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हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

ओउम
हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

डा. अशोक आर्य ,
अग्नि तेज का प्रतीक है, अग्नि एश्वर्य का प्रतिक है, अग्नि जीवन्तता का प्रतिक है | अग्नि मैं ही जीवन है , अग्नि ही सब सुखों का आधार है | अग्नि की सहायता से हम उदय होते सूर्य की भांति खिल जाते हैं , प्रसन्नचित रहते हैं | जीवन को धन एश्वर्य व प्रेम व्यवहार लाने के लिए अग्नि एसा करे | इस तथ्य को ऋग्वेद के ६-५२-५ मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
विश्वदानीं सुमनस: स्याम
पश्येम नु सुर्यमुच्चरनतम |
तथा करद वसुपतिर्वसुना
देवां ओहानो$वसागमिष्ठ: || ऋग.६-५२-५ ||
शब्दार्थ : –
(विश्वदानीम) सदा (सुमनस:) सुन्द व पवित्र ह्रदय वाले प्रसन्नचित (स्याम) होवें (न ) निश्चय से (उच्चरंतम) उदय होते हुए (सूर्यम) सूर्य को (पश्येम) देखें (वसूनाम) घनों का (वसुपति: ) धनपति , अग्नि (देवां) देवों को (ओहान:) यहाँ लाता हुआ (अवसा) संरक्षण के साथ (आगमिष्ठा:) प्रेमपूर्वक आने वाला (तथा) वैसा (करत ) करें |
भावार्थ :-
हम सदा प्रसन्नचित रहते हए उदय होते सूर्य को देखें | जो धनादि का महास्वामी है , जो देवों को लाने वाला है तथा जो प्रेम पूर्वक आने वाला है , वह अग्नि हमारे लिए एसा करे |
यह मन्त्र मानव कल्याण के लिए मानव के हित के लिए परमपिता परमात्मा से दो प्रार्थनाएं करने के लिए प्रेरित करता है : –
१. हम प्रसन्नचित हों
२. हम दीर्घायु हों
मन्त्र कहता है की हम उदारचित ,प्रसन्नचित , पवित्र ह्रदय वाले तथा सुन्दर मन वाले हों | मन की सर्वोतम स्थिति हार्दिक प्रसन्नता को पाना ही माना गया है | यह मन्त्र इस प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए ही हमें प्रेरित करता है | मन की प्रसन्नता से ही मानव की सर्व इन्द्रियों में स्फूर्ति, शक्ति व ऊर्जा आती है |
मन प्रसन्न है तो वह किसी की भी सहायता के लिए प्रेरित करता है | मन प्रसन्न है तो हम अत्यंत उत्साहित हो कर इसे असाध्य कार्य को भी संपन्न करने के लिए जुट सकते है, जो हम साधारण अवस्था में करने का सोच भी नहीं सकते | हम दुरूह कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भी अपना

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हाथ बढ़ा देते हैं | यह मन के प्रसन्नचित होने का ही परिणाम होता है | असाध्य कार्य को करने की भी शक्ति हमारे में आ जाती है | अत्यंत स्फूर्ति हमारे में आती है | यह स्फूर्ति ही हमारे में नयी ऊर्जा को पैदा करती है | इस ऊर्जा को पा कर हम स्वयं को धन्य मानते हुये साहस से भरपूर मन से ऐसे असाध्य कार्य भी संपन्न कर देते हैं , जिन्हें हम ने कभी अपने जीवन में कर पाने की क्षमता भी अपने अंदर अनुभव नहीं की थी |
मन को कभी भी अप्रसन्नता की स्थिति में नहीं आने देना चाहिए | मन की अप्रसन्नता से मानव में निराशा की अवस्था आ जाती है | वह हताश हो जाता है | यह निराशा व हताशा ही पराजय की सूचक होती है | यही कारण है की निराश व हताश व्यक्ति जिस कार्य को भी अपने हाथ में लेता है, उसे संपन्न नहीं कर पाता | जब बार बार असफल हो जाता है तो अनेक बार एसी अवस्था आती है कि वह स्वयं अपने प्राणांत तक भी करने को तत्पर हो जाता है | अत: हमें ऐसे कार्य करने चाहिए, ऐसे प्रयास करने चाहिए, एसा पुरुषार्थ करना चाहिए व एसा उपाय करना चाहिए , जिससे मन की प्रसन्नता में निरंतर अभिवृद्धि होती रहे |
मन की पवित्रता के लिए कुछ उपाय हमारे ऋषियों ने बताये हैं , जो इस प्रकार हैं : –
१. ह्रदय शुद्ध हो : –
हम अपने ह्रदय को सदा शुद्ध रखें | शुद्ध ह्रदय ही मन को प्रसन्नता की और ला सकता है | जब हम किसी प्रकार का छल , कपट दुराचार ,आदि का व्यवहार नहीं करें गे तो हमें किसी से भी कोई भय नहीं होगा | कटु सत्य को भी किसी के सामने रखने में भय नहीं अनुभव करेंगे तो निश्चय ही हमारी प्रसन्नता में वृद्धि होगी |
२. पवित्र विचारों से भरपूर मन : –
जब हम छल कपट से दूर रहते हैं तो हमारा मन पवित्र हो जाता है | पवित्र मन में सदा पवित्र विचार ही आते है | अपवित्रता के लिए तो इस में स्थान ही नहीं होता | पवित्रता हमें किसी से भय को भी नहीं आने देती | बस यह ही प्रसन्नता का रहस्य है | अत; चित की प्रसन्नता के लिए पवित्र विचारों से युक्त होना भी आवश्यक है |
३. सद्भावना से भरपूर मन : –
हमारे मन में सद्भावना भी भरपूर होनी चाहिए | जब हम किसी के कष्ट में उसकी सहायता करते है , सहयोग करते हैं अथवा विचारों से सद्भाव प्रकट करते हैं तो उसके कष्टों में कुछ कमीं आती है | जिसके कष्ट हमारे दो शब्दों से दूर हो जावेंगे तो वह निश्चित ही हमें शुभ आशीष देगा | वह हमारे गुणों की चर्चा भी अनेक लोगों के पास करेगा | लोग हमें सत्कार देने लगेंगे | इससे भी हमारी चित की प्रसन्नता अपार हो जाती है | अत: चित की प्रसन्नता के लिए सद्भावना भी एक आवश्यक तत्व है |
इस प्रकार जब हम अपने मन में पवित्र विचारों को स्थान देंगे , सद्भावना पैदा करेंगे तथा ह्रदय को शुद्ध रखेंगे तो हम विश्वदानिम अर्थात प्रत्येक अवस्था में प्रसन्नचित रहने वाले बन जावेंगे | हमारे प्राय:
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सब धर्म ग्रन्थ इस तथ्य का ही तो गुणगान करते है | गीता के अध्याय २ श्लोक संख्या ६४ व ६५ में भी इस तथ्य पर ही चर्चा करते हुए प्रश्न किया है कि
मनुष्य प्रसन्नचित कब रहता है ?
इस प्रश्न का गीता ने ही उतर दिया है कि मनुष्य प्रसन्नचित तब ही रहता है जब उसका मन राग , द्वेष रहित हो कर इन्द्रिय संयम कर लेता है |
फिर प्रश्न किया गया है कि प्रसन्नचित होने के लाभ क्या हैं ?
इस का भी उतर गीता ने दिया है कि प्रसन्नचित होने से सब दु:खों का विनाश हो कर बुद्धि स्थिर हो जाती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित है उसके सारे दु:ख व सारे क्लेश दूर हो जाते हैं | जब किसी प्रकार का कष्ट ही नहीं है तो बुद्धि तो स्वयमेव ही स्थिरता को प्राप्त कराती है |
जब मन प्रसन्नचित हो गया तो मन्त्र की जो दूसरी बात पर भी विचार करना सरल हो जाता है | मन्त्र में जो दूसरी प्रार्थना प्रभु से की गयी है , वह है दीर्घायु | इस प्रार्थना के अंतर्गत परमपिता से हम मांग रहे हैं कि हे प्रभु ! हम दीर्घायु हों, हमारी इन्द्रियाँ हृष्ट – पुष्ट हों ताकि हम आजीवन सूर्योदय की अवस्था को देख सकें | सूर्योदय की अवस्था उतम अवस्था का प्रतीक है | उगता सूर्य अंत:करण को उमंगों से भर देता है | सांसारिक सुख की प्राप्ति की अभिलाषा उगता सूर्य ही पैदा करता है | यदि हम स्वस्थ हैं तो सब प्रकार के सुखों के हम स्वामी हैं | जीव को सुखमय बनाने के लिए होना तथा स्वस्थ होना आवश्यक है | अत: हम एसा पुरुषार्थ करें कि हमें उत्तम स्वास्थ्य व प्रसन्नचित जीवन प्रन्नचित मिले |

