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संस्कृत साहित्य में ‘डायरी’ विधा

संस्कृत साहित्य में ‘डायरी’ विधा

– डॉ. अंजना शर्मा ज्योति बाला

संस्कृत-साहित्य अत्यन्त विस्तृत एवं समृद्ध है। वेदों के अति गमभीर एवं रहस्यमय ज्ञान से लेकर सामान्य जन-जीवन के मनोविनोद से समबन्धित समपूर्ण वैभव संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है। वैदिक समय से प्रवाहित इसकी धारा आधुनिककाल में भी न केवल सतत प्रवहणशील है, बल्कि युगानुरूप प्रवृत्तियों को आत्मसात् करती हुई विशालतर और गमभीर रूप में आगे बढ़ा रही है। गद्य-पद्य आदि सभी रूपों में नवीन विधाओं का विकास एवं विस्तार इसको अभूतपूर्व बना रहा है । इसमें गद्य साहित्य की अनेक विधाएँ आधुनिक युग में प्रचलित हैं जो इसे समृद्ध कर रही हैं- जैसे लघुकथा, एकांकी, निबन्ध, लेख, रेखाचित्र, आत्मकथा, यात्रावृत्तांत, जीवनी, रिपोतार्ज आदि। इनसे पृथक् एक विधा है- ‘डायरी’ इस विधा में लेखन सर्व प्रथम डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने किया है।

डायरी का अर्थ अंग्रेजी का ‘डायरी’ शबद लैटिन के डायस शबद से बना है जो दैनंदिता का बोधक है। जब कोई व्यक्ति तिथि सन्-संवत् आदि का उल्लेख करते हुए घटनाओं को उसी क्रम में लिपिबद्ध करता है, जिसक्रम से उसके जीवन में घटित हुई हैं (या जिस क्रम से उसने उन्हें अपने जीवन-काल में देखा-सुना अथवा सोचा-समझा है) और उसकी वैयक्तिक अनुभूति का एक अविभाज्य अंश बन गई हों, तब डायरी विधा जन्म लेती है।1

डायरी को जीवन का सबसे अधिक प्रामाणिक दस्तावेज माना गया है, क्योंकि डायरी लेखक अपने जीवन की घटनाओं, परिस्थितियों, स्वजनों और परायों के व्यवहार, तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक हलचलों को जिस तरह देखता, परखता, भोगता, जानता, पहचानता है और उसपर जहाँ जैसी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करना चाहता है, सबको यथा तथ्य वर्णित कर देता है।2

डायरी निजी होती है। इसे लेखक प्रकाशन के उद्देश्य से नहीं लिखता। वह भावनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है, जिसके द्वारा निजता का विवेचन होता है। कलात्मकता की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। यहाँ लेखक की भावनाएँ निर्झर की तरह अपना रास्ता बना लेती हैं। शिल्प के प्रति यदि लेखक लालायित है तो स्वाभाविकता समाप्त हो जाती है।3

एक अच्छी डायरी में स्पष्टता, सहजता, संक्षिप्तता, सुसंगठितता, रोचकता आदि गुणों का समावेश होता है। डायरी में देश, काल और वातावरण का बड़ा महत्त्व होता है । उसकी पृष्ठभूमि की सहायता से लेखक का व्यक्तित्व स्पष्ट होकर सामने आ जाता है।4

डायरी का विभाजन

डायरी का विभाजन अनेक आधारों पर होता है। कवि, कथा-लेखक, आलोचक, राजनीतिक पुरुष समाजसेवी आदि विभाजन लेखकों के आधार पर होता है। विषय वस्तु के आधार पर प्रकृति चित्रण प्रधान, सामाजिक, सांस्कृतिक विषय प्रधान डायरियाँ लिखी जाती हैं। किसी विशेष स्थान का चित्रण भी डायरी में होता है।5

डायरी का प्रमुख उद्देश्य आत्म-विवेचन और आत्म-विश्लेषण होता हैं। लेखक तो अपने भावों, विचारों और घटनाओं को डायरी में सहज रूप से अभिव्यक्ति करता है। लेखक की डायरी से पाठक को प्रेरणा मिलती है, जानकारी और ज्ञान भी।

