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अभिमान ही पराजय का मुख है।ऋषि उवाच

पराभवस्य हैतन्मुखं यदतिमानः – शतपथ ब्राह्मण ५.१.१.१

अभिमान ही पराजय का मुख है।

आजकल हम अपने आसपास अभिमान से भरे लोग देख रहे है। किसी को जाति का अभिमान है तो किसी को पैसो का। किसी को बोडी का अभिमान् है तो किसी को पूर्वजो का।

जिसने जबजब अभिमान् किया है तबतब वह ही नष्ट हुआ है।

शतपथकार इसे समझाते हुए कहते है की देवता और असुरोमें लडाई हो गयी।

दोनों सोचने लगे की कहां आहूति दे।

असुर अभिमान् के कारण अपने ही मुखमें आहूति देने लगे अर्थात् सब कुछ खुद को लिए ही करने लगे।

देवता एकदूसरे को आहूति देने लगे। उनहें सर्वस्व प्राप्त हो गया।

यह कथामें बहुत गहरा संदेश है। जिस परिवारमें लोग अपने ही बारेमें सोचते है, वह परिवारमे असुर रहते है।

और जो परिवारमें पहले दूसरो के बारेमें सोचा जाता है, वह परिवारमें देव बसते है।

भाई अपने बारेमें ना सोचकर अपने भाई के बारेमें सोचता है, वह सर्वस्व प्राप्त करलेता है।

जिस परिवारमें अपने से पहले दूसरों का विचार किया जाता है, वह सर्वस्व प्राप्त कर लेता है।

इसी लिए अभिमान् से दूर रहो और दूसरो को बारेमें सोचो।

विशेष हवन तथा संस्कार आदि करने से पहले एक य तीन दिन पहले से व्रत रखते हैं
जब व्रत रखे तो क्या व्रत मे खा सकते हैं?
उत्तर-देवो को खिलाने से पहले नही खाना चाहिए देव यज्ञ के माध्यम से खाते हैं। हवन उन्ही पदार्थो से करना चाहिए जो खाने योग्य हों जैसे मेवा जौ चावल खीर आदि।
तो जिन पदार्थो से हवन करे उन्हे नही खा सकते हैं क्योंकि पहले देव खायेंगे।

जिनका हवन मे प्रयोग न हो उनको खा सकते हैं
और उतना खाना चाहिए जिससे न खाने मे गणना हो सके।
व्रत मे वन मे उपजी हुई चीज खानी चाहिए औषधि य वनस्पति।
व्रत रखने के दूसरे दिन यज्ञ की जब तैयारी करते हैं तो पहले जल को लाकर वेदी के पास रखते हैं

सप्तर्षि कौन है ? ऋषि उवाच

वैदिक धर्म में सप्तर्षि की बहुत प्रतिष्ठा है। पुराण कथाओ में सप्तर्षि शब्द विविध ऋषिओं के साथ जोडा गया है।

आकाश में भी तारामंडल को सप्तर्षि नाम मिला है।

यह सप्तर्षि का वैदिक स्वरूप क्या है? चलीये देखते है।

बृहदारण्यकोपनिषद् २.२.४ में राजर्षि काश्यराज अजातशत्रु, बालाकी गार्ग्य को सप्तर्षि का अर्थ समझा रहे है।

इस उपनिषद् के अनुसार सप्तर्षि हमारे सिरमें रहनोवाली सात इन्द्रिय का समूह है। इस नाम के ऋषि इतिहासमें अवश्य हुए है, लेकिन सप्तर्षि का कंसेप्ट इन्द्रिय के अर्थमें है।

बृहदारण्क अनुसार

गौतम और भरद्वाज – दोनों कान
विश्वामित्र और जमदग्नि – दोनों नेत्र
वशिष्ठ और कश्यप – नाक के दो छिद्र
अत्रि – वाणी

इस प्रकार इन गौतम आदि नाम विविध इन्द्रिय के है। इन अर्थमें वह वेदमें भी आये है।

बादमें इसी नामके विविध ऋषि भी हुए जिससे यह भ्रम हुआ की वेदोमें यह जो नाम है, वह इन ऋषिओ के नाम है।

लेकिन वेदमें किसी मनुष्य का नाम नहीं। बृहदारण्यक के प्रमाण से वह सिद्ध होता है की वेदमें आये इन सब नामो के योगिक अर्थ है, लौकिक नहीं।

प्रत्येक सनातनी के लिए नित्य यज्ञ करना आवश्यक है। – ऋषि उवाच

आजकल सनातनी ने यज्ञ करना छोड दिया है ।

अग्निहोत्र के विषयमें एक महत्वपूर्ण संवाद राजा जनक और याज्ञवल्क्य के मध्य हुआ था, जिसका वर्णन शतपथ ब्राह्मणमें मिलता है।

राजा जनक याज्ञवल्क्य जी को पूछते है की क्या आप अग्निहोत्र को जानते हो? तब याज्ञवल्क्यजी उत्तर देते है की – हे राजन्, में अग्निहोत्र को जानता हूं। जब दूध से घी बनेगा, तब अग्निहोत्र होगा।

तब जनकने याज्ञवल्क्य की परीक्षा लेने के लिए प्रश्नो की शृङ्खला लगा दी।

जनक – अगर दूध ना हो तो किस प्रकार हवन करोगे?

याज्ञ – तो गेहूं और जौं से हवन करेंगे।

जनक – अगर गेहूं और जौं ना हो तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – तो जङ्गल की औषधीओ से यज्ञ करेंगे।

जनक – जङ्गल की जडी-बूटी भी ना हो, तो कैसे हवन करोगे?

याज्ञ – समिधा से हवन कर लेंगे।

जनक – अगर समिधा ना हो तो?

याज्ञ – जल से हवन कर लेंगे।

जनक – यदि जल न हो तो कैसे हवन करेंगे?

याज्ञ – तो हम सत्य से श्रद्धामें हवन करेंगे।

याज्ञवल्क्यजी के उत्तर से राजा जनक संतुष्ट हुए। केवल भौतिक पदार्थो का प्रयोग कर यज्ञ करना ही यज्ञ करना नहीं होता। सत्य और श्रद्धा को धारण करना भी अग्निहोत्र ही है।

इस लिए यज्ञ नित्य करे।

स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

ओ३म्

अथ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिस को सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी, इसीलिये इस को सनातन नित्यधर्म कहते हैं कि जिस का विरोधी कोई भी न हो सके। यदि अविद्यायुक्त जन अथवा किसी मत वाले के भ्रमाये हुए उस को अन्यथा जानें वा मानें, उस का स्वीकार कोई भी बुद्धिमान् नहीं करते, किन्तु जिस को आप्त अर्थात् सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारक पक्षपातरहित विद्वान् मानते हैं वही सब को मन्तव्य और जिस को नहीं मानते वह अमन्तव्य होने से उसका प्रमाण नहीं होता। अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनिमुनि पर्य्यन्तों के माने हुए ईश्वरादि पदार्थ जिन को कि मैं मानता हूँ सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ।

मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ कि जो तीन काल में एक सा सब के सामने मानने योग्य है। मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझ को अभीष्ट है यदि मैं पक्षपात करता तो आर्य्यावर्त्त में प्रचरित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो-जो आर्य्यावर्त्त वा अन्य देशों में अधर्मयुक्त चाल चलन है उस का स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं उन का त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्यधर्म से बहिः है।

मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं—कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित हों—उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और [अधर्मी] चाहे चक्रवर्त्ती सनाथ महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवे। इस में श्रीमान् महाराजे भर्तृहरि, व्यास जी [और] मनु ने श्लोक लिखे हैं, उन का लिखना उपयुक्त समझ कर लिखता हूँ—

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥१॥

—भर्तृहरि [नीतिशतक ८५]

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥२॥

—महाभारत [उद्योगपर्व-प्रजागरपर्व अ॰ ४०। श्लोक ११-१२]

एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति॥३॥      —मनु॰ [८।१७]

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। येनाऽऽक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥४॥

—मुण्डकोपनिषद् [३।१।६]

न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।

नहि सत्यात्परं ज्ञानं तस्मात्सत्यं समाचरेत्॥५॥  —उपनिषदि॥

[तुलना—मनु॰ ८।१२]

इन्हीं महाशयों के श्लोकों के अभिप्राय से अनुकूल निश्चय रखना सबको योग्य है।

अब मैं जिन-जिन पदार्थों को जैसा-जैसा मानता हूँ उन-उन का वर्णन संक्षेप से यहाँ करता हूँ कि जिनका विशेष व्याख्यान इस ग्रन्थ में अपने-अपने प्रकरण में कर दिया है। इन में से प्रथम—

१. ‘ईश्वर’ कि जिसको ब्रह्म, परमात्मादि नामों से कहते हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त परमेश्वर है उसी को मानता हूँ।

२. चारों ‘वेदों’ को विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रान्त स्वतःप्रमाण मानता हूँ अर्थात् जो स्वयं प्रमाणरूप हैं, कि जिस के प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा न हो जैसे सूर्य्य वा प्रदीप स्वयं अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद हैं। और चारों वेदों के ब्राह्मण, छः अङ्ग, छः उपाङ्ग, चार उपवेद और ११२७ (ग्यारह सौ सत्ताईस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं उन को परतःप्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन हैं उन का अप्रमाण करता हूँ।

३. जो पक्षपातरहित न्यायाचरण सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है उस को ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभङ्ग वेदविरुद्ध है उस को ‘अधर्म’ मानता हूँ।

४. जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को ‘जीव’ मानता हूँ।

५. जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न और व्याप्य व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न हैं अर्थात् जैसे आकाश से मूर्त्तिमान् द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, [न] है, न होगा, इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को व्याप्य व्यापक, उपास्य उपासक और पिता पुत्रवत् आदि सम्बन्धयुक्त मानता हूँ।

६. ‘अनादि पदार्थ’ तीन हैं। एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरी प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण, इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उन के गुण, कर्म स्वभाव भी नित्य हैं।

७. ‘प्रवाह से अनादि’ जो संयोग से द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं वे वियोग के पश्चात् नहीं रहते, परन्तु जिस से प्रथम संयोग होता है वह सामर्थ्य उन में अनादि है, और उस से पुनरपि संयोग होगा तथा वियोग भी, इन तीन [को] प्रवाह से अनादि मानता हूँ।

८. ‘सृष्टि’ उस को कहते हैं जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान युक्तिपूर्वक मेल हो कर नानारूप बनना।

९. ‘सृष्टि का प्रयोजन’ यही है कि जिस में ईश्वर के सृष्टिनिमित्त गुण, कर्म, स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि नेत्र किस लिये हैं? उस ने कहा देखने के लिये। वैसे ही सृष्टि करने के ईश्वर के सामर्थ्य की सफलता सृष्टि करने में है और जीवों के कर्मों का यथावत् भोग कराना आदि भी।

१०. ‘सृष्टि सकर्तृक’ है। इस का कर्त्ता पूर्वोक्त ईश्वर है। क्योंकि सृष्टि की रचना देखने, जड़ पदार्थ में अपने आप यथायोग्य बीजादि स्वरूप बनने का सामर्थ्य न होने से सृष्टि का ‘कर्त्ता’ अवश्य है।

११. ‘बन्ध’ सनिमित्तक अर्थात् अविद्यादि निमित्त से है। जो-जो पाप कर्म ईश्वरभिन्नोपासना, अज्ञानादि ये सब दुःखफल करने वाले हैं। इसी लिये यह ‘बन्ध’ है कि जिस की इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।

१२. ‘मुक्ति’ अर्थात् सब दुःखों से छूटकर बन्धरहित सर्वव्यापक ईश्वर और उस की सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोग के पुनः संसार में आना।

१३. ‘मुक्ति के साधन’ ईश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान, ब्रह्मचर्य्य से विद्याप्राप्ति, आप्त विद्वानों का संग, सत्यविद्या, सुविचार और पुरुषार्थ आदि हैं।

१४. ‘अर्थ’ जो धर्म ही से प्राप्त किया जाय। और जो अधर्म से सिद्ध होता है उस को ‘अनर्थ’ कहते हैं।

१५. ‘काम’ वह है कि जो धर्म और अर्थ से प्राप्त किया जाय।

१६. ‘वर्णाश्रम’ गुण कर्मों के योग से मानता हूँ।

१७. ‘राजा’ उसी को कहते हैं जो शुभ गुण, कर्म, स्वभाव से प्रकाशमान, पक्षपातरहित न्यायधर्म का सेवी, प्रजा में पितृवत् वर्त्ते और उन को पुत्रवत् मान के उन की उन्नति और सुख बढ़ाने में सदा यत्न किया करे।

१८. ‘प्रजा’ उस को कहते हैं कि जो पवित्र गुण, कर्म, स्वभाव को धारण कर के पक्षपातरहित न्यायधर्म के सेवन से राजा और प्रजा की उन्नति चाहती हुई राजविद्रोहरहित राजा के साथ पुत्रवत् वर्त्ते।

१९. जो सदा विचार कर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करे, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सब का सुख चाहे, उस को ‘न्यायकारी’ मानता हूँ।

२०. ‘देव’ विद्वानों को, और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ।

२१. उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री, स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है, इस से विपरीत अदेवपूजा। इन मूर्त्तियों की पूजा कर्त्तव्य, इन मूर्त्तियों से इतर जड़ पाषाणादि मूर्त्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।

२२. ‘शिक्षा’ जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और इनसे अविद्यादि दोष छूटें, उस को शिक्षा कहते हैं।

२३. ‘पुराण’ जो ब्रह्मादि के बनाये ऐतरेयादि ब्राह्मण पुस्तक हैं उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हूँ, अन्य भागवतादि को नहीं।

२४. ‘तीर्थ’ जिससे दुःखसागर से पार उतरें कि जो सत्यभाषण, विद्या, सत्संग, यमादि योगाभ्यास, पुरुषार्थ विद्यादानादि शुभ कर्म है उसी को तीर्थ समझता हूँ, इतर जलस्थलादि को नहीं।

२५. ‘पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा’ इसलिये है कि जिस से संचित प्रारब्ध बनते जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं। इसी से प्रारब्ध की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है।

२६. ‘मनुष्य’ को सबसे यथायोग्य स्वात्मवत् सुख, दुःख, हानि, लाभ में वर्त्तना श्रेष्ठ, अन्यथा वर्त्तना बुरा समझता हूँ।

२७. ‘संस्कार’ उसे कहते हैं कि जिससे शरीर, मन और आत्मा उत्तम होवे। वह निषेकादि श्मशानान्त सोलह प्रकार का है। इसको कर्त्तव्य समझता हूँ और दाह के पश्चात् मृतक के लिये कुछ भी न करना चाहिये।