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४-शिप्रा अपार्टमेन्ट, कौशाम्बी
जिला गाजियाबाद उ. प्र.
चलभाष ०९३५४८४५४२६

बादल जो जमीन और आसमान के बीच में है।

बादल जो जमीन और आसमान के बीच में है।

आसमान की विस्तार पूर्वक व्याख्या करें।

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

इन-न फी खल्किस्समावाति………।।

(कुरान मजीद पारा २ सूरा बकर रूकू २० आयत १६४)

बादल जो (खुदा के हुक्त से) आकाश और धरती के बीच में घिरे रहते हैं।

समीक्षा

हमारी निगाह में यह वाक्य गलत है अथवा खुदा अज्ञानी था क्योंकि जमीन के चारों ओर शून्य आकाश है, कहीं भी कोई ठोस पदार्थ आकाश नाम का नहीं है। जिसके ऊपर कोई हद मान ली जावे और जमीन व आसमान की दो हदों के बीच में बादलों को माना जावे। उचित होता यदि यह लिखा जाता कि-

‘‘धरती के ऊपर आकाश में बादल घिरे रहते हैं।’’

यह साधारण सी बात तो चौथे दर्जे का विद्यार्थी भी जानता है, पर कुरान लिखने वाला अरबी खुदा इतनी सी बात भी नहीं समझता था, घोर आश्चर्य की बात है।

शैक्षणिक केरल यात्रा का वृत्तान्तः एक अविस्मरणीय अनुभव

शैक्षणिक केरल यात्रा का वृत्तान्तः एक अविस्मरणीय अनुभव

– ब्र. वरुणदेवार्यः

सोमवता यागेनेष्टं भावयेत्। अर्थ संग्रह की यह पंक्ति व इसमें वर्णित सोमयाग का मीमांसा दर्शन के अध्येताओं के लिये विशेष महत्त्व है। इसी को ध्यान में रखते हुए आर्ष गुरुकुल ऋषि उद्यान अजमेर के विद्यार्थियों व आश्रमवासियों का एक दल केरल राज्य के पालाक्काड जिले में पेरुमुडियुर नामक स्थान पर हो रहे अग्निष्टोम नामक  सोमयाग को देखने के लिए रवाना हुआ। 6 अप्रैल 2016 सायंकाल गुरुकुल से प्रारंभ हुई यह यात्रा 16 अप्रैल 2016 सायंकाल गुरु कुल में प्रवेश के साथ ही सफलता पूर्वक सपन्न हुई। इस यात्रा का वृत्तान्त हर्ष मिश्रित आश्चर्य, रोमांच व अविस्मरणीय घटनाओं से भरपूर है।

हमारे दल के अधिकांश व्यक्ति प्रथम बार सुदूर दक्षिण में केरल प्रदेश को देखने जा रहे थे। वहाँ की तीव्र गर्मी व अत्यधिक उमस की जानकारी व भौगोलिक परिस्थितियों के पूर्वानुभव की सूचना के पश्चात् भी 48 घंटे की रेल यात्रा बिना किसी थकावट के उत्साह के साथ पूर्ण हुई। पट्टाबि रेलवे स्टेशन पर पहुँचते ही हमारे लिये बस की व्यवस्था श्री के.एन. राजन जी द्वारा की गई थी। वे एक सक्रिय आर्य केरल में आर्ष गरुकुल के संस्थापक व सेवानिवृत्त वायुसेना अधिकारी हैं। यात्रा समाप्ति तक इनका संकोच रहित सहयोग व हमारी सभी प्रकार की व्यवस्था के लिए तत्परता एवं आत्मीयता का भाव अविस्मणीय रहेगा। यहाँ पहुँचते ही हमारे दल को पुरुष व स्त्री दो वर्गों में विभाजित किया गया। महिला वर्ग के रहने की व्यवस्था याग स्थली पर व पुरुष वर्ग की आवास व्यवस्था लगभग 3 किमी. दूर पहाड़ी पर स्थित भगवती मन्दिर में  की गई थी।

सायंकाल को पहुँचा हमारा पुरुष दल अगली प्रातः अभी ठीक से जागा भी नहीं था कि महिला दल की एक सदस्या के असावधानीवशात् उनके निवास आवास पर स्थित कूप में गिरने की सूचना मिली। दैवयोग से वे तैरना भी जानती थीं और यागस्थली के निकट होने से स्थानीय कार्यकर्त्ताओं की मदद से उन्हें सुरक्षित निकाल लिया गया। प्रथमे ग्रासे मक्षिकापतितः के अनुसार यह घटना उस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थिति की द्योतक व सबके लिये सचेतक थी। पश्चात् सारा दिन सामान्य रहा।

प्रातःकाल याग स्थली पर सभी लोग एकत्रित हुए व ब्र. शक्तिनंदन जी ने जो योग विषय के अच्छे अनुभवी हैं हम सभी को योग संबंधित सभी प्रमुख जानकारियाँ भूमिचयन, यागशाला निर्माण आदि से लेकर शाला दहन तक का सविस्तार वर्णन किया। ऋत्विज्ञों से उनका पूर्व परिचय भी इसमें सहयोगी रहा। यज्ञ की व्यवस्था देख रहे लोगों के लिए ‘राजस्थान’ प्रान्त से आये 50 लोगों का दल गौरव का विषय था, अतः वे लोग भी समय-समय पर याग संबंधी जानकारी के लिए उपस्थित रहे। यात्रा के सामान्य नियमों के अनुसार यागशाला के चारों ओर कुछ दूरी पर रस्सी बाँध कर सामान्य जनों के प्रवेश को नियंत्रित किया जाता है, परन्तु उपरोक्त परिचय आदि के कारण हमारे कुछ साथियों को यागशाला प्रवेश व निकट से कर्मकाण्ड की रिकार्डिंग करने की अनुमति मिल गई। ऋत्विक् वरण आदि से प्रारंभ यज्ञ की ये विभिन्न क्रि याएँ सभी के लिए कौतूहल का विषय रहीं। नबूदरी ब्राह्मणों द्वारा किया जाने वाला सस्वर मन्त्रपाठ अद्भुत व आनन्ददायक था। विशेषतः यह कि याग के ब्रह्मा से लेकर यजमान तक सभी को संहिता मन्त्र सस्वर कण्ठस्थ थे और उनके प्रधान जो वैदिक नाम से कहे जाते हैं सारा समय उस सारी प्रक्रिया का गहनता से निरीक्षण करते रहे। किसी भी पद के अशुद्ध उच्चारण होने अथवा स्वर के च्युत होने पर तत्परता से उसे ठीक कराना व पूर्ण शुद्ध उच्चारण होने पर ही आगे बढ़ने देना उन लोगों की वेदों व कर्मकाण्ड के प्रति श्रद्धा का प्रतीक और हमारे लिये प्रेरणा का प्रतीक रहा। एक ऋत्विज से चर्चा करने पर पता चला कि सस्वर वेद मंत्रों का कण्ठस्थीकरण उन लोगों की परंपरा है व इस योग में प्रवेश से 2 माह पूर्व से ही वे इस की तैयारी भी कर रहे थे तथा बिना देखे सस्वर वेदमन्त्रों को उपस्थित करने वाले ऋत्विजों को ही याग का अधिकार मिला है।

