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प्राणोपासना-2

प्राणोपासना-2

– तपेन्द्र कुमार

महर्षि दयानन्द जी महाराज ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि मुनष्य प्राण द्वार से प्राण को परमात्मा में युक्त करके तथा योगाभयास द्वारा प्राण नाड़ियों में ध्यान करके परमानन्द मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। महर्षि यह भी घोषणा करते हैं कि हृदय देश के अतिरिक्त दूसरा परमेश्वर के मिलने का कोई उत्तम स्थान व मार्ग नहीं है। पूर्व उल्लेख अनुसार प्राण अचेतन भौतिक तत्त्व है, शुद्ध ऊर्जा है तथा हृदय प्राण का केन्द्र है। यह हृदय स्थूल इन्द्रिय नहीं है। प्राणों में जीवात्मा प्रतिष्ठित है तथा परमात्मा हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य रहता है।

  1. श्वास-प्रश्वास एवं प्राण- जो वायु बाहर से भीतर को जाता है, उसको श्वास और जो भीतर से बाहर आता है, उसको प्रश्वास कहते हैं। परन्तु श्वास के द्वारा जो वायु शरीर में जाती है तथा जो वायु बाहर आती है, वह प्राण नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास प्राणाऽपान-निमेषजीवन………चात्मनो लिङ्गानि। (वैशेषिक) की व्याखया करते हुए महर्षि लिखते हैं, ‘‘(प्राण) जो भीतर से वायु को बाहर निकालना, (अपान) बाहर से वायु को भीतर लेना…….।’’ सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में प्राणमय कोश के समबन्ध में लिखा है, ‘‘दूसरा’’ ‘प्राणमय’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर आता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता……प्रच्छर्दनविधारणायां वा प्राणस्य। योग के भाषार्थ में भी भीतर के वायु को बहार निकालकर सुखपूर्वक रोकने का अभयास बार-बार करने से प्राण उपासक के वश में होने जाने का उल्लेख महर्षि ने किया है। स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार ये (श्वास-प्रश्वास की) क्रियाएँ शरीर में प्राणों का कथित ऊपर व नीचे की गति कराने का एक मात्र साधन है। जब प्राणी श्वास लेता है तो वायु शरीर में जाती है तथा शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की गति नीचे की ओर हो जाती है- यह अपानन क्रिया है। जब प्राणी प्रश्वास लेता है, अर्थात् दूषित वायु बाहर निकालता है तो शरीर की प्राण नाड़ियों में प्राण की गति उर्ध्व गति होती है-यह प्राणन क्रिया है। इस प्रकार श्वास-प्रश्वास प्राण क्रियाओं का साधन है। श्वास-प्रश्वास में शरीर के भीतर जाने वाली वायु तथा बहार आने वाली वायु प्राण नहीं है, वह आक्सीजन आदि गैसों का मिश्रण है। प्राण किन्हीं गैसों आदि का मिश्रण नहीं है बल्कि शुद्ध ऊर्जा है।
  2. प्राण के पाँच भेद-एषोऽणुरात्मा चेतसा विदितव्यो यस्मिन्प्राणः पञ्चधा संविवेश। मुण्डकोपनिषद् 3.1.9 के भाषार्थ में पण्डित भीमसेन शर्मा लिखते हैं, ‘‘(यस्मिन्) जिस शरीर में (प्राणः) प्राण (पञ्चधा) प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान नाम पाँच प्रकार के भेदों से (संविवेश) अच्छे प्रकार प्रविष्ट हो रहा है…..।’’

यथा सम्राद्रेवाधिकृ तन्विनियुङ्क्ते एतान्ग्रामानेतान्ग्रामानधितिष्ठस्वेष्मेवैष प्राण इतरान्प्राणान्पृथक्पृथगेव संनिधत्ते। (प्रश्न 3.4) का अर्थ करते हुए डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार लिखते हैं, ‘‘जैसे सम्राट् अपने अधीन कर्मचारियों को अपने-अपने काम में नियुक्त करता है, किसी को इस तथा किसी को उस ग्राम में अधिष्ठाता बनाता है, इसी प्रकार यह प्राण अन्यप्राणों को पृथक्-पृथक् अपने-अपने काम में नियुक्त करता है।’’ स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के अनुसार जीवों के शरीरों में प्राणतत्त्व तो एक ही है, कार्य भेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं। -प्र+अन=प्राण, उप+अन=अपान, सम+आ+अन =समान, उद+आ+अन= उदान, वि+आ+अन= व्यान। इस प्रकार प्र, अप आदि उपसर्गों को ‘अन’ के साथ जोड़ने से प्राण, अपान, समान,उदान और व्यान शबद सिद्ध हो जाते हैं।

वृहदारण्यक उपनिषद् 1.5.3………प्राणोऽपानोव्यान उदानः समानोऽन इत्येत्सर्व प्राण एव…… का अर्थ करते हुए महात्मा नारायण स्वामी जी महाराज लिखते हैं, ‘‘(प्राणः अपानः व्यानः उदानः) प्राण, अपान, व्यान, उदान, (समानः अनः इति) और समान ‘अन’- प्राण है। (एतत् सर्वं प्राणः एव) ये सब (पाँचों) प्राण ही हैं।’’ इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राणतत्त्व एक ही है जो शरीर में अपने को पाँच भागों में विभक्त कर पाँच प्रकार के कार्यों को समपादित करता है। प्राण का शास्त्रीय नाम ‘अन’ ही है।

  1. प्राणों की स्थिति एवं कार्य- प्रश्नोपनिषद् त्रितीय प्रश्न में ‘‘पायूपस्थेऽपानं चक्षुः श्रोत्रेमुखनासिकायां प्राणः स्वयं प्रतिष्ठते मध्ये तु समानः। …….अत्रैतदेकशातं नाडीनां…… भवन्त्यासु व्यानश्चरति। अथैकयोर्ध्वम् उदानः पुण्येन पुण्यंलोकं नयति पापेन पापयुभायामेव मनुष्यलोकम्।।शांकरभाष्यार्थ में उक्त की व्याखया इस प्रकार है- यह प्राण अपने भेद अपान को पायूपस्थ में – पायु (गुदा) और उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय) में मूत्र और पुरीष (मल) आदि को निकालते हुए स्थित यानी नियुक्त करता है तथा मुख नासिका इन दोनों से निकलता हुआ सम्राट् स्थानीय प्राणचक्षुः श्रोत्रे – चक्षु और श्रोत्र में स्थित रहता है। प्राण और अपान के स्थानों के मध्य नाभि देश में समान रहता है। ……..इस हृदय देश में एक शत यानी एक ऊपर सौ (एक सौ एक) प्रधान नाड़ियाँ हैं। उनमें से प्रत्येक प्रधान नाड़ी के उन सौ-सौ भेदों में से प्रत्येक से बहत्तर बहत्तर सहस्र अर्थात् दो ऊपर सत्तर सहस्र प्रतिशाखा नाड़ियाँ हैं। …..इन सब नाड़ियों में व्यान वायु संचार करता है तथा उन एक सौ एक नाड़ियों में से जो सुषुमणा नाम्नी एक उर्ध्वगामिनी नाड़ी है, उस एक के द्वारा ही ऊपर की ओर जाने वाला तथा चरण से मस्तक पर्यन्त सञ्चार करनेवाला उदान वायु (जीवात्मा को) पुण्य कर्म यानी शास्त्रोक्त कर्म से देवादि-स्थान रूप पुण्य लोक को प्राप्त करा देता है……।’’

महर्षि सत्यार्थ प्रकाश के नवम समुल्लास में प्राणमय कोश के समबन्ध में लिखते हैं, ‘‘दूसरा ‘प्राणमय’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर जाता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता, ‘समान’ जो नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुँचाता, ‘उदान’ जिससे कण्ठस्थ अन्न-पान खैंचा जाता और बल पराक्रम होता, ‘व्यान’ जिससे सब शरीर में चेष्ठा आदि कर्म जीव करता है।’’ महात्मा नारायण स्वामी जी अनुसार अपान नामक प्राण मल और मूत्रेन्द्रिय विभाग में रहकर अपना काम करता है। मुख, नासिका, आँख और कान के क्षेत्र में प्राण स्वयं रहकर उनके कार्यों का साधन बनता है। शरीर के मध्य नाभि क्षेत्रादि में समान नामक प्राण रहता है और खाये हुए अन्न को पचाता है। हृदय की प्राण नाड़ियों में व्यान नामक प्राण परिभ्रमण करता है तथा हृदय की एक सौ एक नाड़ियों में से एक के द्वारा ऊपर जानेवाले प्राण का नाम उदान है, जो मृत्यु समय जीव को कर्मानुसार भिन्न-भिन्न स्थानों को पहुँचाया करता है।

स्वामी सत्यबोध सरस्वती जी के शबदों में, ‘‘मुखय प्राण हृदय (यह हृदय रक्त प्रेषण करने वाले अवयव से भिन्न है) में स्थित होकर मुख नासिका पर्यन्त प्राण नाड़ियों में ऊर्ध्व गति करता है। ‘अपान’ पायु तथा उपस्थ इन्द्रियों में स्थित होकर नासिका, मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि से लेकर पायु इन्द्रिय तक प्राण नाड़ियों में नीचे की ओर संचरण करता है। ‘नाभि जो प्राण और अपान का सन्धि स्थल है, में स्थित होकर भुक्त आहार के रस आदि धातुओं को शरीर के समस्त अवयवों में पहुँचाने का काम करता है। ‘उदान’ पाद तल से लेकर शिर के शीर्ष पर्यन्त नाड़ियों में उर्ध्व गति का हेतु है। ‘व्यान’ समस्त शरीर में नाड़ियों में व्याप्त पवन को कहते हैं।’’ उपरोक्त उद्धरणों से शरीर में प्राणों की स्थिति तथा कार्य स्पष्ट है। उदान प्राण के द्वारा, उदान वृत्ति होने पर आत्मा/परमात्मा का साक्षात्कार संभव है, अतः उदान प्राण के बारे में पृथक् से विचार किया जावेगा।

  1. प्राण की उत्पत्ति –

स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीमिन्द्रियम्।

मनोऽन्नमन्नाद्वीर्यं तपोमन्त्राः कर्मलोका लोकेषु च नाम च।।

– प्रश्न.6.4

परमेश्वर ने प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथिवी, इन्द्रियाँ, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, कर्मलोक और नाम-इन सोलह कलाओं की रचना की।

एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वोन्द्रियाणि च।

खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीविश्वस्य धारिणी।।

– मुण्डक 2.13

द्वितीय मुण्डक प्रथम खण्ड में चेतन सत्ता रूप विराट पुरुष की व्याखया करते हुए कहा गया है कि

 

प्राण, मन, सब इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, ज्योति, जल, विश्व को धारण करने वाली पृथिवी उसी से उत्पन्न होती है।

 

ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रपगस्यति।

मध्ये वामनासीनं विश्वे देवा उपासते।।कठो. 2.2.3

जो प्राण को ऊपर की ओर ले जाता है और अपान को नीचे की ओर ढकेलता है, हृदय के मध्य में हरने वाले उस वामन-भजनीय की सब देव उपासना करते हैं।

यः प्राणे तिष्ठन्प्राणादन्तरो यं प्राणो न वेदयस्य प्राणः शरीरं।

यः प्राणमन्तरोय मयत्येष स आत्मान्तर्यायमृतः।

– वृहद्. 3.7.16

जो प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है, जिसको प्राण नहीं जानता, परन्तु प्राण ही जिसका शरीर है, जो प्राण के भीतर रहता हुआ उसका नियमन कर रहा है, वही सर्वान्तर्यामी परमात्मा है।

इस प्रकार प्राण चेतन सत्ता नहीं है, अपितु भौतिक तत्त्व है जो परमात्मा से उत्पन्न होता है तथा परमात्मा ही जिसका नियमन करता है। परमात्मा प्राण में रहता हुआ भी प्राण से अलग है तथा प्राण उसको नहीं जानता है। प्राण पाँच प्रकार से विभाजित हो जिन क्रियाओं को करता है, उनका कराने वाला परमात्मा है। बाह्य प्राण जीवों को सूर्य रश्मियों के माध्यम से नेत्रों द्वारा प्राप्त होता है तथा सर्वत्र व्याप्त है । इसको विद्वान् आधिदैविक प्राण के नाम से कहते हैं। दूसरा- जीवों के शरीर में स्थित परमात्मा वैश्वानराग्नि रूप से अन्नपानादि आहार को पचाता है, जैसा कि वृहदारण्यक उपनिषद् 5.11 में कहा गया है-

अयमग्निवैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषेयेनेदमन्नं पच्यते सदिदमद्यते।।

परम पिता परमात्मा ही अन्न, जल और घृतादि तैजस् आहार के अणुतम भाग से मन, प्राण और वाग् बलों को उत्पन्न करता है।

अन्नमयं हि सोमय मन आपोमयः प्राणस्तेजोमयी वागिति।

– छान्दोग्य.6.5.4

अन्न से मन की शक्ति के अतिरिक्त स्थूल बल की भी प्राप्ति होती है जो प्राणबल का अधिष्ठान है-

प्राणः स्थूणाऽन्नं दाम। वृहद.2.2.1

इस प्राण को आध्यात्मिक प्राण भी कहा जाता है, यह प्राण ऊपर उठकर हृदय में आधिदैविक प्राण से मिल जाता है-

अपां सौमय पीयमानानां योऽणिमा स ऊर्ध्वः समुदिशति स प्राणो भवति।

इस प्रकार प्राण परमात्मा से ही उत्पन्न होता है तथा परमात्मा से ही इसका नियमन होता है।

– 53/203, वी.टी.रोड, मानसरोवर, जयपुर, राज.