२८. ‘यज्ञ’ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थविद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना, उत्तम समझता हूँ।

२९. जैसे ‘आर्य्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ।

३०. ‘आर्य्यावर्त्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिये है कि जिस में आदि सृष्टि से पश्चात् आर्य्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना देश है उसी को ‘आर्य्यावर्त्त’ कहते और जो इस में सदा रहते हैं उन को भी आर्य्य कहते हैं।

३१. जो साङ्गोपाङ्ग वेदविद्याओं का अध्यापक सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे वह ‘आचार्य’ कहाता है।

३२. शिष्य—उस को कहते हैं कि जो सत्य शिक्षा और विद्या को ग्रहण करने योग्य धर्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचार्य का प्रिय करने वाला है।

३३. गुरु—माता, पिता। और जो सत्य का ग्रहण करावे और असत्य को छुड़ावे वह भी ‘गुरु’ कहाता है।

३४. पुरोहित—जो यजमान का हितकारी सत्योपदेष्टा होवे।

३५. उपाध्याय—जो वेदों का एकदेश वा अङ्गों को पढ़ाता हो।

३६. शिष्टाचार—जो धर्माचरणपूर्वक ब्रह्मचर्य से विद्याग्रहण कर प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करके, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना है यही शिष्टाचार, और जो इसको करता है वह ‘शिष्ट’ कहाता है।

३७. प्रत्यक्षादि आठ ‘प्रमाणों’ को भी मानता हूँ।

३८. ‘आप्त’ कि जो यथार्थवक्ता, धर्मात्मा, सब के सुख के लिये प्रयत्न करता है उसी को ‘आप्त’ कहता हूँ।

३९. ‘परीक्षा’ पाँच प्रकारी है। इस में से प्रथम जो ईश्वर उसके गुण कर्म स्वभाव और वेदविद्या, दूसरी प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण, तीसरी सृष्टिक्रम, चौथी आप्तों का व्यवहार और पांचवीं अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या, इन पाँच परीक्षाओं से सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना चाहिये।

४०. ‘परोपकार’ जिससे सब मनुष्यों के दुराचार, दुःख छूटें, श्रेष्ठाचार और सुख बढ़ें, उसके करने को परोपकार कहता हूँ।

४१, ‘स्वतन्त्र’ ‘परतन्त्र’—जीव अपने कामों में स्वतन्त्र और कर्मफल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र, वैसे ही ईश्वर अपने सत्याचार काम करने में स्वतन्त्र है।

४२. स्वर्ग—नाम सुख विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है।

४३ नरक—जो दुःख विशेष भोग और उसकी सामग्री को प्राप्त होना है।

४४. जन्म—जो शरीर धारण कर प्रकट होना सो पूर्व, पर और मध्य भेद से तीनों प्रकार के मानता हूँ।

४५. शरीर के संयोग का नाम ‘जन्म’ और वियोग मात्र को ‘मृत्यु’ कहते हैं।

४६. विवाह—जो नियमपूर्वक प्रसिद्धि से अपनी इच्छा करके पाणिग्रहण करना ‘विवाह’ कहाता है।

४७. नियोग—विवाह के पश्चात् पति के मर जाने आदि वियोग में अथवा नपुंसकत्वादि स्थिर रोगों में स्त्री वा पुरुष आपत्काल में स्ववर्ण वा अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष [वा स्त्री के] साथ नियोग कर सन्तानोत्पत्ति कर लेवें।

४८. स्तुति—गुणकीर्त्तन, श्रवण और ज्ञान होना, इसका फल प्रीति आदि होते हैं।

४९. प्रार्थना—अपने सामर्थ्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करनी और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

५०. ‘उपासना’—जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं वैसे अपने करना। ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के, ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, वैसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना, उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

५१, ‘सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना’—जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उनसे युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं उनसे पृथक् मानकर प्रशंसा करना सगुणनिर्गुण स्तुति कहाती है और शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुणनिर्गुणप्रार्थना और सब दोषों से रहित, सब गुणों से सहित परमेश्वर को मानकर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना निर्गुणसगुणोपासना कहाती है।

ये संक्षेप से स्वसिद्धान्त दिखला दिये हैं। इनकी विशेष व्याख्या इसी ‘सत्यार्थप्रकाश’ के प्रकरण-प्रकरण में है तथा [ऋग्वेदादिभाष्य]-भूमिका आदि ग्रन्थों में भी लिखी है। अर्थात् जो-जो बात सबके सामने माननीय है, उसको मानता अर्थात् जैसा कि सत्य बोलना सबके सामने अच्छा, और मिथ्या बोलना बुरा है, ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकार करता हूँ। और जो मतमतान्तर के परस्पर विरुद्ध झगड़े हैं उनको मैं प्रसन्न नहीं करता, क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट, सर्व सत्य का प्रचार कर, सब को ऐक्यमत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़प्रीतियुक्त करा के, सब से सबको सुख लाभ पहुँचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा, सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे और जिससे सब लोग सहज से धर्म्मार्थ काम मोक्ष की सिद्धि करके, सदा उन्नत और आनन्दित होते रहैं, [यही] मेरा मुख्य प्रयोजन है।

अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्य्येषु।

ओ३म्। शन्नो मित्रः शं वरुणः। शन्नो भवत्वर्य्यमा।

शन्न इन्द्रो बृहस्पतिः। शन्नो विष्णुरुरुक्रमः॥

नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिषम्। ऋतमवादिषम्। सत्यमवादिषम्। तन्मामावीत्। तद्वक्तारमावीत्। आवीन्माम्। आवीद्वक्तारम्।

ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

[तैत्तिरीय आरण्यक ७।१२]

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य्याणां परमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितः स्वमन्तव्यामन्तव्यसिद्धान्तसमन्वितः

सुप्रमाणयुक्तः सुभाषाविभूषितः

सत्यार्थप्रकाशोऽयं ग्रन्थः सम्पूर्तिमगमत्॥

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा -रामनाथ विद्यालंकार

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राक्षस प्रकम्पित हों, अराति प्रकम्पित हों

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता:  यज्ञः । छन्दः स्वराड् जगती ।

शर्मास्यवधूतरक्षोऽवधूताऽअरितयोऽदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु। अद्रिरसि वानस्प॒त्यो ग्रावसि पृथुबुध्नुः प्रति॒  त्वादित्यस्त्वग्वेत्तु ॥

-यजु० १ । १४

हे नायक!

तू राष्ट्र का (शर्म असि) शरणरूप और सुखदाता है। ऐसा प्रयत्न कर कि (रक्षः) राक्षस (अवधूतं) प्रकम्पित हो उठे, (अरातयः) शत्रु (अवधूताः) प्रकम्पित हो जाएँ। हे सेना ! तू (अदित्याः) राष्ट्रभूमि की (त्वक् असि) त्वचा है, (अदितिः) राष्ट्रभूमि (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने । हे नायक! तू (अद्रिः असि) पहाड़ है, बादल है, वज्र है, (वानस्पत्यः) ईंधन है, (ग्रावा असि) पाषाण है, (पृथुबुध्नः) विशाल मस्तिष्क वाला है। (अदित्याः त्वक्) राष्ट्रभूमि की त्वचारूप सेना (त्वा प्रति वेत्तु) तुझे जाने।।

हे राजन् !

