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कुरान समीक्षा : खुदा ने गोश्त पकाकर उतारा

खुदा ने गोश्त पकाकर उतारा

खुदा ने गोश्त स्वयं पकाया था या किसी होटल में पकवाया था? खुदा ने अंगूर, रबड़ी, हलवा पूड़ी के थाल क्यों नहीं उतारे थे ? क्या खुदा भी गोश्त खाना पसंद करता है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

व अल्लल्ना अलैकुमुल्-गमा-म……….।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा बकर रूकू ६ आयत ५७)

मैंने तुम पर बादल की छाया की और तुम पर ‘‘मन्न’’ और ‘‘सलवा’’ भी उतारा और हमने जो तुमको पवित्र भोजन दिये है उनको खाओ।

समीक्षा

खुदा पक्षियों को पकड़ के कत्ल करता था उनके पंख व हड्डी नौचकर साफ करता था और मांस को पकाकर अरबी मुसलमानों को खिलाता था। तो क्या इससे खुदा एक बवर्ची जैसा साबित नहीं होता? गोश्त को पकाकर ‘‘सलवा’’ बनाना भी कोई खुदा का पेशा हो सकता है ? अरबी खुदा भी विचित्र आदमी या होटल का मैंनेजर था।

वेदस्रोत से मानवीयमूल्य

वेदस्रोत से मानवीयमूल्य

शिवदेव आर्य

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

मो.—8810005096

 

सुख शान्तिमय जीवन यात्रा तथा परमानन्द के लिए परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान की ज्योति प्रदान की, जिसके आलोक में जीवन श्रेय एवं प्रेयमार्ग पर सुचारूतया संचारित होता है। वेद प्रतिपादित जीवनपद्धति ही नैतिकता का सर्वोच्च आदर्श है। इन उच्चतम जीवनमूल्यों का वैदिक वाङ्मय  एवं परवत्र्ती भारतीय साहित्य में मनीषियों एवं कवियों द्वारा अनेक आख्यानों उपाख्यानों द्वारा चारु चित्रण किया गया है। आपस्तम्ब, बौधायन तथा गौतम आदि धर्मसूत्रकारों द्वारा चारों वर्णों एवं आश्रमियों के कर्तव्यों का विधिवत् उल्लेख किया गया है। मनु महाराज, याज्ञवल्क्य, पाराशर आदि स्मृतिकारों ने श्रुतिवाक्यों का अनुसरण कर पुनः हमें उनका स्मरण कराया। महामना विदुर, आचार्य चाणक्य, महाराज भर्तृहरि आदि मनीषियों ने अपने विधिनीतिवचनों से सुख-शान्ति तथा समृद्धि के प्रशस्त मार्ग पर चलने के लिए पुनः पे्ररित किया, किन्तु अविवेकग्रस्त आधुनिक मानवजाति को श्रुतिस्मृति के विधिनीतिवचन मूर्खतापूर्ण एवं हास्यस्पद प्रतीत होते हैं।

सूख का मूल धर्म है, इसके स्थान पर सुख एवं समृद्धि का आधार अधर्म एवं अनीति प्रतीत होते हैं। धर्मविरुद्ध आचरण या अनैतिकता से भले ही कोई व्यक्ति करोड़पति या अरबपति बन जाये, किसी की सम्पत्ति का अपरहण कर ले, बलात् किसी का उपभोग कर लें किन्तु इससे उसे सुख-शान्ति तथा वैभव की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

सुख या रसानुभूति का आधार हमारा अन्तःकरण है। मन, बुद्धि आदि का विषय के साथ तद्रूपता या तन्मयता ही सर्वविध सुखों का मूलाधार है। दार्शनिक दृष्टि से कहें तो मन की एकाग्रता ही सांसारिक सुखानुभूतियों का एकमात्र कारण है। जब हम किसी सुन्दररूप का दर्शन, मधुर संगीत का श्रवण अथवा सुमधुर रस का आस्वादन कर रहे होते हैं तब इन विषयों के माध्यम से हमारे मन, बुद्धि आदि अन्तःकरण तदाकार हो चित्तवृत्तियों की शान्तता से सुखानुभव कराते हैं। अपरतः कोई भी मनुष्य आत्मा के गुण, धर्म एवं स्वभाव के विरुद्ध अधर्म, पापाचरण या अनैतिककर्म करता है तो उसके मन में स्वाभाविक भय, लज्जा, संकोच आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है।

वेद न केवल प्राचीनतम ग्रन्थ हैं अपितु सब सत्यविद्याओं का आदि स्रोत है। मनुष्य तथा देश के निर्माण की संकल्पना को व्यवहारिक रूप से प्रतिपादन करने में जितना वैदिक साहित्य का स्थान महत्त्वपूर्ण है उतना संसार के किसी भी साहित्य का नहीं है। जीवन के उदात्त मानवीयमूल्यों की अभिव्यक्ति वैदिक साहित्य में  पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है। इसीलिए हमें वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करना चाहिए।

वेद का ज्ञान समस्त मानव तथा प्राणियों के हित को द्योतित करते हुए आदेश देता है कि मनुष्य को अपने कर्तव्य पालन करने में सदैव उद्यत रहना चाहिए। यह कर्तव्य व्यक्तिगत भी है और समष्टिगत भी। मनुष्य का सोचना, समझना और एक निष्कर्ष तक पहुॅंचना, उसके कर्तव्य का हिस्सा ही है। यह कर्तव्य दिव्यमन से शुचितापूर्ण हो, सामुदायिक हो तो निश्चय ही सर्वहितकारी कार्य बिना किसी समस्या के पूर्ण हो सकते हैं। मनुष्य की सोच-समझकर निर्णय लेने की नीति समाज में संगठन को जन्म देती है। अथर्ववेद में कहा गया है कि सं जानामहै मनसा सं चिकित्वा। मा युष्महि मनसा दैव्येन।। (अथर्व.-७/५२/२) अर्थात् हम मन से उत्तम  ज्ञान प्राप्त करें, ज्ञान प्राप्त करके एक मत से रहें तथा परस्पर विरोध न करते हुए दिव्य मन से युक्त होवें।