डायरी के रचना आधार तत्त्व

डायरी के रचनातत्त्व निम्न प्रकार से हैं। इनके आधार पर एक डायरी की रचना होती है-

  1. व्यक्तिगत जीवन के क्रमिक चित्र
  2. आंतरिक सत्य
  3. तल्लीनता
  4. सहजता
  5. कलात्मकता के प्रति उदासीनता
  6. व्यक्तिगत जीवन के क्रमिक चित्र –

डायरी निजी लेखन है, अतः इसमें लेखक के व्यक्तिगत जीवन को अभिव्यक्ति मिलती है। नितान्त निजी क्षणों में कोई भी व्यक्ति जो सोचता-विचारता है, उसे अपनी डायरी में लिखता है। किसी-किसी व्यक्ति को प्रतिदिन डायरी लिखने की आदत होती है, कुछ व्यक्ति एक-दो अथवा कुछ दिनों के अन्तराल के बाद डायरी लिखते हैं, परन्तु फिर भी यह जरूरी होता है कि डायरी में तिथि क्रम बना रहे। डायरी लेखक के व्यक्तिगत जीवन का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज होती है।6

  1. आंतरिक सत्य– डायरी का दूसरा महत्त्वपूर्ण विधायक तत्त्व आंतरिक सत्य है। डायरी में लेखक की निजी अनुभूतियाँ, संवेदनाएँ विचार आदि सत्यता के साथ अंकित रहती हैं, इसलिए निजी अथवा आंतरिक सत्य का उद्घाटन डायरी का मुखय तत्त्व होता है। इसी से जुड़ा तत्त्व है- आत्म निरीक्षण, आत्म-विश्लेषण और आत्म-समबोधन। लेखक स्थितियों, घटनाओं और परिस्थितियों के बीच अपने को रखकर आत्मविश्लेषण करता है, इसलिए डायरी प्रायः आत्म परिष्करण और आत्ममुक्ति का सबसे अच्छा साधन भी है।
  2. तल्लीनता –

डायरी लेखक तल्लीनता के साथ अपनी अनुभूतियों, प्रतिक्रियाओं, टिप्पणियों आदि को शबदों से बाँधता है। नितान्त निजी क्षणों में और प्रायः एकान्त में वह डायरी लिखता है, इसलिए अन्य साहित्यिक विधाओं की अपेक्षा डायरी लेखन में तल्लीनता सर्वाधिक रहती है। इस तल्लीनता के तत्त्व के कारण डायरी-लेखक समय और स्थान की सीमा से दूर चला जाता है। जो समीक्षक डायरी में कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं मानते, वे केवल सत्य ही डायरी के लिए आवश्यक मानते हैं।

  1. सहजता –

तल्लीनता से जुड़ा डायरी का महत्त्वपूर्ण उपकरण सहजता है। तल्लीन होकर सहज रूप में व्यक्ति अपनी डायरी लिखता है। इन दोनों के कारण वह दुराव-छिपाव और बनावट (कृत्रिमता) से बचा रहता है। कोई झूठ उसके पास नहीं फटक पाता।

इसलिए डायरी लेखक के लिए सहजता अत्यावश्यक है।

  1. कलात्मकता के प्रति उदासीनता –

इन दोनों तल्लीनता और सहजता से प्रभावित डायरी का अंतिम विधायक उपकरण है-कलात्मकता के प्रति उदासीनता। वास्तव में यह डायरी का गुण है। डायरी लेखक यह सोचकर नहीं लिखता कि वह कोई कलात्मक वस्तु सृजित कर रहा है। प्रायः डायरियाँ यह सोचकर भी नहीं लिखी जाती कि इनका प्रकाशन किया जाएगा, इसलिए इन्हें कलात्मक होना चाहिए। डायरी लेखक यदि विचारवान, सिद्धहस्त लेखक, कलाकार, दर्शनिक हुआ तो सहज शिल्प उसकी डायरी को स्वतः ही कलात्मक बना देगा।

कलात्मकता या शिल्प के प्रति यदि उसके मन में आग्रह रहेगा तो वह अपनी डायरी के प्राकृतिक रूप को विकृत कर लेगा। डायरी-लेखक को कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि वह अपनी यह डायरी किसी को प्रभावित करने के लिए किसी की आलोचना या प्रशंसा करने के लिए अथवा निश्चय ही एक उत्कृष्ट साहित्यिक कृति के रूप में लिख रहा है। उसे तो सहज भाव से तल्लीन होकर अपने मन की बातें अंकित करते चलना चाहिए, तभी वह डायरी सच्ची डायरी होगी।

