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वामपंथ के इशारों पर हिन्दू

सबरीमाला
केरल में चल रहे इस भयंकर ड्रामे का अंत मुझे तो नही दिखता
वामपंथी और जो समूह महिलाओं के प्रवेश करने को लेकर समर्थन देकर आगे हुए है वे भी नही चाहते है कि ये ड्रामा बन्द हो

वामपंथ यही तो चाहता है कि हिन्दू अपनी मानसिकता को इतना संकीर्ण बनाये रखे और वे नारी सशक्तिकरण के नाम पर तुम्हें एक घटिया और नारी विरोधी मत पंथ सिद्ध करते रहे

क्योंकि हिंदुओं को वामियों ने दलितों से तो अलग कर ही दिया है (विश्वास नही होता ना अभी तीन राज्यों में आये परिणाम इसका चीखता चिल्लाता हुआ प्रमाण है कि तुम लोगों से दलितों को दूर कर लिया गया है)

अब नारी सशक्तिकरण की चाह रखने वाले उस बड़े महिला वर्ग को भी तुमसे अलग कर लिया जाए

वे तो चाहते है कि सबरीमाला के वे कब्जाधारी पण्डित समूह इसका भरपूर विरोध करें और आस्था के नाम पर हिंदुओं को भड़का कर महिलाओं के प्रवेश के विरुद्ध खड़ा रखे जिससे हिन्दू मत और उसकी संकीर्ण सोच के विरुद्ध महिलाओं को हर क्षेत्र में खड़ा किया जा सके

आज यह मंदिर है कल कोई और होगा और इसमें भी आश्चर्य नही होना चाहिए कि आगे चल ये जो जातिगत छुटपुट विवाद चल रहे है ये भी इसी तरह के बड़े तूल पकड़ेंगे

वामपंथियों का होमवर्क, उनकी तैयारी इतनी जबरदस्त है कि आध्यात्मिक अंधभक्ति, अंधविश्वास की जंजीरों में बंधा यह हिन्दू दिमाग उससे कभी पार नही पा सकता

क्या फर्क पड़ जायेगा यदि महिलाएं भी सबरीमाला में प्रवेश कर लेगी तो ? यदि हिन्दू तैयार हो जाये तो यह निर्णय तो उनके विशाल हृदय का प्रमाण सिद्ध होगा

महिलाओं की एक आयुसीमा तय कर रखी है और उसके पीछे तर्क यह है कि वे मासिक धर्म में जो अपवित्रता होती है उसके साथ मन्दिर में प्रवेश करेगी तो मन्दिर अपवित्र हो जाएगा

अर्थात वे सभी मन्दिर अपवित्र है जिनमें महिलाएं प्रवेश कर सकती है, क्या अपवित्र हृदय लिया हुआ व्यक्ति सबरीमाला में प्रवेश करेगा तो मन्दिर दूषित नही होगा ??

“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता”
फिर क्यों यह पंक्ति सुना सुनाकर इस बात का ढोंग करते हो कि हिन्दू मत पंथ में नारी को समान अधिकार दिया गया है

एक तरफ कहते हो जहां नारी पूजी जाती है वहां देवता रमण करते है, वही देव स्थान में ही नारी को नही जाने देते हो, फिर जब तुम पर नारी अधिकार हनन का आरोप लगता है तो चीखते चिल्लाते हो, रोते हो, सर फोड़ते हो

यही संकीर्ण सोच तो हिंदुओं को बांट रही है और विश्वास कीजिये आगे भी बांटेगी, किसी घमण्ड में मत रहिये की आपको कोई मिटा नही सकता, आपको मिटाने की अब किसी को आवश्यकता ही नही आप स्वयं अब मिटने को आतुर दिख रहे है

यह सबरीमाला उस तीन तलाक का ही तो जवाब है जिसे समाप्त करने पर सबसे अधिक खुश हिन्दू दिख रहे थे आज उसी का तमाचा खुद हिंदुओं की इस फ़तवाधारी सोच की वजह से पड़ा है जिसकी आग में केरल जल रहा है

वरना जो सहृदयता दिखाई होती महिलाओं के प्रवेश पर समर्थन दिखाया होता तो तीन तलाक से अधिक बड़ा तमाचा इन वामपंथियों को लगता

हिंदुओं को तो चाहिए कि वे अब नारी सशक्तिकरण के इस ड्रामे को खुद बढ़ाये और मस्जिदों में नारी के प्रवेश को लागू करवाने को इसी स्तर की मुहिम छेड़े

डटकर मस्जिदों के आगे खड़ी होकर इसी तरह प्रवेश करने को आगे आये

परन्तु वहां आपकी हिम्मत नही होती हिन्दू अपने आप में खुश है उसे बदला लेना नही आता, क्रिया की प्रतिक्रिया करना नही आता, सामने वाले को उसी की भाषा में जवाब देना नही आता, हिन्दू तो चाहता है कि उससे उसकी धार्मिक स्वतंत्रता नही छीनी जाए अरे राम मंदिर नही स्वयं राम बनों और उसकी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला करो जिसने आप पर यह हमला किया है

हर समय रक्षात्मक स्थिति बनाये रखने से आप जीवित नही रह पाओगे, समय की आवश्यकता को देखते हुए आपको सठे साठयम समाचरेत को अपनाते हुए आक्रमक मुद्रा में आना ही होगा तभी आपका भविष्य उज्ज्वल, स्वछन्द और स्वतंत्र होगा अन्यथा एक दिन इसी संकीर्ण सोच के बोझ तले दबकर समाप्त हो जाओगे तब न मोदी आएगा न राम न ईश्वर

औ३म्🙏

गौरव आर्य
(पण्डित लेखराम वैदिक मिशन)

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर (द्वितीय पुण्यतिथि पर स्मरण)

पौरुष का पर्याय: आचार्य धर्मवीर

वह तेज पुंज, वैदिक विचारधारा के संरक्षण हेतु सतत जागरूक प्रहरी, धर्माघात करने वालों के हृदयों को जिनकी वाणी पाञ्चजन्य की ध्वनि सम विदीर्ण करती रही सहसा ही हमारे मध्य नहीं रहा . “ऊर्जा के स्त्रोत” अमर धर्मवीर को हमसे विमुख हुए २ वर्ष व्यतीत हो गए लेकिन वह रिक्त स्थान यथावत है उसकी पूर्ति वर्तमान परिस्तिथियों में दुष्कर प्रतीत हो रही है एवं इस वास्तविकता का निरन्तर भान कराती है.

शिवाजी की भूमि पर स्वात्रंत्र प्रेमी ऋषि भक्त पण्डित भीमसेन जी के घर जन्मा यह बालक कपिल कणादि जैमिनी से दयानन्द पर्यंत ऋषियों द्वारा प्रदत्त ज्ञान रूपी सोम का पान कर , शश्त्र शाश्त्रों से सुसज्ज्ति धर्म पर स्व एवं परकीयों द्वारा हो रहे आघातों से आकुल ह्रदय लिय वह धर्मरक्षक योद्धा इस समर भूमि में सर्वस्व न्योछावर कर अम्रत्व्य को प्राप्त हो गया .

उनका जीवन, कर्म क्षेत्र, घर्म क्षेत्र, समर क्षेत्र में अधर्मियों के कृत्यों से पीड़ित होने के उपरान्त अंगद सम धर्म पथ पर अटल रहने का उद्धरण प्रदर्शित करता हुआ अनंत काल तक युवकों को प्रेरणा देता हुआ कीर्ति पुंज है उनका जीवन दर्शन अगणित ऐसी घटनाओं से शोभित  है जो धर्म पथगामियों को सदा ही प्रेरित करता रहेगा.

आरोप पत्र या अभिनन्दन पत्र: भारतवर्ष का इतिहास साक्षी है कि विदेशियों की विजय पताका फहराने में सहायक स्वजन ही थे बिना उसके इस धर्म भूमि पर परकीयों के वर्चस्व का ध्वज कैसे गगन चूम सकता था !

हमने ही स्वयं की तलवारों से स्व बान्धवों के रक्त का पान कर इस मातृभूमि को विधर्मियों के सुपुर्द कर दिया . भला आर्य समाज इस रोग से ग्रसित होने से कहाँ रह सकता था ? लाला मूलराज आदि के द्वारा बोया गया यह परजीवी पौधा, मानस पुत्रों को जन्म देता रहा और वैदिक धर्म के प्रचार में अभिनव प्रयोग कर अनेकों बाधाएं  पग पग पर वैदिक धर्म के दीवानों के रास्ते में खडी की गयी.

धर्मवीर जी का जीवन इससे अछुता नहीं था . आचार्य रामचंद्र जी ने ऐसी ही एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है की अधिकारियों ने व्यक्तिगत खुन्नस के कारण दयानन्द कॉलेज अजमेर से आपकी सेवाओं को निलम्बित कर दिया . आपके विरुद्ध जो आरोप पत्र जारी किया गया वह भी वास्तव में आपके कार्यों के महत्व का , आपके दृढ चरित्र का एक प्रमाण पत्र है . उसमें आरोप लगाया लगाया था – १. आप परोपकारिणी सभा का कार्य करते हें .२ आप परोपकारी पत्रिका का संपादन करते हैं ३. आप आर्य समाज का प्रचार करते हैं . इस पत्र को पढ़कर अचम्भित होना स्वाभाविक ही है कि ये अभिनन्दन पत्र है या आरोप पत्र !

धर्मवीर जी परिस्थियों से घबराने का नाम नहीं है धर्मवीर वह ज्वाला है जो तम आवृत जग के लिए पथ प्रदर्शक का कार्य करती रही. क्या ये यातनाएं धर्मवीर को पथ से विचलित कर सकती थी ?  क्या ये यातनाएं वेदनाएं उनके साहस को चूर चूर करने में सक्षम थीं ? वह ऋषि भक्ति के लिए समर्पित योद्धा विश्व के वैभव लालसाओं का त्याग कर चुका था . ऋषि दयानन्द ही उसके लिए सर्वस्व था .

जीत की हार : श्रद्धेय श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आचार्य धर्मवीर जी की जीवनी में एक घटना का  उल्लेख किया है कि जब प्राचार्य वाब्ले धर्मवीर जी को अपमानित करने व कुचलने  पर तुला हुआ था उन्ही दिनों उसने अहंकार में आकर धर्मवीर जी से कहा “ मैं यदि तुम्हें निकाल दूँ तो सुप्रीम कोर्ट भी तुम्हें नहीं रखवा सकता “

जितने भरपूर अहंकार में पाचार्य वाब्ले ने धर्मवीर जी को धमकी देकर डराया और उनका मनोबल गिराना चाहा उतने ही अटल ईश्वर – विश्वास तथा आत्मबल से आपने उसे  तत्काल उत्तर दिया “ मैं मनुष्य को भगवान् नहीं मानता और अजमेर को सकल सृष्टि नहीं मानता “

प्रखर ऋषिभक्ति: धर्मवीर जी महाराणा प्रताप के साहस अभिमन्यु के महान पौरुष की प्रतिमूर्ति थे .भला वह इन वज्र सम विपदाओं से कहाँ विचलित हो सकते थे . ऋषि मार्ग  के पथिक  का समझौता वादी व्यक्तित्व न होने के कारण ऐसा प्रतीत होता था मानों वे स्वयं विपदाओं को आमन्त्रित कर रहे हों . ये जग उन्हीं धर्मवीरों का गायन करता है जो विपदाओं की परवाह किये बिना प्राण हथेली पर लिए रण भूमि में अर्जुन के गांडीव की तरह गुंजायमान हो रिपु दल के हृदयों को विदीर्ण कर विजय रस का पान करते हैं .

आचार्य धर्मवीर जी की इस विशेषता से कोई अभागा ही हो जो परिचित न हो . वैदिक धर्म पर यदि कहीं भी प्रहार होता था तो उनकी आत्मा कम्पायमान हो उठती थी, उनका ह्रदय वेदना से भर उठता था और कभी ऐसा न हुआ कि वैदिक धर्म पर प्रहार हुआ हो और धर्म रक्षक धर्मवीर की लेखनी न चली हो .

ऐसी ही घटना का  “ धौलपुर सत्यागृह शताब्दी यात्रा “ के समय सभा के मंत्री श्री ॐ मुनि जी ने वर्णण किया कि  एक दर्शनाचार्य ने ऋषी दयानन्द अब  अप्रसान्गिक  हो गए हैं, यदि अधिक लोगों को आकर्षित करना है तो ऋषि दयानंद का नाम मंच से न लिया जाये ऐसा कहने का दुस्साहस किया . इस घटना को दो और सज्जनों ने शब्द भेद, यथा “ऋषि दयानंद का नाम बदनाम हो गया है अतः प्रचार को संकुचित न करने के लिए इस नाम को प्रयोग न किया जाये” , के साथ सुनाया .

जिस धर्मवीर का रोम रोम ऋषि भक्ति के रंग में रंगा हुआ था जो ऋषि दयानन्द के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रतिपल सहर्ष तैयार था वह भला कहाँ ये सुन के चुप रह सकता था . ऋषि के लिए स्वजनों ने ऐसे शब्द  सुनते ही उनके ह्रदय में प्रबल प्रचण्ड धधकती हुयी ज्वाला जाग्रत होना स्वाभाविक ही था. धर्मवीर जी ने काल सम तुरन्त ध्वनियंत्र को लेकर सिंह गर्जना करते हुए कहा कि आपने जो शब्द अभी बोले हैं क्या वो दोहरा सकते हो ? सभा में सन्नाटा छा गया ! इस धधकती हुयी ज्वाला का सामना कौन करे . दर्शनाचार्य को माफी मांगनी पडी.

धर्म पर प्रतिवाद विश्व के किसी भी कौने में हो , चाहे वो ईसाईयों का “ पवित्र ह्रदय “ पत्रिका , जमाअते इस्लामी के  “ कांति “ मासिक का पुनर्जन्म खंड विशेषांक , रामपाल का ऋषि के प्रति विष वमन या स्वजनों का द्रोहराग  धर्मवीर जी की लौह लेखनी सदैव उद्वेग से आवेश से इनका  प्रतिकार करती रही . श्रद्धेय राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा लिखित “ अमर धर्मवीर “ में ऐसे अंकों उद्धरण उन्होंने दिए हैं. धर्मवीर जी विधर्मियों दारा धर्म पर कुत्सित प्रहार का बिना प्रतिकार लिए कहा चैन से बैठने वाले थे . धार्मिक गर्व पर अरि का प्रहार हो और जब तक प्राण  हैं गौरव मर्दन कैसे हो सकता है .धर्मवीर जी भीम की गदा, अर्जुन के गांडीव, हिमगिरि  सदृश्य रक्षक बन सदैव खड़े हो जाते थे. उस  धीरता की प्रतिमा कोमल दृदय देव का पौरुष, क्षत्रित्व सदा जागृत रह मानो धर्म की रक्षार्थ प्रज्वलित ज्वाला लिए न केवल अम्बर को गुंजायमान कर रहा था अपितु अनेकों आर्य वीरों को सुप्तता से जगाने धर्म के प्रति सजग होने की प्रेरणा का निमित्त था.

