वेद और ग्रहण:पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

चन्द्रमा का घटना – बढ़ना

सूर्य की किरण चन्द्रमा पर सर्वदा पड़ती रहती है। पृथिवी घूमती है अतः पृथिवीस्थ पुरुष चन्द्रमा को सदा प्रकाशित नहीं देखता, क्योंकि पृथिवी की छाया चन्द्र में पड़ जाने से हम लोगों को प्रकाश प्रतीत नहीं होता ।

वेद और ग्रहण

वेदों में कुछ संदिग्ध सा वर्णन आया है जिससे राहु-केतु की कथा चली है और इसको न समझ कर राहुकृत ग्रहण लोग मानने लगे, मैं उन मन्त्रों को यहाँ उद्धृत करता हूँ ।

यत्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः । अक्षेत्रविद् यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥

– ऋ०५/४० 1५

(सूर्य) हे सूर्य ! (यद्) जब (त्वा) तुमको (आसुरः ) असुरपुत्र ( स्वर्भानुः ) स्वर्भानु (तमसा ) अन्धकार से (अविध्यत् ) विद्ध अर्थात् आच्छादित कर लेता है तो उस समय (भुवनानि) सम्पूर्ण भुवन पागल से (अदीधयुः) दीख पड़ने लगते (यथा) जैसे (अक्षेत्रवित्) मार्ग को न जानने हारा पथिक (मुग्धः ) मुग्ध अर्थात् घबरा जाता है तद्वत् सम्पूर्ण जगत घबरा जाता है ।

यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसा विध्यदासुरः । अत्रय स्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्नुवन् ॥

ऋ०५/४०/९

(आसुरः + स्वर्भानुः ) आसुर स्वर्भानु (यम्+ वै+सूर्यम्) जिस सूर्य को (तमसा + अविध्यत् ) अन्धकार से घेर लेता है (अत्रय: ) अत्रिगण (तम्+अनु+अविन्दन् ) उसको पालते हैं । तम को नष्ट कर अत्रि सूर्य की रक्षा कर प्राप्त करते हैं यहाँ अन्यान्य ऋचाओं में भी इस प्रकार का वर्णन आया है, ब्राह्मण ग्रन्थों में भी इसकी बहुधा चर्चा आती है । केवल एक उदाहरण शतपथ ब्राह्मण से देकर इसका तात्पर्य लिखूँगा-

स्वर्भानुर्ह वा आसुरः सूर्यं तमसा विव्याध स तमसा विद्धो न व्यरोचत तस्य सोमारुद्रावेवैतत्तमोऽपाहतां स एषोऽपहतपाप्मा तपति । -शत० ५। १ । २।१।

तात्पर्य – असुर शब्द

ऋग्वेद में असुर शब्द दुष्ट अर्थ में बहुत ही विरल प्रयुक्त हुआ है । सूर्य, मेघ, वायु, वीर, परमात्मा आदि अनेक अर्थों में यह असुर शब्द विद्यमान है।

वि सुपर्णो अन्तरिक्षाण्यरव्यद् गभीरवेपा असुरः सुनीथः । क्वेदानीं सूर्यः कश्चिकेत कतमां द्यां रश्मि रस्याततान ॥

ऋ० १ । ३५ ।७

यहाँ पर सूर्य के विशेषण में असुर शब्द आया है । जिस कारण सूर्य के प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता रहता है, अतः (असुरस्य सूर्यस्य अयमासुरः ) असुर जो सूर्य उसका सम्बन्धी होने से चन्द्र आसुर कहाता है ।

स्वर्भानु – स्व-स्वर्ग आकाश, अन्तरिक्ष । भानु-प्रकाश । स्वर्ग का प्रकाश करने हारा चन्द्र है, अतः इसको स्वर्भानु कहते हैं ।

अत्रि – सूर्य किरणों का नाम अत्रि है । ” अदन्ति जलानि ये तेऽत्रयः किरणा:

अब वैदिकार्थ पर ध्यान दीजिए । वेद में कहा गया है कि “आसुर स्वर्भानु सूर्य को अन्धकार से ढाँक लेता है।” ठीक है। आसुर स्वर्भानु जो चन्द्र वह अपनी छायारूप अन्धकार से सूर्य को ढाँक लेता है तब पुनः अत्रि अर्थात् सूर्य किरण ही इसको हटाकर सूर्य की, मानो, रक्षा करता है । शतपथ ब्राह्मण कहता है कि सोम और रुद्र इस तम को विनष्ट करता है । यह भी ठीक है, क्योंकि चन्द्र ही अपनी छाया सूर्य पर डालता है और कुछ देर के पश्चात् वहाँ से दूर हट जाता है । रुद्रनाम विद्युत् का है अर्थात् प्रकाश पुनः आ जाता है । यही, मानो, सूर्य का तम से छूटना है, वेद की यह एक बहुत साधारण बात थी । इसे न समझ कैसी-कैसी कल्पनानाएँ होती गईं।

आधुनिक संस्कृत में ” तमस्तु राहुः स्वर्भानुः सैंहिकेयो विधुन्तुदः ” अमर । स्वर्भानु राहु को कहते हैं कि असुर एक भिन्न जाति मानी जाती है, अतः इस प्रकार का महाभ्रम उत्पन्न हुआ है । मैं बारम्बार कह चुका हूँ कि वेदों की एक छोटी सी बात लेकर बड़ी-बड़ी गाथाएँ बनाते गये। इसलिए उचित है कि लोग वेदों को पढ़ें- पढ़ावें अन्यथा वे कुसंस्कारों से कदापि न छूट सकेंगे ।

ग्रहण क्या है ?

चन्द्र ग्रहण में सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल दीख पड़ता है किन्तु मण्डल के ऊपर काली और लाल छाया रहती है । कभी सम्पूर्ण मण्डल के ऊपर और कभी उसके कुछ भाग के ऊपर वह छाया रहती है । सूर्यग्रहण इससे विलक्षण होता है । सूर्यमण्डल अधिक वा स्वल्प भाग उस समय छिपा हुआ रहता

है ग्रहण दो प्रकार के होते हैं । १ – जिनमें सूर्य और चन्द्र के मण्डल का कुछ भाग ही छाया आच्छादित होता है, वह भाग ग्रास वा असम्पूर्ण ग्रास कहाता है। लोग उसको उतना ही अनुभव करते हैं। जितना मेघ से वे दोनों सूर्य और चन्द्र छिप जाएँ । २ – सम्पूर्ण ग्रास में सम्पूर्ण सूर्य और आच्छादित हो जाता है । सूर्य के सम्पूर्ण ग्रास के समय पृथिवी के ऊपर आश्चर्यजनक लीला होती है । पृथिवी के ऊपर उस समय एक विचित्र अन्धकार हो जाता है। न तो रात्रि के समान ही वह अन्धकार है और न ऊषाकाल के समान प्रकाश एवं अन्धकार युक्त ही है । आकाश में ताराएँ दीख पड़ने लगती हैं । पक्षिगण अपने घोसले की ओर दौड़ते हैं। रात्रिञ्चर पशु-पक्षी रात्रि समझ कर बाहर निकलने लगते हैं । अज्ञानी जन डर जाते हैं। बहुत दिनों की बात है कि दो देशों के मध्य घोर संग्राम हो रहा था, उसी समय सूर्यग्रहण लगा। दोनों दलों के सिपाही इतने डर गये कि युद्ध बन्द कर दिया गया और दोनों दलों में सन्धि हो गई। सूर्य के समग्र ग्रास से आजकल भी अज्ञानी जनों में अधिक भय उत्पन्न होता है । वे समझते हैं कि इससे किसी महान् राजा की मृत्यु होगी। महा दुर्भिक्ष, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, महामारी, भयंकर युद्ध, भूकम्प आदि उपद्रव इस वर्ष होंगे, किन्तु ये सब मिथ्या बातें हैं । ग्रहण से मृत्यु और दुर्भिक्षादि का कोई भी सम्बन्ध नहीं है ।

नाना कल्पनाएँ

जिन देशों में ग्रहण के तत्व नहीं जानते थे वहाँ इसके सम्बन्ध में विविध कल्पनाएँ लोग किया करते थे १ – प्राचीन काल के रोम निवासी चन्द्रमा को एक देवी समझते थे । जब चन्द्र ग्रहण होता था तब वे मानते थे कि इस समय चन्द्र देवी अपने बच्चे के साथ परिश्रम कर रही है । इसकी सहायता के लिए वे चन्द्र देवी के नाम पर बलि दिया करते थे, उनमें से कोई मानते थे कि कोई जादूगर चन्द्र देवी को क्लेश पहुँचा रहा है । इस हेतु यह काली हो गई है इत्यादि ।

