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खुदा तख्त पर बैठता है

खुदा तख्त पर बैठता है

यदि तख्त पर खुदा बैठता है तो तख्त खुदा से बड़ा होगा। यदि खुदा बड़ा होगा तो तख्त के इधर-उधर लटकता रहेगा। बतावें कि तख्त है या खुदा?

देखिये कुरान में कहा गया है कि-

अ्ल्ल जी ख-ल-कस्समावाति……….।।

(कुरान मजीद पारा १९ सूरा फूर्कान रूकू ५ आयत ५९)

जिसने जमीन और आसमान को, जो कुछ आसमान और जमीन के बीच में है उसे छः दिन में पैदा किया और फिर आसमानी तख्त पर जा बैठा।

वल्म लुक अला अरजाइहा………….।।

(कुरान मजीद पारा २९ सूरा हाक्क रूकू १ आयत १७)

(कयामत के दिन) तुम्हारे परवर्दिगार के तख्त को आठ फरिश्ते अपने ऊपर उठाये हुए होंगे।

समीक्षा

कुरान में खुदा के लेटने, खड़े होने, आराम का कोई जिक्र नहीं किया गया है हर समय हजारों, लाखों या करोड़ों सालों तक बैठे रहने से बीमारी हो जाना, कमर दर्द होना, कमर का रह जाना आदि स्वाभाविक है। यह तो एक तरह की सजा जैसी बात है। पर यहूदियों की एवं कुरान की मान्य ‘‘पुस्तक तौरेत में उत्पत्ति ३-९’’ से खुदा का रोजाना सबेरे अदन के बाग में (स्वास्थ्य ठीक रखने को) टहलने के लिए जाने का वर्णन दिया गया है।

सभी इन्द्रियां शक्तिशाली हों ..

सभी इन्द्रियां शक्तिशाली हों ..
मन्त्र पाठ : –
वाणम आसन नसों: प्राणश्च्क्शुरक्ष्नो: श्रोत्रं कर्णयो: |
अपलिता: केशा अशोना दंता बहु बाह्वोर्बलम ||१|| || अथर्ववेद १९. ६०, १ ||
ऊर्वोरोजो जन्घ्योर्जव: पादयो: प्रतिष्ठा |
अरिश्तानी में सर्वात्मानिभ्रिष्ट: || || अथर्ववेद १९
व्याख्यान : –
संस्कृत में सुभाषित है कि ” धर्मार्थकामोक्षानामारोग्यम मुलामुत्त्मम “| धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष इस चतुर्वर्गारुपी पुरुषार्थ का मूल आरोग्य है | जहाँ निरोगता है, वहां धर्म है , धन है , सांसारिक सुख है और मुक्ति है | मनुष्य का शरीर स्वस्थ होगा तो सभी कार्य सरलता से हो सकेंगे | यदि मनुष्य रोगी या अस्वस्थ है तो न वह यज्ञ , पूजा – पाठ , वेदाध्ययन आदि धर्म कर सकेगा , न वह धन कमा सकेगा , न सुखों का भोग कर सकेगा और न योगसाधना कर सकेगा , जिससे मुक्ति प्राप्त हो | इस लिए शारीरिक स्वास्थ्य कि और ध्यान देना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है | मन्त्र में इसकी और ही ध्यान दिलाया गया है कि वाणी में शक्ति हो, नाक मैं सूंघने कि शक्ति हो, आँखों में देखने की शक्ति हो , बाल सफ़ेद न हों, दन्त दूषित न हों , भुजाओं में बल हो , जंघा पिंडली और पैरों में गति शक्ति और सफुर्ती हो | इस प्रकार शरीर के सारे अवयव सुपुष्ट हों | साथ ही मनुष्य की आत्मा में उत्साह का पूर्ण संचार हो , निराशा का नाम न हो | ह्रदय में कोई दूषित विचार न आवें , जिससे कभी भी पतन हो |

आभार

अशोक आर्य

(ग) एक व्यक्ति बिल्कुल नास्तिक है। ईश्वर की सत्ता को मानने से इन्कार करता है। लोगों को कहता है- ईश्वर नाम की कोई हस्ती संसार में नहीं है, लोग भ्रम में पड़े हुए हैं। किन्तु कर्म अच्छे करता है, बड़ा समाज सेवी भी है। क्या उस पर नाराज नही होता ईश्वर?

(ग)  एक व्यक्ति बिल्कुल नास्तिक है। ईश्वर की सत्ता को मानने से इन्कार करता है। लोगों को कहता है- ईश्वर नाम की कोई हस्ती संसार में नहीं है, लोग भ्रम में पड़े हुए हैं। किन्तु कर्म अच्छे करता है, बड़ा समाज सेवी भी है। क्या उस पर नाराज नही होता ईश्वर?

मेरे एक परममित्र हैं, जो सिरसा में रहते हैं, लेखक व कवि हैं, रिटायर्ड प्रिंसिपल-एम.ए. बी.एड. हैं, अमर शहीद भगतसिंह के नाम पर एक ट्रस्ट चलाते हैं, जिसमें दसवीं पास किए हुए गरीब छात्रों को जो आगे पढ़ना चाहते हैं उन्हें नियमित आर्थिक सहयोग देते हैं। इस संस्था के अनेक सदस्य हैं, मैं भी हूँ। किन्तु ये महाशय ईश्वर को बिल्कुल नहीं मानते, कहते हैं- प्रकृति से सब अपने आप होता है। उनका आहार-विहार, विचार-व्यवहार सब अच्छा है। अस्सी से ऊपर की आयु है। बिल्कुल स्वस्थ हैं, किन्तु ईश्वर को बिल्कुल नहीं मानते। क्या ऐसे लोगों से ईश्वर नाराज नहीं होता? क्यों?