धर्म पर प्रहार होने की स्तिथी में आर्य लोग केवल परोपकारिणी प्रत्रिका की तरह ही आशा लिए निहारते थे. उन्हें आभास था यह वो धर्मवीर पौरुष है जो किसी लोभ के वश मूक नहीं रह सकते यह वह नेता कथित योगी नहीं जो दिन रात निमग्न योगचिंतनादि में ही लीन रहे. अपितु वो तो वह वीर योद्धा है जिसकी तलवार कभी म्यान में नहीं सोती वह तो हर दुषाशन के लिए भीम का प्रतिशोध है हर हिरण्यकश्यप के लिए नृसिंह का प्रतिशोध है वह तो लेखराम जैसी धर्म धुन का धुनी है जो यज्ञ वेदी पर धर्म की रक्षार्थ सर्वस्व समर्पित करने के लिए सदैव उद्धत है .

वैदिक सिद्धातों पर निष्कंप निष्ठायुक्त , ऋषि की वाटिका के पुष्पों के रक्षार्थ सर्वस्व समर्पण का प्रण लिए ,स्वधर्मियों के अन्यायों से त्रसित वह विप्र, समर्पण का प्रतिकार करता हुआ , वज्र सम धर्म के मार्ग पर अविचल जीवन व्यतीत कर वर्तमान और भावी पीढी के लिए ऐसा जीवन दर्शन प्रस्तुत कर गया जो अनेक धर्म रक्षकों के पथ को अंतरिक्ष में ध्रुव के सम द्वीपित करता रहेगा .

धर्मवीर प्रतिपल युवकों में गौरवमयी आर्यत्व चैतन्य भरने का प्रयास सतत करते रहते थे. उनका स्नेह उनका समर्पण युवकों को सदैव आकर्षित करता था. वह प्रतिभा के धनी गहन शोध, ऋषि भक्ति, देशभक्ति के पर्याय थे उनका जीवन स्वयं में एक दर्शन है. आज आवश्यकता है कि हम उनके जीवन से प्रेरणा लें उन धुन के धुनी बनें .

लक्ष्मण जिज्ञासु ( पण्डित लेखराम वैदिक मिशन )

 

मृतक श्राद्ध पर 21 प्रश्न

प्रश्न १.–

पितर संज्ञा मृतकों की है या जीवितों की ? यदि जीवितों की है तो मृतक श्राद्ध व्यर्थ होगा। यदि मृतकों की हैं तो – आधत्त पितरो गर्भकुमार पुष्करसृजम”।

| (यजुर्वेद २-३३) “ऊर्ज वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् ।। स्वधास्थ तर्पयतमे पितृन्’ ।।

(यजुर्वेद २-३४) “आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्तः पथिभिर्देवयानैः ।

(यजुर्वेद १८-५८) इत्यादि वेद मंत्रों से पितरों का गर्भाधान करना, अन्नजलं, दृ आदि का सेवन करना, आना-जाना-बोलना आदि क्रियायें करने वाला बताया गया है, जोकि मृतकों में संभव नहीं है।

इससे पितर संज्ञा जीवितों की ही सिद्ध है। अतः मृतकों का श्राद्ध करना अवैदिक कर्म है ।

प्रश्न २.– | जीवात्मा की गति जब निजकर्मानुसार होती है तो मृतक श्राद्ध की क्या आवश्यकता है ?

प्रश्न ३.– | जब जीवात्मा में लिंगभेद नहीं होता है तो शरीर त्यागने के बाद उसे पितर आदि मानना कैसे बनेगा ? उपनिषद में जीवात्मा को

| “नैव स्त्री न पुमानेषु न चैवायं नपुंसकः। / यद् यच्छरीरं आधत्ते तेन तेन स युज्यते ।।

| (श्वेताश्वेतर उपनिषद ५-१०) अर्थात् जीवात्मा स्त्री, पुरुष या नपुंसक भेद वाला नहीं है। वह जिस-जिस शरीर में जाता है, वैसा ही कहलाता है ।

प्रश्न ४.–

शरीर त्याग के पश्चात् जीवात्मा के लौकिक सम्बन्ध पिता-पुत्रादि के नष्ट हो जाते हैं तो उनके पुत्रादि के दिये पदार्थ वे कैसे प्राप्त करते हैं ?

प्रश्न ५.–

जो अविवाहित रहते हुए मर जाते हैं उनके पितर (मरने के बाद पौराणिक कल्पनानुसार उनकी आत्मा के) न बनने से उनकी मोक्ष कैसे होगी ? भीष्म पितामह व शुकदेव जी की क्या गति हुई होगी ?

प्रश्न ६.–

जिनका वंशनाश हो जाता है, क्या वे पितर भूखे ही मरते रहते हैं ? यदि हां तो क्यों ?

प्रश्न ७.– | किन जीवों का पुनर्जन्म होता है किनका नहीं होता है, किनकी मोक्ष हो जाती है इसका पता लगाने का क्या साधन आपके पास है ? और बिना पता लगाये मृतक का श्राद्ध करना निरर्थक क्यों नहीं है ?

प्रश्न ८.–

मरने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास से कोई सम्बन्ध नहीं होता है न उसे भोजनादि का ग्रहण होता है, तब

आपके पितर भोजन कैसे करते है ?

. प्रश्न ९.– | श्राद्ध में जो पदार्थ दिया जाता है; यदि वह पुनर्जन्म प्राप्त जीवों की यानियों के स्वाभाविक भोजन के अनुकूल न हो तो श्राद्ध से क्या लाभ होगा ?

प्रश्न १०.–

यदि एक पुरुष के चार बेटे चार दूरस्थ नगरों में एक ही दिन, एक ही समय उनका श्राद्ध करें तो उनकी आत्मा चारों स्थानों पर श्राद्ध ग्रहण करने व खाने को कैसे जा सकेंगी ? क्योंकि एक देशीय जीव एक समय पर एक ही स्थान पर विद्यमान हो सकता है ?

प्रश्न ११.–

श्राद्ध का अधिकार सभी जातियों को क्यों नहीं है ?

प्रश्न १२.– | जिन जातियों को श्राद्ध का अधिकार नहीं होता है उनके पितर तो भूखे ही मरते होंगे या दूसरों का माल छीनकर खाते होगे ? उस दशा में उनके झगड़े-फिसाद की शान्ति कौन कैसे करता होगा ? मरने के बाद भी जीवों में ऊँच-नीच का भेद कायम रहना आप क्यों मानते हैं ?

प्रश्न १३.– | मरने के बाद लापता जीवात्माओं के पास पण्डित जी श्राद्ध का मालटाल पहुँचा देते हैं इसका प्रमाण क्या है ?

प्रश्न १४.–|

जब लापता शरीर विहीन जीवात्माओं के पास आप माल पहुँचाना मानते हैं तो परदेश गये लोगों के नाम पर भोजनों का थाल भी क्यों नहीं पहुँचाकर

उन्हें भूख-प्यास से तृप्त कर देते हैं ?

प्रश्न १५.– | कौवों और पितरों का श्राद्ध से क्या सम्बन्ध है जो श्राद्धों में कौवों को भोजन कराया जाता है ? क्या वे पितरों के प्रतिनिधि हैं ?

प्रश्न १६.:

वर्षा ऋतु में क्वार में जब नदी-तालाबों में सर्वत्र जल भरा रहता है, आकाश में बादल पानी लिये खड़े रहते हैं तब जलदान पितरों को करने की क्या

आवश्यकता है ? ग्रीष्म की प्रचण्ड गर्मी में ज्येष्ठ-वैसाख में जलदान क्यों नहीं किया जाता है जबकि पानी की सभी का सख्त जरूरत होती है ?

प्रश्न १७.–

वर्ष भर में केवल एक बार खिला करके पितरों को साल भर तक भूखा मारना और अपना पट दिन में तीन बार रोजाना भर पेट भोजन करके भरते रहना अपने बुजुर्ग पितरों के साथ निकृष्टतम मजाक नहीं है ?

क्या पितरों का हाजमा इतना खराब होता है कि एक बार वाकर साल भर तक उसे हजम भी नहीं कर पाते हैं ?

प्रश्न १८.– | महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय ३२ में लिखा है कि – ‘‘चिकित्सक, मन्दिर का. पुजारी, दूध बेचने वाला, गायत्री जाप व संध्या करने वाला, वेतन लेकर पढ़ाने वाला, इन ब्राह्मणों को यज्ञदान व श्राद्ध में नहीं बुलाना चाहिये । यदि इनको बुलाया जावेगा तो दान का फल नष्ट हो जावेगा तथा यज्ञ-दान व श्राद्ध करने वाले के पितर घोर नरक में जाते हैं।

प्रश्न यह है कि क्या उपरोक्त कर्म करना, पुराण पढ़ना आदि महापाप

कर्म है जो वैसा करने वालों को महापापी माना है ? इनको श्राद्धादि में बुन्नाने का पाप तो श्राद्ध कर्ता द्वारा किया जाता है तो उसके कुकर्म का फल स्वयं विना किये पितरों को क्यों भोगना पड़ता है ?

प्रश्न १९.–

जबकि महाभारत वन पर्व अध्याय १३ श्लोक ७७ (गीता प्रेस) में स्पष्ट लिखा है –

आयुषोऽन्ते प्रहादेव क्षीण प्रायः कलेवरम् ।

सम्भवत्येव युगपदयोनो नास्त्यन्तराभवः’ ।। अर्थात् – एक शरीर त्यागकर दूसरे शरीर को जीव तत्क्षण ग्रहण कर लेता है । वह विना स्थूल शरीर के आश्रय बिना एक क्षण भी नहीं रहता है। गीता २-२२ ने भी जीव के तुरन्त पुनर्जन्म की पुष्टि की है। तब पुनर्जन्म प्राप्त जीवों के लिए श्राद्ध करना मिथ्या कर्म क्यों नहीं है ? क्योंकि प्रत्यक्ष में जन्मे हुए वालको व वड़ों को किसी को भी उनके पूर्व जन्म के स्थान में दिया हुआ श्राद्ध पदार्थ नहीं पहुँचता है ।

प्रश्न २०.–

बतादें कि पितर से तात्पर्य आपका जीवात्मा से हैं या शरीर से है। अथवा जीव संयुक्त शरीर से है ? यदि जीवात्मा से है तो मरने के बाद रिश्ता ही समाप्त हो जाता है । यदि शरीर से है तो वह भस्म होकर समाप्त हो जाता है । यदि जीव संयुक्त शरीर से है तो पितर जीवित पुरुष हुए न कि मृतक ! तब श्राद्ध मुर्दो के नाम पर गलत होगा ।

प्रश्न २१.–

भविष्य पुराण ब्राह्म पर्व अध्याय १८४ श्लोक ५६ में लिखा है

| ‘‘मृतान्न मधु माँसं च यस्तु भन्जीथ ब्राह्मणः ।।

स त्रीण्यहान्युपवसेदेका – हं चोदके वसेत् ।। अर्थात् – जो ब्राह्मण मुर्दे के निमित्त (श्राद्ध का) अन्न, शराब व मांस का सेवन करे वह तीन दिन उपवास करे और एक दिन जल में बैठा रहे तब शुद्ध होगा। इससे स्पष्ट है कि श्राद्ध भोजन किसी भी ब्राह्मण को नहीं करना चाहिए । तब क्या पौराणिक ब्राह्मण श्राद्ध खाकर उक्त प्रकार से प्रायश्चित करते हैं ?

‘‘लाजपतराय अग्रवाल” नोट – | श्री आचार्य डा० श्रीराम आर्य जी द्वारा रचित समस्त खण्डन मन्डनात्मक

 