संस्कृत साहित्य में ‘डायरी’ विधा

संस्कृत साहित्य में ‘डायरी’ विधा

– डॉ. अंजना शर्मा ज्योति बाला

संस्कृत-साहित्य अत्यन्त विस्तृत एवं समृद्ध है। वेदों के अति गमभीर एवं रहस्यमय ज्ञान से लेकर सामान्य जन-जीवन के मनोविनोद से समबन्धित समपूर्ण वैभव संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है। वैदिक समय से प्रवाहित इसकी धारा आधुनिककाल में भी न केवल सतत प्रवहणशील है, बल्कि युगानुरूप प्रवृत्तियों को आत्मसात् करती हुई विशालतर और गमभीर रूप में आगे बढ़ा रही है। गद्य-पद्य आदि सभी रूपों में नवीन विधाओं का विकास एवं विस्तार इसको अभूतपूर्व बना रहा है । इसमें गद्य साहित्य की अनेक विधाएँ आधुनिक युग में प्रचलित हैं जो इसे समृद्ध कर रही हैं- जैसे लघुकथा, एकांकी, निबन्ध, लेख, रेखाचित्र, आत्मकथा, यात्रावृत्तांत, जीवनी, रिपोतार्ज आदि। इनसे पृथक् एक विधा है- ‘डायरी’ इस विधा में लेखन सर्व प्रथम डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने किया है।

डायरी का अर्थ अंग्रेजी का ‘डायरी’ शबद लैटिन के डायस शबद से बना है जो दैनंदिता का बोधक है। जब कोई व्यक्ति तिथि सन्-संवत् आदि का उल्लेख करते हुए घटनाओं को उसी क्रम में लिपिबद्ध करता है, जिसक्रम से उसके जीवन में घटित हुई हैं (या जिस क्रम से उसने उन्हें अपने जीवन-काल में देखा-सुना अथवा सोचा-समझा है) और उसकी वैयक्तिक अनुभूति का एक अविभाज्य अंश बन गई हों, तब डायरी विधा जन्म लेती है।1

डायरी को जीवन का सबसे अधिक प्रामाणिक दस्तावेज माना गया है, क्योंकि डायरी लेखक अपने जीवन की घटनाओं, परिस्थितियों, स्वजनों और परायों के व्यवहार, तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक हलचलों को जिस तरह देखता, परखता, भोगता, जानता, पहचानता है और उसपर जहाँ जैसी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करना चाहता है, सबको यथा तथ्य वर्णित कर देता है।2

डायरी निजी होती है। इसे लेखक प्रकाशन के उद्देश्य से नहीं लिखता। वह भावनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है, जिसके द्वारा निजता का विवेचन होता है। कलात्मकता की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। यहाँ लेखक की भावनाएँ निर्झर की तरह अपना रास्ता बना लेती हैं। शिल्प के प्रति यदि लेखक लालायित है तो स्वाभाविकता समाप्त हो जाती है।3

एक अच्छी डायरी में स्पष्टता, सहजता, संक्षिप्तता, सुसंगठितता, रोचकता आदि गुणों का समावेश होता है। डायरी में देश, काल और वातावरण का बड़ा महत्त्व होता है । उसकी पृष्ठभूमि की सहायता से लेखक का व्यक्तित्व स्पष्ट होकर सामने आ जाता है।4

डायरी का विभाजन

डायरी का विभाजन अनेक आधारों पर होता है। कवि, कथा-लेखक, आलोचक, राजनीतिक पुरुष समाजसेवी आदि विभाजन लेखकों के आधार पर होता है। विषय वस्तु के आधार पर प्रकृति चित्रण प्रधान, सामाजिक, सांस्कृतिक विषय प्रधान डायरियाँ लिखी जाती हैं। किसी विशेष स्थान का चित्रण भी डायरी में होता है।5

डायरी का प्रमुख उद्देश्य आत्म-विवेचन और आत्म-विश्लेषण होता हैं। लेखक तो अपने भावों, विचारों और घटनाओं को डायरी में सहज रूप से अभिव्यक्ति करता है। लेखक की डायरी से पाठक को प्रेरणा मिलती है, जानकारी और ज्ञान भी।

डायरी के रचना आधार तत्त्व

डायरी के रचनातत्त्व निम्न प्रकार से हैं। इनके आधार पर एक डायरी की रचना होती है-

  1. व्यक्तिगत जीवन के क्रमिक चित्र
  2. आंतरिक सत्य
  3. तल्लीनता
  4. सहजता
  5. कलात्मकता के प्रति उदासीनता
  6. व्यक्तिगत जीवन के क्रमिक चित्र –

डायरी निजी लेखन है, अतः इसमें लेखक के व्यक्तिगत जीवन को अभिव्यक्ति मिलती है। नितान्त निजी क्षणों में कोई भी व्यक्ति जो सोचता-विचारता है, उसे अपनी डायरी में लिखता है। किसी-किसी व्यक्ति को प्रतिदिन डायरी लिखने की आदत होती है, कुछ व्यक्ति एक-दो अथवा कुछ दिनों के अन्तराल के बाद डायरी लिखते हैं, परन्तु फिर भी यह जरूरी होता है कि डायरी में तिथि क्रम बना रहे। डायरी लेखक के व्यक्तिगत जीवन का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज होती है।6

  1. आंतरिक सत्य– डायरी का दूसरा महत्त्वपूर्ण विधायक तत्त्व आंतरिक सत्य है। डायरी में लेखक की निजी अनुभूतियाँ, संवेदनाएँ विचार आदि सत्यता के साथ अंकित रहती हैं, इसलिए निजी अथवा आंतरिक सत्य का उद्घाटन डायरी का मुखय तत्त्व होता है। इसी से जुड़ा तत्त्व है- आत्म निरीक्षण, आत्म-विश्लेषण और आत्म-समबोधन। लेखक स्थितियों, घटनाओं और परिस्थितियों के बीच अपने को रखकर आत्मविश्लेषण करता है, इसलिए डायरी प्रायः आत्म परिष्करण और आत्ममुक्ति का सबसे अच्छा साधन भी है।
  2. तल्लीनता –

डायरी लेखक तल्लीनता के साथ अपनी अनुभूतियों, प्रतिक्रियाओं, टिप्पणियों आदि को शबदों से बाँधता है। नितान्त निजी क्षणों में और प्रायः एकान्त में वह डायरी लिखता है, इसलिए अन्य साहित्यिक विधाओं की अपेक्षा डायरी लेखन में तल्लीनता सर्वाधिक रहती है। इस तल्लीनता के तत्त्व के कारण डायरी-लेखक समय और स्थान की सीमा से दूर चला जाता है। जो समीक्षक डायरी में कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं मानते, वे केवल सत्य ही डायरी के लिए आवश्यक मानते हैं।

  1. सहजता –

तल्लीनता से जुड़ा डायरी का महत्त्वपूर्ण उपकरण सहजता है। तल्लीन होकर सहज रूप में व्यक्ति अपनी डायरी लिखता है। इन दोनों के कारण वह दुराव-छिपाव और बनावट (कृत्रिमता) से बचा रहता है। कोई झूठ उसके पास नहीं फटक पाता।

इसलिए डायरी लेखक के लिए सहजता अत्यावश्यक है।

  1. कलात्मकता के प्रति उदासीनता –

इन दोनों तल्लीनता और सहजता से प्रभावित डायरी का अंतिम विधायक उपकरण है-कलात्मकता के प्रति उदासीनता। वास्तव में यह डायरी का गुण है। डायरी लेखक यह सोचकर नहीं लिखता कि वह कोई कलात्मक वस्तु सृजित कर रहा है। प्रायः डायरियाँ यह सोचकर भी नहीं लिखी जाती कि इनका प्रकाशन किया जाएगा, इसलिए इन्हें कलात्मक होना चाहिए। डायरी लेखक यदि विचारवान, सिद्धहस्त लेखक, कलाकार, दर्शनिक हुआ तो सहज शिल्प उसकी डायरी को स्वतः ही कलात्मक बना देगा।

कलात्मकता या शिल्प के प्रति यदि उसके मन में आग्रह रहेगा तो वह अपनी डायरी के प्राकृतिक रूप को विकृत कर लेगा। डायरी-लेखक को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि वह अपनी यह डायरी किसी को प्रभावित करने के लिए किसी की आलोचना या प्रशंसा करने के लिए अथवा निश्चय ही एक उत्कृष्ट साहित्यिक कृति के रूप में लिख रहा है। उसे तो सहज भाव से तल्लीन होकर अपने मन की बातें अंकित करते चलना चाहिए, तभी वह डायरी सच्ची डायरी होगी।

डायरी में लिखे गए दैनिक अनुभव एक-दूसरे से अलग-थलग कटे हुए होते हैं। उनमें पूर्वापर का अभाव होता है। डायरी पढ़ते समय घटनाओं के पूर्वापर समबन्धों में पारस्परिक भाव उत्पन्न नहीं होता। 7

डायरी में वर्णन न होकर मन की प्रतिक्रिया आत्मविश्लेषण एवं मन स्थिति अंकित की जाती है। डायरी का सत्य अपेक्षाकृत अधिकपूर्ण आंतरिक और आत्मीय होता हैं। डायरी लेखकर प्रायः कटु से कटु सत्य से भी दूर नहीं भागता। किसी भी अवाछित प्रसंग को ढकना डायरी-लेखक के लिए उचित नहीं, क्योंकि वह तो यह सोचकर लिखता है कि जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, वह मेरा निजी है, मेरा अपना है। क्योंकि डायरी को सभी के पढ़ने की वस्तु नहीं माना गया है, अतः डायरी को हम विभिन्न ‘मूड्स’ के स्नेप्स कह सकते हैं, अर्थात् हम उन्हें मन के चित्र भी कह सकते हैं।

डायरी ग्रन्थ

हिन्दी के डायरी लेखन का प्रारम्भ 1930 के आस पास माना जाता है। नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ इसके प्रथम लेखक माने जाते हैं। नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ की ‘जेल डायरी’ के नाम से प्रकाशित हुई।8

अजित कुमार की डायरी ‘अंकित होने दो’ के नाम से छपी है। इलाचन्द्र जोशी की ‘डायरी के नीरस पृष्ठ’ से प्रसिद्ध हुई। राम कुमार वर्मा की ‘वाराणसी की डायरी’ हिन्दी गद्य साहित्य में पाई जाती है। गजानन माधव मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’, नामवर सिंह की ‘मलयज की डायरी’ (संपादित) प्रमुख हैं।9

इसके अतिरिक्त घनश्याम बिड़ला की ‘डायरी के कुछ पन्ने’ नाम की डायरी बहुत महत्त्वपूर्ण व उल्लेखनीय है। गाँधीजी की दिल्ली डायरी भी प्रकाशित हुई। महादेव भाई देसाई की डायरी गुजराती में लिखी गई। मनुबेन गाँधी की गुजराती से अनुदित डायरी भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह डायरी गाँधी जी के जीवन की घटनाओं का सच्चा दस्तावेज है। यह चार भागों में विभाजित है-

  1. एकला चलो रे
  2. कलकत्ते का चमत्कार
  3. बिहार की कौमी आग में
  4. दिल्ली डायरी

अमृता प्रीतम की डायरी ‘सात मुसाफिर’ प्रकाशित हुई। जमनालाल बजाज की डायरी गुजराती से अनुदित होकर हिंदी में ‘जमनालाल  की डायरी’ नाम से प्रकाशित हुई।10

संस्कृत डायरी ग्रन्थ

संस्कृत में अभी तक एक ही डायरी ग्रन्थ लिखा गया है, सर्व प्रथम जिसकी रचना डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने की है। ‘दिन-दिने याति मदीयजीवितम्’ नामक इस डायरी ग्रन्थ का लेखन काल दिनांक 14.01.2006 से दिनांक 19.06.2007 तक है। इसमें लेखक ने अपने जीवन, स्वास्थ्य, यात्रा-वर्णन, क्रिया कलाप, मनोभाव व अन्य विशिष्ट वृत्तों का वर्णन किया है। व्यक्तिगत जीवन के अनेक पक्षों का स्पष्ट प्रकाशन इस डायरी को विशिष्ट बनाता है।11

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि संस्कृत साहित्य में डायरी नवीन विधा है और इस विधा का लेखक विशेष संवेदनशील होता है और वह आत्माभिव्यक्ति की पुकार को नकारता नहीं है। वह तनिक अवकाश चुराकर किसी एकान्त कोने में डायरी लेखन से भी नहीं चूकता। डायरी में मन खोलकर लिखते हैं। डायरी अपने लिए लिखी जाती है, दूसरों के लिए नहीं अन्ततः डायरी को लेखक के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज मानते हैं।

पुरी में रहने वाले ‘पुरुष’ दो हैं

पुरी में रहने वाले  ‘पुरुष’ दो हैं

– इन्द्रजित् देव

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने क्रान्तिकारी ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश’’ के प्रथम समुल्लास में लिखते हैं कि ईश्वर के अनेक नाम हैं। ये नाम गुणवाचक, सबन्धवाचक, कर्मवाचक हैं। इनके अतिरिक्त एक नाम मुखय व निज (= ओ3म्) है। इसी समुल्लास में एक नाम ‘पुरुष’ भी है। इस नाम के आधार पर एक पौराणिक विद्वान् प. गिरिधर शर्मा ने एक शास्त्रार्थ में तत्कालीन आर्य प्रतिनिधि सभा, पञ्जाब के प्रधान महात्मा मुंशीराम (=स्वामी श्रद्धानन्द जी) से एक शास्त्रार्थ में प्रश्न किया था-   ‘‘स्वामी दयानन्द ने ईश्वर को पुरुष घोषित किया है। यह प्रमाण वेद में नहीं है तो स्वामी जी ने क्यों ऐसा घोषित किया?’’ इस प्रश्न के उत्तर में महात्मा मुंशीराम जी ने कहा कि वेद में ईश्वर को पुरुष कहा गया है-

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् आदित्य वर्णं तमसः परस्तात्

तमेवविदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।

– यजुर्वेद 31-18

अर्थात् मैं ऐसे महानतम् पुरुष को जानता हूँ जो आदित्य-सूर्य के समान तेजस्वी, अन्धकार से परे है। वे ब्रह्माण्ड रूपी नगरी में निवास करने वाले प्रभु पुरुष हैं, सर्वव्यापक हैं, सर्वाधिक महान् हैं ,विभू हैं अथवा ‘मह पूजायाम्’ पूजा के योग्य हैं। उस ज्योतिर्मय प्रभु को जानकार ही मनुष्य मृत्यु को लाँघ जाता है तथा मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अन्य कोई उपाय या मार्ग नहीं है।

वेद से कुछ अन्य मन्त्रों में भी ईश्वर को पुरुष कहा गया है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।

स भूमिंविश्वतो वृत्वात्यतिष्ठदशाङ्गुलम्।

– ऋ. 10-90-1

भावार्थःवे पुरुष विशेष प्रभु ‘अनन्त सिरों, आँखों व पाँव’ वाले हैं। सारे ब्रह्माण्ड को आवृत करके इसको लाँघ कर रह रहे हैं।

पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यज्ज भव्यम्।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिहति।

– ऋ. 10-90-2

भावार्थःब्रह्माण्ड नगर में निवास व शयन करने वाले प्रभु सब प्राणियों पर शासन करने वाले हैं। इनके जो कर्मानुसार जन्म को ग्रहण कर चुके हैं तथा जो समीप भविष्य में ही जन्म ग्रहण करेंगे, इन प्राणियों के भी वे प्रभु ईश हैं।

एतावानस्य  महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।

– ऋ. 10-90-3

भावार्थःसमस्त ब्रह्माण्ड पुरुष विशेष प्रभु की महिमा का प्रतिपादन कर रहा है। वे प्रभु इस ब्रह्माण्ड से बहुत बड़े हैं। यह ब्रह्माण्ड तो प्रभु के एक देश में ही है।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्युपुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।

– यजुर्वेद 31/4

भावार्थःयह पूर्वोक्त परमेश्वर कार्य जगत् से पृथक् तीन अंश से प्रकाशित हुआ।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षण पुरुषं जातमग्रतः

– यजुर्वेद 31/9

भावार्थःहम अपने हृदयों को पवित्र बना वहाँ प्रभु की ज्योति को जगाएँ।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः।

– य. 31/3

भावार्थःसारा ब्रह्माण्ड प्रभु के एक देश में है।

ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः।

– य. 31/5

भावार्थःयह संसार प्रभु द्वारा प्रारमभ में एक विराट् पिण्ड के रूप में उत्पन्न किया जाता है।

पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।

– ऋ. 1-90-2

भावार्थःयह जो कुछ भूत, वर्तमान और भविष्य है, यह सब उपलबध जगत् इस जगत् के आधार सनातन भगवान् में ही है।

वेदों में अन्य प्रमाण भी उपलबध हैं, परन्तु विस्तार भय से वेद-प्रमाण और न देकर दर्शनों के कुछ प्रमाण उद्धृत हैं-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुष विशेष ईश्वरः।

