमृतमय है । उस अमृत को देवता और पितृगण पी लेते हैं, इसी कारण यह घटता-बढ़ता रहता है। पुराणों का गप्प तो यह है ही, परन्तु महाकवि कालिदास भी इसी असम्भव का वर्णन करते हैं-

पर्य्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाध्यतरोहि वृद्धेः ।

२ – कोई कहते हैं कि इस चन्द्रमा की गोद में एक हिरण बैठा है । इसी से इसमें लांछन दीखता है और इसी कारण इसको मृगाङ्क, शशी आदि नामों से पुकारते हैं । ३ – यह अत्रि ऋषि के नयन से उत्पन्न हुआ है । कोई कहते हैं कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ। ४– -पुराण कहते हैं कि दक्ष की अश्विनी, भरणी आदि सत्ताईस कन्याओं से चन्द्रमा का विवाह है, वे ही २७ नक्षत्र हैं । ५ – यह सूर्य से भी ऊपर स्थित है । ६ – इसी से चन्द्र वंश की उत्पत्ति है । ७ – राहु इसको ग्रसता है, अत: चन्द्र ग्रहण होता है इत्यादि अनेक गप्प चन्द्र के विषय में कहे जाते हैं । यहाँ मैं संक्षेप से वेद के मन्त्र उद्धृत कर बतलाऊँगा कि वेद भगवान् इस विषय को किस दृष्टि से देखते हैं-

पृथिवी का आधार: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अब यह तो विस्पष्ट हो गया कि जब भूमि घूम रही है तब इसके आधार की आवश्यकता नहीं । धर्माभास पुस्तकों में यह एक अति तुच्छ प्रश्न और समाधान है। मुझे आश्चर्य होता है कि इन ग्रन्थकर्त्ताओं ने एकाग्र हो कभी इस विषय को न विचारा और न सूर्य-चन्द्र-नक्षत्रों की ओर ध्यान ही दिया । उन्हें यह तो बड़ी चिन्ता लगी कि यदि पृथिवी का कोई आधार न हो तो यह कैसे ठहर सकती, किन्तु इन्हें यह नहीं सूझा कि यह महान् सूर्य निराधार आकाश में कैसे घूम रहा है, हमारे ऊपर क्यों नहीं गिर पड़ता। इन लाखों कोटियों ताराओं को कौन असुर पकड़े हुए है। हमारे शिर पर गिर कर क्यों नहीं चूर्ण- चूर्ण कर देता । हाँ, इसका भी उपाय वा समाधान इन सम्प्रदायियों ने अच्छा गढ़ा। जब निर्बुद्धि शिष्यों ने पूछा कि यह सूर्य-चन्द्र-नक्षत्र आदि क्यों नहीं गिरते तो इसका उत्तर दिया कि सूर्य साक्षात् भगवान् हैं, ये चेतन देव हैं । रथ पर चढ़कर पृथिवी की परिक्रमा कर रहे हैं । यहाँ से पुण्यवान पुरुष मरकर सूर्यलोक में निवास करते हैं । इसी प्रकार चन्द्रमा आदि भी चेतन देव हैं। पितृगण यहाँ अमृतपान करते हुए आनन्द भोग रहे हैं इत्यादि गप्प कहकर शिष्यों को समझा दिया, किन्तु पुनः अन्ध शिष्यों ने यह नहीं पूछा कि वे रथ किस-किस आधार वा मार्ग पर चल रहे हैं। प्रश्न किए भी गये हों तो ऐसे सम्प्रदायियों को समाधान गढ़ने में कितनी देर लगती है। झट से कह दिये होंगे कि अरे ! ये सब देव हैं । वे स्वयं उड़ा करते हैं जो चाहे सो कर लें, इनको क्या पूछते हो ये बड़े सामर्थी हैं । विचारी रह गई पृथिवी । यह देवी नहीं और चेतन भी नहीं । यदि पृथिवी चेतन देवी सूर्यादिवत् मानी जाती तो इसके आधार की भी चिन्तारूप नदियों में वे गोते न खाते। जिसकी आज्ञा से सूर्य-चन्द्र आदि नियत मार्ग पर चल रहे हैं, नियत समय पर उदित और अस्त होते, इसी की आज्ञा से यह पृथिवी ठहरी हुई है, यदि इतना भी वे विचार कर लेते तो इतने धोखे न खाते । ” अतिपरिचया- दवज्ञा” अति परिचय से निरादर होता है। भूमि पर सम्प्रदायी निवास करते हैं, प्रतिदिन देखते हैं, इसको देव वा देवी कहकर शिष्यों को बहला नहीं सकते थे । अतः अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार इसके अनेक आधार गढ़ लिए। किसी ने कहा साँप के शिर के ऊपर है, किसी ने कहा कि कछुए की पीठ पर स्थापित है, किसी ने कहा कि नौका के समान जल के ऊपर तैर रही है । इस प्रकार अनेक कल्पनाएँ कर अपने-अपने शिष्यों को सम्बोधित करते गए। किन्तु किसी सम्प्रदायी को इसका सत्यभेद मालूम ही नहीं था । वे कैसे बतलाते । वेद ही सत्य भेद दिखलाते हैं । शिष्यों ने यह नहीं पूछा कि यदि साँप पर पृथिवी है तो वह साँप किस पर है । नात्र कार्या विचारणा, नात्र कार्या विचारणा ” ऐसी बातें कह मन को संतोष देते रहे । भास्कराचार्य ने उन सब गप्पों का अच्छा खण्डन किया है, परन्तु ये आचार्य पौराणिक समय में हुए हैं। पृथिवी घूमती है, यह बात इनके समय में नहीं मानी जाती थी, अतः पृथिवी को ये महात्मा भी अचल ही मानते थे और इसके चारों तरफ सूर्य ही घूम रहा है ऐसा ही समझते थे, किन्तु वेद से यह विरुद्ध बात है । पृथिवी ही सूर्य के चारों तरफ घूमती है । पृथिवी से १३००००० तेरह लक्ष गुणा सूर्य बड़ा है। सूर्य के सामने पृथिवी एक अति तुच्छ चींटी के बराबर है । तब कब सम्भव है कि एक अति तुच्छ चींटी की परिक्रमा पर्वत करे । अब आधार के विषय में भास्करीय खण्डन परक श्लोक सुनिए ।

मूर्तो धर्त्ता चेद्धरित्र्यास्तदन्य स्तस्याप्यन्योऽप्येव मत्रानवस्था । अन्त्ये कल्प्या चेत् स्वशक्तिः किमाद्ये किन्नो भूमिः साष्टमूर्तेश्च मूर्तिः ॥

अर्थ – यदि पृथिवी के पकड़नेहारा कोई शरीर धारी है तो उसका भी कोई अन्य पकड़नेहारा होना चाहिए। यदि कहो उसका भी पकड़नेहारा है तो पुनः उसका भी कोई पकड़नेहारा होना उचित है । इस प्रकार अनवस्था दोष होगा। इस दोष से ग्रस्त होकर आपको किसी अन्तिम धर्ता के विषय में कहना पड़ेगा कि वह अपनी शक्ति पर स्थित है । तो मैं पूछता हूँ कि आदि में पृथिवी को ही अपनी शक्ति पर ठहरी हुई क्यों नहीं मान लेते, क्योंकि यह भूमि भी महादेव की अष्ट मूर्तियों में से एक मूर्ति है तो वह अपनी शक्ति पर क्यों नहीं ठहर सकती ?

अभी हमने आपसे कहा है कि सूर्यादिवत् इसको भी यदि चेतन और स्वशक्तिसम्पन्न मान लेते तो इतनी चिंता न करनी पड़ती, किन्तु समीप रहने के कारण पृथिवी को वैसी न मनवा सके । भास्कराचार्य वही बात कहते हैं कि यह भूमि भी महादेव की एक मूर्ति है तब वह क्या अपनी शक्ति पर ठहर नहीं सकती ? इसको पुनः विस्फुट कर देते हैं-

यथोष्णतार्कानलयोश्च शीतता विधौ द्रुतिः के कठिनत्व मश्मनि । मरुच्चलो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रा: खलु वस्तुशक्तयः ॥

जैसे स्वभाव से ही सूर्य और अग्नि में उष्णता, चन्द्रमा में शीतलता, जल में द्रति (वहनशीलता), शिला में कठोरता है और जैसे वायु चलता है वैसे ही स्वभावतः पृथिवी अचला है, क्योंकि वस्तुशक्तियाँ नाना प्रकार की हैं। अतः यह पृथिवी स्वशक्ति के ऊपर स्थित होकर अचला है, यह कौन सी आश्चर्य की बात है । भास्कराचार्य ऐसे ज्योतिविद् होने पर भी पृथिवी को अचला मानकर कैसी गलती फैला गये हैं। इतना ही नहीं, ये कहते हैं कि रवि, सोम, मंगल, बुध,

बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि ग्रह और ये नक्षत्र मण्डल सब ही इसी पृथिवी के परितः स्थित हैं और यह भूमिमंडल अपनी शक्ति से स्थित है; यथा-

भूमेः पिण्डः शशांकज्ञकविरविकुजेज्यार्कि नक्षत्रकक्षा वृत्तैर्वृत्तो वृतः सन् मृदनिलसलिल व्योमतेजोमयोऽयम् ॥ नान्या- धार: स्वशक्त्या वियति च नियतं तिष्ठतीहास्य पृष्ठे निष्ठं विश्वञ्च शश्वत् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं समन्तात् ॥

इसका कारण यह है कि वे वैदिक विज्ञान की ओर नहीं गये अथवा इस ओर इनका ध्यान नहीं गया । यह कितनी अल्पज्ञता है कि सूर्य-चन्द्र आदि को चल और पृथिवी को अचला मानें। सूर्य-चन्द्र को उदित और अस्त होते देख मान लिया कि यह सब चल रहे हैं । पृथिवी की गति इन्हें मालूम नहीं हुई । रेल की गति जैसे एक अति क्षुद्र चींटी को मालूम नहीं होती होगी, अतः पृथिवी को अचला कहने लगे। जब हम इस बात की समालोचना करते हैं तो यही कहना पड़ता है कि हमारे पूर्वज आचार्य सूक्ष्मता की ओर दूर तक न पहुँच सके और न वेदों का पूरा मनन ही किया । एवमस्तु-

पृथिवी का ऊपर और नीचे का भाग :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

यद्यपि छोटे से छोटे पदार्थ का भी ऊपर और नीचे भाग माना जा सकता है। सेब और कदम्ब फल का भी कोई भाग नीचे का माना ही जाता है । वैसा ही पृथिवी का भी हिसाब हो सकता है किन्तु आश्चर्य यह है कि पृथिवी के सामने मनुष्य जाति इतनी छोटी है कि इसकी आकृति नहीं के बराबर है। इसी हेतु पृथिवी के अर्धगोलक पर रहने वाला अन्य अर्धगोलक पर रहने वाले को अपने से नीचे समझता है, किन्तु वे दोनों एक ही सीध में हैं, नीचे-ऊपर नहीं । जैसे अमेरिका देश पृथिवी के अर्धगोलक में है और द्वितीय अर्धगोलक में यूरोप, एशिया देश हैं। ये दोनों एक सीध में होने पर भी एक-दूसरे के ऊपर- नीचे प्रतीत होते हैं। भास्कराचार्य इस पर कहते हैं-

योयत्र तिष्ठत्यवनीतलस्थमात्मानमस्या उपरिस्थितञ्च । स मन्यतेऽतः कुचतुर्थसंस्था मिथश्च ते तिर्य्यगिवामनन्ति ॥ पृथिवी के किसी भाग में जो जहाँ है वह अपने को वहाँ ऊपर ही मानता है और दूसरे भागस्थ पुरुष को नीचे समझता है

पृथिवी गोल है: पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

यद्यपि देखने से प्रतीत होता है कि दर्पण के समान पृथिवी सम अर्थात् चिपटी है तथापि अनेक प्रमाणों से पृथिवी की आकृति गेंद या कदम्ब फल के समान गोल है, यह सिद्ध होता है। अपने संस्कृतशास्त्रों में इसी कारण इसका नाम ही भूगोल रखा है। यदि कोई आदमी ५० कोश का ऊँचा हो तो झट से उसको इसकी गोलाई मालूम होने लगे । इस पृथिवी के ऊपर हिमालय पर्वत भी गृह के ऊपर चींटी के समान है, अतः इसकी गोलाई हम मनुष्यों को प्रतीत नहीं होती ।