हमने आपको अपना नेता चुना है, राष्ट्र का नायक बनाया है, क्योंकि आप प्रजा को शरण और सुख देने में समर्थ हैं। जब तक आपके प्रतिद्वन्द्वी राक्षसजन और शत्रु हैं, तब्र तक राष्ट्र सुखी नहीं हो सकता । निर्दय, हत्यारे, कुटिल, स्वार्थी लोग राक्षस कहलाते हैं, जिनसे सज्जनों की अपनी रक्षा करनी पड़ती है, जो एकान्त पाकर घात करते हैं या रात्रि में अपनी गतिविधि करते हैं । शत्रु वे हैं जो आपको पद्दलित करके आपका राज्य हथियाना चाहते हैं। वे शत्रु कुछ व्यक्ति भी हो सकते हैं और एक बड़ा सङ्गठन या शत्रु-राष्ट्र भी हो सकता है। आप उन आततायी, आतङ्कवादी राक्षसों और शत्रुओं लोगों के भी वश के नहीं होते ।

उत्साह का सञ्चय करके ही हनुमान् सीता की खोज में समुद्र पार करके लङ्का पहुँच गये थे और लक्ष्मण को पुनर्जीवित करने के लिए गन्धमादन पर्वत से संजीवनी बूटी ले आये थे। तू देवयज्ञ की अग्नि को भी अपने अन्दर धारण कर। परमात्मदेव की पूजा की अग्नि, विद्वानों के सेवा-सत्कार की अग्नि और अग्निहोत्र की अग्नि ही देवयज्ञ की अग्नि है। तू चिन्ताग्नि को विदा करके उसके स्थान पर परमेश्वर का चिन्तन कर, विद्वजनों के सत्कार का अतिथियज्ञ रचा और सायं-प्रात: अग्निहोत्र करके वायुमण्डल को शुद्ध और सुगन्धित कर।।

हे मेरे मन!

तू मेरे आत्मा के साथ ध्रुव रूप में रहनेवाला महारथी है, तू मेरा ध्रुव तारा है। मैं तुझे अपने आत्मा के सहायक महामन्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता हूँ। तू ‘ब्रह्मवनि’ हो, ब्रह्म के चिन्तन में सहायक बन, ब्रह्म के कीर्तन में सहायक बन, ब्रह्मबल के अर्जित करने में साधन बन, ब्राह्मण का कार्य करने में साधन बन । तू ‘ क्षत्रवनि’ हो, क्षात्रधर्म का पालन करने में सहायक हो, दीन-दु:खियों की रक्षा करने में साधन बन । तू ‘सजातवनि’ हो, शरीर में तेरे साथ आयी हुई जो ज्ञानेन्द्रियाँ चक्षु, श्रोत्र, रसना, नासिका और त्वचा हैं, उनसे प्राप्त होने वाले ज्ञानों की प्राप्ति में साधन बन, क्योंकि तेरा सहयोग यदि नहीं है तो मनुष्य आँखों से देखता हुआ भी नहीं देखता, कानों से सुनता हुआ भी नहीं सुनता, जिह्वा से चखता हुआ भी स्वाद नहीं पहचानता, नासिका से सूंघता हुआ भी गन्ध अनुभव नहीं करता, त्वचा से स्पर्श करता हुआ भी कोमल-कठोर को नहीं जानता।

हे मेरे मन!

मैं तुझे शत्रु के वध के लिए प्रतिष्ठित करता हूँ। पहले तो जो आन्तरिक षड् रिपु हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, इनके विनाश में तुझे आत्मा का सहयोगी बनना है। दूसरे हैं बाह्य शत्रु, जो मेरी उन्नति में बाधक बनते हैं। उनका संहार करने के लिए या उन्हें मित्र बनाने के लिए भी मनोबल की आवश्यकता है।

हे मेरे आत्मन् !

हे मेरे मन! तुम यदि मिल कर उद्यम करो, तो बड़े से बड़ा अन्तः साम्राज्य और बाह्य साम्राज्य प्राप्त हो सकता है, बड़े से बड़ा अन्तः-शत्रु और बाह्य शत्रु पराजित हो सकता है।

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

 

पाद-टिप्पणियाँ

१. (ञि) धृषा प्रागल्भ्ये, स्वादिः, क्तिन् ।

२. आमान् अपक्वान् अत्ति तम्-द०भा० ।

३. क्रव्यं पक्वमांसम् अत्ति तस्मान्निर्गतः तम्-द०भा० |

४. षिधु गत्याम्, भ्वादिः । ‘सेधति’ गत्यर्थक, निघं० २.१४।।

५. ब्रह्म वनति संभजते तत्। वन शब्दे संभक्तौ च, भ्वादिः ।

६. भ्रातृ-व्यन् प्रत्यय शत्रु अर्थ में । व्यन् सपत्ने, पा० ४.१.१४५ ।।

७. चिता चिन्ता द्वयोर्मध्ये चिन्ता चैव गरीयसी । चिता दहति निर्जीवं चिन्ता चैव सजीवकम् ।।

८. ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं मनो जविष्ठं पतयत्स्वन्तः।। —ऋ० ६.९.५

 

राष्ट्रनायक के लिए वेद आज्ञा

व्रतग्रहण : अमृत से सत्य की ओर -रामनाथ विद्यालंकार

व्रतग्रहण : अमृत से सत्य की ओर  

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निः । छन्दः आर्ची त्रिष्टुप् ।

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमूहमनृतात् सत्यमुपैमि

-यजु० १।५

हे ( व्रतपते ) व्रतों का पालन करनेवाले (अग्ने) अग्रनायक जगदीश्वर, राजन् व विद्वन् ! मैं ( व्रतं चरिष्यामि ) व्रत का अनुष्ठान करूंगा। (तत् ) उस व्रत को ( शकेयम् ) पालन करने में समर्थ होऊँ। ( तत् मे ) वह मेरा व्रत (राध्यताम् ) सिद्ध हो। वह व्रत यह है कि ( अहं ) मैं ( इदं ) यह ( अनृतात् ) अनृत को छोड़ कर ( सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि) प्राप्त होता हूँ।

हे सर्वाग्रणी विश्वनायक जगदीश्वर आप सबसे बड़े व्रतपति हैं। आपने उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय, न्याय, निष्पक्षता, परोपकार, सत्यनिष्ठा आदि अनेक व्रतों को स्वेच्छा से ग्रहण किया हुआ है, जिनका आप सदैव पालन करते हैं। अतएव आपको साक्षी रख कर आज मैं भी एक व्रत ग्रहण करता हूँ। वह मेरा व्रत यह है कि आज से मैं अमृत को त्याग कर सदा सत्य को अपनाऊँगा। अब तक मैं अपने जीवन में अनेक अवसरों पर असत्य भाषण और सत्य आचरण करता रहा हूँ, कई बार प्रलोभनों में पड़ कर मन, वाणी और कर्म से असत्य में लिप्त होता रहा हूँ। परन्तु आज मैं आपके संमुख उस असत्य से मुँह मोड़ने की प्रतिज्ञा करता हूँ। मेरे गुरु ने मुझे सिखाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। आप ऐसी शक्ति दीजिए कि इस व्रत का मैं पालन कर सकें।