– योगदर्शनम् 1/24

अर्थः- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश- इन पाँच क्लेशों, शुभाशुभ कर्मों, कर्मफल तथा वासनाओं से असमबद्ध पुरुष विशेष ईश्वर कहलाता है।

आत्मा का भी यत्र-तत्र पुरुष अर्थ में प्रयोग किया गया हैं-

उद्यानं ते पुरुष नावयानम्। – वेद

अर्थः हे जीव! तुम ऊर्ध्वगतिवाला हो। तेरा नाम ‘पुरुष’ है। तेरी सार्थकता पुरुषार्थ करने में है।

अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः।

– सांखयदर्शन 1/1

अर्थःआध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक- इन तीन प्रकार के दुःखों से अतिशय निवृत्ति परम पुरुषार्थ (=पुरुष का प्रयोजन) है। इसका प्रतिपादन करने वाले शास्त्र का प्रारमभ करते हैं।

न सर्वोच्छित्तिरपुरुषार्थत्वादि दोषात्।

– सांखयदर्शन 5/74

अर्थःआत्मा और अनात्मा सबका उच्छेद (= नाश) भी मोक्ष नहीं है, अपुरुषार्थता होने आदि दोष से।

पुरुषबहुत्वं व्यवस्थातः।     – सांखयदर्शन 6/45

अर्थःपुरुष (= आत्माएँ) बहुत हैं, व्यवस्था के कारण ।

न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्याभावात्।

– सांखयदर्शन 5/46

अर्थःशबद राशि वेद भी पौरुषेय नहीं है (=किसी पुरुष अर्थात् आत्मा द्वारा रचे नहीं गए) उसकी रचना करने वाले पुरुष के न होने से।

ना पौरुषेयत्वान्नित्यत्वमङ्कुरादिवत्।

– सांखयदर्शन 5/48

अर्थःकिसी पुरुष (= आत्मा) द्वारा न लिखे होने से वेदों का नित्य होना नहीं कहा जा सकता, अङ्कुरादि के समान।

यस्मिन्नदृष्टेऽपिकृतबुद्धिरुपजायते तत् पौरुषेयम्।

– सांखयदर्शन 5/50

अर्थःजिस वस्तु में कर्त्ता के द्वारा अदृष्ट होने पर भी यह रची गई है, ऐसी बुद्धि होती है, वह वस्तु पौरुषेय (= आत्मा द्वारा रची गई) कही जाती है।

सत्व पुरुषयोः शुद्धिसामये कैवल्यम्।

– योगदर्शनम् 3/54

अर्थःसत्व और पुरुष (= आत्मा, जीव) की शुद्धि समान होने पर कैवल्य (= मोक्ष) हो जाता है।

ब्राह्मणः पुरं वेदेति पुरष उच्यते।

-अर्थववेद 10/2/30

अथर्व. की दृष्टि से ‘‘पुरं वेत्तीति पुरुषः’ ’ऐसा पुरुष निर्वचन है। श्रुति की दृष्टि से यह निर्वचन जीव (= आत्मा) का ही प्रतीत होता है, क्योंकि ब्रह्मपुर का ज्ञान वही करेगा। जहाँ ब्रह्म ओत-प्रोत है, वह सब ही ब्रह्म का पुर हुआ तथा वह है सर्व जगत्, उसे समपूर्णतः प्रभु ही जानते हैं, इस दृष्टि से वे भी पुरुष कहे जा सकते हैं।

आत्मा को ‘पुरुष’ क्यों कहते हैं? वह पूः अर्थात शरीर में रहता है, अतः पुरिषादः कहाता हुआ पुरुष कहा जाने लगा अथवा उसमें सोता है, वह पुरिशय होता हुआ ‘पुरुष’ हो गया- पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः।

पूरयति अन्तः अन्तर पुरुषम् अभिप्रेत्य- अर्थात् अन्दर से समपूर्ण जगत् को भरपूर कर रहा है, अन्तर्यामी होने से सर्वत्र व्याप्त है, ऐसा विग्रह परमेश्वर को लक्ष्य करके ही किया जाता है।

इससे सिद्ध होता है कि ‘पुरुष’ शबद का अर्थ प्रसंग व परिस्थिवशात् आत्मा तथा परमात्मा – इन दोनों में से कोई भी अर्थग्रहण किया जाना चाहिए।

आत्मा रूपी ‘पुरुष’ और परमात्मा रूपी ‘पुरुष’ में अन्तर भी समझना अपेक्षित है। इस विषय में निवेदन यह है परमात्मा विशेष महान्तम् पुरुष है। यह यजुर्वेद के मन्त्र 31/18 में तथा योगदर्शन के सूत्र 1/24 में इस लेख में उद्धृत किया जा चुका है, जबकि आत्मा सामान्य है। परमात्मा व आत्मा काल की दृष्टि से अनन्त हैं, परन्तु व्यापकता की दृष्टि से परमात्मा सर्वत्रव्यापक है और आत्मा की व्यापकता सीमित है। आत्मा सत्वचित् है तो परमात्मा सत्, चित्त था आनन्द स्वरूप है। आत्मा सर्वशक्तिमान् नहीं है, अर्थात् उसे करणीय कार्य करने के लिए दूसरे व्यक्तियों तथा परमात्मा से सहायता लेनी पड़ती है, जबकि परमात्मा अपने कार्य करने के लिए किसी की भी सहायता की आवश्यकता नहीं समझता। परमात्मा अनुपम है, परन्तु आत्मा अनुपम नहीं है। परमात्मा सृष्टिकर्त्ता है, परन्तु आत्मा ऐसा नहीं है।

ईश्वर अभय है तो जीव अधिकतर भयशील ही रहता है। परमात्मा सर्वान्तर्यामी है, परन्तु आत्मा अन्तर्यामी हो नहीं सकता। परमात्मा सर्वज्ञ है, परन्तु आत्मा अल्पज्ञ है। आत्मा शरीर को प्राप्त करता है, परन्तु परमात्मा ने कभी शरीर धारण नहीं किया तथा न ही ऐसा करेगा। परमात्मा अकाम है, परन्तु आत्मा ऐसा नहीं हो सकता। कुछ अन्य भी परस्पर भेद हैं।

– चूनाभट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर (हरियाणा)

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

सम्पादकीय

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

ईश्वर के समबन्ध में विचार करते हुए इस विषयक सभी संभावनाओं पर विचार करना आवश्यक है। प्रथम समभावना है- ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है, अतः ईश्वर की सत्ता भी नहीं है। द्वितीय समभावना है- किसी भी वस्तु को ईश्वर मान लिया जा सकता है। तृतीय समभावना है- यदि वस्तु को ईश्वर मानने में असुविधा है तो चेतन मनुष्य को ईश्वर माना जा सकता है। ये प्रश्न सदा से मनुष्य के लिए विचारणीय रहे हैं और आज भी विचारणीय हैं। इन प्रश्नों के उत्तर भी हमें विभन्न विचारकों के साहित्य में मिलते हैं। इन विचारकों के तर्कों, युक्तियों और प्रमाणों पर विचार करके ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।

प्रथम समभावनाजब-जब हमारे सामने कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं, तब-तब ईश्वर के मानने की आवश्यकता पड़ती है। यह संसार कैसे बना, इसकी बनाने की सामग्री क्या है, इसका बनाने वाला कौन है, संसार में जितने भी चेतन प्राणी दृष्टिगत हो रहे हैं वे कहाँ से प्रकट हो रहे हैं, संसार में उनकी सत्ता का आधार व औचित्य क्या है, जो आये हैं बने हैं वे कहाँ जा रहे हैं, उनका जाना उनकी अपनी इच्छा से है या वे इन सब परिस्थितियों के लिए किसी और के आधीन हैं, इन प्राणियों के जीवन में होनेवाले सुख-दुःख प्राणियों की अपनी इच्छा का परिणाम है या ये भी किसी से नियन्त्रित हैं?1

द्वितीय समभावनाइसके विकल्प में जितने समाधान हो सकते हैं, उनमें प्रथम है- संसार की दृश्यमान वस्तुएँ इस संसार का कारण हो सकती हैं। इसमें दो विकल्प हैं- वस्तु पृथक्-पृथक् रुप में कारण है या इन सबका मेल कारण है?

तृतीय समभावनायदि ये अपने-आप संसार को नहीं बना सकते तो संसार का चेतन दीखने वाला मनुष्य इस संसार का रचयिता हो सकता है। यदि वह समर्थ है तो उसके सुख-दुःख का वह स्वयं नियन्त्रक क्यों नहीं है? इस प्रकार का चिन्तन पुरातन काल से चला आ रहा है और आज भी ये प्रश्न वैसे ही हमारे सामने खड़े हैं।3

ईश्वर नहीं होने का पहला तर्क है- ईश्वर होता तो एक पदार्थ होता और पदार्थों को जाना जाता है, अतः ईश्वर को भी जान लिया जाता। मनुष्य के पास जानने के साधनों के रूप में उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जिनसे संसार के सभी पदार्थ जाने जाते हैं।4 जानने के इन साधनों में से किसी भी साधन से ईश्वर की प्रतीति नहीं होती, अतः ईश्वर का अस्तित्व नहीं है।

जानने के साधनों में सबसे प्रमुख नेत्र हैं, अतः अधिकांश लोग ईश्वर को आँखों से देखना चाहते हैं। आँखों से देखने का अर्थ वस्तु के रूपवान् होने से लेते हैं। कोई वस्तु रूपवाली होने पर ही दिखाई दे सकती है, परन्तु संसार में केवल आँख से दिखाई देना मात्र किसी वस्तु के होने का आधार नहीं बनता। नेत्र से अतिरिक्त ज्ञानेन्द्रियों से जो वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे सभी रूप से रहित हैं। जैसे गन्ध, शबद आदि, इनका आँख से कोई समबन्ध नहीं है, परन्तु इन वस्तुओंका अस्तित्व हम सभी अनुभव करते हैं, अतः इनसे जानी जाने वाली वस्तुओं के लिए भी देखना शबद का प्रयोग करते हैं। देखो, शबद कितना मीठा है, गन्ध कितनी अच्छी है! देखो, स्पर्श कितना कोमल है, स्वाद कैसा मधुर है! इस प्रकार देखना शबद का अभिप्राय जानना होता है।

संसार की वस्तुओं को देखने से भी इन बातों की पुष्टि होती है। जो वस्तु साकार है, वह अनेक है। जो साकार है, वह एकदेशीय है। जो साकार है, वह निर्मित है, उसे किसी ने बनाया है, उसका कोई बनाने वाला है। जो बनी है, वह नाशवान् है। जो वस्तु बनी है, साकार है, वह जड़ भी है। इस प्रकार ईश्वर को साकार मानने में बहुत सारी बाधाएँ आती हैं, अतः ईश्वर एक और निराकार है।

इसी प्रकार हम मानते हैं, परमेश्वर खाता है, पीता है, सोता है, अतः परमेश्वर के साथ सभी कार्य जोड़ लिए जाते हैं, जैसे लड़कियाँ छोटी अवस्था में गुड़ियों का खेल करते हुए उन्हें खिलाती, पिलाती, सुलाती हैं। गुड़िया वास्तव में खाती नहीं। बच्ची जानती नहीं, परन्तु इसके मन में सन्देह तो है। लोग पूरे जीवन मूर्ति को खिलाकर आते हैं और उनके मन में सन्देह भी उत्पन्न नहीं होता, यह विचित्रता है।

एक और प्रश्न ईश्वर के समबन्ध में विचारणीय है। कहते हैंअजी, मानो तो पत्थर भी भगवान् है, न मानो तो पत्थर है। यहाँ समझने की बात यह है कि हम ईश्वर है, इसलिए मानते हैं या ईश्वर को मानते हैं, इसलिए वह है। पत्थर को भगवान् मानने की बात से तो लगता है- ईश्वर है नहीं, केवल हम मानते हैं, इसलिए है। मानने और होने में बड़ा अन्तर है। मानने पर केवल मानने वाले के लिए ही वह होता है, जो नहीं मानते उनके लिए वह नहीं हो सकता। इसके विपरीत होने पर सबके लिए मानने की बाध्यता है। उदाहरण के लिए इस बात को इस तरह समझा जा सकता है। एक व्यक्ति का एक पुत्र है, इसको पिता भी मानता है, पुत्र भी मानता है, दूसरे लोग भी मानते हैं। दूसरे व्यक्ति का पुत्र नहीं है, उसने किसी बालक को गोद लिया है, परन्तु वह उसे पुत्र मानता है, पुत्र भी उसे पिता मानता है, अन्य लोग भी वैसा ही स्वीकार करते हैं। एक मनुष्य किसी जानवर को बेटा कहता है, कुत्ते को बेटा कहता है, गाय को माता कहता है। माननेवाला व्यक्ति कहता है, कहता रहे, वह कुछ भी मानता रहे, परन्तु न प्राणी उसे अपना पिता मानता है, न अन्य लोग। इसी भाँति पत्थर को न तो दूसरा कोई भगवान् मानता है, न पत्थर स्वयं को भगवान कहता है। भूमि को हिन्दू माता कहकर नमन करता है, मुसलमान ऐसा करने से इन्कार कर देता है। जब हम किसी वस्तु को भगवान् मानते हैं, तब वह वस्तु भगवान् होती नहीं, हम केवल उसे मानते हैं। इसी कारण जो जिसको चाहे भगवान् मान सकता है और वह वस्तु उसके लिए भगवान् होती है। यही भगवान् के अनेक होने का कारण है। कोई स्थान को भगवान् मानता है, कोई पिण्ड को, कोई पहाड़ को, कोई पशु को, कोई पृथ्वी को, कोई पानी को, कोई पुस्तक को, कोई व्यक्ति को । ईश्वर है हम इसलिए नहीं मानते, अपितु मानते हैं इसलिए ईश्वर है।

वस्तु के ईश्वर मानने में एक बाधा और आती है, वह बाधा है-हम वस्तु को ईश्वर मानते हैं या उसमें विद्यमान रूप को? क्योंकि ईश्वर के दर्शनों की इच्छा से वस्तु में रूप को ही मुखय मानते हैं, अन्य गुणों का हमारे लिए बहुत महत्त्व नहीं होता। इस मान्यता में जो शंका है, वह यह कि यदि वस्तु को ईश्वर मानते हैं तो वस्तु मात्र ईश्वर होगी, तब यदि हमारा पत्थर भगवान् है तो ईसाई का, मुसलमान का या किसी और का पत्थर भी भगवान् ही होगा। यदि आकृति को भगवान् मानेंगे तो प्रश्न उठेगा- आकृति विशेष भगवान् है या आकृति सामान्य? आकृति सामान्य भगवान् मानने पर सभी आकृतियाँ भगवान् होंगी, हर आकृति भगवान् होंगी। यदि आकृति विशेष को भगवान् मानें तो व्यवहार में ऐसा नहीं पाया जाता, अनेक वस्तुएँ भगवान् के रूप में पूजी जाती हैं और अनेक आकृतियों के रूप में भगवान् देखा जाता है, अतः भगवान् है इसलिए नहीं मानते, अपितु मानते हैं इसलिए है।