१ – इसके समझने के लिए समुद्र स्थान लीजिए । समुद्र सैकड़ों कोश तक चौड़ा होता है । जल की सतह बराबर हुआ करती है । यदि दर्पणाकार पृथिवी होती तो समुद्र में अति दूर आता हुआ भी जहाज दीखना चाहिए और जहाज के नीचे से ऊपर तक सब भाग एक बार भी दीख पड़े, किन्तु ऐसा होता नहीं । अति दूरस्थ जहाज तो दीखता ही नहीं । ज्यों-ज्यों समीप आता जाता है त्यों-त्यों प्रथम जहाज का ऊपर का शिर दीखता है, फिर मध्य भाग तब नीचे का भाग । अब आप विचार कर सकते हैं कि जल की बराबर सतह पर ऐसी विषमता क्यों ? इसका एकमात्र कारण पृथिवी की गोलाई है । पृथिवी की गोलाई के कारण जहाज के नीचे का भाग छिपा रहता है ।

I

२ – पुनः यदि किसी स्थान से आप किसी एक तरफ प्रस्थान करें और सीधे चलते ही जाएँ तो पुनः उसी स्थान पर पहुँच जाएँगे जहाँ से आपने प्रस्थान किया था । इसका भी कारण गोलाई है ।

३ – चन्द्र के ऊपर पृथिवी की छाया पड़ने से चन्द्र ग्रहण होता है । वह छाया गोल दीखती है, इससे सिद्ध है कि पृथिवी गोल है, इस सम्बन्ध में अपने शास्त्र का सिद्धान्त देखिये । मैंने प्रारम्भ में ही कहा है कि ज्योतिष शास्त्र वेद का एक अंग है। मुहर्त्तचिन्तामणि, वृहज्जातक, लघुजातक आदि नहीं किन्तु गणितशास्त्र ही ज्योतिष है । जिसमें पृथिवी से लेकर ज्योति: स्वरूप सूर्य तक का पूरा-पूरा हिसाब सब प्रकार से हो, वह ज्योतिष शास्त्र है । जैसे व्याकरण शास्त्र बहुत दिनों से चले आते थे पश्चात् पाणिनी ने एक सर्वांग सुन्दरव्याकरण बनाया तत्पश्चात् वैसा व्याकरण अभी तक नहीं बना है। वैसे ही ज्योतिष शास्त्र अति प्राचीन है । सबसे पिछले आचार्य भास्कराचार्य ने लीलावती, बीजगणित सिद्धान्त शिरोमणि आदि अनेक ग्रन्थ ज्योतिष शास्त्र के रचे । वे ही आजकल अधिक पठन-पाठन में विद्यमान हैं। शब्द कल्पद्रुम नाम के कोश में भूगोल शब्द के ऊपर एक अच्छा लेख दिया हुआ है । भास्कराचार्यकृत सिद्धांतशिरोमणि के भी अनेक श्लोक यहाँ लिखे हुए हैं। मैं इस समय इसी कोश से कतिपय श्लोक उद्धृत करता हूँ । मैं इस समय भ्रमण कर रहा हूँ । अतः मूल ग्रन्थ मेरे पास नहीं है । आप लोग मूल ग्रन्थ में प्रमाण देख लेवें । भारतवर्ष में सिद्धांतशिरोमणि इतना

प्रसिद्ध है कि इसके बिना कोई ज्योतिषी नहीं बन सकता। इसका अनुवाद अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में हुआ है। शंका समाधान करके भास्कराचार्य सिद्ध करते हैं कि पृथिवी गोल है ।

यदि समा मुकुरोदरसंनिभा भगवती धरणी तरणिः क्षितेः उपरि दूरगतोऽपि परिभ्रमन् किमु नरै रमरै रिव नेक्ष्यते ॥ १ ॥ यदि निशाजनकः कनकाचलः किमु तदन्तरगः स न दृश्यते ॥ उदगयन्ननुमेरु रथांशुमान् कथमुदेति स दक्षिण भागतः ॥

अर्थ – यदि भगवती पृथिवी दर्पण के समान समा अर्थात् समसतह वाली है तो पृथिवी के ऊपर बहुत दूर भ्रमण करते हुए सूर्य को जैसे अमरगण सदा देखा करते हैं वैसे ही मनुष्य भी सदा सूर्य को क्यों नहीं दीखते अर्थात् पृथिवी पर किस प्रकार प्रातः, मध्याह्न, सायं और रात्रि होती है। इससे प्रतीत होता है कि पृथिवी सम नहीं है। जैसे ऊँचे पर्वत के पूर्व भाग की सीध में वा उसी पर रहने वाले पदार्थ पश्चिमभागस्थ पुरुष को नहीं दीखते तद्वत् पृथिवी के एक भाग में रहने वाला पुरुष पृथिवी के रुकावट के कारण सूर्य को नहीं दीखता । घूमती हुई पृथिवी का जितना – जितना भाग सूर्य के सामने पड़ता जाता है उतना उतना भाग सूर्य की किरणें पड़ने से दिन कहाता है, इसी प्रकार इसके विरुद्ध रात्रि । यदि यह कहो कि वह सूर्य सुमेरु पर्वत के पीछे चला जाता है इस कारण नहीं दीखता तो यह ठीक नहीं, क्योंकि इस अवस्था में वह सुमेरु ही दीख पड़े किन्तु वह दीखता नहीं, अतः यह कथन असत्य है और इसमें द्वितीय हेतु यह है कि तब उत्तरायण और दक्षिणायण भेद भी कभी नहीं होने चाहिएँ, क्योंकि सूर्य समानरूप से सुमेरु की परिक्रमा सब दिन करता है, यह आपका सिद्धान्त है तब ये दो अयन क्यों होते ? अतः सुमेरु पर्वत निशा का कारण नहीं, पुनः वही शंका बनी रही कि मनुष्य को सर्वदा समान रूप से सूर्य क्यों नहीं दीखता ? इससे सिद्ध है कि पृथिवी गोल है ।

यदि पृथिवी गोल है तो हमें वैसी क्यों नहीं दीख पड़ती । उसका समाधान पूर्व में लिख आया हूँ । भास्कराचार्य भी वैसा ही कहते हैं यथा-

समोयतः स्यात् परिधेः शतांशः पृथिवी च पृथिवी नितरां तनीयान् ॥ नरश्च तत्पृष्ठगतस्य कृत्स्ना समेव तस्य प्रतिभात्यतः सा ॥

जिस कारण पृथिवी बहुत ही विस्तीर्ण है, अतः उसके शतांश भाग सम हैं। मनुष्य बहुत ही छोटा है। इस कारण इसको सम्पूर्ण पृथिवी सम ही प्रतीत होती है।

पृथिवी का भ्रमण:पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अहस्ता यदपदी वर्धत क्षा शचीभिर्वेद्यानाम् । शुष्ण परि प्रदक्षिणिद् विश्वायवे निशिश्नथः ॥

। – ऋ०१० । २२ । १४

क्षा – पृथिवी । पृथिवी के गौ, ग्मा, ज्मा आदि २१ नाम निघण्टु । १ में उक्त हैं। इनमें एक नाम क्षा है । शची-कर्म, क्रिया, गति । निघण्टु में अपः, अन: आदि २६ नाम कर्म के हैं, इनमें शची का भी पाठ है। शुष्ण यह नाम आदित्य अर्थात् सूर्य का भी है, यथा- “शुष्णस्यादित्यस्यशोषयितुः ” निरुक्त ५ । १६ पृथिवी पर के रस को सूर्य शोषण किया करता है, अतः सूर्य का नाम शुष्ण है। प्रदक्षिणित्- घूमती हुई । विश्वायवे – विश्वास के लिए । अथमन्त्रार्थ – (क्षा) यह पृथिवी (यद्) यद्यपि ( अहस्ता) हस्तरहिता और ( अपदी) पैर से ही शून्य है तथापि (वर्धत) बढ़ रही है अर्थात् हाथ-पैर न होने पर भी यह चल रही है । (वेद्यानाम्+ शचीभिः ) वेद्य-जानने योग्य, जो परमाणु उनकी क्रियाओं से प्रेरित होकर चल रही है अथवा स्वपृष्ठस्थ विविध पर्वत आदि पदार्थों और मेघादिकों की क्रियाओं के साथ-साथ घूम रही है । किसकी चारों तरफ प्रदक्षिणा कर रही है । इस पर कहते (शुष्णम्+ परि) सूर्य के परितः चारों तरफ (प्रदक्षिणित्) प्रदक्षिणा करती हुई घूम रही है। आगे परमात्मा से प्रार्थना है कि ( विश्वायवे + निशिश्नथ: ) हे परमात्मन् ! हम मनुष्यों के विश्वास के लिए आपने ऐसा प्रबन्ध रचा है । भाष्यकार सायण के समय में पृथिवी का भ्रमण- विज्ञान सर्वथा विलुप्त हो गया था, अतः ऐसे-ऐसे मन्त्र के अर्थ करने में इनकी बुद्धि चकरा जाती है । सायण कहते हैं-

यद्वा शुष्णस्याच्छादनार्थं हस्तपादवर्जिता काचित्पृथिवी वेदितव्यानामसुराणां मायारूपैः कर्मभिः शुष्णमसुरं वेष्टित्वा प्रदक्षिणं यथा भवति तथाऽवस्थिताऽवर्धत तदानी तां मायोत्पा- दितां पृथिवीं विश्वायवे सर्वव्यापकस्य मरुद्गणस्य प्रवेशनार्थं

निशिश्नथः ॥

भाव इसका यह कि असुरों ने अपनी माया से एक पृथिवी बनाई और बनाकर कहा कि शुष्ण एवं इन्द्र का युद्ध हो रहा है, इस हेतु तू शुष्ण की चारों तरफ वेष्टित हो प्रदक्षिण करती रहो जिससे इन्द्र यहाँ न पहुँच सके । इन्द्र को यह खबर मालूम हुई । मरुद्गणों को पहले वहाँ भेजा। वे वहाँ नहीं पहुँच सके। तब इन्द्र ने आकर उस पृथ्वी को ताड़ना दी, वह भाग गई। मरुद्गण वहाँ बैठ शुष्ण को छिन्न-भिन्न करने लगे। अब आप समझ सकते हैं कि सीधा-साधा अर्थ छोड़ ये भाष्यकार कैसा अज्ञातार्थ लिखते हैं । अब द्वितीय ऋचा पर ध्यान दीजिये, जिससे विस्पष्ट हो जाता है कि केवल पृथिवी ही नहीं किन्तु पृथिवी जैसे सकल ग्रह नक्षत्र आदि भी स्थिर नहीं हैं ।

कतरा पूर्वा कतरा परायोः कथा जाते कवयः को विवेद | विश्वंमना विभ्रतोयद्धनाम विवर्त्तेते अहनी चक्रियेव ॥

ऋ० १।१८५ ११

इस ऋचा के द्वारा अगस्त्य ऋषि पूछते हैं कि ( अयो: ) इस पृथिवी और द्युलोक में से ( कतरा + पूर्वा) कौन सा आगे है और ( कतरा + परा) कौन सा पीछे है या कौन सा ऊपर और कौन सा नीचे है । (कथा + जाते) कैसे ये दोनों उत्पन्न हुए ( कवयः +क: वि + वेद) हे कविगण ? इसको कौन जानता है । इसका स्वयं उत्तर देते हैं । (यद्+ ह+ नाम) जो कुछ पदार्थ जात इन दोनों से सम्बन्ध रखता है । उस (विश्वम्) सबको ये दोनों (बिभ्रतः ) धारण कर रहे हैं अर्थात् सब पदार्थ को अपने साथ लेकर (वि + वर्त्तेते) घूम रहे हैं, ( अहनी + चक्रिया + इव) जैसे दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि के पश्चात् दिन आता ही रहता है तथा जैसे रथ का चक्र ऊपर-नीचे होता रहता है तद्वत् ये दोनों द्यावा – पृथिवी एक-दूसरे के ऊपर-नीचे हो रहे हैं । अतः आगे-पीछे का इसमें विचार नहीं हो सकता । जब पृथिवी और सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, दूर-दूर भ्रमण कर रहे हैं तब यह नहीं कहा जा सकता है कि इन दोनों में ऊपर-नीचे कौन हैं ? यह ऋचा चक्र के दृष्टान्त से विस्पष्ट कर देती है कि पृथिवी अवश्य घूम रही है । अब तृतीय ऋचा लिखता हूँ जो और भी विस्फुट उदाहरण पृथिवी के भ्रमण का है ।