अगले दिनों में लगभग समान ही क्रियाएँ निरन्तरता से सुचारु रूप से बिना व्यवधान के चलती रहीं। याग स्थली के अति निकट एक और पाण्डाल में लगभग सारा दिन कुष्माण्ड याग चलता था। यह मुखय याग का अंश न होकर स्थानीय लोगों की श्रद्धा की पूर्ति का प्रतीक था। इस कर्मकाण्ड में मूर्ति पूजा (विशेष शिवलिङ्ग पूजन) व चढ़ावे पर जोर रहा। इसके साथ वाले पाण्डाल में भोजन व्यवस्था की गई थी। इस पूरे कार्यक्रम की विशेषता वहाँ के स्वयंसेवक रहे जो दिन-रात यंत्रवत् मुस्काते हुए चेहरों से आगन्तुओं का स्वागत करते रहे। किसी भी स्वयंसेवक या संस्था के अधिकारियों को हमने कभी चिंतित या क्रोधित अथवा दुःखी नहीं देखा। संभवतः यह उनकी सुनिश्चित योजनाओं और समर्पण का ही परिणाम था। भोजन में हमें प्रत्येक समय अनिवार्य रूप से चावल और सांभर मिले। लस्सी उत्तर भारत के लोगों के लिये भोजन का महत्त्वपूर्ण अंग होती है। हमें वहाँ लस्सी मिली, परन्तु मात्र आचमन के तरीके से अंजुलि भर ही।

इस यात्रा के 2 दिन स्थानीय आश्रमों, गुरुकुलों व मंदिरों के भ्रमण के लिये भी नियत किये गये थे। इनमें से प्रथम दिन हम बस द्वारा शंकराचार्य जी की जन्मभूमि तथा वहाँ बने मन्दिर देखने गये। यहाँ मन्दिर में आदि शंकराचार्य जी का जीवन चित्रों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया है। इसके निकट ही पूर्णा नदी है जो कथित रूप से मगर द्वारा आचार्य शंकर के पैर पकड़ने व संन्यास ग्रहण की साक्षी है। हमारे समूह ने भी उस नदी में अपने पद-प्रक्षालन का लाभ लिया। उस नदी के तट पर ही ऋग्वेद पाठशाला है। इसके साथ बने मन्दिर में हमने कुछ विद्यार्थियों को उच्चारणानुच्चारण विधि से मंत्रों का अयास करते देखा। सुयोग्य गुरु के निरीक्षण में उनके शुद्ध उच्चारण आकर्षण का केन्द्र रहे। यहाँ से बस द्वारा हम गुरुवायुर मन्दिर देखने पहुँचे, परन्तु समय से न पहुँचने के कारण वहाँ निकट के संग्रहालय को देख व मन्दिर परिसर में भोजन कर आगे बढ़े। इस मन्दिर में केवल भारतीय परिधान-वह भी पुरुषों को केवल कटिवस्त्र में ही भोजन ग्रहण करने का नियम है।

अगले चरण में हम बस द्वारा ही कालीकट द्वीप (समुद्री तट) पर सांयकाल पहुँचे। समूह के अधिकांश लोगों ने प्रथम बार समुद्री स्नान का आनंद लिया। अथाह अनन्त जल राशि अपनी लहरों से मानो साक्षात् आमंत्रित कर रही हो-यह रोमांचकारी अहसास मानस पटल पर लंबे समय तक रहेगा। रात्रि होने तक हम कश्यप आश्रम पहुँच चुके थे। इस यात्रा में एक मनोरंजक घटना भी हुई। प्रतिदिन सोमयाग के ऋत्विकों के सस्वर मंत्रपाठ व शुद्धीकरण और संकेतक के रूप में किये जाने वाले हस्त संचालन के हम इतने अयस्त हो चुके थे कि अनेक बार स्वयं भी वैसा अभिनय करने लगते। बस में भी भ्राता शक्तिनंदन जी (जो इस योग से संबंधित प्रक्रियाओं के सर्वाधिक ज्ञाता हैं) एक श्लोकोच्चारण कर रहे थे तो मेरे द्वारा टोकने पर चौंक पड़े और आश्चर्य मिश्रित प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगे, पर जब मैंने स्वर संकेतक हस्त संचालन किया तो उन्हें भी समझते देर नहीं लगी कि यह केवल उनकी खिंचाई भर है और अन्य साथी भी हँसे बिना न रह सके।

कश्यप आश्रम पहुँचने पर हमारा स्वागत परंपरागत तरीके से दीप थाली आदि के माध्यम से हुआ। यह आश्रम श्री एन.आर. राजेश (आचार्य) जी द्वारा संचालित है। आप गुरुकुल काँगड़ी से स्नातकोत्तर स्तर तक शिक्षा प्राप्त हैं। आपके विदेश प्रवास के कारण अन्य सहयोगियों द्वारा चलचित्र के माध्यम से आश्रम की गतिविधियों का परिचय करवाया गया। वहाँ आचार्य सत्यजित् जी का उद्बोधन हुआ। प्रथम बार तुलसीदल की माला देखी जो आचार्य जी को अभिनन्दन के लिये पहनाई गई थी। (विदित हो कि तुलसी के तने की माला तो प्रसिद्ध है, परन्तु तुलसी दल (पत्तों)की नहीं।) यहाँ के रल की प्रथम महिला पुरोहित से मिलने का अवसर मिला। श्री एम.आर. राजेश जी के प्रयासों से केरल में ढाई लाा लोग प्रतिदिन उाय समय अग्निहोत्र करते हैं। इस जानकारी ने हमारे समूह में भी उत्साह का संचार किया। विशेष जानकारी इस सभा में यह प्राप्त हुई कि केरल प्रदेश की भाषा मलयालम में सत्य सनातन पुस्तक वेद का अर्थ होता है-बाइबिल, अतः जब एम.आर. राजेश (आचार्य) जी शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् अपने गृहस्थान पहुँचे और उन्होंने सभी को वेद पढ़ने के अपने संकल्प से परिचित कराया तो लोगों में चर्चा प्रारंभ हुई कि एक और बाह्मण का लड़का ईसाई बन गया है। पर आचार्य राजेश जी ने इससे निराश हुए बगैर अत्यंत उत्साह से कार्य किया  और वेद का वास्तविक स्वरूप लोगों के समुख रखा और उन्हें अग्निहोत्रादि आदि के लिए तत्पर किया। इस क्रान्तिकारी कार्य के लिए आचार्य जी बधाई के व धन्यवाद के पात्र हैं। रात्रि भोजन वहीं किया। वहीं पहली बार केरल में गेहूँ की रोटी के दर्शन हुए।

वहाँ से चलकर लगभग मध्य रात्रि तक हम अपने आवास स्थलों पर पहुँचे। अगली प्रातः पुनः स्नानादि से निवृत्त होकर हम श्री के.एम. राजन जी द्वारा स्थापित व आचार्य वामदेव जी द्वारा संचालित गुरुकुल देखने गये। स्वस्तिवाचन के मंत्रों व पारंपरिक विधियों से स्वागत के पश्चात् यज्ञ किया गया। इस गुरुकुल में गौशाला के उद्घाटन का यह अवसर था। यहाँ सिंगापुर से पधारे आर्यों ने भी अपने विचार रखे। आचार्य श्री सत्यजित् जी का प्रेरक मार्गदर्शन गुरुकुल की व्यवस्था के संबंध में मिला। यह गुरुकु ल नित्य उन्नति करे-ईश्वर से ऐसी प्रार्थना है। आचार्य वामदेव जी बहुत सक्रिय व जुझारू विद्वान् हैं।