राष्ट्रिय—एकता एक चिंतन – शिवदेव आर्य

राष्ट्रिय—एकता एक चिंतन
 (लेख)
– शिवदेव आर्य,
गुरुकुल पौन्धा, देहरादून
मो—8810005096
किसी भी राष्ट्र के लिये राष्ट्रिय एक ता का होना अत्यन्त आवश्यक है। राष्ट्रिय एकता राष्ट्र को सशक्त व संगठित बनाये रखने की अनन्य साधिका है। राष्ट्रिय एकता विभिन्नताओं में एकता स्थापित करने की व्यवस्थापिका है।
    प्रायः कहा जाता है कि वर्तमान में भारत की राष्ट्रिय एकता सर्वमत समभाव पर आश्रित है। सर्वमत समभाव से तात्पर्य है कि सभी मतों के प्रति समान आदर-भाव। मुसलमानों के धार्मिक कृत्यों में हिन्दुओं की और हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों में मुसलमानों का एकत्रित हो जाना आदि राष्ट्रिय एकता का स्वरूप बताया जा रहा है।
जबकि मेरी दृष्टि में यह राष्ट्रिय-एकता को विखण्डित करने का षड्यन्त्र है।
यही वह विकृत अवधारणा है, जिसने भारतवर्ष का विभाजन किया, भारत में असहिष्णुता का पाठ पढ़ाया, वन्दे मातरम् को बोलना साम्प्रदायिक बताया और भारत में आतंकवाद, नकस्लबाद जैसी महाबिमारी को जन्म देकर हॅंसते हुए भारतवर्ष को करुणक्रन्दन से युक्त होने पर मजबूर कर दिया।
    भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ-मन्दिरों, गुरुकुलों की व्यवस्था और आय पर सरकार का अधिाकार है, परन्तु भारत की किसी भी मस्जिद, गिरिजाघर या मदरसों की व्यवस्था पर सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करती। हिन्दुओं के बड़े-बड़े विद्वानों, सन्तों व विदुषियों को येन-केन प्रकारेण फ़ंसाकर जेल भिजवाया जाता है किन्तु मस्जिद तथा मदरसों के इमामों के दोष युक्त होने पर कुछ नहीं किया जाता। जामा मस्जिद दिल्ली के पूर्व प्रमुख इमाम अब्दुल्ला बुखारी को तीन-तीन बार न्यायालयों के समन के बावजूद हाथ तक नहीं लगाया गया। ‘हिन्दू लॉ’ को ‘गरीब की बहू सबकी भाभी’ मानकर छेड़खानी की जाती है किन्तु ‘मुस्लिम लॉ’ पर कोई हस्तक्षेप नहीं होता। भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी ‘मुस्लिम लॉ’ की दलिलें प्रस्तुत करता है। मुस्लिम हज-यात्रियों पर सरकार करोड़ों रुपया खर्च करती है किन्तु कुम्भ मेले पर टैक्स लगाती है। फि़र ये व्यवस्थायें राष्ट्रिय एकता को कैसे सिद्ध कर सकती हैं? ये कैसा न्याय है और कैसी व्यवस्था है? क्या यह न्याय व व्यवस्था  प्रत्येक भारतीय के लिए एक समान है? और यदि नहीं है तो राष्ट्रिय एकता कैसे स्थापित हो पायेगी?
    हमारा भारतीय संविधान विभिन्न धार्मों, जातियों, प्रान्तों में विभेद खड़ा करने में राष्ट्रिय-एकता का स्वरूप निर्धारित करता है। अहिन्दू एक से अधिक विवाह कर सकता है, किन्तु हिन्दू एक पत्नी रहते हुए दूसरा विवाह रचाएं तो संविधान का उल्लंघन है। संविधान शिक्षा, नौकरी, पदोन्नति में जातीयता के आधार पर प्रोत्साहन देता है। चिकित्सा, इंजीनियरिंग के क्षेत्र में 80 प्रतिशत अंक पाने वाले वंचित रह जाते हैं और 25 प्रतिशत अंक पाने वाले सर्वथा अयोग्य भी जातिगत आरक्षण के नाम पर प्रविष्ट हो जाते हैं। ये कैसी विस्मता है? क्या ये पक्षपात नहीं है?
    भारत में भाषायी स्तर पर राष्ट्रिय एकता की माला में अंग्रेजी को पिरोया गया है। भारत की प्रान्तीय भाषायें राष्ट्रिय-एकता में सक्षम नहीं और संस्कृत पुत्री हिन्दी जो राष्ट्रिय-एकता की पथप्रदर्शिका बन सकती थी, उसमें नेताओं को साम्प्रदायिकता और दक्षिण भारत का अपमान दृष्टिगोचर होता है। इसलिए भारत में राष्ट्रिय एकता के निर्धारण में विदेशी भाषा अंग्रेजी एक सूत्र बनी हुई है। देखो! भला जिस भाषा को भारत के सभी लोग जानते तक न हों तो उस भाषा से एकता कैसे स्थापित हो सकती है? अंग्रेजी भाषा राष्ट्रिय एकता की जब सूत्र बनी तो अंग्रेजी सोच ने सभी के मन-मस्तिष्क को गहरा पहार किया कि हम आज भी काले अंग्रेज बनकर जी रहे हैं। अपनी सभ्यता व संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन तक विदेशी वस्तुओं का प्रयोग तथा विदेशी सभ्यता का अन्धानुकरण हमारी राष्ट्रियता की पहचान बनती जा रही है।
    देश में व्याप्त साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद आदि सभी राष्ट्रिय एकता के अवरोधक तत्त्व हैं। ये सभी अवरोधाक तत्त्व राष्ट्रिय-एकता की दीवार को कमजोर बनाते हैं। इन अवरोधाक तत्त्वों के प्रभाव से ग्रसित होकर लोगों की मानसिकता क्षुद्र होतीं जा रही है, जो निज स्वार्थ  के चलते स्वयं को राष्ट्र की प्रमुख धारा से अलग रखते हैं। इन विघटनकारी तत्त्वों की संख्या जब और अधिाक होने लगती है तब ये सभी परस्पर राष्ट्रिय एकता को कमजोर बनाते हैं। इस प्रकार ये विभिन्नताएं जो हमारी संस्कृति की अमिट पहचान है, जिनपर हम गौरवान्वित होते हैं वे ही जब उग्र रूप धारण करती हैं तब यह हमारी एकता और अखण्डता की बाधाक बन जाती हैं। देश की एकता के लिए आन्तरिक अवरोधक तत्त्वों के अतिरिक्त बाह्य शक्तियॉं भी बाधाक बनती हैं। जो देश हमारी स्वतन्त्रता व प्रगति से ईर्ष्या रखते हैं, वे इसे खण्डित करने हेतु सदैव प्रयासरत् रहते हैं। कश्मीर की समस्या हमारी इन्हीं प्रयासों की उपज है, जिससे हमारे देश के कई नवयुवक दिग्भ्रमित होकर राष्ट्र की प्रमुख धारा से अलग हो चुके हैं।
    आज हमारे भारतवर्ष के लोगों में ऐसी क्षुद्र मासिकता विकसित हो गई है, जो अत्यन्त दयनीय है। यह देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि उच्चबुद्धिजीविवर्ग अपना भारतीय अस्तित्व ही खो देता है। अभी हाल में ही एक ऐसी घटना भीमा कोरे गॉंव हिंसा से सम्बन्धिात हम सबके सामने आयी, जिसने सभी को स्तब्धा कर दिया। इसमें जो आरोपित पकड़े गये हैं वे बहुत की योग्य शिक्षाविद् हैं परन्तु उनकी मानसिकस्थिति को देख आश्चर्य लगता है। देश के माननीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी सहित अनेक शीर्षस्थ नेताओं को समाप्त करने के लिए एक योजनाबद्ध तरीके से कार्य हो रहा था, किन्तु हमारी की सुरक्षा ऐजन्सियों ने मिलकर अलग-अलग स्थानों से योजनाकर्ताओं को पकड़ा लिया। इन आरोपियों में मानवाधिाकार कार्यकत्री सुधा भारद्वाज, मानवाधिाकार एवं पत्रकार गौतम नवलखा, एक्टिविष्ट वर्नान गॉन्जारन्वेस, एक्टिविष्ट एवं वामपन्थी वरबरा रॉव एवं वकील अरुण फ़रेरा जैसे उच्चशिक्षाविद् शामिल हैं। इससे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि इन लोगों के समर्थन में देश के बड़े-बड़े राजनेता व सामाजिक-कार्यकर्ता खड़े हैं। ऐसे राजनेताओं व सामाजिक-कार्यकर्ताओं को देखकर शर्म आती है? इनको देखकर हम कैसे कह सकते हैं कि हमारा देश राष्ट्रिय एकता में सम्बद्ध है? क्या ऐसे लोगों से देश की एकता व अखण्डता स्थिर रह सकती है?
    प्रत्येक राष्ट्र के लिए राष्ट्रिय एकता का होना अत्यावश्यक है। भारत जैसे एक असीम असमानताओं से भरे देश में एकता लोगों को जोड़ने वाले कारक के रूप में काम करता है। पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान हिन्दू-मुस्लिम मतभेद बढ़ाते हुए एवं कश्मीर में भारत विरोधी भावनाओं एवं उग्रवाद को उकसाते हुए राष्ट्रिय एकता को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है। इन्हीं विभाजनकारी नीतियों द्वारा अंग्रेजों ने सैकड़ों वर्षों तक भारत पर शासन किया। लेकिन जब भारत के लोगों ने इन मतभेदों से ऊपर उठकर ‘राष्ट्रवाद’ का प्रदर्शन किया तो अंग्रेज स्वयं ही भारत से जाने को उद्यत हो गये।
    लोकतन्त्रता की स्थिरता, स्वतन्त्रता की रक्षा एवं राष्ट्र के समग्र विकास के लिए राष्ट्रिय एकता और एकता निश्चित रूप से आवश्यक है। जब तक पूरा राष्ट्र एकता की भावना को अपनाने का प्रयास नहीं करता तब तक देश में कोई विकास या आर्थिक प्रगति नहीं हो पायेगी। इसलिए देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वे राष्ट्रिय एकता को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रिय एकता को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं।
    राष्ट्रिय एकता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए हम अपनी क्षुद्र मानसिकता से स्वयं को दूर रखें तथा इसमें बाधाक समस्त तत्त्वों का बहिष्कार करें। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हम जिस क्षेत्र, प्रान्त, जाति या समुदाय से हैं परन्तु उससे पूर्व हम भारतीय नागरिक हैं। भारतीयता ही हमारी पहचान है। इसलिए हम कभी भी ऐसे कृत्य न करें जो हमारे देश के गौरव व उसकी प्रगति में बाधक बनें…….

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है: आचार्य धर्मवीर

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है

वर्तमान समय में योग एक बहुत प्रचलित शब्द है, परन्तु अपने अर्थ से बहुत दूर चला गया है। योग के सहयोगी शब्दों के रूप में समय-समय पर कुछ शब्दों का प्रयोग होता रहता है- योगासन, योग-क्रिया, योग-मुद्रा आदि। इसी प्रकार कुछ अलग-अलग क्रियाएँ, जिनसे प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है, उनका भी योग नाम दिया गया है- राजयोग, मन्त्रयोग, हठयोग आदि। इनसे परमात्मा की प्राप्ति होना अलग-अलग ग्रन्थों में बताया गया है। मूलत: योग शब्द का अर्थ जोडऩा है। जोडऩा गणित में भी होता है, अत: संख्याओं के जोडऩे को योग कहते हैं। जिस कार्य से प्रयोजन की सिद्धि न हो, उसे वह नाम देना निरर्थक है। योग में किसी से जुडऩे का भाव अवश्य है। हम समझते हैं, योग प्रात:काल-सायंकाल करने की चीज है। योग चाहे आसन के रूप में किये जायें, चाहे साधना के रूप में। आसन के रूप में योगासन स्वास्थ्य के लिए किये जाते हैं, किन्तु पूरे दिन स्वास्थ्य-विरोधी आचरण करते हुए योगासन करके कोई स्वस्थ नहीं हो सकता, क्योंकि प्रात:काल-सायंकाल योगासन करके शरीर को सक्रिय तो कर लिया, परन्तु भोजन और विश्राम के द्वारा ऊर्जा का संग्रह किया जाता है। भोजन, विश्राम यदि ठीक नहीं तो आसन व्यर्थ हो जाते हैं। व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि से तो तन्त्र को दृढ़ता और सक्रियता प्रदान की जाती है। उसी प्रकार योग-साधना का प्रयोजन परमेश्वर से मिलना है, उससे जुडऩा या उस तक पहुँचना है। यदि योग परमेश्वर तक पहुँचने के उपाय का नाम है, तो विचार करने की बात यह है कि उस परमेश्वर की प्राप्ति का यत्न तो प्रात:काल सायंकाल घण्टा-दो-घण्टा किया जाये, उससे दूर होने के काम सारे दिन किये जायें तो कल्पना कर सकते हैं कि हम कब तक परमेश्वर को मिल सकेंगे? यह तो ऐसा हुआ जैसे प्रात:काल-सायंकाल अपने गन्तव्य की ओर दौड़ लगाना और दिनभर उसके विपरीत दिशा में दौडऩा। ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर तक भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार पूरे जीवन प्रात:-सायं सन्ध्या, योग करते रहने वाला कभी भी परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि वह उद्देश्य की ओर थोड़े समय चलता है, उद्देश्य के विपरीत अधिक समय चलता है। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य से दूर तो हो सकता है, परन्तु लक्ष्य तक कभी भी नहीं पहुँच सकता।

योग परमेश्वर तक पहुँचने का उपाय है, तो यह कार्य कुछ समय का नहीं हो सकता। जैसे कोई व्यक्ति यात्रा पर निकलता है, तो सभी कार्य करते हुए भी उसकी यात्रा, उसी दिशा में निरन्तर आगे-आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में वह सोता है, खाता है, बात करता है, किन्तु उसकी न तो यात्रा की दिशा बदलती है, न यात्रा पर विराम लगता है और वह देरी से या जल्दी गन्तव्य तक पहुँच ही जाता है। इसी कारण वेदान्त दर्शन में साधना कब तक करनी चाहिए- इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है- आ प्रायणात्तत्रापि दृष्टम्। लक्ष्य की प्राप्ति तक साधना करने का विधान किया गया है, अत: योग केवल प्रात:काल-सायंकाल की जाने वाली क्रिया नहीं है। यह जीवनरूपी यात्रा है, जिसका प्रयोजन परमेश्वर तक पहुँचना या उसे प्राप्त करना है। यह यात्रा तब तक समाप्त या पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये। यह जीवन-यात्रा कैसे सम्भव है? इसको बताने वाले अनेक शास्त्र हैं, परन्तु योगदर्शन इसका सबसे अधिक व्यवस्थित, उपयोगी एवं सरल शास्त्र है। इस सारे योगदर्शन को संक्षिप्त किया जाये, तो तीन सूत्रों में बाँधा जा सकता है, शेष शास्त्र तो इन सूत्रों का व्याख्यान है।

प्रथम योग कैसे होता है, यह सूत्र में कहा गया है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त की वृत्तियों के निरोध-अवरोध करने का नाम योग है। जब चित्त की वृत्तियाँ अर्थात् उनका बाह्य व्यापार रुक जाता है, तो प्रयोजन की प्राप्ति हो जाती है। अगले सूत्र में बतलाया गया है, वह प्रयोजन क्या है, जो चित्त के बाह्य व्यापार को रोकने से सिद्ध होता है? तो पतञ्जलि मुनि कहते हैं- तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानम्। चित्त का कार्य ही आत्मा को संसार से जोडऩा है, जब उसे संसार से जोडऩे के काम से रोक दिया जाता है तो वह बाहर के व्यापार को छोड़ कर भीतर के व्यापार में लग जाता है। उसके भीतर का व्यापार आत्मदर्शन कहलाता है, जब वह स्वयं में स्थित होता है तो अपने में स्थित परमात्मा का भी उसे सहज साक्षात्कार होता है, अत: योग परमात्मा के साक्षात्कार करने का नाम है। जब हमारा चित्त हमारी आत्मा में नहीं होता तो निश्चित रूप से विपरीत दिशा में लगा होता है। क्योंकि मन एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय नहीं रहता, अत: मनुष्य के सोते, जागते, वह कार्य में लगा रहता है, तब यदि वह अन्तर्मुखी नहीं होगा तो निश्चित रूप से बहिर्मुखी होगा। उसी को बताने के लिये पतञ्जलि मुनि ने सूत्र बनाया है- वृत्तिसारूप्यमितरत्र चित्त की वृत्तियों का निरोध न करने की दशा में चित्त सांसारिक व्यापार में ही लगा रहता है। यह स्वाभाविक और अनिवार्य है।

योग एक यात्रा है, जो जीवन के प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए की जाती है। इस योग को समझने के लिए एक और विधि हो सकती है। संक्षेप में योग क्या है- जैसे एक शब्द में योग को समझाना हो तो कैसे समझा जाये? एक शब्द में योग को जानना हो तो वह शब्द है- ईश्वरप्रणिधान। प्रणिधान शब्द का अर्थ है- समर्पण। जब कोई साधक सिद्ध बन जाता है, अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तब वह ईश्वर के प्रति अपना समर्पण कर देता है। जब व्यक्ति में समर्पण आता है, तब उसे अपना कुछ भी पृथक् रखने की इच्छा नहीं रहती, सब कुछ उसे उसका ही लगता है, जिसके प्रति वह समर्पित होता है। इसकी व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं- ऐसे साधक के कर्मों में- ईश्वरार्पणं तत्फलसंन्यासो वा, जैसे वह या तो स्वामी से पूछ कर कार्य करता है, उसके आदेश का पालन करता है और स्वयं कोई कार्य करता है तो उसे स्वामी के अर्पण कर देता है अर्थात् किये हुए कार्य के फल की इच्छा नहीं करता। ईश्वर और उसके मध्य स्वामी-सेवक का सम्बन्ध होता है, जैसे- श्रेष्ठ सेवक सदैव स्वामी को प्रसन्न करना चाहता है, सदा स्वामी के हित साधन में तत्पर रहता है, उसी प्रकार उपासक अपने उपास्य को प्रसन्न करने में तत्पर रहता है। स्वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता है, आज्ञा पालन कर प्रसन्न होता है, अपने को धन्य समझता है, कृत-कृत्य मानता है।