सविता यन्त्रैः पृथिवीमरम्णादस्कम्भने सविता द्यामहत् । अश्वमिवाधुक्षद्ध निमन्तरिक्षमतूर्ते बद्ध सविता समुद्रम् ॥

– ऋ० १०।१४९ । १

( सविता ) सूर्य ( यन्त्रैः ) रज्जु के समान अपने आकर्षण से (पृथिवीम् ) पृथिवी को ( अरम्णात्) बाँधता है और (अस्कम्भने) अनारम्भ, निराधार आकाश में ( द्याम् + अहत्) अपने परितः स्थित द्युलोकस्थ अन्यान्य ग्रहों को भी दृढ़ किये हुए हैं। आगे एक लौकिक उदाहरण देकर समझाते हैं, (अतूर्ते) टूटने के योग्य नहीं जो आकर्षणरूप रज्जु है उसमें (बद्धम् ) बंधे हुये (धुनिम्) नाद करते हुए (समुद्रम्) बड़े जोर से भागने हारे, पृथिवी, शनि, शुक्र, मंगल, बुध आदि ग्रह रूप जो लोक है उसको (अन्तरिक्षम् ) निराधार आकाश में (अश्वम्+ इव + अधुक्षत्) घोड़े के समान घुमा रहा है अर्थात् जैसे नूतन घोड़े को शिक्षित करने के लिए लगाम पकड़ सवार खड़ा हो जाता और उस घोड़े को अपनी चारों तरफ घुमाया करता है । वैसा ही यह सूर्यरूप सवार अश्व सदृश पृथिव्यादि लोक को अपनी चारों तरफ घुमा रहा है । इससे बढ़कर विस्फुट उदाहरण क्या हो सकता है, अतः उपरिष्ठ मन्त्रों से दो बातें सिद्ध हैं कि-

१ – पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है और

२- सूर्य के आकर्षण से यह इधर-उधर नहीं हो सकती, अपने मार्ग को छोड़ अणुमात्र भी खिसक नहीं सकती । अन्तरिक्षम् सप्तमम्यर्थ में प्रथमा है, समुद्र – समुद्रवति – जो बहुत जोर से दौड़ता है ।

सूर्य की परिक्रमा कितने दिनों में कर लेता है इस पर कहते हैं । द्वादश प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तच्चिकेत । तस्मिन् त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलाश ॥

– ऋ०१ । १६४ । ४८

चक्रम्) यहाँ वर्ष ही चक्र है, क्योंकि यह रथ के पहिया के समान क्रमण अर्थात् पुनः पुनः घूमता रहता है। उस चक्र में (द्वादश+ प्रधयः ) जैसे चक्र में १२ छोटी-छोटी अरे प्रधि-कीलें हैं। वैसे सम्वत्सर में बारह मास अर्थात् मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन होते हैं । (त्रीणि+नभ्यानि ) इसके

नभ्य अर्थात् नाभि स्थान में रहने हारे दारु विशेष समान ग्रीष्म, वर्षा, हेमन्त तीन ऋतु हैं । (कः +उ+तत्+चिकेत) इस तत्त्व को कौन जानता है । ( तस्मिन् + साकम् + शंकवः) उस वर्ष में कीलों सी (त्रिशता + षष्ठिः ) ३०० और ६० दिन ( अर्पिता: ) स्थापित हैं । ( न + चलाचलाश:) वे २६० दिन रूप कीलें कभी विचलित होने वाली नहीं हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि एक वर्ष में (३६०) तीन सौ साठ दिन होते हैं । पृथिवी के भ्रमण से ही वे दिन बनते हैं, अतः ३६० दिन में पृथिवी सूर्य की परिक्रमा कर लेती है । पुनः इसी विषय को दूसरे तरह से कहते हैं ।

द्वादशारं न हि तज्जराय वर्वर्ति चक्रं परि द्यामृतस्य । आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अत्र सप्त शतानि विंसतिश्चातस्थुः ॥

– ऋ० १ । १६४ । ११

(ऋतस्य) सत्य स्वरूप काल का (चक्रम्) सम्वत्सर रूप चक्र ( द्याम्+ परि) आकाश में चारों तरफ (वर्वर्ति) घूम रहा है ( द्वादशारम्) जिसमें मास रूप १२ अर हैं । ( नहि + तत् + जराय) वह चक्र कभी जीर्ण नहीं होता । (अग्ने) हे परमात्मन् ! आपने कैसा अद्भुत प्रबन्ध रचा है । (अत्र) इस चक्र में (पुत्राः) पुत्र के समान ( सप्त + शतानि + विशंतिः+च आतस्थुः ) ७०० और २० स्थिर हैं। वर्ष में ३६० दिन और ३६० रात्रि मिलाकर ७२० अहोरात्र होते हैं । इतने अहोरात्र में पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है । यद्यपि ३६५ दिनों के लगभग में यह पृथिवी सूर्य की परिक्रमा करती है । तथापि यह चन्द्र मास के हिसाब से ३६० दिन कहे गये हैं । चन्द्रमास में एक अधिक मास मानकर हिसाब पूरा किया जाता है । इस अधिक मास का भी वर्णन वेद में पाया जाता है ।

सप्तर्षि कौन है ? ऋषि उवाच

वैदिक धर्म में सप्तर्षि की बहुत प्रतिष्ठा है। पुराण कथाओ में सप्तर्षि शब्द विविध ऋषिओं के साथ जोडा गया है।

आकाश में भी तारामंडल को सप्तर्षि नाम मिला है।

यह सप्तर्षि का वैदिक स्वरूप क्या है? चलीये देखते है।

बृहदारण्यकोपनिषद् २.२.४ में राजर्षि काश्यराज अजातशत्रु, बालाकी गार्ग्य को सप्तर्षि का अर्थ समझा रहे है।

इस उपनिषद् के अनुसार सप्तर्षि हमारे सिरमें रहनोवाली सात इन्द्रिय का समूह है। इस नाम के ऋषि इतिहासमें अवश्य हुए है, लेकिन सप्तर्षि का कंसेप्ट इन्द्रिय के अर्थमें है।

बृहदारण्क अनुसार

गौतम और भरद्वाज – दोनों कान
विश्वामित्र और जमदग्नि – दोनों नेत्र
वशिष्ठ और कश्यप – नाक के दो छिद्र
अत्रि – वाणी

इस प्रकार इन गौतम आदि नाम विविध इन्द्रिय के है। इन अर्थमें वह वेदमें भी आये है।

बादमें इसी नामके विविध ऋषि भी हुए जिससे यह भ्रम हुआ की वेदोमें यह जो नाम है, वह इन ऋषिओ के नाम है।

लेकिन वेदमें किसी मनुष्य का नाम नहीं। बृहदारण्यक के प्रमाण से वह सिद्ध होता है की वेदमें आये इन सब नामो के योगिक अर्थ है, लौकिक नहीं।

प्रत्येक सनातनी के लिए नित्य यज्ञ करना आवश्यक है। – ऋषि उवाच

आजकल सनातनी ने यज्ञ करना छोड दिया है ।

अग्निहोत्र के विषयमें एक महत्वपूर्ण संवाद राजा जनक और याज्ञवल्क्य के मध्य हुआ था, जिसका वर्णन शतपथ ब्राह्मणमें मिलता है।

राजा जनक याज्ञवल्क्य जी को पूछते है की क्या आप अग्निहोत्र को जानते हो? तब याज्ञवल्क्यजी उत्तर देते है की – हे राजन्, में अग्निहोत्र को जानता हूं। जब दूध से घी बनेगा, तब अग्निहोत्र होगा।

तब जनकने याज्ञवल्क्य की परीक्षा लेने के लिए प्रश्नो की शृङ्खला लगा दी।

जनक – अगर दूध ना हो तो किस प्रकार हवन करोगे?

याज्ञ – तो गेहूं और जौं से हवन करेंगे।

जनक – अगर गेहूं और जौं ना हो तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – तो जङ्गल की औषधीओ से यज्ञ करेंगे।

जनक – जङ्गल की जडी-बूटी भी ना हो, तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – समिधा से हवन कर लेंगे।

जनक – अगर समिधा ना हो तो?

याज्ञ – जल से हवन कर लेंगे।

जनक – यदि जल न हो तो कैसे हवन करेंगे?

याज्ञ – तो हम सत्य से श्रद्धामें हवन करेंगे।

याज्ञवल्क्यजी के उत्तर से राजा जनक संतुष्ट हुए। केवल भौतिक पदार्थो का प्रयोग कर यज्ञ करना ही यज्ञ करना नहीं होता। सत्य और श्रद्धा को धारण करना भी अग्निहोत्र ही है।

इस लिए यज्ञ नित्य करे।

वेदों में पदार्थ – विज्ञान :-ज्ञानचन्द्र

           पद का अर्थ है स्थिति अर्थात् स्टेटस एवं अर्थ का प्रयोजन है तात्पर्य एवं मूल। पृथ्वी क्योंकि सभी प्राणियों की स्थिति का कारण है तथा पृथ्वी ही सबका मूल है अतः पृथ्वी के द्रव्य का नाम हुआ पदार्थ। साथ ही पृथ्वी पंच सृजनकारी तत्वों का अन्तिम परिवर्तन है तथा आकाश, वायु, अग्नि व जल का सघन तत्व है अतः उसका नाम हुआ पदार्थ अर्थात् स्थिति और मूल। इसी नाते पदार्थ भौतिक तत्वों भी कहते हैं।

            पदार्थ के विज्ञान से यदि आधुनिक दृष्टि सम्मत मूल तत्व को जड़ पदार्थ मानकर और उनसे विकसित साधनों का, उसकी व्यवस्था से होने वाले किकासों और जीवनोपयोगी विधानों से है, तो उसका उतना महत्व नहीं है। क्योंकि भारत ने अन्न अर्थात् पदार्थ को भी ब्रह्म माना है। भारतीय मनीषा की यह घोषणा है कि अस्तित्व मात्र ब्रह्म ही सत् है, सत्य है और अस्तित्व है। प्रकृति जड़ है तथा ब्रह्म से विशेष है- पर यह सत्य नहीं प्रतिभास है। ‘‘परब्रह्म के अतिरिक्त कुछ तत्व सत्ता में हो नहीं सकता’’ क्योंकि ‘‘है’’ का अर्थ ही ब्रह्म है। ब्रह्म जो ‘‘है’’ और सतत प्रवर्धमान है, उद्घाटनशील है। पर ब्रह्म की प्रवर्धमानता व उद्घाटनशीलता मौलिक नहीं है मात्र अभिव्यक्ति में है। क्योंकि ब्रह्म सदा सम्पूर्ण है अतः उसमें मौलिक नूतन कुछ नहीं हो सकता परन्तु अभिव्यक्ति में नूतन सदा ही हो सकता है।

            स्थिति या पद मात्र ब्रह्म है तथा अर्थ या तात्पर्य भी एकमात्र ब्रह्म है। जगत् की अभिव्यक्ति ब्रह्म के ही दो आयामों का परस्पर संबंध और और अभिव्यंजना है।

            जड़ पदार्थ ब्रह्म का आत्मलीन योग निद्रात्मक स्वरूप है। चेतन ब्रह्म परंतत्व का आत्मज्ञानात्मक, अनिद्रात्मक सबोध स्वरूप है। ‘जीव’ के विकास मुक्ति लाभार्थ ब्रह्म और प्रकृति का सृजन विलास होता है।

            चेतना के द्वारा जड़ ब्रह्म के अनेकों उपयोग व विधान बनाए जा सकते हैं।

चेतना में संश्लेषण, स्तर, आयाम, संघटन व सम्मिश्रण बदल कर चमत्कारिक साधनों का निर्माण किया जा सकता है।