– डॉ. एस.एल. वसन्त, बी-1384, नागपाल स्ट्रीट, फाजिल्का-152123 (पंजाब)

समाधान- 

(ग) आपने जिन सज्जन के विषय में कहा है, वे भले ही ईश्वर को नहीं मानते, किन्तु कार्य अच्छे कर रहे हैं, यह अच्छा कार्य उनके सुख का कारण है, न कि ईश्वर को न मानना कारण है। ईश्वर की आज्ञा है कि मनुष्य श्रेष्ठ कर्म करे और जब व्यक्ति श्रेष्ठ कर्म करता है तो उसको अवश्य ही ईश्वर व्यवस्था से सुख रूप फल मिलेगा। यह ईश्वरीय नियम है कि श्रेष्ठ कर्म करने वाले को सुख और विपरीत कर्म करने वाले को दुःख होगा।

हाँ यह अवश्य है कि जब व्यक्ति ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके चलता है, उसी को संसार का रचयिता मानता है, कर्मफल देने वाला मानता है, पुनर्जन्म को मानता है और वेद के उपदेश को स्वीकार करता है, तब व्यक्ति का आत्मोत्कर्ष अत्यधिक होता है।

जो लोग यह कहते हैं कि संसार का बनाने वाला कोई नहीं, संसार अपने आप बन गया, यह कथन बालपन का ही है। जब हमारे सामने कोई वस्तु घर, गाड़ी, दुकान, भोजन आदि बिना बनाने वाले के नहीं बन सकता, तो इतना बड़ा संसार कैसे बिना कर्त्ता के बन सकता है। इसलिए जब व्यक्ति मनुष्यों द्वारा बनाई गई वस्तुओं को देख विचार करता है कि यह किसी-न-किसी के द्वारा बनाई गई है, अपने आप नहीं बनी। इसी प्रकार यह जगत् भी किसी-न-किसी के द्वारा बनाया गया है, न कि अपने आप बना।

इसलिए जब व्यक्ति ईश्वर की सत्ता को मानकर चलता है, तब वह अधिक लाभ प्राप्त करता है। जब नहीं मानता तो उस लाभ को प्राप्त नहीं कर पाता और जो कोई ईश्वर को नहीं मानता, इससे ईश्वर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न ही परमेश्वर इतने मात्र से नाराज होता। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

 