अग्निहोत्र व ब्रह्मयज्ञ आदि सिखाने की कार्यशाला के आयोजन में लगभग 25 बालक-बालिकओं युवाओं व महिलाओं को प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था। उसके प्रमाणपत्रों का वितरण भी स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी व आचार्य सत्यजित् जी द्वारा हुआ।

यहाँ से हम डॉ. शशिकुमार जी के निवास पर पहुँचे। डॉ. साहब आचार्य जी के सहपाठी रहे हैं व आयुर्वेद पंचकर्म के वियात चिकित्सक हैं। यहाँ उनकी रसायन शाला व चिकित्सालय को भी देखने व आयुर्वेद संबंधी बहुत-सी जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिला। परंपरागत वैद्यक का पक्षधर होने से उनके यहाँ अति प्राचीन दुर्लभ वैदक ग्रंथों को भी देखने का अवसर मिला।

यहाँ से कुछ दूरी पर स्थित स्वामी प्रणवानन्द जी के संरक्षण में चल रहे गुरुकुल को भी देखने का हमें अवसर मिला।

आर्ष गुरुकुल के निकट ही श्री राजन जी ने अपने निवास में एक पुस्तकालय निर्मित किया है, जिसमें आर्ष ग्रन्थों व सैद्धान्तिक मलयालम ग्रंथों को रखा गया है। यहाँ से दोपहर बाद तक हम लोग वापस याग स्थली लौट आये।

सोम याग में औषधि सोमलता का रस निचोड़कर उससे आहुति देने का विधान है। इस औषधि के अत्यन्त दुर्लभ होने से इसके विकल्प या प्रतिनिधि के रूप में पूतिक नामक वनस्पति का उपयोग किया जाता है। केरल में कहीं-कहीं यह सोमलता उपलध हो जाती है। इस सोमयाग में वास्तविक सोमलता को ही लाया गया व प्रयोग किया गया। सोमरस निकालने के समय पढ़े जाने वाले मंत्रों का उच्चारण कर्त्ता 6 वर्ष की आयु का बालक नारायण था जो नियमपूर्वक एक साँस में सस्वर उन मंत्रों का पाठ करता था। मधुर स्वर से किये जाने वाले इस साहसिक पाठ के आनन्द का शबदों द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता। अन्तिम दिन शाला दहन का कार्यक्रम था। सपूर्ण कर्मकाण्ड के अंत में यज्ञ-शाला मण्डप को अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। इस कृत्य को देखने के लिये अपार जन-मानस उपस्थित था। सांयकाल शाला दहन के पश्चात् ही सभी वापस राजस्थान के लिये निकल पड़े। मलयालम में केर शबद नारियल के लिये प्रयोग होता है और नारियल के वृक्षों की बहुतायत होने से ही संभवतः इस प्रदेश का नाम केरल है। ग्रन्थों में नारियल की तुलना सज्जनों से की जाती है और केरल के लोगों की सज्जनता का अनुभव हमने इस अष्ट दिवसीय प्रवास में निर्विवाद रूप से किया है। आज 2 सप्ताह व्यतीत हो जाने पर भी याग व केरल के लोगों की आत्मीयता व सहयोग मन मस्तिष्क पर छाये हुए हैं। सच ही कहा है-

देशाटनं पण्डितमित्रता च वाराङ्गना राजसभा प्रवेशः।

अनेक शास्त्राणि विलोकितानि चातुर्यमूलानि भवन्ति पञ्च।।

ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

यज्ञ से विभिन्न रोगों की चिकित्सा

ओउम
यज्ञ से विभिन्न रोगों की चिकित्सा
प्रेषक : डा. अशोक आर्य ,
यज्ञ पर्यावरण की शुद्धि का सर्वश्रेष्ठ साधन है | यह वायुमंडल को शुद्ध रखता है | वर्षा होकर धनधान्य की आपूर्ति होती है | इससे वातावरण शुद्ध व रोग रहित होता है |एक ऐसी ओषध है जो सुगंध भी देती है, पुष्टि भी देती है तथा वातावरण को रोगमुक्त रहता है | इसे करने वाला व्यक्ति सदा रोग मुक्त व प्रसन्नचित रहता है | इतना होने पर भी कभी कभी मानव किन्ही संक्रमित रोगाणुओं के आक्रमण से रोग ग्रसित हो जाता है | इस रोग से छुटकारा पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की दवा लेनी होती है | हवन यज्ञ जो बिना किसी कष्ट व् पीड़ा के रोग के रोगाणुओं को नष्ट कर मानव को शीघ्र निरोग करने की क्षमता रखते हैं | इस पर अनेक अनुसंधान भी हो चुके हैं तथा पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं | डा. फुन्दन लाल अग्निहोत्री ने इस विषय में सर्वप्रथम एक सुन्दर पुस्तक लिखी है “यज्ञ चिकित्सा’ | संदीप आर्य ने यज्ञ थैरेपी नाम से भी एक पुस्तक लिखी है | इस पुस्तक का प्रकाशन गोविंद राम हासानंद ४४०८ नयी सड़क दिल्ली ने किया है | इन पुस्तकों में अनेक जड़ी बूटियों का वर्णन किया गया है , जिनका उपयोग विभिन्न रोगों में करने से बिना किसी अन्य ओषध के प्रयोग के केवल यज्ञ द्वारा ही रोग ठीक हो जाते हैं | इन पुस्तकों के आधार पर आगे हम कुछ रोगों के निदान के लिए उपयोगी सामग्री का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि यदि इस सामग्री के उपयोग सेपूर्ण आस्था के साथ यज्ञ किया जावे तो निश्चत ही लाभ होगा |
कैंसर नाशक हवन
गुलर के फूल, अशोक की छाल, अर्जन की छाल, लोध, माजूफल, दारुहल्दी, हल्दी, खोपारा, तिल, जो , चिकनी सुपारी, शतावर , काकजंघा, मोचरस, खस, म्न्जीष्ठ, अनारदाना, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, ,गंधा विरोजा, नारवी ,जामुन के पत्ते, धाय के पत्ते, सब को सामान मात्रा में लेकर चूर्ण करें तथा इस में दस गुना शक्कर व एक गुना केसर दिन में तीन बार हवन करें |
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संधि गत ज्वर ( जोड़ों का दर्द )
संभालू ( निर्गुन्डी ) के पत्ते , गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, रल आदि का संभाग लेकर चूरन करें , घी मिश्रित धुनी दें, हवं करीं
निमोनियां नाशक
पोहकर मूल, वाच, लोभान, गुग्गल, अधुसा, सब को संभाग ले चूरन कर घी सहित हवं करें व धुनी दें |
जुकाम नाशक
खुरासानी अजवायन, जटामासी , पश्मीना कागज, लाला बुरा ,सब को संभाग ले घी सचूर्ण कर हित हवं करें व धुनी दें |
पीनस ( बिगाड़ा हुआ जुकाम )
बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, नीम के पत्ते, वा|य्वडिंग,सहजने की छाल , सब को समभाग ले चूरन कर इस में धूप का चूरा मिलाकर हवन करें व धूनी दें
श्वास – कास नाशक
बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, वच, पोहकर मूल, अडूसा – पत्र, सब का संभाग कर्ण लेकर घी सहित हवं कर धुनी दें |
सर दर्द नाशक
काले तिल और वाय्वडिंग चूरन संभाग ले कर घी सहित हवं करने से व धुनी देने से लाभ होगा |
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चेचक नाशक – खसरा
गुग्गल, लोभान, नीम के पत्ते, गंधक , कपूर, काले तिल, वाय्वासिंग , सब का संभाग चूरन लेकर घी सहित हवं करें व धुनी दें
जिह्वा तालू रोग नाशक
मुलहठी, देवदारु, गंधा विरोजा, राल, गुग्गल, पीपल, कुलंजन, कपूर और लोभान सब को संभाग ले घी सहित हवं करीं व धुनी दें |
टायफायड :
यह एक मौसमी व भयानक रोग होता है | इस रोग के कारण इससे यथा समय उपचार न होने से रोगी अत्यंत कमजोर हो जाता है तथा समय पर निदान न होने से मृत्यु भी हो सकती है | उपर्वर्णित ग्रन्थों के आधार पर यदि ऐसे रोगी के पास नीम , चिरायता , पितपापदा , त्रिफला , आदि जड़ी बूटियों को समभाग लेकर इन से हवन किया जावे तथा इन का धुआं रोगी को दिया जावे तो लाभ होगा |
ज्वर :
ज्वर भी व्यक्ति को अति परेशान करता है किन्तु जो व्यक्ति प्रतिदिन यग्य करता है , उसे ज्वर नहीं होता | ज्वर आने की अवास्था में अजवायन से यज्ञ करें तथा इस की धुनी रोगी को दें | लाभ होगा |
नजला, , सिरदर्द जुकाम
यह मानव को अत्यंत परेशान करता है | इससे श्रवण शक्ति , आँख की शक्ति कमजोर हो जाते हैं तथा सर के बाल सफ़ेद होने लगते हैं | लम्बे समय तक यह रोग रहने
पर इससे तायिफायीद या दमा आदि भयानक रोग भी हो सकते हैं | इन के निदान के लिए मुनका से हवन करें तथा इस की धुनी रोगी को देने से लाभ होता है |
नेत्र ज्योति