            जड़ पदार्थ के बने शरों और नाराचों के भीतन विशिष्ट चेतना प्रवाहित करके राम-रावण युद्ध एवं महाभारत युद्ध में अत्यन्त आश्चर्यपूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया गया था। उन पाशुपतास्त्र, नारायणास्त्र, ऐन्द्रास्त्र व सर्वविनाशक ब्रह्मास्त्र को विशिष्ट ध्यान व एकाग्रता की विधियों से स्मृतिगत करके प्रयुक्त किया जाता था।

            ब्रह्मास्त्र के विषय में महाभारत में एक विशिष्ट उल्लेख है जिससे उसकी सचेतन विधि प्रक्रिया का ज्ञान होता है। अश्वत्थामा ने पांडवों के समूल विनाश के लिए जब ब्रह्मास्त्र छोड़ा, तो शास्त्र व विज्ञान के महान् पंडित कृष्ण ने सबसे शस्त्र छोड़ कर रथों से नीचे उतरने को कहा। सबने तत्काल कृष्ण वचन का पालन किया परन्तु आग्रह और मूढ़ता से भीम रथ पर ही डटा रहा तथा अपनी गदा घुमाता रहा। श्रीकृष्ण ने बलपूर्वक उसे नीचे खींचा और उसकी गदा हाथ से छीनी। तत्काल ब्रह्मस्त्र पीछे हटा और आकाश में विलीन हो गया। यह घटना उस काल के अस्त्रों के सचेतन क्रियाकारी स्वरूप को बताती है।

            उसी प्रकार पुष्पक विमान भी वैदिक पदार्थ विज्ञान का परिपुष्ट प्रमाण था। वह मंत्रचर था। उसकी बनावट व प्रक्रिया इस प्रकार की थी कि वह मंत्रोच्चारण से परिचालित हो कर गतिमान होता था तथा इच्छित ऊंचाई तक आकाश में उठ कर अत्यन्त तीव्र गति से आगे बढ़ता था। वाल्मीकीय रामायण के सुन्दर काण्ड में पुष्पक विमान का अत्यन्त सजीव वर्णन है। एक जर्मन विज्ञान एरिक वान डैनिकन ने पुष्पक विमान का वर्णन व प्रक्रिया पढ़ कर आश्चर्य से यह लिखा कि ‘‘बिना विमान को देखे और उसकी प्रक्रिया को बिना जाने ऐसा सजीव वर्णन व ऐसी सटीक अभिव्यक्ति प्रस्तुत नहीं की जा सकती। ‘‘भारतीय पदार्थ विज्ञान के विषय में एरिक वान डैनिकन की ‘‘चैरियट आफ द गाड्स’’ एक अत्यन्त उपयोगी व पठनीय पुस्तक है।

            मोहन जोदड़ों हड़प्पा तथा गुजरात में लोथल आदि नगरों के उत्खनन में निकले नगरावशेष भारत के उच्च वास्तु विज्ञान के प्रमाण हैं।

            आयुर्वेद भी स्वयं में एक पदार्थ विज्ञान है जो भौतिक देह के स्वास्थ्य और उपचार का श्रेष्ठ विज्ञान विधान है।

            यातायात, व्यापार व अर्थ विधान, भांति-भांति के यंत्र भारतीय ग्रंन्थों में संदर्भित हैं। इस पार्थिव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को सुविधा और व्यवस्था से परिपूर्ण करने के लिए उस काल की श्रेष्ठतम वैज्ञानिक प्रगति आज भी लोगों को चकित कर देती है।

            परन्तु सबसे मुख्य बात तो वैदिक सभ्यता में ध्यान देने की है वह यह की पाश्चात्य प्रभावित मनोवृत्ति से उस पुरातन मनोवृत्ति का कोई मेल नहीं है। अतः पदार्थ विज्ञान की पुरातन व्यवस्था भी आज के काल के गणित से नहीं देखनी चाहिए। भारतीय उच्चादर्श को जो पूर्ण विश्व में अपूर्व व अद्वितीय है जीवन के चार पुरूषार्थों की दृष्टि से जांचना पड़ेगा। धर्म का अध्ययन-अभ्यास अर्थ, काम व मोक्ष की दृष्टि से। काम का परिसेवन धर्म, अर्थ व मोक्ष के आधार पर, अर्थ का उपार्जन व व्यय धर्म, काम व मोक्ष के लक्ष्य से तथा धर्म, अर्थ, काम इन तीनों का अभ्यास मोक्ष की चरम दृष्टि के साथ करना अभीष्ट था। इस चतुर्मुखी दृष्टि से पदार्थ और पदार्थ विज्ञान के ध्येय व प्राप्तव्य बदल जाने से यहां पदार्थ विज्ञान का विकास पाश्चात्य विस्तार के समान नहीं किया गया। असुर लोग क्योंकि भोगवादी थे अतः उन्होंने अत्यन्त श्रेष्ठ यंत्रों, साधनों और भौतिक व्यवस्थाओं का निर्माण किया। यही श्रेष्ठ भौतिक पदार्थ उन्हें तृप्तवादी, भोगोन्मुख अतः अनैतिक बना देते थे अतः बाद में वे नष्ट कर दिए जाते थे। रावण जैसा असुर कला कौशल व ज्ञान-विज्ञान में दशरथ और राम आदि से श्रेष्ठ व ऊंचा था। पुष्पक विमान के अतिरिक्त भी उसके पास और आकाशचारी यान थे। शस्त्र-अस्त्र भी उसके पास श्रीरामचन्द्र से श्रेष्ठ थे। परन्तु उसकी अनैतिकता व स्वैर उसे ले डूबे। वह एक अलग विषय है व्याख्या व विस्तार के लिए।

            वेदों का पदार्थ विज्ञान आज के योरोपीय विज्ञान से श्रेष्ठतर होते हुए भी जनसाधारण तक नहीं पहुंच सका था। उस काल के यन्त्र और यान आदि अत्यन्त सीमित रूप में राजाओं आदि के पास ही होते थे। वे भी दुःसाध्य, दुष्प्राप्य एवं अत्यधिक मूल्य पर ही प्राप्य थे।

            वैदिक पदार्थ की भाषा आज समझाने के प्रयास बहुत कठिन व दुरूह हो जाते हैं। पूरी भाषा, व्यंजना अभिव्यक्ति के साथ मान्यताएं व वरीयताएं भिन्न होने से भिन्न मनोवृत्ति चाहिए उन्हें समझने के लिए अतः हमने संक्षेप में भूमिका मात्र प्रस्तुत की है।

श्री अरविन्द चेतना समाज,

६५६/९, चमेलियान रोड़, दिल्ली-११०००६

पञ्चमहाभूत्

गोविन्द घनश्याम मैंदरकर

(वैदिक, अवैदिक एवम् पाश्चात्य विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन)

संदर्भः-  १.  भारतीय-दर्शन-संग्रह (मराठी) ले.पं.द.वा. जोग

            प्रथमावृत्ति १९५८ चित्रशाला प्रकाशन, पुणे-२

२.        उपनिषद्-तैत्तिरीय, केन, प्रश्न, मुण्डक, श्वेताश्वतर

३.        सत्यार्थ प्रकाश-महर्षि दयानन्द सरस्वती

४.        अद्वैतमत-खण्डन-स्वामी विद्यानंद सरस्वती

५.        मराठी विश्वकोश-खण्ड ९

६.        भारतीय संस्कृति कोशः पञ्चमखण्ड

पं. महादेव शास्त्री जोशी

पंचमहाभूतों की उत्पत्तिः- सृष्टि के आंरम्भ से ही मनुष्य तत्वदर्शी रहा है।

ओं केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।

केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।

                                                                                                – केनोपनिषद् प्रथम खण्ड-मंत्र १

            जड़रूप अंतः कारण, प्राण, वाणी आदि कर्मेन्द्रियों और चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को अपना-अपना कार्य करने की योग्यता प्रदान करने वाला और उन्हें अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त करने वाला जो कोई एक सर्वशक्तिमान् चेतन है, वह कौन है? और कैसा है?

            भगवन् कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति।।

                                                                                                -प्रश्नोपनिषद्, प्रथम प्रश्न, मंत्र ३

            किस प्रसिद्ध और सुनिश्चित कारण विशेष से, यह सम्पूर्ण प्रजा नाना रूपों में उत्पन्न होती है? वह कौन है?

            भगतन्कत्येव देवाः प्रजां विधारयन्ते कतर

            एतत्प्रकाशयन्ते कः पुनरेषां वरिष्ठ इति।।

                                                                                    – प्रश्नोपनिषद् द्वितीय प्रश्न, मं. १

भगवन्। प्राणियों के शरीर को धारण करने वाले कुल कितने देवता हैं?

उनमें कौन-कौन इसको प्रकाशित करने वाले हैं? इन सबमें अत्यंत श्रेष्ठ कौन है ?

            वह म नही मन स्वयं को उपरिनिर्दिष्ट प्रश्नों जैसे अनेक प्रश्न पूछते रहता है। उत्तर तथा समाधान खोजने के प्रयास करते रहता है। इन्हीं प्रयासों के फल हैं दर्शन एवं उपनिषद्। भावात्मक तथा अभावात्मक, सभी प्रकार के अस्तित्वों के ज्ञान के ये ही मूल स्त्रोत हैं। खोज की यात्रा आगे बढ़ती है, तभी से आरंभ होता है मत-मतान्तरों का। इन विभिन्न विचारधाराओं का अध्ययन पंचमहाभूतों के संदर्भ में इसीलिये करना आवश्यक है।

            स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुज्र्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोञन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च।।                          -प्रश्नोपनिषद्, षष्ठ प्रश्न, मंत्र ४

            (सबसे पहले) उसने प्राण की रचना की, प्राण के बाद श्रद्धा को (उत्पन्न किया) उसके बाद क्रमशः आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी (ये पांच महाभूत प्रकट हुए, फिर) मन (अन्तः करण) और इन्द्रिय समुदाय (की उत्पत्ति हुई) अन्न हुआ, अन्न से वीर्य (की रचना हुई, फिर) तप, नाना प्रकार के मन्त्र, नाना प्रकार के कर्म उनके फलस्वरूप भिन्न-भिन्न लोकों (का निर्माण हुआ) और उन लोकों में नाम (की रचना हुई)।

            इन पांच महाभूतों का कार्य ही यह संपूर्ण दृश्यमान ब्रह्मांड है।

            अब संक्षेप में जगत् की उत्पत्ति का क्रम बनाते हैं-

            तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते।

            अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसुचामृतम्।।

                                                                                                -मुण्डकोपनिषद्, खण्ड १, मंत्र ८

            परब्रह्म में विविध रूपोंवाली सृष्टि के निर्माण का संकल्प उठता है। उससे अन्न उत्पन्न होता है, अन्न से (क्रमशः) प्राण, मन सत्य (पांच महाभूत), समस्त लोक (और कर्म) तथा कर्मों से अवश्यम्भावी सुख-दुःखरूप फल उत्पन्न होता है।

            तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः।

            आकाशा द्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः।

            ओषधिभ्योऽन्नम्। अन्नात्पुरूषः। स वा एष पुरूषोऽन्नरसमयः।

                                                            -तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मनन्दवली, प्रथम अनुवाक।

            निश्चय ही उस परमात्मा ने (पहले-पहल) आकाश तत्व उत्पन्न किया। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल तत्व से पृथ्वी तत्व उत्पन्न हुआ। पृथ्वी से समस्त औषधियाँ उत्पन्न हुईं, ओषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ। अन्न से ही (यह) मनुष्य शरीर उत्पन्न हुआ। वह यह मनुष्य शरीर निश्चय ही अन्न रसमय है।

            इस प्रकार उपनिषद् पंचमहाभूतों की उत्पत्ति बताते हैं।

           (१) पुरूष  (२) (प्रकृति) (३) महत (४) अहंकार (५) मनस् (६ता १०) ज्ञानेन्द्रियाँ  (११ ता १५)  कर्मेन्द्रियाँ (१६ ता २०) पंचतन्मात्रा

           सांख्य पच्चीस तत्व अथवा मुख्य पदार्थ हैं ऐसा मानते हैं, वे निम्र वृक्ष से बताए जाते हैं- (२१ ता २५) पंचमहाभूत भारतीय दर्शन संग्रह प्रथमावृत्ति, पृष्ठांक २७७

            इस वृक्ष में पंचमहाभूतों की उत्पत्ति तथा उनका अन्य तत्वों से या पदार्थों से संबंध बताया गया है। इन तत्वों के कार्यकारण भाव के अनुसार चार भाग होते हैं, उन्हें ही चार (अर्थ) कहा जाता है। वे चार अर्थ इस प्रकार हैं-

            (१) मूल प्रकृति (प्रधान) (२) प्रकृति विकृति (३) केवल विकृति (४) अनुभय- अर्थात् प्रकृति भी नहीं और विकृति भी नहीं। जो विशेष प्रकार से सृष्टि करती है वह प्रकृति कहलाती है। सत्व, रज व तम ये इसके माध्यम हैं। पंचमहाभूत और ग्यारह इंद्रिया मिलकर साहल विकार है।

            सत्वरजस्तमसां साम्यावस्थ प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहड्.कारोऽहड्.कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरूष इति पञ्चविंशतिर्गणः।। -सांख्य. सू. अ. १ सूक्त ६१                                                                    -स. प्र., अष्टम् समु.