ईश्वरप्रणिधान का महत्त्व समझने के लिये योगदर्शन के सूत्रों पर चिन्तन करना अच्छा रहता है। सूत्रों पर विचार करने से पता लगता है कि योग के अंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द ईश्वरप्रणिधान है। योग दर्शन में साधना, समाधि की सिद्धि के बहुत सारे उपायों में पहला मुख्य उपाय बताया है, ईश्वरप्रणिधान। पतञ्जलि ने सूत्र लिखा है- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्- ईश्वरप्रणिधान से समाधि सिद्ध हो जाती है। व्यास कहते हैं- ईश्वरप्रणिधान से परमेश्वर प्रसन्न होकर तत्काल उसे अपना लेता है।

कुछ विस्तार से योग समझाते हुए योगदर्शन के दूसरे पाद में, जिसे साधन पाद कहा गया है, उसमें क्रिया योग और अष्टांग योग का व्याख्यान किया है। इन दोनों स्थानों पर ईश्वरप्रणिधान का उल्लेख किया गया है। क्रिया योग का पहला सूत्र है- तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग के तीन अङ्ग हैं। इसी प्रकार अष्टांग योग में सर्वप्रथम यम-नियमों की चर्चा की गई है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि। इन आठ अंगों में प्रथम दो हैं- यम और नियम। यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान। इस प्रकार नियमों में अन्तिम है- ईश्वरप्रणिधान। विस्तार से जब योग का कथन किया जाता है तो उसे अष्टांग योग कहते हैं। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है। कुछ कम विस्तार से योग के अंग बतलाये गये हैं- तप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है तथा समाधि पाद में एक शब्द में जब योग की बात की गई है तो भी कहा गया- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्। अर्थात् एक शब्द में योग ईश्वरप्रणिधान है। यही उपासना है।

उपासना का अर्थ समझने के लिए उपनिषद् में एक सुन्दर दृष्टान्त आया है। वहाँ कहा गया है- जैसे भूखे बच्चे माँ की उपासना करते हैं, उसी प्रकार देवता अग्निहोत्र की उपासना करते हैं। उपासना ऐच्छिक नहीं है, जब इच्छा हुई की, जब इच्छा हुई नहीं की। समय मिला तो कर ली, नहीं समय मिला तो नहीं की। उपासना एक आन्तरिक भूख है, एक आवश्यकता है, जिसे पूरा किये बिना रहा नहीं जा सकता। एक भूख से पीडि़त बालक को माँ की जितनी आवश्यकता लगती है, उतनी ही तीव्र उत्कण्ठा एक उपासक के मन में उपास्य के प्रति होती है। तब उपासना सार्थक होती है। मनुष्य जिससे प्रेम करता है, जिसे चाहता है उसके निकट रहना चाहता है, उसी प्रकार परमेश्वर को उपासक अपने निकट देखना चाहता है। सदा अपने प्रिय की निकटता की इच्छा करना ही उपासना है।

जनसामान्य के मन में उपासना करने को लेकर बहुत संशय रहता है। उपासना कैसे प्रारम्भ की जाये, चित्त की वृत्तियों को कैसे रोका जाये, मन परमेश्वर में कैसे लगे आदि-आदि। जो लोग उपासना के अभ्यासी हैं, उनके अनुभव नवीन साधक के लिये उपयोगी हो सकते हैं। जहाँ तक मन को एकाग्र करने का प्रश्न है, मन कभी खाली नहीं रहता, उसकी रचना प्रकृति से हुई है, अत: वह स्वाभाविक रूप से सांसारिक विषयों की ओर दौड़ता है। उसे हम रोकना चाहते हैं, वह रुकने का नाम नहीं लेता। ऐसी परिस्थिति में मन को नियन्त्रित करने का सरल उपाय है- अपने पूर्व कार्यों का चिन्तन करना। इसमें प्रतिदिन प्रात:-सायं अपने दिनभर, रातभर के कार्यों पर विचार करने का विधान तो है ही, यदि दिन में जब भी खाली समय मिले, अपने पिछले कार्यों के विचार में मन को लगाया जाये, तो मन सरलता से अपने कार्यों पर विचार करने में व्यस्त हो जाता है। आज के, कल के, सप्ताह के या मास के कार्यों पर चिन्तन करते-करते मन अनायास ही उपासक के नियन्त्रण में हो जाता है। मन अपेक्षा करने लगता है कि उसे किसी कार्य में लगाया जाये, उसी समय मन को वाञ्छित कार्य में लगाया जा सकता है। उपासना की सफलता और उपासना में गति लाने के कई सरल नियम हैं, उनमें उपासना के लिए स्थान और समय का निश्चित करना भी आता है। निश्चित स्थान और निश्चित समय उपासक को उपासना के  लिये प्रेरित करते हैं। उपासना में बैठने के बाद आसन को सहज भाव से बिना बदले उपासक कितने समय बैठ सकता है, यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुत: आसन में इन्द्रियों को एकाग्र करने में सबसे सहयोगी क्रिया यही है कि उपासक कितनी देर तक आँखें बन्द करके बैठ सकता है? इन सामान्य बातों से उपासना में रुचि और गति दोनों बढ़ती हैं।

अब हमारी समझ में आ सकता है कि योग केवल प्रात:काल और सायंकाल किया जाने वाला व्यायाम नहीं, अपितु चौबीस घण्टे आनन्द में रमण करने का नाम है। जब हम जागते हुये, प्रात:काल के समय ब्रह्ममुहूर्त में सन्ध्या करते हैं, तब आँख बन्द करके योग करते हैं। सूर्योदय के समय सबके साथ बैठकर घी, सामग्री, समिधा से अग्निहोत्र करते हैं, यह भी उपासना है। अग्निहोत्र के लाभ बतलाते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं- यज्ञ में मन्त्रों के पढऩे से परमेश्वर की उपासना भी होती है। हम कह सकते हैं- यह आँख खोलकर अग्निहोत्र करना उपासना ही है। इसी प्रकार चौबीस घण्टे के व्यवहार में भी उपासना होनी चाहिए, तब उपासना क्या होगी? तब उपासना यम-नियम का पालन करना, दुकान करना, खेती करना, मजदूरी करना, नौकरी करना, सब कुछ उपासना होगी। उस समय यम-नियमों का पालन हो रहा होगा। इस प्रकार अकेले उपासना करना सन्ध्या है, परिवार के साथ उपासना करना अग्निहोत्र है और पूरे दिन सबके साथ, सभी प्रकार का व्यवहार यम-नियम पूर्वक करना सार्वजनिक उपासना है। यही योग है।

सामान्यजन की धारणा रहती है कि मुक्ति तो परमेश्वर की वस्तु है, वह उसकी कृपा व उसकी उपासना से मिलती है। यह बात सब लोग मानते और समझते हैं परन्तु संसार के विषय में ऐसा समझते हैं कि यह ईश्वर की वस्तु नहीं है या उससे विपरीत वस्तु है, इसीलिए संसार की वस्तुओं को पाने के लिए हम ईश्वर के विपरीत चलना आवश्यक मानते हैं। जबकि सच तो यह है कि संसार भी उसी ईश्वर का है जिसकी मुक्ति है, फिर जिस योग की साधना से ईश्वर मुक्ति देता है, वही ईश्वर योग की साधना करने से संसार के सामान्य सुख से वञ्चित क्यों रखेगा? योग संसार से होकर मुक्ति तक जाने का मार्ग है, इसलिए संसार का सुख भी बिना योग के मिलने की कल्पना नहीं की जा सकती। इस प्रकार संसार योग का विरोधी नहीं, योग की प्रयोगशाला है।

योग जीवन की यात्रा है, इसमें कभी गति तीव्र होती है, कभी मध्यम और कभी मन्द। इतना ही सब उपासना काल के बीच अन्तर है। इसी भाव को कृष्ण जी ने गीता के निम्न श्लोकों में कहा है-

नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।

प्रलपन्विसृजन्गृöन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन? –डॉ. धर्मवीर जी

साभार :- परोपकारी पत्रिका 1994

ऋषि दयानन्द का हत्यारा कौन?

 

कुछ दिन पहले परली बैजनाथ में था, वहाँ यमुनानगर से श्री इन्द्रजित देव का दूरभाष आया, जिसमें सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश द्वारा दिये गये वक्तव्य की चर्चा थी। कल उनके द्वारा भेजी गई समाचार पत्रों की कतरने भी मिलीं, जिनमें अग्निवेश का वक्तव्य तथा पंजाब में उस पर हुई प्रतिक्रिया छपी है। अग्निवेश का यह वक्तव्य भड़काऊ और शान्तिभंग करने वाला है। यह बात उस पर हई प्रतिक्रिया से भली प्रकार जानी जा सकती है।

११ जून के पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ के पृष्ठ १ पर छपे अग्निवेश के वक्तव्य में कहा गया है कि वह आर्यसमाज का मुखिया हैं। और उन्होंने जोर देकर कहा- मुखिया होने के नाते वह वायदा करता है कि सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ दोबारा छापा जायेगा, इस ग्रन्थ को दोबारा छापने से पूर्व शिरोमणि कमेटी से वांछनीय सझाव मांगे जायेंगे। उसका यह भी कहना है कि सब धर्म महान् और सब ग्रन्थ पवित्र हैं।

इस वक्तव्य को पढ़कर ऐसा लगता है कि कल अग्निवेश पाकिस्तान में मुशर्रफ से मिलने जाये और तोहफे में दिल्ली भेट कर आये तो आप उसे क्या कहेंगे? यह तो उसकी मर्जी है, वह दिल्ली भेंट दे सकता है, परन्तु क्या अग्निवेश के कहने से दिल्ली मुशर्रफ की भेंट हो जायेगी?

सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में दिया गया वक्तव्य इसी कोटि का है।

पहले तो जो व्यक्ति अपने को आर्यसमाज का मुखिया बता रहा है, वह मुखिया है भी? इस व्यक्ति ने अपने जीवन में जो किया, चोर दरवाजे से, उलटे रास्ते किया। दूसरों के द्वारा बुलाये गये सम्मेलनों में जाकर उनका कार्यक्रम बिगाड़ना इस व्यक्ति फितरत रही है।

सभी संस्थाओं में धाँधली करना. चोर दरवाजे से घुसने की कोशिश करना जीवन भर का कार्यक्रम रहा उसी के चलते सार्वदेशिक सभा के भवन में उसने कब्जा कर लिया, ऐसा करके यदि कोई अपने को मुखिया कहे तो इसमें गलत कुछ भी नहीं। आज समाज और राजनीति में दादा लोग स्वयं ही मुखिया बन जाते हैं, उन्हें कोई मुखिया बनाता नही है।

इससे भी महत्त्वपूर्ण बात है कि इस मुखिया को पता नहीं है कि आर्यसमाज के संगठन की वैधानिक स्थिति क्या है, ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में तीन संगठन बनाये और तीन ही संविधान बनाये।

गोकरुणानिधि लिखी तो गोकृष्यादिरक्षणी सभा बनाई, उसके नियम और विधान बनाये, जीवन के अन्तिम दिनों में ऋषि ने परोपकारिणी सभा बनाई और उसका विधान और नियम बनाये।

इस अन्तिम सभा को महाराणा उदयपुर के यहाँ पर पंजीकृत कराया और सभा को अपनी समस्त चल, अचल सम्पत्ति सौंपी तथा अपने ग्रन्थ, यंत्रालय, वस्त्र, रुपये के साथ अपना उत्तराधिकार सौंपा।

इतनी ही नहीं, ऋषि ने अधिकांश ग्रन्थों की रजिस्ट्री भी कराई, जिससे कोई अग्निवेश उनके ग्रन्थों में उलट फेर न कर सके। चूंकि रजिस्ट्री कानूनन पचास साल तक चलता है, अत: अन्य लोग ऋषि ग्रन्थ पचास साल बाद ही छाप सके। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के सम्बन्ध में अग्निवेश को किसी तरह का वक्तव्य देने का अधिकार ही नहीं है, परन्तु अग्निवेश को नियम औचित्य की परवाह ही कब है? यह फुंस के ढेर में आग लगाकर तमाशा देखने का आदी है।

यह वक्तव्य गलत है, एक अनधिकृत व्यक्ति के द्वारा दिया गया है, परन्तु लोगों को क्या पता कौन अधिकृत है। और कौन नहीं है? समाज गुटों में बँटा है, मुकदमों में फँसा है, जो चाहे अपने को मुखिया कह सकता है, इसलिए इस गलत वक्तव्य का भी समाज पर गंभीर प्रभाव होना ही था, हो रहा है।

पंजाबी दैनिक स्पोक्समेन चण्डीगढ़ १२ जून के पृष्ठ ३ पर खबर जो बरनाला शहर के हवाले से छपी है, उसमें कहा गया है,

“आर्यसमाज के मुखिया अग्निवेश की ओर से अमृतसर में श्री गुरु अर्जुनदेव की चौथी बलिदान शताब्दी को समर्पित शिरोमणि कमेटी की ओर से कराये गये आर्यसमाज के ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को दोबारा शोध कर प्रकाशित करने की घोषणा का हार्दिक स्वागत करते हुए गुरु गोविन्द सिंह स्टडी सर्किल युनिट बरनाला के प्रधान प्रि. कर्मसिंह भण्डारी ने कहा कि इस ग्रन्थ का शोधन करते समय केवल गुरु नानक देव जी के बारे में लिखे अपशब्द ही नहीं हटाये जायें अपितु श्री गुरु अर्जुनदेव जी के महावाक्य ‘ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर’ के अर्थ का बिगाड़ रूप, श्री गोविन्दसिंह जी की ओर सज्जित व खालसा पन्थ के वरदान रूप में दिये ५ ककारों का उड़ाया गया मखौल तथा श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी के सत्कार प्रति लिखे अपशब्दों के अतिरिक्त भक्त शिरोमणि कबीर जी, दाददयाल, महात्मा बद्ध तथा जैन धर्म की की गई निन्दा के शब्द भी हटाये जायें।”

समाचारों की इन पंक्तियों को पढने के बाद यह समझना इतना कठिन नहीं है कि अग्निवेश ने अपने वक्तव्य से ऋषि दयानन्द को गलत साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अगले ही दिन १२ जून के पंजाबी अखबार दैनिक स्पोक्समेन पृष्ठ ३ पर जालन्धर के हवाले से छपी पंक्तियां गौर करने लायक हैं-