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नेत्र ज्योति बढ़ाने का भी हवन एक उत्तम साधन है | इस के लिए हवन में शहद की आहुति देना लाभकारी है | शहद का धुआं आँखों की रौशनी को बढ़ता है
मस्तिष्क को बल
मस्तिष्क की कमजोरी मनुष्य को भ्रांत बना देती है | इसे दूर करने के लिए शहद तथा सफ़ेद चन्दन से यग्य करना चाहिए तथा इस का धुन देना उपयोगी होता है |
वातरोग
: वातरोग में जकड़ा व्यक्ति जीवन से निराश हो जाता है | इस रोग से बचने के लिए यज्ञ सामग्री में पिप्पली का उपयोग करना चाहिए | इस के धुएं से रोगी को लाभ मिलता है |
मनोविकार
मनोरोग से रोगी जीवित ही मृतक समान हो जाता है | इस के निदान के लिए गुग्गल तथा अपामार्ग का उपयोग करना चाहिए | इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |
मधुमेह :
यह रोग भी रोगी को अशक्त करता है | इस रोग से छुटकारा पाने के लिए हवन में गुग्गल, लोबान , जामुन वृक्ष की छाल, करेला का द्न्थल, सब संभाग मिला आहुति दें व् इस की धुनी से रोग में लाभ होता है |
उन्माद मानसिक
यह रोग भी रोगी को मृतक सा ही बना देता है | सीताफल के बीज और जटामासी चूरन समभाग लेकर हवन में डालें तथा इस का धुआं दें तो लाभ होगा |
चित्भ्रम
यह भी एक भयंकर रोग है | इस के लिए कचूर ,खास, नागरमोथा, महया , सफ़ेद चन्दन, गुग्गल, अगर, बड़ी इलायची ,नारवी और शहद संभाग लेकर यग्य करें तथा इसकी धुनी से लाभ होगा |
पीलिया

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इस के लिए देवदारु , चिरायत, नागरमोथा, कुटकी, वायविडंग संभाग लेकर हवन में डालें | इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |
क्षय रोग
यह रोग भी मनुष्य को क्षीण कर देता है तथा उसकी मृत्यु का कारण बनता है | ऐसे रोगी को बचाने के लिए गुग्गल, सफेद चन्दन, गिलोय , बांसा(अडूसा) सब का १०० – १०० ग्राम का चूरन कपूर ५- ग्राम, १०० ग्राम घी , सब को मिला कर हवन में डालें | इस के
धुएं से रोगी को लाभ होगा |
मलेरिया
मलेरिया भी भयानक पीड़ा देता है | ऐसे रोगी को बचाने के लिए गुग्गल , लोबान , कपूर, हल्दी , दारुहल्दी, अगर, वाय्वडिंग, बाल्छाद, ( जटामासी) देवदारु, बच , कठु, अजवायन , नीम के पते समभाग लेकर संभाग ही घी डाल हवन करें | इस का धुआं लाभ देगा |
अपराजित या सर्वरोग नाशक धुप
गुग्गल, बच, गंध, तरीन, नीम के पते, अगर, रल, देवदारु, छिलका सहित मसूर संभाग घी के साथ हवन करें | इसके धुआं से लाभ होगा तथा परिवार रोग से बचा रहेगा|
डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्टमैंट कौशाम्बी जिला गाजियाबाद उ. प्र.
चलभाष ०९८११५२७९३५

पत्थर भी डर जाते हैं

पत्थर भी डर जाते हैं
क्या बेजान अर्थात् जड़ पदार्थ भी डर सकते हैं डरने के लिए चेतनता की आवश्यकता होती है। कुरान की इस आयत को उचित होना साबित करें
देखिये कुरान में कहा गया है कि-
सुम्-म क-सत् कुलूबुकुम् मिम्बअ्दि……।।
(कुरान मजीद पारा १ सूरा बकर रूकू ९ आयत ७४)
….. और बाज पत्थर ऐसे भी हैं जो अल्लाह के डर से गिर पड़ते हैं।
समीक्षा
डर उसे लगता है जिसमें दिल व दिमाग होता है और वह चेतन व जानदार होता है। पत्थर तो बेजान अर्थात् जड़ पदार्थ है, ‘‘पत्थर का खुदा से डरना’’ ऐसा लिखना कम समझी की बात है। पता नहीं अरबी खुदा इतनी सी मोटी बात भी क्यों नहीं समझता था?

पुस्तक – समीक्षा पुस्तक का नाम – सत्यार्थप्रकाश का व कशासाठी?

पुस्तक – समीक्षा

पुस्तक का नाम – सत्यार्थप्रकाश का व कशासाठी?

