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सगुण क्या निर्गुण क्या? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अबोहर के डी.ए.वी. कॉलेज में कुछ वर्ष पूर्व दो योग्य युवा हिन्दी प्राध्यापक नियुक्त हुए। कुछ पुराने अध्यापकों से लेखन व साहित्य सृजन की चर्चा करते समय उन्होंने अपने पुराने सहयोगियों से मेरे लेखन-कार्य के बारे में कुछ सुना। एक दिन फिर धूप में खड़े-खड़े वे कुछ ऐसी ही चर्चा कर रहे थे। पुनः मेरा नाम किसी ने लिया तो वे बोले- उनका निवास कॉलेज पुस्तकालय के पीछे ही तो है। वे प्रायः कॉलेज के डाकघर पत्र डालने व कार्ड आदि लेने आते रहते हैं। जो दुबला-पतला व्यक्ति चलते-चलते यहाँ से पढ़ता-पढ़ता निकले बस समझलो- वह राजेन्द्र जिज्ञासु ही हो सकता है। वे यह बात कर ही रहे थे कि मैं चलते-चलते उधर से निकला। कुछ पढ़ता भी जा रहा था। मेरी उनसे भेंट करवाई गई। कुछ चर्चा छिड़ गई। क्या लिख रहे हो? आजकल किस विषय की खोज में लगे हो? कुछ ऐसे प्रश्न पूछे।

मैंने उन्हें अपने निवास पर दर्शन देने के लिए कहा। वे निमन्त्रण पाकर प्रसन्न हुए और दो दिन में मिलने आ गये। मैं अपने लेखन-कार्य में व्यस्त था। बातचीत चल पड़ी तो उन दो में से एक ने कहा- आर्यसमाज तो निर्गुण, निराकार की उपासना को मानता है, जब कि भक्तिकाल के कई सन्त सगुण, साकार ईश्वर की उपासना को मानते हैं।

यह कथन सुनकर इस लेखक ने उनसे कहा- आपके कथन में आंशिक सच्चाई है। आर्यसमाज तो ईश्वर को निर्गुण व सगुण दोनों मानता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जो निर्गुण न हो और कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो सगुण न हो।

मेरे मुख से निकले ये शब्द  सुनकर वे दोनों चौंक पड़े। दोनों ही पीएच.डी. उच्च शिक्षित सज्जन थे। वे बोले हिन्दी साहित्य में तो अनेक लेखकों ने निर्गुण भक्ति को निराकार की उपासना और सगुण उपासना का अर्थ मूर्तिपूजा  ही माना है। कुछ सन्त महात्माओं के नाम भी लिए।

उनसे निवेदन किया गया कि सन्तों को इस चर्चा में मत घसीटें। मैं भी बहुत नाम ले सकता हूँ। आप यह बतायें कि सगुण व निर्गुण इन दो शब्दों  में जो ‘गुण’ शब्द  पड़ा है, इसका अर्थ क्या है? कोई-सा शब्दकोष  उठा लीजिये अथवा किसी ग्रामीण निरक्षर वृद्धा से पूछें कि ‘गुण’ शब्द  का अर्थ क्या है? यह शब्द देशभर में प्रयुक्त होता है। सर्वत्र इसका आशय क्वालिटी सिफ़त ही जाना, माना व समझा जाता है। सद्गुण, अवगुण सब ऐसे शब्द यही सिद्ध करते हैं या नहीं? उनको मेरी बात जँच गई। वे इसका प्रतिवाद न कर सके।

अब उनसे पूछा कि जब गुण का अर्थ आप क्वालिटी विशेषतायें मानते हैं तो फिर ‘सगुण’ ‘निर्गुण’ की चर्चा में काया अथवा शरीर-आकार कैसे घुस गया? वे बोले- यह बात तो हमने पहली बार ही सुनी है। आपका तर्क तो बहुत प्रबल है। मैंने कहा- आप चिन्तन करिये। स्वाध्याय करिये। बहुत कुछ नया मिलेगा। आप अन्ध परम्पराओं की अंधी गुफाओं से निकलें। वेद, दर्शन, उपनिषद् तक पहुँचे। सत्य का बोध हो जायेगा। मान्य सोमदेव जी के ‘जिज्ञासा समाधान’ में सगुण-निर्गुण विषयक चर्चा पढ़कर यह प्रसंग देने का मैंने साहस किया है। आशा है कि पाठकों को इससे लाभ मिलेगा, प्रेरणा प्राप्त होगा

उत्तर देने की आर्यसमाजी कला: प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

कुछ तड़प-कुछ झड़प

– राजेन्द्र जिज्ञासु

उत्तर  देने की कलाः गत तीन चार मास में बिजनौर के आर्यवीर श्री विजयभूषण जी तथा कुछ अन्य नगरों के आर्य सज्जनों ने भी चलभाष पर दो बातें विशेष रूप से इस लेखक को कहीं। . आपकी उत्तर देने की कला बहुत अनूठी है। २. आप तड़प-झड़प में इतिहास की ठोस सामग्री देते हैं। इसमें अलभ्य लेखों, पत्र-पत्रिकाओं तथा इस समय अप्राप्य साहित्य की पर्याप्त चर्चा होने से बहुत जानकारी मिलती है। अनेक बन्धुओं विशेष रूप से युवकों के मुख से ये बातें सुनकर उत्तर देने की कला पर दो-चार बार कुछ विस्तार से लिखने का विचार बना।

मैं गत दस-बारह वर्षों से मेधावी लगनशील युवकों से बहुत अनुरोध से यह बात कहता चला आ रहा हूँ कि वैदिक धर्म पर वार-प्रहार करने वालों को उत्तर देना सीखो। अब भी आर्य समाज में कुछ अनुभवी विद्वान् ऐसे हैं, जिनकी उत्तर देने की शैली मौलिक, विद्वतापूर्ण  तथा हृदयस्पर्शी है। श्री डॉ. धर्मवीर जी को जब उत्तर देना होता है तो उनकी लेखनी की रंगत ही कुछ निराली होती है। श्री राम जेठमलानी ने श्री रामचन्द्र जी पर एक तीखा प्रश्न उठाया। संघ परिवार के ही श्री विनय कटियार ने उनके स्वर में स्वर मिला दिया।

राम मन्दिर आन्दोलन का एक भी कर्णधार श्रीयुत् राम जेठमलानी के आक्षेप का सप्रमाण यथोचित उत्तर न दे सका। मेरे जैसे आर्यसमाजी रामभक्त भी तरसते रहे कि उमा भारती जी, श्री मुरली मनोहर जी अथवा सर संघचालक आदरणीय भागवत जी इस आक्षेप का कुछ सटीक उत्तर दें, परन्तु ऐसा कुछ भी न हुआ। परोपकारी का सम्पादकीय पढ़कर अनेक पौराणिकों ने भी यह माँग की कि श्री धर्मवीर जी श्री राम के जीवन पर इसी शैली में २५०-३०० पृष्ठों की एक मौलिक पुस्तक लिख दें।

श्री डॉ. ज्वलन्त कुमार जी भी जानदार उत्तर देते हैं। परोपकारी में श्री आचार्य सोमदेव जी तथा आदरणीय सत्यजित् जी द्वारा शंका समाधान की शैली प्रभावशाली व प्रशंसनीय है।

आर्यसमाज में श्री राजवीर जी जैसे उदीयमान लेखक तथा अनुभवी गम्भीर विद्वान् डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने भी इस विनीत से एक दो बार कहा, ‘आपने उत्तर देते हुए चुटकी लेना कहाँ से सीखा?’

मैंने कहा, ‘अपने बड़ों से और विशेष रूप से पूज्य पं. चमूपति जी से।’

प्रिय राजवीर जी तथा श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ने तो कुछ श्रम करके उत्तर देने की कला सीखी व विकसित की है, परन्तु बहुत से युवक इस दिशा में कुछ करके दिखा नहीं सके और राजवीर जी तथा धर्मेन्द्र जी भी समय के अभाव में जितना उन्हें बढ़ना चाहिये, बढ़ नहीं सके। कई युवक ऐसे भी मिले हैं, जो गुरु तो बनाने की ललक रखते हैं, परन्तु उनमें विनम्रता व श्रद्धा से सीखने की ललक नहीं। घर बैठे तो यह विद्या आती नहीं।

आइये, उत्तर देने की आर्यसमाजी कला का कुछ इतिहास यहाँ देते हैं। मैंने जो पूर्वजों (इस कला के आचार्यों) के मुख से जो कुछ सुना व पढ़ा है, इस कला के जनक तो स्वयं पूज्य ऋषिवर दयानन्द जी महाराज थे। उनके पश्चात् इस कला के सिद्धहस्त कलाकार पं. लेखराम जी मैदान में उतरे। यह मेरा ही मत नहीं है, लाला लाजपतराय जी ने भी अपनी लौह लेखनी से ऐसा ही लिखा है। बड़े-बड़े मौलवियों तथा सनातन धर्मी नेता पं. दीनदयाल जी का भी ऐसा ही मत था। मौलाना अ दुल्ला मेमार तथा मौलाना रफ़ीक दिलावरी जी का भी ऐसा ही मत था।

तनिक महर्षि जी की उत्तर देने की कला पर भी इतिहास शास्त्र का निर्णय सुना दें। आर्यसमाजी लेखक जो ऋषि जीवन की तोता रटन लगाते रहते हैं, वे इतिहास के इस निर्णय को जानते ही नहीं और परोपकारी में पढ़-सुनकर इसे आगे प्रचारित ही नहीं करते।

१. वैद्य शिवराम पाण्डे ऋषि के साथ प्रयाग रहे। वे काशी की पाठशाला में भी रहे। वे आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु ऋषि की संगत की रंगत मानते थे। आपका एक दुर्लभ लेख हमारे पास है। वे लिखते हैं कि ऋषि एक ही प्रश्न का उत्तर कई प्रकार से देना जानते थे। श्री गोस्वामी घनश्याम जी मुल्तान निवासी बाल शास्त्री की कोटि के विद्वानों में से एक थे। काशी शास्त्रार्थ के समय आप काशी में नहीं थे। जब काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् मूर्तिपूजकों ने देशभर में यह प्रचार करना चाहा कि स्वामी दयानन्द शास्त्रार्थ में हारे तो गोस्वामी झट से काशी गये। बाल शास्त्री से मिलकर पूछा, सच-सच बताओ! क्या स्वामी दयानन्द हारे या काशी के पण्डित?

तब बाल शास्त्री जी ने वीतराग दयानन्द के गुणों का बखान करते हुए कहा था कि हम जैसे निर्बल संसारी उन्हें हराने वाले कौन?

चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी महोदय ने कहा था, ‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं, इसलिए इस विषय में अधिक कहना उचित नहीं।’’

पादरी जी का यह कथन आर्यसमाज में प्रचारित करने वाले चल बसे। पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वाले सम्पादक लेखक शास्त्रार्थ कला (विधा) को समझ ही न सके।

पं. लेखराम जी की उत्तर देने की कला की एक घटना ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक की फाईलों में छपे उनके एक शास्त्रार्थ से मिली। सीमा प्रान्त के एक नगर में प्रतिमा पूजन पर एक शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने ‘न तस्य प्रतिमाऽअस्ति’ इस वेद वचन से अपने कथन की पुष्टि की तो विरोधी ने कहा कि यहाँ ‘नतस्य’ है अर्थात् प्रतिमा के आगे झुकने की बात है। यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं। तब पण्डित जी ने कहा कि यदि यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं तो फिर इस मन्त्र में ‘यस्य’ शब्द  किसके लिए है? वहाँ पौराणिक पण्डितों ने भी पण्डित जी के इस तर्क व प्रमाण का लोहा माना। यह किसी भी शास्त्रार्थ में किसी संस्कृतज्ञ आर्य ने तर्क न दिया। श्रद्धेय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस प्रसंग में हमें कहा था, ‘‘यह तो पं. लेखराम जी के जन्म-जन्मान्तरों का संस्कार और उनकी ऊहा का चमत्कार मानना पड़ेगा।’’

अब इस प्रसंग में इतिहास का एक और निचोड़ देना लाभप्रद होगा। पं. गणपति शर्मा जी तथा श्री स्वामी दर्शनानन्द जी की उत्तर देने की कला भी विलक्षण थी। इनके पश्चात् आर्यसमाज में अपनी-अपनी कला से उत्तर देने में कई सुदक्ष कलाकार विद्वान् हुए, परन्तु स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय, पं. रामचन्द्र जी देहलवी, पं. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक, स्वामी सत्यप्रकाश जी- इन पाँच महापुरुषों के दृष्टान्त, तर्क व प्रमाण अत्यन्त प्रभावशाली, मौलिक व हृदयस्पर्शी होते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने चार बार पूरे भारत का पैदल भ्रमण किया। उनके पास दृष्टान्तों का अटूट भण्डार व जीवन के बहुत अनुभव थे।

आचार्य रामदेव जी, मेहता जैमिनि जी तथा श्री पं. धर्मदेव जी को विश्व साहित्य के असंख्य उद्धरण कण्ठाग्र थे। इन तीनों की उत्तर देने की कला भी बड़ी न्यारी व प्यारी थी। मैं बाल्यकाल में अपने छोटे से ग्राम के आर्यों की परस्पर की चर्चा सुन-सुनकर ग्राम के एक आर्य युवक कार्यकर्ता से पूछा करता था कि आचार्य रामदेव जी की वक्तृत्व कला की क्या विशेषता है? उनका  उत्तर था- उन्हें सब कुछ कण्ठाग्र है। मैं अपने निजी अनुभव से यह बताना चाहूँगा कि मैं सब पूज्य विद्वानों को ध्यान से सुना करता था। उनसे चर्चा किया करता था, फिर चिन्तन करने का अभ्यास हो गया। इससे मेरी भी उत्तर देने की कला विकसित हुई।

स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ ने मेरे आरम्भिक काल में अत्यन्त प्यार से, कुछ डाँटकर कहा कि जो पढ़ो व सुनो, उसपर विचार कर स्वयं उत्तर खोजो, फिर उ उत्तर न सूझे तो आकर पूछा करो। अब इन उतावले युवकों का न गहन अध्ययन है, न बड़ों से कुछ सीखने की भूख है। प्राणायाम की चर्चा सुनकर तथा दो योग शिविरों में भाग लेकर ये सब नौ सिखिये योगाचार्य बनकर ध्यान शिविर लगाने व अपना आश्रम या अड्डा बनाने में लग जाते हैं। यह प्रवृत्ति  धर्मप्रचार में बाधक रोड़ा बन रही है।

 

ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः – १० – स्वामी विष्वङ्

महर्षि पतञ्जलि ने पाँचवें सूत्र से लेकर नौवें सूत्र तक पाँचों क्लेशों की परिभाषाएँ दीं और चौथे सूत्र (अविद्या क्षेत्रमु ारेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्) में क्लेशों की चार अवस्थाएँ बतायीं। उन्हीं चार (सोये हुए, कमजोर हुए, दबे हुए और वर्तमान में रहने वाले की) अवस्थाओं को दो विभागों में बाँटकर महर्षि ने प्रस्तुत सूत्र की चर्चा की है। वे दो भाग स्थूल रूप में और सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं। क्लेशों के स्थूल रूप को हटाने-समाप्त करने के लिए क्रियायोग है। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान के माध्यम से क्लेशों के स्थूल-उग्ररूप को नष्ट किया जाता है। क्लेशों के सूक्ष्मरूपों-कमजोर रूपों को नष्ट करने के लिए जिस प्रसंख्यान रूपी त वज्ञान को अपनाते हुए उन्हें दग्धबीज के समान बनाकर कारण प्रकृति में पहुँचाया जाता है, उसे बताने के लिए प्रस्तुत सूत्र प्रवृ ा हुआ है। सूत्र का अर्थ इस प्रकार है- वे अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश जब क्रियायोग के माध्यम से सूक्ष्म हो जाते हैं, तब उन क्लेशों को जले हुए-भुने हुए बीजों के समान बनाकर कारण प्रकृति-स व, रज और तम में विलीन (प्रलय) कर देना चाहिए, जिससे आत्मा और दृश्य का संयोग न हो। उनके संयोग का न होना ही मोक्ष कहलाता है।
महर्षि वेदव्यास प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं-
ते पञ्च क्लेशा दग्धबीजकल्पा योगिनश्चरिताधिकारे चेतसि प्रलीने सह तेनैवास्तं गच्छन्ति।
अर्थात् योगाभ्यासी तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान रूपी क्रियायोग को अत्यन्त पुरुषार्थ के साथ अपने जीवन में लाता हुआ, उन पाँचों क्लेशों को तनू-कमजोर बना देता है। योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान को अपनाता हुआ लम्बे काल तक, निरन्तर-बिना व्यवधान के ब्रह्मचर्य पूर्वक, विद्यापूर्वक और श्रद्धापूर्वक जीवन में उतारता हुआ घोर पुरुषार्थ से कमजोर हुए क्लेशों को दग्धबीजभाव की ओर ले चलता है। अभिप्राय यह है कि उन क्लेशों को जले हुए-भुने हुए चने के बीजों के समान बना देता है। जिस प्रकार भुने हुए चने अंकुरित होने में असमर्थ होते हैं, उसी प्रकार क्लेश भी पुनः उद्बुद्ध नहीं होते हैं, अर्थात् व्यवहार में नहीं आते हैं। जब पाँचों क्लेश दग्धबीज वाले बन जाते हैं, तब मन समाप्त अधिकार वाला बन जाता है। मन के दो प्रयोजन हैं- एक संसार का भोग कराना और दूसरा अपवर्ग-मोक्ष दिलाना। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करना ही मन का अधिकार-कर् ाव्य है। जैसे ही इन कर् ाव्यों को मन पूरा करता है, तो मन समाप्त कर् ाव्यों वाला बनता है, इस समाप्त कर् ाव्य वाले मन को ही चरिताधिकार मन कहते हैं।
जिस योगी के मन के कर् ाव्य पूर्ण हो चुके हों, ऐसे मन का इस संसार में रहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता, इसलिए क्लेशों को दग्धबीज अवस्थाओं में पहुँचाने वाले योगी का मन योगी से अलग होता है। यहाँ मन मुख्य होने से मन को लेकर चर्चा की जा रही है। यद्यपि मन के साथ-साथ सभी इन्द्रियाँ, सभी तन्मात्राएँ, अहंकार, मह ा व रूपी बुद्धि सहित अठारह त वों का समुदाय रूपी सूक्ष्म शरीर अपने कारण रूपी स व, रज, तम में विलीन हो जाता है। इन अठारह त वों में मन की भूमिका मह वपूर्ण होने से ऋषि ने मन को लेकर कथन किया है कि चरिताधिकार वाला मन अपने कारण रूपी प्रकृति (स व, रज, तम) में विलीन होता है। जब मन अपने कारण में विलीन होता है, तब दग्धबीज वाले क्लेशों की क्या स्थिति होती है? इसका समाधान ऋषि करते हैं- ‘तेनैव सह अस्तं गच्छन्ति।’ अर्थात् उसी मन के साथ-साथ दग्धबीज वाले पाँचों क्लेश भी स व, रज, तम में मिल जाते हैं। यहाँ पर महर्षि वेदव्यास ने दग्धबीज अवस्था वाले क्लेशों (अविद्या) को स व, रज, तम में मिलने की बात की है, अर्थात् अविद्या कारण रूप में प्रकृति में रहती है।
अविद्या कार्य रूप में रहती है, तो मन में रहती है, इस बात को महर्षि वेदव्यास ने स्पष्ट श दों में अनेकत्र कहा है। जैसे ‘ते च मनसि वर्तमानाः पुरुषे व्यपदिश्यन्ते, स हि तत्फलस्य भोक्तेति।’ (योगदर्शन १.२४) ‘तावेतौ भोगापवगौ बुद्धिकृतौ बुद्धावेव वर्तमानौ कथं पुरुषे व्यपदिश्येते….अभिनिवेशा बुद्धौ वर् ामाना पुरुषेऽध्यारोपित सद्भावाः स हि तत्फलस्य भोक्तेति।’ (योगदर्शन २.१८) ‘प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति तमनुपश्यन्नतदात्माऽपि तदात्मक इव प्रत्यवभासते।’ (योगदर्शन २.२०) इन सभी प्रमाणों का एक ही तात्पर्य है कि उत्पन्न होने वाली अविद्या और विद्या- दोनों ही मन में रहती हैं। कोई यह न समझे कि ज्ञान जड़ में कैसे रह सकता है? ज्ञान के जड़ में रहने से कोई भी आप िा नहीं आती है। हाँ, यदि वह जड़ उस ज्ञान को अनुभव करने लगे, तो आप िा आ सकती है, परन्तु जड़ वस्तु अनुभव नहीं कर सकती। क्यों? चेतन न होने से। इसलिए उत्पन्न मात्र पदार्थ चाहे वे द्रव्य के रूप में हों या गुण के रूप में हों, जड़ में ही रहते हैं। आत्मा तो अप्रतिसंक्रमा- न घुलने-मिलने वाला है, इसलिए उत्पन्न मात्र पदार्थ व गुण घुलने-मिलने वाले जड़ पदार्थों में ही रह सकते हैं। विद्या और अविद्या के निवास स्थान जड़ पदार्थ हैं, इसी कारण महर्षि वेदव्यास कहते हैं- कार्यकाल में ये दोनों मन में रहते हैं और कार्यकाल समाप्त होने पर अपने कारण प्रकृति में मिल जाते हैं।
यहाँ पर विद्या और अविद्या का निवास स्थान जड़ को कहने से यह नहीं समझना चाहिए कि विद्या के निवास स्थान चेतन नहीं हो सकते। हाँ, विद्या के निवास स्थान चेतन भी होते हैं, परन्तु वहाँ विद्या उत्पन्न होने वाली नहीं है। परमात्मा में विद्या सदा रहती है और नित्य होने से वह कभी न्यून या अधिक नहीं होती है। ईश्वर का ज्ञान (विद्या) नित्य है, इसलिए घटता और बढ़ता नहीं है। जीवात्मा का अपना स्वाभाविक ज्ञान (विद्या) है और वह भी घटता और बढ़ता नहीं है। हाँ, जो उत्पन्न होने वाली विद्या और अविद्या हैं, वे घटती और बढ़ती हैं, परन्तु यह घटना और बढ़ना मन में होता रहता है, आत्मा में नहीं। इसलिए इस बात को अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि उत्पन्न मात्र पदार्थ और गुणों का आश्रय स्थान जड़ पदार्थ ही होते हैं। इस कारण विद्या और अविद्या और उसके संस्कार जड़ मन में रहते हैं, इस बात को स्वीकार करने में कोई आप िा नहीं होनी चाहिए। यहाँ पर केवल आश्रय के रूप में बताया जा रहा है, इस निवास के कारण जड़, चेतन नहीं बन जाता। अनुभव करने वाला ही चेतन होता है, यही सत्य है।
महर्षि वेदव्यास ने दग्धबीजभाव को प्राप्त हुए क्लेशों को मन के साथ प्रकृति में विलीन होने की बात कही है। क्लेश दग्धबीज अवस्था को कैसे प्राप्त होते हैं, इसकी चर्चा महर्षि ने समाधि पाद में विस्तार से की है, वहीं पर समझने का प्रयास करना चािहए। फिर भी यहाँ संक्षेप से कह देता हूँ- विषय भोगों की यथार्थता को जानने से योगाभ्यासी को विवेक हो जाता है और उस विवेक से वैराग्य उत्पन्न होता है, अर्थात् विषय भोगों से तृष्णा हट जाती है, जिससे योगाभ्यासी का मन पूर्ण एकाग्र हो जाता है, मन की एकाग्रता से समाधि लगती है और उस समाधि से जड़ और चेतन आत्मा का साक्षात्कार होता है। आत्म साक्षात्कार से गुणों के प्रति पूर्ण तृष्णा रहित हो जाने से प्रभु दर्शन हो जाता है। प्रभु दर्शन का अभ्यास क्लेशों को दग्धबीज बना देता है। दग्धबीज हुए क्लेश आत्मा को दुःख नहीं दे सकते, इसलिए आत्मा का प्रयोजन पूरा हो जाता है, प्रयोजन के पूर्ण होने से मन का कार्य समाप्त हो जाता है। फिर चरितार्थ मन अपने कारण में विलीन होता है, तो क्लेश भी मन के साथ-साथ प्रकृति में विलीन हो जाते हैं।
– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