हे प्रभु हमारे मन में प्रकाश बढ़ा दो


हे प्रभु हमारे मन में प्रकाश बढ़ा दो
डा . अशोक आर्य
परम पिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है जबकि किये गए कर्म का फल अपने हाथ रखा है । जीव सदा सुखों की कामना करता है । उसकी यह कामना होती है कि संसार के जो भी सुख हैं , तत्काल उसे मिल जावें किन्तु कुछ भी न करना पड़े । मानव पूरा समय ऐसे काम करते जाता हैं ,जिसका फल केवल और केवल अन्धकार ही होता है , फिर कैसे मानव अपने जीवन में सुखों की , प्रकाश की अभिलाषा रखता है । जब बीज ही मिरची के डाल रहे हैं तो गुड कैसे मिलेगा ? जब कि अनथक प्रयास , मेहनत मानव को सुख प्रदान कर देते हैं, अपार अन्धकार हो, तो भी प्रकाश की रश्मियाँ सब और फैलती हैं । सामवेद का मन्त्र भी इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुए कह रहा है :
अग्न : आयाही वीतये ,
गृणानो हव्यदातये ,
नि होता सत्सि बर्हिषि ।। सामवेद 1 ||
संक्षेप में हमें मन्त्र यह सदेश दे रहा है कि जब मानव ह्रदय में प्रभु का प्रकाश हो जाता है तो उसके अन्दर से अन्धकार स्वयमेव ही भाग जाता है , दूर हो जाता है , निकल जाता है । इस प्रकार प्रकाशित ह्रदय को सन्मार्ग की प्रेरणा देते हुए प्रभु अपने सेवकों के बंधनों को कर्मों के फल को देते हुए , कर्म के बंधनों से मुक्त करते हुए , सब बंधनों को काट देते हैं । जब ह्रदय वासना से शून्य हो जाता है , वासना से शुन्य हो जाता है , तब ही विश्व के उस महा उपदेशक अर्थात परमपिता परमात्मा की प्रेरणा के शब्द कानों में आते हैं ।
मन्त्र में कहा गया है कि हे प्रभु ! आप अग्नि होने के नाते अपने भक्तों को आगे ले जाते हैं, मोक्ष की और ले जाने वाले हैं । यही कारण है कि आपको अधिकांशतया अग्नि के नामसे ही पुकारा गया है । जिस प्रकार अग्नि सबको प्रकाशित कर आगे ले जाती है , उस प्रकार ही आप भी जीव को उसके कर्मों के अनुरूप फल देकर उसे आगे ले जातें हो , प्रकाश देते हो । मानव जीवन का यह लक्ष्य है कि वह आगे बढे , प्रगति को प्राप्त हो । अतः मानव जीवन में निरंतर प्रगति पाने के लिए, उन्नति के लिए , प्रकाश प्राप्त करने के लिए निरंतर कर्म कर रहा है तथा प्रभु भी मानव से निरंतर कह रहा है कि ” हे मानव ! तूने मोक्ष को पाना है किन्तु यह तब ही मिलेगा जब तेरे पर मेरी कृपा होगी ” । प्रभु की कृपा को पाने के लिए हम ने प्रयत्न करते हुए अच्छे कर्म करते , दूसरों की सहायता करते हुए उस प्रभु से हमारे ह्रदय के अन्धकार को दूर कर प्रकाश देने, ज्ञान देने की प्रार्थना करते है । जब हमारे में प्रभु के प्रकाश की ज्योति जग उठेगी तो वहां अन्धकार कैसे रह सकेगा ? प्रकाश में तो अन्धकार किसी भी अवस्था में रह ही नहीं सकता । प्रभु से प्राप्त ज्योति में, प्रकाश में सब प्रकार के अन्धकार, सब प्रकार के दोष दूर प्रकार के हो जाते हैं ।
जब मानव के जीवन से अन्धकार नष्ट हो जाता है , प्रकाश की ज्योति जग जाती है तो मानव को एक अन्य इच्छा होती है , इस इछा को कल्याण के नाम से जाना जाता है । अब मानव कल्याण चाहता है । इस निमित मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे प्रभु ! आप भक्तों के बन्धन को काटने का कार्य भी करें । वह जीव ही हव्य कहे जा सकते हैं , जो प्रभु में शरद्धा तथा विश्वास रखते हैं । जब तक प्रभु में विश्वास ही नहीं तब तक उसकी उपासना नहीं की जा सकती तथा बिना उपासना के प्रभु का आशीर्वाद नहीं मिल सकता । इसलिये प्रभु में पूर्ण विश्वास रख कर उसकी उपासना करने से प्रभु उसके आह्वान को सुनेंगे तथा उसके कृपा पात्र बनकर उसे कु छ देंगे । पारम्पिता परमात्मा उसके ही बंधनों को काटते हैं,जो सच्छे ह्रदय से उस का भक्त हो अन्य के नहीं । अत: उस प्रभु की कृपा को पाने के लिए सच्चे मन से उस का भक्त बनना होगा, उस प्रभु को स्मरण करना होगा,उस प्रभु के समीप जाना होगा,उसे अपना बनाना होगा, तब ही उसके आशीर्वाद से हमारा कलयाण होगा ।
मन्त्र जिस तीसरे तथ्य की और इंगित कर रहा है ,वह है कि हमें यह सब देकर प्रभु हमारे ह्रदय पर शासन करे, ह्रदय में निवास करे, ह्रदय में विराज हो । अत: हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं कि हे सृष्टि के महान उपदेशक प्रभो ! जिस मानव ने आप का सानिध्य प्राप्त कर , जिस मानव ने आपकी उपासना कर, जिस मानव ने सद्कर्म कर आप का विश्वास प्राप्त किया है तथा अपनी वासनाओं को, अपने अज्ञान को, अपने अन्धकार को नष्ट कर लिया है , उस के ह्रदय रूपी अंतरिक्ष में अर्थात यह सब दूषण निकल जाने के पश्चात उन के ह्रदय में जो आकाश रूपी खाली स्थान बना है , उसमें आप निरंतर तथा सदा के लिए विराजमान हों, वहां आप अपना निवास बनावें। आप इस स्थान पर ही सदा अपना आसन रखें । अत: आप इस स्थान पर निवास करें, विराजमान होवें । हम सब जानते हैं कि वह प्रभु पवित्रता को ही पसंद करते है । जहाँ पवित्रता होती है, प्रभु स्वयमेव्व ही  डेरा वहां डाल लेता है । जब हमारे हृदय से सब प्रकार के कलुष, सब प्रकार की कुवृतिया, सब प्रकार के क्लेश तथा सब प्रकार के अन्धकार नष्ट हो जावेंगे तो वह प्रभु निश्चय ही वहां अपना आसन जमा कर हमें प्रकाश देते हुए दर्शन देगा । इस प्रकार उस प्रभु के संपर्क में आकर हमें अनेकविध शक्ति प्रदान करता है । अत: यह शक्ति प्राप्त करने के लिए हमें अपने अन्दर को धोना है, सब क्लेशों से रहित करना है , कल्याण के मार्ग्ग पर आना है तथा प्रभु का हमारे अन्दर निवास हो सके अपने आप को इस योग्य बनाना है , तब ही हम आगे बढ़ सकेंगे ।
डा . अशोक आर्य
104 ..शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी ,
201010 जिला गाजियाबाद
चल्वार्ता : 09718528068

(ख) प्राचीन काल में भी चारवाक के नाम से एक नास्तिक मत-(दर्शन) प्रचलित था, जो ईश्वर तथा पुनर्जन्म को नहीं मानते थे। ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुरागमनम् कुतः, ऐसा मानते थे।

(ख) प्राचीन काल में भी चारवाक के नाम से एक नास्तिक मत-(दर्शन) प्रचलित था, जो ईश्वर तथा पुनर्जन्म को नहीं मानते थे। ऋणं कृत्वा घृतम् पिवेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुरागमनम् कुतः, ऐसा मानते थे।

समाधान- 

(ख) चारवाक का मत वाममार्ग नास्तिक मत रहा है, उनकी विचारधारा सर्वथा वेद विरुद्ध थी। जैसे-

अग्निरुष्णों जलं शीतं शीतस्पर्शस्तथाऽनिलः।

केनेदं चित्रितं तस्माद् स्वभावात्तद्व्यवस्थितः।।

न र्स्वगो नाऽपवर्गो वा नैवात्मापारलौकिकः।

नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्च फलदायिकाः।।

यावज्जीवेत्सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिवेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनररागमनं कुतः।।

– चारवाक दर्शन

अर्थात्- अग्नि उष्ण है, जल शीतल है, वायु शीत स्पर्शवाला है। इस वैविध्य को किसने चित्रित किया है। इसलिए स्वभाव से ही इनकी तत्तद् गुण युक्त स्थिति जाननी चाहिए, अर्थात् कोई जगत् का कर्त्ता नहीं है।

न कोई स्वर्ग है, न कोई नरक है और न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है और न वर्णाश्रम की क्रिया फलदायक है।

इसलिए जब तक जीवे, तब तक सुख से जीवे, जो घर में पदार्थ न हो, तो ऋण लेके आनन्द करे, ऋ ण देना नहीं पड़ेगा। क्योंकि जिस शरीर ने खाया-पीया है, उसका पुनरागमन न होगा। फिर किससे कौन माँगेगा और कौन देवेगा।