वैदिक मान्यता के अनुसार सामाजिक संगठन में इकट्ठे होने की भावना होनी चाहिए, साथ ही एक मन और वाणी से परमात्मा की उपासना करने का भाव भी होना चाहिए, क्योंकि सामुदायिक उपासना में सब मनुष्य एक दूसरे से जुडे़ हुए होते हैं। जैसा कि समेत विश्वे वचसा पतिं दिव दिव एको विभूरतिथिर्जनानाम्। स पूव्र्यो नूतनमाविवासत् तं वर्तनिरनु तं वर्तनिरनु वावृतएकमित्पुरु।। (अथर्व.-७/२१/१)  यह मन्त्र कहता है – परमात्मा दिव्य है, सर्वव्यापक है, पुराने और नये सबमें व्याप्त है। उसके प्रति सब इकट्ठे होकर एक वाणी से उसके यशोगीत गायें।

मानवीय दृष्टिकोण को प्रतिपादित करते हुए वेदों में कहा है कि तुम बस एक दुसरे से प्रेमपूर्वक सत्य, प्रिय एवं हितकर भाषण करते हुए आगे बढ़ो, पृथक्-पृथक् मत होओ, परस्पर विरोध मत करो, सम्मिलित होकर रहो।

असत्य, अधर्म, अनीति के प्रति सबके अन्तःकरण में अश्रद्धा, भय लज्जा, संकोच आदि के भाव   उत्पन्न होते हैं तथा सत्य, धर्म, नैतिकता के प्रति सबके अन्तःकरण में श्रद्धा आदि का भाव  परमेश्वर ने स्वभावतः उत्पन्न किया है। अधर्म या अनैतिक आचरणजन्य इन अश्रद्धा भय आदि से हमारा मन अशान्त हो जाता है। ऐसी मनःस्थिति में सुखानुभव नहीं होता है अपितु नकारात्मकभावों से हमारा मनोमय शरीर सन्तापित होता है, जो कि विविध परीक्षणों से प्रमाणित हो चुका है।

विषमभाव अशान्ति और दुःख का प्रयोजक है तथा समभाव शान्ति और आनन्द का आविर्भावक है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव मनुष्यों को अपने लौकिक व्यवहारों में भी होता रहता है। परमार्थ अर्थात् कल्याणमार्ग में तो इसका (विषमभाव) त्याग अनिवार्य है। अतः विषम भाव का त्याग विष के समान करके अमृत के समान समभाव को धारण करने के लिए सब मनुष्यों का संकल्प, निश्चय तथा व्यवहार समभाव वाला होना चाहिए, सब मानवों के विचार समान हों, जिससे प्रत्येक का कल्याण होगा। इसी प्रकार हमारा अन्तःकरण होवे। यह समता की भावना ही  संगठन को दृढ़ बनाती है, समता की भावना मनुष्यमात्र में ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र में होनी चाहिए।

जीवन में सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। अतः वेदों में अनेकत्र अग्निस्वरूप परमेश्वर से सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना करते हुए एक मन्त्र में कहा गया है अग्ने नय सुपथा राये   इस मन्त्र में सर्वप्रकाशक परमात्मा से बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करने की अभ्यर्थना करते हैं। वैदिक जीवनपद्धति में उपासना एवं यज्ञ को जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। उपासना एवं यज्ञों के द्वारा आत्माग्नि को परमप्रकाशस्वरूप परमात्मा के समीप पहुॅंचा जा सकता है। जहाॅं प्रकाश ही प्रकाश है, ज्ञान का दिव्य आलोक परमज्योति है, जिसके प्रकाश से जीवन में कोई भी अनैतिक कार्य व पापाचार नहीं हो सकता। ऐसे भाव मनुष्य के अन्तःकरण में जब निहित होंगे तब लोभ, मोह, काम, क्रोध, द्वेष, हिंसा आदि आसुरीय प्रवृत्तियाॅं स्वतः ही समाप्त हो जायेंगी।

इसलिए हमें वेद के स्रोत से आत्मप्रकाश के स्रोत का उदयन करना चाहिए। यही हम सबका परम मार्ग व उद्देश्य है। आओ! वेद के स्रोत से अभ्युदयपथ के पथानुगामी होवें……

 

जमीन के बाद सात आसमान बनाये

जमीन के बाद सात आसमान बनाये

खुदा द्वारा सात आसमान बनाये जाने से पहले इस अनन्त पोल स्थान में क्या भरा था और अब कहां गया? यदि कुछ भरा था तो वह कब से था, क्या वह खुदा की ही तरह अनादि था?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

हुवल्लजी ख-ल-क लकुम् मा………….।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा बकर रूकू ३ आयत २९)

वही है जिसने तुम्हारे लिये धरती की चीजें पैदा की, फिर आकाश की तरफ ध्यान दिया तो सात आसमान हम बार अर्थात् एक के ऊपर एक बना दिये और वह हर चीज से जानकार है।

समीक्षा

यह आयत भी बुद्धि के विरूद्ध है। यदि पहले आकाश नहीं था तो जमीन को कहाँ पर और कैसे बनाया? यदि आकाश को बाद में बनाया गया तो पहले इस शून्य में क्या भरा हुआ था और वह कहाँ गया? यदि परमाणु भरे थे तो उनको इकट्ठा करने पर पहले आकाश उत्पन्न होगा तब बाद में जमीन या अन्य कुछ बनेगा। इस दशा में जमीन बनाने के बाद आकाश बनाने की बात कहना गलत होगा।

आकाश तो अनन्त है, और उस अनन्त के साथ भाग बताना बुद्धि विरूद्ध बात है, यदि हिस्से हो जावेंगे तो वह अनन्त ही रहेगा। वर्तमान विज्ञान आकाश व विश्व को अनन्त मानता है। ‘‘सात आसमानों को हमवार बनाना’’ ऐसा लिखना ही यह साबित करता है कि अरबी खुदा को विद्या नहीं आती थी।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-34