“अमृतसर में अग्निवेश की ओर से सत्यार्थ प्रकाश में संशोधन करने सम्बन्धी बयान पर प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए महान् चिन्तक श्री सी.एल. चुम्बर ने इस पुस्तक पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने की माँग की। उन्होंने  कहा कि इस पुस्तक में श्री गुरुनानक देव साहिब के अतिरिक्त भक्त कबीर जी, ईसाइयों, बौद्धों, जैनियों तथा मुसलमानों विरुद्ध काफी कुछ आपत्तिजनक शब्द लिखे गये हैं…। सत्यार्थ प्रकाश सम्बन्धी और विवरण देते हुए श्री चुम्बर ने बताया कि इसमें समाज को जातियों-पॉतियों में बाँटने वाली मनुस्मति के १५० से अधिक सन्दर्भ दर्ज हैं।” |

२६ जून २००६ को आउटलुक पत्रिका ने लिखा- चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता और प्रगतिशील संत कहे जाने वाले स्वामी अग्निवेश ने एक नया शिगूफा छोड़ दिया है। पंजाब में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा पंचम गुरु अर्जुन देव जी के ४०० वे शहीदो वर्ष को समर्पित एक सेमीनार को संबोधित करते हुए स्वामी अग्निवेश ने यह दावा कर दिया कि आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में सिखों के प्रथम गुरु गुरुनानक देव जी  के बारे में की गई टिप्पणियों को संशोधित किया जाएगा।

वर्ल्ड कौंसिल ऑफ आर्यसमाज के अध्यक्ष होने के नाते स्वामी अग्निवेश ने पंजाब के राज्यपाल जनरल (सेवा.) एस. एफ. रोड्रिग्स, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, एसजीपीसी के मुखिया अवतार सिंह मक्कड बोबी जागीर कौर की मौजूदगी में यह दावा किया कि सत्यार्थ प्रकाश का आगामी संस्करण संशोधित होगा और जिन बातों पर सिख बुद्धिजीवियों को आपत्ति है, उन अंशों को हटा दिया जाएगा।

उसके इस दावे से पंजाब में एक नई बहस उठ खड़ी हुई है, जिसने नई पीढ़ी के सिख युवकों में जिज्ञासा पैदा कर दी है कि स्वामी दयानन्द जी ने प्रथम गुरु श्री गुरुनानक देव जी के बार में ऐसी कौन-सी आपत्तिजनक बातें लिखी थी जिन्हें इस वक्त हटाने की जरूरत पड़ गई है? दूसरी तरफ पुरानी पीढ़ी के सिखों को शिरोमणि अकाली दल व आर्यसमाज के बीच पुराने विवादों का वह दौर याद आ गया है, जब अकालियों व आर्यसमाजियों के बीच तनातनी के रिश्ते थे |

 

 अग्निवेश को आर्यसमाज के सिद्धान्तों में कोई आस्था नहीं रही। ऋषि में कोई निष्ठा नहीं, उसकी आर्यसमाज को समाप्त करने के लिए विधर्मी और राष्ट्र विरोधी लोगों की ताकत बढ़ाने वाले कार्यकर्ता की छवि है। जो व्यक्ति सब धर्मों को पवित्र और सब धर्म ग्रन्थों को महान् बता रहा है, वही व्यक्ति ऋषि दयानन्द को और सत्यार्थ प्रकाश को गलत साबित कर रहा है। उसकी नजर में वैदिक धर्म महान् नहीं है, सत्यार्थ प्रकाश उसके लिए पवित्र नहीं है।

अग्निवेश का यह कोई आर्यसमाज और दयानन्द को गलत साबित करने का पहला प्रयास नहीं है, व्यक्तिगत रूप से और मंच से ऐसी बातें पहले भी अनेक बार कही गई हैं। परली बैजनाथ में कार्यकर्ताओं से विचार-विमर्श के दौरान दिल्ली सभा के प्रधान श्री राजसिंह ने बताया था कि हवाई जहाज में यात्रा करते हुए सत्यार्थ प्रकाश से १३वें व १४वें समुल्लास को निकालने की चर्चा अग्निवेश ने की थी। आर्यसमाज को सन्ध्या एण्ड हवन कम्पनी कहना इन्हीं लोगों ने शुरू किया था।

पिछले दिनों स्वामी सम्पूर्णानन्द करनाल वालों ने एक प्रसंग सुनाया। जब उड़ीसा में एक पादरी को जिन्दा जलाया गया था, अग्निवेश ने एक यात्रा निकालने की तैयारी की थी। इस व्यक्ति ने स्वामी सम्पूर्णानन्द को यात्रा के लिये निमन्त्रित किया।

उन्होंने कहा- उससे अधिक हिन्दू कश्मीर में मारे गये हैं, उनके लिए यात्रा निकालना पहले आवश्यक है।

अग्निवेश ने कहा ईसाई अल्पसंख्यक हैं, अत: उनका समर्थन जरूरी है।

स्वामी सम्पूर्णानन्द ने कहा- कश्मीर में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं, इसलिए उनका ध्यान रखना अधिक जरूरी है।

इसका उत्तर अग्निवेश के पास नहीं था, क्योंकि समर्थन कमजोर का नहीं ईसाई का करना था। यहाँ स्मरण दिलाना उचित होगा कि अग्निवेश की सिफारिश पर चर्च ने धर्मबन्धु को २२ लाख रुपये का सहयोग किया था।

इससे अग्निवेश और चर्च के रिश्तों का अनुमान लगाया जा सकता है। अमेरिका वैदिक धर्म का प्रचार करने वालों को राय बहादुर नहीं बनाता, राय बहादुर बनने के लिए उनकी सेवा उनकी शर्तों पर करनी पड़ती है।

इस व्यक्ति की न संगठन में आस्था है, न सिद्धान्त में। इस व्यक्ति ने अपने जीवन में संगठन और सिद्धान्त को जितना तहसनहस किया जा सकता था, उसे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर इस व्यक्ति को जो मिला, उसके पीछे समाज में और संगठन में सिद्धान्तहीन, स्वार्थी, कमजोर लोगों का होना ही मुख्य कारण रहा है। जिस समय इस व्यक्ति ने सार्वदेशिक सभा भवन पर कब्जा किया, उस समय आर्यजनता को दु:ख हुआ, परन्तु जो गये उनको समाज के लोग स्वार्थी और कमजोर मानते थे। समाज के लोग सिद्धान्तहीन होते जाते हैं, तभी दुष्ट लोग नेतृत्व पर काबिज होते हैं।

सार्वदेशिक भवन में बैठकर तथा उससे पहले भी संगठन को विकृत करने के लिए अग्निवेश ने मुसलमान, ईसाइयों को आर्यसमाज का सदस्य बनाने की वकालत की थी। ऐसा करने वालों के बारे में हमें स्पष्ट होना चाहिए जो कि स्वार्थी दष्ट प्रकृति का होता है उसे संस्था, समाज या देश के नुकसान की चिन्ता नहीं होती। यह कहना कि ईसाई मुसलमान रहते हुए वह आर्यसमाजी हो सकता है तो उससे भी आसान है सनातनी रहते हुए आर्यसमाजी रहना। अग्निवेश की नजर में सनातनी, मूर्तिपूजक, पुराणपन्थी का आर्यसमाजी होना रुचिकर नहीं होगा, जबकि वेद विरोधी सिद्धांत

 

विरोधी ईसाई और मुसलमानों का आर्यसमाजी होना उसे सही लगता है। वास्तविकता यह है कि ईसाई, की उपासना करने वाले व्यक्ति को आर्यसमाजी कहना बौद्धिक व्यभिचार व सैद्धान्तिक वेश्यावृत्ति है। या वेश्या, स्त्री के नाते तो एक है, परन्तु अन्तर इतना ही हैं कि एक की एक के साथ निष्ठा है, दूसरा निष्ठा नहीं, उसकी निष्ठा पैसों के साथ है।

ऐसे ही अग्निवेश की निष्ठा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ लक्ष्य की पूर्ती में है अतः उसका यह कथन कि कोई मुसलमान, ईसाई, जड़ पूजक, साकार उपासना वाला व्यक्ति हो सकता है, यह केवल बौद्धिक वेश्यावृत्ति है और कुछ नहीं।

इस बात की पुष्टि में एक और प्रसंग उद्धृत करना उचित रहेगा। दिसम्बर मास में नागपुर में राष्ट्रीय संगोष्ठी का प्रसंग। गोष्ठी की समाप्ति के दिन सायंकाल भोजन के पश्चात् डॉ. रामप्रकाश और अग्निवेश चर्चा कर रहे थे। अग्निवेश को डॉ. साहब से शिकायत थी।

अग्निवेश ने आचार्य बलदेव जी और आचार्य विजयपाल जी को हवालात पहुचाने का षड्यंत्र रच रखा था, जिसे डॉ. राम प्रकाश जी ने अनुचित मानकर असफल करा दिया। उनका कहना था- उनके जानते-बुझते आर्यसमाज की साधु गलत आरोप में हवालात भेजा जाय, यह कभी संभव नहीं। अग्निवेश से कहा गया- आचार्य बलदेव साधु हैं, उनके विरुद्ध ऐसा मिथ्या आरोप उचित नहीं, तो अग्निवेश का उत्तर था- कोई भी गेरवे कपड़े से क्या साधु हो जाता है? अब कोई बताये कौन साधु है या नहीं- यह प्रमाण-पत्र भी ढोंगी साधु से लेना पड़ेगा?

इससे इस व्यक्ति की मानसिकता का पता चलता है।

पाठको को याद होगा, अग्निवेश डॉट काम पर वर्षों तक वैदिक धर्म और ऋषि विरोधी बातों का प्रचार-प्रसार होता रहा। जब आपत्ति हुई तो मासूम कहता है, ये तो हमारे नाम से किसी ने बना दी है। हर बार अपराध करना और लोगों ने मुझे गलत समझा है- कहकर पीछा छुड़ाना, क्या यह लोगों को बेवकूफ बनाने वाली बात नहीं है? अग्निवेश का सिद्धान्तों और स्वामी दयानन्द से कितना प्रेम है.

इसके उदाहरण रूप में जनसत्ता दिनांक ६ अक्टूबर १९८९ का निम्न सन्दर्भ पढ़ने लायक है- “मुकदमें में स्वामी अग्निवेश ने मनु को देशद्रोही करार देते हुए उसे समाज का प्रबल शत्रु बताया। उन्होने कहा कि न्यायालय में जात-पाँत और छुआछुत के जन्मदाता मनु की प्रतिमा की स्थापना अन्यायपूर्ण है।” क्या ऐसा व्यक्ति ऋषि दयानन्द के सम्मान की रक्षा कर सकता है? अग्निवेश के बारे में सत्यार्थ प्रकाश की एक पंक्ति बड़ी सटीक लगती है

“अन्तः शाक्ता बहिश्शैवा: सभा मध्ये त वैष्णवाः’।

जहाँ तक दूसरे लोगों द्वारा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप करने का प्रश्न है, उन लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऋषि दयानन्द का स्थान किसी समाज सुधारक की तुलना में कम आँकने से ऋषि दयानन्द का कुछ बिगड़ने वाला है, परन्तु यह काम आकलन कर्ता के बुद्धि के दिवालियेपन का द्योतक अवश्य है।

ऋषि दयानन्द ने जो लिखा और जो कहा, छिप कर नहीं कहा, समाज में उन वर्गों में जाकर कहा। उनका उद्देश्य देश और समाज के हित में वास्तविकता का बोध कराना मात्र था, किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं। उन्होंने किसी बात को अच्छी लगने पर उसकी प्रशंसा में कोई कमी नहीं छोड़ी।।

सत्यार्थ प्रकाश पिछले डेढ़ सौ वर्षों से पढ़ा-पढ़ाया जा रहा है, क्या पहले लोगों की समझ नहीं थी? मालूम होना चाहिए कि पटियाला नरेश के सामने शास्त्रार्थ के समय यही प्रश्न उठा था। उस समय भी यही उचित समझा गया था कि गुरु भी बड़े हैं स्वामी जी भी बड़े। किसी ने किसी को कुछ कहा-सुना तो उसके लिए अनुयायियों को लड़ना उचित नहीं है।

आज तो नेता बनने के चक्कर में लोग ऐसी बात ढूँढने की कोशिश में रहते हैं, जिससे समाज में विघटन और संघर्ष पैदा हो और उनको नेतागिरी करने का मौका मिले। हमें स्मरण रखना चाहिए कि सिक्खों में बहुत लोग आर्यसमाजी थे, क्या वे गुरुओं का महत्त्व नहीं मानते थे या शहीद भगतसिंह के पिता, चाचा को सत्यार्थ प्रकाश समझ में नहीं आता था? जब तब आपत्ति नहीं हुई तो आज क्यों होनी चाहिए?

जो व्यक्ति सत्यार्थ प्रकाश से आपत्तिजनक वक्तव्य हटाने की बात कर सकता है, क्या वह कुरान की उन आयतों को जिसे न्यायालय ने भी आपत्तिजनक माना है, उन्हें हटाना तो दूर हटाने की सिफारिश भी कर सकता है या नहीं, क्योंकि उसकी नजर में इस्लाम महान् धर्म है और कुरान पवित्र धर्म पुस्तक है। यहाँ वह उनका वकील है। ईसाइयों द्वारा देश में किये जा रहे षड्यन्त्रों की वह वकालत करता है, क्योंकि राजनीति में स्थान चाहिए।

क्या गुरु गोविन्दसिंह के शब्दों को वह पुस्तक से निकलवा सकता है, जिनमें तुर्क को गो-ब्राह्मण घातक कहकर उनके नाश की प्रतिज्ञा की है

जगे धर्म हिन्दू सकल धुन्ध भाजे

 

The Swastik Symbol : Shri Virjanand Devkarni (translate by :Vinita Arya)

The Svastik Symbol:The The Most Ancient Depiction of AUM – Acharya VirjanandDevkarni (including PDF of his groundbreaking Hindi book – Svastik Chinn (AUM KaPracheentamRoop)

AUM

In the dharmic tradition of India (or Aryavart to give its ancient name), the marking of the Svastik symbol has been going on since very ancient times.The symbol has been found mainly and repeatedly on India’s ancient coins, seals, utensils and homes.At India’s most ancient, historical sites – MohenjoDaro, Harappa and Lothal, seals bearing the anticlockwise left handed facingsymbol  swastik

have been found at excavations. Evidence in the form of pictures of these ancient seals can be seen at the end of this article.