सोमयाग ऋषि दयानन्द प्रतिपादित यज्ञ

शान्तिधाम आर्यजगत् के लिये अब अपरिचित नाम नहीं है। यह इसके संस्थापक अनन्त आर्य के पुरुषार्थ और निष्ठा का परिणाम है। उन्होंने राष्ट्रीय संरक्षित वन प्रदेश के मध्य एक गाँव की निजी भूमि को खोजकर उसे क्रय किया। गाँव के लोग जंगली जानवरों के उत्पात के कारण गाँव छोड़कर बहुत पहले जा चुके थे, बाद के लोगों को पता भी नहीं था कि उनका कोई गाँव और उनकी जमीन भी है। ऐसी भूमि को खोजकर खरीदा और साठ एकड़ भूमि से आधी भूमि पर गुरुकुल की स्थापना की। आज अपने सहयोगियों के साथ श्री सत्यव्रत, श्री राधाकृष्ण आदि के पुरुषार्थ से स्वामी धर्मदेव के मार्गदर्शन में गुरुकुल चल रहा है। गुरुकुल का क्षेत्र कावेरी नदी के तट पर चारों ओर फैली पर्वतमाला के मध्य प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। यहाँ पर सोमयाग का आयोजन गत अनेक वर्षों से निरन्तर हो रहा है। सोमयाग की परम्परा तो बहुत पुरानी है। इस यज्ञ को सम्पन्न करने वाले परिवार आहिताग्नि होते हैं, जो अपने जीवन में दोनों समय यज्ञ करने का संकल्प ले चुके होते हैं। ऐसे लोग केवल पौराणिक परम्परा में ही शेष हैं। सस्वर वेदपाठ और यज्ञीय कर्मकाण्ड परम्परा को इन लोगों ने सुरक्षित रखा है। ये लोग कर्नाटक, महाराष्ट्र में तो अधिक हैं ही, अन्य दक्षिण भारत में भी कहीं-कहीं हैं।

आर्यसमाज में ऋषि दयानन्द ने इनकी चर्चा की है। अग्निहोत्र से अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ करने का विधान भी किया है। ऋषि ने शाहपुराधीश के यहाँ इस प्रकार का यज्ञ कराया है। आज भी शाहपुरा के महल में इस प्रकार की वेदी बनी हुई है। शाहपुरा में एक अन्य भवन में भी इस यज्ञ के तीनों कुण्ड बने हुए हैं, परन्तु आर्यसमाज में इस प्रकार के यज्ञों की कोई परम्परा नहीं चली और आर्यसमाज के लोग इसे पाखण्ड मात्र समझकर इसमें कोई उत्सुकता भी नहीं रखते थे। पं. ब्रह्मदत्त  जिज्ञासु जी अपने यहाँ शतपथ, मीमांसा, तैत्तरीय  संहिता आदि को पढ़ाते हुए अपने शिष्यों को इन यज्ञों को देखने के लिए प्रेरित करते थे। इस परम्परा को पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने आगे बढ़ाया, ऐसे यज्ञ करने वालों से सम्पर्क स्थापित किया और उनके आयोजनों में सम्मिलित होते रहे, जिसके परिणामस्वरूप इनसे पण्डित जी का आत्मीयभाव बढ़ा। सेलूकर जी, श्रौती जी आदि पण्डित जी के मित्रों में सम्मिलित रहे। सेलूकर एक बार अजमेर पधारे, तब सात दिन तक ऋषि उद्यान में रहकर यज्ञशाला में प्रवचन देते रहे। इस प्रकार इस कर्मकाण्ड से आर्यसमाज के विद्वानों का सम्पर्क हुआ और वह सम्पर्क बढ़ता रहा। जहाँ-जहाँ भी इस प्रकार के यज्ञों का आयोजन होता रहता है, वहाँ-वहाँ आर्यसमाज के विद्वान् और छात्रगण उसे देखने जाते रहते हैं। इससे कर्मकाण्ड के ग्रन्थों का पठन-पाठन भी आर्यसमाज के विद्वान् करने लगे हैं। पं. मीमांसक जी ने लिखा है- सबसे पहले पं. सत्यव्रत जी ने श्रौतयज्ञों के परिचय पर पुस्तक लिखी थी। उसके पश्चात् तो मीमांसक जी ने तथा आचार्य विजयपाल जी ने श्रौत यज्ञों को देखकर उनका परिचय विस्तार से लिखा, जो वेदवाणी और पुस्तक रूप में पाठकों को सुलभ है।

शान्तिधाम के यज्ञ करने वालों का परिचय स्वतन्त्र रूप से है। शान्तिधाम के परिचय में बैंगलूर के कृष्ण भट्ट जी आये और उन्होंने सस्वर वेदपाठ के मह व से संस्था संचालकों को अवगत कराया। आयोजकों को लगा कि वेद पढ़ना है तो सस्वर ही क्यों न पढ़ा जाय? संचालकों ने इन परम्परागत वेदपाठियों से अपने छात्रों को वेदपाठ सिखाना प्रारम्भ किया। निकट आने पर इन विद्वानों में से आर्यसमाज के प्रति जो दुर्भाव बना हुआ था, वह कम हुआ।

सस्वर वेदपाठ के शिक्षण के साथ श्रौत यज्ञों की परम्परा भी जाननी चाहिए, इस भावना से शान्तिधाम के संचालकों ने आयोजकों से केरल में बड़े सोमयाग का आयोजन कराया। फिर अनेक स्थानों पर छोटे-बड़े आयोजन संस्था के सहयोग से होते रहे। वर्तमान में पाँच वर्षों से सोमयाग का आयोजन शान्तिधाम में हो रहा है। सारा व्यय यज्ञ करने-कराने वाले उठाते हैं। स्थान, आवास आदि की सुविधा गुरुकुल की ओर से दी जाती है। जो लोग यज्ञ को देखने जाते हैं, उनके भोजन, आवास आदि की व्यवस्था संस्था उदारता से करती है। स्थानीय परम्परा के अनुसार भोजन की विविधता और प्रचुरता अतिथियों को प्रसन्न और सन्तुष्ट करने वाली होती है। इन श्रौत यागों के आयोजन में एक और बात ध्यान देने योग्य है। ये यज्ञ कुछ लोग हिंसा करके करते हैं, कुछ लोग बिना हिंसा के करते हैं। शान्तिधाम के आयोजन में हिंसा नहीं थी, वे हिंसा की क्रियायें प्रतीकों से सम्पन्न करते हैं। वायवीय पशुयाग में आज्य पशु, अर्थात् एक पात्र में घी भर के उसे ही पशु मान लेते हैं, उसी की आहुति देते हैं। इसी प्रकार श्येनयाग के आयोजन में चिति निर्माण करते हुए, कछुआ तो जीवित रखा था। कहते हैं- वह अपने-आप नीचे निकल जाता है। एक मेढ़क को एक कुशा के थैले में डाल कर उसे वेदी पर घुमाया गया, परन्तु बाद में उसे छोड़ दिया गया। वेदी निर्माण करते हुए मनुष्य का, गाय का, बकरी का, घोड़े का, भेड़ का सिर-ये सब खिलौने के बने हुए थे, जिन्हें वेदी के अन्दर दबाया गया। दूध के लिए गाय और बकरी भी प्रतीक के रूप में बाँधी गईं। दूध तो बोतल में लाकर ही वेदी की अग्नि में डाला जाता था।