स्तुता मया वरदा वेदमाता-34

उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुनः

ऋग्वेद के दशम मण्डल में एक सौ सैतीसवाँ सूक्त हे। इसमें सात मन्त्र है। इन मन्त्रों के ऋषि के रूप में सप्तर्षयः ऐसा उल्लेख है। इस का अभिप्राय है- प्रत्येक ऋचा का एक-एक ऋषि है। सप्तर्षयः कहने से सात ऋषियों का गहण होता है। वैदिक साहित्य से सप्त ऋषय कहने से पाँच प्राण और अहंकार महत का ग्रहण है, कही सप्त ऋषि, पञ्चप्राण, सूत्रात्मा, धनञ्जय का उल्लेख है। सप्तर्षयः सूर्य की रश्मियों का नान भी है। पाँच इन्द्रियों के साथ मन और विद्या को भी सप्तर्षयः कहा गया। मन्त्र के देवता के रूप में विश्वेदेवाः कहा गया है। यहाँ देवा, विद्वान्सः विद्वान् समझदार, बड़े लोगों का ग्रहण किया जाता है। इन्द्रियों के लिये भी देव शद का उपयोग किया गया है।

इस पूरे सूक्त में मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक बातों का उल्लेख किया गया। मनुष्य जड़ चेतन का संयोग है। चेतन आत्मा तो स्वरूप से अनादि है, उसके स्वभाव में, स्वरूप में कोई परिवर्तन कभी नहीं होता। शरीर का भौतिक स्वरूप दो प्रकार का है, एक स्थूल तथा दूसरा सूक्ष्म। जो पदार्थ जितना स्थूल होगा, उसका स्वरूप उतना ही अधिक परिवर्तनशील होगा। दूसरे शबदों में उसका नाश उतना ही शीघ्र होगा। भौतिक पदार्थों में स्थूल शरीर तो बहुत शीघ्र नष्ट हो जाता है, परन्तु मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, भौतिक होने पर भी सूक्ष्म होने के कारण इनकी अवधी पूरी सृष्टि के काल तक है।

संसार यात्रा स्थल है। यात्रा का लक्ष्य आत्म साक्षात्कार है। इसके साधन स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर है। बाह्यजगत् की यात्रा स्थूल शरीर से होती है और अन्तर्जगत् की यात्रा मन, बुद्धि से या सूक्ष्म शरीर से होती है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और जीवात्मा मिलकर एक इकाई बनती है, जिसे शास्त्र में आत्मेन्द्रिय मनोभुक्तं भोक्ते, यादुर्मजीषीणः कहा है। आत्मा इन्द्रिय मन जब संसार से जुड़ते हैं, तब आत्मा की सेता भोक्ता होती है, तब वह संसार का उपभोग करने में समर्थ होता है। केवल चेतन आत्मा संसार का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। केवल सूक्ष्म शरीर के साथाी संसार के सपर्क में नहीं आ सकता। संसार की यात्रा स्थूल शरीर से होती है। मुक्ति की यात्रा सूक्ष्म शरीर से होती है। ये दोनों ही साधन स्वस्थ, समर्थ होने चाहिए। इसलिये इस सूक्त में दोनों को स्वस्थ रखने की बात कही गई है।

जब-जब मनुष्य अनुचित विचारों के सपर्क में आता है, तब-तब उसका मानसिक पतन होता है। मानसिक पतन का कारण यदि बुरे विचार हैं, तो मानसिक स्वास्थ्य के लिये अच्छे विचारों का विकल्प चाहिए। वैद्य मन और शरीर दोनों की चिकित्सा करता है। वात, पित, कफ से शरीर चिकित्सा की जाती है। रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण के ज्ञान से मानस चिकित्सा की जाती है। शरीर की चिकित्सा के लिये परमेश्वर की प्रार्थना और औषधियों का युक्तिपूर्वक सेवन करना, स्वस्थ होने का उपाय है, तो मन के स्वास्थ्य के लिये शास्त्र कहता है- ज्ञान विज्ञान धैर्य स्मृति समाधिर्भिः। ज्ञान आत्मा के विषय में जानना, विज्ञान शास्त्र का जानना, धैर्य, धीरता, स्मरण शक्ति, समाधि, एकाग्रता, इन बातों से मन के रोगों की चिकित्सा की जाती है। यह चिकित्सा विद्वान् वैद्य के बिना सभव नहीं होती।

मन और शरीर दोनों भौतिक हैं, इस कारण एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। शरीर में रोग, असमर्थता होने पर मन में निराशा, अनुत्साह होने लगता है। मन में खिन्नता होती है। मानसिक दुःख होता है, तब उसका प्रभाव शरीर पर होने लगता है। मनुष्य को स्वस्थ रहने के लिये शरीर, आत्मा दोनों का ध्यान रखना पड़ता है। हम केवल शरीर की चिन्ता करें और मन को स्वस्थ रखने का उपाय न करें, तो मनुष्य के अन्दर राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम, क्रोध आदि की भावनाएँ बढ़ने लगती हैं। इसको केवल शरीर के उपायों से नियन्त्रित नहीं किया जा सकता। मनुष्य काम, क्रोध से राग द्वेष में पड़ जाता है, तो उसकी भूख और नींद समाप्त होने लगती है, शरीर रोगी होने लगता है। मानसिक रोगों का मूल कारण स्वार्थ है। मानसिक स्वास्थ्य का प्रमुख उपाय परोपकार है। जो मनुष्य स्वार्थी है, वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो सकता, परोपकारी व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होता। स्वार्थी व्यक्ति किसी बात को करने के लिये, किसी वस्तु को पाने के लिये अनुचित विचारों की सहायता लेता ही है, उसके न मिलने की आशंका से भय, ईर्ष्या, द्वेष स्वाभाविक रूप से बनते हैं। इसलिये मनुष्य को प्रतिदिन शरीर के स्वास्थ्य के उपायों के साथ-साथ मानसिक उपाय का प्रयास करना चाहिए।