यह मत चारवाक का रहा है। इसमें से जो वेद विरुद्ध आचरण है, उसका तो परमेश्वर अवश्य ही दण्ड देगा। हाँ, जो कोई केवल ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता, इतने मात्र से ईश्वर उस पर रुष्ट नहीं होता। जब व्यक्ति ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता और प्रायः करके ईश्वर की न्याय व्यवस्था से परे होकर, विपरीत कार्यों में लग जाता है। जिसका परिणाम अधोपतन होता है।

सोमपान से हमारा जीवन स्वादिष्ट होता है

ओउम
सोमपान से हमारा जीवन स्वादिष्ट होता है
डा अशोक आर्य
ऋगवेद का नवं मण्डल का ऋषि ” मधुच्छन्दा विश्वामित्र:” है ,जबकि इस वेड का प्रारम्भ भी इसी ऋषि के सूक्त से ही हुआ है । इस में सोम के रक्षण की कामना की गयी है । सोम से अभिप्राय शक्ति से होता है । अत: यश पुर का पूरा सूक्त सोम से ही सम्बन्ध रखते हुए सोम के विभिन्न कार्यों व शक्तियों का उल्लेख करते हुए सोम की रक्षा करने का आह्वान करता है । यह सूक्त बताता है कि सोम मधुर होता है तथा इस का संग्रह करने वाला भी सदा मधुर ही होता है , मधुर ही बनाता है । मधुर भाषी तथा मधुर व्यवहारी होने के कारण वह सदा दूसरों के हित की ही सोचता है अहित की कभी कामना नहीं करता । इस प्रकार की इच्छा रखते हुए वह इस सूक्त के प्रथम मन्त्रके माध्यम से प्रार्थना करता है कि सोम हमारे जीवन को मधुर, स्वादिष्ट तथा मदिष्ट बनाता है । इसलिए हम जितेन्द्रिय बनें तथा सोम को अपने शारीर में ही संभालें ,व्याप्त रखें ।इस सूक्त में कुल दस मन्त्र हैं , जिनके माध्यम से इसे प्रकाशित किया गया है । प्रथम मन्त्र में इस तथ्य को इस प्रकार प्रकात्किया गया है : –
1. स्वादिष्ठया मदिष्ठ्या पवस्व सोम धारया ।
इन्द्राय पातवे सूत : ।। ऋगवेद 9.1.1. ।।
2. सोम रोगनाशक ,ज्ञानवर्धक है तथा शारीर मेंलोह्कण व् रुधिर को बढ़ता है
रक्षोहा विशवचर्श्निरभी योनिमयोहतम ।
दृणउनां सधस्थमासदत ।। साम 9.1.2 ।।
3. रक्षित सोम हमें उदार्वृति वाला बनाता है जिससे हम सुपथ पर चलते हैं
वरिवोधातमो भव मन्हीश्ठो वृत्रहन्तम: ।
पर्षि सधो मघोनाम ।। साम 9.1.3 ।।
4. सोम्रक्षण से ज्ञान व पवित्रता से हम देव बनते हैं,शक्ति व यश मिलता है
अभ्यर्श महानां देवानां वीतिमन्धसा ।
अभि वाजमुत श्राव: ।। सैम 9.1.4 ।।
5. सोमारक्षण से सब कामनाएं पूर्ण होती है
त्वामच्छा चरामज्सि तदिदर्थं दिवे दिवे ।
इन्दो तवे न आशस:।। सोम 9.1.5 ।।
6. श्रद्धा से सोम पवित्र होकर हमें बल तथा स्फुर्तियुक्त शक्ति देता है
पुनाति ते परिस्त्रत्न सोमं सूर्यस्य दुहिता ।
वारेण शश्वता ताना ।। साम 9.1.6 ।।
7. बुद्धि इन्द्रियों से सोम रक्षण कर विषयों से उठ उचक ज्ञान पावें
तमोमन्वी: समर्य आ ग्रभ्नन्ति योषनो दश ।
स्वसार: पार्ये दिवि ।। साम 9.1.7 ।।
8. सोम त्रिधातु वारण मध्य है ,उन्नतिपथ पर चलने से रक्षण होता है
तमीं हिन्वन्त्यग्रुवो धमन्ति बाकुर्ण द्रतिम ।
त्रिधातु वारण मधु ।। साम 9.1.8 ।।
9. स्वाद्याय से सोमारक्षण तथा बुद्धि तीव्र होती है
अभी3ममध्न्या उत श्रीनंती धेनव: शिशुम ।
सोममिन्द्राय पातवे ।। साम 9.1.9 ।
10. हम जितेन्द्रिय व दानी बनें
अस्येदिन्द्रो मदेष्वा विश्वा वृत्रानी जिघ्रते ।
शूरो मघा च महते ।। साम 9.1.10 ।।
इस प्रकार इस सूक्त के कल दस के दस मन्त्रों में सोम रक्षण पर बल दिया है यह्सोम हमारी शक्ति को बढ़ा कर हमें मधुर भाषी व बलशाली बनाता है । मधुर भाषी व बलाशाली बनने से हम अत्यधिक महानता से धनोपार्जन कारते हैं । इसा धन से हमारी सब आवश्यकताएं पूर्ण होती हैं तथा हम शेष धन से दूसरों की सहायता करते है तथा खूब स्वाध्याय कर अपने ज्ञान को भी बढाते हैं । इससे हमारे धन एशवर्य के साथ ही साथ यस व् कीर्ति भी दूर दूर तक जाते हैं । हमारे सब रोग भी छुट जाते है तथा हम सदा स्वस्थ रहते हैं । स्वस्थ होने से हमारे कार्य की गति भी बढाती है ।
उपार हमने मूल मन्त्र दिए हैं । इनकी अलग अलग व्याख्या नहीं कर पाए । केवल भाव ही दिया है ।

डा अशोक आर्य
104 -शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी 201010 गाजियाबाद
चलावार्ता : 09718528068
E MAIL ashokarya1944@rediffmail.com

‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासामैं परोपकारी का आजीवन सदस्य वर्षों से हूँ। पत्रिका पढ़कर बड़ा आनन्द आता है। बहुत कुछ अच्छी जानकारी मिलती है। धन्यवाद वसन्त

(क) महर्षि दयानन्द के अनुसार- ‘‘कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। पापकर्मों को ईश्वर कभी-भी क्षमा नहीं करता।’’ तो मनुष्य ईश्वर की प्रार्थना-स्तुति क्यों करें?