            सत्व, रज, तम तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात होता है, उसका नाम ‘‘प्रकृति’’ है। उससे ‘‘महत्-तत्व’’ बुद्धि, उससे ‘‘अहंकार’’, उससे ‘‘पांच तन्मात्रा’’ सूक्ष्मभूत और दश इंद्रियां तथा ग्यारहवां ‘‘मन’’ , पांच तन्मात्राओं से  ‘‘पृथिव्यादि पांच भूत’’ ये चैबीस और पच्चीसवां पुरूष अर्थात् जीव-परमेश्वर है।

                                                                                                            (स. प्र., अष्टम समु.)

            इस प्रकार पंचमहाभूतों की उत्पत्ति का ज्ञान सांख्य देता है। इसे ही सृष्टि की या विश्व की उत्पत्ति का साधन बताता है।

            त्रैतमतवाद के उद्गाता, महान् दार्शनिक, महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुलास में श्वेताश्वतरोपनिषद् का (अ. ४ मं. ५) मं. उद्धृत करके कहते हैं-

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां

बहवीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।

अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते

हात्येनां भुक्तभोगामजोन्यः।।

-श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय ४ मं. ५

            प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों ‘अज’अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते, अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इनका कारण कोई नहीं। यहां प्रकृति अज, अनादि है। पंचमहाभूत इसके अंग हैं इसलिये वे भी अज-अनादि हैं।

            द्वैतमत के समर्थक प्रकृति को पुरूष के समान ही महत्व देते हैं। प्रकृति को पुरूष की अभिव्यक्ति का साधन या माध्यम मानते हैं। वे पृकृति को मिथ्या नहीं मानते। सब उपनिषदों में शीर्ष स्थान पर बैठा एक संदर्भ मिलता है जो इस प्रकार है-

            ओं पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

            पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

            (यह मंत्र बृहदारण्यकोपनिषद् के पांचवे अध्याय के प्रथम ब्राह्मण की प्रथम कंडिका पूर्वार्धरूप है।)

            ‘‘अदस्’’ और ‘‘इदम्’’ दो पद महत्व रखते हैं। ‘‘अदस्’’ चेतन है, ‘‘इदम्’’ अचेतम है, जड़ है। ‘‘अदस्’’ परोक्ष चेतन परब्रह्म, परमात्मा है, ‘‘इदम्’’ प्रत्यक्ष अचेतन (जड़) है। अपने-अपने रूप में अवस्थित दोनों पूर्ण हैं, किसी में कोई न्यूवता नहीं। इसलिए ‘‘आदस्’’ पूर्ण के अंतर्गत भी ‘‘इदम्’’ पूर्ण रूपेण उससे पृथक् है। दोनों के पूर्ण और स्वतंत्र होने से दोनों सत्य हैं, मिथ्या कोई नहीं।

            अर्थात् प्रकृति के सत्य होने से पंचमहाभूत भी सत्य हैं।

            अद्वैतमत के उद्गाता आचार्य शंकर प्रकृति को ‘‘मिथ्या’’ मानते हैं। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।। वे ब्रह्ममात्र का महत्व देते हैं, तथा प्रकृति को गौणत्व। प्रकृति के गौणत्व का पर्यायी अर्थ होता है पंचमहाभूत गौण हैं, मिथ्या हैं।

            सारांश रूप में यह स्पष्ट होता है कि सभी वैदिक दार्शनिक मुण्डकोपनिषद् के दिये हुए सृष्टि के उत्पत्ति के क्रम से सहमत हैं जिसमें कहा गया है-

            परब्रह्म सब प्राणियों की उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाला अन्न उत्पन्न करते हैं। फिर अन्न से क्रमशः प्राण, मन, कार्यरूप आकाशादि पंचमहाभूत, समस्त प्राणि आदि उत्पन्न होते हैं।

            अब अवैदिक दर्शनों की प्रकृति तथा पंचमहाभूतों के बारे में क्या विचारधाराएं हैं यह देखते हैं।

            अवैदिक दर्शनों में चार्वाक के विचार संदर्भ में उपलब्ध नहीं है। जहां ईश्वर का अस्तित्व ही उन्हें मान्य नहीं, जहां प्रलय पर भी विचार नहीं किया गया, वहां इस सृष्टि का विचार उनकी दृष्टि में गौणसा लगता होगा। इस विषय पर उपलब्ध बृहस्पति के विचार कुछ इस प्रकार है-

            न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

            नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्व फलदायिकाः।।

                                                            -भारतीय-दर्शन-संग्रह (मराठी) प्रथमावृत्ति पृष्ठांक ९५

            स्वर्ग नहीं, मोक्ष नहीं, परलोक में जाकर कर्मानुसार सुख या दुःख भोगनेवाला आत्मा अलग नहीं।……………

            चार्वाक की मान्यता के अनुसार मात्र चार ही मूलभूत तत्व हैं- पृथिवी, आप्त, तेज और वायु। चार्वाक आकाश को भूत मानते ही नहीं, क्योंकि वे  प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानते हैं जबकि आकाश, प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय हो नहीं सकता। क्योंकि उसका अस्तित्व अभावात्मक होता है, अवस्तु होता है।

-भारतीय-दर्शन-संग्रह प्रथमावृत्ति पृष्ठांक ११०

            बौद्धमत के अनुसार पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार भावभूत भूत और यही भूत कोटि है। इसमें पृथिवी के परमाणु खरस्वभाव अर्थात् कठिन, कठोर, परमाणु स्नेहस्वभाव, तेज के परमाणु उष्णस्वभाव तथा वायु के परमाणु ईरण अर्थात् चलस्वभाव के होते हैं। (यहां तेज के परमाणु का अस्तित्व माना गया है, यह विशेष)। इन सबका कर्त्ता -अधिष्ठाता कोई प्रतीत नहीं होता। जब पृथिव्यादि ये धातु (भूत) समर्थ तथा क्रियाशील होते हैं, तब सबके समवाय ये कर्मोत्पत्ति होती है।

            जैन मत भी प्रकारान्तर से इसी प्रकार की पृष्टि करता दिखाई देता है।

            आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक, विशेषतः रसायनशास्त्रीयों की मान्यता इससे कुछ अलग ही है। विश्व के निर्माण में वे मूलतः ९२ मूलतत्वों (Elements) का अस्तित्व मानते हैं। उनमें से कुछ किरणोत्सर्जक (Radeoactive) होने से कुछ नये मूलतत्व (Elements) का निर्माण होता है। इसलिए मूलतत्वों की संख्या ९२ से बढ़कर १०५ के लगभग होती है। जहां पौर्वात्य दार्शनिक पृथ्वी, आप और वायु भिन्न-भिन्न मूलतत्व मानते हैं, वहां पाश्चात्य वैज्ञानिक इन्हें पदार्थों की अवस्था (States of matter) मानते हैं, यथा-पानी एक पदार्थ-बर्फ उसकी एक अवस्था (Stage) जो (Solid) स्थायु, ठोस, घन शब्द से जानी जाती है। भाप (Steem) उसकी वायु अवस्था (Gas Stage) से जानी जाती है। इन तीनों अवस्थाओं में पदार्थ की रचना, अणु, परमाणु में कोई परिवर्तन नहीं होता। सभी तीनों अवस्थाओं में रचना अणु-परमाणु से ही होती है। अतः पृथ्वी, भाप और वायु में ‘‘भूत” नहीं है, अपितु अवस्थाएं हैं ऐसा पाश्चात्य रसायन शास्त्रीयों का मानना है। वे तेज को पदार्थ नहीं मानते किंतु ऊर्जा (Energy) मानते हैं। तेज की रचना में अणु-परमाणु का विचार नहीं होता, क्योंकि वह पदार्थ नहीं हैं डॉ. अल्बर्ट आइन्सटाइन ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह स्थापित किया की ऊर्जा तथा पदार्थ परस्पर में परिवर्तनीय होते हैं। उसका सूत्र E=M c२ है, जहां E= ऊर्जा, M=Mass वस्तुमान, पदार्थ का भार, तथा C= प्रकाश की गति, ३ लाख किमी./सेकंण्ड है। यहां आश्चर्य इस बात का है कि वैदिक दार्शनिकों ने प्रयोग के साधनों के अभाव होते हुये भी वही निष्कर्ष निकाला है जो आइन्स्टाइन ने निकाला है। वे ऊर्जा = तेज को भी भूत = पदार्थ की श्रेणी मे रखते हैं, एवं ऊर्जा को अचेतन = जड़ मानते हैं। यह केवल चिंतन, तथा तर्क के आधार पर ही इस निष्कर्ष तक पहंचे यह आश्चर्य है।

            वैदिक दार्शनिक आकाश को एक भूत मानते हैं। चार्वाक, बौद्ध आकाश तत्व मानते नहीं। पर, शास्त्रार्थ में परास्त होने पर चार्वाकानुयायी आकाश को भी ‘‘तत्व’’ मानने पर विवश हुए।

            वस्तुतः आकाश का स्वरूप अभावात्मक है। न्याय वैशेषिक दर्शन यों बताता है-

            अभावश्वतुर्विधः। प्रागभाव, प्रध्वंसाभावोऽत्यवत्तभावोऽन्योनाभावश्वेति।।

            आकाश अज्ञेय परंतु अभिधेय अर्थात् शब्द का विषय तथा प्रमेय अर्थात् प्रमाण का विषय होने वाला है। अभावात्मक होते हुए भी वह नापा जा सकता है। दिशा, काल आदि भी अभावात्मक होते हुए भी अभिधेय तथा प्रमेय होते हैं।

            यहां वैदिक विद्वान् तथा आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक, दोनों भी काल एवं आकाश (Time & Space) इनके विषय में समान विचार रखते हैं। डॉ. आइन्सटाइन ने समय (काल) को चतुर्थमिति (Fourth dimention) बताया है। इससे अभिप्राय यह कि हर जड़ अस्तित्व भौमितीय सिद्धान्त से भिमित होता ही है, पर उसके अस्तित्व के काल का निर्धारण भी आवश्यक होता है।

पंचमहाभूतों के लक्षण

(मुख्य संदर्भ -भारतीय-दर्शन-संग्रह, प्रथमावृत्ति लक्षण पृष्ठांक २२७ से २३७)

            अब इन पंचमहाभूतों के लक्षणों का विस्तार करते हैं। न्यायशास्त्र लक्षण ग्रंथ पंचमहाभूतों के संबंध में अपने विवेचन निम्न प्रकार करते हैं। न्याय वैशेषिक दर्शन में नित्य हैं और कार्यरूप से अनित्य। इन पांचों तत्वों का परस्पर संसर्ग होने से उनमें कार्यकारण भाव नहीं है। पर वेदांत शास्त्रों ने इनमें कार्यकारण भाव माना है। संसार की सृष्टि साक्षात् इन भूतों के परस्पर  संसर्ग से ही होती है। इस मिश्रण को पंचीकरण कहते हैं। प्रत्येक महाभूत में स्वतः १/२ तथ्य, अन्य चारों में प्रत्येक का १/८ भाग होता है। कुछ उपनिषद् मात्र तीन तत्व मानते हैं, इसीलिए उनके संसर्ग को ‘त्रिवृत्तकरण’ कहा जाता है। हर महाभूत में सब तन्मात्र के गुण होते हैं।