मनुष्य के मन में रजोगुण बढ़ता है, तो मन चंचल और रागद्वेष से युक्त होता है। परोपकार और उपासना से मन में सतोगुण की वृद्धि होती है। देव लोग पतित मनुष्य को भी इन उपायों से उठा देते हैं, मानसिक रूप से स्वस्थ कर देते हैं।

 

मेरे शरीर व मन पुष्ट हों,मुझे प्रकाश दो

ओ३म
मेरे शरीर व मन पुष्ट हों,मुझे प्रकाश दो
डा. अशोक आर्य ,
ईश्वर सुखों का भंडार है | मानव को मिलने वाले सब सुख उस प्रभु की कृपा का ही परिणाम है | ईश्वर राजा को रंक बना सकता है तथा रंक को राजा | ईश्वर का आदेश है कि हे मनुष्य ! तुकर्म कर , उसका फल तुझे मैं दूंगा | इस से स्पष्ट है कि ईश्वर यूँ ही राजा को रंक नहीं बनाता और न यूँ ही किसी को रंक से राजा बनाता है जो मानव कर्म करता है , पुरुषार्थ करता है , मेहनत करता है, उसे ईश्वर निश्चित ही उपर उठता है | हम भी प्रति क्षण ईश्वरसे हमारे सुखद भविष्य कि प्रार्थना करते हैं | हम सदा चाहते हैं कि हे ईश्वर ! मुझे सदा स्वस्थ रखें, पुष्ट रखें , सुखी रखें , प्रकाशित रखें | इस के लिए हमें तदनुरूप पुरुषार्थ करना होगा ईश्वर पुरुषार्थी का ही रक्षक होता है | यजुर्वेद के अध्याय १४ मन्त्र १७ में इसे ही दर्शाया गया | मन्त्र इस प्रकार है : –

आयुर्मे पाहि , प्राण में पाह्यपान्म में पाहि |
व्यान्म में पाही ,च्क्शुर्मे पाहि , श्रोत्रं में पाहि ,
वाचन में पिन्व ,मनो मे जिन्वात्मान्म में पाःही ,
ज्योतिर्मे यच्छ || यजुर्वेद १४-17 ||
शब्दार्थ : –
(में) मेरी (आयु:) आयु की (पाहि) रक्षा करो (में प्राणं पाहि) मेरे प्राणवायु की रक्षा करो (में अपानं पाहि) मेरी अपां वायु की रक्षा करो(में व्यानाम पाहि( में व्यान वायु की
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रक्षा करो (में चक्षु: पाहि) मेरी आँखों की रक्षा करो(में श्रोत्रं पाहि) मेरे कानो की रक्षा करो (में वाचं पिन्व)मेरी वाणी को पुष्ट करो (में मन: जिन्व ) मेरे मन को प्रसन्न व तृप्त करो(में आत्मानं पाहि) मेरी आत्मा की रक्षा करो (में ज्योति: यच्छ ) मुझे प्रकाश दो |
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भावार्थ : –
हे परमपिता परमात्मन , मेरी आयु की रक्षा करो | हे प्रभु , मेरे प्राण, अपान, व्यान आदि सब वायुओं की रक्षा करो | हे पिता, मेरी आँखों व कानों की रक्षा करो | हे परमेश्वर, मेरी वाणी को पुष्ट करो व मन को तृप्त करो | हे सर्व रक्षक , मेरी आत्मा की रक्षा करो तथा मुझे प्रकाश दो |

ऊपर हमने यजुर्वेद का मूल मन्त्र देकर उसका शब्दार्थ व भावार्थ भी दे दिया है ताकि हम इस मन्त्र की विषद व्याख्या करने तथा समझने मैं समर्थ हो सकें | अत: आओ हम मन्त्र की विवेचनात्मक व्याख्या द्वारा मन्त्र के भाव को समझने का प्रयास करें तथा दूसरों को भी समझाने के लायक बनें |
मन्त्र में कुछ व्यक्तिगत प्रार्थनाओं के द्वारा हम ने प्रभु से हमारे विभिन्न अवयवो की रक्षा, पुष्टि व प्रकाश देने की प्रार्थना की है | परमपिता परमात्मा हमारा पिता होने के कारण हम उस प्रभु से जो कुछ भी माँगते हैं वह हमें देता ही चला जाता है | प्रभु देता तो है किन्तु देता उसे ही है जो लेने के लिए सुपात्र हो | कुपात्रों को वह प्रभु कुछ भी नहीं देता | कहा भी है की जैसा बोवोगे , वैसा ही काटोगे | यदि हम गेहूं का बीज अपने खेत में डालेंगे तो प्रभु उसका फल गेहूं के पौधे के रूप में ही देता है खरबूजा कभी नहीं लगाता, खरबूजे के पौधे पर सदा खरबूजा ही लगाता है , आम कभी नहीं लगाता | इस प्रकार प्रभु का कार्य व न्याय सत्य है | इसे कोई कितना भी प्रयास करे बदल नहीं सकता | प्रभु सहायता उसकी ही करता है जो पुरुषार्थ, परिश्रम से अपनी सहायता करता है | इस आलोक में मन्त्र का अर्थ हम इस प्रकार करते हैं :-
मन्त्र में परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करते हुए मांग की गयी है की वह प्रभु हमारी आयु,प्राण.अपान.व्यान आदि सब प्रकार की वायुओं की रक्षा करो | प्रभु हम सब का रक्षक है, देवों का देव है | इस नाते हम जो कुछ भी उस प्रभु से माँगते है, वह हमें देता है किन्तु कुछ भी देने से पहले प्रभु एक शर्त लगाता है तथा हमें उपदेश देते हुए कहता है कि मैं यह सब तभी दूंगा, जब तुम अपने आप को कुछ लेने का अधिकारी बनोगे | कुछ लेने का अधिकारी बनने के लिए मेहनत करनी होगी , पुरुषार्थ करना होगा | जब मांग के अनुरूप पुरुषार्थ करोगे तब ही कुछ मिलेगा , यदि यह समझो की जो मांगेंगे,वह मिल तो जाना ही है, तो मेहनत की क्या आवश्यकता है ,तो ऐसे व्यक्ति को प्रभु भी कुछ देने वाला नहीं | हम
\ने प्रभु से शरीर की रक्षा करना तो माँग लिया किन्तु शरीर की रक्षा के विरुद्ध शरीर को नस्ट करने का
काम कर रहे हैं तो प्रभु हमारी प्रार्थना कैसे स्वीकार करेगा ? अत: जो हम माँगते हैं वह हमें हमारे पुरुषार्थ करने पर ही प्रभु देता है | इस मन्त्र में हमने प्रभु से हमारे शारीर की विभिन्न प्रकार की वायुओं की रक्षा की मांग की है | वायुओं की रक्षा के लिए प्राणायाम करना होता है | यह प्राणायाम ही है , जिससे हमारी