इस यज्ञ में जो विशेष आयोजन संस्था की ओर से किया गया था, वह था सोमयाग विषय पर गोष्ठी। इसमें अनेक स्थानीय विद्वानों के साथ आर्यसमाज के विद्वान् और सान्दीपनी वेद विद्या प्रतिष्ठान के सचिव डॉ. रूपकिशोर शास्त्री भी उपस्थित थे, जो गोष्ठी के अध्यक्ष थे। डॉ. रूपकिशोर जी के पुरुषार्थ से सस्वर वेद पाठशालाओं की एक लम्बी शृंखला स्थापित हो चुकी है, विशेष रूप से पौराणिक पाठशालाओं में कन्याओं को वेद सिखाने की परम्परा आपकी ऐतिहासिक उपल        िध है। आपने अपनी प्रेरणा और दूसरों के सहयोग से आर्य संस्थाओं में भी बालकों के साथ बलिकाओं के सस्वर वेद सीखने की व्यवस्था कराई, यह वेद की सेवा का अच्छा उदाहरण है। इस गोष्ठी में आचार्य सनत्कुमार जी अपनी शिष्य मण्डली के साथ उपस्थित थे। आपने दृश्य उपकरणों से सोमयाग का परिचय और उसके वास्तविक स्वरूप पर प्रकाश डाला। इसके अतिरिक्त दो विश्वविद्यालयों के कुलपति तथा अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक भी इस गोष्ठी में उपस्थित थे, जिन्होंने अपने शोधपूर्ण विचार गोष्ठी में प्रस्तुत किये, जिन्हें श्रोताओं ने बड़ी रुचि से सुना। इनमें मीमांसा मर्मज्ञ वासुदेव पराञ्जपे भी थे। इस यज्ञ और गोष्ठी के अवसर पर एक विचार सामने आया, जिससे ऐसा लगने लगा कि कुछ लोग समझते हैं, वेद को सस्वर पढ़ना ही शुद्धता की कसौटी है, बिना स्वर के वेद पढ़ना अशुद्ध है। इसी तर्क के आधार पर यह भी कहा गया कि जैसे वेद बिना स्वर के पढ़ना गलती है, वैसे ही कर्मकाण्ड की रीति को छोड़कर यज्ञ करना भी अशुद्ध है। यह विचार घातक है और ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के कार्यों को व्यर्थ करने वाला है। हमें प्रथम यह समझना चाहिए कि वेद है किसके लिए? वेद परमेश्वर का ज्ञान है, वेद मनुष्य मात्र के लिये है। यदि आप मनुष्य को वेद से दूर करते हैं तो आपका विधि-विधान वेद के प्रयोजन को सिद्ध नहीं करता, अतः ग्राह्य नहीं है। हमें समझना चाहिए कि वेद और यज्ञ में एक सतत सम्बन्ध है। दूसरे शब्दों  में वेद सिद्धान्त है, ज्ञान है तो यज्ञ कर्म है। यज्ञ वेद का ज्ञानपूर्वक किया गया कर्म होने से यज्ञ वेद का व्यावहारिक या प्रायोगिक रूप है। वेद में ज्ञान या विज्ञान है तो विज्ञानपूर्वक यज्ञ किया जा सकता है, परन्तु सामान्य व्यक्ति के लिए भी तो वेद है, सामान्य व्यक्ति के लिये भी यज्ञ है, फिर उसको कैसे वञ्चित कर सकते हैं? पराम्परागत कर्मकाण्ड जहाँ लाखों रुपये व्यय करके बड़े-बड़े वेदज्ञों, वेदपाठियों द्वारा सम्पन्न किया जाता है तो सामान्य जनता के लिये क्या होगा? यज्ञ तो जनता के लिये कहा गया है। यह ठीक है कि कोई पढ़कर विशेषज्ञ, विद्वान् बनता है, परन्तु कोई कम पढ़कर सामान्य भी रहता है। जैसे पढ़ने का विशेषज्ञता से अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है, उसी प्रकार वेद और यज्ञ के भी सामान्य-विशेष दोनों से सम्बन्ध हैं।

पौराणिक परम्परा को ही ठीक और अन्तिम नहीं माना जा सकता। इन यज्ञों में हिंसा का विधान करके इनको भी तो विकृत किया गया है। ऋषि दयानन्द ने इस एकाधिकार को ही तो तोड़ा है। सब वेद सस्वर नहीं पढ़ सकते, परन्तु जो सस्वर पढ़ते हैं, वे भी तो अर्थज्ञान से रहित होने के कारण अधूरे हैं। केवल सस्वर वेद पढ़कर कर्मकाण्ड करने से तो वेद का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। स्वर और कर्मकाण्ड अर्थज्ञान में सहायक हैं, इसलिए स्वीकार्य हैं। अर्थज्ञान के बिना स्वर और कर्मकाण्ड का कितना मह                    व रह जायेगा, ऋषि दयानन्द ने इसी अर्थ के पक्ष को ही हमारे सामने रखा है। उन्होंने मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने और यज्ञ करने का अधिकार दिया है तो वह वेद वैसा ही तो पढ़ेगा, जैसा उसे आता है, यज्ञ भी उतना ही कर पायेगा, जितनी उसे जानकारी है। उसकी जानकारी कम है, केवल इसिलिये उसे उसके अधिकार से वञ्चित नहीं किया जा सकता। अधिक जानेगा तो अधिक लाभ उठा सकेगा, कम जानेगा तो कम लाभ ले पायेगा। स्वामी दयानन्द संस्कार विधि के सामान्य प्रकरण में यज्ञ की विधि बताते हुए निर्देश करते हैं कि ‘‘सब संस्कारों में मधुर स्वर से मन्त्रोच्चारण यजमान ही करे। न शीघ्र, न विलम्ब से उच्चारण करें, किन्तु मध्य भाग जैसा कि जिस वेद का उच्चारण है, करें। यदि यजमान पढ़ा हो तो इतने मन्त्र तो अवश्य पढ़ लेवे। यदि कोई कार्यक    र्ाा जड़, मन्दमति, काला अक्षर भैंस बराबर जानता हो, तो वह शूद्र है, अर्थात् शूद्र मन्त्रोच्चारण में असमर्थ हो, तो पुरोहित और ऋत्विज मन्त्रोच्चारण करें और कर्म उसी मूढ़ यजमान के हाथ से करावें।’’ क्या इस ऋषि वाक्य को सस्वर वेद पाठ और कर्मकाण्ड के सामने मिथ्या कर देंगे? ऋषि दयानन्द कन्याओं को वेद पढ़ाने का आग्रह करते हैं, इतना ही नहीं, ऋषि दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदाध्ययन के अधिकार की चर्चा करते हुए सबको, मनुष्य मात्र स्त्री-पुरुषों को वेद पढ़ने का अधिकार प्रतिपादित करते हैं और यथेमां मन्त्र की व्याख्या में मनुष्य को अपने परिवार के लोगों के साथ अपने घर के सेवक और मजदूर को भी वेद पढ़ाने का निर्देश देते हैं। क्या ऐसी परिस्थिति में नौकर सस्वर वेद पढ़ेंगे या विधिपूर्वक यज्ञ करेंगे? वे जैसा जानते हैं, वैसा ही तो कर पायेंगे।

स्वामी दयानन्द का निर्देश वेद से है, अतः बाकी शास्त्र या परम्परा उसके सामने गौण है। वेद का आदेश स्वतः प्रमाण है। क्या ऋषि दयानन्द व्यवस्था देने के अधिकारी नहीं हैं? ऋषि दयानन्द से किसी आचार्य का मन्तव्य मेल नहीं खाता या विरोधी लगता है तो उसे विरोध न समझकर मत भिन्नता भी तो समझा जा सकता है। फिर इन यज्ञों के देखने या सस्वर वेद पढ़ने से आर्य समाज में चल रही परम्परा को अशुद्ध क्यों मानना चाहिए? जहाँ सस्वर वेदपाठ हमारा उत्कर्ष है, वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग ऋषि दयानन्द को दिये अधिकार के द्वारा प्रशस्त किया गया है, अतः इस भ्रम की कोई सम्भावना नहीं है कि आर्यसमाज की यज्ञ परम्परा या वेदपाठ अशुद्ध या अग्राह्य है। कर्मकाण्ड भी वेद को समझने के लिये ही हैं। पूरे शतपथ ब्राह्मण में मन्त्रों के माध्यम से यज्ञ की क्रियाओं को मन्त्रों के साथ जोड़कर अभिप्राय को समझाया जा रहा है। मन्त्र, उसका अर्थ, यज्ञ की क्रिया में मन्त्रार्थ की संगति, मन्त्र के अर्थ और यज्ञ की क्रिया का जगत् में चल रहे निरन्तर यज्ञ से उसकी समानता बताना यज्ञ का उद्देश्य है। इस बात को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में मन्त्रों का विनियोग किया है। महर्षि दयानन्द ने यज्ञ में कर्मकाण्ड के साथ वेद मन्त्रों का विनियोग करते हुए यज्ञ से परमेश्वर की उपासना का होना कहा है। इस प्रकार महर्षि दयानन्द का यज्ञ विधान अधिक वैदिक व उत्कृष्ट है।

मनु महाराज ने वेद को समस्त धर्म का मूल कहा है। जिसका भी धर्म से सम्बन्ध है, उसका वेद से सीधा सम्बन्ध है। वेद के प्रकाश में मनुष्य कार्य कर सकता है। जैसे सूर्य के प्रकाश के बिना मनुष्य कार्य करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार वेदरूपी ज्ञान चक्षुओं के बिना मनुष्य उचित-अनुचित का विवेक करने में असमर्थ रहा है। मध्य काल में समाज के एक वर्ग ने लोगों के ज्ञान चक्षुओं को छीन कर समाज को गहरे अन्धकार में धकेल दिया था, ऋषि दयानन्द ने उस अन्धे समाज को वेद रूपी ज्ञान चक्षु पुनः प्रदान किये। किसी भी प्रकार से इस अधिकार को क्षति पहुँचाना वेद विरोधी कार्य होगा, चाहे वह वेद के नाम पर ही क्यों न किया गया हो। हमें मनु के इन शब्दों  को सदा स्मरण रखना चाहिए-

पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्।

अशक्यञ्चाप्रमेयञ्च वेदशास्त्रमिति स्थितिः।।

– धर्मवीर

इस्लाम में नारी

इस्लामिक साहित्य में स्त्रीयों के प्रति मानसिकता को प्रदर्शित करते कुछ उदाहरण :

अत्याचार करने और कष्ट देने की सूची में औरत सदैव ऊपर रही है . ( इसका अनुमान आधुनिक युग में भी लगाया जा सकता है ) क्योंकि हजरत अली के कथनानुसार औरत की खस्लत (प्रवृत्ति , स्वाभाव) में अत्याचार करना, कष्ट देना और लड़ाई और झगड़े को पैदा करना ही होता है . नहजुल बलागा  में है :-

………. वास्तव में जानवरों के जीवन का उद्देश्य पेट भरना है फाड़ खाने वाले जंगली जानवरों के जीवन का उद्देश्य दूसरों पर हमला करके चीरना फाड़ना है और औरतों का उद्देश दुनिया की जिन्दगी का बनाव सिंगार और लड़ाई झगड़े पैदा करना होता है . मोमिन वह हैं जो घमण्ड से दूर रहते हैं . मोमिन वह हैं जो महरबान हैं मोमिन वह हैं जो खुदा से डरते हैं .