२ – अमेरिका के कुछ मनुष्य मानते थे कि जब-जब चन्द्रमा बीमार हो जाता है तब-तब ग्रहण लगता है । उनको इससे अधिक भय होता था कि ऐसा न हो कि वह हम लोगों के ऊपर गिर कर नष्ट कर दे । इस आपत्ति से बचने के लिए और चन्द्रमा को जगाने के लिए बड़े-बड़े ढोल पीटा करते थे । कुत्तों को मार-मार कर भौंकाते थे, स्वयं अपने बड़े जोर से चिल्लाया करते थे । उसके नैरोग्य के लिए देवताओं से प्रार्थनाएँ करते थे ।

३ – अमेरिका के मैक्सिको देश निवासी समझते थे कि चन्द्रमा और सूर्य में कभी-कभी तुमुल संग्राम हो जाता है । चन्द्रमा हार जाता है उसको बड़ी चोट लग जाती है, इसीलिये इसकी ऐसी दशा होती है । वहाँ के लोग ग्रहण के समय उपवास किया करते थे । स्त्रियाँ डर कर अपनी देह को ही पीटने लगती थीं । कुमारिकाएँ अपनी बाहु में से रक्त निकालने लगती थीं। छोटे-छोटे बच्चे रोने लगते थे ।

अफ्रीका देश अभी तक महान्धकार में है। यहाँ के लोग निग्रो ( हबसी ) कहलाते हैं। वे जंगली अतिमूर्ख पशुवत् हैं। बहुत सी जातियाँ अभी तक कपड़ा पहनना भी नहीं जानती हैं । वहाँ कोई एक यांत्रिक चन्द्र ग्रहण के समय उपस्थित था, वह इसका प्रभाव इस प्रकार वर्णन करता है । एक दिन सन्ध्या समय शीतल वायु चल रही थी । लोग बड़े आनन्द से इधर-उधर मैदान में हवा खा रहे थे । चन्द्रमा के पूर्ण एवं स्वच्छ प्रकाश से और भी लोग बहुत प्रमुदित हो रहे थे ।

इतने में ही चन्द्र कुछ-कुछ काला होना शुरू हुआ। धीरे-धीरे सर्वग्रास हो गया । ज्यों-ज्यों चन्द्र काला पड़ता जाता था त्यों-त्यों आनन्द घटता जाता था, भय और घबराहट बढ़ती जाती थी । सर्वग्रास के समय लोग बहुत घबरा कर इतस्ततः दौड़ने लगे । सैकड़ों पुरुष वहाँ के राजा के निकट दौड़ गये और कहने लगे कि यह आकाश में क्या हो रहा है। इस समय मेघ भी नहीं जिससे चन्द्रमा छिप जाए। वे एक-दूसरे के मुख अचम्भा से देखने लगे कि इस समय क्या आफत हम लोगों के ऊपर आवेंगी। वे ग्रहण के तत्त्व नहीं जानते थे, इसलिये इस प्रकार आकुल-व्याकुल हो रहे थे। बहुत आदमी बहुत जोर से चिल्लाने लगे। कोई डंकाओं को पीटने लगे, कोई तुरही फूंकने लगे। वे मानते थे कि कोई महान् साँप आ के चन्द्रमा को पकड़ लेता है, इसलिये यहाँ से इस असुर को डरा देना चाहिए ताकि वह चन्द्र को छोड़ कर भाग जाए। इसी अभिप्राय से वे डंका बजाना, सब कोई मिलकर हल्ला मचाना, तुरही फूंकना आदि काम जरूरी समझते थे । जब धीरे-धीरे पुनः चन्द्रमा स्वच्छ होने लगा तब वे निग्रो ( हबसी ) बड़ी खुशी मना-मना कर अपने पुरुषार्थ की प्रशंसा करने लगे ।