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सब प्रकार की वायुओं में पुष्टि आती है ,उनमें शक्ति आती है तथा शरीर भी निरोग बनाता है | हम प्राणायाम नहीं करते तो यह शक्तियां हम प्राप्त नहीं कर सकते | अत: प्रभु की प्रार्थना के साथ ही साथ पुरुषार्थ भी आवश्यक है | हमारे शरीर में पांच प्रकार की प्राण आदि वायुओं का निवास है | इन पाँचों वायुओं के स्थान व कार्य भी निश्चित हैं जो एक श्लोक में इस प्रकार बताये गए हैं : –
हृदि प्राणों, गुदे$पान: , सामानों नाभिमंदाले |
उदान: कंठदेशस्थो , व्यान: सर्वशरीरग: ||
हमारे शारीर में जो प्राणवायु चल रहा है, उसे ही प्राण शक्तिभि कहते है | यह दो नहीं हैं ,एक के ही दो नाम हैं | जिस प्रकार किसी रामलाल व्यक्ति को कोई तो रामलाल कहता है तो कोई पिता, मामा ,चाचा, ताया या किसी एनी नाम से संबोधन करता है || इस प्रकार शरीरस्थ वायु भी एक ही है किन्तु कार्य भेद से पांच नाम दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं : –
१. प्राण वायु :-
यह वायु ह्रदय की शुद्धि तथा रक्त को निर्धारित स्थान पर पहुँचाने का कार्य करती है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते है की यह वायु शरीर की व्यवस्था का मुख्य भार अपने पास रखती है | शरीर का संचालन रक्त से ही होता है | रक्त को शरीर के सब भागों में पहुँचाने का कार्य यह वायु करती है | इस कारण इसे शरीर की संचालक वायु भी हम कह सकते हैं | सब जानते हैं की शरीर का संचालन ह्रदय से ही होता है | अत: हम कह सकते हैं कि इस वायु का मुख्य कार्य एक रसोईये के समान है,जो बनाता भी है तथा सब को बांटने का कार्य भी करता है | अत: हम कह सकते हैं की इस वायु का निवास ह्रदय में ही होता है | ह्रदय ही शरीर का केंद्र होने के कारण यहाँ से सब अवयवों का संचालन सरल हो जाता है | इस लिए यह वायु यहीं पर ही अपना निवास बनाती है |
२. अपान वायु : –
शरीर में एकत्र हो रहे मल – मूत्र आदि शल्य पदार्थों को बाहर निकाल कर शारीर को शुद्ध रखना होता है | यह मल शुद्धि के माध्यम से शरीर की गन्दगी को शरीर से साफ़ कर बाहर निकालने का कार्य करती है | शरीर की मल्शुधि का मुख्य कार्य गुदा मार्ग से ही होता है
, इस कारण इस का निवास स्थान गुदा को अर्थात नाभि के नीच के स्थान को ही माना गया है | यदि हमारे शरीर का शोधन न हो तो हमारे शरीर में रोग के कीटाणुओं की संख्या तेजी

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से बढ़ेगी ,जिससे हम किसी भी भयंकर रोग का ग्रास बन जावेंगे | इस लिए इस वायु का भी हमारे शरीर को स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण योगदान है |
३. समान वायु : –
इस वायु को कन्द्रीय वायु भी कहते हैं | जो भोजन हम करते हैं , यदि वह पचे नहीं तो हमारे शरीर को घोर कष्टों का सामना करना पड़ता है | यह वायु हमारे खाए भोजन को पचाने का कर्तव्य पूर्ण करने के साथ ही साथ इस भोजन से रक्त बना कर उस रक्त को शरीर के विभिन्न अवयवों को बांटने का कार्य करती है | इस का निवास शरीर के केंद्र में होने के कारण ,यह सदा नाभि में निवास करती है |
४. उदान वायु : –
यह वायु मनुष्य को उर्ध्वारेता बनाने का कार्य करती है | यह ही वह वायु है जो ह्रदय तथा मस्तिष्क में सम्बन्ध बनाती है | यह वायु हमारे कंठ को भी शुद्ध करती है तथा मस्तिष्क को शक्ति अर्थात पुष्ट करने का कार्य भी करती है | इस वायु का मुख्य कार्य कंठ से होने के कारण इस का निवास भी कंठ ही होता है |
५. व्यान वायु : –
यह वायु उपर्वर्णित चारों प्रकार की वायुओं में समन्वय बैठाने काम करती है | इस के साथ ही साथ शरीर के प्रत्येक अंग में प्राण का संचार करती है | इस वायु के बिना शरीर में चेतना नहीं आ सकती | सारे शरीर से सम्बन्ध होने के कारण यह वायु पूरे शरीर में व्याप्त रहती है , इस कारण इस का निवास भी पूरे शरीर में होता है|
मन्त्र अंत मैं प्रार्थानाके माध्यम से कहता है की मेरी आत्मा की रक्षा करते हुए ज्योति देने की भी मांग करता है | अब हम देखें की आत्मा की रक्षा कैसे होती है ? जो मनुष्य अच्छे कार्य करताहै , शुभ कर्म करता है, दुसारों की सहायता करता है , उसकी आत्मा को जो ख़ुशी प्राप्त होती है , उसका वर्णन कलम से तो संभव नहीं है | बस ऐसे कार्य करने से ही आत्मा की रक्षा होती है | ऐसे कार्य करने वाले की ख्याति ही उसकी रक्षक बनती है | अत: प्रभु से प्रार्थना के साथ ही साथ अच्छे कार्य भी करते रहना चाहिए ताकि आत्मा भी तृप्त हो तथा उसकी रक्षा भी हो |
यहाँ ज्योति देने या प्रकाश देने की भी मांग की गयी है| जब कोई मनुष्य शुभ काम करता है तो उसकी ख्याति तो दूर दूर तक जाती ही है साथ ही साथ उसके अन्दर एक सुखदायक प्रकाश भी उसे दिखाई देता है | यह ज्योति या प्रकाश ही तो हम प्रभु से माँगते हैं |
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यह ज्योति ही वास्तव में मानव के जीवन को पवित्र, सुखप्रद , प्रशास्तिपूर्ण व उन्नत बनाती है | इस ज्योति को पाने के किये मनुष्य जीवन पर्यंत भटकता रहता है जब कि इसे पाने का साधन उसके अपने ही हाथ में होता है |
इस प्रकार मन्त्र में शरीर के विभिन्न अवयवों को पुष्ट करने व उनकी रक्षा का उपाय वायुओं को बताया है तथा इन वायुओं की रक्षा स्वरूप प्राणायाम को अपनाने की प्रेरणा दी है | साथ ही आत्मा की रक्षा के लिए अच्छे काम कर एक विचित्र प्रकाश देने की प्रार्थना की गयी है , जिससे मानव का जीवन सफल बनता है |
डा. अशोक आर्य ,मंडी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमैंट ,कोशाम्बी ,गाजियाबाद चलभाष :०९७१८५२८०६८, ०९३५४८४५४२६