मूर्ति पूजा करते समय एक और प्रश्न उपस्थित होता हैहम मूर्ति को भगवान् मानते हैं, उसके दर्शन करने के लिए मन्दिर में जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि जिससे मिलने और जिसके दर्शन करने के लिए मन्दिर में जाते हैं, हम उसके सामने आँखें बन्द करके क्यों बैठते या खड़े होते हैं? यदि हम किसी से मिलने किसी के घर पर जायें और उसके सामने बैठकर आँख बन्द करके ‘बन्धु, आपके दर्शनों के लिए आया हूँ’ ऐसा कहें तो गृहस्वामी उस व्यक्ति को अवश्य ही मूर्ख कहेगा, परन्तु मूर्ति के सामने सदा हम आँखें बन्द करके बैठना पसन्द करते हैं तो यह और भी अनुचित है। जो मिल गया, उसका ध्यान नहीं किया जाता, ध्यान तो अज्ञात का किया जाता है। प्राप्त से तो व्यवहार किया जाता है।

मनुष्य जब भी परमेश्वर का ध्यान या विचार करता है तो दो कार्य उससे स्वाभाविक रूप से होते हैं- एक आँखों का बन्द करना और हाथों का जुड़ना। हाथों का जुड़ना स्तुति का प्रतीक है, हाथों से स्तुति की जाती है। संस्कृत में हाथ को पाणि कहते हैं। पाणि कहने का कारण है- इससे स्तुति और व्यवहार किया जाता है। आँख बन्द करना किसका द्योतक है? इसको समझने के लिए हमें जीवन के प्रारमभ को देखना होगा। जब बालक छोटा होता है, हम उसे संसार की वस्तुओं से परिचित कराते हैं। बालक धीरे-धीरे वस्तुओं को पहचानने लगता है। हम बार-बार वस्तु को दिखाकर उसका नाम पुकारते हैं। इस आवृत्ति से बालक वस्तु और नाम से सबन्ध स्थापित कर लेता है। फिर उसे वस्तु के दिखने पर नाम और नाम के सुनने पर वस्तु का बोध होता है। वह जब-जब भी नाम सुनता है, वस्तु की समभावित उपस्थिति की दिशा में देखता है। चूँकि ईश्वर नाम की भिन्न-भिन्न वस्तुओं से बालक का परिचय कराया गया होता है, अतः वह उन्हीं नाना पदार्थों को ईश्वर कहता, जानता और मानता है। ईश्वर के इस बाह्य परिचय के साथ प्रत्येक मनुष्य का ईश्वर के विषय में एक आन्तरिक परिचय होता है, जिसके कारण मनुष्य कहीं भी खड़ा हो चाहे मस्जिद में, मन्दिर में, चर्च में या गुरुद्वारे में, उसके मन में भगवान् के भाव आते ही उसके हाथ जुड़ जाते हैं  और उसकी आँखें बन्द हो जाती हैं, क्योंकि मनुष्य का आन्तरिक भाव कहता है कि ईश्वर का साक्षात्कार एक आन्तरिक प्रक्रिया है। उसे आन्तरिक दृष्टि से ही देखा जा सकता है, बाह्य चक्षुओं से नहीं। परमेश्वर का ध्यान आते ही हमारी दृष्टि अन्दर की ओर चली जाती है, अतः स्वाभाविक रूप से हमारी आँखें बन्द हो जाती हैं।

आगे की बात है कि यदि मूर्ति पूजा व्यर्थ है, असत्य है तो प्रश्न उठता है- मूर्ति पूजा चल क्यों रही है? चल ही नहीं रही, अपितु दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। लोग कहते हैं- इतनी बड़ी संखया में लोग मूर्ति पूजा कर रहे हैं वे सब गलत कैसे हो सकते हैं? प्रथम बात पर विचार करते हैं। दुनिया में कोई भी बात अथवा कोई क्रिया नितान्त मिथ्या शत-प्रतिशत हानि करनेवाली नहीं होती। पञ्चतन्त्र में कथा आती है अन्धे को मछली के स्थान पर उसे मारने के लिए साँप पकाकर देना चाहा। उस अन्धे को ही पक रहे साँप वाली कड़ाही चलाते रहने के लिए कह दिया, साँप के विषैले धुएँ से अन्धे को दिखने लग गया। उसने कुबड़े व्यक्ति को क्रोध में पीठ पर लात मारी तो वह व्यक्ति सीधा हो गया। यही हाल मूर्ति पूजा में भी है। दुःखी व्यक्ति को जो भी मिलता है, उसे बिना विचारे स्वीकार कर लेता है, उसी का सहारा ले लेता है, अतः जिसको मूर्ति का सहारा दे दिया जाता है, वह उसे पकड़े रहता है। व्यक्ति एक क्षण के लिए भी असहाय नहीं रहना चाहता, सत्य उसे मिलता नहीं, असत्य को भय के कारण छोड़ता नहीं । वैसे जो भी मूर्ति में सुख का अनुभव करता है, वह मूर्ति के उपासक की अपनी मनोदशा है, उसमें मूर्ति का कोई योगदान नहीं होता। मूर्ति जड़ है, अतः वह कोई सहायता नहीं कर सकती, परन्तु वहाँ का वातावरण और उपासक की मनःस्थिति उसे दुःखमय वातावरण से कुछ समय के लिए दूर ले जाती है। पुरानी परिस्थिति से निकलकर नई परिस्थिति में आने से मनुष्य का ध्यान बँटता है तथा कुछ समय के लिए वह तनाव से मुक्त हो जाता है।6

मनुष्य के साथ एक और बात भी उसे अपने पुरानेपन से दूर नहीं होने देती। मनुष्य को जीवन में जो विश्वास मान्यता, परमपरा, भोजन आदि पहले मिल जाता है, वह उसे सहज स्वीकार कर लेता है तथा उसे श्रेष्ठ मानता है, उसे बचाने का प्रयास भी करता है। कोई हिन्दू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है, कोई पौराणिक है उसे संस्कार, भोजन, मान्यता जैसी मिल जाती है, स्वाभाविक रूप से वह उन्हें स्वीकार कर लेता है। वह जल्दी से उसे नहीं छोड़ता। फिर प्रश्न उठता है- ऐसे व्यक्ति को बदलने का प्रयास क्यों करना चाहिए? मनुष्य बदल सकता है, यदि उसे प्राप्त से श्रेष्ठ विकल्प दिया जाए। मनुष्य स्वभाव से जहाँ है, यदि उसे उससे अच्छी वस्तु, उत्तम स्थिति, अधिक लाभ का अवसर मिले तो वह स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाता है। इसी प्रकार किसी व्यक्ति को नये विचार अच्छे लगते हैं तो वह उन विचारों को स्वीकार कर लेता है। इसी कारण गुरुलोग, पैगमबर लोग अपने अनुयायी और भक्तजनों को किसी दूसरे की बात सुनने से रोकते हैं। मुस्लिम समुदाय इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वह किसी दूसरी बात को स्वीकार करना तो दूर, अपने पैगमबर से भिन्न बात को सुनना भी स्वीकार नहीं करता।

समाज में एक और तर्क है। संसार में अधिकांश लोग मूर्ति पूजा करते हैं और मूर्ति को ईश्वर मानते हैं। यह मान्यता नितान्त मिथ्या है कि संखया अधिक होने से कोई बात सत्य होती है। यदि ऐसा स्वीकार कर लिया जाए तो अनपढ़ और मूर्खों की संखया इस संसार में अधिक है और अधिक ही रहेगी, क्योंकि अनपढ़ उत्पन्न होते हैं, शिक्षित बनाये जाते हैं। जो वस्तु बनाई जाती है, वह स्वयं बनने वाली वस्तु से मात्रा व संखया में सदा न्यून होगी, अतः यह तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि एक गाँव में एक हजार लोग रहते हैं, नौ सौ निन्यानवे अनपढ़ हैं और एक शिक्षित है तो समाज में किसको अच्छा समझा जाएगा? सत्य और संखया में कोई तुलना नहीं की जा सकती।

शेष भाग अगले अंक में…..

‘वैदिक विद्वान पं. भगवदत्त रिसर्चस्कालर और उनकी ग्रन्थ सम्पदा’

ओ३म्

वैदिक विद्वान पं. भगवदत्त रिसर्चस्कालर और उनकी ग्रन्थ सम्पदा

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

पण्डित भगवद्दत्त रिसर्चस्कालर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से वर्तमान पीढ़ी के मित्रों को परिचत कराने का विचार आया जिसका परिणाम  आज का हमारा यह संक्षिप्त विवरण व लेख है। पं. भगवद्दत्त जी आर्यसमाज में वेद एवं वैदिक विषयों पर आधुनिक विज्ञान की सहायता से शोध के प्रवर्तक थे। आपका जन्म वर्तमान पंजाब के अमृतसर में पिता लाला चन्दनलाल एवं माता श्रीमती हरदेवी जी के यहां 27 अक्तूबर सन् 1893 को हुआ था। आपकी इण्टरमीडिएट तक की शिक्षा विज्ञान विषयों सहित हुई जिसके बाद आपने सन् 1913 में बी.ए. किया। बी.ए. करने के बाद वेदाध्ययन को आपने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। आपने एम.ए. नहीं किया इसके पीछे जो कारण था उसका उल्लेख प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने पं. भगवद्दत्त जी पर अपनी प्रशंसित पुस्तक में किया है। वह लिखते हैं कि पण्डित जी ने मुम्बई के श्री ओंकारनाथ जी को उनके पूछने पर बताया था कि वह बहुत सरलता से एम.. कर सकते हैं परन्तु एम.. की परीक्षा में अच्छे अंक पाने के लिए पाठ्यक्रम में निर्धारित पश्चिमी भाषा विज्ञान अन्यअन्य ग्रन्थों की मिथ्या बातें लिखनी पड़ती है। मैं उन पुस्तकों की झूठी बातें लिख बोल नहीं सकता। इस कारण उन्होंने एम.. नहीं किया जबकि आपने अनेक युवकों को एम.. पीएच.डी. कराया था। स्वामी लक्ष्मणानन्द जी आपके गुरु थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द से योगाभ्यास की विधि सीखी थी। पण्डित जी ने बी.ए. की परीक्षा डी.ए.वी. कालेज से पास की और इसके बात इसी कालेज को अपनी अवैतनिक सेवायें प्रदान कीं। सन् 1921 में महात्मा हंसराज ने आपको डी.ए.वी. कालेज लाहौर के अनुसंधान विभाग का अध्यक्ष बनाया। डी.ए.वी. कालेज के अपने कार्यकाल में आपने लगभग सात हजार हस्तलिखित प्राचीन ग्रन्थों वा उनकी पाण्डुलिपियों का वहां संग्रह किया। 1 जून, सन् 1934 को पण्डित जी ने डी.ए.वी. कालेज की सेवा से मुक्ति प्राप्त की और स्वतन्त्र रुप से वैदिक साहित्य के अध्ययन व अनुसंधान में लग गये। डी.ए.वी. कालेज की सेवा से मात्र 41 वर्ष की आयु में त्याग कर देने से अनुमान होता है कि वह डी.ए.वी. में कार्य से सन्तुष्ट नहीं थे। यह भी हो सकता है कि तत्कालीन अंग्रेज शासकों व उनके कुछ भक्तों के कारण उन्हें वहां कार्य करने में असुविधा रही हो। हर कार्य का कारण हुआ करता है। व्यक्तिगत स्तर पर कार्य करने पर अध्ययन व अनुसंधान के लिए साधन जुटाना कठिन होता है तथापि पण्डित जी ने इस कठिन मार्ग को चुना और आर्यसमाज व वैदिक साहित्य की प्रशंसनीय सेवा की।

 

सन् 1947 में देश का विभाजन होने पर आप दिल्ली आ गये और यहां पंजाबी बाग में अपना निवास बनवाकर रहने लगे। यहां रहते हुए आप वैदिक विषयों के ग्रन्थों के लेखन, अध्ययन व अनुसंधान के कार्य में संलग्न रहे। पण्डित जी महर्षि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा, अजमेर के सदस्य भी रहे। सभा में आपकी नियुक्ति 4 मार्च, 1923 को हुई थी। समय-समय पर आपने परोपकारिणी सभा को महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों के भव्य व शुद्ध प्रकाशन के विषय में मुद्रण, सम्पादन व प्रकाशन विषयक अपने उपयोगी सुझाव दिए। पण्डित भगवद्दत्त इस सभा की विद्वत समिति के सदस्य भी रहे। 22 नवम्बर, सन् 1968 को 75 वर्ष की आयु में दिल्ली में आपका निधन हुआ।

 

पण्डित जी ने तीन खण्डों में वैदिक वांग्मय का इतिहास का लेखन किया जो आपकी अपने विषय की अपूर्व शोध कृति है। ग्रन्थ के प्रथम खण्ड में वेद की शाखाओं का अनुसंधान पूर्ण इतिहास है। इसका प्रथम संस्करण अप्रैल, 1934 में लाहौर से प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रन्थों का विवेचन हुआ है। इस द्वितीय भाग के प्रथम संस्करण का प्रकाशन डी.ए.वी. कालेज लाहौर के शोध विभाग की ओर सन् 1927 में हुआ था। तीसरे भाग में प्राचीन वेदभाष्यकारों का विवरण प्रस्तुत किया गया है जिसका प्रकाशन सन् 1931 में हुआ था। इस ग्रन्थ के तीनों भागों का द्वितीय संस्करण पं. भगवद्दत्त जी के सुपुत्र पं. सत्यश्रवा ने पण्डित जी की मृत्यु के बाद सन् 1974, 1976 व 1978 में स्वसम्पादन में किया। पण्डित भगवद्दत्त जी के ऋग्वेद पर व्याख्यान ग्रन्थ सन् 1920 में, इसके बाद ऋग्मन्त्र व्याख्या, तत्पश्चात वेद विद्या निदर्शन (सन् 1959) तथा निरुक्त भाषाभाष्य (सन् 1964) का प्रकाशन हुआ। अथर्ववेदीया पंचपटलिका (सन् 1920), अथर्ववेदीया माण्डूकी शिक्षा (सन् 1978), बाल्मीकि रामायण के बाल, अयोध्या तथा अरण्य काण्डों का सम्पादन, चारायणीय शाखा मंत्रार्षाध्याय, आथर्वण ज्योतिष, धनुर्वेद का इतिहास, आचार्य बृहस्पति के राजनीति सूत्रों की भूमिका आपके द्वारा सम्पादित कुछ अन्य ग्रन्थ हैं। पं. भगवद्दत्त जी ने अंग्रेजी में दो लघु महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे जिनमें प्रथम है Extra Ordinary Scientific Knowledge in Vedic Works जो कि अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्य विद्यापरिषद् के दिल्ली अधिवेशन में पठित शोधपूर्ण निबन्ध है। दूसरा लघु ग्रन्थ Western Indologists : A study in Motives अर्थात् पश्चिमी भारत-तत्वविदों की पूर्वाग्रहपूर्ण धारणाओं का सप्रमाण खण्डन (सन् 1955) है।

 