In addition to this, the Svastika symbol can be found formed on ancient Indian stamped (punch marked) coins, cast metal copper seals, seals of Ayodhya, Arjunayangan, Eran, Kaad, Yaudheya, Kuninda, Kaushambi, Takshashila, Mathura, Ujjaini, Ahichhatra, Agroha, ancient statues, cooking vessels, rubies, prayer ritual vessels (such as the yajnakund – a vessel for the performance of yajna a purificatory fire ceremony), spoons, ornaments and weapons. The Svastika symbol can be found in abundance on ancient historical artefacts belonging to the Maurya and Shunga Dynasty. On a Buddhist statue obtained from Japan the Svastika symbol can be seen drawn on its chest. Even today in the life of ordinary Indian people one can see that the symbol’s use is widespread. Every day one can see the symbol on houses, temples, cars etc. and on other types of vehicles. Even Hitler had made this symbol his own.

The Svastika symbol has also been found in its many forms outside India on ancient remains in countries such as China, Japan, Korea, Tibet, Babylonia, Austria, Chaldea, Persia, Phoenicia, Armenia, Laconia, Greece, Egypt, Cyprus, Italy, Ireland, Germany, Belgium, America, Brazil, Mexico, Africa, Venezuela, Assyria, Mesopotamia, Russia, Switzerland, France, Peru, Columbia etc.

A question worth pondering over now is; what is the real nature of the Svastika symbol which has been found in such great numbers over such extensive areas of land?

After much confusion, discussion, debate and deep research, I have arrived at this conclusion that the Svastika symbol is an amalgamation of two “AUM” signs written in an artistic style in the ancient known script of Brahmi.

The greatest distinguishing feature of the Svastika symbol is that if looked at from any of the four sides it always reads ‘AUM’.

In ancient India there were sixty four writing systems of which the Brahmi script was one of them.  The way in which “AUM” was written in this script was as follows –

1= AUM2= M  ( • ) signifies the “anusvar” or the accompanying nasal sound or letter M.

After adding both together its form is like this: 3.

AUMhere is formed by the joining of 1=AU and 2= M or the (• )anusvar.

If this AUM sign is also written twice in an artistic manner then its form becomes as shown below-

4

The AUM form in Figure 1 can be seen on Arjunayangan and Ujjaini seals (see the AUM (Svastik) form on page 20 of the pdf Hindi book). The AUM (Svastika) form in Figure 2 and the clockwise right handed form like this 5  are seen nowadays throughout India.

Due to ignorance of the script, writers have changed it during the interval of thousands of years from the left handed to the right handed form. Of the Svastika symbols drawn by artists today only fifteen percent of the symbols are left handed which is interesting as only a few right- handed examples of Svastika have ever been found.

As the writing of the ordinary script changed, other prevailing customary writing styles also changed. However among ordinary people the deeply ingrained AUM (Svastik) word remained unchanged. For thousands of years it has existed in its ancient form having been given a spiritual wrapping. Nevertheless as seen below, from the fifth to fourteenth centuries the symbolused to depict AUM changed and the examples given below are very different from the ॐ symbol which is currently used –

7

This symbol ॐrepresenting AUM is its changed form.Some ignorant people call it the “pauranik AUM” and regard ‘ओ३म्’ as the AUM belonging to the Arya Samaj. The only difference however is in the scripts. Ordinary people continue to this day to write the ॐ symbol which is about a thousand years old.  There are nevertheless those who depict the symbol ॐ by writing ‘ओ३म् in the modern day prevailing script, like these examples of AUM being written in different modern-day scripts–

8

In this way the difference between ॐ and ओम् is only that of scripts used over a passage of time and not one rooted in sectarian differences.  The left handed AUM 9symbol was changed to the right handed AUM symbol 10  due to ignorance and in some places its anusvar has been removed.  Similarly today the symbols ऊँ and the inverted11are written on both sides of some cars, houses, doors. This dual method of writing seems to have been adopted when writing AUM in its Svastika form.

 

Some people are under the misconception that the Svastika symbol should only be drawn in its right handed form like this:  13  because it is a spiritual symbol and being so it should only face the right. The main argument is that if it were left-handed it would be inauspicious. In the spirit of good will it is humbly asserted to the proponents of such an argument, that this supposed difference between the left and right is pure fantasy and it bears no connection with any auspicious and inauspicious form. The left handed form is adopted also in the Arya writing style. While starting to write the symbol from the right occurs in the Kharosthi, Arabic/Urdu, Farsi, Sindhi etc. scripts which are derived from the scripts of non-Arya, Ashura countries.

The prevalence of the Svastika symbol was such that the rulers Sher Shah Suri, Islam Shah Suri. Ibrahim Shah Suri and even a Mughal ruler marked their coins with this symbol. It can also be found on the seals of the Maharaja of Jodhpur Jasvant Singh’s contemporary, the ruler of Pali, Hemraj.

On numerous ancient Indian inscriptions, copper plates and manuscripts, the line ‘AUM svasti” is written. Moreover the traditional blessings that are given at the end of the yajnas which are part of Indian rituals are “AUM svasti, AUM svasti, AUM svasti”. In such places the AUM form is regarded as being one that lends auspiciousness and it is supposed to bring good fortune. The meaning of AUM and Swasti have become so intertwined that it has become difficult to identify the difference between the first and second. For this reason in religious rituals the meaning of ‘AUM svasti’ is on the one hand ‘in the remembrance of AUM, Paramatma (Supreme Spirit), the bestower of good fortune’ and on the other hand it is ’may AUM, Paramatma look to our welfare’.

Maharishi Yaskacharya writes in the ‘Nirukta’ that:

Svasti – ityavinashinam

Astirabhipujitahsvastiti

Nirukta 3.20

This sukta from Nirukta means that Svasti is the name of the indestructible. There are three indestructible things in this universe – matter, the soul and God (prakriti, jeev and Ishvar). Matter cannot by itself be for the welfare of the soul because, matter is inert. The soul is not the embodiment of well-being as it can only wish for its own well-being.  What cannot be attained from within can be taken from others.  For this reason Isvar, God, the embodiment of well-being, who acts for our welfare and so delivers all remaining justice, is the only accomplished one,  after whom ‘svasti’ and its representation ‘AUM’ can be named.  This explains why the ancient Aryans at the beginning of each auspicious deed remembered God in their oral and written depiction of the ‘svasti’ form. AUM Svasti in its written form has gradually over time become just a religious symbol, and its written script-related form has become largely forgotten.  God acts for our well-being, he makes us happy, keeps us healthy and in order to explain these kinds of sentiments, the word AUM was changed into the Svastika symbol. So in fact it is a symbol depicting God. In India today, five forms of the Svastika symbol are prevalent. For instance –

14

Indian civilisation until 5,000 years ago was spread throughout the whole world. It is for this reason that among many relics discovered the Svastika symbol has also been found in many different places and in many places it has also been seen that the symbol is still in everyday customary use. The Svastika symbol and its different forms as seen throughout the world are as follows –

15

In Figures 10 to 13 this type of circle ० represents the anusvar of AUM, in other words (•) represents the ‘m’ sound.

The greatest distinguishing feature of the Svastika symbol is that whichever of the four sides you look at it from it still reads ‘AUM’ in the Brahmi script. In this way this beautiful unparalleled symbol really succeeds in expressing God’s omnipresence.

In Ahichatra (modern day Bareilly), the capital of ruler Maharaja Drupad’s and Guru Dronacharya’s kingdom of Panchal, a pendant from a necklace has been found.  In the middle of the pendant there is a circle like this and in the middle of that circle formed in the Brahmi script is  = the ‘AU’ sound. Around it there is a circle formed out of  = ‘m’ symbols. This is another clear example of AUM in the form of a Svastika. This type of AUM has also been written like this –

16

1                              2                              3

 

Nowadays AUM can be written in Devanagari and Roman letters like this –

ओम् = OM

 

The above brief description establishes to a higher degree that the Svastika AUM symbol was spread throughout the world over an extensive area and  even today it is still being used everywhere in India. However those that draw and use this symbol today are altogether unaware of the secret that this symbol was once the ancient form of AUM.

In order to establish the antiquity of the Svastika symbol, photographs of seals obtained from excavations from ancient historical sites in India have been given from which the reader will see and understand its various forms very easily (for more details and for the photographs mentioned in this article please see the pdf book SvastikChinn  -AUM KaPracheentamRoopby Acharya VirjanandDaivkarnibelow).

Author’s Biography

Shri VirjanandDevkarni was born at home to his mother ShrimatiSariyandevi and father Shri DevkaranYadav on 2 December 1945 in the village of Bhagadyana in the Mahendragadh district of Harayana. Having completed the eighth standard at Yadavendra High School, Mahendragadh, he entered GurukulJhajjar in 1951 and was awarded subsequently the titles of Siddhantvachaspati, Vyakaranacharya, Darshanacharya and Itihasacharya.

He has through GurukulJhajjar’s Haryana Literature Institute (HarayanaSahityaSansthan) edited books on subjects such as the Ved, Darshan and Upanishad. Under the close guidance of Swami OmanandSaraswati he has collected artefacts belonging to ancient India for GurukulJhajjar’sHarayana State Archaeological Museum and has provided praiseworthy assistance in publicising them. In the current Arya “world” there is no-one who can match his expert status in deciphering and analysing scripts such as Brahmi, Kharosthi and Yavnani.  The Government of India’s Department of Archaeology invites him to decode what is written on coins and seals that have been found during its archaeological excavations. Some of his important works are –

  1. Maharishi DayanandaurUnkaSiddhant (Maharishi Dayanand and his Principles)
  2. PrachinBharatiyaItihaskeSrota (The Source of Ancient Indian History)
  3. QutbMinarEkRahasyaudghatan (An Uncovering of the Secret of QutabMinar)
  4. MahabharatYuddh, Mahatma Buddh, Shankaracharya, Sikanderaur Harsh adikeKalkram Par VisheshRachnaye (Special works on eras such as the Mahabharat War, Mahatma Buddha, Shankaracharya, Alexander and Harsh)
  5. SvastikChinn – AUM KaPracheentamRoop(The Swastik Symbol: The most Ancient depiction of AUM)
  6. Agaroha’skiMrinmurtiyan (Agaroha’s Clay Sculptures)
  7. PrachinTamrpatraevamShilaLekh (Ancient Copper Plates and Stone Inscriptions)
  8. Bharat kePrachinMudrank (India’s Ancient Mint (Part 1))

He is the founder of the Ancient Indian History Research Council based at GurukulGautamnagar, Delhi. He has through the Council edited and published the following books –

  1. Prachin Bharat me YaudheyGanrajya (The Yaudheya Republic in Ancient India)
  2. Panchal RajyakaItihas (The History of the Panchal Kingdom)
  3. Maharishi DayanandkeDharmopdesh (The Teachings of Maharishi Dayanand)
  4. AadimSatyarth Prakash Aur Arya SamajkeSiddhant (The First Satyarth Prakash and the Principles of the Arya Samaj)
  5. Vedaaur Arya Samaj (Ved and the Arya Samaj)
  6. AumkarNirney (The Aumkar Judgment)

He has with the help of Paropkarini Sabha Ajmer compared Maharishi Dayanand’s famous book Satyarth Prakash with the original manuscript of this book and got the most correct version published. Swami Omanand gave him his full support when he got the Satyarth Prakash inscribed on copper plates. This copper plate version of the Satyarth Prakash is now in the Gurukul Jhajjar Museum. He has contributed through GurukulGautamnagar to the excavation of copper plates concerning the Yajurved, Samved, Ashtadhyayi, Linganushasan and Phitsutra.   

The translator of Shri VirjanandDevkarni’s work “The Swastik Symbol: The most Ancient depiction of AUM” is Vinita Arya, a Freelance English Translator and Teacher committed to the Vedas and bringing its message to everyone through translating key Vaidik works into English.

 

PADMAVATI The Flame of Valour :Vinita arya

The Flame of Valour “Padmavati” – Vinita Arya – Part 1

 

The country’s modern uneducated historians are creating a new folk tale regarding Queen Padmavati. Blinded by money and fame these “experts” are bent on selling the honour of their ancestors.

Today the young people who should be coming forward to defend the honour of these brave men and women, have instead sacrificed their characters on the altar of materialism.

So called patriotism today has become infested by casteism and selfishness.

A poet has quite rightly said “it is but a stone, the heart which has no love for its country, which is not full of emotions flowing with feeling”.

Sanjay LeelaBhansali, the director of the soon to- be released film “Queen Padmavati” has dared to twist Queen Padmavati’s history and show such distortions in his film.

The patriots who should be opposing this however, have instead just called this matter a caste issue and are sitting quietly. The reason for their silence must be their ignorance of the real life story of Queen Padmavati.

The historians of today just rely on Mohammed Jayasi’s “Padmavat” and unfortunately ever since the making of Bhansali’s romance and action film their ill deserved reputation has only increased due to the film being riddled with references from this inaccurate book.  Many articles on Queen Padmavati exist on social media, but the sad fact is that there is an alarming lack of research seen in such articles.

In these two articles I have made an effort to reproduce and use some parts of the research work undertaken on this subject by writers such as GaurishankarHeerachandOjha and DamodarlallGarg, whose works are evidence based. Queen Padmavati was not only a valorous fiery woman in her time, but she is very much a burning symbol of bravery even today.

 

The lands of Rajasthan are not made up of sand, but it is the never ending birthplace of brave men and women of iron-wills.

 

History is witness to one of the most nationally and internationally famous among these valiant souls – Queen Padmavati or Padmini. In other words Queen Padmavati is a synonym for Chittorgarh Fort which is well known for its association with this brave queen. Both Queen Padmavati and Chittorgarh Fort have played a huge part in defending the nation and protecting the honour of women.

Influenced by this a bard once quite rightly said

“Garh to Bas Chittorgarh, baki Sab Garhiya” (Chittorgarh is theFort and all the rest (forts) are just fortresses. Padmavati is the Queen and all the rest are …”).

It is said by writers and historians about Queen Padmavati or Padmini that she was such a beauty that anyone on seeing her would be captivated by her. As for her bravery and intellect very few have lauded these aspects of her character.

The Mughals who were always tormented by Indian bravery, interfered with history by adding their biased insertions to show Mughal valour instead.

This conspiracy to distort history continued two hundred and fifty years after Queen Padmavati’s “jauhar”, self-immolation at Chittorgarh, when in 1540, Malik Mohammed Jayasi’s “Padmavat” was written.

Before his work, it is said that a wandering bard called Vain composed a piece on the Queen, however this was never published. Since Jayasi’s composition no serious research has been done on the life of Queen Padmavati and Jayasi’s work has been followed blindly ever since. In order to destroy the historical authenticity of Queen Padmavati’s story, her husband Ratan Singh is described as being from Sri Lanka, and furthermore he is portrayed as a sensual character.

Unintelligent people have increased the period that he was active in this story from one year to twelve years during which he is described as wandering around as sadhu.

He is described as going to Sri Lanka and as having married Queen Padmavati there. Other writers have just followed this line without questioning its truthfulness and in doing so have also supported other myths from Jayasi’s work namely that; Ratan Singh fulfilled the condition of showing his Queen to the attacker AlauddinKhilji, Padmavati was more of a beauty than a fierce warrior and that she placated a royal servant called RaghavChetan with a gift.