५ – शोक की बात है कि जिनके पूर्वज अच्छी प्रकार ग्रहण तत्त्व जानते थे वे भी भारतवासी इन्हीं जंगलियों के समान ग्रहण मानने लगे। आश्चर्य यह है कि यहाँ एक ओर ज्योतिषशास्त्र चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि पृथिवी की छाया से चन्द्र ग्रहण और चन्द्र की छाया से सूर्य ग्रहण होता है । न कोई असुर, न कोई साँप और न कोई अन्य पदार्थ ही चन्द्र-सूर्य को क्लेश पहुँचा सकता है । चन्द्र-सूर्य एक जड़ पदार्थ है । प्रतिदिन छायाकृत ग्रहण रहता ही है इसी कारण चन्द्रमा बढ़ता और घटता है । मेघ के आने से जैसे चन्द्रमा और सूर्य छिपा सा प्रतीत होता है । वैसा ही ग्रहण भी समझो। ग्रहण के कारण कदापि भी महामारी आदि उपद्रव नहीं होते इत्यादि विस्पष्ट और सत्य बात ज्योतिष शास्त्र बतला रहा है । वह शास्त्र पढ़ाया भी जा रहा हैं किन्तु दूसरी ओर मूर्खता की ऐसी धारा चल रही है कि जिसका वर्णन महाकवि भी नहीं कर सकते । ग्रहण के समय हजारों-लाखों आदमी काशी, प्रयाग और कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों की ओर दौड़ते हैं। राहु नाम के असुर से चन्द्र सूर्य को बचाने हेतु कोई जप, कोई दान, कोई पूजा करता। इस समय

नाना कल्पनाएँ

को अशुभ समझ कोई स्नान करता, कोई समझता है कि यदि ग्रहण के समय काशी, गंगा वा कुरुक्षेत्र में स्नान हो गया तो मुक्ति साक्षात् हाथ में ही रखी हुई है । डोम और भंगी जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं कि ग्रहण लग गया, दान पुण्य करो इत्यादि विचित्र लीला आज भी भारत में देखते हैं। पुराणों ने यहाँ की सारी विद्याएँ नष्ट-भ्रष्ट कर दीं। वे कैसी मूर्खता की कथा गढ़ते हैं – एक समय देव और असुर मिल के समुद्र मंथन कर अमृत ले आए। असुरगण अमृत को ले भागने लगे । देवगण वहाँ ही मुँह देखते रह गये । तब विष्णु भगवान् मोहिनी स्त्री रूप धर असुरों के निकट जा उन्हें मोहित कर उनसे अमृत के घड़े को अपने हाथ में लेके दोनों दलों को बराबर बाँट देने की सन्धि कर उन्हें बिठला मन में छल रख अमृत बाँटने लगे । प्रथम देव लोगों को अमृत देना आरम्भ किया । असुरों में एक राहु विष्णु के कपट – व्यवहार से परिचित था, अतः वह सूर्य और चन्द्र के बीच में आके बैठ गया था । ज्योंही विष्णु उस राहु को अमृत देने लगे त्योंही सूर्य और चन्द्र ने इशारा किया किन्तु कुछ अमृत इसके हाथ पर गिर चुका था और उसको उसने पी भी लिया । विष्णु ने उसे असुर जान चक्र से इसका शिर काट लिया। वह राहु और केतु दो हो गया । तब से ही वे दोनों अपने बैरी सूर्य-चन्द्र को समय-समय पर पीड़ा दिया करते हैं, इसीलिये ग्रहण होता है । यह पौराणिक गप्प है ।

६ – बौद्ध सम्प्रदायी भी पौराणिक ही एक प्रकार से हैं, अतः वे भी राहुकृत ही ग्रहण मानते हैं । इनमें चन्द्रप्रीति और सूर्यप्रीति नाम के दो स्तोत्र ग्रहण के समय में पड़ते हैं । चन्द्रप्रीति में इस प्रकार वर्णन आता है कि एक समय किसी एक स्थान में बुद्धदेव जी समाधिस्थ थे। उसी समय राहु नाम का असुर चन्द्रमा को अपने पेट में निगलने लगा । चन्द्र बहुत ही दुःखित हुए । बुद्ध को समाधि में देख जोर से पुकार चन्द्र भगवान् कहने लगे कि मैं आपकी शरण में हूँ । आप सबकी रक्षा करते हैं मेरी भी आप रक्षा कीजिए। इस कातर शब्द को सुन दयालु बुद्ध जी ने राहु से कहा कि तू यहाँ से चन्द्र को छोड़ भाग जा, क्योंकि चन्द्र ने मेरी शरण ली है । बुद्ध की इतनी बातें सुन चन्द्र को छोड़ डरता – काँपता साँस लेता हुआ वह राहु असुराधिपति विप्रचिति के निकट भाग कर जा पहुँचा और कहने लगा कि यदि मैं चन्द्रमा को न छोड़ता तो न जाने मेरी क्या दशा होती । बुद्ध ने मेरा अत्याचार देख लिया । सूर्यप्रीति में भी इसी प्रकार की गप्प है।