पं. भगवद्दत्त जी के इतिहास व भाषाविज्ञान विषयक ग्रन्थों में प्रमुख ग्रन्थ हैं भारतीय राजनीति के मूल तत्व (सन् 1951), भारतवर्ष का इतिहास (1940), भारतवर्ष का वृहद इतिहास दो भागों में (सन् 1960), भाषा का इतिहास, भारतीय संस्कृति का इतिहास, ऋषि दयानन्द का स्वरचित (लिखित वा कथित) जन्म चरित, ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन के तीन भाग एवं सत्यार्थ प्रकाश का सुसम्पादित संस्करण सन् 1963। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के सभी ग्रन्थों का पं. भगवद्दत्त जी ने पं. सन्तराम बी.ए. के सहयोग से हिन्दी मं अनुवाद किया। इस गुरुदत्त ग्रन्थावली का हिन्दी अनुवाद का प्रथम संस्करण राजपाल एण्ड संस लाहौर से सन् 1921 में प्रकाशित हुआ था। आज भी इसी संस्रण का पुनर्मुद्रण किया जाता है। हमें इस हिन्दी अनुवाद को पढ़ने में कहीं कहीं कठिनाईयां हुईं थी। हमने इसके नये अनुवाद के लिए श्री प्रभाकरदेव आर्य व श्री भावेश मेरजा जी से प्रार्थना की थी। श्री घूडमल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी को अंग्रेजी ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद आदि कार्यों में सेवा देने वाले श्री आर्यमुनि वानप्रस्थी जी ने गुरुदत्त ग्रन्थावली का अंग्रेजी से सुगम हिन्दी में नया अनुवाद का कार्य सम्पन्न कर दिया है। अब यह प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। हम आशा करते हैं कि न्यास के अध्यक्ष श्री प्रभाकरदेव आर्य जी इसका शीघ्र नया भव्य संस्करण प्रकाशित करायेंगे जिससे पाठकों को पढ़ने व समझने में सुगमता होगी। पं. भगवद्दत्त जी का अन्तिम ग्रन्थ Storey of Creation उनके निधन के दो मास पूर्व प्रकाशित हुआ था।  हमनें इस लेख को तैयार करने में डा. भवानीलाल भारतीय जी के आर्य लेखक कोष से सामग्री ली है। इसके लिए हम इस ग्रन्थ लेखक का धन्यवाद सहित आभार व्यक्त करते हैं।

 

पण्डित जी के सभी ग्रन्थ उच्च कोटि के हैं जिनमें से अधिकांश अप्राप्य हैं। आर्यसमाज व आर्यजनता का यह दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि अनेक उपयोगी व महत्वपूर्ण ग्रन्थ वर्षों पूर्व अप्राप्त हो गये थे परन्तु इनका पुनर्मुद्रण न हो सका। पुनप्रर्काशन व पुनर्मुद्रर्ण में एक प्रमुख कारण आर्यसमाज के लोगों में पुस्तक खरीदने व पढ़ने की प्रवृत्ति में अत्यधिक ह्रास है। आर्यसमाज ऐसा आन्दोलन है जो तभी सफल हो सकता है जब इसके सभी सदस्य स्वाध्यायशील हों और ऋषि ग्रन्थों सहित अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों का भी स्वाध्याय करें और एक प्रचारक के रूप में कार्य करें। ऋषि मिशन से जुड़े सभी लोगों में स्वाध्याय के प्रति रूचि उत्पन्न करना आर्य नेताओं व विद्वानों के सामने एक बड़ी चुनौती है। हम अनुभव करते हैं कि आर्य नेताओं एवं विद्वानों को इस समस्या पर विचार मन्थन करना चाहिये जिससे आर्यसमाज की बगिया सदैव हरी भरी रहे। आर्यसमाज में अनुसंधान व शोध के प्रणेता एवं अद्भुद वैदिक विद्वान पं. भगवद्दत्त जी को हमारा सश्रद्ध स्मरण एवं श्रद्धांजलि।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘अविद्यायुक्त असत्य धार्मिक मान्यताओं का खण्डन और आर्यसमाज’

ओ३म्

अविद्यायुक्त असत्य धार्मिक मान्यताओं का खण्डन और आर्यसमाज

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द प्राचीन वैदिक कालीन ऋषियों की परम्परा वाले वेदों के मंत्रद्रष्टा ऋषि थे। वह सफल व सिद्ध योगी होने के साथ समस्त वैदिक व  इतर धर्माधर्म विषयक साहित्य के पारदर्शी विद्वान भी थे। उन्होंने मथुरा निवासी वैदिक व्याकरण के सूर्य प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से आर्ष व्याकरण की अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति का अध्ययन किया था। इससे पूर्व भी अपने लगभग 30 वर्षों के अध्ययन काल (1833-1863) में उन्होंने विभिन्न गुरुओं वा विद्वानों से लौकिक संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया था। गृहत्याग के बाद के लगभग 29 वर्षों में (1846-1875) आप देश के अनेक भागों के अनेक लोगों के सम्पर्क में आये। आपने देश में फैले हुए नाना मत मतान्तरों के अनुयायियों सहित उनके आचार्यों से सम्पर्क कर उनके मत के गुणागुणों व विशेषताओं सहित उनमें निहित सत्यासत्य को जानने का सत्प्रयास किया था। स्वामी दयानन्द ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो किसी भी अविद्यायुक्त वा मिथ्या बात को बिना पूरी परीक्षा व सन्तुष्टि के स्वीकार कर लेते। यही कारण था कि भारत के प्रायः सभी मत-मतान्तरों को जानने व समझने पर भी उनकी तृप्ति नहीं हुई थी। वह योग विद्या में प्रवृत्त हुए और उसमें दिन प्रतिदिन प्रगति करते रहे। उसका उन्होंने जीवन के अन्तिम क्षणों तक अभ्यास व पालन किया। नाना मत-मतान्तरों में से वह किसी एक मत के चक्रव्यूह में नही फंसे। ऐसा प्रतीत होता है कि वह जान गये थे कि भारत में प्रचलित किसी भी मत-मतान्तर में निर्भ्रांत व सत्य पर आधारित मान्यतायें नहीं हैं। उन्हें योग ही प्रिय प्रतीत हुआ जिसका उन्होंने मन-वचन-कर्म से क्रियात्मक अभ्यास किया। इतना होने पर भी वह अभी सत्य विद्या व सद्ज्ञान की उपलब्धि के लिए आशान्वित व प्रयत्नशील थे। सन् 1857 का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम हो जाने व उसके बाद देश में कुछ शान्ति व स्थिरता बहाल होने पर वह सन् 1860 में मथुरा में दण्डी स्वामी प्रज्ञाचक्षु दिव्य गुरु विरजानन्द की संस्कृत पाठशाला में विद्या के अध्ययन के लिए पहुंचते हैं और लगभग 3 वर्ष अध्ययन कर सफल मनोरथ व कृतकार्य होते हैं। अध्ययन पूरा होने पर गुरुजी से दीक्षा लेते हैं और गुरु की आज्ञा के अनुसार असत्य अविद्या से ग्रसित मतों के खण्डन सत्य वैदिक मत की स्थापना के लिए प्रवृत्त होते हैं।

 

महर्षि दयानन्द के जितने भी किंचित विस्तृत व संक्षिप्त उपदेश उपलब्ध होते हैं उनसे यही पता चलता है कि वह वेद एवं वैदिक सिद्धान्तों का मण्डन करते थे। वेद से इतर वेद विरुद्ध मिथ्या मतों का वह युक्ति, तर्क व वेद के प्रमाणों के आधार पर खण्डन भी करते थे। वह सब श्रोताओं किंवा मत-मतान्तरों के आचार्यों को चुनौती भी देते थे कि वह अपने-अपने मत की मिथ्या मान्यताओं का निराकरण करें वा सत्य मत वेद को अपनायें और यदि चाहें तो वह उनसे शास्त्रार्थ, वार्तालाप, चर्चा व शंका समाधान भी कर सकते हैं। हमें यह देख कर आश्चर्य होता है कि उन्हें सभी मत-मतान्तरों की उत्पत्ति, मान्यताओं एवं सिद्धान्तों का भी व्यापक ज्ञान था। ऐसा भी देखा गया है कि अनेक मतों के आचार्यों को अपने मत की मिथ्या मान्यताओं का परिचय नहीं होता था। वह तो अपने मत के प्रति अन्धी श्रद्धा व विश्वास के कारण उनको बाबा वाक्यं प्रमाणम् के आधार पर आंखे बन्द कर स्वीकार करते थे और उनका पालन करते थे जबकि उनके मत सत्यासत्य की दृष्टि से असत्य मान्यताओं से मिश्रित होते थे। महर्षि दयानन्द के सामने आकर वह सभी निरुत्तर होकर लौट जाते थे। महर्षि दयानन्द के प्रचार के कारण मतमतान्तरों के अनेकानेक विद्वानों वा आचार्यों को अपनेअपने मत के मिथ्यात्व का ज्ञान हो गया था। वह उन्हें चुनौती देने वा आमंत्रित करने पर भी शास्त्रार्थ व शंका समाधान तक के लिए उनके निकट नहीं आते थे और येन केन प्रकारेण अपने मतानुयायियों को स्वामी दयानन्द जी की सभाओं में जाने के लिए निषिद्ध करते थे। प्रायः सभी मतानुयायियों की स्थिति यह थी कि वह अपने-अपने मत के आचार्यों के अनुचित आदेश को मानते थे और स्वामी दयानन्द की सभाओं में नहीं आते थे। इससे अनुमान किया जा सकता है कि अपने-अपने मत-मतान्तरों को अच्छा बताने वाले आचार्यों की क्या स्थिति थी। आज भी उस स्थिति में कोई अधिक अन्तर नहीं आया है। अब वह अधिक रूढि़वादी और कट्टर हो गये हैं और अविद्यान्धकर से ग्रसित, हठ व दुराग्रह आदि से घिरे हुए हैं।  अतः आज वेद मत के मण्डन सहित मत-मतान्तरों के खण्डन की महती आवश्यकता बनी हुई है। ऐसा होने पर ही मनुष्य जाति उन्नत व अपने-अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में सफल हो सकती है अन्यथा अविद्या के अन्धकार में पड़कर उनका यह मानव जीवन व्यर्थ व नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा।

 

महर्षि दयानन्द ने विश्व जन समुदाय पर एक बहुत बड़ा उपकार यह किया है कि उन्होंने अपने समय में केवल मौखिक प्रचार ही नहीं किया अपितु अपनी वैदिक विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी किया। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश विश्व के धार्मिक व सामाजिक साहित्य में अन्यतम है। वेदों के बाद विश्व साहित्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसे 14 समुल्लासों वा अध्यायों में लिखा गया है जिसमें प्रथम 10 अध्याय वैदिक मत का मण्डन करते हुए ईश्वर, जीव व प्रकृति सहित सभी विषयों व सामाजिक मान्यताओं पर वैदिक दृष्टिकोण व विचारों को प्रस्तुत करते हैं। इस अपूर्व ग्रन्थरत्न में प्रायः सभी आवश्यक विषयों की चर्चा कर तद्विषयक वैदिक दृष्टिकोण को तर्क व युक्ति सहित एवं अनेक स्थानों पर प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत कर उसे सरल व सहज बना दिया गया है। इन सिद्धान्तों की सत्यता का विश्वास एक साधारण हिन्दी पाठी मनुष्य भी आसानी से कर सकता है जो कि इस ग्रन्थ की रचना से पूर्व कदापि सम्भव नहीं था। संसार में अनेक लोगों ने इस ग्रन्थ को पढ़ा है और इससे सहमत होकर अपना मत परिवर्तन कर आर्यसमाज के अनुयायी बने हैं। आज आर्यसमाज में जितने भी सदस्य परिवार हैं वह सब प्रायः सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन प्रचार का ही परिणाम है। संसार में किसी विद्वान, मताचार्य व मतानुयायी में यह योग्यता नहीं है कि वह सत्यार्थप्रकाश के प्रथम से दशम समुल्लासों में व्यक्त विचारों, मान्यताओं, सिद्धान्तों सहित उसमें दी गई तर्क व युक्तियों का खण्डन कर सकें। यदि कभी किसी ने ऐसा करने का प्रयत्न किया है तो उसका आर्य विद्वानों ने तर्क, युक्ति व प्रमाण सहित समाधान कर दिया है। यह कोई  सामान्य नहीं अपितु असाधारण बात है।

 

वैदिक सिद्धान्तों के आदर्श ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में वैदिक मान्यताओं का विस्तार से उल्लेख करने के बाद स्वामी दयानन्द उसके उत्तर भाग में आर्यवर्तीय व आर्यावर्त्त से बाहर के देशों में उत्पन्न मतों की समीक्षा करते हैं जिसमें सत्यासत्य की परीक्षा करते हुए असत्य विचारों व मान्तयओं का खण्डन भी किया गया है। सत्यार्थप्रकाश का ग्यारहवां समुल्लास आर्यवर्तीय आस्तिक मतों की समीक्षा व खण्डन में लिखा गया है जिसका आरम्भ अनुभूमिका से होता है। यह भूमिका बहुत महत्वपूर्ण एवं विस्तृत है। इस अनुभूमिका में महर्षि दयानन्द ने मत-मतान्तरों के खण्डन में अपनी निष्पक्ष व सभी मतों के मनुष्यों के प्रति अपनी सदभावना को प्रदर्शित किया है। उनके अनमोल व स्वर्णिम वाक्य हैं कि यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेदमत से भिन्न दूसरा कोई भी मत भूगोल में था क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हुआ। इन (वेदों) की अप्रवृत्ति से अविद्याऽन्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिस के मन में जैसा आया वैसा मत चलाया। इन सब मतों में 4 चार मत अर्थात् जो वेद-विरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी और कुरानी (अन्य) सब मतों (मतों की शाखा-प्रशाखा रूप इकाईयों) के मूल हैं, वे क्रम से एक के पीछे दूसरा, तीसरा, चौथा चला है। अब इन चारों की शाखा एक सहस्र से कम नहीं हैं। इन सब मतवादियों, इनके चेलों और अन्य सब को परस्पर सत्याऽसत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम हो इसलिए यह ग्रन्थ (सत्यार्थप्रकाश) बनाया है। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं कि जोजो इस में सत्य मत का मण्डन और असत्य मत का खण्डन लिखा है वह सब को जनाना ही प्रयोजन समझा गया है। इसमें जैसी मेरी बुद्धि, जितनी विद्या और जितना इन चारों मतों के मूल ग्रन्थ देखने से बोध हुआ है उसको सब के आगे निवेदित कर देना मैंने उत्तम समझा है क्योंकि विज्ञान (धर्म व समाज विषयक सत्य ज्ञान) गुप्त (विलुप्त) हुए का पुनर्मिलना सहज नहीं है। पक्षपात छोड़कर इस (सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ) को देखने से सत्याऽसत्य मत सब को विदित हो जायेगा। पश्चात् सब को अपनीअपनी समझ के अनुसार सत्यमत का ग्रहण करना और असत्य मत को छोड़ना सहज होगा। इन में से जो पुराणिादि ग्रन्थों से शाखा शाखान्तर रूप मत आर्यावर्त्त देश में चले हैं उन का संक्षेप से गुण व दोष इस (सत्यार्थप्रकाश के) ग्यारहवें समुल्लास में दिखलाया जाता है। स्वामी दयानन्द सभी मतों के लोगों से अपेक्षा करते हुए कहते हैं कि इस मेरे कर्म से यदि उपकार मानें तो विरोध भी करें। क्योंकि मेरा तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करनेकराने का है। इसी प्रकार सब मुनष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने के लिये है कि वादविवाद विरोध करने कराने के लिये। इसी मतमतान्तर के विचार से जगत् में जोजो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और आगे होंगे, उन को पक्षपातरहित विद्वज्जन जान सकते हैं।