– संसार में, एक व्यक्ति किसी के प्रति अपराध करता है, किन्तु क्षमा माँगने पर, पश्चात्ताप करने पर प्रथम व्यक्ति उसको क्षमा कर देता है, क्या ईश्वर को इसी प्रकार क्षमा नहीं कर देना चाहिए? कहते हैं- वह बड़ा दयालु है, तो उसको दया क्यों नहीं आती?

समाधान– (क) महर्षि दयानन्द की वैदिक मान्यतानुसार कर्मों का फल भोगना पड़ता है। किये हुए पाप कर्मों को ईश्वर क्षमा नहीं करता, वह तो न्यायपूर्वक उन कर्मों का फल यथावत् देता है। परमेश्वर के द्वारा पाप कर्म क्षमा न करने पर आपकी जिज्ञासा है कि फिर ईश्वर की स्तुति प्रार्थना क्यों करें? इस विषय में हम यहाँ पहले महर्षि दयानन्द के विचार लिखते हैं-

‘प्रश्न- परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए वा नहीं?      उत्तर- करनी चाहिए।

प्रश्न क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़, स्तुति प्रार्थना करने वाले का पाप छुड़ा देगा?

उत्तर नहीं।

प्रश्न तो फिर स्तुति प्रार्थना क्यों करना?

उत्तर उसके करने का फल अन्य ही है।

प्रश्न क्या है?

उत्तर स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उसके गुण-कर्म-स्वभाव से अपने गुण कर्म स्वभाव का सुधरना। प्रार्थना से निराभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना। उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना।’’ स.प्र. 7।

यहाँ महर्षि के मतानुसार स्तुति प्रार्थना से पाप क्षमा तो नहीं होंगे, किन्तु स्तुति-प्रार्थना करने के अन्य अनेक लाभ बताए हैं। इन अन्य लाभों को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना आवश्य करें, करनी चाहिए। हम मनुष्य जो लौकिक कार्य करते हैं, वह भी लाभ ही के लिए करते हैं। किसी कार्य को हमने पाँच लाभ प्राप्त करने के लिए प्रारभ करने का विचार किया। विचार करने पर पता लगा कि इस कार्य से पाँच लाभ न होकर, चार ही लाभ होंगे और जो लाभ होंगे, वे बड़े महत्त्वपूर्ण लाभ प्राप्त होंगे। ऐसी स्थिति में विचारशील व्यक्ति को क्या पाँच लाभों में से एक लाभ न मिलता देखकर, उस कार्य को छोड़ देना चाहिए या करना चाहिए? बुद्धिमान् व्यक्ति निश्चित रूप से इस कार्य को छोड़ेगा नहीं, अपितु चार लाभ के लिए अवश्य करेगा। ऐसे ही ईश्वर की स्तुति प्रार्थना से पाप छूटने वाला लाभ तो नहीं हो रहा, किन्तु अन्य बहुत से सद्गुण रूप सदाचार प्राप्त हो रहे हैं, जिनके प्राप्त होने पर पाप कर्म करने की प्रवृत्ति नष्ट होती है। क्या ऐसे ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, रूप, कर्म को छोड़ना चाहिए? तो इसका प्रत्येक विवेकशील व्यक्ति यही उत्तर देगा कि ऐसे कर्मों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। इसलिए गुणों में प्रीति, अपने गुण कर्म स्वभाव को सुधारने, निरभिमानता, उत्साह और ईश्वर का सहाय प्राप्त करने के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करनी चाहिए।

– संसार में किसी व्यक्ति के प्रति किये गये अपराध को व्यक्ति सहन कर, उस अपराध को करने वाले अपराधी को क्षमा कर देता है। यदि क्षमा करता है तो वह धर्म का पालन कर रहा है। जब हम व्यक्तिगत हानि, अपराध, अपमान आदि के होने पर किसी को क्षमा करते हैं, तो यह उचित है, यह धर्म कहलायेगा, जो महर्षि मनु ने धर्म के दश लक्षणों में से एक ‘क्षमा’ कहा है। यदि व्यक्ति सामाजिक और राष्ट्रीय अपराधी को क्षमा करता है, तब वह धर्म न होकर अधर्म हो जायेगा, अन्याय हो जायेगा।

ऐसे ही न्यायकारी परमेश्वर स्वअपराधियों को सहन करने वाला है, क्षमा करने वाला है, जो कोई परमेश्वर को गाली देता है, उसको छोटा मानता है, उसकी सत्ता को स्वीकार नहीं करता, ऐसे व्यक्ति को अपने प्रति किये इस दुर्व्यवहार को सहन करता है, क्षमा करता हैं, किन्तु जब व्यक्ति उसकी आज्ञा का पालन न कर, पाप कर्म करता है अर्थात् शरीर, मन, वाणी से दूसरे की हानि करता है, तब न्यायकारी परमात्मा उसको क्षमा न कर दण्डित करता है। यह उसकी दया है, दयालुपना है। यदि परमेश्वर ऐसा न करे तो व्यक्ति अधिक-अधिक पाप कर्म कर अधिक-अधिक अधोगति को प्राप्त हो जावे। जब परमात्मा उसके पाप कर्म का फल देता है, तो फल भोगने से पाप क्षीण होते हैं, यह परमेश्वर की दया नहीं तो क्या है। उसको पाप कर्मों को भुगा कर फिर से मनुष्य शरीर देकर उन्नति का अवसर देना- इसमें परमात्मा की दया ही तो द्योतित हो रही है। परमात्मा तो दया का भण्डार है, हम अज्ञानी लोग उसकी दया को समझ नहीं पाते, यह हमारा दोष है।