बेजान अर्थात् मुर्दा इन्सान में जान (रूह) डाली

बेजान अर्थात् मुर्दा इन्सान में जान (रूह) डाली

मनुष्य बेजान कब होता है गर्भ के अन्दर या गर्भ से बाहर आने पर भी बेजान मानना चाहिये। कुरान की इस आयत का क्या आशय है? उसका खुलासा करें।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

कै-फ तक्फरू-न बिल्लाहि व……….।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा बकर स्कू ३ आयत २८)

हे लोगो! क्योंकर तुम खुदा का इन्कार कर सकते हो और तुम बेजान थे, तो उसने जान डाली, फिर (वही) तुमको मारता है (वही) तुमको जिलायेगा फिर उसकी तरफ लौटाये जाओगे।

समीक्षा

देखिये चिकित्सा विज्ञान यह बताता है कि वीर्य कीट तथा रजडिम्ब चेतन अर्थात् जीवित होते हैं और उनके मिलने से जो गर्भ ठहरता है वह प्रारम्भ से अन्त तक सदैव सजीव रहता है। यदि वीर्य कीट जीवित न हो तो गर्भ ठहर ही नहीं सकता है। ऐसी दशा में कुरान का यह लिखना कि- ‘‘मनुष्य शरीर प्रारम्भ में बेजान होता है और पूरा शरीर बनने पर खुदा उसमें जान डालकर उसे जानदार बनाता है,’’ खुदा के दावे को प्रत्यक्ष एवं विज्ञान के विरूद्ध सिद्ध करता है।

शरीर जब भी बेजान हो जावेगा तभी वह सड़ जावेगा फिर उसमें जान डाली ही नहीं जा सकती।

अतः कुरान की यह बात ठीक नहीं है कि-

‘‘प्रारम्भ में मनुष्य बेजान होता है और खुदा उसमें जान डाल कर उसे जिन्दा करता है।’’

मत्कृते कथं न?

 मत्कृते कथं न?

– डॉ. प्रशस्यमित्र शास्त्री

सात्त्विकं कर्म कर्त्तं च वक्तुं हितम्,

धर्म-कार्ये समाह्वातुम् एवं मुदा।

शद-शास्त्रे त्वदीये परं हे! प्रभो!

मृत्कृते नो द्वितीया विभक्तिः कथम्?

 

केन वृद्धास्तथा मातरः सेविताः?

केन पुत्राः समाजे सुखं वर्धिताः?

उत्तरं प्राप्तुमत्र प्रभो! निश्चितम्,

मत्कृते नो तृतीया विभक्तिः कथम्?।।

 

निर्बलोऽहं विभो! निर्धनोऽहं प्रभो!

संस्तुवे नामधेयं सदा ते परम्।

शद – शास्त्रे त्वदीये जगन्नाथ! हे!

मत्कृते नो चतुर्थी विभक्तिः कथम्?।।

 

दुर्जनाश्चाऽथ कस्मात् खला बियति?

संस्कृतं चाऽपि कस्मादधीते जनः?

शद-शास्त्रे तदस्योत्तरे हे! प्रभो!

मत्कृते पञ्चमी नो विभक्तिः कथम्?।।

 

काव्य-सौन्दर्यमेतत् भवेत् कस्य भो!

वाक्य-माधुर्यमेतत् मतं कस्य वा?।

शद-शास्त्रे त्वहो! सच्चिदानन्द ते,

किं न षष्ठी विभक्तिर्भवेत् मत्कृते?।।

 

कुत्र भक्तिश्च विश्वास आस्था प्रभो!