            पंचीकरण दर्शाने हेतु निम्न तालिका दी गयी है-

क्रम      तत्व (महाभूत)            आकाश            वायु                 तेज (अग्नि)       आप                 पृथिवी

१.        आकाश                        १/२                १/८                १/८                १/८                १/८

२.        वायु                             १/८                १/२०             १/८                १/८                १/८

३.        तेज (अग्नि)                   १/८                १/८                १/२                १/८                १/८

४.        आप                             १/८                १/८                १/८                १/२                १/८

५.        पृथिवी                 १/८                १/८                १/८                १/८                १/२

            ये महाभूत संसार की सृष्टि के कारण होते हैं। उनसे बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा (Energy) का निर्माण होने के कारण कभी-कभी वह ऊर्जा संहार-प्रलय का भी कारण होती है। इन महाभूतों को अपने वश में लाकर उनकी ऊर्जा का प्रयोग मानव-कल्याण में करने के प्रयास करना यह आधुनिक विज्ञान का लक्ष्य होता है। इन्हें संतुष्ट कर, और उससे मानवमात्र का कल्याण करने हेतु प्राचीन काल में इनकी स्तुति में अनेक मानवमात्र का कल्याण करने हेतु प्राचीन काल में इनकी स्तुति में अनेक प्रार्थनाएं रची गयी हैं।

            अब एक-एक ‘‘भूत” पर विचार करते हैं-

            तत्र गन्धवती पृथ्वी। सा द्विविधा। नित्यानित्या च। नित्या परमाणुरूपा।

            अनित्य कार्यरूपा। पुनस्त्रिविधा। शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरमस्मदादीनाम्।

            इन्द्रियं गन्धग्राहकं घ्राणं नासाप्रवृत्ति। विषयों मृत्पाषाणादिः।।९

                                                                        -भारतीय-दर्शन-संग्रहः प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २२७

            पृथ्वीद्रव्य का लक्षण गंधत्व है। इसका अभिप्राय यह है कि गंध का नित्य संबंध पृथिवी से रहना। यहां गंध आधेय व पृथ्वी आधार है। इससे आधेयता का धर्म गंधनिष्ठ है और आधारता या अधिकरणता पृथ्विनिष्ठ है। फलस्वरूप ‘‘गन्धनिष्ठाधेयतानिरूपिताधिकरणताश्रयत्वं पृथिव्याः लक्षणं’’, अर्थात् गंधनिष्ठ जो आधेयता, उस आधेयता से निरूपित, अर्थात् ज्ञान अथवा सूचित होने वाली जो अधिक लाता है उसका आश्रयत्व ही पृथ्वी का लक्षण है। आधेय शब्द के उच्चारण के साथ ही अधिकरण की कल्पना आती है। इसलिए अधिकरण आधेयनिरूपित होता है, ऐसा माना जाता है। गंध आधेय है यह समझ में आते ही उसका अधिकरण क्या है, यह सवाल उठता है, जिसका उत्तर है अधिकरणत्व का आश्रय पृथिवी है। यहां पृथ्वी लक्ष्य तथा गंध लक्षण है। लक्ष्यत्व का धर्म पृथ्वी में है, जिससे पृथ्वित्व लक्ष्यतावच्छेद है। पृथ्वी लक्ष्यतानच्छेदकावच्छिन्न है और पृथ्वी में गंधत्वलक्षण का समन्वय होता है।

            यह पृथिवी दो प्रकार की होती है-नित्य और अनित्य। नित्य पृथ्वी परमाणुरूप है तो अनित्य पृथ्वी कार्यरूप होती है। अनित्य पृथ्वी पुनः तीन प्रकार की होती है। शरीर, इंद्रियां व विषय यही वे तीन प्रकार हैं। मनुष्यादि प्राणियों के शरीर स्वतः सिद्ध हैं। गंध का ग्रहण करने वाला घ्राण पार्थिव इंद्रिय नासिका के अग्रभाग में स्थित होता है। आत्मा मन से संयुक्त होता है, मन इन्द्रियों से संयुक्त होता है, इन्द्रियां विषय से संयुक्त होती हैं, तभी प्रत्यक्ष ज्ञान का उद्भव होता है।

            गंधयुक्त शरीर को पार्थिव शरीर कहते हैं। इसमें पृथिवी तत्व जलादि अन्य तत्वों से अधिक मात्रा में होता है, इसलिए इसे पार्थिव कहते हैं। वास्तव में पार्थिव शरीर भी पंचभौतिक होता है। पर पार्थिव इंद्रिय का नाम घ्राण होता है जो पृथ्वी के गंध गुण का ग्रहण करता है। गंध के अभाव का ज्ञान भी उसी से होता है।

            शीतस्पर्शवत्य आपः। ता द्विविधाः। नित्या अनित्याश्व। नित्याः परमाणुरूपाः।

अनित्याः कार्यरूपाः। पुनस्त्रिविधाः। शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरं वरूण लोके।

इन्द्रियं रसग्राहकं रसनं जिव्हाप्रवृत्ति। विषयः सरित्समुद्रादिः।।

                                                -भारतीय-दर्शन-संग्रह, प्रथम संस्करण पृष्ठांक २३१

            आप शीतस्पर्शयुक्त होता है। उसके भी नित्य तथा अनित्य ऐसे दो प्रकार हैं। नित्य आप परमाणुरूप होता है और अनित्य आप कार्यरूप होता है। अनित्य आपों के शरीर, इंद्रियां व विशय ऐसे और तीन भेद होते हैं। आप्य शरीर वरूणालोक में होता है। इंद्रिय अपनी जिव्हा के (जिह्वा) अग्र पर रहता है। वह रसों का ग्रहण करता है, इसलिए उसे ‘‘रसन” कहा जाता है।

            परमाणुरूप जल नित्य और व्घेणुकादि सर्व कार्यरूपजल अनित्य होता है। जिस प्रकार पार्थिव शरीर पृथिवी पर दिखने की संभावना होती है वैसे जलीय शरीर पृथिवी पर दिखने की संभावना नहीं होती। वह वरूण के जलप्रधान लोक में ही दिखने की संभावना होती है। हाँ! जलीय इंद्रिय मानवी शरीर में जिह्वा में अग्र पर स्थित होता है। वह गंधादि पांच विषयों में से केवल रस का ही ग्रहण कर सकता है।

            उष्णस्पर्शवत्तेजः। तद्द्विविधं। नित्यमनित्यं च। नित्यं परमाणुरूपम्। अनित्यं कार्यरूपम्। पुनस्त्रिविधम्। शरीरेंद्रियविषयभेदात्। शरीरमादित्यलोके। इन्द्रियं रूपग्राहकं चक्षुः कृष्णताराग्रवृत्ति। विषयश्वतुर्विधः। भौमदिव्यौदर्याकरजभेदात्। भौमं वन्हयादिकं। अबिन्धनं दिव्यं, विधुदादि। भुक्तस्य परिणामहेतुरौदर्यम्। आकरजं सुवर्णादि।।

                                                                        -भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २३२

            तेज उष्णस्पर्शवत् है। उष्णस्पर्श यह तेज का असाधारण धर्म अर्थात् लक्षण है। वह तेज नित्य और अनित्य, ऐसे दो प्रकार का होता है। नित्य तेज परमाणुरूप तथा अनित्य तेज कार्यरूप होता है। इसके भी और तीन प्रकार होते हैं। तेजस् शरीर आदित्य लोक में होता है। चक्षु नाम का रूप का ग्रहण करने वाला तैजस् इंद्रिय आंखों की कनीनिका के अग्र भाग में होता है।

            तैजस विषय चार प्रकार का है। १. भौम, २. दिव्य, ३. औदर्य व ४. आकरज। इनका विस्तार यहां करना लेख की मर्यादा से बाहर है।

            रूपरहितस्पर्शवान् वायुः। सद्विविधं। नित्योऽनित्य्श्व। नित्यः परमाणुरूपः।

            अनित्यः कार्यरूपः। पुनास्त्रिविधः। शरीरेन्द्रिय विषय भेदात्। शरीरं वायुलोके।

            इन्द्रियं स्पर्शग्राहकं त्वक् सर्वशरीर वृत्ति। विषयोवृक्षादिकम्पन हेतुः। शरीरान्तः

            संचारी वायुः प्राणः। स चैकोप्युपाधिभेदात् प्राणापानादिसंज्ञा लभते।।

                                                            -भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २३४

            वायु रूपरहित स्पर्शवान् होता है। वह भी नित्य और अनित्य इन दो प्रकार का होता है। नित्यवायु परमाणुरूप और अनित्यवायु कार्यरूप होता है। अनित्य वायु के शरीर, इंद्रिय और विषय ऐसे तीन प्रकार होते हैं। इनमें शरीर वायुलोक में होता है। त्वक् नामक वायवीय इंद्रिय सारे शरीर में व्याप्त होता है। वह स्पर्श गुण का ग्राहक होता है। शरीर में संचार करने वाला वायु ही प्राण है। वस्तुतः वह यदि एक ही है, फिर भी भिन्न-भिन्न उपाधियों के कारण प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन नामों से जाना जाता है।

            शब्दगुणकमाकाशं। तच्चैकं विभु नित्यं च।।

                                                            -भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २३९

            शब्द जिसका गुण है, वह आकाश है। वह एक विभु व नित्य है। मीमांसक आकाश, शब्दवान् होता है, ऐसा आकाश का लक्षण बताते हैं, परन्तु वह उचित नहीं। शब्द आकाश का गुण है ऐसा बताने के लिए नैयायिक ‘शब्द गुणकं’ ऐसा लक्षण करते हैं। पृथिव्यादि की भांति आकाश के अनेक प्रकार का अनुभव नहीं होता, इसलिए वह एक ही है। आकाश का शब्द यह गुण सर्वत्र उपलब्ध होता है। इसीलिए उसे विभु मानना अपरिहार्य होता है। तथा विभु होने से ही वह नित्य है। ‘‘आत्मन आकाशः सम्भतः’’ (तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मनंदवली प्रथम अनुवाक्)

            परमात्मा ने पहले आकाश उत्पन्न किया। यदि आकाश ‘‘जन्य’’ है तो वह नित्य हो नहीं सकता, ऐसी शंका होती है। उसका समाधान यह कि श्रुति के ‘‘सम्भतः’’ शब्द का अर्थ ब्रह्मांडरूप उपाधि के कारण अभिव्यक्त हुआ, ऐसा होता है, क्योंकि ऐसा न होने  पर परमाणु भी अनित्य मानना पडे़गा। किंतु आत्मा जनक व आकाश (उससे) जन्य-उत्पन्न होने वाला यह अनुमान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसकी उत्पत्ति के लिए आवश्यक कारण सामग्री का अभाव है, इसलिए उपरिनिर्दिष्ट वेदवाक्य अर्थवादरूप है ऐसा मानना पडे़गा। आकाश के परमाणु नहीं हैं, इसलिए उसका अनित्य कार्य असंभव, अर्थात् उसका शरीर, इंद्रिय व विषय ये तीन भेद नहीं हैं। श्रोत यह इंद्रिय मात्र आकाश का होता है, जो शब्द का ग्रहण करता है।

            पृथ्वी, आप, तेज, वायु व आकाश, जो प्रकृति के मुख्य अंग हैं, उनके संबंध में वैदिक एवम, अवैदिक विचार, आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों के विचारों से मेल नहीं खाते, यह आरम्भ में देखा गया है। पुनरूक्तिदोष टालने हेतु उन्हें यहीं विराम देते हैं। हां! आकाश को विशेष गुण, जिसे आकाश का लक्षण मानते हैं, वह है शब्द। इस विषय में भी पाश्चात्य भौतिक शास्त्री वैदिक विद्वानों से सहमत नहीं हैं। उनकी दृष्टि से शब्द-अर्थात् ध्वनि के वहन का माध्यम आकाश नहीं है। या आकाश का लक्षण ध्वनि नहीं है। एक प्रयोग (Experiment) से इसे समझ लेंगे। एक निर्वात पंप (Vacum Pump) होता है। किसी बर्तन को उसकी सहायता से निर्वात किया जा सकता है। उस पर कांच की एक हंडी रखते हैं, जिसमें एक विद्युत घंटी (Electeic Bell) लगी रहती है। घंटी बजाना आरंभ करते हैं। वह घंटी बजती हुई सुनाई भी देती है और दिखाई भी। अब निर्वात पंप की सहायता से वह हंडी शनै-वैसे घंटी की ध्वनि क्षीण होती जाएगी। जब हंडी निर्वात होगी, तब घंटी बजती हुई दिखाई तो देती है पर सुनाई नहीं देती। निष्कर्ष यह कि ध्वनि (शब्द) के वहन के लिए वायु या अन्य माध्यम आवश्यक होता है-