 

मत-मतान्तरों के खण्डन-मण्डन के सदर्भ में स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मत-मतान्तर का विरूद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहे, तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सब को विरोध जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन (हित वा स्वार्थ) में न फंस कर सब के प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इस के होने की युक्ति (स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के अन्तर्गत) इस (ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश) की पूर्ति पर लिखेंगे। सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत (वैदिक मत) में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों की आत्माओं में प्रकाशित करे। स्वामी जी ने उपर्युक्त पंक्तियों में मत-मतान्तरों की परस्पर विरोधी मान्यताओं के खण्डन के अपने आशय को स्पष्ट कर उसकी आवश्यकता व अपरिहार्यता पर प्रकाश डाला है। उनका ऐसा करना उचित, न्यायसंगत व प्रशंसनीय था तथा सभी विद्वान व ज्ञानी कहलाने वाले मतों के आचार्य व अनुयायियों को उसी भावना से उनके खण्डन को समझ कर स्वीकार करना चाहिये अन्यथा उनके ज्ञान व विद्वता का कोई महत्व व उपयोग प्रतीत नहीं होता।

 

सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में स्वामी दयानन्द ने आर्यावर्त की महत्ता का वर्णन कर शंकराचार्य के अद्वैतमत, वाममार्ग, शैवमत, वैष्णवमत, सभी प्रकार की अवैदिक मूर्तिपूजा, तन्त्र ग्रन्थ, गया श्राद्ध, हरिद्वार आदि तीर्थों, अवैदिक गुरु माहात्म्य, अठारह पुराण, ग्रहों का फल, गरुड़ पुराण की मिथ्या बातें, ब्राह्मसमाज और प्रार्थनासमाज आदि मतों की समीक्षा व खण्डन कर उनकी मिथ्या बातों का युक्ति व तर्क के साथ खण्डन किया है। इसी प्रकार बारहवें से चौदहवें समुल्लासों में जैन-बौद्ध मत, ईसाई व कुरानी मत की समीक्षा कर इनके मिथ्यात्व पर प्रकाश डाला है जिससे कि इन वा अन्य मतों के सभी अनुयायी व निष्पक्ष जिज्ञासु सरलता से सत्याऽसत्य का निर्णय कर सकें।

 

महर्षि दयानन्द के उपर्युक्त वाक्यों से यह विदित होता है कि उनका मत-मतान्तरों की समीक्षा व खण्डन का हेतु सभी मतों के लोगों को मत-पन्थों के धर्म ग्रन्थों में निहित मिथ्या मान्यताओं का ज्ञान कराना था। ऋषि ने ऐसा क्यों किया? यदि करते तो क्या हानि थी? अन्य मतों के आचार्यों विद्वानों ने तो ऐसा नहीं किया तो फिर महर्षि दयानन्द को इनके खण्डन करने की क्या मजबूरी थी? इनका उत्तर है कि ऋषि ने मत-मतान्तर की असत्य मान्यताओं का खण्डन इस लिये किया कि वह विद्वान थे और विद्वान वही होता है जो सत्य को ग्रहण करे व कराये और असत्य को छोड़े वा छुड़वाये। वह व्यक्ति विद्वान नहीं कहला सकता जो जानते हुए भी असत्य का खण्डन नहीं करता। एक डाक्टर यदि रोगी का उपचार न करे तो क्या वह डाक्टर कहला सकता है? कदापि नहीं। यदि वह रोगी का उपचार करता है तभी वह डाक्टर है। दर्जी यदि लोगों के कपड़े को उसके दाता की नाप के अनुसार काट-छांट कर नहीं सिलता तो वह दर्जी किसी काम का नहीं होता। यदि नाप में न्यूनता व अधिकता करता है तो भी वह अच्छा दर्जी नहीं हो सकता। महर्षि दयानन्द ने भी मतों की असत्य बातें जिनसे मतानुयायियों को हानि होती है, उनसे परिचित कराकर उनके उस असत्यता के रोग को दूर कर उचित मात्रा में उन्हें सत्य का यथार्थ ज्ञान कराया जिससे वह तदनुसार आचरण कर अपना जीवन सफल बना सके जो कि परम्परा के अनुसार चलने से नहीं बन सकता था। किसान भी फसल की अच्छी पैदावार के लिए खेत में हल चलाकर भूमि को पोला व नरम करता है। उसमें पानी व खाद डालता है जिससे बीज अच्छी प्रकार से पल्लवित और पुष्पित हो सके। खेत में हल चलाना, खाद व पानी डालना, निराई व गुड़ाई करना व अन्त में बोई गई फसल को काटना व उनसे अन्न के दाने निकालना, यह एक प्रकार का खण्डन व मण्डन दोनों ही है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हमें अन्न प्राप्त नहीं होगा। यही सृष्टि का नियम है। यही नियम माता-पिता द्वारा सन्तान को शिक्षित करने के लिए ताड़ना करने व डाक्टर द्वारा गम्भीर रोगों की चिकित्सा करने में शल्य क्रिया करने, यदा-कदा हाथ व पैर तक काट डालने आदि की तरह, असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन अर्थात् जो ठीक है, उसे नहीं छेड़ना यथावत् रहने देना रूपी मण्डन है। सभी क्षेत्रों में सभी लोग आवश्यकतानुसार खण्डन व मण्डन करते हैं। यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो सभी मतों के आचार्यों ने अपने पूर्व मतों व उनके आचार्यों की मान्यताओं का खण्डन कर ही स्वमत को स्थापित किया। यदि वह सब ऐसा कर सकते थे तो मनुष्य मात्र के हित व उन्नति की दृष्टि से महर्षि दयानन्द द्वारा किया गया खण्डन उचित क्यों नहीं? उनका खण्डन करना सर्वथा उचित है।

 

महर्षि दयानन्द का उद्देश्य संसार के मनुष्यों को मत-मतान्तरों के जाल से निकाल कर उन्हें उनसे स्वतन्त्र कराना व सच्चिदानन्द, सर्वव्यापक, निराकार, घट-घट में व्यापक वा सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान ईश्वर की सच्ची स्तुति, प्रार्थना व उपासना में लगाना था। इससे मनुष्यों को इस जन्म व परजन्म, दोनों में ही, सभी प्रकार की उन्नति अभ्युदय व निःश्रेयस का लाभ मिलना निश्चित था। यदि धर्मान्तरण कर अपनी संख्या में वृद्धि करने वाले सत्यासत्य से मिश्रित मान्यताओं के मतों को अपना-अपना प्रचार व खण्डन मण्डन का अधिकार है तो फिर महर्षि दयानन्द को सत्य का मण्डन व असत्य के खण्डन का अधिकार क्यों नहीं? स्वामी दयानन्द जी ने ईश्वर प्रदत्त अधिकार का उपयोग किया, लोगों को असत्य से दूर किया सत्य को प्राप्त कराया, इस कारण सारी मनुष्य जाति उनकी ऋणी हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। महर्षि दयानन्द ने खण्डन का कार्य अपने गुरु स्वामी विरजानन्द और ईश्वर की प्रेरणा से ही किया था। हमें उनके मार्ग पर चलकर संसार को सत्य व असत्य के स्वरुप से परिचित कराना है। कोई सत्य वैदिक मत को स्वीकार करे या न करें, यह उसका निजी अधिकार है, परन्तु आर्यसमाज व इसके अनुयायियों को सत्य के प्रचार का अपना कर्तव्य निभाना है। सत्यमेव जयते नानृतं की भांति सत्य देर में ही सही, विजयी अवश्य होता है। आगे भी होगा। ईश्वर संसार के मनुष्य के हृदय में सत्य व असत्य को जानने, सत्य को ग्रहण करने एवं असत्य का त्याग करने की प्रेरणा करें, यही उससे प्रार्थना है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘पण्डित चमूपति द्वारा ऋषि दयानन्द का गौरव गान’

ओ३म्

 ‘पण्डित चमूपति द्वारा ऋषि दयानन्द का गौरव गान

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ऋषि दयानन्द का व्यक्तित्व और कृतित्व सात्विक बुद्धि के लोगों के आकर्षण व प्रेरणा का स्रोत वा केन्द्र रहा है। अनेक लोग आर्यसमाज की विचारधारा का परिचय पाकर और सत्यार्थप्रकाश पढ़कर या फिर आर्यसमाज के समाज सुधार के कार्यों से प्रभावित होकर आर्यसमाजी वा वैदिक धर्मी बने और फिर उन्होंने देश, धर्म व समाज की प्रशंसनीय सेवा की। ऐसे ही आर्यसमाज के एक सुप्रसिद्ध विद्वान एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी पण्डित चमूपति जी थे। आप संस्कृत, हिन्दी, इग्लिश, उर्दू व फारसी आदि अनेक भाषाओं के विद्वान व प्रभावशाली वक्ता थे। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षक एवं प्रभावशाली था। आपकी हिन्दी, संस्कृत व उर्दू आदि में अनेक रचनायें हैं जिनमें से एक सुप्रसिद्ध रचना ‘‘सोम सरोवर भी है। सोम सरोवर में आपने सामवेद के पवमान सूक्त के मन्त्रों की अत्यन्त मनोहर व्याख्या की है। आर्यसमाज के विद्वान व नेता महाशय कृष्ण ने इस पुस्तक की समीक्षा कर प्रशंसा करते हुए लिखा था कि यदि निष्पक्षता से साहित्य का नोबेल पुरुस्कार दिया जाता तो पण्डित चमूपति जी की यह रचना नोबेल पुरुस्कार प्राप्त करने योग्य थी। ऐसे विद्वान द्वारा महर्षि की महिमा का गान करने वाले कुछ शब्द पाठकों को भेंट कर रहे हैं।

 

पण्डित चमूपति जी ऋषि दर्शन नामक अपनी लघु पुस्तिका में अमर दयानन्द शीर्षक के अन्तर्गत लिखते हैं कि आज केवल भारत ही नहीं, सारे धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक संसार पर दयानन्द का सिक्का है। मतों के प्रचारकों ने अपने मन्तव्य बदल दिए हैं, धर्म पुस्तकों के अर्थों का संशोधन किया है, महापुरुषों की जीवनियों में परिवर्तन किया है। स्वामी जी का जीवन उन जीवनियों में बोलता है। ऋषि मरा नहीं करते, अपने भावों के रूप में जीते हैं। दलितोद्धार का प्राण कौन है? आदर्श सुधारक दयानन्द। शिक्षा प्रचार की प्रेरणा कहां से आती है? गुरुवर दयानन्द के आचरण से। वेद का जय जयकार कौन पुकारता है? ब्रह्मर्षि दयानन्द। देवी (स्त्री) सत्कार का मार्ग कौन दिखाता है? देवीपूजक दयानन्द। गोरक्षा के विषय में प्राणिमात्र पर करूणा दिखाने का बीड़ा कौन उठाता है? करूणानिधि दयानन्द। (संस्कृत आर्यभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार की प्रेरणा कौन करता है? वेदर्षि दयाननन्द।) आओ! हम अपने आपको ऋषि के रंग में रंगे। हमारा विचार ऋषि का विचार हो, हमारा आचार ऋषि का आचार हो, हमारा प्रचार ऋषि का प्रचार हो। हमारी प्रत्येक चेष्टा ऋषि की चेष्टा हो। नाड़ी नाड़ी से ध्वनि उठेमहर्षि दयानन्द की जय।

 

पापों और पाखण्डों से ऋषिराज छुड़ाया था तुने।

भयभीत निराश्रित जाति को निर्भीक बनाया था तूने।।

बलिदान तेरा था अद्वितीय हो गई दिशाएं गुंजित थी।

जन जन को देगा प्रकाश वह दीप जलाया था तूने।।

 

हम आशा करते हैं कि पाठकों को यह लघु प्रयास पसन्द आयेगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘महर्षि दयानन्द और उनका विश्व के कल्याण का अपूर्व कार्य’

ओ३म्

महर्षि दयानन्द और उनका विश्व के कल्याण का अपूर्व कार्य

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने विश्व के सभी मनुष्यों व प्राणिमात्र के हित के लिए जो कार्य किया वह अपूर्व एवं सर्वोत्तम है। देश व विश्व की जनता का यह दुर्भाग्य है कि वह उनके कार्यों के यर्थाथ स्वरूप व उन कार्यों की संसार के सभी मनुष्यों के सन्दर्भ में महत्ता व उपयोगिता से परिचित नहीं है। इसका कारण भी मत-मतान्तर व उनके आचार्य व प्रचारक हैं जो अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण सत्य को सामने आने देना नहीं चाहते। महर्षि दयानन्द के जीवन पर यदि दृष्टि डालें तो उनके जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह मिलती है कि उन्होंने सत्य ज्ञान की खोज को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर उसे प्राप्त किया था। ऐसा कोई अन्य मनुष्य जिसके जीवन का उद्देश्य महर्षि दयानन्द के समान हो और उसे अपने उस कार्य में सफलता मिली हो, विश्व के क्षितिज पर दृष्टिगोचर वा उपलब्ध नहीं होता। विज्ञान के सामने जो भी बातें आती हैं, वह उनकी परीक्षा कर उसमें सत्य को स्वीकार करता है और असत्य को अस्वीकार व उनका तिरस्कार कर देता है। परन्तु धार्मिक सिद्धान्तों व मान्यताओं में विज्ञान के इस सिद्धान्त, सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग, को हम कहीं लागू होते हुए नहीं देखते। सभी मत अपने अपने सत्यासत्य मिश्रित सिद्धान्तों को मानते चले आ रहे हैं और शायद प्रलय पर्यन्त मानते ही रहेंगे? इसका एक कारण मत-मतान्तरों के लोगों का अपना अपना अज्ञान व स्वार्थ आदि हैं। वहीं भिन्न-भिन्न देशों की राजनैतिक व्यवस्थाओं द्वारा मत-मतान्तरों के पोषण सम्बन्धी व्यवस्थायें भी हैं। पाठक सुविज्ञ हैं, वह इन बातों को भली प्रकार से जानते हैं, अतः इस पर अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं है।

 