जहाँ हजरत अली ने औरत को लड़ाई झगडा फ़ैलाने और  पैदा करने वाला बताया है वहीं रसूल ए  खुदा ने इर्शाद फरमाया :
‘ औरतें शैतानों की रस्सियाँ हैं “

अर्थात औरतें कल अक्ल (मंद बुद्धि नाकिसुल अक्ल ) होने के कारण शैतान के कब्जे (चंगुल ) में शीघ्र आ जाती हैं और शैतान उस मंद बुद्धि औरत के हाथों दुनिया में लड़ाई झगडा (दंगा फसाद ) फैलाने  (अर्थात खुदा के बन्दों पर अत्याचार करने ) का काम लेता है और हजरत अली के विचारानुसार मर्द वह होता है जो औरत के लड़ाई झगड़े फ़ैलाने के बावजूद भी खुदा से डरता रहता है और औरत जैसी कमजोर जाति पर मजबूत होने की वजह से अत्याचार  नहीं करता और न ही कष्ट देता है .

बहरहाल हज़रत अली ने औरत को जहाँ लड़ाई झगडा फैलाने वाला बताया है वहीं पुरी तरह से (सरापा) आफत (मुसीबत ) ही बताया है

“औरत सरापा (पूरी तरह से ) आफत (मुसीबत ) हैं और इससे ज्यादा आफत यह है की उसके बिना कोई चारा नहीं (अर्थान गुजारा नहीं )

अर्थात औरत के साथ होने आया न होने …….. दोनों हालातों में मर्द के लिए मुसीबत ही मुसीबत है . शायद इसी लिए मर्द इस पुरी तरह से मुसीबत औरत को अपने गले से लगा लेता है . ताकि मुसीबत के साथ साथ शरीर से चिमटने और लिपटने पर स्वाद और आनन्द भी मिलता रहे . हजरत अली ने इर्शाद फरमाया :

“औरत एक बिच्छु है लिपट जाते तो (उसके जहर में ) स्वाद है “

लेकिन जी तरह बिच्छु अपनी आदत के अनुसार  डंक मारे बिना नहीं रह सकता . उसी तरह औरत भी लड़ाई झगडा फैलाये बिना नहीं रह सकती अर्थात (कुछ को छोड़कर  अधिकतर ) औरत की खस्लत में अत्याचार करना , ढोंग मचाना कष्ट देना और शत्रुता फैलाना इत्तियादी कूट कूट कर भरा होता है . ऐसी ही औरतों के लिएय रसूल ए खुदा ने इर्शाद फ़रमाया
“ जो औरतें अपने पति को दुनिया में तकलीफ पहुँचती हैं हरें उससे कहती हैं तुझ पर खुदा की मार अपने पति को कष्ट न पहुंचा यह मर्द तेरे लिए नहीं ही तू इसले लायक नहीं , वह शीग्र ही तुझ से जुदा होकर हमारी तरफ आ जायेगा .
अर्थात अपने पति को कष्ट देने वाली औरत स्वर्ग नहीं पहुँच सकती

इस्लाम और सेक्स डॉ. मोहम्मद तकी अली आबिदी (स्वर्ण पदक )

क्या कहें ! बस यही कह सकते हैं कि भगवान्  ऐसे लोगों को सद्बुद्धि दें .

स्तुता मया वरदा वेदमाता-११

येन देवा न वियन्ति नो च विद्वषते मिथः।

तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः।।

अथर्व. ३.३०.४

मन्त्र में घर के बढ़ाने की बात है। यहाँ इसके लिए ब्रह्म शब्द  कर प्रयोग किया गया है। ब्रह्म शब्द ईश्वर का भी वाचक है, क्योंकि वह सबसे बड़ा है। इसी प्रकार ज्ञान को भी ब्रह्म कहा जाता है। जो ज्ञान में सबसे बढ़कर है, उसे ब्रह्मा कहा गया है। इसी कारण संसार के प्रारम्भ में जो सबसे ज्ञानी पुरुष हुआ, उसका भी नाम ब्रह्मा है। इसके लिए उपनिषद् में कहा गया है, ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव। देवताओं में प्रथम ब्रह्मा हुआ। आज भी यज्ञ आदि कर्मों में जो अधिक जानकार होता है, उसे ही हम अपना मार्गदर्शक चुनते हैं। उसे ब्रह्मा बनाते हैं।

मन्त्र में घर को भी बड़ा बनाने की बात की गई है। मन्त्र कहता है- मैं तुम्हारे घर को बड़ा बनाना चाहता हूँ। घर बड़ा होता है, समृद्धि से। घर को समृद्ध करने का उपाय इस मन्त्र में बताया गया है। उपाय क्या हो सकता है? उपाय है संज्ञानम्। संज्ञान का शास्त्रीय अर्थ ज्ञान है, चेतना है। हम इसे सामान्य भाषा में कहें तो समझ कह सकते हैं। घर को बड़ा बनाने के लिए, सम्पन्न या समृद्ध बनाने के लिए घर में रहने वाले सदस्यों को समझदार बनना होगा। सभी सदस्य समझदार होंगे, तभी घर परिवार समृद्ध होगा। घर में सबका समझदार होना आवश्यक है। एक भी नासमझ व्यक्ति घर की व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके रख देता है। घर में सबकी समझदारी से ही व्यवस्था बनी रह सकती है। आजकल समझदार का अर्थ चालाक या स्वार्थी भी हो जाता है। लोग कहते हैं- यह व्यक्ति बड़ा समझदार है, उसे अपना काम बनाना आता है। ऐसे शब्द श्रेष्ठ अर्थ को नहीं देते, इसलिये दुनियादार, समझदार, व्यावहारिक आदि शब्द सदा उचित और श्रेष्ठ अर्थ में ही प्रयोग में नहीं आते, परन्तु वेद में इस समझदारी की कसौटी भी दी है। वेद कहता है- समझदार देव होते हैं। मनुष्यों को समझदार बनने के लिए देवों के गुण अपने में धारण करने होंगे। देवों का देवत्व जिन गुणों से आता है, उसे देवों के कर्म से समझा जा सकता है। देवों का एक पर्यायवाची शब्द है- अनिमेष। ऐसा माना जाता है कि देवता लोग कभी पलक नहीं झपकाते। क्यों नहीं झपकाते, इसे समझाने के लिये पुराण में कथा आती है। देवताओं ने और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया। जो पहले मिला वह असुरों ने लिया, जो बाद में मिला वह देवताओं ने लिया। पहले मिलने वाली वस्तुओं में विष था, जिसे बाँटने के लिए कोई तैयार ही नहीं था, जो शिव के कण्ठ का अलंकरण बन गया। अन्त में अमृत का कलश निकला, जिस पर देवताओं ने अधिकार कर लिया। इसी अमृत के कारण देवता अमरता को प्राप्त हुए। असुर इस अमृत को पाने के लिए सतत संघर्षरत हैं, इस कारण देवताओं को अमृत की रक्षा के लिए सतत् जागना पड़ता है। वे इतने सावधान हैं कि पलक भी नहीं झपकाते। पलक झपकने की असावधानी भी उनसे अमृत कलश के छीने जाने का कारण बन सकती है। देवताओं के पास अमृत ही नहीं रहा तो देवत्व कैसे रहेगा? संस्कार विधि में बालक की दीर्घायु की कामना करते हुए जो मन्त्र पढ़े गये हैं, उनमें एक मन्त्र में कहा गया है- देवताओं की दीर्घायु का कारण अमृत है। उनके पास अमृत है, इसलिए वे दीर्घजीवी हैं- देवा आयुष्मन्तः ते अमृतेनायुष्मन्तः। अतः देव दीर्घजीवी अमृत से हैं। इसका अभिप्राय है कि जो मनुष्य समृद्ध होना चाहता है, उसे सावधान रहना होगा। सावधानी हटते ही दुर्घटना घटती है।

विवाह संस्कार में सप्तपदी कराते हुए चौथे कदम को मयोभवाय चतुष्पदी भव कहा है। यहाँ यह तो कह दिया, परन्तु कोई वस्तु नहीं बताई। अन्न के लिये पहला कदम, बल के लिये दूसरा, समृद्धि के लिये तीसरा, वैसे ही सुख के लिए चौथा। अब समझने की बात है कि समृद्धि के लिये जब तीसरा कदम कह दिया था तो चौथा कदम सुख के लिये कहने की क्या आवश्यकता थी? इससे पहले अन्न, बल और धन प्राप्त करने की बात कह चुका है, फिर पृथक् से सुख के लिये प्रयास करने की आवश्यकता कहाँ पड़ती है? परन्तु पृथक् कहने का अभिप्राय है, इन सब साधनों के होने के बाद भी घर-परिवार में सुख हो, यह आवश्यक नहीं है। भौतिक साधनों का अभाव कष्ट देता है, परन्तु वे मुख्य रूप से शरीर तक ही सीमित रहते हैं। उन कष्टों के रहते हुए भी मनुष्य सुखी रह सकता है, परन्तु साधनों के रहते सुख का होना आवश्यक नहीं। सुख मानसिक परिस्थिति है, जबकि सुविधा शारीरिक वस्तु के अभाव में शारीरिक श्रम बढ़ जाता है, इतना ही है। सुख पाने के लिए मनुष्य के मन में देवत्व के भाव जगाना आवश्यक है, अतः मन्त्र में देवत्व के बाधक भावों को दूर करने के लिए कहा गया है।

 

Where stones run- Science & Quran

Where stones run- amazing facts of Quran

Muslim proclaims that Islam is full of science. Various attempts are made to link various scientific theories to various verses of Quran and the Hadiths. But when we read the Quran and Hadith, actuality is quite different. Let’s have a look on one verse of Quran.

O Believers, be not as those who hurt Moses, then God showed him quit of what they said, and he was high honored with God.