आकाश या निर्वातता नहीं। अर्थात् आकाश का लक्षण ‘शब्द’ यहां खरा नहीं उतरा, ऐसा भौतिक शास्त्री मानते हैं।

            परंतु, आकाश केवल अभावात्मक नहीं, अपितु उसमें पूर्ण रूप से ईथर नामक काल्पनिक पदार्थ का अस्तित्व भौतिक शास्त्री मानते हैं। यही ईथर प्रकाशादि विद्युत्-चंुबकीय लहरों के वहन का माध्यम वे मानते हैं।

            यदि काल्पनिक ईथर का अस्तित्व न माना जाय तो विद्युत्- चुंबकीय लहरों का वहन विशद् करना असंभव हो जाता है।

            इस दृष्टि से भी आकाश का जो लक्षण ‘‘शब्द” वैदिक शास्त्रीयों ने माना है वह ठीक ही लगता है।

            इस प्रकार हमने आकाशादि पंचमहाभूत जो सृष्टि के कारण होते हैं, उनके निर्माण, स्थिति तथा लक्षणों के संदर्भ में वैदिक, अवैदिक एवम् आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों की विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है।

            पंचमहाभूत इस प्रदीर्घ विषय पर उतने ही विस्तार से एवम् गंभीरता से चिंतन करने वाले उन महान दार्शनिक ऋषियों की दिव्य स्मृति को शतशः अभिवादन।

नेहरू चैक, धाराशीव (उस्मानाबाद)-४१३५०१ दूरभाष – (०२४७२) २२२१९, २४५७१

ऋग्वेद में वायु का स्वरूप :- श्रीमती माला प्यासी

            वेद वस्तुतः एक ही हैं, स्वरूप भेद के कारण त्रयी नाम से जाना जाता है; ऋक्, यजु और साम। जिन मन्त्रों में अर्थवशात् पादों की व्यवस्था है उन छन्दोबद्ध मन्त्रों को ऋचा या ऋक् कहते हैं। जैसा कि जैमिनी सूत्र में कहा गया है- ‘‘तेषामृगयत्रार्थवशेन पादव्यवस्था” और ऋचाओं के समूहों को संहिता कहा जाता है।

            ऋक् संहिता या ऋग्वेद का गौरव या उसका महत्व सर्वाधिक माना जाता है। पाश्चात्य विद्वानों ने भाषा एवं भाव की दृष्टि से ऋग्वेद को अन्य वेदों की तुलना में प्राचीन माना है। अतएव उनकी दृष्टि से ऋग्वेद विशेष उपयोगी हैं। भारतीय विद्वान् भी ऋग्वेद को प्राचीन मानते है। तैत्तरीय संहिता के अनुसार साम तथा यजु के द्वारा जो विधान किया जाता है वह शिथिल होता है परन्तु ऋक् के द्वारा विहित अनुष्ठान ही दृढ़ होता है। यह प्रमाण ऋग्वेद की प्राचीनता को स्पष्ट कर रहा है। पुरूष सूक्त में भी सहस्त्रशीर्षा यज्ञरूपी परमेश्वर से ऋचाओं का आविर्भाव सर्वप्रथम बताया गया है।

            ऋग्वेद स्तोत्रों की एक विशाल राशि है; जो यज्ञीय अनुष्ठानों पर आहूत देवों की प्रार्थनाओं और उपदेशों से भरा हुआ है, सराबोर है। नाना देवताओं की भिन्न-भिन्न ऋषियों ने बड़े ही सुंदर तथा भावाभिव्यंजक शब्दों में स्तुतियाँ की हैं साथ ही अपने अभीष्ट सिद्धि के निमित्त से प्रार्थनायें की हैं। उन प्रार्थनाओं में देवों की शक्ति और स्थिति, उनके कार्य और विशेषताओं को भिन्न-भिन्न विशेषणों से आभूषित किया है, व्यक्त किया है। ये विशेषण ही देवों की स्वरूप भिन्नता को व्यक्त करते हैं।

            प्रस्तुत आलेख में प्रयास किया गया है ‘‘ऋग्वेद में वायु के स्वरूप पर’’ दृष्टि डालने का। स्वरूप तीन दृष्टिकोणों पर आधारित हैं- आधिदैविक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक।

            आधिदैविक शब्द अधि उपसर्ग पूर्वक दिव् धातु से निष्पन्न हैं। दिव् का अर्थ है प्रकाशित करना या चमकना। अधि उपसर्ग अधिकृत का बोधक है। अतः स्वीर्गीय, आकाशीय, अलौकिक दिव्यगुण को प्रकाशित करने की क्षमता जिनमें हो, वे देव हैं। उपरोक्त गुणों को अभिव्यक्त करने का अधिकार जिनके पास हो या जो अधिकृत हों वह उनका आधिदैविक स्वरूप है।

            ऋग्वेद में वायु शब्द देवता का बोधक है। भौतिक वात से भिन्न वायु की देव के रूप में भी स्थिति है। वायु को ‘‘आदेवासोवाताय’’ देवयुक्त अर्थात् दिव्य गुणों से युक्त कहा गया है। ऐसे दैवीय गुण सम्पन्न वायु देव का यज्ञों में बारम्बार आह्नान किया गया है कि- हे वायु देव तुम सोम पान के लिये आयो। यहाँ तक कि अनेक स्थानों पर अन्य देवों की तुलना में सोमपान का प्रथम अधिकार वायु को ही दिया गया है। ‘‘देवदधिषेपूर्वपेयम्’’ हे वायु सोमपान के तुम प्रथम अधिकारी हो। इतना ही नहीं वायु देव उस सोम के रक्षक भी हैं। अपने इष्ट को सोम की रक्षा का दायित्व देकर उसको सर्वप्रथम सोम का पान करवाकर यजमान तो आनन्दित होता है, वायु देव भी उस शुद्ध और मधुर सोम का पान कर आनन्दित होते हैं।

            आहूत वायु देव की व्यक्तिगत विशेषतायें अनिश्चित हैं। इन विशेषताओं में ही वायु में पाये जाने वाले दैवीगुण स्पष्ट दिखाई देते हैं। वायु देव को त्वष्टा का जामाता कहा गया है। वायु ने ही मरूत् को जन्म दिया है। वह मरूत् जो गणों में रहते हैं, जिनकी अन्तरिक्ष में द्युतिमान, अयोदंष्ट्रान के रूप में स्थिति है, जो अद्भुत शक्ति संपन्न हैं, जिनमें वर्षा, विद्युत्, मेघ एवं संसार के नियमन जैसे गुण विद्यमान हैं। प्रकाश देना तथा मरना और मारना ये मरूत् के कार्य हैं। ऐसे मरूतों के रथ पर वायु देव अश्व रूप में जुड़े सम्राट हैं। ऐसे इन्द्र के वायु देव सारथि भी बने हुए हैं।

            वायु देव समस्त देवों के जीवन रूप हैं, आत्मरूप प्राण हैं, और भुवनों की संतान हैं। वायु समस्त देवताओं में मुख्य देव हैं ‘‘वायोमन्दानो अग्रिमः।’’ इतना ही नहीं एकेश्वरवाद की स्थापना करते हुए वायु को ही ईश्वर मान लिया गया है। ‘‘ईशानाय प्रहुर्तियस्त।’’ वायु मुख्य देव हैं संभवतः इसीलिये उनका रूप भी अतीव सुन्दर है। सम्पूर्ण अग विशिष्ट महिमा मण्डित हैं।

            वायु देव सम्राज्य करने वाले राजा भी हैं तभ कहा गया है कि वायु ने उचश्य और वपु नाम के राजाओं से अधिक राज्य किया है। वायु शत्रुओं को कँपाने वाले राजा के समान हैं। ये युद्ध कार्य में भी निपुण हैं। विशुद्ध सोम का पान करके वायु देव युद्ध के लिये उपस्थित रहते हैं। शत्रुओं के विनाश में भी समर्थ हैं अतः शत्रु हन्ता भी हैं । समाज के विपत्तिग्रस्त मनुष्यों के उद्धारक भी हैं। प्रार्थना के साथ-साथ ऋषि वायु देव को उपदेश भी दे रहा है, उससे अपेक्षा भी कर रहा है कि हे वायु देव तुम विपत्तियों से हमारा उद्धार भी करते हो अतः हमारे रक्षक हो इसलिये कभी तुम हिंसा नहीं करना। पाप विमोचक वायु समस्त पापों से मुक्ति दिलाने वाले हैं ‘‘विमुमुक्तमस्मे।’’

            द्यावा पृथिवी ने धन के लिये वायु को उत्तम किया है, श्रेष्ठ किया है। अतः ऐसे उत्तम धन एवं अन्न, गौ, पुत्र समस्त कार्यों को सम्पन्न करने के लिये वायु देव स्वर्णमय रथ का उपयोग करते हैं। वह रथ बड़ा उज्जवल है, आकाश का स्पर्श करने वाला है। रथ में जोते जाने वाले अश्वों की संख्या अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न है। कहीं यह संख्या नवतिनव है ‘‘युक्तासो नवतिनव”, कहीं शत और कहीं सहस्त्र है। ‘‘शतीनिभिरह वरं सहस्त्रिणीभिः’’ कहीं-कहीं यह संख्या दो भी कही गई है। रथसहा (रथसहौ) वायु के ये जो अश्व हैं वे बड़े बलशाली हैं, शीघ्रगामी हैं। उनकी गति को रोकना उतना ही कठिन है जितना सूर्य की किरणों को रोकना।

            असीम शक्तियों के अधिपति होने के साथ-साथ वायु अमृत तुल्य भी हैं अतः वायु से प्रार्थना की गई है कि तुम्हारी जो अमरण की शक्ति है वह हमारे जीवन के लिये दो क्योंकि, तुम हमारे पिता, भ्राता और बन्धु हो। इस अमरण शक्ति के कारण ही हे वायु देव तुम लोक कल्याण कारी कर्म में नियुक्त किये गये हो।

            इस प्रकार हम देखते हैं कि समस्त देवों के प्राण रूप, सर्वशक्तिमान ईश्वर, अमृत शक्तिसंपन्न, लोक का कल्याण करने वाले, पापों से मुक्ति दिलाने वाले समृद्धि दाता वायु दैवी गुण सम्पन्न देव हैं; जो सैंकडों हजारों घोड़ों से जुते स्वर्णमय रथ पर सवारी करते हैं।

            देव रहित भौतिक जगत की पृथक सत्ता संभव ही नहीं है। भौतिक सृष्टि के लिये वही दिव्य गुण नाना भाव में परिवर्तित होता है। देवों की स्तुति में ही उनका भौतिक रूप स्पष्ट हो जाता है। कई विशेषणों के द्वारा इन देवताओं का वैज्ञानिक रूप भी संकेतित है। आधिभौतिक शब्द अधि और भौतिक तथ्यों को बताने वाला भूत जगत, जहाँ स्वभाविक घटनायें घटित होती हों ऐसा भूत जगत ही भौतिक है। भौतिक घटनाओं और तथ्यों को व्यक्त करने में जो अधिकृत है वह आधिभौतिक है।

            ऋग्वेद में वायु को वात भी कहा गया है। संभवतः यह भौतिक वायु का बोधक है। कहीं-कहीं एक ही मन्त्र में दोनों नाम आते हैं। वायु स्वशक्ति से, अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं से इस भौतिक जगत् में तो विद्यमान है ही साथ ही में इन्द्र, मरूत् पर्जन्य के साथ मिलकर भी अनेक प्राकृतिक घटनाओं को, कार्यों को सिद्ध करते हैं।