लेखक माधव के देशपांडे

प्रकाशक आर्य प्रकाशन, पिंपरी, पुणे-411018

मूल्य 60/-    पृष्ठ संया– 93

सत्यार्थप्रकाश एक चर्चित ग्रन्थ है, जितना क्रान्तिकारी व्यक्तित्व स्वामी दयानन्द का है, उतने ही क्रान्तिकारी विचार उनके लिखे ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में है। यह ग्रन्थ जब प्रकाशित हुआ था, तब जितना चर्चित था, आज भी चर्चा में इस ग्रन्थ का उतना ही महत्त्व है। यह ग्रन्थ वैदिक सिद्धान्त मानने वाले के लिये बौद्धिकता की पराकाष्ठा प्रदान करता है, वहाँ विरोधी विचार वाले को बुद्धि का उपयोग करने के लिये बाध्य करता है।

भारत में हिन्दू धर्म में प्रचलित जितने मत-सप्रदाय हैं, उन सब में जितनी मान्यतायें, रूढि, अन्धविश्वास और पाखण्ड पर आधारित हैं, उन सबका तार्किक विश्लेषण इस ग्रन्थ में उपलध है। जो विदेशी स्वयं पाखण्ड में फँसे हुये थे, परन्तु हिन्दुओं की मूर्खता पर हँसने में बड़प्पन समझते थे, उन विदेशी मतों में मुखय रूप से ईसाइयत और इस्लाम की मिथ्या धारणाओं का भी तार्किक खण्डन इस ग्रन्थ के 13 वें और 14 वें समुल्लास में किया गया। ग्रन्थ की इस विवेचना के कारण ही क्रान्तिवीर सावरकर ने लिखा था- ‘‘सत्यार्थ प्रकाश के रहते कोई विदेशी अपने मत की डींगें नहीं हाँक सकता।’’

इस ग्रन्थ में तार्किक और न्याय संगत विचार होने के कारण जितने भी बुद्धिजीवी समाज में हुये, सबने मुक्तकण्ठ से इस ग्रन्थ की प्रशंसा की है। आर्य समाज और ऋषि दयानन्द के सपर्क में जो विद्वान् नेता, राजा-महाराजा आये, उन्होंने इस ग्रन्थ को पढ़ने की प्रेरणा सबको की।

दक्षिण में छत्रपति शाहू महाराज ने अपने विद्यालयों में सत्यार्थप्रकाश पढ़ाने की अनिवार्यता की थी। जोधपुर, उदयपुर राज्यों में भी ऋषि ग्रन्थों के पठन-पाठन की व्यवस्था अनेक स्थानों पर की गई। शाहपुराधीश नाहरसिंह वर्मा का शाहपुरा राज्य आर्य राज्य कहलाता था। यहाँ विद्यालयों में प्रतिदिन हवन होता था तथा विद्यालयों में ऋषि कृत ग्रन्थों के पठन-पाठन की व्यवस्था की गई थी।

इस ग्रन्थ की भाषा तार्किक होने के साथ दृढ़ता प्रदर्शित करती है, जिसके कारण जिन मत-मतान्तरों का इसमें खण्डन किया गयाहै, उनमें से कुछ लोगों ने इस पर आपत्ति की तो कुछ लोगों ने न्यायालय की शरण ली, परन्तु इस ग्रन्थ के पक्षपात रहित न्याय संगत तार्किक विचारों का सर्वत्र आदर किया गया। इस ग्रन्थ को पढ़ने के बाद मनुष्य की विचार करने की शक्ति जागृत हो जाती है। वह कुछ भी करने से पहले क्या, क्यों, कैसे, जैसे प्रश्नों पर उन विचारों को परखता है तभी अनुकूल होने पर स्वीकृति की ओर बढ़ता है।

ऋषि दयानन्द की ऐसी विशेषता है कि जो किसी प्रचलित गुरुओं के धर्मग्रन्थ हैं, उनमें दिखाई नहीं देती, कोई गुरु अपने शिष्य को उसकी परीक्षा करने का अधिकार नहीं देता, परन्तु ऋषि दयानन्द कहते हैं- मनुष्य को गुरु बनाने से पहले गुरु की ओर से पढ़े जाने वाले शास्त्र की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए। गुरु का तो, शिष्य की परीक्षा का अधिकार था, परन्तु शिष्य को गुरु की परीक्षा करने का अधिकार ऋषि दयानन्द ही देते हैं। वे सत्यार्थ प्रकाश में परीक्षा के पाँच प्रकार भी बताते हैं। इसी कारण जहाँ अन्य गुरु अपने शिष्य को ज्ञान और विवेक का अधिकार नहीं देते, वहीं ऋषि दयानन्द शिष्य को ज्ञानवान् और विवेकी बनने की प्रेरणा करते हैं।

इस प्रकार जीवन के सभी क्षेत्र और सभी अवसर सत्यार्थप्रकाश के विचार क्षेत्र में आते हैं। मनुष्य के बाल्य से लेकर मृत्यु तक की अवधि हो या विविध ज्ञान-विज्ञान को समझने के अवसर हों, इसी कारण सत्यार्थप्रकाश के 7, 8, 9 वें समुल्लास में सपूर्ण दार्शनिक पक्ष प्रस्तुत किया गया है।

ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को मराठी भाषा में प्रश्नोत्तर शैली में प्रस्तुत करने का सफल प्रयास श्री माधव देशपाण्डे ने किया है। श्री देशपाण्डे ने स्वयं और अपनी धर्मपत्नी और अपने बच्चों को इस ग्रन्थ के माध्यम से प्रबुद्ध बनाया है और अब वे समाज के युवाओं को भी इस उत्कृष्ट विचार से जोड़ना चाहते हैं। मैं इनके इस उत्तम प्रयास की प्रशंसा करता हूँ और ग्रन्थ के लोकप्रिय होने की कामना करता हूँ।

-डॉ. धर्मवीर

 