यदि कभी मैं अपने व्रत को भूल कर सत्य से विमुख होने लगूं तो मेरे हृदय में बैठे हुए आप मुझे मेरा व्रत स्मरण करा कर होनेवाले स्खलन से मुझे बचा लीजिए। ऐसी कृपा कीजिए कि मैं अपने जीवन के अन्त तक इस व्रत का पालन करता रहूँ और इस व्रतपालन से मिलनेवाले सुमधुर फलों के आस्वादन से कृतकृत्य होता रहूँ।

व्रतपति जगदीश्वर के अतिरिक्त अन्य व्रतपतियों को भी मैं अपने इस व्रत का साक्षी बनाता हूँ। यदि मैं अपने राष्ट्र का प्रतिनिधि होकर संयुक्त राष्ट्रसंघ में गया हूँ, तो उसके अध्यक्षरूप व्रतपति के संमुख सदा सत्य का ही पक्ष लेने की प्रतिज्ञा करता हूँ। यदि में राज्यपरिषद् का सदस्य या राज्य का कोई उच्च अधिकारी हूँ तो राष्ट्रनायक के समक्ष प्रण लेता हूँ कि मैं सदा सत्य का ही पक्षपोषण करूंगा। यदि किसी सभा का सदस्य हूँ तो उसके सभापति के संमुख, यदि मैं किसी संस्था का कर्मचारी हूँ तो उस संस्था के अध्यक्ष के संमुख, यदि किसी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का शिक्षक या विद्यार्थी हूँ तो उसके कुलपति या प्राचार्य के संमुख, यदि मैं किसी संघ का सदस्य हूँ तो संघचालक के संमुख और जिस परिवार का मैं अङ्ग हूँ, उस परिवार के गृहपति के संमुख मैं सदा सत्य पर ही चलने का व्रत ग्रहण करता हूँ।

इन सबके अतिरिक्त यज्ञाग्नि भी व्रतपति है। प्रभु ने सृष्टि के आरम्भ में जो व्रत उसके लिए निश्चित कर दिया था, उसी व्रत का वह आज तक पालन करता चला आया है। अतः प्रतिदिन प्रात:सायं अग्निहोत्र करते हुए उस व्रतपति अग्नि के सामने भी सत्य का व्रत लेता हूँ। उस व्रतपति अग्नि की ऊपर उठती हुई ज्वालाएँ नित्य मेरे अन्तरात्मा में सत्य की ज्योति को जागृत करती रहें।

शतपथकार का कथन है कि देवजन सत्य के व्रत का ही आचरण करते हैं, इस कारण वे यशस्वी होते हैं। इसी प्रकार अन्य भी जो कोई सत्यभाषण और सत्य का आचरण करता है, वह यशस्वी होता है।

व्रतग्रहण

पादटिप्पणियाँ

१. शकेयम्, शक्लै शक्तौ ।

२. राध्यताम्, राध संसिद्धौ।

३. एतद्ध वै देवा व्रतं चरन्ति यत् सत्यं, तस्मात् ते यश, यशो ह भवति य एवं विद्वांत्सत्यं वदति। -श० १.१.१.५

व्रतग्रहण   -रामनाथ विद्यालंकार

हे गौ माता -रामनाथ विद्यालंकार

हे गौ माता। 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता सविता। छन्दः क. स्वराड् बृहती, र. ब्राह्मी उष्णिक्।

ओ३म् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमा कर्मणूऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं ‘प्रजार्वतीरनमीवाऽ अयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघशसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात ह्वीर्यजमानस्य शून् पाहि॥

-यजु० १ । १ 

हे गौ माता !

मैं (इषे त्वा ) अन्नोत्पत्ति के लिए तुझे पालता हूँ, (अर्जे त्वा ) बलप्राणदायक गोरस के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम (वायवः स्थ) वायु के समान जीवनाधार हो। ( देवः सविता ) दाता परमेश्वर व राजा ( श्रेष्ठतमाय कर्मणे ) श्रेष्ठतम कर्म के लिए, हमें (वः प्रार्पयतु) तुम गौओं को प्रदान करे। (अघ्न्याः ) हे न मारी जानेवाली गौओ! तुम (आप्यायध्वम् ) वृद्धि प्राप्त करो, हृष्टपुष्ट होवो। ( इन्द्राय) मुझ यज्ञपति इन्द्र के लिए ( भागं ) भाग प्रदान करती रहो। तुम (प्रजावतीः ) प्रशस्त बछड़े-बछड़ियों वाली, ( अनमीवा:६) नीरोग तथा ( अयक्ष्माः ) राजयक्ष्मा आदि भयङ्कर रोगों से रहित होवो। ( स्तेनः ) चोर (वः मा ईशत ) तुम्हारा स्वामी न बने, ( मा अघशंसः ) न ही पापप्रशंसक मनुष्य तुम्हारा स्वामी बने। (अस्मिन् गोपतौ ) इस मुझ गोपालक के पास ( धुवाः ) स्थिर और ( बह्वीः७) बहुत-सी ( स्यात ) होवो। हे परमेश्वर व राजन ! आप ( यजमानस्य ) यजमान के (पशून्) पशुओं की ( पाहि ) रक्षा करो।

 हे गौ माता !

मैं तुझे पालता हूँ तेरी सेवा के लिए, अन्नोत्पत्ति के लिए और गोरस की प्राप्ति के लिए। तू सबका उपकार करती है, अत: तेरी सेवा करना मेरा परम धर्म है, इस कारण तुझे पालता हूँ।

तुझे पालने का दूसरा प्रयोजन अन्नोत्पत्ति है। तेरे गोबर और मूत्र से कृषि के लिए खाद बनेगा, तेरे बछड़े बैल बनकर हल जोतेंगे, बैलगाड़ियों में जुत कर अन्न खेतों से खलिहानों तक और व्यापारियों तथा उपभोक्ताओं तक ले जायेंगे।इस प्रकार तू अन्न प्राप्त कराने में सहायक होगी, इस हेतु तुझे पालता हूँ।

तीसरे तेरा दूध अमृतोपम है, पुष्टिदायक, स्वास्थ्यप्रद, रोगनाशक तथा सात्त्विक है, उसकी प्राप्ति के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम वायु हो, वायु के समान जीवनाधार हो, प्राणप्रद हो, इसलिए तुम्हें पालता हूँ।

दानी परमेश्वर की कृपा से तुम मुझे प्राप्त होती रहो। राष्ट्र के ‘सविता देव’ का, राष्ट्रनायक राजा प्रधानमन्त्री और मुख्य मन्त्रियों का भी यह कर्तव्य है कि वे श्रेष्ठतम कर्म के लिए तुम्हें गोपालकों के पास पहुँचाएँ राष्ट्र की केन्द्रीय गोशाला में अच्छी जाति की गौएँ पाली जाएँ, जो प्रचुर दूध देती हों और गोपालन के इच्छुक जनों को उचित मूल्य पर दी जाएँ।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ है। अग्निहोत्र रूप यज्ञ के लिए भी और परिवार के सदस्यों तथा अतिथियों को तुम्हारा नवनीत और दूध खिलाने-पिलाने रूप यज्ञ के लिए भी प्रजाजनों को राजपुरुषों द्वारा उत्तम जाति की गौएँ प्राप्त करायी जानी चाहिएँ।

हे गौओ!