त्वाप्रति श्रद्धया वा मनः संस्थितम्।

शदे-शास्त्रे त्वदीये तदस्योत्तरे,

मत्कृते सप्तमी नो विभक्तिः कथम्?।।

– बी-29, आनन्द नगर, जेल रोड,

रायबरेली-229001

अजेयता के तप लिए आवश्यक

ओउम
अजेयता के तप लिए आवश्यक

डा. अशोक आर्य ,
यह तप ही है जो मानव को अजेय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को अघर्श्नीय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को सब सुखों की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो ज्ञान आदि की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो सब प्रकार की सफलता का साधन है | इस तथ्य को ऋग्वेद के अध्याय १० मंडल १५४ के मन्त्र संख्या २ मैं इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : तपसा ये अनाध्रिश्यास्तपसा ये स्वर्ययु: |
तपो ये चक्रिरे महास्तान्श्चिदेवापी गच्छतात || ऋग. १०.१५४.२ ||
हे (मर्त्य ) मनुष्य (ये ) जो (तपसा) तपस्या से (अनाध्रिश्या:) अघर्शनीय हैं ( ये) जो (तपसा) तपस्या से (स्व: ) सुख को (ययु:)प्राप्त हुए हैं (ये) जिन्होंने (माह: ) महान (तप: ) तपस्या ( चक्रिरे) की है ( तान चिद एव ) उनके पास ही (अपि गच्छतात) जाओ |
भावार्थ : –
हे मनुष्य इस संसार मे जो अघर्श्नीय हैं , जो तप से सुखों को प्राप्त कर चुके हैं , जिन मनुष्यों ने महान तप किया है , ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए उनके ही समीप जाओ |
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो | वह जानता है कि सफलता से ही यश मिलता है ,सफलता से ही कीर्ति मिलती है तथा सफलता से ही उस की ख्याति दूर दूर तक जा पाती है , जो कभी सफलता के दर्शन ही नहीं करता , उस को कोंन याद करेगा, उसका उदहारण कोंन अपने बच्चों को देगा | उस का कोंन अनुगामी बनेगा , कोई भी तो नहीं | इस लिए मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा रहती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करे ताकि उसका यश व कीर्ति दूर दूर तक जा पावे | लोग उसके अनुगामी बन उसके पद – चिन्हों पर चलें | इस सब के लिए जीवन की सफलता का रहस्य का ज्ञान होना आवश्यक है | जिसे सफलता के रहस्य का ज्ञान ही नहीं , वह कहाँ से सफलता प्राप्त कर सकेगा | अत: हमें यह जानना आवश्यक है कि हम सफलता के रहस्य को समझें |
जीवन की सफलता का रहस्य : –
जीवन कि सफलता का रहस्य है तप और साधना |
साधना किसे कहते हैं :
जब व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तथा उस लक्ष्य को पाने के लिए एकाग्रचित हो निरंतर लग जाता है तो इसे साधना कहते हैं | तप भी इसे ही कहा जाता है |
इससे एक बात सपष्ट है कि मनुष्य को किसी भी प्रकार की साधना के लिए , किसी भी प्रकार का तप करने के लिए सर्व प्रथम एक लक्ष्य निर्धारित करना आवश्यक है | यह लक्ष्य ही है जो हमें निरंतर अपनी और खिंचता रहता है | यदि लक्ष्य ही हमने नहीं निश्चित किया तो किसे पाने के लिए हम प्रयास करेंगे ? जब हमें पता है कि हमने पांच किलोमीटर चलना है तो इस मंजल को पाने के लिए आगे बढ़ते चले जावेंगे तथा कुच्छ दूरी पर ही हमें आभास होगा कि अब हमारा लक्ष्य समीप चला आ रहा है किन्तु यदि हमें अपने लक्ष्य का पता ही नहीं कि हमने कितने किलोमीटर जाना है , तो हम किस लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढेंगे | इससे यह तथ्य सपष्ट होता है कि किसी भी सफलता को पाने के लिए प्रयास आरम्भ करने से पूर्व हमें एक लक्ष्य निश्चित करना होगा |
दृढ संकल्प : –
जब हमने कोई कार्य करने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर लिया तो उस लक्ष कि प्राप्ति के लिए दृढ संकल्प का होना भी आवश्यक है , अन्यथा हमारा लक्ष्य केवल हवाई किला ही सिद्ध होगा |
अनुष्ठान : –
जब एक लक्ष्य निर्धारित हो गया तथा इसे पूर्ण करने का दृढ संकल्प भी हो गया तो इसे अनुष्ठान कहते है | दृढ निश्चय से यह एक अनुष्ठान बन जाता है | इस अनुष्ठान या व्रत को विधि पूर्वक संपन्न करने का प्रयास ही या इसे पूर्णता पर पहुंचाना ही साधना है | इस प्रयास को तप भी कहा जाता है | साधना ही तप का वास्तविक रूप होता है |
लक्ष्य तो प्रत्येक व्यक्ति का ही बड़ा उंचा होता है किन्तु वह इसे पाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , मेहनत नहीं करता , साधना नहीं करता, तप नहीं करता तो यह लक्ष्य उसे कैसे मिलेगा | यह द्रढ संकल्प ही है , जो मनुष्य को साधना करने की प्रेरणा देता है , जो हमें तप करने की प्रेरणा देता है , जो हमें पुरुषार्थ के मार्ग पर ले जाता है | दृढ निश्चय व कतिवद्धता के बिना लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता |
दृढ निश्चय तथा कतिबधता ; –
लक्ष्य की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति में दृढ निश्चय तथा उसे पूर्ण करने के लिए कटिबद्धता का होना भी आवश्यक है | अन्यथा यदि हम ने बहुत ही उंचा लक्ष्य निर्धारित कर लिया किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए हम दृढ संकल्प नहीं कर पाए , अन्यमनसक से हो कर कभी प्रयास किया कभी छोड़ दिया तो उसे कैसे पावेंगे ? और यदि संकल्प भी दृढ कर लिया किन्तु कटिबद्ध होकर कार्य में जुटे ही नहीं तो भी कार्य की सम्पान्नता संभव नहीं | लक्ष्य से भटक कर लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता | अत: लक्ष्य चाहे छोटा हो यहा बड़ा , उसे पाने के लिए निश्चय का दृढ होना तथा उसे पाने के लिए प्रयास करना या कटिबद्ध होना भी आवश्यक है |
जब मनुष्य दृढ निश्चय से कार्य में जुट जाता है तो वह शनै: शनै: सफलता प्राप्त करते हुए अंत में उन्नति कि पराकाष्ठा तक जा पहुंचेगा | तभी तो कहा है कि जब अभ्यास सत्य ह्रदय से होता है तो उसे करने वाला व्यक्ति सिद्ध तपोनिष्ठ हो कर अजेय व अघर्शनीय बन जाता है अर्थात वह अपने कार्यमें इतना सिद्ध हस्त हो जाता है कि कभी कोई उसका प्रतिस्पर्धी हो ही नहीं पाता | वह अजेय हो जाता है | अब उसे जय करने की क्षमता किसी अन्य में नहीं होती | सब प्रकार कि सीढियां उसे अपने कार्य में धीरे धीर मिलती ही चली जाती हैं | जिस कार्य को वह अपने हाथ में लेता है , उस कार्य में सफलता दौड़े हुए उसके पास चली आती है |
यह मन्त्र इस उपर्युक्त तथ्य पर ही प्रकाश डालता है कि जो व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेता है , उस लक्ष्य को पाने के लिए दृढ संकल्प होता है तथा वहां तक पहुँचने के लिए कटिबद्ध हो पुरुषार्थ करता है तो सब सिद्धियाँ उसे निश्चय ही प्राप्त होती हैं | अपने प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती है , मानो सफलता स्वागत के लिए उस के मार्ग पर खड़ी पहले से ही प्रतीक्षा – रत हो | इस तथ्य को ही मन्त्र में स्पष्ट किया है तथा कहा है कि किसी भी प्रकार की सफलता के लिए तप का होना आवश्यक है | बिना तप के कुछ भी मिल पाना संभव नहीं है | अत: हे मानव उठ ! अपना लक्ष्य निर्धारित कर , दृढ संकल्प हो उसे पाने के लिए प्रयास कर , तुझे सफलता निश्चित ही मिलेगी |

डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्टमैंट , कौशाम्बी जिला गाजियाबाद उ. प्र चलभाष :०९७१८५२८०६८

दोजख का ईन्धन आदमी व पत्थर है

दोजख का ईन्धन आदमी व पत्थर है

आग जिसके सहारे जलती है उसे ईन्धन कहते हैं। दोजख की आग इन्सान को जलावेगी वह ईन्धन नहीं हुआ। पत्थर से मतलब क्या पत्थर के कोयले से है या पहाड़ी पत्थरों से है?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

फइल्लम् तफ्अलू व लन्……..।।

(कुरान मजीद पारा १ सूरा बकर रूकू ३ आयत २४)

बस ! (दोजख की) आग से डरो जिसके ईंधन आदमी और पत्थर होंगे और वह इन्कार करने वालों अर्थात काफिरों के लिए तैयार की गई है।

समीक्षा

कुरान के अनुसार काफिर दोजख में झोंके जावेंगे ताकि उनको उनके गुनाहों के लिये सजा दी जा सके और वे दुःखी व परेशान हों। इसीलिये उनको दोजख का ईन्धन लिखा है किन्तु पत्थर को भी इन्सान की ही तरह दोजख का ईन्धन लिखना यह बताता है कि उनको भी सजा दी जावेगी पर यह नहीं खोला गया कि पत्थर को उनके किन गुनाहों की सजा दी जावेगी ?  क्या अरबी खुदा की निगाह में बेजान पत्थर भी काफिर होते हैं?

सुगन्धित वैदिक मुस्कान

सुगन्धित वैदिक मुस्कान

दिवंगत यतिवर आचार्य बलदेव जी महाराज

– डॉ. सारस्वती ‘मोहन मनीषी’

निश्चल मन के देवोपम इन्सान थे, नैष्ठिक जी।

यज्ञव्रती दृढ़ संकल्पों की शान थे, नैष्ठिक जी।।

गुरुवर दयानन्द को राम मानकर कार्य किया।

आर्य जाति के सरल-सहज हनुमान थे, नैष्ठिक जी।।

खण्डन-मण्डन नहीं सिर्फ मण्डन करना जाना।

अभिशप्तों के लिए सतत वरदान थे, नैष्ठिक जी।।

अपनी चिन्ता छोड़ दूसरों को निश्चिन्त किया।

अपमानों के बीच खड़े समान थे, नैष्ठिक जी।।

सदा रहे विजयेन्द्र निराशा पास न आने दी।

आशाओं के केन्द्र विरल कप्तान थे, नैष्ठिक जी।।

कहूँ आधुनिक कृष्ण आपको तो भी कम ही है,

गौमाता के लिए सतत अभियान थे, नैष्ठिक जी।।

दयानन्द की फुलवारी में सदा बसन्त रहे।

इस चिन्ता में अस्त हुए दिनमान थे, नैष्ठिक जी।।

एक नहीं अगणित शिष्यों से मिलकर यह जाना।

अद्भुत ऊहा के अनुपम विद्वान् थे, नैष्ठिक जी।।

मिथ्या भाषण कभी न भाया सदा सत्य गाया।

शुद्ध सुगन्धों की वैदिक मुस्कान थे, नैष्ठिक जी।।

यतियों के भी यती-जती सागर मीठे जल के।

आने वाले संकट के अनुमान थे, नैष्ठिक जी।।

पाखण्डों की पीठ टिकाने में न रहे पीछे।

आल्हा ऊदल वीर मर्द मलखान थे, नैष्ठिक जी।।

पुनः व्याकरण सूर्य अस्त हो लगे ऐसा।

शिष्यों हित गुरुकुल में गंगा स्नान थे, नैष्ठिक जी।।

धीरे-धीरे कंचन काया की छीजी माया।

किसे पता था कुछ दिन के महमान थे, नैष्ठिक जी।।

नमन आर्य आचार्य सन्त बलदेव सजल मन से।

अश्रु कह रहे कितने अधिक महान् थे, नैष्ठिक जी।।

सभी मनीषी, मिलकर अब एकत्व राग गायें।

सदा सुनाई देगी ऐसी तान थे, नैष्ठिक जी।।

– रोहिणी, दिल्ली