Sura Ahzab, 33:69, Tafseer E Usmani Vol -3 Page no 1865

This verse is related to the following hadiths  in Sahih Bukhari:

Narrated by Abu Huraira
The Prophet said, ‘The (people of) Bani Israel used to take bath naked (all together) looking at each other. The Prophet Moses used to take a bath alone. They said, ‘By Allah! Nothing prevents Moses from taking a bath with us except that he has a scrotal hernia.’So once Moses went out to take a bath and put his clothes over a stone and then that stone ran away with his clothes.

Moses followed that stone saying, “My clothes, O stone! My clothes, O stone! till the people of Bani Israel saw him and said, ‘By Allah, Moses has got no defect in his body.

Moses took his clothes and began to beat the stone.”

Abu Huraira added, “By Allah! There are still six or seven marks present on the stone from that excessive beating.” Narrated Abu Huraira: The Prophet said, “When the Prophet Job (Aiyub) was taking a bath naked, golden locusts began to fall on him. Job started collecting them in his clothes. His Lord addressed him, ‘O Job! Haven’t I given you enough so that you are not in need of them.’ Job replied, ‘Yes!’ By Your Honor (power)! But I cannot dispense with Your Blessings.’ “

Sahih Al-Bukhari

Volume 1, Book 5, Number 277:Page no 169-170

Narrated Abu Huraira:

Allah’s Apostle said, “(The Prophet) Moses was a shy person and used to cover his body completely because of his extensive shyness. One of the children of Israel hurt him by saying, ‘He covers his body in this way only because of some defect in his skin, either leprosy or scrotal hernia, or he has some other defect.’

Allah wished to clear Moses of what they said about him, so one day while Moses was in seclusion, he took off his clothes and put them on a stone and started taking a bath. When he had finished the bath, he moved towards his clothes so as to take them, but

the stone took his clothes and fled; Moses picked up his stick and ran after the stone saying, ‘O stone! Give me my garment!’ Till he reached a group of Bani Israel who saw him naked then, and found him the best of what Allah had created, and Allah cleared him of what they had accused him of.

The stone stopped there and Moses took and put his garment on and started hitting the stone with his stick. By Allah, the stone still has some traces of the hitting, three, four or five marks. THIS IS WAS WHAT ALLAH REFERS TO IN HIS SAYING:– “O you who believe! Be you not like those Who annoyed Moses, But Allah proved his innocence of that which they alleged, And he was honorable In Allah’s Sight.” (33.69)

Sahih Al-Bukhari

Volume 4, Book 55, Number 616:page-407

Allama Shabbir Ahmad Usami writes in “Tafseer E Usmani” that “The pursit of the stone in a naked state was due to intense helplessness, and perhaps Hazrat Moosa would have not thought that the stone would halt in a crowded place. As for the movement of the stone , it was just an extra ordinary action against the natural laws. However this story tells us that what a great management is done by God ………….”

By going thru the views of Tafseer E Usmani it is clear that Muslim scholars believe that these hadiths are authentic.

Following comments highlighted above are to be noted:

  1. Stone ran away with his clothes.
  2. Moses followed that stone saying, “My clothes, O stone! My clothes, O stone!
  3. The stone stopped there and Moses took and put his garment on and started hitting the stone with his stick
  4. The stone still has some traces of the hitting, three, four or five marks.

 

What to say on these stories….. Readers can themselves decide what type of science is there in running of Stone, conversation of Moses with stone, Punishing of Stone by Moses and the amazing way of Allah to clear the doubt of people of Israel.

नमाज पढना नाजायज है : डॉ. गुलाम जिलानी बर्क , पाकिस्तान

कहते हैं की पेशानी तोल जिस्म का सोलहवाँ हिस्सा होती है . इन्सान का कद औसतन ४६ इंच होता है  और इसकी पेशानी चार इंच बाकी हैवानत  में भी तकरीबन यही  पाई जाती है .

महरीन  सालासाल तहकीकात व तलाश के बाद ये यह  ऐलान किया है कि जमीन का महीत ५२ हजार मील है यानी अगर हम ५२ हजार मील लम्बा धागा तैयार कर के जमीन के और गरु    लपेट दें तो वह बिलकुल पूरा आ जायेगा . सूरज जमीन से १२ लाख अस्सी हजार गुना बड़ा है और इसका महीत बत्तीस अरब पचास करोड़ मील है .

 

इब्ने अम्र हजूर से रिवायत करते हैं  कि  “सूरज निकलते और डूबते वकत नमाज नहीं पढ़ा करो इसलिए कि सूरज बवक्त  शैतान के दो सींगों में होता है “

बुखारी जिल्द २ १४४

सूरज की मोटाई साढ़े बत्तीस  अरब मील है . अगर इतनी बड़ी चीज शैतान दो सींगों में समा जाती है और हम अरज कर चुके हैं पेशानी तोल जिस्म का सोलहवाँ हिस्सा होती है . तो शैतान के जिस्म की लम्बाई पांच ख़रब बीस अरब मील होनी चाहिए और चौड़ाई भी इसी नस्बत से इतना बड़ा शैतान खड़ा कहाँ होता होगा ? जमीन से सूरज नौ करोड़ पैंतीस लाख मील दूर है और शैतान की लम्बाई सवा पांच ख़रब मील.  अगर शैतान को जमीन पर खड़ा किया जाए तो सूरज इसके टखनों से भी नीचे रह जाता है . इसे शैतान के सींगों तक पहुँचने का क्या इंतजाम  किया जाता है और इतना बड़ा शैतान जमीन में समाता कैसे है.

यह साबित हो चूका है कि जमीन तकरीबन गोल है जमीन के किसी न किसी हिस्से पर हर वकत सूरज  तलुह होता रहता है यानी औकात मसल्सल  महोसफ़र रहते हैं कलकत्ता की सुबह चन्द लम्हों के बाद बनारस पहुँचती है फिर दिल्ली फिर वही लाहोर फिर पेशावर फिर काबुल.. जिसका मतलब यह हुआ कि सूरज हर वकत शैतान के सींगों के दरमयान रहता है

चोंकिये इसी हालत में नमाज नाजायज है इसलिए मुसलमानों को नमाज बिलकुल तरक कर देनी चाहिए.

 

 

डॉ. गुलाम जिलानी बर्क , पाकिस्तान

मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था शिवदेव आर्य -कार्यकारी सम्पादक,      गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

वर्णाश्रम व्यवस्था वैदिक समाज को संगठित करने का अमूल्य रत्न है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने समाज को सुसंगठित, सुव्यवस्थित बनाने तथा व्यक्ति के जीवन को संयमित, नियमित एवं गतिशील बनाने के लिए चार वर्णों एवं चार आश्रमों का निर्माण किया। वर्णाश्रम विभाग मनुष्य मात्र के लिए है, और कोई भी वर्णी अनाश्रमी नहीं रह सकता। यह वर्णाश्रम का अटल नियम है।

भारतीय शास्त्रों में व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याणपरक कर्मों का अपूर्व समन्वय दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक वर्ण के सामाजिक कर्तव्य अलग-अलग रूप में निर्धारित किए हुए हैं। वर्णाश्रम धर्म है। प्रत्येक वर्ण के प्रत्येक आश्रम में भिन्न-भिन्न कर्तव्याकर्तव्य वर्णित किये हुए हैं।

भारतीय संस्कृति का मूलाधार है अध्यात्मवाद। अध्यात्मवाद के परिपे्रक्ष्य में जीवन का चरम लक्ष्य है मोक्ष। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार लक्ष्य भारतीय जीवन की धरोहर रूप होते हैं । हिन्दू धर्म के अन्तर्गत आने वाले सभी धर्मों ने उपदेश रूप में अपना लक्ष्य मोक्ष को ही रखा है। यद्यपि उसे अलग-अलग नाम दिये गये हैं। जैसे बौध्द, जैन इसे निर्वाण कहते हैं। शैव तथा वैष्णव को मोक्ष कहते हैं। उद्देश्य और आदर्श सभी के एक हैं। सभी धर्मों ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए समाज की क्रियाओं को एक मार्ग प्रदान किया है। इस हेतु व्यवस्था की गई वर्ण धर्म और आश्रम धर्म की। दोनों का अत्यन्त गूढ़ संबंध होने से इन दोनों को समाज-शास्त्रियों ने एकनाम दिया-वर्णाश्रमधर्म।

प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। जिस प्रकार से सिर, हाथ, पैर, उदर आदि विभिन्न अंगों से शरीर बना है और ये सब अंग पूरे शरीर की रक्षा के लिए निरन्तर सचेष्ट रहते हैं उसी प्रकार आर्यों ने पूरी सृष्टि को, सब प्रकार के जड़-चेतन पदार्थों को उनके गुण१ कर्म और स्वभाव के अनुसार उन्हें चार भाग या चार वर्णों में विभक्त कर दिया गया।

संसार संरचना के बाद इस प्रकार की व्यवस्था से गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार मानव समाज की चार मुख्य आवश्यकताएॅं मान ली गईं- बौध्दिक, शारीरिक, आर्थिक और सेवात्मक। आरम्भ में अवश्य ही मानव जाति असभ्य रही होगी जिससे कुछ में आवश्यकतानुसार स्वतः बौध्दिक चेतना जागृत हुई होगी। उन्होंने बौध्दिकता परक कार्य पढ़ना-पढ़ाना आदि अपनाया होगा, जिससे उन्हें  ब्राह्मण कहा गया। फिर धीरे-धीरे सभ्यता का विस्तार होने से सुरक्षा, भोजन, धन सेवा आदि की आवश्यकता अनुभव होने पर तदनुसार अपने गुण-स्वभाव के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उसी मानवजाति से बने होगें।

मनोवैज्ञानिक सिध्दान्त के अन्तर्गत यह मान्यता स्वीकार की गई है कि मन के मुख्य तीन कार्य हैं, जिसमें से कोई एक प्रत्येक जाति के अन्दर मुख्य भूमिका का निर्वाह करता है। द्विजत्व तीन वर्गों में आते हैं ज्ञान प्रधान व्यक्ति, क्रिया प्रधान व्यक्ति, और इच्छा प्रधान व्यक्ति। इन तीनों से अतिरिक्त एक चैथे प्रकार का व्यक्तित्व भी होता है जो अकुशल या अल्पकुशल श्रमिक कहा जा सकता है।

वैदिककाल से ही समाज में चार वर्गों का उत्पन्न होना स्पष्ट है। इसका संकेत पुरुष सूक्त के प्रसिध्द मन्त्र से मिलता है।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत।।२