डायरी में लिखे गए दैनिक अनुभव एक-दूसरे से अलग-थलग कटे हुए होते हैं। उनमें पूर्वापर का अभाव होता है। डायरी पढ़ते समय घटनाओं के पूर्वापर समबन्धों में पारस्परिक भाव उत्पन्न नहीं होता। 7

डायरी में वर्णन न होकर मन की प्रतिक्रिया आत्मविश्लेषण एवं मन स्थिति अंकित की जाती है। डायरी का सत्य अपेक्षाकृत अधिकपूर्ण आंतरिक और आत्मीय होता हैं। डायरी लेखकर प्रायः कटु से कटु सत्य से भी दूर नहीं भागता। किसी भी अवाछित प्रसंग को ढकना डायरी-लेखक के लिए उचित नहीं, क्योंकि वह तो यह सोचकर लिखता है कि जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, वह मेरा निजी है, मेरा अपना है। क्योंकि डायरी को सभी के पढ़ने की वस्तु नहीं माना गया है, अतः डायरी को हम विभिन्न ‘मूड्स’ के स्नेप्स कह सकते हैं, अर्थात् हम उन्हें मन के चित्र भी कह सकते हैं।

डायरी ग्रन्थ

हिन्दी के डायरी लेखन का प्रारम्भ 1930 के आस पास माना जाता है। नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ इसके प्रथम लेखक माने जाते हैं। नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ की ‘जेल डायरी’ के नाम से प्रकाशित हुई।8

अजित कुमार की डायरी ‘अंकित होने दो’ के नाम से छपी है। इलाचन्द्र जोशी की ‘डायरी के नीरस पृष्ठ’ से प्रसिद्ध हुई। राम कुमार वर्मा की ‘वाराणसी की डायरी’ हिन्दी गद्य साहित्य में पाई जाती है। गजानन माधव मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’, नामवर सिंह की ‘मलयज की डायरी’ (संपादित) प्रमुख हैं।9

इसके अतिरिक्त घनश्याम बिड़ला की ‘डायरी के कुछ पन्ने’ नाम की डायरी बहुत महत्त्वपूर्ण व उल्लेखनीय है। गाँधीजी की दिल्ली डायरी भी प्रकाशित हुई। महादेव भाई देसाई की डायरी गुजराती में लिखी गई। मनुबेन गाँधी की गुजराती से अनुदित डायरी भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह डायरी गाँधी जी के जीवन की घटनाओं का सच्चा दस्तावेज है। यह चार भागों में विभाजित है-

  1. एकला चलो रे
  2. कलकत्ते का चमत्कार
  3. बिहार की कौमी आग में
  4. दिल्ली डायरी

अमृता प्रीतम की डायरी ‘सात मुसाफिर’ प्रकाशित हुई। जमनालाल बजाज की डायरी गुजराती से अनुदित होकर हिंदी में ‘जमनालाल  की डायरी’ नाम से प्रकाशित हुई।10

संस्कृत डायरी ग्रन्थ

संस्कृत में अभी तक एक ही डायरी ग्रन्थ लिखा गया है, सर्व प्रथम जिसकी रचना डॉ. सत्यव्रत शास्त्री ने की है। ‘दिन-दिने याति मदीयजीवितम्’ नामक इस डायरी ग्रन्थ का लेखन काल दिनांक 14.01.2006 से दिनांक 19.06.2007 तक है। इसमें लेखक ने अपने जीवन, स्वास्थ्य, यात्रा-वर्णन, क्रिया कलाप, मनोभाव व अन्य विशिष्ट वृत्तों का वर्णन किया है। व्यक्तिगत जीवन के अनेक पक्षों का स्पष्ट प्रकाशन इस डायरी को विशिष्ट बनाता है।11

निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि संस्कृत साहित्य में डायरी नवीन विधा है और इस विधा का लेखक विशेष संवेदनशील होता है और वह आत्माभिव्यक्ति की पुकार को नकारता नहीं है। वह तनिक अवकाश चुराकर किसी एकान्त कोने में डायरी लेखन से भी नहीं चूकता। डायरी में मन खोलकर लिखते हैं। डायरी अपने लिए लिखी जाती है, दूसरों के लिए नहीं अन्ततः डायरी को लेखक के जीवन का प्रामाणिक दस्तावेज मानते हैं।