अच्छे काम करने से आयु लम्बी होती है

ओउम
अच्छे काम करने से आयु लम्बी होती है
डा. अशोक आर्य
प्रत्येक प्राणी की अभिलाषा होती है कि वह लम्बी, अत्यंत लम्बी आयु प्राप्त करे | आयु लम्बी ही नहीं सुखमय भी हो | दु:खों से भरी छोटी सी आयु भी जीवन को जीने का आनंद प्राप्त करने नहीं देती | दु:खों से भरा प्राणी सदा इस संसार से छुटकारा पाना चाहता है | जब आयु सुखों से भरी हो तो कितनी भी लम्बी हो , इस में प्राणी प्रसन्न ही रहता है | इस लिए ही वह सुखों से भरपूर दीर्घ आयु की कामना करता है | दीर्घ आयु के अभिलाषी को कर्म भी ऐसे ही करने होते हैं , जिस से वह प्रसन्न चित रह सके , द्रश्य भी ऐसे देखने होते हैं , जो उस की प्रसन्नता को बढ़ा सके | संवाद भी ऐसे सुनने होते हैं , जो उस की खुशियों को बढ़ा सकें | बोलना भी एसा होता है, जो अच्छा हो ताकि प्रतिफल में उसके कानों में संवाद भी अच्छे ही पड़ें | इस निमित ऋग्वेद के मन्त्र १.८९.८ तथा यजुर्वेद के मन्त्र २५.२१ ; सामवेद के मन्त्र १८२४ ; तैतिरीय ; आर. १.१.१ में बड़ा सुन्दर उपदेश किया गया है : –
भद्रं कर्णेभी: श्रुणुयाम देवा ,
भद्रं पश्येमाक्श्भिर्यजत्रा |
स्थिरैरंगेर्स्तुश्तूवान्सस्तानुभी –
व्यशेमही देवहितं यदायु: || ऋग्वेद १.८९.८ ; यजुर्वेद २५.२१;
सामवेद १८२४ ;तैतिरीय ;आर.१.१.१ .||
शब्दार्थ : –
(यजत्रा:) हे पूजनीय ( देवा: ) देवो ! ( कर्नेभी:) हमारे कानों में (भद्रं) मंगल (स्रुनुयाम) सुनें (अक्षभि:) आँखों से (भद्रं) अच्छा (पश्येम) देखें (स्थिरे) पुष्ट (अन्गई) अंगों से (तुश्तुवान्सा) स्तुति कर्ता (तनुभी:) अपने शरीरों से (देवहितं) देवों के हितकर (यात आयु:) जो आयु है उसे (व्यशेमही ) पावें |
भावार्थ : –
यह मन्त्र दो बातों पर विशेष बल देता है | यह दो बातें ही मानव जीवन का आधार है | यह दो अंग ही मानव का कल्याण कर सकते हैं तथा यह दो अंग ही मानव को विनाश के मार्ग पर ले जा सकते हैं | यदि हम इन दोनों को अच्छे मार्ग पर ले जावेंगे , सुमार्ग पर लेजावेंगे , अच्छे कार्यों के लिए प्रयोग करेंगे तो हम जीवन का उद्देश्य पाने में सफल होंगे | अन्यथा हम जीवन भर भटकते ही रहेंगे , कुछ भी प्राप्त न कर सकेंगे | यह दो विषय क्या हैं , जिन पर इस मन्त्र में प्रकाश डाला गया है , यह हैं : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छा ही सुनें
२. हम अपोअनी आँखों से सदैव अच्छा ही देखें
विश्व का प्रत्येक सुख इन दो विषयों से ही मिलता है | हमारी शारीरिक पुष्टि भी इन दो कर्मों से ही होती है | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सुख की खोज मैं भटक रहा है किन्तु वह जानता नहीं की सुख उसे कैसे मिलेगा ? | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सदा प्रसन्न रहना चाहता है किन्तु वह यह नहीं जानता की प्रसन्न रहने का उपाय क्या है ? जीवन पर्यंत वह इधर से उधर तथा उधर से इधर भटकता रहता है किन्तु न तो उसे सुख के ही दर्शन हो पाते हैं तथा न ही प्रसन्नता के | हों भी कैसे ? जहाँ पर सुख से रहने का , प्रसन्नता से रहने का साधन बताया गया है , वहां तो जा कर खोजने का उस ने उपाय ही नहीं किया | वेदों के अन्दर यह सब उपाय बताये गए हैं किन्तु इस जीव ने वेद का स्वाध्याय तो दूर उसके दर्शन भी नहीं किये | किसी वेदोपदेशक के पास बैठ कर शिक्षा भी न पा सका | फिर उसे यह सब कैसे प्राप्त हो ? वेद कहता है कि हे मानव ! यदि तू सुखों की कामना करता है , यदि तू जीवन में प्रसन्नचित रहना चाहता है , यदि तू हृष्ट पुष्ट रहना चाहता है , यदि तू दीर्घ आयु का अभिलाषी है तो वेद की शरण में आ | वेद तुझे तेरी इच्छाएं पूर्ण करने का उपाय बताएगा | प्रस्तुत मन्त्र में भी मानव को सुखमय , संपन्न व प्रसन्न – चित रहने के उपाय बताये हैं |