उदारता व दान की प्रतिमूर्ति गार्गी

ओ३म
उदारता व दान की प्रतिमूर्ति गार्गी
डा. अशोक आर्य
भारतीय नारियों ने जिस भी क्शेत्र में पग धरा , उस क्शेत्र में ही अपूर्व सफ़लता प्राप्त करने के कारण उसका डंका बजा तथा उसका नाम इतिहास में अमर हो गया । एसी अनेक वेद विदुषी , गयान की ज्योति जलाने वाली , युद्ध क्शेत्र की वीरांनाएं तथा अन्य विभिन्न क्शेत्रों में भी इन नारियों का लोहा आज भी संसार मानता है । एसी ही सुप्रसिद्ध नारियों में गार्गी भी एक थी ।
गार्गी का नाम प्राचीन वैदिक काल से ही , उस की विशेष योग्यता के कारण, सुप्रसिद्ध रहा है । गार्गी का नाम क्या था ? , यह तो ग्यात नहीं किन्तु गर्ग गोत्र में जन्म लेने के कारण यह गार्गी के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुई । इस की तीव्र बुद्धि तथा अत्यदिक शिक्शित होने के कारण इस का नाम सर्वत्र विख्यात हुआ तथा सर्वत्र इस नाम को स्म्मान मिला ।
कहा जाता है कि राजा जनक ने अपने यहां एक विशाल यग्य रचाया । इस यग्य में भाग लेने देश भर से बडे बडे विद्वानों ने भाग लिया । यह यग्य इतना विशाल था कि यह कई दिनों तक निरन्तर अबाध गति से चलता रहा । इस यग्य में लाखों मन घी , जौ , चावल , चन्दन व अन्य सामग्री का प्रयोग हुआ । जब यह यग्य चल ही रहा था कि एक दिन राजा जनक के मन में यह विचार उट खडा हुआ तथा वह सोचने लगे कि इस यग्य को सम्पन्न करने के लिए देश भर के सुप्रसिद्ध व उच्चकोटि के विद्वान लोग यहां पधारे हैं । सब ही अपनी अपनी विद्वता के लिए सुप्रसिद्ध व सर्व विख्यात हैं । इन की कोई स्पर्द्धा नहीं की जा सकती किन्तु फ़िर भी यह जानना चाहिये कि इन में से भी सर्वाधिक विद्वान कौन है ? कई दिन वह यह उपाय खोजने में ही लगे रहे कि सर्वाधिक विद्वान का पता भी लगा लिया जावे तथा इस स्पर्धा का किसी को पत्ता भी न लग सके , अन्यथा विद्वान लोग कुपित हो कर कोई अनर्थ करने का कारण बन जावेंगे । इस प्रकार का विचार करते हुए अन्त में एक दिन वह एक निष्कर्ष पर पहुंचे ।
राजा ने अपनी योजना के अनुसार अपनी गौशाला में एक हजार गायें बंधवा कर प्रत्येक गाय के सींग पर दस दस तोला , आज की भाषा में लगभग एक एक सौ ग्राम सोना बांध दिया । अब राजा जनक ने विद्वानों की मण्डली में यह घोषणा कर दी कि जिस भी व्यक्ति को ईश्वर के सम्बन्ध में सर्वाधिक जानकारी है ,वह नि:संकोच यह सब की सब गोएं खोलकर अपने साथ ले जा सकता है । उस युग में तो व्यक्ति की सम्पन्नता का माप द्ण्ड ही गाय होती थी सर्वाधिक गाय के मालिक को ही सर्वधिक धन्वान माना जाता था । इस प्रकार एक हजार गाय तथा प्रत्येक गाय के साथ एक सौ ग्राम सोना कौन नहीं लेना चाहेगा ।
राजा की इस विचित्र घोषणा को सुन कर सब विद्वान सन्न से रह कर एक दूसरे का मुख देखने लगे किन्तु कोई भी एक हजार तो क्या मात्र एक गाय को भी खोलने की हिम्मत न कर रहा था । इस का कारण यह था कि सब विद्वान जानते थे कि जिसने भी इन गायों को हाथ डालने का यत्न किया , वह ही अन्य सब विद्वानों के तिरस्कार का कारण होगा , सब ग्यानी लोग उसे घमण्डी , अहंकारी, अभिमानी व लालची समझेंगे । यह भी हो सकता है कि अन्य सब विद्वान मिलकर उससे शास्त्रार्थ करने लगें । इतने विशाल समूह का मुकाबला करना मेरे लिए सम्भव न हो पावेगा । इन सब के भारी भरकम प्रश्नों का उतर मैं कैसे दूंगा ? कोई मुझे घमण्डी कहेगा , कोई मुझे लालची कहेगा, कोई कहेगा कि मैं अपने आप को बहुत बडा विद्वान मानता हूं । उस युग में अपने बड्प्पन का बखान करने की परम्परा भी न थी । इस कारण किसी एक विद्वान ने भी राजा के आह्वान को स्वीकार न किया तथा किसी ने भी गाय की रस्सी को छुआ तक भी नहीं ।
राजा जनक के यग्य में उपस्थित विद्वत मण्ड्ली में रिशी याग्य्वल्क्य भी पधारे हुए थे । जब उन्होंने देखा कि कोई भी इन गायों को खोलने का साहस नहीं कर रहा । इस से यह सिद्ध होगा कि यहां पर कोई भी बडा विद्वान नहीं आया है । यह विचार कर उन्होंने अपने एक शिष्य को कहा कि उटो ! इन गायों को खुंटे खोल लो ओर बांध कर ले चलो । रिषि के यह शब्द सुन कर उपस्थित सब ब्राह्म्ण क्रोध से लाल हो उटे । सब ब्राह्म्ण एक दम से बिगड उटे । अब उपस्थित पुरोहित लोगों ने उनसे प्रश्न किया ” यह विद्वानों की एक विशाल सभा है । इतनी बडी सभा में क्या तुम स्वयं को सर्वाधिक महान विद्वान समझते हो ?”
राजा जनक के इन पुरोहित ब्राह्म्णों के इन कटाक्श पूर्ण सब्दों से भी याग्य्वल्क्य को किंचित भी क्रोध नहीं आया तथा अपने शिष्य्लों को अपना कार्य इरन्तर जारी रखने का आदेश देते हुए बोले ” नहीं मैं अपने को सब्से बड विद्वान नहीं मानता । इस सबा में जितने भी विद्वान उपस्थित हैं , उनकी महान योग्यता के लिए मैं सब को नमस्ते करता हूं , सब के सामने आदर पूर्वक नमन करता हूं । बस हमारे आश्रम में एक लम्बे काल से गोवों की कमीं अनुभव हो रही र्थी । इन गोवों के जाने से यह कमीं दूर हो जावेगी , इस लिए मैं इन्हें ले जा रहा हूं ।”
रिषि के इस आदर पूर्वक दिए गए इस उतर से सब ब्राह्म्णों का क्रध भड्क उटा तथा सबके सब चिल्ला कर बोले कि “इन गोवों के ले जाना है ति हम से शास्त्रार्थ करना होगा , विजयी होने पर ही आप इन को यहाम से ले जा सकोगे । कुछ ही समय में शास्त्रार्थ आरम्भ हो गया , एक दूसरे को नीचा दिखाने का कर्य आरम्भ हो गया ।
इस शास्त्रार्थ में इस सभा का एक एक विद्वान प्रश्न पूछत्ता तथा उस प्रश्न का याग्यवल्क्य बडी चतुराई , बडी नम्रता, बडी तन्मयता तथा बडी सफ़लता से उतर देते जाते थे । प्रत्येक वक्ता का उद्देश्य याग्यवल्क्य को पराजित करना था , इस कारण कटिन से कटिन प्रश्न पूछे जा रहे थे किन्तु इन प्रश्नों से यग्यवलक्य तनिक भी न घबरा रहे थे , बडी सूझ व समझदारी से शान्ती पूर्वक इन प्रश्नों का उतर दे कर उन्हें शान्त करने का यत्न कर रहे थे । प्रश्न कर्ता को जब सही उतर मिल जाता तो उसे चुप होना पडता । राजा जनक भी विद्वता में कुछ भी कम नहीं थे । वह भी बहुत रस ले कर इस शास्त्रार्थ को सुन रहे थे तथा इस का रसास्वादन कर रहे थे । विद्वानों ने भरपूर प्रश्न किये ओर याग्यवल्क्य ने सबको बडी शालीनता से उतर दिए । परिणाम स्वरूप एक एक कर सब विद्वान निरुतर हो इस शास्त्रर्थ से पीछे हटने लगे ओर अन्त में सब चुप हो गए ।
जब सब विद्वान निरुतर हो चुप हो गए तो इस सभा में उपस्थित गार्गी ने भी प्रश्न करने की आग्या चाही । राजा जनक जानते थे कि भारत की नारियां भी विद्वता में किसी से कम नहीं हैं । इस कारण उन्होंने उसे सहर्ष प्रश्न करने की स्वीक्रिति दे दी । गार्गी ने भी याग्यवल्क्य से अनेक प्रश्न पूछे तथा याग्यवल्क्य उस के प्रश्नों का भी बडी शालीनता से उतर देते गए किन्तु इन विद्वतापूर्ण प्रश्नों के कारण गार्गी उच्चकोटी के प्रश्नों के कारण उसकी विद्वता की धाक सब विद्वानों ने स्वीकार कर ली ।
गार्गी के प्रश्नों से सब को यह बात स्पष्ट हो रहा थी कि वह जिस भी विषय का प्रश्न पूछ रही थी, उस विष्य का समग्र नहीं तो अत्यधिक ग्यान तो उसे था ही । वह बडे सोच समझ कर , बडी छानबीन के साथ अपने प्रश्न रख रही थी । इस प्रकार के गहन प्रश्नों में एक एसा प्रश्न आ ही गया , जिस पर याग्यवल्क्य को रुक जाना पडा , निरुतर होना पडा , वह गार्गी के इस प्रश्न का उतर न दे सके ।
गार्गी बडी बुद्दिमान महिला थी । वह किसी को अपमानित करने के लिए इस सभा में नहीं आई थी तथा इस उद्देश्य से उसने अपने प्रश्न पूछने आरम्भ नहीं किए थे । याग्यवल्क्य को तो वह किसी भी अवस्था में अपमानित नहीं करना चाहती थी क्योंकि वह अपने समय के एक बहुत बडे या यूं कहें कि अन्यतम विद्वान थे । अत: उसने तत्काल यह घोषणा उस सभा में सबए सामने कर दी कि ” याग्यवल्क्य एक अन्यतम विद्वान हैं , एसा कोई नहीं है जो उन्हें हरा सके , पराजित कर सके ।”
गार्गी चाह्ती तो इस सभा में जहां उसने अपनी विद्वता की धाक जमाई थी,वहां याग्यवल्क्य को पराजित बता कर सर्वोतम विद्वान के पद पर आरूट हो सकती थी किन्तु नहीं जैसी वह उदार व दानी थी , एसी महिलाओं के कारण ही हमारा यह देश निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर रहा है । अत: गार्गी विश्व के विद्वानों के लिए ज्योति स्तम्भ के रुप में जानी जाती है ।