In reality the evidence of accounts of Queen Padmavati’s bravery and that of the traditions of her royal household tell a very different story. In reality, one can only imagine the robustness of Queen Padmavati’s bravery. In the articles that follow, the true history of Queen Padmavati will be told and the distortions of so called historians and writers on this subject will be exposed.

 

 The Flame of Valour“ Padmavati” – Vinita Arya – Part 2

 

Malik Mohammed Jayasi wrote a poem called “Padmavat” about King Ratan Singh and Queen Padmavati and today it is that poem which is at the centre of controversy and much opposition.

Due to there being very few instances of their lives being documented in history, Jayasi’s “Padmavat” has been accepted by many as a serious historical book.

His tale in fact bears greater resemblance to the highly imaginative and fictional romances we see today than any genuine historical work.

Evidence of the indifferent attitude of Indian historical researchers to this subject is found in the way that they have so easily accepted “Padmavat” as being an authoritative and authentic depiction of the bravery of the Rajputs.

This is despite the fact that this work was written by a poet of the Mughal court who lived two hundred and fifty years after the “jauhar” or the self-immolation of Queen Padmavati. The reason why it is so disheartening to see ‘Padmavat” regarded as authentic today and to see a film actually based on this work is because this poem has completely destroyed the honour the dignity, the pride and the traditions of the Rajputs.

Jayasi has written quite a lot in the “Padmavat” but in brief the story can be summarised as follows.

The daughter of King Gandharvasen of the kingdom of Singhal was called Padmini. This princess loved to keep birds.

Among her birds was a parrot called Heeramun, who understood and spoke the language of humans. One day a hunter caught this parrot and in his greed he sold the parrot to a Brahmin. The Brahmin in turn gave it to the King of Chittorgarh, Ratan Singh. One day the wife of Ratan Singh was praising her own beauty when the parrot began to praise the beauty of Padmini. Ratan Singh having heard the parrot’s praises became determined to have the princess for himself and went to the kingdom of Singhal, which is in modern day Sri Lanka.

As he was a lone warrior, King Ratan Singh abandoned the idea of war and decided to spend twelve years as a sadhu, or wandering sage during which time he made many attempts to try and get Princess Padmini. One day the parrot Heeramun, escapes from Ratan Singh and goes to Princess Padmini and he tells her about Ratan Singh. By just listening to Heeramun’s account she falls in love with Ratan Singh. One day, both Ratan Singh and Padmini meet and Ratan Singh on seeing Padmini’s beauty faints. King Gandharvasen witnessing the princess’ love for him, respects his daughter’s wishes and both Ratan Singh and Padmini get married. Ratan Singh then takes Padmini back to Chittorgarh.

Now, in order to make this tale more interesting and to link the royal couple to Khilji, Jayasi adds another character, RaghavChetan to the story, One day this person enters the court of King Ratan Singh and requests employment from him. The king gives him employment but later finds out that RaghavChetan, knows black magic.

He removes him from the court, however Queen Padmini takes pity on him and personally gives him money. When Raghav sees the Queen in person, he falls madly in love with her beauty.

Filled with feelings of vengeance against King Ratan Singh he goes to Delhi and poisons the mind of Sultan AlauddinKhilji and incites him to wage war against him. Raghav also tells him about Padmini’s beauty and cunningly persuades him that he needs to make Padmini a part of his court. Khilji then attacks Chittorgarh and a battle ensues between him and King Ratan Singh for sixth months.

The Mughal army become despondent but then Khilji hits apon a great idea; he tells Ratan Singh that if you allow me and my army to see your wife through a mirror, then we will leave you. King Ratan Singh accepts Khilji’s proposal, and he makes preparations for a mirror to be brought to the palace through which Khilji can see Ratan Singh’s wife from afar. When Khilji sees Padmini he becomes enchanted by her beauty.

He makes arrangements to leave Chittorgarh and King Ratan Singh comes to see him off personally. However the king is deceived by Khilji and gets captured by him instead and he is taken to Delhi. Having taken Ratan Singh there, Khilji sends a message to Chittorgarh, that if you give me Queen Padmini, then I will let Ratan Singh go.

Queen Padmini then makes a plan to rescue her husband. She goes with seven hundred soldiers dressed in royal maid servants’ clothes in palanquins to Khilji. With great cunning and skill the Queen rescues her King from Khilji’s clutches and brings him back to Chittorgarh. Khilji on discovering this deception attacks Chittorgarh again, during which Ratan Singh becomes martyred and Queen Padmini and her many royal maidservants commit “jauhar” or self immolation.

Khilji on hearing the news of Queen Padmini’s death becomes very depressed and full of despair. He leaves soon after for Delhi. (This brief summary of “Jayasi’sPadmavat” has been taken from DamodarlallGarg’s book –ChittorgarhkiJvala Rani Padmini- Chittorgarh’s Fiery Queen Padmini)

The Jayasi’s “Padmavat” story has been given in brief here but this is enough to show that the poem has been laced with so much romance that the honour, duty, traditions and bravery of the Rajputs are nowhere to be seen.

According to the writer of the book “The History of the Kingdom of Udaipur p. 174” (in the original Hindi – “Udaipur RajyaKaItihaas)

“at the end of the “Padmavat” tale, Jayasi calls the whole tale a metaphor”. Writers that come after Jayasi have also regarded the tale as authentic and have used it to support their works, by diluting the story even further and writing their own even more watered-down version.

Readers who already have knowledge of the honour and the sense of duty of the Rajputs on actually reading the “Padmavat” can easily see that in this tale Queen Padmavat’s “jauhar” and Rajputivalour have been meddled with.

Evidence instead of their actual bravery can be seen in these lines from other poems –

“Chittor champak hi rahayadyapiyavanali ho gaye, dharamarthHaldighat me kitnesubhatbali ho gaye”

(Chittor’s rose fragrance remained despite the foreigners turning into wasps, how many great warriors were sacrificed for Dharma, righteousness at Haldighat!),

“Kulmaan jab takpraan tab tak, yah nahin to vahnahin”

(maintain the honour of the clan until the last breath, as if that disappears so will it (the clan)”.

These instructions have resounded throughout the Mewar region of Rajasthan. The burning fiery blood of those born on Rajasthani soil can also be seen in these lines

“vikhyaat ve jauhar yahan ke aaj bhi hai lok men, ham magna hai, un padmini-si deviyon ke shok men! Aarya striya nij dharm par marti hui darti nahin, sadyant sarv satitva-shiksha visva men milti nahin”

(jauhar is still commemorated today and throughout the world, we are plunged into mourning for noble, virtuous ladies such as Padmini! Arya ladies defend their own virtue, are never afraid to die and such a lesson in wifely fidelity you will never see anywhere else in the whole world”.)

The following points are also worthy of serious consideration:

  1. By reading the Padmavat poem and comparing it with the actual reign of Ratan Singh then Jayasi’s whole poem becomes clearly a baseless total lie. According to the evidence that is available, the inscriptions that have been found, Ratan Singh’s reign was only for around a year (see “The History of the Kingdom of Udaipur” p. 187) Now what’s worth thinking about is how in reality all of the events described in the poem could have occurred within his very short reign, for example Ratan Singh’s coronation, his taking care of his kingdom, then shortly after meeting the parrot, making plans to go to the Kingdom of Singhal, actually going to Singhal and spending twelve years as a sadhu, a wandering ascetic, coming back to Chittor, the arrival of RaghavChetan in his court, his subsequent removal, Raghav’s trip to Delhi where after several months he meets Khilji, Khilji’ssubsequent six month attack on Chittor, the imprisonment of King Ratan Singh and his removal to Delhi, his subsequent release and return to Chittor, followed by a battle and the jauhar of Queen Padmini. If these events really did happen they would have taken years to take place! But the clear evidence that the duration of Ratan Singh’s reign was only for one year is proof enough that Jayasi’s poem is pure fantasy.

 

  1. If for argument’s sake Ratan Singh’s reign was longer, then for a king to wander around for twelve years dressed as a sadhu seems not in keeping with the world famous reputation of the Rajputs. It is more plausible and credible that Ratan Singh in his capacity as king would have gone to King Gandharvasen and asked for Padmini’s hand in marriage up front and that it would have been readily accepted.

 

  1. There was in fact no King Gandharvasen of the Kingdom of Singhal during the reign of King Ratan Singh. Nor was there a person called HammeerShankh who was king as written somewhere else. The ruler of Singhal was actually KeertinisshankdevParakrambahu the Fourth (“The History of the Kingdom of Udaipur” p. 187)

 

 

  1. It is very doubtful that Queen Padmini would have helped the courtier RaghavChetan as described in Jayasi’s tale because according to Rajput etiquette no wife, daughter, sister can speak to a man who doesn’t belong to her family, let alone give him alms. This is not only the etiquette of the Rajput’s but of all good families in India.

 

  1. It also impossible that King Ratan Singh would have gone against all Rajput etiquette and ignored the Rajput’s great history of chivalry and accept Khilji’s alleged proposal – i.e. that of showing his wife off to another man in exchange for Khilji’s cessation of war. Ratan Singh being a very powerful King with everything at his disposal would never have acted against the honour and dignity of the Rajputs. No husband in his right mind would ever accept such a proposal.

 

 

  1. There is no evidence whatsoever also for – the imprisonment of King Ratan Singh by Khilji and the seven hundred palanquins that are taken to Delhi to attack Khilji. These are all figments of Jayasi’s very vivid imagination.

 

  1. As during King Ratan Singh’s time the blood of a Rajput was a synonym for valour, it is very wrong of Jayasi to depict Ratan Singh as fainting on seeing Padmini for the first time. It is frankly laughable when even today men do not swoon on seeing a woman.

 

  1. Queen Padmini did not in fact live in Singhal. She belonged to the Kingdom of Pangal, Pingal or Pungalgadh, which is within modern day Bikaner, Rajasthan. The heroine of the romantic folk tale of Dhola-Maru lives in fact in this citadel. Lines from Rajasthani folk songs also are proof that Queen Padmini lived in Pangal (Pungalgadh) such as – “Pagipagipangipanth sir upariambarchah, pavaspragatuPadmini, kahutpangaljah”. To re-emphasise the truth about Queen Padmini’s parents and husband, it must be underlined that her father’s name was actually King Punyapal, her mother was Queen Jamkavar and her husband was King Ratan Singh.    (See –ChittorkiJvala “Rani Padmini” –from Rani Padmini Ki AitihasiktaaurKhyatipraptJauhar -Chittor’s Flame – “Queen Padmini” in the Hindi book – “Queen Padmini’s Historical and Famous Jauhar” – p. 51)

 

In conclusion, the historical authenticity of Jayasi’s “Padmavat” is non-existent due to a lack of evidence. Spatially, geographically and in terms of the alleged events that occurred theygo against all authentic historical accounts.

 

Having read and understood all these facts my opposition to Bhansali and his film is that he has based his film on “historical” accounts which can not be regarded as the truth.

In doing so Bhansali has distorted history, which is unacceptable. Another unacceptable thing about this film is the choice of actress to play the role of Queen Padmavati (DeepikaPadukone).

She is in my view a person with a questionable character. Contrast the input of such a person in this film to the non-existent consultation of the Rajput community who are rightly very concerned about how this film depicts their iconic Queen, Queen Padmini.

By stubbornly ignoring their sentiments and continuing to distort history this has inevitably led to this level of opposition. A cynic would say that this is what Bhansali has always wanted as courting such opposition is only giving him free publicity.

Whatever Bhansali’s secret agenda is, one can only make a final judgment on his film once it is released. It is left to the reader’s own conscience whether s/he should go and see this film or not.

 

Namaste

(Hindi Article translated and edited by Vinita Arya)

 

MAHOMEDANISM IS MAINLY BASED UPON JUDAISM: Ganga Prasad

THE religion of Mahomed is based chiefly on Judaism,

and partly on Zoroastrianism on which Judaism

itself is based. The first proposition is not denied

by the Mahomedans themselves, who only claim that their

Prophet has improved upon the Jewish religion in certain

respects. A detailed comparison of the two religions would,

however, show how closely Mahomed has followed the

Jewish religion even on points of detail, and would lead to

the conclusion that there is little or .nothing important in

Mahomedanism for which the Prophet could lay claim to

originality.

We shall in this branch of our enquiry follow Dr. Sale,

whose preliminary discourse, appended to his celebrated

translation of the Koran, contains a wealth of information

on this subject.

 

SECTION 1

 

THE ORIGIN OF THE UNIVERSE OR COSMOGONY

 

The idea that this universe is the first and the last of

its kind is purely a Jewish idea, and forms a distinctive feature

of Judaism, and the two great religions founded

upon it, Viz., Christianity and Mahomedanism. Again,

the belief that this world was created out of nothing by

a fiat of the Almighty is also borrowed from Judaism. The

story of Adam and Eve being created and placed in the

garden of Eden, where they were allowed to partake of

all things except the fruit of a particular tree; of their being

I tempted by Satan in the form of a serpent to eat of that very

fruit; and of their subsequent fall from paradise is borrowed

almost literally from the Jewish scriptures.

The same may be said of the existence of a higher order

of beings than man, Viz., the angels who have pure and

subtle bodies, created of fire, and who neither eat nor drink,

nor propagate species. These angels are supposed to have

various forms and offices, and the most eminent among them

are Gabriel, Michael, Azracl and Israfil. “This whole

doctrine concerning angels,” says Dr. Sale, “Mahomed

borrowed from the Jews, Who learned the names and offices

of those beings from the Persians, as they themselves confess.

-( Talmud Hieros and Roshbhashan). “:j:

The Koran teaches the existence of also an inferior class

of beings called jin or genii’ created also of fire, but of a

grosser fabric than angels, since they eat, drink and propagate

their species and are subject to death.’ “These notions,”

says Dr. Sale, “agree almost exactly with what the Jews

write of a sort of demons called Shedim. It

SECTION 2

THE DESTRUCTION OF THE UNIVERSe AND’

THE RESURRECTION

– The Mahomedans believe in the immortality of the

soul and think that there will be a day of resurrection

when the dead will rise to receive the rewards and punishment

of their actions in life according to their merits and

demerits. The whole of this doctrine has been taken from

Judaism.

The ,Resurreclion.-According to some writers the

resurrection will be merely spiritual. The generally received

opinion, however, is that both the body and the soul will

be raised.::: It might be asked: how will the body, which

has been decomposed rise again ~ “But Mahomed has

taken care to preserve one part of the body, whatever

becomes of the rest, to serve for a basis of future edifice, or

rather a leaven for the mass which is to be joined to it.