यदि मानव आजीवन सुखी रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन प्रसन्न रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन निरोग व स्वस्थ रहना चाहता है तो उसे अपने आप को कुछ सिद्धांतों के साथ जुड़ना ही होगा , कुछ नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | बिना नियम बध हुए कोई भी कार्य सफल नहीं होता , संपन्न नहीं होता | कर्तव्य परायण व्यक्ति , दृढ प्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए यह नियम अत्यंत ही सरल होते हैं किन्तु कर्म से जी चुराने वाले के लिए , पुरुषार्थ से भागने वाले आलसी के लिए यही नियम ही कठोर बन जाते हैं , जिन्हें करने से वह जी को चुराता है | किसी को चाहे यह नियम कठोर लगें या किसी को सरल किन्तु सुख की कामना के लिए,, प्रसन्नता पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए , निरोग शरीर को पाने के लिए तथा लम्बी आयु के लिए इन नियमों का पालन आवश्यक है | इसके बिना कोई अन्य मार्ग उसके पास नहीं है | बस इस के लिए अपने पास अच्छे व सुलझे हुए विचारों का स्वामी होकर मन को अपने वश में रखना होगा ,इन्द्रियों को वश में करना होगा तथा अपने में सात्विक भाव जगा कर कर्मशील होना आवश्यक है | यदि हम स्वयं को इस प्रकार चला पाने में सफल होते हैं तो मन्त्र में वर्णित नियम हमें सरल ही लगेंगे | यदि हमारा मन ही हमारे वश में नहीं है , यदि हमारे विचार ही विश्रन्खल हैं , यदि हमारा अपनी इन्द्रियों पर ही अधिकार नहीं है तथा हम में कोई सात्विक भाव ही नहीं है तो सुखों की आराधना के लिए जो नियम बनाए गए हैं, वह अत्यंत कठोर लगेंगे | जो इन नियमों को अपने जीवन में अंगीकार कर लेगा , वह सुखी व प्रसन्न होगा, धन ऐश्वर्यों का स्वामी होगा तथा लम्बी आयु पाने का अधिकारी होगा अन्यथा भटकता ही रहेगा |
कठोर अनुशासन के बंधन में बंधे बिना कभी कोई उपलब्धि नहीं मिला करती | सफलता सदा उसी को ही मिलती है जो कठोरता से नियमों के पालन का व्रत लेता है | अत- स्पष्ट है की जीवन में कठोर अनुशासन लाये बिना , नियमों का कठोरता से पालन किये बिना न तो सुख मिल सकता है न ही समृद्धि | यदि सुख , समृद्धि ही नहीं पा सके तो प्रसन्नता कहाँ से होगी | फिर प्रसन्नता के बिना लम्बी आयु भी संभव नहीं | अत: लम्बी आयु की कामना करने वालों को कठोर नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | प्रस्तुत मन्त्र भी इन दो बातों पर ही प्रकाश डालता है | मन्त्र कहता है कि : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छी बातें ही सुनें | अच्छी चर्चा से मन प्रसन्न होता है | प्रत्येक मानव जो भी कार्य करना चाहता है , वह अपनी प्रसन्नता के लिए ही करता है | अत: अपनी प्रसन्नता के लिए अच्छी चर्चाओं को ही सुनना चाहिए | अच्छी चर्चा को सुनकर मन को प्रसन्नता मिलेगी | प्रसन्न मन सदा राग – द्वेष से दूर रहता है | अत: राग – द्वेष के रोग से भी छुटकारा मिलेगा | ह्रदय के शांत बनने से जीवन में पवित्रता आवेगी | जिस का जीवन पवित्र है उसको सदा अच्छे मित्र अथवा सहयोगी मिलते हैं , जिससे उसकी ख्याति सर्व दिशा में फ़ैल जाती है |
२. मन्त्र कहता है कि हम यदि सुखी, संपन्न व प्रसन्न और स्वस्थ रह कर लम्बी आयु पाना चाहते हैं तो आँखों से सदा अच्छे दृश्य ही देखें | अच्छे दृश्य देखने की अभिलाषा रखने वाले की आँख कभी कुवासना , दूषित मनोवृति के दृश्य देखना पसंद ही नहीं करेगी | दूसरे शब्दों में एसा व्यक्ति स्वयमेव ही कुवासना तथा दूषित मनोवृति को अपने पास आने ही नहीं देगा | जब हम कुवासना से रहित होंगे | गंदे व दूषित वातावरण से दूर रहेंगे तो हमें मित्र , सहयोगी व प्रिय लोगों के ही दर्शन होंगे | ऐसे सहयोगी मिलेंगे , ऐसे मित्र मिलेंगे जो इन दु:खो क्लेशों से दूर रहते हुए शुद्ध मन के निर्माण के लिए शद्ध भावना रखते होंगे | जब हमारा अनुगमन व मार्ग दर्शन ऐसे स्वच्छ साथियों के हाथ में होगा तो हमारे में घृणा व कटुता की कोई भावना आ ही नहीं सकेगी | मात्सर्य तथा मनोमालिन्य के अवसर कभी आवेंगे ही नहीं | उत्तम मित्रों में बैठ कर प्रत्येक क्षण उत्तम चर्चाएँ होने से कानों में सदैव मधुर स्वर ही पडेंगे ऐसे मित्रों के साथ यात्रा भी करेंगे तो आँखें भी सदा सुन्दर दृश्य ही देख पावेंगी क्योंकि सद्मित्र कभी बुरा नहीं देखते |
स्पष्ट है की इन दोनों नियमों के पालन से हमारे संयम को पुष्टि मिलेगी | संयम पुष्ट होने से शरीर स्वस्थ रहेगा | जब शारीर स्वस्थ व निरोग होगा तो मन प्रसन्न रहेगा | स्वस्थ शरीर व प्रसन्न मन ही दीर्घ आयु का आधार होते हैं | इस प्रकार इन दो नियमों के पालन का परिणाम ही दीर्घ आयु की प्राप्ति है | जब मात्र दो नियमों के पालन से हमें सुख , समृद्धि , पुष्टि , संयम , स्वास्थ्य , निरोगता , प्रसन्नता व दीर्घायु के साथ ही साथ अच्छे मित्र व सहयोगी भी मिलेंगे , यश व कीर्ति भी मिलेगी तो इन्हें अपनाने से कौन इंकार करेगा | जब एक साथ इतना कुछ मिलेगा तो इस नियम पालन से हम परहेज कैसे कर सकते हैं ? निश्चय ही पालन करेंगे