दर्शना देवी डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्ट्मेन्ट, कौशाम्बी,गाजियाबाद २०१०१०
चलवार्ता ०९७१८५२८०६८
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खुदा फौज लेकर लड़ने गया

खुदा फौज लेकर लड़ने गया

खुदा जब फौज लेकर लड़ने गया तो वह मदद के लिये फौजों का मुहताज रहा। इन्सान के मुकाबिले पर खुदा सेना के साथ लड़ने जावे तो वह खुदा कादिरेमुतलक अर्थात् सर्वशक्तिमान कैसे रहा?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

इज यूही रब्बु-क इलल्-मला इकति…………।।

(कुरान मजीद पारा ९ सूरा अन्फाल रूकू २ आयत १२)

ऐ पैगम्बर! यह वक्त था जब कि तुम्हारा परवर्दिगार फरिश्तों को (युद्ध क्षेत्र में) आज्ञा दे रहा था कि हम तुम्हारे साथ हैं। तुम मुसलमानों को जमाये रखो, हम जल्द काफिरों के दिलों में डर डाल देंगे, बस! तुम इनकी गर्दनें मारो और इनके टुकड़े कर डालो।

समीक्षा

खुदा आदमियों से फरिश्तों की फौज लेकर लड़ाई के मैदान में लड़ने जाया करता था और अपनी कायर फौज की हिम्मत बंधाता था, यह बात भी अरबी कुरानी खुदा की असलियत को खोलने वाली है। अतः कुरान खुदा को सर्वशक्तिमान नहीं मानता है।

इस्लामी खुदा भी एक मामूली सेनापति अर्थात सिपहसालार जैसा ही था। इन्जील में प्रकाशित वाक्य नाम के अध्याय ९ वाक्य १६ में लिखा है कि-

‘‘खुदा के पास बीस करोड़ घुड़सवार सेना रहती है’’

और फौजें कितनी हैं? यह नहीं बताया है किन्तु अरबों खरबों से क्या कम होंगी?

यह फौजें खुदा की रक्षा के लिये उसके पास रहती हैं। यदि यह न हों तो हो सकता है कि दुश्मन खुदा पर हावी हो जावें।

मन का व्यापक कार्यक्षेत्र

मन का व्यापक कार्यक्षेत्र
.. ऋग्वेद १०.१६४.१ अथर्ववेद २०.९६.२४
मन्त्र पाठ : –
अपेहि मंसस्पते$म काम परश्चर |
पारो निर्रित्या आचक्ष्व बहुधा जीवतो मन: ||
ऋग्वेद १०.१६४.१ अथर्ववेद २०.९६.२४
इस मन्त्र में मन के व्यापक कार्यक्षेत्र की चर्चा कि गयी है | मन जागृत अवस्था में नहीं , अपितु स्वप्न आवस्था में भी क्रियाशील रहता है | मन्त्र में दुस्वप्न के नाशन का विधान है |
स्वप्न के भेद : –
स्वप्न के दो भेद हैं — एक- सुखद और दूसरा – दू:खद | दू:खाद स्वप्नों को दू:स्वप्न कहते हैं | दू:स्वप्न के कारण पाप, दुर्विचार, कम, क्रोध आदि हैं | जागृत अवस्था मैं मनोनिग्रह के द्वारा पाप आदि का निरोध होता है , परन्तु स्वप्न अवस्था में बुरे स्वप्न मनुष्य को दू:खित और चिंतित करते हैं | अत: मन्त्र में बुरे स्वप्नों को दूर करने के लिए पाप के देवता को भगाने का उल्लेख है |
पाप का देवता कौन है : –
पाप का देवता भी मन है , अत: उसे मंसस्पति कहा गया है | दुर्विचार, दुर्भाव ,अनिष्ट – चिंतन , कम क्रोध आदि के भावों के निग्रह का कम भी मन करता है , अत: उसके पवित्रीकरण पर बल दिया गया है |
मन्त्र के अंतिम पद में यही बात स्पष्ट की गयी है कि मनुष्य का मन अनेक प्रकार का है | वह कभी बुराई की ओर जाता है , कभी अच्छाई कि ओर | दुर्गुणों के कारण बुरे स्वप्न आ कर मनुष्य को दू:खित करते हैं | उनकी चिकित्सा है कि सद्गुणों को अपना कर सुखी हों और स्वप्न में भी सुख की अनुभूति करें |

आभार  अशोक  आर्य

आरक्षण नहीं, वैदिक संरक्षण

आरक्षण नहीं, वैदिक संरक्षण

– पं. नन्दलाल निर्भय सिद्धान्ताचार्य

धधक रही है देश में, आरक्षण की आग।

अपने, अपनों पर रहे, यहाँ गोलियाँ दाग।।

यहाँ गोलियाँ दाग रहे, मानव अज्ञानी।

नेता तिकडम-बाज, कराते हैं शैतानी।।

भारत में दी बढा, फूट की अब बीमारी।

गए धर्म को भूल, स्वार्थी अत्याचारी।। 1।।

 

नेताओं को लग गया, आरक्षण का रोग।

नर-नारी इस रोग का, भोग रहे हैं योग।।

भोग रहे हैं योग, दुःखी है जनता भारी।

दिन पर दिन बढ रही, भयंकर यह बीमारी।।

अगर रहा यह हाल, देश यह मिट जाएगा।

हमें सकल संसार, स्वार्थी बतलाएगा।। 2।।

 

कुर्सी की खातिर रहे, नेता रोग बढ़ाय।

लालच में ये फंस गए, लालच बुरी बलाय।।

लालच बुरी बलाय, भूख वोटों की भारी।

इसीलिए तो पाप, रहे कर भ्रष्टाचारी।।

जन्म-जाति का रोग, बढ़ाते ही जाते हैं।

करते खोटे काम, तनिक ना शर्माते हैं।। 3।।

 

मदद गरीबों की करों, कहते चारों वेद।

धूर्तलोग समझें नहीं, यही हमें है खेद।।

यही हमें है खेद, धूर्त आदर पाते हैं।

बड़े-बड़े विद्वान्, यहाँ धक्के खाते हैं।।

हे मित्रों! यदि मान, जगत में चाहो पाना।

वेदों का सिद्धान्त, तुहें होगा अपनाना।। 4।।

 

गुरुकुलों में सब पढ़े, निर्धन अरु धनवान।

खान-पान-पहरान हो, सबका एक समान।।

सबका एक समान, व्यवस्था हो सरकारी।

पढ लिखकर सब बनें, तपस्वी-वेदाचारी।।

योग्यता अनुसार, काम सरकार उन्हें दे।

आरक्षण को मिटा, संरक्षण को अपना लें।।5।।

 

देव दयानन्द की अगर, शिक्षा लें सब मान।

हो जाएगा विश्व का, याद रखो! कल्याण।।

याद रखो कल्याण, साथियों! यदि तुम चाहो।

स्वयं आर्य बनो, विश्व को आर्य बनाओ।।

वैदिक पथ पर चलो, मार्ग है यह सुखदाई।

‘‘नन्दलाल’’ हो भला, आर्यो! करो भलाई।।6।।

आर्य सदन बहीन जनपद पलवल, हरियाणा।

चलभाष क्रमांक – 09813845774