पदार्थः- हे जिज्ञासु लोगो! तुम (अस्य) इस ईश्वर की सृष्टि में (ब्राह्मणः) वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक वा उपासक (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम ब्राह्मण (आसीत्) है (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त (राजन्यः) राजपूत (कृतः) किया (यत्) जो (ऊरू) जांघों के तुल्य वेगादि काम करनेवाला (तत्) वह (अस्य) इसका (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश करनेहारा वैश्य है (पद्भ्याम्) सेवा और अभिमान रहित होने से (शूद्रः) मूर्खपन आदि गुणों से युक्त शूद्र (अजायत्) उत्पन्न हुआ, ये उत्तर क्रम से जानो।३

भावार्थः-जो मनुष्य विद्या और शमदमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम हो वे ब्राह्मण, जो अधिक पराक्रमवाले भुजा के तुल्य काय्र्यों को सिध्द करनेहारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहारविद्या में प्रवीण हों वे वैश्य और जो सेवा में प्रवीण, विद्याहीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणों से युक्त हैं वे शूद्र करने और मानने चाहियें।४

उपनिषद् आदि में तो स्पष्ट रूप से वर्ण व्यवस्था की परिपाटी चल पड़ी थी। जैसे ऐतरेय ब्राह्मणग्रन्थ में ब्राह्मणों का सोम भोजन कहा है और क्षत्रियों का न्यग्रोध, वृक्ष के तन्तुओं, उदुम्बर, अश्वत्थ एवं लक्ष के फलों को कूटकर उनके रस को पीना पड़ता था। लेकिन आनुवंशिक होने से भोजन एवं विवाह संबंधी पृथक्त्व उत्पन्न होने का निश्चित रूप से कुछ पता नहीं चलता । धर्मसूत्रों में स्पष्ट रूप से चारों वर्णों का अलग-अलग होना स्पष्ट हो गया था।

वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं अपितु कर्म से मानी गयी है। निम्नलिखित आख्यान इसकी यथार्थता को स्पष्ट करता है। ‘जाबाला का पुत्र सत्यकाम अपनी माता के पास जाकर बोला, हे माता! मैं ब्रह्मचारी बनना चाहता हूॅं। मैं किस वंश का हूॅं। माता ने उत्तर दिया कि हे मेरे पुत्र! सत्यकाम! मैं अपनी युवावस्था में जब मुझे दासी के रूप में बहुत अधिक बाहर आना-जाना होता था तो मेरे गर्भ में तू आया था। इसलिए मैं नही जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है। तू सत्यकाम है। तू कह सकता है कि मैं सत्यकाम जाबाल हूॅं।

हरिद्रुमत् के पुत्र गौतम के पास जाकर उसने कहा भगवन्! मैं आपका ब्रह्मचारी बनना चाहता हूॅं। क्या मैं आपके यहाॅं आ सकता हूॅं ? उसने सत्यकाम से कहा हे मेरे बन्धु! तू किस वंश का है? उसने कहा भगवन् मैं नहीं जानता किस वंश का हूॅं। मैंने अपनी माता से पूछा था और उसने यह उत्तर दिया था कि ‘मैं अपनी युवावस्था में जब दासी का काम करते समय मुझे बहुत बाहर आना-जाना होता था तो तू गर्भ में आया। मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है और तू सत्यकाम है।’ इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूॅं।

गौतम ने सत्यकाम से कहा एक सच्चे ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य कोई इतना स्पष्टवादी नहीं हो सकता । जा और समिधा ले आ। मैं तुझे दीक्षा दूॅंगा। तू सत्य के मार्ग से च्युत नहीं हुआ है।५

वैदिक काल में वर्णव्यवस्था (आज के सदर्भ में) थी अथवा नहीं यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी यह निश्चित है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के मन्त्र ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्…६से प्रतीति होती है कि अंगगुण के कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी। शरीर में मुख का स्थान श्रेष्ठ है जो कि बौध्दिक कर्मों को ही मुख्य रूप से घोषित करता है। अतः ब्राह्मण उपदेश कार्य, समाजोेत्थान आदि के कार्यों को करने वाले हुए । बाहुओं का काम रक्षा करना गौरव, विजय एवं शक्ति संबन्धी कार्य करना है। अतः क्षत्रियों का बाहुओं से उत्पन्न होना कहा है। उदर का कार्य शरीर को शक्ति देना, भोजन को प्राप्त करना है। अतः उदर से उत्पन्न वैश्यों को व्यापारिक कार्य करने वाला कहा गया है। पैरों का गुण आज्ञानुकरण है। अत पैरों से उद्धृत शूद्रों का कार्य श्रम है। जिस गुण के अनुसार व्यक्ति कर्म करता है वही उसका वर्ण आधार होता है। अन्यथा एक गुण दूसरे गुणों में मिल जाता है और कर्म भी इसी प्रकार बदल जाता है। अतः वर्ण भी बदला हुआ माना जाता है, यही गुण कर्म का आधार होता है।

ब्राह्मण कर्म-वर्णव्यवस्था

मनु महाराज जी ब्राह्मणों के लिए कर्तव्यों का नियमन करते हुए लिखते है कि-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।७

अर्थात् अध्ययन करना-कराना, यज्ञ करना- कराना तथा दान लेना तथा देना ये छः कर्म प्रमुख रूप से ब्राह्मणों के लिए उपदिष्ट किये गये हैं।

यहाॅं अध्ययन से तात्पर्य अक्षरज्ञान से लेकर वेदज्ञान तक है।

ब्राह्मणों के कर्म के विषय में गीता में इस प्रकार कहा गया है-

क्षमो दमस्तपः शौचं क्षान्ति….८

क्षमा   मन से भी किसी बुरी प्रवृत्ति की इच्छा न करना।

दम    सभी इन्द्रियों को अधर्म मार्ग में जाने से रोकना।

तप    सदा ब्रह्मचारी व जितेन्द्रिय होकर धर्मानुष्ठान करते रहना चाहिए।

शौच  शरीर, वस्त्र, घर, मन, बुध्दि और आत्मा को शुध्द, पवित्र तथा निर्विकार रहना चाहिए।

शान्ति  निन्दा, स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ, शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा, मान-अपमान, हर्ष-शोक का विचार न करके शान्ति पूर्वक धर्मपथ पर ही दृढ़ रहना चाहिए।

आर्जवम्  कोमलता, सरलता व निरभिमानता को ग्रहण करना तथा कुटिलता व वक्रता को छोड़ देना।

ज्ञान          सभी वेदों को सम्पूर्ण अÂों सहित पढ़कर सत्यासत्य का विवेक जागृत करना।

विज्ञान तृण से लेकर ब्रह्म पर्यन्त सब पदार्थों की विशेषता को यथावत् जानना और उनसे यथा योग्य उपयोग लेना।

आस्तिकता वेद, ईश्वर, मुक्ति, पुर्नजन्म, धर्म, विद्या, माता-पिता, आचार्य व अतिथि पर विश्वास रखना, उनकी सेवा को न छोड़ना और इनकी कभी भी निन्दा न करना।

गीता के इन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए महाभाष्यकार९ कहते है कि-

ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडÂो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च१॰

अर्थात् ब्राह्मण के द्वारा बिना किसी कारण के ही यह धर्म अवश्य पालनीय है कि चारों वेदों को उनके अगों११ तथा उपांगो१२ आदि सहित पढ़ना चाहिए और भली-भाॅति जानना चाहिए। और जो इन कर्मों को नहीं करता है, उसके लिए मनु महाराज कहते हैं कि –

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशुगच्छति सान्वयः।।१३

अर्थात् जो ब्राह्मण वेद न पढ़कर अन्य कर्मों में श्रम करता है, वह अपने जीते जी शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। इसलिए ब्राह्मणों को अपने वर्णित कर्मों को अवश्य ही करना चाहिए।

क्षत्रिय कर्म-वर्णव्यवस्था

वर्ण विभाजन क्रम में द्वितीय स्थान क्षत्रिय का है। क्षत्रिय की भुजा से उत्पत्ति से तात्पर्य, क्षत्रिय को समाज का रक्षक कहने से है। जिस प्रकार से भुजाएॅं शरीर की रक्षा करती है उसी प्रकार क्षत्रिय भी समाज की रक्षा करने वाला होता है। समाज जब बृहत् रूप धारण करता है तो वहाॅं कुछ दुष्ट, अत्याचारी भी हो जाते हैं, जिनका दमन आवश्यक होता है। अतः समाज के लिए यह आवश्यकता हुई कि कुछ व्यक्ति ऐसे हों, जो  दुष्ट, दमनकारी प्रवृत्ति के लोगों से समाज की रक्षा करना अपना पवित्र कर्तव्य समझें।

मनु महाराज क्षत्रिय के कर्म लक्षण करते हुए लिखते हैं – अपनी प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, विषयों में अनासक्त रहना।

वैश्य कर्म-वर्णव्यवस्था

जिस प्रकार से जंघाएॅं मनुष्य के शरीर का सम्पूर्ण भार वहन करती हैं उसी प्रकार समाज के भरण-पोषण आदि सम्पूर्ण कार्य वैश्य को करने होते हैं। समाज के आर्थिक तन्त्र का सम्पूर्ण विधान वैश्य के हाथ सौंपा गया । पशुपालन, समाज का भरण पोषण, कृषि, वाणिज्य, व्यापार के द्वारा प्राप्त धन को समाज के पोषण में लगा देना वैश्य का कर्तव्य है। धन का अर्जन अपने लिए नहीं प्रत्युत ब्राह्मण आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए होना चाहिए। जैसे- हे ज्ञानी, ब्राह्मण नेता! जिस प्रकार अश्व को खाने के लिए घास-चारा दिया जाता है, उसी प्रकार हम नित्यप्रति ही तेरा पालन करते हैं। प्रतिकूल होकर हम कभी दुखी न हों। तात्पर्य यह है कि धन के मद से मस्त होकर जो पूज्य ब्राह्मणों को तिरस्कार करते हैं, वे समाज में अधोपतन की ओर अग्रसरित होते चले जाते हैं।

शूद्र कर्म-वर्णव्यवस्था

समाज की सेवा का सम्पूर्ण भार  शूद्रों पर रखा गया है। सेवा कार्य के कारण शूद्र को नीच नहीं समझा जाता है, अपितु जो लोग पहले तीन वर्णों के काम करने में अयोग्य होते हैं अथवा निपुणता नहीं रखते हैं, वे लोग शूद्र वर्ण के होकर सेवा कार्य का काम करते हैं। पुरुष सूक्त के रूपक से यह बात बहुत स्पष्ट होती है कि उपर्युक्त चारों वर्णों का समाज में अपना-अपना महत्व है और उनमें कोई ऊॅंच-नीच का भाव नहीं होता।