डा. अशोक आर्य १०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१० गाजियाबाद उ.प्र.
चलभाष : ०९७१८५२८०६८

पुस्तक – परिचय पुस्तका का नाम – सत्यार्थ प्रकाश भाष्य

पुस्तक – परिचय

पुस्तका का नाम – सत्यार्थ प्रकाश भाष्य

भाष्यकार वाचस्पति

सपादक प्रदीपकुमार शास्त्री

प्रकाशक सत्यधर्म प्रकाशन झज्जर,

हरियाणा 9812560233

मूल्य 100/-      पृष्ठ संया– 192

महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना कर सत्य का मार्ग प्रशस्त किया है। उन्होंने आडमबर, अज्ञान व अन्धकार को दूर किया है।

उस समय धर्मान्धता, बाह्याडमबर का साम्राज्य चल रहा था, घोर अन्धकार में लोग अपनी स्वार्थपूर्ति कर रहे थे, अपना उल्लू सीधाकर रहे थे। सच्चाई से दूर, अज्ञान के खड्डे में गिर रहे थे। अनेक पाखण्डियों ने धर्म के ठेकेदार बनकर अपने को योगी, तपस्वी व महान् सिद्ध कर रखा था। मूर्तिपूजा, पर्दाप्रथा, स्त्रियों को अशिक्षित रखना आदि दूषण समाज में फैले हुए थे। वेद के शबद किसी के कानों में न पड़े यदि ऐसा हो भी जाय तो शीशा गर्म करके कान में डाल देते थे। अत्याचारों का बोलबाला था। ईश्वर के प्रति मनगढ़न्त कथाएँ जोड़ी जा रही थीं। भोली-भाली जनता को ठगा जा रहा था। सत्यार्थ प्रकाश के पढ़ने से वास्तविकता का ज्ञान होने लगा। वेदों के बाद महत्त्वपूर्ण ज्ञानार्जन के लिए सत्यार्थ प्रकाश है। सत्यार्थ प्रकाश के प्रति जनमानस की भावना प्रतिकूल विरोधाभास की रही पर आलोचना, अपशबदों का प्रयोग करना कहाँ की बुद्धिमानी है?

लेखक ने प्रथम समुल्लास एवं द्वितीय समुल्लास का भाष्य कर सरस, सरल व प्रश्न उत्तर के माध्यम से पाठकों के लिए प्रस्तुत सामग्री सारगर्भित कर दी है। पाठकों की शंका समाधान करके प्रत्युत्तर दिया गया है। ईश्वर के 100 नाम हैं, वे किस प्रकार और क्यों है? जन मानस भोली जनता के सामने अर्थ का अनर्थ कर रहे थे। उन्हें स्पष्ट किया गया है। द्वितीय समुल्लास में अनेक प्रकार की शिक्षाओं के माध्यम से सभी प्रकार की बातों का ज्ञान कराया गया है।

इसमें भी लोगों की शंकाएँ रही। स्वामी जी को गृहस्थ सबन्धी बातों से क्या अभिप्राय था? इसका भी सटीक उत्तर दिया गया है। वास्तव  में सार की बात को ग्रहण करना चाहिए। कहा है सार-सार को गहि रहे, थोथा दे उड़ाय। जीवन को सफलीभूत बनाने के लिए सत्य बात जो जीवन को श्रेष्ठ बनाती है, उसे अवश्य स्वीकार करना चाहिए। स्वामी जी के समय जो अन्धविश्वास थे, आज भी अनेक अन्धविश्वास एवं पोप लीलाओं ने अपना गढ़ बना लिया है। सत्य कटु होता है। पाठकों को चाहिए कि भ्रान्तियों को दूर करने के  लिए पठन-पाठन करें आपको अमूल्य निधि प्राप्त होगी। भाष्य सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है। भाष्यकार एवं सपादक का आभार।

-देवमुनि, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर।

खुदा जन्नत अर्थात् स्वर्ग में रहता है:

खुदा जन्नत अर्थात् स्वर्ग में रहता है:
आचार्य डाँ. श्रीराम आर्य
खुदा जन्नत अर्थात् स्वर्ग में रहता है जब खुदा जन्नत में रहता है, तो जन्नत खुदा की अपेक्षा लम्बाई चैड़ाई में बड़ी साबित हो गई। अगर खुदा सावतें आसमान पर रहता है तो आसमान भी खुदा से बड़ा हो गया। जबकि खुदा से बड़ा दुनियां में कोई नहीं है यह बात गलत सिद्ध हो गई? खुदा सर्वव्यापक (हाजिर-नाजिर) भी नहीं रह गया। कुरान की यह आयत खुदा की महानता पर बट्टा लगाती है। देखिये कुरान में कहा गया है कि- इन्नल् मुत्तकी न फी……………..।। (कुरान मजीद पारा २७ सूरा कमर रूकू ३ आयत ५४) परहेजगार जन्नत के बागों में और नहरों में होंगे। फी मक्-आदि सिद्किन…………।। (कुरान मजीद पारा २७ सूरा कमर रूकूं ३ आयत ५५) सच्ची बैठक में बादशाह अर्थात् खुदा के पास जिसका सब पर कब्जा है, बैठेंगे। समीक्षा इससे प्रगट है कि अरबी इस्लाम का खुदा सारे विश्व में व्यापक नहीं है, बल्कि केवल जन्नत अर्थात् स्वर्ग में अपने मकान के अन्दर रहता है।