For he taught that a man t s body was entirely consumed by

the earth, except only the bone called AI Ajb which we

name the os coceygis or rumpbone; and that as it was the

first formed in the human body, it will also remain uncorrupted

till the last day, as a seed from whence the whole

is to be renewed; and this, he said, would be effected by

a forty days’ rain which Cod would. send, and which w~uld

cover the earth 10 the height of twelve cubits, and cause the

bodies to sprout forth like plants. Herein also is Mahomed

beholden to the Jews who say the same things of the bone,

Luz excepting that what Mahomed attributes to a great rain

would be effected according to them by a dew impregnating

the dust of the earth.

Signs of the Resurrection.-The approach of the day of

resurrection will be known from certain signs which are to

precede it; for example:-

  1. The rising of the sun’in the west.

(b) The appearance of the beast Dajjal, a monster of

the most curious appearance, who would preach

the truth of Islam in Arabic language. The

beast in the Revelation (Luke, xxiii: 8) seems,

according to Dr. Sale, to be responsible for this

idea.

( c) The coming of the Mehdi.

(d). The blast of the trumpet called Sur, which will be sounded three times.

All these are more or less Jewish ideas, So is the teaching that after the Resurrection, but before Judgment the resuscitated souls will have to wait for a long time

under the burning heat of the sun which would descend to

within a few yards of their heads

The Day of Judgment .-After mankind have waited

for fixed time God will, at length, appear to judge them,

Mahomed taking the office of intercessor. Then everyone

will be examined concerning all his actions in this life.

Some say that all the limbs and parts of the body ,will be

made to confess the sins committed by each. Each person

will be given a book in which all his actions arc recorded.

These books will-be weighed in a balance to be held by

Gabriel. Those whose good actions are heavier than the

bad ones, will be sent to Heaven; and those whose evil

actions preponderate, to the Hell. This belief has been taken

in its entirety from the Jews, “The old Jewish writers,”

says Dr, Sale, “make mention as well of the books to be

produced at the last day wherein men’s actions are registered,

as of the balance wherein they shall be weighed.

 

The Jews in their turn borrowed this idea from the

Zoroastrians. Dr. Sale hints that the Old Testament seems

to have given the first notion of both (Exod., xxxii, 32-33 ;

Dan., vii, 10; Revel., xx, 12; Dan., v, 27.) but, he

admits, “what the Persian Magi believe of the’ balance’

comes nearest to the Mahomedan opinion. They hold that

on the day of Judgment two angels named Mehr and Sarush

will stand on the bridge we shall describe by and by, to

examine every person as he passes; that the former ,,,ho

represents divine mercy will hold a balance in his hand to

weigh the actions of men; that according to the report he

shall make thereof to God sentence will be pronounced, and

those ‘whose good works are found more ponderous, if they

turn the scale but by the weight of a hair, will be permitted

to pass forward to paradise; but those whose good works

shall be found light will be, by the other angel who represents

God’s justice, precipitated from the bridge into hell.”*

On the road to heaven is the bridge called by

Mahomed Al Sirai. This bridge is thrown over the abyss

of hell, and is said to be finer than a hair, and sharper than

the edge of a sword. Over this bridge the Muslims will

easily pass led by Mahomed; whereas the wicked will

soon miss their footing and fall down headlong into hell

which is gaping beneath them. The Jews likewise speak

of the bridge of hell which, according to them, is no

broader than a thread. For this idea the Jews and

the Mahomedans seem to be equally indebted to the

Zoroastrians who teach that on the last day all men will be

obliged to pass over a bridge called Pul Chinavad.

 

Paradise.-After passing the Al Sirai, the faithful will

reach paradise ‘which is situated in the seventh heaven.

The Mahomedan conception of paradise is that of a

beautiful garden, furnished with springs, fountains, and

rivers flowing with water, milk, honey and balsam, and

trees having their trunks of gold, and producing the most

delicious fruits. Above all, there will be seventy resplendent

ravishing girls called hur-ul-ayun on account of their big

black eyes. For almost. the whole of this description

Mahomed is indebted to the Jews. “The Jews constantly

describe the future mansion of the just as a delicious garden,

and make it also reach the seventh heaven ( vide Gemar

Tanith, f. 25; Biracoth, f. 34; Midrash Sabboth, f. 37).

They also say it has three gates ……… and four rivers

Flowing with milk, wine, balsam and honey.-( MiJrash,

Yalkul Shcwini).”:::

It is more than probable that the Jews themselves

borrowed this idea from the Zoroastrians, who described

the felicities of paradise in similar language. Dr. Sale

observes: “The Persian Magi had also an idea of the

future happy state of the good, very little different from

that of Mahomed. Paradise they call Bihishl, and Minu,

which signifies crystal, where they believe the righteous’

shall enjoy all manner of delights and particularly, the

company of huran-i-Bihisht or black-eyed nymphs of

paradise, the care of whom, they say, is committed to the

angel Zamiyad and hence Mahomed seems to have taken the

first hint of his paradisiacal ladies. “t

We may also quote from Nama Mihabad, one of the

later writings of the Parsis: “The lowest order of heaven

is this that its inmates will enjoy all the delights of this

world: nymphs, male and female slaves, meat and drink,

clothing and bedding, articles of furniture, and other things

which ca~not be enumerated here.”-Mihabad, 40 & 41. :::

 

Hell.-Similarly the different torments of hell, the

seY~n compartments into ,,,·hich it is said to be divided,

and the partition called Al Aira/, separating heaven from

hell, all seem to be copied from the Jews.

 

SECTION 3

GOD AND THE DEVIL

 

The Mahomedan conception of God agrees almost

exactly with the Jewish notion. And the doctrine that there

arc two powers in the world, a good and benevolent

power, viz., God, and an evil’ and malevolent power, Viz.,

Satan, is also taken from the Jews. This notion, which

seriously mars the Monotheism of the Bible and the

Koran, was certainly borrowed by the Jews from the

Zoroastrians, vrho call these (wo principles Spenla Mainyu

and A ngira M ainyu. In a later chapter we shall discuss

this question more fully, and show how this Zoroastrian

idea can be traced to a beautiful allegory in the Veda,

describing the struggle of good and evil in this world; and

how this allegory was misunderstood till in the hands of the

Jews, Christians, and Mahomedans, it degenerated into a

belief in two powers, Satan having been elevated to a

position a little below that of the Deily. This is a very

important point, and will show, in a remarkable manner,

how the stream of religious thought has flowed from the

Vedas to the Zend Avesta, and thence to the Bible and

the Koran.

 

SECTION 4

RELIGIOUS PRACTICES

We have show’n so far that the principal dogmas of the

Mahomedan religion have a Judaic origin. We shall next

show that their religious practices can’be traced to the same

source.

There are four duties incumbent upon every

Mahomedan: viz., (i) Prayer; (ii) Fasting; (iii) Zakat

or charity; and ( iv) Pilgrimage to Mecca.

(i) Prayer.-The following extract from. the Dasalir

would show to the reader that the several postures of the

followers of the Prophet at prayers have been probably’

copied from the Zoroastrians:-

II During prayer a pious and wise man should stand

ahead, and the rest should stand behind him. A man

(during prayer) should stand erect and join his hands

together; then bow down, then prostrate himself on the

ground; then again stand erect, place one of his hands on

the head, and removing it place the other hand on the

head; then raise his head and clasp his hands without

joining the thumbs, place his thumbs on his eyes, making

the fingers reach the head, then bend his head down to his

breast; then raise it; then sit on the ground; then putting

his hand on the ground and kneeling down touch the

ground with his forehead, and then with each side of the

face; then prostrate himself on the ground like a staff;

then stretch his hand till the breast touches the ,ground,

then do the same with, the thighs; then kneel down;

then squat, and place his head on his folded hands.

Such prayer is to be addressed to none but God.”:::

 

The practice among Mahomedans of saying their

prayer with their faces towards the Kabah is likewise

borrowed from the Jews who constantly pray with their

faces turned towards the temple of Jerusale~. ” The

same,” observes Dr. Sale, ” was the Kibla of Mahomed

and his followers for six or seven months (some say eighteen

months, vide Abulfed, Nit. Moh., p. 54), till he found

himself obliged to change it for the. Kabah. tt;:;

The practice of performing before prayers ablutions

with water or sand is also borrowed from the Jews and

the Persians. The. circumcision is well-known to be a

Jewish custom.

 

(ii) Fasling.-Speaking of Mahomed’s ordinances

concerning fasting, Dr. Sale traces them to those of the Jews,

and observes: “That nation, when they fast abstain not

only from eating and drinking but from women and from

anointing themselves, from daybreak until sunset ……….. :

spending the night in taking what refreshments they please,

(Gemar Yama, f. 40, etc. )”

 

(iii) Charily.-This is of two kinds, viz., ( 1 ) Zakat,

and ( 2) Sadka; and specific rules are laid down for the

giving of these alms. In these rules also Dr. Sale observes the

footsteps of the Jews, ( Vide. Prel. Dis., p. 87).

 

(iv) The Haj or Pilgrimage to Mecca . …;;.. The pilgrimage

to Mecca was not borrowed from the Jews, but was a

relic of the pagan Arabs. The temple of Mecca had long

been held in singular veneration by the Arabs, and the

Prophet considered it inexpedient to disturb the belief.

 

SECTION 5

NEGATIVE PRECEPTS

 

Among the negative precepts common to the Jews and

the Mahomedans may be mentioned abstaining from gaming ;:::

wine ; usuryt and certain kinds of prohibited meats.

Regarding prohibited meats we read in the Koran as

follows :-” Ye are forbidden to eat that which diet of

itself, and blood, and swine’ s flesh, and that on which the

name of any besides God has been invocated, and that

which hath been strangled or killed by a blow, or by a

fall, or by the horns of another beast, and that which has

been eaten by a wild beast, except what ye shall kill yourselves,

and that which, had been sacrificed to idols.”

 

In these particulars,” says Dr. Sale, ” Mahomed seems chiefly

to have imitated the Jews, by whose law, as is well-known,

all those things are for bidden, but he allowed some things

to be eaten which Moses did not. ”

 

SECTION 6

CIVIL INSTITUTIONS

 

The civil institution of the Mahomedans are founded

upon the Koran, as those of the Jews are founded on the

Pentateuch. That the former were copied from the latter

would be evident from the following!-

 

( i) Polygamy is allowed by both, but no Mussalman

may marry more than four wives at a time. U In

making the above mentioned limitation,” observes Dr. Sale

 

Mahomed was directed by the decision of the Jewish

doctors who, by way of counsel, limit the number of wives

to four ( rJide Maimon in Halachoth Ishath, c. 14), though

their law confines them not to any certain number. “:::

 

( ii) Dirvorce is an institution common to both religions.

In allowing divorce Mahomed has followed Jews. When

a woman is divorced, she must wait for three months before

she can re-marry. This period, is called iddal. At the end

of this period, if she is found with child, she must be

delivered of it before she can marry again. These rules”

says Dr. Sale, are also copied from the Jews, according to

whom a divorced woman or widow cannot marry another

man till ninety days be passed after the divorce or death

of the husband.” Dr. Sale adds: “The institutions of

Mahomed relating to the pollution of women during their

courses, the taking of slaves to wife, and the prohibiting of

marriage within certain degrees, have likewise no small

affinity with the institution of Moses.

 

SECTION 7

SOME MINOR SIMILARITIES

( 😉 The setting apart of one day in the week for

the special service of God is also an institution of the Jews

who keep Saturday sacred. THe Christians have Sunday for

their Sabbath day. Mahomed has imitated these religions

in this respect; but for the sake of distinction he has ordered

his followers to observe Friday, instead of Saturday or

Sunday. ,

 

(if) The celebrated formula of the Koran “La-Elah-illillah” (there is no God but God) is a mere paraphrase of the Zoroastrian formula, “Nest ezad magar

Yazdan.”

( iii ) It should be further noted that every chapter of the Koran (excepting only the ninth) opens with the words “Bismillah uar Rahman er Rahim,” which. exactly

correspond to the formula with which the Zoroastrians begin

their books, Viz., fI Banam Yazdan bakhshish gar dadar (in the name of the most merciful God ).

 

SECTION 8

SUMMARY

The above is sufficient to show that Mahomedanism

has borrowed almost all its doctrines and precepts mainly

from Judaism and partly from Zoroastrianism. The religion

of the Koran cannot, therefore, claim to be a new revelation,

or a special dispensation of the Will of God. Our

Mahomedan brethren will perhaps urge; “the monotheism

of the Koran is purer and better than that of Judaism and

Christianity, to speak nothing of Zoroastrianism which is not

monotheism at all, being a belief in two gods.”· Now there

can be no doubt that the Christian conception of God is’, in

several ways, superior to the Mahomedan conception. God

is represented by the Christians as a more righteous, more

merciful, more holy and more loving being than the God of

the Koran. In another way, the theism of Christianity is

certainly inferior to that of the Koran. Christianity teaches

the doctrine of Trinity which is virtually a belief in three

gods. and in this respect the Koran teaches a stricter monotheism

than Christianity. But it is difficult to understand how

Mahomedanism can claim to teach a better theism than

Judaism; because both are equally monotheistic or equally

dualistic. Both raise Satan to a position all but equal to

that of God, and thus equally mar the purity of their

monotheism. Both have the same conception of the Divine

character; and the anthropomorphic, vacillating, and

revengeful Jehovah of the Jews finds an exact counterpart

in the Allah of the Koran, who is described as an intolerant

and despotic potentate, urging his worshippers to make war

upon, and slay, the infidels.

As for Zoroastrianism, its theism is in no way inferior ,

to that of either Judaism or Mahomedanism. ” Ahurmazda ”

says the Rev. L. H. Mills, “is one of the purest conceptions

which had yet been produced,”::: and-we may add,-is

undoubtedly the prototype ~ of the God of the Koran as

well as the God of the Bible. We shall revert to this

subject in detail later on it The great value of Mahomed’s

doctrine of the unity of God lies in its being a protest against

the degenerate Christianity of his time and the polytheism

of the Arabs among whom he lived. But however superior

to the belief of his contemporaries, the theism of the Koran

can hardly be said to be superior to that of Judaism. The

claim of the Koran, therefore, to be an independent

revelation of God, on the plea of teaching a better theism

than Judaism and Zoroastrianism, to which it can be

traced, is untenable.

HADEES : FLOGGING COULD BE POSTPONED

FLOGGING COULD BE POSTPONED

If a woman has just delivered and there is an apprehension that flogging might kill her, she may be spared �until she is alright� (4225).

�AlI says: �O people, impose the prescribed punishment upon your slaves, those who are married and those not married, for a slave-woman belonging to Allah�s Messenger had committed adultery, and he committed me to flog her.  But she had recently given birth to a child and I was afraid that if I flogged her I might kill her.  So I mentioned that to Allah�s Messenger and he said �You have done well� � (4224).  The Prophet was a merciful man.

On the basis of this hadIs, Muslim jurists conclude that flogging can be spread over several days, depending on the physical condition of the offender; and if he is sick, the flogging can be postponed until he recovers.

author : ram swarup