तुम ‘अघ्न्या’ हो, न मारने योग्य हो । राष्ट्र में राजनियम बन जाना चाहिए कि गौएँ। मारी–काटी न जाएँ, न उनका मांस खाया जाए। यदि किसी। प्रदेश में बूचड़खाने हैं तो बन्द होने चाहिएँ। दुर्भाग्य है हमारा कि वेदों के ही देश में वेदाज्ञा का पालन नहीं हो रहा है। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है, न उसके दाँत मांस चबाने योग्य हैं, न आँतें मांस पचाने योग्य हैं।

हे गौओ !

तुम अच्छी पुष्ट होकर रहो। मुझ यज्ञपति इन्द्र का भाग मुझे देती रहो, बछड़े-बछड़ियों का भाग उन्हें प्रदान करती रहो। तुम प्रजावती होवो, उत्तम और स्वस्थ बछड़े-बछड़ियों की जननी बनो । तुम रोगरहित और यक्ष्मारहित होवो। तुम मुझ सदाचारी याज्ञिक गोस्वामी के पास रहो, चोर तुम्हें न चुराने पावे। पापप्रशंसक और पापी मनुष्य तुम्हारा स्वामी न बने। पापी नर-पिशाचों को गोरस नसीब न हो। मुझ गोपालक के पास तुम स्थिररूप से रहो, संख्या में बहुत होकर रहो, जिससे मैं गोशाला चलाकर उन्हें भी तुम्हारा दूध प्राप्त करा सकें, जो स्वयं गोपालन नहीं कर सकते हैं।

हे परमेश्वर ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो, हे राजन् ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो।


पाद-टिप्पणियाँ

१. इष्=अन्न, निघं० २.७।

२. ऊर्ग रसः, श० ५.१.२.८ । ऊर्जा बलप्राणनयोः, चुरादिः ।।

३. दीव्यति ददातीति देवः दाता। देवो दानाद्, निरु० ७.१५ ।

४. षु प्रसवैश्वर्ययोः, भ्वादिः, घूङ् प्राणिगर्भविमोचने, अदादिः । | ( सविता सर्वजगदुत्पादकः सकलैश्वर्यवान् जगदीश्वरः-द०भा० । (सवितः) सकलैश्वर्ययुक्त सम्राट्, य० ९.१-द०भा० ।।

५. (ओ) प्यायी वृद्धौ, भ्वादिः ।।

६. (अनमीवाः) अमीवो व्याधिर्न विद्यते यासु ताः । अम रोगे इत्यस्माद् | बाहुलकाद् औणादिक ईवन् प्रत्यय:-द०भा० ।

७. बह्वीः=बह्वयः । बह्वी+जस्, पूर्वसवर्णदीर्घ, वा छन्दसि पा० ६.१.१०६ ।।

८. यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। -श०१.७.१.५

९. अघ्न्या=गौ, निघं० २.११। अघ्न्या अहन्तव्या भवति, निरु० ११.४० । अघ्न्या इति गवां नाम के एता हन्तुमर्हति, म०भा० शान्तिपर्व २६३ ।

-रामनाथ विद्यालंकार

अभिव्यक्ति की आजादी का बलात्कार (लोयोला कॉलेज कांड)

हिन्दू देवी देवताओं का अश्लीलता पूर्वक अपमान 

वीथी विरुधु विजाह नाम का एक लोक उत्सव चेन्नई के लोयोला कोलेज में मनाया गया और उसमें अभिव्यक्ति की आजादी का बलात्कार कर दिया गया

जी हाँ !! बलात्कार ! बलात्कार की परिभाषा यही तो है की किसी भी चीज का भोग उसकी सीमा से अधिक जाकर करना, उसकी इच्छा उसकी हद से अधिक जबरदस्ती करना

चन्नई में वामपंथ और ईसाई मिशनरी बहुत हावी है यह बात जानकारों से तो नहीं छुप्पी हुई है परन्तु देखकर, जानकर भी शुतुरमुर्ग बने हुए लोगों की खोपड़ियों को धरती से निकालकर उन्हें समझाने का समय आ गया है

एम् ऍफ़ हुसैन का नाम तो सुना ही होगा आपने, उसने जो सीमा अभिव्यक्ति की आजादी की पार की थी आज उसी तरह का कुकृत्य वीथी विरुधु विजाह उत्सव के दौरान लोयोला कोलेज में हुआ है

सहिष्णु कौम हिन्दुओं के देवी देवताओं पर अश्लील पेंटिंग बनाकर इस कोलेज में प्रस्तुत की गई है पेंटिंग इस तरह की निचले स्तर की है लिखते हुए भी शर्म आती है

एक पेंटिंग में हिन्दुओं के साहस के प्रतीक त्रिशूल को लड़की की योनी में घुसाया हुआ है

एक पेंटिंग में त्रिशूल को कोंडम पहना रखा है
एक पेंटिंग में भारत माता के प्रतीकात्मक चित्र पर वीर्य गिरते दिखाया है (चित्र में स्पर्म के मुहं की जगह टेलीकोम कम्पनियों के लोगो है )

बाकि पेंटिंग में त्रिशूल और हिन्दुओं को हत्यारा सिद्ध किया गया है

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बाकि कुछ राजनीती से प्रेरित है

आश्चर्य का विषय यह है की इस पर बीजेपी के आलावा किसी भी राजनैतिक सन्गठन ने आपति नही जताई बल्कि सीपीएम जैसी पार्टियों के पदाधिकरियों ने इसे कला बताते हुए इसका पक्ष ले लिया है

क्या यही है अभिव्यक्ति की आजादी, क्या इस आजादी का पैमाना यह है की अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हुए आप किसी भी मत मजहब की भावनाओं का अनादर ही नही बलात्कार तक कर डालों ?

चार्ली हेब्दों की पेंटिंग पर आप यहाँ तक उतेजित हो जाते हो की यह तथाकथित शांतिप्रिय सम्प्रदाय उस चार्ली हेब्दों के जीवन में पूर्णकालिक शांति कर देता है, तब आप शांतिप्रिय के कार्य को उचित ठहराते हुए चार्ली हेब्दों की अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रश्न उठाते हो, परन्तु जब यही कार्य हिन्दुओं के देवी देवताओं पर किया जाता है तो आप इसे अभिव्यक्ति की आजादी कहते हो

यह दोगलापन कहाँ से आ जाता है ?
क्या अभिव्यक्ति की प्रस्तुती करते हुए किसी भी हद तक चले जाओगे ? इसका हक आपको कौनसा संविधान देता है ? यदि इस कृत्य को अभिव्यक्ति की आजादी करार दिया गया तो विश्वास कीजिये कई चार्ली हेब्दो पैदा होंगे जो बिन बाप के पैदा हुए संतानों को भी अभिव्यक्ति की आजादी के तहत नंगा कर देंगे

वामपंथ इस देश में हद से अधिक हावी हो चूका है यदि अब समय रहते इसे इसी की भाषा में जवाब नही दिया गया तो विश्वास कीजिये यह आपके घरों में घुसकर आपको ही बाहर निकाल देगा

जयंती, जन्मतिथि मनाये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण :- डॉ वेदपाल

शङ्का समाधान 

 डॉ. वेदपाल, मेरठ

शङ्का- आजकल व्यक्ति, महापुरुषों, संस्था के जन्मदिन, जयन्ती, विवाह दिन, मृत्यु दिन, प्रतिवर्ष तीज त्यौहार मनाते हैं। प्राचीनकाल में ऐसा देखने को नहीं मिलता आदि-आदि। क्या इस विषय में ऐतिहासिक व महर्षि अभिमत प्रमाण हैं?