७- चीन देश निवासी भी निग्रो ( हबसी ) हिन्दू और बौद्ध के समान ही समझते थे कि कोई लाल और कृष्ण साँप ही चन्द्र एवं सूर्य को तंग किया करता है । वे हिन्दू के समान न तो स्नान करते और न बौद्ध के समान चन्द्रप्रीति आदि स्तोत्र ही पढ़ते, किन्तु अफ्रीका के हबसी के समान सब कोई मिलकर बड़े जोर से चिल्लाने, ढोल बजाने, डंका पीटने लगते हैं ताकि इस शोर से डर कर वह सर्प भाग जाए । इत्यादि भिन्न देशवासी, अपनी-अपनी कल्पनाएँ किया करते हैं।

ये सर्व कल्पनाएँ मिथ्या हैं, क्योंकि यद्यपि चन्द्रमा और सूर्य यहाँ से देखने में अतिलघु प्रतीत होता है, किन्तु चन्द्रमा भी एक पृथिवी के समान ही लोक है वहाँ भी जीव निवास करते हैं । पृथिवी से थोड़ा ही छोटा चन्द्र है। सूर्य की कथा ही क्या । १३००००० तेरह लक्ष गुणा सूर्य पृथिवी से बड़ा है । वह अग्नि का महासमुद्र है । इस सूर्य के चारों तरफ लाख कोश में कोई शरीरधारी जीव इसकी ज्वाला से नहीं बच सकता है । यह सम्पूर्ण पृथिवी भी पर्वतसमुद्रादि सहित यदि सूर्यमंडल में डाल दी जाए तो एक क्षण में जलकर भाप हो जाए। जब ऐसी विस्तृत पृथिवी की वहाँ पर यह दशा हो तो आप विचार सकते हैं कि सर्प और असुर वहाँ कैसे पहुँच सकते। अतः राहु आदि की कथा सर्वथा मिथ्या है, पुनः जब राहुकृत ग्रहण होता तो नियमपूर्वक पूर्णिमा और अमावस्या तिथि को ही चन्द्र-सूर्य ग्रहण किस प्रकार होता । वह चेतन राहु स्वतन्त्र है जब चाहता तब ही सूर्य चन्द्र को धर पकड़ता किन्तु ऐसा नहीं होता, अतः यह कल्पना मिथ्या है । पुनः विद्वान् गण सैकड़ों वर्ष पहले ही ग्रहणों के मास, तिथि, पल, क्षण बतला सकते हैं। इतना ही नहीं, वे किस क्षण में ग्रहण और किस क्षण में मोक्ष होना आरम्भ होगा, यह भी कह सकते हैं । तब आप विचार करें कि यदि कोई सर्प वा राहु का यह कार्य होता तो गणित के द्वारा पण्डितगण इस विषय को कैसे कह सकते थे । इस हेतु उपयुक्त समस्त कल्पनाएँ मिथ्या होने से त्याज्य हैं ।

पृथिवी की छाया चन्द्रमा के ऊपर पड़ती है, अतः चन्द्र ग्रहण होता है । इसी हेतु चन्द्र ग्रहण ईषदुक्त सा प्रतीत होता है । चन्द्र की छाया से सूर्य ग्रहण होता है । चन्द्रमा सर्वथा काला है । अत: सूर्य ग्रहण काला प्रतीत होता है । इसी कारण लाल और कृष्ण सर्प की भी कथा चल पड़ी है ।

वर्ष में २ से कम और ७ से अधिक ग्रहण नहीं हो सकता । साधारणतया वर्ष में ४ चार ग्रहण होते हैं । इति ।

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