            ळमारी पृथिवी के चारों ओर जो गैस युक्त वायु मंडल व्याप्त है वह चाक्षुज नहीं है अपितु अनुभूत है केवल स्पर्श द्वारा। वेदों में भी यही कहा गया है कि वायु का रूप दिखाई नहीं देता पर वह गतिशील है। वायु में जा गतिशीलता है उसका कारण सूर्य है। सूर्य किरणों की प्रेरणा से ही वायु में क्रिया होती है। वायु स्थान घेरती है और उस स्थान में वह निरन्तर चलायमान है, गतिशील है। गति इतनी तीव्र है कि पर्वत तक काँप जाते हैं, पृथिवी की धूल बिखर जाती है यहाँ तक कि प्रकृति का सारा रूप विकृत हो जाता है वात की क्रियाओं का उल्लेख मुख्यतः स्तनयित्नु तूफान के संबंध में आता है। झंझा के झोंके विद्युत की दमक के साथ अपृथक रूप से संबद्ध हैं और वे सूर्य के पुनरावर्तन के पूर्व ही आ जाते हैं। फलतः कहा गया है कि वात, लोहित रंग की विद्युत् को प्रकट करते हैं और उषाओं को प्रतिभासित करते हैं।

            वायु मंडल का विस्तार धरातल से सैंकड़ों किलोमीटर की ऊँचाई तक है जिसे अन्तरिक्ष कहते हैं। अन्तरिक्ष अर्थात् मध्यम स्थान। वैदिक ऋषि वात को अन्तरिक्ष का देवता मानता है। अतः वह प्रार्थना करता है कि वात अन्तरिक्ष से हमारी रक्षा करे। मध्यम स्थान में होने वाले जितनी बाधायें हैं जो जनजीवन को अस्तव्यस्त कर सकती हैं उनसे वात हमारी रक्षा करे। अतः प्रकृति का वह तत्व जो मध्यम स्थान का रक्षक है वह हमारे लिये पूजनीय है-

            सूर्यः नः पातु दिवः वातः अन्तरिक्षात्।

            अग्निः नः पार्थिवेभ्यः।।

            वायुमण्डल में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, ऑर्गन, कार्बनडाइऑक्साइड, नीऑन, हीलियम, क्रिप्अन, जीनन अनेक गैसें भिन्न-भिन्न मात्रा में विद्यमान हैं पर मुख्य रूप से नाइट्रोजन एवं ऑक्सीजन हैं। ऋग्वेद में नाइट्रोजन का वर्णन नियुत शब्द के द्वारा किया गया है। वायु के लिये ‘‘नियुत्वन्ता’’ ‘‘नियुत्वान’’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऋषि नियुत गणों से युक्त वायु को ही आमन्त्रित करता है। ‘‘नि’’ अर्थात् निंश्चित रूप से युत जो वायु के साथ रहता है वह नियुत है। यहाँ नियुत शब्द नाइट्रोजन का ही बोधक है क्योंकि वायु में नाइट्रोजन ही मुख्य रूप से है, अधिक मात्रा में है। इसी लिये नियुत शक्ति को सैकड़ों हजारों शक्तियों से युक्त कहा गया है।

            वायु के गुणों का वर्णन करते हुये कहा गया है कि उसमें प्राण शक्ति है अर्थात् ऑक्सीजन है। वायु में अमृत का खजाना है अर्थात् उसमें भेषज शक्ति है इसीलिये वह औषधि का काम करता है। रक्त को शुद्ध कर हृदय रोगों को दूर करता है। आयु का विस्तार कर दीर्घ आयुष प्रदान करता है। वह प्राण शक्ति का हेतु है इसी कारण वह हमारा पिता, भ्राता और बन्धु है। वह जीवन शक्ति प्रदाता है। इन गुणों से निस्संदेह वायु की शोधक शक्ति ही अभिप्रेत हो सकती है।

            वायु इस जगत् का रक्षक भी है इसीलिये उत्तम रक्षा के निमित्त से ही वायु को आमन्त्रित कर रक्षा की प्रार्थना की गई है। वायु मंडल में स्थित ओजोन वायु रक्षक वायु है जो पूरे वायुमंडल को सुरक्षित करती है। वेदों में वायु की उत्पत्ति पर प्रश्न चिन्ह लगा है। वायु कहां जन्मा कहां से आया कोई नहीं जानता। ऑक्सीजन एवं ओजोन की उत्पत्ति का पता आज भी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये हैं।

            वर्षा देने वाले मेघ पर्जन्य हैं। पर्जन्य और वायु दोनोंसे एक साथ प्रार्थना की गई है कि ये दोनों हमारे अन्न को बढ़ायें। वृष्टि के द्वारा वायु अन्न का कारण होता है। सब प्राणियों को बल भी वायु से मिलता है। वायु जब मरूतों के साथ जाते हैं जब मेघ जल देते हैं। जल ही जीवन है जल से ही वनस्पतियों में प्रस्फुटन और वर्धन होता है। उस जीवन रूपी जल को वहन कर लाने का कार्य वायु का होता है। प्रकारान्तर से यह कह सकते हैं कि वायु में ऐसे तत्व हैं जो एक निश्चित प्रक्रिया एवं तापमान से जल में परिवर्तित हो जाते हैं इसीलिये वायु को जल का बन्धु कहा गया है। अन्तरिक्ष से नीला दिखाई देने के कारण पृथ्वी को अक्सर नील ग्रह कहते हैं। धरातल का प्रमुख नीला रंग तथा वायुमंडल के सफेद बादल दोनों ही जल हैं। वायु मंडल में जल गैसीय अवस्था में अर्थात् जल वाष्प के रूप में पाया जाता है। जल अपना रूप बदल सकता है। यह द्रव से ठोस या गैस में बदल जाता है। जल में निहित गैस के कारण वायु मंडल में कई मौसमी घटनायें घटित होती हैं जैसे बादल बनना, वर्षा होना, हितपात होना, कुहरा छाना आदि। इसीलिये कहा है कि मरूत जब हवा के साथ भागते हैं तब कुहरा बिछा देते हैं।

            इस प्रकार हम देखते हैं कि वायु में जलीय शक्ति है, शोधक शक्ति है भैषज शक्ति है तभी वायु से प्रार्थना की गई है कि अपनी इन समस्त शक्तियों के साथ द्युलोक में कल्याण ले जाओ।

            वायु में ध्वनि की भी शक्ति है। तभी कहा गया है कि वायु का शब्द (ध्वनि) वज्र के समान है और वह शब्द अनेक प्रकार से सुनाई देता है। वायु जब जाते हैं तब गर्जन होता है।

            वायु के कुछ गुण मरूतों में होने के कारण मरूत को ही वायु समझ लेना भ्रान्ति है। अनेक उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनसे वायु और मरूत् का उपमानोपमेय भाव लक्षित होता है। जैसे मरूत वायु के समान वेगशाली हैं, मरूतों का घोष वायु के समान है, मरूत् वायु के समान शत्रुओं को कँपाने वाले और गतिशील, हैं अतः इस भौतिक जगत के दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न तत्व हैं। मरूतों को अरेणवः मरूतः भी कहा गया है। अर्थात् मरूत गणों में रेणु या धूलि के कण नहीं हैं। आधुनिक विज्ञान का कथन है कि सूर्य के चारों ओर धूल के कण नहीं हैं क्योंकि सूर्य अपनी ऊष्मा के द्वारा सभी ठोस कणों को वाष्प के रूप में परिणात कर देता है। मरूत् अन्तरिक्ष स्थानीय है जबकि वायु का स्थान पृथिवी के चारों ओर का वातावरण है, अन्तरिक्ष और द्युलोक के बीच का मध्य स्थान है। वायु में धूल के कण भी व्याप्त रहते हैं अतः मरूत् और वायु दोनों भिन्न तत्व हैं।

            जो देव, जो शक्ति आत्म कहे जाने के लिये, प्राण माने जाने के लिये अधिकृत हो वह उसका आध्यात्मिक रूप है। वायु का एक स्वरूप आध्यात्मिक भी है। ऋग्वेद में वायु की उत्पत्ति विराट् पुरूष के प्राणों से कही गई है-

            चन्द्रमा ममनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।

            मुखादिन्दुश्वाग्निश्वा प्राणाद्वायुरजायत।

            अर्थात् उस विश्व पुरूष वा विराट पुरूष का जो प्राण है वह वायु है। अतः वायु का आध्यात्मिक रूप प्राणात्मक है। यह प्रणों के रूप में प्रत्येक शरीरधारी में रहता हुआ उनकी आयु का निर्धारण करता है। अतः उपनिषदों में कहा गया है कि प्राणो ही भूतानामायुः। सर्वमेव ते आयुर्यन्ति ये प्राणं ब्रह्मोपासते।

            छान्दोग्य उपनिषद् में भी वायु को प्राण के रूप में ब्रह्म का चतुर्थ पाद कहा गया है।

            ‘‘प्राण एव ब्रह्मणश्वतुर्थः पादः स वायुना ज्योतिषाभाति च तपति च।”

            अतः उस प्राणरूपी सत की ही एकमात्र सत्ता है। उसकी शक्तियों की प्रवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न हैं। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।

            इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध स्वरूपा वायु शरीर धारियों की आत्मा के रूप में स्थित होकर, भौतिक जगत् का विस्तार करते हुये सर्वशक्तिमान ईश्वर के रूप में विद्यमान है।

                                                                                    इति

                                                                                                            सहात्र प्राध्यापक संस्कृत

                                                                                                शास. महाकोशल कला एवं वाणि.,

                                                                                                म्हाविद्यालय, जबलपुर (म. प्र.)

।। पादटिप्पण्यिां।।

            १. जै. सू. २-१-३५                                         २.  तैन्त. सं. ६-५-१०-३

            ३. ऋ. १०-९०-९                                           ४. ऋग् ७-९२-४

            ५. ऋग् ७-९२-१                                            ६. ऋग् १०-८५-५

            ७. ऋग् ७-९०-१                                            ८. ऋग् ८-२६-२१, २२

            ९. ऋग् १-१३४-४                                         १०. ऋग् ५-५८-७

            ११. ऋग् ४-४६-२, ४-४८-२                                    १२. ऋग् १०-१०८-४

            १३. ऋग् ८-२६-२५                                      १४. ऋग् ७-९०-२

            १५. ऋग् ८-२६-२४                                      १६. ऋग् ८-४६-२८

            १७. ऋग् ४-४८-१                                         १८. ऋग् ७-९२-४१

            १९. ऋग् ७-९१-१                                         २०. ऋग् ७-९१-२

            २१. ऋग् ७-९१-५                                         २२. ऋग् ७-९०-३

            २३. ऋग् ७-९२-३                                         २४. ऋग् ४-४६-, ४-४८-२

            २५. ऋग् ४-४८-४                                         २६. ऋग् ७-९२-५

            २७. ऋग् ८-२६-२०                                      २८. ऋग् १-१३५-९

            २९. ऋग् १०-१८६-३                                               ३०. ऋग् १०-१८६-२

            ३१. ऋग् ४-४६-२                                         ३२. ऋग् १०-१६८-१

            ३३. ऋग् ६-५०-१२                                      ३४. ऋग् १-१६४-४४

            ३५. ऋग् १०-१६८-४                                               ३६. ऋग् १-१६८-२

            ३७. ऋग् ४-१७-१२                                      ३८. ऋग् ५-८३-४, १-९७-५२, १०,१८६-३

            ३९. ऋग् १०-१५८-१                                               ४०. ऋग् ४-४७-३

            ४१. ऋग् १-१३५-१ से ८ तक                                   ४२. ऋग् २-४१-१

            ४३. ऋग् १-१३५-१ से आठ                          ४४. ऋग् १०-१८६-१ से ३ तक

            ४५. ऋग् ७-९०-७                                         ४६. ऋग् १०-१६८-३

            ४७. ऋग् ६-५०-१२                                      ४८. ऋग् ८-७-४

            ४९. ऋग् ८-७-४                                            ५०. ऋग् ८-२६-२३

            ५१. ऋग् १-१६८-१                                      ५२. ऋग् १०-१६८-४

            ५३. ऋग् ७-५६-३                                         ५४. ऋग् ९-५७-५२

            ५५. ऋग् ७-५६-३                                         ५६. ऋग् ७-५६-३

            ५७. ऋग् १-१६८-४                                      ५८. ऋग् १०-९०-१३

            ५९. तै. उप. २/३                                           ६०. छान्दो उप. ३/१८/४