वृद्धिचन्द्र गुप्त, जयपुर

समाधान- आपके विस्तृत शङ्कात्मक लेख का सार शङ्का के रूप में यहाँ उद्धृत कर दिया गया है। व्यक्ति के द्वारा क्रियमाण कर्मों को नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य इस रूप में विभक्त कर समझना सुगम रहेगा। नित्यकर्म वह कर्म हैं, जो व्यक्ति के द्वारा प्रतिदिन किए जाने चाहिए। इन कर्मों का ऐहिक प्रयोजन स्वल्प है, किन्तु आमुष्यिक प्रयोजन अतिमहत्त्वपूर्ण है। यथा-सन्ध्या, अग्निहोत्र आदि। ये वैयक्तिक तथा लौकिक प्रयोजन के स्वल्प होने पर भी पारमार्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

नैमित्तिक कर्म-  किसी निमित्त को दृष्टिगत रखकर किए जाने वाले कर्म नैमित्तिक हैं, क्योंकि निमित्त के न रहने पर इन कर्मों का आयोजन नहीं होता है। एतद्विषयक परिभाषा है-‘‘निमित्तापाये नैमित्तिकस्यापाय:’’। संस्कार तथा संस्कारों के अवसर पर होने वाले यज्ञ आदि भी नित्य न होकर नैमित्तिक ही कहलाते हैं।

काम्य कर्म- व्यक्ति द्वारा किन्हीं विशिष्ट कामनाओं (जैसे पुत्र की कामना से पुत्र्येष्टि, वर्षा की कामना से वर्षेष्टि आदि यज्ञ विशेष) को दृष्टिगत रखकर किए जाने वाले कर्म हैं। इनमें विभिन्न प्रकार के लौकिक कर्म-आयोजन के साथ कामना पूत्र्यर्थ किए जाने वाले यज्ञ आदि भी परिगणित किए जा सकते हैं। इस प्रकार यदि आप देखें, तब तीनों अवसरों (नित्य, निमित्त [नैमित्तिक], कामना) पर होने वाले यज्ञ भी पृथक्-पृथक् हैं।

जन्मदिन आदि मनाने का ऐतिहासिक व महर्षि प्रतिपादित प्रमाण विषयक आपका प्रश्न इस रूप में देखा जाना चाहिए कि उसका शास्त्र अथवा महर्षि मन्तव्यों से विरोध अथवा अविरोध किस रूप में है? जन्मदिन, किसी संस्था का स्थापना दिवस, उसकी रजत, स्वर्ण आदि जयन्ती, व्यक्ति की वैवाहिक वर्षगांठ तथा मरण दिवस-बलिदान दिवस जिसे कभी शहीदी दिवस कहा जाता है को मनाए जाने का प्रयोजन क्या है?

सामान्यत: जन्मदिन, संस्था का स्थापना दिवस, उसकी रजत, स्वर्ण आदि जयन्ती का अवसर-इनके मनाने का प्रयोजन यदि एक क्षण के लिए ठहरकर यह अवलोकन करना है कि जीवन अथवा संस्था के उद्देश्य पूर्ति की दशा में किए जाने वाले प्रयत्न क्या ठीक प्रकार किए जा रहे हैं अथवा न्यूनता है? इत्यादि के विचारपूर्वक किए जाने वाले आयोजन का निश्चय ही शास्त्र से अविरोध है, भले ही शास्त्रकारों ने इसका विधान न किया हो। इसी प्रकार किसी बलिदान (गुरु तेगबहादुर, बन्दा बैरागी, महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम आदि-आदि) को स्मरण करना उसी विशिष्ट तिथि को सम्भव है। यदि कोई कुल, समाज अथवा राष्ट्र ऐसे अवसर पर किन्हीं प्रेरक घटनाओं का स्मरण कर उन महापुरुषों के द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलने का संकल्प ले और विगत वर्ष का अवलोकन कर प्रेरणा ग्रहण करता है, तब इसे भी शास्त्राविरोधी मानना चाहिए, किन्तु किसी मरणदिन के अवसर पर उस मृतात्मा के नाम पर श्राद्धादि कर्म निश्चय ही शास्त्र-विरोधी होंगे।

आपकी अन्तिम शङ्का तीज-त्यौहार के सन्दर्भ में यह विवेच्य है कि शास्त्र पर्व का विधान करते हैं। पर्व के स्थान पर ही त्यौहार शब्द का प्रयोग है। तीज शब्द तृतीया तिथि का वाचक है। हिन्दुओं के (पौराणिक जगत् के) पर्व संवत्सर प्रारम्भ के बाद हरयाली तीज-श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया से प्रारम्भ होते हैं। अत: त्यौहार से पूर्व तीज शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ होगा, किन्तु इस तृतीया (तीज) का पर्व शास्त्रविहित नहीं है। हाँ, वैदिक संस्कृति में विहित पर्व (पर्व अभिप्राय है जोड़, सन्धि इसलिए शुक्ल एवं कृष्ण पक्ष के सन्धि-पर्व दिन अमावस्या एवं पूर्णिमा हैं।) अर्थात् अमावस्या-पूर्णिमा के दिन मनाने का विधान है। दर्शपौर्णमासेष्टि के साथ चातुर्मास्येष्टि सभी पर्व इन दिनों में ही सम्पन्न होते हैं। आजकल रक्षाबन्धन के नाम से प्रसिद्ध श्रावणी उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा के दिन ही होता है। इन पर्व-दिन में शास्त्र इष्टि (यज्ञ) का विधान करते हैं।

श्रौत सूत्रों के पश्चवर्ती काल (गृह्यसूत्रों) में अष्टका भी विहित हैं। महर्षि दयानन्द श्रावणी आदि चातुर्मास्येष्टि के साथ दर्शपौर्णमास के समर्थक हैं। राम-कृष्ण के जन्म की तिथियां उल्लिखित हैं, किन्तु याज्ञवल्क्य, मनु आदि की अज्ञात हैं। इस सन्दर्भ में ऐतिहासिक परिस्थितियां भी कम उत्तरदायी नहीं हैं। गुरुवर विरजानन्द दण्डी के जीवन संघर्ष पर विचार करें, तो स्पष्ट होगा कि उनकी जन्मतिथि आदि स्मरण करने वाला कौन था?

प्राण अपान शब्द पर शंका समाधान :- डॉ वेदपाल

शंङ्का – समाधान 

– डॉ. वेदपाल

शङ्का-    शरीर में श्वास लेते समय प्राणवायु ऑक्सीजन प्रवेश करती है, अत: श्वास लेने को प्राण कहना ही युक्तिसंगत है।श्वास छोड़ते समय हानिकारक गैस कार्बन-डाइऑक्साइड शरीर से बाहर निकलती है, इसलिये श्वास छोडऩे को अपान कहना युक्तिसंगत है। वैसे भी पान का अर्थ है, ग्रहण करना। अत: अपान शब्द पान शब्द का विलोम हुआ। इस कारण अपान का अर्थ हुआ छोडऩा। अत: श्वास छोडऩे को ही अपान तथा श्वास लेने को प्राण कहना तार्किक एवं सही है। महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के ‘वेदोक्त धर्म-विषय’ में अथर्ववेद के मन्त्र-१२/५/९ की व्याख्या करते हुये प्राण और अपान के सम्बन्ध में जो उल्लेख किया गया है, वह इससे उलटा है। इसमें श्वास छोडऩे को प्राण और श्वास लेने को अपान कहा है। अथर्ववेद के मन्त्र-४/१३/२ एवं ३ की व्याख्या करते हुये श्री क्षेमकरणदास त्रिवेदी और पण्डित हरिशरण सिद्धान्तालंकार ने श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है। ऋग्वेद के मन्त्र-१०/१३७/२ एवं ३ में भी ऐसा ही लिखा है। पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘जीवात्मा’ में भी पृष्ठ-५६ पर श्वास लेने को प्राण और छोडऩे को अपान ही लिखा है।