युजर्वेद में तपसे शूद्रम्’१४ कहकर श्रम के कार्य के लिए शूद्र को नियुक्त करो, यह आदेश दिया गया है। इसी अध्याय में कर्मार नाम से कारीगर, मणिकार नाम से जौहरी, हिरण्यकार नाम से सुनार, रजयिता नाम से रंगरेज, तक्षा नाम से शिल्पी, वप नाम से नाई, अपस्ताप नाम से लौहार, अजिनसन्ध नाम से चमार, परिवेष्टा नाम से परोसने वाले रसोइये का वर्णन है।

मनु महाराज कहते हैं कि यदि ब्राह्मण की सेवा से शूद्र का पेट न भरे तो उसे चाहिए कि क्षत्रिय की सेवा करे, उससे भी यदि काम न चले तो किसी धनी वैश्य की सेवा से अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए।

प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति अलग-अलग होती है और उस वह अपनी विशिष्ट मनोवृत्तियों के आधार पर रहने, खाने आदि में प्रवृत्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि वर्ण विभाग चार व्यवसाय ही नहीं अपितु ये मनुष्य की चार मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां हैं। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक को मोक्ष की ओर जाना है। और यह वर्ण व्यवस्था मनुष्य को सामूहिक रूप से शरीर से मोक्ष की तरफ ले जाने का सिध्दान्त है। वर्णव्यवस्था में कार्यानुसार श्रमविभाग तो आ सकता है, लेकिन यदि केवल श्रम विभाग की बात की जाय तो उसमें वर्ण व्यवस्था नहीं आ सकती है। आज का श्रम विभाग मनुष्य की शारीरिक और आर्थिक आवश्यकताएॅं तो पूरी करता है लेकिन आत्मिक, पारमात्मिक आवश्यकता नहीं। जबकि वर्ण व्यवस्था का आधार ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रहा है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति ने चारों प्रवृत्तियों के व्यक्तियों के लिए यह निर्देश किया था कि वे अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज को चलाने में सहयोग करें, समाज की सेवा करें। ब्राह्मण ज्ञान से, क्षत्रिय क्रिया से, वैश्य अन्नादि की पूर्ति करके और शूद्र शारीरिक सेवा से। यह उनका कर्तव्य निश्चित किया गया है। कर्तव्य से यह तात्पर्य नहीं होता है कि मनुष्य कार्य करने के बदले अपनी शारीरिक पूर्ति कर ले। कर्तव्य भावना जब व्यक्ति के अन्दर आ जाती है तब वह समर्पित भावना से कार्य करता है। इससे समाज में यदि कोई व्यक्ति अधिक  धन संपत्ति से युक्त हो भी जाए तो उसके मत में राज्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती।

भारतीय संस्कृति की यह अमूल्य विरासत केवल मात्र एक व्यवस्था ही नहीं है अपितु एक कर्म है, जिस कर्म से कोई नहीं बच सकता है तभी चारों प्रकार के कर्मों को करते हुए मनुष्य अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा।

आदि काल से लेकर आज तक मात्र भारतीय संस्कृति ही अपनी कुछ-कुछ अक्षुण्णता बनाए है, जबकि इस बीच कितनी ही संस्कृतियाॅं आयी और सभी-की-सभी धराशायी होती चली गई। वर्णव्यवस्था की परम्परा हमारे भारतवर्ष में पूर्णरूप से समाप्त नहीं हुई है यदि आज तथाकथित जातियों का समापन करके गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया जाये तो निश्चित ही सामाजिक विसंगतियों का शमन (नाश) हो सकेगा और भारतीय संस्कृति की पताका पुनः अपनी श्रेष्ठ पदवी को प्राप्त कर सकेगी तथा कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’१५  व वसुधैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति चरितार्थ हो सकेगी।

किसी कवि की पंक्तिएॅं यहाॅं सम्यक्तया चरितार्थ होती दिखायी देती हैं-

ऋषि ने कहा वर्ण शारीरिक,

बौध्दिक क्षमता के प्रतिरूप।

गुणकर्माश्रित वर्णव्यवस्था,

है ऋषियों की देन अनूप।।

बौध्दिक बल द्विजत्व का सूचक,

भौतिक बल है क्षात्र प्र्रतीक।

धन बल वैश्यवृत्ति का पोषक,

क्षम बल शूद्र धर्म निर्भीक।।

चारों वर्ण समान रहे हैं,

छोटा बड़ा न कोई एक।

चारों अपने गुण-विवेक से,

करते धरती का अभिषेक।।१६

सन्दर्भ-सूची:-

१. सत्व,रज एवं तम।

२. यजुर्वेद-३१/११।

३. स्वामी दयानन्द यजुर्वेद भाष्य से उद्धृत।

४. स्वामी दयानन्द यजुर्वेद भाष्य से उद्धृत।

५. छान्दोग्य.-४/४।

६. यजु.-३१/११।

७. मनुस्मृति-१/८८।

८. गीता-१८/४२।

९. पत´जलि

१॰. महाभाष्य. पा.।

११. शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष्।

१२. न्याय, सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा और वेदान्त।

१३. मनुस्मृति-३/१६८।

१४. यजुर्वेद-३॰/५।

१५. ऋग्वेद-९/६३/५।

१६. अद्यतन हिन्द कविताएॅं, उ.सं.वि.विद्यालय प्रकाशन,  हरिद्वार।

-कार्यकारी सम्पादक,

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

स्तुता मया वरदा वेदमाता-१०

मन्त्र में एक वाक्य आया है- वाचं वदतं भद्रया-वाणी सभी बोलते हैं, वाणी के प्रयोग दोनों हो सकते हैं। हानि के, लाभ के, मृदु के, कठोर के, सत्य के, असत्य के। कोयल की भाँति सभी की वाणी मीठी होती, सब एक-दूसरे के साथ मधुर वाणी का व्यवहार करते तो किसी को यह कहने की आवश्यकता ही नहीं होती कि मधुर वाणी बोलनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो अच्छा नहीं होता, क्योंकि तब मेरा कोई अधिकार ही नहीं होता, मुझे मेरी इच्छा का प्रयोग करने का अवसर ही नहीं मिलता, विवेक की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। कोई दूसरे से अलग नहीं होता, कोई किसी से अच्छा तो किसी से बुरा भी नहीं होता। इस परिस्थिति में मेरे होने का अर्थ ही क्या होता? मेरी सत्ता  मेरे अधिकार से प्रकट होती है, मेरा अधिकार मेरे अस्तित्व का प्रकाशक है।

जितना मुझे अच्छा करने का अधिकार है, उतना ही मुझे बुरा करने का अधिकार भी है। उसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता, इसी कारण उनके फल को भी मुझसे कोई अलग नहीं कर सकता। यही कारण है कि मुझे मेरे कर्म का फल मिलता है, क्योंकि वे मेरे हैं, चाहे वे अच्छे हैं, चाहे वे बुरे। इसीलिए उपदेश देने की आवश्यकता पड़ती है। उपदेश से मेरे विवेक पर प्रभाव पड़ता है, मैं अपने विचार को बदल सकता हूँ। इसी प्रक्रिया को संकल्प- विकल्प कहा गया है। जब मनुष्य सोचता है कि मैं यह करूँगा तो मुझे लाभ होगा। मैं सोचता हूँ- मैं ऐसा करूँगा तो मेरी हानि होगी, मैं ऐसा नहीं करूँगा। यह मेरी दशा, मेरे निर्णय की भूमिका है। मैं निश्चय कर लेता हूँ, तब वह मेरा निर्णय होता है, उसका फल अच्छा या बुरा मेरा ही होता है।

वाणी भी मेरी है, मैं इसका अच्छा या बुरा कैसा भी उपयोग कर सकता हूँ। जब अच्छा उपयोग करता हूँ तो मुझे अच्छा फल मिलता है, बुरा उपयोग करता हूँ तो बुरा फल मिलता है। मुझे मेरी वाणी के अच्छे-बुरे का ज्ञान होना चाहिए। वेद कहता है- लाभ के लिए, पुण्य के लिये भद्र वाणी का प्रयोग करना चाहिए। भद्र का अर्थ शरीर के लिए, वर्तमान में लाभप्रद और मन, बुद्धि, आत्मा के लिए शान्तिप्रद होना है। यदि ऐसा नहीं तो केवल मधुर वाणी से भी कार्य चल सकता था। हम समझते हैं कि मीठा बोलना ही पर्याप्त है पर केवल मीठा नहीं, वह परिणाम में भी लाभप्रद होना चाहिए। इस मन्त्र भाग में बोलने वालों के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है, अर्थात् परिवार में सभी सदस्यों को एक-दूसरे के साथ कल्याण कारिणी वाणी का प्रयोग करना चाहिए। वाणी का प्रभाव ही व्यवहार को प्रभावित करता है। मनुष्य आदर से बोलता है तो उसे प्रत्युत्तर  में अनुकूल ही उत्तर  प्राप्त होता है। यदि कठोरता से, असभ्यता से बोलता है तो निकटस्थ व्यक्ति भी अपमान का अनुभव करता है।

वाणी के सम्बन्ध में महाभारत में एक शिक्षाप्रद प्रसंग आया है। युधिष्ठिर युद्ध भूमि में घायल होकर शिविर में चिकित्सा के लिये उपस्थित हुए हैं। अर्जुन को बड़े भाई के घायल होने का समाचार मिलता है, वह तत्काल युद्ध छोड़ भाई को देखने शिविर में पहुँचता है। युधिष्ठिर ने पूछा- क्या युद्ध जीत लिया? अर्जुन ने कहा- नहीं। युधिष्ठिर ने अर्जुन के गाण्डिव को धिक्कार कह दिया। अर्जुन को क्रोध आया, उसने अपने बड़े भाई को मारने के लिए तलवार उठा ली। अर्जुन ने कहा- मेरी प्रतिज्ञा है कि जो गाण्डिव को धिक्कारेगा, उसके प्राण हरण करूँगा। श्री कृष्ण ने समझाया- मारना केवल तलवार से नहीं होता, बड़े भाई को ‘तू’ कह दे तो भी वह मर जायेगा। अर्जुन ने कह तो दिया, परन्तु फिर सोचने लगा कि उसने बड़े भाई का अपमान किया है। उसने कहा- अब इस अपराध के लिए मैं मरूँगा। श्री कृष्ण ने कहा- क्यों मरते हो? मरना भी कई प्रकार का होता है। मनुष्य के लिए आत्म-प्रशंसा भी मरने के समान है, तुम अपनी प्रशंसा स्वयं करो, मर जाओगे। मनुष्य वाणी से ही मरता है और वाणी से जीवन पाता है, अतः वेद ने कल्याणकारिणी वाणी के प्रयोग करने का आदेश दिया है।