महर्षि दयानन्द ने 14हवें वर्ष की आयु में शिवरात्रि के दिन की जाने वाली मूर्तिपूजा को देखकर उसकी निस्सारता वा व्यर्थता को समझ लिया था। 13 वर्ष के बालक के मूर्तिपूजा पर समाधानकारक उत्तर न शिवभक्त उनके पिता के पास थे न किसी अन्य पौराणिक विद्वान व आचार्य के ही पास। इसने बालक दयानन्द के सम्मुख धर्म वा मत में निहित असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों का संकेत दे दिया था। इसी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने 21 वर्ष की आयु तक शास्त्राध्ययन कर विवाह से बचने के लिए और सत्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिए माता-पिता के भौतिक सुख-सुविधाओं से पूर्ण गृह का त्याग कर दिया था। गृहत्याग के बाद सन् 1863 तक के 17 वर्षों तक सत्य धर्म सत्य ज्ञान की खोज करते रहे थे। इसी बीच उन्होंने योग विद्या सीखी जिससे वह ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ हुए। उन्हें इस बात का ज्ञान हुआ कि ईश्वर का ज्ञान, ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना, ईश्वर का ध्यान, धारणा और समाधि तथा ईश्वर का साक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है। यह लक्ष्य भी विज्ञान की तरह अनेक क्रियाओं व सदाचारण करने से प्राप्त होता है। इनसे इतर विवेक की प्राप्ति के लिए सब सत्य विद्याओं का अध्ययन करके उनकी प्राप्ति करना भी आवश्यक है। उनकी दृष्टि में बिना सत्य विद्याओं की प्राप्ति के केवल योगाभ्यास व ईश्वर का ध्यान वा साक्षात्कार करना अधूरा जीवन था। वह दोनों ही उद्देश्यों की पूर्ति में कृतकार्य वा सफल हुए थे। सब सत्य विद्याओं का संसार मे एकमात्र ग्रन्थ चार वेद संहितायें हैं जिन्हें संसार ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद के नाम से जानता है। यह चार मन्त्र संहितायें सृष्टि की आदि मे चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा के पवित्र हृदयों में ईश्वर द्वारा स्थापित समस्त सम्भव सत्य ज्ञान है। महाभारत काल तक हमारे देश में सहस्रों ऋषि व विद्वान होते थे व परस्पर व्यवहार की भाषा संस्कृत होती थी जिस कारण वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थ लोगों को विदित होते थे। महाभारत काल के बाद विद्वानों व ऋषियों की निरन्तर कमी होती गई जिससे वेदों के अर्थ के अनर्थ होने लगे। वेदों के अर्थ के अनर्थ होने से अज्ञान भ्रान्तियां उत्पन्न हुईं, इससे अज्ञानपूर्वक कार्य होने लगे और इसी के परिणाम से हिंसात्मक यज्ञ मिथ्याचार की बातें उत्पन्न हुईं जो समयसमय पर अनेक मतमतान्तरों की उत्पत्ति का कारण बनीं।

 

यह सर्वविदित है कि जहां अन्धकार होता है वहां अन्धकार दूर करने के लिए दीपक जलाना ही पड़ता है। दीपक कई प्रकार के हो सकते हैं। कोई कम प्रकाश देता है और कोई अधिक। इसी प्रकार के सभी मत-मतान्तर हैं जो दीपक के समान हैं जिन्होंने अपने अपने समय व बाद में भी अज्ञान के अन्धकार को कुछ-कुछ दूर करने का प्रयास किया है। अज्ञान को पूर्णतया नष्ट करने के लिए जिस पूर्ण प्रकाश, ज्ञान वा विद्या की आवश्यकता थी, वह मत-मतान्तरों के संस्थापकों व आचार्यों के पास नहीं थी और संसार के किसी भी मनुष्य के पास, वेदों वा ऋषि परम्परा के समाप्त होने के कारण, हो भी नहीं सकती। यह क्षमता वा योग्यता तो केवल सृष्टि की रचना करने वाले परम पिता परमेश्वर व उसके वेद ज्ञान में ही हुआ करती है। महर्षि दयानन्द को खोज करते हुए समस्त ज्ञान वा विद्याओं के स्रोत इन वेदों के सत्य अर्थों की कुंजी, अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति, गुरु विरजानन्द सरस्वती से प्राप्त हुई थी। वेदों के रहस्यों को जानने की इस कुंजी से दयानन्द जी ने सन् 1863 से 1883 के अपने वेद भाष्य व इतर वेद प्रचार कार्यों को पूरा करने का भरसक प्रयत्न किया। उन्होंने चार वेदों का संस्कृत आर्यभाषा हिन्दी में भाष्य करते हुए लिखा भी है कि यदि ईश्वर की कृपा बनी रही और उनका वेद भाष्य का कार्य पूर्ण हो गया तो उस दिन देश देशान्तर में सर्वत्र ज्ञान के क्षेत्र में सूर्य का सा प्रकाश हो जायेगा कि जिसको मेटने, दृष्टि से ओझल करने उसे स्वीकार करने की स्थिति किसी मनुष्य वा मतमतान्तर की नहीं होगी। इसे मनुष्य जाति का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि अज्ञानी व स्वार्थप्रिय लोगों को मनुष्य की भलाई का यह कार्य पसन्द नहीं आया और उन्होंने स्वामी दयानन्द को विष देकर उनके शरीर को 30 अक्तूबर, सन् 1883 को समाप्त कर दिया जिससे वेदों का सूर्य अस्त हो गया और हम उनके पूर्ण प्रकाश सं वंचित हो गये। वेदों के भाष्य का कार्य अपूर्ण रहने के अनेक कारण थे। महर्षि दयानन्द को अपने जीवन में योग्य लिपिकर और विद्वान नहीं मिले जो उनके बोले गये वचनों को ठीक-ठीक लिखते और उनके संस्कृत में लिखाये गये वचनों का  सरल व सुबोध हिन्दी में अनुवाद करते। इसके अतिरिक्त दयानन्द जी को वेदों का भाष्य करने के साथ-साथ एक स्थान से दूसरे स्थानों पर मौखिक प्रचार, शास्त्रार्थ, शंका समाधान व आर्यसमाजों को स्थापित करने के लिए भी जाना पड़ता था जिसमें समय लगता था तथा जिसका प्रतिकूल प्रभाव वेद भाष्य के कार्य पर भी पड़ता था। महर्षि दयानन्द जी की मृत्यु से मनुष्य जाति का बहुत बड़ा अपकार हुआ अन्यथा हमें वेद भाष्य सहित अनेक नये ग्रन्थों सहित उनके अनेक विषयों के उपदेश सुनने व पढ़ने को मिल सकते थे जिससे तत्कालीन व बाद की मनुष्य जाति वंचित हो गयी। शोक वा महाशोक।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में जितना कार्य किया वह वेद के सत्य अर्थों सहित धर्म का यथार्थ व सत्य स्वरूप प्रस्तुत करने के साथ मत-मतान्तरों की अविद्याजनित बातों का प्रकाश करने में समर्थ है। यह सर्वविदित तथ्य है कि जितने मत-मतान्तर होंगे वह मनुष्यों को आपस में बाटेंगे व लड़ायेंगे, इतिहास व वर्तमानकाल इस बात का प्रमाण है, जिससे हिंसा आदि होती रहेगी और स्थाई शान्ति की आशा नहीं की जा सकती। इससे भी बड़ी बात यह है कि मतमतान्तर का व्यक्ति योग विद्या वैदिक ज्ञान से दूर होने के कारण अपनी पूर्ण बौद्धिक आत्मिक उन्नति नहीं कर सकता। बौद्धिक उन्नति न होने से इसका कुप्रभाव मनुष्यों की शारीरिक उन्नति पर भी सीधा पड़ता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है कि आजकल के वैज्ञानिक भी मनुष्य का संतुलित व स्वास्थ्यवर्धक भोजन क्या हो, निश्चित नहीं कर पाये। आज भी संसार के लोग भिन्न-भिन्न पशु, पक्षी, जलचर, थलचर व नभचर आदि प्राणियों की निर्दयतापूर्वक हत्या कर अर्थात् हिंसा कर, उसे पकाकर खा जाते हैं। यह व्यवहार मनुष्य के प्राकृतिक स्वभाव व पवित्र व्यवहार के विपरीत और मनुष्य की शारीरिक, सामाजिक, आत्मिक सहित इस जन्म व परजन्म की उन्नति में बाधक है। इन कार्यों से मनुष्य योगाभ्यास, ईश्वर के ध्यान व उसकी प्राप्ति के कार्यों से दूर होकर अपने वर्तमान व भावी जन्म को बिगाड़ कर युगों-युगों तक के लिए अवनति वा दुःख की स्थिति को उत्पन्न करता है। आज संसार के लोग आधुनिक जीवन शैली के कारण नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर अल्पायु में ही मर जाते हैं। कुछ आतंकवाद का शिकार होकर तो कुछ दुर्घटनाओं में और अनेक स्वादिष्ट भोजन के सेवन व अनियमित दिनचर्या से अल्पायु मे ही चल बसते हैं। उनका परजन्म भी इस जन्म के शुभ वा अशुभ कर्मों का परिणाम होता है। अनुमान किया जा सकता है कि ऐसे लोग भोग योनि, निन्दित पशु, पक्षी, स्थावर आदि में ही जायेंगे। अशुभ कर्मों को करके वह स्वतन्त्र वा मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकते। पर जन्म में उन्नति तो तभी सम्भव थी जब कि वह अपने पिछले जन्मों के कर्मों का इस जन्म में भोग करने के साथ नये सत्कर्मों, ईश्वरोपासना, परोपकार, पीडि़तों की सेवा व सहायता आदि रूपी शुभ कर्मो की इतनी पूंजी एकत्रित करते कि ईश्वर से उन्हें सर्वोत्तम सुख मोक्ष की प्राप्ति होती। इस जन्म वा परजन्म में उन्नति की स्थिति तभी सम्भव है कि जब लोग महर्षि दयानन्द वा सत्य सनातन ईश्वर प्रदत्त वैदिक धर्म वा वेद के मार्ग पर पूर्णतः चलें जैसे कि महर्षि दयानन्द व उनके शिष्य पं. गुरुदत्त विद्वार्थी, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम जी व स्वामी दर्शनानन्द जी आदि चले थे।

 

वैदिक धर्म ईश्वर प्रदत्त होने से पूर्ण सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आधारित धर्म है। महर्षि दयानन्द वैदिक धर्म की तर्क व युक्ति पूर्वक विवेचना अपने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में की हुई है। अपनी विशेषताओं के कारण वेद ही विश्व के सभी मनुष्यों का श्रेष्ठतम् धर्म है। विश्व में वैदिक धर्म की स्थापना से सभी अपना जीवन सुख व शान्ति पूर्वक भोग सकते हैं और परजन्म में भी उन्नति वा मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। मनुष्य की आत्मा और जीवन की उन्नति करने का एक ही मार्ग है और वह है सुसंस्कार जो वेदाचरण वा सत्याचरण से मिलते हैं। वेदाचरण एवं सत्याचरण दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हम विश्व के सभी मतों के आचार्यों व लोगों से संस्कृत पढ़कर वेदों की परीक्षा करने, सभी मत-मतान्तरों का अध्ययन कर सत्य व श्रेष्ठ को स्वीकार करने का अनुरोध करते हैं। इसी में संसार के सभी लोगों का हित छिपा हुआ है। इसी के लिए महर्षि दयानन्द ने अपना पूरा जीवन समर्पित किया था और अकाल मृत्यु का वरण किया था। वर्तमान व परजन्म की उन्नति का वेद मार्ग के आचरण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है। इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं’

ओ३म्

अंतर्राष्ट्रीय मातृत्व दिवस  के उपलक्ष्य में

मां और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

8 मई, 2016 को मातृत्व दिवस है। माता की महत्ता को रेखांकित करने के लिए यह पर्व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। आज के संसार में मनुष्य का जीवन ऐसा व्यस्त हो गया है कि लगता है कि हम स्वयं को ही भूल गये हैं, अपने निकट संबंधों के प्रति अपने कर्तव्य का बोध होना तो बाद की बात है। अतः वर्तमान युग में हमें जो काम प्रतिदिन करने का है, उसे भी वर्ष में केवल एक दिन याद कर ही सम्पन्न करने की परम्परा चल पड़ी है। वैदिक धर्म व संस्कृति में मनुष्यों के पांच अनिवार्य दैनिक कर्तव्य हैं जो प्रतिदिन बिना किसी व्यवधान व नागा किये करने होते हैं। यह कर्म हैं ब्रह्म यज्ञ वा सन्ध्या, दूसरा अग्निहोत्र वा देवयज्ञ, तीसरा पितृ यज्ञ, चौथा अतिथि यज्ञ और पांचवा बलिवैश्वदेव यज्ञ। पितृ यज्ञ में माता-पिता व घर के वृद्ध सभी का मान-सम्मान, सेवा-शुश्रुषा, आज्ञा पालन, उनको भोजन, वस्त्र व औषध आदि से सन्तुष्ट रखना आदि कर्तव्य सम्मिलित हैं। यह कर्तव्य वर्ष में एक बार नही अपितु प्रतिदिन और हर समय करने के होते हैं। धन्य हैं हमारे ऋषि-मुनि जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ में ही मातृ वा पितृ यज्ञ को प्रतिदिन करने का विधान किया था। यदि इस मातृ-पितृ यज्ञ को भारत सहित विश्व में उसकी भावना के अनुसार किया जाता तो आज मदर्स डे घोषित करने की आवश्यकता नहीं थी।

 

मनुष्य को मनुष्य इस लिए कहा जाता है कि वह एक मननशील प्राणी है। परमात्मा ने मनन व चिन्तन करने का गुण अन्य किसी प्राणी को नहीं दिया। मनन का अर्थ है कि उचित व अनुचित, कर्तव्य व अकर्तव्य, सत्य व असत्य आदि का चिन्तन कर अपने कर्तव्य का निर्धारण करना। जब माता का विषय आता है तो हमें कर्तव्य का निर्धारण करते समय यह ध्यान करना पड़ता है कि हमारा अस्तित्व ही माता के जन्म देने के कारण है। यदि हमारी मां न होती तो हम संसार में आ ही नहीं सकते है। इतना ही नहीं प्रत्येक माता दस माह तक अपनी सन्तान को अपनी कोख वा गर्भ में धारण कर अनेकविध उसका पालन व रक्षा करती है। इस कार्य में उसे अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं जो केवल एक मां ही जान सकती है। प्रसव पीड़ा तो प्रसिद्ध ही है। इससे बड़ी पीड़ा शायद ही अन्य कोई हो जिससे होकर हर स्त्री को गुजरना पड़ता हो? सन्तान का जन्म हो जाने पर भी कई वर्षों तक सन्तान अपना कोई काम नहीं कर सकती। उसे समय पर दुग्धपान, आहार, वस्त्र धारण, मालिश व स्नान, मल-मूत्र साफ करना आदि सभी कार्य मां को ही करने होते हैं। यदि यह सब कार्य किसी नौकरानी से कराये जाते तो 24 घंटे के लिए 3 नौकरानियां रखनी पड़ती। काल्पनिक रूप में मान लेते हैं कि 8 साल तक बच्चे के सभी कार्यों को करने के लिए एक नौकरानी रखते और उसे सरकारी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी का वेतन देते तो यह धनराशि 20,000x3x12x8 = 57,60,000 रूपये हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त निवास गृह, दुग्धपान, आहार, वस्त्र व औषधि को भी जोड़ा जाय तो यह राशि आरम्भ के 8 वर्ष के लिये ही लगभग 1 करोड़ रूपये हो जाती है। यह तो 8 साल की बात की। माता तो अपने जीवन की अन्तिम सांस तक हमारा रक्षण व पोषण करती है। माता के इस उपकार का बदला सन्तानें आजकल किस प्रकार से दे रही हैं, यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। इसी कारण मदर्स डे का आरम्भ किया गया है जिससे सन्तानें अपनी-अपनी माताओं के प्रति अपने कर्तव्य का विचार कर उनका यथोचित पालन करें।

 