अत: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदोक्त धर्म-विषय में उपरोक्त त्रुटि ‘लेखन-त्रुटि’ ही प्रतीत होती है। विद्वानों द्वारा गहन विचार-विमर्श उपरान्त एकमत होकर इस लेखन-त्रुटि को ठीक कर देना चाहिये।

– जगदीश प्रसाद शर्मा, भोपाल

समाधान-   सर्वप्रथम अथर्व १२.५.९ ‘आयुश्च रूपं च नाम च कीर्तिश्च प्राणश्चापानश्च चक्षुश्च श्रोत्रं च’-मन्त्रस्थ प्राण-अपान की महर्षि कृत व्याख्या को लें-‘‘शरीराद् बाह्यदेशं यो वायुर्गच्छति स ‘प्राण:’ बाह्यदेशाच्छरीरं प्रविशति स वायुरपान:’’(ऋ.भा.भू.)।

शर्मा जी का अभिमत कि महर्षिकृत व्याख्या अन्य विद्वानों द्वारा अनुमोदित नहीं है। अत: लेखन-त्रुटि मानकर ठीक कर देना चाहिए के सन्दर्भ में निम्र बिन्दु विचारणीय हैं-

१. शर्मा जी द्वारा अपान शब्द को पान शब्द का विलोम मानना उचित नहीं है। पान शब्द पा धातु से ल्युट् प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है, जबकि अपान शब्द अप उपसर्ग पूर्वक अन प्राणने (अदादि.) धातु (पा नहीं)से अच् प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है-अपानयति मूत्रादिकम् (अप+आ+नी+ड वा)।

यदि दुर्जनतोष न्याय से अपान शब्द को पान शब्द से नञ् समास का अवशिष्ट अ पूर्वक मान भी लें तो नञ् (अ) केवल निषेधार्थक ही नहीं है। नञ् के छ: अर्थ हैं-

तत्सादृश्यं तदन्यत्वं तदल्पत्वं विरोधिता।

अप्राशस्त्यमभावश्च नञर्था: षट् प्रकीर्तिता:।।

वामन शिवराम आप्टे (संस्कृत हिन्दी कोष, प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) ने अपान शब्द के निम्र अर्थ किए हैं-

‘‘श्वास बाहर निकालना, श्वास लेने की क्रिया, शरीर में रहने वाले पांच पवनों में से एक जो कि नीचे की ओर जाता है तथा गुदा के मार्ग से बाहर निकलता है’’-पृ. ६२

२. प्राण शरीर में रहते हुए क्रिया भेद के आधार पर प्राण-अपान-व्यान-समान-उदान कहा जाता है। तद्यथा- ‘‘प्राणोऽन्त: शरीरे रसमलधातूनां प्रेरणादिहेतुरेक: सन् क्रियाभेदादपादानादिसंज्ञां लभते’’- प्रशस्तपाद (द्रव्ये वायु प्रकरणम्) सम्पूर्णानन्द-संस्कृतविश्वविद्यालय: वाराणसी, द्वि.सं. पृ. १२१

उपर्युद्धृत प्रशस्तपाद पर कन्दली भी द्रष्टव्य है-‘‘मूत्रपुरीषयोरधोनयनादपान:, रसस्य गर्भनाडीवितननाद् व्यान:, अन्नपानादेरूध्र्वं नयनादुदान:, मुखनासिकाभ्यां निष्क्रमणात् प्राण:, आहारेषु पाकार्थमुदरस्य वह्ने: समं सर्वत्र नयनात् समान इति न वास्तव्यमेतेषां पञ्चत्वमपितु कल्पितम्।’’

३. वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार सायण का अथर्ववेद के १२ वें काण्ड पर भाष्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु अथर्व १८.२.४६ ‘प्राणो अपानो व्यान:………’ मन्त्र की सायण व्याख्या द्रष्टव्य है-

‘‘मुख्य प्राणस्य तिस्रो वृत्तय: प्राणाद्या:। मुखनासिकाभ्यां बहिर्नि:सरन् वायु: प्राण:। अन्तर्गच्छन् अपान:। मध्यस्थ: सन् अशितपीतादिकं विविधम् आनयति कृत्स्नदेहं व्यापयतीति व्यान:।’’

आचार्य सायण भी प्राण अपान का वही अर्थ करते हैं जो ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में उपलब्ध है।

४. अथर्व ११.४.८ ‘नमस्ते प्राण प्राणते नमो अस्त्वपानते’- मंत्र का पं. जयदेव कृत अर्थ- हे (प्राण प्राणते नम:) प्राण! प्राणक्रिया करते, श्वास त्यागते हुए तुझे नमस्कार है।

(अपानते नम: अस्तु) श्वास ग्रहण करते हुए तुझे नमस्कार है।

इसी प्रकार अथर्व ११.४.१४ पर भी पं. जयदेव एवं सायण भाष्य भी द्रष्टव्य हैं।

५. वैशेषिक दर्शन ३.२.४-‘प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकारा: सुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि’ सूत्र पर पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनिकृत प्राण-अपान की व्याख्या- ‘मुखनासिकाभ्यां बहिर्निष्क्रमणशील: ऊध्र्वगतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायु: प्राण:। मूत्रपुरीषयोरधोनयनहेतु वाग्गतिक: शरीरान्त: सञ्चारी वायुरपान:।’

उक्त सूूत्र पर पं. तुलसीराम स्वामी -‘‘मुख और नासिका से बाहर निकलने वाला, ऊपर को चलने वाला, शरीरस्थ वायु प्राण कहाता है, मूत्र और विष्ठा को नीचे निकालने वाला शरीरस्थ वायु अपान कहाता है।’’

६. सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास पृ. १२६ पर जीव के गुणों के वर्णन में महर्षि दयानन्द वैशेषिक के पूर्व उद्धृत सूत्र ३.२.४ की व्याख्य ‘(प्राण) प्राण वायु को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना करते हैं।’

७. वाचस्पत्यम् शब्दकोष में भी-प्राण: वायुस्तस्य कर्म नासाग्रतो बहिर्गति: (भाग-६, पृ. ४५०८) नासाग्र से बाहर जाने वाले वायु को प्राण कहा है।

उक्त सभी सन्दर्भों को दृष्टिगत रखकर यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्दकृत अर्थ की सम्पुष्टि आचार्य सायण, महर्षि द्वारा मान्य वैशेषिक के भाष्यकार प्रशस्तपाद के कन्दली टीकाकार श्रीधर, पं. हरिप्रसाद वैदिक मुनि, संस्कृत के प्रसिद्ध कोष वाचस्पत्यम्, कोषकार आप्टे, पं. जयदेव तथा पं. तुलसीराम आदिकृत भाष्य से होती है। अत: परम्परा द्वारा स्वीकृ त होने से महर्षिकृत अर्थ त्रुटिपूर्ण नहीं है।