यदि माता के दिल की बात की जाये तो माता के दिल में अपनी सन्तान के लिए जो प्रेम, स्नेह व दर्द होता है वह संसार के किसी अन्य मनुष्यादि प्राणी में कदापि नही हो सकता। यह अनुभव सभी का है। यदि इसका अनुभव करना हो तो किसी चिकित्सालय में शिशुओं के कक्ष में जा कर देखा जा सकता है कि जहां मातायें अपने रूग्ण शिशुओं के लिए किस प्रकार से चिन्तित व दुख से पीडि़त रहती हैं। माता की इस भावना का जो ऋण सन्तान पर हो सकता है उसे संसार की कोई भी सन्तान कुछ भी कर ले, कदापि चुका नहीं सकती। इतना होने पर भी समाज में देखा जाता है कि अंग्रेजी व अंग्रेजी पद्धति के स्कूलों व कालेजों में पढ़े लिखें शिक्षित व सभ्य कहे जाने वाले लोग, धन सम्पत्ति वाले स्त्री व पुरुष दम्पत्ति अपने माता-पिता व अभिभावकों के प्रति तिरस्कार व अपमान का व्यवहार करते हैं। माता-पिता की उपेक्षा व तिरस्कार की प्रवृत्ति अमानवीय कार्य तो है ही, साथ ही यह  कृतघ्नता रूपी महापाप है। यह जान लेना चाहिये कि संसार में कृतघ्नता से बड़ा कोई पाप नही है। ऐसा ही पाप मनुष्य इस संसार व अपने उत्पत्तिकर्ता ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयत्न न कर और उसकी स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि न करके करते हैं। महर्षि दयानन्द ने गोरक्षा के सन्दर्भ में प्रश्न किया है कि क्या इससे अधिक कृतघ्न मनुष्य जो किसी भी प्रकार से गोहत्या करने, कराने में सहयोगी हैं अथवा इस पाप कर्म का विरोध नहीं करते, अन्य कोई हो सकता है? अतः माता-पिता सभी सन्तानों के लिए सदैव पूज्य हैं। सभी सन्तानों को श्रद्धा व भक्ति से उनकी सेवा शुश्रुषा किंवा स्तुति-प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये जिससे उनके स्वयं के वृद्धावस्था में पहुंचने पर उनकी सन्तानें भी उनकी देखभाल व सेवा आदि करें।

 

माता व सन्तान विषयक कुछ उदाहरणों पर भी विचार करते हैं। सुना जाता है कि शंकराचार्य बालक थे। पिता का साया उन पर नहीं था। माता उनका पालन करती थी। शंकराचार्य जी को वैराग्य हो गया था। वह संन्यास लेना चाहते थे। एक माता जिसकी एक ही सन्तान हो, कैसे वह अपने एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की अनुमति दे सकती थी। बताते हैं कि मां को मनाने के लिए शंकराचार्य जीएक नदी में स्नान करने के लिए गये। माता को भी साथ ले गये होंगे। वहां उन्होंने स्नान करते हुए मां को पुकारा और कहा कि एक मगरमच्छ ने उनका पैरा पकड़ रखा है। वह कहता है कि संन्यास ले लो नहीं तो वह मुझे खा जायेगा। हम अनुभव करते हैं कि उनकी माता बहुत भोली रहीं होंगी। सन्तान के हित को सर्वोपरि रखकर उन्होंने शंकराचार्य जी को संन्यास की आज्ञा दे दी। इस घटना से सिद्ध है कि सन्तान के हित के लिए माता अपने इष्ट व इच्छा को भी परवान चढ़ा सकती है। आज उन्हीं व कुमारिल भट्ट आदि के तप का प्रभाव है कि देश पूर्णतया नास्तिक नहीं बना। महर्षि मनु और महर्षि दयानन्द जी का भी उदाहरण हमारे सामने है। महर्षि मनु ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में कहा है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात् जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। महर्षि मनु का आशय है कि जहां मातृशक्ति का सभी आदर करते वहां विद्वान, बुद्धिमान, ऋषि-मुनि, ज्ञानी-वैज्ञानिक उत्पन्न होते वा निवास करते हैं। यह सभी अर्थ देवता शब्द से अभिप्रेत है। महर्षि दयानन्द के समय में मातृशक्ति का घोर निरादर होता था। उन्होंने बाल विवाह को अवैदिक ही घोषित नहीं किया अपितु इसे मानवता के विरुद्ध भी सिद्ध किया। उन्होंने आधुनिक समाज को एक नया सिद्धान्त दिया कि समस्त पूर्वाग्रहों जिनमें जन्मना जातिवाद भी सम्मिलित है, उससे ऊपर उठकर पूर्ण युवावस्था में गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार विवाह होना चाहिये। स्वामी दयानन्द ने नारी जाति के गौरव को पुनस्र्थापित करने के लिए जितने कार्य किये हैं, वह सब युगान्तरकारी हैं। उन्होंने बाल विवाह व बेमेल विवाह का निषेध तो किया ही साथ ही उनकी वैदिक विचारधारा से सतीप्रथा जैसी सभी कुरीतियों का निषेध भी होता है। उनके विचारों का आश्रय लेकर समाज में विधवा विवाह भी प्रचलित हुए जो अब भी जारी हैं। स्त्री व दलित शूद्रों को पुरूषों वा अन्य वर्णों के समान शिक्षा व वेदाध्ययन का अधिकार भी महर्षि दयानन्द की अनेक देनों में से एक बहुमूल्य देन है। वस्तुतः महर्षि दयानन्द ने नारी को जगदम्बा के उच्चस्थ सम्मानजनक गौरवपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित किया। नारी जाति के लिए किए गये हितकारी कार्यों में महर्षि दयानन्द का विश्व में सर्वोपरि स्थान है। बाल्मीकि रामायण में भी एक स्थान पर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने लक्ष्मण जी को जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी के वैदिक सिद्धान्त की याद दिलाते हुए कहा था कि कहीं कितना ही सुखमय वातावरण क्यों हो परन्तु अपनी माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी सूक्ति की भावना को महर्षि दयानन्द ने अग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए ही शायद अपने शब्दों में कहा कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य (जन्मभूमि पर) होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है, अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता और माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य (पर-राज्य होता है स्व-राज्य नहीं) पूर्ण सुखदायक नहीं है। यहां उन्होने माता व स्वदेशभूमि वा जन्मभूमि को स्वदेशीय राज्य से जोड़़कर कहा कि स्वदेशीय राज्य, स्वदेशोत्पन्न लोगों का राज्य, होगा तभी वह स्वर्ग के समान हो सकता है, अन्यथा नहीं। हम यह भी बता दें कि माता शब्द का प्रयोग यद्यपि हमें जन्म देने वाली माता के लिए ही रूढ़ है परन्तु उपकारों में मां से कहीं अधिक उपकार ईश्वर के हम पर हैं, इसलिये वह माता से भी अधिक पूजनीय व उपासनीय हैं। इसी कारण वेद एवं वैदिक साहित्य सहित हमारे सभी ऋषि मुनियों ने मनुष्य को बाल्यकाल से मृत्यु पर्यन्त प्रातः व दोनों समय सायं ब्रह्मयज्ञ व सन्ध्या का विधान किया है। हमने 103 वर्षीय वेदों के विद्वान पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी को बिस्तर पर लेटे हुए ही सन्ध्या करते देखा है। वस्तुतः ईश्वर इस संसार को उत्पन्न व इसका पालन आदि करने के कारण सभी प्राणियों व संसार की माता है। सभी को उसके उपकारों को स्मरण कर सदा सर्वदा उसका उपकृत अनुभव करना चाहिये। वैदिक संस्कृति  संसार में सबसे प्राचीन एवं महान है।  इसमें कहा गया है मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव।  अर्थात प्रथम माता पूजनीय देव है।

 

एक बात की ओर हम और ध्यान दिलाना चाहेंगे। कई परिवार आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर होते हैं जहां परिवार के सभी लोगों के भोजन की पर्याप्त मात्रा नही होती। वहां क्या होता है? माताएं बचा-खुचा वा आधा पेट भोजन ही करती हैं। घर के अन्य सदस्यों को इसका ज्ञान ही नहीं होता। हमने सुना व देखा भी है कि आर्थिक अभाव से त्रस्त एक अपढ़ माता अपने बच्चों के पालन करने के लिए महीनें में 15 दिनों से अधिक दिन व्रत रखा करती थीं। उन्होंने अपनी योग्यतानुसार परिश्रम व अल्प धनोपार्जन भी किया। उन्होंने अपनी सन्तानों को भर पेट भोजन ही नहीं कराया अपितु सभी को शिक्षित किया और उनकी सभी सन्तानें गे्रजुएट व उसके समकक्ष शिक्षित हुईं। स्वाभाविक था कि कम भोजन, घर व बाहर काम करना, इससे उन्हें टूटना ही था। 50 वर्ष के बाद वह रोगों की शिकार हो गईं और संसार से असमय ही विदा हो गई। उनके विदा होने के बाद उनकी सन्तानें शायद इस बारे में विचार ही नहीं कर सकीं कि उनकी माता ने उनके लिए कितन त्याग व बलिदान किया था? देश में ऐसी लाखों व करोड़ों मातायें आज भी हैं। हमारा आज का समाज स्वार्थी-खुदगर्ज समाज है। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर एक नियम भी बनाया था कि सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी कार्यों को करने वा नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये। इसमें निर्बलों की सहायता व रक्षा भी सम्मिलित है परन्तु हमारा समाज आज भी इस भावना व विचारों से कोसों दूर है। इसे मनुष्यता का अभाव ही कहा जा सकता है। अतः मदर्स डे का मनाया जाना एक अच्छी परम्परा ही कहा जा सकता है। भले ही हम अपने माता-पिता की भरपूर सेवा कर रहे हों, तब भी हम सबको इस दिन यह विचार अवश्य करना चाहियें कि माता-पिताओं, मुख्यतः मातओं के प्रति, सन्तानों के किस-किस प्रकार के ऋण होते हैं। माताओं के उन त्याग व दुःखों के लिए हम जो कुछ कर सकते हैं, वह धर्म समझ कर अवश्य करें। मातृ सेवा भी परमधर्म के समान सब मनुष्यों का कर्तव्य है। कोई सन्तान किसी कारण यदि अधिक सेवा आदि न भी कर सके तब भी उसे मधुर वाणी से माता पिता का सत्कार तो नित्य प्रति अवश्य ही करलर चाहिये। शायद इतना करने से ही समाज के लोगों का मातृ ऋण कुछ कम हो जाये और वह परजन्म में ईश्वर द्वारा दुःखों से भरी अधिक बुरी भोग योनि में न भेजे जायें। आज मातृत्व दिवस पर हम सभी को बधाई देते हैं और निवेदन करते हैं कि वह इस विषय पर कुछ समय चिन्तन कर व अपने व्यवहार पर दृष्टिपात कर उसमें सुधार आदि की आवश्यकता की दृष्टि से विचार करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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महर्षि दयानन्द को राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की भाव-भरित श्रद्धांजलि’

ओ३म्

महर्षि दयानन्द को राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ

टैगोर की भावभरित श्रद्धांजलि

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार की अपनी यात्राओं में बंगाल वा कोलकत्ता को भी सम्मिलित किया था। वह राष्ट्रकवि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर के पिता श्री देवेन्द्रनाथ टैगोर व उनके परिवार से उनके निवास पर मिले थे। आपका जन्म कोलकत्ता में 7 मई सन् 1861 को हुआ तथा मृत्यु भी कोलकत्ता में ही 7 अगस्त सन् 1941 को हुई। आप अपनी विश्व प्रसिद्ध रचना ‘‘गीतांजलि के लिए सन् १९१३ में सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित थे। श्री टैगोर ने देश व समाज में जो उच्च स्थान प्राप्त किया, उसके कारण उनके ऋषि दयानन्द विषयक विचारों व स्मृतियों का महत्व निर्विवाद है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा सन् 1937 में लाहौर के डी.ए.वी. कालेज के सभागार में ऋषि दयानन्द को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी थी। ऐतिहासिक व गौरवपूर्ण होने के कारण हम गुरुदेव के शब्दों को प्रस्तुत कर पाठकों को भेंट कर रहे हैं।

 

गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था-‘‘जीवन में कुछ घटनायें ऐसी घट जाती हैं जो अपना सम्पूर्ण उस क्षण उद्घाटित करके भी हृदय पर अमिट छाप छोड़ जाती है। ऐसी ही एक घटना उनके (गुरुदेव के) जीवन में तब घटी, जब महान् ऋषि दयानन्द कोलकाता में हमारे घर पर पधारे थे। ऋषिवर दयानन्द के गम्भीर पण्डित्य की कीर्ति तब तक हमारे कर्ण गोचर हो चुकी थी। हम यह भी सुन चुके थे कि वेद मन्त्रों के आधार पर वे मूर्तिपूजा का खण्डन करते हैं। मैं उन महान् विद्वान के लिए लालायित था, पर तब तक इस बात का हमें आभास नहीं था कि निकट भविष्य में वे इतने महान् व्यक्तित्व के रूप में हमारे सामने प्रसिद्धि पायेंगे। मेरे भाई ऋषि जी से वेदार्थ में विचारविमर्श में निरन्तर तल्लीन थे। उनका वार्तालाप गहन अर्थ प्रणाली तथा आर्य संस्कृति पर चल रहा था। मेरी आयु तब बहुत छोटी थी। मैं चुपचाप एक ओर बैठा था, परन्तु उस महान् दयानन्द का साक्षात्कार मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ गया। उनके मुखमण्डल पर असीम तेज झलक रहा था। वह प्रतिभा से दीप्त था। उनके साक्षात्कार की वह अक्षुण्ण स्मृति अब तक मैं अपने मन में संजोय हुए हूं। हमारे सम्पूर्ण परिवार के हृदय को आनन्दित कर रही है। उनका सन्देश उत्तरोत्तर मूर्त रूप लेता गया। यह सन्देश देश के एक कोने से दूसरे कोने तक गूंज उठा। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि भारतीय गगन में घटाटोप घिरे वे संकीर्णता कट्टरता के बादल देखते ही देखते छितरा कैसे गये?’’

 

प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्यसमाज के वयोवृद्ध एक प्रसिद्ध विद्वान, साहित्यकार एवं धर्म-प्रचारक हैं। आपने विपुल आर्य-सामाजिक साहित्य की रचना की है। परोपकारी मासिक पत्रिका में आप कुछ तड़प कुछ झड़प शीर्षक से एक लेखमाला चलाते हैं। इस पत्रिका के नये अंक में आपने गुरुवर रवीन्द्र जी का उपर्युक्त प्रसंग प्रस्तुत किया है। इसकी महत्ता को विचार कर हम इसे पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। जिज्ञासु जी के अनुसार ऋषि दयानन्द भक्त श्रीयुत् हरविलास सारदा आदि सब पुराने विद्वानों ने कविवर ठाकुर रवीन्द्रनाथ जी की ऋषि के प्रति भावपूर्ण श्रद्धांजलि अपने ग्रन्थों व लेखों में दी है। इस श्रद्धांजलि का आर्य पत्रकार पं. भारतेन्द्रनाथ की कृपा से पुनरुद्धार हो गया। कवि गुरु के ये उद्गार जन-ज्ञान साप्ताहिक के 18 अप्रैल, 1976 के अंक में प्रकाशित हुए थे। सन् 1935 के उन दिनों में यह श्रद्धांजलि ट्रिब्यून आदि दैनिक पत्रों में भी प्रकाशित हुई थी। हम ऋषिभक्त श्रद्धेय जिज्ञासु जी व परोपकारी पत्रिका का इस ऐतिहासिक प्रसंग को प्रस्तुत करने के लिए आभार व्यक्त करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक इसे पढ़कर आनन्द प्राप्त करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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